कैरियर, रिलेशनशिप और ब्रेकअप: डिप्रैशन में चले जाते हैं नए-नवेले सैलेब्रिटी

उत्तर प्रदेश में वाराणसी के सारनाथ थाना क्षेत्र में होटल सोमेंद्र बना हुआ है. यह होटल सामान्य श्रेणी का है. यहां ज्यादातर सारनाथ घूमने वाले पर्यटक रुकते हैं. यहीं पर कमरा नंबर 105 में भोजपुरी फिल्म हीरोइन आकांक्षा दुबे भी रुकी थीं. डबल बैडरूम वाला यह कमरा देखने में काफी अच्छा था. खिड़की से बाहर होटल का हराभरा लौन दिखता था.

27 मार्च, 2023 की सुबह के करीब 10 बजे आकांक्षा दुबे को अपना कमरा खाली करना था. जब चैकआउट करने के लिए कोई सूचना नहीं आई, तो होटल रिसैप्शन से फोन किया गया, पर कमरे से फोन नहीं उठाया गया.

कई बार फोन करने पर भी जब फोन नहीं उठा, तो होटल में काम करने वाला एक वेटर कमरे में गया. कई दफा खटखटाने के बाद भी दरवाजा खुला नहीं. तब होटल वालों ने सारनाथ थाने की पुलिस को फोन कर के बुलाया.

पुलिस के सामने दरवाजा खोला गया, तो आकांक्षा दुबे कमरे में दिखीं, जिन के गले में फांसी का फंदा था. होटल में भोजपुरी हीरोइन आकांक्षा दुबे के मरने की यह खबर जंगल में लगी आग की तरह फैल गई.

25 साल की आकांक्षा दुबे को भोजपुरी म्यूजिक इंडस्ट्री की नई सनसनी माना जा रहा था. वे पड़ोस के ही भदोही जिले की रहने वाली थीं. उन के कई वीडियो एलबम एक के बाद एक हिट हुए थे. इन में ‘बुलेट पर जीजा’ सुपरहिट था. इस से आकांक्षा दुबे को बड़ी शोहरत मिली थी.

‘बुलेट पर जीजा’ समर सिंह के औफिशियल यूट्यूब चैनल पर रिलीज किया गया था. लाखोंकरोड़ों लोगों तक इस को पहुंचने में देर नहीं लगी थी. इस म्यूजिक वीडियो में आकांक्षा दुबे ने जम कर डांस किया था. यह गाना विनय पांडेय और शिल्पी राज ने गाया था.

अल्हड़ और लुभावने अंदाज में आकांक्षा दुबे ने जिस तरह से इस वीडियो में ऐक्टिंग की थी, उसे देखने वालों ने बेहद पसंद किया था, जिस के बाद वे रातोंरात भोजपुरी म्यूजिक इंडस्ट्री की सैलेब्रिटी बन गई थीं.

फिल्मों में ऐक्टिंग और डांस करने के अलावा आकांक्षा दुबे इंस्टाग्राम पर रील्स की दुनिया में भी खूब अटैंशन पाती थीं. वे आएदिन अपने म्यूजिक एलबम को ले कर चर्चा में रहती थीं. उन्होंने भोजपुरी के हीरो और गायक पवन सिंह के साथ भी कई म्यूजिक वीडियो में काम किया था. इन में ‘करवटिया’ और ‘सटा के पईसा’ प्रमुख थे. इन गानों को भी खूब पसंद किया गया था.

आकांक्षा दुबे ने बहुत ही कम उम्र में भोजपुरी सिनेमा में काफी कामयाबी हासिल की थी. उन्होंने ‘मेरी जंग मेरा फैसला’ नाम की फिल्म से अपनी ऐक्टिंग की शुरुआत की थी. इस के बाद उन्होंने ‘मुझ से शादी करोगी’, ‘वीरों के वीर’, ‘फाइटर किंग’ जैसी कई फिल्मों में भी काम किया था.

आकांक्षा दुबे ने अपने कैरियर की शुरुआत टिकटौक से की थी. इस के बाद वे इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर अपने टैलेंट के दम पर छा गई थीं. जब लाखों लोगों ने उन्हें पसंद करना शुरू किया, तब आकांक्षा दुबे ने भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखा और एक से बढ़ कर एक भोजपुरी गानों और फिल्मों में काम किया.

आकांक्षा दुबे के परिवार में उन के मांबाप और भाईबहन हैं. उन का परिवार उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में रहता है. वे भी अपने परिवार के साथ ही रहती थीं.

गोरे रंग और लंबे कद वाली आकांक्षा दुबे की दिलकश अदाएं देखने वालों को पसंद आ रही थीं. सुनने में आया है कि आकांक्षा दुबे और समर सिंह के बीच मधुर संबंध थे. वे दोनों रिलेशनशिप में थे.

‘बुलेट पर जीजा’ की कामयाबी के बाद आकांक्षा दुबे के सामने कई और कलाकारों के औफर आने लगे थे. यह बात समर सिंह को पसंद नहीं थी, जबकि आकांक्षा दुबे और उन का परिवार चाहता था कि आकांक्षा दूसरे कलाकारों के साथ भी काम करे.

इस बात को ले कर आकांक्षा दुबे और समर सिंह के बीच दूरियां बढ़ गई थीं. इस के बाद आकांक्षा दुबे ने समर सिंह से पैसे मांगने शुरू किए.

आकांक्षा की मां मधु दुबे ने वाराणसी पुलिस को बताया, ‘‘जब आकांक्षा ने समर सिंह और उस के भाई संजय सिंह से पैसे मांगे, तो उन दोनों ने आकांक्षा को धमकियां दी थीं.’’

इस विवाद का असर समर सिंह और आकांक्षा दुबे के संबंधों पर पड़ा, जिस के बाद आकांक्षा डिप्रैशन में चली गईं.

इस बीच आकांक्षा दुबे ने भोजपुरी के दूसरे मशहूर गायक पवन सिंह के साथ म्यूजिक वीडियो ‘आरा कभी हारा नहीं’ शूट किया. यह वीडियो उस दिन रिलीज हुआ, जिस दिन आकांक्षा दुबे की लाश मिली थी. चंद घंटों में ही यह वीडियो भी लाखोंकरोड़ों लोगों तक पहुंच गया था.

आकांक्षा दुबे की मां मधु दुबे के प्रार्थनापत्र पर पुलिस ने समर सिंह और उन के भाई संजय सिंह की जांच शुरू की. पुलिस इस बात की विवेचना कर रही है कि आकांक्षा दुबे की मौत के पीछे इन दोनों का क्या रोल है.

पोस्टमार्टम रिपोर्ट में पुलिस को हत्या की कोई साफ वजह नहीं दिखी. ऐसे में पुलिस इस मसले को खुदकुशी ही मान रही है.

घटना की रात आकांक्षा दुबे को कमरे पर छोड़ने आया लड़का उन के साथ का था. उस से भी पुलिस को शुरुआती पूछताछ में कोई खास जानकारी नहीं मिली.

अपने मांबाप की सोचो

दोस्त भले ही फायदा देख कर आप के साथ जुड़ते हों, पर मांबाप हमेशा आप का भला चाहते हैं. फिल्म हीरोइन अक्षरा सिंह आकांक्षा की मां से मिलने उन के भदोही जिले के बरदाहा गांव में गई थीं.

आकांक्षा दुबे का घर बेहद साधारण था. दरवाजे पर परदा पड़ा था और उस पर गांव की कढ़ाई वाला सफेद रंग

का कवर उस की खूबसूरती बढ़ाने की कोशिश कर रहा था. घर का यह कमरा नया बना दिख रहा था. दीवारों पर नया प्लास्टर दिख रहा था.

कमरे में बिजली की वायरिंग भी सही तरह से नहीं हुई थी. तार को क्लिप के सहारे से दीवार पर लगा दिया गया था. उस में मोबाइल फोन का चार्जर लगा था.

अक्षरा सिंह ने बैगनी रंग का सफेद कढ़ाई वाला सूट पहन रखा था. आंखों पर गोल फ्रेम का चश्मा और हाथ में काले पट्टे वाली घड़ी पहन रखी थी.

आकांक्षा दुबे की मां अक्षरा सिंह से लिपट कर रोने लगीं. अक्षरा सिंह ने उन्हें सहारा देते हुए अपने गले से लगा लिया. इस दौरान आकांक्षा दुबे के घरपरिवार के लोग भी वहां पर मौजूद थे.

आकांक्षा दुबे की मां से मिलने के बाद अक्षरा सिंह ने कहा, ‘‘पुलिस मामले की सही जांच करे, जिस से कोई लड़की इस तरह की घटना का शिकार न बने. आकांक्षा बहुत ही बहादुर लड़की थी. वह अपने परिवार के लिए बहुतकुछ करना चाहती थी. आज उस के परिजन आंसू बहाने को मजबूर हैं.

‘‘मैं कहती हूं कि लड़कियो जागो… अगर मन में कभी ऐसा खयाल आता है, तो अपने मांबाप की सोचो, उन से बात करो. वे हमेशा तुम्हें सही राह दिखाएंगे.’’

आकांक्षा दुबे के जानने वाले बहुत सारे लोगों ने अपने संदेश दिए. फिल्म हीरोइन पाखी हेगड़े ने भी कहा, ‘‘लड़कियों को कभी भी अपने परिवार से कोई बात छिपानी नहीं चाहिए. घर में हर किसी को न सही, पर अपनी मां को सबकुछ बताना चाहिए, चाहे वह कितनी ही गोपनीय बात क्यों न हो. वे सब अच्छी सलाह देंगे. कोई गलत कदम उठाने से पहले मातापिता के बारे में जरूर सोचना चाहिए.’’

फिल्म कलाकार संजीव मिश्रा, जो ‘पावर स्टार’ के नाम से मशहूर हैं, का कहना है, ‘‘भोजपुरी फिल्म और म्यूजिक की दुनिया में काम करने वाली लड़कियां और लड़के छोटेछोटे शहरों से चल कर अपना कैरियर बनाने आते हैं. कई बार ये इमोशन के चक्कर में पड़ कर सहीगलत का फैसला नहीं कर पाते हैं. ऐसे में गलत कदम उठा लेते हैं.

‘‘चमकदमक की दुनिया में असली दोस्त कम होते हैं. यह परख नए कलाकार नहीं कर पाते. अपने करीबी लोगों के साथ अगर वे अपनी बातें शेयर करते रहें, तो डिप्रैशन से बच सकते हैं. गलत कदम उठाने से भी बच सकते हैं.’’

मांबाप भी नजदीकियां बढ़ाएं

कैरियर काउंसलर निधि शर्मा कहती हैं, ‘‘कई बार कैरियर आगे बढ़ने की भागदौड़ में समय नहीं मिल पाता और बच्चे मातापिता से बातचीत नहीं कर पाते हैं. ऐसे में मातापिता और भाईबहन को चाहिए कि वे खुद मेलजोल बना कर रखें. उन के कैरियर और उस में आने वाले उतारचढ़ाव के बारे में पता करते रहें.

‘‘अगर आप बच्चे के कैरियर के बारे में कोई जानकारी नहीं भी रखते, तब भी उस बारे में समझना चाहिए, जिस से आप बच्चे के कैरियर, उस की

दिक्कतों, दोस्तों और साथ में काम करने वालों के बारे में जानते रहें. इस से बच्चा आप के साथ खुल कर बातचीत

करता रहेगा. अपने फैसले उस पर थोपें नहीं. किसी गलती पर नाराज न हों. अगर ऐसा करेंगे, तो बच्चा सही बात नहीं बताएगा.

‘‘लड़कियों के मामले में मां का रोल बेहद अहम होता है. मां को चाहिए कि वह लड़की से रिलेशनशिप से ले कर बौयफ्रैंड तक के मसले पर खुल कर बातचीत करे. यही वे मसले होते हैं, जहां पर लड़की अपना फैसला नहीं ले पाती है, क्योंकि उसे दुनियादारी की समझ कम होती है.जवानी में जो भी तारीफ कर देता है, लड़की उधर झुक जाती है. लोग कामयाबी दिलाने के नाम पर शोषण करते हैं. अगर ये बातें मां को पता होंगी, तो वह सही सलाह दे सकती है.’’

 जिंदगी की जंग हारी भोजपुरी हीरोइनें

भोजपुरी म्यूजिक इंडस्ट्री की सैलेब्रिटी आकांक्षा दुबे अपनी कामयाबी देखने के लिए जिंदा नहीं बची हैं. वे कोई पहली हीरोइन नहीं हैं, जिस ने यह कदम उठाया है. इस के पहले भी भोजपुरी फिल्मों की कई हीरोइनों ने ऐसे आत्मघाती कदम उठाए हैं.

इन में एक नाम अनुपमा पाठक का है. हीरोइन अनुपमा पाठक ने 40 साल की उम्र में फांसी लगा कर खुदकुशी कर ली थी. वे मरने से ठीक पहले फेसबुक पर लाइव आई थीं और लास्ट में एक पोस्ट भी डाला था.

उन्होंने रोतेरोते लोगों से कहा था, ‘‘जब कोई मर जाता है, तो लोग उस के बाद हमदर्दी दिखाने लगते हैं. कोई किसी की प्रौब्लम सौल्व नहीं कर सकता. पहली बात तो लोग ऐसा कदम तब उठाते हैं, जब वे हर तरह से थकहार जाते हैं.’’

फेसबुक लाइव होने के दौरान अनुपमा पाठक ने खुद यह कहा था कि ‘अगर आज मैं मर जाती हूं तो इस की जिम्मेदार मैं खुद हूं. इस के लिए पुलिस, मीडिया, समाज या किसी और को जिम्मेदार न ठहराया जाए’.

भोजपुरी की 30 से ज्यादा फिल्में कर चुकी हीरोइन रूबी सिंह की खुदकुशी भी अपनेआप में एक सवाल खड़ा कर देती है. उन की लाश भी उन के कमरे में लटकती हुई मिली थी.

पुलिस ने कहा था कि रूबी सिंह की लाश उन के फ्लैट के पंखे से लटकी हुई मिली है. पुलिस ने शक जताया था कि शायद प्रेम प्रसंग या फिर किसी धोखाधड़ी का शिकार होने की वजह से रूबी सिंह ने खुदकुशी करने जैसा कदम उठाया होगा.

ब्रेकअप बढ़ाता है डिप्रैशन

हिंदी फिल्मों में काम करने वाली हीरोइनें ब्रेकअप को ले कर बहुत गंभीर नहीं होती हैं. वहां जोडि़यां फिल्मों की कामयाबी के लिए बनती और बिगड़ती रहती हैं. ब्रेकअप और रिलेशनशिप कई बार गौसिप और मौजमस्ती के लिए होते हैं.

इस के उलट भोजपुरी फिल्म और म्यूजिक इंडस्ट्री में ब्रेकअप और रिलेशनशिप दोनों को ही बड़ी गंभीरता से लिया जाता है. इस की सब से खास वजह यह है कि यहां काम करने वाली लड़कियां छोटे शहरों से आती हैं, जिन के यहां शादी के पहले रिलेशनशिप और ब्रेकअप दोनों को ही अच्छा नहीं माना जाता है. इस वजह से ऐसे हालात में लड़की पर बहुत ज्यादा दबाव होता है.

दूसरी एक वजह यह होती है कि भोजपुरी फिल्म और म्यूजिक इंडस्ट्री में हीरो या गायक का दबदबा होता है. वह अपने फायदे के लिए लड़कियों का इस्तेमाल करता है, इसलिए वह चाहता है कि उस के साथ काम करने वाली लड़की किसी दूसरे के साथ काम न करे. इस के लिए वह करार पर दस्तखत करा लेता है, फिर इस को आधार बना कर लड़कियों को मजबूर करता है, उन का हर तरह से शोषण करता है.

अगर कोई लड़की किसी तरह से अपनी पहचान बना लेती है, तो उस को नुकसान पहुंचाने का काम किया जाता है. यह कोशिश होती है कि उस लड़की का कैरियर खत्म कर दिया जाए.

ऐसे विवाद पहले भी हुए हैं. अक्षरा सिंह और पवन सिंह का विवाद काफी सुर्खियों में रहा है. अक्षरा सिंह ने अपने दमखम पर अपना नाम और पहचान बनाए रखी. पर कई ऐसी लड़कियां हैं, जो इस तरह के विवाद के बाद गुमनाम हो गईं.

अगर कोई लड़की जोड़ी बनाने से इनकार करती है तो उस को फिल्मों से निकलवा दिया जाता है. ऐसे में लड़कियां परेशान हो जाती हैं. उन को चमकदमक की आदत पड़ जाती है. वे मजबूत मन से संघर्ष करने को तैयार नहीं होती हैं, जिस के चलते वे कई बार खुदकुशी करने जैसे कड़े कदम उठाने पर मजबूर हो जाती हैं.

सैलेब्रिटी बनना आसान होता है, लेकिन हालात को संभालना आसान नहीं होता है. सैलेब्रिटी बनते ही इन के आसपास ऐसे लोग जुटने लगते हैं, जो कामयाबी में तो साथ देते हैं, पर मुसीबत में अलग हो जाते हैं. क्या अकांक्षा दुबे की मौत का राज खुल पाएगा?

किसी एक पर सही (३) का निशान लगाएं और इस की फोटो खींच कर

मो. नं. : 08826099608 पर भेजें.

पैतृक संपत्ति पर बेटियों का भी समान अधिकार

टैक्सी में बैठने से पहले कविता ने ‘स्नेह विला’ को नम आंखों से देखा, गेट पर आई अपनी मां उमा  के गले लगी. बराबर में दूसरे गेट पर भी नजर डाली. दोनों भाभियों और भाइयों का नामो निशान भी नहीं था. वे उसे छोड़ने तक नहीं आए थे. ठीक है, कोई बात नहीं, यह दिन तो आना ही था. उस के लिए भाई भाभी की उपस्थित मां की ममता और अपने कर्तव्य की पूर्ति से बढ़ कर नहीं थी. मन ही मन दिल को समझाती हुई कविता टैक्सी में बैठ सहारनपुर की तरफ बढ़ गई.

55 वर्षीया कविता अपनी मां की परेशानियों का हल ढूंढ़ने के लिए एक हफ्ते से मेरठ आई हुई थी. सुंदर व चमकते ‘स्नेह विला’ में उस की मां अकेली रहती थीं. ऊपर के हिस्से में उस के दोनों भाई रहते थे. कविता सब से बड़ी थी, कई सालों से वह देख रही थी कि मां का ध्यान ठीक से नहीं रखा जा रहा है. अब तो कुछ समय से दोनों भाइयों ने अपनी अपनी रसोई भी अलग बनवा ली थी.

आर्थ्राइटिस की मरीज 75 वर्षीया उमा अपने काम, खाना, पीना आदि का प्रबंध स्वयं करती थीं, यह देख कर कविता को हमेशा बहुत दुख होता था. कविता ने उन्हें कईर् बार अपने साथ चलने को कहा. उमा का सारा जीवन इसी घर में बीता था, यहां उन के पति मोहन की यादें थीं, इसलिए वे कुछ दिनों के लिए तो कविता के पास चली जातीं पर घर की यादें उन्हें फिर वापस ले आतीं. पर अब पानी सिर के ऊपर से गुजरने लगा था. अब कविता के दोनों भाई उमा पर यह जोर भी डालने लगे थे कि वे आधाआधा मकान उन के नाम कर दें. उमा हैरान थी अैर यह सुन कर कविता भी हैरान हो गई थी.

बीमार उमा को कोई एक गिलास पानी देने वाला भी नहीं था जबकि मकान के बंटवारे के लिए दोनों भाई तैयार खड़े थे. कविता ने कई बार स्नेहपूर्वक भाइयों को मां का ध्यान रखने को कहा, तो उन्होंने दुर्व्यवहार करते हुए अपशब्द कहे, ‘इतनी ही चिंता है तो मां को अपने साथ ले जाओ, उन की देखभाल करना, तुम्हारा भी तो फर्ज है.’

कविता ने अपने पति दिनेश से बात की. कविता ने तय किया कि वह लालची भाइयों को सबक सिखा कर रहेगी. एक वकील से मिलने के बाद पता चला कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956, जिस में 9 सितंबर, 2005 से संशोधन हुआ है, के अनुसार, पिता की संपत्ति पर विवाहित बेटी का भी पूरा हक है. उसे संपत्ति का कोई लालच नहीं था. उसे व उस के पति दिनेश के पास पैसे की कोई कमी नहीं थी. वह अपने भाइयों को इस तरह सबक सिखाना चाहती थी कि वे मां का ध्यान रखें. उस ने फोन पर भाइयों से कहा, ‘‘ठीक है, मैं मां को अपने पास ले आऊंगी पर मुझे भी मकान में हिस्सा चाहिए.’’

दोनों भाइयों को सांप सूंघ गया, बोले, ‘‘तुम्हें क्या कमी है जो मायके का मकान चाहिए?’’ ‘‘क्यों, मैं मां की सेवा कर सकती हूं तो अपना हिस्सा क्यों नहीं ले सकती? यह तो अब मेरा कानूनन हक भी है. फिर मेरा मन कि मैं अपना हिस्सा बेचूं या उस में कोई किराएदार रखूं. मैं ने वकील से बात कर ली है, जल्दी ही कागजात बनवा कर तुम्हें कानूनी नोटिस भिजवाऊंगी.’’

कविता ने अपने मन की बात मां को बता दी थी. दोनों भाइयों का गुस्से के मारे बुरा हाल था. उन्होंने पड़ोसियों, रिश्तेदारों में जम कर कविता की बुराई करनी शुरू कर दी. लालची, खुदगर्ज बेटी को मकान में हिस्सा चाहिए. दोनों भाइयों ने काफी देर सोचा कि 3 हिस्से हो गए तो नुकसान ही नुकसान है और अगर कविता ने अपना हिस्सा बेच दिया तो और बुरा होगा.

दोनों भाई अपनी पत्नियों के साथ विचार विमर्श करते रहे. तय हुआ कि इस से अच्छा है कि मां की ही देखभाल कर ली जाए. दोनों ने मां से माफी मांग कर उन की हर जिम्मेदारी उठाने की बात की. दोनों ने मां के पास जा कर अपनी गलती स्वीकारी. उमा के दिल को बहुत संतोष मिला कि उन का शेष जीवन अपने घर में चैन से बीत जाएगा. कविता को भी अपने प्रयास की सफलता पर बहुत खुशी हुई. वह यही तो चाहती थी कि मां अपने घर में ससम्मान रहें, इसलिए वह मकान में हिस्से की बात कर बैठी थी. अगर कारण कोई और भी होता तो भी अपना हिस्सा मांगने में कोई बुराई नहीं थी.

दरअसल, जब कानून ने एक लड़की को हक दे दिया है तो पड़ोसी, रिश्तेदार इस मांग की निंदा करने वाले कौन होते हैं? आज जब कोई बेटी ससुराल में रह कर भी माता पिता के प्रति अपने कर्तव्य याद रखती है तो मायके की संपत्ति में उस को अपना हिस्सा मांगना बुरा क्यों समझा जाता है? और वह भी तब जब कानून उस के साथ है.

हिंदू उत्तराधिकार संशोधित अधिनियम 2005 के प्रावधान में यह साफ किया गया है कि पिता की संपत्ति पर एक बेटी भी बेटे के समान अधिकार रखती है. हिंदू परिवार में एक पुत्र को जो अधिकार प्राप्त हैं, वे अब बेटियों को भी समानरूप से मिलेंगे. यह प्रस्ताव 20 दिसंबर, 2004 से पहले हुए संपत्ति के बंटवारे पर लागू नहीं होगा.

गौरतलब है कि हिंदू उत्तराधिकार कानून 1956 में बेटी के लिए पिता की संपत्ति में किसी तरह के कानूनी अधिकार की बात नहीं कही गई. बाद में 9 सितंबर, 2005 को इस में संशोधन कर पिता की संपत्ति में बेटी को भी बेटे के बराबर अधिकार दिया गया. इस में कानून की धारा 6 (5) में स्पष्टरूप से यह लिखा है कि इस कानून के पास होने के पूर्व में हो चुके बंटवारे इस नए कानून से अप्रभावित रहेंगे.

कानून की नजर में ‘संपत्ति के उत्तराधिकार’ के मामले में भले ही बेटे व बेटी में कोई भेद न हो परंतु क्या बेटियां यह हक पा रही हैं? और अगर नहीं, तो क्या वे अपने पिता या भाई से अपने हक की मांग सामने भी रख पा रही हैं? बेटियों के अधिकार के प्रति सामाजिक रवैया शायद ठीक नहीं है.

सामाजिक मानसिकता

हमारा तथाकथित सभ्य समाज, जो सदियों से रूढि़वादी परंपराओं के बोझ तले दबा हुआ है, आसानी से पैतृक संपत्ति पर बेटियों के हक को बरदाश्त नहीं कर पा रहा है. जहां बचपन से पलती हुई हर बेटी के मन में कूट कूट कर ये विचार विरासत में दिए जाते हों कि तुम पराए घर की हो, इस घर में किसी और की अमानत हो,

यह घर तुम्हारे लिए सिर्फ रैनबसेरा है, उस घर की बेटी इसी को मान बंटवारे की मानसिकता से कोसों दूर रहती है. खासकर, अपनी शादी के बाद पहली बार मायके आने पर वह खुद को मेहमान समझ इस तथ्य को स्वीकार कर लेती है कि अब उसे मायके से रस्मोरिवाज के नाम पर कुछ उपहार तो मिल सकते हैं, पर संपत्ति में बराबरी का हक कदापि नहीं.

आज भी महिलाएं पैतृक संपत्ति में अपना हिस्सा मांगने में हिचकती हैं. इंदौर में रह रही 2 बेटियों की मां शैलजा का कहना है कि इस में दोराय नहीं है कि पैतृक संपत्ति में बेटियों का भी हक दिए जाने से उन की स्थिति में सुधार होगा, पर खुद उन के लिए अपने पिता या भाई से संपत्ति में हक मांगना थोड़ा सा मुश्किल है, क्योंकि इस से अच्छेभले चलते रिश्तों में भी दरार आ सकती है.

देश की राजधानी दिल्ली की तमाम औरतों व लड़कियों से की गई बातचीत में सभी ने लगभग यही बताया कि कानून भले ही एक झटके में हमें बराबरी का हक दे दे लेकिन समाज में बदलाव एकाएक नहीं आते. यही वजह है कि वास्तविकता के धरातल पर इस फर्क को दूर होने में कुछ समय लगेगा. हमारा समाज संपत्ति के नाम पर भाईभाई में हुए झगड़े या फसाद को तो सामान्यरूप में ले सकता है, परंतु एक बहन के यही हक जताने पर उसे घोर आपत्ति होगी.

सुप्रीम कोर्ट के महत्त्वपूर्ण निर्णय

पिता की संपत्ति में बेटियों के हक के संबंध में एक महत्त्वपूर्ण निर्णय सर्वोच्च अदालत द्वारा किया गया, जिस में उस ने कहा कि एक इंसान मरने के बाद अपना फ्लैट अपने बेटे या पत्नी को देने के बजाय अपनी शादीशुदा बेटी को भी दे सकता है.

कोर्ट ने यह फैसला बिस्वा रंजन सेनगुप्ता के मामले में सुनाया. इस केस में बिस्वा रंजन द्वारा अपनी शादीशुदा बेटी इंद्राणी वाही को कोलकाता के सौल्ट लेक सिटी में पूर्वांचल हाउसिंग स्टेट की मैनेजिंग कमेटी के फ्लैट का मालिकाना हक दिया गया. जिस पर कड़ी आपत्ति लेते हुए उन के बेटे और पत्नी ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था. सोसाइटी के रजिस्ट्रार ने भी रंजन की बेटी का नाम उत्तराधिकारी के रूप में दर्ज करने से मना कर दिया था.

उपरोक्त मामले में बिस्वा रंजन अपनी पत्नी और बेटे के दुर्व्यवहार के कारण अपनी शादीशुदा बेटी के पास रह रहे थे. प्रतिवादी पक्षकारों द्वारा यह दावा किया गया कि संपत्ति के मालिक ने मकान के अंशधारकों व वारिस की सूची में सिर्फ पत्नी व बेटे को शामिल किया है, इसलिए वह बेटी को मकान का उत्तराधिकारी घोषित नहीं कर सकता है. साथ ही, उत्तराधिकार नियमों के मुताबिक भी वादी के बेटे और पत्नी उक्त संपत्ति में अपनी हिस्सेदारी का दावा कर सकते हैं क्योंकि बेटे को पिता की संपत्ति में हक लेने का कानूनी अधिकार प्राप्त है. पक्षकारों की तीसरी दलील बेटी के शादीशुदा होने की थी.

लेकिन, सुप्रीम कोर्ट ने इन सभी दलीलों को खारिज कर कहा कि अव्वल तो बेटा और पत्नी विवादित मकान को पैतृक संपत्ति नहीं कह सकते हैं क्योंकि यह प्रतिवादी ने खुद खरीदी थी. इसलिए इसे उत्तराधिकार के दायरे में नहीं रख सकते. जहां तक सोसाइटी ऐक्ट के प्रावधानों का सवाल है तो अदालत ने कहा कि संपत्ति के मालिक ने पत्नी और बेटे के गैर जिम्मेदाराना रवैए से तंग आ कर संपत्ति का उत्तराधिकार बेटी को दिया है. खरीदारी के समय नौमिनी बनाना इस बात का पुख्ता आधार नहीं है कि वे ही उत्तराधिकारी हैं. मालिक के चाहने पर नौमिनी कभी भी बदला जा सकता है.

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला कानून के अलावा सामाजिक लिहाज से भी बेटियों के लिए खासा महत्त्व रखता है.

एक अन्य फैसले में अक्तूबर 2011 में उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति आर एम लोढ़ा और जगदीश सिंह खेहर ने कहा कि हिंदू उत्तराधिकार (संशोधित) अधिनियम 2005 के तहत बेटियां अन्य पुरुष सहोदरों के बराबर का अधिकार रखती हैं. उन्हें बराबरी से अपना उत्तरदायित्व भी निभाना पड़ेगा. इस फैसले में यह भी कहा गया कि अगर बेटियों को बेटों के बराबर उत्तराधिकार नहीं दिया जाता तो यह संविधान द्वारा दिए गए समानता के मौलिक अधिकारों का हनन भी होगा, और दूसरी ओर यह सामाजिक न्याय की भावना के भी विरुद्ध है.

पिता की संपत्ति पर बेटी के अधिकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अन्य फैसला सुनाते हुए इसे सीमित भी कर दिया है. कोर्ट ने कहा है कि अगर पिता की मृत्यु 2005 में हिंदू उत्तराधिकार कानून के संशोधन से पहले हो चुकी है, तो ऐसी स्थिति में बेटियों को संपत्ति में बराबर का हक नहीं मिल सकता.

वैसे, देखा जाए तो इस नियम के लागू होने के बाद महिलाओं की स्थिति समाज में सुधार की तरफ बढ़ चली है. कानूनी रूप से हुआ यह बदलाव निश्चित ही औरत व आदमी के बीच अधिकारों की समानता की बात करता है. इस का फायदा हमें जल्दी ही निकट भविष्य में देखने को मिलेगा जब महिलाएं भी आत्मनिर्भर बन समाज व देश की प्रगति में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकेंगी.

नशे की गिरफ्त में गांवदेहात के युवा

बिजली, पानी, गंदगी और तमाम तरह की समस्याओं के बीच जयपुर जिले का एक कसबा चाकसू इन दिनों नशे की गिरफ्त में कसमसा रहा है. यहां अफीम, स्मैक, भांग सहित तमाम नशे की दवाएं और इंजैक्शन खुलेआम बिकते हैं, जिन पर किसी तरह की कोई रोकटोक नहीं है.

कथित तौर पर पुलिस, आबकारी और सेहत महकमे की मिलीभगत से होने वाला नशे का यह कारोबार परवान पर है. यहां की युवा पीढ़ी बरबाद हो रही है और परिजन परेशान हैं. एक जांचपड़ताल के मुताबिक स्कूलकालेजों में पढ़ने वाले छात्रछात्राएं सब से ज्यादा ड्रग्स एडिक्ट बनते जा रहे हैं.

युवामन को जोश व उमंग की उम्र कहा जाता है. उम्र का यह वह पड़ाव होता है जब कैरियर को ले कर युवामन द्वारा लक्ष्य साधा जाता है. लेकिन कसबाई व गांवई इलाकों में युवाओं की नसों में जोश कम, नशा ज्यादा दौड़ता दिखाई दे रहा है.

गांवों में पिछले कुछ समय से स्मैक और अफीम का कारोबार लगातार बढ़ रहा है और गांवों का युवावर्ग इस की गिरफ्त में आ गया है. जबकि, जिम्मेदार पूरी तरह से बेखबर नजर आ रहे हैं.

यह कहना कतई गलत न होगा कि गांवों की युवापीढ़ी नशे के कारण बरबाद हो रही है. नशे में धूम्रपान से ले कर शराब का सेवन तो किया ही जा रहा है, इस के अलावा जो इन दिनों नशा नसों में उतारा जा रहा है उन में स्मैक और अफीम का नाम पहले पायदान पर लिया जा रहा है.

जानकारी के मुताबिक, कसबोंगांवों में यह नशे की पुड़िया अलगअलग जरिए आसानी से मुहैया हो रही है. अफीम का परिष्कृत रूप स्मैक है. एक किलोग्राम अफीम से महज 50 से 80 ग्राम स्मैक तैयार होती है. अफीम को चूने व एक रसायन के साथ मिला कर उबालते हैं. इस से अफीम फट जाती है. पूरी तरह से गाढ़ा होने तक इसे उबाला जाता है. बाद में इस गाढ़े घोल को सुखा दिया जाता है. सूखने पर यह पाउडर स्मैक कहलाता है.

25 से 30 किलोग्राम अफीम से एक किलोग्राम स्मैक बनती है. राजस्थान के प्रतापगढ़, चित्तौड़गढ़ जिलों के साथ मध्यप्रदेश और पश्चिम बंगाल के अफीम उत्पादन क्षेत्र में इसे बनाया जाता है.

जानकारी के अनुसार गांवों में बड़ी आसानी से दूसरे जिलों से स्मैक की सप्लाई हो रही है. यह सप्लाई जयपुर व टोंक जिले के कई गांवों में हो रही है और कुछ लोग यहां देने आते हैं. यहां का युवावर्ग दिखावे के लिए और कुछ लोग अपना समूह बढ़ाने के लिए इस कार्य को आसानी से बढ़ावा दे रहे हैं.

इन गांवों में अब स्मैक के कारोबार की दस्तक के बाद अपराधों में भी बढ़ोतरी हो रही है. जानकारों के अनुसार स्मैक के आदी व्यक्ति को किसी भी हालत में स्मैक की डोज चाहिए ही वरना उन्हें चक्कर आने, उलटियां होने और शरीर में घबराहट होने लगती है.    कुछ स्मैक के आदी हो चुके युवाओं का इलाज भी उन के परिजनों द्वारा करवाया जा रहा है. गांवों में फैल रहे स्मैक के कारोबार पर अभी तक लगाम लगाने के प्रयास शुरू नहीं हुए है. वहीं पुलिस भी इस कारोबार से जानकर भी अनजान बनी हुई है. ऐसे में तस्करों द्वारा आसानी से अपने मंसूबे पूरे कर इस कारोबार से फायदा हासिल किया जा रहा है.

सुरेश, बदरंग दीवारों वाले दोमंज़िला मकान की ऊपरी मंज़िल पर अपने कमरे के एक कोने में फ़ोन के साथ बैठा है. उस के हाथ कांप रहे हैं और वह देहाती भाषा में अपनी मां को चीखते हुए पुकारता हैं, “म्हारं कांई हो रयो छ.. (पता नहीं मुझे क्या हो रहा है).”

वह सिरदर्द और बदन दर्द की शिकायत करता है. उस की मां बादाम देवी गिलास में पानी लाने के लिए रसोई की ओर दौड़ती है. सुरेश के चीख़ने की आवाज़ सुन कर उस के पिता बजरंग कमरे में आते हैं और उसे सांत्वना देने की कोशिश करते हैं, कहते हैं कि डाक्टरों ने उन्हें सूचित किया था कि नशामुक्ति के लक्षण इसी प्रकार के होंगे.

बादाम देवी और बजरंग समय गुज़रने के साथ 20 वर्षीय सुरेश के कमरे में ताला लगा कर सुरक्षित रखना शुरू कर दिया है. और उन के घर की सभी 10 खिड़कियों को बंद रखा जाता है. यह कमरा रसोई के क़रीब है, जहां से उस की मां सुरेश पर हमेशा नज़र बनाए रख सकती है.

52 वर्षीय बादाम देवी कहती हैं, “अपने बेटे को बंद रखना दुखदायी है, लेकिन मेरे पास कोई और चारा नहीं है.” ऐसा इस डर से है कि उन का बेटा अगर घर से बाहर निकलता है, तो वह फिर से ड्रग्स की तलाश शुरू कर देगा.

सुरेश बेरोज़गार है और उस ने स्कूल की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी थी. सुरेश को स्मैक की लत लगे हुए 2 साल हो चुके हैं. उस ने 4 साल पहले जूते के पौलिश से नशे की शुरुआत की, फिर अफ़ीमयुक्त मादक औषधि तथा चरस का सेवन करने लगा, अंत में उसे स्मैक की लत लग गई.

नशे की लत सुरेश के परिवार के लिए एक बड़ा झटका है, जो पूर्वी राजस्थान के अलवर जिले के बानसूर इलाक़े में रहते हैं. गेंहू, सरसों की खेती करने वाले 55 वर्षीय किसान बजरंग कहते हैं, “हमारे पास जितनी भी कीमती वस्तुएं थीं, स्मैक ख़रीदने के लिए वह उन सभी को बेच चुका है, अपनी मां की कान की बालियों व पैर के कड़ों से ले कर अपनी बहन की अंगूठी-चैन तक…”

उन्हें अपने बेटे की नशे की लत के बारे में बहुत बाद में जा कर तब पता लगा जब सुरेश ने उन का एटीएम कार्ड चुरा लिया और उन के खाते से 25 हजार रुपए निकाल लिए. वे बताते हैं, “जो मेहमान हमारे घर में ठहरते थे वे भी शिकायत करते कि उन का पैसा यहां चोरी हो रहा है.”

लेकिन समस्या की गंभीरता का अंदाज़ा तब हुआ जब कुछ महीने पहले बजरंग ने देखा कि उन का बेटा स्मैक ख़रीदने के लिए अपनी 32 वर्षीय बहन की उंगली से अंगूठी निकाल रहा है. वे कहते हैं, “अगले ही दिन मैं उसे इलाज के लिए जयपुर के नशामुक्ति केंद्र ले गया. मैं अपने बेटे पर आंख मूंद कर भरोसा करता था और कभी नहीं सोचा था कि एक दिन लोग उसे नशेड़ी कहेंगे.”

जयपुर शहर से लगभग 30 किलोमीटर दूर चाकसू  इलाक़े में श्रीआंनद नशामुक्ति केंद्र  है. राजस्थान में सुरेश जैसे ड्रग्स से पीड़ित बहुत से लोग इलाज कराने के लिए यहीं आते हैं. इस केंद्र में 60 बेड और एक ओपीडी है और यह जयपुर के सरकारी मैडिकल कालेज सवाई मानसिंह अस्पताल द्वारा चलाया जा रहा है.     नशामुक्ति केंद्र आने वालों में से 21 वर्षीय रामकेश मीणा भी है, जो टोंक जिले का रहने वाला हैं. एक दोस्त द्वारा चरस की लत लगा दिए जाने से पहले रामकेश मज़े से क्रिकेट और फुटबौल खेला करता था. तब वह पीपलू के गवर्नमैंट कालेज में एक छात्र था. सुरेश की तरह ही उस ने भी स्मैक का नशा शुरू करने से पहले कई नशीले पदार्थों (ड्रग्स) का प्रयोग किया.

रामकेश के पिता राजस्थान सरकार द्वारा चलाए जा रहे एक प्राइमरी स्कूल में टीचर हैं और लगभग 35,000 रुपए उन का मासिक वेतन हैं. रामकेश कहता है, “मैं ने कोरेक्स (खांसी का सिरप) और ब्राउन शुगर लेना शुरू कर दिया था और अब स्मैक की लत लग गई. एक ख़ुराक लेने के बाद मुझे ख़ुशी महसूस हुई, ऐसा लगा जैसे कि मुझे अपने सभी दुखों से छुटकारा मिल गया हो. मैं और ख़ुराक पाने के लिए तरसने लगा. मैं सिर्फ़ 2 ख़ुराकों में नशेड़ी बन गया.”

नशामुक्ति केंद्र के मनोचिकित्सक कहते हैं कि स्मैक की लत पूरे राजस्थान के गांवों में महामारी की तरह फैल चुकी है. आईएमएचएएनएस के डा. सतीश कुमार सेहरा बताते हैं, “इस के लिए कई कारक ज़िम्मेदार हैं, बेरोज़गारी के हालात, परिवारों का टूटना, शहरीकरण और तनाव इस के कुछ सामान्य कारण हैं.

डाक्टर सेहरा बताते हैं, “नशा आमतौर पर खुशी पाने के लिए ड्रग्स के रूप में इस्तेमाल से शुरू होता है. परम आनंद का अनुभव आप को ख़ुराक में वृद्धि के लिए उकसाता है. फिर एक दिन आप ड्रग पर पूरी तरह निर्भर हो जाते हैं और आप या तो ओवरडोज़ (सीमा से अधिक ख़ुराक) की वजह से मर जाते हैं या समस्याओं में घिर जाते हैं. नशा करने वालों में मिज़ाज में परिवर्तन, एंग्ज़ायटी और अवसाद हो सकता है, और वे ख़ुद को अपने कमरे तक ही सीमित रखना पसंद करते हैं.”

सुरेश के मांबाप भी इसे अच्छी तरह जानते हैं. बादाम देवी बताती हैं कि वह उन से बहुत लड़ताझगडता था. एक बार जब उस ने रसोई घर में लगी खिड़की के शीशे तोड़ दिए थे, तो हाथ में टांका लगाने के लिए उसे डाक्टर के पास ले जाना पड़ा था. वे कहती हैं, “ड्रग ही उस से यह सब करा रहा था.”

स्मैक का इस्तेमाल कई तरीकों से किया जाता है, नसों में इंजैक्शन दे कर शरीर में पहुंचाना, पाउडर की शक्ल में सूंघना या धूम्रपान करना. हालांकि, इंजैक्शन से सेवन करने पर सब से ज्यादा नशा होता है. डा.. सेहरा कहते हैं कि हेरोइन के लंबे समय तक इस्तेमाल से आखिर में दिमाग के काम करने का तौरतरीका बदल जाता है. यह एक महंगी लत है. स्मैक का एक ग्राम आमतौर पर 1,500 से 2 हजार रुपए से भी ज्यादा कीमत का होता है और कई नशेड़ियों को एक दिन में कम से कम 2 ग्राम की ज़रूरत होती है.

समाज की बुराइयों के खिलाफ खड़ी होती दुलहनें

वाराणसी इलाहाबाद नैशनल हाईवे पर मोहनसराय से तकरीबन एक किलोमीटर दूर एक गांव बसंतपट्टी है. पहले इस गांव को कम ही लोग जानते थे, लेकिन 21 मई, 2017 को हुई एक घटना ने इस गांव को सुर्खियों में ला दिया. इन सुर्खियों की वजह इस गांव की एक बेटी है, जिस के बहादुरी भरे फैसले से गांव के लोग खुशी से फूले नहीं समा रहे हैं.

हुआ यह कि इस गांव के एक बाशिंदे छुन्ना चौहान की बड़ी बेटी बबीता की शादी 21 मई को होने वाली थी. बरात मीरजापुर जिले के देहात कोतवाली थाना क्षेत्र के तहत धौरूपुर गांव के रहने वाले जागरण चौहान से तय हुई थी.

दरवाजे पर बरात आई, तो सभी घराती बरातियों के स्वागत में जुट गए थे.  द्वारचार के बाद जब दूल्हा स्टेज पर पहुंचा, तो उस की अजीब हरकतें देख दुलहन बनी बबीता थोड़ा असहज महसूस करने लगी, लेकिन दूल्हे की हरकतें जब हदें पार करने लगीं, तो वह तपाक से उठ खड़ी हुई और शादी से इनकार कर अपने कमरे में चली गई.

अचानक दुलहन के इस कठोर रूप को देख एकबारगी तो वहां मौजूद लोग दंग रह गए, लेकिन जब माजरा समझ में आया, तो बात बिगड़ गई.

दरअसल, बरातियों समेत खुद दूल्हे जागरण चौहान ने जम कर शराब पी रखी थी. जयमाल के दौरान वह लड़कियों से छेड़खानी करने लगा था. विरोध करने पर उस ने बबीता के साथ भी गलत बरताव किया. बस, इसी पर बबीता भड़क उठी और शादी से इनकार कर दिया.

हद तो तब हो गई, जब बबीता का फैसला सुनने के बाद दूल्हे और उस के दोस्तों ने उस की बहन को जबरदस्ती पकड़ कर स्टेज पर बिठा लिया. यह देख घराती पक्ष वाले भड़क उठे और नौबत मारपीट तक पहुंच गई. बरातियों ने स्टेज और मंडप तोड़ कर तहसनहस कर दिया.

इसी बीच किसी ने पुलिस को सूचना दे दी. मौके पर पहुंची पुलिस ने किसी तरह मामला शांत कराया. पंचायत करने के बाद भी बात न बनी, तो बरात को बैरंग ही लौटना पड़ा.

बबीता को अपने फैसले पर कोई पछतावा नहीं है, लेकिन एक बात की चिंता उसे बराबर सताए जा रही है. वह यह कि उसे और उस के परिवार को मोबाइल फोन से जानमाल के नुकसान की धमकियां मिल रही हैं. ये धमकियां कोई और नहीं, बल्कि जागरण चौहान द्वारा दी जा रही हैं, जो अपनी बरात वापस लौटने से खासा खफा है.

मेहनत मजदूरी कर के परिवार का खर्च चलाने वाले बबीता के पिता छुन्ना चौहान इन धमकियों से गहरे सदमे में हैं.

वाराणसी के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक नितिन तिवारी कहते हैं, ‘‘मेरे संज्ञान में धमकी की ऐसी कोई शिकायत नहीं आई है. अगर ऐसी बात है, तो जरूर कार्यवाही की जाएगी, चाहे वह कोई भी हो.’’

देखा जाए, तो हमारे समाज में आज भी बेटियों को अपने फैसले लेने की मनाही है. दुलहन सुशील हो, कुशल हो, पढ़ीलिखी हो, यह सभी चाहते हैं, लेकिन दूल्हे को चुनने में समझदारी नहीं दिखाई जाती. लड़का अच्छे घरपरिवार से है, बस इतना देख कर दुलहन को उस के मत्थे मढ़ दिया जाता है. कम ही मामलों में बेटियों की सलाह ली जाती है.

अब गाजीपुर की रेखा को ही देखें. जंगीपुर थाना क्षेत्र के शेखपुर गांव के बाशिंदे कमला बिंद की बेटी रेखा की 21 मई, 2017 को शादी थी. बरात गाजीपुर के ही नंदगंज थाना क्षेत्र के जाठपुर ढेलवा गांव से आ रही थी. तय समय पर दूल्हा सुनील जैसे ही बरात संग शेखपुर गांव पहुंचा, वैसे ही घरातियों ने बरातियों की खातिरदारी की.

सुबह जब विदाई होने को आई, तो गांव के रिवाज के मुताबिक दूल्हे को ‘पलगवनी’ के लिए घर में बुलाया गया. इस रस्म को पूरा करने के लिए दूल्हा जैसे ही घर में घुसा कि अचानक उसे मिरगी का दौरा पड़ने लगा, जिसे देखते ही वहां हड़कंप मच गया.

शोर सुन कर दुलहन बनी रेखा भी वहां आ गई और दूल्हे को इस रूप में देख उस ने साथ जाने से इनकार कर दिया. काफी मानमनौव्वल और कई दौर की पंचायत के बाद भी जब बात नहीं बनी, तो यह रिश्ता टूट गया.

दरअसल, शादी तय होने से पहले दूल्हे को मिरगी की बीमारी थी. इस बात को छिपाया गया था. रेखा के इस फैसले से तमाम औरतें और उस की सखीसहेलियां भी सहमत दिखीं, जिन के फैसले के आगे मर्दों की एक न चल सकी.

कुछ ऐसी ही घटना उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में जौनपुर जिले के केराकत कोतवाली के तहत हौदवां गांव की भी है. 1 मई, 2017 को बांसबारी गांव से बरात आई हुई थी.

जयमाल के बाद जब दूल्हा और दुलहन स्टेज पर बैठे, तो शराब की बदबू महसूस होने पर दुलहन को थोड़ा असहज लगा. यह बदबू दूल्हे की ओर से आ रही थी.

शादी की सभी रस्में पूरी होने के बाद जब विदाई से पहले कोहबर में दूल्हे को ले जाया गया, तो वहां भी उस के मुंह से शराब की बदबू आ रही थी. बस, फिर क्या था. दुलहन ने दूल्हे के साथ जाने से साफ इनकार कर दिया और उस फैसले के आगे सभी को झुकना पड़ा.

मीरजापुर की सामाजिक कार्यकर्ता व भाजपा महिला मोरचा की जिलाध्यक्ष सुषमा पांडेय कहती हैं, ‘‘बदलते

समय के साथ लड़कियां भी जागरूक हो रही हैं. वे आज हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं, तो फैसले लेने में वे पीछे क्यों रहें?

‘‘महिला सशक्तीकरण के दौर में जब तक औरत नौकरी कर सकती है, कारोबार संभाल सकती है, गाड़ी वगैरह चला सकती है, तो वह भला अपनी शादी का फैसला क्यों नहीं ले सकती?

‘‘घर की दहलीज और घूंघट की ओट से बाहर निकल कर औरतें खुद की बदौलत अपने को मजबूत कर रही हैं.’’

हिम्मती बेटी को मिला कमलेश का साथ

बसंतपट्टी गांव की बहादुर बेटी बबीता की शादी टूट जाने के बाद उस के परिवार वालों को जहां बेटी के फैसले पर फख्र था, वहीं उन्हें बेटी के भविष्य की भी चिंता सताने लगी थी कि अब उस के हाथ कैसे पीले होंगे?

लेकिन चंद ही दिनों में बबीता के पिता के माथे से जहां बेटी की शादी को ले कर चिंता के उमड़घुमड़ रहे बादल छंट गए, वहीं उन लोगों की भी बोलती बंद हो गई, जो तरहतरह की चर्चाओं में समय काट रहे थे कि अब बबीता के हाथ कैसे पीले होंगे.

हुआ यह कि 21 मई, 2017 को बबीता की शादी टूटने और उस की बहादुरी के चर्चे अखबारों में पढ़नेसुनने के बाद पड़ोसी जनपद भदोही का ही एक नौजवान कमलेश चौहान बबीता से शादी करने को तैयार हो गया.

अपने घर वालों से बात करने के बाद वह 25 मई, 2017 को बाकायदा बरात ले कर बबीता के घर पहुंचा और उसे दुलहन बना कर अपने घर आ गया. उस के इस फैसले से जहां सभी खुश हैं, वहीं बबीता के बाद कमलेश के फैसले की भी खूब चर्चा हो रही है.

हाईस्कूल पास कमलेश सूरत में रह कर आटो मैकेनिक का काम करता है. नशे से पूरी तरह से परहेज करने वाला कमलेश बताता है, ‘‘मुझे बबीता को अपना कर खुशी हो रही है. बबीता न केवल बहादुर है, बल्कि सही फैसले लेने वाली है, तो भला ऐसी बहादुर लड़की को जीवनसंगिनी बनाने में मैं क्यों पीछे हटूं?’’

शिकंजों में फौजी युवा विधवाएं

‘‘जब देश में थी दीवाली,
वे खेल रहे थे होली.
जब हम बैठे थे घरों में,
वे झेल रहे थे गोली.’’

फौजियों के जीवन की सचाइयों को दर्शाती ये उपरोक्त पंक्तियां कितनी सटीक हैं.
फौजी किसी भी देश की सरहदों के ही नहीं बल्कि बर्फ की चोटियों पर, पहाड़ों, सागरों, नदियों, झरनों, घाटियों, चट्टानों, मरुभूमि जाने कहांकहां पर तैनात दिनरात के सजग प्रहरी हैं जिन की छत्रछाया में सभी झुग्गीझोपडि़यों से ले कर छोटेबड़े आशियानों में सुखचैन की नींद सोते हैं.

देश व देशवासियों की रक्षा करते ये वीर मातृभूमि के लिए, जनगण के लिए चिरनिंद्रा में सो जाते हैं तो उन के परिवार के प्रति देश के साथ उस की जनता की भी बड़ी जिम्मेवारी हो जाती है. आर्थिक सहायता के साथ कुछ चमचमाते मैडलों की कटु झनकार और विभिन्न पदवियों से नवाज कर ही उन के किए का ऋण किसी तरह से नहीं चुकाया जा सकता है.
एक फौजी के साथ न जाने कितनी जिंदगियां जुड़ी रहती हैं और देशरक्षा के लिए उन के प्राणों के साथ उन के सगेसंबंधियों की भी कुरबानी दे दी जाती है जो सर्वथा अन्याय है. इन उजड़े परिवारों को पुन: स्थापित करना हर देशवासी का परम कर्त्तव्य होना चाहिए.

किसी भी सैनिक के शहीद होने पर उस का परिवार तो बिखरता ही है लेकिन सब से ज्यादा उजड़ती हैं इन की ब्याहताएं, जो परिवार से अपेक्षित हो कर ठोकरें खाने को मजबूर हो जाती हैं. अगर ये युवा हुईं तो परिवार के साथ सारे समाज के मर्दों के खेलनेखिलाने की वस्तु बन जाती हैं. व्यभिचारों, दुराचारों, कोठों की अंधेरी गलियारों में ढकेल दी जाती है. जीवन बद से बदतर हो जाता है. सरकारी आर्थिक सहायता को परिवार वाले अपने बेटेभाई की कमाई समझ कर हथिया लेते हैं. हर सुविधा पर अपना अधिकार जमाते हुए बेटेभाई की अमानत उस की विधवा, उस के बच्चे को लोकलज्जा हेतु सहायता के चंद निवाले फेंक अपनी दुनिया में मगन हो जाते हैं.

समाज से उपेक्षित

कहां जाए शहीदों की विधवाएं? उम्र जो भी हो सहारे की, साथी की जरूरत तो होती ही है. नोचनेखसोटने के लिए पगपग पर घात लगाए गिद्धों की कतार है. कौन रक्षा करे इन की? किस की शरण में जाएं? उन्हें थामने के लिए भारतीय समाज में कितने मांबाप, भाईबहनों, रिश्तेदारों की बाहें फैलती हैं? अगर फैलती भी है तो समय के भूलभुलैये में खो कर रह जाती हैं. परिवार, समाज से उपेक्षिता अकेलेपन के कलेवर में सज जाती हैं, जिसे वह स्वयं ही बांटती है. अगर नहीं सह सकी तो आत्महत्या की सोचती है. अगर बच्चे हुए तो जीवनसागर में डूबनेउतरने के लिए गलियों में भटकने के लिए बाध्य हो जाती हैं, जो एक अकेली विधवा औरत के लिए किसी तरह आसान नहीं होता. निर्दयता की समस्त सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए कैसेकैसे अत्याचार विधवाओं पर ढाए गए हैं और आज भी ढाए जा रहे हैं. पति के जायदाद की हिस्सेदारिणी न हो जाए इसलिए सती प्रथा के नाम पर इन्हें जिंदा जलाया जाता है. स्वामी दयानंद सरस्वती, राजा राम मोहन राय एवं कुछ अंगरेज शासकों के समाज सुधारकवादी कदमों ने इस अमानवीय प्रथा पर किसी हद तक रोक लगाई.

ऐसे ये आज भी किसी न किसी रूप में उपस्थित हैं चाहे वह कन्या भ्रूण हत्या हो या दहेज प्रथा. परिवार के पुरुष चाहे वह पिता जैसा ससुर, बड़ाछोटा भाई जैसा जेठ और देवर सभी की भोग्या बन जाती है वह निरीह विधवा. सास, ननद, जेठानी, देवरानी की रातदिन की नौकरानी. पुरुषों का मन भर गया, उस का यौवन ढल गया या किसी भयानक यौन रोग से ग्रसित हो गई तो पहुंचा दी जाती है काशी, मथुरा, वृंदावन या और सारे तीर्थों के दरवाजों पर भिक्षावृत्ति के लिए. आज भी असंख्य देवीदेवताओं के मंदिरों के दरवाजों पर पड़ी अनगिनत बीमारियों से ग्रस्त दीनहीन बने कीड़ोंमकोड़ों का जीवन ये विधवाएं जी रही हैं. तालियां पीट कर चढ़ावे हेतु भक्तों को आकर्षित कर रही हैं. अगर युवा हुईं तो पंडितों, पुजारियों, सेवकों, सिपाहियों की रातें रंगीन कर रही हैं. इस दुनिया का मालिक करोड़ों के हीरेमोती के आभूषणों में सुसज्जित, सोनेचांदी के सिंहासन पर बैठ इन नजारों को देख रहा है.

विधवा जिस की या जैसी भी हो अगर समाज को स्वस्थ और स्वच्छ रखना है तो उस का पुनर्विवाह करवाना ही हर दृष्टि से श्रेयस्कर है. युवा ही नहीं हर उम्र की विधवाओं की जीवन की नई शुरुआत आज के लिए एक ज्वलंत कदम होगा. जीवनसाथी की, सुखदुख की भागीदारी की ललक उम्र की मोहताज नहीं होती. अकेलेपन का दंश किस तरह से बेधता है वह तो कोई भुक्तभोगी ही बता सकता है. विवाह के बंधनों में एक बार फिर से बंध कर ये विधवाएं प्रतिष्ठित हो कर जीवन में सभी तरह से सुरक्षित हो जाती हैं.

इस दिशा में युवाओं के सार्थक कदम उठ रहे हैं. फौजी विधवाओं को ही नहीं बल्कि उन के बच्चे को भी वे सहर्ष अपना रहे हैं. कुछ फौजियों के परिवार वाले भी इस दिशा में प्रयत्नशील हैं कि घर में ही कोई सुयोग्य पात्र इन विधवाओं के लिए मिल जाए. पर कितने? कई सरकारी सहायता और नौकरी के लोभ से तो कई कानून के डर से आगे आते हैं लेकिन स्वार्थ सिद्घ हो जाने पर मुंह मोड़ लेते हैं.

सार्थक प्रयासों की दरकार

निस्वार्थ भाव से आने वाले कम ही हैं. फिर भी भविष्य का सागर  विशाल है. ऊंचीनीची, उठतीगिरती समय की लहरें किस करवट मुड़ जाएं कहा नहीं जा सकता.
आज समाज में जागरूकों की भी बढ़ोतरी दिनोंदिन हो रही है. फौजी विधवाओं को विवाह के लिए मानसिक रूप से प्रेरित किया जाना जरूरी है और इस में परिवार व समाज को मदद करनी चाहिए. जिन्होंने तनमन से देश और देशवासियों के हित में अपने प्राणों की बलि दे दी हो, उन की विधवाओं को सम्मान के साथ एक बार फिर से जीवन की खुशियां देना समाज का परम कर्त्तव्य हो जाता है. इस के लिए संस्थाओं के रूप में समाजसेवियों और सुधारकों को आगे बढ़ कर सशक्त कदम उठाने चाहिए. सरकार को भी इस दिशा में हर तरह के सार्थक प्रयास करने चाहिए.

मिसाल है एनआरआई सरपंच और ‘ पैडवुमन’- माया विश्वकर्मा

मध्य प्रदेश के एक छोटे से गांव में जनमी माया विश्वकर्मा आज किसी परिचय की मुहताज नहीं हैं. मध्य प्रदेश में उन्हें ‘पैडवुमन’ के नाम से जाना जाता है. वे चाहतीं तो दिल्ली जैसे महानगर में रह कर अपना कैरियर बना सकती थीं, लेकिन अपने गांव की तरक्की के लिए उन्होंने तय किया कि वे उसे एक आदर्श गांव बनाएंगी.माया विश्वकर्मा की इसी सोच को गांव के लोगों ने समर्थन दिया और जून, 2022 में जब सरपंच के चुनाव हुए तो माया विश्वकर्मा के मुकाबले किसी ने चुनाव में परचा दाखिल नहीं किया. गांव के लोगों ने उन्हें निर्विरोध सरपंच चुनने के साथसाथ पंचायत मैंबर के रूप में गांव की 11 दूसरी औरतों को भी निर्विरोध चुना.

नरसिंहपुर जिले के साईंखेड़ा जनपद के मेहरागांव की आबादी तकरीबन ढाई हजार है, जहां पर सवर्ण जाति के राजपूत लोगों की बहुलता है, पर पिछड़े और दलित तबके के लोगों की भी कमी नहीं है. पढ़ीलिखी माया विश्वकर्मा को गांव के सभी लोगों ने सरपंच बनाने के लिए सहयोग दिया, तो आज 40 साल की यह जीवट औरत गांव की अनोखी सरपंच बनी है.

अमेरिका से लौटने के बाद माया विश्वकर्मा का एक ही सपना रहा कि उन का अपना घर जो मिट्टी से बना था, उसे इस तरह पक्का बनवाया जाए, जिस में सारी नई सुखसुविधाएं हों.माया विश्वकर्मा का यह सपना जल्द ही पूरा हुआ और आज वे गांव में अपने मातापिता के साथ रहती हैं और कहीं आनेजाने के लिए खुद ही कार चलाती हैं.

माहवारी के दिनों में इस्तेमाल किए जाने वाले सैनेटरी पैड के बारे में खुल कर बात करने वाली माया विश्वकर्मा अपनी आपबीती सुनाते हुए कहती हैं, ‘‘26 साल की उम्र तक मैं ने भी कभी सैनेटरी पैड का इस्तेमाल नहीं किया था, क्योंकि न तो इस के लिए मेरे पास पैसे थे और न ही मुझे इस की जानकारी थी, इसलिए माहवारी के उन दिनों में कपड़े के इस्तेमाल से सेहत संबंधी परेशानियों का भी सामना किया.’’माहवारी के बारे में पहली बार माया विश्वकर्मा को उन की मामी ने कपड़े के इस्तेमाल के बारे में बताया था, लेकिन इस से उन्हें कई तरह के इंफैक्शन होने से शारीरिक परेशानियों का भी सामना करना पड़ा था.

दिल्ली के एम्स में पढ़ाई करने के दौरान माया विश्वकर्मा को पता चला कि उन के इंफैक्शन की वजह यही कपड़े थे. उस के बाद से ही उन्होंने सैनेटरी पैड के इस्तेमाल और उस से संबंधित सवालों को ले कर औरतों से बातचीत कर के उन्हें जागरूक करने का बीड़ा उठाया और गांवों में जा कर औरतों से मिल कर माहवारी और दूसरी समस्याओं पर बात की.

माया विश्वकर्मा ने साईंखेड़ा के सरकारी स्कूल से हायर सैकंडरी स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद जबलपुर में बच्चों को ट्यूशन पढ़ा कर ग्रेजुएशन की और गरीब घरों की उन छात्राओं के लिए एक मिसाल पेश की, जो पैसे की कमी की वजह से कालेज तक नहीं पहुंच पाती हैं.

अपनी लगन और आत्मविश्वास से लबरेज माया विश्वकर्मा ने दिल्ली के एम्स में मैडिकल की पढ़ाई के साथ रिसर्च के लिए अमेरिका के कैलिफोर्निया तक का सफर तय कर महिला सशक्तीकरण को नई ऊंचाइयां दी हैं. पेश हैं, माया विश्वकर्मा से हुई लंबी बातचीत के खास अंश :  अमेरिका में काम करने के बाद आप ने गांव की सरपंच बनने का फैसला क्यों लिया? मेरा गांव तरक्की के मामले में काफी पिछड़ा हुआ है. आजादी के 75 साल बाद भी वहां बुनियादी सहूलियतें नहीं हैं और खासतौर से स्कूल की बात करें तो मेरे जमाने में वह 8वीं जमात तक था और आज भी कमियों से अछूता नहीं है.मुझे लगता है कि पढ़ाई एक ऐसा जरीया है, जिस के बलबूते कई पीढि़यां सुधरती हैं, तो मैं ने सोचा कि लौट कर अपने गांव चलते हैं और सरपंच बन कर सरकारी स्कूल की काया पलटते हैं.

आप के इलाके की बुनियादी समस्याएं क्या हैं? मैं तो पढ़ाईलिखाई और सेहत को मानती हूं, क्योंकि यहां पर उसी के चलते काफी पिछड़ापन है. वैसे देखा जाए, तो हमारा इलाका खेती के लिहाज से काफी अच्छा है, लेकिन नौजवान तबका बेरोजगारी से परेशान है और नौकरी के ज्यादा मौके नहीं हैं. गांव में आज भी बिजलीपानी की कमी एक बड़ी समस्या है. पक्की नाली न होने से जगहजगह गंदगी रहती है, जिस के चलते बीमारियां पनपती और बढ़ती हैं.

आप की प्राथमिकता में कौन से काम हैं, जिन्हें आप सब से पहले करेंगी?मेरी प्राथमिकता में जो काम हैं, उन में बिजली, पानी और सड़क हैं. हमारे गांव में बिजली की गंभीर समस्या है, क्योंकि अलग से कोई ट्रांसफार्मर नहीं है. आज भी गांव वाले गरमियों के दिनों में बिजली के बिना रात काटते हैं. पीने के पानी की किल्लत है और पक्की सड़कें जर्जर हो चुकी हैं. गांव के स्कूल की तसवीर बदलने की कोशिश शुरू कर दी गई है. गांव में साफसफाई के लिए अंडरग्राउंड ड्रेनेज सिस्टम बनाना भी मेरी प्राथमिकता में शामिल है.इस सब में आप की मैडिकल की पढ़ाई का क्या फायदा हो रहा है?

मैडिकल की पढ़ाई का फायदा यह हुआ है कि मेरे दिमाग में यही बात हमेशा रहती है कि जमीनी लैवल पर लोगों को सेहत से जुड़ी सुविधाओं का कैसे फायदा मिले, बीमारियों से बचने के लिए क्याक्या सावधानियां रखी जाएं और इसी दिशा में मैं ने काम किया.इस के बाद हम ने गांव में एक टैलीमैडिसन सैंटर शुरू किया, जिस का फायदा कोविड के दौरान गांव वालों को हुआ. इस सैंटर में आए मरीज को शहर के क्लिनिक में बैठे डाक्टर उपचार बताते हैं.

सैंटर में जरूरी दवाएं मुहैया रहती हैं. अभी भी तहसील के सरकारी अस्पताल के डाक्टरों से सलाह कर के गांव के लोगों की सेहत की बेहतरी के लिए मैं गांव में चैककप कैंप का आयोजन कराती हूं.गांव में औरतों की हालत कैसी है और उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए क्या किया जा सकता है?हमारे गांव में औरतों की हालत ज्यादा ठीक नहीं है. उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए हम फिर से सैल्फ हैल्प ग्रुप बना रहे हैं. इन के जरीए हम उन्हें कुछ कामधंधे में लगा कर एक तरह से ऐक्टिव करना चाहते हैं. अभी भी 50 फीसदी लड़कियां गांव में हायर सैकंडरी स्कूल न होने की वजह से आगे पढ़ना छोड़ देती हैं, इसलिए गांव में 12वीं क्लास तक का स्कूल होना चाहिए.

आप स्कूलकालेज में पढ़ने वाली लड़कियों के लिए कौनकौन से काम कर रही हैं?हम आजकल स्कूलों में जा कर छात्राओं के साथ माहवारी में इस्तेमाल किए जाने वाले सैनेटरी पैड पर खुल कर चर्चा करते हैं. स्कूल में पढ़ने वाली लड़कियों के लिए हम ने मुफ्त में सैनेटरी पैड देने का फैसला किया है और गांव के स्कूल में हम उन्हें यह सब मुहैया भी करा रहे हैं.

माहवारी की समस्याओं को ले कर आप का कोई खास प्लान?देश के गांवदेहात के इलाकों की 80 फीसदी औरतें और लड़कियां आज भी अपनी माहवारी के मुश्किल दिनों में होने वाली परेशानियों को किसी से साझा नहीं कर पाती हैं. हालात ये हैं कि बेटी अपनी मां से और पत्नी अपने पति से भी इस मुद्दे पर बात करने से कतराती हैं, इसलिए माहवारी की समस्या को ले कर हम ने एक खास प्लान तैयार किया है, जिस के तहत ‘सुकर्मा फाउंडेशन’ के जरीए हमारे गांव में सैनेटरी पैड बनाने की फैक्टरी शुरू की है, जिस से औरतों और लड़कियों को रोजगार तो मिला ही है, साथ ही गांव की सभी औरतों और लड़कियों को हम 5 रुपए में सैनेटरी पैड देते हैं.सैनेटरी पैड बनाने की फैक्टरी गांव में लगाने का विचार आप को कैसे आया और क्या परेशानियां देखने को मिलीं?

मेरा लंबे समय से यह सपना था कि  सैनेटरी पैड बनाने की मशीन लगा कर अपनी मुहिम को आगे बढ़ाया जाए. इस के लिए मैं भारत में ‘पैडमैन’ के नाम से मशहूर अरुणाचलम मुरुगनाथन से मुलाकात करने तमिलनाडु गई, तो वहां देखा कि जिस मशीन से पैड बनाने का काम किया जाता था, उस में हाथ का काम ज्यादा था. मुझे इस से बेहतर मशीन की दरकार थी.

कैलिफोर्निया से लौट कर मैं ने ‘पैडमैन’ के अनुभवों का लाभ लिया. मशीन लगाने के लिए पैसे की समस्या आई तो अपने दोस्तों से पैसे उधार ले कर और ‘सुकर्मा फाउंडेशन’ के जरीए नरसिंहपुर के झिरना रोड पर छोटे से गांव में 2 कमरों में सैनेटरी पैड बनाने की मशीनें लगा कर 10 औरतों को इस में रोजगार देने का काम भी किया है. इस में रोजाना तकरीबन 1,000 पैड बनाए जाते हैं. माया विश्वकर्मा समाज की उन औरतों और लड़कियों के लिए एक मिसाल हैं, जो अपनेआप को कमजोर समझती हैं और समाज के बंधनों और अंधविश्वास की बेडि़यों में खुद को जकड़े रहती हैं.माया विश्वकर्मा से उन के मोबाइल फोन नंबर 8319005872 पर बात की जा सकती है.

कहां ले जाएगी इस समाज को मुफ्तखोरी

दिल्ली में हर घर को हर महीने 20 हजार लिटर पानी मुफ्त मिलता है. ‘महल्ला क्लिनिकों’ में दवाएं मुफ्त मिलती हैं. कुछ जगहों पर वाईफाई मुफ्त है. दिल्ली के सभी 262 रैनबसेरों में रात गुजारने वालों को चाय और रस्क मुफ्त बांटे जाते हैं. अब आम आदमी पार्टी की सरकार इस से भी एक कदम और आगे निकल गई है. पिछले दिनों ऐलान किया गया कि दिल्ली के 10 रैनबसेरों में अब 2 वक्त के बजाय 3 वक्त का खाना भी मुफ्त दिया जाएगा. अगर सरकार लोगों को रहने को ठिकाना, ऊपर से चायनाश्ता व तीन वक्त का खाना भी मुफ्त में मुहैया करा रही है, तो सोचने की बात है कि भला कोई काम करने की जहमत क्यों उठाएगा?

रैनबसेरों के आसपास नजर डालें, तो जहांतहां गंदगी पसरी दिखाई देगी. उन में रह कर मुफ्त खाने व रात बिताने वाले कामचोर कभी खुद हाथ तक नहीं हिलाते. जहां रहते हैं, वहां पर अकेले या मिल कर कभी सफाई तक नहीं करते. दरअसल, वोट बैंक बढ़ाने के लिए नेता करदाताओं का पैसा पानी की तरह बहाने व सरकारी खजाने को लुटाने में भी कोई गुरेज नहीं करते. मुफ्त में खानेपीने की चीजें बांट कर वे सिर्फ अपना मकसद पूरा करने में लगे रहते हैं.

दिल्ली में ही नहीं, देश के कई दूसरे राज्यों में भी इसी तरह मुफ्त का सामान बांटा जाता रहा है. उत्तर प्रदेश में साइकिलें व लैपटौप की रेवडि़यां बांटी गई थीं. पंजाब में किसानों को मुफ्त बिजलीपानी मुहैया कराने के लिए बीते 7 सालों में 32 हजार करोड़ रुपए का भुगतान सरकार कर चुकी है. तमिलनाडु, कर्नाटक वगैरह कई दूसरे राज्यों में भी किसानों को बिजली मुफ्त दी जा रही है.

चुनाव के वक्त वोटरों को लुभाने के लिए शराब, कबाब व नकदी बांटने की होड़ मच जाती है. उत्तर प्रदेश व पंजाब में मुफ्त स्मार्टफोन देने वादे किए गए, तमिलनाडु में मुफ्त चावल, मिक्सी व टैलीविजन बांटे गए. आखिरकार गरीबों के सामने यह चारा किसलिए डाला जाता है? निजी कंपनियां अपना माल बेचने के लिए अकसर मुफ्त की स्कीमें चलाती हैं, लेकिन सरकारें ऐसा करें, तो बात गले से नीचे नहीं उतरती.

किसी के खुदकुशी करने पर भी उस के परिवार को एक करोड़ रुपए दे दिए जाते हैं. कई नेता ऐसे हैं, जो अपने विवेकाधीन कोष से चुपचाप अपनों को लाखोंकरोड़ों रुपए बांटते रहते हैं और आम जनता को उन की दरियादिली की कानोंकान खबर तक नहीं होती.

मुफ्तखोरी में नुकसान

 हमारे देश में मुफ्तखोरी की आदत बहुत गहराई तक घर कर गई है. कहीं भी कुछ जरा सा मुफ्त मिलने की खबर मिलते ही लोग पागलों की तरह बेकाबू हो जाते हैं. उसे लूटने के लिए लोग अंधाधुंध टूट पड़ते हैं. लखनऊ में गरीब औरतों को साडि़यां बांटने के दौरान मची भगदड़ में कई औरतों की जानें चली गई थीं. इस के अलावा देश के कई दूसरे इलाकों में भी मुफ्त का सामान बांटने के दौरान जानलेवा हादसे हो चुके हैं, लेकिन लालची लोगों की आंखें नहीं खुलतीं.

यह सच है कि मुफ्त में मिली चीज की कभी भी कद्र नहीं होती. उस का अंधाधुंध व बेजा इस्तेमाल होता है. साथ ही, जब सरकारें मुफ्त में सामान बांटती हैं, तो उस का हिसाबकिताब भी सही नहीं होता. सूखा, बाढ़ व आपदा राहत में खानेपीने के सामान व सरकारी कंबल बंटते वक्त छीनाझपटी, सेंधमारी व अपने घर भरने का खूब खेल होता है. भ्रष्टाचार में गले तक डूबे सरकारी मुलाजिम, अफसर, छुटभैए नेता व ठेकेदार सब मिल कर बहती गंगा में हाथ धोते हैं.

हमारे समाज में अनगिनत दाढ़ीचोटी वाले पाखंडी धर्म के नाम पर बिना करे खीरपूरी खाते हैं. निकम्मे रोज सुबह से शाम तक पान व चाय की दुकानों पर बेवजह बैठे रहते हैं. करोड़ों भिखारी भीख मांग कर अपना पेट भरते हैं. गरीब दिखने के लिए खुद गंदे रहते हैं और अपने आसपास भी जहांतहां गंदगी फैलाते रहते हैं. नशा करने में वे जम कर पैसा खर्च करते हैं. जो मेहनत व रोजगार का कुछ काम नहीं करता, वह कर्ज लेता है. अदा न कर के, बल्कि उसे मार लेता है और फिर जब देने की बारी आती है, तो अपराध करने लगता है.

क्या है उपाय

 खैरात बांट कर लोगों को आलसी व लालची बनाना, बैसाखियों पर चलाना, कामचोरी सिखाना बिलकुल गलत है. मुफ्तखोरी वह बुराई है, जो गरीबों को हमेशा गरीब बनाए रखेगी. उन्हें ऊपर नहीं उठने देगी. उन के यकीन व जमीर को मार कर उन की तरक्की के रास्ते में गड्ढे खोदेगी.

मुफ्त का सामान बांटने व खाना खिलाने वगैरह में जनता का पैसा फुजूल में जाया किया जाता है. इस से अच्छा है कि उसे बचा कर कम पढ़ने वाले को तालीम देने व उन को हुनरमंद बनाने पर खर्च किया जाए, ताकि सब लोग खुद कमानेखाने लायक हो जाएं और देश की समस्या न बढ़ाएं. साथ ही, लोगों में मेहनत से काम करने की आदत, साफसुथरा रहने व पैसे वाला बनने की चाहत हो, ताकि गंदगी व गरीबी दूर हो सके.

जापान जैसे देश इस बात के सुबूत हैं कि वही लोग आगे बढ़ते हैं, जो मेहनत व सूझबूझ से काम करते हैं. अपना दिमाग लगाते हैं. हमारे देश में तो लंगरों व भंडारों में जीम कर पेट भरने वाले निकम्मों की फौज भरी पड़ी है. ऊपर से कई नेता भी मुफ्तखोरी सिखा कर लोगों को काहिल बना रहे हैं.

नसीहत रखिए आप

 गौरतलब है कि अपनी जेब से खर्च कर के कहीं कोई नेता जरा सी भी रहमदिली नहीं दिखाता. दरियादिली हमेशा जनता के पैसों से ही दिखाई जाती है, इसलिए इस पर पाबंदी लगना जरूरी है. वैसे भी बूढ़े, बीमार, लाचार व अपाहिजों के अलावा कौन ऐसा है, जो अपने लिए कुछ खर्च न कर सके, अपना तनबदन न ढक सके या पेट भी अच्छी तरह से न भर सके? आगे बढ़ने के लिए लोगों को अपने पैरों पर खड़ा होने देना बहुत जरूरी है.

ऐसे लोग कम ही हैं, जो मुफ्त की चीजों के पीछे नहीं भागते. उन के अंदर अपना जमीर जिंदा है. वे खुद कमा कर खाने में यकीन रखते हैं. उन की गिनती बढ़ना जरूरी है, क्योंकि एक इनसान और जानवर में यही फर्क होता है. अगर रहनुमा ही भटके हुए हों, तो जनता को जागना होगा. खुद ही इस सचाई को समझने की पहल करनी होगी. मुफ्त में दी जाने वाली चीजें धीमा जहर हैं. इन से बचना होगा.

गांव देहात में स्मार्टफोन से बदल रही है जिंदगी

पिछले 10 सालों में गांवदेहातों में रहने वालों की जिंदगी में सब से बड़ा बदलाव पहले मोबाइल फोन, फिर स्मार्टफोन के रूप में सामने आया है. साल 2011 की जनगणना के सामाजिक और माली आंकडे़ इस बात के गवाह हैं. तमाम तरह की परेशानियों और गरीबी के बाद भी गांवदेहात में तेजी से मोबाइल फोन का इस्तेमाल बढ़ा है. गरीब प्रदेशों में गिने जाने वाले उत्तर प्रदेश और बिहार के गांवों में रहने वाले 88 फीसदी और 84 फीसदी घरों में आज मोबाइल फोन का इस्तेमाल होने लगा है. ये प्रदेश राष्ट्रीय औसत 68 फीसदी से कहीं आगे हैं.

गांवों में इस्तेमाल होने वाले दूसरे संसाधनों से भी तुलना करें, तो मोबाइल फोन का इस्तेमाल सब से ज्यादा किया जा रहा है. कच्चे घरों और झोंपडि़यों में रहने वाले लोग भी मोबाइल फोन का इस्तेमाल करने लगे हैं.

एक ओर गांवों में बिजली न आने से वहां बिजली से चलने वाले उपकरणों का इस्तेमाल घट रहा है, तो दूसरी ओर बिजली से चार्ज होने वाले मोबाइल फोन पर बिजली न होने का कोई ज्यादा असर नहीं हो रहा है.

आज के समय में मोबाइल फोन केवल बात करने तक सीमित नहीं रह गया है. स्मार्टफोन आने के बाद मोबाइल फोन मनोरंजन का सब से बड़ा साधन बन गया है. स्मार्टफोन में मनपसंद गानों के वीडियो देखे जा सकते हैं. इस के जरीए फेसबुक और ह्वाट्सएप जैसे सोशल मीडिया के साधनों का इस्तेमाल भी किया जा सकता है.

आज 2 हजार रुपए तक की कीमत से स्मार्टफोन मिलना शुरू हो जाता है. गांव के लोगों को स्मार्टफोन में सब से ज्यादा 2 चीजें पसंद आती हैं, वीडियो पर गाने देखना और सुनना. वे चाहते हैं कि फोन का म्यूजिक सिस्टम तेज हो, जिस से आवाज को दूर तक सुना जा सके. वे अब अपनी जिंदगी के हसीन पलों को कैमरे में कैद करना चाहते हैं, इसलिए कैमरा वाला फोन पसंद करते हैं.

गांवों के बाजार में कम कीमत वाले स्मार्टफोन की मांग है, इसलिए ज्यादातर कंपनियां गांव के बाजार को ध्यान में रख कर फोन बनाने लगी हैं. पहले नोकिया और अब माइक्रोसौफ्ट और सैमसंग जैसी बड़ी कंपनियां गांव के बाजार में अपना कब्जा जमाने में केवल इसलिए पीछे रह गईं, क्योंकि इन के स्मार्टफोन महंगे थे. इन कंपनियों ने पहले गांव के लिए सस्ते मोबाइल फोन बनाए थे, जिन में रेडियो बजता था, पर गांव के लोग अपने मनपसंद गाने या वीडियो डाउनलोड कर के नहीं सुन सकते थे.

सस्ते फोन बनाने वाली कंपनियों ने गांव के बाजार की बदलती पसंद को पकड़ लिया और कम कीमत पर स्मार्टफोन बना कर गांव के बाजार से बड़ी कंपनियों को बाहर कर दिया.

गांवदेहात के बाजार में बिकने वाले 70 फीसदी फोन सस्ते किस्म के लोकल ब्रांड वाली कंपनियों के होते हैं. बड़ी कंपनियों के पुराने मोबाइल फोन ही यहां खरीदे जाते हैं. ब्रांडेड कंपनियों के मोबाइल फोन इसलिए भी नहीं पसंद किए जाते, क्योंकि इन में गाने धीमी आवाज में सुनाई देते हैं. इन का म्यूजिक सिस्टम तेज आवाज वाला नहीं होता है.

बदलाव की हकीकत

गांव में रोजीरोजगार की कमी है. ऐसे में बहुत सारे लोग कामधंधे की तलाश में दिल्ली, मुंबई जैसे बड़े शहरों और विदेशों तक में मेहनतमजदूरी करने जाते हैं. ये लोग स्मार्टफोन से अपने घरपरिवार और करीबी लोगों से जुड़े रहना चाहते हैं. स्मार्टफोन इस में सब से बड़ा रोल अदा कर रहा है.

अब रेल का टिकट लेना हो या ट्रेन का टाइम पता करना हो, इंटरनैट के जरीए यह आसान काम हो गया है, खासकर ट्रेन में टिकट का रिजर्वेशन कराना फोन के जरीए आसान हो गया है.

कई गांवों में यह रोजगार का साधन बन गया है. इस के अलावा स्मार्टफोन मनोरंजन का सब से बड़ा साधन बन गया है. इस में वीडियो डाउनलोड कर के मनपसंद गानों व फिल्मों को देखा और सुना जा सकता है.

स्मार्टफोन में लगने वाले मैमोरी कार्ड में गाने और फिल्म को बाजार से भी डाउनलोड कराया जा सकता है. इस के जरीए कम पैसे में गानों और फिल्मों का मजा लिया जा सकता है. यही नहीं, शादी और दूसरे मौकों के वीडियो तक इस स्मार्टफोन के जरीए बनाए जाने लगे हैं.

गंदी फिल्मों का शौक रखने वाले लोगों के लिए स्मार्टफोन वरदान जैसा हो गया है. वे गुपचुप तरीके से इन का भरपूर मजा लेने लगे हैं. यही वजह है कि गांव के बाजारों में बिकने वाली बेहूदा और कहानी टाइप की किताबों की बिक्री बंद हो गई है. 20 से 25 रुपए खर्च कर के मैमोरी कार्ड में 3 से 5 फिल्में लोड हो जाती हैं. इतना खर्च कर के केवल 1 या 2 किताबें ही मिल पाती थीं. ऐसी किताबों को दूसरों की नजरों से छिपाना मुश्किल काम होता था, जबकि मोबाइल फोन में कैद इन फिल्मों को छिपाना मुश्किल नहीं है.

स्मार्टफोन के बढ़ने से गांव के मनोरंजन में प्रयोग होने वाले दूसरे साधन भी बंद हो गए हैं. आज मनोरंजन के बाजार में गानों के कैसेट और टेपरैकौर्डर गायब हो गए हैं. इसी तरह से रेडियो भी गांव के बाजार से गायब हो गया है.

कुलमिला कर देखा जाए, तो स्मार्टफोन गांव में बातचीत करने के साथसाथ मनोरंजन का भी बड़ा साधन बन कर उभरा है. साल 2014 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने गांवगांव अपनी बात को पहुंचाने के लिए मोबाइल फोन का सहारा लिया था. उस ने बड़ी तादाद में एसएमएस के जरीए अपना प्रचार किया.

उत्तर प्रदेश में अगले साल विधानसभा के चुनाव आ रहे हैं. चुनाव लड़ने वाले लोग स्मार्टफोन के जरीए अपनी बात ज्यादा से ज्यादा लोगों तक कम समय में पहुंचाने की तैयारी कर रहे हैं.

कई जुझारू किस्म के नौजवानों ने स्मार्टफोन का सहारा ले कर ऐसी वीडियो क्लिप बनाईं, जिन्हें देख कर पुलिस और प्रशासन को कार्यवाही करने के लिए मजबूर होना पड़ा. थाना और तहसील की हकीकत को मोबाइल फोन में कैद कर के शहर के बडे़ अफसरों तक पहुंचाने का काम भी गांव के लोग करने लगे हैं, जिस से वहां के सरकारी नौकर गलत काम करने से पहले सौ बार सोचने पर मजबूर होने लगे हैं.

अगर सरकारी लैवल पर इन साधनों को बढ़ावा दिया जाए और इस तरह से मिलने वाली शिकायतों को गंभीरता से लिया जाए, तो ये फोन गांव के लोगों के लिए बड़े मददगार साबित हो सकते हैं.

मोबाइल फोन पर इन की राय

 जिस तरीके से सरकारी व्यवस्था कंप्यूटर के हवाले हो रही है, सरकार ईगवर्नैंस पर जोर दे रही है, उस से आने वाले दिनों में स्मार्टफोन का इस्तेमाल बढ़ने ही वाला है. इस से गांव के लोग अपनी शिकायत ऊपर के अफसरों तक पहुंचाने में कामयाब हो रहे हैं. वे इसे मनोरंजन का बेहतर साधन बना रहे हैं. इस के जरीए वे सीधे तमाम लोगों से जुडे़ रहते हैं. जिन लोगों के पास पैसा कम है, गरीब हैं, वे भी मिस काल मार कर अपनी बात को पहुंचाने का जरीया खोज ही लेते हैं. परिवार के लोग भी नातेरिश्तेदारों के संपर्क में पहले से ज्यादा रहने लगे हैं. स्मार्टफोन के चलन में आने के बाद गांव में चिट्ठी से खबरों का आदानप्रदान बंद सा हो गया है. आज लोगों में पढ़ाईलिखाई का लैवल भी बढ़ रहा है. गांव के बच्चे भी मोबाइल फोन चलाना सीख चुके हैं.

– शशिभूषण, समाजसेवी, पानी संस्थान.

 पहले मेरे गाने कैसेट पर आते थे. लोगों को सुनने के लिए टेपरैकौर्डर रखना पड़ता था. जब से मोबाइल फोन में गानों को डाउनलोड कर सुनने का तरीका आ गया है, लोग मेरे गानों को मोबाइल फोन पर डाउनलोड कर लेते हैं. इस तरह से लोग जब चाहे गानों को सुन सकते हैं. कुछ समय से लोगों की यह डिमांड होने लगी कि गाने यूट्यूब पर डाले जाएं. जिस से वहां से फोन पर सीधे डाउनलोड किए जा सकें. कई गानों को वीडियो के साथ देखा जाता है.

स्मार्टफोन आने के बाद से गांव के लोगों की मनोरंजन की दुनिया ही बदल गई है. जब हम कहीं जाते हैं, तो लोग हमारे फोटो अपने मोबाइल फोन से ही लेना चाहते हैं. कुछ लोग तो पूरा वीडियो शूट कर लेते हैं. गांव के लोगों में स्मार्टफोन के प्रति लगाव बढ़ा है. यह अब इन के लिए जरूरत की चीज बन गई है. यह बात गांव में रहने वालों को समझ आ चुकी है.

– खुशबू उत्तम, भोजपुरी गायिका.

 जरूरत एक की, मिलते एक हजार

 मोबाइल फोन के बाजार में भी शहर और गांव का अंतर देखने को मिलता है. गांव के लोगों को केवल एक मोबाइल फोन की जरूरत होती है. इस के बावजूद गांव के बाजार में एक हजार किस्म के मोबाइल फोन मिलते हैं. अलगअलग नामों से बिकने वाले ये फोन करीबकरीब एकजैसी कीमत और फीचर्स वाले होते हैं.

ज्यादातर फोन चाइनीज ब्रांड के सस्ते होते हैं. कुछ लोकल फोन भी गांव के बाजार में अपना प्रचारप्रसार करते हैं. सब से ज्यादा फोन उसी कंपनी के बिकते हैं, जो कंपनी दुकानदार को ज्यादा सुविधाएं और कमीशन देती है.

गांव के लोग जब मोबाइल फोन खरीदने दुकानदार के पास जाते हैं, तो दुकानदार अपनी बातों से उन को वही मोबाइल खरीदने के लिए मजबूर कर देता है, जो वह बेचना चाहता है. अगर ग्राहक किसी दूसरे ब्रांड का मोबाइल फोन मांगता भी है, तो दुकानदार कहता है कि इस फोन की जिम्मेदारी उस की नहीं है.

ऐसे में ग्राहक वही मोबाइल लेता है, जो दुकानदार कहता है. अगर मोबाइल कंपनियां अपने ब्रांड का सही प्रचारप्रसार गांव के लोगों के बीच कर सकें, तो ग्राहक को अपनी जरूरत के हिसाब वाला मोबाइल फोन लेने में सुविधा हो सकेगी.

गांव के लोगों को मोबाइल फोन ऐसा चाहिए, जिस से सही तरीके से बात हो सके. इस के लिए जरूरी है कि मोबाइल फोन नैटवर्क को ठीक से पकड़े. गांव में बिजली की परेशानी रहती है, इसलिए मोबाइल फोन की बैटरी लंबे समय तक चलने वाली हो. यह जल्द चार्ज होने वाली होनी चाहिए.

मोबाइल फोन में अब इंटरनैट का प्रयोग बढ़ रहा है. ऐसे में मोबाइल फोन पर इंटरनैट सही से चलना चाहिए. मोबाइल फोन में कीपैड होना चाहिए. क्योंकि टच स्क्रीन चलना थोड़ा मुश्किल होता है. वीडियो फिल्म और गानों को पसंद करने वाले लोग मोबाइल फोन की बड़ी स्क्रीन पसंद करते हैं. ये लोग चाहते हैं कि मोबाइल फोन में पड़ने वाला मैमोरी कार्ड ज्यादा कैपेसिटी का हो, जिस से ज्यादा से ज्यादा गाने और वीडियो लोड हो सकें.

दुकानदार पर निर्भर हैं ग्राहक

बाजार में जरूरत से ज्यादा मोबाइल फोन मुहैया होने से ग्राहक दुकानदार पर निर्भर हो गए हैं. इस के अलावा गांव के बाजार में बिकने वाले मोबाइल फोन अपना प्रचारप्रसार नहीं करते, जिस से ग्राहक उन के फोन की खासीयत को समझ सकें.

गांव के ग्राहकों को मोबाइल फोन के संबंध में बहुत जानकारी नहीं होती है. ऐसे में वे दुकानदार की बताई बात को मानने को मजबूर होते हैं. कई बार वे अपने आसपास के लोगों के फोन को देख कर फोन खरीदने की कोशिश भी करते हैं, तो दुकानदार उन्हें गारंटी न देने का डर दिखा कर रोक देते हैं.

ग्राहकों को चाहिए कि वे मोबाइल फोन खरीदने से पहले अपनी जरूरतों को समझ लें. मोबाइल फोन की कीमत उस में मौजूद फीचर्स से घटतीबढ़ती है. केवल एक दुकान पर देख कर ही मोबाइल फोन न खरीदें.

मोबाइल फोन को खरीदने के पहले आसपास की दुकानों को देख लें. अगर गांव से शहर ज्यादा दूर न हो, तो शहर की दुकान से मोबाइल फोन खरीद सकते हैं. हर मोबाइल कंपनी अपने फोन की वारंटी देती है. फोन लेने से पहले उस की वारंटी जरूर देख लें. फोन का पक्का बिल भी लें. कई बार पक्का बिल न होने की दशा में दुकानदार अपनी कही बात से मुकर जाता है.

मोबाइल फोन लेने के बाद उस की सिक्योरिटी का खास ध्यान रखें, खासकर स्मार्टफोन पानी वगैरह में गिर जाने से जल्दी खराब हो जाते हैं. इन की स्क्रीन जल्दी खराब हो सकती है. कई बार स्क्रीन पर कुछ लगने से वह टूट जाती है. स्क्रीन को महफूज रखने के लिए स्क्रीन गार्ड जरूर लगवा लें.

भारत गरीब हो रहा या अमीर

देश के संदर्भ में अमीरी गरीबी का प्रसंग बहुत समय से चर्चा में है. दरअसल यह एक ऐसा मसला है जो जहां  सरकार के लिए महत्वपूर्ण है वहीं आम जनमानस में भी देश की अमीरी और गरीबी के बारे में चर्चा का दौर जारी रहता है. अगर हम वर्तमान समय की बात करें तो 2014 के बाद भाजपा की नरेंद्र दामोदरदास मोदी की सरकार के समय और उससे पूर्व डॉ मनमोहन सिंह की सरकार के समय समय इन दोनों समय काल में आज का समय आम लोगों के लिए एक बड़ी त्रासदी का समय बन कर हमारे सामने हैं. आज जहां बेरोजगारी बढ़ी है तो सीधी सी बात है उसके कारण गरीबी में बढ़ोतरी हुई है और इसका मूल कारण है नोटबंदी और कोरोना काल. मगर वर्तमान सरकार यह मानने के लिए तैयार नहीं है कि देश में बेरोजगारी और गरीबी बढ़ गई है. वह अपने तरीके से देश और दुनिया के सामने यह तथ्य रखने से गुरेज नहीं करती की देश अमीरी और बढ़ रहा है. आम लोगों की गरीबी की बरअक्स नरेंद्र दामोदरदास मोदी की सोच है कि दुनिया के सामने देश को सीना तान के खड़ा होना है. चाहे चीन हो अमेरिका या रूस हम किसी से कम नहीं. यह कुछ ऐसा ही है जैसे कोई चिंदी पहलवान किसी  गामा पहलवान के सामने ताल ठोके. यह एक हास्यास्पद स्थिति बन जाती है. आने वाले समय में सचमुच ऐसा हो  ना जाए क्योंकि सच्चाई से मुंह चुराया जाना कतई उचित नहीं होता.

अरविंद पनगढ़िया ढाल है! 

आज जब देश के सामने गरीबी का सच सार्वजनिक है, महंगाई अपनी सीमाओं को तोड़ रही है और तो और केंद्र सरकार का चाहे घरेलू गैस सिलेंडर या फिर पेट्रोल पॉलिसी अपनी महंगाई के कारण खून के आंसू रुला रहे हैं.ऐसे में सरकार की तरफ से जाने-माने अर्थशास्त्री अरविंद पनगढ़िया ने मानव मोर्चा संभाल लिया है. आप कहते हैं- कोविड- 19 महामारी के दौरान भारत में गरीबी और असमानता बढ़ने का दावा सरासर गलत हैं. उन्होंने कहा यह दावे विभिन्न सर्वे पर आधारित हैं, जिनकी तुलना नहीं की जा सकती है. उन्होंने एक शोध पत्र में यह भी कहा है कि वास्तव में कोविड के दौरान देश में ग्रामीण और शहरी के साथ- साथ राष्ट्रीय स्तर पर असामानता कम हुई है.

कोलंबिया विश्वविद्यालय में प्रोफेसर और देश के नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष पनगढ़िया और इंटेलिंक एडवाइजर्स के विशाल मोरे ने मिलकर भारत में गरीबी और असमानता : कोविड-19 के पहले और बाद में’ शीर्षक से यह शोध पत्र लिखा है. कोलंबिया विश्वविद्यालय के स्कूल आफ इंटरनेशनल एंड पब्लिक अफेयर्स में भारतीय आर्थिक नीति पर आयोजित आगामी सम्मेलन में इस शोध पत्र को पेश किया जाएगा. इस सम्मेलन का आयोजन विश्वविद्यालय में स्कूल आफ इंटरनेशनल एंड पब्लिक अफेयर्स का भारतीय आर्थिक नीति पर दीपक और

नीरा राज सेंटर कर रहा है. इसमें भारत में कोविड-19 महामारी से पहले और बाद में गरीबी और असमानता की स्थिति का विश्लेषण किया गया है. इसके लिए भारत के राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) के निश्चित अवधि पर होने वाले श्रमबल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) में जारी घरेलू व्यय के आंकड़ों का उपयोग किया गया है. शोध पत्र में कहा गया है कि पीएलएफएस के जरिये जो गरीबी का स्तर निकला है, वह 2011-12 के उपभोक्ता व्यय सर्वे (सीईएस) से निकले आंकड़ों और उससे पहले के अध्ययन से तुलनीय नहीं है. इसका कारण पीएलएफएस और सीईएस में जो नमूने तैयार किए गए हैं, वे काफी अलग हैं.

इसके अनुसार तिमाही आधार पर अप्रैल-जून, 2020 में कोविड महामारी की रोकथाम के लिए जब सख्त पूर्णबंदी लागू की गई थी, उस दौरान गांवों में गरीबी बढ़ी थी.लेकिन जल्दी ही यह कोविड- पूर्व स्तर पर आ गई और उसके बाद से उसमें लगातार गिरावट रही. कोविड-19 के बाद सालाना आधार पर असमानता शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में घटी है. देश के अस्सी करोड़ गरीबों को सस्ता अनाज, सस्ता मकान आदि दे करके केंद्र सरकार स्वयं सिद्ध कर रही है कि देश की जमीनी हकीकत क्या है. मगर दुनिया के चौ रास्ते पर खड़े होकर स्वयं को संपन्न सिद्ध करना सिर्फ छलावा ही तो है. ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे देश में धन धार्मिकता के कारण आज भी लोग समझते हैं कि उनकी बदहाली का असल कारण भगवान ही है जिसने उन्हें गरीब बनाया है जबकि असल में हमारे देश की आर्थिक नीतियां और सरकार की काम करने की शैली ऐसी है कि लो गरीबी, बदहाली में जी रहे हैं हर एक सरकार लोगों को भरमा रही है दिल्ली की केजरीवाल सरकार मुफ्त में महिलाओं को बस में यात्रा कराते हैं दूसरी तरफ कर्नाटक में राहुल गांधी बेरोजगारी भत्ता का लॉलीपॉप दिखाते हैं और मोदी का दोहरा चेहरा तो देश देख ही रहा है वे चाहते हैं कि विपक्षी पार्टियां तो कुछ भी ना दें और वह स्वयं लोगों को कुछ ना कुछ दे करके कथित मसीहा बन जाए. यही सब कारण है कि हमारा देश  जापान, चीन जैसे देशों से बहुत पिछड़ गया है जो या तो बहुत छोटे हैं या फिर आजादी बाद में मिली है.

समस्या: बाइक टैक्सी-सरकार ने लगाए ब्रेक, जनता को सताने का तरीका

सिर्फ कानूनी पच्चर लगा कर दिल्ली और महाराष्ट्र में बाइक टैक्सियों पर रोक लगा दी गई है. छोटे डिस्टैंस तक ले जाने के लिए यह एक सस्तीसुलभ बात है जो बाइक चलाने वालों को थोड़ाबहुत पैसा दे देती है, उन्हें काम पर लगाए रखती है और जनता को सुविधा भी रहती है.

सरकार की आदत है कि वह हर नागरिक के काम में दखल देती है. आप बिना लाइसैंसों और रजिस्ट्रेशनों के ठेला नहीं लगा सकते, कहीं दुकान नहीं खोल सकते, घर के एक कोने में छोटा सा काम नहीं कर सकते, घर की खाली पड़ी जगह पर मकान नहीं बना सकते, बने मकान में पहलीदूसरी मंजिल पर एक कमरा नहीं डाल सकते. किसी किराएदार को नहीं रख सकते. जिंदगी सरकारी फरमानों पर चलाई जाना एक मजबूरी हो गई है. अफसोस यह है कि देश की जनता आमतौर पर कहती है और मानती है कि हर काम के लिए इजाजत लेनी ठीक है. जनता नहीं सम?ाती कि इजाजत देने का हक ही भ्रष्टाचार की जड़ है, क्योंकि सरकार को खुद किसी काम के लिए कोई इजाजत नहीं लेनी होती और उस से कोई गलत काम पर सफाई भी नहीं मांग सकता.सरकार चुने हुए प्रतिनिधि चला रहे हैं.

इस अद्भुत कवच के सहारे सरकारी कर्मचारी मनमानी कर सकते हैं और मोटर ह्वीकल ऐक्ट का हवाला दे कर बाइक टैक्सी बंद की गई है. यह चल रही है तो तभी न कि जनता को इस  से सुविधा है और बाइक मालिक और सवारी बिना किसी को परेशान किए सड़क पर चल रहे हैं. बाइक टैक्सी नहीं होती तो सवारी को वह रास्ता खुद पैदल चल कर जाना होता और सड़क तो उतनी ही घिरती.सरकार की मंशा सिर्फ यही है कि इन से टैक्स वसूला जा सके.

अगर कल को सरकार ने इन का रजिस्ट्रेशन कर दिया तो दाम तो एकदम बढ़ जाएंगे पर कोई खास नई सुविधा मिलेगी, उसे भूल जाएं. दिल्ली में कई सालों तक बैटरी रिकशा बिना लाइसैंस के चले. फिर दिल्ली के कुछ इंगलिश अखबार, अदालतें, पुलिस वाले पीछे पड़ गए. उन्होंने इन का रजिस्ट्रेशन कराने के नियम बनवा ही डाले और अब मोटी कमाई ट्रांसपोर्ट अथौरिटी के अफसरों की जेब में जाने लगी है.रजिस्टे्रशन, अनुमति बाइक टैक्सियों को किसी तरह से न तो सड़क पर चलने का ज्यादा हक देगी, न पार्क करने का और न ही टैक्सी मालिक को रातोंरात शरीफ बता देगी.

बाइक टैक्सी असल में सब से अच्छी और सेफ टैक्सी है जिस में टैक्सी ड्राइवर के हाथ आगे बंधे होते हैं और पीछे बैठी सवारी बिलकुल सुरक्षित होती है. किसी भी डर के समय सवारी कूद कर आसानी से बच सकती है. जो रेप या लूट के मामले रैगुलर टैक्सियों या आटोरिकशा में होते हैं, वे बाइक टैक्सियों में हो ही नहीं सकते, क्योंकि बाइक मालिक सवारी के लिए अनजान तीसरे को नहीं बैठा सकता.अब दिल्ली और महाराष्ट्र में गैरकानूनी तौर पर बाइक टैक्सी चलाने पर जुर्माना या जेल हो सकती है.

क्या जहां रजिस्ट्रेशन है वहां कुछ हादसा होने पर टैक्सी चालक के साथ रजिस्ट्रेशन करने वाली अथौरिटी को जेल भेजने या उस पर जुर्माने का नियम है? नहीं तो क्यों. मलाई है तो आधापौना हिस्सा खुद खा जाओ और बचने के लिए हाथ जलाना हो तो आम जनता? यह कैसी कानूनबाजी है?यह असल में जनता की कमजोरी है जो अपने छोटेछोटे हकों के छीने जाने पर चुप बैठी रहती है और सरकार अब धीरेधीरे घर के दरवाजे पर नहीं बैठती, बैडरूम और किचन तक घुस आई है. बाइक टैक्सी आम सवारी का हक है और इस पर रोक आम जनता के हकों को कम करना है.

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