सबक : कैसा था सरकारी बाबू

सरकारी बाबू अपने नीचे काम करने वाले मुलाजिमों से अपने घरेलू काम कराने में शान समझते हैं. सरकारी बाबू जनता का काम बगैर घूस लिए नहीं करते और औफिस के सामान को अपनी निजी जागीर समझते हैं. झांसी के रेलवे वैगन मरम्मत कारखाने में तो यह बीमारी खतरनाक लैवल तक पहुंच चुकी थी. कारखाने के डायरैक्टर, रामसेवक (आरएस) उर्फ पांडेयजी, कहने को एक कर्मकांडी ब्राह्मण थे और जो गीता और उपनिषदों की बातें करते थे, लेकिन गरीब मुलाजिमों का खून पीने में उन का धर्म भ्रष्ट नहीं होता था. वैगन मरम्मत कारखाने में वैगनों को आगेपीछे करने (शंटिंग) के दौरान हुए हादसे में मनिपाल नाम के एक दलित मुलाजिम की मौत हो गई. जिस तरह किसी जानवर की मौत से गिद्धों को भोज मिलता है, वे जश्न मनाते हैं, उसी तरह कारखाने के बाबुओं की खुशी का ठिकाना नहीं था.

बीमा के पैसे और फंड निकलवाने के बदले उन्होंने मनिपाल की विधवा पत्नी राजश्री से तगड़ी रिश्वत वसूल की.  इस घटना के 2 साल बाद, 18 साल का होते ही, मनिपाल के बेटे मोहित को अपने पिताजी की जगह चपरासी की नौकरी मिल गई. पांडेयजी को मानो इसी दिन का इंतजार था.

किसी को कानोंकान खबर नहीं हुई और उन्होंने मोहित को औफिस में जौइन कराने के साथ ही उसे अपने बंगले पर हमेशा के लिए बंधुआ मजदूर की तरह अपनी पत्नी और बच्चों की खुशामद में लगा दिया. वैसे, पांडेयजी ‘मनुस्मृति’ में विश्वास करते थे, वे दलित को अपने पैर की जूती समझते थे, लेकिन घरेलू काम कराने की मजबूरी में उन्होंने मोहित का उपनयन संस्कार कर, अपने मतलब भर के लिए उसे अछूत से सामान्य बना लिया. पांडेयजी की बड़ी बेटी श्वेता बहुत ही अक्खड़ थी और मोहित से गुलामों की तरह बरताव करने में उसे जातीय मजा आता था.

मोहित बेचारा हाथ जोड़े श्वेता की सेवा में खड़ा रहता था. जरा भी गड़बड़ हो जाए तो वह उस बेचारे की बहुत डांट लगाती थी. कभीकभार छड़ी से पिटाई कर देती थी. एक बार तो श्वेता ने अपने सभी दोस्तों के सामने मोहित को चांटा जड़ दिया था. पांडेयजी को अपनी परी जैसी बेटी की ऐसी हरकतें बहुत ही नादान और नटखट लगती थीं. उन्हें श्वेता के राजकुमारियों जैसे बरताव पर बहुत गर्व होता था. श्वेता के उकसाने पर पांडेयजी भी मोहित के कान तान देते थे.

मोहित के साथ श्वेता के गैरइनसानी बरताव के चलते किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था कि श्वेता एक दिन इसी गरीब, निचली जाति के गंवार लड़के से प्यार कर बैठेगी. मोहित भी केवल इसलिए श्वेता की गुस्ताखियों को सह रहा था, क्योंकि उसे श्वेता के निजी काम करने में अलग सा मजा आने लगा था. कोई नहीं समझ सका कि मोहित और श्वेता दोनों ही जवानी की दहलीज पर खड़े हैं, उन्हें एकदूसरे की खुशबू खींच सकती है. मोहित बगैर कहे श्वेता के कपड़ों को साफ करता, उन को प्रैस करता, उस के जूते साफ कर देता और अपने हाथों से पहना देता.

एक दिन मोहित ने किसी बात पर श्वेता को जवाब दे दिया. इस बात पर नाराज हो कर श्वेता ने अपने बड़ेबड़े नाखूनों से मोहित को लहूलुहान कर दिया. पर कहते हैं न कि नफरत बहुत जल्दी प्यार में भी बदल जाती है, लिहाजा मोहित की मालकिन भक्ति और बगैर जवाब दिए, हंसते हुए सब सह जाने के चलते श्वेता का दिल पहले ही मोहित के प्रति नरम पड़ चुका था. जब श्वेता ने मोहित का खून निकलते देखा तो उसे भी रोना आ गया. अपने हाथों से उस ने मोहित के जख्मों पर दवा लगाई. श्वेता अब मोहित को अपने दोस्त की तरह रखने लगी थी.

वह मोहित से सिर्फ 2 साल छोटी थी और कच्ची उम्र का प्यार बहुत ही मजबूत फीलिंग पैदा कर देता है. एक सर्द दोपहर को श्वेता कंबल लपेटे हुए टैलीविजन देख रही थी. श्वेता के लिए मैगी बनाने के बाद मोहित भी उस के पास बैठ कर टैलीविजन देखने लगा. ठंड से ठिठुर रहे मोहित को श्वेता ने कंबल के अंदर बुला लिया. मोहित की पहली छुअन उसे दिल की गहराइयों तक हिला गई. श्वेता ने मोहित से उस के हाथपैरों की मालिश करने को कहा और अपने सारे कपड़े उस के सामने ढीले कर दिए.

श्वेता, जो अपनी मां के सामने कपड़े बदलने में भी हिचकिचाती थी, उसे अपने गुलाम मोहित के आगे कपड़े उतारने में जरा भी शर्म नहीं आई. श्वेता की इस अनकही हां पर मोहित उस के शरीर के नाजुक हिस्सों को सहलाने लगा. इस से श्वेता की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. श्वेता को मस्ती में देख कर मोहित ने उस की ब्रा के हुक खोल दिए और उस के उभारों को सहलाता हुआ उन्हें चूमना शुरू कर दिया. अपने स्वभाव के उलट श्वेता ने इस बार मोहित को परे नहीं धकेला और न ही उस की इस हिम्मत के लिए उसे कोई सजा दी. जोश में आए मोहित को अपने पास खींच कर श्वेता ने उस पर चुमनों की बरसात कर दी. उस दिन के बाद से मोहित पांडेयजी के बंगले पर उन का सरकारी दामाद बन कर ठाठ से रहने लगा था और उधर पांडेयजी औफिस में मोहित की नौकरी की चिंता कर रहे थे.

मोहित के खाते में महीने के पहले दिन उस की सैलरी भी आ जाती थी. मोहित ने आज श्वेता बेबी की पसंद का पास्ता बनाया था. बेबी को मोबाइल फोन पर वीडियो गेम खेलने में दिक्कत न हो, इसलिए वह अपने हाथों से उसे खिला रहा था. पास्ता खत्म कर श्वेता ने अपना सिर मोहित की गोद में रख लिया, तो मोहित ने धीरे से श्वेता के उभारों को सहलाना शुरू कर दिया. आईने में अपने उभारों की गोलाइयों को देख कर इतराते हुए श्वेता सोच रही थी कि कालेज में आने के बाद उस की सहेलियां जहां अभी तक एक अदद बौयफ्रैंड नहीं ढूंढ़ पाईं, वहीं उस ने मोहित की बदौलत सैक्स में पीएचडी करना शुरू कर दी थी. श्वेता ने मोहित को ब्यूटीपार्लर का कोर्स सिखा दिया था.

मोहित घर पर ही श्वेता की वैक्सिंग, पैडीक्योर, थ्रैडिंग कर देता था. मौका मिलने पर मोहित बाथटब में श्वेता की पीठ साफ करने की नौकरी भी कर देता था. प्यारमुहब्बत से रहतेरहते बहुत जल्दी वे सारी मर्यादा तोड़ चुके थे. श्वेता को जब एक महीने का पेट ठहर गया, तब उसे गलती का अहसास हुआ. उस ने डरतेडरते मोहित को जब यह बात बताई, तब तक 2 महीने हो गए थे. परिवार वालों को जब तक पता लगा, तीसरा महीना पूरा हो गया था.  अब किसी भी तरह पेट गिराना मुमकिन नहीं था.

पांडेयजी को यकीन नहीं हो रहा था कि उन की इंगलिश स्कूल में पढ़ीलिखी बेटी को निचली जाति के गरीब लड़के से प्यार हो गया था. पांडेयजी को मनुस्मृति का मंत्र याद आ गया : अर्थनाशं मनस्तापं गृहे दुश्चरितानि च, वंचनं चापमानं च मतिमान्न प्रकाशयेत. यानी अपने अपमान, आर्थिक नुकसान के साथ ही साथ घर के दुश्चरित्र की बाहर चर्चा करने से कोई लाभ नहीं होता, व्यक्ति का मजाक ही बनता है. इस मंत्र को दोहराते हुए पांडेयजी ने खून का घूंट पी कर मजबूरी के चलते इस बात को छिपा दिया और श्वेता और मोहित की शादी कराने का फैसला किया. मोहित आज उन के बंगले पर कानूनी दामाद बन कर रह रहा है. समाजवादियों ने पांडेयजी को उन के इस क्रांतिकारी फैसले के चलते दलित समाज के आदमी को गले लगाने की वजह से उन्हें सम्मानित किया. मंच से दलितों की बदहाली पर बोलते हुए पांडेयजी की आंखों में आंसू आ गए.

खौफ के साए : जब साहब को मिली देख लेने की धमकी

मैं  अपने चैंबर में जैसे ही दाखिल हुआ, तो वहां 2 अजनबी लोगों को इंतजार करते पाया. उन में से एक खद्दर के कपड़े और दूसरा पैंटशर्ट पहने हुए था.

मैं ने अर्दली से आंखों ही आंखों में सवाल किया कि ये कौन हैं?

‘‘सर, ये आप से मिलने आए हैं. इन्हें आप से कुछ जरूरी काम है,’’ अर्दली ने बताया.

‘‘मगर, मेरा तो आज इस समय किसी से मिलने का कोई कार्यक्रम तय नहीं था,’’ मैं ने नाराज होते हुए कहा.

‘‘साहब, हमें मुलाकात करने के लिए किसी से समय लेने की जरूरत नहीं पड़ती. आप जल्दी से हमारी बात सुन लें और हमारा काम कर दें,’’ खद्दर के कपड़े वाले आदमी ने रोब से कहा.

‘‘मगर, अभी मेरे पास समय नहीं है. अच्छा हो कि आप कल दोपहर 12 बजे का समय मेरे सैक्रेटरी से ले लें.’’

‘‘पर, हमारे लिए तो आप को समय निकालना ही होगा,’’ दूसरा आदमी जोर से बोला.

‘‘आप कौन हैं?’’ मैं ने सवाल किया. ‘‘मैं अपनी पार्टी का मंत्री हूं. जनता की सेवा करना मेरा फर्ज है,’’ खद्दर वाले आदमी ने कहा.

‘‘और मैं इन का साथी हूं. समाज सेवा मेरा भी शौक है,’’ दूसरा बोला.

मैं ने उन्हें गौर से देखा और सोचने लगा, ‘अजीब लोग हैं… मान न मान, मैं तेरा मेहमान की तरह बिना इजाजत लिए दफ्तर में घुस आए और अब मुझ पर रोब झड़ रहे हैं. इन के तेवर काफी खतरनाक लग रहे हैं. ये आसानी से टलने वाले नहीं लग रहे हैं. क्या मुझे इन की बात सुन लेनी चाहिए?’

मुझ चुप देख कर पैंटशर्ट वाले आदमी ने कहा, ‘‘साहबजी, परेशान न हों. हमें आप से एक सर्टिफिकेट चाहिए. मेरी बहन को इस की सख्त जरूरत है. एक खाली जगह के लिए अर्जी देनी है. इस सर्टिफिकेट से उस की नौकरी पक्की हो जाएगी.’’

‘‘यह तो मुमकिन नहीं है. जब उस ने हमारे यहां काम ही नहीं किया है, तो मैं उसे सर्टिफिकेट कैसे दे सकता हूं? यह गलत काम मु?ा से नहीं हो सकेगा,’’ मैं ने कहा.

‘‘सर, आजकल कोई काम न तो गलत है और न सही. समाज में रह कर एकदूसरे की मदद तो करनी ही पड़ती है. कीमत ले कर सब मुमकिन हो जाता है. आप को जो चाहिए, वह हम हाजिर कर देंगे.

‘‘यह देखिए, टाइप किया हुआ सर्टिफिकेट हमारे पास है. बस, इस पर आप के दस्तखत और मुहर चाहिए,’’ नेता टाइप आदमी ने कहा.

‘‘मैं ने कभी किसी को इस तरह का झठा सर्टिफिकेट नहीं दिया है. आप किसी और से ले लो,’’ मैं ने साफ इनकार कर दिया.

‘‘मगर, हमें तो आप से ही यह सर्टिफिकेट लेना है और अभी लेना है. बुलाइए अपने सैक्रेटरी को.’’

‘‘यह कैसी जोरजबरदस्ती है. आप लोग मेरे दफ्तर में आ कर मुझे ही धमका रहे हैं. आप को यहां आने के लिए किस ने कहा.

‘‘बेहतर होगा, अगर आप यहां से चले जाएं और मुझे मेरा काम करने दें. अभी यहां एक जरूरी मीटिंग होने वाली है,’’ यह बोलते हुए मैं कांप रहा था.

‘‘सोच लो साहब, एक लड़की के कैरियर का सवाल है. हम भी कभी तुम्हारे काम आ सकते हैं. आजकल हर बड़े आदमी को सियासी लोगों के सहारे की जरूरत पड़ती है.

‘‘अगर तुम ने हमारी बात न मानी, तो फिर हम तुम्हें चैन से बैठने नहीं देंगे. हमें तुम्हारे घर से आनेजाने का समय मालूम है और बच्चों के स्कूल जाने के समय से भी हम अच्छी तरह वाकिफ हैं,’’ उन की ये धमकी भरी बातें मेरे कानों पर हथौड़े मार रही थीं.

मेरा सिर बोझिल हो गया. बदतमीजी की हद हो गई. ये तो अब आप से तुम पर आ गए. क्या किया जाए? क्या पुलिस को खबर कर दूं, पर उस के आने में तो देर लगेगी.

फिर कुछ देर बाद हिम्मत कर के मैं ने कहा, ‘‘तुम लोग मुझे धमका कर गैरकानूनी काम कराना चाहते हो. मैं तुम्हारे खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट कर दूंगा,’’ मैं ने घंटी बजा कर सैक्रेटरी को बुलाना चाहा.

इस पर उन में से एक गरजा, ‘‘शौक से कराओ रिपोर्ट, लेकिन तुम हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते. थानेचौकी में तो हमारी रोज ही हाजिरी होती है.’’

इन लोगों की ऊंची आवाजों से दफ्तर में भी खलबली मच गई थी.

‘‘सर, क्या सौ नंबर डायल कर के पुलिस को बुलवा लूं?’’ सैक्रेटरी ने आ कर धीमे से पूछा.

‘‘नहीं, अभी इस की जरूरत नहीं है. तुम मीटिंग की तैयारी करो. मैं इन्हें अभी टालता हूं.’’

मैं फिर पानी पी कर और अपनी सांस को काबू में कर के उन की तरफ मुड़ा. अब मु?ा पर भी एक अनजाना खौफ हावी था कि क्या होगा?

कमरे के बाहर मेरा अर्दली सारी बातें सुन कर मुसकरा रहा था. उस के मुंह से निकला, ‘अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे. सिट्टीपिट्टी गुम हो गई साहब की.

2 गुंडों ने सारा रोब हवा कर दिया.’

फिर वे दोनों उठ कर खड़े हो गए और जोरजोर से चिल्लाने लगे, ‘अगर हमारा काम नहीं किया, तो पछताओगे. यहां से घर जाना मुश्किल हो जाएगा तुम्हारे लिए. निशान तक नहीं मिलेगा, सम?ो.’

‘‘तुम लोग जो चाहे कर लेना, मगर मैं गलत काम नहीं करूंगा,’’ मैं ने भी आखिरी बार हिम्मत कर के यह वाक्य कह ही दिया.

‘अच्छा तो ठीक है. अब हम तुम्हारे घर शाम के 6 बजे आएंगे. सर्टिफिकेट टाइप करा कर लेते आना और मुहर भी साथ में लेते आना, वरना अंजाम के तुम खुद जिम्मेदार होगे,’ वे जाते हुए जोर से बोले.

मेरे मुंह से मुश्किल से निकला, ‘‘देखा जाएगा.’’

वे कमरे से बाहर चले गए थे, मगर मैं अपनी कुरसी पर बैठा खौफ से कांप रहा था कि अब क्या होगा? बाहर मेरा स्टाफ हंसीमजाक में मस्त था.

‘‘कल साहब दफ्तर नहीं आएंगे. घर पर रह कर उन गुंडों से बचने की तरकीबें सोचेंगे और हम मौजमस्ती करेंगे,’’ एक क्लर्क ने कहा.

तभी अर्दली ने अंदर आ कर पानी का गिलास रखते हुए पूछा, ‘‘चाय लाऊं, साहब?’’

‘‘नहीं… अभी नहीं.’’

मैं ने घड़ी देखी, तो दोपहर का डेढ़ बजने वाला था यानी लंच का समय हो गया था.

मैं ने सैक्रेटरी को बुला कर मीटिंग टलवा दी और अपनी हिफाजत की तरकीबें सोचने लगा, ‘जब तक बड़े साहब से बात न कर लूं, पुलिस में रिपोर्ट कैसे कराऊं. वे दौरे पर बाहर गए हैं,

2 दिन बाद आएंगे, तभी कोई कार्यवाही की जा सकती है.

‘अब सरकारी दफ्तरों में भी गुंडागर्दी फैलनी शुरू हो गई है. डराधमका कर गलत काम कराने, अफसरों को फंसाने और ब्लैकमेल करने की साजिशें हो रही हैं. हम जैसे उसूलपसंद लोगों के लिए तो अब काम करना मुश्किल हो गया है,’ सोचते हुए मेरी उंगलियां घर के फोन का नंबर डायल करने लगीं.

मैं ने बीवी से कहा, ‘‘सतर्क रहना और बच्चों को घर से बाहर न जाने देना. हो सकता है कि शाम को मेरे घर पहुंचने से पहले कोई घर पर आए. कह देना, साहब घर पर नहीं हैं.’’

‘‘पर, बात क्या है, बताइए तो सही?’’ बीवी ने मेरी आवाज में घबराहट महसूस कर के पूछा.

‘‘कुछ नहीं, तुम परेशान न हो. मैं समय पर घर आ जाऊंगा. गेट अंदर से बंद रखना.’’

फिर मैं ने अपने दोस्त धीर को फोन कर के सारी घटना उसे बता दी और उसे घर पर पूरी तैयारी से आने को कहा.

ठीक साढ़े 5 बजे मैं दफ्तर से घर के लिए अपनी गाड़ी से चल दिया. मेरे साथ अर्दली और क्लर्क भी थे.

वे लोग जिद कर के साथ हो लिए थे कि मुझे घर तक छोड़ कर आएंगे. उन की इच्छा को मैं टाल भी न सका.

सच तो यह है कि उन की मौजूदगी ने ही मेरी हिम्मत बढ़ा दी. रास्ते भर मेरी नजरें इधरउधर उन बदमाशों को ही तलाशती रहीं कि कहीं किसी तरफ से वे निकल न आएं और मेरी गाड़ी रोक कर मेरे ऊपर हमला न कर दें.

मैं ठीक 6 बजे घर पहुंच गया. वहां सन्नाटा छाया था. मैं ने दरवाजे की घंटी बजाई.

अंदर से सहमी सी आवाज आई, ‘‘कौन है?’’

‘‘दरवाजा खोलो. मैं हूं,’’ मैं ने जवाब दिया.

कुछ देर बाद मेरी आवाज पहचान कर बीवी ने दरवाजा खोला.

‘‘तुम इतनी घबराई हुई क्यों हो?’’ मैं ने पूछा.

‘‘आप के फोन ने मु?ो चिंता में डाल दिया था. फिर 2 फोन और आए. कोई आप को पूछ रहा था कि क्या साहब दफ्तर से आ गए? आखिर माजरा क्या है?’’ बीवी ने पूछा.

‘‘कुछ भी नहीं.’’

‘‘अगर कुछ नहीं है, तो आप के चेहरे पर खौफ क्यों नजर आ रहा है और आवाज क्यों बैठी हुई है?’’

मैं ने कोई जवाब नहीं दिया और बैग मेज पर रख कर अंदर सोफे पर लेट गया.

कुछ ही देर में धीर भी आ गया. उस ने मेरा हौसला बढ़ाते हुए कहा, ‘‘यार, घबराओ नहीं. मैं ने सब बंदोबस्त कर दिया है. अब वे तुम्हारे पास कभी नहीं आएंगे. हमारे होते हुए किस की हिम्मत है कि तुम्हारा कोई कुछ बिगाड़ सके.

‘‘रात में यहां 2 लोगों की ड्यूटी निगरानी के लिए लगा दी है. वे यहां का थोड़ीथोड़ी देर बाद जायजा लेते रहेंगे.’’

‘‘जरा तफसील से बताओ कि तुम ने क्या इंतजाम किया है?’’ मैं ने धीर से कान में फुसफुसा कर पूछा.

धीर ने बताना शुरू किया, ‘‘मैं उस खद्दरधारी बाबूलाल के ठिकाने पर हो कर आ रहा हूं. उसी के इलाके का एक दादा रमेश भी मेरे साथ था.

‘‘रमेश ने बाबूलाल को देखते ही कहा, ‘हम तो साहब के घर पर तुम्हारा इंतजार कर रहे थे और तुम यहां मौजूद हो.’

‘‘बाबूलाल रमेश को देख कर ढेर हो गया और हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया. फिर माफी मांगते हुए वह बोला, ‘साहबजी, मुझ से गलती हो गई, जो मैं आप के दोस्त के दफ्तर चला गया और उन को धमका आया. उमेश ने मुझ पर ऐसा काम करने का दबाव डाला था. मैं उस की बातों में आ गया था. अब कभी ऐसी गलती नहीं होगी.’

‘‘आज के जमाने में सेर पर सवा सेर न हो, तो कोई दबता ही नहीं है. जब उसे मेरी ताकत का अंदाजा हो गया, तो वह खुद डर गया, इसलिए वह अब कभी तुम्हारे पास नहीं आएगा.

‘‘तुम बेफिक्र रहो और कल से ही रोज की तरह दफ्तर जा कर अपना काम करो. कोई बात हो, तो मुझे फोन कर देना.’’

धीर की तसल्ली भरी बातों ने मेरा सारा खौफ मिटा दिया. अब मैं अपनेआप को पहले जैसा रोबदार अफसर महसूस कर रहा था.

मेरी बीवी और बच्चों के चेहरे भी खिल उठे थे.

दूसरे दिन जब मैं घर से दफ्तर के लिए निकला, तो हर चीज हमेशा की तरह ही थी. डर की कोई परछाईं भी नजर नहीं आ रही थी.

आज अपने चैंबर में बैठा हुआ मैं महसूस कर रहा था कि खौफ तो आदमी के अंदर ही पनपता है, बाहर तो केवल उस की परछाइयां ही फैलती हुई लगती हैं.

 

मिसाल : बहू और ससुर का निराला रिश्ता

किसी रेलवे प्लेटफौर्म पर खड़े हो जाओ, तो लगता है कि सारी दुनिया कहीं आनेजाने में लगी हुई है. यहां किसी को लेने आओ और इंतजार करो, तो उस का अलग ही मजा है. देखते रहो लोगों को आतेजाते, उन की गतिविधियां, अलग ही आनंद होता है इन सब को देखने का. कौन से स्टेशन पर कौन मिलेगा और कौन बिछुड़ेगा. कुछ नहीं पता, किस का साथ कितनी देर तक और कितनी दूर तक, यह भी नहीं मालूम, किस की यादों के फूल सदा सुगंध बिखेरते रहेंगे और किस के कांटे बन कर सदा चुभते रहेंगे, यह भी रहस्य ही रहता है.

एक बार बिटिया कानपुर गई थी. मैं उसे लेने के लिए स्टेशन गई थी. ट्रेन 3 घंटे देरी से आनी थी. मैं एक उपन्यास ले गई थी. प्लेटफौम पर स्टौल से कौफी खरीदी और उसे पढ़ने की जगह ढूंढ़ने लगी. कोने की एक बैंच पर एक बुजुर्ग और लगभग 3-4 साल का एक छोटा बच्चा बैठे हुए थे. बाकी सब जगहें भरी हुई थीं. मैं वहीं चली गई और उन के साथ बैठ गई. वे बुजुर्ग उस बच्चे के साथ खेलने में लगे हुए थे. बच्चा बड़े प्यार से खिलखिला कर उन के साथ खेल रहा था. यह देख कर मेरे चेहरे पर भी मुसकान आ गईर् और मैं मुसकराते हुए दूसरे कोने में बैठ गई और उपन्यास पढ़ने की कोशिश करने लगी. पर उस बच्चे की खिलखिलाती हुई हंसी से मेरा ध्यान बारबार उस की तरफ चला जाता. उन बुजुर्ग का ठेठ देहाती पहनावा होने के बावजूद वे एक संपन्न और संभ्रांत परिवार के लग रहे थे. सफेद धोतीकुरते और सफेद बड़ी सी पगड़ी लपेटे, बड़ीबड़ी सफेद रोबीली मूंछें और आंखों में काले फ्रेम के चश्मे में उन का तेजस्वी व्यक्तित्व झलक रहा था. बैठे हुए होने पर भी उन की कदकाठी ऊंची ही लग रही थी. लंबेलंबे पैरों में काली चमकदार जूतियां सजी थीं. वे देहाती नहीं, बहुत पढ़ेलिखे लगे. बच्चे को वे वैभव कह कर बुला रहे थे.

इतने में बच्चा पानी मांगने लगा तो उन्होंने अपने बैग से पानी की बोतल निकाली. वह खाली थी. वे पानी की बोतल लेने जाने लगे तो मैं ने उन्हें अपनी पानी की बोतल देते हुए कहा, ‘‘यह अभी खरीदी है, आप इसी से ही पिला दीजिए.’’

उन्हें संकोच हुआ पर मेरे बारबार कहने पर उन्होंने मेरी बोतल से थोड़ा पानी अपनी बोतल में ले कर वैभव को पानी पिला दिया. उन्होंने मुझसे पूछा, ‘‘कौन सी ट्रेन का वेट कर रही हो?’’

मैं ने कहा, ‘‘गरीब रथ, मेरी बेटी आ रही है कानपुर से और आप?’’

वे बोले, ‘‘मैं भी गरीब रथ का ही इंतजार कर रहा हूं, मेरी बहू यानी इस की मां भी कानपुर से ही आ रही है, उसे लेने आए हैं.’’

मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ कि ससुर अपनी बहू को लेने आए हैं.

मैं ने पूछा, ‘‘क्या अपने मायके से आ रही हैं?’’

वे बोले, ‘‘नहीं, उस का इम्तिहान था वहां, सिविल सर्विस का.’’

मैं ने कहा, ‘‘यह तो बड़ी अच्छी बात है कि आप लेने आए हैं, उन के पति कहीं बाहर हैं क्या?’’

इस के बाद जो कुछ उन्होंने मुझे बताया, वह केवल आंखों में अश्रु भरने वाला ही था. उन्होंने कहा, ‘‘वैभव के पिता कैप्टन विक्रम सिंह अब इस दुनिया में नहीं हैं, फौज में था मेरा बेटा और कश्मीर में पोस्टिंग के दौरान शहीद हो गया, वैभव तब 2-3 महीने का ही था. मेरा बड़ा बेटा भी आर्मी में था और वह भी सियाचिन बौर्डर पर हमले में शहीद हो गया था. उस की शादी भी नहीं हुई थी. विक्रम की शादी धूमधाम से की थी पर वह भी इस संसार में नहीं रहा.’’ यह कह कर वे चुप हो गए.

मन विचलित हो गया यह सुन कर, मैं ने पूछा, ‘‘आप के घर में और कौनकौन है?’’ वे बोले, ‘‘मेरी पत्नी तो बहुत पहले ही चल बसी थी, मैं खुद फौज में था पर बिन मां के बच्चों को पालने के लिए सेवानिवृत्त हो गया. आज मैं अपनी बहू के साथ रहता हूं और अपने इस नन्हे से पोते को खिलाता रहता हूं.’’

उन्होंने आगे कहा, ‘‘बहू को अपने मायके जाने को कहा. पर वह मानी नहीं, कहती है, ‘पापा, आप के साथ ही रहूंगी, आप के बच्चों ने देश की सेवा करते हुए अपनी जान कुर्बान कर दी तो क्या मैं आप की सेवा नहीं कर सकती.’ अब उस ने एमए किया और सिविल सर्विस के लिए तैयारी की. मेरी भी बड़ी सेवा करती है. अब मेरा इन दोनों के अलावा और है ही कौन? काश, मेरे एकदो बेटे और होते तो उन को भी

मैं देश की सेवा के लिए सेना में भरती करा देता. अब यही इच्छा है कि वैभव भी बड़ा हो कर सेना में भरती हो या फिर डाक्टर बने. आगे उस की मरजी रहेगी.’’ फिर कुछ आजीविका की बात चली तो वे बोले, ‘‘मेरे गांव में मेरी काफी जमीन है, पुश्तैनी हवेली है, पैसे की कोई कमी नहीं और हम 3 जनों का बड़े अच्छे से गुजारा होता है. हम ने गांव में छोटा सा अस्पताल बनवाया है जहां गरीबों का मुफ्त इलाज होता है. 6 डाक्टर हैं वहां जिन से इलाज कराने दूरदूर से लोग आते हैं.’’

उन की बातें सुन कर मैं हैरान रह गई. समझ नहीं आया कि क्या कहूं? जिस व्यक्ति के दोनों जवान बेटे शहीद हो गए हों, वह कितनी जिंदादिली से बात कर रहा है. फिर भी हिम्मत कर के मैं ने पूछा, ‘‘आप क्या अपने पोते को भी शहीद होते हुए देख सकोगे अगर वह सेना में भरती हुआ तो?’’

उन के होंठों पर फीकी सी हंसी तैर गई, गोद में बैठे हुए वैभव के सिर पर हाथ फेरते हुए उन्होंने थोड़ा भावुक हो कर कहा, ‘‘कौन बाप अपने पुत्र की अर्थी को कंधा देना चाहता है पर देश के लिए हम इतना तो कर ही सकते हैं. आज लोग मुझे मेरे बेटों के नाम से जानते हैं, यह मेरे लिए बड़े ही गर्व की बात है. मेरी बहू राधिका बहुत ही सुशील और संस्कारी है. पूरा गांव उस की बड़ी इज्जत करता है.’’

मैं ने पूछा, ‘‘आप की बहू की उम्र तो अभी कम होगी, जिंदगी तो बहुत लंबी है, दूसरे विवाह के बारे में तो…’’ यह कहतेकहते मैं रुक गई.

तब वे खुद ही बोले, ‘‘मैं ने उस से कहा भी, ‘बेटा, तुम अभी छोटी उम्र की हो, दूसरा विवाह कर लो और अपनी जिंदगी को अच्छे से जियो.’ पर वह कहती है, ‘पापा यह क्या पता है कि मेरे दूसरे पति की उम्र भी कितनी हो. कम से कम मैं आज कैप्टन विक्रम सिंह की पत्नी के नाम से तो जानी जाती हूं. यह पहचान मेरे लिए बहुत बड़ी है. मेरे मांबाप ने तो मुझे आप लोगों को सौंप दिया था. अब मैं ही आप की बेटी और बेटा दोनों बन कर रहूंगी.’ और अब बहू मेरी बेटी ही बन गई है. हम दोनों अच्छे दोस्त भी हैं, खूब बातें करते हैं, बहस करते हैं, और रूठनामनाना भी करते हैं.’’ वे मुसकरा कर आगे बोले, ‘‘बड़ी जिद्दी है राधिका, जो भी ठान लिया, वह कर के ही छोड़ती है. मैं उस से हार जाता हूं और जिस का मुझे दुख भी नहीं होता.’’

यह सुन कर मेरी आंखों में आंसू आ गए. मुझे विश्वास ही नहीं हुआ कि इस संसार में ऐसे भी लोग हैं जो हमारे देश, समाज और परिवार के लिए कितनी मौन कुर्बानियां देते हैं और हम क्या कर रहे हैं? कुछ भी तो नहीं, मैं ने कहा, ‘‘आप से मिल कर बहुत ही अच्छा लगा, आप एक आदर्श हैं हम सब के लिए.’’

वे मुसकराए और बोले, ‘‘मुझे भी अच्छा लगा, अनाउंसमैंट हो गया है. गाड़ी के आने का, चलो अपनेअपने बच्चों से मिलते हैं, फिर वैभव से बोले, ‘‘ इन को नमस्ते करो,’’ देखो, बड़ी दीदी हैं न.’’ तो वैभव ने झट से मुझे नमस्कार किया.

मैं ने उसे गोदी में उठा कर प्यार किया. इस से ज्यादा कुछ था भी नहीं मेरे पास उस मासूम के लिए. मैंने भरेमन से हाथ जोड़ कर उन से विदा ली. उन्होंने मुझे आशीर्वाद दिया और हम अपनेअपने गंतव्य की ओर बढ़ गए. मेरी बिटिया मिली अपनी सब सहेलियों के साथ और उन की चहकती हुई आवाजों में वैभव की खिलखिलाती हुई हंसी कहीं गुम सी हो गई. टैक्सी में बैठते समय मुझे वे बुजुर्ग और उन की बहू वैभव को गोदी में लिए जाते हुए नजर आए. वे बहू से बात करते हुए जा रहे थे. ऐसा बिलकुल भी नहीं लगा कि वे एक ससुर और बहू हैं, बल्कि एक पिता अपनी बेटी से बात करता चलता हुआ दिखा.

वे  बुजुर्ग कितनी बड़ी सीख दे गए बिना कुछ सिखाए कि अपने देश से बड़ा कुछ भी नहीं. जो भी करना है निस्वार्थ करो और अपने परिवार के लिए भी. आज वे सबकुछ खो कर भी कितने संतुष्ट दिखाई दिए जबकि कितने लोगों के पास सबकुछ होते हुए भी उन को संतुष्टि नहीं होती. लोग जिंदगीभर दूसरों को ही नसीहतें दिए जाते हैं और जब अपने ऊपर बात आती है तो खिसक जाते हैं. पर वे बुजुर्ग अपनेआप में एक मिसाल हैं.

रोटी- वह पुलिस की रोटी बनाती है

उस बड़े शहर से दूसरे शहर जाने के लिए बस से तकरीबन एक घंटा लगता था. दोनों शहरों के बीच जीटी रोड पर कई कसबे आते थे, जहां बस थोड़ी देर रुक कर फिर चलती थी.इस बड़े शहर से मैं एक प्राइवेट बस में बैठ गया. बस खचाखच भरी हुई थी. बड़े शहर से तकरीबन आधे घंटे की दूरी पर एक मशहूर कसबा आता था. वहां बस 5 मिनट के लिए रुकती थी.

बस रुकी और कुछ मुसाफिर उतरे, तो कुछ चढ़े. भीड़ फिर उतनी की उतनी.ड्राइवर की सीट की पिछली सीट पर बैठी एक औरत ने शोर मचा दिया, ‘‘मेरा पर्स चोरी हो गया है… मेरे पास ही एक औरत खड़ी थी, उस ने ही मेरा पर्स चोरी किया है.’’ड्राइवर ने कहा, ‘‘मैं ने उस औरत को पर्स ले जाते हुए देखा है. मैं उस औरत को पहचानता हूं. वह इस बस में पहले भी आतीजाती रही है. लेकिन अब क्या किया जा सकता है? वह औरत तो पर्स ले कर रफूचक्कर हो गई है.

‘‘बहनजी, आप अपने पर्स का ध्यान नहीं रख सकती थीं क्या? आप के पास 2 बैग और भी हैं. इतना सामान उठाए फिरती हो, चोरी तो होनी ही थी.’’उस औरत ने रोंआसी आवाज में कहा, ‘‘भाई साहब, मैं तो पहले से ही बहुत परेशान हूं. मेरे पोते का आज शाम औपरेशन होना है.

मैं ने इधरउधर के रिश्तेदारों से उधार ले कर औपरेशन के लिए पैसे पूरे किए थे. उस पर्स में 20 हजार रुपए थे. मैं गरीब मारी जाऊंगी. हाय, अब मैं क्या करूं?’’बस के सभी मुसाफिरों की उस औरत के साथ हमदर्दी थी, पर अब किया क्या जाए? कौन दे उस को इतनी बड़ी रकम?बस चल पड़ी और 5 मिनट के बाद अगले चौक पर बस मुसाफिरों को लेने के लिए रुकी.

अचानक ड्राइवर की नजर उस औरत पर जा पड़ी, जिस ने पर्स चोरी किया था. वह पर्स पकड़े सड़क पार कर रही थी.ड्राइवर ने फुरती से उतर कर उस औरत को पकड़ लिया. बस से कई मुसाफिर भी उतर पड़े. चारों ओर शोर मच गया कि चोरनी पकड़ी गई.बस ड्राइवर ने उस औरत को पकड़ कर बस में बैठा लिया और पर्स उस औरत को दे दिया, जिस का था.

सारे रुपए पर्स में ही थे.पर्स वाली औरत ने ड्राइवर का लाखलाख शुक्रिया अदा किया. उस की आंखों में खुशी ?ालकने लगी.ड्राइवर ने बस पुलिस स्टेशन पर ला खड़ी की. मुसाफिर भी तमाशा देखने के लिए नीचे उतर पड़े कि अब इस चोरनी की खूब मरम्मत होगी.ड्राइवर ने उस चोरनी को थानेदार के सामने पेश करते हुए कहा, ‘‘जनाब, इस औरत ने बस में एक औरत का पर्स चोरी किया है,

जो इस से बरामद हुआ है,’’ साथ ही उस ने थानेदार को सारी कहानी सुना दी.थानेदार ने अपनी आंखें टेढ़ी करते हुए उस औरत की ओर ध्यान से देखा और कहा, ‘‘हां, तो तुम ने चोरी की है. इसे उस बरामदे में बैठा दो.’’थानेदार का गुस्सा सातवां आसमान छूने लगा था.

उस ने अपने मोटे पेट की बैल्ट ठीक करते हुए सभी मुसाफिरों को बस में बैठने को कहा. सभी मुसाफिर थानेदार का चढ़ा हुआ गुस्सा देख कर बस में बैठ गए.थानेदार ने पर्स वाली औरत और ड्राइवर को बहुत इतमीनान से सम?ाते हुए कहा, ‘‘देखो, बेवजह कोर्टकचहरी के चक्कर में पड़ोगे, तारीखें भुगतोगे, क्या फायदा? आप का पर्स मिल गया है.

आप के पूरे पैसे मिल गए हैं और क्या लेना आप को?‘‘इस औरत को अपना पर्स ले कर जाने दो. इस बेचारी को अस्पताल पहुंचना है. ‘‘बहनजी, आप जाइए. बैठिए बस में, हम अपनी कार्यवाही कर लेते हैं.’’पर ड्राइवर ने जोर दे कर कहा, ‘‘जनाब, इस इलाके की दूसरी बसों में भी कई चोरियां हुई हैं. इस औरत से कई और चोरियां पकड़ी जा सकती हैं. यह एक पूरा गैंग होगा. आप अर्जी रजिस्टर करें.’’एक शख्स ने कहा, ‘‘गवाही हम देंगे, आप पूरा गैंग पकड़ो.’’आखिरकार जब थानेदार की कोई तरकीब काम नहीं आई, तो वह सम?ा गया कि अब केस रजिस्टर करना ही पड़ेगा.

उस ने ड्राइवर और उस शख्स को थोड़ी दूर ले जा कर सम?ाया, ‘‘देखो यार, हमें भी समाज में जीना है. क्या करें, हमारी भी कई बार मजबूरी होती है.‘‘हमारी भी इज्जत का सवाल है, अर्जी रहने दो… बात यह है कि यह औरत, जिस ने चोरी की है, थाने में रोटी बनाती है. ‘‘छोड़ो, आप को क्या लेना? पूरे पैसे मिल गए न आप को. छोड़ो, अब जाने दो.’’

प्यासी धरती : ब्याहता दीपा का दर्द

‘‘मां, अब बस भी करो. अपने पारस के गुणगान करना बंद करो. बहुत हुआ. मैं ने बता दिया न कि मैं उस के साथ नहीं रह सकती. मुझे वह खुशी नहीं दे सकता, फिर क्या मतलब है उस के साथ रहने का. चलो अब, वरना कोर्ट पहुंचने में देर हो जाएगी,’’ ऐसा कहते हुए दीपा अपनी स्कूटी स्टार्ट करने लगी.

दोनों मांबेटी कोर्ट पहुंच गईं. उधर से पारस की फैमिली भी आई थी, जिस में पारस के साथ उस के मम्मीपापा भी थे. पारस की एक बहन है शालिनी, जो सिंगापुर में रहती है. वैसे, शालिनी की ससुराल जींद, हरियाणा में है, लेकिन वे दोनों पतिपत्नी सिंगापुर में नौकरी करते हैं.

इधर दीपा के पिता का 5-6 साल पहले एक सड़क हादसे में देहांत हो गया था. दीपा का एक भाई है आकाश, जो

8 साल पहले दुबई चला गया था, लेकिन अभी तक नहीं लौटा है… पिता की मौत पर भी नहीं आया.

आकाश कभीकभी वीडियो काल कर लेता है. वहां की एक लड़की से उस ने शादी कर ली है, जो भारत में आ कर रहना तो दूर यहां का नाम भी नहीं सुनना चाहती है, उसे वहीं रहना है. यहां बस दोनों अकेली मांबेटी ही हैं.

4 साल पहले दीपा की शादी पारस के साथ हुई थी. शालिनी और दीपा दोनों सहेलियां थीं. शालिनी को दीपा के घर के हालात पता थे. शालिनी ने ही अपने भाई पारस और दीपा के रिश्ते की बात की थी.

एक साल तक दीपा की मां को कुछ खबर नहीं थी, लेकिन उस के बाद से अकसर दीपा के घर में क्लेश रहने लगा था. रोज थाने और कोर्टकचहरी के चक्कर. कभी दीपा का पति और सासससुर पर मारपीट का इलजाम लगाना, तो कभी दहेज के लिए सताना, कभी खाना न देना, तो कभी ससुर पर बहू को छेड़ने का इलजाम… यहां तक कि एक बार तो दीपा ने पारस पर ड्रग्स इस्तेमाल करने का भी इलजाम लगा दिया था.

इस चक्कर में अकसर पारस थाने में होता था. मातापिता एक केस की जमानत करा कर उसे जेल से छुड़ा कर लाते तो दीपा कोई और केस बनवा देती. पिछले 3 साल से यही सब चल रहा था. आखिरकार दीपा ने तलाक की अर्जी दे ही दी.

आज इस केस का आखिरी फैसला सुनाया जाएगा. न जाने जज साहब क्या फैसला सुनाते हैं? न जाने वे उन दोनों का तलाक मंजूर करते हैं या नहीं? इतने में जज साहब आ गए. सब ओर खामोशी छा गई.

‘‘केस नंबर 788 दीपा और पारस का तलाक, दीपा और पारस कोर्ट में हाजिर हों…’’ एक जोरदार आवाज लगाई गई.

जज ने दीपा से पूछा, ‘‘तो दीपाजी क्या सोचा आप ने? सोचसमझ कर जवाब दीजिए. आप के हाथ में कोई भी ठोस वजह नहीं है तलाक की… और पारसजी, क्या आप भी वही चाहते हैं, जो दीपाजी चाहती हैं?’’

दीपा बोली, ‘‘जी सर, मैं ने सोच लिया है कि मुझे तलाक चाहिए.’’

इधर पारस ने कहा, ‘‘जज साहब, मुझे समझ नहीं आ रहा कि मैं हां कहूं या न, क्योंकि मैं ने दीपा को कभी कोई तकलीफ नहीं दी और न ही मेरे मातापिता ने… फिर भी दीपा ने हम पर ढेरों इलजाम लगा कर अनेक बार हमें जेल भिजवाया है.

‘‘जज साहब, मैं कईकई महीने जेल रह चुका हूं. मैं ने बिना किसी कुसूर के पुलिस की मार खाई है, वह भी दीपा के गलत इलजामों पर, फिर भी दीपा अगर तलाक लेने पर अड़ी है तो जैसी इस की मरजी…’’

जज साहब दोनों की बात सुन कर बोले, ‘‘कोई ठोस वजह न होने के चलते यह अदालत तलाक नामंजूर करती है. अगर किसी के पास तलाक लेने की कोई ठोस वजह हो तो जरूर बताए, तभी उस पर विचार किया जाएगा.’’

लेकिन दीपा को तो तलाक चाहिए था. यह फैसला सुनते ही वह फूटफूट कर रो पड़ी और बोली, ‘‘जज साहब, मेरे साथ नाइंसाफी न करें, मुझे तलाक दिलवा दें. मैं मर जाऊंगी इस तरह. मुझे छुटकारा चाहिए. प्यासी धरती सी मैं इस तरह से बंजर बन जाऊंगी, लेकिन मुझे बंजर जमीन नहीं बनना.’’

दीपा का इस तरह विलाप देख कर सब पसोपेश में थे कि आखिर अब तक कोई ठोस वजह वह सामने नहीं ला रही थी, अब अचानक से किस तरह की बातें कर रही है? ऐसी क्या वजह है, जो वह मरने की बातें कर रही है?

सब के सब हैरान हो कर दीपा को देख रहे थे. आखिर में मां के बहुत कहने पर दीपा ने अपनी कहानी सुनाई…

‘‘मुझे प्यार करने का हक नहीं था, क्योंकि न मेरे सिर पर पिता का साया था और न भाई ही मेरे पास था. पैसे कमाने की धुन भाई को अपनों से दूर ले गई. मुझे अगर किसी लड़के के साथ बात करते हुए भी देखा जाता तो न जाने कितनी बातें बनाते थे समाज वाले… बिन बाप और भाई की जो ठहरी… उस पर गरीबी का तमगा.

‘‘शालिनी बहुत अच्छी दोस्त थी मेरी. उस से मेरे घर के हालात छिपे नहीं थे. उस ने मुझ से पूछा कि क्या मैं उस के भाई से शादी करने के लिए तैयार हूं? तो मैं ने झट से हां बोल दी, क्योंकि मैं जानती थी कि अकेली मां क्याक्या करेंगी मेरे लिए.

‘‘मैं शालिनी की शुक्रगुजार थी कि जिस ने एक सच्चे दोस्त का फर्ज अदा किया. लड़की गरीब हो या अमीर, अरमान सब के दिल में एकजैसे उठते हैं. मेरे दिल में अरमान जगे, मैं ने भी शादी को ले कर अनेक सपने देख डाले, लेकिन मैं नहीं जानती थी कि मेरे सपनों का यह अंजाम होगा.

‘‘शादी की पहली रात मेरे दिल में सौ तरह के खयाल आ रहे थे, जिन्हें सोच कर ही मैं शर्म से लाल हो रही थी, लेकिन पारस जैसे ही कमरे में आए और बत्ती बुझा कर यह कह दिया कि ‘बहुत ज्यादा थक गया हूं, सो जाते हैं…’ मैं हैरान रह गई थी यह सुन कर.

‘‘सोचिए, उस समय मेरे दिल पर क्या बीती होगी. अगले 2-3 दिन पारस करीब तो आए, मगर मुझे भरपूर पति सुख न दे पाए. मैं अभी भी प्यासी ही थी. सहेलियां मुझ से पहली रात का किस्सा सुनाने को कहतीं, जिस पर मेरे मन की ज्वाला और भड़क जाती, लेकिन मैं किसी से कुछ नहीं कह सकती थी.

‘‘इस तरह तकरीबन 6 महीने बीत गए. कभी तो पारस सैक्स कर के थक जाते, लेकिन संतुष्टि न मिल पाती और कभी जब सैक्स की ताकत बढ़ाने की दवा खाते तो शुरू करने से पहले ही पस्त हो जाते.

‘‘इसी बात को ले कर एक दिन मैं शालिनी से झगड़ पड़ी थी, ‘शालिनी, तू तो मेरी सच्ची दोस्त थी. तू ने मुझे धोखे में क्यों रखा?’

‘‘इस पर शालिनी ने कहा था, ‘दीपा, मैं इस बारे में कुछ नहीं जानती. तुम सब्र रखो, धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा.’

‘‘अब तक सब्र ही तो करती आई थी. कुछ समय बाद हम लोग न्यू ईयर पार्टी में गए. पार्टी में सब एकदूसरे के साथ डांस कर रहे थे. पारस भी अपने दोस्त की पत्नी के साथ और मैं पारस के दोस्त के साथ डांस कर रही थी.

‘‘न जाने उस ने किस जोश से मुझे पकड़ा हुआ था कि मैं अपने जज्बात संभाल न पाई, बह गई और अपनेआप को उस की बांहों के सहारे छोड़ दिया. बेताब हो गई उस के आगोश में समा जाने को. कस कर पकड़ लिया उसे और उस के सीने से चिपक गई.

‘‘वहां पर मौजूद लोग मुझे इस तरह देख कर तरहतरह की बातें करने लगे, जो पारस के कानों तक पहुंचीं और पारस ने आ कर मुझे इतनी जोर से खींचा कि मैं वह दर्द बरदाश्त न कर सकी.

‘‘इस के बाद पारस मुझे कार में ले गए और गुस्सा करने लगे. उस समय मैं कुछ समझ नहीं पा रही थी और अचानक गुस्से में मेरा भी हाथ पारस के चेहरे पर जा पहुंचा. वे इस थप्पड़ से तिलमिला गए थे.

‘‘इस तरह हमारा अकसर झगड़ा हो जाता था. जब मैं ज्यादा परेशान हो गई, तो एक दिन मैं ने पुलिस में पारस के खिलाफ शिकायत लिखवाई, लेकिन कुछ नहीं हुआ.

‘‘लेकिन इसी बीच अकसर सास भी पोतेपोते की रट लगाती थीं और जब ससुरजी भी बारबार ऐसी बातें करते तो मुझे बुरा लगता था. घर के रोजरोज के झगड़ों से परेशान प्यासी धरती सी मैं तड़पती रही. मैं जाऊं तो कहां जाऊं…

‘‘मैं ने अपनी मां को बचपन से ही परेशान देखा था. पापा अकसर मां पर हाथ उठाया करते थे, गंदीगंदी गालियां देते थे. उन के कमरे से आवाजें आती थीं, ‘पूरा मजा भी नहीं देती तो क्या तेरी आरती उतारूं. अब मजा लेने क्या मैं किसी और के पास जाऊं… जब तुझे ब्याह कर लाया हूं तो तेरा ही बदन चाटूंगा न, किसी पड़ोसन का तो नहीं…’

‘‘उस पर मां कहती थीं, ‘अब महीना आया हुआ है तो इस में भला मैं क्या कर सकती हूं… आप भी तो 3-4 दिन सब्र नहीं रखते… भला इन दिनों में कौन करता है…’

‘‘ऐसी बातों को सुन कर और खुद के अरमानों को जलता देख मैं सोचती थी कि अगर औरत पूरा मजा न दे तो भी वही कुसूरवार और अगर मर्द औरत को पूरा मजा न दे तो भी औरत ही पिसे. ऐसा क्यों?’’

दीपा सुबकते हुए अपनी सारी कहानी बयान कर रही थी. सभी चुपचाप सिर झुकाए बैठे थे.

जज साहब कमरे की खामोशी तोड़ते हुए बोले, ‘‘दीपाजी, आप का तलाक मंजूर किया जाता है.’’

बदला : अंजलि और मनीष के मिलने का सिलसिला कब तक चलता रहा

मनीष सुबह टहलने के लिए निकला था. उस के गांव के पिछवाड़े से रास्ता दूसरे गांव की ओर जाता था. उस रास्ते से अगले गांव की काफी दूरी थी. वह रास्ता गांव के विपरीत दिशा में था, इसलिए उधर सुनसान रहता था. मनीष को भीड़भाड़ से दूर वहां टहलना अच्छा लगता था. वह इस रास्ते पर दौड़ लगाता और कसरत करता था.

मनीष जैसे ही अपने घर से निकल कर गांव के आखिरी मोड़ पर पहुंचा, तो उस ने देखा कि सामने एक लड़की एक लड़के से गले लगी हुई. मनीष रुक गया था. दोनों को देख कर उस के जिस्म में सनसनाहट पैदा होने लगी थी. वह जैसे ही नजदीक पहुंचने वाला था, वह लड़की जल्दी से निकल कर पीछे की गली में गुम हो गई.

‘‘अरे, यह तो अंजलि थी,’’ वह मन ही मन बुदबुदाया. वही अंजलि, जिसे देख कर उस के मन में कभी तमन्ना मचलने लगती थी. उस के उभारों को देख कर मनीष का मन मचलने लगता था. आज उसे इस तरह देख कर वह अपनेआप को ठगा सा महसूस करने लगा था.

आज मनीष पूरे रास्ते इसी घटना के बारे में सोचता रहा. आज उस का टहलने में मन नहीं लग रहा था. वह कुछ दूर चल कर लौटने लगा था. वह जैसे ही घर पहुंचा कि गांव में शोर हुआ कि किसी की हत्या हुई है. लोग उधर ही जा रहे थे.

मनीष भी उसी रास्ते चल दिया था. वह हैरान हुआ, क्योंकि भीड़ तो वहीं जमा थी, जहां से अंजलि निकल कर भागी थी. एक पल को तो उसे लगा कि भीड़ को सब बता दे, पर वह चुप रहा.

सामने अंजलि अपने दरवाजे पर खड़ी मिल गई. शायद वह भी बाहर हो रही घटनाओं के संबंध में नजरें जमाई थी.

मनीष ने उसे धमकाते हुए कहा, ‘‘मैं ने सबकुछ देख लिया है. मैं चाहूं तो तुम सलाखों के पीछे चली जाओगी.’’

अंजलि ने हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाते हुए कहा, ‘‘अपना मुंह बंद रखना. मैं तुम्हारी अहसानमंद रहूंगी.’’

‘‘ठीक है. आज शाम 7 बजे झड़ी के पीछे वाली जगह पर मिलना. मैं तुम्हारा इंतजार करूंगा.’’

‘‘अच्छा, लेकिन अभी जाओ और घटना पर नजर रखना.’’

मनीष वहां से चल दिया. घटनास्थल पर भीड़ इकट्ठा हो गई थी. कुछ देर बाद पुलिस भी आ गई थी. पुलिस ने हत्या के बारे में थोड़ीबहुत जानकारी ले कर लाश को पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया था. मनीष अपने घर लौट आया था.

मनीष अंदर से बहुत खुश था कि आज उस की मनोकामना पूरी होगी. फिर हत्या कैसे और क्यों की गई है,  इस का राज भी वह जान पाएगा. उस के मन में बेचैनी बढ़ती जा रही थी. आज काम में बिलकुल भी मन नहीं लग रहा था, इसलिए समय बिताने के लिए वह अपने कमरे में चला गया था.

मनीष तय समय पर घर से निकल गया था. जाड़े का मौसम होने के चलते अंधेरा पहले ही हो गया था.

मनीष तय जगह पर पहुंच चुका था, तभी उस की ओर एक परछाईं आती हुई नजर आई. मनीष थोड़ा सा डर गया था. परछाईं जैसेजैसे उस की ओर बढ़ रही थी, उस के मन से डर भी खत्म हो रहा था, क्योंकि वह कोई और नहीं बल्कि अंजलि थी.

अंजलि के आते ही मनीष ने उस के दोनों हाथों को अपने हाथों में थाम लिया था. कुछ पल के बाद उसे अपने आगोश में भरते हुए उस ने पूछा, ‘‘अंजलि, तुम ने जितेंद्र की हत्या क्यों की?’’

‘‘उस की हत्या मैं ने नहीं की है, उस ने मेरे साथ सिर्फ शारीरिक संबंध बनाए थे, जो तुम देख चुके हो.’’

‘‘हां, लेकिन हत्या किस ने की?’’

‘‘शायद मेरे जाने के बाद किसी ने हत्या कर दी हो. यही तो मुझे भी समझ में नहीं आ रहा है… और इसीलिए मैं डर रही थी और तुम्हारी बात मानने के लिए राजी हो गई,’’ अंजलि अपनी सफाई देते हुए बोली थी.

‘‘क्या उस की किसी से दुश्मनी रही होगी?’’ मनीष ने सवाल किया.

‘‘मुझे नहीं पता… अब तुम पता करो.’’

‘‘ठीक है, मैं पता करता हूं.’’

‘‘मुझे तो डर लग रहा है, कहीं मैं इस हत्या में फंस न जाऊं.’’

‘‘मेरी रानी, डरने की कोई बात नहीं है, मैं तुम्हारे साथ हूं. मैं तुम्हारी मदद करूंगा. बस, तुम मेरी जरूरतें पूरी करती रहो,’’ मनीष के हाथ उस की पीठ से फिसल कर उस के कोमल अंगों को छूने लगे थे.

थोड़ी सी नानुकुर के बाद जब मनीष का जोश ठंडा हुआ, तो उस ने अंजलि को अपनी पकड़ से आजाद कर दिया.

मनीष अगले सप्ताह रविवार को मिलने के लिए अंजलि से वादा किया था. अंजलि राजी हो गई थी. इधर अंजलि के मन का बोझ थोड़ा शांत हुआ कि वह मनीष को समझाने में कामयाब रही. मनीष को मुझ पर शक नहीं हुआ है. वह हत्यारे के बारे में पता करने में मदद करेगा.

अब अंजलि और मनीष के मिलने का सिलसिला जारी हो चुका था. मनीष एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाता था. अभी उस की शादी नहीं हुई थी. अंजलि महसूस कर रही थी कि मनीष दिल का बुरा नहीं है. उस की सिर्फ एक ही कमजोरी है. वह हुस्न का दीवाना है. कई बार अंजलि महसूस कर चुकी है कि आतेजाते मनीष उसे देखने की कोशिश करता था, लेकिन वह जानबूझकर शरीफ होने का नाटक करता था. इसीलिए औरों की तरह वह मेरा पीछा नहीं कर पाया था.

जितेंद्र की हत्या की जांच कई बार की गई, लेकिन यह पता नहीं चल पाया कि उस की हत्या किस ने की. पुलिस द्वारा जहरीली शराब पीने से मौत की पुष्टि कर तकरीबन उस की फाइल बंद कर दी गई थी. अब अंजलि भी समझ चुकी थी कि पुलिस की ओर से कोई डर नहीं है.

जितेंद्र की हत्या के बारे में गांव के लोगों की ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी. इस के पीछे वजह यह थी कि वह लोगों की नजरों में अच्छा इनसान नहीं था. वह शराब तो पीता ही था, औरतों व लड़कियों को भी छेड़ता रहता था. बहुत से लोग उस के मरने पर खुश भी थे.

अंजलि तकरीबन एक साल से मनीष से मिल रही थी. कई बार मनीष उसे उपहार भी देता था. अब तो अंजलि का भी मनीष के बगैर मन नहीं लगता था.

एक दिन मनीष अंजलि को अपने गोद में ले कर उस के बालों से खेल रहा था. उस ने अपनी इच्छा जाहिर की, ‘‘क्यों न हम दोनों शादी कर लें? कब तक यों ही हम छिपछिप कर मिलते रहेंगे?’’

इस पर अंजलि बोली, ‘‘मुझे कोई एतराज नहीं है, पर मुझे अपनी मां से पूछना होगा.’’

‘‘तुम अपनी मां को जल्दी से राजी करो.’’

‘‘मां तो राजी हो जाएंगी, लेकिन यह बात मैं राज नहीं रखना चाहती हूं.’’

‘‘कौन सी बात?’’

‘‘यही कि जितेंद्र की हत्या किस ने की थी.’’

‘‘किस ने की थी?’’

‘‘मैं ने…’’

‘‘कैसे और क्यों?’’

‘‘3 साल पहले की बात है. मेरी एक बहन रिया भी थी. घर में मां और मेरी बहन समेत हम सभी काफी खुश थे. पिताजी के नहीं होने के चलते मेरी छोटी बहन रिया मौल में काम कर के अच्छा पैसा कमा लेती थी. उसी के पैसों से हमारा घर चल रहा था.

‘‘जब भी मेरी बहन घर से निकलती थी, जितेंद्र अपनी मोटरसाइकिल से उस का पीछा करता था. मना करने के बाद भी वह नहीं मानता था.

‘‘मेरी बहन रिया उस से प्यार करने लगी थी. जितेंद्र ने मेरी बहन से कई बार शारीरिक संबंध बनाए. बहन को विश्वास था कि जितेंद्र उस से शादी जरूर करेगा.

‘‘लेकिन, जितेंद्र धोखेबाज निकला. मेरी बहन रिया को जितेंद्र के बारे में पता चला कि वह कई लड़कियों की जिंदगी बरबाद कर चुका है. मेरी बहन पेट से हो गई थी. 5 महीने तक मेरी बहन शादी के लिए इंतजार करती रही. जितेंद्र केवल ?ांसा देता रहा.

‘‘आखिरकार जितेंद्र ने शादी करने से इनकार कर दिया था. उस का मेरी बहन से झगड़ा भी हुआ था.

‘‘मेरी बहन परेशान रहने लगी थी. उस ने मुझे सबकुछ बता दिया था. मैं बहन को ले कर अस्पताल गई थी. वहां मैं ने उस का बच्चा गिरवाया, पर वह कोमा में चली गई थी. उस का बच्चा तो मरा ही, मेरी बहन भी दुनिया छोड़ कर चली गई. उसी दिन मैं ने कसम खाई थी कि जितेंद्र का अंत मैं ही करूंगी.

‘‘इस बार मैं ने गोरा को फंसाया था. मैं भी उस से प्यार का खेल खेलती रही. उस ने कई बार मुझे हवस का शिकार बनाना चाहा, लेकिन मैं उस से अपनेआप को बचाती रही.

‘‘उस दिन जितेंद्र ने मुझे अपने गुसलखाने में बुलाया था. मैं सोच कर गई थी कि आज रात काम तमाम कर के आना है. मैं ने उस की शराब में जहर मिला दिया.

‘‘मैं उस की मौत को नजदीक से महसूस करना चाहती थी, इसलिए उस की हत्या करने के बाद मैं भी उस के साथ रातभर रही. वह तड़पतड़प कर मेरे सामने ही मरा था.

‘‘सुबह मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं. जानबूझ कर उस के शरीर से मैं लिपटी हुई थी, ताकि कोई देखे तो गोरा को जिंदा समझे. पकड़े जाने पर पुलिस को गुमराह किया जा सके. हत्या के बारे में शक किसी और पर हो. यही हुआ भी. तुम ने मुझे बेकुसूर समझ.

‘‘मैं शादी करने से पहले सबकुछ तुम्हें बता देना चाहती हूं, ताकि भविष्य में पता चलने पर तुम मुझे गलत न समझ सको. मैं ने अपनी बहन रिया की मौत का बदला ले लिया, इसलिए मुझे इस बात का कोई अफसोस नहीं है.’’

मनीष यह सुन कर हक्काबक्का था. उस के मन में थोड़ा डर भी हुआ, लेकिन जल्द ही अपनेआप को संभालते हुए बोला, ‘‘तुम ने ठीक ही किया. तुम ने उस को उचित सजा दी है. तुम्हारे ऊपर किसी तरह का इलजाम लगता भी तो मैं अपने ऊपर ले लेता, क्योंकि मैं अब तुम से प्यार करने लगा हूं.’’

अंजलि ने मनीष को अपनी बांहों में ले कर चूम लिया था. वह अपनेआप पर गर्व कर रही थी कि उस ने गलत इनसान को नहीं चुना है. फिर वह सुखद भविष्य के सपने देखने लगी थी. उन दोनों ने जल्दी ही शादी कर ली. अंजलि अब मनीष को अपना राजदार समझाती थी.

बदलाव : कैसे हुई जितेंद्र की हत्या

मनीष सुबह टहलने के लिए निकला था. उस के गांव के पिछवाड़े से रास्ता दूसरे गांव की ओर जाता था. उस रास्ते से अगले गांव की काफी दूरी थी. वह रास्ता गांव के विपरीत दिशा में था, इसलिए उधर सुनसान रहता था. मनीष को भीड़भाड़ से दूर वहां टहलना अच्छा लगता था. वह इस रास्ते पर दौड़ लगाता और कसरत करता था.

मनीष जैसे ही अपने घर से निकल कर गांव के आखिरी मोड़ पर पहुंचा, तो उस ने देखा कि सामने एक लड़की एक लड़के से गले लगी हुई. मनीष रुक गया था. दोनों को देख कर उस के जिस्म में सनसनाहट पैदा होने लगी थी. वह जैसे ही नजदीक पहुंचने वाला था, वह लड़की जल्दी से निकल कर पीछे की गली में गुम हो गई.

‘‘अरे, यह तो अंजलि थी,’’ वह मन ही मन बुदबुदाया. वही अंजलि, जिसे देख कर उस के मन में कभी तमन्ना मचलने लगती थी. उस के उभारों को देख कर मनीष का मन मचलने लगता था. आज उसे इस तरह देख कर वह अपनेआप को ठगा सा महसूस करने लगा था.

आज मनीष पूरे रास्ते इसी घटना के बारे में सोचता रहा. आज उस का टहलने में मन नहीं लग रहा था. वह कुछ दूर चल कर लौटने लगा था. वह जैसे ही घर पहुंचा कि गांव में शोर हुआ कि किसी की हत्या हुई है. लोग उधर ही जा रहे थे.

मनीष भी उसी रास्ते चल दिया था. वह हैरान हुआ, क्योंकि भीड़ तो वहीं जमा थी, जहां से अंजलि निकल कर भागी थी. एक पल को तो उसे लगा कि भीड़ को सब बता दे, पर वह चुप रहा.

सामने अंजलि अपने दरवाजे पर खड़ी मिल गई. शायद वह भी बाहर हो रही घटनाओं के संबंध में नजरें जमाई थी.

मनीष ने उसे धमकाते हुए कहा, ‘‘मैं ने सबकुछ देख लिया है. मैं चाहूं तो तुम सलाखों के पीछे चली जाओगी.’’

अंजलि ने हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाते हुए कहा, ‘‘अपना मुंह बंद रखना. मैं तुम्हारी अहसानमंद रहूंगी.’’

‘‘ठीक है. आज शाम 7 बजे झाड़ी के पीछे वाली जगह पर मिलना. मैं तुम्हारा इंतजार करूंगा.’’

‘‘अच्छा, लेकिन अभी जाओ और घटना पर नजर रखना.’’

मनीष वहां से चल दिया. घटनास्थल पर भीड़ इकट्ठा हो गई थी. कुछ देर बाद पुलिस भी आ गई थी. पुलिस ने हत्या के बारे में थोड़ीबहुत जानकारी ले कर लाश को पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया था. मनीष अपने घर लौट आया था.

मनीष अंदर से बहुत खुश था कि आज उस की मनोकामना पूरी होगी. फिर हत्या कैसे और क्यों की गई है,  इस का राज भी वह जान पाएगा. उस के मन में बेचैनी बढ़ती जा रही थी. आज काम में बिलकुल भी मन नहीं लग रहा था, इसलिए समय बिताने के लिए वह अपने कमरे में चला गया था.

मनीष तय समय पर घर से निकल गया था. जाड़े का मौसम होने के चलते अंधेरा पहले ही हो गया था.

मनीष तय जगह पर पहुंच चुका था, तभी उस की ओर एक परछाईं आती हुई नजर आई. मनीष थोड़ा सा डर गया था. परछाईं जैसेजैसे उस की ओर बढ़ रही थी, उस के मन से डर भी खत्म हो रहा था, क्योंकि वह कोई और नहीं बल्कि अंजलि थी.

अंजलि के आते ही मनीष ने उस के दोनों हाथों को अपने हाथों में थाम लिया था. कुछ पल के बाद उसे अपने आगोश में भरते हुए उस ने पूछा, ‘‘अंजलि, तुम ने जितेंद्र की हत्या क्यों की?’’

‘‘उस की हत्या मैं ने नहीं की है, उस ने मेरे साथ सिर्फ शारीरिक संबंध बनाए थे, जो तुम देख चुके हो.’’

‘‘हां, लेकिन हत्या किस ने की?’’

‘‘शायद मेरे जाने के बाद किसी ने हत्या कर दी हो. यही तो मुझे भी समझ में नहीं आ रहा है… और इसीलिए मैं डर रही थी और तुम्हारी बात मानने के लिए राजी हो गई,’’ अंजलि अपनी सफाई देते हुए बोली थी.

‘‘क्या उस की किसी से दुश्मनी रही होगी?’’ मनीष ने सवाल किया.

‘‘मुझे नहीं पता… अब तुम पता करो.’’

‘‘ठीक है, मैं पता करता हूं.’’

‘‘मुझे तो डर लग रहा है, कहीं मैं इस हत्या में फंस न जाऊं.’’

‘‘मेरी रानी, डरने की कोई बात नहीं है, मैं तुम्हारे साथ हूं. मैं तुम्हारी मदद करूंगा. बस, तुम मेरी जरूरतें पूरी करती रहो,’’ मनीष के हाथ उस की पीठ से फिसल कर उस के कोमल अंगों को छूने लगे थे.

थोड़ी सी नानुकुर के बाद जब मनीष का जोश ठंडा हुआ, तो उस ने अंजलि को अपनी पकड़ से आजाद कर दिया.

मनीष अगले सप्ताह रविवार को मिलने के लिए अंजलि से वादा किया था. अंजलि राजी हो गई थी. इधर अंजलि के मन का बोझ थोड़ा शांत हुआ कि वह मनीष को सम?ाने में कामयाब रही. मनीष को मुझ पर शक नहीं हुआ है. वह हत्यारे के बारे में पता करने में मदद करेगा.

अब अंजलि और मनीष के मिलने का सिलसिला जारी हो चुका था. मनीष एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाता था. अभी उस की शादी नहीं हुई थी. अंजलि महसूस कर रही थी कि मनीष दिल का बुरा नहीं है. उस की सिर्फ एक ही कमजोरी है. वह हुस्न का दीवाना है. कई बार अंजलि महसूस कर चुकी है कि आतेजाते मनीष उसे देखने की कोशिश करता था, लेकिन वह जानबूझकर शरीफ होने का नाटक करता था. इसीलिए औरों की तरह वह मेरा पीछा नहीं कर पाया था.

जितेंद्र की हत्या की जांच कई बार की गई, लेकिन यह पता नहीं चल पाया कि उस की हत्या किस ने की. पुलिस द्वारा जहरीली शराब पीने से मौत की पुष्टि कर तकरीबन उस की फाइल बंद कर दी गई थी. अब अंजलि भी समझ चुकी थी कि पुलिस की ओर से कोई डर नहीं है.

जितेंद्र की हत्या के बारे में गांव के लोगों की ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी. इस के पीछे वजह यह थी कि वह लोगों की नजरों में अच्छा इनसान नहीं था. वह शराब तो पीता ही था, औरतों व लड़कियों को भी छेड़ता रहता था. बहुत से लोग उस के मरने पर खुश भी थे.

अंजलि तकरीबन एक साल से मनीष से मिल रही थी. कई बार मनीष उसे उपहार भी देता था. अब तो अंजलि का भी मनीष के बगैर मन नहीं लगता था.

एक दिन मनीष अंजलि को अपने गोद में ले कर उस के बालों से खेल रहा था. उस ने अपनी इच्छा जाहिर की, ‘‘क्यों न हम दोनों शादी कर लें? कब तक यों ही हम छिपछिप कर मिलते रहेंगे?’’

इस पर अंजलि बोली, ‘‘मुझे कोई एतराज नहीं है, पर मुझे अपनी मां से पूछना होगा.’’

‘‘तुम अपनी मां को जल्दी से राजी करो.’’

‘‘मां तो राजी हो जाएंगी, लेकिन यह बात मैं राज नहीं रखना चाहती हूं.’’

‘‘कौन सी बात?’’

‘‘यही कि जितेंद्र की हत्या किस ने की थी.’’

‘‘किस ने की थी?’’

‘‘मैं ने…’’

‘‘कैसे और क्यों?’’

‘‘3 साल पहले की बात है. मेरी एक बहन रिया भी थी. घर में मां और मेरी बहन समेत हम सभी काफी खुश थे. पिताजी के नहीं होने के चलते मेरी छोटी बहन रिया मौल में काम कर के अच्छा पैसा कमा लेती थी. उसी के पैसों से हमारा घर चल रहा था.

‘‘जब भी मेरी बहन घर से निकलती थी, जितेंद्र अपनी मोटरसाइकिल से उस का पीछा करता था. मना करने के बाद भी वह नहीं मानता था.

‘‘मेरी बहन रिया उस से प्यार करने लगी थी. जितेंद्र ने मेरी बहन से कई बार शारीरिक संबंध बनाए. बहन को विश्वास था कि जितेंद्र उस से शादी जरूर करेगा.

‘‘लेकिन, जितेंद्र धोखेबाज निकला. मेरी बहन रिया को जितेंद्र के बारे में पता चला कि वह कई लड़कियों की जिंदगी बरबाद कर चुका है. मेरी बहन पेट से हो गई थी. 5 महीने तक मेरी बहन शादी के लिए इंतजार करती रही. जितेंद्र केवल झांसा देता रहा.

‘‘आखिरकार जितेंद्र ने शादी करने से इनकार कर दिया था. उस का मेरी बहन से झगड़ा भी हुआ था.

‘‘मेरी बहन परेशान रहने लगी थी. उस ने मुझे सबकुछ बता दिया था. मैं बहन को ले कर अस्पताल गई थी. वहां मैं ने उस का बच्चा गिरवाया, पर वह कोमा में चली गई थी. उस का बच्चा तो मरा ही, मेरी बहन भी दुनिया छोड़ कर चली गई. उसी दिन मैं ने कसम खाई थी कि जितेंद्र का अंत मैं ही करूंगी.

‘‘इस बार मैं ने गोरा को फंसाया था. मैं भी उस से प्यार का खेल खेलती रही. उस ने कई बार मुझे हवस का शिकार बनाना चाहा, लेकिन मैं उस से अपनेआप को बचाती रही.

‘‘उस दिन जितेंद्र ने मुझे अपने गुसलखाने में बुलाया था. मैं सोच कर गई थी कि आज रात काम तमाम कर के आना है. मैं ने उस की शराब में जहर मिला दिया.

‘‘मैं उस की मौत को नजदीक से महसूस करना चाहती थी, इसलिए उस की हत्या करने के बाद मैं भी उस के साथ रातभर रही. वह तड़पतड़प कर मेरे सामने ही मरा था.

‘‘सुबह मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं. जानबूझ कर उस के शरीर से मैं लिपटी हुई थी, ताकि कोई देखे तो गोरा को जिंदा समझे. पकड़े जाने पर पुलिस को गुमराह किया जा सके. हत्या के बारे में शक किसी और पर हो. यही हुआ भी. तुम ने मुझे बेकुसूर समझ.

‘‘मैं शादी करने से पहले सबकुछ तुम्हें बता देना चाहती हूं, ताकि भविष्य में पता चलने पर तुम मुझे गलत न समझ सको. मैं ने अपनी बहन रिया की मौत का बदला ले लिया, इसलिए मुझे इस बात का कोई अफसोस नहीं है.’’

मनीष यह सुन कर हक्काबक्का था. उस के मन में थोड़ा डर भी हुआ, लेकिन जल्द ही अपनेआप को संभालते हुए बोला, ‘‘तुम ने ठीक ही किया. तुम ने उस को उचित सजा दी है. तुम्हारे ऊपर किसी तरह का इलजाम लगता भी तो मैं अपने ऊपर ले लेता, क्योंकि मैं अब तुम से प्यार करने लगा हूं.’’

अंजलि ने मनीष को अपनी बांहों में ले कर चूम लिया था. वह अपनेआप पर गर्व कर रही थी कि उस ने गलत इनसान को नहीं चुना है. फिर वह सुखद भविष्य के सपने देखने लगी थी. उन दोनों ने जल्दी ही शादी कर ली. अंजलि अब मनीष को अपना राजदार सम?ाती थी.

बुरके वाली : अमन की दिलकश हसीना

अपनी कंजूसी की आदत पर अब अमन को गुस्सा आने लगा था. जब कंपनी ने पहले दर्जे के टिकट का खर्चा दिया था, तो वह नाहक ही दूसरे दर्जे के डब्बे में सफर क्यों कर रहा था?

‘और पिसो मक्खीचूस…’ खुद को कोसते हुए अमन ने एक नजर पूरे डब्बे में डाली. एक से बढ़ कर एक गंवार किस्म के लोग बैठे हुए थे. न बैठने की तमीज, न खानेपीने की.

सामने बैठा धोती वाला आदमी आधे घंटे से ‘चबरचबर’ की तेज आवाज करते हुए चने खाए जा रहा था. खाए तो ठीक, लेकिन खाने का यह भी कोई ढंग हुआ?

चने खाते हुए अचानक उस आदमी को जोर से छींक आ गई. बगैर मुंह पर हाथ रखे उस ने जो छींका, तो मुंह में पिसते चनों का आधा हिस्सा सीधे अमर के झक सफेद कुरते पर आ गिरा.

गुस्सा तो ऐसा आया कि उठ कर

2-4 तमाचे लगा दे, लेकिन उस की बड़ी उम्र देख कर अमन रुक गया

और तेज आवाज में कहा, ‘‘यह क्या बदतमीजी है?’’

अमन सोच रहा था, शायद वह माफी मांगेगा, पर यह क्या? वह तो…

‘‘इस में बदतमीजी की क्या बात है? छींक आ गई, तो इस में मैं क्या कर सकता हूं? जानबूझ कर तो नहीं छींका है,’’ उस आदमी ने दलील दी.

‘‘लेकिन, छींकते वक्त मुंह पर हाथ तो रखा जा सकता है,’’ अमन तमीज सिखाने की गरज से बोला.

धोती वाला आदमी बहाना करने लगा, ‘‘आप की बात ठीक है, पर मैं हाथ रखता उस से पहले ही…’’

‘‘पहले क्या…? मेरे कुरते की तो ऐसी की तैसी हो गई न,’’ अमन बिफरते हुए बोला.

‘‘इस में गुस्सा करने की क्या जरूरत है? लाइए, मैं साफ कर दूं,’’ रूमाल से कुरता साफ करने के लिए वह अमन की तरफ झुका. उस के ऐसा करने में भी दिखावटीपन साफ झलक रहा था.

‘‘बसबस, ठीक है,’’ अमन के ऐसा कहते ही वह आदमी दोबारा अपनी सीट पर पसर गया और उसी अंदाज में चने चबाने लगा.

डब्बा दूसरे दर्जे का था. हर स्टेशन पर मुसाफिर भी दर्जे के हिसाब से ही चढ़तेउतरते. तकरीबन 2 घंटे से कोई भली सूरत नजर नहीं आई थी. कुछ नहीं तो एकाध जनाना शक्ल ही दिख जाए. बीड़ी पर बीड़ी फूंकते इन अक्खड़ मर्दों की शक्लें देखदेख कर तो अमन का मन ऐसा होने लगा, जैसे अगले स्टेशन पर उतर कर पहले दर्जे के डब्बे में चढ़ जाए. जाना भी बहुत दूर था.

गाड़ी प्रीतमपुर स्टेशन पर खड़ी थी. चाय, समोसा और ठंडा वगैरह की तेज आवाजों से किसी तरह अपना ध्यान हटाते हुए अमन नजरें उपन्यास पर गड़ाए था. अचानक इत्र की भीनी

खुशबू उस के नथुनों से टकराई. चौंकना लाजिमी था. नजरें उठा कर इधरउधर देखा, तो रेशमी बुरका पहने हुए एक औरत उस की तरफ चली आ रही थी.

वह सीधे आई और ‘धम’ से अमन के पास पड़ी खाली जगह पर बैठ गई. इत्र की खुशबू से आसपास का माहौल सराबोर हो उठा. उस ने हाथ के बैग को अपनी जांघों पर रखा और दोनों हाथों का घेरा बनाते हुए उसे पकड़ लिया.

न जाने क्यों, उस का आना अमन को अच्छा लगा. अच्छा क्यों नहीं लगता? उस बदबूदार बदसूरत लोगों के डब्बे में रेशमी कपड़े पहने, इत्र लगाए और उस पर कोई औरत, जो उस के पास बैठी हुई थी.

गाड़ी चल चुकी थी. अब अमन का मन उपन्यास पढ़ने में बिलकुल नहीं लग रहा था. लेकिन वह उसे बंद भी नहीं कर सकता था. उस के बाईं तरफ वह बुरके वाली औरत बैठी थी. दाईं ओर खिड़की थी. पढ़ना बंद करने के बाद यही चारा रहता कि खिड़की के बाहर का नजारा देखता रहे. बाईं तरफ चेहरा घुमाता तो उस बुरके वाली पर अच्छा असर नहीं पड़ता.

‘क्या पता, वह कुछ और ही सोचने लगे. चेहरे पर गिरे परदे की जाली से कहीं उस की तिरछी निगाहों ने मेरे चेहरे को उस की ओर ताकते देख लिया तो क्या सोचेगी? यही कि बदमाश है, मेरी सूरत देखने की कोशिश कर रहा है. लेकिन देखने में मैं कोई बदमाश थोड़े ही लगता हूं. बदमाश लगता तो वह मेरे पास ही क्यों बैठती? और जगहें भी तो खाली थीं…?’

पन्ने पर आंखें गड़ाए अमन यह सब सोचे जा रहा था. लेकिन इस तरह कब तक चलेगा? हिम्मत कर के उस ने उपन्यास बंद किया और उसे बैग के हवाले कर खिड़की के बाहर की तरफ देखने लगा.

बाहर देखते हुए अमन इस ताक में था कि किसी तरह एक बार उस ओर के हालात का जायजा ले ले, जहां वह औरत बैठी थी. 5 मिनट तक यों ही बाहर देखने के बाद अमन ने तेजी से अपना चेहरा बाईं तरफ घुमाया और कुछ इस तरह का स्वांग करने लगा, जैसे वह उसे नहीं, बल्कि डब्बे में बैठे दूसरे मुसाफिरों की ओर देख रहा है.

अचानक अमन की नजरें बैग थामे उस औरत की हथेलियों पर पड़ीं. पलभर को वह ठगा सा रह गया. गोरीगोरी, नरममुलायम हथेलियां व उन पर सोने की अंगूठी. कुलमिला कर नजारा देखने लायक व आंखों को अच्छा लगने वाला था. जब उस की हथेलियां यह गजब ढा रही थीं तो शक्लसूरत के लिहाज से वह… 2 मिनट तक उस की हथेलियों पर टकटकी लगाए जाने क्या सोचता रहा… उस के बाद अचानक अमन के सोचने की कड़ी तब टूटी, जब उस औरत ने अपना हाथ साथ लाए बैग में डाला.

अमन ने झटपट अपनी नजरें खिड़की की तरफ फेर लीं. उसे ऐसा लगा कि शायद उस के देखते रहने के चलते

ही उस ने हाथ बैग में डाल कर उस

का ध्यान कहीं और बंटाने की कोशिश की थी.

अमन को अपनेआप पर थोड़ा गुस्सा भी आया. क्यों वह उस की हथेलियों को एकटक निहारता रहा था?

‘सचमुच बुरा लगा होगा उसे. कहीं यह तो नहीं सोच लिया उस ने कि मेरी नजर उस के सोने की अंगूठी पर है.

‘नहींनहीं, मैं भी अजीब हूं. इतनी देर से न जाने क्या उलटासीधा सोचे जा रहा हूं? हो सकता है कि उस ने मेरी हरकतों  पर गौर ही न किया हो. लेकिन, उस के गोरे रंग और कोमल हथेलियों की याद न चाहते हुए भी बारबार दिल पर बिजली गिरा रही है,’ यह सोच कर भी अमन का मन खुश हो रहा था कि यह सुंदरी जरूर एक न एक बार परदा उठाएगी और उस का चांद सा चेहरा देखने को मिलेगा.

उस औरत के आने से पहले दूसरे दर्जे के सफर को अमन कोस रहा था. अब वही सफर उसे अपार खुशी का एहसास करा रहा था.

अमन फिर उसे देखने का मौका ढूंढ़ने लगा. अब की बार उस ने डब्बे में बैठे दूसरे मुसाफिरों की ओर नजर दौड़ाई. देखते ही वह चौंक गया. तकरीबन हर आदमी की निगाह उस बुरके वाली की तरफ थी. तिरछी निगाहों से उस की ओर देखा तो वह किताब पढ़ रही थी. यकीनन, लोगों की घूरती नजरों से बचने के लिए उस ने किताब खोली होगी.

अब आदमी तो आदमी है, दूसरों की गलतियों को ढूंढ़ने में अकसर अपनी गलतियों की ओर ध्यान नहीं देता. अमन भी तो उस बुरके वाली का चेहरा देखने की फिराक में था.

ऐसा लग रहा था कि अगले ही

पल उस के चेहरे से अमन धीरे से परदा उठा कर कहेगा, ‘वाह, क्या खूबसूरती पाई है.’

जवाब में वह सिर झुका कर शरमाते हुए कहेगी, ‘जी, तारीफ के लिए शुक्रिया.’

उसी अंदाज में अमन का सिर भी नीचे झुका तो आंखें चुंधिया गईं. क्या बेजोड़ रेशमी जूतियां पहनी थीं उस ने. चिलचिल करता बुरका, चमकती अंगूठी, कढ़ाईदार जूतियां पहने उस की मनमोहक वेशभूषा देख कर चेहरे की खूबसूरती के बारे में अमन की सोच और भी बढ़ती जा रही थी.

‘लेकिन, इस का चेहरा देखें तो कैसे? कमबख्त परदा भी तो नहीं हटाती. अच्छा है नहीं हटाती. हटा दे तो शायद कयामत आ जाए. क्या 2-4 गश खा कर गिर पड़ें.’

इधरउधर की बातें सोचने का अमन का सिलसिला टूटा तो देखा कि गाड़ी रायपुर स्टेशन पर खड़ी थी. प्यास लगने के बावजूद वह अपनी जगह से नहीं उठा. क्या पता, इधर वह उठे, उधर कोई और आ कर इस अनमोल जगह पर कब्जा कर ले जाए.

‘‘क्या आप यह पानी की बोतल भर कर ले आएंगे,’’ उस बुरके वाली ने अमन से कहा.

आवाज क्या थी, मानो शक्कर घोल रखी हो. अमन के मना करने का सवाल ही नहीं था.

‘‘अभी लाया, आप जगह का ध्यान रखिए,’’ कहते हुए अमन उठ खड़ा हुआ.

‘‘चिंता मत कीजिए, ज्यादा हुआ तो कह दूंगी कि आप मेरे साथ हैं,’’ उस ने सलीके से कहा.

‘मेरे साथ हैं’ सुन कर मन ही मन अमन इतना खुश हो गया कि होंठों पर बरबस गीत आ गया और बोतल ले कर डब्बे से नीचे उतरा.

पानी लेने जाने से ले कर आने तक उस की मीठी आवाज कानों में रस घोलती रही.

‘‘यह लीजिए,’’ भरी बोतल देते हुए अमन ने कहा.

‘‘बहुतबहुत शुक्रिया,’’ उस ने अमन की ओर देखते हुए कहा. लेकिन परदा नहीं हटाया. बड़ा गुस्सा आया. कुछ कहना है तो कम से कम परदा तो हटा देती. कौन सी नजर लग रही है?

गाड़ी चल पड़ी थी. वह औरत फिर से किताब पढ़ने में मगन हो गई. अमन उस से बात करने का जुगाड़ बैठाने की फिराक में था.

‘कैसे शुरुआत करूं? यह कहूं कि किस लेखक का उपन्यास है? नहींनहीं, कुछ इस तरह से कि आप को उपन्यास पढ़ने का शौक है?’ मेरे पूछने पर उसे अच्छा नहीं लगा तो…? या वह यही कह दे, कि ‘आप को इस से क्या? अपना काम कीजिए.’

‘लेकिन, पिछले स्टेशन पर जब पानी मंगाया था, तब तो बड़े अपनेपन से बोली थी,’ इसी उधेड़बुन में अमन उंगलियां चटकाने व बारबार दांतों से नाखून काटने लगा था.

हिम्मत कर के अमन बोलने ही वाला था कि उस की रसभरी आवाज कानों से टकराई, ‘‘आप को किताबें पढ़ने का शौक नहीं है क्या?’’

एकदम से पूछे जाने के चलते अमन  से जवाब देते नहीं बना, ‘‘हांहां, हैहै,’’ कहते हुए बैग से उस ने उपन्यास निकाल लिया.

‘‘पूरा पढ़ चुके हो, तभी अंदर रखे हुए थे?’’ कुछ सवालिया लहजे में उस ने कहा.

अमन ने कहा, ‘‘बस यों ही अच्छा नहीं था.’’

‘‘लाइए, दिखाइए तो,’’ कहते हुए उस ने बेझिझक उपन्यास अमन के हाथों से खींच लिया. इस दौरान उस की नाजुक उंगलियां अमन की हथेली से छू गईं. एक पल को शरीर में झुरझुरी दौड़ गई और पूरा बदन रोमांचित हो उठा.

पन्ने पलटते हुए बुरके वाली ने कहा, ‘‘आप को दिक्कत न हो, तो मैं यह उपन्यास पढ़ लूं.’’

अमन ने कहा, ‘‘जरूर पढि़ए. वैसे भी अभी मेरी इच्छा नहीं है,’’ लेकिन

साथ ही यह भी जोड़ दिया कि कोई खास नहीं है.

अमन नहीं चाहता था कि बातों का जो सिलसिला शुरू हुआ है, वह उसे उपन्यास पढ़ने में डूब जाने के चलते खत्म हो जाए.

‘‘लग तो दिलचस्प ही रहा है,’’ शुरुआती 2-4 लाइनें पढ़ने के बाद वह बुरके वाली औरत बोली.

दरअसल, वह था ही दिलचस्प, फिर भी अमन ने कहा, ‘‘मुझे तो खास नहीं लगा. खैर, पसंद अपनीअपनी.’’

उस के बाद जो उस औरत ने पढ़ना शुरू किया, तो बोलने का नाम ही नहीं लिया. अमन खाली बैठा खिड़की के बाहर टुकुरटुकुर ताकता रहा. बीच में एकबारगी सोचा कि खाली बैठे बोर होने से अच्छा है, उस का उपन्यास मांग ले. लेकिन यह सोच कर अमन से मांगा नहीं गया कि कहीं वह यह न समझ बैठे

कि वह उस से बात करने का बहाना ढूंढ़ रहा है.

दीमापुर स्टेशन पर गाड़ी रुकी, तो उपन्यास से नजरें हटाते हुए कुछ चौंकने की मुद्रा में उस ने कहा, ‘‘जी, कौन सा स्टेशन आ गया है.’’

‘‘दीमापुर,’’ अमन ने छोटा सा जवाब दिया.

‘‘सुना है, यहां की रसमलाई बड़ी मशहूर है,’’ कुछ जिज्ञासा के अंदाज में उस ने कहा.

‘‘क्या यह वही दीमापुर है?’’ अब चौंकने की बारी अमन की थी. दरअसल, उस के दोस्त ने इस बारे में जिक्र किया था.

अमन खड़ा हुआ, तो वह बोली, ‘‘कहां जा रहे हो?’’

अमन ने कहा, ‘‘रसमलाई लेने. दोस्त ने कहा था. उधर से निकलो तो एकाध किलो लेते आना.’’

‘‘अच्छा ऐसा करिए, किलो भर मेरी भी बंधवाते लाइए,’’ कह कर उस ने पर्स से 500 रुपए का नोट निकाला.

अमन बोला, ‘‘छुट्टे दे दीजिए, दिक्कत होगी.’’

‘‘जी, छुट्टे नहीं हैं. खैर, आप दे दीजिए. अभी किसी से नोट तुड़वा कर दे दूंगी.’’

इस बीच वह हाथों को जरा भी ऊपर ले जाती तो अमन को लगता, अब चेहरे से परदा हटा, अब हटा. लेकिन कमबख्त ने फिर भी परदा नहीं हटाया.

अमन का धीरज टूटनेटूटने को हो गया. लगा कि तेजी से परदा खींचते हुए कहे, ‘अब हटा भी लीजिए, आखिर इस चांद में क्या राज छिपा है,’ पर ये बातें सोचने तक ही रहीं, जबान से बाहर नहीं निकल सकीं.

अमन मिठाई ले कर आया, तो वह बोली, ‘‘कितने हुए?’’

अमन ने तुरंत कहा, ‘‘400 रुपए.’’

‘‘जी, छुट्टे होते ही दे दूंगी,’’ उस ने कुछ इस तरह से कहा कि अमन के मुंह से निकल गया, ‘‘कोई जल्दी नहीं.’’

प्लेटफार्म छूटते ही अचानक उस ने कहा, ‘‘आप बुरा न मानें, तो मैं आप की जगह पर आ जाऊं. सफर में खिड़की के पास न बैठूं, तो जी मिचलाने लगता है.’’

‘जी नहीं मिचलाएगा तो और क्या होगा? घंटों से चेहरे के आगे परदा जो चढ़ा रखा है,’ अमन ने गुस्से से तकरीबन बुदबुदाते हुए मन ही मन कहा. मन मार कर उसे जगह बदलनी पड़ी.

बाहर का सुंदर नजारा देखते हुए अनायास उस बुरके वाली ने टूटी सलाखों वाली खिड़की से चेहरा बाहर निकाला और तकरीबन पूरी तरह गरदन को पिछले डब्बे की दिशा में मोड़ते हुए चेहरे से परदा हटा दिया.

अमन बरसों से जैसे इसी इंतजार में बैठा था. बिजली की रफ्तार से खिड़की की ओर झपटा. चेहरा देखने के लिए झुका, लेकिन उस से पहले ही बेरहम ने परदा डालते हुए सिर डब्बे के अंदर खींच लिया.

गुस्से में आ कर अमन ने अपनी मुट्ठी हथेली पर इस तरह मारी, जैसे कोई बहुत बड़े फायदे का मौका उस के हाथ से निकल गया हो.

‘‘बड़ा खूबसूरत पेड़ था,’’ उस औरत ने कहा.

चेहरा देखने का मौका चूक जाने के चलते अमन तमतमाया हुआ था. जल्दबाजी में अमन के मुंह से निकल गया, ‘‘होगा, सारे पेड़ ऐसे ही होते हैं.’’

शायद उसे अमन के कहने का ढंग अच्छा नहीं लगा. पलट कर वह फिर खिड़की से बाहर देखने लगी. इतने में नोट गिनते सामने बैठे सज्जन पर अमन की निगाह पड़ी, तो बुरके वाली से रसमलाई के पैसे लेने का खयाल दिमाग में आ गया, ‘अरे, मैं तो भूल ही गया था. अभी मांगू लूं, 500 का नोट तुड़वाने के लिए परदा जरूर उठाएगी और मैं चेहरा देख लूंगा.’

उस का छिपा चेहरा देखने की अमन की इच्छा इतनी जोर पकड़ती जा रही थी कि अमन हर बात में यही सोचता कि कैसे उस का चेहरा सामने आ जाए.

मांग तो ले, लेकिन उसे ठीक नहीं लगेगा. सोचेगी, ‘बड़ा अजीब आदमी है, एकाध घंटे के लिए भी धीरज नहीं रख सकता है. पैसे ले कर कोई भागे थोड़े ही जा रही हूं…’

‘ठीक है, नहीं मांगता. पर फिर भूल गया और वह अपने स्टेशन पर उतर गई, तो मुफ्त में 400 रुपए की चपत लग जाएगी… ऐसे कैसे उतर जाएगी? धोखा देगी क्या?’ अमन के दिमाग में उस के चेहरे की ऐसी खूबसूरती का खयाल समा गया था कि उस को सुंदरियों की रानी से कम नहीं समझता था.

लेकिन, एक बात अमन को अब खटकने लगी. आखिर बात क्या है, जो वह अपने चेहरे से परदा नहीं हटा रही? एकाध बार परदा उठा भी ले तो कौन सी आफत आ जाएगी. कहीं यह बदसूरत तो… नहींनहीं, यह बिलकुल नहीं हो सकता. उस की गोरी, नाजुक हथेलियों व रेशमी जूतियां चढ़ाए पैरों के लुभावने खयाल ने अमन की सोचनेसमझने की ताकत ही छीन ली थी.

गाड़ी की रफ्तार धीमी होते देख बुरके वाली ने खिड़की से सिर बाहर निकाल कर देखा और फिर जल्दजल्दी अपना बैग जमाने लगी. अमन को उस का स्टेशन आने का शक हुआ.  पूछा

तो सामान समेटते हुए उस ने जवाब दिया, ‘‘सुलतानगंज आ गया है, मैं यहीं उतरूंगी.’’

‘तो क्या मैं इस का चेहरा नहीं देख पाऊंगा?’ मन में निराशा सी छा गई. ‘चीं’ की तेज आवाजों के साथ ब्रेक लगे और गाड़ी सुलतानगंज स्टेशन पर आ कर खड़ी हो गई.

‘‘आइए, मैं आप को छोड़ दूं,’’ उस के उठने से साथ ही अमन भी खड़ा हो गया. हालांकि उस के पीछे अमन का लालच था कि हो सकता है, इस बीच वह चेहरे से परदा हटा दे.

‘‘आप क्यों तकलीफ कर रहे हैं? बैठिए,’’ वह तहजीब से बोली.

‘‘नहींनहीं, इस में तकलीफ की क्या बात है,’’ कहते हुए अमन उस के पीछेपीछे चलने लगा.

अब की बार अमन ने पक्का इरादा कर लिया कि चेहरा देखने की जिस इच्छा को घंटों से सजाए था, उसे यों ही खाक नहीं होने देगा. ज्यों ही वह दरवाजे के पास आई, हिम्मत बटोर कर शायराना अंदाज में अमन ने कहा, ‘‘आप बुरा न मानें, तो आप के खूबसूरत चेहरे का दीदार कर मैं अपने को खुशकिस्मत मानूंगा.’’

एक पल के इंतजार के बाद झटके से उस ने परदा ऊपर खींच लिया. चेहरा देख कर अमन हक्काबक्का रह गया. हद से बदसूरत, दाग वाली, कंजी आंखों वाला चेहरा उस के सामने था.

अलविदा की औपचारिकता निभा कर उस ने परदा गिराया और स्टेशन के मेन गेट की ओर बढ़ गई. डब्बे के दरवाजे पर बदहवास सा खड़ा अमन उसे जाते हुए देखता रहा.

गाड़ी चलने के बाद अमन लड़खड़ाते कदमों से भीतर आया, तो कुछ याद आते ही दिल पर एक बड़ा सा झटका महसूस हुआ. उस के चांद

सरीखे खूबसूरत चेहरे के खयालों में मिठाई के 400 रुपए व अधूरे पढ़े उपन्यास के 100 रुपयों की बलि चढ़ गई थी. अमन निढाल हो कर अपनी सीट पर आ गिरा.

गरीब सांवरी की जिंदगी पर कैसे लगा लॉकडाउन?

सोलह साल की सांवरी, कब से दिल्ली शहर में  रह रही है , उसे खुद भी याद नहीं है,जबसे होश संभाला है अपने आपको इसी ज़ुल्मी शहर में पाया है. ज़ुल्मी इसलिए है ये शहर ,क्योंकि यहाँ कोई उससे अच्छे से नहीं बोलता और कोई भी उसकी चिंता भी नहीं करता .
अच्छे घरों की लड़कियां सुंदर साफ़ कपड़ों मे जब स्कूल जा रही होती हैं  तब सांवरी को भी अम्मा और पापा के साथ काम पर निकलना पड़ता है.
हाँ , काम पर ,
और सांवरी को काम की कभी कोई कमी नहीं होती ,उसके परिवार को ठेकेदार बराबर काम देता रहता है.
इस  शहर में  जो आसमान को चूमती हुयी इमारतें रोज़ बनती ही रहती हैं  ,उन्ही  इमारतों में काम करती है सांवरी और उसके पापा और अम्मा.
और इसीलिये उसके परिवार को घर की भी कोई ज़रूरत नहीं खलती ,जिस इमारत में काम किया वहीं सो  गए  ,फिर सुबह होने के साथ उसी इमारत मे काम करने का सिलसिला फिर शुरू .
हाँ ये अलग बात है कि जब ये इमारत बन कर तैयार हो जायेगी तब तक सांवरी और उनका परिवार कहीं और जा चुका होगा ,किसी और इमारत को बनाने के लिए .
वैसे ये बात भी सांवरी किसी को नहीं बताती कि उसकी असली उम्र सोलह साल है ,क्योंकि अगर ठेकेदार को असली उम्र बता दी न तो फिर वो सांवरी को काम से हटा देगा क्योंकि अट्ठारह साल से कम उम्र के बच्चों को ठेकेदार काम पर नहीं रखता है ,पिछली बार जो ठेकेदार था न ,तो पापा ने उसको असली उमर बता दी थे सांवरी की ,तो उसने काम से हटा दिया था सांवरी को ,और जो चार पैसे वो कमाकर लाती थी वो भी मिलने बंद हो गए थे फिर .
उस दिन के बाद सांवरी और पापा सबको अपनी उमर अट्ठारह साल ही बताते हैं .
वैसे तो इस वाली इमारत में काम करते पांच महीने हो चुके हैं पर इस ठेकेदार ने अभी तक पगार नहीं दी है ,कई बार सब मजदूरों ने मिलकर कहा भी तो बस थोड़े बहुत पैसे दे देता है और ऊपर से पैसे न आने का बहाना बना देता है .
पर ये क्या ……आज अचानक से ये अफरा तफरी क्यों मच गयी है?
सारा काम क्यों बंद करा दिया गया है?
“चलो चलो ….आज से काम बंद हो रहा है …कोई कोरोना वायरस है …जो बीमारी फैला रहा है …इसलोये सरकार का आदेश है कि सब काम बंद रहेगा और कोई भी बाहर नहीं निकलेगा “ठेकेदार ने काम बंद करते हुए कहा
“काम बंद करें ….,पर उससे क्या होगा ? और फिर हम कमाएंगे नहीं तो खाएंगे क्या?”
“अरे  …वो सब मुझे नहीं पता ….वो सब जाकर सरकार से पूछो….फिलहाल काम बंद करने का है…” चीख पड़ा था ठेकेदार
“ठीक है ….हमारी पगार तो दे दो”एक मज़दूर बोला
“पगार कही भागी जा रही है क्या? जब काम शुरू होगा तब मिल जायेगा पगार”ठेकेदार का रुख सख्त था.
मज़दूर समझ गए थे कि इससे बहस करना बेकार है ,भारी मन से उन्होंने काम बंद कर दिया और अधबनी इमारत में जाकर सर औंधा कर के बैठ गए.
अभी कुछ ही समय हुआ था उन सबको सुस्ताते हुए कि उन लोगों के देखा कि उनकी ही तरह एक मजदूरों का टोला ,जो कहीं और काम करता था और उनके ही गांव की तरफ का लग रहा था ,वो अपना सामान सर पर रख कर तेज़ी से चला आ रहा है
“अरे अब यहाँ मत रुको ….अब अपने घर चलो …यहाँ सब खत्म हो रहा है ….काम एंड करा दिया गया है और पुलिस शहर बंद करा रही है और सुना है कोई बीमारी फ़ैल रही है जिससे  आदमी तुरंत ही मर जा  रहा है .
उनमें से सबसे आगे चलने वाले मज़दूर ने चेताया
सांवरी और उसके साथ वाले मज़दूर भी यह सुनकर डर गए और सबने ही घर लौट चलने की बात मान ली.
भला दिहाड़ी मजदूरों के पास सामान ही कितना होता है?
जिसके पास जो भी सामान था ,उसे बोरे में बाँध बस स्टैंड की तरफ चल पड़े सभी.
परंतु तब तक देर हो चुकी थी सरकार ने संक्रमण फैलने के डर से बस और ट्रेने सभी बंद करा दी थी.
चारो तरफ अफरा तफरी का माहौल था,पुलिस हाथों में डंडे लेकर लोगों को मार रही थी और लोगों से घर से नहीं निकलने को कह रही थी पर फिर भी ज़रूरी सामान जुटाने को लोग घर से बाहर तो निकल ही रहे थे.
“अब हम घर कैसे जाएंगे” रोने लगी थी सांवरी
“हाँ ….हम लोगों का घर तो बहुत दूर है …क्या हम सब यहीं मर जायेंगे?” एक मज़दूर बोला
“नहीं अगर मरना है …तो यहाँ परदेस मैं नहीं मरेंगे  ….अपने घर ..चलने की कोशिश तो करेंगे ही और अगर इस कोशिश में मर भी गए तो कोई बात नहीं” बिहार का एक मज़दूर हिम्मत दिखाते  हुए बोला
“हाँ …चलो चलते हैं और हो सकता है कि हमें रास्ते में ही कोई सवारी मिल जाए और हम घर के नज़दीक पहुच जाए”
“हाँ ये सही रहेगा….चलो…चलते हैं”
और इस तरह बिहार और उत्तरप्रदेश के कई अलग अलग इलाकों से आया हुआ ये मजदूरों का गुट लौट पड़ा अपने घर की तरफ ,
सारी दुनिया भी घूम लो पर फिर भी संकट आने पर हर व्यक्ति को अपना घर ही याद आता है.
और फिर शहर में भला इन मजदूरों को कौन खाना ,पानी पूछता
 सभी को अपनी राजनीति की पडी थी .
पुलिस सड़कों पर थी और चारो तरफ लॉकडॉउन कर दिया गया था अर्थात हर एक व्यक्ति को घर मे ही रहने था बाहर नहीं निकलना था और इसी तरह इस कोरोना वायरस से रोकथाम संभव थी.
सारे मज़दूर अपने परिवारों को साथ ले,अपने सामान को सर पर उठाये ,हाथों में पकडे ,बच्चों को  सुरक्षा की नज़रिए से अपने आगे पीछे चलाते हुए ,चल पड़े थे अपने गांव की तरफ ,वहां वे कब पहुचेंगे ,कैसे पहुचेंगे ,पहुचेंगे भी या नहीं ,इन सब बातों जा उन्हें कोई भी अंदाज़ा नहीं था और ना ही शायद वो इन बातों को जानना चाहते थे.
सामने कभी न खत्म होने वाला हाईवे दिखाई दे रहा था ,फिर भी सभी मजदूरों का टोला ,मन में एक आतंक लिए चला जा रहा था सिर्फ इस उम्म्मीद में कि अगर घर पहुच गए तो सब सही हो जायेगा.
“ए क्या तुम लोगों को  पता नहीं है क्या कि पूरे शहर में लॉकडाउन है और तुम लोग एक साथ ,इतना सारा सामान लिए कहाँ चले जा रहे हो “एक पुलिस वाला चिल्लाया
“जी …साहेब हम सब लोग अपने गांव की तरफ जा रहे है  ….और कोई सवारी भी नहीं मिला रही है इसलिए पैदल ही चले जा रहे हैं …कभी न कभी तो पहुच ही जायेंगे” सांवरी के पापा आगे आकर बोले
” स्साले …..तुम लोगों की जान बचाने के लिए हम लोग रात दिन ड्यूटी कर रहें हैं और तुम लोग सड़क पर घूम कर हमारी सारी मेहनत पर पानी फेर दे रहे हो……..
तुम लोग ऐसे नहीं मानोगे …चलो सब के सब मुर्गा बनो .. सालों “
और पुलिस वाले ने सारे मजदूरों को सजा के तौर पर मुर्गा बनवा दिया ,सारे मज़दूर लाठी खाने के डर  के आगे  मुर्गा बन गए ,उन मजदूरों की औरतें  और बच्चे बेबस  होकर देखते ही रहे.
डर से व्याकुल  ,भूख से परेशान  मज़दूर फिर से पैदल  चल पड़े अपने गांव की तरफ.
अब तक देश में सरकार की तरफ से इस लॉकडाऊन की हालत को सुधारने के लिए बहुत सारे प्रयास किये जा रहे थे पर मजदूरों तक तो सिर्फ पुलिस के डंडे ही आ रहे थे.
पर फिर भी उनसब ने ठान रखा था कि जब तक जान है चलते रहेंगे.
पर मनुष्य शरीर की भी एक सीमा है आओर जब उनके शरीर की चलने की सीमा समाप्त हो गयी  और रात हो गयी तो सबने एक मति से वहीँ हाईवे के किनारे सोने की योजना बनाई और जिसके पास जो जो भी  था वहीँ किनारे पर बिछाकर सोने की तैयारी करने लगे.
कुछ देर बाद वहां पर एक पुलिस की गाड़ी आयी जिसने उन्हें कुछ  खाने  के बिस्कुट दिए
जो इतने पर्याप्त तो नहीं थे कि उनकी भूख मिटा सकें पर सच्चाई तो यह थी कि उनको खाकर उन मजदूरों की भूख और भड़क गयी थी ,पर मरता क्या न करता .
बिस्कुट खाकर पानी पीकर रात भर वे सब वहीं पड़े रहे और भोर होते ही फिर चल पड़े .
सांवरी भी अपने अम्मा और पापा के साथ चली जा रही थी  ,आगे जाकर थोड़ा थक गयी तो सड़क के किनारे सुस्ताने बैठ गयी .
“अरे तुम्हे भूख लगी है क्या?” अचानक से एक आदमी सांवरी के पास आकर बोला
सांवरी चुपचाप हँसे देखती रही
“देख अगर खाना चाहिए तो मेरे साथ चल मैं तुझे खाना देता हूँ ….वहाँ उधर रखा  हुआ है “उस आदमी ने जोर देते हुए कहा
भूख तो लगी ही थी सांवरी को सो वह उस आदमी के साथ जाने लगी ,बेचारी को ये भी नहीं ध्यान आया कि उसके माँ और पापा मजदूरों के साथ आगे बढ़ चुके है.
जब चलते हुए कुछ देर हो गयी तो तो सांवरी ने कहा
“कहाँ है खाना”
“हाँ इधर है …खाना ” झाड़ियों में कोई और आदमी छुपा हुआ बैठा था उसने लपककर सांवरी को पकड़ लिया और उसका मुंह दबा दिया और फिर दोनों आदमियों ने मिलकर सांवरी का बलात्कार किया और उसके विरोध करने पर  उसको मारा भी .
सांवरी की दुनिया लूट चुकी थी वह रो रही थी पर वहां उसका रूदन सुनने वाला कोई भी नहीं था.
रोते रोते ही सांवरी उठी और आगे जाकर एक खाई में कूदकर उसने आत्म हत्या कर ली.
मजदूरों का काफिला आगे चलता जा रहा था , किसी ने सांवरी की फ़िक्र भी नहीं करी थी
लॉकडाऊन अब भी जारी था. ऐसे दरिंदों को पुलिस भी नहीं पहचान पा रही थी ,वे अब भी खुले सड़कों पर घूम रहे हैं. मज़दूर अब भी सड़क पर पैदल ही जा रहे थे बस सांवरी की ज़िंदगी पर ही पूरा लॉकडाउनन
लग चुका था.

अकरोना बाबा का मायाजाल

‘‘आ प गांव वालों के सारे कष्ट दूर करने आ रहे हैं अकरोना बाबा. कल से गांव के स्कूल के मैदान में सुबह 10 बजे से कथा शुरू होगी,’’ एक मोटा सा आदमी एक दाढ़ी वाले बाबा का फोटो लगा कर रिकशे पर बैठा पूरे गांव में घूमघूम कर मुनादी कर रहा था.

‘‘याद रहे… अकरोना बाबा की कथा में सब को नहाधो कर आना है. लोग सामाजिक दूरी के साथ बैठेंगे. सब से जरूरी बात यह कि अकरोना बाबा की कथा में आप सब लोगों को मास्क मुफ्त में बांटे जाएंगे…’’

‘मुफ्त मिलेगा’ के नाम पर कई गांव वालों के कान खड़े हो गए थे.

‘‘आप सब लोगों को बता दें, जो लोग अकरोना बाबा की कथा में आएंगे, उन को कोरोना वायरस का संक्रमण नहीं सताएगा… बोलो अकरोना बाबा की जय.’’

‘‘अरे भैया… बाबा की कथा में हम लोगों को मुफ्त में क्या मिलेगा?’’ एक ने दूसरे से पूछा.

‘‘अरे पांडे यार… तुम भी एकदम बुड़बक ही हो… मास्क यानी मुंह को ढकने वाली चीज… जैसे हमारे पास होता है न यह गमछा… बस… उसी का शहरी रूप है मास्क…’’ दूसरे ने ज्ञान बघारा.

‘‘हां, पर वे मुफ्त में दे रहे हैं… तब तो हम बाबाजी का आशीर्वाद लेने जरूर जाएंगे.’’

पूरे गांव में अकरोना बाबा के चर्चे छाए हुए थे और हर कोई बाबा को ले कर उतावला हो गया था.

‘‘पर, बाबा का नाम तो बड़ा अजीब ?है,’’ एक गांव वाले ने चर्चा छेड़ी.

‘‘हां… हां क्यों नहीं… अरे, उन के बारे में मैं ने सुना है कि उन का जन्म ही कोरोना नामक विषाणु रूपी राक्षस को मारने के लिए हुआ है.

‘‘अरे, मैं ने तो उन की बहुत सी कथाएं सुनी हैं. और तो और मैं तो उन से मिल भी चुका हूं,’’ एक नौजवान ने शेखी बघारते हुए कहा.

‘‘वाह भैया, तुम तो बड़े किस्मत वाले हो… तनिक हमारा भी जुगाड़ लगवाओ,’’ दूसरा गांव वाला मिन्नतें करने लगा.

‘‘हांहां, तुम को भी मिलवा ही देंगे, पर जरा कथा शुरू तो होने दो,’’ शेखी बघारने वाला लड़का शान से अकड़ा हुआ था.

शाम तक गांव के हर घर में अकरोना बाबा की ही बातें हो रही थीं और लोग अकरोना बाबा को देखने

के लिए बड़े उतावले हो रहे थे.

अगले दिन के सूरज उगने के साथ ही गांव में पानी का खर्चा अचानक से बढ़ गया था. हर घर में सभी लोगों का नहानाधोना चल रहा था, क्योंकि आज सभी को अकरोना बाबा के प्रवचन सुनने जाना था.

स्कूल के अहाते में एक तरफ 3 कारें खड़ी थीं, जो देखने में बहुत महंगी लग रही थीं.

अकरोना बाबा के आने का समय 10 बजे था, पर वे किसी बड़े नेता की तरह 12 बजे आए.

लंबी दाढ़ी, एक सफेद सा चोंगा, होंठों पर मुसकान और हाथों में सोने का ब्रैसलैट पहने हुए अकरोना बाबा का जलवा देखते ही बनता था.

बाबा ने मंच पर आते ही कहा, ‘‘भक्तजनो, आज पूरी दुनिया में कोरोना नामक बीमारी फैल रही है. लाखों लोग इस बीमारी की चपेट में आ गए हैं…पर, आप सब लोगों को इस बीमारी से डरने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि आप लोग मेरी शरण में आ गए हैं.

‘‘वैसे मैं बता दूं कि आप लोगों के गांव में एक चुड़ैल की प्यासी आत्मा घूम रही है. वह कभी भी किसी के सिर पर सवार हो सकती है, पर जो मेरी शरण में आएगा वह महफूज रहेगा,’’ बाबा बोले जा रहे थे और भक्त मोहित हो कर सुन रहे थे.

तभी बाबा के समर्थकों ने जयकारा लगाया, ‘‘बोलो अकरोना बाबा की जय.’’

जयकारे के साथ ही भीड़ में से एक गांव वाला निकला और मंच के पास जा कर 100 रुपए का एक नोट चढ़ा दिया.

‘‘सुनें… एक बात अच्छी तरह से समझ लें… ये बाबा सब जानते हैं और ऐसे लोग पैसे को हाथ भी नहीं लगाते. वैसे भी नोटों को छूने में इस समय हमारे देश की सरकार भी एहतियात बरतने को कह रही है, इसलिए मेरा आप लोगों से कहना है कि अगर कुछ चढ़ाना चाहें

तो वह या तो सोने की हो या चांदी की कोई चीज… कृपया रुपयापैसा चढ़ा कर स्वामीजी की बेइज्जती न करें.

उस के बाद स्वामीजी ने कोई भजन शुरू कर दिया. इस की धुन पर सभी गांव वाले मस्त हो कर नाचने लगे.

जब सब गांव वाले नाचनाच कर थक गए, तो उन सब को एकएक मास्क यह कह कर दिया गया कि यह अकरोना बाबा का प्रसाद है.

अकरोना बाबा के एक चेले ने घोषणा की, ‘‘जिन लोगों की कोई पारिवारिक, सामाजिक या आर्थिक समस्या?है, तो वे अपना समय ले लें.’’

दुनिया में शायद ही कोई ऐसा आदमी हो, जिस को कोई समस्या न हो, इसलिए बाबा के शिविर में तो अपनी समस्याओं का समाधान पाने वालों

का तांता लगने लगा.

अकरोना बाबा वैसे तो सब की समस्याएं सुनते थे, पर महिला भक्तों पर कृपा थोड़ी ज्यादा ही बरसती थी.

‘‘अकरोना बाबा की जय हो,’’ एक बहुत खूबसूरत औरत ने प्रवेश किया.

‘‘कहो ठकुराइन, क्या बात है?’’ बाबा ने आंखें बंद किए हुए ही कहा.

‘‘क्या बताऊं बाबाजी, मेरे कंधों में दर्द रहता है… कोई उपाय बताइए.’’

‘‘तुम पिछले जन्म में किसी राज्य की राजकुमारी थी और तुम ने लुटेरों के चंगुल से बचने के लिए वह खजाना कहीं गाड़ दिया था… उस खजाने का बोझ अब भी तुम्हारे कंधों पर है, उसे हटाना होगा,’’ अकरोना बाबा ने कहा.

‘‘पर, कैसे बाबा?’’

‘‘हमें वह खजाना ढूंढ़ना होगा,’’ बाबा ने कहा.

‘‘पर खजाना मिलेगा कहां बाबा?’’

‘‘खजाना तुम्हारे घर में ही है… हमें वहीं आ कर खुदाई करनी होगी. और क्योंकि तुम राजकुमारी थी, इसलिए तुम्हें हमारे काम में सहयोग भी देना होगा,’’ अकरोना बाबा ने कहा.

‘‘मैं तैयार हूं बाबा,’’ ठकुराइन बोलीं.

अगले दिन सुबह ठकुराइन के घर पूजा होनी थी. अकरोना बाबा ने इसे बेहद राज रखने को कहा था, सिर्फ बाबा और उस के 2 साथी ही वहां पहुंचे थे.

‘‘भाई, हमारे साथ पूजा में सिर्फ राजकुमारी… मेरा मतलब है कि ठकुराइन ही रहेंगी. किसी को कोई एतराज तो नहीं? क्यों ठाकुर?’’ अकरोना बाबा ने उन की ओर देखते हुए कहा.

‘‘अरे नहीं… नहीं, बाबाजी… हमें कोई दिक्कत नहीं है. बस हमारी पत्नी के कंधे का दर्द दूर होना चाहिए.’’

‘‘जरूर दूर होगा,’’ बाबा ने हुंकार भरी.

पूजा शुरू हुई. उस कमरे में अकरोना बाबा ने ठकुराइन से ध्यान लगाने को कहा. ठकुराइन ने ऐसा ही किया. अकरोना बाबा एक मंत्र पढ़ रहा था कि अचानक से ठकुराइन बेहोश हो कर गिर गईं. क्योंकि आग से उठता हुआ धुआं नशीला था.

फिर क्या था, ठकुराइन के गिरते ही अकरोना बाबा अपने असली रंग में आ गया. उस ने ठकुराइन के साथ उसी बेहोशी में बलात्कार किया और उस के फोटो भी उतारे.

बेचारी ठकुराइन को जब होश आया तब तक बहुत देर हो चुकी थी. वे किसी से कुछ कह भी नहीं सकती थीं. और अगर बाबा की करतूत अपने पति को भी बतातीं तो भी उन की शादीशुदा जिंदगी को खतरा हो सकता था, इसलिए सब आगापीछा सोच कर वे चुप ही रहीं.

अब तक अकरोना बाबा समझ चुका था कि ठकुराइन अपना मुंह नहीं खोलेंगी, इसलिए उस ने फिर से एक नाटक खेला. कमरे का दरवाजा खोल कर ठाकुर को एक मिट्टी की हांड़ी दिखाई और बोला, ‘‘राजकुमारी ने खजाना तो सोने के घड़े में छिपाया था, पर किसी बेकुसूर को सजा देने के चलते राजकुमार को पाप मिला और राजकुमारी का वह खजाना अपनेआप मिट्टी में बदल गया… और अब कुछ नहीं हो सकता.’’

‘‘कोई बात नहीं अकरोना बाबा, आप ने इन को इतना टाइम दिया, यही हमारे लिए बहुत बड़ी बात है… आप का बहुत शुक्रिया है,’’ ठाकुर ने कहा.

अब अकरोना बाबा ने गांव में भोलीभाली जनता को बेवकूफ बनाना शुरू कर दिया और जब गांव के बाकी लोगों ने जाना कि बाबा प्रवचन करने के साथसाथ समस्याएं भी सुलझाते हैं, तो अकरोना बाबा के पास लोगों की भीड़ बढ़ने लगी.

और अब तो कभी हरिया, कभी किसना, तो कभी राघव, तो कभी मंगलू जैसे लोग बाबा के पास अपनी समस्या का इलाज कराने जाने लगे.

जिस तरह से अकरोना बाबा ने ठकुराइन के साथ किया, कुछ वैसा ही वह मंगलू के घर पर करने वाला था. उस बंद कमरे में मंगलू की पत्नी के अलावा बाबा और उस के 2 चेले थे.

मंगलू और उस के परिवार की आर्थिक समस्या सही करने के लिए अकरोना बाबा मंत्र पढ़ रहा था.

मंगलू की पत्नी अभी बेहोश नहीं हुई थी और बाबा ज्यादा ही उतावला हो रहा था. अकरोना बाबा मंगलू की पत्नी की पीठ सहलाने लगा और धीरेधीरे उस के हाथ मंगलू की पत्नी के सीने की तरफ बढ़ने लगे.

मंगलू की पत्नी अकरोना बाबा की नीयत भांप गई और उस का विरोध कर के बाहर निकल आई. उस ने शोर मचा कर सब को इकट्ठा कर लिया.

वह जोरजोर से कहने लगी, ‘‘देखो…देखो यह ढोंगी बाबा… यह मेरे साथ छेड़छाड़ करने की कोशिश कर रहा है… देखो देखो.’’

मंगलू की पत्नी के इस तरह चीखने पर उस का पति व आसपास के लोग जमा हो गए, वे सभी उस की बातों को सुन ही रहे थे कि अंदर के कमरे से अकरोना बाबा मुसकराते हुए बाहर निकला और बोला, ‘‘देखो गांव वालो, मैं ने तुम लोगों को तो बहुत पहले ही उस चुड़ैल की आत्मा के बारे में बता दिया था… देखो, आज उसी चुड़ैल की आत्मा इस औरत के अंदर आ गई है और हमारे पास इसे सजा देने का मौका भी है… इसे मेरे शिविर में ले चलो… हम सब मिल कर इसे सजा देंगे.’’

मंगलू की पत्नी चीखती रह गई थी, पर उस गांव में भला उस की सुनने वाला कौन था. गांव के लोग तो उसे चुड़ैल समझ कर मारने पर आमादा थे.

अब मंगलू की पत्नी अकरोना बाबा के चंगुल में थी.

अकरोना बाबा आया और बोला ‘‘क्या फायदा मिला तुझे… देख लिया न, तेरे ही लोग तुझे यहां छोड़ कर गए हैं मेरे लिए… अगर तू चुपचाप रहती तो इतना नाटक नहीं करना पड़ता… तू भी खुश रहती और मैं भी खुश रहता… अब अपनी नासमझी का अंजाम भुगत.’’

और उस के बाद अकरोना बाबा और उस के चेलों ने जी भर कर उस के जिस्म से कई दिनों तक अपनी प्यास बुझाई.

अकरोना बाबा का परदा सब गांव वालों की आंखों पर पड़ चुका था. बाबा औरतों और लड़कियों के जिस्म से तो खेलता ही था, उन के पैसे भी मार रहा था.

धीरेधीरे अकरोना बाबा ने पूरे गांव पर अपने छोटेमोटे चमत्कार या हाथ की सफाई दिखा कर गांव वालों के मन में जगह बना ली थी और गांव वाले उसे पूजने लगे थे.

बाबा की नजर जिस लड़की या औरत पर पड़ जाती, उसे वह किसी पूजा या अनुष्ठान के बहाने अपनी हवस का शिकार बनाने की कोशिश करता और अगर वह विरोध करती तो उसे प्यासी चुड़ैल बता कर अपनी हवस का शिकार भी बनाता.

गांव की कुछ औरतों ने जोरजुल्म सहने के बाद भी जब इस बाबा की पोल खोलने की कोशिश की तो अकरोना बाबा ने गांव वालों को बताया कि ये प्यासी चुड़ैल हैं और अगर इन्हें मारा नहीं गया तो ये गांव वालों के बच्चों को ही खाने लगेंगी, इसलिए बहुत सी औरतों को तो गांव के कुछ दबंग, ऊंची जाति और पैसे वाले लोगों ने पेड़ के तने से बांध कर मारा, इतना मारा जब तक कि वे मर नहीं गईं.

एक दिन की बात है. अकरोना बाबा के पास एक जोड़ा आया और चांदी की भेंट चढ़ाई.

‘‘बाबा के चरणों में हमारा प्रणाम.’’

‘‘हां… कल्याण हो तुम लोगों का… पर देखने में तुम लोग तो इस गांव के नहीं लगते,’’ अकरोना बाबा बोला.

‘‘बाबाजी ने सही पहचाना, हम लोग पास के गांव से आए हैं और हमारी समस्या यह है कि मेरी बीवी को बच्चा नहीं ठहरता और इसीलिए हम शादी के कई साल बाद भी बेऔलाद हैं.’’

उस आदमी ने हाथ जोड़ कर अकरोना बाबा से विनती की.

बाबा ने औरत की नब्ज टटोली. थोड़ी देर मौन रहने के बाद वह बोला, ‘‘खेत में खाली हल चलाने से फसल अच्छी नहीं होती… बीज अच्छा हो तो ही अच्छी फसल मिलती है…

‘‘और तुम्हारे माथे की रेखाएं बता रही हैं कि तुम ने पिछले जन्म में किसी बच्चे को मारा है, इसीलिए उस जन्म की सजा तुम्हें इस जन्म में मिल रही?है.

‘‘चलो, कोई बात नहीं है, अब तुम सही जगह पर आ गए हो. अब तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जाएंगे…

‘‘हां, पर हमें संतान प्राप्ति तंत्रमंत्र करना होगा और हो सकता है कि उस बच्चे की आत्मा तुम्हारे पति पर आ जाए, तो होशियार रहना… घबराना बिलकुल मत. और हमारा अनुष्ठान आज रात को ही शुरू हो जाएगा.’’

वे औरतों के आश्रम में ही रुक गए थे. बाबा की तरह उन्हें भी शाम होने का बेसब्री से इंतजार था.

शाम हुई, तो उस जोड़े को एक कमरे में ले जाया गया. वहां अकरोना बाबा सिर्फ एक लंगोटी बांधे आंखें बंद किए बैठा था.

‘‘इस अनुष्ठान में सिर्फ औरत ही बैठेगी… मर्द को बाहर जाना होगा,’’ अकरोना बाबा ने कहा और उस की आज्ञा मान कर उस औरत के साथ आया आदमी बाहर आ कर बैठ गया.

अकरोना बाबा ने अनुष्ठान शुरू किया और पता नहीं क्या बुदबुदाने लग गया.

कुछ देर बाद अकरोना बाबा ने उस आई हुई औरत का हाथ पकड़ लिया. औरत ने कोई विरोध नहीं किया.

‘‘बाबाजी, मुझे आप के बारे में सब पता है. दरअसल, मेरी एक सहेली भी आप से यही वाला अनुष्ठान कराने आई थी और इसी तरह आप ने उसे बच्चा पैदा करने वाली कृपा की थी और जिस का मजा मेरी सहेली को भी आया था, इसलिए मेरे साथ आप को कोई नाटक करने की जरूरत नहीं है.’’

‘‘अरे वाह, तुम तो बहुत समझदार निकली, तो फिर आओ हम आराम से बिस्तर पर लेट कर जिस्मानी मजा लेते हैं,’’ बाबा ने कहा.

‘‘जिस्मानी मजा, पर वह क्यों?’’ उस औरत ने पूछा.

‘‘अरे, अभी तो तुम ने ही कहा था कि तुम मेरा तरीका जानती हो. तब तो तुम यह भी जानती होगी कि मैं औरत के साथ जबरन जिस्मानी रिश्ता बनाता हूं. अगर वे नानुकुर करती हैं तो मैं उन को चुड़ैल की आत्मा घोषित कर देता हूं. और फिर मुझे कुछ भी करने की जरूरत नहीं पड़ती, बाकी का काम उस के गांव वाले खुद ही कर डालते हैं…’’ हंसने लगा था अकरोना बाबा, क्योंकि उस ने अपना राज खुद ही खोल दिया था.

‘‘बस, अब तेरा खेल खत्म हुआ… अकरोना बाबा,’’ उस औरत ने अपने बैग से पिस्तौल निकालते हुए कहा.

‘‘क्या मतलब? कौन हो तुम?’’

‘‘मैं एक पुलिस इंस्पैक्टर हूं…’’

‘‘और यह मेरी साथी है,’’ बाहर बैठा हुआ वह आदमी अंदर आते हुए बोला.

‘‘हां तो तुम पुलिस हो… तो मैं क्या करूं… मैं ने किया क्या है,’’ अकरोना बाबा ने कहा.

‘‘औरतों के रेप के आरोप में हम तुम्हें गिरफ्तार करते हैं. हमें कई बार तुम्हारे खिलाफ गुमनाम फोन द्वारा शिकायतें मिल रही थीं, पर सुबूत की कमी में हम कुछ कर नहीं पा रहे थे और इसीलिए हम ने यह प्लान बनाया.

‘‘और हम ने तुम्हारी इस दाढ़ी के पीछे छिपे चेहरे को भी पहचान लिया है. तुम एक शातिर ठग विजय हो जो जेल से भाग कर अपना वेश बदल

कर यह काम करने लगा था,’’ इंस्पैक्टर ने कहा.

‘‘पर, सुबूत क्या है तुम लोगों के पास?’’ अकरोना बाबा चीख रहा था.

‘‘सारा सुबूत इस के अंदर है,’’ उस महिला इंस्पैक्टर ने अपने बैग में छिपा एक खुफिया कैमरा दिखाते हुए कहा.

‘‘और मेरे उकसाने पर तुम ने खुद ही अपनी सारी बातें मुंह से उगली है, अब बाकी की जिंदगी जेल में कैदियों का कोरोना भगाने में लगाना,’’ महिला इंस्पैक्टर ने अकरोना बाबा को हथकड़ी पहनाते हुए कहा.

और इस तरह से एक ठग, जो अकरोना बाबा बना फिरता था, पहुंच गया सलाखों के पीछे. सही कहा गया है कि बुरे काम का बुरा नतीजा.

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