अब मैं समझ गई हूं- भाग 1: रिमू का परिवार इतना अंधविश्वासी क्यों था

आज हमारे विवाह की 5वीं वर्षगांठ थी. वैवाहिक जीवन के ये 10 वर्ष मेरे लिए किसी चुनौती से कम न थे क्योंकि इन सालों में अपने वैवाहिक जीवन को सफल बनाने के लिए मैं ने कसर नहीं छोड़ी थी. खुशी इस बात की भी थी कि मैं अपनी पत्नी को भी अपने रंग में ढालने में सफल हो गया था.

इन चंद वर्षों में मैं यह भी सम?ा गया था कि बचपन में बच्चों को दिए गए संस्कारों को बदलना कितना मुशकिल होता है. आप को बता दूं कि रिमू यानी मेरी पत्नी रीमा मेरी बचपन की मित्र थी. उस से विवाह होना मेरे लिए बहुत बड़ी खुशी की बात थी. जिस से आप प्यार करते हो उसी को अपनी पत्नी के रूप में प्राप्त करना जीवन की बहुत बड़ी उपलब्धि तो कहा ही जा सकता है.

रीमा मेरा पहला प्यार थी. जब हम एकदूसरे को टूट कर चाहने लगे थे तब हमें स्वयं ही पता नहीं था कि हमारे प्यार का भविष्य क्या होगा परंतु फिर भी चांदनी रात के दूधिया उजाले में एकदूसरे का हाथ थामे हम दोनों घंटों बैठे रहते थे. रीमा की कोयल स्वरूप मधुर वाणी से ?ारते हुए शब्दरूपी फूलों जैसी उस की बातें मेरा मन मोह  लेती थीं.

तब मैं ग्रेजुएशन कर रहा था, जब रीमा का परिवार हमारे पड़ोस में रहने आया था. उस का घर मेरे घर से 10 कदम की दूरी पर ही था. उस दिन मैं जब कालेज से लौटा तो अपने घर से कुछ दूरी पर सामान से लदा ट्रक खड़ा देख कर चौंक गया था. तेज कदमों से अंदर जा कर मां से पूछा, ‘‘मां, यह सामान किस का है? कौन आया है रहने?’’

‘‘मु?ो क्या पता किस का है? तू भी फालतू की बातों में अपना दिमाग खराब मत कर, खाना तैयार है चुपचाप खा ले.’’

कह कर मां अपने काम में व्यस्त हो गई. पर मेरा मन तो न जाने क्यों उस ट्रक में ही उल?ा था. सो, मैं अपने कमरे की खिड़की से ?ांकने लगा. तभी वहां एक कार आ कर रुकी और उस में से पतिपत्नी और 2 बेटियां उतरी थीं. बड़ी बेटी लगभग 20 और छोटी 15 वर्ष की रही होगी.

गोरीचिट्टी, लंबी उस कमसिन नवयुवती को देख कर मैं ने मन ही मन कहा, ‘लगता है कुदरत ने इसे बड़ी ही फुरसत में बनाया है. क्या बला की खूबसूरती पाई है.’

उस के बारे में सोच कर ही मेरा मन सौसौ फुट ऊपर की छलांग लगाने लगा था. उस के बाद तो मेरा युवामन न पढ़ने में लगता और न ही अन्य किसी काम में. खैर, जिंदगी तो जीनी ही थी. अब मैं अकसर अपने कमरे की उस खिड़की पर बैठने लगा था, बस, उस की एक ?ालक पाने के लिए. कभी तो ?ालक मिल जाती थी पर कभी पूरे दिन में एक बार भी नहीं.

लगभग एक माह बाद जब मैं अपने कालेज की लाइब्रेरी से बाहर आ रहा था तो अचानक लाइब्रेरी के अंदर आते उसे देखा.  बस, लगा मानो जीवन सफल हो गया. सहसा अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ. एक बार फिर उसे घूर कर देखा और आश्वस्त होते ही मैं ने वापस अपने कदम लाइब्रेरी की ओर मोड़ दिए थे. अंदर जा कर उस की बगल की सीट पर बैठ गया था. कुछ देर तक अगलबगल ?ांकने के बाद मैं ने अपना हाथ उस की ओर बढ़ा दिया था.

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‘‘हैलो, माईसैल्फ अमन जैन, स्टूडैंट औफ बीएससी थर्ड ईयर.’’

‘‘हैलो, आई एम रीमा गुप्ता, स्टूडैंट औफ बीएस फर्स्ट ईयर. अभी कल ही मेरा एडमिशन हुआ है.’’

उस ने मु?ो अपना परिचय देते सकुचाते हुए कहा था, ‘‘पापा के ट्रांसफर के कारण मेरा एडमिशन कुछ लेट हुआ है. क्या आप नोट्स वगैरह बनाने में मेरी कुछ मदद कर देंगे?’’

‘‘व्हाई नौट, एनीटाइम. वैसे मेरा घर तुम्हारे घर के नजदीक ही है,’’ मैं ने दो कदम आगे रह कर कहा था और इस तरह हमारी प्रथम मुलाकात हुई थी.

नोट्स के आदानप्रदान के साथ ही हम कब एकदूसरे को दिल दे बैठे थे, हमें ही पता नहीं चला था. ग्रेजुएशन के बाद मैं राज्य प्रशासनिक सेवा की तैयारी करने लगा था और वह पोस्ट ग्रेजुएशन की. उस से मिलना तपती धूप में एसी की ठंडी हवा का एहसास कराता था.

2 वर्ष की कड़ी मेहनत के बाद मेरा चयन जिला खाद्य अधिकारी के पद के लिए हो गया था. जिस दिन मु?ो अपने चयन की सूचना मिली, मैं बहुत खुश था और शाम का इंतजार था क्योंकि हम दोनों पास के पार्क में लगभग रोज ही मिलते थे.

उस दिन भी मैं नियत समय पर पहुंच गया था. पर आज मेरी रिमू नहीं आई थी. लगभग एक घंटे तक इंतजार करने के बाद मैं मायूस हो उठा और वापस जाने के लिए कदम बढ़ाए ही थे कि अचानक सामने से मु?ो वह आती दिखाई दी.

‘‘अरे आज इतनी लेट क्यों? और यह मेरा गुलाब मुर?ाया हुआ क्यों है?’’ मेरे इतना कहते ही वह मु?ा से लिपट गई थी.

‘‘अमन, हम अब इतने आगे आ गए हैं कि अब तुम्हारे बिना जीना मुश्किल है. मेरे घर वाले शादी की बातें कर रहे हैं. क्या तुम मु?ो अपनाओगे?’’ रिमू ने बिना किसी लागलपेट के मेरे सामने शादी का प्रस्ताव रख दिया था और मैं हतप्रभ सा उसे देखता ही रह गया था.

‘‘हांहां, क्यों नहीं, मैं कब तुम्हारे बिना रह पाऊंगा,’’ कह कर मैं ने उसे अपने सीने से लगा लिया था.

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उस के बाद मेरा सर्विस जौइन करना और रिमू के पापा का ट्रांसफर पास के ही शहर में होना, सबकुछ इतनी जल्दी में हुआ कि कुछ सोचनेविचारने का समय ही नहीं मिला. मैं और रिमू फोन के माध्यम से एकदूसरे से टच में अवश्य थे. मैं ने भी अपनी पत्नी के रूप में सिर्फ रिमू की ही कल्पना की थी.

नौकरी जौइन करने के बाद जब पहली बार मैं घर आया तो मां ने मेरे विवाह की बात की. मैं अपनी मां से प्रारंभ से ही प्रत्येक बात शेयर करता रहा था, सो मां से अपने दिल की बात कह डाली.

‘‘मां, मैं और किसी से विवाह नहीं कर पाऊंगा और जो भी करूंगा आप की अनुमति से ही करूंगा.’’

‘‘कौन लोग हैं वे और क्या करते हैं. किस जाति और धर्म के हैं?’’ मां ने कुछ अनमने से स्वर में पूछा था.

अपने अपने रास्ते- भाग 2: क्या विवेक औऱ सविता की दोबारा शादी हुई?

एक दिन ऐसा भी आया जब दोनों में सभी दूरियां मिट गईं. सविता की औरत को एक मर्द की और विवेक के मर्द को एक औरत की जरूरत थी. अपने प्रौढ़ावस्था के पुराने खयालों के पति की तुलना में विवेक बतरा स्वाभाविक रूप से ताजादम और जोशीला था, दूसरी ओर विवेक बतरा के लिए कम उम्र की लड़कियों के मुकाबले एक अनुभवी औरत से सैक्स नया अनुभव था.

एक रोज सहवास के दौरान विवेक बतरा ने कहा, ‘‘मुझ से शादी करोगी?’’

इस सवाल पर सविता सोच में पड़ गई. विवेक उस से काफी छोटा था. उस को हमउम्र या छोटी उम्र की लड़कियां आसानी से मिल जाएंगी. अपने से उम्र में इतनी बड़ी महिला से वह क्या पाएगा?

‘‘क्या सोचने लगीं?’’ सविता को बाहुपाश में कसते हुए विवेक ने कहा.

‘‘कुछ नहीं, जरा तुम्हारे प्रस्ताव पर विचार कर रही थी. मैं तुम से उम्र में बड़ी हूं. तलाकशुदा हूं. एक किशोर लड़की की मां हूं. तुम्हें तुम्हारी उम्र की लड़की आसानी से मिल जाएगी.’’

‘‘मैं ने सब सोच लिया है.’’

‘‘फिर भी फैसला लेने से पहले सोचना चाहती हूं.’’

इस के बाद विवेक और सविता काफी ज्यादा करीब आ गए. दोनों में व्यावसायिक संबंध काफी प्रगाढ़ हो गए. विवेक अन्य फर्मों को आयातनिर्यात के आर्डर देने से कतराने लगा, उस की कोशिश थी कि ज्यादा से ज्यादा काम सविता की कंपनी को मिले.

सविता भी उसे पूरी तरजीह देने लगी. उस ने अपने दफ्तर में विवेक के बैठने के लिए एक केबिन बनवा दिया जो उस के केबिन से सटा हुआ था. धीरेधीरे अनेक ग्राहकों को, जो पहले सविता के ग्राहक थे, विवेक अपने केबिन में बुला कर हैंडल करने लगा. आफिस स्टाफ को भी विवेक अधिकार के साथ आदेश देने लगा. मालकिन या मैडम का खास होने के कारण सभी कर्मचारी न चाहते हुए भी उस का आदेश मानने लगे.

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अभी तक विवेक, सविता से हर आर्डर पर कमीशन लेता था. सविता ने उस को कभी अपने व्यापार का हिसाबकिताब नहीं दिखाया था. मगर वह कभी कंप्यूटर से और कभी लेजर बुक्स से भी व्यापार के हिसाबकिताब पर नजर रखने लगा.

अभी तक विवेक फर्म का प्रतिनिधि और एजेंट ही था. उस को किसी सौदे या डील को फाइनल करने का अधिकार न था. ऐसा करने के लिए या तो वह फर्म का पार्टनर बनता या फिर उस के पास सविता का दिया अधिकारपत्र होता मगर एकदम से उस को यह सब हासिल नहीं हो सकता था. जो भी था आखिर वह एक एजेंट भर था, जबकि सविता फर्म की मालकिन थी.

वह एकदम से सविता से पावर औफ अटौर्नी देने को या पार्टनर बनाने को नहीं कह सकता था इसलिए वह अब फिर से सविता से विवाह के लिए कहने लगा था.

‘‘शादी किए बिना भी हम इतने करीब हैं फिर शादी की औपचारिकता की क्या जरूरत है?’’ सविता ने हंस कर कहा.

‘‘मैं चाहता हूं कि आप मेरी होममिनिस्टर कहलाएं. आप जैसी इतनी कामयाब और हसीन खातून का खादिम बनना समाज में बड़ी इज्जत की बात है,’’ विवेक ने सिर नवा कर कहा.

इस पर सविता खिलखिला कर हंस पड़ी. आखिर कोई स्त्री अपने रूपयौवन की प्रशंसा सुन कर खुश ही होती है. उस शाम विवेक उसे एक फाइवस्टार होटल के रेस्तरां में खाना खिलाने ले गया. वहीं एक ज्वैलरी शोरूम से हीरेजडि़त एक ब्रेसलेट ले कर भेंट किया तो सविता और भी अधिक खुश हो गई.

उस शाम यह तय हुआ कि सविता 3 दिन के बाद अपना पक्का फैसला सुनाएगी.

इन 3 दिनों के बीच में किसी विदेशी फर्म को एक सौदे के लिए भारत आना था जिसे अभी तक सविता खुद ही हैंडल करती आई थी. विवेक भी इस फर्म के प्रतिनिधि के रूप में सविता के साथ उस फर्म के प्रतिनिधि से मिलना चाहता था.

इस बार का सौदा काफी बड़ा था. दोपहर को सविता के दफ्तर में मिस रोज, जो एक अंगरेज महिला थी, ने सविता और विवेक से बातचीत की. सौदा सफल रहा. विवेक ने भी अपने वाक्चातुर्य का भरपूर उपयोग किया. मिस रोज भी विवेक के व्यक्तित्व से खासी प्रभावित हुई.

फिर कांट्रैक्ट साइन हुआ. सविता कंपनी की मालकिन थी. अत: साइन उसी को करने थे. विवेक खामोशी से सब देखता रहा था.

मिस रोज विदा होने लगी तो सविता ने उस को सौदा फाइनल होने की खुशी में रात के खाने पर एक फाइवस्टार होटल के रेस्तरां में आमंत्रित किया. मिस रोज ने खुशीखुशी आना स्वीकार किया.

उस शाम सविता ने आफिस जल्दी बंद कर दिया. फ्लैट पर नहा कर अपनी ब्यूटीशियन के यहां गई. नए अंदाज में मेकअप करवाने के बाद अब सविता और भी दिलकश लग रही थी.

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ब्यूटीपार्लर से निकल कर सविता अपने लवर के पास गई. आज विवेक को उसे अपना पक्का फैसला सुनाना था. ज्वैलर्स के यहां से विवेक को देने के लिए उस ने एक महंगी हीरेजडि़त अंगूठी खरीदी.

मिस रोज ठीक समय पर आ गई. वह नए स्टाइल के स्कर्ट, टौप में थी. उस ने हाईहील के महंगे सैंडिल पहने थे. गहरे रंग के स्कर्र्ट व टौप उस के सफेद दूधिया शरीर पर काफी फब रहे थे.

विवेक बतरा भी गहरे रंग के नए फैशन के इवनिंग सूट में था. अपने गोरे रंग और लंबे कद के कारण वह ‘शहजादा गुलफाम’ लग रहा था.

छोटी छोटी खुशियां- भाग 3: शादी के बाद प्रताप की स्थिति क्यों बदल गई?

Writer- वीरेंद्र सिंह

सुधा की जबान अभी भी कैंची की तरह चल रही थी, ‘‘सुन रहे हो न?’’ सुधा की कर्कश आवाज सुनते ही प्रताप की सोच टूटी. सुधा कह रही थी, ‘‘सुबह उठते ही किचन में घुस जाती हूं. तुम्हारे लिए चायनाश्ता और खाना बनाती हूं. एक दिन रसोई में जाओ तो पता चले. इस गरमी में खाने के साथ खुद सुलगते हुए तुम्हारे लिए रोटियां सेंकती हूं. इतना करने पर भी एहसान मानने के बजाय तुम…’’

प्रताप सिर झुकाए किसी तरह एकएक कौर मुंह में ठूंस रहा था. सुधा की बातों से प्रताप समझ गया था कि अभी तो यह शुरुआत है. पिछली रात भैयाभाभी आए थे. उन्होंने जो बातें की थीं, अभी तो वह मुद्दा पूरी उग्रता के साथ सामने आएगा. कोई बड़ा झगड़ा करने की शुरुआत सुधा छोटी बात से करती थी. उस के बाद मुख्य मुद्दे पर आती थी. प्रताप सुधा की लगभग हर आदत से परिचित हो चुका था.

‘‘और सुनो…’’ दाहिना हाथ आगे बढ़ा कर उंगली प्रताप की आंखों के सामने कर के सुधा तीखे स्वर में बोली, ‘‘मुझ से पूछे बगैर किसी को एक भी पैसा दिया तो मुझ से बुरा कोई न होगा. मुझ से हंस कर बातें करने में तो तुम्हारी नानी मरती है. कल भैयाभाभी आए थे तो किस तरह उछलउछल कर बातें कर रहे थे. मैं भी अनाज खाती हूं, घास नहीं खाती. सबकुछ अच्छी तरह समझती हूं मैं. मकान की मरम्मत करवानी है, इसलिए भिखारियों की तरह पैसा मांगने चले आए थे,’’ भैया ने जो बात कही थी, सुधा ने उस का ताना मारा, ‘‘80 हजार रुपए की जरूरत है. अपने स्टाफ कोऔपरेटिव से लोन दिला दो, तो बड़ी मेहरबानी होगी. हजार रुपए महीने दे कर धीरेधीरे अदा कर दूंगा.’’

फिर एक लंबी सांस ले कर आगे सुधा बोली, ‘‘कान खोल कर सुन लो, किसी को एक भी रुपया नहीं देना है. अपने भैया को फोन कर के बता दो कि स्टाफ सोसायटी में बात की थी. वहां से अभी लोन नहीं मिल सकता. गोलमोल जवाब देने के बजाय सीधे इनकार कर दो.’’

बड़े भाई के लिए सुधा ने जो बातें कही थीं, सुन कर प्रताप के बाएं हाथ की मुट्ठी कसती जा रही थी. दाहिने हाथ से वह खाना खा रहा था. उस ने कोई जवाब नहीं दिया तो सुधा ऊंची आवाज में बोली, ‘‘सुन रहे हो न तुम? फैक्टरी में फोन कर के साफसाफ मना कर देना,’’ फिर प्रताप की आंखों में आंखें डाल कर धमकीभरे स्वर में बोली, ‘‘यदि यह काम तुम न कर सको तो बोलो, मैं फोन कर के मना कर दूं.’’

मुंह का कौर प्रताप के गले में फंस गया. उसे उतारने के लिए उस ने पानी पिया. वाशबेसिन पर जा कर हाथ धोए और नैपकिन ले कर पोंछने लगा. इतना कहतेकहते जैसे सुधा थक गई थी, इसलिए वह डाइनिंग टेबल के पास पड़ी कुरसी पर बैठ गई.

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प्रताप मोजेजूते पहनने लगा. सुधा जलती नजरों से उसे ताक रही थी. प्रताप खाना खा रहा होता तो झगड़ा करने में शायद सुधा को कुछ अधिक ही मजा आता था. शुरूशुरू में दोचार बार ऐसा हुआ था तो वह थाली छोड़ कर खड़ा हो गया था. परंतु सुधा पर इस का कोई असर नहीं पड़ा था. पति ने खाना नहीं खाया है, इस बात का उस के लिए कोई महत्त्व नहीं था. धीरेधीरे प्रताप भी ढीठ हो गया था. वह खा रहा हो और सामने खड़ी सुधा कितना भी चीख रही हो, उस पर कोई असर नहीं होता था. वह चुपचाप बैठा खाता रहता था.

प्रताप जूते पहन कर खड़ा हुआ तो सुधा उस के पास आ कर चीखी, ‘‘एक बार फिर कह रही हूं, फोन कर के पैसे के लिए मना कर देना. यदि तुम ने मना नहीं किया, मैं किस तरह मना करूंगी, यह तुम अच्छी तरह जानते हो.’’

प्रताप का मन हुआ कि चटाकचटाक कई तमाचे उस के गोरेगोरे गालों पर जड़ दे. परंतु अगले ही क्षण उस की यह इच्छा म्यान में तलवार की तरह समा गई. 6-7 महीने पहले की घटना याद आ गई. एक छोटी सी बात पर सुधा बड़े भाई के घर पहुंच गई थी. वहां उस ने ऐसा बवाल मचाया था कि पूरा महल्ला इकट्ठा हो गया था. उस ने स्कूटर की चाबी ली और घर के बाहर निकल गया. पिछले आधे घंटे में उस ने जो मानसिक कष्ट झेला था, उस का बदला निकाला दरवाजे से. पूरी ताकत से उस ने भड़ाक से दरवाजा बंद किया.

सीढि़यों से स्कूटर तक पहुंचने में उसे लग रहा था कि दिमाग की नसें फट जाएंगी. सुधा ने जब उस के भाई को भिखारी कहा था तो उस का मन हुआ था कि हंटर ले कर उस पर टूट पड़े, उस की जबान खींच ले. पर यह आक्रोश सिर्फ दिमाग की नसों में तनाव पैदा कर के ही रह गया था.

ससुर का यह फ्लैट तीनमंजिला भवन के फर्स्ट फ्लोर पर था. 15 साल पहले जब यह भवन बना था तो सुधा के पापा ने यह फ्लैट खरीदा था. शादी के बाद प्रताप का कमरा देख कर सुधा ने नाकभौं सिकोड़ा था. भीड़ और गंदगीभरी उस जगह पर सुधा का रहना मुश्किल था. उस ने यह बात अपने पापा से कही. वैसे भी वे लोग कोठी लेने की सोच रहे थे. सुधा की बात सुन कर उन्होंने कोठी खरीद ली थी और फ्लैट सुधा को दे दिया था.

प्रताप ने घड़ी देखी और स्कूटर के पास पहुंच गया. रोज की तरह आज भी स्कूटर के पास कचरा फैला हुआ था. स्कूटर की सीट पर गुटखे का खाली पाउच पड़ा था. रोज इसी तरह उस के स्कूटर पर ऊपर से कचरा फेंका जाता था. प्रताप ने हथेली से स्कूटर की सीट साफ की और ऊपर की ओर देखा. दोनों फ्लैटों की बालकनी में उस समय कोई नहीं था. मन हुआ कि पूरा कचरा एक थैली में भर कर उन के फ्लैटों में फेंक आए और उन्हें चार बातें भी सुना आए. पता नहीं ये लोग आदमी की तरह रहना कब सीखेंगे. परंतु ऐसा वह कर नहीं सकता था. 2-3 मिनट में ही सारा आक्रोश पानी की तरह बह गया, सिर्फ दिमाग की नसें तनी रहीं. प्रताप यहां रहने आया था तो यह बात उस ने सुधा को बताई थी. परंतु बातबात में प्रताप से उलझने वाली सुधा इस मामले में आश्चर्यजनक रूप से चुप रही थी. उस के पापा 15 साल यहां रहे थे. सभी पड़ोसियों से उन के मधुर संबंध थे. शायद पुराने संबंधों की वजह से सुधा कुछ भी कहने को तैयार नहीं थी.

सड़क पर आ कर प्रताप ने स्कूटर की गति बढ़ा दी थी. ब्रांच मैनेजर, दिलीप सिंह का खतरनाक कुत्ते जैसा चेहरा आंखों के सामने तैर उठा तो स्कूटर की गति थोड़ी और बढ़ा दी. इस मैनेजर को भी एक दिन सिखाना पड़ेगा. स्कूटर की गति के साथ प्रताप के विचारों की भी गति तेज हो गई थी. ब्रांच में उस की चमचागीरी करने वाला अशोक पूरे दिन शेयर बाजार का कारोबार करता रहता है. उसे कोई काम नहीं देता. कोई भी काम आ जाता है तो उसी को यह कह कर सौंप देता है, ‘मिस्टर प्रताप, प्लीज, जरा इसे भी कर देना…’

चौराहे पर ट्रैफिक जाम था. वह बेचैन हो उठा. आज गुरुवार है, उसे याद ही नहीं था. वह मन ही मन गालियां देने लगा. चौराहे पर ही शौपिंग सैंटर की एक दुकान में किसी धर्मभीरु ने साईं बाबा का मंदिर बना दिया था. इसलिए गुरुवार को दर्शनार्थियों की वजह से जाम लग जाता था. एक तो फूलमाला वाले पटरी पर दुकान लगा लेते थे, दूसरे, दर्शन करने वाले अपने वाहन इधरउधर खड़े कर देते थे. इधरउधर, तिरछासीधा कर के किसी तरह प्रताप ने चौराहा पार किया. आगे चलने वाले टैंपो काला जहरीला धुआं निकाल रहे थे. धुएं की गंध नाक में घुस रही थी और आंखें जल रही थीं. स्कूटर की गति बढ़ा कर वह आगे निकल गया. परंतु आगे चल कर बसें कुछ इस तरह खड़ी थीं कि आधी से अधिक सड़क बंद थी. इन बसों ने पूरी दिल्ली को परेशान कर रखा है. प्रताप की आंखों के सामने फिर से ब्रांच मैनेजर का चेहरा तैर गया. प्रताप बसों के बीच से स्कूटर निकाल कर आगे बढ़ा. ये बसें रोज इसी तरह परेशान करती हैं, परंतु बस वालों को न सरकार कुछ कहती है न ट्रैफिक पुलिस वाले. प्रताप के दिमाग की नसें तनती ही जा रही थीं.

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आज तो काफी देर हो चुकी है. मैनेजर साहब निश्चित ही बुला कर डांटेंगे. जितना संभव था, प्रताप ने स्कूटर की गति उतनी तेज कर दी. आगे के चौराहे पर उस ने लाइट की ओर देखा. ग्रीन लाइट देख कर उस ने स्कूटर की गति और तेज कर दी. उस चौराहे से 3-4 मिनट में ही वह बैंक पहुंच जाता. उस के आगे ट्रैफिक की भी कोई समस्या नहीं थी. वह बीच चौराहे में पहुंचता, उस से पहले ही पीली बत्ती जल गई. पीली बत्ती देख कर वह ठिठका, तब तक उस के पीछे से एक बस आगे निकल गई. उस ने भी अपना स्कूटर आगे बढ़ा दिया.

अनकहा प्यार- भाग 1: क्या सबीना और अमित एक-दूसरे के हो पाए?

वे फिर मिलेंगे. उन्हें भरोसा नहीं था. पहले तो पहचानने में एकदो मिनट लगे उन्हें एकदूसरे को. वे पार्क में मिले. सबीना का जबजब अपने पति से झगड़ा होता, तो वह एकांत में आ कर बैठ जाती. ऐसा एकांत जहां भीड़ थी. सुरक्षा थी. लेकिन फिर भी वह अकेली थी. उस की उम्र 40 वर्ष के आसपास थी. रंग गोरा, लेकिन चेहरा अपनी रंगत खो चुका था. आधे से ज्यादा बाल सफेद हो चुके थे. जो मेहंदी के रंग में डूब कर लाल थे. आंखें बुझबुझ सी थीं.

वह अपने में खोईर् थी. अपने जीवन से तंग आ चुकी थी. मन करता था कि  कहीं भाग जाए. डूब मरे किसी नदी में. लेकिन बेटे का खयाल आते ही वह अपने झलसे और उलझे विचारों को झटक देती. क्याक्या नहीं हुआ उस के साथ. पहले पति ने तलाक दे कर दूसरा विवाह किया. उस के पास अपना जीवन चलाने का कोई साधन नहीं था. उस पर बेटे सलीम की जिम्मेदारी.

पति हर माह कुछ रुपए भेज देता था. लेकिन इतने कम रुपयों में घर चलाए या बेटे की परवरिश अच्छी तरह करे. मातापिता स्वयं वृद्ध, लाचार और गरीब थे. एक भाई था जो बड़ी मुश्किल से अपना गुजारा चलाता था. अपना परिवार पालता था. साथ में मातापिता भी थे. वह उन से किस तरह सहयोग की अपेक्षा कर सकती थी.

उस ने एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने का काम शुरू कर दिया. वह अंगरेजी में एमए के साथ बीएड भी थी. सो, उसे आसानी से नौकरी मिल गई. सरकारी नौकरी की उस की उम्र निकल चुकी थी. वह सोचती, आमिर यदि बच्चा होने के पहले या शादी के कुछ वर्ष बाद तलाक दे देता, तो वह सरकारी नौकरी तो तलाश सकती थी. उस समय उस की उम्र सरकारी नौकरी के लायक थी. शादी के कुछ समय बाद जब उस ने आमिर के सामने नौकरी करने की बात कही, तो वह भड़क उठा था कि हमारे खानदान में औरतें नौकरी नहीं करतीं.

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उम्र गुजरती रही. आमिर दुबई में इंजीनियर था. अच्छा वेतन मिलता था. किसी चीज की कमी नहीं थी. साल में एकदो बार आता और सालभर की खुशियां हफ्तेभर में दे कर चला जाता. एक दिन आमिर ने दुबई से ही फोन कर के उसे यह कहते हुए तलाक दे दिया कि यहां काम करने वाली एक अमेरिकन लड़की से मुझे प्यार हो गया है. मैं तुम्हें हर महीने हर्जाखर्चा भेजता रहूंगा. मुझे अपनी गलती का एहसास तो है, लेकिन मैं दिल के हाथों मजबूर हूं. एक बार वापस आया तो तलाक की शेष शर्तें मौलवी के सामने पूरी कर दीं और चला गया. इस बीच एक बेटा हो चुका था.

आमिर को कुछ बेटे के प्रेम ने खींचा और कुछ अमेरिकन पत्नी की प्रताड़ना ने सबीना की याद दिलाई. और वह माफी मांगते हुए दुबई से वापस आ गए. लेकिन सबीना से फिर से विवाह के लिए उसे हलाला से हो कर गुजरना था. सबीना इस के लिए तैयार नहीं हुई. आमिर ने मौलवी से फिर निकाह के विकल्प पूछे जिस से सबीना राजी हो सके. मौलवी ने कहा कि 3 लाख रुपए खर्च करने होंगे. निकाह का मात्र दिखावा होगा. तुम्हारी पत्नी को उस का शौहर हाथ भी नहीं लगाएगा. कुछ समय बाद तलाक दे देगा.

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‘ऐसा संभव है,’ आमिर ने पूछा.

‘पैसा हो तो कुछ भी असंभव नहीं,’ मौलाना ने कहा.

‘कुछ लोग करते हैं यह बिजनैस अपनी गरीबी के कारण. लेकिन यह बात राज ही रहनी चाहिए.’

‘मैं तैयार हूं,’ आमिर ने कहा और सबीना को सारी बात समझई. सबीना न चाहते हुए भी तैयार हो गई. सबीना को अपनी इच्छा के विरुद्ध निकाह करना पड़ा. कुछ समय गुजारना पड़ा पत्नी बन कर एक अधेड़ व्यक्ति के साथ. फिर तलाक ले कर सबीना से आमिर ने फिर निकाह कर लिया.

नश्तर- भाग 1: पति के प्यार के लिए वो जिंदगी भर क्यों तरसी थी?

पैरों की एडि़यां तड़कने लगी हैं, चेहरे की झुर्रियां भी जबतब कसमसाने लगी हैं. कितनी भी कोल्ड क्रीम घिसें, थोड़ी देर में ही जैसे त्वचा तड़कने लगती है. बूढ़े लोगों को देखना और बात है, लेकिन बुढ़ापे को अपने शरीर में महसूस करना और बात. सारी इंद्रियों की शक्ति धीरेधीरे जाने कहां लुप्त होने लगती है. बस, एक ही चीज खत्म नहीं होती, और वह है अंदर की चेतना.

कभीकभी उन्हें झुंझलाहट भी होती है कि सारी शक्ति की तरह यह चेतना भी क्षीण क्यों नहीं हो जाती. यदि ऐसा हो जाए तो कितना अच्छा हो. सुबह उठ कर खाओपीओ, हलकेफुलके काम करो और सो जाओ, अवकाशप्राप्त जिंदगी में और है ही क्या, लेकिन ऐसा होता कहां है.

उन की चेतना के आंचल में ढेरों नश्तर घुसे हुए हैं. वे चाहती हैं कि उन्हें नोच कर बाहर फेंक दें. वे तो जमीन में उगे कैक्टस की मानिंद हैं, ऊपर से कितना भी काटो, फिर उग आएंगे. एक नश्तर तो उन की चेतना में पिरोए दिल की झिल्ली में जैसे बारबार दंश मारता रहता है.

अर्चना दीदी उन से 5 वर्ष छोटी हैं. वे गौरवर्णा, चिकनी त्वचा वाली गोलमटोल महिला हैं. अकसर ऐसी स्त्रियों के गाल उन्नत होते हैं और आंखें छोटीछोटी व कटीली. वे इन का इस्तेमाल करना भी खूब जानती हैं. कहने को तो वे विजयजी की दूर के रिश्ते की बहन हैं, लेकिन जब भी घर में कदम रखेंगी, आंखें नचा कर, तरहतरह के मुंह बना कर इस तरह बात करेंगी कि विजयजी हंसतेहंसते लोटपोट हो जाते हैं.

अपनी ही बात पर मोहित हो वे विजयजी के गले में बांहें डाल देंगी, ‘क्यों भैया, मैं ने ठीक कहा न?’

‘तुम गलत ही कब कहती हो,’ विजयजी उन की ब्लाउज व साड़ी के बीच की खुली कमर को अपनी बांहों में घेर कर उन्हें अपने पास खींच लेंगे.

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वे यह नाटक कुछ महीनों से देखती चली आ रही हैं. कुछ बोलने की हिम्मत नहीं होती. घर के किसी कोने में आंसू बहाती रहती हैं या कुढ़ती रहती हैं. इस गले लगाने या लिपटने से आगे भी उन दोनों के बीच कुछ और है, वे टोह नहीं ले पाई हैं. वैसे भी वे हर समय पति के पीछे थोड़े ही लगी रहती हैं.

कभीकभी उन्हें अपनेआप पर बेहद खीझ होती है कि क्यों उन्होंने खुद को दब्बू बना रखा है? शादी से पहले जब वे सोफे पर कूद कर ‘धम’ से बैठती तो मां बड़बड़ाया करती थीं, ‘क्या लड़कों जैसी उछलतीकूदती रहती है, जरा लड़कियों जैसी नजाकत से रहा कर.’

तीज से एक दिन पहले मां एक कटोरी में मेहंदी घोल कर बैठ जातीं. तब वे बहाना बनातीं, ‘मां, कल विज्ञान का टैस्ट है.’

‘तू हर साल बहाना करती है. लड़कियों को पता नहीं क्याक्या शौक होते हैं. नेलपौलिश लगाएंगी, लिपस्टिक लगाएंगी, चूडि़यां पहनेंगी. लेकिन एक तू…नंगे डंडे जैसे हाथ लिए घूमती रहती है. चल, आज तो मेहंदी का शगुन कर ले.’

बेहद खीझते हुए वे मां के सामने बैठ जातीं. मां मेहंदी में नीबू, चीनी, चाय का पानी और न जाने क्याक्या मिला कर उसे तैयार करतीं, पर मेहंदी लगवाते हुए वे शोर मचातीं, ‘मां, जल्दी करो, दुखता है.’

मां तो जैसे तीजत्योहारों पर तानाशाह बन जाती थीं, ‘चुपचाप बैठी रह. कल नहाने से पहले तुझे हरे रंग की चूडि़यां पहननी हैं.’

‘ठीक है, पहन लूंगी, लेकिन यह किस ने कानून बनाया है कि मेहंदी लगा कर उसे धो डालो. मुझे तो मेहंदी का हरा रंग ही लुभावना लगता है.’

‘तू बड़बड़ मत कर, मेहंदी बिगड़ जाएगी.’

मां के तानाशाही लाड़दुलार में जैसे उन का मन भीगभीग जाता था. वे हथियार डाल देती थीं. दूसरे दिन मेहंदी लगे हाथों में हरे रंग की चूडि़यों के साथ हरे रंग की साड़ी जैसेतैसे पिन लगा कर पहन लेतीं, मां निहाल हो उठतीं, ‘कैसी राजकुमारी सी लग रही है, जिस के घर जाएगी, वह धन्य हो जाएगा.’

अपनी शादी की दूसरी रात वे ऐसे ही तो नख से शिख तक तैयार हुई थीं. ननद व जेठानी उन्हें सजा कर स्वयं ठगी सी रह गई थीं.

लेकिन जिन के लिए सज कर वे बैठी थीं, उन्होंने बिना उन का चेहरा देखे रुखाई से कहा था, ‘जा कर कपड़े बदल लीजिए, भारी साड़ी में गरमी लग रही होगी.’

वे अपमान का घूंट पी दूसरे कमरे में जा कर सूती जरी की किनारी वाली साड़ी पहन कर आ गई थीं. उस निर्मोही ने फिर भी उन की तरफ नहीं देखा था. बत्ती बंद करते हुए कहा था, ‘शादी की भागदौड़ में आप भी थक गई होंगी, मैं भी थक गया हूं. मुझे जोरों की नींद आ रही है,’ 2 मिनट में ही करवट बदल कर गहरी नींद में सो गए थे.

विजयजी के साथ उन की शादी के शुरुआती 8 दिन ऐसे ही बीते थे. वे अनब्याही दुलहन की तरह मायके लौट आई थीं. घर में जरा भी एकांत मिलता तो अपनेआप झरझर आंसू बहने लगते. वे नहीं चाह रही थीं कि कोई उन के आंसू देखे, लेकिन मां की छठी इंद्रिय ने बेटी के मन की थाह को सूंघ ही लिया. एक दिन उन्होंने पूछ ही लिया था, ‘तू अकेले में क्यों रोती है?’

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पहले तो वे सकुचाईं कि किस तरह कहें कि उन की देह को पति ने स्पर्श तक नहीं किया. फिर संकोच छोड़ कर सारी बात उन्हें बता दी.

‘यदि ऐसा था तो शर्म को त्याग कर उन से इस का कारण पूछना था.’

‘मैं ऐसी बात कैसे पूछ सकती थी?’

‘पतिपत्नी के संबंधों में संकोच कैसा? वैसे हम लोगों ने पैसा तो भरपूर दिया था, लेकिन हो सकता है कि कुछ लेनदेन के बारे में उन की नाराजगी हो?’

‘यदि वे ऐसे लालची हैं तो मैं वहां नहीं रहूंगी.’

‘बेटी, पहले तू पूछ कर तो देख.’

मां के प्रोत्साहन के कारण दूसरी बार ससुराल आ कर वे खुद को आश्वस्त महसूस कर रही थीं. जैसे ही विजयजी ने रात को बत्ती बुझानी चाही, उन्होंने उन का हाथ पकड़ लिया, ‘जरा, आज हम लोग बातचीत कर लें.’

विजयजी ने झुंझला कर हाथ छुड़ाया, ‘क्या बात करनी है? शादी हो गई, तुम इस घर की मालकिन बन गईं और क्या चाहिए?’

‘यदि मैं आप का मन नहीं जीत पाई तो मेरा इस घर में आना बेकार है.’

‘तुम औरतों को चाहिए क्या, कपड़ा और खाना. इन चीजों की तुम्हें जिंदगीभर कमी नहीं होगी,’ फिर उन्होंने स्विच की तरफ हाथ बढ़ाना चाहा. पर उन्होंने उन का हाथ दृढ़ता से पकड़ लिया, ‘नहीं, आज मुझे इतना अधिकार दीजिए कि मैं आप से चंद बातें कर सकूं.’

वे बेमन पलंग पर तकिए के सहारे टिक कर बैठ गए, ‘अब कहो? मैं कहां नाराज हूं,’ वह उन्हें आग्नेय नेत्रों से देख कर बोले.

‘आप की आंखें तो कुछ और ही कह रही हैं,’ वे जैसे हर प्रहार के लिए कलेजा कड़ा कर के बैठी थीं.

‘मेरे चाचा से पूछो कि मेरी नाराजगी का कारण क्या है?’

‘मैं ने सुना तो था कि आप के पिताजी सीधेसादे हैं, शादी की हर बात तय करने के लिए आप के चाचा को आगे कर देते हैं.’

‘हां, उन्हीं चाचा ने रुपयों के लालच में मुझे तुम्हारे पिता के हाथों बेच दिया.’

उन का चेहरा भी तमतमा आया था, ‘मेरे पिता दूल्हा खरीदने नहीं निकले थे. उन्होंने तो अपनी जाति की प्रथा के हिसाब से रुपया दिया था. फिर मेरे पिता व्यापार करते हैं, उन के लिए 2 लाख रुपए अपनी मरजी से देना बड़ी बात नहीं थी.’

‘2 लाख? लेकिन चाचा ने तो हमें डेढ़ लाख रुपए ही दिए थे.’

‘नहीं, सच में मेरे पिता ने 2 लाख रुपए दिए थे.’

‘तो क्या मेरे चाचा झूठ बोलेंगे?’

‘इस बात का फैसला तो बाद में होगा. अब समसया यह है तो हम लोगों को सहज जीवन व्यतीत करना चाहिए.’

‘मैं तुम्हारे लिए बिका हूं, यह बात मुझे सहज नहीं होने दे रही.’

‘मैं आप को सहज कर दूंगी,’ कह कर उन्होंने स्वयं बिजली के बटन पर हाथ रख दिया. ऐसे में उन के कंगन बज उठे थे.

उन दिनों वे मन ही मन कितनी आहत होती थीं. पति तो नवविवाहिता पत्नी का दीवाना हो जाता है, लेकिन उन के हाथ में कुछ उलटा ही रचा था, जैसे कि उन्हें मेहंदी का भी उलटा रंग ही पसंद आता था. वे जबरदस्ती उन्हें अपने आकर्षण में बांध रही थीं. बस, ऐसे ही एक बेटे व बेटी की मां बन गई थीं.

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कभी उन्होंने सुना था कि यदि दूल्हे व दुलहन के मन में ब्याह के मंडप के नीचे कोई गांठ हो तो वह जिंदगीभर नहीं खुलती. क्या यह बात सच है? उसी मंडप में चाचाजी ने 50 हजार रुपए अपनी जेब में खिसका लिए थे. यह बात पंडित की बहुत खुशामद करने के बाद पता लगी थी.

उन्होंने लाख कोशिश कर के देख ली थी, पर पति के दिल को वे पूरी तरह जीत नहीं पाई थीं. इसीलिए पास के स्कूल में उन्होंने नौकरी कर ली थी. बच्चों के लिए एक आया रख ली थी. दोपहर के खाने के लिए विजयजी घर पर आते थे, आया उन्हें खाना खिला देती व घर की देखभाल भी कर लेती थी.

प्रेम गली अति सांकरी: भाग 4

Writer- जसविंदर शर्मा 

पिछले अंक में आप ने पढ़ा कि कैसे पापा की प्रेमिका ने हमारे घर में तूफान ला दिया था. सभी टोनेटोटकों के बावजूद मां उसे घर से बाहर नहीं निकाल पाईं. लेकिन मां द्वारा अदालत का दरवाजा खटखटाने पर उसे घर छोड़ना पड़ा और इस तरह पापा दो परिवारों के मुखिया बन कर रह गए. लेकिन पापा ने हम से पल्ला झाड़ लिया. पढि़ए शेष भाग…

छोटीछोटी बातों पर शादी में दरारें आती हैं. शादी को कायम रखने के लिए उसे किसी भी प्रकार के वैचारिक हमलों से बचाना चाहिए. यह सोच कर शादी नहीं करनी चाहिए कि यह तो करनी ही है क्योंकि सब करते हैं.

पापा ने जो किया था वह एक सम्माननीय और संतुलित व्यक्ति का व्यवहार नहीं था. अपनी वासनात्मक लालसाएं पूरी करने के लिए पापा ने इस घर के 4 जनों को दिनरात घुलते चले जाने को विवश किया था. विवाहेतर संबंध तो ठीक थे मगर उस पर यह अतिरेक और कुचेष्टा कि उन की रखैल मिस्ट्रैस को इस घर में सम्मान मिले और वह हमारे साथ भी रहे. दैहिक जरूरतों के सामने घर जैसी पवित्र जगह को युद्ध की रणभूमि बना डाला था ऐसे में तो कुंठा और दमन ही हाथ आना था.

यह तो बहुत ही मार देने वाला काम था. मां की हिम्मत थी कि पिछले इतने सालों से वे किसी तरह घर को जोड़ कर के रखे हुए थीं. वे पस्त हो जातीं, टूट जातीं या भाग कर मायके चली जातीं तो हम बच्चों का भविष्य खराब हो जाता.

लगभग 1 साल बाद मां को मोटी रकम मिल गई और पापा को तलाक मिल गया. ‘उस ने’ अगले ही महीने पापा से शादी कर ली. मां ने पापा को माफ कर दिया यह समझ कर कि गलती तो उस युवती की है जो एक अधेड़ व्यक्ति का पीछा नहीं छोड़ती.

तब मैं तय नहीं कर पाई कि सच में सारी गलती ‘उस की’ ही थी. क्या मां या पापा कुसूरवार नहीं थे? त्रिकोणीय संबंधों में अगर 1 को बलि का बकरा बनना पड़ता है तो बाकी के 2 लोग भी ज्यादा देर तक ऐसे अनैतिक संबंध को सहजता से नहीं जी पाते.

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जल्दी ही उस मायावी औरत से पापा का मोहभंग हो गया. जब तक उस से पापा की शादी नहीं हुई थी तब तक पापा में उसे सारा आकर्षण दिखता था. गलत पते की चिट्ठी की तरह पापा 1 साल बाद हमारे घर के चक्कर लगाने लगे. भरापूरा घर, जिसे वे एक जवान नई औरत के लिए लात मार कर चले गए थे, अब हम बच्चेबच्चियों को देखने के बहाने फिर आने लगे थे.

पापा हमारे जन्मदिन पर बढि़या तोहफे लाते, हमें कपड़े ले कर देते. हमारे कालेज के बारे में पूछते. मेरे छोटे भाई में उन्हें खास दिलचस्पी रहती. हमें यकीन नहीं होता कि ये हमारे वही पापा हैं जिन्होंने हम से बात तक करनी बंद कर दी थी क्योंकि हम हमेशा मां की तरफदारी करते थे.

मां के मन की स्थिति कोई खास निश्चित नहीं थी कि अब पापा को ले कर वे क्या सोचती थीं. ‘उस ने’ जब पापा को हासिल कर लिया तभी से उन के रिश्ते के अंत का काउंटडाउन शुरू हो गया.

हम दोनों बहनों ने अच्छे संस्थानों से डिगरी ले ली थी और हमें अच्छी जौब मिल गई थी. पापा हम दोनों को ले कर कुछ ज्यादा ही वात्सल्य दिखाने लगे थे. मां के प्रति उन के मन में सोया प्यार जागने लगा था. अपनी मिस्ट्रैस की परवा कम ही करते थे. मां तो कहती कि

अब इस बूढे़ का दिल लगता है, दफ्तर की किसी अन्य स्त्री पर आ गया है

और हमारी आड़ ले कर यह अपनी मिस्ट्रैस से जान छुड़ाना चाहता है.

हो सकता है मां की बातों में कुछ सचाई हो मगर हमें अब सारा मामला समझ में आने लगा था. पापा इतनी ऊंची पोस्ट पर थे, अच्छा कमाते थे, फिर मां की उन से एक दिन भी नहीं बनी. क्या मां का कोई दोष नहीं था? मेरी बड़ी बहन का मानना था कि मां के हर समय शक करते रहने से पापा ऐसे बन गए.

खैर, मां और पापा का कोई समझौता नहीं हो सका. पापा पेंडुलम की तरह इधर से उधर, उधर से इधर आतेजाते रहे. मां ने उन्हें कोई तबज्जुह न दी. मां अब धार्मिक व अंधविश्वासी हो गई थीं. मेरे छोटे भाई ने जब डिगरी हासिल कर ली तो मां का ध्यान पूरा ईश्वर में लग गया. वे हर दुखसुख से ऊपर उठ गई थीं.

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घर के मामलों में उन्होंने रुचि लेनी बंद कर दी थी. हमारी शादी के बारे में भी उन्होंने कभी सीरियसली नहीं सोचा. उन्होंने सबकुछ पापा और वक्त पर छोड़ दिया था. कोई इतना उदासीन कैसे हो सकता है, यह मां को देख कर अंदाजा लगाया जा सकता था.

मां को मालूम था कि पापा अब भी घर में रुचि लेते हैं. मां को एक निश्चित रकम हर महीने मिल जाती. हम बच्चे भी अच्छा कमा रहे थे, कारों में घूमते थे.

जब मेरी बहन ने अपने दोस्त के साथ रहने का फैसला किया तो उस ने मेरी ड्यूटी लगाई कि मैं मां को सारी बातों के बारे में ब्रीफ करूं. उस में हिम्मत नहीं थी यह सब कहने की. पापा को तो हम इतनी अंतरंग बातें कभी न बता सकते थे.

पांच साल बाद- भाग 4: क्या निशांत को स्निग्धा भूल पाई?

पूर्व कथा

पिछले अंक में आप ने पढ़ा कि जिस समाज से स्निग्धा विद्रोह करना चाहती थी उसी समाज के एक कुलीन ने उस का सतीत्व लूट लिया और मन भरने के बाद उसे छोड़ दिया. उधर, निशांत, जो उस से एकतरफा प्यार करता था, पांच साल बाद उस की जिंदगी में आया. आगे क्या हुआ.

पढि़ए शेष भाग.

वह सारा दिन उन दोनों ने साथसाथ व्यतीत किया. पालिका बाजार, सैंट्रल पार्क, कनाट प्लेस से ले कर पुराने किले से होते हुए वे इंडिया गेट तक गए और रात 8 बजे तक वहीं बैठ कर उन्होंने जीवन के हर पहलू के बारे में बात की. निशांत हवा के साथ उड़ रहा था तो स्निग्धा के मन में अपने विगत को ले कर एक अपराधबोध था. निशांत हर प्रकार की खुशबू अपने दामन में समेटने के लिए आतुर था तो स्निग्धा संकोच के साथ अपने पांव पीछे खींच रही थी.

निशांत के जीवन की खोई हुई खुशियां जैसे दोबारा लौट आई थीं. उस के जीवन में 5 साल बाद वसंत के फूल महके थे. स्निग्धा को उस के घर के बाहर तक छोड़ कर जब वह वापस लौट रहा था तब उस के कानों में स्निग्धा के मीठे स्वर गूंज रहे थे, ‘बाय निशू, गुड नाइट. एक अच्छे दिन के लिए बहुतबहुत धन्यवाद. आशा है, हम कल फिर मिलेंगे.’

‘हां, कल शाम को मैं तुम्हें फोन करूंगा, ओके.’

स्निग्धा के घर से उस के घर के बीच का रास्ता कितनी जल्दी खत्म हो गया, उसे पता ही न चला. अपने 2 कमरों के किराए के मकान में पहुंच कर उसे लगा, जैसे पूरा घर ताजे फूलों से सजा हुआ हो और उन की मादक सुगंध चारों तरफ फैल कर उस के दिमाग को मदहोश किए दे रही थी. वह एक लंबी सांस ले कर पलंग पर धम से गिर पड़ा.

उसे स्निग्धा के साथ मिलने के संयोग पर विश्वास नहीं हो रहा था.

विश्वास तो स्निग्धा को भी नहीं हो रहा था. वह अपने कमरे की सीढि़यां चढ़ते हुए यही सोच रही थी कि निशांत से मिलने के बाद क्या उस के जीवन में कोई बड़ा परिवर्तन होने वाला है. क्या यह परिवर्तन सुखद होगा? कमरे में पहुंची तो उस के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे, जैसे वह फूल की तरह हलकी हो गई थी और उसे लग रहा था कि हवा का एक हलका झोंका भी आया तो वह आसमान में उड़ जाएगी. कोई उसे पकड़ नहीं पाएगा.

उस की रूममेट रश्मि ने जब उस का हंसता हुआ चेहरा देखा तो पहला प्रश्न यही किया, ‘लगता है, तुम्हारा खोया हुआ प्यार तुम्हें मिल गया है?’

उस ने पर्स को मेज पर पटका और रश्मि को गले से लगा कर भींच लिया. रश्मि कसमसा उठी और उसे परे करती हुई बोली, ‘इतना ज्यादा मत इतराओ. अभी एक प्यार की चोट पूरी तरह से भरी नहीं है और फिर से तुम प्यार करने लगी हो. कहां तो समाज की हर चीज से बगावत करने पर तुली हुई थीं, कहां अब एक आम लड़की की तरह बारबार प्यार में इस तरह गिर रही हो, जैसे गीले गुड़ में मक्खी…क्या यही है तुम्हारा आदर्श?’

‘अरे, भाड़ में जाए समाज से विद्रोह. वह मेरी बेवकूफी थी कि मैं नैतिकता को बंधन समझती थी. दरअसल, यही सच्चा जीवनमूल्य है, जो हमें एक नैतिक और मर्यादित बंधन में रख कर समाज और राष्ट्र को आगे बढ़ाने में मदद करता है. निरंकुश आजादी मनुष्य को गैरजिम्मेदार और तानाशाह बना देती है, जबकि सामाजिक मूल्य हमें एक निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने में मदद करते हैं.’

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‘वाह, तुम तो एक दिन ही में सारे जीवनमूल्यों को पहचान गईं. किस ने ऐसा गुरुमंत्र दिया है जो अपनी बनाई हुई लीक को तोड़ने पर मजबूर हो गई हो? क्या पहले प्यार में धोखा खाने के बाद तुम्हें यह एहसास हुआ है या किसी ने तुम्हें भारतीय दर्शन और संस्कृति का पाठ पढ़ाया है?’

वह पलंग पर बैठती हुई बोली, ‘नहीं रश्मि, बहुतकुछ हम अपने अनुभवों से सीखते हैं और बहुतकुछ हम अपने संपर्क में आने वाले लोगों से. इस से कुछ कटु अनुभव होते हैं और कुछ मृदु. यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि अपने द्वारा किए गए गलत कामों के कटु अनुभवों से हम क्या सीखते हैं और हम किस प्रकार अपने को बदल कर सही मार्ग पर आते हैं.

समाज में हर चीज गलत नहीं होती. हमें अपने विवेक से देखना पड़ता है कि क्या सही है, क्या गलत. सामाजिक कुरीतियां, अंधविश्वास, अति पूजापाठ और धर्मांधता अगर बुरे हैं तो शादीब्याह जैसी संस्थाएं बुरी नहीं हैं. यह परिवार और समाज को एक बंधन में बांध कर राष्ट्र को मजबूत बनाने में मदद करती हैं. मेरी गलती थी कि मैं समाज की हर चीज को बुरा समझने लगी थी. मनमाने ढंग से जीवन जीने का परिणाम क्या हुआ? एक व्यक्ति जिसे मैं अपना समझती थी कि वह जीवनभर मेरा साथ देगा, मेरे सुखदुख बांटेगा, वही मेरा उपभोग कर के एक किनारे हो गया.

‘यही काम अगर मैं शादी कर के करती तो समाज में गर्व से अपना सीना तान कर चल सकती थी. आज मैं अपने मांबाप, परिजनों और संबंधियों के सामने नहीं पड़ सकती, उन को अपना मुंह नहीं दिखा सकती. इतनी नैतिक शक्ति मेरे पास नहीं है,’ और उस के चेहरे पर फिर से पहले जैसी उदासी व्याप्त हो गई.

रश्मि बहुत समझदार लड़की थी. वह उस के पास आ कर उस के सिर पर हाथ रख कर बोली, ‘तुम बहुत साहसी लड़की हो. कभी इस तरह हिम्मत नहीं हारतीं. आज तुम कितना खुश थीं. मुझे अफसोस है कि मैं ने तुम्हारी दुखती रग पर हाथ रख कर तुम्हें ज्यादा दुखी कर दिया. चलो, भूल जाओ अपना अतीत और नए सिरे से अपना जीवन शुरू करो. अब मैं तुम से पिछले जीवन के बारे में कोई बात नहीं करूंगी. बस, तुम खुश रहा करो.’

‘मैं खुश हूं, रश्मि,’ उस ने हंसने का खोखला प्रयास किया और बाथरूम की तरफ जाती हुई बोली, ‘तुम देखना, मैं हमेशा हंसतीमुसकराती रहूंगी.’

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‘ये हुई न कोई बात.’

स्निग्धा ने अपने मन को इतना कठोर बना लिया था कि राघवेंद्र के साथ व्यतीत किए गए जीवन के कड़वे पलों को पूरी तरह भुला दिया था. अगर कभी यादें उसे हरा देतीं तो उस को उबकाई आने लगती.

आज वह एक सच्चे प्यार की तलाश में थी, तन की भूख की अब उस में कोई ललक नहीं थी.

रश्मि एक कौल सैंटर में काम करती थी. लखनऊ की रहने वाली थी. स्निग्धा से उस की मुलाकात इसी गैस्ट हाउस में हुई थी. रश्मि पहले से यहां रह रही थी. बाद में स्निग्धा आ गई तो उन्होंने एकसाथ एक कमरे में रहने का निर्णय लिया. इस से उन पर किराए का बोझ कम हो गया था.

स्निग्धा जब से आई थी, बहुत उदास और गुमसुम सी रहती थी. बहुत पूछने और साथ रहने के कारण स्निग्धा ने उस से अपने जीवन की बहुत सारी बातें बांट ली थीं. रश्मि ने भी उसे अपने बारे में बहुतकुछ बताया था. धीरेधीरे स्निग्धा खुश रहने लगी थी परंतु आज बाहर से आने के बाद वह जितना खुश थी उतना दिल्ली आने के बाद कभी नहीं रही.

धुंधली सी इक याद- भाग 1: राज अपनी पत्नी से क्यों दूर रहना चाहता था?

Writer- Rochika Sharma

‘‘बोलो न राज… एक बार मैं तुम्हारे मुंह से सुनना चाहती हूं. कहो न कि तुम्हें मुझ से प्यार है,’’ ईशा ने राज के गले में बांहें डालते हुए कहा.

‘‘हां, मुझे तुम से और सिर्फ तुम से प्यार है. मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकता. तुम परी हो, अप्सरा हो और न जाने क्याक्या हो… हो गया या और भी कोई डायलौग सुनने को बाकी है?’’ राज ने मुसकराते हुए पूछा.

ईशा भी मुसकराते हुए बोली, ‘‘हुआ… हुआ… अब आया न मजा.’’

राज और ईशा एकदूसरे को 8 सालों से जानते थे. दोनों एक ही कालेज में पढ़ते थे. वहीं दोनों के प्यार का सिलसिला शुरू हुआ था. दोनों साथ घूमतेफिरते और अपनी पढ़ाई का भी ध्यान रखते. ईशा अमीर मातापिता की इकलौती संतान थी. उसे पैसे की नहीं सच्चे प्यार की तलाश थी और राज को पा कर वह धन्य हो गई थी. बस अब उसे इंतजार था कि कब राज की प्रमोशन हो और वह अपने मातापिता को राज के बारे में सब कुछ बता सके.  वैसे तो राज एक बड़ी कंपनी में ऊंचे ओहदे पर काम करता था. लेकिन ईशा चाहती थी कि राज की एक प्रमोशन और हो जाए ताकि वह अपने पिता से शान से कह सके कि उस ने राज को जीवनसाथी के रूप में चुना है. बस 1 महीने का और इंतजार था.

जैसे ही राज को प्रमोशन लैटर मिला,  ईशा ने खुशी से उसे बधाई देते हुए कहा, ‘‘बस राज मैं आज ही पापा से तुम्हारे बारे में बात  करती हूं. मुझे पूरा विश्वास है कि पापा तुम्हें बहुत पसंद करेंगे.’’  जब ईशा रात का खाना खाने अपने परिवार के साथ बैठी तो उस ने धीरे से कहा, ‘‘पापा, मैं आप को एक खुशखबरी देना चाहती हूं. मैं ने अपना जीवनसाथी चुन लिया है.’’

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उस के पिता ने भी बड़े आश्चर्य से पूछा, ‘‘अच्छा, कौन है वह?’’

ईशा चहकते हुए बोली, ‘‘पापा वह राज है. आप कहें तो मैं कल उसे डिनर के लिए बुला लूं ताकि आप और मम्मी उस से मिल सकें?’’

ईशा के पिता ने झट से हामी भर दी. अगले दिन राज ईशा के घर में था. उस से मिल कर ईशा के पिता बोले, ‘‘हमें गर्व है अपनी बेटी की पसंद पर. हमें तुम से यही उम्मीद थी ईशा. तुम इतनी पढ़ीलिखी और समझदार हो कि तुम्हारी पसंद में तो हम कोई कमी निकाल ही नहीं सकते.’’

फिर अगले संडे को ईशा के मातापिता ने राज के मातापिता से मिल दोनों के रिश्ते की बात की.  बात ही बात में राज के पिता ने ईशा के पिता से कहा, ‘‘हमें ईशा बहुत पसंद है, किंतु हम आप को एक बात साफ बता देना चाहते हैं कि राज हमारा अपना बच्चा नहीं, इसे हम ने गोद लिया था. लेकिन हम ने इसे पालापोसा अपने बच्चे की तरह ही है. हमारी अपनी कोई संतान न थी. लेकिन हम यकीन दिलाते हैं कि हम ईशा को भी बड़े ही प्यार से रखेंगे.’’  राज के पिता का व्यवहार और कारोबार बहुत अच्छा था. अत: ईशा के पिता को इस रिश्ते पर कोई ऐतराज नहीं था. फिर क्या था. एक ही महीने में राज व ईशा की सगाई व शादी हो गई. ईशा दुलहन बनी बहुत ही सुंदर लग रही थी. कालेज के दोस्त व सहेलियां भी उन की शादी में उपस्थित थे. उन में से कुछ की शादी हो चुकी थी और कुछ तैयारी में थे. सभी राज व ईशा को बधाई दे रहे थे. विदाई की रस्म पूरी हुई और ईशा राज के घर आ गई. राज के मातापिता भी चांद सी बहू पा कर बहुत खुश थे.

आज राज व ईशा की पहली रात थी. उन का कमरा फूलों से सजाया गया था.  पलंग पर हलके गुलाबी रंग की चादर पर गहरे गुलाबी रंग की पंखुडि़यों को दिल के आकार में सजाया गया था. पूरा कमरा गुलाब की खुशबू से महक रहा था. उस पर सजीधजी ईशा इतनी खूबसूरत लग रही थी कि चांद की चमक भी फीकी पड़ जाए. रोज सलवारकुरता और जींसटौप पहनने वाली ईशा दुलहन बन इतनी सुंदर लगी कि राज के मुंह से निकल ही गया, ‘‘जी चाहता है इतने सुंदर चेहरे को आंखों में भर लूं और हर पल नजारा करूं.’’ ईशा शरमा कर राज की बांहों में समा गई.  अगली सुबह ईशा नहाधो कर हलके नीले रंग की साड़ी पहने किसी परी सी लग रही थी. सुबह से ही उस की सहेलियों के फोन आने शुरू हो गए. सब चुटकियां लेले पूछ रही थीं, ‘‘कैसी रही पहली रात ईशा?’’  उस का पूरा दिन इन चुहलबाजियों में ही बीत गया. ईशा भी सब को हंस कर एक ही जवाब देती, ‘‘अच्छी रही, वंडरफुल.’’

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खैर, 1 महीना बीत गया और दोनों का हनीमून भी खत्म हुआ. अब राज को 1 महीने की छुट्टी के बाद दफ्तर जाना था. दफ्तर जाते ही सभी पुराने दोस्तों का भी वही सवाल था कि कैसा रहा हनीमून और जवाब में राज भी मुसकरा कर बोला कि अच्छा रहा.  दिन तेजी से बीत रहे थे. हर शाम ईशा सजीधजी राज के घर आने का इंतजार करती. रात को खाना खा कर दोनों छत पर लगे झूले में बैठ कर चांदनी रात में तारों को निहारा करते. प्यार की बातों में कब आधी रात हो जाती उन्हें मालूम ही न पड़ता. राज के मातापिता भी ईशा से बहुत खुश थे. उस के आने से घर की रौनक बढ़ गई थी. सारा काम नौकरचाकर करते, लेकिन ईशा राज की मां और स्वयं की थाली खुद ही लगाती. राज की मां के साथ ही खाना खाती.  1 साल बीत गया. अब राज की मां ईशा से कहने लगीं, ‘‘बेटी, तुम ने इस सूने घर में रौनक ला दी. बेटी अब इस घर में 1 बच्चा आ जाए तो यह रौनक 4 गुना बढ़ जाए.’’

ईशा भी कहती, ‘‘जी मम्मी, आप ठीक कह रही हैं.’’

जब कभी खाने के समय राज भी साथ होता तो यही बात मां राज से भी कहतीं.  राज कहता, ‘‘हो जाएगा मम्मी. इतनी भी क्या जल्दी है?’’

ऐसा चलते 1 साल और बीत गया. अब ईशा भी राज से कहने लगी, ‘‘राज, मैं तुम से एक बात पूछना चाहती हूं. तुम बुरा न मानना और मुझे गलत न समझना… तुम्हें क्या हो जाता है राज… तुम मुझ से प्यार की बातें करते हो, मुझे चूमते हो, मुझे बांहों में लेते हो, लेकिन वह क्यों करते नहीं जो एक बच्चा पैदा करने के लिए जरूरी है? हमारी शादी को 2 साल हो गए, लेकिन हम अभी कुंआरों की जिंदगी ही जी रहे हैं.’’  राज ने भी सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘हां, तुम ठीक कहती हो.’’

मन का मीत- भाग 2: कैसे हर्ष के मोहपाश में बंधती गई तान्या

मेरी मम्मी को मेरे अकेले मुंबई रहने में समस्या दिख रही थी. अत: वे भी मेरे साथ मुंबई आ गईं. मेरे पापा के बौस के बड़े भाई अमेरिकी नागरिक हैं. उन का बेटा अमेरिका में नौकरी करता था. उन्होंने अपने बेटे समीर के रिश्ते के लिए पापा से संपर्क किया. उन्होंने बताया कि समीर से शादी के बाद मुझे भी जल्द ही अमेरिका का ग्रीन कार्ड और नागरिकता मिल जाएगी. आननफानन में मेरी शादी हो गई. मैं अमेरिका के ह्यूस्टन शहर में आ गई. फिर मुझे जल्द ही ग्रीन कार्ड भी मिल गया.

मेरे पति समीर गूगल कंपनी में काम करते थे. मुझे भी यहां नौकरी मिल गई. अमेरिका में काफी बड़ा बंगला, 4-4 महंगी गाडि़यां और अन्य सभी ऐशोआराम की सुविधाएं उपलब्ध थीं. मैं समीर की पत्नी भी बन गई और जब उस की मरजी होती उस के लिए पत्नी धर्म का पालन भी करती. पर मर्दों के प्रति जो मन में एक खौफ था बचपन से उस के चलते अकसर उदासीनता छाई रहती.

हम दोनों के विचार भी भिन्न थे. समीर शुरू से अमेरिकन संस्कृति में पलाबढ़ा था. यही कारण रहा होगा हम दोनों में असमानता का पर मैं ने महसूस किया कि आज तक उस ने कभी मुझे प्यार भरी नजरों से नहीं देखा, न ही मेरी तारीफ में कभी दो शब्द कहे. अपने साथ मुझे बाहर पार्टियों में भी वह बहुत कम ले जाता. मैं कभी कुछ कहना चाहती तो मेरी पूरी बात सुने बिना बीच में ही झिड़क देता या कभी सुन कर अनसुना कर देता. मेरी भावनाएं उस के लिए कोई माने नहीं रखतीं. काफी दिनों तक पति से हमबिस्तर होने पर भी मुझे वैसा कोई आनंद नहीं होता जैसा फिल्मों में देखती थी.

मेरे औफिस में एक नए भारतीय इंजीनियर ने जौइन किया था. पहले दिन उस का सब से परिचय हुआ, हर्षवर्धन नाम था उस का. उसे औफिस में सब हर्ष कहते थे. हम दोनों के कैबिन आमनेसामने थे. मैं ने महसूस किया कि अकसर वह मुझे देखता रहता. कभी मैं भी उस की तरफ देखने लगती. जब दोनों की नजरें मिलतीं, तो हम दोनों नजरें झुका लेते.

पर पता नहीं क्यों हर्ष का यों देखना मुझे बुरा नहीं लगता और मैं भी जब उसे देखती मन में खुशी की लहर सी उठती थी. मुझे लगता कि कोई तो है जिसे मुझ में कुछ तो दिखा होगा. अभी तक दोनों में वार्त्तालाप नहीं हुआ था. लंच टाइम में औफिस की कैंटीन में दोनों का आमनासामना भी होता, नजरें मिलतीं बस. कभी उस के चेहरे पर हलकी सी मुसकान होती जिसे देख कर मैं नजरें चुरा लेती.

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इस बीच मैं प्रैगनैंट हुई. हर्ष और मैं दोनों उसी तरह से नजरें मिलाते रहे. मैं ने देखा कैंटीन में कभीकभी उस की नजरें मेरे बेबीबंप पर जा टिकतीं तो मैं शर्म से आंखें फेर लेती या उस से दूर चली जाती. कभी बीचबीच में वह काम के सिलसिले में टूअर पर जाता तो मेरी नजरें उसे ढूंढ़तीं. कुछ दिनों बाद मैं मैटर्निटी लीव पर चली गई.

इसी बीच मैं ने फेसबुक पर हर्ष का फ्रैंडशिप रिक्वैस्ट देखा. पहले तो मुझे आश्चर्य हुआ कि न बोल न चाल और सीधे दोस्त बनना चाहता है. 2-3 दिनों तक मैं भी इसी उधेड़बुन में रही कि उस की रिक्वैस्ट स्वीकार करूं या नहीं. फिर मेरा मन भी अंदर से उसे मिस कर रहा था. अत: मैं ने उस की रिक्वैस्ट ऐक्सैप्ट कर ली. फौरन उस का पोस्ट आया कि थैंक्स तान्या. आई मिस यू.

मैं ने भी मी टू लिख दिया. फिलहाल मैं ने उस दिन इतने पर ही फेसबुक लौग आउट कर दिया. मैं आंखें बंद कर देर तक उस के बारे में सोचती रही.

पता नहीं क्यों आमनेसामने हर्ष को मुझ से या फिर मुझे भी हर्ष से बात करने में संकोच होता, पर मुझे अब रोज हर्ष का फेसबुक पर इंतजार रहता. मेरा पति समीर भी जानता था मेरे एफबी फ्रैंड के बारे में, पर यह एक आम बात है. कोई शक या आश्चर्य की बात नहीं है. उसे इस से कोई फर्क नहीं पड़ता था.

इसी बीच हर्ष ने बताया कि वह बोकारो का रहने वाला है. बीटैक करने के बाद अमेरिका एक स्टूडैंट वीजा पर आया था और मास्टर्स करने के बाद ओपीटी पर है. अमेरिका में साइंस, टैक्नोलौजी, इंजीनियरिंग और मैथ्स (एसटीईएम) में स्नातकोत्तर करने पर कम से कम 12 महीने तक की औप्शनल प्रैक्टिकल ट्रेनिंग (ओपीटी) का अवसर दिया जाता है जिस दौरान वे नौकरी करते हैं. अगर इसी बीच किसी कंपनी द्वारा उन्हें जौब वीजा एच 1 बी मिल जाता है तब वे 3 साल के लिए और यहां नौकरी कर सकते हैं वरना वापस अपने देश जाना पड़ता है.

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हर्ष और मेरे बीच फेसबुक संपर्क बना हुआ था. इसी बीच मैं ने एक बेटे को जन्म दिया. हम लोगों ने उस का नाम आदित्य रखा, पर घर में उसे आदि कहते हैं. हर्ष ने मुझे और समीर को बधाई संदेश भेजा. मेरे घर पर पार्टी हुई पर मैं हर्ष को चाह कर भी नहीं बुला सकी. औफिस कुलीग के लिए अलग से एक होटल में पार्टी दी गई. उस में हर्ष भी आमंत्रित था. उस ने आदि के लिए ‘टौएज रस’ और ‘मेसी’ दोनों स्टोर्स के 100-100 डौलर्स के गिफ्ट कार्ड दिए थे ताकि मैं अपनी पसंद के खिलौने व कपड़े आदि ले सकूं. पहली बार इस पार्टी में उस से आमनेसामने बातें हुईं.

उस ने मुझे बधाई देते हुए धीरे से कहा, ‘‘तान्या, तुम वैसे ही सुंदर हो पर प्रैगनैंसी में तो तुम्हारी सुंदरता में चार चांद लग गए थे. मैं तुम्हें मिस कर रहा हूं. औफिस कब जौइन कर रही हो?’’

तलाक के बाद शादी- भाग 2: देव और साधना आखिर क्यों अलग हुए

देव ने गुस्से में फोन पटक दिया और उदास हो कर सोचने लगा, ‘जिस लड़की के प्यार में अपने मातापिता, भाईबहन, समाज, रिश्तेदार सब छोड़ दिए, आज वही मुझे बिना बताए चली गई. उस पर उस की मां कोर्टकचहरी की धमकी दे रही है. अगर उस का परिवार है तो मैं भी तो कोई अकेला नहीं हूं.’

देव भी अपने घर चला गया. उस के परिवार के लोगों ने भी यही कहा, ‘तुम ने गैरजात की लड़की से शादी कर के जीवन की सब से बड़ी भूल की है. तलाक लो. फुरसत पाओ. हम समाज की किसी अच्छी लड़की से शादी करवा देंगे. शादी 2 परिवारों का मिलन है. जो गलती हो गई उसे भूल जाओ. अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है? अच्छे दिखते हो. अच्छी कमाई है. अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा, सुबह का भूला शाम को घर आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते. अच्छा हुआ कि कोई बालबच्चा नहीं हुआ वरना फंस गए थे बुरी तरह. पूरा जीवन बरबाद हो जाता. फिर तुम्हारे बच्चों की शादी किस जात में होती.’

प्रेम तभी सार्थक है जब वह निभ जाए. यदि बीच में टूट जाए तो उसे अपने पराए सब गलती कहते हैं. यदि यही शादी जाति में होती तो मातापिता समझाबुझा कर बच्चों को सलाह देते. विवाह कोई मजाक नहीं है. थोड़ाबहुत सुनना पड़ता है. स्त्री का धर्म है कि जहां से डोली उठे, वहीं से जनाजा. फिर दामादजी से क्षमायाचना की जाती है. बहू को भी प्रेम से समझाबुझा कर लाने की सलाह दी जाती है. लेकिन मातापिता की मरजी के विरुद्ध अंतरजातीय विवाह में तो जैसे दोनों पक्षों के परिवार वाले इस प्रयास में ही रहते हैं.

यह शादी ही नहीं थी, धोखा था. लड़केलड़की को बहलाफुसला कर प्रेम जाल में फंसा लिया गया था. उन की बेटाबेटी तो सीधासादा था. अब तलाक ही एकमात्र विकल्प है. यह शादी टूट जाए तो ही सब का भला है. ऐसे में जीजा नाम के प्राणी को घर का सम्मानित व्यक्ति समझ सलाह ली जाती है और जीजा वही कहता है जो सासससुर, समाज कहता है. इस गठबंधन के बंध तोड़ने का काम जीजा को आगे बढ़ा कर किया जाता है.

जब देव साधना से और साधना देव से बात करना चाहते तो दोनों तरफ से माता या पिता फोन उठा कर खरीखोटी सुना कर तलाक की बात पर अड़ जाते और बच्चों के कान में उलटेसीधे मंत्र फूंक कर एकदूसरे के खिलाफ घृणा भरते.

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तलाक की पहली पेशी में भी पतिपत्नी आपस में बात न कर पाए इस उद्देश्य से घर से समझाबुझा कर लाया गया था कोर्ट में और साथ में मातापिता, जीजा हरदम बने रहते कि कहीं कोई बात न हो जाए. इस बीच साधना औफिस नहीं गई. उस ने भोपाल तबादला करवा लिया या कहें करवा दिया गया.

मजिस्ट्रेट के पूछने पर दोनों पक्षों ने तलाक के लिए रजामंदी दिखाई. फिर दूसरी पेशी में उन के वकीलों ने दलीलें दीं. तीसरी पेशी में पत्नी और पति को साथ में थोड़े समय के लिए छोड़ा गया. कुछ झिझक, कुछ गुस्सा, कुछ दबाव के चलते कोई निर्णय नहीं हो पाया. चौथी पेशी में तलाक मंजूर कर लिया गया.

इस बीच 3 वर्ष गुजर गए. जिस जोरशोर से परिवार के लोगों ने दोनों का तलाक करवाया था, उसी तरह विवाह की कोशिश भी की, लेकिन जो उत्तर उन्हें मिलते उन उत्तरों से खीज कर वे अपने बच्चों को ही दोषी ठहराते.

तलाकशुदा से कौन शादी करेगा? 30 साल बड़ा 2 बच्चों का पिता चलेगा जो विधुर है.घर से भाग कर पराई जात के लड़के से शादी, फिर तलाक. एक व्यक्ति है तो लेकिन अपाहिज है. एक और है लेकिन सजायाफ्ता है लड़की से जबरदस्ती के केस में.

मां ने गुस्से में कह दिया, ‘‘बेटी, तुम भाग कर शादी करने की गलती न करती तो मजाल थी ऐसे रिश्ते लाने वालों की. समाज माफ नहीं करता.’’ फिर मां ने समझाते हुए कहा, ‘‘ऐसी बहुत सी लड़कियां हैं जो बिना शादी के ही परिवार की देखरेख में जीवन गुजार देती हैं. तुम भोपाल में भाईभाभी के साथ रहो. अपने भतीजेभतीजियों की बूआ बन कर उन की देखरेख करो.’’

साधना ने भाभी को भी धीरे से भैया से कहते सुन लिया था कि दीदी की अच्छी तनख्वाह है, हमारे बच्चों को सपोर्ट हो जाएगा. मन मार कर वह भाईभाभी के साथ रहने लगी. भाभी के हाथ में किचन था. भैया ड्राइंगरूम में अपने दोस्तों के साथ गपें लड़ाते, टीवी देखते रहते और वह दिनभर थकीहारी औफिस से आती तो दोनों भतीजे उसे पढ़ाने या उस के साथ खेलने की जिद करते उस के कमरे में आ कर.

कुछ ऐसा ही देव के साथ हुआ तलाक के बाद. शादी की जहां भी बात चलती तो लड़का तलाकशुदा है. कोई गरीब ही अपनी लड़की मजबूरी में दे सकता है. कौन जाने कोई बच्चा भी हो. फिर तलाश की गई लड़की की उम्र बहुत कम होती या उसे बिलकुल पसंद न आती.

पिता गुस्से में कहते, ‘‘दामन पर दाग लगा है, फिर भी पसंदनापसंद बता रहे हो. फिर भी तुम्हारे जीवन को सुखी बनाने के लिए कर रहे हैं तो दस कमियां निकाल रहे हैं जनाब. पढ़ीलिखी नहीं है. बहुत कम उम्र की है. दिखने में ठीकठाक नहीं है.’’

परिवार के व्यंग्य से तंग आ कर देव ने कई बार तबादला कराने की सोची. लेकिन सफलता नहीं मिली. इन 3 वर्षों में वह सब सुनता रहा और एक दिन उसे प्रमोशन मिल गया और उस का तबादला भोपाल हो गया. उसे मंगलवार तक औफिस जौइन करना था. रविवार को उस ने कंपनी से मिले नौकर की मदद से कंपनी के क्वार्टर में सारी सामग्री जुटा ली. सोमवार को उस ने बाकी छोटामोटा घरेलू उपयोग का समान लिया और मन बहलाने के लिए 6 बजे के शो का टिकट ले कर पिक्चर देखने चला गया. ठीक 9 बजे फिल्म छूटी. वह एमपी नगर से हो कर निकला जहां उस का औफिस था. सोचा, औफिस देख लूं ताकि कल आने में आसानी हो. एमपी नगर से औफिस पर नजर डालते हुए वह अंदर की गलियों से मुख्य रोड पर पहुंचने का रास्ता तलाश रहा था.

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दिसंबर की ठंड भरी रात. गलियां सुनसान थीं. उसे अपने से थोड़ी दूर एक महिला आगे की ओर तेज कदमों से जाती हुई दिखाई पड़ी. देव को लगा, शायद यह किसी दफ्तर से काम कर के मुख्य रोड पर जा रही हो, जहां से आटो, टैक्सी या सिटीबस मिलती हैं. वह उस के पीछे हो लिया. तभी उस महिला के पीछे 3 मवाली जैसे लड़कों ने चल कर भद्दे इशारे, व्यंग्य करने शुरू कर दिए.

‘‘ओ मैडम, इतनी रात को कहां? घर छोड़  या कहीं और?’’

फिर तीनों ने उसे घेर कर उस का रास्ता रोक लिया. महिला चीखी. देव तब तक और नजदीक आ चुका था. एक मवाली ने उसे थप्पड़ मार कर चुप रहने को कहा. महिला फिर चीखी. उसे चीख जानीपहचानी लगी. उस के दिल में कुछ हुआ. पास आया तो वह उस महिला को देख कर आश्चर्य में पड़ गया. यह तो साधना है. वह चीखा, ‘‘क्या हो रहा है, शर्म नहीं आती?’’

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