जेल में बंद कैदियों की दास्तान

मुझे अपनी सहेली, जो कि जज हैं, के साथ जेल में सैक्स अपराधों के आरोपों में बंद कैदियों से बात करने का मौका मिला था. एक 24 साल के कैदी ने बताया, ‘‘मैं गांव का रहने वाला हूं. शहर में मैं एक कारखाने में काम करता था. मैं जिस मकान में रहता था, वे दोनों पति पत्नी ही उस मकान में रहते थे. उन की शादी को कई साल हो चुके थे, मगर उन के कोई बच्चा नहीं हुआ था.

‘‘30 साला मकान मालिक भी एक कारखाने में चौकीदारी करता था और रात की ड्यूटी करता था. एक रात जब वह ड्यूटी पर चला गया, तो वह मेरे कमरे में आई. उस समय मैं शराब पी रहा था. उस ने इतने झीने कपड़े पहन रखे थे कि उस के शरीर के सभी मादक अंग साफ साफ दिखाई दे रहे थे.

‘‘वह मुझे देख कर मुस्कराने लगी.  मैं हैरानी से उस की ओर देखने लगा, तो वह हंसते हुए बोली, ‘मुझे नहीं पिलाओगे क्या?’

‘‘इतना सुन कर मैं ने उसे एक पैग बनाया, तो उसे पी कर वह मुझ से बुरी तरह से लिपट कर बोली, ‘मैं अब रातभर तुम से मजे लूंगी. मेरा पति तो कुछ कर नहीं पाता है. वह जरा सी देर में पस्त हो जाता है. मैं प्यासी ही रह जाती हूं.’

‘‘इतना कह कर वह मेरा हाथ पकड़ कर बिस्तर पर ले गई और फिर हम दोनों ने वह किया, जो हमें नहीं करना चाहिए था. उस के बाद तो हम दोनों का यह रोजाना का ही खेल हो गया था.

‘‘एक साल तक हम दोनों का यह खेल चलता रहा, मगर एक रात उस का पति अचानक गांव से लौट आया.

‘‘मकान की एक चाबी उस के पास थी. जब कमरे में उस की बीवी नहीं मिली, तो वह मेरे कमरे पर आया. मेरे कमरे की लाइट जली हुई थी और कमरे का गेट भी खुला हुआ था.

‘‘मैं और उस की बीवी अपने खेल में मस्त थे. यह देख कर उस ने अपने रिश्तेदारों को वहां पर बुला लिया.

‘‘जब उस की बीवी ने उन्हें देखा, तो वह रोते हुए उन से बोली, ‘यह मुझे रोजाना जबरदस्ती पकड़ लेता है. मैं मना करती हूं, तो यह मेरे पति को जान से मारने की धमकी देता है. मैं डर कर इसकी हवस का शिकार होती हूं. इसे खूब मारो और पुलिस के हवाले कर दो, तभी इस नीच से हमारा पीछा छूटेगा.’

‘‘उस की इन बातों को सुन कर उस के पति और रिश्तेदारों ने मुझे खूब मारा और फिर पुलिस के हवाले कर दिया था.

‘‘मेरे बारे में जब मां बाप को मालूम हुआ, तो उन्होंने दुखी हो कर खुदकुशी कर ली. मकान मालकिन के चक्कर में मेरी जिंदगी बर्बाद हो गई है,’’ कहते हुए वह कैदी बुरी तरह रोने लगा.

एक 55 साला कैदी से भी बात करने का मौका मिला. वे बोले, ‘‘मैं एक गांव के राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय में प्राचार्य था. मैं अनुशासनप्रिय था. मेरी इस बात के चलते शहर से रोजाना स्कूल आने वाली 2 टीचर मुझ से नाराज रहती थीं. वे रोज ही देर से स्कूल आती थीं.

‘‘एक दिन देर से आने वाली एक टीचर को अपने कमरे में बुला कर डांटा, तो उस ने अपना ब्लाउज और साड़ी फाड़ कर बुरी तरह से दहाड़ मार कर रोते हुए ‘बचाओ बचाओ’ की आवाज लगा कर स्टाफ को वहां बुला लिया.

‘‘जब स्टाफ वहां आया, तो उस ने रोते हुए बताया कि मैं उसकी आबरू से खिलवाड़ कर रहा था. दूसरी टीचर भी सभी से कह रही थी कि यही हरकत मैं कई बार उस से भी कर चुका हूं.

‘‘तब तक गांव के और लोग भी वहां आ गए थे. उन्होंने मुझे टीचर के नाम पर  कलंक मान कर उसी समय पुलिस को फोन कर मुझे गिरफ्तार करा दिया था.

‘‘बाद में मुझे पता चला कि उन्हें अपनी एक रिश्तेदार प्राचार्य को मेरे उस स्कूल में लाना था, ताकि वे अपनी मनमरजी से स्कूल आएंजाएं.’’

उन प्राचार्य की दास्तान सुन कर मुझे और मेरी जज सहेली को यकीन ही नहीं हो पा रहा था कि स्कूल के एक अनुशासनप्रिय प्राचार्य के साथ ऐसी भी घिनौनी साजिश रच कर उन की जिंदगी बरबाद करने वाली टीचर भी शिक्षा विभाग में मौजूद हैं.

फिर हमें सैक्स अपराध के आरोप में जेल में बंद एक 40 साला कैदी ने बताया, ‘‘मैं अपने एक दोस्त की मदद करने की भूल की सजा भुगत रहा हूं.

‘‘उस की छोटी बहन की शादी थी. उस ने कहा कि मैं पैसे उधार ले कर उस की मदद कर दूं. मैं ने किसी जान पहचान वाले से पैसे उधार ले कर उस की मदद कर दी.

‘‘उस की बहन की शादी को काफी समय हो गया था, मगर मेरे उस दोस्त ने मुझे एक भी पैसा नहीं लौटाया था.

‘‘एक दिन मैं ने उस दोस्त से पैसे मांगे, तो वह साफ मुकर गया कि मैं ने उसे पैसे दिए ही नहीं थे.

‘‘मैं ने उसे याद दिलाते हुए पैसों के लिए कहा, तो दोस्त और उस की बीवी ने मुझे सैक्स अपराध के आरोप में जेल भिजवाने की साजिश रची.

‘‘मुझे उस की बीवी ने अपने घर बुलाया. मैं जब उस के घर गया, तो वह बड़े प्यार से बोली, ‘तुम्हारे दोस्त तो पैसों के इंतजाम के लिए बाहर गए हुए हैं.  3-4 दिन बाद लौटेंगे. तब तक आप यहीं रहें. मुझे मर्द के साथ सोए बगैर रात में नींद नहीं आती है. रातभर खूब मजे लेंगे,’ कह कर उस ने मुझे शराब पिलाई.

‘‘शराब पिलाने के बाद वह मुझ से बोली कि मैं उसे अपनी गोद में उठा कर पलंग पर ले जाऊं और उस के बदन के कपड़ों को फाड़ते हुए ऐसा करूं, जैसे तुम मुझ से जबरदस्ती कर रहे हो.

‘‘उस की इन बातों को सुन कर मैने ऐसा ही किया था. जब वह दर्द से चिल्लाने लगी, तो उस का पति आ गया.

‘‘अपनी बीवी को इस हालत में देख वह बौखला गया. बोला, ‘तू ने मेरी बीवी के साथ यह क्या किया. अभी तुझे गिरफ्तार कराता हूं,’ कह कर उस ने मुझे गिरफ्तार करा दिया.’’

उस कैदी की दुखभरी दास्तान सुन कर मैं और मेरी जज सहेली अपने दिल में सोच रहे थे कि यह कैसा जमाना आ गया है कि किसी पर रहम खा कर उस की मदद करते हैं, तो मदद पाने वाला अपनी मदद करने वाले के खिलाफ ही साजिश रच कर उस की जिंदगी तबाह कर देता है.

जेल से लौटते समय मैं और मेरी जज सहेली जेल में बंद सैक्स अपराधों के इन आरोपी कैदियों की दास्तान सुन कर इसी नतीजे पर पहुंचे थे कि सैक्स अपराध के ये ज्यादातर आरोपी कैदी दूसरों की साजिश के शिकार हो कर ऐसी बदहाल जिंदगी जीने को मजबूर हो रहे हैं.

बड़ा सवाल : नाच पर आंच क्यों

मध्य प्रदेश के सिवनी जिले के ब्लौक छपारा की भीमगढ़ कालोनी में छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव जिले से आ कर रह रही लता डांस पार्टी में 40 लोग थे. इन में नौजवान लड़कियों की तादाद ज्यादा थी. भीमगढ़ कालोनी में पार्टी के सदस्यों ने डेरा डाला. किराए पर लिए गए कच्चेपक्के मकानों में बुनियादी सहूलियतों का टोटा था, पर इन्हें इस से कोई खास फर्क पड़ा, हो ऐसा लगा नहीं. अस्थायी गृहस्थी में जरूरत का सारा सामान था, मसलन खाना बनाने के बरतन, कपड़े रखने के लिए पेटियां, सूटकेस और इन के लिए सब से ज्यादा अहम मेकअप का सामान जो करीने से सजा कर रखा गया था. डांसरों की नई चमकीली ड्रैसें संभाल कर दीवार के सहारे टांग दी गई थीं. 3-4 अधनंगे बच्चे भी इन के साथ थे जो दिनभर हुड़दंग मचाते रहते थे पर गांव के दूसरे बच्चे इन के साथ नहीं खेलते थे, जिस का इन्हें मलाल था.

बच्चे तो ठहरे बच्चे, जो यह नहीं समझ पाए कि गांव के बच्चों को उन से दूर रहने की नसीहत और समझाइश दी गई है. पर बिगड़ते माहौल का अंदाजा डांस पार्टी की उम्रदराज मुखिया यानी मैनेजर जोति बाई को था और कमसिन, खूबसूरत, तीखे नैननक्श वाली डांसर रति को भी. पर इन्हें इस तरह के एतराज का तजरबा है, लिहाजा इन्होंने कोई खास तवज्जुह गांव वालों के एतराज पर नहीं की. फिर भी एक चिंता तो लग ही गई थी.

छपारा में डेरा डालने से पहले ये लोग थाने गई थीं और वहां अपनी आमद दर्ज कराई थी. आमद के साथ मुंहजबानी यह ब्योरा भी इन्होंने थानाध्यक्ष को दिया था कि हम नाचनेगाने वाले लोग हैं और हर साल यहां आ कर ठहरा करते हैं. ऐसा एहतियात के तौर पर इसलिए किया गया था कि अगर इस इलाके में कोई जुर्म हो तो गांव वाले उस का ठीकरा डांस पार्टी के सिर पर न फोड़ दें और दूसरा मकसद इस से भी ज्यादा अहम, अपने ग्रुप की सुरक्षा का था.

लता डांस पार्टी के आ जाने की खबर मिनटों में इलाके में फैल गई थी और अपने डेरे पर पहुंचने के तुरंत बाद ही जोतिबाई को बुकिंग मिलनी शुरू हो गई थीं. कुछ पुराने जान पहचान वाले लोग खासतौर से मिलने आए थे जिन्होंने यह तसल्ली कर ली थी कि डांस पार्टी साल के आखिर तक तो रुकेगी ही, और अगर काम मिलता रहा तो होली तक भी रुक सकती है.

डांस पार्टी के आ जाने की खबरभर से न केवल छपारा बल्कि आसपास के गांवों में भी रौनक सी आ गई थी. गांव देहातों में अब गणेश और दुर्गा की झांकियां इफरात से लगने लगी हैं जिन में तबीयत से नाच गाना होता है. कुकुरमुत्ते सी उग रही धार्मिक समितियों में राजनेता वोट पकाते हैं, पंडे पुजारी दक्षिणा झटकते हैं और आमलोग झांकी में बैठी मूर्ति के पांव पड़ कर सीधे जा पहुंचते हैं स्टेज के नीचे खासतौर से बने पंडाल में, जहां फिल्मी गानों की तर्ज पर रति के साथ दूसरी डांसर्स थिरक रही होती हैं.

डेरे पर डांस पार्टी की सुबह नहीं होती, बल्कि सीधे दोपहर होती है, क्योंकि नाचगाने का प्रोग्राम सुबह तक चलता है. इस दौरान गांव की आबादी के मुताबिक, 4-5 सौ से ले कर 2 हजार तक की तादाद में बैठे लोग अपने पसंदीदा गाने की फरमाइश स्टेज तक पहुंचाते और खूब नोट भी लुटाते हैं.

रातभर फरमाइशी गानों पर डांस पेश करते करते इन डांसर्स का अंग अंग दुखने लगता है पर इन का जोश कम नहीं होता. एक एक कर ये स्टेज पर आ कर नाचती हैं, कभी 2-4 के समूह में भी डांस पेश करती हैं.

कौन हैं ये

केवल राजनांदगांव या छत्तीसगढ़ ही नहीं, बल्कि देश के अधिकांश जिलों में ऐसी हजारों डांस पार्टियां हैं जो तकरीबन 8 महीने मध्य प्रदेश के किसी जिले में जा कर अपना डेरा डालती हैं और अपना पेट पालती हैं. इन डांसरों में कुछ आदिवासी जाति की लड़कियां हैं तो कुछ दूसरी छोटी जाति की भी हैं. गानेबजाने का जरूरी सामान डांस पार्टी अपने साथ ले कर चलती है.

नाचगाना इनका पुश्तैनी पेशा है. इन के समूह में मर्द कहने भर को होते हैं जिन का काम बाहरी भागदौड़ करना और डांस के दौरान स्टेज के नीचे तैनात रहना होता है, जिस से कभी कोई झगड़ा फसाद हो तो ये हालत संभाल लें. जब लड़कियां डांस कर रही होती हैं तब ये फरमाइशी पर्चियां बटोर रहे होते हैं.

ग्रुप की मुखिया जोति बाई बताती हैं, ‘‘हम तो अपनी दादी नानी के जमाने से इसी तरह प्रोग्राम देते चले आ रहे हैं. यही हमारा पेशा है. इस के अलावा हमें कुछ और पता नहीं.’’ हां, इतना जरूर है कि पहले ग्रुप का नाम डांस पार्टी न हो कर नौटंकी हुआ करता था जिन में गानों के साथ साथ कुछ पुराने जमाने के नाटक भी खेला करते थे.

डांस कहां से सीखा? पूछने पर रति झिझकती हुए बताती है, ‘‘उस ने डांस बचपन से बुआओं और मौसियों से सीखा है और लगभग सभी हिट फिल्मी गानों पर वह नाच लेती है. पहले टेपरिकौर्डर और कैसेट से गाने सुन अभ्यास करती थी पर अब सीडी व पैनड्राइव आ गई हैं जिन के जरिए वह नाचगानों का अभ्यास करती है.’’ रति आगे बताती है, ‘‘एक प्रोग्राम की बुकिंग 2-3 हजार रुपए की होती है पर पार्टी तगड़ी हो तो 8-10 हजार रुपए तक मिल जाते हैं.’’

ये पैसे न्योछावर के पैसों से अलग होते हैं जिन्हें ज्यादा से ज्यादा झटकने की हर डांसर कोशिश करती है कि भीड़ का दिल जीत सके क्योंकि पैसा अच्छे डांस पर ज्यादा बरसता है. एक प्रोग्राम में 4-5 हजार रुपए की न्योछावर मिलनी आम बात है. डेरे पर जा कर पूरे पैसे का हिसाब होता है और रकम सब में बराबर बंट जाती है. कुछ सीनियर डांसर्स को कुछ ज्यादा पैसा मिलता है क्योंकि वे अपने नाम से जानी जाती हैं और भीड़ जमा करने में उन की भूमिका अहम होती है.

नहीं हैं धंधेवालियां हम

रति और जोति दोनों मानती हैं कि हर किसी को उन्हें और उन के पेशे को ले कर गलतफहमी हो जाती है, जिसे वे जल्द दूर भी कर देती हैं. जब गांव वालों को बात समझ आ जाती है तो फिर कोई झंझट नहीं रह जाता. इसके बाद भी कुछ लोग पेशकश कर ही देते हैं जिन्हें ये  सख्ती दिखाते झिड़क देती हैं.

जोति और रति को भी अपना इतिहास पूरा नहीं मालूम जिस की उन्हें जरूरत भी महसूस नहीं होती पर अंगरेजों के जमाने से कुछ छोटी जाति वाले नाचगा कर अपना पेट भरते रहे हैं. पहले ये लोग जमींदारों या दूसरे पैसे वालों के यहां शादी ब्याह या दूसरे मौकों पर नाचते थे लेकिन जैसे जैसे वक्त गुजरता गया वैसे वैसे इन के पेशे में भी तबदीलियां आती गईं.

जमींदारी खत्म हुई तो ये लोग दूसरे सूबों में जा कर नाच गाना करने लगे और अब हालत यह है कि इन की जाति की लड़कियां मुंबई के डांस बारों तक जा पहुंची हैं. कुछ नागपुर, पुणे सहित महाराष्ट्र के दूसरे बड़े शहरों के डांसबार में पहुंच गई हैं. पर अधिकांश लड़कियां शहर जाना ठीक नहीं समझतीं, ये किसी मंडली में ही खुद को महफूज महसूस करती हैं.

कमाई ज्यादा नहीं

पैसा इन पर बरसता जरूर है लेकिन वह इतना नहीं होता कि ये लोग शान की जिंदगी जी पाएं. पेट भरने लायक ही ये कमा पाती हैं. इन लड़कियों के सपने बहुत बड़े नहीं हैं. कभी कभार शौकिया तौर पर ये कोई बड़ा शहर घूम आती हैं, वरना इन का पूरा वक्त अपनी डांस पार्टी के साथ घूमते रह कर प्रोग्राम करने और बारिश के 4 महीने अपने गांव में गुजारने में बीतते हैं. बारिश में चूंकि कमाई नहीं होती, इसलिए बाकी 8 महीने कमाया पैसा खर्च हो जाता है.

कुछ डांसर्स ने स्कूल का मुंह देखा है पर सिर्फ 2-4 साल के लिए ही. इस के बाद घुंघरुओं ने इन्हें जकड़ा तो जवानी कब आ कर चली गई, इन्हें पता भी नहीं चला. 35-40 वर्ष की होते होते कुछ डांसर्स शादी कर लेती हैं. बाद में यही अपनी डांस पार्टी बना लेती हैं क्योंकि तब तक इन्हें प्रोग्रामों और दूसरे कई मसलों का तजरबा हो जाता है.

कमाई का बड़ा हिस्सा ड्रैस और मेकअप के आइटमों पर खर्च हो जाता है. एक डांसर बताती है, ‘‘और कोई शौक हमें नहीं है, चांदी के गहने जरूर हम बनवाती हैं, यही हमारी बचत है जो बुढ़ापे में हमारा सहारा बनती है.’’

यह डांसर बताती है कि उस की दादी नानी सस्ते कौस्मेटिक प्रौडक्ट इस्तेमाल करती थीं पर ये लोग ब्रैंडेड प्रौडक्ट इस्तेमाल करती हैं.

बड़े शहरों के मुकाबले कस्बों में प्रोग्राम करना ये ज्यादा पसंद करती हैं क्योंकि वहां आमदनी ज्यादा होती है और अन्य अड़चनें भी कम रहती हैं. 6-8 महीने में ये तकरीबन 50 किलोमीटर के दायरे में आने वाले सभी गांवों में प्रोग्राम दे आती हैं.

छोटी जगहों में नाच गाने का चलन ज्यादा होने लगा है और लोगों के पास वक्त भी खूब होता है. नाच गाने के शौकीन लोग रातरातभर बैठे डांस का लुत्फ उठाते हैं और दिल खोल कर डांसरों पर पैसे लुटाते रहते हैं.

बावजूद इस के यानी हाड़ तोड़ मेहनत के, इन डांसरों की कमाई इतनी नहीं है कि ये बुढ़ापे को ले कर बेफिक्र हो सकें. इसलिए इन की हर मुमकिन कोशिश यह रहती है कि उम्र यानी जवानी रहते ज्यादा से ज्यादा पैसा कमा लें.

मुसीबतें भी कम नहीं

ये डांस पार्टियां कहीं भी जाएं, परेशानियां और मुसीबतें साए की तरह इन के पीछे लगी रहती हैं. कहीं पुलिस वाले परेशान करते हैं तो कहींकहीं स्थानीय रसूखदार नाक में दम कर डालते हैं.

डांसरों के साथ छेड़ छाड़ आम बात है, जिस की ये इतनी आदी हो जाती हैं कि ये उस का लुत्फ उठाने लगती हैं. हालांकि डांस के जलसों में भारी भीड़ के चलते कोई खास खतरा इन्हें नहीं रहता लेकिन दिक्कत उस वक्त पेश आती है जब गुंडे मवाली टाइप के लोग इन के डेरे के बाहर चक्कर काटना शुरू कर देते हैं.

ऐसे वक्त में डांस पार्टी की उम्रदराज औरतें काफी काम आती हैं जो इन शोहदों और लफंगों को ऐेसे काबू करती हैं कि ये दोबारा डेरे के पास नहीं फटकते. पर ऐसा करते वक्त इन्हें काफी सब्र, समझदारी और दिमाग से काम लेना पड़ता है. अगर चक्कर काटने वाले रसूखदारों के बेटे हों तो उन से निबटना थोड़ा मुश्किल होता है और उन्हें फटकारने पर कभीकभी लेने के देने पड़ जाते हैं.

आजकल गांवों में सभी नेता हो गए हैं जिन की पहुंच ऊपर तक होती है. लिहाजा, वे बेइज्जत किए जाने पर हल्ला मचा देते हैं कि ये डांस पार्टियां माहौल खराब कर रही हैं. वे लोग प्रचार यह करते हैं कि इन डेरों पर नाचने वालियां नहीं, बल्कि धंधेवालियां हैं. लिहाजा, इन्हें भगाया जाए.

एक बड़ी परेशानी उस वक्त भी खड़ी हो जाती है जब गांव या कसबे के किसी बाहुबली का संदेश आ जाता है कि साहब अकेले में अपनी हवेली पर डांस देखना चाहते हैं और इस बाबत मुंहमांगी रकम देने को तैयार हैं. रंगीन मिजाज रसूखदारों की हवेली में जा कर डांस करना खतरे वाला काम होता है क्योंकि नशे में वे मनमानी पर उतारू हो आएं तो उन से निबटना आसान काम नहीं होता. ऐसी हालत में कई बार डांसरों को वह सब झेलना पड़ता है जिस से वे खुद को अब तक बचाए रखे थीं.

इन परेशानियों से बचने के लिए ये उन बड़े लोगों से दूर ही रहती हैं जो भीड़ में अक्सर डांस देखना अपनी तौहीन समझते हैं.

छपारा की भीमगढ़ कालोनी के लोगों ने थाने जा कर इस डांस पार्टी की शिकायत की थी कि इन लोगों के यहां आने से माहौल खराब हो रहा है. इस पर भीमगढ़ पुलिस चौकी के इंचार्ज जी पी शर्मा ने शिकायत करने वालों से पूछा था कि आप ही बताइए, किस कानून के तहत इन पर इल्जाम लगा कर कार्यवाही की जाए. ये लोग अपना हुनर दिखा कर पेट पाल रहे हैं और कानून हर किसी को इस की इजाजत देता है.

इस पर गांव वालों ने सरपंच राजकुमारी काकोडि़या की अगुआई में यह शिकायत की थी कि इन लोगों के खुले में शौच जाने से गंदगी फैलती है जबकि उन की पंचायत निर्मल ग्राम पंचायत है.

छोटी जाति से चिढ़

इस इल्जाम में कोई खास दम नहीं था, इसलिए पुलिस वालों ने इस पर भी ध्यान नहीं दिया. लेकिन हर कोई जानता है कि इन डांसर्स से चिढ़ की एक अहम वजह उन की छोटी जाति का होना भी है.

चिढ़ भी इतनी कि छोटी जाति वालों को सार्वजनिक स्थलों से पानी नहीं भरने दिया जाता. उन के साथ होने वाला जातिगत भेदभाव किसी सुबूत का भले मुहताज नहीं हो, लेकिन छपारा के मामले से एक बात यह भी हैरत अंगेज तरीके से लगातार हुई कि सार्वजनिक शौचालयों तक में इन के साथ भेदभाव होने लगा है.

अगर इन डांसरों के खुले में शौच जाने से ग्राम पंचायत निर्मल नहीं रह जाती है तो इन्हें सार्वजनिक शौचालयों में क्यों नहीं जाने दिया गया, इस सवाल का जवाब शायद ही कोई सरपंच दे पाए.

हकीकत यह है कि चूंकि ये आदिवासी और दूसरी छोटी जाति की थीं, इसलिए आंख में खटक रही थीं. ये बिंदास हो कर नाच का अपना हुनर पेश कर रही थीं, इसलिए इन्हें माहौल खराब करने वाली कहा गया. सालों से यह डांस पार्टी यहां आ रही है और सभी तरह के लोग इन के डांस का लुत्फ उठाते हैं. धार्मिक जलसे इन से आबाद होने लगे, इसलिए कई ऊंची जाति वाले भी इन की तरफदारी करने लगे हैं क्योंकि उन की खुदगरजी इन से जुड़ी है और पूरी भी होती है. इसीलिए इन्हें आसानी से खदेड़ा नहीं जा सकता.

चिंता की बात, कला में भी भेदभाव है. किसी सरकारी या गैर सरकारी बड़े जलसे में कोई नामी डांसर स्टेज पर डांस पेश करे तो उस का नाम और फोटो अखबारों में छपता है और टीवी चैनल्स में भी उन्हें दिखाया जाता है. पीढि़यों से नाच रही जोति और रति बाई का डांस, डांस नहीं है बल्कि माहौल खराब करने वाला पेशा है, जबकि उन के बारे में ऐसा कहा जाता है, तो तय है दोहरापन लोगों की सोच में है. जिन्हें सरकार बड़े बड़े इनाम, तमगे और खिताब दे दे वह कला हो जाती है और ये कलाकार, जिन के हिस्से में हवाईयात्रा, बड़े बंगले और एयरकंडीशन वगैरा तो दूर की चीजें हैं, पेटभर खाने के लाले पड़े रहते हैं, जाने क्यों कलंक करार दिए जाने लगते हैं.

छपारा के एक युवा पत्रकार हाशिम खान की मानें तो यह छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार की हकीकत उजागर करती बात है कि वहां के बाशिंदों को रोजगार के लिए यहां वहां भटकना पड़ रहा है. जाहिर है सरकारी योजनाओं का फायदा इन्हें नहीं मिल पा रहा है जिन्हें ले कर बड़ेबड़े दावे किए जाते हैं. इन के बच्चे पढ़ नहीं पा रहे, इस की जिम्मेदारी किस की है, कहां गया सर्वशिक्षा अभियान और रोजगार का वादा. इन बातों पर गौर किया जाना चाहिए.

हाशिम का जोश और आरोप अपनी जगह ठीक है पर गड़बड़ ऊपर से भी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी परंपरागत व्यवसायों को बढ़ावा देने की बात करते रहते हैं लेकिन वह राज मिस्त्रियों और कुम्हारों तक में सिमटी रहती है.

देशभर में एक अंदाजे के मुताबिक, घुमक्कड़ नाचनेगाने वालियों की तादाद सवा करोड़ से भी ज्यादा है पर इन के लिए न कुछ सोचा जा रहा, न ही कुछ किया जा रहा. मानो नाचगाना कोई गुनाह हो.

गांव गांव घूम कर आम और खास लोगों का दिल बहलाने वाली ये डांसर्स उम्रभर तपती हैं, तब कहीं जा कर अपना और अपने घरवालों का पेट भर पाती हैं. इस पर भी तरह तरह की जिल्लतें, जलालतें और दुश्वारियां इन्हें उठानी पड़ती हैं.

इन्हें समाज में बराबरी का दर्जा या इज्जत न मिले, यह खास हर्ज की बात नहीं, हर्ज की बात है इन्हें दोयम दर्जे का मानना, इन्हें धकियाना व धकेलना और इन पर घटिया इलजाम लगाना.

बदलाव इतनाभर आया है जो इन के लिहाज से अच्छा है या बुरा, यह तय कर पाना मुश्किल है कि अब धार्मिक जलसे छोटी जाति वाले भी करने लगे हैं और झांकियों में भी अपनी गाढ़ी कमाई खर्च करने लगे हैं, इसलिए वे इन छोटी जाति वालों व डांसर्स को बुलाने लगे हैं, नचाने लगे हैं और पैसा बरसाने लगे हैं. यह बात ऊंची जाति वालों को रास नहीं आ रही, मानो भगवान को पूजने और खुश करने का हक उन्हीं को है.

धर्म के नाम पर छोटी जाति वाले कैसेकैसे ठगे जा रहे हैं, यह अलग मुद्दा है पर इन डांसर्स का इस में अहम रोल है जो गणेश और दुर्गा की झांकियों में नाचगा कर रौनक ला देती हैं.

नोटबंदी की मार

छपारा की डांस पार्टी शिकायतों और दबाव में आ कर नहीं गई, पर 8 नवंबर की नोटबंदी इन डांसर्स को भी महंगी पड़ी. जैसे ही बड़े नोटों का चलन बंद हुआ तो अफरा तफरी मच गई और नोटों की कमी की मार इन छोटे स्तर की डांसर्स पर भी पड़ी. मुंबई के डांस बार हों या देहात के नाचने गाने वाले कलाकार, सभी को पैसों के लाले पड़ गए.

छोटी जगहों में डांसरों पर छोटे नोट ज्यादा लुटाए जाते हैं. जब उन का ही टोटा पड़ गया तो इस डांस पार्टी ने राजनांदगांव वापस जाने में ही भलाई समझी.

अब आने वाले कल को ले कर जोति बाई पसोपेश में है कि क्या होगा. सालभर की कमाई का कोटा पूरा नहीं हुआ था. इसलिए खानेपीने की समस्या सब लोगों के सामने मुंहबाए खड़ी है. नोटों की किल्लत के चलते इन का पूरा हिसाब किताब गड़बड़ा गया है.

दलित लड़कियां : बदले शादी के दस्तूर

उत्तर प्रदेश में रामदासपुर गांव की रहने वाली शिवानी की शादी तय हो रही थी. शिवानी ने 12वीं जमात पास कर ली थी. घर वालों का कहना था कि लड़का अच्छा है. उस की अपनी दुकान है, इसलिए आगे की पढ़ाई शिवानी ससुराल से भी कर सकती है.

शिवानी दलित जाति की लड़की थी. उस के लिए शादी के बाद पढ़ाई जारी रखना उतना आसान नहीं था, जितना अगड़ी जाति की लड़कियों के लिए रहता है. शिवानी ने पढ़ाई देर से शुरू की थी. वह बदले जमाने की लड़की थी. उस की अपनी सोच थी और उसे मातापिता का साथ मिला था, जो उस की बात सुनते थे, नहीं तो आमतौर पर लड़कियों से उन की इच्छा के बारे में पूछा ही नहीं जाता है.

शादी के रिवाजों में एक बदलाव यह भी था कि शिवानी की बरात आएगी. आमतौर पर दलित लड़कियों की शादी में पहले उलटा रिवाज था. लड़की को ले कर उस के घर वाले लड़के के घर जाते थे. इस को ‘पैपूंजी’ कहा जाता है.

सामंती व्यवस्था में यह नियम था कि जो काम अगड़ी जाति के करते थे, उन्हें करने का हक नीची जाति के लोगों को नहीं था. इन में से ही एक नियम यह भी था कि दलितों में लड़की की शादी में बरात नहीं आएगी.

‘बरात आने’ और ‘पैपूंजी जाने’ में शान का फर्क था. अगड़ी जाति के लोगों को यह पसंद नहीं था. अब कुछ सालों से यह व्यवस्था बदल चुकी है. अब दलित लड़की की भी बरात आने लगी है. इस के बावजूद अभी भी कई जगहों पर यह विवाद हो जाता है कि दलित समाज का दूल्हा घोड़ी चढ़ कर कैसे आया? छिटपुट रूप से ऐसे विवाद होते रहते हैं. इस की वजह यही है कि पहले दलित लड़कियों की बरात नहीं आती थी, बल्कि ‘पैपूंजी’ जाती थी.

यह बदलाव अगड़ी जाति के लोगों को जहां पसंद नहीं आता है, वहां विवाद हो जाते हैं. वैसे बड़े लैवल पर अब माहौल बदल चुका है. अब गांव में भी दलित लड़कियों की बरात आने लगी है. न केवल बरात आती है, बल्कि पूरी धूमधाम से आती है. परिवार की जैसी माली हालत होती है, वैसा इंतजाम होता है.

बदल रहे हैं रीतिरिवाज

राजस्थान में ऊंची जाति की लड़कियां आमतौर पर अपनी शादी में घोड़ी पर बैठती हैं. उन के परिवार ऐसा कर के ‘बेटा और बेटी एकसमान’ का संदेश देना चाहते हैं. अब दलित लड़कियां भी घोड़ी पर बैठने का रिवाज करने लगी हैं. इस के खिलाफ उन के समाज के भीतर से ही विरोध के स्वर उठने लगते हैं.

राजस्थान की एक प्रथा है बिंदोली. इस में शादी से एक दिन पहले लड़की को घोड़ी पर बैठा कर पूजा करने के लिए ले जाया जाता है.

घोड़ा हमेशा से आनबानशान, गौरव, शौर्य और सामंतवाद का प्रतीक है. दूल्हा पहले बग्गी पर जाता था. हाथीघोड़े की सवारी स्टेटस को भी दिखाता है. अब शाही बग्गियां खत्म सी हो गई हैं, क्योंकि उन की साजसज्जा और रखरखाव मुश्किल होता है. तो फिर हम घोड़ी पर आ गए.

पिछले कुछ सालों से दलितों ने भी बिंदोली प्रथा निभानी शुरू कर दी है, जिस का खुद दलितों में विरोध होने लगा है. केवल राजस्थान ही नहीं, बल्कि हरियाणा, उत्तर प्रदेश और दिल्ली के इलाकों में इस तरह के तमाम उदाहरण मिल जाते हैं.

राजस्थान में बाड़मेर जिले के मेली गांव में कुछ ऐसा ही हुआ. 2 दलित बहनों को घोड़ी पर बैठा कर बिंदोली की रस्म निभाई गई. शादी के 2 महीने के बाद ही घोड़ी पर बैठने का विवाद बढ़ने लगा. दरअसल, बिंदोली नाम की रस्म शादी के एक दिन पहले निभाई जाती है. इस में लड़कियां अपनी कुलदेवी के पूजन के लिए जाती हैं.

दलित लड़कियां दोहरे शोषण से गुजरती हैं. बाहर जाति की वजह से सताई जाती हैं और घरपरिवार और समाज में पितृसत्तात्मक सोच से सताई जाती हैं.

बाड़मेर में सिवानाकल्याणपुर सड़क पर बसा है मेली गांव. तकरीबन 4,000 आबादी वाले इस गांव में कोई 300 परिवार दलित मेघवाल समाज के हैं. इस गांव में पहली बार शादी से पहले लड़कियों को घोड़ी पर बैठाया गया.

इन बहनों की शादी के तकरीबन 2 महीने बाद मेघवाल समाज के 12 गांवों के पंचों की पंचायत हुई. दोनों बहनों को घोड़ी पर बैठाने के लिए परिवार पर 50,000 रुपए का जुर्माना लगाया गया. पैसा न देने पर उन्हें समाज से बाहर कर दिया गया.

पैसे से बदले हालात

जैसेजैसे गांवों में पढ़ाईलिखाई का प्रचारप्रसार हुआ और दलित तबके में पैसा आया, वैसेवैसे हालात बदलते दिखे. दलितों में अच्छी और पढ़ीलिखी लड़कियों की कमी है. ऐसे में कई बार पढ़ीलिखी लड़की के लिए अमीर घरों से अच्छे रिश्ते आ जाते हैं. वे भी चाहते हैं कि शादी नए रंगढंग में हो. अगर लड़की वाले गरीब हैं, तो लड़के वाले शादी के आयोजन में मदद भी कर देते हैं.

उत्तर प्रदेश में सीतापुर के रहने वाले रमेश कुमार की नौकरी लग गई थी. उसे शादी के लिए कविता नामक जो लड़की पसंद थी, वह अपनी जाति की थी, पर गरीब थी. ऐसे में रमेश और उस के परिवार ने पैसे से मदद कर के शादी कराई.

दलित लड़कियों की शादी में अब पुराने रीतिरिवाज बदलने लगे हैं. अब उन की शादियां भी ऊंची जाति की लड़कियों जैसी होती है. गांव में भी बरात, बैंडबाजा, मेहंदी, जयमाल और फेरे का रिवाज बढ़ गया है. अब न्योते के लिए कार्ड बंटने लगे हैं. डीजे पर डांस और बढ़िया दावत होने लगी है. शादी में दुलहन ही नहीं, बल्कि उस के परिवार का पहनावा भी बदलने लगा है. कपड़े सस्ते भले हों, पर फैशन के मुताबिक होने लगे हैं.

पढ़ीलिखी गरीब लड़कियों में अपनी ही जाति में काबिल लड़के कम मिलते हैं, जिस की वजह से वे गैरबिरादरी में शादियां करने लगी हैं. कुछ मामलो में अभी भी गैरबिरादरी में शादी करने पर जातीय पंचायतों या खाप पंचायतों का रोल देखने को मिलता है.

पढ़ाईलिखाई से बदली सोच

दलित लड़कियों में पढ़ाईलिखाई और शादी दोनों ही बदलाव दिखा रहे हैं. ये दोनों ही मुद्दे एकदूसरे से जुड़े हैं. दलितों में पैठी पुरानी सोच से लड़कियों की पढ़ाई और शादी दोनों का टकराव होने लगा है. दलितों में भी पितृसत्तात्मक सोच हावी है. वहां के मर्द किसी भी तरह से लड़कियों को पढ़ाईलिखाई और शादी में आजादी नहीं देना चाहते हैं.

दलितों में ज्यादा गरीबी होने के चलते लड़कियां पढ़ने में पिछड़ जाती हैं. ज्यादातर दलित परिवार अपनी रोजमर्रा की बुनियादी जरूरतें पूरी करने में ही परेशान रहते हैं. इस का सीधा दबाव लड़कियों पर पड़ता है.

लड़कियों के पास बाहर जा कर पढ़ाई करने का कोई औप्शन नहीं होता, जिस के चलते उन्हें घर में ही रह कर सारा काम संभालना होता है. इस के बाद बहुत ही कम लड़कियां आगे बढ़ पाती हैं.

गांव में टीचरों की तादाद में कमी और खराब माहौल के चलते लड़कियों में पढ़ाई को ले कर कोई खास जोश नहीं होता. साथ ही घर में रोजमर्रा के काम के दबाव के चलते लड़कियां पढ़ाई पर कम ध्यान दे पाती हैं.

घरपरिवार की सोच यह होती है कि लड़की के लिए घर में रह कर काम करना ही सही है, बाहर जाएगी तो दस लोगों से मिलेगीजुलेगी, घर में कलेश होगा और अगर कुछ उलटासीधा हो गया तो कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे.

शिक्षा मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि पहली से 12वीं जमात तक के दाखिले में दलित लड़कियों की तादाद ज्यादा होती है, पर ऊंची तालीम में वे पीछे हो जाती हैं. ऊंची तालीम हासिल करने वालों का राष्ट्रीय औसत 24.3 फीसदी है, जबकि दलितों में यह औसत 19.1 फीसदी है.

साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, भारत में पढ़ाईलिखाई के क्षेत्र में पुरुषों की साक्षरता दर 83.5 फीसदी रही और महिलाओं की साक्षरता दर 68.2 फीसदी रही, लेकिन अनुसूचित जाति में महिलाओं की साक्षरता दर केवल 56.5 फीसदी ही रही. वहीं अनुसूचित जनजाति में महिलाओं की साक्षरता दर 49.4 फीसदी रही.

तादाद में कम ही सही, पर अब हालात बदल रहे हैं. दलित लड़कियां भी सरकारी एग्जाम की तैयारी करने लगी हैं. कुछ लड़कियां तो गांव से शहरोें में जा कर कोचिंग भी करने लगी हैं. कई लड़कियां तो बड़े शहरी स्कूलों में पढ़ने भी लगी हैं.

जिन दलित परिवारों में रिजर्वेशन के तहत सरकारी नौकरी मिलने या राजनीति में आने के बाद पैसा आ गया है, उन की लड़कियों को ऊंची जाति के लोगों जैसे मौके मिलने लगे हैं. इस तरह की लड़कियां समाज के बाहर दूसरी जाति के लड़कों से भी शादी कर लेती हैं. ज्यादातर मामलों में परिवार इन की बात मान लेते हैं.

दूसरी जाति में शादी करने वाली ज्यादातर लड़कियां अपने शहर या गांव से दूर चली जाती हैं. वे अपनी पहचान भी छिपा लेती हैं. जिस जाति का पति होता है, उसी जाति की वे भी हो जाती हैं.

गैरबिरादरी में शादी करने वाली ज्यादातर दलित लड़कियां अतिपिछड़े वर्ग में शादी करती हैं. इस के बाद पिछड़े और मुसलिम समाज में ऐसे ब्याह ज्यादा होते हैं.

कमजोर लड़कियां हैं परेशान

गांव में रहने वाली गरीब दलित परिवारों में लड़कियां शादी कर के अपना घर संभाल रही हैं. ज्यादातर लड़कियों की शादी कम उम्र में ही शादी हो जाती है. इस की सब से बडी वजह दलित परिवारों में पुरानी सोच का होना है.

लड़कियों के साथ हिंसक बरताव, यौन हिंसा, जातिगत हिंसा और अलगअलग तरह के शोषण होना कोई नई बात नहीं है. उन्हें सताने वालों में अपनी ही जाति और परिवार के लोग भी शामिल होते है. इन में से बहुत कम ही मामले सामने आते हैं.

आमतौर पर लड़कियों और औरतों को डराधमका कर चुप करा दिया जाता है. ऐसी लड़कियां जब गैरबिरादरी में शादी करती हैं, तो उन्हें तमाम दिक्कतों का सामना करना पड़ता है.

उत्तर प्रदेश के इटावा सिविल लाइंस के विजयपुरा गांव की रहने वाली डिंपल का उन्नाव जिले में रहने वाले ऊंची जाति के दिवाकर शुक्ला से प्रेम हो गया. दिवाकर ब्राह्मण था. ऐसे में दलित जाति की डिंपल से उस का प्रेम घर वालों को पसंद नहीं था. इस के बाद भी जब उन दोनों ने शादी कर ली तो दिवाकर शुक्ला के घर वालों ने बेटे और बहू को घर से निकाल दिया.

घर में इज्जत न मिलने पर उस जोड़े ने पुलिस की मदद ली. महिला थानाध्यक्ष सुभद्रा वर्मा ने उन दोनों के परिवार वालों को बुलाया और समझाया. थानाध्यक्ष की बात उन्होंने मान ली और फिर महिला थाने के अंदर डिंपल और दिवाकर की हिंदू रीतिरिवाज के साथ शादी करा दी गई.

इंटरकास्ट शादी में सरकारी मदद

इंटरकास्ट शादी को बढ़ावा देने के लिए सरकार द्वारा एक योजना चलाई जाती है. इस योजना का नाम डाक्टर अंबेडकर फाउंडेशन है. इस सरकारी योजना के तहत नए शादीशुदा जोड़े को सरकार द्वारा पैसे की मदद दी जाती है, जिस से उन की माली हालत में बदलाव के साथसाथ सामाजिक सोच बदलने में भी मदद मिलती है.

डाक्टर अंबेडकर फाउंडेशन की इस योजना के तहत जो लोग इंटरकास्ट शादी करते हैं, उन्हें यह माली मदद दी जाती है. इस योजना को डाक्टर भीमराव अंबेडकर के नाम पर रखा गया है.

डाक्टर अंबेडकर फाउंडेशन योजना का फायदा लेने के लिए जरूरी है कि लड़की की उम्र कम से कम 18 साल और लड़के की उम्र कम से 21 साल हो. इस के साथ ही इन में से कोई एक दलित समुदाय से हो और दूसरा दलित समुदाय से बाहर का होना चाहिए.

इस के साथ लड़कालड़की ने अपनी शादी हिंदू मैरिज ऐक्ट 1955 के तहत रजिस्टर की हो. अगर दोनों दलित समुदाय के हैं या दोनों ही दलित समुदाय के नहीं हैं, तो उन्हें फायदा नहीं मिल सकता है.

इस योजना का फायदा केवल वे जोड़े उठा सकते हैं, जिन्होंने पहली शादी की है. पत्नी या पति में से किसी की भी दूसरी शादी होने पर आप इस योजना का फायदा नहीं उठा सकते हैं. अपनी शादी रजिस्टर करवा कर नएनवेले जोड़े को मैरिज सर्टिफिकेट जमा करना होगा. इस के बाद ही वह जोड़ा डाक्टर अंबेडकर फाउंडेशन के लिए अर्जी दे सकता है. इस योजना का फायदा शादी के एक साल के भीतर ही लिया जा सकता है.

बच्चों ! नशा ले लेता है जान

दक्षिण-पूर्व दिल्ली के बदरपुर इलाके में एक सरकारी स्कूल के आठवीं कक्षा के छात्र की उसके दो सहपाठियों ने कथित तौर पर पत्थर से कुचलकर हत्या कर दी और शव को नाले में फेंक दिया. वारदात की जानकारी पुलिस को मिली तो जांच शुरू हुई और सनसनीखेज जानकारियां सामने आई जिसमें नशा और अपराध एक दूसरे से साक्षेप रूप में पाए गए .

पुलिस ने हमारे संवाददाता को बताया कि मृतक छात्र की पहचान यहां मोलड़बंद गांव में बिलासपुर कैंप निवासी सौरभ (12 वर्ष) के तौर पर हुई है . शव 27 अप्रेल को खाटूश्याम पार्क और ताजपुर रोड गांव के बीच से मिला था और बालक ने स्कूल के वस्त्र पहने हुए थे.

पुलिस ने जांच के पश्चात पाया कि सिर्फ नशे के सामाजिक अपराध से बचने के लिए उसे छुपाने के लिए स्कूली छात्रों ने हत्या कर दी. पुलिस ने सौरभ की कक्षा में पढ़ने वाले दो किशोरों को पकड़ा है और उन्हें बाल सुधार गृह में भेज दिया गया है. पुलिस ने बताया जांच के दौरान, पता चला कि सौरभ ने दो किशोरों को स्कूल मैदान में (धुम्रपान) सिगरेट पीते हुए देखा था और शिक्षकों को यह बताने की बात कही  थी.  इसके बाद वे सौरभ को बहला-फुसलाकर सुनसान स्थान पर ले गए जहां उन्होंने उसके साथ मारपीट की, जिससे उसके सिर में गंभीर चोट भी आ गई और मृत्यु हो गई .

दक्षिण-पूर्व दिल्ली के पुलिस उपायुक्त (डीसीपी) राजेश देव ने बताया कि शव के पास एक तौलिया और खून लगे कुछ पत्थर भी मिले  दरअसल  सौरभ के सिर पर चोट के कई निशान पाये गये.  सौरभ अपने परिवार के साथ मोलरबंद गांव में रहता था. स्कूल से जब वह नहीं लौटा तो उसकी खोजबीन परिजनों ने शुरू कर दी और आखिरकार पुलिस को जानकारी मिली कि  खाटूश्याम पार्क के पास नाले में एक स्कूली बच्चे का शव पड़ा है.

पुलिस की एक टीम मौके पर पहुंची, जहां पुलिस को बच्चे का स्कूल बैग मिला, जिसमें किताब-कापी और अन्य सामान थे.पुलिस ने बताया कि भारतीय दंड संहिता की धारा 302 (हत्या) के तहत मामला दर्ज किया गया है. सौरभ की मां ने  बताया – गुरुवार शाम सात बजे तक जब उनका बेटा घर नहीं लौटा तो परिजनों ने उसकी तलाश शुरू की. उसने बताया, ‘मैंने अपने बेटे के दोस्तों से पूछताछ की तो उन्होंने कहा कि वह स्कूल से निकलते समय कतार में खड़ा था लेकिन उनके साथ नहीं गया. फिर मैंने उसके शिक्षक को फोन किया जिन्होंने कहा कि. सभी छात्र शाम साढ़े छह बजे के आसपास स्कूल से चले गए.

सौरभ की मां ने बताया, ‘आज सुबह हमें उसका शव देखने को मिला . स्कूलों में झांकी अनुशासन मुख्य रूप से सिखाया जाता है नशा पत्ती से दूर रहने का जहां माहौल होता है ऐसे में या घटना यह संदेश देती है कि अब बच्चों को और भी ज्यादा शिक्षित करने की और जागरूक करने की आवश्यकता है नशा ही है जो आने वाली पीढ़ी को अंधकार की ओर धकेल सकता है जिससे बच्चों को दूर रखने की आवश्यकता है.

पोंगापंथ : अंधविश्वास की चोटी पर चोट

देश के कुछ हिस्सों से औरतों की चोटी काटे जाने की अनगिनत घटनाएं सामने आ चुकी हैं. कहा जा रहा है कि पीड़ित लड़कियों और औरतों को रात में अचानक महसूस हुआ कि कोई उन का गला दबा रहा है, फिर वे बेहोश हो गईं. बाद में दूसरे लोगों ने देखा कि बिस्तर पर उन के बाल कटे पड़े थे.

इस तरह की घटनाएं राजस्थान के गांवों से शुरू हो कर हरियाणा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, दिल्ली और बिहार तक में फैलती गईं. कोई इसे ओझाओंतांत्रिकों की करतूत बता रहा था, तो कोई अनजानी ताकतों का प्रकोप.

आगरा में तो एक बूढ़ी औरत को चोटी काटने वाली डायन बता कर मार डाला गया. लोगों ने इस से बचने के लिए अपनेअपने घरों के दरवाजों पर हलदी और मेहंदी के छापे बनाए, साथ ही, नीम के डंठल लगाए.

अंधविश्वास की पायदान

सितंबर, 1995 की एक सुबह गणेश की मूर्ति के चम्मच से दूध पीने की खबर बहुत तेजी से फैली. असर यह हुआ कि देश के करोड़ों लोग मंदिरों में जा कर गणेश की मूर्ति को दूध पिलाने लगे.

साल 2001 में ‘मंकीमैन’ की अफवाह ने जोर पकड़ा था. दिल्ली में सैकड़ों लोगों पर मंकीमैन ने तथाकथित रूप से हमला किया था.

हालांकि लोगों ने दावा किया था कि उन्होंने मंकीमैन को दौड़तेभागते और छतों को लांघते दूर से देखा था. बाद में बीबीसी हिंदी की रिपोर्ट के मुताबिक, यह पूरा मामला अफवाह साबित हुआ था.

साल 2002 में उत्तर प्रदेश में मुंहनोचवा का खौफ फैला हुआ था. कहा जा रहा था कि एक आदमी, जिस का मुंह जानवर जैसा है, लोगों के मुंह नोच कर चला जाता है और जिस के भी मुंह पर वह हमला करता है, उस के ऐसे जख्म हो जाते हैं, जो कभी ठीक नहीं होते. पुलिस प्रशासन इसे अफवाह करार देता रहा और लोगों को समझाता रहा.

साल 2006 में एक दिन अचानक हजारों लोग मुंबई के एक समुद्र तट पर जुटने लगे. मोबाइल से ले कर ईमेल के जरीए लोगों तक यह खबर पहुंचने लगी कि समुद्र का पानी मीठा हो गया है और भीड़ इस मीठे पानी का स्वाद चखने और भर कर ले जाने के लिए उमड़ पड़ी. यह भी अफवाह का एक पहलू था.

साल 2016 में नोटबंदी के दौरान अचानक यह खबर उड़ने लगी थी कि बाजार से नमक खत्म हो रहा है. इस के लिए कहा गया कि नमक की किल्लत हो गई है और यह जल्द ही एक हजार रुपए किलो में मिलेगा. हो सकता है कि यह मिलना ही बंद हो जाए.

यह अफवाह उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा तक फैली. अफवाह के बाद दुकानों पर नमक खरीदने वालों की लंबी लाइनें लग गईं, जबकि असल में ऐसी कोई किल्लत नहीं थी.

चोटी का मामला चोटी पर

हाल ही में देश के बहुत से इलाकों में औरतों के कटे बाल मिलने के मामले सामने आए, जिस ने दहशत का माहौल पैदा कर दिया. आखिर कौन काट रहा था औरतों के बाल?

बाड़मेर की इस वारदात के बाद तो राजस्थान के ही नागौर, बीकानेर, जैसलमेर समेत पश्चिमी राजस्थान यानी मारवाड़ के कई इलाकों से ऐसे तमाम किस्सेकहानियों और अफवाहों की झड़ी सी लग गई थी.

इस के बाद हरियाणा के झज्जर, मेवात, रोहतक वगैरह जिले के गांवों में औरतों की चोटी काटने की घटनाएं हुईं. धीरेधीरे चोटी काटने की घटनाएं गुरुग्राम के आसपास के गांवों में भी होने लगीं.

हरियाणा में गुरुग्राम के भीमगढ़ इलाके की 53 साला सुनीता देवी ने कहा, ‘‘एक तेज रोशनी से मैं बेहोश हो गई. एक घंटे बाद मुझे पता चला कि मेरे बाल काट लिए गए थे.’’

अफवाह फैलाई जा रही थी कि पहले औरतों के सिर में तेज दर्द होता है, फिर वे बेहोश हो जाती हैं और तब उन की चोटी काट दी जाती है.

औरतों के मुताबिक, यह कोई बुरी आत्मा थी, जिस की नजर उन के बालों पर थी. इस तथाकथित आत्मा से बचने के लिए कहीं लड़कियां अपनी चोटी में नीबूमिर्च लटका रही थीं, तो कहीं पैरों में महावर लगा रही थीं. घरों की दीवारों पर हाथों के हलदी और गेरू से छापे लगाए जा रहे थे. औरतें डर के मारे सिर पर कपड़ा बांध कर सो रही थीं.

किसी औरत ने कहा कि वह कुत्ता देखने के बाद बेहोश हुई, तो किसी ने कहा कि उसे किसी ने अंधेरे में धक्का दिया, जिस के चलते वह गिर पड़ी और बेहोश हो गई. जो बात समान रूप से सही थी, वह यह थी कि चोटी काटे जाने से पहले पीडि़त औरत का बेहोश होना.

हालांकि फिलहाल दावे के साथ यह नहीं कहा जा सकता कि यही सच था. एक बात यह भी समझने की थी कि जिन औरतों की चोटी कटने की बातें सामने आईं, वे बेहद गरीब और अनपढ़ थीं.

मौजूदा दौर में इस तरह की घटनाएं हमारी तरक्की पर सवालिया निशान लगाती हैं. आज भी नरबलि और डायन हत्या जैसी घटनाएं घट रही हैं.

पिछले साल झारखंड में 5 औरतों की डायन बता कर हत्या कर दी गई थी. वहीं उत्तर प्रदेश के सीतापुर इलाके में एक परिवार ने तांत्रिक की सलाह पर अपनी ही बच्ची की बलि चढ़ा दी थी.

पुलिस ने इन मामलों की जांच की, लेकिन न तो कुछ सुराग मिला और न ही कोई चश्मदीद गवाह. ऐसे में चोटी कटने की घटनाओं को ले कर यह तय होना मुश्किल हो पा रहा था कि ये पूरी तरह से कोरी अफवाह हैं और अपराधियों का कोई ऐसा गैंग नहीं है या फिर यह वाकई एक सोचीसमझी खुराफाती साजिश के तहत किया जा रहा है.

सवाल यह भी है कि अगर इस के पीछे किसी गैंग का हाथ था, तो वह ऐसा क्यों कर रहा था?

गुरुग्राम की एक घटना के मुताबिक, आशा देवी के ससुर सूरज पाल ने बताया कि एक रात आशा देवी के बाल कट जाने के बाद उन्होंने आशा और घर की दूसरी औरतों को उत्तर प्रदेश में एक रिश्तेदार के घर पर भेज दिया था. इस हमले के बाद वे डरी हुई थीं. उन्हें कुछ हफ्तों के लिए घर से दूर रहने को कहा गया था.

सूरज पाल ने कहा कि उस दिन वे घर पर थे, जबकि आशा देवी रात के 10 बजे किसी काम से घर के बाहर थीं. जब वे आधा घंटे तक नहीं लौटीं, तब वे उन्हें ढूंढ़ने निकले. ढूंढ़ने पर बाथरूम में वे बेहोश पड़ी मिलीं. उन के सिर के कटे बाल जमीन पर बिखरे पड़े थे.

तकरीबन एक घंटे बाद होश में आने पर आशा देवी ने बताया कि उन पर किसी औरत ने हमला किया था. सबकुछ केवल 10 सैकंड में ही हो गया.

इसी तरह के कुछ मामले गुरुग्राम से 70 किलोमीटर दूर रेवाड़ी जिले के देहात के इलाकों में भी देखे थे.

गुरुग्राम में ही एक औरत ने यह बताया कि उस ने एक बिल्ली की आकृति को अपने ऊपर हमला करते देखा और पाया कि उस के बाल कट गए, जो कि नामुमकिन सा लगता है.

इसी तरह एक और पीडि़त औरत का कहना था, ‘‘मैं पड़ोसी के घर जा रही थी, जब किसी ने पीछे से मेरे कंधे को थपथपाया. मैं पीछे मुड़ी, तो कोई नहीं था. इस के बाद क्या हुआ, मुझे कुछ याद नहीं. बस अपनी चोटी कटी हुई पाई.’’

विज्ञान के हवाले से अगर हम मानवशास्त्र के वैज्ञानिक पक्ष के हवाले से कहें, तो मास हिस्टीरिया इनसानी जिंदगी का एक कड़वा सच है, जो विकसित समाज में भी देखा जाता है.

19वीं सदी के आखिर में लंदन में ‘जैक: द रिपर’ नामक एक सीरियल किलर की दहशत छाई रही, जो कुछ समय बाद खुद ब खुद खत्म हो गई.

दरअसल, हमारे अचेतन मन में न जाने क्याक्या चीजें चलती रहती हैं. ऐसे में किसी भी बेतुकी हरकत पर बहुत सारे लोग एकसाथ चर्चा करने लगें, तो वह मास हिस्टीरिया में बदल जाती है. इस की जद में आ कर कई लोग जो सुनते हैं, वही करने लग जाते हैं.

मनोवैज्ञानिक इस को सामूहिक उन्माद या सामूहिक विभ्रम बताते हैं. इस नजरिए से भी जांच की जरूरत है कि कहीं कोई अंधविश्वासी समूह या संगठन तो इस के पीछे नहीं है, जिस का कि कोई फायदा छिपा हो?

लगातार फैल रही इस अफवाह के खिलाफ हरियाणा और पंजाब में काम करने वाली तर्कशील सोसाइटी सामने आई. इस सोसाइटी ने ऐलान किया है कि अगर चोटी कटने की घटना के पीछे कोई भूतप्रेत या दैवीय ताकत का हाथ साबित कर दे, तो उसे एक करोड़ रुपए का इनाम दिया जाएगा.

मुमकिन है कि चोटी काटने का मामला किसी आत्मा व डायन से जुड़ा हुआ न हो कर, बल्कि कुछ असामाजिक तत्त्वों की मिलीजुली चाल हो, जो अंधविश्वास फैला कर अपना पुश्तैनी धंधा, जो मंदा हो चला है, पटरी पर लाने के लिए लोगों को समयसमय पर इस तरह परेशान कर अंधविश्वास के पौधे को हराभरा रखना चाहता हो, जिस से कि समाज पर उन की बादशाहत बनी रहे.

कई लोग इस अंधविश्वास की आड़ में पुरानी दुश्मनी भी साधते हैं. बहुत साल पहले मुंहनोचवा का भी खौफ इसी तरह फैला था. वह भी हमारे आसपास रहने वाले कुछ लोगों की ही करतूत थी.

हल है आसान

यह दुख की बात है कि हमारी सरकारें एक तरफ तो वैज्ञानिक सोच बढ़ाने का दम भरती हैं, वहीं दूसरी तरफ आज भी अखबारों, टैलीविजन चैनलों से ले कर सड़कों, चौराहों, गलियों में तांत्रिकोंओझाओं के बड़ेबड़े इश्तिहार छाए रहते हैं. इन में मनचाहा प्रेम विवाह कराने, गृहक्लेश से मुक्ति दिलाने, सौतन का नाश करने, शत्रुमर्दन, गड़े धन की प्राप्ति जैसे तमाम दावे किए जाते हैं. अशिक्षा और परेशानियों में जकड़े हुए लोग इन के पास राहत पाने जाते हैं और ठगी के शिकार होते हैं.

सरकार हो या समाज, सभी को मिल कर यह सोचने की जरूरत है कि आखिर कब तक हमारा समाज इस तरह की मुसीबतों में फंसता रहेगा?

\ऐसे लोगों की धरपकड़ खुद समाज ही कर सकता है. पुलिस को आमजन को सतर्क करना चाहिए. अफवाहों के सिरपैर नहीं होते. उन की काया नहीं होती, जिसे पुलिस पकड़ सके. हां, उसे प्रभावित इलाकों में लगातार गश्त और छोटीछोटी महल्ला स्तरीय सजगता बैठकें करनी चाहिए, ताकि बदमाशों में डर बना रहे.

ऐसे ही मौकों पर सिविल डिफैंस के कार्यकर्ता काम आते हैं. एनजीओ को सक्रिय किया जा सकता है. यह समस्या अफवाहों की देन है, इसलिए उन्हें ही काबू करने की कोशिश होनी चाहिए.

सतर्कता और समझदारी से जिस तरह मुंहनोचवा का खौफ खत्म हुआ, वैसे ही चोटी कटवा की अफवाहों को भी सब को मिलजुल कर खत्म करना होगा.

बड़ी औरतों के शिकार कम उम्र के लड़के

योगिता 48 साल की एक बेहद खूबसूरत औरत है. उस का चेहरा देख कर कोई भी उस की असली उम्र का अंदाजा नहीं लगा सकता. अपने पति हरीश की अचानक हुई मौत के बाद से योगिता उस का पूरा कारोबार खुद ही संभाल रही है. कारोबार में योगिता को कोई बेवकूफ नहीं बना सकता. लेकिन उस में एक खास कमजोरी है, कम उम्र के लड़कों से दोस्ती करना. अपने स्टाफ में योगिता ज्यादातर 20 से 25 साल की उम्र के स्मार्ट व खूबसूरत कुंआरों को ही रखती है.

योगिता इस बारे में कहती है कि ऐसे लड़के जोशीले होते हैं. वे ज्यादा मेहनत से काम करते हैं और ईमानदार भी होते हैं. लेकिन खुद उस के स्टाफ के ही लोग दबी जबान में कुछ और ही कहते हैं. इन लोगों का मानना है कि योगिता आजाद तबीयत की औरत है और उसे अलगअलग मर्दों के साथ बिस्तरबाजी करने की आदत है.

इसी तरह नीलम एक मध्यवर्गीय औरत है. उस की उम्र 36 साल है और उस की शादी को तकरीबन 10 साल हो चुके हैं. वह 2 बच्चों की मां भी बन चुकी है, लेकिन अपनी भोली शक्लसूरत के चलते वह अभी भी काफी जवान व खूबसूरत नजर आती है.

नीलम के पति रमेश की पोस्टिंग दूसरे शहर में है, जहां से वह महीने में 1-2 बार ही घर आ पाता है. नीलम और दोनों बच्चे चूंकि घर में अकेले रहते थे, इसलिए रमेश ने एक 19 साल के लड़के सुनील को एक कमरा किराए पर दे दिया. वह स्नातक की पढ़ाई करने के लिए गांव से शहर आया था.

पति की गैरहाजिरी में नीलम अपना ज्यादातर समय सुनील के साथ ही गुजारने लगी. एक रात नीलम की जिस्मानी प्यास इस हद तक बढ़ गई कि उस ने बच्चों के सो जाने के बाद सुनील को अपने कमरे में ही बुला लिया.

सुनील कुछ देर तक तो झिझकता रहा, लेकिन नीलम के मस्त हावभाव आखिरकार उसे पिघलाने में कामयाब हो ही गए. फिर नीलम ने अपना बदन सुनील को सौंप दिया.

इस के बाद तो वे दोनों आएदिन मौका निकाल कर एकदूसरे के साथ सोने लगे. काफी दिनों तक यह सिलसिला चलता रहा, पर सुनील की असावधानी से उन का भांड़ा फूट गया. फिर तो सुनील को काफी बेइज्जत हो कर उस मकान से निकलना पड़ा.

दिनेश ने अपने घर में काम करने के लिए एक 18 साल का पहाड़ी नौकर रामू रखा हुआ था. लेकिन उस के काम से दिनेश खुश नहीं थे. रामू न केवल काम से जी चुराता था, बल्कि दिनेश ने 2-3 बार उसे अपने घर की छोटीमोटी चीजें चुराते हुए भी पकड़ा था.

दिनेश उसे निकालने की सोच रहे थे, लेकिन उस की पत्नी हेमलता ने रोक दिया. आखिरकार एक दिन दफ्तर में अचानक तबीयत खराब होने के चलते दिनेश दोपहर में ही घर आ गया. घर आ कर उस ने अपनी 34 साला बीवी हेमलता को बिना कपड़ों के बिस्तर पर नौकर के साथ सोए हुए देख लिया.

दरअसल, हेमलता दिनेश की दूसरी बीवी थी. अधिक उम्र के पति से जिस्मानी संतुष्टि न मिल पाने के चलते हेमलता ने अपने कम उम्र, लेकिन शरीर से तगड़े नौकर को ही अपना आशिक बना लिया था.

इस तरह की तमाम घटनाएं हमारे समाज की एक कड़वी सचाई बन चुकी हैं, जिस से इनकार नहीं किया जा सकता.

कौन हैं ऐसी औरतें

 अपनी जिस्मानी जरूरतें पूरी करने के लिए ऐसे लड़कों को अपना शिकार बनाने वाली इन औरतों में समाज के हर तबके की औरतें शामिल हैं. इन में एक काफी बड़ा तबका माली रूप से अमीर और ज्यादा पढ़ीलिखी औरतों का है. ऐसी औरतें अपनी जिंदगी को अपनी मरजी से ही गुजारना चाहती हैं.

दूसरी बात यह भी है कि माली रूप से आत्मनिर्भर हो जाने के बाद लड़कियों में अपनी एक अलग सोच पैदा हो जाती है और वे शादी नामक संस्था को फालतू मानने लगती हैं.

जब सारी जरूरतें बगैर शादी किए ही पूरी होने लगें, तो फिर कोई खुद को एक बंधन में क्यों उलझाना चाहेगा? इस के अलावा ऐसी औरतें जवान लड़कों से संबंध कायम करने में सब से आगे हैं, जिन के पतियों के पास धनदौलत की तो कमी नहीं है. लेकिन अपनी बीवियों के लिए समय की कमी है.

इन दोनों के अलावा एक तबका ऐसा भी है, जो कि खुद पहल कर के लड़कों को अपने प्रेमजाल में फंसाने की कोशिश करता है. ये वे औरतें हैं, जो कि किसी मजबूरी के चलते आदमी के साथ का सुख नहीं पातीं.

परिवार में पैसे की कमी के चलते या ऐसी ही किसी दूसरी मजबूरी के चलते जिन लड़कियों की शादी समय से नहीं हो पाती और शरीर की भूख से परेशान हो कर जो मजबूरन किसी आदमी के साथ संबंध बना लेती हैं, उन्हें भी इसी तबके में रखा जा सकता है.

कम उम्र ही क्यों

यह एक सचाई है कि अगर कोई औरत खासकर वह 30-32 साल से ऊपर की है, अपनी इच्छा से किसी पराए मर्द से संबंध बनाने की पहल करती है, तो उस के पीछे खास मकसद जिस्मानी जरूरतों को पूरा करना होता है.

हकीकत यही है कि एक 30-35 साल की खेलीखाई और अनुभवी औरत को पूरा सूख अपने हमउम्र मर्द के साथ ही मिल सकता?है, जिसे बिस्तर के खेल का पूरा अनुभव हो. लेकिन कई औरतें ऐसी भी होती हैं, जो कि अनुभव व सलीके के बजाय केवल तेजी और जोशीलेपन पर कुरबान होती हैं.

स्टेटस सिंबल के लिए

 भारतीय समाज काफी तेजी से बदल रहा है. कभी अमीर लोग खूबसूरत लड़कियों को रखैल बना कर रखते थे, उसी तर्ज पर आजकल अमीर औरतों के बीच सेहतमंद जवान मर्द को बौडीगार्ड के रूप में रखना शान समझा जाने लगा है.

लेकिन वजह चाहे कोई भी हो, अपनी उम्र से छोटे लड़कों के साथ दोस्ती करना और उन के बदन का सुख लूटना ऊपरी तौर पर कितना भी मजेदार नजर आए, लेकिन हकीकत में यह बेहद खतरनाक है.

फेसबुक के देशी नुसखों से रहें सावधान

पिछले दिनों मेरे पास एक युवक को ले कर उस की मां आई थी. युवक भयानक उलटी और दस्त से ग्रस्त था. जब उस से ‘रात क्या खाया था’ पूछा गया तो वह लगातार बात को छिपाने की कोशिश करता रहा.

जब मैं ने उस से कहा कि यदि आप अपने खानेपीने के बारे में सहीसही नहीं बताएंगे तो इलाज कैसे संभव होगा? तब उस ने झिझकते हुए कहा, ‘‘शाम को मैं ने फेसबुक पर एक देसी नुसखा पढ़ा था.’’

‘‘किस चीज का?’’

‘‘जोश ताकत का,’’ शरमाते हुए उस ने बताया.

‘‘क्या खाया था?’’

‘‘कमल के बीजों को पीस कर उस में लहसुन मिला कर खाया था, खाने के एक घंटे बाद ही तबीयत खराब होने लगी थी,’’ उस ने बताया. मैं ने उस को सेलाइन चढ़ाई और आवश्यक दवाएं दीं. 2 दिनों बाद उस की हालत ठीक हुई.

ऐसे एक दर्जन से अधिक मरीज मेरे पास फालतू चीजें खा कर इलाज के लिए आ चुके हैं. इन में महिलाएं और वृद्घ भी हैं. सोशल साइट्स पर इन दिनों बहुत सी गंभीर बीमारियों के इलाज और मनगढंत परिणामों का उल्लेख मिल जाएगा, जैसे शुगर की बीमारी से मिनटों में आराम, मोटापे में शर्तिया फायदा, घुटनों के दर्द में एक सप्ताह में आराम वगैरा. इस के साथ ही जो इन साइट्स पर देसी दवाओं का उल्लेख करता है वह बाकायदा अपने अनुभवों का विस्तृत वर्णन करता है जिस से पढ़ने वाले या रोगग्रस्त व्यक्ति उन गलत बातों पर विश्वास कर लेते हैं.

पिछले दिनों हृदय रोग में पीपल के पत्तों के काढ़े से हार्ट सर्जरी से मुक्ति की पोस्ट बहुत चर्चित हुई थी. वहीं शुगर की बीमारी में गोंद, अलसी और जामुन के बीजों के मिश्रण को सुबह व रात को पीने की बात कही गई थी. मरता क्या न करता, जो इन बीमारियों से ग्रस्त हैं और ढेर सारे रुपए को फूंक चुके हैं वे तुरंत इन नुसखों को अपना कर अपनी बीमारियों को तो बढ़ाते ही हैं, साथ ही अन्य बीमारियों से ग्रस्त भी हो जाते हैं. ऐसे में जरूरी है कि यदि आप ऐसी मनगढ़ंत दवाओं के विषय में फेसबुक पर देखें तो उसे तुरंत हटा दें न कि शेयर कर के और लोगों तक गलत बातों को पहुंचाने में मदद करें.

आजकल सोशल साइट्स का उपयोग अंधविश्वास को फैलाने में भी होने लगा है. साइट्स में कहा जाता है कि इस देवीदेवता की तसवीरों को शेयर करें तो आप की बीमारी दूर हो जाएगी वरना आप और अधिक बीमार हो जाएंगे. ऐसी स्थिति में घबरा कर कमजोर मानसिकता के व्यक्ति ऐसी पोस्ट को शेयर कर देते हैं, और अनजाने ही, ऐसे अंधविश्वास को फैलाने में सहयोगी हो जाते हैं.

फेसबुक पर दुबले होने के लिए भी बहुत से नुसखे होते हैं जो आप को दुष्परिणाम दे सकते हैं. इन दिनों फेसबुक पर एक और पोस्ट आ रही है, ‘निसंतान दंपती यदि अमुक अमुक टोटका कर के इन अमुक दवाओं का सेवन करेंगे तो जरूर बच्चा पैदा हो जाएगा.’

यह पोस्ट देख कर तुरंत महिलाओं के दिमाग में अपनी उन एक दर्जन सहेलियों, रिश्तेदारों के नाम याद आ जाते हैं जो निसंतान हैं और वे उसे यह पोस्ट शेयर कर के बाकायदा फोन कर के कहती भी हैं कि इसे अमल में लाओ. परिणाम स्वरूप गलत नुसखों का प्रचारप्रसार करने में आप अनचाहे ही सहयोगी हो जाते हैं. ऐसी किसी भी पोस्ट को तुरंत अपनी फेसबुक से हटा देना ही बेहतर होगा ताकि आप इस बहाने समाज में गलत बातों के प्रचार प्रसार में सहयोगी न बन सकें. इसलिए ऐसी बातों का खुल कर विरोध करें और उस नुसखे के नीचे किसी भी तरह का उपयोग नहीं करने का अपना मैसेज भी टाइप कर दें ताकि जिस ने वह पोस्ट किया है उस तक आप की बात पहुंच सके.

सोशल मीडिया पर बताई गई दवाओं या मनगढंत दवाओं के विषय में बातों को आगे न बढ़ाएं. अपनी बीमारी के विषय में अपने चिकित्सक से सलाह लिए बिना कोई भी दवा या देशी नुसखों का उपयोग न करें. वरना आप को स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है.

मैच्योर सैक्सी पड़ोसन, सोच कर रिस्क लें

वेदराम बेहद सीधासादा और मेहनती युवक था. वह उत्तर प्रदेश के जिला फिरोजाबाद के एक चूड़ी कारखाने में काम करता था, जबकि उस के बीवीबच्चे कासगंज जिले के नगला लालजीतगंज में रहते थे. यह वेदराम का पैतृक गांव था. वहीं पर उस का भाई मिट्ठूलाल भी परिवार के साथ रहता था.

जिला कासगंज के ही थाना सहावर का एक गांव है बीनपुर कलां. यहीं के रहने वाले आलम सिंह का बेटा नेकसे अकसर नगला लालजीतगंज में अपनी बुआ के घर आताजाता रहता था. उस की बुआ की शादी वेदराम के भाई मिट्ठूलाल के साथ हुई थी.

वेदराम की पत्नी सुनीता पति की गैरमौजूदगी में भी घर की जिम्मेदारी  ठीकठाक निभा रही थी. वह अपनी बड़ी बेटी की शादी कर चुकी थी. जिंदगी ने कब करवट ले ली, वेदराम को पता ही नहीं चला. पिछले कुछ समय से वेदराम जब भी छुट्टी पर घर जाता था, उसे पत्नी सुनीता के मिजाज में बदलाव देखने को मिलता था. उसे अकसर अपने घर में नेकसे भी बैठा मिलता था.

नेकसे हालांकि उस के भाई मिट्ठूलाल की पत्नी का भतीजा था, फिर भी वह यही सोचता था कि आखिर यह उस के घर में क्यों डेरा डाले रहता है. उस ने एकदो बार नेकसे को टोका भी कि बुआ के घर पड़े रहने से अच्छा है वह कोई कामकाज देखे. सुनीता ने भी नेकसे पर कोई ज्यादा ध्यान नहीं दिया था, लेकिन वह जब भी आता था, वह उस की खूब मेहमाननवाजी करती थी. नेकसे के मन में क्या था, यह सुनीता को पता नहीं था. एक दिन नेकसे दोपहर में उस के घर आया और चारपाई पर बैठ कर इधरउधर की बातें करने लगा. अचानक वह उस के पास आ कर बोला, ‘‘बुआ, तुम जानती हो कि तुम कितनी सुंदर हो?’’

नेकसे की इस बात पर पहले तो सुनीता चौंकी, उस के बाद हंसती हुई बोली, ‘‘मजाक अच्छा कर लेते हो.’’

‘‘नहीं बुआ, ये मजाक नहीं है. तुम मुझे सचमुच बहुत अच्छी लगती हो. तुम्हें देखने को दिल चाहता है, तभी तो मैं तुम्हारे यहां आता हूं.’’ नेकसे ने हंसते हुए कहा.

नेकसे की बातें सुन कर सुनीता के माथे पर बल पड़ गए. उस ने कहा, ‘‘तुम यह क्या कह रहे हो, क्या मतलब है तुम्हारा?’’

‘‘कुछ नहीं बुआ, तुम बैठो और यह बताओ कि फूफाजी कब आएंगे?’’ उस ने पूछा.

‘‘उन्हें छुट्टी कहां मिलती है. तुम सब कुछ जानते तो हो, फिर भी पूछ रहे हो?’’ सुनीता ने थोड़ा रोष में कहा.

‘‘तुम्हारे ऊपर दया आती है बुआ, फूफाजी को तो तुम्हारी फिक्र ही नहीं है. अगर उन्हें फिक्र होती तो इतने दिनों बाद घर न आते. वह चाहते तो गांव में ही कोई काम कर सकते थे.’’ यह कह कर नेकसे ने जैसे सुनीता की दुखती रग पर हाथ रख दिया था.

इस के बाद सुनीता के करीब आ कर वह उस का हाथ पकड़ते हुए बोला, ‘‘बुआ, अब तुम चिंता मत करो, सब कुछ ठीक हो जाएगा.’’

इतना कह कर नेकसे तो चला गया, लेकिन सुनीता के मन में कई सवाल छोड़ गया. वह सोचने लगी कि आखिर नेकसे का उस के यहां आनेजाने का मकसद क्या है? 28 साल का नेकसे देखने में ठीकठाक था. वह अविवाहित था. और अपने गांव के एक ईंट भट्ठे पर काम करता था. तनख्वाह तो ज्यादा नहीं थी, पर वहां उसे अच्छी कमाई हो जाती थी. बुआ के यहां आतेआते उस का दिल बुआ की देवरानी सुनीता पर आ गया था.

सुनीता पति की दूरी से बहुत परेशान थी. इसी का बहाना बना कर उस ने उस के दिल में जगह बनानी शुरू कर दी थी. रिश्ते की नजदीकियां रास्ते में बाधक थीं. नेकसे को इस बात का भी डर लग रहा था कि अगर सुनीता को बुरा लग गया तो परिवार में तूफान आ जाएगा. उस दिन नेकसे के जाने के बाद सुनीता देर तक उसी के बारे में सोचती रही कि आखिर नेकसे चाहता क्या है. उस रात सुनीता को देर तक नींद नहीं आई. नेकसे की बातचीत का अंदाज मन मोहने वाला था, लेकिन सुनीता उम्र और रिश्ते में नेकसे से बड़ी थी. मन में पति के प्रति गुस्सा भी आया, क्योंकि पति से दूरी के कारण ही उस का मन डगमगा रहा था.

उस ने तय कर लिया कि इस बार जब पति घर आएगा तो वह उस से कहेगी कि या तो वह गांव में रह कर कोई काम करे या फिर उसे भी अपने साथ ले चले.

कुछ दिनों बाद वेदराम छुट्टी पर आया तो सुनीता ने कहा, ‘‘देखो, तुम्हारे बिना मेरा यहां बिलकुल भी मन नहीं लगता. या तो तुम यहीं कोई काम कर लो या फिर मैं भी बच्चों को ले कर फिरोजाबाद चल कर तुम्हारे साथ रहूंगी.’’

पत्नी की बात सुन कर वेदराम बोला, ‘‘लगता है, तुम पगला गई हो. तुम अपनी उम्र तो देखो. बच्चे बड़े हो रहे हैं और तुम्हें रोमांस सूझ रहा है.’’

‘‘तो क्या अब मैं बूढ़ी हो गई हूं?’’ सुनीता ने कहा.

‘‘नहीं…नहीं, ऐसा नहीं है. पर सुनीता यह मेरी मजबूरी है. मेरी तनख्वाह इतनी नहीं कि वहां किराए पर कमरा ले कर तुम्हें साथ रख सकूं. और तुम क्या सोच रही हो कि वहां मैं खुश हूं. नहीं, तुम्हारे बिना मैं भी कम परेशान नहीं हूं.’’

पति के जवाब पर सुनीता कुछ नहीं बोली. वेदराम 3 दिनों तक घर पर रहा, तब तक सुनीता काफी खुश रही. पर पति के जाने के बाद उस के जिस्म की भूख फिर सिर उठाने लगी. वह उदास हो गई. तब उस के दिलोदिमाग में नेकसे घूमने लगा. वह उस से मिलने को उतावली हो उठी. इतना ही नहीं, वह अपनी जेठानी के घर जा कर बोली, ‘‘दीदी, नेकसे आया नहीं क्या?’’

जेठानी ने कहा, ‘‘आया तो था, पर जल्दी में था. क्यों, कोई काम है क्या?’’

‘‘नहीं, मैं ने तो यूं ही पूछ लिया.’’ उदास मन से सुनीता वापस आने को हुई, तभी जेठानी ने कहा, ‘‘शायद वह कल आएगा.’’

जेठानी की बात सुन कर सुनीता का दिल बल्लियों उछलने लगा. उसे लग रहा था कि नेकसे उस से नाराज है, तभी तो वह उस के घर नहीं आया. अगले दिन अचानक उस के दरवाजे पर दस्तक हुई. उस ने दरवाजा खोला, सामने नेकसे खड़ा था.

‘‘तुम?’’ उसे देख कर सुनीता हैरानी से बोली.

‘‘हां, मैं ही हूं बुआ, लेकिन तुम मुझे देख कर इतना हैरान क्यों हो? बड़ी बुआ ने बताया कि तुम मुझे याद कर रही थीं, सो मैं आ गया. अब बताओ, क्या कहना है?’’ नेकसे ने घर में दाखिल होते हुए कहा.

सुनीता ने मुख्यद्वार बंद किया और अंदर आ कर नेकसे से बातें करने लगी. कुछ देर में सुनीता 2 गिलासों में चाय ले कर आई तो नेकसे ने पूछा, ‘‘फूफा आए थे क्या?’’

‘‘हां, आए तो थे, लेकिन 3 दिन रह कर चले गए.’’ सुनीता बेमन से बोली.

नेकसे को लगा कि वह फूफा से खुश नहीं है. उस ने मौके का फायदा उठाते हुए कहा, ‘‘बुआ, मैं कुछ कहना चाहता हूं, पर डर लगता है कि कहीं तुम बुरा न मान जाओ.’’

‘‘नहीं, तुम बताओ क्या बात है?’’

‘‘बुआ, सच तो यह है कि तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो और मैं तुम से प्यार करने लगा हूं.’’ नेकसे ने एक ही झटके में मन की बात कह दी.

नेकसे की बात पर सुनीता भड़क उठी, ‘‘क्या मतलब है तुम्हारा? और हां, प्यार का मतलब जानते हो? अपनी और मेरी उम्र में फर्क देखा है. मैं रिश्ते में तुम्हारी बुआ लगती हूं.’’

‘‘हां, लेकिन इस दिल का क्या करूं, जो तुम पर आ गया है. अब तो दिलोदिमाग पर हमेशा तुम ही छाई रहती हो.’’ नेकसे ने कहा.

‘‘लगता है, तुम पागल हो गए हो. जरा सोचो, अगर घर वालों को यह सब पता चल गया तो मेरा क्या हाल होगा?’’ सुनीता ने कहा.

नेकसे चारपाई से उठा और सुनीता के पास जा कर उस के गले में बांहें डाल दीं. सुनीता ने इस का कोई विरोध नहीं किया. इस से नेकसे की हिम्मत बढ़ गई. इस के बाद सुनीता भी खुद को नहीं रोक सकी तो मर्यादा भंग हो गई. जोश उतरने पर जब होश आया तो दोनों में से किसी के भी मन में पछतावा नहीं था.

सुनीता को अपना मोबाइल नंबर दे कर और फिर आने का वादा कर के नेकसे चला गया. उस दिन के बाद सुनीता की तो जैसे दुनिया ही बदल गई. पर कभीकभी उसे डर भी लगता था कि अगर भेद खुल गया तो क्या होगा. अब नेकसे का आनाजाना लगा रहने लगा. इसी बीच एक दिन वेदराम अचानक घर आ गया. उस की तबीयत खराब थी. पर उस समय घर पर नेकसे नहीं था. सुनीता डर गई कि कहीं पति की मौजूदगी में नेकसे न आ जाए, इसलिए उस ने नेकसे को फोन कर के सतर्क कर दिया. हफ्ते भर बाद वेदराम चला तो गया, पर सुनीता के मन में डर सा समा गया.

पड़ोसियों को सुनीता के घर नेकसे का आनाजाना अखरने लगा था. आखिर एक दिन पड़ोसन ने सुनीता को टोक ही दिया, ‘‘जवान लड़के का इस तरह घर आनाजाना ठीक नहीं है. अपनी जवान बेटी का कुछ तो खयाल करो.’’

सुनीता तमक कर बोली, ‘‘अपने घर का खयाल मैं खुद रख लूंगी. तुम हमारी फिक्र मत करो.’’

नेकसे उस के यहां बेखौफ और बिना रोकटोक आताजाता था. पड़ोसियों के मन में भी शक के बीज पड़ चुके थे. एक दिन जब वेदराम घर आया तो एक पड़ोसी ने कहा, ‘‘नेकसे तुम्हारी गैरमौजूदगी में तुम्हारे घर अकसर आता है. तुम्हें इस बात पर ध्यान देना चाहिए.’’

इस बात से वेदराम को लगा कि जरूर कुछ गड़बड़ है. उस ने सुनीता से पूछा, ‘‘यह नेकसे का क्या चक्कर है?’’

पति की बात सुन कर सुनीता की धड़कनें बढ़ गईं, ‘‘यह क्या कह रहे हो तुम, तुम्हारा रिश्तेदार है. कभीकभी यहां आ जाता है. इस में गलत क्या है?’’

‘‘घर में जवान बच्ची है. तुम उसे यहां आने के लिए मना कर दो.’’ वेदराम ने कहा.

‘‘अपनी बेटी की देखरेख मैं खुद कर सकती हूं, पर कभी सोचा है कि तुम्हारे बिना मैं कैसे रहती हूं.’’

‘‘तुम लोगों के लिए ही तो मैं बाहर रहता हूं. जरा सोचो क्या तुम्हारे बिना मुझे वहां अच्छा लगता है क्या?’’

वेदराम को सुनीता की इस बात से विश्वास होने लगा कि पड़ोसियों ने उसे उस की पत्नी और नेकसे के बारे में जो खबर दी है, वह सही है. वेदराम 2-4 दिन रुक कर अपने काम पर फिरोजाबाद चला गया. पर इस बार उस का काम में मन नहीं लगा. उसे लगता था, जैसे उस की गृहस्थी की नींव हिल रही है.

एक दिन अचानक वह छुट्टी ले कर बिना बताए घर से आ गया. उस ने घर में कदम रखा तो घर में कोई बच्चा दिखाई नहीं दिया. उस ने कमरे का दरवाजा खोला तो सन्न रह गया. उस की पत्नी नेकसे की बांहों में थी. गुस्से में वेदराम ने डंडा उठाया और सुनीता की खूब पिटाई की. जबकि नेकसे भाग गया.

पिटने के बाद भी सुनीता के चेहरे पर डर नहीं था. वह गुर्रा कर बोली, ‘‘इस सब में मेरी नहीं, बल्कि तुम्हारी गलती है. मैं ने कहा था न कि मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती, पर तुम ने मेरी भावनाओं का खयाल कहां रखा.’’

वेदराम का गुस्सा बढ़ गया. वह हैरान था कि सुनीता ने रिश्तों का भी खयाल नहीं रखा. नेकसे तो उस के बेटे की तरह है. उस ने कहा, ‘‘ठीक है, अब मैं आ गया हूं, सब संभाल लूंगा.’’

‘‘मैं आ गया हूं, से क्या मतलब है तुम्हारा?’’ सुनीता ने पूछा.

‘‘अब मैं नौकरी छोड़ कर हमेशा के लिए आ गया हूं. यहीं खेतीबाड़ी करूंगा. फिर देखूंगा तुझे.’’ वेदराम ने कहा.

पति के नौकरी छोड़ने की बात सुन कर सुनीता परेशान हो उठी. क्योंकि अब उसे नेकसे से मिलने का मौका नहीं मिल सकता था. उस ने नेकसे को सारी बात बता कर सतर्क रहने को कहा. अब वह किसी भी कीमत पर नेकसे को छोड़ने को तैयार नहीं थी. उस के मन में पति के प्रति नफरत पैदा हो गई.

वेदराम को अब इस बात का डर लगा रहता था कि सुनीता नेकसे के साथ भाग न जाए. अगर ऐसा हो गया तो समाज में उस की नाक ही कट जाएगी. लिहाजा उसे अपनी दुराचारी पत्नी से नफरत हो गई. बेटी भी जवान थी पर वह मां की ही तरफ से बोलती थी. उसे इस बात का भी डर था कि कहीं बेटी भी गुमराह न हो जाए.

वेदराम की चौकसी के बावजूद सुनीता और नेकसे मौका पा कर घर से बाहर मिलने लगे. यह बात भी वेदराम से ज्यादा दिनों तक छिपी नहीं रह सकी. उस ने सुनीता को एक बार फिर समझाने की कोशिश की, पर वह कुछ भी मानने को तैयार नहीं थी. वेदराम समझ गया कि अब कोई बड़ा कदम उठाना ही पड़ेगा, वरना उस की गृहस्थी डूब जाएगी. घर का वातावरण काफी तनावपूर्ण रहने लगा था. नेकसे वेदराम की खुशियों के रास्ते में बाधा बन गया था. काफी सोचनेविचारने के बाद वेदराम को लगा कि इस समस्या का अब एक ही हल है कि रास्ते के कांटे को जड़ से निकाल दिया जाए.

दूसरी ओर रोजरोज पिटने से सुनीता को लगने लगा था कि अब वह पति के साथ ज्यादा दिनों तक नहीं रह सकती. वह खुल कर नेकसे के साथ अपनी दुनिया बसाना चाहती थी.

वेदराम धीरेधीरे अपने इरादे को मजबूत कर रहा था. बेशक यह काम उस के लिए कठिन था. पर एक ओर चरित्रहीन पत्नी थी तो दूसरी ओर बेलगाम भतीजा. दोनों उस केगुस्से को हवा दे रहे थे.

योजना के अनुसार, वेदराम उसी ईंट भट्ठे पर काम करने लगा, जहां नेकसे करता था. वेदराम जानता था कि नेकसे रात में भट्ठे पर ही सोता है. उसे लगा कि वह वहीं पर अपना काम आसानी से कर सकता है. वह भी भट्ठे पर ही सोने लगा और मौके की तलाश में लग गया.

नेकसे अपने फूफा वेदराम के इरादे से बेखबर था. जबकि वेदराम ने तय कर लिया था कि अपनी इज्जत पर हाथ डालने वाले को वह जिंदा नहीं छोड़ेगा. अपनी नौकरी के तीसरे दिन 5 दिसंबर, 2016 को वेदराम को मौका मिल गया. उस ने देखा, नेकसे अकेला सो रहा था. वह अपनी जगह से उठा और फावड़े से नेकसे पर प्रहार कर दिया. चोट नेकसे के कंधे पर लगी तो वह चीख कर उठा और भागने की कोशिश की. लेकिन वेदराम ने उस पर ताबड़तोड़ प्रहार कर दिए, जिस से वह वहीं पर मर गया.

नेकसे की हत्या करने के बाद वेदराम ने राहत की सांस ली, पर उस की दिमागी हालत ठीक नहीं थी. वह फावड़ा ले कर सीधे थाना सहावर पहुंचा और पुलिस को सारी बात बता दी. थानाप्रभारी रफत मजीद वेदराम से पूछताछ कर के उसे उस जगह ले गए, जहां उस ने नेकसे की हत्या की थी. पुलिस ने जरूरी काररवाई कर के लाश पोस्टमार्टम के लिए भिजवा दी.

पुलिस ने वेदराम के खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज कर उसे न्यायालय में पेश किया, जहां से उसे न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया. थानाप्रभारी रफत मजीद केस की तफ्तीश कर रहे थे.

– कथा पुलिस सूत्रों और जनचर्चा पर आधारित

कैरियर, रिलेशनशिप और ब्रेकअप: डिप्रैशन में चले जाते हैं नए-नवेले सैलेब्रिटी

उत्तर प्रदेश में वाराणसी के सारनाथ थाना क्षेत्र में होटल सोमेंद्र बना हुआ है. यह होटल सामान्य श्रेणी का है. यहां ज्यादातर सारनाथ घूमने वाले पर्यटक रुकते हैं. यहीं पर कमरा नंबर 105 में भोजपुरी फिल्म हीरोइन आकांक्षा दुबे भी रुकी थीं. डबल बैडरूम वाला यह कमरा देखने में काफी अच्छा था. खिड़की से बाहर होटल का हराभरा लौन दिखता था.

27 मार्च, 2023 की सुबह के करीब 10 बजे आकांक्षा दुबे को अपना कमरा खाली करना था. जब चैकआउट करने के लिए कोई सूचना नहीं आई, तो होटल रिसैप्शन से फोन किया गया, पर कमरे से फोन नहीं उठाया गया.

कई बार फोन करने पर भी जब फोन नहीं उठा, तो होटल में काम करने वाला एक वेटर कमरे में गया. कई दफा खटखटाने के बाद भी दरवाजा खुला नहीं. तब होटल वालों ने सारनाथ थाने की पुलिस को फोन कर के बुलाया.

पुलिस के सामने दरवाजा खोला गया, तो आकांक्षा दुबे कमरे में दिखीं, जिन के गले में फांसी का फंदा था. होटल में भोजपुरी हीरोइन आकांक्षा दुबे के मरने की यह खबर जंगल में लगी आग की तरह फैल गई.

25 साल की आकांक्षा दुबे को भोजपुरी म्यूजिक इंडस्ट्री की नई सनसनी माना जा रहा था. वे पड़ोस के ही भदोही जिले की रहने वाली थीं. उन के कई वीडियो एलबम एक के बाद एक हिट हुए थे. इन में ‘बुलेट पर जीजा’ सुपरहिट था. इस से आकांक्षा दुबे को बड़ी शोहरत मिली थी.

‘बुलेट पर जीजा’ समर सिंह के औफिशियल यूट्यूब चैनल पर रिलीज किया गया था. लाखोंकरोड़ों लोगों तक इस को पहुंचने में देर नहीं लगी थी. इस म्यूजिक वीडियो में आकांक्षा दुबे ने जम कर डांस किया था. यह गाना विनय पांडेय और शिल्पी राज ने गाया था.

अल्हड़ और लुभावने अंदाज में आकांक्षा दुबे ने जिस तरह से इस वीडियो में ऐक्टिंग की थी, उसे देखने वालों ने बेहद पसंद किया था, जिस के बाद वे रातोंरात भोजपुरी म्यूजिक इंडस्ट्री की सैलेब्रिटी बन गई थीं.

फिल्मों में ऐक्टिंग और डांस करने के अलावा आकांक्षा दुबे इंस्टाग्राम पर रील्स की दुनिया में भी खूब अटैंशन पाती थीं. वे आएदिन अपने म्यूजिक एलबम को ले कर चर्चा में रहती थीं. उन्होंने भोजपुरी के हीरो और गायक पवन सिंह के साथ भी कई म्यूजिक वीडियो में काम किया था. इन में ‘करवटिया’ और ‘सटा के पईसा’ प्रमुख थे. इन गानों को भी खूब पसंद किया गया था.

आकांक्षा दुबे ने बहुत ही कम उम्र में भोजपुरी सिनेमा में काफी कामयाबी हासिल की थी. उन्होंने ‘मेरी जंग मेरा फैसला’ नाम की फिल्म से अपनी ऐक्टिंग की शुरुआत की थी. इस के बाद उन्होंने ‘मुझ से शादी करोगी’, ‘वीरों के वीर’, ‘फाइटर किंग’ जैसी कई फिल्मों में भी काम किया था.

आकांक्षा दुबे ने अपने कैरियर की शुरुआत टिकटौक से की थी. इस के बाद वे इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर अपने टैलेंट के दम पर छा गई थीं. जब लाखों लोगों ने उन्हें पसंद करना शुरू किया, तब आकांक्षा दुबे ने भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखा और एक से बढ़ कर एक भोजपुरी गानों और फिल्मों में काम किया.

आकांक्षा दुबे के परिवार में उन के मांबाप और भाईबहन हैं. उन का परिवार उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में रहता है. वे भी अपने परिवार के साथ ही रहती थीं.

गोरे रंग और लंबे कद वाली आकांक्षा दुबे की दिलकश अदाएं देखने वालों को पसंद आ रही थीं. सुनने में आया है कि आकांक्षा दुबे और समर सिंह के बीच मधुर संबंध थे. वे दोनों रिलेशनशिप में थे.

‘बुलेट पर जीजा’ की कामयाबी के बाद आकांक्षा दुबे के सामने कई और कलाकारों के औफर आने लगे थे. यह बात समर सिंह को पसंद नहीं थी, जबकि आकांक्षा दुबे और उन का परिवार चाहता था कि आकांक्षा दूसरे कलाकारों के साथ भी काम करे.

इस बात को ले कर आकांक्षा दुबे और समर सिंह के बीच दूरियां बढ़ गई थीं. इस के बाद आकांक्षा दुबे ने समर सिंह से पैसे मांगने शुरू किए.

आकांक्षा की मां मधु दुबे ने वाराणसी पुलिस को बताया, ‘‘जब आकांक्षा ने समर सिंह और उस के भाई संजय सिंह से पैसे मांगे, तो उन दोनों ने आकांक्षा को धमकियां दी थीं.’’

इस विवाद का असर समर सिंह और आकांक्षा दुबे के संबंधों पर पड़ा, जिस के बाद आकांक्षा डिप्रैशन में चली गईं.

इस बीच आकांक्षा दुबे ने भोजपुरी के दूसरे मशहूर गायक पवन सिंह के साथ म्यूजिक वीडियो ‘आरा कभी हारा नहीं’ शूट किया. यह वीडियो उस दिन रिलीज हुआ, जिस दिन आकांक्षा दुबे की लाश मिली थी. चंद घंटों में ही यह वीडियो भी लाखोंकरोड़ों लोगों तक पहुंच गया था.

आकांक्षा दुबे की मां मधु दुबे के प्रार्थनापत्र पर पुलिस ने समर सिंह और उन के भाई संजय सिंह की जांच शुरू की. पुलिस इस बात की विवेचना कर रही है कि आकांक्षा दुबे की मौत के पीछे इन दोनों का क्या रोल है.

पोस्टमार्टम रिपोर्ट में पुलिस को हत्या की कोई साफ वजह नहीं दिखी. ऐसे में पुलिस इस मसले को खुदकुशी ही मान रही है.

घटना की रात आकांक्षा दुबे को कमरे पर छोड़ने आया लड़का उन के साथ का था. उस से भी पुलिस को शुरुआती पूछताछ में कोई खास जानकारी नहीं मिली.

अपने मांबाप की सोचो

दोस्त भले ही फायदा देख कर आप के साथ जुड़ते हों, पर मांबाप हमेशा आप का भला चाहते हैं. फिल्म हीरोइन अक्षरा सिंह आकांक्षा की मां से मिलने उन के भदोही जिले के बरदाहा गांव में गई थीं.

आकांक्षा दुबे का घर बेहद साधारण था. दरवाजे पर परदा पड़ा था और उस पर गांव की कढ़ाई वाला सफेद रंग

का कवर उस की खूबसूरती बढ़ाने की कोशिश कर रहा था. घर का यह कमरा नया बना दिख रहा था. दीवारों पर नया प्लास्टर दिख रहा था.

कमरे में बिजली की वायरिंग भी सही तरह से नहीं हुई थी. तार को क्लिप के सहारे से दीवार पर लगा दिया गया था. उस में मोबाइल फोन का चार्जर लगा था.

अक्षरा सिंह ने बैगनी रंग का सफेद कढ़ाई वाला सूट पहन रखा था. आंखों पर गोल फ्रेम का चश्मा और हाथ में काले पट्टे वाली घड़ी पहन रखी थी.

आकांक्षा दुबे की मां अक्षरा सिंह से लिपट कर रोने लगीं. अक्षरा सिंह ने उन्हें सहारा देते हुए अपने गले से लगा लिया. इस दौरान आकांक्षा दुबे के घरपरिवार के लोग भी वहां पर मौजूद थे.

आकांक्षा दुबे की मां से मिलने के बाद अक्षरा सिंह ने कहा, ‘‘पुलिस मामले की सही जांच करे, जिस से कोई लड़की इस तरह की घटना का शिकार न बने. आकांक्षा बहुत ही बहादुर लड़की थी. वह अपने परिवार के लिए बहुतकुछ करना चाहती थी. आज उस के परिजन आंसू बहाने को मजबूर हैं.

‘‘मैं कहती हूं कि लड़कियो जागो… अगर मन में कभी ऐसा खयाल आता है, तो अपने मांबाप की सोचो, उन से बात करो. वे हमेशा तुम्हें सही राह दिखाएंगे.’’

आकांक्षा दुबे के जानने वाले बहुत सारे लोगों ने अपने संदेश दिए. फिल्म हीरोइन पाखी हेगड़े ने भी कहा, ‘‘लड़कियों को कभी भी अपने परिवार से कोई बात छिपानी नहीं चाहिए. घर में हर किसी को न सही, पर अपनी मां को सबकुछ बताना चाहिए, चाहे वह कितनी ही गोपनीय बात क्यों न हो. वे सब अच्छी सलाह देंगे. कोई गलत कदम उठाने से पहले मातापिता के बारे में जरूर सोचना चाहिए.’’

फिल्म कलाकार संजीव मिश्रा, जो ‘पावर स्टार’ के नाम से मशहूर हैं, का कहना है, ‘‘भोजपुरी फिल्म और म्यूजिक की दुनिया में काम करने वाली लड़कियां और लड़के छोटेछोटे शहरों से चल कर अपना कैरियर बनाने आते हैं. कई बार ये इमोशन के चक्कर में पड़ कर सहीगलत का फैसला नहीं कर पाते हैं. ऐसे में गलत कदम उठा लेते हैं.

‘‘चमकदमक की दुनिया में असली दोस्त कम होते हैं. यह परख नए कलाकार नहीं कर पाते. अपने करीबी लोगों के साथ अगर वे अपनी बातें शेयर करते रहें, तो डिप्रैशन से बच सकते हैं. गलत कदम उठाने से भी बच सकते हैं.’’

मांबाप भी नजदीकियां बढ़ाएं

कैरियर काउंसलर निधि शर्मा कहती हैं, ‘‘कई बार कैरियर आगे बढ़ने की भागदौड़ में समय नहीं मिल पाता और बच्चे मातापिता से बातचीत नहीं कर पाते हैं. ऐसे में मातापिता और भाईबहन को चाहिए कि वे खुद मेलजोल बना कर रखें. उन के कैरियर और उस में आने वाले उतारचढ़ाव के बारे में पता करते रहें.

‘‘अगर आप बच्चे के कैरियर के बारे में कोई जानकारी नहीं भी रखते, तब भी उस बारे में समझना चाहिए, जिस से आप बच्चे के कैरियर, उस की

दिक्कतों, दोस्तों और साथ में काम करने वालों के बारे में जानते रहें. इस से बच्चा आप के साथ खुल कर बातचीत

करता रहेगा. अपने फैसले उस पर थोपें नहीं. किसी गलती पर नाराज न हों. अगर ऐसा करेंगे, तो बच्चा सही बात नहीं बताएगा.

‘‘लड़कियों के मामले में मां का रोल बेहद अहम होता है. मां को चाहिए कि वह लड़की से रिलेशनशिप से ले कर बौयफ्रैंड तक के मसले पर खुल कर बातचीत करे. यही वे मसले होते हैं, जहां पर लड़की अपना फैसला नहीं ले पाती है, क्योंकि उसे दुनियादारी की समझ कम होती है.जवानी में जो भी तारीफ कर देता है, लड़की उधर झुक जाती है. लोग कामयाबी दिलाने के नाम पर शोषण करते हैं. अगर ये बातें मां को पता होंगी, तो वह सही सलाह दे सकती है.’’

 जिंदगी की जंग हारी भोजपुरी हीरोइनें

भोजपुरी म्यूजिक इंडस्ट्री की सैलेब्रिटी आकांक्षा दुबे अपनी कामयाबी देखने के लिए जिंदा नहीं बची हैं. वे कोई पहली हीरोइन नहीं हैं, जिस ने यह कदम उठाया है. इस के पहले भी भोजपुरी फिल्मों की कई हीरोइनों ने ऐसे आत्मघाती कदम उठाए हैं.

इन में एक नाम अनुपमा पाठक का है. हीरोइन अनुपमा पाठक ने 40 साल की उम्र में फांसी लगा कर खुदकुशी कर ली थी. वे मरने से ठीक पहले फेसबुक पर लाइव आई थीं और लास्ट में एक पोस्ट भी डाला था.

उन्होंने रोतेरोते लोगों से कहा था, ‘‘जब कोई मर जाता है, तो लोग उस के बाद हमदर्दी दिखाने लगते हैं. कोई किसी की प्रौब्लम सौल्व नहीं कर सकता. पहली बात तो लोग ऐसा कदम तब उठाते हैं, जब वे हर तरह से थकहार जाते हैं.’’

फेसबुक लाइव होने के दौरान अनुपमा पाठक ने खुद यह कहा था कि ‘अगर आज मैं मर जाती हूं तो इस की जिम्मेदार मैं खुद हूं. इस के लिए पुलिस, मीडिया, समाज या किसी और को जिम्मेदार न ठहराया जाए’.

भोजपुरी की 30 से ज्यादा फिल्में कर चुकी हीरोइन रूबी सिंह की खुदकुशी भी अपनेआप में एक सवाल खड़ा कर देती है. उन की लाश भी उन के कमरे में लटकती हुई मिली थी.

पुलिस ने कहा था कि रूबी सिंह की लाश उन के फ्लैट के पंखे से लटकी हुई मिली है. पुलिस ने शक जताया था कि शायद प्रेम प्रसंग या फिर किसी धोखाधड़ी का शिकार होने की वजह से रूबी सिंह ने खुदकुशी करने जैसा कदम उठाया होगा.

ब्रेकअप बढ़ाता है डिप्रैशन

हिंदी फिल्मों में काम करने वाली हीरोइनें ब्रेकअप को ले कर बहुत गंभीर नहीं होती हैं. वहां जोडि़यां फिल्मों की कामयाबी के लिए बनती और बिगड़ती रहती हैं. ब्रेकअप और रिलेशनशिप कई बार गौसिप और मौजमस्ती के लिए होते हैं.

इस के उलट भोजपुरी फिल्म और म्यूजिक इंडस्ट्री में ब्रेकअप और रिलेशनशिप दोनों को ही बड़ी गंभीरता से लिया जाता है. इस की सब से खास वजह यह है कि यहां काम करने वाली लड़कियां छोटे शहरों से आती हैं, जिन के यहां शादी के पहले रिलेशनशिप और ब्रेकअप दोनों को ही अच्छा नहीं माना जाता है. इस वजह से ऐसे हालात में लड़की पर बहुत ज्यादा दबाव होता है.

दूसरी एक वजह यह होती है कि भोजपुरी फिल्म और म्यूजिक इंडस्ट्री में हीरो या गायक का दबदबा होता है. वह अपने फायदे के लिए लड़कियों का इस्तेमाल करता है, इसलिए वह चाहता है कि उस के साथ काम करने वाली लड़की किसी दूसरे के साथ काम न करे. इस के लिए वह करार पर दस्तखत करा लेता है, फिर इस को आधार बना कर लड़कियों को मजबूर करता है, उन का हर तरह से शोषण करता है.

अगर कोई लड़की किसी तरह से अपनी पहचान बना लेती है, तो उस को नुकसान पहुंचाने का काम किया जाता है. यह कोशिश होती है कि उस लड़की का कैरियर खत्म कर दिया जाए.

ऐसे विवाद पहले भी हुए हैं. अक्षरा सिंह और पवन सिंह का विवाद काफी सुर्खियों में रहा है. अक्षरा सिंह ने अपने दमखम पर अपना नाम और पहचान बनाए रखी. पर कई ऐसी लड़कियां हैं, जो इस तरह के विवाद के बाद गुमनाम हो गईं.

अगर कोई लड़की जोड़ी बनाने से इनकार करती है तो उस को फिल्मों से निकलवा दिया जाता है. ऐसे में लड़कियां परेशान हो जाती हैं. उन को चमकदमक की आदत पड़ जाती है. वे मजबूत मन से संघर्ष करने को तैयार नहीं होती हैं, जिस के चलते वे कई बार खुदकुशी करने जैसे कड़े कदम उठाने पर मजबूर हो जाती हैं.

सैलेब्रिटी बनना आसान होता है, लेकिन हालात को संभालना आसान नहीं होता है. सैलेब्रिटी बनते ही इन के आसपास ऐसे लोग जुटने लगते हैं, जो कामयाबी में तो साथ देते हैं, पर मुसीबत में अलग हो जाते हैं. क्या अकांक्षा दुबे की मौत का राज खुल पाएगा?

किसी एक पर सही (३) का निशान लगाएं और इस की फोटो खींच कर

मो. नं. : 08826099608 पर भेजें.

पैतृक संपत्ति पर बेटियों का भी समान अधिकार

टैक्सी में बैठने से पहले कविता ने ‘स्नेह विला’ को नम आंखों से देखा, गेट पर आई अपनी मां उमा  के गले लगी. बराबर में दूसरे गेट पर भी नजर डाली. दोनों भाभियों और भाइयों का नामो निशान भी नहीं था. वे उसे छोड़ने तक नहीं आए थे. ठीक है, कोई बात नहीं, यह दिन तो आना ही था. उस के लिए भाई भाभी की उपस्थित मां की ममता और अपने कर्तव्य की पूर्ति से बढ़ कर नहीं थी. मन ही मन दिल को समझाती हुई कविता टैक्सी में बैठ सहारनपुर की तरफ बढ़ गई.

55 वर्षीया कविता अपनी मां की परेशानियों का हल ढूंढ़ने के लिए एक हफ्ते से मेरठ आई हुई थी. सुंदर व चमकते ‘स्नेह विला’ में उस की मां अकेली रहती थीं. ऊपर के हिस्से में उस के दोनों भाई रहते थे. कविता सब से बड़ी थी, कई सालों से वह देख रही थी कि मां का ध्यान ठीक से नहीं रखा जा रहा है. अब तो कुछ समय से दोनों भाइयों ने अपनी अपनी रसोई भी अलग बनवा ली थी.

आर्थ्राइटिस की मरीज 75 वर्षीया उमा अपने काम, खाना, पीना आदि का प्रबंध स्वयं करती थीं, यह देख कर कविता को हमेशा बहुत दुख होता था. कविता ने उन्हें कईर् बार अपने साथ चलने को कहा. उमा का सारा जीवन इसी घर में बीता था, यहां उन के पति मोहन की यादें थीं, इसलिए वे कुछ दिनों के लिए तो कविता के पास चली जातीं पर घर की यादें उन्हें फिर वापस ले आतीं. पर अब पानी सिर के ऊपर से गुजरने लगा था. अब कविता के दोनों भाई उमा पर यह जोर भी डालने लगे थे कि वे आधाआधा मकान उन के नाम कर दें. उमा हैरान थी अैर यह सुन कर कविता भी हैरान हो गई थी.

बीमार उमा को कोई एक गिलास पानी देने वाला भी नहीं था जबकि मकान के बंटवारे के लिए दोनों भाई तैयार खड़े थे. कविता ने कई बार स्नेहपूर्वक भाइयों को मां का ध्यान रखने को कहा, तो उन्होंने दुर्व्यवहार करते हुए अपशब्द कहे, ‘इतनी ही चिंता है तो मां को अपने साथ ले जाओ, उन की देखभाल करना, तुम्हारा भी तो फर्ज है.’

कविता ने अपने पति दिनेश से बात की. कविता ने तय किया कि वह लालची भाइयों को सबक सिखा कर रहेगी. एक वकील से मिलने के बाद पता चला कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956, जिस में 9 सितंबर, 2005 से संशोधन हुआ है, के अनुसार, पिता की संपत्ति पर विवाहित बेटी का भी पूरा हक है. उसे संपत्ति का कोई लालच नहीं था. उसे व उस के पति दिनेश के पास पैसे की कोई कमी नहीं थी. वह अपने भाइयों को इस तरह सबक सिखाना चाहती थी कि वे मां का ध्यान रखें. उस ने फोन पर भाइयों से कहा, ‘‘ठीक है, मैं मां को अपने पास ले आऊंगी पर मुझे भी मकान में हिस्सा चाहिए.’’

दोनों भाइयों को सांप सूंघ गया, बोले, ‘‘तुम्हें क्या कमी है जो मायके का मकान चाहिए?’’ ‘‘क्यों, मैं मां की सेवा कर सकती हूं तो अपना हिस्सा क्यों नहीं ले सकती? यह तो अब मेरा कानूनन हक भी है. फिर मेरा मन कि मैं अपना हिस्सा बेचूं या उस में कोई किराएदार रखूं. मैं ने वकील से बात कर ली है, जल्दी ही कागजात बनवा कर तुम्हें कानूनी नोटिस भिजवाऊंगी.’’

कविता ने अपने मन की बात मां को बता दी थी. दोनों भाइयों का गुस्से के मारे बुरा हाल था. उन्होंने पड़ोसियों, रिश्तेदारों में जम कर कविता की बुराई करनी शुरू कर दी. लालची, खुदगर्ज बेटी को मकान में हिस्सा चाहिए. दोनों भाइयों ने काफी देर सोचा कि 3 हिस्से हो गए तो नुकसान ही नुकसान है और अगर कविता ने अपना हिस्सा बेच दिया तो और बुरा होगा.

दोनों भाई अपनी पत्नियों के साथ विचार विमर्श करते रहे. तय हुआ कि इस से अच्छा है कि मां की ही देखभाल कर ली जाए. दोनों ने मां से माफी मांग कर उन की हर जिम्मेदारी उठाने की बात की. दोनों ने मां के पास जा कर अपनी गलती स्वीकारी. उमा के दिल को बहुत संतोष मिला कि उन का शेष जीवन अपने घर में चैन से बीत जाएगा. कविता को भी अपने प्रयास की सफलता पर बहुत खुशी हुई. वह यही तो चाहती थी कि मां अपने घर में ससम्मान रहें, इसलिए वह मकान में हिस्से की बात कर बैठी थी. अगर कारण कोई और भी होता तो भी अपना हिस्सा मांगने में कोई बुराई नहीं थी.

दरअसल, जब कानून ने एक लड़की को हक दे दिया है तो पड़ोसी, रिश्तेदार इस मांग की निंदा करने वाले कौन होते हैं? आज जब कोई बेटी ससुराल में रह कर भी माता पिता के प्रति अपने कर्तव्य याद रखती है तो मायके की संपत्ति में उस को अपना हिस्सा मांगना बुरा क्यों समझा जाता है? और वह भी तब जब कानून उस के साथ है.

हिंदू उत्तराधिकार संशोधित अधिनियम 2005 के प्रावधान में यह साफ किया गया है कि पिता की संपत्ति पर एक बेटी भी बेटे के समान अधिकार रखती है. हिंदू परिवार में एक पुत्र को जो अधिकार प्राप्त हैं, वे अब बेटियों को भी समानरूप से मिलेंगे. यह प्रस्ताव 20 दिसंबर, 2004 से पहले हुए संपत्ति के बंटवारे पर लागू नहीं होगा.

गौरतलब है कि हिंदू उत्तराधिकार कानून 1956 में बेटी के लिए पिता की संपत्ति में किसी तरह के कानूनी अधिकार की बात नहीं कही गई. बाद में 9 सितंबर, 2005 को इस में संशोधन कर पिता की संपत्ति में बेटी को भी बेटे के बराबर अधिकार दिया गया. इस में कानून की धारा 6 (5) में स्पष्टरूप से यह लिखा है कि इस कानून के पास होने के पूर्व में हो चुके बंटवारे इस नए कानून से अप्रभावित रहेंगे.

कानून की नजर में ‘संपत्ति के उत्तराधिकार’ के मामले में भले ही बेटे व बेटी में कोई भेद न हो परंतु क्या बेटियां यह हक पा रही हैं? और अगर नहीं, तो क्या वे अपने पिता या भाई से अपने हक की मांग सामने भी रख पा रही हैं? बेटियों के अधिकार के प्रति सामाजिक रवैया शायद ठीक नहीं है.

सामाजिक मानसिकता

हमारा तथाकथित सभ्य समाज, जो सदियों से रूढि़वादी परंपराओं के बोझ तले दबा हुआ है, आसानी से पैतृक संपत्ति पर बेटियों के हक को बरदाश्त नहीं कर पा रहा है. जहां बचपन से पलती हुई हर बेटी के मन में कूट कूट कर ये विचार विरासत में दिए जाते हों कि तुम पराए घर की हो, इस घर में किसी और की अमानत हो,

यह घर तुम्हारे लिए सिर्फ रैनबसेरा है, उस घर की बेटी इसी को मान बंटवारे की मानसिकता से कोसों दूर रहती है. खासकर, अपनी शादी के बाद पहली बार मायके आने पर वह खुद को मेहमान समझ इस तथ्य को स्वीकार कर लेती है कि अब उसे मायके से रस्मोरिवाज के नाम पर कुछ उपहार तो मिल सकते हैं, पर संपत्ति में बराबरी का हक कदापि नहीं.

आज भी महिलाएं पैतृक संपत्ति में अपना हिस्सा मांगने में हिचकती हैं. इंदौर में रह रही 2 बेटियों की मां शैलजा का कहना है कि इस में दोराय नहीं है कि पैतृक संपत्ति में बेटियों का भी हक दिए जाने से उन की स्थिति में सुधार होगा, पर खुद उन के लिए अपने पिता या भाई से संपत्ति में हक मांगना थोड़ा सा मुश्किल है, क्योंकि इस से अच्छेभले चलते रिश्तों में भी दरार आ सकती है.

देश की राजधानी दिल्ली की तमाम औरतों व लड़कियों से की गई बातचीत में सभी ने लगभग यही बताया कि कानून भले ही एक झटके में हमें बराबरी का हक दे दे लेकिन समाज में बदलाव एकाएक नहीं आते. यही वजह है कि वास्तविकता के धरातल पर इस फर्क को दूर होने में कुछ समय लगेगा. हमारा समाज संपत्ति के नाम पर भाईभाई में हुए झगड़े या फसाद को तो सामान्यरूप में ले सकता है, परंतु एक बहन के यही हक जताने पर उसे घोर आपत्ति होगी.

सुप्रीम कोर्ट के महत्त्वपूर्ण निर्णय

पिता की संपत्ति में बेटियों के हक के संबंध में एक महत्त्वपूर्ण निर्णय सर्वोच्च अदालत द्वारा किया गया, जिस में उस ने कहा कि एक इंसान मरने के बाद अपना फ्लैट अपने बेटे या पत्नी को देने के बजाय अपनी शादीशुदा बेटी को भी दे सकता है.

कोर्ट ने यह फैसला बिस्वा रंजन सेनगुप्ता के मामले में सुनाया. इस केस में बिस्वा रंजन द्वारा अपनी शादीशुदा बेटी इंद्राणी वाही को कोलकाता के सौल्ट लेक सिटी में पूर्वांचल हाउसिंग स्टेट की मैनेजिंग कमेटी के फ्लैट का मालिकाना हक दिया गया. जिस पर कड़ी आपत्ति लेते हुए उन के बेटे और पत्नी ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था. सोसाइटी के रजिस्ट्रार ने भी रंजन की बेटी का नाम उत्तराधिकारी के रूप में दर्ज करने से मना कर दिया था.

उपरोक्त मामले में बिस्वा रंजन अपनी पत्नी और बेटे के दुर्व्यवहार के कारण अपनी शादीशुदा बेटी के पास रह रहे थे. प्रतिवादी पक्षकारों द्वारा यह दावा किया गया कि संपत्ति के मालिक ने मकान के अंशधारकों व वारिस की सूची में सिर्फ पत्नी व बेटे को शामिल किया है, इसलिए वह बेटी को मकान का उत्तराधिकारी घोषित नहीं कर सकता है. साथ ही, उत्तराधिकार नियमों के मुताबिक भी वादी के बेटे और पत्नी उक्त संपत्ति में अपनी हिस्सेदारी का दावा कर सकते हैं क्योंकि बेटे को पिता की संपत्ति में हक लेने का कानूनी अधिकार प्राप्त है. पक्षकारों की तीसरी दलील बेटी के शादीशुदा होने की थी.

लेकिन, सुप्रीम कोर्ट ने इन सभी दलीलों को खारिज कर कहा कि अव्वल तो बेटा और पत्नी विवादित मकान को पैतृक संपत्ति नहीं कह सकते हैं क्योंकि यह प्रतिवादी ने खुद खरीदी थी. इसलिए इसे उत्तराधिकार के दायरे में नहीं रख सकते. जहां तक सोसाइटी ऐक्ट के प्रावधानों का सवाल है तो अदालत ने कहा कि संपत्ति के मालिक ने पत्नी और बेटे के गैर जिम्मेदाराना रवैए से तंग आ कर संपत्ति का उत्तराधिकार बेटी को दिया है. खरीदारी के समय नौमिनी बनाना इस बात का पुख्ता आधार नहीं है कि वे ही उत्तराधिकारी हैं. मालिक के चाहने पर नौमिनी कभी भी बदला जा सकता है.

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला कानून के अलावा सामाजिक लिहाज से भी बेटियों के लिए खासा महत्त्व रखता है.

एक अन्य फैसले में अक्तूबर 2011 में उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति आर एम लोढ़ा और जगदीश सिंह खेहर ने कहा कि हिंदू उत्तराधिकार (संशोधित) अधिनियम 2005 के तहत बेटियां अन्य पुरुष सहोदरों के बराबर का अधिकार रखती हैं. उन्हें बराबरी से अपना उत्तरदायित्व भी निभाना पड़ेगा. इस फैसले में यह भी कहा गया कि अगर बेटियों को बेटों के बराबर उत्तराधिकार नहीं दिया जाता तो यह संविधान द्वारा दिए गए समानता के मौलिक अधिकारों का हनन भी होगा, और दूसरी ओर यह सामाजिक न्याय की भावना के भी विरुद्ध है.

पिता की संपत्ति पर बेटी के अधिकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अन्य फैसला सुनाते हुए इसे सीमित भी कर दिया है. कोर्ट ने कहा है कि अगर पिता की मृत्यु 2005 में हिंदू उत्तराधिकार कानून के संशोधन से पहले हो चुकी है, तो ऐसी स्थिति में बेटियों को संपत्ति में बराबर का हक नहीं मिल सकता.

वैसे, देखा जाए तो इस नियम के लागू होने के बाद महिलाओं की स्थिति समाज में सुधार की तरफ बढ़ चली है. कानूनी रूप से हुआ यह बदलाव निश्चित ही औरत व आदमी के बीच अधिकारों की समानता की बात करता है. इस का फायदा हमें जल्दी ही निकट भविष्य में देखने को मिलेगा जब महिलाएं भी आत्मनिर्भर बन समाज व देश की प्रगति में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकेंगी.

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