अचानकशेखर को जल्दी घर आया देख मैं चौंक गई. साहब 8 बजे से पहले कभी पहुंचते नहीं हैं. औफिस से तो 6 बजे छुट्टी हो जाती है, पर घर पहुंचने में समय लग जाता है. मगर आज एक मित्र ने गाड़ी में लिफ्ट दे दी. अत: जल्दी आ गए. बड़ा हलकाफुलका महसूस कर रहे थे.
मैं जल्दी से 2 कप चाय ले कर अम्मांजी के कमरे में पहुंची. औफिस से आ कर शेखर की हाजिरी वहीं लगती है. पापा का ब्लडप्रैशर, रवि भैया का कालेज सभी की जानकारी लेने के बाद आखिर में मेरी खोजखबर ली जाती और वह भी रात के डिनर का मैन्यू पता करने के लिए. पापाजी भी शाम की सैर से आ गए थे. उन के लिए भी चाय ले कर गई. जल्दी में पोहे की प्लेट रसोई में ही रह गई. बस अम्मां झट से बोल उठीं, ‘‘बहू इन की पोहे की प्लेट कहां है?’’
मैं कुछ जवाब देती उस से पहले ही शेखर का भाषण शुरू हो गया, ‘‘मीनू, 2 महीने हो गए हमारे घर आए पर तुम अभी तक एक भी नियमकायदा नहीं सीख पाई हो. कल अम्मां का कमरा साफ नहीं हुआ था. उस से पहले रवि के कपड़े प्रैस करना भूल गई थी.’’
अम्मां ने जले पर नमक बुरकते हुए कहा, ‘‘पराए घर की लड़कियां हैं, ससुराल को अपना घर कहां समझती हैं.’’
मैं मन मसोस कर रह गई. कुछ कहने का मौका ही नहीं दिया. मैं सुबह से ले कर देर रात तक इस घर में सब की फरमाइशें पूरी करने के लिए चक्करघिन्नी की तरह घूमती हूं, फिर भी पराया घर, पराया खून बस यही उपाधियां मिलती हैं.
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मैं बोझिल कदमों से रसोई में आ कर रात के डिनर की तैयारी में जुट गई. खाना तैयार कर मैं दो घड़ी आराम करने के लिए अपने कमरे में जा रही थी तो अम्मांपापाजी को कमरे में अपने श्रवण कुमार बेटे शेखर से धीमे स्वर में बतियाते देखा तो कदम सुस्त हो गए.
ध्यान से सुनने पर पता चला शेखर 8 दिनों के लिए मुंबई टूअर पर जा रहे हैं. इसीलिए आज जल्दी घर आ गए थे. मन में टीस सी उठी कि जो खबर सब से पहले मुझे बतानी चाहिए थी, उसे अभी तक इस बात का पता ही नहीं.
अभी 2 महीने पहले ही आंखों में सपने लिए ससुराल आई थी, पर अपनापन कहीं दूरदूर तक दिखाई नहीं देता. सब ने एक बेगानेपन का नकाब सा ओढ़ रखा है. हां, रवि भैया को जब कोई काम होता है तो अपनापन दिखा कर करवा लेते हैं. शेखर के प्यार की बरसात तभी होती है जब रात को हमबिस्तर होते हैं.
मैं ने जल्दी से मसाले वाला गाउन बदल हाथमुंह धो कर साड़ी पहन ली. बाल खोल कर सुलझा रही थी कि शेखर सीटी बजाते हुए बड़े हलके मूड में कमरे में आ गए. मुझे तैयार होते देख मुसकराते हुए अपनी बांहों के घेरे में लेने लगे तो मैं ने पूछा, ‘‘आप ने जल्दी आने का कारण नहीं बताया?’’
शेखर बोले, ‘‘अरे, कुछ खास नहीं. 8 दिनों के लिए मुंबई टूअर पर जा रहा हूं.’’
मैं ने शरमाते हुए कहा, ‘‘मैं 8 दिन आप के बिना कैसे रहूंगी? मेरा मन नहीं लगेगा आप के बिना… मुझे भी साथ ले चलो न… वैसे भी शादी के बाद कहीं घूमने भी तो नहीं गए.’’
यह सुनते ही इन का सारा रोमांस काफूर हो गया. मुझे बांहों के बंधन से अलग करते हुए बोले, ‘‘मेरी गैरमौजूदगी में अम्मांपापा का खयाल रखने के बजाय घूमनेफिरने की बात कह रही हो… अम्मां सही कहती हैं कि बहुएं कभी अपनी नहीं होती… पराया खून पराया ही होता है.’’
यह सुन कर मैं ने चुप रहना ही ठीक समझा.
शेखर भी अनमने से प्यारमुहब्बत का ऐपिसोड अधूरा छोड़ डिनर के लिए अम्मांपापा को बुलाने चले गए. रवि भैया भी आ पहुंचे थे. मैं पापा की पसंद के भरवां करेले और सब की पसंद की अरहर की दाल व चावल परोस कर गरमगरम रोटियां सेंकने लगी.
सब डिनर कर कुरसियां खिसका कर उठ खड़े हुए. मुझे न तो किसी ने खाना खाने के लिए कहा न कोई मेरे लिए खाना परोसने खड़ा हुआ. मैं ने भी लाजशर्म छोड़ जल्दी से हाथ धो कर अपनी थाली लगा ली. बचा खाना मेरी प्रतीक्षा में था. भूख ज्यादा लगी थी, इसलिए खाना कुछ जल्दी खा लिया.
अम्मां के कमरे के बाहर लगे वाशबेसिन में हाथ धो रही थी कि अम्मांजी की व्यंग्यात्मक आवाज कानों में पड़ी, ‘‘शेखर के पापा, देखा आप ने नई बहू वाली तो कोई बात ही नहीं है मीनू में… मैं जब आई थी तो सासननद से पूछे बिना कौर नहीं तोड़ती थी. यहां तो मामला ही अलग है.’’
यह सुन कर मन वितृष्णा से भर उठा कि यह क्या जाहिलपन है. नई बहू यह नहीं करती, पराए घर की, पराया खून बस यही सुनसुन कर कान पक गए.
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अम्मां की बातों को दरकिनार कर मैं अपने कमरे में चली गई. वहां शेखर अपने कपड़े फैलाए बैठे थे. पास ही सूटकेस रखा था. समझ गई साहब जाने की तैयारी में लगे हैं. मैं बड़े प्यार से उन का हाथ पकड़ उन्हें उठाते हुए बोली, ‘‘हटिए, मैं आप का सूटकेस तैयार कर देती हूं…’’
‘‘अब आप को यह जहमत उठाने की जरूरत नहीं है,’’ शेखर ने हाथ झटकते हुए कहा, ‘‘अरे यार, कनफ्यूज न करो. तुम्हें मेरी पसंदनापसंद का कुछ पता भी है.’’
मैं चुप लगा कर बाहर बालकनी में आ कर खड़ी सड़क की रौनक देखने लगी. मन बहुत खिन्न था. पहली बार विवाह के बाद बाहर जा रहे हैं… अकेली कैसे रहूंगी… होने को भरापूरा घर है… ऐसा कोई कष्ट भी नहीं है, परंतु ससुराल में जो सब की अलगाव की भावना मुझे अंदर ही अंदर सालती थी.
मैं पेड़ से टूटी डाली की तरह एक ओर पड़ी थी. कुछ दिन पहले की ही बात है. इन की बहन नीलम जीजी आई थीं. मेरी हमउम्र भी थीं. मैं मन ही मन बहुत उत्साहित थी कि नीलम जीजी से खुल कर बातें करूंगी. इतने दिनों से लाज, संकोच ही पीछा नहीं छोड़ता था कि कहीं कुछ गलत न बोल जाऊं. नईनवेली थी. जबान खुलती ही न थी. मैं अल्पभाषी थी. मगर अब सोच लिया था कि नीलम जीजी को अपनी दहेज में मिली साडि़यों और उपहारों को दिखाऊंगी. वे कुछ लेना चाहेंगी तो उन्हें दे दूंगी. उन का उन की ससुराल में मान बढ़ेगा.
मैं ने बड़े चाव से रवि भैया से उन की खानेपीने की पसंद पूछ कर उन की पसंद का मटरपनीर, भरवां भिंडी, मेवे वाली खीर बना दी. मैं हलका सा मेकअप कर तैयार हो नीलम जीजी का बेकरारी से इंतजार करने लगी.
नीलम जीजी नन्हे राहुल को ले कर अकेली ही आई थीं. उन्हें देख कर मैं बहुत उत्साह से आगे बढ़ी और उन्हें गले लगा लिया. मुझे लगा जैसे मेरी कोई बचपन की सहेली हैं पर नीलम जीजी तुरंत मुझे स्वयं से अलग करते हुए एक औपचारिक सी मुसकान दे कर अम्मांअम्मां करते हुए कमरे में चली गईं.
मुझे ठेस सी लगी पर मैं सब कुछ भूल कर ननद की सेवा में जुट गई. मांबेटी को एकांत देने के लिए मैं रसोई में ही बनी रही.
छुट्टी का दिन था. सब घर में ही थे. अम्मां के घुटनों का दर्द बहुत बढ़ा हुआ था, इसलिए उन्होंने मुझे आदेश दिया, ‘‘बहू खाना मेरे कमरे में ही लगा दो.’’
एक अतिरिक्त टेबल रख कर मैं खाना रखने की व्यवस्था कर किचन में चली गई. किचन में जा कर मैं ने जल्दीजल्दी चपातियां बनाईं. अम्मां के कमरे में खुशनुमा महफिल जमी थी. ठहाकों की आवाजें आ रही थीं. मैं जैसे ही खाना ले कर कमरे में पहुंची सब चुप हो गए मानो कमरे में कोई अजनबी आ गया हो. हंसने वाले चुप हो गए, बोलने वालों ने बातों का रूख बदल दिया. खाना टेबल पर लगा कर मैं जल्दीजल्दी चपातियां देने लगी.
खाना खाने के बाद नीलम जीजी और रवि बरतन समेट कर रसोई में रखने आ गए. किचन से निकलते समय वे बिना मेरी ओर देखे बोले, ‘‘आप भी हमारे साथ खा लेतीं भाभी.’’
मैं कोई जवाब देती उस से पहले ही रवि व जीजी किचन से जा चुके थे. एक बार फिर महफिल जम गई. मैं शांता बाई के साथ मिल कर रसोई संभालने लगी. बड़ा मन कर रहा था कि मैं भी उन के साथ बैठूं, घर के और सदस्यों की तरह हंसीमजाक करूं, पर न मुझे किसी ने बुलाया और न ही मेरी हिम्मत हुई. शाम की चाय के बाद नीलम जीजी जाने को तैयार हो गईर्ं. रवि औटो ले आया. शेखर और पापाजी आंगन में खड़े जीजी से बतिया रहे थे. मैं भी वहीं पास जा कर खड़ी हो गई. औटो आते ही मैं लपक कर आगे बढ़ी पर जीजी सिर पर पल्ला लेते हुए ‘‘भाभी बाय’’ कह कर औटो में जा बैठीं. देखतेदेखते औटो चला गया. मैं ठगी सी वहीं खड़ी रही. अलगाव की पीड़ा ने मुझे बहुत उदास कर दिया था.
रवि की आवाज मुझे एक बार फिर वर्तमान में खींच लाई. रवि ने बताया कि आप के मायके से पापा का फोन आया है. मैं ने रवि से मोबाइल ले कर पापा से कुशलमंगल पूछा तो उन्होंने बताया कि 31 मार्च को उन का रिटायरमैंट का आयोजन है. मुझे सपरिवार आमंत्रित किया.
तब पापाजी (मेरे ससुरजी) ने, मेरे पापा से न आ पाने के लिए क्षमायाचना करते हुए मुझे भेजने की बात कही. तय हुआ कि रवि मुझे बस में बैठा देगा. वहां सहारनपुर बसअड्डा से राजू मुझे ले लेगा.
सहारनपुर अपने मायके जाने की बात सुन कर मुझे तो जैसे खुशियों के पंख लग गए. पगफेरे के बाद मैं पहली बार वहां अकेली रहने जा रही थी. मैं भी अपना सूटकेस तैयार करने के लिए उतावली हुई जा रही थी.