आरती को बहू भात खाने जाना बहुत महंगा पड़ा. उस ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि इतनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी.

‘‘लाल, तुम्हारी पत्नी तो बड़ी मस्त है. बहुत मजा आया, पूरा वसूल हो गया,’’ उस आदमी के मुंह से निकलने वाले ये वे शब्द थे, जो बेहोश होने के पहले आरती के कानों में समाए थे.

आवाज सुनीसुनी सी लगी थी. उस के पहले के वे 3 आदमी कौन थे, आरती जान नहीं पाई थी. सब ने अपने चेहरों को ढक रखा था. कोई कुछ बोल भी नहीं रहा था,

जैसे सबकुछ योजना बना कर हो रहा था. एक के बाद एक चढ़े, कूदे और उतर गए. जैसे बेटिकट लफंगे बसों में चढ़तेउतरते हैं.

न आरती चीख पा रही थी और न हिलडुल पा रही थी. पहले ही मुंह में कपड़ा ठूंस दिया गया था. दम घुट रहा था. जो आता जोश से भरा हुआ होता और उस की जान हलक में आ जाती थी.

फिर वहां क्याकुछ हुआ, आरती को कुछ भी पता नहीं. होश आया, तो घर के बिस्तर में पड़ी थी और घर वाले उसे घेरे खड़े थे.

आरती की आंखें लाल को ढूंढ़ रही थीं. वह एक ओर कोने में दुबका सा खड़ा था... चुपचाप. उसे देख कर आरती का मन नफरत से भर उठा. दिल में एक हूक सी उठी, एक सैलाब सा उमड़ा, उस दर्द का, जो वह अभीअभी भोग कर आई थी.

‘‘थाने चलो,’’ अगले दिन सुबह उठते ही आरती ने लाल से कहा.

‘‘होश में आओ, पागल मत बनो, लोग जानेंगेसुनेंगे तो क्या कहेंगे? बाकी की जिंदगी बदनामी ओढ़ कर जीना पड़ेगा. मुंह बंद रखो और रात की घटना को एक डरावना सपना समझ कर भूल जाओ,’’ लाल ने धीरे से कहा.

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