सूना आसमान- भाग 2: अमिता ने क्यों कुंआरी रहने का फैसला लिया

अमिता को शायद मेरी बात बुरी लगी. वह झटके से उठती हुई बोली, ‘‘अब मैं चलूंगी वरना मां चिंतित होंगी,’’ उस की आवाज भीगी सी लगी. उस ने दुपट्टा अपने मुंह में लगा लिया और तेजी से कमरे से बाहर भाग गई. मैं ने स्वयं से कहा, ‘‘मूर्ख, तुझे इतना भी नहीं पता कि लड़कियों से किस तरह पेश आना चाहिए. वे फूल की तरह कोमल होती हैं. कोई भी कठिन बात बरदाश्त नहीं कर सकतीं.’’

फिर मैं ने झटक कर अपने मन से यह बात निकाल दी, ‘‘हुंह, मुझे अमिता से क्या लेनादेना? बुरा मानती है तो मान जाए. मुझे कौन सा उस के साथ रिश्ता जोड़ना है. न वह मेरी प्रेमिका है, न दोस्त.’’

उन दिनों घर में बड़ी बहन की शादी की बातें चल रही थीं. वह बीए करने के बाद एक औफिस में स्टैनो हो गई थी. दूसरी बहन बीए करने के बाद प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी कर रही थी और सिविल सर्विसेज में जाने की इच्छुक थी. एक कोचिंग क्लास भी जौइन कर रखी थी. सब के साथ शाम की चाय पीने तक मैं अमिता के बारे में बिलकुल भूल चुका था. चाय पीने के बाद मैं ने अपनी मोटरसाइकिल उठाई और यारदोस्तों से मिलने के लिए निकल पड़ा.

मैं दोस्तों के साथ एक रेस्तरां में बैठ कर लस्सी पीने का मजा ले रहा था कि तभी मेरे मोबाइल पर निधि का फोन आया. वह मेरे साथ इंटरमीडिएट में पढ़ती थी और हम दोनों में अच्छी जानपहचान ही नहीं आत्मीयता भी थी. मेरे दोस्तों का कहना था कि वह मुझ पर मरती है, लेकिन मैं इस बात को हंसी में उड़ा देता था. वह हमारी गंभीर प्रेम करने की उमर नहीं थी और मैं इस तरह का कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहता था. मेरे मम्मीपापा की मुझ से कुछ अपेक्षाएं थीं और मैं उन अपेक्षाओं का खून नहीं कर सकता था. अत: निधि के साथ मेरा परिचय दोस्ती तक ही कायम रहा. उस ने कभी अपने पे्रम का इजहार भी नहीं किया और न मैं ने ही इसे गंभीरता से लिया.

इंटर के बाद मैं नोएडा चला गया, तो उस ने भी मेरे नक्शेकदम पर चलते हुए गाजियाबाद के एक प्रतिष्ठान में बीसीए में दाखिला ले लिया. उस ने एक दिन मिलने पर कहा था, ‘‘मैं तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ने वाली.’’

‘‘अच्छा, कहां तक?’’ मैं ने हंसते हुए कहा था.

‘‘जहां तक तुम मेरा साथ दोगे.’’

‘‘अगर मैं तुम्हारा साथ अभी छोड़ दूं तो?’’

‘‘नहीं छोड़ पाओगे. 3 साल से तो हम आसपास ही हैं. न चाहते हुए भी मैं तुम से मिलने आऊंगी और तुम मना नहीं कर पाओगे. यहां से जाने के बाद क्या होगा, न तुम जानते हो, न मैं. मैं तो बस इतना जानती हूं, अगर तुम मेरा साथ दोगे, तो हम जीवनभर साथ रह सकते हैं.’’

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मैं बात को और ज्यादा गंभीर नहीं करना चाहता था. बीटैक का वह मेरा पहला ही साल था. वह भी बीसीए के पहले साल में थी. प्रेम करने के लिए हम स्वतंत्र थे. हम उस उम्र से भी गुजर रहे थे, जब मन विपरीत सैक्स के प्रति दौड़ने लगता है और हम न चाहते हुए भी किसी न किसी के प्यार में गिरफ्तार हो जाते हैं. हम दोनों एकदूसरे को पसंद करते थे.

वह मुझे अच्छी लगती थी, उस का साथ अच्छा लगता था. वह नए जमाने के अनुसार कपड़े भी पहनती थी. उस का शारीरिक गठन आकर्षक था. उस के शरीर का प्रत्येक अंग थिरकता सा लगता. वह ऐसी लड़की थी, जिस का प्यार पाने के लिए कोई भी लड़का कुछ भी उत्सर्ग कर सकता था, लेकिन मैं अभी पे्रम के मामले में गंभीर नहीं था, अत: बात आईगई हो गई. लेकिन हम दोनों अकसर ही महीने में एकाध बार मिल लिया करते थे और दिल्ली जा कर किसी रेस्तरां में बैठ कर चायनाश्ता करते थे, सिनेमा देखते थे और पार्क में बैठ कर अपने मन को हलका करते थे.

तब से अब तक 2 साल बीत चुके थे. अगले साल हम दोनों के ही डिग्री कोर्स समाप्त हो जाएंगे, फिर हमें जौब की तलाश करनी होगी. हमारा जौब हमें कहां ले जाएगा, हमें पता नहीं था.

मैं ने फोन औन कर के कहा, ‘‘हां, निधि, बोलो.’’

‘‘क्या बोलूं, तुम से मिलने का मन कर रहा है. तुम तो कभी फोन करोगे नहीं कि मेरा हालचाल पूछ लो. मैं ही तुम्हारे पीछे पड़ी रहती हूं. क्या कर रहे हो?’’ उधर से निधि ने जैसे शिकायत करते हुए कहा. उस की आवाज में बेबसी थी और मुझ से मिलने की उत्कंठा… लगता था, वह मेरे प्रति गंभीर होती जा रही थी.

मैं ने सहजता से कहा, ‘‘बस, दोस्तों के साथ गपें लड़ा रहा हूं.’’

‘‘क्या बेवजह समय बरबाद करते फिरते हो.’’

‘‘तो तुम्हीं बताओ, क्या करूं?’’

‘‘मैं तुम से मिलने आ रही हूं, कहां मिलोगे?’’

मैं दोस्तों के साथ था. थोड़ा असहज हो कर बोला, ‘‘मेरे दोस्त साथ हैं. क्या बाद में नहीं मिल सकते?’’

‘‘नहीं, मैं अभी मिलना चाहती हूं. उन से कोई बहाना बना कर खिसक आओ. मैं अभी निकलती हूं. रामलीला मैदान के पास आ कर मिलो,’’ वह जिद पर अड़ी हुई थी.

दोस्त मुझे फोन पर बातें करते देख कर मुसकरा रहे थे. वे सब समझ रहे थे. मैं ने उन से माफी मांगी, तो उन्होंने उलाहना दिया कि प्रेमिका के लिए दोस्तों को छोड़ रहा है. मैं खिसियानी हंसी हंसा, ‘‘नहीं यार, ऐसी कोई बात नहीं है,’’ फिर बिना कोई जवाब दिए चला आया. रामलीला मैदान पहुंचने के 10 मिनट बाद निधि वहां पहुंची. वह रिकशे से आई थी. मैं ने उपेक्षित भाव से कहा, ‘‘ऐसी क्या बात थी कि आज ही मिलना जरूरी था. दोस्त मेरा मजाक उड़ा रहे थे.’’

उस ने मेरा हाथ पकड़ते हुए कहा, ‘‘सौरी अनुज, लेकिन मैं अपने मन को काबू में नहीं रख सकी. आज पता नहीं दिल क्यों इतना बेचैन था. सुबह से ही तुम्हारी बहुत याद आ रही थी.’’

‘‘अच्छा, लगता है, तुम मेरे बारे में कुछ अधिक ही सोचने लगी हो.’’

हम दोनों मोटरसाइकिल के पास ही खड़े थे. उस ने सिर नीचा करते हुए कहा, ‘‘शायद यही सच है. लेकिन अपने मन की बात मैं ही समझ सकती हूं. अब तो पढ़ने में भी मेरा मन नहीं लगता, बस हर समय तुम्हारे ही खयाल मन में घुमड़ते रहते हैं.’’

मैं सोच में पड़ गया. ये अच्छे लक्षण नहीं थे. मेरी उस के साथ दोस्ती थी, लेकिन उस को प्यार करने और उस के साथ शादी कर के घर बसाने के बारे में मैं ने कभी सोचा भी नहीं था.

‘‘निधि, यह गलत है. अभी हमें पढ़ाई समाप्त कर के अपना कैरियर बनाना है. तुम अपने मन को काबू में रखो,’’ मैं ने उसे समझाने की कोशिश की.

‘‘मैं अपने मन को काबू में नहीं रख सकती. यह तुम्हारी तरफ भागता है. अब सबकुछ तुम्हारे हाथ में है. मैं सच कहती हूं, मैं तुम्हें प्यार करने लगी हूं.’’

मैं चुप रहा. उस ने उदासी से मेरी तरफ देखा. मैं ने नजरें चुरा लीं. वह तड़प उठी, ‘‘तुम मुझे छोड़ तो नहीं दोगे?’’

मैं हड़बड़ा गया. मोटरसाइकिल स्टार्ट करते हुए मैं ने कहा, ‘‘चलो, पीछे बैठो,’’ वह चुपचाप पीछे बैठ गई. मैं ने फर्राटे से गाड़ी आगे बढ़ाई. मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि ऐसे मौके पर कैसे रिऐक्ट करूं? निधि ने बड़े आराम से बीच सड़क पर अपने प्यार का इजहार कर दिया था. न उस ने वसंत का इंतजार किया, न फूलों के खिलने का और न चांदनी रात का… न उस ने मेरे हाथों में अपना हाथ डाला, न चांद की तरफ इशारा किया और न शरमा कर अपने सिर को मेरे कंधे पर रखा.

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बड़ी शालीनता से उस ने अपने प्यार का इजहार कर दिया. मुझे बड़ा अजीब सा लगा कि यह कैसा प्यार था, जिस में प्रेमी के दिल में प्रेमिका के लिए कोई प्यार की धुन नहीं बजी.

एक अच्छे से रेस्तरां के एक कोने में बैठ कर मैं ने बिना उस की ओर देखे कहा, ‘‘प्यार तो मैं कर सकता हूं, पर इस का अंत क्या होगा?’’ मेरी आवाज से ऐसा लग रहा था, जैसे मैं उस के साथ कोई समझौता करने जा रहा था.  

प्यार न माने सरहद- भाग 1: समीर और एमी क्या कर पाए शादी?

Writer- Kahkashan Siddiqui

समीर को सीएटल आए 3 महीने हो गए थे. वह बहुत खुश था. डाक्टर मातापिता का छोटा बेटा. बचपन से ही कुशाग्र बुद्घि था. आईआईटी दिल्ली का टौपर था. मास्टर्स करते ही माइक्रोसौफ्ट में जौब मिल गई. स्कूल के दिनों से ही वह अमेरिकन सीरियल और फिल्में देखता, मशहूर सीरियल फ्रैंड्स उसे रट गया था. भारत से अधिक वह अमेरिका के विषय में जानता था. वह अपने सपनों के देश पहुंच गया.

सीएटल की सुंदरता देख कर वह मुग्ध हो गया. चारों ओर हरियाली ही हरियाली, नीला साफ आसमान, बड़ीबड़ी झीलें और समुद्र, सब कुछ इतना मनोरम कि बस देखते रहो. मन भरता ही नहीं.

समीर सप्ताह भर काम करता और वीकैंड में घूमने निकल जाता. कभी ग्रीन लेक पार्क, कभी लेक वाशिंगटन, कभी लेक, कभी माउंट बेकर, कभी कसकेडीएन रेंज, तो कभी स्नोक्वाल्मी फाल्स.

खाना खाने के ढेरों स्थान, दुनिया के सभी स्थानों का खाना यहां मिलता. वह नईनई जगह खाना खाने जाता. अब तक वह चीज फैक्ट्री, औलिव गार्डन, कबाब पैलेस, सिजलर्स एन स्पाइस कनिष्क, शालीमार ग्लोरी का खाना चख चुका था.

औफिस उस का रैडमंड में था सीएटल के पास. माइक्रोसौफ्ट में काम करने वाले अधिकतर कर्मचारी यहां रहते हैं. मिक्स आबादी है- गोरे, अफ्रीकन, अमेरिकन और एशियाई देशों के लोग यहां रहते हैं. यहां भारतीय और पाकिस्तानी भी अच्छी संख्या में हैं. देशी खाने के कई रेस्तरां हैं. इसीलिए समीर ने यहां एक बैडरूम का अपार्टमैंट लिया.

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औफिस में बहुत से भारतीय थे. अधिकतर दक्षिण भारत से थे. कुछ उत्तर भारतीय भी थे. सभी इंग्लिश में ही बात करते. हायहैलो हो जाती. देख कर सभी मुसकराते. यह यहां अच्छा था, जानपहचान हो न हो मुसकरा कर अभिवादन करा जाता.

समीर की ट्रेनिंग पूरी हो गई तो उसे प्रोजैक्ट मिला. 5 लोगों की टीम बनी. एक दक्षिण भारतीय, 2 गोरे और 1 लड़की एमन. समीर एमन से बहुत प्रभावित हुआ. बहुत सुंदर, लंबी, पतली, गोरी, भूरे बाल, नीली आंखें. पहनावा भी बहुत अच्छा फौर्मल औफिस ड्रैस. बातचीत में शालीन. अमेरिकन ऐक्सैंट में बातें करती और देखने में भी अमेरिकन लगती थी. मूलतया एमन कहां की थी, इस विषय में कभी बात नहीं हुई. उसे सब एमी कहते थे.

एमी काम में बहुत होशियार थी. सब के साथ फ्रैंडली. समीर भी बुद्घिमान, काम में बहुत अच्छा था. देखने में भी हैंडसम और मदद करने वाला. अत: टीम में सब की अच्छी दोस्ती हो गई.

एक दोपहर समीर ने एमी से साथ में लंच करने को कहा. वह मान गई. दोनों ने लंच साथ किया. समीर ने बर्गर और एमी ने सलाद लिया. वह हलका लंच करती थी.

समीर ने पूछा, ‘‘यहां अच्छा खाना कहां मिलता है?’’

‘‘आई लाइक कबाब पैलेस,’’ एमी ने जवाब दिया.

समीर को आश्चर्य हुआ कि अमेरिकन हो कर भी यह भारतीय देशी खाना पसंद करती है.

समीर ने जब एमी से पूछा कि क्या तुम्हें इंडियन खाना पसंद है, तो उस ने बताया कि हां इंडियन और पाकिस्तानी एकजैसा ही होता है. फिर जब समीर ने पूछा कि क्या तुम अमेरिकन हो तो एमी ने बताया कि हां वह अमेरिकन है, मगर दादा पाकिस्तान से 1960 में अमेरिका आ गए थे.

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समीर सोचता रहा कि एमी को देख कर उस के पहनावे से, बोलचाल से कोई नहीं कह सकता कि वह पाकिस्तानी मूल की है. दोनों एकदूसरे में काफी रुचि लेने लगे. अब तो वीकैंड भी साथ गुजरता. एमी ने समीर को सीएटल और आसपास की जगहें दिखाने का जिम्मा ले लिया था. पहाड़ों पर ट्रैकिंग करने जाते, माउंट रेनियर गए. सीएटल की स्पेस नीडल 184 मीटर ऊंचाई पर घूमते हुए स्काई सिटी रेस्तरां में खाना खाया. यहां से शहर देखना एक सपने जैसा लगा.

सीएटली ग्रेट व्हील में वह डरतेडरते बैठा. 53 मीटर की ऊंचाई, परंतु एमी को डर नहीं लगा. भारत में वह मेले में जब भी बैठता था तो बहुत डरता था. यहां आरपार दिखने वाले कैबिन में बैठ कर मध्यम गति से चलने वाला झूला आनंद देता है डराता नहीं.

फेरी से समुद्र से व्हिदबी टापू पर जाना, वहां का इतालियन खाना खाना उसे बहुत रोमांचित करता था. भारत में भी समुद्रतट पर पर जाता था पर पानी एवं वातावरण इतना साफ नहीं होता था. पहाड़ी रास्ते 4 लेन चौड़े, 5 हजार फुट की ऊंचाई पर जाना पता भी नहीं चलता. अपने यहां तो पहाड़ी रास्ते इतने संकरे कि 2 गाडि़यों का एकसाथ निकलना मुश्किल.

साथसाथ घूमतेफिरते दोनों एक दूसरे के बारे में काफी जान गए थे. जैसे एमी के दादा का परिवार 1947 में लखनऊ, भारत से कराची चला गया था. दादी भी लखनऊ से विवाह कर के आई थीं. उन के रिश्तेदार अभी भी लखनऊ में हैं. 1960 में अमेरिका में न्यूयौर्क आए थे. उस के पिता और ताया दोनों छोटेछोटे थे, जब वे अमेरिका आए.

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दादादादी ने अपनी संस्कृति के अनुसार बच्चों को पाला था. यहां का खुला माहौल उन्हें बिगाड़ न दे, इस का पूरा खयाल रखा था. ताया पर अधिक सख्ती की गई. वे मुल्ला बन गए. अभी भी न्यूयौर्क में ही रहते हैं और उन का एक बेटा है, जो एबीसीडी है अर्थात अमेरिकन बोर्न कन्फ्यूज्ड देशी.

सोच का विस्तार- भाग 2: जब रिया ने सुनाई अपनी आपबीती

Writer- वीना त्रेहन

एक बार पापा को आए हार्ट अटैक को वह देख चुकी थी. तभी ध्यान आया कि शादी के बाद विदाई के समय मां ने एक तह किया कागज देते कहा था कि तुम्हारी मौसी का बेटा विनय यूएसए में रहता है. उसे फोन कर लेना. खुश होगा यह जान कर कि अब तुम भी वहां हो.

नंबर मिलाया तो आंसरिंग मशीन में भरा मैसेज सुना कि विनय हेयर प्लीज लीव ए मैसेज. काम पर होंगे भैया. अब क्या कहे. अगले दिन शाम को अमन के आने से पहले ही फोन पर बात हो गई. विनय ने बताया कि उस की बहन निधि रिसर्च प्रोग्राम पर आई थी और बाद में यहीं शादी कर ली थी. अब प्रैगनैंट है. महीने बाद मम्मी आ रही हैं 3 महीने के लिए उस की मदद करने. निधि से रिया कभी नहीं मिली थी पर मौसी अंबाला से पापा को अस्पताल देखने आई थीं जब वे हार्ट अटैक आने पर 2 हफ्ते अस्पताल रहे थे.

बहुत सोचने के बाद रिया ने तय किया कि वह सारी बात निधि को बता सलाह मांगेगी. मौका जल्दी मिला जब अमन और अमीलिया कहीं जाने वाले थे. निधि ने समझाया कि उसे अमन से सख्ती से बात कर जल्दी तय कर लेना चाहिए कि वह अमीलिया को छोड़ेगा या नहीं. अकसर ऐसी लड़कियां इतनी आसानी से टलती नहीं.

निधि की सलाह थी कि वह फौरन उस के पास आ जाए. वह उसे टिकट व पैसे भेज रही है.

रिया की समझ में भी आ गया कि वह जिस जंजाल में फंस गई है अकेली ही छटपटाएगी और अमीलिया उस का फायदा उठाएगी. अमन लौटा तो उस की डरावनी सी शक्ल देख रिया सहम गई. फिर भी उस ने अपना प्रश्न सख्ती से पूछा तो अमन ने सारा सच उगल दिया.

एक रात अमीलिया बहुत देर से नशे की हालत में एक आदमी के साथ घर लौटी.

वह प्रैगनैंट थी. औंधे मुंह बिस्तर पर जा गिरी. सुबह उठी तो उस के माथे पर घाव था. अमन ने न कुछ पूछा न कहा.

उसी दोपहर पुलिस अमन को घरेलू हिंसा के आरोप में गिरफ्तार कर ले गई. अमीलिया ने फोन कर पुलिस स्टेशन झूठी रिपोर्ट लिखवाई थी कि अमन ने उसे धक्का दिया… वह प्रैगनैंट है. अमन को 2 दिन जेल में काटने पड़े. जब लौटा तो पता नहीं किस डाक्टर का परचा पकड़ाते हुए कहा कि उस के धक्का देने से अब उस का गर्भपात हो गया है.

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झूठा आरोप… सब बताते अमन के चेहरे पर आए हावभाव देख रिया ने कहा कि अमन मेरी बात मानों सब छोड़छाड़ इंडिया चलते हैं हमेशा के लिए. अपनों के बीच रहेंगे तो सब ठीक होगा. पर अमन का सिर न में हिलते देख रिया को बहुत गुस्सा आया. शांत रहते रिया ने कुछ पैसे देने को कहा तो झट जेब से 500 डालर निकाल पकड़ाते हुए कहा कि अमीलिया को न बताना.

मौका तलाश फोन कर रिया ने निधि का पता लिया. निधि ने अपने पति जारेद का फोटो भी भेज दिया ताकि वह उसे एअरपोर्ट लेने आए तो वह उसे पहचान ले. अमेरिकन से शादी की थी निधि ने. 1/2 घंटे बाद ही निधि ने ई टिकट भेजते लिखा था कि जल्दी आ जाओ.

बड़ी उलझन में थी रिया कि क्या करे. क्या इंडिया में मां को सब बता दे. नहीं, पापा ये सब जान बहुत घबरा जाएंगे. कहीं उन्हें फिर हार्ट अटैक न आ जाए. अंदरबाहर परेशानी में घूमती रिया ने दोनों कमरों की तलाशी ली.

अमीलिया का बिस्तर उठा कर देखा. डै्रसर के खाने पता नहीं किस तरह की दवाइयों से भरे थे. नीचे रखे एक डब्बे पर निगाह पड़ी तो खींच कर बाहर निकाला. ड्रग्स के छोटेछोटे पैकेट निकले. जल्दी से उन्हें वैसे ही रख दूसरे कमरे में जा जल्दी से अपना पासपोर्ट, शादी की तसवीरें, कुछ कपड़े, पैसे रखे और निधि को फोन कर दिया.

धड़कते दिल से टैक्सी पकड़ एअरपोर्ट जा पहुंची. जब तक प्लेन उड़ा

नहीं वह डरीसहमी सी रही. फीनिक्स पहुंचने का ढाई घंटे का सफर रिया का सोच में ही कटा कि रहे अमीलिया के साथ, गड्डे में गिरे या कुएं में मुझे क्या लेनादेना. कभी स्वयं को कोसती तो कभी अमन को.

जल्दी में अमन के लिए बड़े अक्षरों में लिखा नोट छोड़ आई कि ऐंजौय योर लाइफ. आई एम लीविंग फौरऐवर. सोचता होगा कि मैं इंडिया वापस चली गई. निधि का तो उसे पता ही नहीं था.

फीनिक्स एअरपोर्ट उतर इधरउधर देख रही थी. तभी एक स्मार्ट आदमी ने सीधा सामने आ कर रिया पुकारा. थोड़े से लोगों के बीच इंडियन लड़की को ढूंढ़ना मुश्किल न था. रास्ते में जारेद बस इधरउधर की बातें करता रहा पर घर के पास पहुंच सीधा कहा कि अच्छा किया उसे छोड़ आई वरना तुम्हारी जिंदगी नर्क हो जाती. यहां सब मिल कर कुछ अच्छा सोचेंगे तुम्हारे लिए.

रिया से मिल निधि खुश हुई. अगली सुबह जारेद के औफिस जाते ही दोनों बहनें बातों में व्यस्त हो गईं. पहले रिया से सब पता किया फिर निधि ने अपने व जारेद के बारे में बताया. फिर तसल्ली दी कि जारेद सब खोजबीन कर कुछ अच्छा हल ढूंढ़ेगा. रिया ने विनय भैया के बारे में जानना चाहा, तो निधि ने जो कुछ बताया उसे सुन रिया हैरान हुई.

वे यहां 4 साल की पढ़ाई कर अभी नौकरी पर लगे ही थे कि उन के साथ पढ़ने वाली लड़की रूबी अचानक उन के साथ रहने आ गई और फिर उन से शादी करने पर जोर देने लगी. उस के दबाव में आ विनय ने अपने मम्मीपापा की जानकारी के बिना शादी कर ली. बाद में जो सच सामने आया वह यह कि रूबी किसी लड़के से रिलेशनशिप में रहते हुए 2 महीनों से प्रैगनैंट थी. जब वह लड़का मुकर गया तो रूबी ने भैया को फंसा लिया.

रूबी की तबीयत खराब हुई तो उसे डाक्टर के पास ले जाने पर वास्तविकता सामने आई. घबराए विनय ने यह बात दोस्त को बताई, जिस की सलाह थी कि रूबी को डीएनए टैस्ट करवाने पर जोर दो. यह जान वह एक दिन घर से गायब हो गई. पुलिस में रिपोर्ट लिखाई और फिर उसे एक अस्पताल में ढूंढ़ लिया गया जहां वह अपने ऐक्स बौयफ्रैंड के साथ पाई गई.

दोनों की सहमति से बच्चे को जन्म के बाद अडौप्शन के लिए रजिस्टर करवाया गया. रूबी ने भैया से माफी मांगते हुए तलाक लेने की बात स्वयं की. विनय भैया को इस सब से उबरने में काफी समय लगा. यह तो अच्छा हुआ कि निधि रिसर्च प्रोग्राम में यहां आ गई तो सब जान दुखी तो हुई पर विनय को सहारा हुआ.

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रिया ये सब जान बहुत परेशान हुई पर तभी उसे अपनी परेशानी का भी ध्यान आया.

आज मौसी निधि के पास पहुंचने वाली थीं. रिया बहुत परेशान थी कि मौसी उस के बारे में जाने क्या कहेंगी. मम्मीपापा को कौन और कैसे बताएगा? क्या उसे अमन के पास लौट जाना चाहिए? उसे क्या पता था कि निधि और जारेद उस की परेशानी सुलझाने में पहले से ही लगे हैं.

योजनानुसार शाम की चाय पी सब बैठे बातों में लगे थे. मौसी सब के बारे में जानकारी दे रही थी. तभी जारेद एक लिफाफा लिए आया और निधि को देते कहा कि उसे इस विषय में रिया को अभी बता देना चाहिए.रिया यह सुन घबराई. वास्तव में जारेद ने अमन व अमीलिया की खोजबीन कर जाना कि वे दोनों इललिगल ड्रग बेचते पकड़े गए और अब जेल में हैं. वह पुलिस रिपोर्ट भी ले आया और साथ ही रिया से उस के तलाक के पेपर भी.

रिया ये सब जान कर घबरा उठी. मौसी ने प्यार से कंधा थपथपाते हुए अपने पास बैठाया. अब जब बात खुल ही गई तो निधि ने हर बात की जानकारी दे दी.

सूना आसमान- भाग 3: अमिता ने क्यों कुंआरी रहने का फैसला लिया

‘प्यार के परिणाम के बारे में सोच कर प्यार नहीं किया जाता. तुम मुझे अच्छे लगते हो, तुम्हारे बारे में सोचते हुए मेरा दिल धड़कने लगता है, तुम्हारी आवाज मेरे कानों में मधुर संगीत घोलती है, तुम से मिलने के लिए मेरा मन बेचैन रहता है. बस, मैं समझती हूं, यही प्यार है,’’ उस ने अपना दायां हाथ मेरे कंधे पर रख दिया और बाएं हाथ से मेरा सीना सहलाने लगी.

मैं सिकुड़ता हुआ बोला, ‘‘हां, प्यार तो यही है, लेकिन मैं अभी इस मामले में गंभीर नहीं हूं.’’

‘‘कोईर् बात नहीं, जब रोजरोज मुझ से मिलोगे तो एक दिन तुम को भी मुझ से प्यार हो जाएगा. मैं जानती हूं, तुम मुझे नापसंद नहीं करते,’’ वह मेरे साथ जबरदस्ती कर रही थी.

क्या पता, शायद एक दिन मुझे भी निधि से प्यार हो जाए. निधि को अपने ऊपर विश्वास था, लेकिन मुझे अपने ऊपर नहीं… फिर भी समय बलवान होता है. एकदो साल में क्या होगा, कौन क्या कह सकता है?

इसी तरह एक साल बीत गया. निधि से हर सप्ताह मुलाकात होती. उस के प्यार की शिद्दत से मैं भी पिघलने लगा था और दोनों चुंबक की तरह एकदूसरे को अपनी तरफ खींच रहे थे. इस में कोई शक नहीं कि निधि के प्यार में तड़प और कसमसाहट थी. मेरे मन में चोर था और मैं दुविधा में था कि मैं इस संबंध को लंबे अरसे तक खींच पाऊंगा या नहीं, क्योंकि भविष्य के प्रति मैं आश्वस्त नहीं था.

एक साल बाद हमारे डिग्री कोर्स समाप्त हो गए. परीक्षा के बाद फिर से गरमी की छुट्टियां. मैं अपने शहर आ गया. छुट्टियों में निधि से रोज मिलना होता, लेकिन इस बार अपने घर आ कर मैं कुछ बेचैन सा रहने लगा था. पता नहीं, वह क्या चीज थी, मैं समझ ही नहीं पा रहा था. ऐसा लगता था, जैसे मेरे जीवन में किसी चीज का अभाव था. वह क्या चीज थी, लाख सोचने के बावजूद मैं समझ नहीं पा रहा था. निधि से मिलता तो कुछ पल के लिए मेरी बेचैनी दूर हो जाती, लेकिन घर आते ही लगता मैं किसी भयानक वीराने में आ फंसा हूं और वहां से निकलने का कोई रास्ता मुझे दिखाई नहीं पड़ रहा.

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अचानक एक दिन मुझे अपनी बेचैनी का कारण समझ में आ गया. उस दिन मैं जल्दी घर लौटा था. मां आंगन में अमिता की मां के साथ बैठी बातें कर रही थीं. अमिता की मां को देखते ही मेरा दिल अनायास ही धड़क उठा, जैसे मैं ने बरसों पूर्व बिछड़े अपने किसी आत्मीय को देख लिया हो. मुझे तुरंत अमिता की याद आई, उस का भोला मुखड़ा याद आया. उस के चेहरे की स्निग्धता, मधुर सौंदर्य, बड़ीबड़ी मुसकराती आंखें और होंठों को दबा कर मुसकराना सभी कुछ याद आया. मेरा दिल और तेजी से धड़क उठा. मेरे पैर जैसे वहीं जकड़ कर रह गए. मैं ने कातर भाव से अमिता की मां को देखा और उन्हें नमस्कार करते हुए कहा, ‘‘चाची, आजकल आप दिखाई नहीं पड़ती हैं?’’ वास्तव में मैं पूछना चाहता था कि आजकल अमिता दिखाई नहीं पड़ती.

मुझे अपनी बेचैनी का कारण पता चल गया था, लेकिन मैं उस का निवारण नहीं कर सकता था. अमिता की मां ने कहा, ‘‘अरे, बेटा, मैं तो लगभग रोज ही आती हूं. तुम ही घर पर नहीं रहते.’’

मैं शर्मिंदा हो गया और झेंप कर दूसरी तरफ देखने लगा. मेरी मां मुसकराते हुए बोलीं, ‘‘लगता है, यह तुम्हारे बहाने अमिता के बारे में पूछ रहा है. उस से इस बार मिला कहां है?’’ मां मेरे दिल की बात समझ गई थीं.

अमिता की मां भी हंस पड़ीं, ‘‘तो सीधा बोलो न बेटा, मैं तो उस से रोज कहती हूं, लेकिन पता नहीं उसे क्या हो गया है कि कहीं जाने का नाम ही नहीं लेती. पिछले एक साल से बस पढ़ाई, सोना और कालेज… कहती है, अंतिम वर्ष है, ठीक से पढ़ाई करेगी तभी तो अच्छे नंबरों से पास होगी.’’

‘‘लेकिन अब तो परीक्षा समाप्त हो गई है,’’ मेरी मां कह रही थीं. मैं धीरेधीरे अपने कमरे की तरफ बढ़ रहा था, लेकिन उन की बातें मुझे पीछे की तरफ खींच रही थीं. दिल चाहता था कि रुक कर उन की बातें सुनूं और अमिता के बारे में जानूं, पर संकोच और लाजवश मैं आगे बढ़ता जा रहा था. कोई क्या कहेगा कि मैं अमिता के प्रति दीवाना था…

‘‘हां, परंतु अब भी वह किताबों में ही खोई रहती है,’’ अमिता की मां बता रही थीं.

आगे की बातें मैं नहीं सुन सका. मेरे मन में तड़ाक से कुछ टूट गया. मैं जानता था कि अमिता मेरे घर क्यों नहीं आ रही थी. उस दिन की मेरी बात, जब वह मेरे कमरे में मिठाई देने के बहाने आई थी, उस के दिल में उतर गई थी और आज तक उसे गांठ बांध कर रखा था. मुझे नहीं पता था कि वह इतनी जिद्दी और स्वाभिमानी लड़की है. बचपन में तो वह ऐसी नहीं थी.

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अब मैं फोन पर निधि से बात करता तो खयालों में अमिता रहती, उस का मासूम और सुंदर चेहरा मेरे आगे नाचता रहता और मुझे लगता मैं निधि से नहीं अमिता से बातें कर रहा हूं. मुझे उस का इंतजार रहने लगा, लेकिन मैं जानता था कि अब अमिता मेरे घर कभी नहीं आएगी. एक साल हो गया था, आज तक वह नहीं आई तो अब क्या आएगी? उसे क्या पता कि मैं अब उस का इंतजार करने लगा था. मेरी बेबसी और बेचैनी का उसे कभी पता नहीं चल सकता था. मुझे ही कुछ  करना पड़ेगा वरना एक अनवरत जलने वाली आग में मैं जल कर मिट जाऊंगा और किसी को पता भी नहीं चलेगा.  

अपने अपने रास्ते- भाग 1: क्या विवेक औऱ सविता की दोबारा शादी हुई?

‘‘एक बार अपने फैसले पर दोबारा विचार कर लें. पतिपत्नी में झगड़ा होता ही रहता है. तलाक ही समस्या का समाधान नहीं होता. आप की एक बच्ची भी है. उस के भविष्य का भी सवाल है,’’ जिला एवं सत्र न्यायाधीश ने अपने चैंबर में सामने बैठे सोमदत्त और उन की पत्नी सविता को समझाने की गरज से औपचारिक तौर पर कहा. यह औपचारिकता हर जज तलाक की डिगरी देने से पहले पूरी करता है.

सोमदत्त ने आशापूर्ण नजरों से सविता की तरफ देखा. मगर सविता ने दृढ़तापूर्वक इनकार करते हुए कहा, ‘‘जी नहीं, मेलमिलाप की कोई गुंजाइश नहीं बची है.’’

‘‘ठीक है, जैसी आप की मरजी.’’

अदालत से बाहर आ पतिपत्नी अपनेअपने रास्ते पर चल दिए. उस की पत्नी इतनी निष्ठुर हो जाएगी, सोमदत्त ने सोचा भी नहीं था. मामूली खटपट तो आरंभ से थी. मगर विवाद तब बढ़ा जब सविता ने आयातनिर्यात की कंपनी बनाई. वह एक फैशन डिजाइनर थी. कई फर्मों में नौकरी करती आई थी. बाद में 3 साल पहले उस ने जमापूंजी का इंतजाम कर अपनी फर्म बनाई थी.

सोमदत्त सरकारी नौकरी में था. अच्छे पद पर था सो वेतन काफी ऊंचा था. शुरू में आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी इसलिए उस ने पत्नी को नौकरी करने के लिए प्रोत्साहित किया था. धीरेधीरे हालात सुधरते गए. सरकारी मुलाजिमों का वेतन काफी बढ़ गया था.

सविता काफी सुंदर और अच्छे व्यक्तित्व की स्त्री थी. उस की तुलना में सोमदत्त सामान्य व्यक्तित्व और थोड़ा सांवले रंगरूप का था. सरकारी नौकरी का आकर्षण ही था जो सविता के मातापिता ने सोमदत्त से बेटी का रिश्ता किया था. सविता को अपना पति पसंद नहीं था तो नापसंद भी नहीं था. जैसेतैसे जिंदगी गुजारने की मानसिकता से दोनों निबाह रहे थे.

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सविता के अपने अरमान थे, उमंगें थीं, महत्त्वाकांक्षाएं थीं. फैशन डिजाइनर की नौकरी से उस को अपनी कुछ उमंगें पूरी करने का मौका तो मिला था मगर फिर भी उस का मन हमेशा खालीखाली सा रहता था.

सोमदत्त अपनी पत्नी के सुंदर व्यक्तित्व से दबता था. इसलिए वह उस को उत्पीडि़त करने में आनंद पाता था. कई बार सविता घर देर से लौटती थी. उस का चालचलन, चरित्र सब बेबाक था. इसलिए उस को अपने पति द्वारा कटाक्ष करना, शक करना अखरता था.

बाद में जब सविता ने अपनी आयातनिर्यात की फर्म बना ली और अच्छी आमदनी होने लगी तो सोमदत्त खुद को काफी हीन समझने लगा. उस की खीज बढ़ गई. रोजरोज क्लेश और झगड़े की परिणति तलाक में हुई. दोनों की एक बच्ची थी, जो 12-13 साल की थी और कान्वैंट में पढ़ रही थी. बच्ची की सरपरस्ती भी सविता को हासिल हुई थी.

तलाक का फैसला होने के बाद सविता अपने आफिस पहुंची तो उस की स्टेनो रेणु ने उस का अभिवादन किया. लगभग 22-23 साल की रेणु पूरी चमकदमक के साथ अपनी सीट पर मौजूद थी.

स्टेनो से लगभग 20 साल बड़ी उस की मैडम यानी मालकिन सविता भी अपने व्यवसाय और चलन के हिसाब से ही बनीठनी रहती थी. वह अपनी फिगर का ध्यान रखती थी. उस का पहनावा भी अवसर के अनुरूप होता था.

सविता को स्टेनो रेणु ने मोबाइल से आफिस में बैठे विजिटर के बारे में बता दिया था. उस ने स्वागतकक्ष में बैठे आगंतुकों की तरफ देखा. कई चेहरे परिचित थे तो कुछ नए भी. सभी का मुसकरा कर मूक अभिवादन करती वह अपने कक्ष में चली गई.

मिलने वालों में कुछ वस्त्र निर्माता थे तो कुछ अन्य सामान के सप्लायर. एकएक कर सभी निबट गए. अंत में एक सुंदर लंबे कद के नौजवान ने अंदर कदम रखा.

उस का विजिटिंग कार्ड ले कर सविता ने उस को बैठने का इशारा किया. विवेक बतरा, एम.बी.ए., आयातनिर्यात प्रतिनिधि. साथ में उस का पता और मोबाइल नंबर दर्ज था.

‘‘मिस्टर बतरा, आप एक्सपोर्ट एजेंट हैं?’’

‘‘जी हां.’’

‘‘कितने समय से आप इस लाइन में हैं?’’

‘‘2 साल से.’’

‘‘आप के काम का एरिया कौन सा है?’’

‘‘सिंगापुर और अमेरिका.’’

‘‘क्या आप के पास कोई एक्सपोर्ट आर्डर है?’’

‘‘बहुत से हैं,’’ कहने के साथ विवेक बतरा ने अपना ब्रीफकेस खोला और सिलेसिलाए वस्त्रों के नमूने निकाल कर मेज पर फैला दिए. साथ ही उन की डिटेल्स भी समझाने लगा. कुछ परिधान जनाना, कुछ मरदाना और कुछ बच्चों के थे.

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‘‘इन सब की प्रोसैसिंग में तो समय लगेगा,’’ सविता ने सभी आर्डरों के वितरण समझने के बाद कहा.

‘‘कोई बात नहीं है. हमारे ग्राहक इंतजार कर सकते हैं.’’

‘‘क्या कमीशन लेते हैं आप?’’

‘‘5 प्रतिशत.’’

‘‘बहुत ज्यादा है. हम तो 3 प्रतिशत तक ही देते हैं.’’

‘‘मैडम, मेरा काम स्थायी और कम समय में लगातार आर्डर लाने का है. दूसरे एजेंटों के मुकाबले में मेरा काम बहुत तेज है,’’ विवेक बतरा के स्वर में आत्मविश्वास था जिस से सविता बहुत प्रभावित हुई.

‘‘ठीक है मिस्टर बतरा, फिलहाल हम प्रोसैसिंग के बेस पर आप के साथ एक्सपोर्ट आर्डर ले लेते हैं, काम का भुगतान होने के बाद आप को 5 प्रतिशत कमीशन दे देंगे.’’

‘‘ठीक है, मैडम.’’

‘‘क्या आप रसीद या लिखित मेें कोई करार करना चाहते हैं?’’

‘‘नहीं, इस की कोई जरूरत नहीं है. मुझे आप पर विश्वास है,’’ कहता हुआ विवेक बतरा उठ खड़ा हुआ. अपना ब्रीफकेस बंद किया और ‘बैस्ट औफ लक’ कहता चला गया.

सविता उस के व्यक्तित्व और बेबाक स्वभाव से प्रभावित हुई. थोड़े दिनों में विवेक बतरा के निर्यात आदेशों में अधिकांश सिरे चढ़ गए. सविता की कंपनी को पहली बार ढेर सारा काम मिला था. विवेक ने भी भारी कमीशन कमाया.

फिर कामयाबी का सिलसिला चल पड़ा. विवेक बतरा नियमित आर्डर लाने लगा. बाहर जाने, विदेशी ग्राहकों से मिलने, बात करने, डील फाइनल करने आदि कामों के सिलसिले में सविता, विवेक के साथ जाने लगी. नियमित मिलनेजुलने से दोनों करीब आने लगे. विवेक बतरा इस बात से काफी प्रभावित था कि सविता एक किशोरवय की बेटी की मां होने के बाद भी काफी जवान नजर आती थी.

यह कैसी विडंबना- भाग 4: शर्माजी और श्रीमती के झगड़े में ममता क्यों दिलचस्पी लेती थी?

‘‘हांहां, अंकल, बताइए न.’’

‘‘बेटा, मैं बड़ा परेशान हूं. तनिक अपनी आंटी को समझाओ न. मैं कहां जाऊं…मेरा तो जीना हराम कर रखा है इस ने. तुम जरा मेरी उम्र देखो और इस का शक देखो. तुम दोनों मेरी बेटी जैसी हो. जरा सोचो, जो सब यह कहती है क्या मैं कर सकता हूं. कहती है मैं मकान नंबर 205 में जाता हूं. जरा इसे साथ ले जाओ और ढूंढ़ो वह घर जहां मैं जाता हूं.’’

80 साल के शर्मा अंकल रोने लगे थे.

‘‘वहम की बीमारी है इसे. किसी से भी बात करूं मैं तो मेरा नाम उसी के साथ जोड़ देती है. हर रिश्ता ताक पर रख छोड़ा है इस ने.’’

‘‘आप ने आंटी का इलाज नहीं कराया?’’

‘‘अरे, हजार बार कराया. डाक्टर को ही पागल बता कर भेज दिया इस ने. मेरी जान भी इतनी सख्त है कि निकलती ही नहीं. एक्सीडैंट में मेरे स्कूटर के परखच्चे उड़ गए और मुझे देखो, मैं बच गया…मैं मरता भी तो नहीं. हर सुबह उठ कर मौत की दुआएं मांगता हूं…कब वह दिन आएगा जब मैं मरूंगा.’’

सरला और मैं चुपचाप उन्हें रोते देखती रहीं. सच क्या होगा या क्या हो सकता है हम कैसे अंदाजा लगातीं. जीवन का कटु सत्य हमारे सामने था. अगर शर्माजी जवानी में चरित्रहीन थे तो उस का प्रतिकार क्या इस तरह नहीं होना चाहिए? और सब से बड़ी बात हम भी कौन हैं निर्णय लेने वाले. हजार कमी हैं हमारे अंदर. हम तो केवल मानव बन कर ही किसी दूसरे मानव की पीड़ा सुन सकती थीं. अपनी लगाई आग में सिर्फ खुदी को जलना पड़ता है, यही एक शाश्वत सचाई है.

रोधो कर चले गए अंकल. यह सच है, दुखी इनसान सदा दुख ही फैलाता है. शर्माजी की तकलीफ हमारी तकलीफ नहीं थी फिर भी हम तकलीफ में आ गई थीं. मूड खराब हो गया था सरला का.

‘‘इसीलिए मैं चाहती हूं इन दोनों से दूर रहूं,’’ सरला बोली, ‘‘अपनी मनहूसियत ये आसपास हर जगह फैलाते हैं. बच्चे हैं क्या ये दोनों? इन के बच्चे भी इसीलिए दूर रहते हैं. पिछले साल अंकल अमेरिका गए थे तो आंटी कहती थीं कि 205 नंबर वाली भी साथ चली गई है. ये खुद जैसे दूध की धुली हैं न. इन की तकलीफ भी यही है अब.

‘‘खो गई जवानी और फीकी पड़ गई खूबसूरती का दर्द इन से अब सहा नहीं जा रहा, जवानी की खूबसूरती ही इन्हें जीने नहीं देती. वह नशा आज भी आंटी को तड़पाता रहता है. बूढ़ी हो गई हैं पर अभी भी ये दिनरात अपनी खूबसूरती की तारीफ सुनना चाहती हैं. अंकल वह सब नहीं करते इसलिए नाराज हो उन की बदनामी करती हैं.

‘‘यह भी तो एक बीमारी है न कि कोई औरत दिनरात अपने ही गुणों का बखान सुनना चाहे और गुण भी वह जिस में अपना कोई भी योगदान न हो. रूप क्या खुद पैदा किया जा सकता है…जिस गुण को घटानेबढ़ाने में अपनी कोई जोर- जबरदस्ती ही न चलती हो उस पर कैसा अभिमान और कैसी अकड़…’’

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बड़बड़ाती रही सरला देर तक. 2 दिन ही बीते होंगे कि सुबहसुबह आंटी चली आईं. शिष्टाचार कैसे भूल जाती मैं. सम्मान सहित बैठाया. पति आफिस जा चुके थे. उस दिन मजदूर भी छुट्टी पर थे.

‘‘कहो, कैसी हो. घर का कितना काम शेष रह गया है?’’

‘‘आंटी, बस थोड़ा ही बचा है.’’

‘‘आज भी कोई पार्टी दे रहे हो क्या? दीवाली की रात तो तुम्हारे घर पूरी रात ताशबाजी चलती रही थी. अच्छी मौजमस्ती कर लेते हो तुम लोग भी. मैं ने पूछा तो तुम ने कह दिया था, तुम्हें तो ताश ही खेलना नहीं आता जबकि पूरी रात गाडि़यां खड़ी रही थीं. सुनो, कल तुम्हारे घर 2 आदमी कौन आए थे?’’

‘‘कल, कल तो पूरा दिन मैं नए घर में व्यस्त थी.’’

‘‘नहींनहीं, मैं ने खुद तुम्हें उन से बातें करते देखा था.’’

‘‘कैसी बातें कर रही हैं आप, मिसेज शर्मा?…और दीवाली पर भी हम यहां नहीं थे.’’

‘‘तुम्हारे घर में रोशनी तो थी.’’

‘‘हम घर में जीरो वाट का बल्ब जला कर गए थे कि त्योहार पर घर में अंधेरा न हो और ऐसा भी लगे कि घर पर कोई है.’’

‘‘नहीं, झूठ क्यों बोल रही हो?’’

‘‘मैं झूठ बोल रही हूं. क्यों बोल रही हूं मैं झूठ? मुझे क्या जरूरत है जो मैं झूठ बोल रही हूं,’’ स्तब्ध रह गई मैं.

‘‘तुम्हारे घर के मजे हैं. एक गेट मेरे घर के सामने दूसरा पिछवाड़े. इधर ताला लगा कर सब से कहो कि हम घर पर नहीं थे. उधर पिछले गेट से चाहे जिसे अंदर बुला लो. क्या पता चलता है किसी को.’’

हैरान रह गई मैं. सच में आंटी पागल हैं क्या? समझ में आ गया मुझे और पागल से मैं क्या सर फोड़ती. शर्माजी कुछ नहीं कर पाए तो मैं क्या कर लेती, सच कहा था सरला ने, कहानियां बना लेती हैं आंटी और कहानियां भी वे जिन में उन की अपनी नीयत झलकती है, अपना सारा शक झलकता है. अपना ही अवचेतन मन और अपने ही चरित्र की छाया उन्हें सभी में नजर आती है, शायद वे स्वयं ही चरित्रहीन होंगी जिस की झलक अपने पति में भी देखती होंगी. कौन जाने सच क्या है.

उसी पल निर्णय ले लिया मैं ने कि अब इन से कोई शिष्टाचार नहीं निभाऊंगी. अत: बोली, ‘‘मिसेज शर्मा, आज मुझे घर के लिए कुछ सामान लेने बाजार जाना है. किसी और दिन साथसाथ बैठेंगे हम?’’

मेरा टालना शायद वे समझ गईं इसलिए हंसने लगीं, ‘‘आजकल शर्माजी से दोस्ती कर ली है न तुम ने और सरला ने. बता रहे थे मुझे…कह रहे थे, तुम दोनों भी मुझे ही पागल कहती हो. बुलाऊं उन्हें अंदर ही बैठे हैं. आमनासामना करा दूं.’’

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कहीं यह पागल औरत अब हम दोनों का नाम ही अंकल के साथ न जोड़ दे. यह सोच कर चुप रही मैं और फिर हाथ पकड़ कर उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया था. अच्छा नहीं लगा था मुझे अपना यह व्यवहार पर मैं क्या करती. मुझे भी तो सांस लेनी थी. एक पागल का मान मैं कब तक करती.

वह दिन और आज का दिन, जब तक हम उस घर में रहे और उस के बाद जब अपने घर में चले आए, हम ने उस परिवार से नाता ही तोड़ दिया. अकसर आंटी गेट खटखटाती रही थीं जब तक हम उन के पड़ोस में रहे.

आज पता चला कि अंकल चल बसे. पता नहीं क्यों बड़ी खुशी हुई मुझे. गलत कौन था कौन सही उस का मैं क्या कहूं. एक वयोवृद्ध दंपती अपनी जवानी में क्याक्या गुल खिलाता रहा उस की चिंता भी मैं क्यों करूं. बस, शर्मा अंकल इस कष्ट भरे जीवन से छुटकारा पा गए यही आज का सब से बड़ा सच है. आंखें भर आई हैं मेरी. मौत जीवन की सब से बड़ी और कड़वी सचाई है. समझ नहीं पा रही हूं कि शर्मा अंकल की मौत पर अफसोस मनाऊं या चैन की सांस लूं.

लक्ष्य- भाग 2: क्या था सुधा का लक्ष्य

एक महीने बाद जिस दिन रिजल्ट निकलने वाला था, वह कालेज गई तो सभी दोस्तों से उस का हाल जानने का प्रयत्न किया पर किसी ने उसे संतुष्ट नहीं किया. सभी अपने कैरियर की बातों में मशगूल दिख रहे थे. वह घर लौट गई. एकदिन अपनी डिगरी हाथ में ले कर सोचने लगी कि काश, निलेश को भी स्नातक की उपाधि मिली होती तो उस की खुशियां भी दोगुनी होती. न जाने वह जिंदगी कहां और कैसे काट रहा है? जिन आंखों को देख कर वह उन में समा जाना चाहता था क्या वे आंखें अब उसे याद नहीं आतीं? कालेज के अंतिम दिन जो बातें मुझ से की थीं, क्या वह सब नाटक था या यों ही भावनाओं में बह कर बयां कर दिया था, पर मैं ने भी तो उसे तवज्जुह नहीं दी थी. कहीं वह मुझ से नाराज तो नहीं. उस के मन में अनेक खयालों के बुलबुले उठते रहते.

इस तरह 2 साल गुजर गए. उस ने स्नातक के बाद बीएड भी कर लिया, ताकि स्कूल में पढ़ा सके. जब उसे निलेश की याद सताती तो वह चित्र बनाने बैठ जाती. उसे चित्र बनाने का बहुत शौक था. स्कूल में भी बच्चों को चित्रकला का पाठ सिखाने लगी. इस तरह वह अपने चित्रों के साथ दिल बहलाती रही. अब वह किसी से नहीं मिलती, अपने सभी दोस्तों से कन्नी काटती रहती. अपना काम करती और घर आ कर गुमसुम रहती.

उस की हालत देख उस के मातापिता भी परेशान रहने लगे. उस की शादी के लिए उसे किसी लड़के की तसवीर दिखाते तो उस में निलेश की तसवीर ढूंढ़ने लगती. उस के प्यारभरे शब्द याद आने लगते. तब वह मन ही मन कहने लगती, क्या उसे निलेश से प्यार होने लगा है, पर वह तो मेरी जिंदगी से, शहर से जा चुका है. क्या वह लौट कर कभी आएगा मेरी जिंदगी में. इस तरह उस की यादों में सदा खोई रहती.

एक दिन उस के स्कूल के बच्चों ने चित्रकला प्रतियोगिता में जब अनेक स्कूलों के साथ हिस्सा लिया और प्रथम स्थान प्राप्त किया तो उन की तसवीर अखबार में प्रकाशित हुई, उन के साथ सुधा की भी तसवीर उन बच्चों के साथ साफ दिखाई दे रही थी.

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उधर जब एक समाचारपत्र पढ़ते हुए निलेश ने सुधा की तसवीर देखी तो दंग रह गया और सोचने लगा, आखिर सुधा अपनी मंजिल पर पहुंच ही गई. उस ने जो कहा था, कर दिखाया. सचमुच जब मन में दृढ़विश्वास हो तो सफलता मिल ही जाती है. मैं भी कितना मशगूल हो गया कि अपने दोस्तों को भूल गया. कल क्या थी मेरी जिंदगी और आज क्या बन गई. कहां उसे पाने का ख्वाब देखा करता था, और आज उस की कोई तसवीर भी मेरे पास नहीं. मैं तो आज भी सुधा से प्यार करता हूं, पर न जाने क्यों वह प्यार से अनजान है. क्यों न एकबार उसे फोन किया जाए. बधाई तो दे ही सकता हूं.

उस ने फोन किया तो सुधा उस की आवाज सुन चकित रह गई. जब उस ने ‘हैलो सुधा,’ कहा तो आवाज पहचान गई, और शब्दों पर जोर दे कर वह बोल पड़ी, ‘‘क्या तुम निलेश बोल रहे हो?’’

‘‘हां, सुधा.’’

‘‘तुम तो सचमुच दुनिया की भीड़ में खो गए, निलेश, और मैं तुम्हें ढूंढ़ती रही.’’ उस ने अनजान बनते हुए पूछा, ‘‘क्यों ढूंढ़ती रही, सुधा? तुम तो मुझ से प्यार भी नहीं करती थी?’’ तब वह रोष प्रकट करती हुई बोली, ‘‘पर दोस्ती तो थी तुम से? क्यों कभी पलट कर मुझे देखने की आवश्यकता नहीं समझी?’’

वह उधर से उदास स्वर में बोला, ‘‘जीवन की कठिनाइयों ने भूलने पर मजबूर कर दिया सुधा वरना मैं तुम्हें कभी नहीं भूला. मैं तो अपनेआप को ही भूल चुका हूं. पापा क्या गुजर गए, मेरी तो दुनिया ही बदल गई. मैं दिल्ली लौट जाना चाहता था अपनी स्नातक की परीक्षा देने के लिए. पर जिस दिन दिल्ली के लिए रवाना हो रहा था, मां की तबीयत खराब हो गई. अस्पताल ले गया तो जांच में पता चला कि मां को ब्रेन ट्यूमर है. इसलिए मैं उन की देखभाल करने लगा. मां को ऐसी हालत में छोड़ कर जाना उचित नहीं समझा. मेरी मां अकेले न जाने कब से अपने दर्द को छिपाए जी रही थीं. कहतीं भी तो किस से. पापा तो थे नहीं.

‘‘मेरी पढ़ाई खराब न हो, मां ने कुछ नहीं बताया. ऐसे में उन्हें अकेले छोड़ दिल्ली आता भी तो कैसे.’’

‘‘ओह, तुम इतना सबकुछ अकेले सहते रहे. अब तुम्हारी मां कैसी हैं?’’

निलेश ने धीरे से कहा, ‘‘अभी 2 महीने पहले ही तो औपरेशन हुआ है बे्रन ट्यूमर का. अभी भी इलाज चल रहा है. कीमोथेरैपी करानी पड़ती है. ब्रेन ट्यूमर कोई छोटी बीमारी तो होती नहीं, कई तरह के साइड इफैक्ट हो जाते हैं. बहुत देखभाल की जरूरत होती है. इसलिए मैं कहीं उन्हें छोड़ कर जा भी नहीं सकता. तुम अपनी सुनाओ. आज तुम्हें अपनी मंजिल पर पहुंचते देख मैं अपनेआप को रोक नहीं पाया. स्कूल के बच्चों के साथ चित्रकारिता में इनाम लेते हुए अखबार में तसवीर देखी, तो फोन उठा लिया. आखिर तुम चित्रकारी में सफल हो ही गई. बहुत बधाई. तुम सफलताओं के ऊंचे शिखर पर विराजमान रहो, मैं तुम्हें दूर से देखता रहूं, यह मेरी कामना है.’’

‘‘धन्यवाद निलेश, पर मैं तुम से एक बार मिलना चाहती हूं. तुम नहीं आ सकते तो अपने घर का पता ही बता दो, मैं आ जाऊंगी.’’

यह सुन नीलेश को अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ. उस ने पूछा, ‘‘सुधा, सचमुच मुझ से मिलने आओगी?’’

‘‘यकीन नहीं हो रहा न, एक दिन यकीन भी हो जाएगा. अपने घर का पता मैसेज कर देना.’’

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एक सप्ताह बाद सुधा, अपने मातापिता की अनुमति ले कर घर से निकल कोलकाता एयरपोर्ट के लिए रवाना हो गई. वहां पहुंच कर निलेश के बताए पते पर एक टैक्सी में सवार हो कर उस के गांव पहुंच गई. ज्योंज्यों वह उस के घर के करीब जा रही थी उस के दिल में उथलपुथल मचने लगी कि उस के घर के सदस्य क्या कहेंगे. वह ज्यादा निलेश के परिवार के बारे में जानती भी तो नहीं. वह गांव के वातावरण से अनभिज्ञ थी. उस ने टैक्सी ड्राइवर से रुकने को कहा और टैक्सी से उतर स्वयं ढूंढ़ते हुए वह निलेश के घर पहुंच गई. वह दरवाजा खटखटाने लगी. दरवाजा खुलते ही उस की नजर निलेश पर पड़ी तो खुशी का ठिकाना न रहा.

निलेश ने हाथ मिलाते हुए कहा, ‘‘सुधा, मैं कहीं सपना तो नहीं  देख रहा हूं.’’

उस का कान मरोड़ते हुए वह बोली,‘‘तो जाग जाओ अब सपने से.’’

सुधा का बैग उस ने अपने हाथों में ले कर कमरे में प्रवेश किया. जहां उस की मां एक पलंग पर बैठी थीं. पलंग से सटी एक मेज थी जिस पर दवाइयां रखी थीं. कमरा बहुत बड़ा था. सामने की दीवार पर एक तसवीर टंगी थी, जिस पर फूलों की माला लटक रही थी. सुधा ने उस की मां के चरणों को स्पर्श किया तो वे पलंग पर बैठे उसे आश्चर्यचकित नजरों से देखने लगीं.

नमस्ते जी- भाग 2: नीतिन की पत्नी क्यों परेशान थी?

Writer- डा. उर्मिला कौशिक ‘सखी’

एकदो भद्दी गाली देने के साथ दोचार थप्पड़ मार कर नितिन ने मुझे घसीटते हुए ला कर बिस्तर पर पटक दिया और दरवाजे को जोर से बंद करते हुए घर से बाहर निकल गए.

बौखलाहट में मुझ पर न जाने कहां से पागलपन सा सवार हो गया. मैं ने उठ कर अपनी व नितिन की फ्रेमजडि़त तसवीर ली और फर्श पर दे मारी तथा साथ में रखा हुआ गुलदान दीवार पर और गुस्से में शादी वाली सोने की अंगूठी उतार कर दूर फेंकते हुए बैड पर धड़ाम से गिर पड़ी. फिर न जाने कब मैं अतीत की स्मृतियों के गहरे सागर में डूबती चली गई.

धीरेधीरे मुझे वे दिन याद आने लगे जब मात्र डेढ़ साल के अंतराल में मैं दूसरी बार मां बनी थी और मैं ने फूल सी कोमल नन्ही गुडि़या को जन्म दिया था. मेरी ननद 10 दिन से अधिक नहीं रुक पाई थीं. वैसे भी उन से जच्चा का काम नहीं होता था. अंकुर व अंकिता, दोनों को एकसाथ संभालना मेरे वश से बाहर था.

मैं ने अपने लिए किसी काम वाली को रखने की बात नितिन से कही तो उन्होंने पड़ोसियों के यहां काम करने वाली निर्मला की 12-13 साल की बेटी प्रीति को घर में मेरी मदद करने के लिए रख लिया था. धीरेधीरे बेटी गोद को समझने लगी थी. दिन छिपने के बाद वह तब तक चुप नहीं होती थी जब तक उसे कोई उठा कर छाती से न लगा ले. प्रीति के साथ वह हिलमिल गई थी. उस का स्पर्श पाते ही अंकिता एकदम चुप हो जाती थी जैसे कि उसे उस की मां ही मिल गई हो.

एक दिन दोपहर में लगभग ढाई बजे के आसपास जब मैं अंकिता को दूध पिला रही थी तो प्रीति मेरे पास कमरे में आई. वैसे तो यह समय उस का आराम करने का होता था. उस की सांस कुछ फूली हुई सी थी और उस के सिर के बाल बेतरतीब से फैले हुए थे. मैं ने उस को नीचे से ऊपर तक निहारा तो लगा कि उस के साथ कुछ हुआ है. मैं ने पूछा था, ‘प्रीति, तुम इतनी घबराई हुई सी क्यों लग रही हो? क्या बात है?’

‘मेमसाहिब, आप कोई और काम करने वाली ढूंढ़ लो. मैं अब आप के घर काम नहीं कर सकती.’

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‘क्यों प्रीति, ऐसा क्या हुआ जो तुम अचानक इस तरह दोपहर में काम छोड़ कर जा रही हो? तुम्हारे साथ हम सब अच्छे से बरताव करते हैं. तुम्हें यहां किसी तरह की कोई रोकटोक भी नहीं है. अपनी इच्छा से काम करती हो. जब मन में आता है तब घर घूम आती हो. फिर आज अचानक ऐसा क्यों…’

प्रीति तब कुछ नहीं बोल पाई थी. बस, वापस मुड़ कर अपनी चुनरी के एक कोने को मुंह में दबाए भाग ली थी वह. मैं कुछ भी नहीं समझ पाई थी. अंकिता को सोता छोड़ कर मैं दूसरे कमरे में आ गई थी जहां नितिन सोए थे. मैं ने उन्हें जगाया तो आंख भींचते हुए बोले, ‘क्या बात है छुट्टी वाले दिन तो आराम कर लेने दिया करो?’

मैं ने सारा वृतांत उन्हें सुनाते हुए पूछा, ‘तुम्हें कुछ समझ में आ रहा है कि प्रीति ऐसे अचानक क्यों भाग गई?’

‘प्रीति अपने घर चली गई? मैं आराम करने के लिए जब कमरे में आया था तब तो वह बरामदे में लेटी हुई थी. हो सकता है सोते हुए उस ने कोई बुरा स्वप्न देख लिया हो. शायद डर गई हो, बेचारी. कहीं तुम ने या मां ने तो कुछ नहीं कह दिया? काम करते वक्त उसे कुछ कह तो नहीं दिया आज सुबह या कल शाम को?’

‘नहीं तो, इतने दिन हो गए भला आज तक कुछ कहा है, जो आज. हां, हो सकता है सोते हुए उस ने कोई बुरा स्वप्न देखा हो. खैर, चलो छोड़ो, मैं शाम को उस के घर हो आऊंगी.’

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यह कह कर मैं अपने कमरे में आ तो गई लेकिन मुझे चैन नहीं पड़ा रहा था. मैं बैड पर लेटेलेटे सोचती रही कि आखिर ऐसा क्या हुआ होगा जो वह भरी दोपहर में घर वापस जाने को मजबूर हो गई? मांजी से पूछा तो उन्होंने कह दिया कि उन की तो आज प्रीति से कोई बात ही नहीं हुई.

अपने हुए पराए- भाग 2: आखिर प्रोफेसर राजीव को उस तस्वीर से क्यों लगाव था

एक दिन प्रोफैसर राजीव अपनी डायरी ढूढ़ते करुणा के कमरे में आए. वहां उन्हें करुणा के साथ मेरी तसवीर दिख गई. वे हतप्रभ रह गए. तसवीर को अपने कमरे में ले गए. मुझे बुलाया, बोले, “बेटा, इतनी बड़ी चीज तुम ने मुझ से छिपाई?”

‘‘क्या अंकल?’’

‘‘बेटा, मैं जिसे बाहर तलाश रहा था वह मेरे घर में ही था.’’

मेरे अश्रु छलक गए, ‘‘अंकल, ऐसा कुछ नहीं है. हम मित्र हैं. आप पिता समान हैं मेरे. आप करुणा की शादी जहां करना चाहें, कर दें, मैं विरोध नहीं करूंगा, पूरा सहयोग दूंगा. हमारा करुणा का पवित्र रिश्ता है.’’

‘‘बेटा, यह बात मेरे दिमाग में पहले क्यों नहीं आई. मैं तुझे अच्छी तरह से जानता हूं, करुणा तेरे साथ बहुत खुश रहेगी. तेरे जैसा दामाद मुझे कहां मिलेगा. दामाद बेटा ही होता है. बुलाओ, करुणा को.’’

करुणा यह सब अंदर से सुन रही थी, दौड़ी हुई आई. उन के पास बैठ गई. उन्होंने उस का हाथ मुझे देते हुए कहा, ‘‘आज मैं भारमुक्त हो गया, खुश रहो.’’ एकाएक उन्हें कम्पन हुआ, सीना जोर से धड़का, और गरदन एक तरफ मुड़ गई. वे चिरनिद्रा में लीन हो गए. मेरी आंखें छलछला आईं. करुणा चीख कर रो पड़ी. उन के जीवन का अंत ऐसा होगा, सोचा भी नहीं था.

अपने हुए पराए

इंट्रो

हार न मानने वाले प्रोफैसर राजीव बेटी करुणा के मामले में थकेहारे जैसे हो गए थे, लेकिन जिंदगी के आखिरी लमहों में घर में ही ऐसी तसवीर मिली जिस ने उन्हें हारने से बचा लिया.

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जिंदगी में हार न मानने वाले प्रोफैसर राजीव आज सुबह बहुत ही थके हुए लग रहे थे. मैं उन को लौन में आरामकुरसी पर निढाल बैठे देख सन्न रह गया. उन के बंगले में सन्नाटा था. कहां संगीत की स्वरलहरियां थिरकती रहती थीं, आज ख़ामोशी पसरी थी. मुझे देखते ही वे बोले, ‘‘आओ, बैठो.’’

उन की दर्दमिश्रित आवाज से मुझे आभास हुआ कि कुछ घटित हुआ है. मैं पास पड़ी बैंच पर बैठ गया.

‘‘कैसे हो नरेंद्र?’’ आसमान की ओर निहारते उन्होंने पूछा.

‘‘ठीक हूं,” मैं ने दिया. मेरा दिल अभी भी धड़क रहा था. मैं उन की पुत्री करुणा की तबीयत को ले कर परेशान था. 5 दिनों पूर्व वह अस्पताल में भरती हुई थी. फोन पर मेरी बात नहीं हो सकी. जब भी फोन लगाया स्विचऔफ मिला. चिंताओं ने पैने नाखून गड़ा दिए थे.

मुझे खामोश देख प्रोफैसर राजीव रुंधे स्वर से बोले, “दिल्ली से कब आए?”

‘‘कल रात आया.’’

‘‘इंटरव्यू कैसा रहा?’’

‘‘ठीक रहा.’’

कुछ देर खामोशी छाई रही. उन की आंखें अभी भी आसमान के किसी शून्य पर टिकी थीं. चेहरे पर किसी भयानक अनिष्ट की परछाइयां उतरी थीं जो किसी अनहोनी का संकेत दे रही थीं. मैं चिंता से भर उठा. करुणा को कुछ हो तो नहीं गया. लेकिन जब करुणा को चाय लाते देखा तो सारी चिंताएं उड़ गईं. वह पूरी तरह स्वस्थ्य दिख रही थी.

‘‘पापा चाय लीजिए,’’ करुणा ने चाय की ट्रे गोलमेज पर रखते हुए कहा.

मेरी नजरें अभी भी करुणा के चेहरे पर जमी थीं, लेकिन उस की तरफ से कोई प्रतिक्रिया न देख हैरान रह गया, लगा नाराज है. करुणा चाय दे कर मुड़ी ही थी कि पैर डगमगा गए. मैं ने तुरंत हाथों में संभाल लिया. वह संभलती हुई बोली, ‘‘थैंक्यू.’’ मैं तुरंत अलग हो गया. प्रोफैसर राजीव बोले, “जब चलते नहीं बनता तो हाईहील की सैंडिल क्यों पहनती हो?”

‘‘फैशन है पापा.”

‘‘हूं, सभी मौडर्न हुए जा रहे हैं.’’

मैं समझ गया, उन का इशारा राहुल की बहू अपर्णा पर था. अपर्णा अकसर जींस व टोप पहने ही दिखती है.

मेरे पिताजी और प्रोफैसर राजीव की दोस्ती जगजाहिर थी. एक साथ उन्होंने पढ़ाईलिखाई की, नौकरी की. पड़ोस में मकान बनाया. किसी भी समारोह में गए, साथ गए. यहां तक कि चुनाव भी साथ लड़ा.

मेरे पिताजी कैंसर की बीमारी से पीड़ित थे, जल्दी ही उन की मृत्यु हो गई. मुझे हिदायत दे गए थे कि प्रोफैसर राजीव के घर को अपना घर समझना, पूरी इज्जत देना. तब से मेरा आनाजाना लगा रहता है. प्रोफैसर राजीव मुझे अकसर याद करते रहते हैं और मैं उन के बाहरी काम निबटाता रहता हूं. वे अपने लड़के राहुल से अधिक विश्वस्त मुझे मानते हैं.

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प्रोफैसर राजीव का संपन्न परिवार है – पत्नी, एक लड़का, बहू और एक लड़की है. धर्म में उन की आस्था है. भजन, कीर्तन, भागवत जैसे कार्यक्रम वे कराते रहते हैं. करूणा जब एकाएक बीमार हुई और उसे अस्पताल में भरती होना पड़ा तो सभी चिंतित हो गए. मुझे भी शौक लगा. उसे पीलिया हो गया था. 10 दिन वह आईसीयू में भरती रही. तीनचार दिन मैं देखता रहा.

इसी बीच, मेरा इंटरव्यूकौल आ गया. मुझे दिल्ली जाना पड़ा. आज जब दिल्ली से वापस लौटा तो करुणा की याद ही दिल में बसी थी – वह कैसी है, अस्पताल से आई कि नहीं… सोचता हुआ प्रोफैसर राजीव के घर पहुंचा. प्रोफैसर राजीव बाहर ही मिल गए. उन्हें उदास देख मन में तरहतरह की शंकाएं पल गईं.

प्रोफैसर राजीव की चिंता मुझे अभी भी हो रही थी कि वे कुछ छिपाए हुए हैं. वरना तो ऐसे गमगीन वे कभी नहीं दिखे. करुणा के जाने के बाद मैं ने उन की चिंता का कारण पूछा तो वे टालते हुए उठ गए और अंदर कमरे में चले गए. उन के हावभावों ने मुझे फिर घेर लिया. मैं तुरंत करुणा के कमरे में गया. करुणा सोफे पर बैठी डायरी के पन्ने पलट रही थी, बोली, ‘‘कुछ काम?’’

‘‘क्या बिना काम के नहीं आ सकता?’’

‘‘रोका किस ने, मैं होती कौन हूं?’’

‘‘अच्छा, समझा.’’

‘‘क्या?’’

‘‘मैं दिल्ली चला गया था, इसलिए…’’

‘‘हां, मैं अस्पताल में थी और हुजूर दिल्ली चले गए.’’

‘‘इंटरव्यू था?’’

‘‘जानती हूं, मैं मर रही थी और आप छूमंतर हो गए, बता कर जा सकते थे.’’

‘‘सौरी, करुणा. प्लीज, मेरा जाना बहुत जरूरी था. पता है, मैं सिलेक्ट हो गया.’’

‘‘सच, नौकरी लग गई तुम्हारी?’’

‘‘हां, लग जाएगी.’’

यह सुनते ही वह मेरे गले से लग गई. उस की गर्म सांसों से मेरा दिल मधुर एहसास से भर उठा, होंठ उस के कपोलों से जा लगे. वह तुरंत दूर होती बोली, ‘‘यह क्या?’’

‘‘सौरी,’’ मैं ने कान पकड़ते हुए कहा.

एक मधुर मुसकन उस के चेहरे पर पसर गई जिसे मैं मंत्रमुग्ध सा देखता रह गया. तभी प्रोफैसर राजीव की आवाज कानों में पड़ी. मैं तुरंत उन के कमरे में गया.

‘‘क्या है अंकल?’’

बिना कुछ कहे- भाग 2: स्नेहा ने पुनीत को कैसे सदमे से निकाला

Writer- शिवी गोस्वामी 

आरती और मेरे रास्ते अब अलगअलग हो चुके थे. मैं उसे कुछ समझाना नहीं चाहता था और वह भी कुछ समझना नहीं चाहती थी.

मुझे बस हमेशा यह उम्मीद रहती थी कि अब उस का फोन आएगा और एक माफी से सबकुछ पहले जैसा हो जाएगा, लेकिन शायद कुछ चीजें बनने के लिए बिगड़ती हैं और कुछ बिगड़ने के लिए बनती हैं.

हमारी कहानी तो शायद बिगड़ने के लिए ही बनी थी. 5 साल का प्यार और साथ सबकुछ खत्म सा हो गया था.

मेरे घर में अब मेरे रिश्ते की बात चलने लगी थी, लेकिन किसी और लड़की से. मां मुझे रोज नएनए रिश्तों के बारे में बताती थीं, लेकिन मैं हर बार कोई न कोई बहाना या कमी निकाल कर मना कर देता था.

मुझे भीड़ में भी अकेलापन महसूस होता था. सब से ज्यादा तकलीफ जीवन के वे पल देते हैं, जो एक समय सब से ज्यादा खूबसूरत होते हैं. वे जितने मीठे पल होते हैं, उन की यादें भी उतनी ही कड़वी होती हैं.

धीरेधीरे वक्त बीतता गया. मेरे साथ आज भी बस, आरती की यादें थीं. मुझे क्या पता था आज मैं किसी से मिलने वाला हूं. आज मैं स्नेहा से मिला. हम दोनों की मुलाकात मेरे दोस्त की शादी में हुई थी.

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स्नेहा आरती की चचेरी बहन थी. साधारण नैननक्श वाली स्नेहा शादी में बिना किसी की परवा किए, सब से ज्यादा डांस कर रही थी. 21-22 साल की वह लड़की हरकतों से एकदम 10-12 साल की बच्ची लग रही थी.

‘‘बेटा, तुम्हारी गाड़ी में जगह है?‘‘ मेरे जिस दोस्त की शादी थी, उस की मम्मी ने आ कर मुझ से पूछा.

‘‘हां आंटी, क्यों?‘‘ मैं ने पूछा.

‘‘तो ठीक है, कुछ लड़कियों को तुम अपनी गाड़ी में ले जाना. दरअसल, बस में बहुत लोग हो गए हैं. तुम घर के हो तो तुम से पूछना ठीक समझा.‘‘

सजीधजी 3 लड़कियां मेरी कार में पीछे की सीट पर आ कर बैठ गईं. एक मेरे बराबर वाली सीट पर आ कर बैठ गई.

मेरे यह कहने से पहले कि सीट बैल्ट बांध लो, उस ने बड़ी फुर्ती से बैल्ट बांध ली. वे सब अपनी बातों में मशगूल हो गईं.

मुझे ऐसा एहसास हो रहा था जैसे मैं इस कार का ड्राइवर हूं, जिस से बात करने में किसी को कोई दिलचस्पी नहीं थी.

तभी स्नेहा ने मुझ से पूछा, ‘‘आप रजत भैया के दोस्त हैं न.‘‘

‘‘जी,‘‘ मैं ने बस, इतना ही उत्तर दिया. न तो इस से ज्यादा हमारी कोई बात हुई और न ही मुझे कोई दिलचस्पी थी.

आजकल के हाईटैक युग में जिस से आप आमनेसामने बात करने से हिचकें उस के लिए टैक्नोलौजी ने एक नया नुसखा कायम किया है, जो आज के समय में काफी कारगर है, और वह है चैटिंग.

स्नेहा ने मुझे फेसबुक पर रिक्वैस्ट भेजी और मैं ने भी स्वीकार कर ली.

हम दोनों धीरेधीरे अच्छे दोस्त बन गए. बातोंबातों में उस ने मुझे बताया कि उसे अपने कालेज के सैमिनार में एक प्रोजैक्ट बनाना है. मैं ने कहा, ‘‘तो ठीक है, मैं तुम्हारी मदद कर देता हूं.‘‘

इतने सालों बाद मैं ने उस के लिए दोबारा पढ़ाई की थी उस का प्रोजैक्ट बनवाने के लिए. कभी वह मेरे घर आ जाया करती थी तो कभी मैं उस के घर चला जाता. दरअसल, वह अपने कालेज की पढ़ाई की वजह से रजत के घर ही रहती थी. जब भी वह प्रोजैक्ट बनवाने के लिए आती तो बस, बोलती ही जाती थी. मेरे से बिलकुल अलग थी, वह.

एक दिन बातोंबातों में उस ने पूछा, ‘‘आप की कोई गर्लफ्रैंड नहीं है?‘‘

मैं उस को न कह कर बात वहीं पर खत्म भी कर सकता था, लेकिन मैं ने उस को अपने और आरती के बारे में सबकुछ सचसच बता दिया.

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‘‘ओह,‘‘ स्नेहा ने दुख जताते हुए कहा, ‘‘मुझे सच में बहुत दुख हुआ यह सब सुन कर. क्या तब से आप दोनों की एक बार भी बात नहीं हुई?‘‘ स्नेहा ने पूछा.

मैं ने गहरी सांस लेते हुए कहा, ‘‘नहीं, और अब करनी भी नहीं है,‘‘ यह कह कर हम दोनों प्रोजैक्ट बनाने लग गए.

आज जब स्नेहा आई तो कुछ बदलीबदली सी लग रही थी. आते ही न तो उस ने जोर से आवाज लगा कर डराया और न ही हंसी.

मैं ने पूछा, ‘‘सब ठीक तो है न?‘‘

वह बोली, ‘‘कुछ बताना था आप को, आप मुझे बताना कि सही है या गलत.‘‘

हम अच्छे दोस्त बन गए थे. मैं ने उस से कहा, ‘‘हांहां जरूर, क्यों नहीं,‘‘ बोलो.

उस ने एक गहरी सांस लेते हुए कहा, ‘‘मुझे किसी से प्यार हो गया है.‘‘

मैं ने कहा, ‘‘कौन है वह और क्या वह भी तुम से प्यार करता है?‘‘

उस ने कहा, ‘‘मालूम नहीं?‘‘

‘‘ओह, तुम्हारे ही कालेज में है क्या?‘‘ मैं ने पूछा.

‘‘नहीं,‘‘ उस ने बस छोटा सा जवाब दिया.

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