डस्ट : भाग 1- अपना मन हम कैसे साफ करेंगे

वह शाम को घर वापस आया. चेहरे पर अजीब सी चिपचिपाहट का अनुभव हुआ. उस ने रूमाल से अपना चेहरा पोंछा और रूमाल की तरफ देखा. सफेद रूमाल एकदम काला हो गया था. इतना कालापन. मैं तो औफिस जा कर कुरसी पर बैठता हूं. न तो मैं फील्डवर्क करता हूं न ही किसी खदान में काम करता हूं. रास्ते में आतेजाते ट्रैफिक तो होता है, लेकिन मैं अपनी बाइक से जाता हूं और हैलमेट यूज करता हूं. फिर इतनी डस्ट कैसे?

उस ने टीवी पर समाचारों में देखा था कि महानगरों, खासकर दिल्ली में इतना ज्यादा प्रदूषण है कि लोगों को सांस लेने में तकलीफ होती है. दीवाली जैसे त्योहारों पर जब पटाखों का जहरीला धुआं वातावरण में फैलता है तो लोगों की आंखों में जलन होने लगती है और सांस लेने में दम घुटता है. ऐसे कई स्कूली बच्चों को मास्क लगा कर स्कूल जाते हुए देखा है.

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महानगरों की तरह क्या यहां भी प्रदूषण अपनी पकड़ बना रहा है. घर से वह नहाधो कर तैयार हो कर निकलता है और जब वापस घर आता है तो नाककान रुई से साफ करने पर कालापन निकलता है.

यह डस्ट, चाहे वातावरण में हो या रिश्तों में, इस के लिए हम खुद जिम्मेदार हैं. रिश्ते भी मर रहे हैं. प्रकृति भी नष्ट हो रही है. नीरस हो चुके हैं हम सब. हम सिर्फ एक ही भाषा सीख चुके हैं, फायदे की, मतलब की. ‘दुनिया जाए भाड़ में’ तो इस तरह कह देते हैं जैसे हम किसी दूसरी दुनिया में रहते हैं.

उसे पत्नी पर शक है और पत्नी को भी उस पर शक है. इस शक के चलते वे अकसर एकदूसरे पर आरोपप्रत्यारोप लगाते रहते हैं. पत्नी का शक समझ में आता है. कृष्णकांत ने अपनी उम्र से 15 वर्ष बड़ी महिला से शादी की थी. वह 30 वर्ष का है और उस की पत्नी 45 वर्ष की. जब वह 18 वर्ष का था तब उस ने रमा से शादी की थी. शादी से पहले प्यार हुआ था. इसे कृष्णकांत प्यार कह सकता था उस समय क्योंकि उस की उम्र ही ऐसी थी.

रमा कालेज में प्रोफैसर थी. कृष्णकांत तब बीए प्रथम वर्ष का छात्र था. रमा घर में अकेली कमाने वाली महिला थी. परिवार के लोग, जिन में मातापिता, छोटा भाई, छोटी बहन थी, कोई नहीं चाहता था कि रमा की शादी हो. अकसर सब उसे परिवार के प्रति उस के दायित्वों का एहसास कराते रहते थे. लेकिन रमा एक जीतीजागती महिला थी. उस के साथ उस के अपने शरीर की कुछ प्राकृतिक मांगें थीं, जिन्हें वह अकसर कुचलती रहती थी, लेकिन इच्छाएं अकसर अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए मुंहबाए उस के सामने खड़ी हो जातीं.

कृष्णकांत की उम्र में अकसर लड़कों को अपने से ज्यादा उम्र की महिलाओं से प्यार हो जाता है. पता नहीं क्यों? शायद उन की कल्पना में भरीपूरी मांसल देह वाली स्त्रियां ही आकर्षित करती हों. कृष्णकांत को तो करती थीं.

नई उम्र का नया खून ज्यादा जोश मारता है. शरीर का सुख ही संसार का सब से बड़ा सुख मालूम होता है और कोई जिम्मेदारी तो होती नहीं इस उम्र में. पढ़ने के लिए भी भरपूर समय होता है और नौकरी करने की तो अभी उम्र मात्र शुरू होती है. मिल जाएगी आराम से और रमा मैडम जैसी कोई नौकरीपेशा स्त्री मिल गई तो यह झंझट भी खत्म. हालांकि उसे रमा की तरफ उस का आकर्षक शरीर, शरीर के उतारचढ़ाव और खूबसूरत चेहरा, जो था तो साधारण लेकिन उस की दृष्टि में काफी सुंदर था, उसे खींच रहा था.

औरतें नजरों से ही समझ जाती हैं पुरुषों के दिल की बात. रमा ने भी ताड़ लिया था कि कृष्णकांत नाम का सुंदर, बांका जवान लड़का उसे ताकता रहता है. फिर उसे टाइप किए 3-4 पत्र भी मिले जिस में किसी का नाम नहीं लिखा था. बस, प्यारभरी बातें लिखी थीं. रमा समझ गई कि ये पत्र कृष्णकांत ने ही उसे लिखे हैं. रमा ने उस से कालेज के बाहर मिलने को कहा. रमा के बताए नियत स्थान व समय पर वह वहां पहुंचा.

अंदर से डरा और सहमा हुआ था कृष्णकांत. लेकिन रमा के शरीर में उस के पत्रों को पढ़ कर चिंगारिया फूट रही थीं. वह तो केवल कालेज में प्रोफैसर थी सब की नजरों में. घर में कमाऊ पूत. जो कुछ इश्कविश्क की बातें थीं वो उस ने फिल्मों में ही देखी थीं. उस का भी मन होता कि कोई उस से प्यारभरी बातें करे, लेकिन अफसोस कि ऐसा कभी हुआ नहीं और आज जब हुआ तो कालेज के छात्र से.

कोई दूर या पास से देख भी लेता तो यही सोचता कि छात्र और प्रोफैसर बात कर रहे हैं. रमा ने कृष्णकांत से कहा, ‘ये पत्र तुम ने लिखे हैं?’ कृष्णकांत चुप रहा, तो रमा ने आगे कहा, ‘मैं जानती हूं कि तुम ने ही लिखे हैं. डरो मत, स्पष्ट कहो और सच कहो. मैं किसी से नहीं कहूंगी.’

‘जी, मैं ने ही लिखे हैं.’

‘क्यों, प्यार करते हो मुझ से?’

‘जी.’

‘उम्र देखी है अपनी और मेरी.’

कृष्णकांत चुप रहा. तो रमा ने ही चुप्पी तोड़ी और कहा, ‘क्या चाहते हो मुझ से, शादी, प्यार या सैक्स.’

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‘जी, प्यार.’

‘और उस के बाद?’

कृष्णकांत फिर चुप रहा.

‘शादी नहीं करोगे, बस मजे करने हैं,’ रमा की यह बात सुन कर कृष्णकांत भी खुल गया.

उस ने कहा, ‘‘शादी करना चाहता हूं. प्यार करता हूं आप से.’’

‘कौन तैयार होगा इस शादी के लिए? तुम्हारे घर वाले मानेंगे. मेरे तो नहीं मानेंगे.’

‘मैं इस के लिए सारी दुनिया से लड़ने को तैयार हूं,’ कृष्णकांत ने कहा.

‘सच कह रहे हो,’ रमा ने उसे तोलते हुए कहा.

‘जी.’

‘तो फिर मेरे हिसाब से चलो. इस छोटे शहर में तो हमारे प्रेम का मजाक उड़ाया जाएगा. हम दूसरे शहर चलते हैं. मैं अपना ट्रांसफर करवाए लेती हूं. छोड़ सकते हो घर अपना.’ कृष्णकांत को तो मानो मनमांगी मुराद मिल गई थी.

एक पुरोहित को पैसे दिए. 2 गवाह साथ रखे और शादी के फोटोग्राफ लिए. मंदिर में शादी की और दोनों घर में झूठ बोल कर हनीमून के लिए निकल गए. कृष्णकांत ने जैसी स्त्री के सपने देखे थे, ठीक वैसा ही रमा में पाया और वर्षों पुरुष संसर्ग को तरसती रमा पर भरपूर प्यार की बरसात की कृष्णकांत ने. दोनों तृप्त थे.

रमा ने अपना तबादला करवा लिया. घर में किसी को कुछ नहीं बताया. घर के लोग हंगामा खड़ा कर सकते थे. कृष्णकांत ने भी घर में झूठ बोला कि उस का ऐडमिशन कृषि महाविद्यालय में हो गया है. 12वीं तक की पढ़ाई उस ने कृषि विज्ञान से की थी. आगे की पढ़ाई के लिए पिता ने उसे अपनी आर्थिक स्थिति का हवाला दे कर दूसरे शहर में पढ़ाने से इनकार कर दिया था, लेकिन जब कृष्णकांत ने कहा कि उस ने प्रवेश परीक्षा क्लियर कर ली है और पढ़ाई का खर्च वह छात्रवृत्ति से निकाल लेगा तो घर में किसी ने विरोध नहीं किया.

रमा ने भी घर में कह दिया कि जब तक उसे सरकारी क्वार्टर नहीं मिल जाता, वह घर में किसी सदस्य को नहीं ले जा सकती. पैसे मनीऔर्डर से हर माह भिजवा दिया करेगी. लेकिन मेरे अपने खर्च भी होंगे. इसलिए मैं आधी तनख्वाह ही भेज पाऊंगी.

दूसरे शहर में आ कर दोनों पतिपत्नी की तरह रहने लगे. कृष्णकांत का सारा खर्च रमा ही उठाती. उस के लिए नएनए कपड़े खरीदती. एक बाइक भी खरीदी जिस में कृष्णकांत रमा को ले कर कालेज जाता. कृष्णकांत बीए में ही पढ़ रहा था.

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जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

डस्ट: अपना मन हम कैसे साफ करेंगे

बकरा : भाग 3- क्या अधीर को मिला वैवाहिक जीवन का सुख

अंकुश उस के मना करने पर भी अंदर मीनू की खबर ले आया कि मम्मी जो खाना ले के आई थीं, वह अकेले ही खा रही हैं.

अधीर मीनू पर गुस्सा होने के बजाय अंकुश के बचकानेपन पर ही रहम खाने लगा. वह बुदबुदाए बगैर नहीं रह सका, ‘‘कैसी भुक्खड़ मां है.’’

शाम को अधीर ने बच्चों के साथ खाना खाया. जब तक वह बच्चों के सोने का प्रबंध करता रहा तब तक मीनू से न तो अधीर की, न ही बच्चों की बातचीत हुई थी. अधीर ने बच्चों से फुसफुसा कर कह दिया था, ‘‘इस समय तुम्हारी मम्मी बहुत गुस्से में हैं, इसलिए उन से बात करने की गलती मत करना.’’

पिछली रात को नींद पूरी न होने के कारण और आफिस में काम को निबटाने की जद्दोजहद में अधीर इतना थक कर चूर हो गया था कि वह तकिए पर सिर रखते ही गहरी नींद में सो गया.

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कोई 11 बजे होंगे कि एक हृदयविदारक चीख से अधीर और बच्चे जग गए. चीख मीनू के बेडरूम से आई थी, इसलिए वे उधर ही भागे. वहां मीनू अपने पेट को दोनों हाथों से जोर से दबाए हुए कांप रही थी. असहनीय दर्द के मारे उस का सारा शरीर पसीने से नहा गया था. बच्चे मां की यह हालत देख कर जोरजोर से रोने लगे.

अधीर ने झटपट उसे अस्पताल में दाखिल कराया. रात भर वह उसी तरह रुकरुक कर दर्द से चीखती रही. अधीर ने रात में ही ससुराल में उस की हालत के बारे में फोन पर सूचित कर दिया था. सुबह जब उस के फोन करने पर मीनू के आफिस वाले उसे देखने आए तब तक सारी मेडिकल रिपोर्टें आ गई थीं. डाक्टर की इस सूचना ने अधीर को सुन्न कर दिया कि मीनू के दोनों गुर्दे अत्यधिक शराब पीने के कारण खराब हो गए हैं और उन से लगातार रक्तस्राव हो रहा है.

डाक्टर ने अधीर से कहा, ‘‘आज शाम तक उस के लिए एक गुर्दे का बंदोबस्त हो जाना चाहिए ताकि उस का ट्रांसप्लांट किया जा सके.’’

अधीर के तो हाथपांव फूल गए. गुर्दे बदलने में कम से कम 10 लाख रुपए का खर्च आने वाला था, जबकि अधीर इतने रुपए का बंदोबस्त करने में एकदम असमर्थ था. लेकिन उसे यह उम्मीद थी कि ससुराल वाले अपनी बेटी के लिए रुपए का इंतजाम तो कर ही देंगे.

दोपहर तक मीनू के मांबाप और भाई पहुंच चुके थे. अधीर ने उन को हालात से अवगत कराते हुए कहा, ‘‘मीनू के इलाज के लिए 10 लाख रुपए की जरूरत है.’’

पर आश्चर्य कि उस की सास बड़े बेहूदे ढंग से बोलीं, ‘‘अभी तक तुम्हारी दहेज की चाह पूरी नहीं हुई? मेरी बेटी को मौत के मुंह में धकेल कर भी तुम अपने लालचीपन से बाज नहीं आ रहे हो?’’

मीनू के कुछ आफिस वालों के समझानेबुझाने पर ससुराल वाले यह मानने को तैयार हुए कि मीनू की जान बचाने की कीमत लगभग 10 लाख है.

अधीर के ससुर ने कहा, ‘‘अरे, इतने पैसों की क्या जरूरत है? हम में से कोई अपना गुर्दा मीनू को दे देगा.’’

उन की बात सुनते ही अधीर की सास छाती पकड़ कर गिर पड़ीं. उन्हें आई सी यू वार्ड में भरती कराने के लिए स्ट्रेचर मंगाना पड़ा.

ससुर ने कहा, ‘‘मैं तो खुद ही बी.पी. और शुगर से अधमरा हूं. गुर्दा निकलने के बाद तो बचूंगा ही नहीं…तुम लोग जवान हो, तुम्हारे गुर्दे ही उस में ज्यादा फिट बैठेंगे. आखिर तुम उस के शौहर हो.’’

अभी गुर्दे के बंदोबस्त के संबंध में चर्चा चल ही रही थी कि मीनू का भाई टहलते हुए दूर निकल गया. जब हताश अधीर ने मीनू के खिदमतगार बौस बिरजू की ओर रुख किया तो वह तेजी से चलता हुआ अपनी कार में बैठ कर चला गया.

अधीर ने फिर किसी की ओर नहीं देखा. वह तेज कदमों से चलते हुए डाक्टर के कमरे में आ गया. उस ने अपने दोनों बच्चों को टाफी, बिस्कुट और चिप्स के कई पैकेट थमाते हुए कहा, ‘‘मैं काफी देर तक तुम्हारी मम्मी के पास रहूंगा. तब तक तुम इसी कमरे में मेरा इंतजार करना. ध्यान रहे, मैं तुम्हारी मम्मी की जान बचाने जा रहा हूं. अगर तुम दोनों ने सहयोग नहीं किया तो तुम्हारी मम्मी का भला नहीं होगा.’’

दोनों बच्चों ने कान पकड़ कर वादा किया.

लगभग 2 घंटे के आपरेशन के बाद अधीर का एक गुर्दा निकाल लिया गया. उस ने बच्चों को बुलवा कर बेड पर लेटेलेटे बताया, ‘‘अब रोना मत. मैं ने तुम्हारी मम्मी को बचाने का पुख्ता इंतजाम कर रखा है.’’

तभी अंकुश ने यह जानकारी दी कि पापा, नानी को हार्ट अटैक नहीं पड़ा था. वह तो नाटक कर रही थीं ताकि उन्हें अपना गुर्दा न देना पड़े. डाक्टर ने उन्हें एकाध गोली दे कर रफादफा कर दिया है.

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पिछले 8 सालों से मीनू भलीचंगी चल रही है. उस के स्वभाव में कोई खास बदलाव नहीं आया है सिवा इस के कि वह लड़नेझगड़ने के बाद कोर्ट से कोई काररवाई करने की धौंस नहीं देती. बड़ी से बड़ी लड़ाई लड़ने के बाद भी वह रात को अधीर के बेड के किनारे आ कर सो जाती है. अधीर के खर्राटे लेने के बावजूद वह बेड नहीं छोड़ती है, बल्कि भुनभुना कर रह जाती है, ‘बकरा कहीं का.’

हां, शराब के साथसाथ बिरजू से भी तौबा कर लिया है. अस्पताल से छूट कर वह सीधे बिरजू के पास गई थी और अपना त्यागपत्र सौंपते हुए उस से जोरजोर से झगड़ आई थी कि उस ने उस का मुसीबत में क्यों नहीं साथ दिया.

एक और बदलाव मीनू में यह आया है कि वह बच्चों को डांटनेफटकारने के बाद उन्हें प्यार से सबक भी देने लगी है. पर अधीर की दिनचर्या में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया है. वह आज भी आफिस जाने से पहले और वहां से लौटने के बाद किचन में लगा रहता है. महरी के न आने पर वह बरामदे से बेडरूम तक बड़े मन से झाड़ूपोछा लगाता है क्योंकि डाक्टर ने उसे खास हिदायत दे रखी है कि अपने इकलौते गुर्दे को चुस्तदुरुस्त रखने के लिए उस के लिए व्यायाम करना बहुत जरूरी है और उसे मेहनत से कतई जी नहीं चुराना चाहिए. जब वह थक कर आराम करने लगता है तो अपने सामने मीनू को हाथ में छड़ी लिए हुए खड़ा पाता है, ‘‘अगर जिंदा रहना चाहते हो तो काम करो.’’

अधीर को कुछ वर्षों पहले का वह सपना याद आ जाता है जिस में मीनू उसे जादुई छड़ी घुमा कर बकरा बना देती है.

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बकरा : भाग 2- क्या अधीर को मिला वैवाहिक जीवन का सुख

विवाह के बाद जो सुकून मिलना चाहिए था, वह अधीर को कभी नहीं मिला. मीनू की परवरिश ही कुछ ऐसे माहौल में हुई थी कि उस के लिए अपने मांबाप, भाईबहन आदि के अलावा किसी दूसरे से तालमेल बैठा पाना मुश्किल ही नहीं, असंभव सा था.

पहले अधीर मीनू के ताना मारने पर प्रतिक्रियाएं व्यक्त करता था, जिस से बात बढ़ कर बतंगड़ बन जाती थी और फिर धुआंधार बहस में माहौल इतना गरम हो जाता कि तलाक के लिए वकील का दरवाजा खटखटाने तक की नौबत आ जाती थी.

पर अधीर बड़े धीरज से काम लेता था. सो उस ने मीनू से जबानजोरी करनी छोड़ दी और उस को शांत करने के लिए सारी हिकमत अपनानी शुरू कर दी. सुबह उस से पहले उठ कर बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करना, सुबह की चाय बनाना और लंच के लिए खाना तैयार करने में उस का हाथ बंटाना आदि.

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बहरहाल वह मीनू के स्वभाव को बदलने में हमेशा नाकामयाब रहा. मीनू सारी हदें लांघ कर अमर्यादित तरीके से बरताव करने लगी थी. बच्चों और पति को झिड़कना और डांटना तो मामूली बात थी, अब तो वह गालीगलौज करने पर आमादा हो गई थी. उसे बेलगाम विस्फोटक होने से बचाने के लिए अधीर सुबह से ही ऐसे कामों को निबटाने में जुट जाता था जिन्हें करने से मीनू जी चुराती थी.

उसे संतुष्ट करने के लिए वह अपनी नौकरी को भी दांव पर लगा बैठा था. आफिस देर से पहुंचना, पहले लौट आना और काम को गंभीरतापूर्वक न लेना उस की आदत बन गई थी. इतने पर भी मीनू को अधीर की हर बात से शिकायत थी.

कई बार अधीर को एहसास होता था कि वह घर का काम करतेकरते औरत बनता जा रहा है. उसे यह भी लगता था कि वह अपनी मां की तरह कोई 70 प्रतिशत सहनशील और अंतर्मुखी हो गया है. उसे याद है कि पापाजी की यातनाओं को मां किस खामोशी से सहन कर लेती थीं.

अधीर की तंद्रा तब टूटी जब उस के दोनों बच्चे अंकुश और अलि घर में दाखिल हुए. वे एक ही स्कूल में पढ़ते थे और एक ही बस में साथसाथ आया करते थे. बच्चों को आश्चर्य हो रहा था कि पापा आफिस जाने के बजाय आज घर पर ही हैं. दरअसल, उन्हें यह नहीं पता था कि आज पापामम्मी के बीच कुछ ज्यादा ही छिड़ गई थी. वे तो उन के बीच जंग छिड़ने से पहले ही स्कूल जा चुके थे.

अंकुश रोज की तरह सीधे किचन में गया और वहां खाना नदारद पा कर भूख से बिलबिला उठा. अधीर ने उस की पीठ थपथपाई और बोला, ‘‘मैं अभी खाने का बंदोबस्त करता हूं.’’

उस ने फोन कर के रेस्तरां से तत्काल भोजन मंगा लिया और बच्चों के हाथपैर धुलाते हुए उन का खाने की मेज पर स्वागत किया. जब दोनों बच्चे अपने कमरे में टीवी पर कार्टून फिल्म देखने में खो गए तो वह रात का खाना बनाने की तैयारी करने में जुट गया. सोच रहा था कि शायद आज मीनू का मूड ठीक हो जाए.

तभी मोबाइल की घंटी बजी. उसे यह जान कर कोई खास आश्चर्य नहीं हुआ कि मीनू के मोबाइल से बिरजू की आवाज आ रही थी और वह अंकुश से बात करना चाह रहा था. मोबाइल पर मीनू ने अंकुश को बताया कि वह आज घर नहीं आएगी. अधीर को यह जान कर कोफ्त हुई और उस ने खाना बनाने का कार्यक्रम स्थगित कर के बच्चों को यह समाचार दिया कि वे आज बाहर जा कर खाना खाएंगे.

होटल से लौट कर अधीर को चैन नहीं था. उस के लिए यह बात अब छिपी नहीं रही थी कि मीनू एक तरह से बिरजू की रखैल बन चुकी है. बिरजू उस का बौस है, जो उस का यौन शोषण करता है और बदले में उस की वे सारी जरूरतें पूरी करता है जो वह नहीं कर सकता. वह ऐसी स्थिति में नहीं है कि मीनू को मोटी पाकेट मनी दे सके, विदेशी सौंदर्य प्रसाधन, कपड़े व घूमनेफिरने के लिए उसे एक लग्जरी कार मुहैया करा सके.

देर रात तक अधीर को नींद नहीं आई. वह बेहद मायूस था. उसे मीनू के साथ एक ही बिस्तर पर सोए हुए कोई साल भर तो गुजर ही गया होगा. मीनू की लानत सुनते हुए जोरजबरदस्ती कर के उस के साथ हमबिस्तर होना अब उसे रास नहीं आता था. जी करता था कि वह भी अपनी किसी आफिससहकर्मी के साथ गुलछर्रे उड़ाए, मौजमस्ती में बाकी जिंदगी को हंसीठट्ठा से गुजार दे, लेकिन वह किसी प्रकार की नाजायज हरकत कर के खुद को या अपने घर को कलंकित नहीं करना चाहता था.

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उस ने घड़ी की ओर सिर घुमाया. रात के डेढ़ बज चुके थे. तभी उसे कुछ याद कर के हंसी आ गई. कोई 2 साल पहले वह अपने साले की शादी में शामिल होने ससुराल गया था तो एक शाम सोते हुए वह अचानक जग गया था. मीनू उस के सामने खड़ी, अपने रिश्तेदारों से कह रही थी कि आओ, मैं तुम्हें बकरे का मिमियाना सुना रही हूं.

वह तो इस मजाक पर रिश्तेदारों के सामने झेंप गया था, पर मीनू ठठा कर हंस रही थी.

अधीर सोच रहा था कि अगर उस के खर्राटे को टेप कर के सुनाया जाए तो वह यह तय करना चाहेगा कि वाकई उस के खर्राटे बकरे के टेंटें जैसे ही सुनाई देते हैं.

देर रात सोने के बाद सुबह जब उस की नींद खुली तो उसे बड़ा अचंभा हो रहा था. उस ने एक लंबा सपना देखा था जिस में मीनू ने उसे जादू की छड़ी से छू कर बकरा बना कर उस के गले में एक पट्टा डाल दिया है. वह उसे डंडे से मारमार कर घर का सारा कूड़ाकचरा जबरन खिला रही है और उस के मेंमें करने पर उस पर डंडे बरसा रही है.

सुबह अधीर बच्चों को स्कूल न भेज कर उन्हें अपने साथ आफिस ले गया. उन्हें पार्क में बैठा दिया और अपनी स्टेनो को हिदायत दे दी कि वह आज उस के बच्चों का खयाल रखेगी. उस का काम वह खुद कर लेगा.

मीनू ने जैसे ही घर में अपने कदम रखे, दोनों बच्चे टेलीविजन बंद कर के अधीर के साथ बाहर निकल आए और लान में कुरसी पर बैठ गए. मीनू ने सीधे किचन में जा कर पैक्ड फूड के पैकेट को डाइनिंग टेबल पर फेंक दिया. कुछ देर तक वह अंदर ही व्यस्त रही. अधीर ने सोचा कि वह कपड़े बदल रही होगी.

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जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

बकरा : भाग 1- क्या अधीर को मिला वैवाहिक जीवन का सुख

मीनू ने आफिस जाते वक्त मेज पर परोसी गई थाली को हाथ मार कर नीचे गिरा दिया और जातेजाते अधीर से गुर्रा गई थी, ‘‘आइंदा मेरे लिए खाना मेज पर मत लगाना, वरना…’’

हुआ यह कि सुबह मीनू ने केवल अपने लिए चाय बनाई थी. अधीर को बड़ी कोफ्त हुई कि थोड़ी सी और चाय बढ़ा कर बनाई होती तो उस का क्या चला जाता. खैर, ऐसी टुच्ची हरकत तो वह रोज ही किया करती है.

उस के बाद वह किचन में घुस गया था. बाकायदा दालचावल के साथसाथ गोभी, आलू, मटर का दोपियाजा बनाया था. सोचा था कि मीनू का मूड दोपियाजे की खुशबू से बदल जाएगा पर उस की रसोईगीरी की मशक्कत का अंजाम यह हुआ कि मीनू ने सारा खाना ही जमीन पर छितरा दिया.

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इस घटना के बाद अधीर का मूड इतना खराब हुआ कि उस ने एक दाना भी हलक से नीचे नहीं उतारा.

उस ने छितरे खाने को बटोर कर डस्टबिन में डाला. फिर बचाखुचा खाना एक पालिथीन बैग में डाल कर नीचे पार्क के एक कोने में रख आया. महल्ले के कुत्तों को लगातार तीसरे दिन भी अच्छी दावत मिल गई थी. बहरहाल, अधीर को कुत्ते- बिल्लियों को खाना खिला कर बेहद सुकून मिलता था. कम से कम वे उस के खाने को पर्याप्त सम्मान तो देते थे.

सीढि़यां चढ़ते वक्त ही उस ने तय कर लिया कि वह आज भी दफ्तर नहीं जाएगा बल्कि घर में बैठ कर कुछ लिखेगापढ़ेगा. पिछले कई महीनों से उस ने न तो कोई कविता लिखी थी, न ही कोई कहानी. शायद कुछ लिखने के बाद उस का मूड भी ठीक हो जाए. इसलिए उस ने अपने अफसर रेड्डी को फोन कर दिया, ‘‘सर, मेरा फीवर अभी तक नहीं उतरा है, मैं आज भी…’’

रेड्डी ने उसे 1 दिन की और छुट्टी दे दी थी.

अधीर पहले से कहीं ज्यादा हताश होता जा रहा था. पहले उस के मन में उम्मीद की एक धुंधली किरण टिमटिमाती रहती थी कि एक न एक दिन मीनू के खयालात जरूर बदलेंगे और उन के गृहस्थ जीवन में रस पैदा होगा. पर आज की इस घटना ने उस की उम्मीद को और भी धुंधला किया है. मीनू जिस दिन से उस के आंगन में बहू के रूप में उतरी थी, वह हर रोज उग्र से उग्रतर होती जा रही थी. पिछले 10 सालों से संबंधों में कड़वाहट बढ़ती ही जा रही थी. इस का अन्य बातों के साथसाथ, एक मुख्य कारण यह भी था कि अधीर को जो कुछ भी दहेज में मिला था, उसे वह या तो अपने घर छोड़ आया था या अपनी छोटी बहन की शादी में दे चुका था.

शादी के 2 दिन बाद ही जब दहेज में मिला स्कूटर उस ने अपने छोटे भाई के हवाले किया तो मीनू ने पहली बार यह कह कर अपनी नाकभौं सिकोड़ी थी कि एक दिन तुम मुझे भी अपने भाइयों के हवाले कर देना.

तब वह यह सोचते हुए चुप रह गया था कि जब मीनू उस की रौ में बहेगी तो उस का सामान के प्रति प्रेम का बुखार उतर जाएगा और वह भौतिक जीवन से उचट कर उस की बौद्धिक दुनिया में कदम रखेगी, जहां सुकून है, जिंदगी का असल माने है.

शादी के बाद वह मीनू के साथ खाली हाथ ही हैदराबाद चला आया था. मीनू ने चलतेचलते कहा भी था कि तुम ने शादी का सारा सामान अपने लालची परिवार वालों के हवाले कर के अच्छा नहीं किया.

तब पहली बार अधीर उस की बात को बीच में काटते हुए झल्ला कर बोला था, ‘मीनू, मेरे घर वाले तो तुम्हारे घर वाले भी हैं. फिर उन्हें अपशब्द कह कर अपनी किस बैकग्राउंड का परिचय दे रही हो? पढ़ीलिखी लड़की हो, कम से कम कुछ तो शालीनता से पेश आओ.’

उस पल मीनू का चेहरा एकदम तमतमा गया था. अधीर को पहली बार एहसास हुआ कि वह बेइंतहा हिंसक भी हो सकती है. दोनों ने एकदूसरे की ओर पीठ किए हुए ही अपनी यात्रा पूरी की. सुबह जब टे्रन सिकंदराबाद पहुंची तो अधीर ने उठ कर उस की पीठ पर हाथ रख कर कहा था, ‘डियर, रेडी हो जाओ. हैदराबाद आने ही वाला है.’

अधीर ने तब बर्थ पर बिखरे कंबल, चादर खुद समेट कर बैग और अटैची में रखे थे. मीनू तो उठ कर आईने के सामने सिर्फ अपने मेकअप को फाइनल टच देने में मशगूल थी.

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अधीर ने अपनी नवविवाहिता पत्नी को खुश करने के लिए हैदराबाद के उस किराए के फ्लैट में सारे इंतजाम कर रखे थे. कुंआरा रहते हुए भी उस ने किचन, बेडरूम और ड्राइंगरूम को जरूरी सामान से सुसज्जित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रखी थी, लेकिन उसे आश्चर्य हो रहा था कि मीनू ने उस के सलीकेदार बंदोबस्त के बारे में एक भी तारीफ भरा लफ्ज नहीं बोला.

समय दिन, हफ्ते, महीने और साल के रास्ते सरकता चला जा रहा था. 3 साल तक कोई संतान न होने का सारा लांछन अधीर को ही झेलना पड़ा, क्योंकि मीनू हर किसी को रटारटाया उत्तर देती, ‘लगता है इन में ही कोई कमी है.’

अधीर की दबंग सास जब हैदराबाद आईं तो वह दामाद को बाकायदा यह मशविरा दे बैठीं, ‘इस हैदराबाद में हमारे रिश्ते का एक डाक्टर है, तुम उसी से अपना चेकअप करा लो. उस ने कई बेऔलादों की तकदीर बदली है.’ और जब उस डाक्टर ने अपनी रिपोर्ट में यह बताया कि अधीर में कोई कमी नहीं है, तो मीनू और उस की सास का चेहरा गुस्से से सूज गया. मीनू का गुस्सा तब तक खत्म नहीं हुआ जब तक कि वह मेडिकल जांच और इलाज के बाद गर्भवती नहीं हो गई.

पहले बेटे के बाद दूसरी बिटिया हुई. अफसोस कि अधीर के घर वाले दोनों बच्चों के पैदा होते समय वहां नहीं आ सके. मीनू ने तो इस बात पर खूब ताने दिए. जब अधीर सफाई पेश करता तो वह और विस्फोटक हो जाती.

अधीर ने शादी केवल इसलिए की थी कि वह हैदराबाद में नौकरी करते हुए अपने एकाकीपन से बोर हो गया था. उस के लिए घर का काम निबटा कर आफिस की ड्यूटी करना भारी पड़ रहा था, वरना तो वह अपनी जिंदगी से खुश था.

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जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

रिश्तों की कसौटी : भाग 3- क्या था उस डायरी में

उसी रात सुरभी को अमित साहनी का फोन आया कि वह कल साढ़े 11 बजे की फ्लाइट से मुंबई आ रहे हैं. सुरभी को मां की डायरी का हर वह पन्ना याद आ रहा था जिस में लिखा था कि काश, मृत्यु से पहले एक बार अमित उस के सवालों के जवाब दे जाता. कल का दिन मां की जिंदगी का अहम दिन बनने जा रहा था. यही सोचते हुए सुरभी की आंख लग गई.

अगले दिन उस ने नर्स से दवा आदि के बारे में समझ कर उसे भी रात को आने को बोल दिया.

करीब 1 बजे अमित साहनी उन के घर पहुंचे. सुरभी ने हाथ जोड़ कर उन का अभिवादन किया तो उन्होंने ढेरोें आशीर्वाद दे डाले.

‘‘आप यहीं बैठिए, मैं मां को बता कर आती हूं. एक विनती है, हमारी मुलाकात का मां को पता न चले. शायद बेटी के आगे वे कमजोर पड़ जाएं,’’ सुरभी ने कहा और ऊपर चली गई.

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‘‘मम्मी, आप से कोई मिलने आया है,’’ उस ने अनजान बनते हुए कहा.

‘‘कौन है?’’ मां ने सूप का बाउल कम्मो को पकड़ाते हुए पूछा.

‘‘कोई मिस्टर अमित साहनी नाम के सज्जन हैं. कह रहे हैं, दिल्ली से आए हैं,’’ सुरभी वैसे ही अनजान बनी रही.

‘‘क…क…कौन आया है?’’ मां के शब्दों में एक शक्ति सी आ गई थी.

‘‘ऐसा करती हूं आप यहीं रहिए. उन्हें ही ऊपर बुला लेते हैं,’’ मां के चेहरे पर आए भाव सुरभी से देखे नहीं जा रहे थे. वह जल्दी से कह कर बाहर आ गई.

मालती कुछ भी सोचने की हालत में नहीं थीं. यह वह मुलाकात थी जिस के बारे में उन्होंने हर दिन सोचा था.

थोड़ी देर में सुरभी के पीछेपीछे अमित साहनी कमरे में दाखिल हुए, मालती के पसंदीदा पीले गुलाबों के बुके के साथ. मालती का पूरा अस्तित्व कांप रहा था. फिर भी उन्होंने अमित का अभिवादन किया.

सुरभी इस समय की मां की मानसिक अवस्था को अच्छी तरह समझ रही थी. वह आज मां को खुल कर बात करने का मौका देना चाहती थी, इसलिए डा. आशुतोष के पास उन की कुछ रिपोर्ट्स लेने के बहाने वह घर से बाहर चली गई.

‘‘कितने बेशर्म हो तुम जो इस तरह से मेरे सामने आ गए?’’ न चाहते हुए भी मालती क्रोध से चीख उठीं.

‘‘कैसी हो, मालती?’’ उस की बातों पर ध्यान न देते हुए अमित ने पूछा और पास के सोफे पर बैठ गए.

‘‘अभी तक जिंदा हूं,’’ मालती का क्रोध उफान पर था. उन का मन तो कर रहा था कि जा कर अमित का मुंह नोच लें.

इस के विपरीत अमित शांत बैठे थे. शायद वे भी चाहते थे कि मालती के अंदर का भरा क्रोध आज पूरी तरह से निकल जाए.

‘‘होटल ताज में ईश्वरनाथजी से मुलाकात हुई थी. उन्हीं से तुम्हारे बारे में पता चला. तभी से मन बारबार तुम से मिलने को कर रहा था,’’ अमित ने सुरभी के सिखाए शब्द दोहरा दिए. परंतु यह स्वयं उस के दिल की बात भी थी.

‘‘मेरे साथ इतना बड़ा धोखा क्यों किया, अमित?’’ अपलक अमित को देख रही मालती ने उन की बातों को अनसुना कर अपनी बात रखी.

इतने में कम्मो चाय और नाश्ता रख गई.

‘‘तुम्हें याद है वह दोपहरी जब मैं ने एक तसवीर के विषय में तुम से पूछा था और तुम ने उन्हें अपनी मां बताया था?’’ अमित ने मालती को पुरानी बातें याद दिलाईं.

मालती यों ही खामोश बैठी रहीं तो अमित ने आगे कहना शुरू किया, ‘‘उस तसवीर को मैं तुम सब से छिपा कर एक शक दूर करने के लिए अपने साथ दिल्ली ले गया था. मेरा शक सही निकला था. यह वृंदा यानी तुम्हारी मां वही औरत थी जो दिल्ली में अपने पार्टनर के साथ एक मशहूर ब्यूटीपार्लर और मसाज सेंटर चलाती थी. इस से पहले वह यहीं मुंबई में मौडलिंग करती थी. उस का नया नाम वैंडी था.’’

इस के बाद अमित ने अपनी चाय बनाई और मालती की भी.

उस ने आगे बोलना शुरू किया, ‘‘उस मसाज सेंटर की आड़ में ड्रग्स की बिक्री, वेश्यावृत्ति जैसे धंधे होते थे और समाज के उच्च तबके के लोग वहां के ग्राहक थे.’’

‘‘ओह, तो यह बात थी. पर इस में मेरी क्या गलती थी?’’ रोते हुए मालती ने पूछा.

‘‘जब मैं ने एम.बी.ए. में नयानया दाखिला लिया था तब मेरे दोस्तों में से कुछ लड़के भी वहां के ग्राहक थे. एक बार हम दोस्तों ने दक्षिण भारत घूमने का 7 दिन का कार्यक्रम बनाया और हम सभी इस बात से बहुत रोमांचित थे कि उस मसाज सेंटर से हम लोगों ने जो 2 टौप की काल गर्ल्स बुक कराई थीं उन में से एक वैंडी भी थी जिसे हाई प्रोफाइल ग्राहकों के बीच ‘पुरानी शराब’ कह कर बुलाया जाता था. उस की उम्र उस के व्यापार के आड़े नहीं आई थी,’’ अमित ने अपनी बात जारी रखी. उसे अब मालती के सवाल भी सुनाई नहीं दे रहे थे.

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चाय का कप मेज पर रखते हुए अमित ने फिर कहना शुरू किया, ‘‘मेरी परवरिश ने मेरे कदम जरूर बहका दिए थे मालती, पर मैं इतना भी नीचे नहीं गिरा था कि जिस स्त्री के साथ 7 दिन बिताए थे, उसी की मासूम और अनजान बेटी को पत्नी बना कर उस के साथ जिंदगी बिताता? मेरा विश्वास करो मालती, यह घटना तुम्हारे मिलने से पहले की है. मैं तुम से बहुत प्यार करता था. मुझे अपने परिवार की बदनामी का भी डर था, इसलिए तुम से बिना कुछ कहेसुने दूर हो गया,’’ कह कर अमित ने अपना सिर सोफे पर टिका दिया.

आज बरसों का बोझ उन के मन से हट गया था. मालती भी अब लेट गई थीं. वे अभी भी खामोश थीं.

थोड़ी देर बाद अमित चले गए. उन के जाने के बाद मालती बहुत देर तक रोती रहीं.

रात के खाने पर जब सुरभी ने अमित के बारे में पूछा तो उन्होंने उसे पुराना पारिवारिक मित्र बताया. लगभग 3 महीने बाद मालती चल बसीं. परंतु इतने समय उन के अंदर की खुशी को सभी ने महसूस किया था. उन के मृत चेहरे पर भी सुरभी ने गहरी संतुष्टि भरी मुसकान देखी थी.

मां की तेरहवीं वाले दिन अचानक सुरभी को उस डायरी की याद आई. उस में लिखा था : मुझे क्षमा कर देना अमित, तुम ने अपने साथसाथ मेरे परिवार की इज्जत भी रख ली थी. मैं पूर्ण रूप से तृप्त हूं. मेरी सारी प्यास बुझ गई.

पढ़ते ही सुरभी ने डायरी सीने से लगा ली. उस में उसे मां की गरमाहट महसूस हुई थी. आज उसे स्वयं पर गर्व था क्योंकि उस ने सही माने में मां के प्रति अपनी दोस्ती का फर्ज जो अदा किया था.

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रिश्तों की कसौटी : भाग 1- क्या था उस डायरी में

‘‘अंकल, मम्मी की तबीयत ज्यादा बिगड़ गई क्या?’’ मां के कमरे से डाक्टर को निकलते देख सुरभी ने पूछा.

‘‘पापा से जल्दी ही लौट आने को कहो. मालतीजी को इस समय तुम सभी का साथ चाहिए,’’ डा. आशुतोष ने सुरभी की बातों को अनसुना करते हुए कहा.

डा. आशुतोष के जाने के बाद सुरभी थकीहारी सी लौन में पड़ी कुरसी पर बैठ गई.

2 साल पहले ही पता चला था कि मां को कैंसर है. डाक्टर ने एक तरह से उन के जीने की अवधि तय कर दी थी. पापा ने भी उन की देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. मां को ले कर 3-4 बार अमेरिका भी हो आए थे और अब वहीं के डाक्टर के निर्देशानुसार मुंबई के जानेमाने कैंसर विशेषज्ञ डा. आशुतोष की देखरेख में उन का इलाज चल रहा था. अब तो मां ने कालेज जाना भी बंद कर दिया था.

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‘‘दीदी, चाय,’’ कम्मो की आवाज से सुरभी अपने खयालों से वापस लौटी.

‘‘मम्मी के कमरे में चाय ले चलो. मैं वहीं आ रही हूं,’’ उस ने जवाब दिया और फिर आंखें मूंद लीं.

सुरभी इस समय एक अजीब सी परेशानी में फंस कर गहरे दुख में घिरी हुई थी. वह अपने पति शिवम को जरमनी के लिए विदा कर अपने सासससुर की आज्ञा ले कर मां के पास कुछ दिनों के लिए रहने आई थी.

2 दिन पहले स्टोर रूम की सफाई करवाते समय मां की एक पुरानी डायरी सुरभी के हाथ लगी थी, जिस के पन्नों ने उसे मां के दर्द से परिचित कराया.

‘‘ऊपर आ जाओ, दीदी,’’ कम्मो की आवाज ने उसे ज्यादा सोचने का मौका नहीं दिया.

सुरभी ने मां के साथ चाय पी और हर बार की तरह उन के साथ ढेरों बातें कीं. इस बार सुरभी के अंदर की उथलपुथल को मालती नहीं जान पाई थीं.

सुरभी चाय पीतेपीते मां के चेहरे को ध्यान से देख रही थी. उस निश्छल हंसी के पीछे वह दुख, जिसे सुरभी ने हमेशा ही मां की बीमारी का हिस्सा समझा था, उस का राज तो उसे 2 दिन पहले ही पता चला था.

थोड़ी देर बाद नर्स ने आ कर मां को इंजेक्शन लगाया और आराम करने को कहा तो सुरभी भी नीचे अपने कमरे में आ गई.

रहरह कर सुरभी का मन उसे कोस रहा था. कितना गर्व था उसे अपने व मातापिता के रिश्तों पर, जहां कुछ भी गोपनीय न था. सुरभी के बचपन से ले कर आज तक उस की सभी परेशानियों का हल उस की मां ने ही किया था. चाहे वह परीक्षाओं में पेपर की तैयारी करने की हो या किसी लड़के की दोस्ती की, सभी विषयों पर मालती ने एक अच्छे मित्र की तरह उस का मार्गदर्शन किया और जीवन को अपनी तरह से जीने की पूरी आजादी दी. उस की मित्रमंडली को उन मांबेटी के इस मैत्रिक रिश्ते से ईर्ष्या होती थी.

अपनी बीमारी का पता चलते ही मालती को सुरभी की शादी की जल्दी पड़ गई. परंतु उन्हें इस बात के लिए ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी. परेश के व्यापारिक मित्र व जानेमाने उद्योगपति ईश्वरनाथ के बेटे शिवम का रिश्ता जब सुरभी के लिए आया तो मालती ने चट मंगनी पट ब्याह कर दिया. सुरभी ने शादी के बाद अपना जर्नलिज्म का कोर्स पूरा किया.

‘‘दीदी, मांजी खाने पर आप का इंतजार कर रही हैं,’’ कम्मो ने कमरे के अंदर झांकते हुए कहा.

खाना खाते समय भी सुरभी का मन मां से बारबार खुल कर बातें करने को कर रहा था, मगर वह चुप ही रही. मां को दवा दे कर सुरभी अपने कमरे में चली आई.

‘कितनी गलत थी मैं. कितना नाज था मुझे अपनी और मां की दोस्ती पर मगर दोस्ती तो हमेशा मां ने ही निभाई, मैं ने आज तक उन के लिए क्या किया? लेकिन इस में शायद थोड़ाबहुत कुसूर हमारी संस्कृति का भी है, जिस ने नवीनता की चादर ओढ़ते हुए समाज को इतनी आजादी तो दे दी थी कि मां चाहे तो अपने बच्चों की राजदार बन सकती है. मगर संतान हमेशा संतान ही रहेगी. उन्हें मातापिता के अतीत में झांकने का कोई हक नहीं है,’ आज सुरभी अपनेआप से ही सबकुछ कहसुन रही थी.

हमारी संस्कृति क्या किसी विवाहिता को यह इजाजत देती है कि वह अपनी पुरानी गोपनीय बातें या प्रेमप्रसंग की चर्चा अपने पति या बच्चों से करे. यदि ऐसा हुआ तो तुरंत ही उसे चरित्रहीन करार दे दिया जाएगा. हां, यह बात अलग है कि वह अपने पति के अतीत को जान कर भी चुप रह सकती है और बच्चों के बिगड़ते चालचलन को भी सब से छिपा कर रख सकती है. सुरभी का हृदय आज तर्क पर तर्क दे रहा था और उस का दिमाग खामोशी से सुन रहा था.

सुरभी सोचसोच कर जब बहुत परेशान हो गई तो उस ने कमरे की लाइट बंद कर दी.

मां की वह डायरी पढ़ कर सुरभी तड़प कर रह गई थी. यह सोच कर कि जिन्होंने अपनी सारी उम्र इस घर को, उस के जीवन को सजानेसंवारने में लगा दी, जो हमेशा एक अच्छी पत्नी, मां और उस से भी ऊपर एक मित्र बन कर उस के साथ रहीं, उस स्त्री के मन का एक कोना आज भी गहरे दुख और अपमान की आग में झुलस रहा था.

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उस डायरी से ही सुरभी को पता चला कि उस की मां यानी मालती की एम.एससी. करते ही सगाई हो गई थी. मालती के पिता ने एक उद्योगपति घराने में बेटी का रिश्ता पक्का किया था. लड़के का नाम अमित साहनी था. ऊंची कद- काठी, गोरा रंग, रोबदार व्यक्तित्व का मालिक था अमित. मालती पहली ही नजर में अमित को दिल दे बैठी थीं. शादी अगले साल होनी थी. इसलिए मालती ने पीएच.डी. करने की सोची तो अमित ने भी हामी भर दी.

अमित का परिवार दिल्ली में था. फिर भी वह हर सप्ताह मालती से मिलने आगरा चला आता. मगर ठहरता गेस्ट हाउस में ही था. उन की इन मुलाकातों में परिवार की रजामंदी भी शामिल थी, इसलिए उन का प्यार परवान चढ़ने लगा. पर मालती ने इस प्यार को एक सीमा रेखा में बांधे रखा, जिसे अमित ने भी कभी तोड़ने की कोशिश नहीं की.

मालती की परवरिश उन के पिता, बूआ व दादाजी ने की थी. उन की मां तो 2 साल की उम्र में ही उन्हें छोड़ कर मुंबई चली गई थीं. उस के बाद किसी ने मां की खोजखबर नहीं ली. मालती को भी मां के बारे में कुछ भी पूछने की इजाजत नहीं थी. बूआजी के प्यार ने उन्हें कभी मां की याद नहीं आने दी.

बड़ी होने पर मालती ने स्वयं से जीवनभर एक अच्छी और आदर्श पत्नी व मां बन कर रहने का वादा किया था, जिसे उन्होंने बखूबी पूरा किया था.

उन की शादी से पहले की दीवाली आई. मालती के ससुराल वालों की ओर से ढेरों उपहार खुद अमित ले कर आया था. अमित ने अपनी तरफ से मालती को रत्नजडि़त सोने की अंगूठी दी थी. कितना इतरा रही थीं मालती अपनेआप पर. बदले में पिताजी ने भी अमित को अपने स्नेह और शगुन से सिर से पांव तक तौल दिया.

दोपहर के खाने के बाद बूआजी के साथ घर के सामने वाले बगीचे में अमित और मालती बैठे गपशप कर रहे थे. इतने में उन के चौकीदार ने एक बड़ा सा पैकेट और रसीद ला कर बूआजी को थमा दी.

रसीद पर नजर पड़ते ही बूआ खीजती हुई बोलीं, ‘2 महीने पहले कुछ पुराने अलबम दिए थे, अब जा कर स्टूडियो वालों को इन्हें चमका कर भेजने की याद आई है,’ और पैसे लेने वे घर के अंदर चली गईं.

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‘लो अमित, तब तक हमारे घर की कुछ पुरानी यादों में तुम भी शामिल हो जाओ,’ कह कर मालती ने एक अलबम अमित की ओर बढ़ा दिया और एक खुद देखने लगीं.

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रिश्तों की कसौटी : क्या था उस डायरी में

रिश्तों की कसौटी : भाग 2- क्या था उस डायरी में

संयोग से मालती के बचपन की फोटो वाला अलबम अमित के हाथ लगा था, जिस में हर एक तसवीर को देख कर वह मालती को चिढ़ाचिढ़ा कर मजे ले रहा था. अचानक एक तसवीर पर जा कर उस की नजर ठहर गई.

‘यह कौन है, मालती, जिस की गोद में तुम बैठी हो?’ अमित जैसे कुछ याद करने की कोशिश कर रहा था.

‘यह मेरी मां हैं. तुम्हें तो पता ही है कि ये हमारे साथ नहीं रहतीं. पर तुम ऐसे क्यों पूछ रहे हो? क्या तुम इन्हें जानते हो?’ मालती ने उत्सुकता से पूछा.

‘नहीं, बस ऐसे ही पूछ लिया,’ अमित ने कहा.

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‘ये हम सब को छोड़ कर वर्षों पहले ही मुंबई चली गई थीं,’ यह स्वर बूआजी का था.

बात वहीं खत्म हो गई थी. शाम को अमित सब से विदा ले कर दिल्ली चला गया.

इतना पढ़ने के बाद सुरभी ने देखा कि डायरी के कई पन्ने खाली थे. जैसे उदास हों.

फिर अचानक एक दिन अमित साहनी के पिता का माफी भरा फोन आया कि यह शादी नहीं हो सकती. सभी को जैसे सांप सूंघ गया. किसी की समझ में कुछ नहीं आया. अमित 2 सप्ताह के लिए बिजनेस का बहाना कर जापान चला गया. इधरउधर की खूब बातें हुईं पर बात वहीं की वहीं रही. एक तरफ अमित के घर वाले जहां शर्मिंदा थे वहीं दूसरी तरफ मालती के घर वाले क्रोधित व अपमानित. लाख चाह कर भी मालती अमित से संपर्क न बना पाईं और न ही इस धोखे का कारण जान पाईं.

जगहंसाई ने पिता को तोड़ डाला. 5 महीने तक बिस्तर पर पड़े रहे, फिर चल बसे. मालती के लिए यह दूसरा बड़ा आघात था. उन की पढ़ाई बीच में छूट गई.

बूआजी ने फिर से मालती को अपने आंचल में समेट लिया. समय बीतता रहा. इस सदमे से उबरने में उसे 2 साल लग गए तो उन्होंने अपनी पीएच.डी. पूरी की. बूआजी ने उन्हें अपना वास्ता दे कर अमित साहनी जैसे ही मुंबई के जानेमाने उद्योगपति के बेटे परेश से उस का विवाह कर दिया.

अब मालती अपना अतीत अपने दिल के एक कोने में दबा कर वर्तमान में जीने लगीं. उन्होंने कालेज में पढ़ाना भी शुरू कर दिया. परेश ने उन्हें सबकुछ दिया. प्यार, सम्मान, धन और सुरभी.

सभी सुखों के साथ जीते हुए भी जबतब मालती अपनी उस पुरानी टीस को बूंदबूंद कर डायरी के पन्नों पर लिखती थीं. उन पन्नों में जहां अमित के लिए उस की नफरत साफ झलकती थी, वहीं परेश के लिए अपार स्नेह भी दिखता था. उन्हीं पन्नों में सुरभी ने अपना बचपन पढ़ा.

रात के 3 बजे अचानक सुरभी की आंखें खुल गईं. लेटेलेटे वे मां के बारे में सोच रही थीं. वे उन के उस दुख को बांटना चाहती थीं, पर हिचक रही थीं.

अचानक उस की नजर उस बड़ी सी पोस्टरनुमा तसवीर पर पड़ी जिस में वह अपने मम्मीपापा के साथ खड़ी थी. वह पलंग से उठ कर तसवीर के करीब आ गई. काफी देर तक मां का चेहरा यों ही निहारती रही. फिर थोड़ी देर बाद इत्मीनान से वह पलंग पर आ बैठी. उस ने एक फैसला कर लिया था.

सुबह 6 बजे ही उस ने पापा को फोन लगाया. सुन कर सुरभी आश्वस्त हो गई कि पापा के लौटने में सप्ताह भर बाकी है. वह पापा की गैरमौजूदगी में ही अपनी योजना को अंजाम देना चाहती थी.

उस दिन वह दिल्ली में रह रहे दूसरे पत्रकार मित्रों से फोन पर बातें करती रही. दोपहर तक उसे यह सूचना मिल गई कि अमित साहनी इस समय दिल्ली में अपने पुश्तैनी मकान में हैं.

शाम को मां को बताया कि दिल्ली में उस की एक पुरानी सहेली एक डाक्युमेंटरी फिल्म तैयार कर रही है और इस फिल्म निर्माण का अनुभव वह भी लेना चाहती है. मां ने हमेशा की तरह हामी भर दी. सुरभी नर्स और कम्मो को कुछ हिदायतें दे कर दिल्ली चली गई.

अब समस्या थी अमित साहनी जैसी बड़ी हस्ती से मुलाकात की. दोस्तों की मदद से उन तक पहुचंने का समय उस के पास नहीं था, इसलिए उस ने योजना के अनुसार अपने ससुर ईश्वरनाथ से अपनी ही एक दोस्त का नाम ले कर अमित साहनी से मुलाकात का समय फिक्स कराया. ईश्वरनाथ के लिए यह कोई बड़ी बात न थी.

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अगले दिन सुबह 10 बजे का वक्त सुरभी को दिया गया. आज ऐसे वक्त में पत्रकारिता का कोर्स उस के काम आ रहा था.

खैर, मां की नफरत से मिलने के लिए उस ने खुद को पूरी तरह से तैयार कर लिया.

अगले दिन पूरी जांचपड़ताल के बाद सुरभी ठीक 10 बजे अमित साहनी के सामने थी. वे इस उम्र में भी बहुत तंदुरुस्त और आकर्षक थे. पोतापोती व पत्नी भी उन के साथ थे.

परिवार सहित उन की कुछ तसवीरें लेने के बाद सुरभी ने उन से कुछ औपचारिक प्रश्न पूछे पर असल मुद्दे पर न आ सकी, क्योंकि उन की पत्नी भी कुछ दूरी पर बैठी थीं. सुरभी इस के लिए भी तैयार हो कर आई थी. उस ने अपनी आटोग्राफ बुक अमित साहनी की ओर बढ़ा दी.

अमित साहनी ने जैसे ही चश्मा लगा कर पेन पकड़ा, उन की नजर मालती की पुरानी तसवीर पर पड़ी. उस के नीचे लिखा था, ‘‘मैं मालतीजी की बेटी हूं और मेरा आप से मिलना बहुत जरूरी है.’’

पढ़ते ही अमित का हाथ रुक गया. उन्होंने प्यार भरी एक भरपूर नजर सुरभी पर डाली और बुक में कुछ लिख कर बुक सुरभी की ओर बढ़ा दी. फिर चश्मा उतार कर पत्नी से आंख बचा कर अपनी नम आंखों को पोंछा.

सुरभी ने पढ़ा, लिखा था : ‘जीती रहो, अपना नंबर दे जाओ.’

पढ़ते ही सुरभी ने पर्स में से अपना कार्ड उन्हें थमा दिया और चली गई.

फोन से उस का पता मालूम कर तड़के साढ़े 5 बजे ही अमित साहनी सिर पर मफलर डाले सुरभी के सामने थे.

‘‘सुबह की सैर का यही 1 घंटा है जब मैं नितांत अकेला रहता हूं,’’ उन्होंने अंदर आते हुए कहा.

सुरभी उन्हें इस तरह देख आश्चर्य में तो जरूर थी, पर जल्दी ही खुद को संभालते हुए बोली, ‘‘सर, समय बहुत कम है. इसलिए सीधी बात करना चाहती हूं.’’

‘‘मुझे भी तुम से यही कहना है,’’ अमित भी उसी लहजे में बोले.

तब तक वेटर चाय रख गया.

‘‘मेरी मम्मी आप की ही जबान से कुछ जानना चाहती हैं,’’ गंभीरता से सुरभी ने कहा.

सुन कर अमित साहनी की नजरें झुक गईं.

‘‘आप मेरे साथ कब चल रहे हैं मां से मिलने?’’ बिना कुछ सोचे सुरभी ने अगला प्रश्न किया.

‘‘अगर मैं तुम्हारे साथ चलने से मना कर दूं तो?’’ अमित साहनी ने सख्ती से पूछा.

‘‘मैं इस से ज्यादा आप से उम्मीद भी नहीं करती, मगर इनसानियत के नाते ही सही, अगर आप उन का जरा सा भी सम्मान करते हैं तो उन से जरूर मिलिएगा. वे अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर हैं,’’ कहतेकहते नफरत और दुख से सुरभी की आंखें भर आईं.

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‘‘क्या हुआ मालती को?’’ चाय का कप मेज पर रख कर चौंकते हुए अमित ने पूछा.

‘‘उन्हें कैंसर है और पता नहीं अब कितने दिन की हैं…’’ सुरभी भरे गले से बोल गई.

‘‘ओह, सौरी बेटा, तुम जाओ, मैं जल्दी ही मुंबई आऊंगा,’’ अमित साहनी धीरे से बोले और सुरभी से उस के घर का पता ले कर चले गए.

दोपहर को सुरभी मां के पास पहुंच गई.

‘‘कैसी रही तेरी फिल्म?’’ मां ने पूछा.

‘‘अभी पूरी नहीं हुई मम्मी, पर वहां अच्छा लगा,’’ कह कर सुरभी मां के गले लग गई.

‘‘दीदी, कल रात मांजी खुद उठ कर अपने स्टोर रूम में गई थीं. लग रहा था जैसे कुछ ढूंढ़ रही हों. काफी परेशान लग रही थीं,’’ कम्मो ने सीढि़यां उतरते हुए कहा.

थोड़ी देर बाद मां से आंख बचा कर उस ने उन की डायरी स्टोर रूम में ही रख दी.

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