चुभन : भाग 2- क्या करूं मैं मीना का

मीना चली गई तो ऐसा लगा जैसे चैन आ गया है मुझे. अपनी सोच पर अफसोस भी हो रहा है कि मैं मीना को बहुत चाहता हूं फिर उस का जाना प्रिय क्यों लग रहा है? ऐसा क्यों लग रहा है कि शरीर के किसी हिस्से में समाया मवाद बह गया और पीड़ा से मुक्ति मिल गई. जिस के साथ पूरी उम्र गुजारने की सोची उसी का चला जाना वेदना क्यों नहीं दे रहा मुझे?

कुछ दिन बीत गए. विनय हर 2-3 दिन पर फोन कर के मेरा हाल पूछ लेता. कभी रात मेरे पास ही रुक जाता मानो बहन ने जो देखभाल कभी नहीं की उसे भाई पूरा करने का प्रयास कर रहा है.

एक शाम मैं ने विनय को समझाना चाहा, ‘‘मेरी वजह से तुम क्यों अपने परिवार से दूर रह रहे हो, विनय, चारू भाभी को बुरा लगेगा.

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‘‘तुम्हारी भाभी ने ही तो कहा है कि मैं तुम्हारे साथ रहूं और फिर तुम मेरा परिवार नहीं हो क्या? हैरान हूं मैं अजय, मीना का व्यवहार देख कर. वह सच में बहुत जिद्दी है. मैं भी पहली बार महसूस कर रहा हूं…तुम बहुत सहनशील हो अजय, जो उसे सहते रहे. तुम्हारी जगह यदि मैं होता तो शायद इतना लंबा इंतजार न करता.

‘‘अजय, सच तो यह है कि अपनी बहन का बचपना देख कर मुझे अपनी पत्नी और भी अच्छी लगने लगी है. दोनों में जब अंतर करता हूं तो पाता हूं कि चारू समझदार और सुघड़ पत्नी है. मीना जैसी को तो मैं भी सह नहीं पाता.

‘‘अकसर ऐसा होता है अजय, मनुष्य उस वस्तु से कभी संतुष्ट नहीं होता जो उस के पास होती है. दूसरे की झोली में पड़ा फल सदा ज्यादा मीठा लगता है. चारू की तुलना मैं सदा मीना से करता रहा हूं, मां ने भी अपनी बहू का अपमान करने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी. चारू मीना जितना पढ़लिख नहीं पाई क्योंकि शादी के बाद हम उसे क्यों पढ़ातेलिखाते? बी.ए. पास है, बस, ठीक है. मीना को तुम ने मौका दिया तो हम ने झट उसे चारू से बेहतर मान भी लिया पर यह कभी नहीं सोचा कि मीना की इच्छा का मान रखने के लिए तुम कबकब, कैसेकैसे स्वयं को मारते रहे.’’

‘‘चारू भाभी की अवहेलना मैं ने भी अकसर महसूस की है. मीना के जाने से मेरा भी भला हो रहा था और चारू भाभी का भी. मैं भी सुख की सांस ले रहा हूं और चारू भाभी भी.

‘‘कैसी है मीना, तुम ने बताया नहीं. क्या घर वापस नहीं आना चाहती? क्या मेरी जरा सी भी याद नहीं आती उसे?’’

‘‘पता नहीं, मुझ से तो बात भी नहीं करती. चारू से भी कटीकटी रहती है.’’

‘‘किसी के साथ खुश भी है वह. तुम बुरा मत मानना, विनय. कहीं ऐसा तो नहीं कि उस के जीवन में कोई और है या था…कहीं उस की शादी जबरदस्ती तो नहीं की गई?’’

मैं ने सहसा पूछा तो विनय के माथे पर कुछ बल पड़े फिर सामान्य हो कर और गहरा गए.

‘‘मैं ने मां से इस बारे में भी पूछा था.  तुम मेरे मित्र भी हो, अजय, तुम्हारे साथ जरा सी भी नाइंसाफी मैं सह नहीं सकता क्योंकि पिछले 6-7 साल से मैं तुम्हें जानता हूं कि तुम्हारा चरित्र सफेद कागज के समान है. कोई तुम्हारी भावना का अनादर क्यों करे? मेरी बहन भी क्यों? जहां तक मां का विचार है वह तो यही कहती हैं कि उन्हें इस बारे में कोई जानकारी नहीं है.’’

‘‘तो आज मैं आ जाऊं उसे वापस ले आने के लिए? आखिर, कुछ तो इस समस्या का समाधान होना ही चाहिए. मीना मेरी पत्नी है, कुछ तो मुझे भी करना होगा न.’’

विनय की आंखें भर आईं. उस ने मेरा हाथ कस कर पकड़ लिया. संभवत: उसे भी यही एक रास्ता सूझ रहा होगा कि मैं ही कुछ करूं.

दूसरी सुबह मैं अपनी ससुराल पहुंच गया. पूरे 15 दिन बाद मैं मीना से मिलने वाला था.

सड़क की मरम्मत का काम चल रहा था. पूरे रास्ते पर कंकर बिछे थे इसलिए स्कूटर घर से बहुत दूर ही खड़ा करना पड़ा. पैदल ही घर तक आया इसीलिए मेरे आने का किसी को भी पता नहीं चला.

मैं घर के आंगन में खड़ा था. मां और भाभी दोनों रसोई में व्यस्त थीं. उन्होंने मुझे देखा नहीं. चुपचाप सीढि़यां चढ़ कर मैं ऊपर मीना के कमरे के पास पहुंचा और पति के अधिकार के साथ दरवाजा धकेला मैं ने.

‘‘चारू, तुम जाओ. मैं ने कहा न मुझे भूख नहीं है…

‘‘जानती हूं तुम्हारी चापलूसी को सभी को मेरे खिलाफ भड़काती हो…अनपढ़ गंवार कहीं की…तुम जलती हो मुझ से.’’

मीना की यह भाषा सुन कर मैं हक्काबक्का रह गया. आहट पर ही इतनी बकवास कर रही है तो आमनेसामने झगड़ा करने में उसे कितनी देर लगती होगी. कैसी औरत मेरे पल्ले पड़ गई है जिस का एक भी पहलू मेरे गले से नीचे नहीं उतरता.

‘‘चारू भाभी क्यों जलेगी तुम से? ऐसा क्या है तुम्हारे पास, जरा बताओ तो मुझे. तुम तो मानसिक रूप से कंगाल हो.’’

काटो तो खून नहीं रहा मीना में. मेरा स्वर और मेरी उपस्थिति की तो उस ने कल्पना भी न की होगी. अफसोस हुआ मुझे खुद पर और सहसा अपना आक्रोश न रोक पाने पर.

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‘‘चारू भाभी से अच्छे व्यवहार जैसा कुछ है तुम्हारे पास? तुम तो न अपने मांबाप की सगी हो न भाईभाभी की. न ससुराल में तुम्हें कोई पसंद करता है न मायके में. यहां तक कि पति भी तुम से खुश नहीं है. ऐसा कौन है तुम्हारा जो तुम से प्यार कर के खुद को धन्य मानता है? तुम तो अपनी एम.ए., बी.एड. की डिगरी पर इतराती हो जिस का मूल्य बाजार में 1,000-1,500 रुपए से ज्यादा नहीं है.’’

सन्न रह गई मीना. शायद यह आईना उसे मैं ही दिखा सकता था. आंखें फाड़फाड़ कर वह मुझे देखने लगी.

‘‘धन्य मानो स्वयं को जो तुम्हें इतना चाहने वाले भाईभाभी मिले हैं, नाज उठाने वाले मांबाप मिले हैं और हर जिद पूरी करने वाला पति मिला है जो अपनी हर इच्छा मार कर भी तुम्हारी जिद पूरी करता है.

‘‘तुम तो बस, यही चाहती हो कि हर कोने में तुम्हारा ही अधिकार हो. मायके का यह कमरा हो या ससुराल का घर, हर इनसान बस, तुम्हारे ही चाहने पर कुछ चाहे या न चाहे. मीना, यह भी जान लो कि इनसान का हर कर्म, हर व्यवहार एक दिन पलट कर वापस आता है. इतना जहर न बांटो कि हर दिशा से बस, जहर ही पलट कर तुम्हारे पास वापस आए.’’

रो पड़ा था मैं यह सोच कर कि कैसे इस पत्थर को समझाऊं. सामने खिड़की के पार मजदूर बच्चे खेल रहे थे, हाथ पकड़ कर मैं मीना को खिड़की के पास ले आया और बोला, ‘‘वह देखो, सामने उन बच्चों को. सोच सकती हो वे कैसी गरमीसर्दी सह रहे हैं. कूलर की ठंडी हवा में चैन से बैठी हो न, सोचो अगर उन्हीं मजदूरों के घर तुम्हारा जन्म होता तो आज यही जलते कंकर तुम्हारा बिस्तर और यही पत्थर तुम्हारी रोजीरोटी होते तब कहां होते सब नाजनखरे? यह सब चोंचले तभी तक हैं जब तक सब सहते हैं.

‘‘तुम विनय की पत्नी का इतना अपमान करती हो, आज अगर वह तुम्हें कान से पकड़ कर बाहर निकाल दे तब कहां जाएगी तुम्हारी यह जिद, तुम्हारा लड़नाझगड़ना. क्यों मेरे साथसाथ इन सब का भी जीना हराम कर रखा है तुम ने?’’

अपना अनिश्चित भविष्य देख कर मैं घबरा गया था शायद, इसीलिए जैसे गया था वैसे ही लौट आया. किसी को मेरे वहां जाने का पता भी न चला.

विनय बारबार फोन कर के ‘क्या हुआ, कैसे हुआ’ पूछता रहा. क्या कहूं मैं उस से? कैसे कहूं कि मेरी पत्नी उस की पत्नी का अपमान किस सीमा तक करती है.

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जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

चुभन : भाग 1- क्या करूं मैं मीना का

‘‘कभी तो संतुष्ट होना सीखो, मीना, कभी तो यह स्वीकार करो कि हम लाखोंकरोड़ों से अच्छा जीवन जी रहे हैं. मैं मानता हूं कि हम बहुत अमीर नहीं हैं, लेकिन इतने कंगाल भी नहीं हैं कि तुम्हें हर पल बस, रोना ही पड़े.’’

सदा की तरह मैं ने अपना आक्रोश निकाल तो दिया लेकिन जानता हूं, मेरा भाषण मीना के गले में आज भी कांटा बन कर चुभ गया होगा. क्या करूं मैं मीना का, समझ नहीं पाता हूं, आखिर कैसे उस के दिमाग में मैं यह सत्य बिठा पाऊं कि जीवन बस, हंसीखुशी का नाम है.

पिछले 3 सालों से मीना मेरी पत्नी है. उस की नसनस से वाकिफ हूं मैं. जो मिल गया उस की खुशी तो उस ने आज तक नहीं जताई, जो नहीं मिल पाया उस का अफसोस उसे सदा बना रहता है.

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मैं तो हर पल खुश रहना चाहता हूं. जीवन है ही कितना, सांस आए तो जीवन, न आए तो मिट्टी का ढेर. खुश होने को भी समय नहीं मिलता मुझे. और मीना, पता नहीं कैसे रोनेधोने को भी समय निकाल लेती है.

‘‘बचपन से ऐसी ही है मीना,’’ उस की मां ने कहा, ‘‘पता नहीं क्यों हर पल नाराज सी रहती है. जब देखो भड़क उठना उस के स्वभाव में ही है. हर इनसान का अपनाअपना स्वभाव है, क्या करें?’’

‘‘हां, और आप ने उसे कभी सुधारने की कोशिश भी नहीं की,’’ अजय ने उलाहना दिया, ‘‘बच्चे को सुधारना मातापिता का कर्तव्य है लेकिन आप ने उस की गलत आदतों को मान कर सिर्फ बढ़ावा ही दिया.’’

‘‘नहीं, अजय, ऐसा भी नहीं है,’’ सास बोली थीं, ‘‘संतुष्ट ही रह जाती तो शादी के बाद पढ़ती कभी नहीं. शादी के समय मात्र बी.ए. पास थी. अब एम.ए., बी.एड. है और आगे भी पढ़ना चाहती है. संतुष्ट नहीं है तभी तो…’’

‘‘उस की इसी जिद में मैं पिस रहा हूं. अपनी पढ़ाईलिखाई में उसे मेरा कोई भी काम याद नहीं रहता. मुझे अपना काम भी स्वयं ही करना पड़ता है. कपड़ों से ले कर नाश्ते तक. घर जाओ तो एक कप चाय की उम्मीद पत्नी से मुझे नहीं होती.

‘‘मैं तो मीना के पास होने पर खुश होता हूं और वह रोती है कि शादी की अगर जिम्मेदारी न होती तो और भी ज्यादा अंक आ सकते थे. अरे, शादी की ऐसी कौन सी जिम्मेदारी उस पर है, जरा पूछो उस से. मीना का बड़ा भाई मेरा दोस्त भी है. कभीकभार उस से शिकायत भी करता हूं.

‘‘कुछ लोग संसार में बस, रोने के लिए ही आते हैं. उन्हें चैन से खुद तो जीना आता नहीं, सामने वाले को भी चैन से जीने देना नहीं चाहते. तुम मीना को कुछ दिन के लिए अपने घर ले जाओ. एम.एड. करना चाहती है. वहीं पढ़ाओ उसे, मेरी जिम्मेदारी उस पर भारी पड़ रही है,’’ एक दिन मैं ने उस के भाई से कह ही दिया.

‘‘क्या कह रहे हो, अजय?’’ विनय ने हैरानी जाहिर की तो मैं हाथ से छूट गए ऊन के गोले की तरह खुलता ही चला गया.

‘‘मेरी तो समझ में नहीं आता कि आखिर मीना चाहती क्या है. पढ़ना चाहती थी तो पढ़ती रहती, शादी क्यों की थी? 3 साल हो गए हैं हमारी शादी को पर परिवार बढ़ाना ही नहीं चाहती, क्या बुढ़ापे में संतान के बारे में सोचेगी? विनय, मेरी जगह तुम होते तो क्या यह सब सह पाते?

‘‘अच्छीखासी तनख्वाह है मेरी, मगर नहीं, हर समय यही रोना ले कर बैठी रहती है कि उसे भी काम करना है इसलिए और पढ़ना चाहती है. एम.ए., बी.एड. कर के कौन सा तीर मार लिया जो अब एम.एड. करने की ठानी है. दरअसल, उस का चाहा क्यों नहीं हुआ यह शिकायत उस की आदत है और यह हमेशा ही रहेगी. बीत जाएगा उस का भी और मेरा भी जीवन इसी तरह चीखतेचिल्लाते.’’

विनय चुप था. क्या कहता? जाहिर सा था उस का भी हावभाव.

‘‘मैं जानता हूं, वापस ले जाना इस समस्या का हल नहीं है, कुछ दिन को ही ले जाओ. आजकल उस का रोनाधोना जोरों पर है, उसे समझा पाना मेरे बस से बाहर होता जा रहा है.’’

विनय सकपका रहा था. यह सबकुछ सुनने के बाद बोला, ‘‘ठीक है, कल इतवार है, मैं सुबह आ जाऊंगा. शाम तक तुम दोनों के पास रहूंगा. तुम चिंता मत करो. भाई हूं, उसे मैं समझाऊंगा.’’

दूसरी सुबह अभी हम नाश्ता करने ही वाले थे कि विनय ने दरवाजा खटखटा दिया. मीना बड़े भाई को देख कर भी उखड़ी ही रही.

‘‘यहां स्टेशन पर किसी काम से आया था. सोचा, आज का दिन तुम दोनों के साथ बिताऊंगा, लेकिन तुम्हारा तो चेहरा लटका हुआ है. नाश्ता नहीं किया है मैं ने, तुम खिला दोगी न?’’

कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई मीना पर. एक मेहमान के लिए ही सही, स्वाभाविक मुसकान भी चेहरे पर नहीं आई. जी में आया, पता नहीं क्या कर दूं. मेरे भैयाभाभी आए थे तो भी यही तमाशा किया था मीना ने.

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‘‘मीना, मैं तुम से ही बात कर रहा हूं. यह क्या तरीका है घर आने वाले का स्वागत करने का?’’

विनय के व्यवहार पर तनिक चौंकी थी मीना. सदा नाजनखरे उठाने वाला भाई क्या इस तरह भी बोल सकता है.

‘‘रहने दीजिए न आप, बात ही क्यों कर रहे हैं मुझ से,’’ तुनक कर दरवाजे से हट गई मीना और विनय अवाक् कभी मेरा मुंह देखे और कभी जाती हुई बहन का.

विनय के चेहरे पर अपमान के भाव तो कम उभरे आत्म- ग्लानि के भाव ज्यादा थे. अपना ही सोना खोटा हो तो किसे दोष देता विनय. मेरे वे शिकायती शब्द असत्य नहीं हैं यह स्पष्ट था. मेरी परेशानी भी कम न होगी वह समझ रहा था.

‘‘मां बीमार हैं, मीना. चलो, मैं तुम्हें लेने आया हूं.’’

‘‘मुझे कहीं नहीं जाना,’’ यह कह कर वह जाने लगी तो विनय ने बांह पकड़ रोकना चाहा, तब मीना बड़े भाई का हाथ झटक कर बोली, ‘‘मुझे तो एम.एड. में दाखिला चाहिए.’’

‘‘एम.एड. में दाखिला लेने के लिए क्या बदतमीजी करना जरूरी है?’’ विनय बोला, ‘‘तुम्हें तो छोटेबड़े का भी लिहाज नहीं है. जब पढ़लिख कर बदतमीजी ही सीखनी है तो तुम बी.ए. पास ही अच्छी थीं.’’

विनय के शब्द तनिक कड़वे हो गए थे जिन पर मुझे भी अच्छा नहीं लगा था. मीना मेरी पत्नी है. कोई उस पर नाराज हो, मैं भी तो यह नहीं चाहता.

‘‘मीना, तुम अपने होशोहवास में तो हो. तुम बच्ची नहीं हो जो इस तरह जिद करो. अपने घर के प्रति भी तुम्हारी कोई जिम्मेदारी बनती है.’’

‘‘मैं ने अपनी कौन सी जिम्मेदारी नहीं निभाई. मन मार कर वहीं तो रह रही हूं जहां आप ने ब्याह दिया है.’’

काटो तो खून नहीं रहा मुझ में और साथ ही विनय में भी. मानो वह मुझ से नजर चुरा रहा हो.

‘‘मुझे आप के साथ कहीं नहीं जाना. कह दीजिएगा मां से कि अब यहीं जीनामरना है, बस…’’

‘‘कैसी पागलों जैसी बातें कर रही हो. अजय जैसा अच्छा इनसान तुम्हारा पति है. जैसा चाहती हो वैसा ही करता है, और क्या चाहिए तुम्हें?’’

मैं कमरे से बाहर चला गया. आगे कुछ भी सुनने की चाह मुझ में नहीं थी. कुछ भी सुनना नहीं चाहा मैं ने. क्या सोच कर विनय को बुलाया था पर उस के आ जाने से तो सारा विश्वास ही डगमगा सा गया.

तंद्रा टूटी तो पता चला काफी समय बीत चुका है. शायद दोपहर होने को आ गई थी. विनय वापस जाने को कंधा हिला रहा था.

‘‘मीना को साथ ले जा रहा हूं. तुम अपना खयाल रखना.’’

और मीना बिना मुझ से मिले, विदा लिए, बिना कोई बात किए ही चली गई. नाश्ता उसी तरह मेज पर रखा रहा. मीना ने मेरी भूख के बारे में भी नहीं सोचा. भूखा रहना तो मेरी तब से मजबूरी है जब से उस के साथ बंधा हूं. कभीकभी तरस भी आता है मीना पर.

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हमारे बीच कभी कोई सेतु बना ही नहीं. संतान होती तो भी कोई धागा बंध जाता हमारे बीच मगर मीना तो संतान के नाम से भी दूर भागती है. लेकिन आज जो कानों में पड़ा उस के पीछे मात्र पढ़ाई की जिद नहीं लगती, लगता है आवरण के भीतर कुछ और भी है. कोई ऐसी अतृप्त इच्छा, कोई ऐसी अपूर्ण चाह जिस का बदला शायद वह मेरी अवहेलना कर मुझ से ले रही है.

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चुभन : क्या करूं मैं मीना का

आज का सच : भाग 3- क्या था रामसिंह का सच

रामसिंह धीरेधीरे मुसाफिर बन गया. अब उस की रोटी बड़ी दूरदूर बिखर गई थी, जिसे चुनने उसे दूरदूर जाना पड़ता था. लंबी सवारी मिल जाती तो अकसर हफ्ताहफ्ता वह आता ही नहीं था और जब भी आता अपनी सारी कमाई मेरे हवाले कर लौट जाता. उस की जमीन के कागज भी मेरे ही पास पडे़ थे. धीरेधीरे वह हमारे परिवार का ही सदस्य बन गया. वह जहां भी होता हमें अपना अतापता बताता रहता. जिस दिन उसे आना होता था मेरी पत्नी उस की पसंद का ही कुछ विशेष बना लेती.

हमारी बेटियां भी धीरेधीरे उसे अपना भाई मान चुकी थीं. मेरे पैर का टूटना और रामसिंह का जीजान से मेरी सेवा करना भी उन्हें अभिभूत कर गया था.

एक शाम वापस आया तो वह बेहद थका सा लगा था. उस शाम उस ने अपने पैसे भी मुझे नहीं दिए और कुछ खा भी नहीं पाया. पिछले 3-4 महीने में आदत सी हो गई थी न रामसिंह की बातें सुनने की, उस की बड़ीबड़ी बातों पर जरा रुक कर पुन: सोचने की. आधी रात हो गई थी, खटका सा लगा बाहर बरामदे में. कौन हो सकता है यही देखने को मैं बाहर गया तो बरामदे की सीढि़यों पर रामसिंह चुपचाप बैठा था.

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‘‘क्या बात है, बेटा? बाहर सर्दी में क्यों बैठा है? उठ, चल अंदर चल,’’ और हाथ पकड़ कर उसे अपने साथ ले आया.

मेरी पत्नी भी उठ कर बैठ गई. अपना शाल उस पर ओढ़ा कर पास बिठा लिया. रो पड़ा था रामसिंह. पत्नी ने माथा सहला दिया तो सहसा उस की गोद में समा कर वह चीखचीख कर रोने लगा और हम दोनों उस की पीठ सहलाते रहे. पहली बार इस तरह उसे रोते देख रहे थे हम.

‘‘कोई नुकसान हो गया क्या, बेटा? किसी ने तुम्हारे पैसे छीन लिए क्या? क्या हुआ मेरे बच्चे बता तो मुझे,’’ मैं ने माथा सहला कर पूछा तो कुछ कह नहीं पाया राम.

‘‘अच्छा, सुबह बताना, अभी सो जा. यहीं सो जा हमारे पास.’’

पत्नी ने जरा सा आगे सरक कर अपने पास ही जगह बना दी.

रामसिंह वहीं हम दोनों के बीच में चुपचाप छोटे बच्चे की तरह सो गया. सुबह हम दोनों जल्दी उठ जाते हैं न. सैर आदि के बाद पिछवाड़े गया तो देखा राम सब्जियों में पानी लगा रहा था.

‘‘देखिए तो चाचाजी, गोभी फूटने लगी है. गाजर और मूली भी. इस सर्दी में हमें सब्जी बाजार से नहीं लानी पडे़गी.’’

मस्त था रामसिंह. कुरता उतार कर तार पर टांग रखा था और गले में मेरी पत्नी की चेन चमचमा रही थी. एक किसान का बलिष्ठ शरीर, जो तृप्ति मिट्टी के साथ मिट्टी हो कर पाता है, वह गाड़ी के घूमते चक्कों के साथ कहां पा सकता होगा, मैं सहज ही समझने लगा. कुदाल और खुरपी उसे जो सुख दे पाती होगी वह गाड़ी का स्टेयरिंग कैसे दे पाता होगा. अपार सुख था राम के चेहरे पर, जब वह गोभी और गाजर की बात कर रहा था.

पत्नी चाय की टे्र हाथ में लिए हमें ढूंढ़ती हुई पीछे ही चली आई थी.

‘‘चाचीजी, देखिए तो, नन्हीनन्ही गोभियां फूट रही हैं?’’

हाथ धो कर चाय पीने लगा रामसिंह, तब सहसा मैं ने पूछ लिया, ‘‘इन 2 दिनों में जो कमाया वह कहां है, रामसिंह, किसी बुरी संगत में तो नहीं उड़ा दिया?’’

एक बार फिर चुप सा हो गया रामसिंह. एक विलुप्त सी हंसी उस के होंठों पर चली आई.

‘‘बुरी संगत में ही उड़ा दिया चाचाजी…जो गया सो गया. अब भविष्य के लिए मैं ने दुनिया से एक और सबक सीख लिया है. सब रिश्ते महज तमाशा, सच्चा है तो सिर्फ दर्द का रिश्ता…खून का रिश्ता तो सिर्फ खून पीता है, सुख नहीं देता.

‘‘परसों रात एअरपोर्ट पर से एक परिवार मिला जिसे मेरे ही गांव जाना था. मैं खुशीखुशी मान गया. सुबह गांव पहुंचा तो सोचा कि सवारी छोड़ कर एक बार अपना बंद घर और जमीन भी देख आऊंगा.

‘‘सवारी छोड़ी और जब उन का सामान निकालने पीछे गया तो उन के साथ ब्याही दुलहन को देख हैरान रह गया. वह लड़की वही थी जो कभी मेरी मंगेतर थी और आज अपने विदेशी पति के साथ गांव आई थी.

‘‘सामान उतार कर मैं वापस चला आया. उस के परिवार से रुपए लिए ही नहीं…आज वह मेरी कुछ नहीं लेकिन मेरे गांव की बेटी तो है. मन ही नहीं हुआ उस से पैसे लेने का.

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‘‘अफसोस इस बात का भी हुआ कि उस ने मुझे पहचाना तक नहीं. यों देखा जैसे जानती ही नहीं, क्या विदेश जा कर इनसान इतना बदल जाता है? कभीकभी सोचता हूं, मेरा प्यार, मेरी संवेदनाएं इतनी सस्ती थीं जिन का सदा निरादर ही हुआ. बाप भूल गया, पीछे एक परिवार भी छोड़ा है और यह लड़की भी भूल गई जिस के लिए कभी मैं उस का सबकुछ था.

‘‘गांव का ही समझ कर इतना तो पूछती कि मैं कैसा हूं, उस के बिना कैसे जिंदा हूं…कोई ऐसा भाव ही उस के चेहरे पर आ जाता जिस से मुझे लगता उसे आज भी मुझ से जरा सी ही सही हमदर्दी तो है.’’

रामसिंह की बात पर हम अवाक् रह गए थे, उस के जीवन के एक और कटु अनुभव पर. जमीनें छूटीं तो क्याक्या छूट गया हाथ से. मंगेतर भी और उस का प्यार भी. कौन एक खाली हाथ इनसान के साथ अपनी लड़की बांधता.

‘‘वह बहुत सुंदर थी, चाचाजी, पर मेरा नसीब उतना अच्छा कहां था जो वह मुझे मिल जाती. मैं ने जीवन से समझौता कर लिया है. किसकिस से माथा टकराता फिरूं. सब को माफ करते चले जाओ इसी में सुख है.’’

मेरी पत्नी रो पड़ी थी रामसिंह की अवस्था पर. कैसी मनोदशा से गुजर रहा है यह बच्चा…उस के समीप जा कर जरा सा माथा सहला दिया.

‘‘मैं निराश नहीं हूं, चाचीजी, सबकुछ छीन लिया मुझ से मेरे पिता ने तो क्या हुआ, आप का पता तो दे दिया. आप दोनों मिल गए मुझे…आज मैं कहीं भी जाऊं  मुझे एक उम्मीद तो रहती है कि एक घर है जहां मेरी मां मेरा इंतजार करती है, उसे मेरी भूखप्यास की चिंता रहती है. एक ऐसा परिवार जो मेरे साथ हंसता है, मेरे साथ रोता है. मुझे सर्दी लगे तो अपने प्यार से सारी पीड़ा हर लेता है. मुझे गरमी लगे तो अपना स्नेह बरसा कर ठंडक देता है. एक इनसान को जीने के लिए और क्या चाहिए? कल तक मैं लावारिस था, आज तो लावारिस नहीं हूं…मेरी 2 बहनें हैं, उन का परिवार है. मेरे मांबाप हैं. कल मैं जमीन से उखड़ा था. आज तो जमीन से उखड़ा नहीं हूं. मुझे आप लोगों के रूप में वह सब मिला है जो किसी इनसान को सुखी होने के लिए चाहिए. मैं आप को एक अच्छा बेटा बन कर दिखाऊंगा. चाचाजी, क्या आप मुझे अपना मान सकते हैं?’’

रो पड़ा था मैं. अपना और किसे कहते हैं, अब मैं कैसे उसे समझाऊं. जो पिछले 4 महीने से अंगसंग है वही तो है हमारा अपना. मेरी पत्नी ने रामसिंह को गले लगा कर उस का माथा चूम लिया.

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इस छोटी सी उम्र में क्याक्या देख चुका रामसिंह, यह कब तक हमारा बन हमारे पास  रहेगा मैं नहीं जानता. मेरी पत्नी की गोद में समाया राम कब तक हमें हमारी खोई संतान भूली रहने देगा, मैं यह भी नहीं जानता. कल क्या होगा मैं नहीं जानता मगर आज का सच यही है कि राम हमारा है, हमारा अपना.

आज का सच : भाग 2- क्या था रामसिंह का सच

उसी सुबह बिस्तर से उठते ही मेरा पैर जरा सा मुड़ा और कड़क की आवाज आई. सूज गया पैर. मेरी चीख पर राम भागा चला आया. आननफानन में राम ने मुझे  गाड़ी में डाला और लगभग 2 घंटे बाद जब हम डाक्टर के पास से वापस लौटे, मेरे पैर पर 15 दिन के लिए प्लास्टर चढ़ चुका था. पत्नी रोने लगी थी मेरी हालत पर.

‘‘रोना नहीं, चाचीजी, कुदरती रजा के आगे हाथ जोड़ो. कुदरत जो भी दे दे हाथ जोड़ कर ले लो. उस ने दुख दिया है तो सुख भी देगा.’’

रोना भूल गई थी पत्नी. मैं भी अवाक्  सा था उस के शब्दों पर. अपनी पीड़ा कम लगने लगी थी सहसा. यह लड़का न होता तो कौन मुझे सहारा दे कर ले जाता और ले आता. दोनों बेटियां तो बहुत दूर हैं, पास भी होतीं तो अपना घर छोड़ कैसे आतीं.

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‘‘मैं हूं न आप के पास, चिंता की कोई बात नहीं.’’

चुप थी पत्नी, मैं उस का चेहरा पढ़ सकता हूं. अकसर पीड़ा सी झलक उठती है उस के चेहरे पर. 10 साल का बेटा एक दुर्घटना में खो दिया था हम ने. आज वह होता तो रामसिंह जैसा होता. एक सुरक्षा की अनुभूति सी हुई थी उस पल रामसिंह के सामीप्य में.

रामसिंह हमारे पास आश्रित हो कर आया था पर हालात ने जो पलटा खाया कि उस के आते ही हम पतिपत्नी उस पर आश्रित हो गए? पैर की समस्या तो आई ही उस से पहले एक और समस्या भी थी जिस ने मुझे परेशान कर रखा था. मेरी वरिष्ठता को ले कर एक उलझन खड़ी कर दी थी मेरे एक सहकर्मी ने. कागजी काररवाई में कुछ अंतर डाल दिया था जिस वजह से मुझे 4 महीने पहले रिटायर होना पडे़गा. कानूनी काररवाई कर के मुझे इनसाफ लेना था, वकील से मिलने जाना था लेकिन टूटा पैर मेरे आत्मविश्वास पर गहरा प्रहार था. राम से बात की तो वह कहने लगा, ‘‘चाचाजी, 4 महीने की ही तो बात है न. कुछ हजार रुपए के लिए इस उम्र में क्या लड़ना. मैं भागने के लिए नहीं कह रहा लेकिन आप सोचिए, जितना आप को मिलेगा उतना तो वकील ही खा जाएगा…अदालतों के चक्कर में आज तक किस का भला हुआ है. करोड़ों की शांति के लिए आप अपने सहकर्मी को क्षमा कर दें. हजारों का क्या है? अगर माथे पर लिखे हैं तो कुदरत देगी जरूर.’’

विचित्र आभा है रामसिंह की. जब भी बात करता है आरपार चली जाती है. बड़ी से बड़ी समस्या हो, यह बच्चा माथे पर बल पड़ने ही नहीं देता. पता नहीं चला कब सारी चिंता उड़नछू हो गई.

अन्याय के खिलाफ न लड़ना भी मुझे कायरता लगता है लेकिन सिर्फ कायर नहीं हूं यही प्रमाणित करने के लिए अपना बुढ़ापा अदालतों की सीढि़यां ही घिसने में समाप्त कर दूं वह भी कहां की समझदारी है. सच ही तो कह रहा है रामसिंह कि  करोड़ों का सुखचैन और कुछ हजार रुपए. समझ लूंगा अपने ही कार्यालय को, अपने ही कालिज को दान कर दिए.

पत्नी पास बैठी मंत्रमुग्ध सी उस की बातें सुन रही थी. स्नेह से माथा सहला कर पूछने लगी, ‘‘इतनी समझदारी की बातें कहां से सीखीं मेरे बच्चे?’’

हंस पड़ा था रामसिंह, ‘‘कौन? मैं समझदार? नहीं तो चाचीजी, मैं समझदार कहां हूं. मैं समझदार होता तो अपने पिता से झगड़ा करता, उन से अपना अधिकार मांगता, विलायत चला जाता, डालर, पौंड कमाता, मैं समझदार होता तो आज लावारिस नहीं होता. मैं ने भी अपने पिता को माफ कर दिया है.’’

‘‘कुदरत का सहारा है न तुम्हें, लावारिस कैसे हुए तुम?’’

पत्नी ने ममत्व से पुचकारा. रामसिंह की गहरी आंखें तब और भी गहरी लगने लगी थीं मुझे.

‘‘मन से तो लावारिस नहीं हूं मैं, चाचीजी. 2 हाथ हैं न मेरे पास, एक दिन फिर से वही किसान बन कर जरूर दिखाऊंगा जो सब को रोटी देता है.’’

‘‘वह दिन अवश्य आएगा रामसिंह,’’ पत्नी ने आश्वासन दिया था.

15 दिन कैसे बीत गए पता ही न चला. रामसिंह ही मुझे कालिज से लाता रहा और कालिज ले जाता रहा. उस ने चलनेफिरने को मुझे बैसाखी ला कर नहीं दी थी. कहता, ‘मैं हूं न चाचाजी, आप को बैसाखी की क्या जरूरत?’

24 घंटे मेरे संगसंग रहता रामसिंह. मेरी एक आवाज पर दौड़ा चला आता. घर के पीछे की कच्ची जमीन की गुड़ाई कर रामसिंह ने सुंदर क्यारियां बना कर उस में सब्जी के बीज रोप दिए थे. बाजार का सारा काम वही संभालता रहा. पत्नी के पैर अकसर शाम को सूज जाते थे तो हर शाम पैरों की मालिश कर रामसिंह थकान का निदान करता था. प्लास्टर कटने पर भी रामसिंह ही गाड़ी चलाता रहा. मैं तो उस का कर्जदार हो गया था.

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एक महीने के लिए कोई ड्राइवर रखता और घर का कामकाज भी वही करता तो 5 हजार से कम कहां लेता वह मुझ से. महीने भर बाद मैं ने रामसिंह के सामने उस की  पगार के रूप में 5 हजार रुपए रखे तो विस्मित भाव थे उस की आंखों में.

‘‘यह क्या है, चाचाजी?’’

‘‘समझ लो तुम्हारा काम शुरू हो चुका है. तुम गाड़ी बहुत अच्छी चला लेते हो. आज से तुम ही मेरी गाड़ी चलाओगे.’’

‘‘वह तो चला ही रहा हूं. आप के पास खा रहा हूं, रह रहा हूं, क्या इस का कोई मोल नहीं है? आप का अपना बच्चा होता मैं तो क्या तब भी आप मुझे पैसे देते?’’

जड़ सी रह गई थी मेरी पत्नी. पता ही नहीं चला था कब उस ने भी रामसिंह से ममत्व का गहरा धागा बांध लिया था. हमारी नाजुक और दुखती रग पर अनजाने ही राम ने भी हाथ रख दिया था न.

‘‘हमारा ही बच्चा है तू…’’

अस्फुट शब्द फूटे थे मेरी पत्नी के होंठों से. अपने गले से सोने की चेन उतार कर उस ने रामसिंह के गले में डाल दी. आकंठ आवेग में जकड़ी वह कुछ भी बोल नहीं पा रही थी. उसे पुन: खोया अपना बेटा याद आ गया था. पत्नी द्वारा पहनाई गई चेन पर भी रामसिंह असमंजस में था.

आंखों में प्रश्नसूचक भाव लिए वह बारीबारी से हमें देख रहा था. डर लगने लगा था मुझे अपनी अवस्था से, हम दोनों पराया खून कहीं अपना ही तो नहीं समझने लगे. मैं तो संभल जाऊंगा लेकिन मेरी पत्नी का क्या होगा, जिस दिन रामसिंह चला जाएगा.

उस पल वक्त था कि थम गया था. रामसिंह भी चुप ही रहा, कुछ भी न पूछा न कहा. रुपए वहीं छोड़ वह भी बाहर चला गया. कुछ एक प्रश्न जहां थे वहीं रहे.

अगले 2 दिन वह काफी दौड़धूप में रहा. तीसरे दिन उस ने एक प्रश्न किया.

‘‘चाचाजी, क्या आप बैंक में मेरी गारंटी देंगे? मैं गाड़ी अच्छी चला लेता हूं, आप ने ऐसा कहा तो मुझे दिशा मिल गई. मैं टैक्सी तो चला ही सकता हूं न, आप गारंटी दें तो मुझे कर्ज मिल सकता है. मैं टैक्सी खरीदना चाहता हूं.’’

5 लाख की गाड़ी के लिए मेरी गारंटी? कल को रामसिंह गाड़ी ले कर फरार हो गया तो मेरी सारी उम्र की कमाई ही डूब जाएगी. बुढ़ापा कैसे कटेगा. असमंजस में था मैं. कुछ पल रामसिंह मेरा चेहरा पढ़ता रहा फिर भीतर अपने कमरे में चला गया और जब वापस लौटा तो उस के हाथ में कुछ कागज थे.

‘‘यह गांव की जमीन के कागज हैं, चाचाजी. जमीन पंजाब में है इसलिए बैंक ने इन्हें रखने से इनकार कर दिया है. बैंक वाले कहते हैं कि किसी स्थानीय व्यक्ति की गारंटी हो तो ही कर्ज मिल सकता है. आप मेरी जमीन के कागज अपने पास रख लीजिए और अगर भरोसा हो मुझ पर तो…’’

मैं ने गारंटी दे दी और रामसिंह एक चमचमाती गाड़ी का मालिक बन गया. पहली कमाई आई तो रामसिंह ने उसे मेरे हाथ पर रख दिया.

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‘‘अपने पैसे अपने पास रख, बेटा.’’

‘‘अपने पास ही तो हैं. आप के सिवा मेरा है ही कौन जिसे अपना कहूं.’’

जानें आगे की कहानी अगले भाग में…

आज का सच : भाग 1- क्या था रामसिंह का सच

‘माटी कहे कुम्हार से तू क्या रौंदे मोहे,

इक दिन ऐसा आएगा मैं रौंदूंगी तोहे.’

मेरी पत्नी रसोई में व्यस्त गुनगुना रही थी और बीचबीच में आवाज भी लगा रही थी, ‘‘रामजी, बेटा आ जाओ और अपने चाचाजी से भी कहो कि जल्दी आ जाएं वरना वह कहेंगे कि रोटी अकड़ गई.’’

‘‘चाचीजी, आप को नहीं लगता कि आप अभीअभी जो गा रही थीं वह कुछ ठीक नहीं था?’’

‘‘अरे, कबीर का दोहा है. गलत कैसे हुआ?’’

‘‘गलत है, मैं ने नहीं कहा, जरा एकपक्षीय है, ऐसा लगता है न कि मिट्टी अहंकार में है, कुम्हार उसे रौंद रहा है और वह उसे समझा रही है कि एक दिन वह भी इसी तरह मिट्टी बन जाएगा.’’

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‘‘सच ही तो है, हमें एक दिन मिट्टी ही तो बन जाना है.’’

‘‘मिट्टी बन जाना सच है, चाचीजी, मगर यह सच नहीं कि कुम्हार से मिट्टी ने कभी ऐसा कहा होगा. कुम्हार और मिट्टी का रिश्ता तो बहुत प्यारा है, मां और बच्चे जैसा, ममता से भरा. कोई भी रिश्ता अहंकार की बुनियाद पर ज्यादा दिन नहीं टिकता और यह रिश्ता तो बरसों से निभ रहा है, सदियों से कुम्हार और मिट्टी साथसाथ हैं. यह दोहा जरा सा बदनाम नहीं करता इस रिश्ते को?’’

चुप रह गई थी मेरी पत्नी रामसिंह के सवाल पर. मात्र 26-27 साल का है यह लड़का, पता नहीं क्यों अपनी उम्र से कहीं बड़ा लगता है.

60 साल के आसपास पहुंचा मैं कभीकभी स्वयं को उस के सामने बौना महसूस करता हूं. राम के बारे में जो भी सोचता हूं वह सदा कम ही निकल पाता है. हर रोज कुछ नया ही सामने चला आता है, जो उस के चरित्र की ऊंचाई मेरे सामने और भी बढ़ा देता है.

‘‘तुम्हारा क्या कहना है इस बारे में?’’ मैं ने सवाल किया.

‘‘अहंकार के दम पर कोई भी रिश्ता देर तक नहीं निभ सकता. लगन, प्रेम और त्याग ही हर रिश्ते की जरूरत है.’’

मुसकरा पड़ी थी मेरी पत्नी. प्यार से राम के चेहरे पर चपत लगा कर बोली, ‘‘इतनी बड़ीबड़ी बातें कैसे कर लेता है रे तू?’’

‘‘हमारे घर के पास ही कुम्हार का घर था जहां मैं उसे रोज बरतन बनाते देखता था. मिट्टी के लोंदे का पल भर में एक सुंदर आकार में ढल जाना इतना अच्छा लगता था कि जी करता था सारी उम्र उसी को देखता रहूं… लेकिन मैं क्या करता? कुम्हार न हो कर जाट था न, मेरा काम तो खेतों में जाना था, लेकिन वह समय भी कहां रहा…आज न तो मैं किसान हूं और न ही कुम्हार. बस, 2 हाथ हैं जिन में केवल आड़ीतिरछी लकीरें भर हैं.’’

‘‘हाथों में कर्म करने की ताकत है बच्चे, चरित्र में सच है, ईमानदारी है. तुम्हारे दादादादी इतनी दुआएं देते थे तुम्हें, उन की दुआएं हैं तुम्हारे साथ…’’ मैं बोला.

‘‘वह तो मुझे पता है, चाचाजी, लेकिन रिश्तों पर से अब मेरा विश्वास उठ गया है. लोग रिश्ते इस तरह से बदलने लगे हैं जैसे इनसान कपड़े बदल लेता है.’’

खातेखाते रुक गया था राम. उस का कंधा थपथपा कर पुचकार दिया मैं ने. राम की पीड़ा सतही नहीं जिसे थपकने भर से उड़ा दिया जाए.

बचपन के दोस्त अवतार का बेटा है राम. अवतार अपने भाई को साथ ले कर विलायत चला गया था. तब राम का जन्म नहीं हुआ था इसलिए पत्नी को यहीं छोड़ कर गया. राम को जन्म देने के बाद अवतार की पत्नी चल बसी थी. इसलिए दादादादी के पास ही पला रामसिंह और उन्हीं के संस्कारों में रचबस भी गया.

अवतार कभी लौट कर नहीं आया, उस ने विलायत में ही दोनों भाइयों के साथ मिल कर अच्छाखासा होटल व्यवसाय जमा लिया.

रामसिंह तो खेतों के साथ ही पला बढ़ा और जवान हुआ. मुझे क्या पता था कि दादादादी के जाते ही अवतार सारी जमीन बेच देगा. राम को विलायत ले जाएगा, यही सोच मैं ने कोई राय भी नहीं मांगी. हैरान रह गया था मैं जब एक पत्र के साथ रामसिंह मेरे सामने खड़ा था.

पंजाब के एक गांव का लंबाचौड़ा प्यारा सा लड़का. मात्र 12 जमात पास वह लड़का आगे पढ़ नहीं पाया था, क्योंकि बुजुर्ग दादादादी को छोड़ कर वह शहर नहीं जा सका था.

गलत क्या कहा राम ने कि जब तक मांबाप थे 2 भाइयों ने उस का इस्तेमाल किया और मरते ही उसे दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिया. जमीन का जरा सा टुकड़ा उस के लिए छोड़ दिया. जिस से वह जीविका भी नहीं कमा सकता. यही सब आज पंजाब के हर गांव की त्रासदी होती जा रही है.

‘‘तुम भी विलायत क्यों नहीं चले गए रामसिंह वहां अच्छाखासा काम है तुम्हारे पिता का?’’ मैं ने पूछा.

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‘‘मेरे चाचा ने यही सोच कर तो सारी जमीनें बेच दीं कि मैं उन के साथ चलने को तैयार हो जाऊंगा. मुझ से मेरी इच्छा पूछी ही नहीं…आप बताइए चाचाजी, क्या मैं पूरा जीवन औरों की उंगलियों पर ही नाचता रहूंगा? मेरा अपना जीवन कब शुरू होगा? दादादादी जिंदा थे तब मैं ही जमीनों का मालिक था, कम से कम वह जमीनें ही वह मुझे दे देते. उन्हें भी चाचा के साथ बांट लिया…मैं क्या था घर का? क्या नौकर था? कानून पर जाऊं तो बापू की आधी जमीन का वारिस मैं था. लेकिन कानून की शरण में क्यों जाऊं मैं? वह मेरे क्या लगते हैं, यदि जन्म देने वाला पिता ही मेरा नहीं तो विलायत में कौन होगा मेरा, वह सौतेली मां, जिस ने आज तक मुझे देखा ही नहीं या वे सौतेले भाई जिन्होंने आज तक मुझे देखा ही नहीं, वे मुझे क्यों अपनाना चाहेंगे? पराया देश और पराई हवा, मैं उन का कौन हूं, चाचाजी? मेरे पिता ने मुझे यह कैसा जीवन दे दिया?’’

रोना आ गया था मुझे राम की दशा पर. लोग औलाद को रोते हैं, नाकारा और स्वार्थी औलाद मांबाप को खून के आंसू रुलाती है और यहां स्वार्थी पिता पर औलाद रो रही थी.

‘‘वहां चला भी जाता तो उन का नौकर ही बन कर जीता न…मेरे पिता ने न अपनी पत्नी की परवा की न अपने मांबाप की. एक अच्छा पिता भी वह नहीं बने, मैं उन के पास क्यों जाता, चाचाजी?’’

गांव में हमारा पुश्तैनी घर है, जहां हमारा एक दूर का रिश्तेदार रहता है. कभीकभी हम वहां जाते थे और पुराने दोस्तों की खोजखबर मिलती रहती थी. अवतार  के मातापिता से भी मिलना होता था. रामसिंह बच्चा था, जब उसे देखा था. मुझे भी अवतार से यह उम्मीद नहीं थी कि अपने मांबाप के बाद वह अपनी औलाद को यों सड़क पर छोड़ देगा. गलती अवतार के मातापिता से भी हुई, कम से कम वही अपने जीतेजी रामसिंह के नाम कुछ लिख देते.

‘‘किसी का कोई दोष नहीं, चाचाजी, मुझे वही मिला जो मेरी तकदीर में लिखा था.’’

‘‘तकदीर के लिखे को इनसान अपनी हिम्मत से बदल भी तो सकता है.’’

‘‘मैं कोशिश करूंगा, चाचाजी, लेकिन यह भी सच है, न आज मेरे पास ऊंची डिगरी है, न ही जमीन. खेतीबाड़ी भी नहीं कर सकता और कहीं नौकरी भी नहीं. मुझे कैसा काम मिलेगा यही समझ नहीं पा रहा हूं.’’

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काम की तलाश में मेरे पास दिल्ली में आया रामसिंह 2 ही दिन में परेशान हो गया था, मैं भी समझ नहीं पा रहा था उसे कैसा काम दिलाऊं, कोई छोटा काम दिलाने को मन नहीं था.

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आज का सच : क्या था रामसिंह का सच

आखिर कौनसी सेक्स पोजीशन है सबसे खतरनाक, पढ़ें खबर

साइंटिस्ट्स ने सबसे कौमन सेक्स पोजीशंस में से एक को सबसे खतरनाक बताया है. साइंटिस्ट्स के मुताबिक, आधे से ज्यादा पीनाइल फ्रैक्चर्स के लिए वूमन औन टौप पोजीशन जिम्मेदार है. ब्राजील के रिसर्चर्स ने तीन हौस्पिटल्स में केसेज की स्टडी के बाद ये खुलासा किया है.

इस पोजीशन में महिलाएं अपने पूरे बौडी वेट के साथ पेनिस को कंट्रोल करती हैं. अगर पेनेट्रेशन में जरा भी गड़बड़ी हुई तो मर्द कुछ नहीं कर पाते. इसमें महिलाओं को तो दर्द नहीं होता लेकिन पेनिस को चोट पहुंचती है. डौगी स्टाइल सेक्स भी 29 परसेंट फ्रैक्चर्स के लिए जिम्मेदार माना गया है.

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रिसर्च में, मिशनरी पोजीशन सेक्स के लिए सेफेस्ट पोजीशन के तौर पर सामने आई है. रिसर्चर्स ने हौस्पिटल में इलाज कराने आए 44 पुरुषों का अध्ययन किया. इनमें से 28 फ्रैक्चर्स हेट्रोसेक्सुअल सेक्स से हुए, 4 होमोसेक्सुअल से और 6 पेनिस मैनिपुलेशन से. हालांकि बाकी 4 फ्रैक्चर्स का कारण डौक्टर्स को समझ नहीं आया.

रिसर्चर्स ने नोट किया कि केसेज में चोट अनकौमन है और जिन्हें फ्रैक्चर होता है, वे बताने से डरते हैं. ऐसे में इस तरह के फ्रैक्चर्स की असल संख्या और ज्यादा हो सकती है. रिसर्च पेपर के कंक्लूजन में लिखा है, “हमारी स्टडी के मुताबिक, वूमन औन टौप पोजीशन के साथ सेक्सुअल इंटरकोर्स पीनाइल फ्रैक्चर्स के लिए सबसे रिस्की है. जब एक मर्द मूवमेंट को कंट्रोल करता है तो वो पेनेट्रेशन के दौरान पेनिस में दर्द को रोकने की स्थिति में होता है.”

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एक और आकाश : भाग 3- कैसे पाया खोया हुआ मुकाम

परंतु उसी क्षण हृदय के किसी कोने में पुरुष के प्रति फूटा घृणा का अंकुर उसे फिर किसी पुरुष की ओर आकृष्ट होने से रोक देता. तब सचमुच उसे प्रत्येक युवक की सूरत में बस, वही सूरत नजर आती, जिस से उसे घृणा थी, जिसे वह भूल जाना चाहती थी. उस ने धीरेधीरे अपनी इच्छाओं, कामनाओं को केवल उसी सीमा तक बांधे रखा था, जहां तक उस की अपनी धरती थी, जहां तक उस का अपना आकाश था.

शारीरिक भूख से अधिक महत्त्व- पूर्ण उस के अपने बच्चे प्रकाश का भविष्य था, जिसे संवारने के लिए वह अभी तक कई बार मरमर कर जी थी. अपने को उस सीमा तक व्यस्त कर चुकी थी, जहां उस को कुछ सोचने का अवकाश ही नहीं मिलता था.

ज्योति की कल्पना में अभी स्मृतियों का क्रम टूट नहीं पाया था. वह शाम आंखों में तिर गई थी, जब उस ने मां को सबकुछ साफसाफ कह दिया था. अपने प्रेम को भूल का नाम दे कर रोई थी, क्षमा की भीख मांग कर मां से याचना की थी कि वह गर्भ नष्ट करने के लिए उसे जाने दे.

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मां ने उसे गर्भ नष्ट कराने का मौका न दे कर सबकुछ पिता को बता दिया था. फिर पहली बार पिता का वास्तविक रूप उस के सामने आया था. उन्होंने ज्योति को नफरत से देखते हुए दहाड़ कर कहा था, ‘‘खबरदार, जो तू ने मुझे आज के बाद पिता कहा. निकल जा, अभी…इसी वक्त इस घर से. तेरा काला मुंह मैं नहीं देखना चाहता. जाती है या नहीं?’’

अब उन्हीं पिता का पत्र उसे मिला था. क्षण भर के लिए मन तमाम कड़वाहटों से भर आया था. परंतु धीरेधीरे पिता के प्रति उदासीनता का भाव घटने लगा था. वह निर्णय ले चुकी थी कि अगर पिता ने उसे क्षमा नहीं किया तो कोई बात नहीं, वह अपने पिता को अवश्य क्षमा कर देगी.

उस दिन तो पिता की दहाड़ सुन कर कुछ क्षण ज्योति जड़वत खड़ी रही थी. फिर चल पड़ी थी बाहर की ओर. उसे विश्वास हो गया था कि उस का प्रेमी हो या पिता, पुरुष दोनों ही हैं और अपने- अपने स्तर पर दोनों ही समाज के उत्थान में बाधक हैं.

उस दिन ज्योति घर छोड़ कर चल पड़ी थी. किसी ने उस की राह नहीं रोकी थी. किसी की बांहें उस की ओर नहीं बढ़ी थीं. किसी आंचल ने उस के आंसू नहीं पोंछे थे. आंसू पोंछने वाला आंचल तो केवल मां का ही होता है. परंतु साथ ही उसे इस बात का पूरा एहसास था कि पिता के अंकुश तले दबी होंठों के भीतर अपनी सिसकियों को दबाए हुए उस की मां दरवाजे पर खड़ी जरूर थीं, पर उसे पांव आगे बढ़ाने की अनुमति नहीं थी. वह चली जा रही थी और समझ रही थी मां की विवशता को. आखिर वह भी तो नारी थीं उसी समाज की.

बच्चे को जन्म देने के बाद ज्योति ने उसे प्रकाश नाम दे कर अपने भीतर अभूतपूर्व शक्ति का अनुभव किया था. उसे वह गुलाब के फूल की तरह अनेक कांटों के बीच पालती रही थी.

अब ज्योति की आंखों में केवल एक ही स्वप्न शेष था. किस प्रकार वह समाज में अपना वही स्थान प्राप्त कर ले, जिस पर वह घर से निकाले जाने से पहले प्रतिष्ठित थी.

शायद इन्हीं भावनाओं ने ज्योति को प्रेरित किया था मां के नाम पत्र लिखने के लिए. डब्बे में रोशनी कम थी. फिर भी उस ने अपने पर्स को टटोल कर उस में से कुछ निकाला. आसपास के सारे यात्री सो रहे थे या ऊंघ रहे थे. ज्योति एक बार फिर उस पत्र को पढ़ रही थी जिसे उस ने केवल मां को भेजा था, केवल यह जानने के लिए कि कहीं भावावेश में किसी शब्द के माध्यम से उस का आत्मविश्वास डिग तो नहीं गया था.

‘‘मां, अपनी बेटी का प्रणाम स्वीकार करते हुए तुम्हें यह विश्वास तो हो गया है न कि ज्योति जीवित है.

‘‘मैं जीवन के युद्ध में एक सैनिक की भांति लड़ी हूं और अब तक हमेशा विजयी रही हूं प्रत्येक मोर्चे पर. परंतु मेरी विजय अधूरी रहेगी जब तक अंतिम मोर्चे को भी न जीत लूं. वह मोर्चा है, तुम्हारे समाज के बीच आ कर अपनी प्रतिष्ठा पुन: प्राप्त कर लेने का. मैं ने उस घर को अपना घर कहने का अधिकार तुम से छीन लेने के बाद भी छोड़ा नहीं. मैं उसी घर में आना चाहती हूं. परंतु मैं तभी आऊंगी जब तुम मुझे बुलाओगी. सचसच कहना, मां, क्या तुम में इतना साहस है कि तुम और पिताजी दोनों अपने समाज के सामने यह बात निसंकोच स्वीकार कर सको कि मैं तुम्हारी बेटी हूं और प्रकाश मेरा पुत्र है.

‘‘मेरी परीक्षा की अवधि बीत चुकी है. अब तुम दोनों की परीक्षा का अवसर है. मैं नहीं चाहती कि आप में से कोई मेरे पास ममतावश आए. मैं चाहूंगी कि आप सब कभी मुझे इस दया का पात्र न बनाएं. मैं छुट्टियों के कुछ दिन आप के पास बिता कर पुन: यहां वापस आ जाऊंगी. मेरे पुत्र या मुझे ले कर आप की प्रतिष्ठा पर जरा भी आंच आए, यह मेरी इच्छा नहीं है. मैं ऐसे में अंतिम श्वास तक आप के लिए उसी तरह मरी बनी रहने में अपनी खुशी समझूंगी जिस तरह अब तक थी. यदि मैं ने आप लोगों को अपनी याद दिला कर कोई गलती की है तो भी क्षमा चाहूंगी. शायद यही सोच कर मैं ने इस पत्र में केवल अपनी याद दिलाई है, अपना पता नहीं दिया.

-ज्योति.’’

ज्योति को यह सोच कर शांति मिली थी कि उस ने ऐसा कुछ नहीं लिखा था जिस से उन के मन में कोई दुर्बलता झांके. उस ने पत्र को पर्स में रखने के साथ दूसरा पत्र निकाला, जो उस के पिता का था. वह पत्र देखते ही उस की आंखें डबडबा आईं और उन आंसुओं में उतने बड़े कागज पर पिता के हाथ के लिखे केवल दो वाक्य तैरते रहे, ‘‘चली आ, बेटी. हम सब पलकें बिछाए हुए हैं तेरे लिए.’’

सुबह का उजाला उसे आह्लादित करने लगा था. अपनी जन्मभूमि का आकर्षण उसे बरबस अपनी ओर खींच रहा था. कल्पना की आंखों से वह सभी परिवारजनों की सूरत देखने लगी थी.

गाड़ी ज्योंज्यों धीमी होती गई, ज्योति की हृदयगति त्योंत्यों तीव्र होती गई. प्रकाश की उंगली थामे हुए वह डब्बे के दरवाजे पर खड़ी हो गई. कल्पना साकार होने लगी. गाड़ी रुकते ही कई गीली आंखें उन दोनों पर टिक गईं. कई बांहों ने एकसाथ उन का स्वागत किया. कई आंचल आंसुओं से भीगे और कई होंठ मुसकराते हुए कह बैठे, ‘‘कैसी हो गई है ज्योति, योगिनी जैसी.’’

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ज्योति ने डबडबाई आंखों से भाई की ओर निहारा जो एक ओर चुपचाप खड़ा सहज आंखों से बहन को निहार रहा था. ज्योति ने अपने पर्स से पिछले 11 वर्षों की राखी के धागे निकाले और उस की कलाई पर बांधते हुए पूछा, ‘‘भाभी नहीं आईं, भैया?’’

‘‘नहीं, बेटी. तेरे बिना तेरे भैया ने शादी नहीं की. अब तू आ गई है तो इस की शादी भी होगी,’’ मां बोल उठी थीं.

घर की ओर जातेजाते ज्योति के मन में अपूर्व शांति थी. अपने भाई के प्रति मन स्नेह से भर गया था. उस का संघर्ष सार्थक हुआ था. उस के वियोग का मूल्य भाई ने भी चुकाया था. उस ने ऊपर की ओर ताका. मन के भीतर ही नहीं, ऊपर के आकाश को भी विस्तार मिल रहा था.

एक और आकाश : भाग 1- कैसे पाया खोया हुआ मुकाम

उस गली में बहुत से मकान थे. उन तमाम मकानों में उस एक मकान का अस्तित्व सब से अलग था, जिस में वह रहती थी. उस के छोटे से घर का अपना इतिहास था. अपने जीवन के कितने उतारचढ़ाव उस ने उसी घर में देखे थे. सुख की तरह दुख की घडि़यों को भी हंस कर गले लगाने की प्रेरणा भी उसे उसी घर ने दी थी.

कम बोलना और तटस्थ रहते हुए जीवन जीना उस का स्वभाव था. फिर भी दिन हो या रात, दूसरों की मुसीबत में काम आने के लिए वह अवश्य पहुंच जाती थी. लोगों को आश्चर्य था कि अपने को विधवा बताने वाली उस शांति मूर्ति ने स्वयं के लिए कभी किसी से कोई सहायता नहीं चाही थी.

अपने एकमात्र पुत्र के साथ उस घर की छोटी सी दुनिया में खोए रह कर वह अपने संबंधों द्वारा अपने नाम को भी सार्थक करती रहती थी. उस का नाम ज्योति था और उस के बेटे का नाम प्रकाश था. ज्योति जो बुझने वाली ही थी कि उस में अंतर्निहित प्रकाश ने उसे नई जगमगाहट के साथ जलते रहने की प्रेरणा दे कर बुझने से बचा लिया था.

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तब से वह ज्योति अपने प्रकाश के साथ आलोकित थी. जीवन के एकाकी- पन की भयावहता को वह अपने साहस और अपनी व्यस्तता के क्षणों में डुबो चुकी थी. प्यार, कर्तव्य और ममता के आंचल तले अपने बेटे के जीवन की रिक्तताओं को पूर्णता में बदलते रहना ही उस का एकमात्र उद्देश्य था.

उस दिन ज्योति के बच्चे की 12वीं वर्षगांठ थी. पिछली सारी रात उस की बंद आंखों में गुजरे 11 वर्षों का पूरा जीवन चित्रपट की तरह आताजाता रहा था. उन आवाजों, तानों, व्यंग्यों, कटाक्षों और विषम झंझावातों के क्षण मन में कोलाहल भरते रहे थे, जिन के पुल वह पार कर चुकी थी. उस जैसी युवतियों को समाज जो कुछ युगों से देता आया था, वह उस ने भी पाया था. अंतर केवल इतना था कि उस ने समाज से पाया हुआ कोई उपहार स्वीकार नहीं किया था. वह चलती रही थी अपने ही बनाए हुए रास्ते पर. उस के मन में समाज की परंपरागत घिनौनी तसवीर न थी, उसे तलाश थी उस साफ- सुथरे समाज की, जिस का आधार प्रतिशोध नहीं, मानवीय हो, उदार हो, न्यायप्रिय और स्वार्थरहित हो.

अपनी जिंदगी याद करतेकरते अनायास ज्योति का मन कहीं पीछे क्यों लौट चला था, वह स्वयं नहीं जान पाई थी. मन जहां जा कर ठहरा, वहां सब से पहला चित्र उस की अपनी मां का उभरा था. उसे बच्चे की वर्षगांठ मनाने की परंपरा और संस्कार उसी मां ने दिए थे. वह स्वयं उस का और उस के भाई का जन्मदिन एक त्योहार की तरह मनाती थीं. याद करतेकरते मन में कुछ ऐसी भी कसक उठी जो आंखों के द्वारों से आंसू बन कर बहने के लिए आतुर हो उठी. उस ने आंखें पोंछ डालीं. यादों का सिलसिला चलता रहा…

काश, कहीं मां मिल जातीं. केवल उस दिन के लिए ही मिल जातीं. मां प्रकाश को भी उसी तरह आशीष देतीं जैसे उसे दिया करती थीं. उसे विश्वास था कि बड़ेबूढ़ों के आशीर्वाद में कोई अदृश्य शक्ति होती है. भले ही उस की मां के आशीर्वाद उस के अपने जीवन में फलदायक न हो सके हों, परंतु वह अब जो कुछ भी थी, उस में मां के आशीर्वाद के प्रभाव का अंश, बचपन में मां से मिले संस्कारों का असर अवश्य रहा होगा.

मन रुक न सका. सुबह होतेहोते ज्योति कागजकलम ले कर बैठ गई थी. भावनाओं के मोती शब्दों के रूप में कागज पर बिखरने लगे थे. 11 वर्ष की लंबी अवधि में मां के नाम ज्योति का यह पहला पत्र था. उसे भरोसा था कि वह उस पत्र को लिखने के बाद पोस्ट अवश्य करेगी. हमेशा की तरह वह पत्र टुकड़ों में बदल जाए, अब वह ऐसा नहीं होने देगी.

वह लिखे जा रही थी और आंखें पोंछती जा रही थी. कैसी विडंबना थी कि आज उसे उस घर की धुंधली पड़ गई छवि को नए रूप में याद करना पड़ रहा था जो कभी उस का अपना घर भी था. उस में वह 16 वर्ष की आयु तक पलीबढ़ी, पढ़ीलिखी थी. उस की बनाई हुई पेंटिंगों से उस घर की बैठक की दीवारों की शोभा बढ़ी थी. उस घर के आंगन में उस के नन्हेनन्हे हाथों ने एक नन्हा सा आम का पौधा लगाया था.

वह कल्पना में अपना अतीत स्पष्ट देख रही थी. पत्र को अधूरा छोड़ कर होंठों के बीच कलम दबाए हुए आंसू भरी आंखों के साथ सोच रही थी. मां बहुत बूढ़ी हो चली थीं, शायद अपनी उम्र से अधिक. पिता के चेहरे पर कुछ रेखाएं बढ़ जाने के बावजूद उन की आवाज में अब भी वही रोब था, शान थी और अपने ऊंचे खानदान में होने का अहंकार था. वह अपने समाज और खानदान में वयोवृद्ध सदस्य की तरह आदर पा रहे थे. भाई के सिर के बाल सफेद होने लगे थे. भाभी  आ गई थीं. घर के आंगन में नन्हेमुन्ने भतीजेभतीजी खेल रहे थे.

सोच रही थी ज्योति. बैठक की दीवार पर लगी पेंटिंगें हटाई नहीं गई थीं. शायद इसलिए कि घर वालों की दृष्टि में वह भले ही मर चुकी हो, लेकिन उन पेंटिंगों के बहाने उस की याद जिंदा रही. नित्य उन की धूलगर्द झाड़तेपोंछते समय उसे जरूर याद किया जाता होगा. कभी आंगन में लगाया गया आम का पौधा बढ़तेबढ़ते आज वृक्ष का रूप ले चुका था. उस में फल आने लगे थे और प्रत्येक फल की मिठास में एक विशेष मिठास थी, उस की याद की, उस घर की बेटी की यादों की.

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इस तरह वह पत्र पूरा हो चला था, जगहजगह आंखों से टपके आंसू की मुहरों के साथ. उस पत्र में ज्योति ने अपने अब तक के जीवन की पुस्तक का एकएक पृष्ठ खोल कर रख दिया था, कहीं कोई दाग न था. वह पत्र मात्र पत्र न था, कुछ सिद्धांतों का दस्तावेज था. उस के अपने आत्मविश्वास की प्रतिछवि था वह. उस में आह्वान था एक नए आकार का, जिस के तले नई सुबहें होती हों, नई रातें आती हों. उस के तले जीने वाला जीवन, जीवन कहे जाने योग्य हो. ऐसा जीवन, जो केवल अपने लिए न हो कर दूसरों के लिए भी हो.

ज्योति ने उस पत्र की प्रतिलिपि को अपने पास सहेज कर एक हितैषी द्वारा दूसरे शहर के डाकघर से भिजवा दिया था.

7 दिन बीत चुके थे. इस बीच ज्योति के मन के भीतर विचित्र अंतर्द्वंद्व चलता रहा था. कौन जाने उस के पत्र की प्रतिक्रिया घर वालों पर क्या हुई होगी. पत्र अब तक तो पहुंच चुका होगा. 33 किलोमीटर दूर स्थित दूसरे शहर के डाकघर से पत्र भेजने का अभिप्राय केवल इतना था कि वह पत्र का उत्तर आए बिना, अपना असली पता नहीं देना चाहती थी. जवाब के लिए भी उस ने दूसरे शहर में रहने वाले एक ऐसे सज्जन महेंद्र का पता दिया था जो उसे असली पते पर पत्र भेज देते.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

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