अबोध : गौरा का खतरनाक कदम

माधव कुछ दिनों से बीमार चल रहे थे, 50 साल की उम्र. सफेद दाढ़ी. उस पर भी बीमारी के बाद की कमजोर हालत. यह सब देख कर घर के लोगों ने माधव को बेटी की शादी कर देने की सलाह दे दी. कहते थे कि अपने जीतेजी लड़की की शादी कर जाओ.

माधव ने अपने छोटे भाई से कह कर अपनी लड़की के लिए एक लड़का दिखवा लिया.

माधव की लड़की गौरा 15 साल की थी. दिनभर एक छोटी सी फ्रौक पहने सहेलियों के साथ घूमती रहती, गोटी खेलती, गांव के बाहर लगे आम के पेड़ पर चढ़ कर गिल्ली फेंकने का खेल भी खेलती.

जैसे ही गौरा की शादी के लिए लड़का मिला, वैसे ही उस का घर से निकलना कम कर दिया गया.

अब गौरा घर पर ही रहती थी. महल्ले की लड़कियां उस के पास आती तो थीं, लेकिन पहले जैसा माहौल नहीं था. गौरा की शादी की खबर जब उन लड़कियों को लगी, तो गौरा को देखने का उन का नजरिया ही बदल गया था.

माधव ने फटाफट गौरा की शादी उस लड़के से तय कर दी. माधव की माली हालत तो ठीक नहीं थी, लेकिन जितना भी कर सकते थे, करने में लग गए.

शादी की तारीख आई. लड़के वाले बरात ले कर माधव के घर आ गए. लड़का गौरा से बड़ा था. वह 20-22 साल का था.

गौरा को इन बातों से ज्यादा मतलब तो नहीं था, लेकिन इस वक्त उसे अपना घर छोड़ कर जाना कतई अच्छा नहीं लग रहा था. शादी के बाद गौरा अपनी ससुराल चली गई, लेकिन रोते हुए.

गौरा की शादी के कुछ दिन बाद ही माधव की बीमारी ठीक होने लगी, फिर कुछ ही दिनों में वे पूरी तरह से ठीक भी हो गए, मानो उस मासूम गौरा की शादी करने के लिए ही वे बीमार पड़े थे.

उधर गौरा ससुराल पहुंची तो देखा कि वहां घर जैसा कुछ भी नहीं था. न साथ खेलने के लिए सहेलियां थीं और न ही अपने घर जैसा प्यार करने वाला कोई.

गौरा की सास दिनभर मुंह ऐंठे रहती थीं. ऐसे देखतीं कि गौरा को बिना अपराध किए ही अपराधी होने का अहसास होने लगता.

जिस दिन गौरा अपने घर से विदा हो कर ससुराल पहुंची, उस के दूसरे दिन से ही उस से घर के सारे काम कराए जाने लगे. गौरा को चाय बनाना तो आता था, लेकिन सब्जी छोंकना, गोलगोल रोटी बनाना नहीं आता था.

जब ये बातें उस की सास को पता चलीं, तो वे गौरा को खरीखोटी सुनाने लगीं, ‘‘बहू, तेरी मां ने तु?ो कुछ नहीं सिखाया. न तो दहेज दिया और न ही ढंग की लड़की. कम से कम लड़की ही ऐसी होती कि खाना तो बना लेती…’’

गौरा चुपचाप सास की खरीखोटी सुनती रहती और जब भी अकेली होती, तो घर और मां की याद कर के खूब रोती. दिनभर घर के कामों में लगे रहना और सास भी जानबू?ा कर उस से ज्यादा काम कराती थीं.

बेचारी गौरा, जो सास कहतीं, वही करती. शाम को पति के हाथों का खिलौना बन जाती. वह तो ठीक से दो मीठी बातें भी उस से नहीं करता था. दिनभर यारदोस्तों के साथ घूमता और रात होते ही घर में आता, खाना खाता और गौरा को बेहाल कर चैन से सो जाता.

एक दिन गौरा का बहुत मन हुआ कि घर जा कर अपने मांबाप से मिल ले. मां से तो लिपट कर रोने का मन करता था.

मौका देख कर गौरा अपनी सास से बोली, ‘‘माताजी, मैं अपने घर जाना चाहती हूं. मुझे घर की याद आती है.’’

सास तेज आवाज में बोलीं, ‘‘घर जाएगी तो यहां क्या जंगल में रह रही है? यहां कौन सा तुझ पर आरा चल रहा है… घर के बच्चों से ज्यादा तेरी खातिर होती है यहां, फिर भी तू इसे अपना घर नहीं समझाती.’’

गौरा घबरा कर रह गई, लेकिन घर की याद अब और ज्यादा आ रही थी.

दिन यों ही गुजर रहे थे कि एक दिन माधव गौरा की ससुराल आ पहुंचे.

अपने पिता को देख गौरा जी उठी थी. भरे घर में अपने पिता से लिपट गई और खूब सिसकसिसक कर रोई.

माधव का दिल भी पत्थर से मोम हो गया. वे खुद रोए तो नहीं, लेकिन आंखें कई बार भीग गईं. उसी दिन शाम को वे गौरा को अपने साथ ले आए.

घर आ कर गौरा फिर उसी मनभावन तिलिस्म में खो गई. वही गलियां, वही रास्ता, वैसे ही घर, वही आबोहवा, वैसी ही खुशबू. इतने में मां सामने आ गईं. गौरा की हिचकी बंध गई, दोनों मांबेटी लिपट कर खूब रोईं.

घर में आई गौरा ने मां को ससुराल की सारी हालत बता दी और बोली, ‘‘मां, मैं वहां नहीं जाना चाहती. मु?ो अब तेरे ही पास रहना है.’’

मां गौरा को समझाते हुए बोलीं, ‘‘बेटी, अब तेरी शादी हो चुकी है. तेरा घर अब वही है. हम चाह कर भी तुझे इस घर में नहीं रख सकते.

‘‘हर लड़की को एक न एक दिन अपनी ससुराल जाना ही होता है. मैं इस घर आई और तू उस घर में गई. इसी तरह अगर तेरी लड़की हुई, तो वह भी किसी और के घर जाएगी. इस तरह तो कोई हमेशा अपने घर नहीं रुक सकता.’’

गौरा चुप हो गई. मां से अब और क्या कहती. जो सास कहती थीं, वही मां भी कहती हैं.

रात को गौरा नींद भर सोई, दूसरी सुबह उठी तो साथ की लड़कियां घर आ पहुंचीं. अभी तक सब की सब कुंआरी थीं, जबकि गौरा शादीशुदा थी. वे सब सलवारसूट पहने घूम रहीं थीं, जबकि गौरा साड़ी पहने हुए थी.

आज गौरा सारी सहेलियों से खुद को अलग पाती थी, उन से बात करने और मिलने में उसे शर्म आती थी. मन करता था कि घर से उठ कर कहीं दूर भाग जाए, जिस से न तो ससुराल जाना पड़े और न ही किसी से शर्म आए.

सुबह के 10 बजने को थे. गौरा ने घर में रखा पुराना सलवारसूट पहना, जिसे वह शादी से पहले पहना करती थी और मां के पास जा कर बड़े प्यार से बोली, ‘‘मां, तुम कहो तो मैं थोड़ी देर बाहर घूम आऊं?’’

गौरा बोलीं, ‘‘हां बेटी, घूम आ, लेकिन जल्दी घर आ जाना. अब तू छोटी बच्ची नहीं है.’’

गौरा मुसकराते हुए घर से निकल गई. उस की नजर गांव के बाहर लगे आम के पेड़ के पास गई. मन खिल उठा. लगा, जैसे वह पेड़ उस का अपना है, कदम बरबस ही गांव से बाहर की ओर बढ़ गए.

हवा के हलके ?ोंके और खेतोंपेड़ों का सूनापन, चारों तरफ शांत सा माहौल और बेचैन मन, मानो फिर से लौट पड़ा हो गौरा का बचपन. हवा में पैर फेंकती सीधी आम के पेड़ के नीचे जा पहुंची.

यह वही आम का पेड़ था, जिस के ऊपर चढ़ कर गिल्ली फेंकने वाले खेल खेले जाते थे, जहां सहेलियों के साथ बचपन के सुख भरे दिन गुजारे थे.

गौरा दौड़ कर आम के पेड़ से लिपट गई. उस मौन खड़े पेड़ से रोरो कर अपने दिल का हाल कह दिया. पेड़ भी जैसे उस का साथी था. उस ने गौरा के मन को बहुत तसल्ली दी.

थोड़ी देर तक गौरा पेड़ से लिपटी बचपन के दिनों को याद करती रही, बचपन तो अब भी था, लेकिन कोई उसे छोटी लड़की मानने को तैयार न था. सब कहते कि वह बड़ी हो गई है, लेकिन खुद गौरा और उस का दिल नहीं मानता था कि वह इतनी बड़ी हो गई है कि घर से बाहर किसी और के साथ रहने लगे. बड़ी औरतों की तरह काम करने लगे, सास की खरीखोटी सुनने लगे.

गौरा बैठी सोचती रही, मन में गुबार की आंधी चलती थी, फिर न जाने क्या सोच कर अपना दुपट्टा उतारा और आम के पेड़ पर चढ़ कर छोर को उस की डाली से कस कर बांध दिया. फिर आम के पेड़ से उतर कर दूसरा छोर अपने गले में बांध लिया.

अभी तक गौरा ठीकठाक थी. खड़ीखड़ी थोड़ी देर तक वह अपने गांव को देखती रही, फिर एकदम से पैरों को हवा में उठा लिया, शरीर का सारा भार गले में पड़े दुपट्टे पर आ गया, दुपट्टा गले को कसता चला गया, आंखें बाहर निकली पड़ी थीं, मुंह लाल पड़ गया था.

थोड़ी ही देर में गौरा की मौत हो गई. अब उसे ससुराल नहीं जाना था और न ही कोई परेशानी सहनी थी. कांटों पर चल रही मासूम सी जिंदगी का अंत हो गया था.

जिस बच्ची के खेलने की उम्र थी, उस उम्र में उसे न जाने क्याक्या देखना पड़ा था. उस की दिमागी हालत का अंदाजा सिर्फ वही लगा सकती थी.

एक भी ऐसा शख्स नहीं था, जो उस अबोध बच्ची को सम?ाता, लेकिन आज सब खत्म हो गया था, उस की सारी समस्याएं और उस की जिंदगी.

आस पूरी हुई : धोती और चप्पल बनी इज्जत का सवाल

रमेश्वर आज अपनी पहली कमाई से सोमरू के लिए नई धोती और कजरी के लिए  चप्पल लाया था. अपनी मां को उस ने कई बार राजा ठाकुर के घर में नईनई लाललाल चप्पलों को ताकते देखा था. वह चाहता था कि उस के पिता भी बड़े लोगों की तरह घुटनों के नीचे तक साफ सफेद धोती पहन कर निकलें, पर कभी ऐसा हो न सका था.

कजरी ने धोती और चप्पल संभाल कर रख दी और बेटे को समझ दिया कि कभी शहर जाएंगे तो पहनेंगे. गांव में बड़े लोगों के सामने सदियों से हम छोटी जाति की औरतें चप्पल पहन कर नहीं निकलीं तो अब क्या निकलेंगी.

कजरी मन ही मन सोच रही थी कि इन्हीं चप्पलों की खातिर राजा ठाकुर के बेटे ने कैसे उस से भद्दा मजाक किया था और घुटनों से नीचे तक धोती पहनने के चलते भरी महफिल में सोमरू को नंगा किया गया था.

कजरी और सोमरू धौरहरा गांव में रहते थे. सोमरू यानी सोनाराम और कजरी उस की पत्नी.

सोमरू कहार था और अपने पिता के जमाने से राजा ठाकुरों यहां पानी भरना, बाहर से सामान लाना, खेतखलिहानों में काम करना जैसी बेगारी करता था.

राजा ठाकुरों की गालीगलौज, मारपीट  जैसे उस के लिए आम बात थी. कजरी भी उस के साथसाथ राजा ठाकुरों के घरों में काम करती थी.

कजरी थी सलीकेदार, खूबसूरत और फैशनेबल भी. काम ऐसा सलीके से करती थी कि राजा ठाकुरों की बहुएं भी उस के सामने पानी भरती थीं.

एक दिन आंगन लीपते समय कजरी घर की नई बहू की चमचमाती नईनई चप्पलें उठा कर रख रही थी कि राजा ठाकुर के बड़े बेटे की नजर उस पर पड़ गई. उस ने कहा, ‘‘कजरी, चप्पल पहनने का शौक हो रहा है क्या…? बोलो तो तुम्हारे लिए भी ला दें, लेकिन सोमरू को मत बताना. हमारीतुम्हारी आपस की बात रहेगी.

‘‘तुम्हारे नाजुक पैर चप्पल बिना अच्छे नहीं लगते. सब के सामने नहीं पहन सकती तो क्या हुआ… मेरा कमरा है न… रात को मेरे कमरे में पहन कर आ जाना. कोई नहीं देखेगा मेरे अलावा.’’

कजरी का मन हुआ कि चप्पल उस के मुंह पर मार दे, पर क्या करती… एक भद्दी सी गाली दे कर चुप रह गई. कजरी आंगन लीप कर हाथ धोने बाहर जा रही थी तभी देखा कि राजा साहब सोमरू को बुला रहे थे.

सोमरू घर के बाहर झाड़ू लगा रहा था. राजा ठाकुर भरी महफिल के सामने गरजे, ‘‘अबे सोमरू, बहुत चरबी चढ़ गई है तुझे. कई दिन से देख रहा हूं तेरी धोती घुटनों से नीची होती जा रही है. राजा बनने का इरादा है क्या?

‘‘जो काम तुम्हारे बापदादा ने नहीं किया, तुम करने की जुर्रत कर रहे हो? लगता है, जोरू कुछ ज्यादा ही घी पिला रही है…’’ और राजा साहब ने सब के सामने उस की धोती खोल कर फेंक दी.

भरी सभा में यह सब देख कर लोग जोरजोर से हंसने लगे. एक गरीब आदमी सब के सामने नंगा हो गया था. सोमरू को तो जैसे काठ मार गया.

सोमरू इधरउधर देख रहा था कि कहीं कजरी उसे देख तो नहीं रही. दरवाजे के पीछे खड़ी कजरी को उस ने खुद देख लिया. वह जमीन में गड़ गया.

कजरी दरवाजे की ओट से सब देख रही थी. शरीर जैसे जम सा गया था. वह जिंदा लाश की तरह खड़ी थी.

कजरी और सोमरू एकदूसरे से नजरें नहीं मिला पा रहे थे. आखिर क्या कहते? कैसे दिलासा देते? दोनों अंदर ही अंदर छटपटा रहे थे.

कजरी ने सोमरू की थाली जरूर लगाई, पर वह रातभर वैसी ही पड़ी रही. दोनों पानी पी कर लेट गए, पर नींद किस की आंखों में थी? उन का दर्द इतना साझा था कि बांटने की जरूरत न थी.

कजरी का दर्द पिघलपिघल कर उस की आंखों से बह रहा था, पर सोमरू… वह तो पत्थर की मानिंद पड़ा था. कजरी के सामने बारबार अपने पति का भरी सभा में बेइज्जत किया जाना कौंध जाता था और सोमरू को कजरी की डबडबाई आंखें नहीं भूल रही थीं.

कजरी और सोमरू की जिंदगी यों ही बीत रही थी. बेटे रमेश्वर को उन्होंने जीतोड़ मेहनतमजदूरी, कर्ज ले कर पढ़ायालिखाया था.

सोमरू चाहता था कि उस के बेटे को कम से कम ऐसी जलालत भरी जिंदगी न जीनी पड़े. जिंदा हो कर भी मुरदों जैसे दिन न काटने पड़ें.

रमेश्वर पढ़लिख कर एक स्कूल में टीचर हो गया था और शहर में ही रहने लगा था. सोमरू चाहता भी नहीं था कि वह गांव लौटे. उन का बुढ़ापा जैसेतैसे कट ही जाएगा, पर बेटा खुशी और इज्जत से तो रहेगा.

सोमरू की एक आस मन में ही दबी थी कि वह और कजरी साथ घूमने जाएं.  कजरी अपनी मनपसंद चप्पल पहन कर उस के साथ शहर की चिकनी सड़क पर चले, जो रमेश्वर उस के लिए लाया था.

सोमरू अपने मन की आस किसी के सामने कह भी नहीं सकता था और कजरी को तो बिलकुल भी नहीं बता सकता था. कहां खाने के लाले पड़े थे और वह घूमने के बारे में सोच रहा है.

जमुनिया ताल के किनारे कजरी एक दिन बरतन धो रही थी. सोमरू भी वहीं बैठा था. उस दिन सोमरू ने अपने मन की बात कजरी को बताई, ‘‘बुढ़ापा आ गया  कजरी, पर मन की एक हुलस आज तक पूरी न कर पाया. चाहता था कि कसबे में चल रहे मेले में दोनों जन घूम आएं.’’

सोमरू एक बार उसे चप्पल पहने देखना चाहता था, जैसे नई ठकुराइन अपने ब्याह में पहन कर आई थीं.

रमेश्वर कितने प्यार से लाया था अपनी पहली कमाई से, पर इस गांव में यह इच्छा पूरी नहीं हो सकी. जिंदगी बीत गई. अब जाने कितने दिन बचे हैं. एक बार मेला भी देख लें. कितना सुना है उस के बारे में. यह इच्छा पूरी हो जाए, फिर चाहे मौत ही क्यों न आ जाए, शिकायत न होगी.

कजरी को लगा कि सोमरू का दिमाग खिसक गया है. यह कोई उम्र है चप्पल पहन कर घूमने की. सारी जिंदगी नंगे पैर बीत गई. जब उम्र थी तब तो कभी न कहा कि चलो घूम आएं. अब बुढ़ापे में घूमने जाएंगे. उस समय तो कजरी ने कुछ न कहा, पर कहीं न कहीं सोमरू ने उस की दबी इच्छा जगा दी थी.

रात में कजरी सोमरू को खाना खिलाते समय बोली, ‘‘कहते तो तुम ठीक ही हो. जिंदगीभर कमाया और इस पापी पेट के हवाले किया. कुछ पैसा जोड़ कर रखे थे कि बीमारी में काम आएगा, पर लगता है कि अब थोड़ा हम अपने लिए भी जी लें, खानाकमाना तो मरते दम तक चलता ही रहेगा. पेट ने कभी बैठने दिया है इनसान को भला?’’

दोनों ने अगले महीने ही गांव से डेढ़ सौ किलोमीटर दूर ओरछा के मेले में जाने की योजना बनाई.

पूरे महीने दोनों तैयारी करते रहे. पैसा इकट्ठा किया. कपड़ेलत्ते संभाले. गांव वालों को बताया. बेटों को बताया. नातेरिश्तेदारों को खबर की कि कोई साथ में जाना चाहे तो उन के साथ चले. आखिर कोई संगीसाथी मिल जाएगा तो भला ही होगा. जाने का दिन भी आ गया, पर कोई तैयार न हुआ.

गांव से 4 किलोमीटर पैदल जा कर एक कसबा था, जहां से ओरछा के लिए सीधी ट्रेन जाती थी. दोनों बूढ़ाबूढ़ी भोर में ही गांव से पैदल चल दिए.

स्टेशन तक पहुंचतेपहुंचते सूरज भी सिर पर आ गया था. 11 बजे दोनों ट्रेन में खुशीखुशी बैठ गए. आखिर बरसों की साध पूरी होने जा रही थी.

कजरी घर से ही खाना बना कर लाई थी. दोनों ने खाया और बाहर का नजारा देखतेदेखते जाने कब सफर पूरा हो गया, पता ही न चला.

रात में दोनों एक धर्मशाला के बाहर ही सो गए. अगले दिन सुबह मेले में शामिल हुए. पूरा दिन वहीं गुजारा. कजरी ने एकसाथ इतनी दुकानें कभी न देखी थीं. हर दुकान के सामने खड़ी हो कर वह वहां रखे चमकते सामान को देखती और अपनी गांठ में बंधे रुपयों पर हाथ फेरती. दुकान में घुस कर दाम पूछने की हिम्मत न पड़ती.

एक दुकान में दुकानदार के बहुत बुलाने पर सोमरू और कजरी घुसे. कजरी वहां रखी धानी रंग की चुनरी देख कर पीछे न हट सकी.

सोमरू ने उस के लिए डेढ़ सौ

रुपए की वह चुनरी खरीद ली और दुकान से बाहर आ गए.

अब सोमरू के पास कुछ ही पैसे बचे थे. वह सोच रहा था कि कजरी के पास भी कुछ रुपए होंगे. उस ने पूछा तो कजरी ने हां में सिर हिला दिया.

कजरी ने जातबिरादरी में बांटने के लिए टिकुली, बिंदी, फीता, चिमटी के अलावा और भी बहुत सा सामान खरीदा. आखिर वह इतने बड़े मेले में आई थी. पासपड़ोसी, नातेरिश्तेदार सब को कुछ न कुछ देना था. खाली हाथ वापस कैसे जाती.

कजरी आज जब चप्पल पहन कर चल रही थी, सोमरू को रानी ठाकुराइन के गोरेगोरे महावर सजे पैर याद आ गए. कजरी के पैर आज भी गोरे थे और सुहागन होने के चलते महावर उस के पैरों में हमेशा लगा रहता था.

कजरी लाललाल चप्पल पहन कर जैसे आसमान में उड़ रही थी. आज उसे किसी के सामने चप्पल उतारने की जरूरत न थी. लोग उसे देख रहे थे और वह लोगों को.

सोमरू ने आज घुटनों तक धोती पहनी थी. वह आज इतना खुश था, जितना अपनी शादी में भी न हुआ था.

आज 70 बरस की कजरी उस के साथसाथ पक्की सड़क पर सब के सामने लाललाल चप्पल पहने, धानी रंग की चुनरी ओढ़े ठाट से चल रही थी, मानो किसी बड़े घर की नईनई बहू ससुराल से मायके आई हो.

सोमरू आज अपनेआप को दुनिया का सब से रईस आदमी सम?ा रहा था.

दोनों घर वापस जाने के लिए स्टेशन आ गए. रात स्टेशन पर ही बितानी थी. ट्रेन सवेरे 5 बजे की थी. दोनों ने पास में बंधा हुआ खाना खाया और वहीं स्टेशन पर आराम करने लगे.

सोमरू सुबह टिकट लेने के लिए उठा. कजरी से बोला, ‘‘पैसे निकाल. टिकट ले लिया जाए. ट्रेन के आने का समय भी हो रहा है.’’

दोनों ने अपनेअपने पैसे निकाले और गिनने लगे. टिकट के लिए 40 रुपयों की जरूरत थी और दोनों के पास कुलमिला कर 38 रुपए ही हुए. अब वे क्या करें?

दोनों बारबार कपड़े, ?ोले को ?ाड़ते, सामान ?ाड़?ाड़ कर देखते, कहीं से 2 रुपए निकल जाएं. पर पैसे होते तब न निकलते.

दोनों ऐसे भंवर में थे कि न डूब रहे थे, न निकल रहे थे. धीरेधीरे लोग उन के आसपास इकट्ठा होने लगे थे.

दरअसल, रात को सोमरू ने 2 रुपए का तंबाकू खरीदा था और अब टिकट के लिए पैसे कम पड़ रहे थे.

कजरी की आंखों से आग बरस रही थी. उस ने सोमरू को गुस्से में कहा, ‘‘अब क्या करोगे? टिकट के लिए पैसे कम पड़ गए. अब घर क्या उड़ कर जाएंगे? तुम्हारी तंबाकू की लत ने…’’

बेचारा सोमरू क्या करे. जिस दर्द को वह पूरी जिंदगी ढोता रहा, उस ने आज इतनी दूर आ कर भी उस का पीछा नहीं छोड़ा था. कभी अपने आसपास लगी भीड़ को देखता, तो कभी अपनी बूढ़ी पत्नी को.

सोमरू का मन पछतावे से इस तरह छटपटा रहा था जैसे वह पूरे समाज के सामने चोरी करता पकड़ा गया हो. आज फिर 2 रुपयों ने सब के सामने उसे नंगा कर दिया था.

 

शौर्टकट : क्या था सविता के मालामाल होने का राज

सविता के तकिए के नीचे एक महंगा मोबाइल फोन देख कर उस के पति श्यामलाल का माथा ठनक गया. उसे समझ में नहीं आया कि 6,000 रुपए महीना कमाने वाली उस की पत्नी के पास 50,000 रुपए का मोबाइल फोन कहां से आया.

सविता दूसरे घरों में झाड़ूपोंछे का काम करती थी, जबकि श्यामलाल दिहाड़ी मजदूर था. पत्नी के पास इतना महंगा मोबाइल देख कर उस के दिमाग में कई तरह के सवाल आने लगे.

इस सब के बावजूद श्यामलाल ने अपने दिल को मनाया तो जरूर, लेकिन रातभर उसे नींद नहीं आई. वह मन ही मन सोच रहा था, ‘इस के पास इतना महंगा फोन कहां से आया? इसे जगा कर पूछ लेता हूं. नहीं, अभी सोने देता हूं, बेचारी थकी होगी. कल सुबह पूछ लूंगा.’

‘‘सविता, यह किस का मोबाइल है और तेरे पास कहां से आया? यह तो काफी महंगा है,’’ अगले दिन श्यामलाल ने पूछा.

पति के हाथ में अपना मोबाइल फोन देख कर सविता के चेहरे का रंग पीला पड़ गया. उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या बोले, क्या न बोले.

‘‘मेरी बात का कोई जवाब नहीं दिया सविता? यह फोन है किस का?’’ श्यामलाल ने जोर दे कर पूछा.

‘‘अरे, मालकिन का है. इस में कुछ दिक्कत आ रही थी, सो उन्होंने कहा था कि इसे ठीक करवा लाओ. यह अब ठीक हो गया है तो आज उन्हें दे दूंगी,’’ यह कह कर सविता ने मोबाइल अपने हाथ में लिया और काम पर निकल गई.

लेकिन उस दिन के बाद से सविता का पति कभी उस के पास नए सोने के झुमके देखता, तो कभी पायल, कभी महंगी साड़ी, तो कभी कुछ और. एक दिन वह बड़ा और महंगा टीवी ले कर घर आई तो श्यामलाल की हैरानी का ठिकाना नहीं रहा. उस ने टोकते हुए कहा, ‘‘क्या है यह सब?’’

‘‘टीवी है… दिख नहीं रहा है क्या?’’

‘‘वह तो दिख रहा है मुझे, लेकिन यह आया कहां से?’’

‘‘दुकान से आया है और कहां से आएगा.’’

‘‘देखो, ज्यादा बात को घुमाओ मत और सीधेसीधे बताओ कि इतना महंगा टीवी कहां से आया? तुम्हारी कोई लौटरी लगी है क्या? ये झुमके, पायल, साड़ी और टीवी, सब कहां से आ रहे हैं?’’

श्यामलाल की बातों को सुन कर सविता ने मुंह बनाते हुए कहा, ‘‘यह सब मेरी नई मालकिन ने दिया है. वे मेरे काम से बहुत खुश हैं. वे मुझे गिफ्ट देती हैं.’’

‘‘कोई भी मालकिन इतना महंगा गिफ्ट नहीं देती है और वह भी अपने घर काम करने वाली को.’’

‘‘आप मुझ पर शक कर रहे हैं?’’

‘‘नहीं, जो बात सच है, वही बता रहा हूं. हम दोनों जितना कमाते हैं, उस से ये सारी चीजें इस जनम में तो नहीं ही ली जा सकती हैं.’’

‘‘अब अगर कोई मुझे दे रहा है, तो आप को क्यों खुजली लग रही है? देखिए जी, मैं कोई गलत काम नहीं कर रही. आप चाहें तो मेरी मालकिन से जा कर पूछ सकते हैं,’’ श्यामलाल की बातों को सविता ने अपनी गोलमोल बातों में उलझा दिया.

श्यामलाल ने सविता की बातों को सुना तो जरूर, लेकिन वह चाह कर भी उस की बातों पर यकीन नहीं कर पा रहा था.

उधर सविता का अचानक बदला रंगढंग सभी के लिए चर्चा की बात बन गया था. उस के महल्ले वालों ने अब पीठ पीछे बातें बनानी शुरू कर दी थीं.

‘‘विमला, यह सविता ने घर पर नोट छापने की मशीन लगा रखी है क्या? कल ही नया टीवी लाई थी वह. आज देखा कि वशिंग मशीन भी. आएदिन उस के घर में एक नया सामान आ रहा है.’’

‘‘जानती हो, वे जो कान में नए झुमके पहनी थी, वे भी सोने के हैं.’’

‘‘वह तो लोगों को यही बता रही है कि उस की मालकिन उस पर मेहरबान है. भला इस तरह मालकिन लोग कब से मेहरबान होने लगी हैं हम लोगों पर? मुझे तो दाल में कुछ काला लग रहा है.’’

‘‘तुम ने तो मेरी मुंह की बात छीन ली. जरूर वह कोई गलत काम कर रही है.’’

सविता के साथ की काम करने वाली सहेलियां आपस में कानाफूसी कर रही थीं.

लोगों की बातें श्यामलाल के कानों तक भी जाती थीं. वह जब सविता से लोगों की बातें कहता, तो वह बोलती, ‘‘जलने दो. अरे, जलन नाम की भी कोई चीज होती है कि नहीं. उन की मालकिन उन के एक दिन न जाने पर पैसे काट लेती है और मेरी मालकिन मुझे गिफ्ट पर गिफ्ट दिए जा रही है. जब ऐसा होगा तो उन्हें नींद आएगी कभी? नहीं आएगी तो और वे कुछ न कुछ बातें बनाएंगी.

‘‘देखिए, अगर आप दूसरों की बातों पर भरोसा कीजिएगा, तो कभी खुश नहीं रह पाएंगे, इसीलिए कान में तेल डालिए और जिंदगी के मजे लीजिए.’’

जिस तरह से सविता ने अपने पति को यह बात कही, उसे बिलकुल भी अच्छी नहीं लगी. शक तो उसे भी अपनी पत्नी पर हो रहा था कि वह जरूर कोई गलत राह पर है, लेकिन जब तक वह उसे रंगे हाथों पकड़ नहीं लेता तो उसे क्या कहता.

‘जो मैं सोच रहा हूं, वैसा बिलकुल भी न हो. और जैसा सविता कह रही है, वैसा ही हो,’ श्यामलाल मन ही मन सोच रहा था.

एक दिन की बात है. रात के 9 बज गए थे. सविता अभी तक काम से लौटी नहीं थी. श्यामलाल उस के लिए बहुत परेशान हो रहा था.

श्यामलाल उसी समय राज अपार्टमैंट्स की तरफ निकल गया, जहां सविता काम करती थी. वह तेज चाल से अपार्टमैंट्स की ओर चला जा रहा था कि तभी उस की नजर एक पुलिस की जीप पर गई. उस ने देखा कि सविता उस जीप में बैठी हुई थी.

सविता को पुलिस जीप में बैठा देख कर श्यामलाल का दिमाग चक्कर खाने लगा. पुलिस सविता को कहां ले कर जा रही है?

‘‘सविता, सविता,’’ उस ने आवाज लगाई, लेकिन पुलिस की गाड़ी तेज रफ्तार में वहां से निकल गई.

श्यामलाल पुलिस की गाड़ी के पीछे भागने लगा. भागते हुए वह पुलिस स्टेशन पहुंचा तो देखा, सविता हवालात में थी.

‘‘क्या किया तू ने? पुलिस वाले तुझे यहां क्यों ले कर आए हैं? बता, क्या किया तू ने?’’

सविता खामोश थी. उस का चेहरा पीला पड़ा हुआ था.

तभी इंस्पैक्टर उस के पास आया और पूछा, ‘‘हां भाई, तुम इस के पति हो?’’

‘‘जी साहब, मैं इस का पति हूं.’’

‘‘क्या किया है इस ने? ऐसे पूछ रहा है, जैसे तुम को कुछ पता ही नहीं. जरूर तुम लोग मिल कर रैकेट चलाते हो. अभी रुक, तेरे को भी जेल में बंद करता हूं.’’

‘‘कौन सा रैकेट साहब? आप क्या कह रहे हैं?’’

सविता का मन हमेशा से अमीर बनने का था. वह बड़े साहब लोगों के यहां काम करती. उन की लाइफ स्टाइल को देखती. उन के कपड़ों और गाडि़यों को देखती तो उस के मन में हमेशा यही आता है कि उसे भी इन महंगी गाडि़यों में बैठना है. वह भी महंगे कपड़े पहने और इन के जैसी जिंदगी जिए. लेकिन दूसरों के यहां झाड़ूपोंछा कर के महंगे शौक पूरा करना मुमकिन नहीं था, इसलिए उस ने शौर्टकट रास्ता अपनाने का सोचा.

सविता देखने में खूबसूरत थी. उस ने सोचा, ‘मेरी खूबसूरती अगर मुझे अमीर नहीं बना सकी तो फिर यह किस काम की…’

लिहाजा, सविता जहांजहां काम करने जाती थी, उस घर के मालिक को अपनी अदा से घायल करने की कोशिश करती. लेकिन कोई भी उस के झांसे में नहीं आता था.

लेकिन एक बार विवेक नाम का एक शादीशुदा शख्स उस के जाल में फंस ही गया. हुआ यों कि विवेक की पत्नी कुछ दिनों के लिए मायके गई हुई थी. उस के जाने के अगले दिन की बात है.

‘‘अरे, कोई टैंशन नहीं है मेरे भाई. आज की रात एक बार फिर से जीते हैं बैचलर वाली लाइफ. पूरी रात मौजमस्ती होगी,’’ विवेक ने अपने दोस्तों के साथ पार्टी करने का प्लान बनाया था. उस रोज उन सब ने जबरदस्त पार्टी की. जब विवेक घर लौटा, तो उस के पैर लड़खड़ा रहे थे.

विवेक ने कुछ ज्यादा ही पी ली थी. बस, घर पहुंच कर वह तुरंत बिस्तर पर जा कर सो गया. विवेक को घर पहुंचे अभी आधा घंटा भी नहीं हुआ था कि दरवाजे की डोरबैल बजी. सविता खड़ी थी.

‘‘साहब, मेमसाब ने कहा था कि आप के लिए रात की रोटी बना दिया करूं,’’ सविता कमरे के अंदर आते हुए बोली.

‘‘रोटी… नहीं… तुम जाओ… मैं खा कर आया हूं.’’

‘‘नहीं साहब, ऐसे कैसे चली जाऊं… मेमसाब गुस्सा होंगी मेरे ऊपर,’’ यह कह कर सविता किचन में चली गई.

विवेक सविता को रोकता रहा, लेकिन वह मानी नहीं. वैसे भी उस रोज नशा विवेक पर इतना हावी था कि वह क्या कह रहा था उसे खुद भी पता नहीं चल रहा था.

विवेक की यही हालत सविता के लिए लौटरी का टिकट बन गई. जब वह नशे की हालत में सोया था, तो वह उस के बगल में जा कर लेट गई और उस के साथ कुछ फोटो अपने मोबाइल पर खींच लिए. अगले दिन सवेरे ही सविता कहने लगी, ‘‘साहब, आप ने तो कल रात मेरी इज्जत लूट ली. मैं झूठ नहीं बोल रही हूं. मोबाइल की तसवीर तो झूठ नहीं बोलेगी न.

‘‘अरे, मैं तो वापस जा रही थी, लेकिन आप ने मुझे खींच कर अंदर बुला लिया और फिर मेरे साथ वह सब किया कि मैं किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रही.’’

‘‘सविता, यह तुम क्या कह रही हो… यह माना कि मैं नशे में था, लेकिन मैं ने ऐसा तो कुछ नहीं किया,’’ विवेक ने कहा..

फिर विवेक के आसपास सविता ने ऐसा जाल बुना कि वह उस में फंस गया. सविता उसे ब्लैकमेल करने लगी और पैसे ऐंठना शुरू कर दिया. इन्हीं पैसों से वह रईसी करने लगी. यह सिलसिला चलता रहा,

लेकिन एक दिन विवेक की पत्नी शालिनी ने बैंक की पासबुक में देखा कि विवेक हर दूसरे दिन एक मोटी रकम खाते से निकाल रहा है, तो उसे कुछ शक हुआ. उस ने उस से पूछा, तो वह टालमटोल करने लगा. लेकिन जब उस ने अपने सिर की कसम दी, तो उस ने शालिनी को सारी बात बता दी.

‘‘मुझ से बहुत बड़ी भूल हो गई. तेरे जाने के बाद एक दिन,’’ विवेक ने सारी कहानी शालिनी को बताई. लेकिन उस के लाख कहने पर भी उसे इस बात पर यकीन नहीं हुआ कि उस के पति ने उस रोज कोई बदतमीजी सविता के साथ की होगी.

एक दिन जब फिर से सविता ने 50,000 रुपए विवेक से मांगे, तो विवेक और शालिनी ने पुलिस को बुला लिया. पुलिस को सामने देख सविता के चेहरे का रंग उड़ गया.

पुलिस ने जब अपने तरीके से सविता से पूछताछ की, तो उस ने सबकुछ उगल दिया.

‘‘साहब, गलती हो गई मुझ से. विवेक साहब बेकुसूर हैं. यह वीडियो तो मैं ने उन के नशे में होने का फायदा उठा कर बनाया था.’’

फिर क्या था, सविता पर मुकदमा चला. उसे 3 साल की सजा हो गई. जिंदगी में जल्दी कामयाब होने का शौर्टकट उस पर भारी पड़ गया.

तपस्या : शादी को लेकर शैली का प्रयास

शैली उस दिन बाजार से लौट रही थी कि वंदना उसे रास्ते में ही मिल गई.

‘‘तू कैसी है, शैली? बहुत दिनों से दिखाई नहीं दी. आ, चल, सामने रेस्तरां में बैठ कर कौफी पीते हैं.’’

वंदना शैली को घसीट ही ले गई थी. जाते ही उस ने 2 कप कौफी का आर्डर दिया.

‘‘और सुना, क्या हालचाल है? कोई पत्र आया शिखर का?’’

‘‘नहीं,’’ संक्षिप्त सा जवाब दे कर शैली का मन उदास  हो गया था.

‘‘सच शैली कभी तेरे बारे में सोचती हूं तो बड़ा दुख होेता है. आखिर ऐसी क्या जल्दी पड़ी थी तेरे पिताजी को जो तेरी शादी कर दी? ठहर कर, समझबूझ कर करते. शादीब्याह कोई गुड्डे-गुडि़या का खेल तो है नहीं.’’

इस बीच बैरा मेज पर कौफी रख गया और वंदना ने बातचीत का रुख दूसरी ओर मोड़ना चाहा.

‘‘खैर, जाने दे. मैं ने तुझे और उदास कर दिया. चल, कौफी पी. और सुना, क्याक्या खरीदारी कर डाली?’’

पर शैली की उदासी कहां दूर हो पाई थी. वापस लौटते समय वह देर तक शिखर के बारे में ही सोचती रही थी. सच कह रही थी वंदना. शादीब्याह कोई गुड्डे – गुडि़या का खेल थोड़े ही होता है. पर उस के साथ क्यों हुआ यह खेल? क्यों?

वह घर लौटी तो मांजी अभी भी सो ही रही थीं. उस ने सोचा था, घर पहुंचते ही चाय बनाएगी. मांजी को सारा सामान संभलवा देगी और फिर थोड़ी देर बैठ कर अपनी पढ़ाई करेगी. पर अब कुछ भी करने का मन नहीं हो रहा था. वंदना उस की पुरानी सहेली थी. इसी शहर में ब्याही थी. वह जब भी मिलती थी तो बड़े प्यार से. सहसा शैली का मन और उदास हो गया था. कितना फर्क आ गया था वंदना की जिंदगी में और उस की  अपनी जिंदगी में. वंदना हमेशा खुश, चहचहाती दिखती थी. वह अपने पति के साथ  सुखी जिंदगी बिता रही थी. और वह…अतीत की यादों में खो गई.

शायद उस के पिता भी गलत नहीं होंगे. आखिर उन्होंने शैली के लिए सुखी जिंदगी की ही तो कामना की थी. उन के बचपन के मित्र सुखनंदन का बेटा था शिखर. जब वह इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था तभी  उन्होंने  यह रिश्ता तय कर दिया था. सुखनंदन ने खुद ही तो हाथ मांग कर यह रिश्ता तय किया था. कितना चाहते थे वह उसे. जब भी मिलने आते, कुछ न कुछ उपहार अवश्य लाते थे. वह भी तो उन्हें चाचाजी कहा करती थी.

‘‘वीरेंद्र, तुम्हारी यह बेटी शुरू से ही मां के अभाव में पली है न, इसलिए बचपन में ही सयानी हो गई है,’ जब वह दौड़ कर उन की खातिर में लग जाती तो वह हंस कर उस के पिता से कहते.

फिर जब शिखर इंजीनियर बन गया तो शैली के पिता जल्दी शादी कर देने के लिए दबाव डालने लगे थे. वह जल्दी ही रिटायर होने वाले थे और उस से पहले ही यह दायित्व पूरा कर लेना चाहते थे. पर जब सुखनंदन का जवाब आया कि शिखर शादी के लिए तैयार ही नहीं हो रहा है तो वह चौंक पड़े थे. यह कैसे संभव है? इतने दिनों का बड़ों द्वारा तय किया रिश्ता…और फिर जब सगाई हुई थी तब तो शिखर ने कोई विरोध नहीं किया था…अब क्या हो गया?

शैली के पिता ने खुद भी 2-1 पत्र लिखे थे शिखर को, जिन का कोई जवाब नहीं आया था. फिर वह खुद ही जा कर शिखर के बौस से मिले थे. उन से कह कर शायद जोर डलवाया था उस पर. इस पर शिखर का बहुत ही बौखलाहट भरा पत्र आया था. वह उसे ब्लैकमेल कर रहे हैं, यह तक लिखा था उस ने. कितना रोई थी तब वह और पिताजी से भी कितना कहा था, ‘क्यों नाहक जिद कर रहे हैं? जब वे लोग नहीं चाहते तो क्यों पीछे पड़े हैं?’

‘ठीक है बेटी, अगर सुखनंदन भी यही कहेगा तो फिर मैं अब कभी जोर नहीं दूंगा,’ पिताजी का स्वर निराशा में डूबा हुआ था.

तभी अचानक शिखर के पिता को दिल का दौरा पड़ा था और उन्होंने अपने बेटे को सख्ती से कहा था कि वह अपने जीतेजी अपने मित्र को दिया गया वचन निभा देना चाहते हैं, उस के बाद ही वह शिखर को विदेश जाने की इजाजत देंगे. इसी दबाव में आ कर शिखर  शादी के लिए तैयार हो गया था. वह तो कुछ समझ ही नहीं पाई थी.  उस के पिता जरूर बेहद खुश थे और उन्होंने कहा था, ‘मैं न कहता था, आखिर सुखनंदन मेरा बचपन का मित्र है.’

‘पर, पिताजी…’ शैली का हृदय  अभी  भी अनचाही आशंका से धड़क रहा था.

‘तू चिंता मत कर बेटी. आखिरकार तू अपने रूप, गुण, समझदारी से सब का  दिल जीत लेगी.’

फिर गुड्डेगुडि़या की तरह ही तो आननफानन में उस की शादी की सभी रस्में अदा हो गई थीं. शादी के समय भी शिखर का तना सा चेहरा देख कर वह पल दो पल के लिए आशंकाओं से घिर गई थी. फिर सखीसहेलियों की चुहलबाजी में सबकुछ भूल गई थी.

शादी के बाद वह ससुराल आ गई थी. शादी की पहली रात मन धड़कता रहा था. आशा, उमंगें, बेचैनी और भय सब के मिलेजुले भाव थे. क्या होगा? पर शिखर आते ही एक कोने में पड़ रहा था, उस ने न कोई बातचीत की थी, न उस की ओर निहार कर देखा था.

वह कुछ समझ ही नहीं सकी थी. क्या गलती थी उस की? सुबह अंधेरे ही वह अपना सामान बांधने लगा था.

‘यह क्या, लालाजी, हनीमून पर जाने की तैयारियां भी शुरू हो गईं क्या?’ रिश्ते की किसी भाभी ने छेड़ा था.

‘नहीं, भाभी, नौकरी पर लौटना है. फिर अमरीका जाने के लिए पासपोर्ट वगैरह भी बनवाना है.’

तीर की तरह कमरे से बाहर निकल गया था वह. दूसरे कमरे में बैठी शैली ने सबकुछ सुना था. फिर दिनभर खुसरफुसर भी चलती रही थी. शायद सास ने कहा था, ‘अमरीका जाओ तो फिर बहू को भी लेते जाना.’

‘ले जाऊंगा, बाद में, पहले मुझे तो पहुंचने दो. शादी के लिए पीछे पड़े थे, हो गई शादी. अब तो चैन से बैठो.’

न चाहते हुए भी सबकुछ सुना था शैली ने. मन हुआ था कि जोर से सिसक पड़े. आखिर किस बात के लिए दंडित किया जा रहा था उसे? क्या कुसूर था उस का?

पिताजी कहा करते थे कि धीरेधीरे सब का मन जीत लेगी वह. सब सहज हो जाएगा. पर जिस का मन जीतना था वह तो दूसरे ही दिन चला गया था. एक हफ्ते बाद ही फिर दिल्ली से अमेरिका भी.

पहुंच कर पत्र भी आया था तो घर वालों के नाम. उस का कहीं कोई जिक्र नहीं था. रोती आंखों से वह देर तक घंटों पता नहीं क्याक्या सोचती रहती थी. घर में बूढ़े सासससुर थे. बड़ी शादीशुदा ननद शोभा अपने बच्चों के साथ शादी पर आई थी और अभी वहीं थी. सभी उस का ध्यान रखते थे. वे अकसर उसे घूमने भेज देते, कहते, ‘फिल्म देख आओ, बहू, किसी के साथ,’ पर पति से अपनेआप को अपमानित महसूस करती वह कहां कभी संतुष्ट हो पाती थी.

शोभा जीजी को भी अपनी ससुराल लौटना था. घर में फिर वह, मांजी और बाबूजी ही रह गए थे. महीने भर के अंदर ही उस के ससुर को दूसरा दिल का दौरा पड़ा था. सबकुछ अस्तव्यस्त हो गया. बड़ी कठिनाई से हफ्ते भर की छुट्टी ले कर शिखर भी अमेरिका से लौटा था, भागादौड़ी में ही दिन बीते थे. घर नातेरिश्तेदारों से भरा था और इस बार भी बिना उस से कुछ बोले ही वह लौट गया था.

‘मां, तुम अकेली हो, तुम्हें बहू की जरूरत है,’ यह जरूर कहा था उस ने.

शैली जब सोचने लगती है तो उसे लगता है जैसे किसी सिनेमा की रील की तरह ही सबकुछ घटित हो गया था उस के साथ. हर क्षण, हर पल वह जिस के बारे में सोचती रहती है उसे तो शायद कभी अवकाश ही नहीं था अपनी पत्नी के बारे में सोचने का या शायद उस ने उसे पत्नी रूप में स्वीकारा ही नहीं.

इधर सास का उस से स्नेह बढ़ता जा रहा था. वह उसे बेटी की तरह दुलराने लगी थीं. हर छोटीमोटी जरूरत के लिए वह उस पर आश्रित होती जा रही थीं. पति की मृत्यु तो उन्हें और बूढ़ा कर गई थी, गठिया का दर्द अब फिर बढ़ गया था. कईर् बार शैली की इच्छा होती, वापस पिता के पास लौट जाए. आगे पढ़ कर नौकरी करे. आखिर कब तक दबीघुटी जिंदगी जिएगी वह? पर सास की ममता ही उस का रास्ता रोक लेती थी.

‘‘बहूरानी, क्या लौट आई हो? मेरी दवाई मिली, बेटी? जोड़ों का दर्द फिर बढ़ गया है.’’

मां का स्वर सुन कर तंद्रा सी टूटी शैली की. शायद वह जाग गई थीं और उसे आवाज दे रही थीं.

‘‘अभी आती हूं, मांजी. आप के लिए चाय भी बना कर लाती हूं,’’ हाथमुंह धो कर सहज होने का प्रयास करने लगी थी शैली.

चाय ले कर कमरे में आई ही थी कि बाहर फाटक पर रिकशे से उतरती शोभा जीजी को देखते ही वह चौंक गई.

‘‘जीजी, आप इस तरह बिना खबर दिए. सब खैरियत तो है न? अकेले ही कैसे आईं?’’

बरामदे में ही शोभा ने उसे गले से लिपटा लिया था. अपनी आंखों को वह बारबार रूमाल से पोंछती जा रही थी.

‘‘अंदर तो चल.’’

और कमरे में आते ही उस की रुलाई फूट पड़ी थी. शोभा ने बताया कि अचानक ही जीजाजी की आंखों की रोशनी चली गई है, उन्हें अस्पताल में दाखिल करा कर वह सीधी आ रही है. डाक्टर ने कहा है कि फौरन आपरेशन होगा. कम से कम 10 हजार रुपए लगेंगे और अगर अभी आपरेशन नहीं हुआ तो आंख की रोशनी को बचाया न जा सकेगा.

‘‘अब मैं क्या करूं? कहां से इंतजाम करूं रुपयों का? तू ही शिखर को खबर कर दे, शैली. मेरे तो जेवर भी मकान के मुकदमे में गिरवी  पड़े  हुए हैं,’’ शोभा की रुलाई नहीं थम रही थी.

जीजाजी की आंखों की रोशनी… उन के नन्हे बच्चे…सब का भविष्य एकसाथ ही शैली के  आगे घूम गया था.

‘‘आप ऐसा करिए, जीजी, अभी तो ये मेरे जेवर हैं, इन्हें ले जाइए. इन्हें खबर भी करूंगी तो इतनी जल्दी  कहां पहुंच पाएंगे रुपए?’’

और शैली ने अलमारी से निकाल कर अपनी चूडि़यां और जंजीर  आगे रख दी थीं.

‘‘नहीं, शैली, नहीं…’’ शोभा स्तंभित थी.

फिर कहनेसुनने के बाद ही वह जेवर लेने के लिए तैयार हो पाई थी. मां की रुलाई फूट पड़ी थी.

‘‘बहू, तू तो हीरा है.’’

‘‘पता नहीं शिखर कब इस हीरे का मोल समझ पाएगा,’’ शोभा की आंखों में फिर खुशी के आंसू छलक पड़े थे.

पर शैली को अनोखा संतोष  मिला था. उस के मन ने कहा, उस का नहीं तो किसी और का परिवार तो बनासंवरा रहे. जेवरों का शौक तो उसे वैसे ही नहीं था. और अब जेवर पहने भी तो किस की खातिर? मन की उसांस को उस ने दबा  दिया था.

8 दिन के बाद खबर मिली थी, आपरेशन सफल रहा. शिखर को भी अब सूचना मिल गई थी, और वह आ रहा था. पर इस बार शैली ने अपनी सारी उत्कंठा को दबा लिया था. अब वह किसी तरह का उत्साह  प्रदर्शित नहीं कर  पा रही थी. सिर्फ तटस्थ भाव से रहना चाहती थी वह.

‘‘मां, कैसी हो? सुना है, बहुत बीमार रही हो तुम. यह क्या हालत बना रखी है? जीजाजी को क्या हुआ था अचानक?’’ शिखर ने पहुंचते ही मां से प्रश्नों की झड़ी लगा दी.

‘‘मेरी  तो तबीयत तू देख ही रहा है, बेटे. बीच में तो और भी बिगड़ गई थी. बिस्तर से उठ नहीं पा रही थी. बेचारी बहू ने ही सब संभाला. तेरे जीजाजी  की तो आंखों की रोशनी ही चली गई थी. उसी समय आपरेशन नहीं होता तो पता नहीं क्या होता. आपरेशन के लिए पैसों का भी सवाल था, लेकिन उसी समय बहू ने अपने जेवर दे कर तेरे जीजाजी  की आंखों की रोशनी वापस ला दी.’’

‘‘जेवर दे दिए…’’ शिखर हतप्रभ था.

‘‘हां, क्या करती शोभा? कह रही थी कि तुझे खबर कर के रुपए मंगवाए तो आतेआते भी तो समय लग जाएगा.’’

मां बहुत कुछ कहती जा रही थीं पर शिखर के सामने सबकुछ गड्डमड्ड हो गया था. शैली चुपचाप आ कर नाश्ता रख गई थी. वह नजर उठा कर  सिर ढके शैली को देखता रहा था.

‘‘मांजी, खाना क्या बनेगा?’’ शैली ने धीरे से मां से पूछा था.

‘‘तू चल. मैं भी अभी आती हूं रसोई में,’’ बेटे के आगमन से ही मां उत्साहित हो उठी थीं. देर तक उस का हालचाल पूछती रही थीं. अपने  दुखदर्द  सुनाती रही थीं.

‘‘अब बहू भी एम.ए. की पढ़ाई कर रही है. चाहती है, नौकरी कर ले.’’

‘‘नौकरी,’’ पहली बार कुछ चुभा शिखर के मन में. इतने रुपए हर महीने  भेजता हूं, क्या काफी नहीं होते?

तभी उस की मां बोलीं, ‘‘अच्छा है. मन तो लगेगा उस का.’’

वह सुन कर चुप रह गया था. पहली बार उसे ध्यान आया, इतनी बातों के बीच इस बार मां ने एक बार भी नहीं कहा कि तू बहू को अपने साथ ले जा. वैसे तो हर चिट्ठी में उन की यही रट रहती थी. शायद अब अभ्यस्त हो गई हैं  या जान गई हैं कि वह नहीं ले जाना चाहेगा. हाथमुंह धो कर वह अपने किसी दोस्त से मिलने के लिए घर से निकला  पर मन ही नहीं हुआ जाने का.

शैली ने शोभा को अपने जेवर दे  दिए, एक यही बात उस  के मन में गूंज रही थी. वह तो शैली और उस के पिता  दोनों को ही बेहद स्वार्थी समझता रहा था जो सिर्फ अपना मतलब हल करना जानते हों. जब से शैली के पिता ने उस के बौस से कह कर उस पर शादी के लिए दबाव डलवाया था तभी से उस का मन इस परिवार के लिए नफरत से भर गया था और उस ने सोच लिया था कि मौका पड़ने पर वह भी इन लोगों से बदला ले कर रहेगा. उस की तो अभी 2-4 साल शादी करने की इच्छा नहीं थी, पर इन लोगों ने चतुराई से उस के भोलेभाले पिता को फांस लिया. यही सोचता था वह अब तक.

फिर शैली का हर समय चुप रहना उसे खल जाता. कभी अपनेआप पत्र भी तो नहीं लिखा था उस ने. ठीक है, दिखाती रहो अपना घमंड. लौट आया तो  मां ने उस का खाना परोस दिया था. पास ही बैठी बड़े चाव से खिलाती रही थीं. शैली रसोई में ही थी. उसे लग रहा था कि  शैली जानबूझ कर ही उस  के सामने आने से कतरा रही है.

खाना खा कर उस ने कोई पत्रिका उठा ली थी. मां और शैली ने भी खाना खा लिया था. फिर मां को दवाई  दे कर शैली मां  के कमरे से जुड़े अपने छोटे से कमरे में चली गई और कमरे की बत्ती जला दी थी.

देर तक नींद नहीं आई थी शिखर को. 2-3 बार बीच में पानी पीने के बहाने  वह उठा भी था. फिर याद आया था पानी का जग  तो शैली  कमरे में ही  रख गई थी. कई बार इच्छा हुई थी चुपचाप उठ कर शैली को  आवाज देने की. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि आज  पहली बार उसे क्या हो रहा है. मन ही मन वह अपने परिवार के बारे में सोचता रहा था. वह सगा बेटा हो कर भी घरपरिवार का इतना ध्यान नहीं रख पा रहा था. फिर शैली तो दूसरे घर की है. इसे क्या जरूरत है सब के लिए मरनेखपने की, जबकि उस का पति ही उस की खोजखबर नहीं ले रहा हो?

पूरी रात वह सो नहीं सका था. दूसरा दिन मां को डाक्टर के यहां दिखाने के लिए ले जाने, सारे परीक्षण फिर से करवाने में बीता था.

सारी दौड़धूप में शाम तक काफी थक चुका था वह. शैली अकेली कैसे कर पाती होगी? दिनभर वह भी तो मां के साथ ही उन्हें सहारा दे कर चलती रही थी. फिर थकान के  बावजूद रात को मां से पूछ कर उस की पसंद के कई व्यंजन  खाने  में बना लिए थे.

‘‘मां, तुम लोग भी साथ ही खा लो न,’’ शैली की तरफ देखते हुए उस ने कहा था.

‘‘नहीं, बेटे, तू पहले गरमगरम खा ले,’’ मां का स्वर लाड़ में भीगा हुआ था.

कमरे में आज अखबार पढ़ते हुए शिखर का मन जैसे उधर ही उलझा रहा था. मां ने शायद खाना खा लिया था, ‘‘बहू, मैं तो थक गईर् हूं्. दवाई दे कर बत्ती बुझा दे,’’ उन की आवाज आ रही थी. उधर शैली रसोईघर में सब सामान समेट रही थी.

‘‘एक प्याला कौफी मिल सकेगी क्या?’’ रसोई के दरवाजे पर खड़े हो कर उस ने कहा था.

शैली ने नजर उठा कर देखा भर था. क्या था उन नजरों में, शिखर जैसे सामना ही नहीं कर पा रहा था.

शैली कौफी का कप मेज पर रख कर जाने के लिए मुड़ी ही थी कि शिखर की आवाज सुनाई दी, ‘‘आओ, बैठो.’’

उस के कदम ठिठक से गए थे. दूर की कुरसी की तरफ बैठने को उस के कदम बढ़े ही थे कि शिखर ने धीरे से हाथ खींच कर उसे अपने पास पलंग पर बिठा लिया था.

लज्जा से सिमटी वह कुछ बोल भी नहीं पाई थी.

‘‘मां की तबीयत अब तो काफी ठीक जान पड़ रही है,’’ दो क्षण रुक कर शिखर ने बात शुरू करने का प्रयास किया था.

‘‘हां, 2 दिन से घर में खूब चलफिर रही हैं,’’ शैली ने जवाब में कहा था. फिर जैसे उसे कुछ याद हो आया था और वह बोली थी, ‘‘आप शोभा जीजी से भी मिलने जाएंगे न?’’

‘‘हां, क्यों?’’

‘‘मांजी को भी साथ ले जाइएगा. थोड़ा परिवर्तन हो जाएगा तो उन का मन बदल जाएगा. वैसे….घर से जा भी कहां पाती हैं.’’

शिखर चुपचाप शैली की तरफ देखता भर रहा था.

‘‘मां को ही क्यों, मैं तुम्हें भी साथ ले चलूंगा, सदा के लिए अपने साथ.’’

धीरे से शैली को उस ने अपने पास खींच लिया था. उस के कंधों से लगी शैली का मन जैसे उन सुमधुर क्षणों में सदा के लिए डूब जाना चाह रहा था.

अफसोस : बाबा के चंगुल में शादीशुदा सायरा

सायरा की शादी अब्दुल से  5 साल पहले हुई थी. अब्दुल की उम्र उस समय 30 साल थी और सायरा की उम्र सिर्फ 20 साल. अब्दुल देखने में सीधासादा, सांवले रंग का था, पर एक अच्छीखासी जायदाद का मालिक भी था. यही वजह थी कि सायरा और उस की मां ने अब्दुल को पसंद किया था.

शादी से पहले ही सायरा ने अब्दुल को अच्छी तरह देखभाल लिया था, जबकि सायरा के बाप और भाई इस शादी के खिलाफ थे. लेकिन सायरा और उस की मां की जिद के आगे उन की एक न चली और जल्द ही वे दोनों शादी के रिश्ते में बंध गए.सायरा जैसी बीवी पा कर अब्दुल की खुशी का ठिकाना न रहा. हो भी क्यों न… सायरा थी ही बला की खूबसूरत. उस के सुर्ख गुलाबी होंठ ऐसे लगते थे मानो गुलाब की पंखुड़ी खिलने के लिए बेताब हो.

जब सायरा हंसती थी तो उस सफेद दांत ऐसे लगते थे मानो मुंह से मोती बिखर रहे हों. लंबे, काले और घने बालों ने तो उस की खूबसूरती में चार चांद लगा दिए थे. उस की पतली कमर और गदराए बदन का तो कहना ही क्या था.शादी को अभी 4 साल ही गुजरे थे कि उन के घर में 3 बच्चों की किलकारियां गूंज चुकी थीं. सायरा की मां भी अपनी बेटी के साथ मुंबई में रहने के लिए आ गई थी.अब्दुल की दुकान भी बढि़या चल रही थी. घर में किसी बात की कोई कमी न थी.

अभी भी अब्दुल सायरा के साथ किराए के घर में रह रहा था, क्योंकि मुंबई में घर खरीदना इतना आसान न था. पर अब्दुल की कमाई इतनी थी कि बच्चों की अच्छी परवरिश और अच्छा खानपान आसानी से हो रहा था.पर एक बात बड़ी अजीब थी.

अब्दुल को देख कर कभी सायरा की दोस्त तो कभी सायरा के रिश्तेदार उसे यह तंज कसते रहते थे कि ‘तुम ने अब्दुल में क्या देख कर शादी की… कहां वह सांवला और बदसूरत, इतनी बड़ी उम्र का और कहां तुम बिलकुल हीरोइन सी खूबसूरत’.शुरूशुरू में तो सायरा उन सब की बातों को नजरअंदाज करती रही, लेकिन बारबार सब से यही बातें सुनसुन कर उस के भी दिल में भी अब्दुल के लिए नफरत जागने लगी. अब वह अब्दुल से कटीकटी सी रहने लगी.

एक दिन सायरा की मां ने उसे मशवरा दिया कि अब्दुल अपने गांव की सारी जमीन बेच दे और यहां मुंबई में अपना बड़ा फ्लैट खरीद ले. सायरा ने जैसे ही यह बात अब्दुल के सामने रखी, वह तुरंत तैयार हो गया और गांव जा कर अपने अब्बा और भाइयों से अपने हिस्से को बेचने की बात कही.

अब्दुल के अब्बा और भाइयों ने उसे काफी समझाया, पर उस ने किसी की न सुनी और अपनी बात पर अटल रहा. जल्द ही उस के अब्बा को उस के आगे झुकना पड़ा और अपना बाग, खेत और उस के हिस्से की दुकान बेचनी पड़ी. इस जल्दबाजी के सौदे में अब्दुल के भाई को काफी नुकसान उठाना पड़ा.

अब्दुल ने वापस आ कर मुंबई में  2 कमरों का फ्लैट खरीद लिया. कुछ महीनों तक तो सबकुछ सही चला, पर अब सायरा के दोस्तों की तादाद बढ़ चुकी थी. सायरा की मां भी ब्यूटीपार्लर जा कर स्मार्ट बन कर रहने लगी. अब आएदिन घर पर कोई न कोई इन दोनों की दोस्त आती रहती थीं और अब्दुल को देख कर उस पर तंज कसती रहती थीं.

अब तो खुद सायरा और उस की मां भी अब्दुल का मजाक उड़ाने में पीछे नहीं रहती थीं. अब्दुल इतना ज्यादा बेवकूफ था कि उस ने सायरा को तो पूरी आजादी दे रखी थी और खुद दिनरात काम में इतना बिजी रहता था कि उसे अपने हुलिए को सुधारने का भी खयाल नहीं आता था.

यही वजह थी कि सायरा धीरेधीरे उस से दूर होती जा रही थी. वह चाहती थी कि अब्दुल उस के नाम घर कर दे, पर अब्दुल तैयार न हुआ. सायरा ने अब्दुल से बातचीत बंद कर दी.सायरा की मां और उस की दोस्तों ने सायरा को एक बाबा का पता बताया और कहा कि बाबा ऐसा तावीज देंगे कि अब्दुल तुम्हारी उंगलियों पर नाचेगा.

अगले दिन सायरा और उस की मां बाबा के पास पहुंच गईं और सारी बात बताई. बाबा उन की बातों को सुन कर समझ चुका था कि ये लालची लोग हैं, इन्हें लूटा जाए. बाबा ने कहा, ‘‘काम तो हो जाएगा, लेकिन इस में एक महीना लगेगा और तकरीबन 5 लाख रुपए का खर्च आएगा. धीरेधीरे अब्दुल के दिमाग को काबू में करना पड़ेगा, जिस से वह तुम्हारी हर बात मान ले. इस में 7 बकरों की कुरबानी देनी पड़ेगी.

‘‘कुछ तावीज अब्दुल के तकिए के नीचे सावधानी से रखने होंगे. उसे पता न चले. कुछ तावीज तुम्हें पहनने होंगे, जो जाफरान से बनाए जाएंगे. पहले 2 लाख रुपए एडवांस और 3 लाख रुपए एक हफ्ते बाद देने पड़ेंगे.’’सायरा और उस की मां तैयार हो गईं.

अगले दिन सायरा ने उस ढोंगी बाबा को पैसे दिए और बाबा ने उसे 3 तावीज अब्दुल के तकिए के भीतर रखने के लिए दे दिए और 7 तावीज सायरा को देते हुए बोला, ‘‘ये तावीज पानी में डाल कर एकएक कर के 7 दिन तक पी लेना और हां, जब तक काम पूरा न हो जाए, तुम अपने शौहर के पास बिलकुल मत सोना.’’अब सायरा और उस की मां को पूरा भरोसा हो गया था कि अब्दुल उन का कहना मानेगा और वह घर हमारे नाम कर देगा.सायरा ने अब्दुल से बात करना बंद कर दिया. अब्दुल जब भी सायरा से बात करने की कोशिश करता, तो वह एक ही जवाब देती कि ‘पहले यह घर मेरे नाम करो. जब तक तुम मेरी बात नहीं मानोगे, मेरे साथ बात मत करना और न ही मेरे पास आना’.

अब्दुल ने सायरा को समझाने की पूरी कोशिश की, ‘‘हमारे इस झगड़े में बच्चों पर गलत असर पड़ रहा है. मेहरबानी कर के यह झगड़ा बंद कर दो.’’पर सायरा उस की एक भी बात सुनने को तैयार न थी. इस झगड़े से अब्दुल का कारोबार भी दिन ब दिन बिखरता जा रहा था.अब्दुल ने सोचा, ‘क्यों न सायरा के नाम वसीयत कर दूं… वह भी खुश हो जाएगी…’ और उस ने अगले दिन सायरा से कहा, ‘‘मैं तुम्हारे नाम वसीयत कर देता हूं. इस के बाद तो तुम खुश हो जाओगी न?’’

यह सुन कर सायरा बोली, ‘‘ठीक है, मैं कल वकील को बुला लेती हूं. तुम मेरे नाम वसीयत कर दो.’’अब्दुल यह सुन कर खुश हो गया कि अब झगड़ा खत्म हो जाएगा और उस ने मुहब्बत भरी नजरों से सायरा को देखा और अपनी बांहों में भर लिया.सायरा एक ही झटके में अब्दुल से अलग होते हुए बोली, ‘‘पहले वसीयत तो करो, उस के बाद मेरे पास आना.’’अब्दुल खुश था कि एक ही दिन की तो बात है. कल वह सायरा के नाम वसीयत कर देगा, तो फिर उस से ढेर सारा प्यार करेगा.

पर अब्दुल इस बात से अनजान था कि कल क्या ड्रामा होने वाला है. सायरा ने जब अपनी मां से इस बात का जिक्र किया, तो वह झट से बोली, ‘‘बाबाजी के तावीज का असर हो रहा है. इस बारे में पहले बाबाजी से बात करते हैं, उस के बाद कोई फैसला लेना. जब वह वसीयत के लिए तैयार हो गया है तो जल्द ही तुम्हारे नाम घर करने के लिए भी तैयार हो जाएगा, बस तुम थोड़ा सब्र करो.’’

उन्होंने जब बाबा से इस बारे में बात की, तो उन्होंने यही बोला, ‘‘एक हफ्ते में इतना असर हो गया है, तुम बाकी रकम ले कर मेरे पास आ जाओ. मैं तुम्हें कल और तावीज देता हूं. 7 बकरों की कुरबानी भी देनी है, फिर देखना कि तुम जैसा चाहोगी, वैसा ही होगा.’’अगले दिन सायरा ने अपनी बांहें अब्दुल के गले में डालते हुए कहा, ‘‘वकील कल आएगा जानू. तुम अभी काम पर जाओ.

रात में बात करते हैं.’’अब्दुल के जाते ही दोनों मांबेटी ने अब्दुल के रखे हुए पैसों में से बाकी के पैसे भी उठा लिए और उस ढोंगी बाबा के पास पहुंच गईं. बाबा ने उन से पैसे लिए और तावीज देते हुए कहा, ‘‘अभी 7 दिन का और  इंतजार करो. उसे अपने पास बिलकुल मत आने देना. इस बीच अगर वह तुम्हारा कहना मान ले, तो जल्दी उस काम को अंजाम दे देना, उस के बाद ही अपनेआप को छूने देना.’’

शाम को जब अब्दुल घर आया, तो मौका देख कर उस ने सायरा को अपनी बांहों में जकड़ लिया. सायरा झल्लाते हुए फौरन अलग हो गई. उस की आवाज सुन कर मां भी वहां आ गईं और अब्दुल को बुराभला कहते हुए बोलीं, ‘‘क्यों मेरी लड़की को परेशान करता रहता है? जब इस ने मना कर दिया है, तो क्यों इस के कमरे में आता है?’’

अब्दुल यह सब देख कर हैरान था, पर वह कुछ न बोल सका और चुपचाप अपने कमरे में चला गया.अगले दिन वकील आया, तो सायरा ने अब्दुल को फोन कर के घर बुला लिया. अब्दुल ने वकील से कहा, ‘‘मुझे अपनी बीवी सायरा के नाम वसीयत बनानी है कि मेरे मरने के बाद यह घर मेरी बीवी को मिले.’’इस पर सायरा और उस की मां बिफर गईं. सायरा बोली, ‘‘कोई वसीयत नहीं… क्या पता कि तुम बाद में बदल जाओ. घर मेरे नाम पर करो.’’अब्दुल इस बात के लिए तैयार नहीं हुआ.

अब्दुल ने सायरा को काफी समझाया. उस के हाथ जोड़े, पैर पकड़े. अपने मासूम बच्चों का वास्ता दिया, लेकिन सायरा अपनी जिद पर कायम रही और उस ने अब्दुल की एक न सुनी, क्योंकि उसे पूरा यकीन था कि बाबाजी उस का दिमाग जरूर बदलेंगे और यह घर उस का हो जाएगा.इसी बीच सायरा की मुलाकात अपने पहले आशिक से हो गई, जो शादी से पहले उस से प्यार करता था.

सायरा अपनी मां की मौजूदगी में ही उस से मिलने जाने लगी, क्योंकि वह आशिक उस की मां की दूर की बहन का बेटा था. उस की मां भी उसे पसंद करती थी, मगर गरीब होने की वजह से इन दोनों की शादी न हो पाई थी. अब्दुल इस बात से अनजान था. वह इसी उम्मीद में था कि एक न एक दिन सायरा को अपनी गलती का अहसास होगा.लेकिन अब्दुल का ऐसा सोचना गलत था. सायरा अपने उस आशिक के साथ खुश थी, जो उस का ही हमउम्र और खूबसूरत था.

अब तो सायरा अब्दुल की सूरत भी देखना पसंद नहीं करती थी. वह तो इस ताक में थी कि किसी तरह यह घर मिल जाए, फिर इसे बेच कर जिंदगी की नई शुरुआत करे.अब्दुल काफी हताश हो चुका था. आखिर वह दिन भी आ गया, जब अब्दुल ने अपना घर सायरा के नाम कर दिया.

घर नाम होते ही सायरा और उस की मां की खुशी का ठिकाना न रहा. अब तो सायरा का आशिक खुलेआम उस के घर पर आने लगा. अब्दुल कुछ बोलता तो मांबेटी उसे धमका देती थीं.अब्दुल अपना दिमागी संतुलन खो रहा था. वह तो सायरा की याद में गुम रहता, लेकिन सायरा उसे कोई भाव न देती. आखिर सायरा और उस की मां ने अब एक नया दांव चला.

उन्हें किसी भी कीमत पर अब्दुल से छुटकारा चाहिए था. जब आसपड़ोस के लोग सायरा को समझाते तो वह उन से बोलती कि अब्दुल नामर्द है. अब्दुल इन सब बातों से अनजान पागलों की तरह जिंदगी गुजार रहा था. उस की इस हालत के बारे में जब अब्दुल के भाइयों को पता चला, तो वे उसे लेने मुंबई आ गए. उन्होंने सायरा से बात की, तो वह तपाक से बोली, ‘‘मैं एक नामर्द के साथ जिंदगी नहीं गुजार सकती. मुझे इस से तलाक चाहिए.’’

अब्दुल ने जब यह सुना, तो वह दंग रह गया. कुछ ही दिनों में अब्दुल और सायरा का तलाक हो गया. अब्दुल के भाई उसे और उस के बच्चों को गांव ले गए. धीरेधीरे अब्दुल की तबीयत में सुधार आने लगा. अब उसे अपने बच्चों की फिक्र थी. वह उन के लिए कुछ करना चाहता था. एक दिन अब्दुल के पार्टनर का फोन आया और उस ने उस से वापस मुंबई आने को कहा. अब्दुल वापस मुंबई आ गया. उस के पार्टनर ने उस की दुकान और बचत उसे दी और काम संभालने को कहा.

इधर सायरा वह घर बेच कर कहीं और चली गई थी. उस का कुछ पता न था. वैसे, उड़तीउड़ती खबर अब्दुल को भी मिलती रहती थी. अब्दुल के दोस्तों ने मिल कर उस की दूसरी शादी एक बेवा औरत से करवा दी, जिस के 2 मासूम बच्चे थे और कुछ ही दिनों में अब्दुल अपने बच्चों को भी ले आया.अब्दुल ने कड़ी मेहनत की और एक छोटी सी खोली खरीद ली.

वह अपने बीवीबच्चों के साथ बेहतर जिंदगी गुजरने लगा और दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करने लगा.उधर सायरा के आशिक ने सब पैसे घूमनेफिरने में उड़ा दिए और जब सब पैसे खत्म हो गए तो वह सायरा और उस की मां को छोड़ कर चला गया, क्योंकि उस ने सायरा से शादी नहीं की थी. वह तो केवल दौलत के लालच में उस के साथ रह रहा था.

सायरा और उस की मां को अब खाने के भी लाले पड़ने लगे और मजबूर हो कर दोनों मांबेटी को दूसरों के घरों में साफसफाई का काम करना पड़ रहा था.फिर एक दिन अचानक एक ऐसी घटना घटी, जिस ने सायरा को अपाहिज बना दिया. उसे लकवा मार गया था.

सायरा अब बिस्तर पर पड़ी सोचती रहती है कि अगर वह उस ढोंगी बाबा और अपनी मां के चक्कर में न पड़ती तो यह हालत न होती.सायरा की मां ने एक दिन अब्दुल को फोन किया और सारी बातें बताईं. अब्दुल उन के बताए हुए पते पर सायरा से मिलने गया. वहां का नजारा देख कर अब्दुल का दिल रो पड़ा. सायरा सूख कर कांटा हो चुकी थी. वह एक जिंदा लाश बन कर पलंग पर पड़ी थी. उस की एक गलती ने हंसताखेलता परिवार बरबाद कर दिया था.

 

काले घोड़े की नाल: आखिर क्या था काले घोड़े की नाल का रहस्य ?

Story in Hindi

रखैल : क्या बेवफा थी लक्षमण की पत्नी मीनाक्षी

आज से तकरीबन 15 साल पहले मीनाक्षी की शादी लक्ष्मण के साथ हुई थी. उन दिनों लक्ष्मण एक फैक्टरी में काम करता था.

जब लक्ष्मण के फैक्टरी से घर आने का समय होता, तब मीनाक्षी बड़ी बेसब्री से दरवाजे पर उस का इंतजार करती थी.

कभीकभार इंतजार करतेकरते थोड़ी देर हो जाती, तब घर के भीतर घुसते ही मीनाक्षी लक्ष्मण की छाती पर मुक्का मारते हुए कहती थी, ‘‘इतनी देर क्यों हो गई?’’

तब लक्ष्मण चिढ़ा कर उसे कहता था, ‘‘आज वह मिल गई थी.’’ फिर वे दोनों खिलखिला कर हंस पड़ते थे.

धीरेधीरे समय पंख लगा कर उड़ता रहा. पहले बेटी, दूसरा बेटा, फिर तीसरा बेटा होने से मीनाक्षी परिवार में मसरूफ हो गई थी. परिवार बढ़ने की वजह से घर का खर्चा भी बढ़ गया था. तब लक्ष्मण चिड़ाचिड़ा सा रहने लगा था. 5 साल पहले एक घटना हो गई थी. जिस फैक्टरी में लक्ष्मण काम करता था, वह फैक्टरी घाटे में चलने की वजह से बंद कर दी गई.

लक्ष्मण भी बेरोजगार हो गया. वह कोई दूसरा काम तलाशने लगा, मगर शहर में फैक्टरी जैसा काम नहीं मिला.

घर में रखा पैसा भी धीरेधीरे खर्च होने लगा. घर में तंगी होने के चलते लक्ष्मण के गुस्से का पारा चढ़ने लगा.

आखिरकार एक दिन तंग आ कर मीनाक्षी ने कहा, ‘‘अब मैं भी आप के साथ मजदूरी करने चलूंगी…’’

‘‘तू औरत जात ठहरी, घर से बाहर काम करने जाएगी?’’ लक्ष्मण बोला.

‘‘इस में हर्ज क्या है? क्या आजकल औरतें मजदूरी करने नहीं जाती हैं? क्या औरतें दफ्तरों में काम नहीं करती हैं?’’ मीनाक्षी ने अपनी बात रखते हुए कहा, ‘‘इस बस्ती की दूसरी औरतें भी तो काम पर जाती हैं.’’

मीनाक्षी की बात सुन कर लक्ष्मण सोच में पड़ गया. मीनाक्षी ने जो कहा, सही कहा था. मगर जब औरत घर की दहलीज से बाहर निकलती है, तब वह पराए मर्दों से महफूज नहीं रह पाती है. बस्ती की कितनी ही औरतों के संबंध दूसरे मर्दों से थे.

लक्ष्मण को चुप देख कर मीनाक्षी बोली, ‘‘तो क्या सोचा है?’’

‘‘मेरी मीनाक्षी बाहर काम करने नहीं जाएगी,’’ लक्ष्मण ने कहा.

‘‘क्यों नहीं जा सकती है?’’

‘‘इसलिए कि यह मर्दों की दुनिया बड़ी खराब होती है.’’

‘‘खराब से मतलब?’’

‘‘मतलब…’’ कह कर लक्ष्मण के शब्द गले में ही अटक गए. वह आगे बोला, ‘‘मैं ने कहा न कि मेरी मीनाक्षी काम करने बाहर नहीं जाएगी.’’

‘‘देखिए, आप की भी नौकरी छूट गई. आप मजदूरी के लिए इधरउधर मारेमारे फिरते हो, ऐसे में घर का खर्च चलाना मुश्किल हो रहा है. जब हम दोनों काम करने जाएंगे, तब मजदूरी भी दोगुनी मिला करेगी.

‘‘मैं अकेली कहीं नहीं जाऊंगी, बल्कि आप के साथ चलूंगी,’’ कह कर मीनाक्षी लक्ष्मण का चेहरा देखने लगी.

शायद लक्ष्मण इस बात से सहमत हो गया था. लिहाजा, अब मीनाक्षी भी लक्ष्मण के साथ ठेकेदार के यहां काम करने लगी.

उस ठेकेदार का नाम मांगीलाल था. मीनाक्षी को देख कर वह उस पर लट््टू हो गया था. उसे जहां भी मकान का ठेका मिलता था, वह लक्ष्मण और मीनाक्षी को वहीं रखता था.

ठेकेदार मांगीलाल के पास मोटरसाइकिल थी, इसलिए वह कई बार मीनाक्षी को उस पर बैठा कर ले जाता था.

मीनाक्षी का ठेकेदार के इतना करीब रहना लक्ष्मण को पसंद नहीं था, मगर वह कुछ बोल नहीं पाता था.

एक दिन एक अधेड़ औरत ने मीनाक्षी से पूछा, ‘‘तुम ने ठेकेदार पर क्या जादू कर रखा है?’’

‘‘क्या मतलब है तुम्हारा?’’ मीनाक्षी उस से जरा नाराज हो कर बोली.

‘‘मतलब यह है कि ठेकेदार तु झे इतना क्यों चाहता है?’’

‘‘मगर तुम यह क्यों पूछ रही हो?’’ मीनाक्षी बोली.

‘‘इसलिए कि ठेकेदार किसी औरत को घास नहीं डालता है. उस ने तु झे ही घास क्यों डाली?’’ वह अधेड़ औरत ऊपर से नीचे तक उसे देख कर बोली, ‘‘लगता है कि तेरी इस खूबसूरत अदा में जादू है, इसलिए वह तुम पर लट्टू हुआ है.’’

‘‘तुम्हारी सोच गलत है.’’

‘‘अरे, मैं ने ये बाल धूप में सफेद नहीं किए हैं. मैं इन मर्दों को अच्छी तरह जानती हूं. तू उसे अपने साथ सुलाती होगी.’’

‘‘तुम्हें यह कहते हुए शर्म नहीं आती है,’’ मीनाक्षी बोली.

‘‘बुरा मत मानो बहन. मैं ने अच्छीअच्छी औरतों को पराए बिस्तर पर देखा है. तुम्हारे बीच कोई रिश्ता जरूर है,’’ आगे वह अधेड़ औरत कुछ न बोल सकी, क्योंकि ठेकेदार मांगीलाल वहां आ गया था.

‘‘क्या बात है मीनाक्षी, तुम सुस्त क्यों दिख रही हो?’’ मांगीलाल ने पूछा.

‘‘नहीं तो…’’ कह कर उस ने होंठों पर बनावटी मुसकान बिखेर दी.

ठेकेदार को भी उसे भांपते देर न लगी, इसलिए वह बोला, ‘‘तुम्हारा चेहरा बता रहा है कि किसी ने कुछ कह दिया है.’’

‘‘मीनाक्षी को कुछ कहने की किस में हिम्मत है. अगर किसी ने कुछ कह भी दिया न, तो मैं उस की चमड़ी उधेड़ दूंगी,’’ उस औरत की ओर देख कर मीनाक्षी ने ताना कसा.

अब लोगों में कानाफूसी होने लगी थी कि मीनाक्षी ठेकेदार की रखैल है.

वैसे, शुरुआत के दिनों में ठेकेदार ने एक बार मीनाक्षी के बदन से खेलने की कोशिश की थी. उस दिन वह ठेकेदार के घर पर अकेली थी. ठेकेदार की पत्नी मायके गई थी.

उस दिन वह मीनाक्षी के कंधे पर हाथ रख कर बोला था, ‘‘मीनाक्षी, बहुत दिनों से इस पके फल को खाने की इच्छा थी. क्या आज मेरी इच्छा पूरी करोगी?’’

‘‘आप के सामने जो पका फल है, उस पर सिर्फ लक्ष्मण का ही हक है, आज के बाद कभी मेरे बदन से खेलने की कोशिश मत करना.’’

मीनाक्षी का गुस्से से भरा चेहरा देख कर ठेकेदार सहम गया था, इसलिए वह प्यार से बोला था, ‘‘तू तो बुरा मान गई मीनाक्षी.’’

‘‘बात ही ऐसी करता है तू,’’ मीनाक्षी आप से तू पर आ गई थी. फिर वह आगे बोली थी, ‘‘तेरे पास औरत है. तू उस से चाहे जिस तरह से खेल.’’

‘‘देख मीनाक्षी, मैं अब कभी तु झे बुरी नीयत से नहीं देखूंगा. मगर तू वचन दे कि मु झे छोड़ कर नहीं जाएगी.’

लेकिन जब से बाकी मजदूरों में उन दोनों के संबंध की अफवाह फैली, तो लक्ष्मण के मन में भी शक घर कर गया.

एक दिन लक्ष्मण का गुस्सा फट पड़ा और बोला, ‘‘मीनाक्षी, तू उस ठेकेदार के घर में जा कर क्यों नहीं बैठ जाती?’’

‘‘यह तुम क्या कह रहे हो?’’ मीनाक्षी ने हैरानी से पूछा.

‘‘मैं नहीं, सारी बस्ती वाले कह रहे हैं कि तुम उस की रखैल हो.’’

‘‘बस्ती वाले कुछ भी कह देंगे और तुम उसे सच मान लोगे?’’

‘‘जो बातें आंखों के सामने हो रही हों, उन्हें सच मानना ही पड़ेगा.’’

‘‘आखिर तुम्हारे भीतर भी शक का वही कीड़ा बैठ गया, जो बस्ती वालों के भीतर बैठा है.’’

‘‘मैं ने खुद तुम्हें कई बार ठेकेदार की मोटरसाइकिल पर चिपक कर बैठे देखा है,’’ लक्ष्मण ने जब यह बात कही, तब मीनाक्षी जवाब देते हुए बोली, ‘‘ठीक है, जब तुम मु झे ठेकेदार की रखैल मानते हो, तब मैं भी कबूल करती हूं कि मैं हूं उस की रखैल. अब बोलो क्या चाहते हो तुम?’’

‘‘मैं जानता हूं कि ठेकेदार तेरा यार है और अपने यार को कोई औरत कैसे छोड़ सकती है.’’

‘‘ठीक है, ठेकेदार मेरा यार है. मैं उस की रखैल हूं. तब तुम मु झे घर से निकाल क्यों नहीं देते?’’ जवाबी हमला करते हुए मीनाक्षी बोली.

‘‘हां…हां, तेरी भी यही इच्छा है, तो बैठ क्यों नहीं जाती उस के घर में जा कर?’’ यह कहते हुए लक्ष्मण की सांस फूल गई.

मीनाक्षी चिल्लाते हुए बोली, ‘‘हांहां बैठ जाऊंगी उस के घर में. ऐसे निखट्टू मर्द को पा कर मैं भी कहां सुखी थी. यह तो ठेकेदार मिल गया, जो खर्चा चल रहा था. अब रहना अकेले ही,’’ कह कर मीनाक्षी अपने कपड़े समेटने लगी.

थोड़ी देर में मीनाक्षी अपनी बेटी को ले कर  झोंपड़ी से बाहर निकल गई. दोनों बेटे उसे टुकुरटुकुर देखते रहे.मीनाक्षी ठेकेदार के घर पहुंच गई और उसे सारा किस्सा कह सुनाया. ठेकेदार ने उस के लिए अपने पड़ोस में ही किराए का एक मकान दिला दिया.

एक रात को किसी ने मीनाक्षी के घर का दरवाजा खटखटाया. उस ने उठ कर दरवाजा खोला तो देखा कि बाहर ठेकेदार मांगीलाल खड़ा था.

वह बोली, ‘‘मैं आप का यह एहसान कभी नहीं भूल सकती. आप ने मु झे रहने को मकान दिया, मेरा खर्चा उठाया. मैं आप के एहसान तले दब कर रह गई हूं.

‘‘याद है न, जिस दिन हमारी दोस्ती हुई थी, तब आप मेरे बदन से खेलना चाहते थे, लेकिन मैं ने मना कर दिया था. लेकिन आज लक्ष्मण ने मु झे आप की रखैल सम झ कर घर से निकाल दिया. अब यह शरीर आप का है.’’

ठेकेदार बोला, ‘‘नहीं मीनाक्षी, यह शरीर अब भी लक्ष्मण का ही है,’’ कह कर उस ने बाहर अंधेरे में खड़े लक्ष्मण को बुला लिया. लक्ष्मण किसी अपराधी की तरह सामने आया.

ठेकेदार बोला, ‘‘लक्ष्मण, संभालो अपनी मीनाक्षी को. अब भी तुम्हारी मीनाक्षी पाकसाफ है. दरवाजा बंद कर लेना,’’ कह कर ठेकेदार बाहर चला गया.

लक्ष्मण ने दरवाजा बंद कर लिया. उस की मीनाक्षी उस के सामने खड़ी थी. लक्ष्मण ने आगे बढ़ कर उसे अपनी बांहों में भर लिया.

काले घोड़े की नाल: आखिर क्या था काले घोड़े की नाल का रहस्य ?- भाग 3

रानी ने महसूस किया कि मुखियाजी के हाथों में कितनी वासना और लिजलिजाहट महसूस होती है… बहुत अंतर था इन दोनों के स्पर्श में.

उस दिन रानी वापस तो आई, पर उस का मन जैसे कहीं छूट सा गया था. बारबार उस के मन में आ रहा था कि वह जा कर चंद्रिका से खूब बातें करे, उस के साथ में जीने का एहसास पहली बार हुआ था उसे.

इस बीच रानी कभीकभी अकेले ही अस्तबल चली जाती. एक दिन उस ने चंद्रिका का एक अलग ही रूप देखा.

“बस, कुछ दिन और बादल… मुझे बस इस माघ मेले में होने वाली दौड़ का इंतजार है, जिस में मुखिया से मेरा हिसाब बराबर हो जाएगा… मुझे इस मुखिया ने बहुत सताया है.”

”ये चंद्रिका आज कैसी बातें कर रहा है? कैसा हिसाब…? और मुखियाजी ने क्या सताया है तुम्हें?” एकसाथ कई सवाल सुन कर घबरा गया था चंद्रिका.

“जाने दीजिए… हमें कुछ नहीं कहना है.”

“नहीं, तुम्हें बताना पड़ेगा… तुम्हें हमारी कसम,” चंद्रिका का हाथ पकड़ कर रानी ने अपने सिर पर रखते हुए कहा था. न चाहते हुए भी चंद्रिका को बताना पड़ा कि वह अनाथ था. मुखियाजी ने उसे रहने की जगह और खाने के लिए भोजन दिया. उन्होंने ही चंद्रिका की शादी भी कराई और फिर चंद्रिका को बहाने से शहर भेज दिया और उस के पीछे उस की बीवी की इज्जत लूटने की कोशिश की, पर उस की बीवी स्वाभिमानी थी. उस ने फांसी लगा ली… बस, तब से मैं हर 8 साल बाद होने वाले माघ मेले का इंतजार कर रहा हूं, जब मैं बग्घी दौड़ में इसे बग्घी से गिरा कर मार दूंगा और इस तरह से अपनी पत्नी की मौत का बदला लूंगा.

रानी को समझते देर न लगी कि ऊपर से चुप रहने वाला चंद्रिका अंदर से कितना भरा हुआ है. वह कुछ न बोल सकी और लौट आई. रानी के मन में चंद्रिका की मरी हुई पत्नी के लिए श्रद्धा उमड़ रही थी. अपनी इज्जत बचाने के लिए उस ने अपना जीवन ही खत्म कर दिया.

इस के जिम्मेदार तो सिर्फ मुखियाजी हैं… तब तो उन्हें सजा जरूर मिलनी चाहिए… पर कैसी सजा…? किस तरह की सजा…? मुखियाजी को कुछ ऐसी चोट दी जाए, जिस का दंश उन्हें जीवनभर झेलना पड़े… और वे चाह कर भी कुछ न कर सकें… आखिरकार रानी को उस के पति से अलग करने का जुर्म भी तो मुखियाजी ने ही किया है.

एक निश्चय कर लिया था रानी ने. अगली सुबह रानी सीधा अस्तबल पहुंची और चंद्रिका से कुछ बातें कीं, जिन्हें सुन कर असमंजस में दिखाई दिया था चंद्रिका.

वापस आते हुए रानी चंद्रिका से काले घोड़े की नाल भी ले आई थी… ये कहते हुए कि देखते हैं कि तुम्हारे इस अंधविश्वास में कितनी सचाई है और वो काले घोड़े की नाल उस ने मुखियाजी के कमरे के बाहर टांग दी थी.

रात में रानी ने घर का सारा कीमती सामान और नकदी एक बैग में भरी और अस्तबल पहुंच गई. रानी और चंद्रिका दोनों बादल की पीठ पर बैठ कर शहर की ओर जाने वाले थे, तभी चंद्रिका ने पूछा, “पर, इस तरह तुम को भगा ले जाने से मेरे प्रतिशोध का क्या संबंध…?”

“मैं ने अपने पति को एक पत्र लिखा है, जिस में उसे अपनी पत्नी का ध्यान न रख पाने का जिम्मेदार ठहराया है… वह तिलमिलाया हुआ आएगा और मुखियाजी से सवाल करेगा… दोनों भाइयों में कलह तो होगी ही, साथ ही साथ पूरे गांव में मुखियाजी की बहू के उन के घोड़ों के नौकर के साथ भाग जाने से उन की आसपास के सात गांव में जो नाक कटेगी, उस का घाव जीवनभर रिसता रहेगा… ये होगा हमारा असली प्रतिशोध,” रानी की आंखें चमक रही थीं.

रानी ने उसे ये भी बताया कि माना कि मुखियाजी को चंद्रिका मार सकता है, पर भला उस से क्या होगा? एक झटके में वह मुक्त हो जाएगा और फिर चंद्रिका पर हत्या का इलजाम भी लग सकता है और फिर मुखिया भले ही बहुत बुरा आदमी है, पर मुखियाइन का भला क्या दोष? उस के जीवित रहने से उस का जीवन जुडा हुआ है और फिर उसे मार कर बेकार पुलिस के पचड़े में पड़ने से अच्छा है कि उसे ऐसी चोट दी जाए, जो उसे जीवनभर सालती रहे.

“और हां… अब तो मानते हो न कि तुम्हारी वो बुरे वक्त से बचाने वाली काले घोड़े की नाल वाली बात एक कोरा अंधविश्वास के अलावा कुछ भी नहीं है… क्योंकि मुखियाजी का बुरा वक्त तो अब शुरू हुआ है, जिसे कोई नालवाल बचा नहीं सकती,” रानी की बात सुन कर एक मुसकराहट चंद्रिका के चेहरे पर फैल गई. उस ने बड़ी जोर से ‘हां‘ में सिर को हिलाया और बादल को शहर की ओर दौड़ा दिया.

काले घोड़े की नाल: आखिर क्या था काले घोड़े की नाल का रहस्य ?- भाग 2

शादी के बाद सीमा को घर में मेहमानों के होने के कारण मुखियाजी से मिलने में बहुत परेशानी हो रही थी. ऐसे में उसे अपने पति संजय का साथ और सुख मिला. संजय भी बिस्तर पर ठीक ही था, पर मुखियाजी की ताकत के आगे वह फीका ही लगा था, इसीलिए सीमा मन ही मन सभी मेहमानों के जाने का इंतजार करने लगी, ताकि वह फिर से मुखियाजी के साथ रात गुजार सके.

सारे मेहमान चले गए थे. संजय और विनय को आज ही शहर जाना पड़ गया था.

अगले दिन से सीमा ने ध्यान दिया कि मुखियाजी उस के बजाय नई बहू रानी का अधिक मानमनुहार करते हैं. उन की आंखें रानी के कपड़ों के अंदर घुस कर कुछ तौलने का प्रयास करती रहती हैं. सीमा मुखियाजी की मनोभावना समझ गई थी.

‘‘तो क्या मुखियाजी ने अपने भाइयों को इसलिए पालापोसा है, ताकि वे हमारे पतियों को हम से दूर कर के हमें भोग सकें… पर मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर सकती, क्योंकि मेरे पति ही अपने बड़े भाई के खिलाफ एक शब्द भी नहीं सुनना चाहते हैं…‘‘ ऐसा सोच कर सीमा को नींद न आ सकी.

रानी के कमरे से सीमा को कुछ आवाज आती महसूस हुई, तो आधी रात को वह उठी और नई बहू रानी के कमरे के बाहर जा कर दरवाजे की झिर्री में आंख गड़ा दी. अंदर रानी बेसुध हो कर सो रही थी, जबकि मुखियाजी उस के बिस्तर के पास खड़े हो कर उस के बदन को किसी भूखे भेड़िए की तरह घूरे जा रहे थे. अभी मुखियाजी रानी के सीने की तरफ अपना हाथ बढ़ाने ही जा रहे थे कि उन की हरकत देख कर सीमा को गुस्सा आया और उस ने पास में रखे बरतन नीचे गिरा दिए, जिस की आवाज से रानी जाग गई, “मु… मुखियाजी आप यहां… इस समय…”

“हां… बस जरा देखने चला आया था कि तुझे कोई परेशानी तो नहीं है,” इतना कह कर मुखियाजी बाहर निकल गए.

रानी भी मुखियाजी की नजर और उन के मनोभावों को अच्छी तरह समझ गई थी, पर प्रत्यक्ष में उस ने अनजान बने रहना ही उचित समझा.

“कल तो आप रानी के कमरे में ही रहे… हमें अच्छा नहीं लगा,” सीमा ने शिकायती लहजे में कहा, तो मुखियाजी ने बात बनाते हुए कहा, “दरअसल, अभी वह नई है… विनय शहर गया है, तो रातबिरात उस का ध्यान तो रखना ही है न.”

एक शाम को मुखियाजी सीधा रानी के कमरे में घुसते चले गए. रानी उन्हें देख कर सिर से पल्ला करने लगी, तो मुखियाजी ने उस के सिर से साड़ी का पल्ला हटाते हुए कहा, “अरे, हम से शरमाने की जरूरत नहीं है… अब विनय यहां नहीं है, तो उस की जगह हम ही तुम्हारा ध्यान रखेंगे… विश्वास न हो, तो अपने पिता से पूछ लेना. वो तुम से हमारी हर बात का पालन करने को ही कहेंगे,” रानी की पीठ को सहला दिया था मुखियाजी ने और मुखियाजी की इस बात पर रानी के पिताजी ने ये कह कर मोहर लगा दी थी कि ‘‘बेटी, तुम मुखियाजी की हर बात मानना. उन्हें किसी भी चीज के लिए मना मत करना.‘‘

एक अजीब संकट में थी रानी.नई बहू रानी ने आज खाना बनाया था. पूरे घर के लोग खा चुके तो घर के नौकरों की बारी आई. घोड़ो की रखवाली करने वाला चंद्रिका भी खाना खाने आया. उस की और रानी की नजरें कई बार टकराईं. हर बार चंद्रिका नजर नीचे झुका लेता.

खाना खा चुकने के बाद चंद्रिका सीधा रानी के सामने पहुंचा और बोला, “बहुत अच्छा खाना बनाया है आप ने… हम कोई उपहार तो दे नहीं सकते, पर ये हमारे काले घोड़े की नाल है… इसे आप घर के दरवाजे पर लगा दीजिए, बुरे वक्त और भूतप्रेत से आप की रक्षा करेगी ये,” सकुचाते हुए चंद्रिका ने कहा.

“अरे, ये सब भूतप्रेत, घोड़े की नाल वगैरह कोरा अंधविश्वास होता है… मेरा इन पर भरोसा नहीं है,” रानी ने कहा, पर उस ने देखा कि उस के ऐसा कहने से चंद्रिका का मुंह उतर गया है.

“अच्छा… ये तो बताओ कि तुम मुझे घुड़सवारी कब सिखाओगे?” रानी ने कहा, तो चंद्रिका बोला, “जब आप कहें.”

“ठीक है, 1-2 दिन में अस्तबल आती हूं.”

घर की छत से अकसर रानी ने चंद्रिका को घोड़ों की मालिश करते देखा था. 6 फुट लंबा शरीर था चंद्रिका का. जब वह अपने कसरती बदन से घोड़ों की मालिश करता, तो वह एकदम अपने काम में तल्लीन हो जाता, मानो पूरी दुनिया में एकमात्र यही काम रह गया हो.

2 दिन बाद रानी मुखियाजी के साथ अस्तबल पहुंची. चंद्रिका ने काला वाला घोड़ा एकदम तैयार कर रखा था. मुखियाजी वहीं खड़े हो कर रानी को घोड़े पर सवार हो कर घूमते जाते देख रहे थे. चंद्रिका पैदल ही घोड़े की लगाम थामे हौलहौले चल रहा था.

“तुम ने सवारी के लिए वो सफेद वाली घोड़ी धन्नो क्यों नहीं चुनी?”

“जी, क्योंकि धन्नो इस समय उम्मीद से है न (गर्भवती है)… ऐसे में हम घोड़ी पर सवार नहीं होते,” चंद्रिका का जवाब दिलचस्प लगा रानी को.

“अच्छा… तो वो धन्नो मां बनने वाली है, तो फिर उस के बच्चे का बाप कौन है?”

“यही तो है… बादल, जिस पर आप बैठी हुई हैं. बहुत प्रेम करता है ये अपनी धन्नो से,” चंद्रिका ने उत्तर दिया.

“प्रेम…?” एक लंबी सांस छोड़ी थी रानी ने.

“इस घोड़े को जरा तेज दौड़ाओ… जैसा फिल्मों में दिखाते हैं.”

“जी, उस के लिए हमें आप के पीछे बैठना पड़ेगा,” चंद्रिका ने शरमाते हुए कहा.

“तो क्या हुआ… आओ, बैठो मेरे पीछे.”

चंद्रिका शरमातेझिझकते रानी के पीछे बैठ गया और बादल को दौड़ाने के लिए ऐंड़ लगाई. बादल सरपट भागने लगा. घोड़े की लगाम चंद्रिका के मजबूत हाथों में थी. चंद्रिका और रानी के जिस्म एकदूसरे से रगड़ खा रहे थे. रानी और चंद्रिका दोनों ही रोमांचित हो रहे थे. एक अनकहा, अनदेखा, अनोखा सा कुछ था, जो दोनों के बीच में पनपता जा रहा था.

हां… पर, चंद्रिका के स्पर्श में कितनी पवित्रता थी, कितनी रूहानी थी उस की हर छुअन.

तहखाने: क्या अंशी दोहरे तहखाने से आजाद हो पाई?

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