बरसों की साध: भाग 2

‘‘तो फिर आप मेरी मम्मी को समझा दीजिएगा.’’ आंसू पोंछते हुए सुधा ने कहा.

‘‘ऐसी बात है तो अब हम चलेंगे. जब कभी हमारी जरूरत पड़े, आप हमें याद कर लीजिएगा. हम हाजिर हो जाएंगे.’’ कह कर प्रशांत उठने लगे तो सुधा की सास ने कहा, ‘‘हम आप को भूले ही कब थे, जो याद करेंगे. कितने दिनों बाद तो आप मिले हैं. अब ऐसे ही कैसे चले जाएंगे. मैं तो कब से आप की राह देख रही थी कि आप मिले तो सामने बैठा कर खिलाऊं. लेकिन मौका ही नहीं मिला. आज मौका मिला है. तो उसे कैसे हाथ से जाने दूंगी.’’

‘‘आप कह क्या रही हैं. मेरी समझ में नहीं आ रहा है?’’ हैरानी से प्रशांत ने कहा.

‘‘भई, आप साहब बन गए, आंखों पर चश्मा लग गया. लेकिन चश्मे के पार चेहरा नहीं पढ़ पाए. जरा गौर से मेरी ओर देखो, कुछ पहचान में आ रहा है?’’

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प्रशांत के असमंजस को परख कर सुधा की सास ने हंसते हुए कहा, ‘‘आप तो ज्ञानू बनना चाहते थे. मुझ से अपने बडे़ होने तक राह देखने को भी कहा था. लेकिन ऐसा भुलाया कि कभी याद ही नहीं आई.’’

अचानक प्रशांत की आंखों के सामने 35-36 साल पहले की रूपमती भाभी का चेहरा नाचने लगा. उस के मुंह से एकदम से निकला, ‘‘भाभी आप…?’’

‘‘आखिर पहचान ही लिया अपनी भाभी को.’’

गहरे विस्मय से प्रशांत अपनी रूपमती भाभी को ताकता रहा. सुधा का रक्षाकवच बनने की उन की हिम्मत अब प्रशांत की समझ में आ गई थी. उन का मन उस नारी का चरणरज लेने को हुआ. उन की आंखें भर आईं.

रूपमती यानी सुधा की सास ने कहा, ‘‘देवरजी, तुम कितने दिनों बाद मिले. तुम्हारा नाम तो सुनती रही, पर वह तुम्हीं हो, यह विश्वास नहीं कर पाई आज आंखों से देखा, तो विश्वास हुआ. प्यासी, आतुर नजरों से तुम्हारी राह देखती रही. तुम्हारे छोड़ कर जाने के बरसों बाद यह घर मिला. जीवन में शायद पति का सुख नहीं लिखा था. इसलिए 2 बेटे पैदा होने के बाद आठवें साल वह हमें छोड़ कर चले गए.

‘‘बेटों को पालपोस कर बड़ा किया. शादीब्याह किया. इस घर को घर बनाया, लेकिन छोटा बेटा कुपुत्र निकला. शायद उसे पालते समय संस्कार देने में कमी रह गई. भगवान से यही विनती है कि मेरे ऊपर जो बीती, वह किसी और पर न बीते. इसीलिए सुधा को ले कर परेशान हूं.’’

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प्रशांत अपलक उम्र के ढलान पर पहुंच चुकी रूपमती को ताकता रहा. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या कहे. रूपमती भाभी के अतीत की पूरी कहानी उस की आंखों के सामने नाचने लगी.

बचपन में प्रशांत की बड़ी लालसा थी कि उस की भी एक भाभी होती तो कितना अच्छा होता. लेकिन उस का ऐसा दुर्भाग्य था कि उस का अपना कोई सगा बड़ा भाई नहीं था. गांव और परिवार में तमाम भाभियां थीं, लेकिन वे सिर्फ कहने भर को थीं.

संयोग से दिल्ली में रहने वाले प्रशांत के ताऊ यानी बड़े पिताजी के बेटे ईश्वर प्रसाद की पत्नी को विदा कराने का संदेश आया. ताऊजी ही नहीं, ताईजी की भी मौत हो चुकी थी. इसलिए अब वह जिम्मेदारी प्रशांत के पिताजी की थी. मांबाप की मौत के बाद ईश्वर ने घर वालों से रिश्ता लगभग तोड़ सा लिया था. फिर भी प्रशांत के पिता को अपना फर्ज तो अदा करना ही था.

ईश्वर प्रसाद प्रशांत के ताऊ का एकलौता बेटा था. उस की शादी ताऊजी ने गांव में तब कर दी थी. जब वह दसवीं में पढ़ता था. तब गांव में बच्चों की शादी लगभग इसी उम्र में हो जाती थी. उस की शादी उस के पिता ने अपने ननिहाली गांव में तभी तय कर दी थी, जब वह गर्भ में था.

देवनाथ के ताऊजी को अपनी नानी से बड़ा लगाव था, इसीलिए मौका मिलते ही वह नानी के यहां भाग जाते थे. ऐसे में ही उन की दोस्ती वहां ईश्वर के ससुर से हो गई थी.

अपनी इसी दोस्ती को बनाए रखने के लिए उन्होंने ईश्वर के ससुर से कहा था कि अगर उन्हें बेटा होता है तो वह उस की शादी उन के यहां पैदा होने वाली बेटी से कर लेंगे.

उन्होंने जब यह बात कही थी, उस समय दोनों लोगों की पत्नियां गर्भवती थीं. संयोग से ताऊजी के यहां ईश्वर पैदा हुआ तो दोस्त के यहां बेटी, जिस का नाम उन्होंने रूपमती रखा था.

प्रशांत के ताऊ ने वचन दे रखा था, इसलिए ईश्वर के लाख मना करने पर उन्होंने उस का विवाह रूपमती से उस समय कर दिया, जब वह 10वीं में पढ़ रहा था. उस समय ईश्वर की उम्र कम थी और उस की पत्नी भी छोटी थी. इसलिए विदाई नहीं हुई थी. ईश्वर की शादी हुए सप्ताह भी नहीं बीता था कि उस के ससुर चल बसे थे. इस के बाद जब भी विदाई की बात चलती, ईश्वर पढ़ाई की बात कर के मना कर देता. वह पढ़ने में काफी तेज था. उस का संघ लोक सेवा आयोग द्वारा प्रशासनिक नौकरी में चयन हो गया और वह डिप्टी कलेक्टर बन गया. ईश्वर ट्रेनिंग कर रहा था तभी उस के पिता का देहांत हो गया था.

संयोग देखो, उन्हें मरे महीना भी नहीं बीता था कि ईश्वर की मां भी चल बसीं. मांबाप के गुजर जाने के बाद एक बहन बची थी, उस की शादी हो चुकी थी. इसलिए अब उस की सारी जिम्मेदारी प्रशांत के पिता पर आ गई थी.

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लेकिन मांबाप की मौत के बाद ईश्वर ने घरपरिवार से नाता लगभग खत्म सा कर लिया था. आनेजाने की कौन कहे, कभी कोई चिट्ठीपत्री भी नहीं आती थी. उन दिनों शहरों में भी कम ही लोगों के यहां फोन होते थे. अपना फर्ज निभाने के लिए प्रशांत के पिता ने विदाई की तारीख तय कर के बहन से ईश्वर को संदेश भिजवा दिया था.

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इस प्यार को हो जाने दो: कैसा था अफजल और पूनम का इम्तिहान

लेखिका- रोचिका शर्मा

कालेज के वार्षिक उत्सव की तैयारियां जोरशोर से चल रही थीं. सभी छात्रछात्राएं अपनीअपनी खूबियों के अनुसार कार्यक्रम में भाग ले रहे थे. अफजल को गजलें लिखने का शौक था. उस की गजल का हर शब्द काबिलेतारीफ होता. पूरा कालेज दीवाना था उस की गजलों का. पूनम को गीतसंगीत बहुत पसंद था. बहुत मीठी आवाज थी उस की. पूरा कालेज उसे ‘स्वर कोकिला’ के नाम से जानता था. दोनों हर कार्यक्रम में एकसाथ ही भाग लेते. और न जाने कब दोनों एकदूसरे को चाहने लगे.

वेलैंटाइन डे पास आ रहा था. कालेज व बाजार में उस का माहौल अपना असर दिखा रहा था. कालेज के कई लड़केलड़कियां कार्ड खरीद कर लाए थे और अफजल से कुछ पंक्तियां लिख कर देने को कह रहे थे ताकि वे कार्ड में लिख अपने प्यार का इजहार कर सकें.

वहीं, कुछ लोगों ने वेलैंटाइन डे पर लाल गुलाब का गुलदस्ता बनवाया था. अफजल आज एक लाल गुलाब ले कर पूनम के पास जा पहुंचा और बोला, ‘‘मैं तुम से प्यार करता हूं, पूनम. क्या तुम स्वीकारोगी मेरा प्यार?’’ यह कह वह अपने प्यार का इजहार कर बैठा. पूनम अफजल को मन ही मन चाहने लगी थी. सो, उस ने फूल हाथ में ले, शरमाते हुए, झुकी पलकों संग उस के प्यार को स्वीकार कर लिया था.

दोनों का प्यार बादलों के संग उड़ते हुए आजाद परिंदों की तरह परवाज करने लगा था. कालेज के बाद दोनों छिपछिप कर मिलने लगे थे. लेकिन इश्क और मुश्क भला छिपाए छिपे हैं किसी से? कालेज के सभी लोग उन्हें ‘हंसों का जोड़ा’ के नाम से पुकारते. इसी तरह मिलते और प्यार में डूबे 4 वर्ष बीत गए.

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कालेज खत्म कर दोनों अपनीअपनी नौकरियों में लग गए. पूनम अपनी पूरी तनख्वाह अपनी मां के हाथ में रखती, हां, कुछ रुपए हर तनख्वाह में से अपने भाइयों के लिए उपहार के लिए रख लेती.

अब पूनम के घर में उस के विवाह के लिए चर्चा होने लगी थी और वह बहुत चिंतित हो गई थी. आज पूनम जब अफजल से मिली, कहने लगी, ‘‘अफजल, मेरे मातापिता मेरी शादी की बात कर रहे हैं और मुझे नहीं लगता कि वे हमारे प्यार को स्वीकारेंगे.’’

अफजल ने जवाब में कहा, ‘‘पूनम, तुम घबराओ नहीं. तुम अपनी मां को बताओ तो सही या मैं तुम्हारे पिताजी से बात करूं?’’

पूनम कहने लगी, ‘‘अफजल, देखती हूं, आज मैं ही मां को बता देती हूं.’’

जैसे ही मां ने सुना, वे तो बिफर पड़ी और आव देखा न ताव, जा बताया पिताजी को. जैसे ही पूनम के पिताजी ने उस के मुंह से अफजल का नाम सुना, तो वे आगबबूला हो उठे. मां तो कोसने लगी,  ‘‘कहा था लड़की को इतनी छूट मत दो. अब पोत रही है न हमारे मुंह पर कालिख. क्या फायदा इस को पढ़ानेलिखाने का. रातदिन इस की चिंता लगी रही. कभी देर से घर आती तो कलेजा मुंह को आ जाता. किंतु यह दिन दिखाएगी, ऐसा तो सोचा भी न था. मैं सोचती थी पढ़लिख जाए तो अच्छे घर में रिश्ता हो जाएगा. अपने पैरों पर खड़ी होगी तो किसी की मुहताज न होगी. पर हमें तो इस ने कहीं का न छोड़ा, अब क्या मुंह दिखाएंगे हम समाज में.’’

पिताजी बोले, ‘‘अगर प्रेम ही करना था तो कोई हिंदू लड़का नहीं मिला था. इन मुसलमानों में ही तुझे ज्यादा प्यार नजर आया? उन के घर में बुर्का पहन कर रहेगी? मांसमछली खाएगी? अपने धर्म की गीता छोड़ 5 वक्त नमाज पढ़ेगी? अरे, समझती क्यों नहीं, नाम भी बदल देंगे तेरा, जो कि तेरी अपनी पहचान है, कहीं की न रहेगी तू?’’

पूनम ने कितनी बार समझाने की कोशिश की थी अपनी मां को. वह कहती, ‘‘मां, अफजल एक नेक इंसान है, 4 साल साथ में गुजारे हैं हम ने और फिर हम एकदूसरे को अच्छे से समझते भी हैं. ऐसे में तुम क्यों खिलाफ हो उस के? उस की जगह किसी हिंदू लड़के से शादी कर लूं और हमारे विचार ही आपस में न मेल खाएं तो उस शादी का क्या फायदा मां? शादी तो 2 इंसानों का मिलन होता है, उस में धर्म की दीवार क्यों मां? क्या तुम पिताजी के साथ खुश हो मां?’’ जैसेतैसे अपनी जिंदगी की गाड़ी घसीट ही तो रहे हैं आप लोग.’’

इतना सुन मां ने उस के गाल पर एक जोरदार तमाचा जड़ दिया, ‘‘बेशर्म, जबान लड़ाती है, इतनी अंधी हो गई है उस मुसलमान के प्यार में?’’

उस के घर में तो धर्म का बोलबाला था, कोई उस की बात समझना तो दूर की बात, सुनने के लिए भी तैयार न था. इसी कारण उन दोनों ने कोर्टमैरिज करने का फैसला किया. और कोई चारा भी न था.

शादी के बाद जब वे दोनों पूनम के घर आशीर्वाद लेने आए, उस के पिता कहने लगे, ‘‘हमारी छूट व प्यार का गलत फायदा उठाया है तुम ने. जरा सोचो, तुम्हारे छोटे भाइयों का क्या होगा आगे? कुछ तो लिहाज किया होता. बिरादरी में हमारी नाक क्यों कटवा दी? तुझे पैदा होते ही क्यों न मार डाला हम ने? जाओ, अब जहां रिश्ता जोड़ा है वहीं जा कर रहो. अब तो वे तुम्हारा धर्म भी परिवर्तन कर देंगे. अल्लाहअल्लाह करना रातदिन.’’

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पूनम चुपचाप सब सुन रही थी. बीचबीच में कुछ बोलने की कोशिश करती, किंतु पिताजी के गुस्से के सामने चुप हो जाती. थोड़ी सी आस अपने दोनों भाइयों से थी. किंतु जैसे ही उस ने उन से नजरें मिलाने की कोशिश की, एक ने तो मुंह फेर लिया और दूसरे ने उस का हाथ पकड़ दरवाजे का रास्ता दिखा दिया और कहा, ‘‘जाओ दीदी, अब इस घर के दरवाजे तुम्हारे लिए सदा के लिए बंद हैं.’’

अफजल दरवाजे के बाहर ही खड़ा सुन रहा था. वह चाहता था कि पूनम के पिताजी से बात करे, किंतु पूनम ने उसे रोक दिया था और वह अफजल से बोली, ‘‘चलो अफजल, घर चलते हैं, पिताजी नहीं मानने वाले.’’

उस के जातेजाते पिताजी ने कह दिया था, ‘‘यदि वे तुम्हें इस्तेमाल कर तलाक दे कर निकाल दें तो लौट कर न आना वापस.’’ अफजल को भी बहुत बुरा लग रहा था कि पूनम उस से प्यार व निकाह क्या कर बैठी, आशीर्वाद मिलना तो दूर, उस के लिए उस के मातापिता के घर के दरवाजे भी हमेशा के लिए बंद हो गए थे. सो, दोनों अफजल के घर आ पहुंचे.

अफजल की मां ने नई बहू के स्वागत की पूरी तैयारियां कर रखी थीं. अफजल के रिश्तेदार इस विवाह के खिलाफ थे. आखिर हिंदू व मुसलिम एकदूसरे के कट्टर दुश्मन जो बने बैठे हैं. सो, उस की मां अकेली ही स्वागत कर रही थी अपनी बहू का. अफजल की मां ने उसे बेटी सा प्यार दिया. वे कहने लगीं, ‘‘बेटी, तुम मेरे अफजल के लिए अपना सबकुछ छोड़ कर आई हो. अब मैं ही तुम्हारी मांबाप, भाई हूं. इस घर में कोई परेशानी हो तो जरूर कहना.’’

अफजल की मां की बातें पूनम को बहुत सुकून दे रही थीं. कहां तो एक तरफ उस के अपने घर वाले उसे कोस रहे थे और जब से उस की व अफजल की बात उन्हें मालूम हुई, एक दिन भी वह चैन की नींद न सो पाई थी और न ही एक भी निवाला सुकून से खाया था. ऐसा मालूम होता था जैसे बरसों से भूखी हो व थकी हो.

2 दिनों बाद दोनों हनीमून के लिए मसूरी घूमने को गए. वहां की वादियों में दोनों रम जाना चाहते थे. लेकिन वहां भी पूनम को अपने मातापिता की बातें याद आती रहतीं. खैर, 15 दिन पूरे हुए, हनीमून खत्म हुआ. अब अफजल व पूनम दोनों को दफ्तर जाना था. अफजल की मां पूनम को सगी बेटी सा प्यार दे रही थीं. एक ही वर्ष में उस ने चांद सी बेटी को जन्म दिया.

पूनम को लगा शायद उस के मातापिता अपनी नातिन को देख कर खुश हो जाएंगे. सो, एक दिन उस ने अपनी मां को फोन मिलाया. पिताजी ने फोन उठाया और उस की आवाज सुन मां को फोन थमा दिया. मां ने तो उस की बात सुने बिना ही कह दिया, ‘‘पूनम, तुम हमारे लिए सदा के लिए मर चुकी हो.’’

उन की बात सुन कर पूनम खूब रोई. उस दिन पूनम ने मन ही मन अपने मातापिता से सदा के लिए रिश्ता तोड़ लिया था.

पूनम अपनी सास के साथ पूरी तरह हिलमिल गई थी. कभीकभी छुट्टी के दिन वह अपनी सास के बुटीक में भी जा कर उन का हाथ बंटाती.

पूनम की सास ने किसी भी मसजिदमजार में जाना बंद कर दिया और पूनम मंदिरों में नहीं जाती. वे नया साल, अपनी विवाह की वर्षगांठ, बच्चों के जन्मदिन जम कर मनाते.

ईद के दिन रिश्तेदारों के यहां खाना खाते और दीवालीहोली पर सब को घर पर खाने पर बुलाते. जो मुसलिम रिश्तेदार पहले नाराज थे, धीरेधीरे घुलमिल गए.

ऐसा चलते पूरे 7 वर्ष बीत गए. अब सास का शरीर भी जवाब देने लगा था. सो, बुटीक कम ही संभालती थीं. लेकिन पूनम उन का पूरा सहारा बन गई थी बुटीक को चलाने में. बारबार सास कहतीं, ‘‘अब शरीर तो साथ देता नहीं, लगता है बुटीक बंद ही करना पड़ेगा और वे बहुत दुखी हो जातीं.’’

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पूनम उन के दुख को समझती थी. काम के चलते अफजल एक वर्ष के लिए अमेरिका चले गए. तभी अचानक एक दिन पूनम के भाई का फोन आया. पूनम बहुत खुश हो गई और कहने लगी, ‘‘मां कैसी है?’’ उस के भाई ने उस से बहुत प्यार से बात की. पूनम का मीठा रुख देख अगले दिन मां का भी फोन आया. पूनम तो मानो चहक उठी और पूछने लगी, ‘‘कैसी हो मां तुम सब, पिताजी कैसे हैं?’’

मां कहने लगी, ‘‘बेटी पूनम, तुम्हारे पिता तो बूढ़े हो चले हैं, भाई पढ़ाईलिखाई में तो कुछ खास अच्छे निकले नहीं. सो, तुम्हारे पिताजी ने उन्हें एक दुकान खुलवा दी. किंतु दोनों के दोनों एक फूटी कौड़ी घर में नहीं देते हैं, बल्कि कर्जा और हो गया. जिस बैंक से लोन ले कर कारोबार शुरू किया वह भी अब चुका नहीं पा रहे हैं. यदि तुम कुछ रुपयों का इंतजाम कर सको…’’

उसे ठीक तरह बात करते देख मां ने भाइयों के लोन चुकाने के लिए पूनम से रुपए मांग ही लिए.

अब पूनम सब समझ गई थी कि आज भी उन्होंने पूनम से सिर्फ उन की अपनी जरूरत पूरी करवाने के लिए ही फोन किया था. एक वह दिन था जब वह अफजल से निकाह करना चाहती थी, तो उस के परिवार वालों ने उस से रिश्ता तोड़ लिया था. तब तो उन्हें बेटी से ज्यादा धर्म प्यारा हुआ करता था. और आज, जब पैसों की जरूरत आन पड़ी तो अब वह अपनी हो गई. वरना क्या जैसे अफजल की मां ने हिम्मत कर अकेली हो कर भी गैरधर्म की लड़की को अपना लिया, क्या उस के अपने मांबाप, भाई साथ नहीं दे सकते थे उस का? और उस के निकम्मे भाइयों के लिए मां उस से वापस रिश्ता जोड़ने के लिए राजी हो गई. फिर भी उस ने अपनी मां को मीठा जवाब दे दिया ‘‘हां मां, देखती हूं.’’

और कुछ ही दिनों में जब उस की अपनी सास बीमार हुई और औपरेशन करवाना पड़ा तो पूनम ने अपने बैंक अकाउंट में से पैसे निकलवा कर अपनी सास का दिल का औपरेशन करवाया और उस की सेवा में लग गई. उस के बाद उस ने अपनी नौकरी छोड़ सास का बुटीक भी पूरी तरह से संभाल लिया. सास और बहू अब मांबेटी बन गई थीं. पूनम मन ही मन सोचती रहती, ऐसा धर्म किस काम का जिस की दीवार इतनी बड़ी होती है कि उस के सामने खून के रिश्ते भी बौने हो जाते हैं? और अपने धर्म को निभाने के लिए खून से जुड़े रिश्तों ने उसे छोड़ दिया था. उस ने तो धर्म की वह दीवार ढहा दी थी और वह गुनगुना रही थी –

धर्म, जाति, ऊंचनीच की दीवारों को ढह जाने दो.

इस प्यार को हो जाने दो, इस प्यार को हो जाने दो…

संतुलन: रोहित का अपने माता पिता के साथ झगड़ा क्यों बढ़ गया

झगड़ाशुरू कराने वाली बात बड़ी नहीं थी, पर बहसबाजी लंबी खिंच जाने से रोहित और उस के पिता के बीच की तकरार एकाएक विस्फोटक बिंदु पर पहुंच गई.

‘‘जोरू के गुलाम, तुझे अपनी मां और मेरी जरा भी फिक्र नहीं रही है. अब मुझे भी नहीं रखना है तुझे इस घर में,’’ ससुरजी की इस बात ने आग में घी का काम करते हुए रोहित के गुस्से को इतना बढ़ा दिया कि वे उसी समय अपने जानकार प्रौपर्टी डीलर से मिलने चले गए. मैं बहुत सुंदर हूं और रोहित मेरे ऊपर पूरी तरह लट्टू हैं. मेरी ससुराल वालों के अलावा उन के दोस्त और मेरे मायके वाले भी मानते हैं कि मैं उन्हें अपनी उंगलियों पर बड़ी आसानी से नचा सकती हूं. मेरे सासससुर ने अपनी छोटी बहू यानी मुझे कभी पसंद नहीं किया. वे दोनों हर किसी के सामने यह रोना रोते कि मैं ने उन के बेटे को अपने रूपजाल में फंसा कर मातापिता से दूर कर दिया है. वैसे मुझे पता था कि रोहित की घर से अलग हो जाने की धमकी से घबरा कर मेरी सास बिगड़ी बात संभालने के लिए जल्दी मुझे से मिलने मेरे कमरे  में आएंगी. गुस्से में घर से अलग कर देने की बात मुंह से निकालना अलग बात है, पर मेरे सासससुर जानते हैं कि हम दोनों के अलावा उन की देखभाल करने वाला और कोई नहीं है. ऊपरी मंजिल पर रह रहे बड़े भैया और भाभी मुझ से तो क्या, घर में किसी से भी ढंग से नहीं बोलते हैं.

मैं बहुत साधारण परिवार में पलीबढ़ी थी. इस में कोई शक नहीं कि अगर मैं बेहद सुंदर न होती, तो मुझ से शादी करने का विचार अमीर घर के बेटे रोहित के मन में कभी पैदा न होता. मेरे मातापिता ने बचपन से ही मेरे दिलोदिमाग में यह बात भर दी थी कि हर तरह की खुशियां और सुख पाना उन की परी सी खूबसूरत बेटी का पैदाइशी हक है. अपनी सुंदरता के बल पर मैं दुनिया पर राज करूंगी, किशोरावस्था में ही इस इच्छा ने मेरे मन के अंदर गहरी जड़ें जमा ली थीं. रोहित से मेरी पहली मुलाकात अपनी एक सहेली के भाई की शादी में हुई थी.वे जिस कार से उतरे उस का रंग और डिजाइन मुझे बहुत पसंद आया था. सहेली से जानकारी मिली कि वे अच्छी जौब कर रहे हैं. इस से उन से दोस्ती करने में मेरी दिलचस्पी बढ़ गई थी. उन की आंखों में झांकते हुए मैं 2-3 बार बड़ी अदा से मुसकराई, तो वे फौरन मुझ में दिलचस्पी लेने लगे. मौका ढूंढ़ कर मुझ से बातें करने लगते, तो मैं 2-4 वाक्य बोल कर कहीं और चली जाती. मेरे शर्मीले स्वभाव ने उन्हें मेरे साथ दोस्ती बढ़ाने के लिए और ज्यादा उतावला कर दिया. उस रात विदा लेने से पहले उन्होंने मेरा फोन नंबर ले लिया. अगले दिन से ही हमारे बीच फोन पर बातें होने लगीं. सप्ताह भर बाद हम औफिस खत्म होने के बाद बाहर मिलने लगे.

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हमारी चौथी मुलाकात एक बड़े पार्क में हुई. वहां एक सुनसान जगह का फायदा उठाते हुए उन्होंने अचानक मेरे होंठों से अपने होंठ जोड़ कर मुझे चूम लिया. अपनी भावनाओं पर नियंत्रण न रख पाने के कारण मैं बहुत जोर से उन से लिपट गई. बाद में उन की बांहों के घेरे से बाहर आ कर जब मैं सुबकने लगी, तो उन की उलझन और बेचैनी बहुत ज्यादा बढ़ गई. बहुत पूछने पर भी न मैं ने उन्हें अपने आंसू बहाने का कारण बताया और न ही ज्यादा देर उन के साथ रुकी. पूरे 3 दिनों तक मैं ने उन से फोन पर बात नहीं की तो चौथे दिन शाम को वे मुझे मेरे औफिस के गेट के पास मेरा इंतजार करते नजर आए. उन के कुछ बोलने से पहले ही मैं ने उदास लहजे में कहा, ‘‘आई ऐम सौरी पर हमें अब आपस में नहीं मिलना चाहिए, रोहित.’’

‘‘पर क्यों? मुझे मेरी गलती तो बताओ?’’ वे बहुत परेशान नजर आ रहे थे.

‘‘तुम्हारी कोई गलती नहीं है.’’

‘‘तो मुझ से मिलना क्यों बंद कर रही हो?’’

उन के बारबार पूछने पर मैं ने नजरें झुका कर जवाब दिया, ‘‘मैं तुम्हारे प्यार में पागल हो रही हूं…तुम्हारे साथ नजदीकियां बढ़ती रहीं तो मैं अपनी भावनाओं को काबू में नहीं रख सकूंगी.’’

‘‘तुम कहना क्या चाह रही हो?’’ उन की आंखों में उलझन के भाव और ज्यादा बढ़ गए.

‘‘हम ऐसे ही मिलते रहे तो किसी भी दिन कुछ गलत घट जाएगा…तुम मुझे चीप लड़की समझो, यह सदमा मुझ से बरदाश्त नहीं होगा. साधारण से घर की यह लड़की तुम्हारे साथ जिंदगी गुजारने के सपने नहीं देख सकती है. तुम मुझ से न मिला करो, प्लीज,’’ भरे गले से अपनी बात कह कर मैं कुछ दूरी पर इंतजार कर रही अपनी सहेली की तरफ चल पड़ी. बाद में रोहित ने बारबार फोन कर के मुझे फिर से मिलना शुरू करने के लिए राजी कर लिया. मेरी हंसीखुशी उन के लिए दिनबदिन ज्यादा महत्त्वपूर्ण होती चली गई. मेरे रंगरूप का जादू उन के सिर चढ़ कर ऐसा बोला कि महीने भर बाद ही उन के घर वाले हमारे घर रिश्ता पक्का करने आ पहुंचे. उस दिन हुई पहली मुलाकात में ही मुझे साफ एहसास हो गया कि यह रिश्ता उन के परिवार वालों को पसंद नहीं था. मेरी शादी को करीब 6 महीने हो चुके हैं और अब तक मेरे सासससुर और जेठजेठानी की मेरे प्रति नापसंदगी अपनी जगह कायम है. अपने पिता से झगड़ा करने के बाद रोहित को घर से बाहर गए 5 मिनट भी नहीं हुए होंगे कि सासूमां मेरे कमरे में आ पहुंचीं. उन की झिझक और बेचैनी को देख कर कोई भी कह सकता था कि बात करने के लिए मेरे पास आना उन्हें अपमानित महसूस करा रहा है.

मेरे सामने झुकना उन की मजबूरी थी. उन का अपनी बड़ी बहू नेहा से 36 का आंकड़ा था, क्योंकि बेहद अमीर बाप की बेटी होने के कारण वह अपने सामने किसी को कुछ नहीं समझती थी. मेरे सामने बैठते ही सासूमां मुझे समझाने लगीं, ‘‘ घर में छोटीबड़ी खटपट, तकरार तो चलती रहती है, पर तू रोहित को समझाना कि वह घर छोड़ कर जाने की बात मन से बिलकुल निकाल दे.’’ मैं ने बेबस से लहजे में जवाब दिया, ‘‘मम्मी, आप तो जानती ही हैं कि वे कितने जिद्दी इनसान हैं. मैं उन्हें घर से अलग होने से कब तक रोक सकूंगी? आप पापा को भी समझाओ कि वे घर से निकाल देने की धमकी तो बिलकुल न दिया करें.’’

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‘‘उन्हें तो तब तक अक्ल नहीं आएगी जब तक गुस्से के कारण उन के दिमाग की कोई नस नहीं फट जाएगी.’’ ‘‘ऐसी बातें मुंह से न निकालिए, प्लीज,’’ मेरा मन ससुरजी के अपाहिज हो जाने की बात सोच कर ही बेचैनी और घबराहट का शिकार हो उठा था. कुछ देर तक अपनी व ससुरजी की गिरती सेहत के दुखड़े सुनाने के बाद सासूजी चली गईं. हम घर से अलग नहीं होंगे, मुझ से ऐसा आश्वासन पा कर उन की चिंता काफी हद तक कम हो गई थी. उस रात मुझे साथ ले कर रोहित अपने दोस्त की शादी की सालगिरह की पार्टी में जाना चाहते थे. उन का यह कार्यक्रम खटाई में पड़ गया, क्योंकि ससुरजी को सुबह से 5-6 बार उलटियां हो चुकी थीं. औफिस से आने के बाद जब उन्होंने मेरे जल्दी तैयार होने के लिए शोर मचाया, तो घर में क्लेश शुरू हो गया और बात धीरेधीरे बढ़ती चली गई.

सचाई यही है कि कुछ कारणों से मैं खुद भी रोहित के दोस्त द्वारा दी जा रही कौकटेल पार्टी में नहीं जाना चाहती थी. आज मैं जिंदगी के उसी मुकाम पर हूं जहां होने के सपने मैं हमेशा देखती आई हूं. संयोग से मैं ने जिस ऐशोआराम भरी जिंदगी को पाया है, उसे नासमझी के कारण खो देने का मेरा कोई इरादा नहीं था. रोहित की एक निशा भाभी हैं, जिन के अपने पति सौरभ के साथ संबंध बहुत खराब चल रहे हैं. उन के बीच तलाक हो कर रहेगा, ऐसा सब का मानना है. मैं ने पिछली कुछ पार्टियों में नोट किया कि फ्लर्ट करने में एक्सपर्ट निशा भाभी रोहित को बहुत लिफ्ट दे रही हैं. यह सभी जानते हैं कि एक बार बहक गए कदमों को वापस राह पर लाना आसान नहीं होता है. रोहित को निशा से दूर रखने के महत्त्व को मैं अपने अनुभव से बखूबी समझती हूं, क्योंकि अपने पहले प्रेमी समीर को मैं खुद अब तक पूरी तरह से नहीं भुला पाई हूं.

वह मेरी सहेली शिखा का बड़ा भाई था. मैं 12वीं कक्षा की परीक्षा की तैयारी करने उन के घर पढ़ने जाती थी. मेरी खूबसूरती ने उसे जल्दी मेरा दीवाना बना दिया. उस की स्मार्टनैस भी मेरे दिल को भा गई. उन के घर में कभीकभी हमें एकांत में बिताने को 5-10 मिनट भी मिल जाते थे. इस छोटे से समय में ही उस के जिस्म से उठने वाली महक मुझे पागल कर देती थी. उस के हाथों का स्पर्श मेरे तनमन को मदहोश कर मेरे पूरे वजूद में अजीब सी ज्वाला भर देता था. एक रविवार की सुबह जब उस की मां बाजार जाने को निकलीं. मां के बाहर जाते ही समीर बाहर से घर लौट आया. हमें कुछ देर की मौजमस्ती करने के लिए किसी तरह का खतरा नजर नहीं आया, तो हम बहुत उत्तेजित हो आपस में लिपट गए. फिर गड़बड़ यह हुई कि उस की मां पर्स भूल जाने के कारण घर से कुछ दूर जा कर ही लौट आई थीं. दरवाजा खोलने के बाद समीर और मैं अपनी उखड़ी सांसों और मन की घबराहट को उन की अनुभवी नजरों से छिपा नहीं पाए थे. उन्होंने मुझे उसी वक्त घर भेज दिया और कुछ देर बाद आ कर मां से मेरी शिकायत कर दी. इस घटना का नतीजा यह हुआ कि मेरी शिखा से दोस्ती टूट गई और अपने मातापिता की नजरों में मैं ने अपनी इज्जत गंवा दी.

कच्ची उम्र में समीर के साथ प्यार का चक्कर चलाने की मूर्खता कर मैं ने खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी थी. मेरे सजनेसंवरने पर भी पूरी तरह से पाबंदी लग गई. मां की रातदिन की टोकाटाकी और पापा का मुझ से सीधे मुंह बात न करना मुझे बहुत दुखी करता था.  उन कठिन दिनों से गुजरते हुए एक सबक मैं अच्छी तरह सीख गई कि अगर मेरी ऐशोआराम की जिंदगी जीने की इच्छा और सारे सपने पूरे नहीं हुए तो जीने का मजा बिलकुल नहीं आएगा. घुटघुट कर जीने से बचने के लिए मुझे फौरन अपनी छवि सुधारना बहुत जरूरी था. ‘‘केवल सुंदर होने से काम नहीं चलता है. सूरत के साथ सीरत भी अच्छी होनी चाहिए,’’

मां से रातदिन मिलने वाली चेतावनी को मैं ने हमेशा के लिए गांठ बांध कर अपने को सुधार लेने का संकल्प उसी समय कर लिया. तभी से अपने जीवन में आने वाली हर कठिनाई, उलझन और मुसीबत से सबक ले कर मैं खुद को बदलती आई हूं. रोहित के विवाहेत्तर संबंध न बन जाएं, इस डर के अलावा एक और डर मुझे परेशान करता था. उन्हें सप्ताह में 1-2 बार ड्रिंक करने का शौक है. आज भी उन के गुस्से को बहुत ज्यादा बढ़ाने का यही मुख्य कारण था कि दोस्तों के साथ शराब पीने का मौका उन के हाथ से निकल गया. मेरे लिए यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं था कि अगर हम अलग मकान में रहने चले गए, तो दोस्तों के साथ उन का पीनापिलाना बहुत ज्यादा बढ़ जाएगा. समीर वाले किस्से के बाद मेरी मां मेरे साथ बहुत सख्त हो गई थीं. उन की उस सख्ती के चलते मेरे कदम फिर कभी नहीं भटके थे. यहां मेरे सासससुर मां वाली भूमिका निभा रहे थे. रोहित और मुझे नियंत्रण में रख कर वे दोनों एक तरह से हमारा भला ही कर रहे थे. अब मुझे यह बात समझ में आने लगी थी.

पिछले दिनों तक मैं घर से अलग हो जाने की जरूर सोचती थी, पर अब इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए मैं ने ऐसा करने का इरादा बदल दिया है. रोहित 2 घंटे बाद जब लौटे, तब भी उन की आंखों में तेज गुस्सा साफ झलक रहा था. फिर भी मैं ने रोहित को अपनी बात कहने का फैसला किया. उन्हें कुछ कहने का मौका दिए बिना मैंने आंखों में आंसू भर कर भावुक लहजे में पूछा, ‘‘तुम मुझे सब की नजरों में क्यों गिराना चाहते हो?’’

‘‘मैं ने ऐसा क्या किया है?’’ उन्होंने गुस्से से भर कर पूछा.

‘‘टैंशन के कारण पापा को ढंग से सांस लेने में दिक्कत हो रही है. आपसी लड़ाईझगड़े की वजह से उन्हें कभी कुछ हो गया, तो मैं समाज में इज्जत से सिर उठा कर कभी नहीं जी सकूंगी.’’

‘‘वे लोग बात ही ऐसी गलत करते हैं…पार्टी में न जाने दे कर सारा मूड खराब कर दिया.’’

‘‘पार्टी में जाने का गम मत मनाओ, मैं हूं न आप का मूड ठीक करने के लिए,’’ मैं ने उन के बालों को प्यार से सहलाना शुरू कर दिया.

‘‘तुम तो हो ही लाखों में एक जानेमन.’’

‘‘तो अपनी इस लाखों में एक जानेमन की छोटी सी बात मानेंगे?’’

‘‘जरूर मानूंगा.’’ मेरी सुंदरता मेरी बहुत बड़ी ताकत है और अब इसी के बल पर मैं सारे रिश्तों के बीच अच्छा संतुलन और घर में हंसीखुशी का माहौल बनाना चाहती हूं. इस दिशा में काफी सोचविचार करने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंची हूं कि सासससुर के साथ अपने रिश्ते सुधार कर उन्हें मजबूत बनाना मेरे हित के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है. अपने इसी लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए मैं ने रोहित के कान के पास मुंह ले जा कर प्यार भरे लहजे में पूछा, ‘‘क्या मैं तुम्हें कभी किसी भी बात से नाराज हो कर सोने देती हूं?’’

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‘‘कभी नहीं और आज भी मत सोने देना,’’ उन के होंठों पर एक शरारती मुसकान उभरी.

‘‘आज आप भी मेरी इस अच्छी आदत को अपनाने का वादा मुझ से करो.’’

‘‘लो, कर लिया वादा.’’

‘‘तो अब चलो मेरे साथ.’’

‘‘कहां?’’

‘‘अपने मम्मीपापा के पास.’’

‘‘उन के पास किसलिए चलूं?’’

‘‘आप उन के साथ कुछ देर ढंग से बातें कर लोगे, तो ही वे दोनों चैन से सो पाएंगे.’’

‘‘नहीं,’’ यह मैं नहीं…

मैं ने झुक कर पहले रोहित के होंठों पर प्यार भरा चुंबन अंकित किया और फिर उन की आंखों में प्यार से झांकते हुए मोहक स्वर में बोली, ‘‘प्लीज, मेरी खुशी की खातिर आप को यह काम करना ही पड़ेगा. आप मेरी बात मानेंगे न?’’ तुम्हारी बात कैसे टाल सकता हूं ब्यूटीफुल चलो,’’ रोमांटिक अंदाज में मेरा हाथ चूमने के बाद जब वे फौरन अपने मातापिता के पास जाने को उठ खड़े हुए, तो मैं मन ही मन विजयीभाव से मुसकराते हुए उन के गले लग गई.

विश्वासघात- भाग 1: आखिर क्यों वह विशाल से डरती थी?

लेखक- सुधा आदेश

‘‘आंटी, आप पिक्चर चलेंगी?’’ अंदर आते हुए शेफाली ने पूछा.

‘‘पिक्चर…’’

‘‘हां आंटी, नावल्टी में ‘परिणीता’ लगी है.’’

‘‘न बेटा, तुम दोनों ही देख आओ. तुम दोनों के साथ मैं बूढ़ी कहां जाऊंगी,’’ कहते हुए अचानक नमिता की आंखों में वह दिन तिर आया जब विशाल के मना करने के बावजूद बहू ईशा और बेटे विभव को पिक्चर जाते देख वह भी उन के साथ पिक्चर जाने की जिद कर बैठी थीं.

उन की पेशकश सुन कर बहू तो कुछ नहीं बोली पर बेटा बोला, ‘मां, तुम कहां जाओगी, हमारे साथ मेरे एक दोस्त की फैमिली भी जा रही है…वहां से हम सब खाना खा कर लौटेंगे.’

विभव के मना करने पर वह तिलमिला उठी थीं पर विशाल के डर से कुछ कह नहीं पाईं क्योंकि उन्हें व्यर्थ की तकरार बिलकुल भी पसंद नहीं थी. बच्चों के जाने के बाद अपने मन का क्रोध विशाल पर उगला तो वह शांत स्वर में बोले, ‘नमिता, गलती तुम्हारी है, अब बच्चे बडे़ हो गए हैं, उन की अपनी जिंदगी है फिर तुम क्यों बेवजह छोटे बच्चों की तरह उन की जिंदगी में हमेशा दखलंदाजी करती रहती हो. तुम्हें पिक्चर देखनी ही है तो हम दोनों किसी और दिन जा कर देख आएंगे.’

विशाल की बात सुन कर वह चुप हो गई थीं…पर दोस्त के लिए बेटे द्वारा नकारे जाने का दंश बारबार चुभ कर उन्हें पीड़ा पहुंचा रहा था. फिर लगा कि विशाल सच ही कह रहे हैं…कल तक उंगली पकड़ कर चलने वाले बच्चे अब सचमुच बडे़ हो गए हैं और उस में बच्चों जैसी जिद पता नहीं क्यों आती जा रही है. उस की सास अकसर कहा करती थीं कि बच्चेबूढे़ एक समान होते हैं लेकिन तब वह इस उक्ति का मजाक बनाया करती थी पर अब वह स्वयं भी जानेअनजाने उन्हीं की तरह बरताव करने लगी है.

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यह वही विभव था जिसे बचपन में अगर कुछ खरीदना होता या पिक्चर जाना होता तो खुद पापा से कहने के बजाय उन से सिफारिश करवाता था. सच, समय के साथ सब कितना बदलता जाता है…अब तो उसे उन का साथ भी अच्छा नहीं लगता है क्योंकि अब वह उस की नजरों में ओल्ड फैशन हो गई हैं, जिसे आज के जमाने के तौरतरीके नहीं आते, जबकि वह अपने समय में पार्टियों की जान हुआ करती थीं. लोग उन की जिंदादिली के कायल थे.

‘‘आंटी किस सोच में डूब गईं… प्लीज, चलिए न, ‘परिणीता’ शरतचंद्र के उपन्यास पर आधारित अच्छी मूवी है…आप को अवश्य पसंद आएगी,’’ आग्रह करते हुए शेफाली ने कहा.

शेफाली की आवाज सुन कर नमिता अतीत से वर्तमान में लौट आईं. शरतचंद्र उन के प्रिय लेखक थे. उन्होंने अशोक कुमार और मीना कुमारी की पुरानी ‘परिणीता’ भी देखी थी, उपन्यास भी पढ़ा था फिर भी शेफाली के आग्रह पर पुन: उस पिक्चर को देखने का लोभ संवरण नहीं कर पाईं तथा उस का आग्रह स्वीकार कर लिया. उन की सहमति पा कर शेफाली उन्हें तैयार होने का निर्देश देती हुई स्वयं भी तैयार होने चली गई.

विशाल अपने एक नजदीकी मित्र के बेटे के विवाह में गए थे. जाना तो वह भी चाहती थी पर उसी समय यहां पर उन की सहेली की बेटी का विवाह पड़ गया अत: विशाल ने कहा कि मैं वहां हो कर आता हूं, तुम यहां सम्मिलित हो जाओ. कम से कम किसी को शिकायत का मौका तो न मिले. वैसे भी उन्होंने हमारे सभी बच्चों के विवाह में आ कर हमारा मान बढ़ाया था, इसीलिए दोनों जगह जाना जरूरी था.

विशाल के न होने के कारण वह अकेली बोर होतीं या व्यर्थ के धारावाहिकों में दिमाग खपातीं, पर अब इस उम्र में समय काटने के लिए इनसान करे भी तो क्या करे…न चाहते हुए टेलीविजन देखना एक मजबूरी सी बन गई है या कहिए मनोरंजन का एक सस्ता और सुलभ साधन यही रह गया है. ऐसी मनोस्थिति में जी रही नमिता के लिए शेफाली का आग्रह सुकून दे गया तथा थोडे़ इनकार के बाद स्वीकर कर ही लिया.

वैसे भी उन की जिंदगी ठहर सी गई थी. 4 बच्चों के रहते वे एकाकी जिंदगी जी रहे हैं…एक बेटा शैलेष और बेटी निशा विदेश में हैं तथा 2 बच्चे विभव और कविता यहां मुंबई और दिल्ली में हैं. 2 बार वे विदेश जा कर शैलेष और निशा के पास रह भी आए थे लेकिन वहां की भागदौड़ वाली जिंदगी उन्हें रास नहीं आई थी. विदेश की बात तो छोडि़ए, अब तो मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों का भी यही हाल है. वहां भी पूरे दिन अकेले रहना पड़ता था. आजकल तो जब तक पतिपत्नी दोनों न कमाएं तब तक किसी का काम ही नहीं चलता…भले ही बच्चों को आया के भरोसे या क्रेच में छोड़ना पडे़.

एक उन का समय था जब बच्चों के लिए मांबाप अपना पूरा जीवन ही अर्पित कर देते थे…पर आजकल तो युवाओं के लिए अपना कैरियर ही मुख्य है…मातापिता की बात तो छोडि़ए कभीकभी तो उन्हें लगता है आज की पीढ़ी को अपने बच्चों की परवा भी नहीं है…पैसों से वे उन्हें सारी दुनिया खरीद कर तो देना चाहते हैं पर उन के पास बैठ कर, प्यार के दो मीठे बोल के लिए समय नहीं है.

बच्चों के पास मन नहीं लगा तो वे लौट कर अपने घर चले आए. विशाल ने इस घर को बनवाने के लिए जब लोन लिया था तब नमिता ने यह कह कर विरोध किया था कि क्यों पैसा बरबाद कर रहे हो, बुढ़ापे में अकेले थोडे़ ही रहेंगे, 4 बच्चे हैं, वे भी हमें अकेले थोडे़ ही रहने देंगे पर पिछले 4 साल इधरउधर भटक कर आखिर उन्होंने अकेले रहने का फैसला कर ही लिया. कभी बेमन से बनवाया गया घर अचानक बहुत अच्छा लगने लगा था.

अकेलेपन की विभीषिका से बचने के लिए अभी 3 महीने पहले ही उन्होंने घर का एक हिस्सा किराए पर दे दिया था…शशांक और शेफाली अच्छे सुसंस्कृत लगे, उन का एक छोटा बच्चा था…इस शहर में नएनए आये थे, शशांक एक प्राइवेट कंपनी में काम करता था. उन्हें घर की जरूरत थी और विशाल और नमिता को अच्छे पड़ोसी की, अत: रख लिया.

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अभी उन्हें आए हुए हफ्ता भर भी नहीं हुआ था कि एक दिन शेफाली आ कर उन से कहने लगी कि ‘आंटी, अगर आप को कोई तकलीफ न हो तो बब्बू को आप के पास छोड़ जाऊं, कुछ जरूरी काम से जाना है, जल्दी ही आ जाएंगे.’

उस का आग्रह देख कर पता नहीं क्यों वह मना नहीं कर पाईं…उस बच्चे के साथ 2 घंटे कैसे बीत गए पता ही नहीं चला. इस बीच न तो वह रोया न ही उस ने विशेष परेशान किया. नमिता ने उस के सामने अपने पोते के छोडे़ हुए खिलौने डाल दिए थे, उन से ही बस खेलता रहा. उस के साथ खेलते और बातें करते हुए उन्हेें अपने पोते विक्की की याद आ गई. वह भी लगभग इसी उम्र का था…उस बच्चे में वह अपने पोते को ढूंढ़ने लगीं.

उस दिन के बाद तो नित्य का क्रम बन गया, जिस दिन वह नहीं आता, नमिता आवाज दे कर उसे बुला लेतीं…बच्चा उन्हें दादी कहता तो उन का मन भावविभोर हो उठता था.

धीरेधीरे शेफाली भी उन के साथ सहज होने लगी थी. कभी कोई अच्छी सब्जी बनाती तो आग्रहपूर्वक दे जाती. उन्हें अपने पैरों में दवा या तेल मलते देखती तो खुद लगा देती, कभीकभी उन के सिर की मालिश भी कर दिया करती थी…कभीकभी तो उन्हें लगता, इतना स्नेह तो उन्हें अपने बहूबेटों से भी नहीं मिला, कभी वे उन के नजदीक आए भी तो सिर्फ इतना जानने के लिए कि उन के पास कितना पैसा है तथा कितना उन्हें हिस्सा मिलेगा.

शशांक भी आफिस जाते समय उन का हालचाल पूछ कर जाता…बिजली, पानी और टेलीफोन का बिल वही जमा करा दिया करता था. यहां तक कि बाजार जाते हुए भी अकसर उन से पूछने आता कि उन्हें कुछ मंगाना तो नहीं है.

उन के रहने से उन की काफी समस्याएं हल हो गई थीं. कभीकभी नमिता को लगता कि अपने बच्चों का सुख तो उन्हें मिला नहीं चलो, दूसरे की औलाद जो सुख दे रही है उसी से झोली भर लो.

विशाल ने उन्हें कई बार चेताया कि किसी पर इतना विश्वास करना ठीक नहीं है पर वह उन को यह कह कर चुप करा देतीं कि आदमी की पहचान उसे भी है. ये संभ्रांत और सुशील हैं. अच्छे परिवार से हैं, अच्छे संस्कार मिले हैं वरना आज के समय में कोई किसी का इतना ध्यान नहीं रखता.

‘‘आंटीजी, आप तैयार हो गईं…ये आटो ले आए हैं,’’ शेफाली की आवाज आई.

सपना पूरा हो गया: क्या पंकेश ने शादी की?

Writer- रमेश मनोहरा

‘‘पंकेश, अब तुम बड़े हो गए हो,’’ मां यशोदा ने आ कर जब यह कहा, तब पंकेश बोला, ‘‘मेरी अच्छी मम्मी, बेटा कितना ही बड़ा हो जाता है, वह अपनी मम्मी की नजर में छोटा ही रहता है. अब बताओ मम्मी, क्या कहना चाहती हो?’’

‘‘मैं कह रही हूं कि तू अब शादी करने की हां कर दे.’’

‘‘अरे मम्मी, फिर वही बात. मैं कितनी बार कह चुका हूं कि मुझे अभी शादी नहीं करनी है,’’ एक बार फिर इनकार करते हुए पंकेश बोला.

‘‘अरे, अभी नहीं करेगा, तब क्या बूढ़ा हो कर करेगा?’’ यशोदा नाराज हो कर बोलीं.

‘‘ओह मम्मी, मैं कितनी बार कह चुका हूं कि मुझे अपना कैरियर बनाना?है. अभी से शादी के बंधन में बांध दोगी, तब मैं कैसे कैरियर बनाऊंगा.’’

‘‘कैरियरकैरियर सुनसुन कर मेरे तो कान पक गए हैं,’’ फिर गुस्से से यशोदा बोलीं, ‘‘तेरी बैंक में नौकरी लग गई. अब तुझे कौन सा कैरियर बनाना है?’’

‘‘अरे मम्मी, मुझे बहुत बड़ा अफसर बनना है. मैं उसी की तैयारी कर रहा हूं.’’

‘‘मैं भी चाहती हूं कि तू बहुत बड़ा अफसर बन जाए, मगर शादी के बाद भी तू तैयारी कर सकता है,’’ समझाते हुए यशोदा बोलीं, ‘‘मैं चाहती हूं कि मेरे सामने तेरी शादी हो जाए, ताकि बाकी जिंदगी सुखसंतोष से गुजार सकूं.’’

‘‘ओह मम्मी, ऐसी बात मत करो. तुम अभी 100 साल जिंदा रहोगी,’’ मां के गले लगते हुए पंकेश बोला.

‘‘जिंदगी का क्या भरोसा. तेरे पापा अगर आज होते, तब मैं इतनी गरज नहीं करती, फिर भी तू मेरी एक भी नहीं सुनता है.’’

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‘‘अरे मम्मी, चिंता मत पालो, बस मुझे इम्तिहान देने दो. फिर शादी भी कर लूंगा,’’ भरोसा दिलाते हुए पंकेश बोला, ‘‘अभी तो मैं दफ्तर जा रहा हूं,’’ कह कर पंकेश दफ्तर चला गया.

यशोदा बड़बड़ाती रहीं. वे जब भी शादी की बात करती हैं, पंकेश इनकार कर देता. दिनरात उस की शादी की चिंता में घुली रहती हैं. काश, पंकेश के पिता सुनील जिंदा होते, तब यह नौबत भी नहीं आती. मगर यशोदा को चैन

कहां मिलता.

पंकेश उन का एकलौता बेटा है. यह 3 लड़कियों के बाद तब पैदा हुआ, जब बड़ी बेटी सारिका जवानी की दहलीज पर कदम रख चुकी थी. दूसरी वाली प्रभा और तीसरी वाली निर्मला. तीनों के जन्म का फर्क 2-3 साल का रहा. मगर पंकेश और निर्मला के बीच 10 साल का फर्क?है.

पंकेश के पिता सुनील सरकारी दफ्तर में औडिटर थे. जिस दिन पद से रिटायर हुए, उस के पहले उन्होंने खूब ऊपरी कमाई कर ली. उन्होंने तीनों बेटियों की शादी बड़े ही धूमधाम से की. बेटे पंकेश को भी अच्छी तालीम दिलाई. वह बैंक में बाबू बन गया.

अभी पंकेश को लगे 2 महीने भी नहीं हुए थे कि सुनील को हार्टअटैक आ गया. उन्हें अस्पताल ले गए, मगर बीच रास्ते में ही गुजर गए. यशोदा को इस तरह बीच रास्ते छोड़ कर जाना अच्छा नहीं लगा. तब कई महीनों तक वे इस गम से न उबर पाई थीं.

तीनों बेटियां भी खूब दबाव डाल रही थीं कि भैया की कब शादी कर रही हो, मगर पंकेश तो शादी के लिए हां भी नहीं कर रहा था. उस की शादी के लिए समाज के रिश्ते भी आए, मगर उसे एक भी समझ नहीं आई.

तभी यशोदा को बचपन की एक सहेली जमना याद आई, जो पिछले साल एक रिश्तेदार की शादी में उज्जैन गई थी. जब वह छत्री चौक पर एक दुकान में सामान खरीदने आईं, उसी दुकान से एक सजी हुई औरत उतर रही थी. दोनों की आंखें एकदूसरे को बहुत देर तक देखती रहीं, तब वह औरत बोली, ‘‘आप यशोदा हो न?’’

‘‘हां…’’ जमना यशोदा को गले लगाते हुए बोली, ‘‘कई सालों के बाद मिली हो तुम. तेरे तो बच्चे भी बड़े हो गए होंगे. उन की शादियां भी हो गई होंगी. तू तो नानीदादी भी बन गई होगी.’’

‘‘बसबस… सबकुछ एक ही सांस में पूछ लोगी,’’ यशोदा ने कहा.

‘‘ठीक?है. पहले एक ही सवाल पूछती हूं, जीजाजी कैसे हैं?’’ जब जमना ने यह सवाल पूछा, तब यशोदा का मन उदास हो गया.

तब जमना अफसोस जताते हुए बोली, ‘‘सौरी, मैं ने तेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया. मैं सब समझ गई. खैर छोड़, बच्चे कितने हैं?’’

‘‘3 लड़कियों के बाद एक लड़का है,’’ यशोदा ने जवाब दिया.

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‘‘सब की शादी कर दी?’’

‘‘तीनों लड़कियों की शादी तो तेरे जीजाजी के रहते कर दी थी, मगर लड़का शादी नहीं कर रहा है.’’

‘‘क्यों नहीं कर रहा है? बेरोजगार होगा, इसलिए नहीं कर रहा होगा.’’

‘‘नहीं, बैंक में है वह.’’

‘‘फिर क्यों नहीं कर रहा?है?’’

‘‘यही तो समझ में नहीं आ रहा?है.’’

‘‘तब समझने की कोशिश करो न.’’

‘‘सब तरह से समझा चुकी हूं, मगर वह तो…’’ कह कर यशोदा रुक गई. फिर पलभर रुक कर वे बोलीं, ‘‘तू बता जीजाजी के क्या हाल हैं? क्या करते हैं वे?’’ सुन कर जमना कोई जवाब नहीं

दे पाई. उस का हंसता हुआ चेहरा

मुरझा गया.

तब यशोदा बोली, ‘‘अरे, तुझे सांप क्यों सूंघ गया?’’

‘‘मैं मैडम चंपा के साथ देह धंधा करती हूं,’’ कह कर जमना ने अपने मन का दर्द कह दिया, फिर पलभर रुक कर वह बोली, ‘‘अब यह मत पूछना कि मैं ने मैडम चंपा को क्यों चुना?’’

यशोदा अब सारी बात समझ चुकी थी. वह आगे कुछ नहीं बोली. उसी की तो गलती की सजा जमना भुगत रही थी. तब जमना फिर बोली, ‘‘आगे सुन, मेरे एक लड़की भी है. उस के पिता कौन हैं, मत पूछना.’’

यशोदा का कालेज के दिनों में एक बौयफ्रैंड था. यशोदा अकसर उस के साथ रात बिता लेती, पर अपनी सुरक्षा के लिए जमना को भी साथ ले जाती थी.

एक रात यशोदा के बौयफ्रैंड ने जमना से भी जबरन संबंध बना लिया. अब वह शिकायत करती तो दोनों को फंसना पड़ता, इसलिए लड़के से संबंध तोड़ डाले, पर जमना पेट से हो गई. कहां गर्भपात कराए, यह उन्हें नहीं मालूम था.

उन के कालेज के पास ही चंपा नई लड़कियों को फंसाने के लिए घूमती थी. उस की कई लड़कियों से दोस्ती थी. जमना के मामले में चंपा ने उस की मदद की और अपने घर में बेटी का जन्म कराया. जमना की पूरी देखभाल की और फिर उसे देह धंधे में उतर जाने की सलाह दी.

जमना की पढ़ाई छूट गई थी और उस घर टूट गया था. मैडम चंपा ने यशोदा की इज्जत रखी और जमना की जान बचाई. यशोदा की शादी उस के मातापिता ने बिना अड़चन के कर दी.

‘‘अब तक तो तुम्हारी लड़की भी बड़ी हो गई होगी,’’ यशोदा ने पूछा.

‘‘वह 12वीं में पढ़ रही है. 3 साल की थी, तभी उसे होस्टल में डाल दिया था. वार्डन ही उसे संभालती है. उन को ही वह मांबाप मानती है.’’

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‘‘वह जानती?है कि तू धंधा करती है?’’

‘‘हां, अब तो वह समझदार हो गई है. वह सब जानती है. मैडम चंपा तो उसे भी यह काम कराना चाहती है, मगर मैं नहीं चाहती.’’

‘‘तब उसे होस्टल में भी कब तक रखोगी?’’

‘‘उस की शादी करना चाहती हूं,’’ अभी जमना यह बात कह ही रही थी कि उस के मोबाइल की घंटी बज उठी. वह कुछ देर बात करती रही, फिर फोन बंद करते हुए बोली, ‘‘माफ कर यशोदा, तुम सालों बाद मिली हो. पूरी बात नहीं हो सकी. मुझे मैडम ने बुलाया है. एक ग्राहक मेरा इंतजार कर रहा है.

‘‘हां, फोन नंबर हम एकदूसरे के ले लेते हैं, ताकि जरूरत पड़े तब फोन कर के सुखदुख बांट सकें.’’ फिर वे दोनों एकदूसरे का फोन नंबर ले कर चली गईं.

तब यशोदा का खयाल जमना पर गया. उस की लड़की होस्टल में पढ़ रही है. मैडम चंपा उसे कोठे पर बिठाने की जिद कर रही है. मगर जमना उस की शादी कर के घर बसाना चाहती है. मगर यह कैसे मुमकिन होगा? कौन करेगा शादी? जबकि उस के पिता का भी पता नहीं?है.

तब यशोदा के मन में विस्फोट हुआ. उस ने सोचा कि जमना से बात कर के कुछ दिनों के लिए वह उस की बेटी को अपने यहां बुला ले. पंकेश और उस में प्यार हो जाएगा, तब पंकेश खुद शादी के लिए राजी हो जाएगा. यही सोच कर वह मोबाइल लगा कर बात करने लगी.

जमना अपनी लड़की को भेजने के लिए कुछ शर्तों के साथ तैयार हो गई.

एक हफ्ते बाद यशोदा जमना की लड़की विभा को अपने घर ले आईं. पंकेश का विभा से परिचय कराते हुए वे बोलीं, ‘‘देख पंकेश, यह मेरी सहेली जमना की लड़की विभा है, जो उज्जैन में रहती है. पिछली बार जब मैं उज्जैन गई थी न, तब जमना से बात नहीं हो पाई थी. उस ने बुलाया, तो मैं वहां गई थी. यह अकेली होस्टल में रहती है, वहीं पढ़ाई करती है. मैं ने सोचा कि कुछ दिन यहां रह लेगी, तो हवापानी बदल जाएगा.’’

‘‘बहुत अच्छा किया मम्मी,’’ कह कर जब पंकेश ने विभा की तरफ देखा तो देखता ही रह गया. गदराई जवानी, आंखें हिरनी की तरह, गोरा सुंदर मुखड़ा कई देर तक देखता ही रहा.

तब यशोदा बोलीं, ‘‘क्या देख रहा है इसे. अरे, इसे जी भर के देख लेना. इसे यहां थोड़े दिन रहने के लिए लाई हूं. चाहे तो…

‘‘खैर, यह थक गई होगी. इसे थोड़ा आराम करने दे,’’ कह कर विभा को यशोदा भीतर ले गईं. मगर पंकेश के सामने विभा का चेहरा न जाने कितनी देर तक घूमता रहा.

विभा को आए 8-9 दिन हो गए थे. पंकेश उस का दीवाना हो गया. विभा भी पंकेश का बराबर ध्यान रखती थी. जैसे ही पंकेश दफ्तर जाता, उस के लिए टिफिन तैयार कर देती थी. पंकेश घर आता, तो वह चाय लिए खड़ी मिलती.

एक दिन चाय देते हुए विभा ने पूछा, ‘‘आप रोजाना यह क्या पढ़ाई करते

रहते हैं.’’

‘‘मुझे बहुत बड़ा अफसर बनना है, उस की पढ़ाई कर रहा हूं.’’

‘‘यह तो अच्छी बात है…’’ शरमाते हुए विभा बोली, ‘‘एक बात पूछूं?’’

‘‘हां, पूछो?’’

‘‘आप की मम्मीजी आप से बहुत नाराज हैं.’’

‘‘मुझ से क्यों भला…?’’

‘‘आप उन्हें बहू ला कर नहीं दे रहे हैं. आप क्यों नहीं कर रहे हैं शादी?’’ जब विभा ने यह सवाल पूछा, तब पंकेश सोच में पड़ गया कि क्या जवाब दे? कुछ पल तक वह कुछ नहीं बोला, तो विभा ने फिर पूछा, ‘‘आप ने जवाब नहीं दिया?’’

‘‘ऐसी बात नहीं है. शादी तो करनी है. मां के लिए बहू लानी है.’’

‘‘तो कर लीजिए न शादी?’’

‘‘कोई मेरे लायक लड़की तो मिले.’’

‘‘आप के लायक लड़की कब मिलेगी?’’ मुसकरा कर विभा ने पंकेश की ओर देखा, तब पंकेश ने उसी लहजे में मुसकराते हुए जवाब दिया, ‘‘तुम मुझ से शादी करने के लिए तैयार हो?’’

जवाब देने के बजाय विभा मुसकराते हुए भीतर चली गई. पंकेश को समझते देर न लगी कि हरी झंडी मिल गई.

तभी यशोदा ने आ कर पूछा, ‘‘क्या सोच रहा है पंकेश?’’

‘‘कुछ नहीं,’’ पंकेश अपने भावों को छिपाते हुए बोला.

‘‘मैं ने तेरे चेहरे को पढ़ लिया. तू कुछ छिपा रहा है. क्या छिपा रहा है?’’

‘‘कहा न मम्मी, कुछ नहीं.’’

‘‘मैं तेरी मां हूं. मुझ से कुछ भी मत छिपा. जो बात है बोल दे. कहने से मन का बोझ हलका हो जाता है,’’ दबाव बनाते हुए यशोदा बोलीं, ‘‘अगर तू नहीं कहना चाहता है, तो मैं कह दूं कि तेरे मन में क्या चल रहा है.’’

‘‘हां मम्मी, आप ही कह दो. मैं कहने में हिचक रहा हूं.’’

‘‘तो सुन, तू मन ही मन विभा को चाहने लगा है और उस से शादी भी करना चाहता?है.’’

‘‘आप ने तो मम्मी मेरे मन की बात छीन ली,’’ खुशी से पंकेश बोला.

‘‘जब से विभा को ले कर मैं आई थी न, पहले दिन से ही तेरा झुकाव उस की ओर हो गया था. यह मैं ने तेरी आंखों में सबकुछ पढ़ लिया था.’’

‘‘तब तो मम्मी आप अपनी सहेली से बात कर लो न.’’

‘‘सब बातें पहले ही कर चुकी हूं. मेरी सहेली पूरी तरह से राजी हो गई. मगर उस की कुछ शर्तें हैं.’’

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‘‘क्या शर्तें हैं मम्मी?’’ पंकेश ने पूछा.

‘‘इस की मम्मी क्या करती हैं, यह तुम नहीं पूछोगे.’’

‘‘बिलकुल नहीं पूछूंगा मम्मी.’’

‘‘समझ लो कि इस की शादी का इंतजाम होस्टल वाले करेंगे और इस के पिता इस के पैदा होते ही गुजर गए थे. जहां भी इस की शादी होगी, मेरी सहेली सिर्फ फेरे के समय 2 घंटे के लिए ही आएगी.’’

‘‘मम्मी, आप की सहेली की हर बात मंजूर है…’’ खुद से पंकेश बोला, ‘‘मैं तो विभा से शादी करना चाहता हूं.’’

‘‘ठीक है. मैं सहेली से बात करती हूं,’’ कह कर यशोदा मोबाइल ले कर जमना से बात करने लगी.

उधर पंकेश ने जो सपना देखा था, वह पूरा हो गया, साथ में यशोदा का भी. उस के मन से बोझ उतर गया था. जमना के अहसानों का बदला उस ने चुका दिया था.

प्यार के काबिल: जूही और मुकुल के बीच क्या हुआ

मुकुल और जूही दोनों सावित्री कालोनी में रहते थे. उन के घर एकदूसरे से सटे हुए थे. दोनों ही हमउम्र थे और साथसाथ खेलकूद कर बड़े हुए थे.

दोनों के परिवार भी संपन्न, आधुनिक और स्वच्छंद विचारों के थे, इसलिए उन के परिवार वालों ने कभी भी उन के मिलनेजुलने और खेलनेकूदने पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया था. इस प्रकार मुकुल और जूही साथसाथ पढ़तेलिखते, खेलतेकूदते अच्छे अंकों के साथ हाईस्कूल पास कर गए थे.

इधर कुछ दिनों से मुकुल अजीब सी परेशानी महसूस कर रहा था. कई दिन से उसे ऐसा एहसास हो रहा था कि उस की नजरें अनायास ही जूही के विकसित होते शरीर के उभारों की तरफ उठ जाती हैं, चाहे वह अपनेआप को लाख रोके. बैडमिंटन खेलते समय तो उस के वक्षों के उभार को देख कर उस का ध्यान ही भंग हो जाता है. वह अपनेआप को कितना भी नियंत्रित क्यों न करे, लेकिन जूही के शरीर के उभार उसे सहज ही अपनी ओर आकर्षित करते हैं.

जूही को भी यह एहसास हो गया था कि मुकुल की निगाहें बारबार उस के शरीर का अवलोकन करती हैं. कभीकभी तो उसे यह सब अच्छा लगता, लेकिन कभीकभी काफी बुरा लगता था.

यह सहज आकर्षण धीरेधीरे न जाने कब प्यार में बदल गया, इस का पता न तो मुकुल और जूही को चला और न ही उन के परिवार वालों को.

लेकिन यह बात निश्चित थी कि मुकुल को जूही अब कहीं अधिक खूबसूरत, आकर्षक और लाजवाब लगने लगी थी. दूसरी तरफ जूही को भी मुकुल अधिक स्मार्ट, होशियार और अच्छा लगने लगा था. दोनों एकदूसरे में किसी फिल्म के नायकनायिका की छवि देखते थे. बात यहां तक पहुंच गई कि

इस वर्ष वैलेंटाइन डे पर दोनों ने एकदूसरे को न सिर्फ ग्रीटिंग कार्ड दिए, बल्कि दोनों के बीच प्रेमभरे एसएमएस का भी आदानप्रदान हुआ.

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इस के बाद तो एकदूसरे के प्रति उन की झिझक खुलने लगी. वे दोनों प्रेम का इजहार तो करने ही लगे साथ ही फिल्मी स्टाइल में एकदूसरे से प्रेमभरी नोकझोंक भी करने लगे. हालत यह हो गई कि पढ़ते समय भी दोनों एकदूसरे के खयालों में ही डूबे रहते. अब किताबों के पन्नों पर भी उन्हें एकदूसरे की तसवीर नजर आ रही थी.

इस के चलते उन की पढ़ाई पर असर पड़ना स्वाभाविक था. इंटर पास करतेकरते उन के आकर्षण और प्रेम की डोर तो मजबूत हो गई, लेकिन पढ़ाई का ग्राफ काफी नीचे गिर गया, जिस का असर उन के परीक्षाफल में नजर आया. नंबर कम आने पर दोनों के परिवार वाले चिंतित तो थे, लेकिन वे नंबर कम आने का असली कारण नहीं खोज पा रहे थे.

इंटर पास कर के मुकुल और जूही ने डिग्री कालेज में प्रवेश लिया तो उन के प्रेम को और विस्तार मिला. अब उन्हें मिलनेजुलने के लिए कोई जगह तलाशने की आवश्यकता नहीं थी. कालेज की लाइब्रेरी, कैंटीन और पार्क गपशप और उन के प्रेम इजहार के लिए उमदा स्थान थे.

इस प्रकार मुकुल और जूही का प्रेम परवान चढ़ता ही जा रहा था. किताबों में पढ़ कर और फिल्में देख कर वे प्रेम का इजहार करने के कई नायाब तरीके सीख गए थे.

इस बार वैलेंटाइन डे के अवसर पर मुकुल ने सोचा कि वह एक नए अंदाज में जूही से अपने प्रेम का इजहार करेगा. यह नया अंदाज उस ने एक पत्रिका में तो पढ़ा ही था, फिल्म में भी देखा था. उस ने पढ़ा था कि इस कलात्मक अंदाज से प्रेमिका काफी प्रभावित होती है और फिर वह अपने प्रेमी के खयालों में ही डूबी रहती है. इस कलात्मक अंदाज को उस ने इस वैलेंटाइन डे पर आजमाने का निश्चय किया. उस ने शीशे के सामने खड़े हो कर उस का खूब अभ्यास भी किया.

सुबहसुबह का समय था. मौसम भी अच्छा था. मुकुल का मन रोमानी था. उस ने हाथ में लिए गुलाब के खिले फूल को निहारा और फिर उसे अपने होंठों पर रख कर चूम लिया. अब उस से रहा न गया. उस ने अपने मोबाइल से जूही को छत पर आने के लिए एसएमएस किया.

जूही तो जैसे तैयार ही बैठी थी. मैसेज पाते ही वह चहकती हुई छत की तरफ दौड़ी. वह प्रेम की उमंग और तरंग में डूबी हुई थी और वैसे भी प्रेम कभी छिपाए नहीं छिपता.

जूही को इस प्रकार छत की ओर दौड़ते देख उस की मम्मी का मन शंका से भर उठा. वे सोचने लगीं, ‘इतनी सुबह जूही को छत पर क्या काम पड़ गया? अभी तो धूप भी अच्छी तरह से नहीं खिली.’ उन की शंका ने उन के मन में खलबली मचा दी. वे यह देखने के लिए कि जूही इतनी सुबह छत पर क्या करने गई है, उस के पीछेपीछे चुपके से छत पर पहुंच गईं.

वहां का दृश्य देख कर जूही की मम्मी हतप्रभ रह गईं. जूही के सामने मुकुल घुटने टेके गुलाब का फूल लिए प्रणय निवेदन की मुद्रा में था. वह बड़े ही प्रेम से बोला, ‘‘जूही डार्लिंग, आई लव यू.’’

जूही ने भी उस के द्वारा दिए गए गुलाब के फूल को स्वीकार करते हुए कहा, ‘‘मुकुल, आई लव यू टू.’’

यह दृश्य देख कर जूही की मम्मी के पैरों तले जमीन खिसक गई, लेकिन छत पर कोई तमाशा न हो, इसलिए वे चुपचाप दबे कदमों से नीचे आ गईं. अब वे बहुत परेशान थीं.

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थोड़ी देर बाद जूही भी उमंगतरंग में डूबी हुई, प्रेमरस में सराबोर गाना गुनगुनाती हुई नीचे आ गई. इस समय वह इतनी खुश थी, मानो सारा जहां उस के कदमों में आ गया हो. इस समय उसे कुछ भी नहीं सूझ रहा था.

उस की मम्मी को भी समझ नहीं आ रहा था कि वे उस के साथ कैसे पेश आएं? उन के मन में आ रहा था कि जूही के गाल पर थप्पड़ मारतेमारते उन्हें लाल कर दें. दूसरे ही पल उन के मन में आया कि नहीं,  इस मामले में उन्हें समझदारी से काम लेना चाहिए. उन्होंने शाम को जूही के पापा से ही बात कर के किसी निर्णय पर पहुंचने की सोची. उधर, आज दिनभर जूही अपने मोबाइल पर लव सौंग सुनती रही.

शाम को जब जूही की मम्मी ने जूही के पापा को सुबह की पूरी घटना बताई, तो वे भी सन्न रह गए. फिर भी उन्होंने धैर्य से काम लेते हुए कहा, ‘‘निशा, तुम चिंता मत करो. जूही युवावस्था से गुजर रही है और यह युवावस्था का सहज आकर्षण है. क्या हम ने भी ऐसा ही नहीं किया था?’’

‘‘राजेंद्र, तुम्हें तो हर वक्त मजाक ही सूझता है. यह जरूरी तो नहीं कि जो हम करें वही हमारी संतानें भी करें.’’

‘‘निशा, मेरे कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि बच्चों के भविष्य को ध्यान में रख कर कोई कदम ही न उठाया जाए. मैं आज ही मुकुल के पापा से बात करता हूं. बच्चों को समझाने से ही कोई हल निकलेगा.’’

जूही के पापा ने मुकुल के पापा से मिलने का समय लिया और फिर उन से मिलने उन के घर गए. फिर दोनों ने सौहार्दपूर्ण वातावरण में मुकुल और

जूही के प्रेम व्यवहार और उन के भविष्य पर चर्चा की, जिस से वे दोनों कहीं गलत रास्ते पर न चल पड़ें. दोनों ने बातों ही बातों में मुकुल और जूही को सही मार्ग पर आगे बढ़ाने की योजना और नीति बना ली थी.

तब एक दिन मुकुल के पापा ने सही अवसर पा कर मुकुल को अपने पास बुलाया और उस से इस प्रकार बातें शुरू कीं जैसे उन्हें उस के और जूही के बीच पनप रहे प्रेम संबंधों के बारे में कुछ पता ही न हो.

उन्होंने बड़े प्यार से मुकुल से पूछा, ‘‘बेटा मुकुल, आजकल तुम खोएखोए से रहते हो. इस बार तुम्हारे नंबर भी तुम्हारी योग्यता और क्षमता के अनुरूप नहीं आए. आखिर क्या समस्या है बेटा?‘‘

मुकुल के पास इस प्रश्न का कोई सटीक उत्तर नहीं था. कभी वह प्रश्नपत्रों के कठिन होने को दोष देता, तो कभी आंसर शीट के चैक होने में हुई लापरवाही को दोष देता.

‘‘बेटा मुकुल, मुझे तो ऐसा लग रहा है कि तुम अपना ध्यान पढ़ाई में सही से लगा नहीं पा रहे हो. कोई इश्कविश्क का मामला तो नहीं है?’’

यह सुनते ही मुकुल को करंट सा लगा. उस के मुंह से तुरंत निकला, ‘‘नहीं पापा, ऐसी कोई बात नहीं है.’’

‘‘बेटा, यह उम्र ही ऐसी होती है. यदि ऐसा है भी तो कोई बुरी बात नहीं. मुझे अपना दोस्त समझ कर तुम अपनी भावनाओं को मुझ से शेयर कर सकते हो. एक पिता कभी अपने बेटे को गलत सलाह नहीं देगा, विश्वास करो.’’

लेकिन मुकुल अब भी कुछ बताने से झिझक रहा था. उस के पापा उस के चेहरे को देख कर समझ गए कि उस के मन में कुछ है, जिसे वह बताने से झिझक रहा है. तब उन्होंने उस से कहा, ‘‘मुकुल, कुछ भी बताने से झिझको मत. तुम्हारे सपनों को पूरा करने में सब से बड़ा मददगार मैं ही हो सकता हूं. बताओ बेटा, क्या बात है?’’

अपने पापा को एक दोस्त की तरह बातें करते देख मुकुल की झिझक खुलने लगी. तब उस ने भी जूही के साथ चल रही अपनी प्रेम कहानी को सहज रूप से स्वीकार कर लिया.

इस पर उस के पापा ने कहा, ‘‘मुकुल, तुम एक समझदार बेटे हो जो तुम ने सचाई स्वीकार की. मुझे जूही से तुम्हारी

दोस्ती पर किसी भी तरह से कोई भी एतराज नहीं. बस, मैं तो सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि यदि तुम जूही को पाना चाहते हो तो पहले उस के लायक तो बनो.

‘‘तुम जूही को तभी पा सकते हो, जब अपने कैरियर को संवार लो और कोई अच्छी नौकरी व पद प्राप्त कर लो. बेटा, यदि तुम अपना और जूही का जीवन सुखमय बनाना चाहते हो, तो तुम्हें अपना कैरियर संवारना ही होगा अन्यथा जूही के पेरैंट्स भी तुम्हें स्वीकार नहीं करेंगे. इस दुनिया में असफल आदमी का साथ कोई नहीं देता.’’

यह सुन कर मुकुल ने भावावेश में कहा, ‘‘पापा, हम एकदूसरे से सच्चा प्यार करते हैं. कभी हम एकदूसरे से जुदा नहीं हो सकते.’’

‘‘बेटा, तुम दोनों को जुदा कौन कर रहा है? मैं तो बस इतना कह रहा हूं कि यदि तुम जूही से जुदा नहीं होना चाहते तो उस के लिए कुछ बन कर दिखाओ. अन्यथा कितने ही सच्चे प्रेम की दुहाई देने वाले रिश्ते हों, अनमेल होने पर टूट और बिखर जाते हैं. यदि तुम ऐसा नहीं चाहते तो जूही की जिंदगी में खुशबू महकाने के लिए तुम्हें कुछ बन कर दिखाना ही होगा.’’

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‘‘पापा, आप की बात मुझे समझ आ गई है. हम जिस चीज को चाहते हैं, उस के लिए हमें उस के लायक बनना ही पड़ता है. नहीं तो वह चीज हमारे हाथ से निकल जाती है.

‘‘अभी तक मैं अपना बेशकीमती समय यों ही गाने सुनने और फिल्में देखने में गवां रहा था. अब मैं अपना पूरा समय अपना कैरियर संवारने में लगाऊंगा. मुझे अपने प्यार के काबिल बनना है.’’

‘‘शाबाश बेटा, अपने इस जज्बे को कायम रखो. अपनी पढ़ाई में पूरा मन लगाओ. अपना कैरियर संवारो. मात्र सपने देखने से कुछ नहीं होता, उन्हें हकीकत में बदलने के लिए प्रयास और परिश्रम करना ही पड़ता है. जूही को पाना चाहते हो तो जूही के काबिल बनो.’’

‘‘पापा, आप ने मेरी आंखें खोल दी हैं. मैं आप से वादा करता हूं कि मैं ऐसा ही करूंगा.’’

‘‘ठीक है बेटा, तुम्हें मेरी सलाह समझ में आ गई. मैं एक दोस्त और मार्गदर्शक के रूप मे तुम्हारे साथ हूं.’’

इसी प्रकार की बातें जूही के पेरैंट्स ने जूही को भी समझाईं. इस का असर जल्दी ही देखने को मिला. मुकुल और जूही एकदूसरे को पाने के लिए अपनाअपना कैरियर संवारने में लग गए. अब वे दोनों अपनी पढ़ाई ध्यान लगा कर करने लगे थे.

जूही और मुकुल के पेरैंट्स भी यह देख कर काफी खुश थे कि उन के बच्चे सही राह पर चल पड़े हैं और अपनाअपना भविष्य उज्ज्वल बनाने में लगे हैं.

उपहार: क्यों बीवी के सामने गिड़गिड़ाया बैजू?

Writer- धर्मेंद्र राजमंगल

बैजू की साली राधा की शादी बैजू के ताऊ के बेटे सोरन के साथ तय हो गई. बैजू और उस की पत्नी अनोखी नहीं चाहते थे कि यह शादी हो, पर सोरन के बड़े भाई सौदान ने राधा के भाई बिल्लू को बिना ब्याज के कर्ज दे कर यह सब जुगाड़ बना लिया था. अब ऊपरी खुशी से बैजू और अनोखी इस शादी को कराने में जुट गए. शादी से पहले ही राधा ने जीजा से अपने लिए एक रंगीन टीवी उपहार में मांग लिया.

बैजू ने दरियादिली से मान लिया, पर जब अनोखी ने सुना, तो वह जलभुन गई. घर आते ही वह आंखें तरेर कर बोली, ‘‘अपने घर में कालासफेद टैलीविजन नहीं और तुम साली को रंगीन टीवी देने चले हो.

‘‘चलो, सिर्फ साली को देते तो ठीक था, लेकिन उस की शादी में टीवी देने का मतलब है कि सोरन के घर टीवी आएगा. हम टीवी दे कर भी बिना टीवी वाले रहेंगे और सोरन बिना पैसा दिए ही टीवी देखने का मजा उठाएगा.

‘‘तुम आज ही जा कर राधा से टीवी के लिए मना कर दो, नहीं तो मेरीतुम्हारी नहीं बनेगी.’’

बैजू अनोखी की बात सुन कर सकपका गया. उसे तो खुद टीवी देने वाली बात मंजूर नहीं थी, लेकिन राधा ने रंगीन टीवी उपहार में मांगा, तो वह मना न कर सका.

समाज के लोग कहेंगे कि मर्द हो कर अपनी जबान का पक्का नहीं है. यह भी कहेंगे कि वह औरत की बातों में आ गया. सब उसे जोरू का गुलाम कहेंगे.

बैजू इतना सोच कर अपनी बीवी के सामने गिड़गिड़ाते हुए बोला, ‘‘अनोखी, मैं तेरे हाथ जोड़ता हूं. इतने पर भी तू न माने, तो मैं तेरे पैरों में गिर जाऊंगा. इस बार की गलती के लिए मुझे माफ कर दे. आगे से मैं तुझ से पूछे बिना कोई काम न करूंगा.

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‘‘मैं ने राधा को टीवी देने की बात कह दी है, अब मैं अपनी बात से पीछे नहीं हट सकता. तू खुद ही सोच कि क्या मेरी बदनामी में तेरी बदनामी नहीं होगी? लोग मुझे झूठा कहेंगे, तो तुझे भी तो झूठे की बीवी कहेंगे. महल्ले की औरतें ताने मारमार कर तेरा जीना मुहाल कर देंगी. मुझे मजबूर मत कर.’’

अनोखी थोड़ी चालाक भी थी. उसे पता था कि कहने के बाद टीवी न देने से महल्ले में कितनी बदनामी होगी. वह अपने पति से बोली, ‘‘ठीक है, इस बार मैं तुम्हें माफ कर देती हूं, लेकिन आगे से किसी की भी शादी में ऐसी कोई चीज न देना, जो हमारे घर में न हो…

‘‘और तुम यह मत समझना कि मैं बदनामी से डरती हूं. मैं तो केवल तुम्हारे मनुहार की वजह से यह बात मान गई हूं.’’

राधा और सोरन की शादी हुई. बैजू ने अपने दिल पर पत्थर रख कर रंगीन टीवी का तोहफा शादी में दे दिया.

अनोखी भी टीवी की तरफ देखदेख कर अपना दिल थाम लेती थी. मन होता था कि उस टीवी को उठा कर अपने घर में रख ले, लेकिन वह ऐसा नहीं कर सकती थी.

अनोखी का सपना था कि उस के घर में भी रंगीन टीवी हो. उस टीवी पर आने वाले सासबहू की लड़ाई से लबरेज धारावाहिक धूमधाम से चलें. लेकिन ये सब अरमान सीने में ही दबे रह गए.

राधा सोरन के घर में आ कर रहने लगी. थोड़े ही दिनों में राधा ने सोरन से कह कर जीजा का दिया रंगीन टीवी चलाना शुरू कर दिया. टीवी इतनी तेज आवाज में चलता कि बगल में बने बैजू के घर में बैठी अनोखी के कानों तक सासबहू के भड़कते संवाद गूंजते.

अनोखी का दिल होता कि जा कर टीवी देख ले, लेकिन उस ने कसम खाई थी कि जब तक वह अपने घर में भी रंगीन टीवी न मंगवा लेगी, तब तक राधा के घर टीवी पर कोई प्रोग्राम न देखने जाएगी.

राधा ने एक दिन अपनी सगी बहन अनोखी से कहा भी, ‘‘जीजी, तू मेरे घर पर टीवी देखने क्यों नहीं आती? कहीं तुझे भी महल्ले के लोगों की तरह मुझ से जलन तो नहीं होती?’’

अनोखी इस बात को सुन कर खून का घूंट समझ कर पी गई. उस ने राधा को कोई जवाब न दिया, लेकिन दोचार दिनों में ही आसपड़ोस की औरतों से उसे सुनने को मिला कि राधा सब से कहती है, ‘‘मेरी बड़ी बहन मुझ से दुश्मन की तरह जलती है. क्योंकि मेरे घर में रंगीन टीवी है और उस के घर कालासफेद टीवी भी नहीं है.’’

अनोखी इस बात को भी खून का घूंट समझ कर पी गई. लेकिन एक दिन अनोखी का लड़का रोता हुआ घर आया. जब अनोखी ने उस से रोने की वजह पूछी, तो उस ने बताया, ‘‘मां, मौसी ने मुझे टीवी नहीं देखने दिया.’’

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अपने लड़के से यह बात सुन कर अनोखी का अंगअंग जल कर कोयला हो गया. आखिर उस के पति का दिया टीवी उसी का लड़का क्यों नहीं देख सकता? शाम तक अनोखी इसी आग में जलती रही.

जब बैजू घर आया, तो उस ने तुगलकी फरमान सुना दिया, ‘‘तुम अभी जा कर उस टीवी को उठा लाओ. आखिर तुम ने ही तो उस को दिया है. जब हमारा दिया हुआ टीवी हमारा ही लड़का न देख सके, तो क्या फायदा… और वह राधा की बच्ची सारे महल्ले की औरतों से मेरी बदनामी करती फिरती है. तुम अभी जाओ और टीवी ले कर ही घर में कदम रखना.’’

अनोखी की लाल आंखें देख बैजू सकपका गया. अनोखी को जवाब भी देने की उस में हिम्मत न हुई. वैसे, गुस्सा तो बैजू को भी आ रहा था. वह सीधा सोरन के घर पहुंच गया.

राधा टीवी देख रही थी. बैजू को देखते ही वह मुसकरा कर बोली, ‘‘आओ जीजा, तुम भी टीवी देख लो.’’

बैजू थोड़ा नरम हुआ, लेकिन अनोखी की याद आते ही फिर से गरम हो गया. वह थोड़ी देर राधा को देखता रहा, फिर बोला, ‘‘राधा, यह टीवी तुम्हें वापस करना होगा. मैं ने ही तुम्हें दिया था और मैं ही वापस ले जाऊंगा.’’

बैजू के मुंह से टीवी की वापसी वाली बात सुन कर राधा के रोंगटे खड़े हो गए. वह बोली, ‘‘जीजा, तुम्हें क्या हो गया है? आज तुम ऐसी बातें क्यों करते हो? यह टीवी तो तुम ने मुझे उपहार में दिया था.’’

बैजू कुछ कहता, उस से पहले ही महल्ले की कई औरतें और लड़कियां राधा के घर में आ पहुंचीं. उन्हें रंगीन टीवी पर आने वाला सासबहू का सीरियल देखना था.

शायद बैजू गलत समय पर राधा से टीवी वापस लेने आ पहुंचा था. इतने लोगों को देख बैजू के होश उड़ गए. भला, इतने लोगों के सामने उपहार में दिया हुआ टीवी कैसे वापस ले जाएगा. महल्ले की औरतों को देख कर राधा की हिम्मत बढ़ गई.

एक औरत ने राधा से पूछ ही लिया, ‘‘क्या बात है राधा बहन, इस तरह उदास क्यों खड़ी हो?’’

राधा शिकायती लहजे में उन सब औरतों को सुनाते हुए बोली, ‘‘देखो न बहन, जीजा ने पहले मुझे शादी के समय उपहार में यह टीवी दे दिया, लेकिन अब वापस मांग रहे हैं. भला, यह भी कोई बात हुई.’’

राधा की यह बात सुन कर बैजू सकपका गया. अब वह क्या करे. टीवी वापस लेने में तो काफी बदनामी होने वाली थी. उस ने थोड़ी चालाकी से काम लिया. वह गिरगिट की तरह एकदम रंग बदल गया और जोर से हंसता हुआ बोला, ‘‘अरे राधा, तुम तो बड़ी बुद्धू हो. मैं तो मजाक कर रहा था.

‘‘तुम मेरी सगी और एकलौती साली हो, भला तुम से भी मैं मजाक नहीं कर सकता. तुम बड़ी भोली हो, सोचती भी नहीं कि क्या मैं यह टीवी वापस ले जा सकता हूं… पगली कहीं की.’’

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बैजू की इस बात पर राधा दिल पर हाथ रख कर हंसने लगी और बोली, ‘‘जीजा, तुम ने तो मेरी जान ही निकाल दी थी. फिर तुम बिना साली के भटकते फिरते. जिंदगीभर तुम किसी लड़की से जीजा सुनने को तरसते.’’

इस बात पर सभी औरतों की हंसी छूट पड़ी. सारा माहौल फिर से खुशनुमा हो गया. बैजू को एक पल भी वहां रहना अच्छा नहीं लग रहा था. वह राधा से बोला, ‘‘अच्छा राधा, अब मैं चलता हूं. मैं तो यह देखने आया था कि टीवी सही चल रहा है कि नहीं.’’ राधा अपने जीजा के मुंह से इतनी फिक्र भरी बात सुन खुश हो गई और बोली, ‘‘जीजा, तुम आए हो तो शरबत पीए बिना न जाने दूंगी. एक मिनट बैठ जाओ, अभी बना कर लाती हूं.’’

राधा ने खुशीखुशी शरबत बना कर बैजू को पिला दिया. शरबत पीने के बाद बैजू उठ कर अपने घर को चल दिया. उसे पता था कि अनोखी उस का क्या हाल करेगी. कहेगी कि साली की मुसकान से घायल हो गए. उस की मीठीमीठी बातों में फंस गए. उस ने शरबत पिला कर तुम को पटा लिया. उस के घर में ही जा कर रहो, अब तुम मेरे पति हो  ही नहीं. लेकिन बैजू भी क्या करता. भला उपहार को किस मुंह से वापस ले ले, वह भी इतनी औरतों के सामने. ऊपर से जिस से उपहार वापस लेना था, वह उस की सगी और एकलौती साली थी. बैजू ने सोच लिया कि वह बीवी का हर जुल्म सह लेगा, लेकिन दिया हुआ उपहार वापस नहीं लेगा.

शेष शर्त: प्रभा के मामा की अनूठी शर्त

मैं जब मामा के घर पहुंची तो विभा बाहर जाने की तैयारी में थी.

‘‘हाय दीदी, आप. आज ? जरा जल्दी में हूं, प्रैस जाने का समय हो गया है, शाम को मिलते हैं,’’ वह उल्लास से बोली.

‘‘प्रभा को तुम्हारे दर्शन हो गए, यही क्या कम है. अब शाम को तुम कब लौटोगी, इस का कोई ठिकाना है क्या?’’ तभी मामी की आवाज सुनाई दी.

‘‘नहींनहीं, तुम निकलो, विभा. थोड़ी देर बाद मुझे भी बाहर जाना है,’’ मैं ने कहा.

मामाजी कहीं गए हुए थे. अमित के स्नान कर के आते ही मामी ने खाना मेज पर लगा दिया. पारिवारिक चर्र्चा करते हुए हम ने भोजन आरंभ किया. मामी थकीथकी सी लग रही थीं. मैं ने पूछा तो बोलीं, ‘‘इन बापबेटों को नौकरी वाली बहू चाहिए थी. अब बहू जब नौकरी पर जाएगी तो घर का काम कौन करेगा? नौकरानी अभी तक आई नहीं.’’

मैं ने देखा, अमित इस चर्चा से असुविधा महसूस कर रहा था. बात का रुख पलटने के लिए मैं ने कहा, ‘‘हां, नौकरानियों का सब जगह यही हाल है. पर वे भी क्या करें, उन्हें भी तो हमारी तरह जिंदगी के और काम रहते हैं.’’

अमित जल्दीजल्दी कपड़े बदल कर बाहर निकल गया. मैं ने मामी के साथ मेज साफ करवाई. बचा खाना फ्रिज में रखा और रसोई की सफाई में लग गई. मामी बारबार मना करती रहीं, ‘‘नहीं प्रभा, तुम रहने दो, बिटिया. मैं धीरेधीरे सब कर लूंगी. एक दिन के लिए तो आई हो, आराम करो.’’

मुझे दोपहर में ही कई काम निबटाने थे, इसलिए बिना आराम किए ही बाहर निकलना पड़ा.

जब मैं लौटी तो शाम ढल चुकी थी. मामी नौकरानी के साथ रसोई में थीं. मामाजी उदास से सामने दीवान पर बैठे थे. मैं ने अभिवादन किया तो क्षणभर को प्रसन्न हुए. परिवार की कुशलक्षेम पूछी. फिर चुपचाप बालकनी में घूमने लगे. बात कुछ मेरी समझ में न आई. अमित और विभा भी कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे. मामाजी का गंभीर रुख देख कर उन से कुछ पूछने की हिम्मत न हुई.

तभी मामी आ गईं, ‘‘कब आईं, बिटिया?’’

‘‘बस, अभी, मामाजी कुछ परेशान से दिखाई दे रहे हैं.’’

‘‘विभा अभी तक औफिस से नहीं लौटी है, जाने कैसी नौकरी है उस की.’’

कुछ देर बाद अमित और विभा साथसाथ ही आए. दोनों के मुख पर अजीब सा तनाव था. विभा बिना किसी से बोले तेजी से अपने कमरे में चली गई. अमित हम लोगों के पास बैठ कर टीवी देखने लगा. वातावरण सहसा असहज लगने लगा. किसी अनर्थ की आशंका से मन व्याकुल हो उठा.

विभा कपड़े बदल कर कमरे में आई तो मामी ने उलाहने के स्वर में कहा, ‘‘खाना तो हम ने बना लिया है. अब मेज पर लगा लोगी या वह भी हम जा कर ही लगाएं?’’

मामाजी मानो राह ही देख रहे थे, तमक कर बोले, ‘‘तुम बैठो चुपचाप, बुढ़ापे में मरी जाती हो. अभी पसीना सूखा नहीं कि फिर चलीं रसोई में. तुम ने क्या ठेका ले रखा है.’’

बात यहीं तक रहती तो शायद विभा चुप रह जाती, मामाजी दूसरे ही क्षण फिर गरजे, ‘‘लोग बाहर मौज करते हैं. पता है न कि घर में 24 घंटे की नौकरानी है.’’

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इस आरोप से विभा हतप्रभ रह गई. कम से कम उसे यह आशा नहीं रही होगी कि मामाजी मेरी उपस्थिति में भी ऐसी बातें कह जाएंगे. उस ने वितृष्णा से कहा, ‘‘आप लोगों को दूसरों के सामने तमाशा करने की आदत हो गई है.’’

‘‘हम लोग तमाशा करते हैं? तमाशा करने वाले आदमी हैं, हम लोग? पहले खुद को देखो, अच्छे खानदान की लड़कियां घरपरिवार से बेफिक्र इतनी रात तक बाहर नहीं घूमतीं.’’

‘‘आप को मेरा खानदान शादी के पहले देखना था, बाबूजी.’’

मामाजी भड़क उठे, ‘‘मुझ से जबान मत चलाना, वरना ठीक न होगा.’’ बात बढ़ती देख अमित पत्नी को धकियाते हुए अंदर ले गया. मैं लज्जा से गड़ी जा रही थी. पछता रही थी कि आज रुक क्यों गई. अच्छा होता, जो शाम की बस से घर निकल जाती. यों बादल बहुत दिनों से गहरातेघुमड़ते रहे होंगे, वे तो उपयुक्त अवसर देख कर फट पड़े थे.

थोड़ी देर बाद मामी ने नौकरानी की सहायता से खाना मेज पर लगाया. मामी के हाथ का बना स्वादिष्ठ भोजन भी बेस्वाद लग रहा था. सब चुपचाप अपने में ही खोए भोजन कर रहे थे. बस, मामी ही भोजन परोसते हुए और लेने का आग्रह करती रहीं.

भोजन समाप्त होते ही मामाजी और अमित उठ कर बाहर वाले कमरे में चले गए. मैं ने धीरे से मामी से पूछा, ‘‘विभा…?’’

‘‘वह कमरे से आएगी थोड़े ही.’’

‘‘पर?’’

‘‘बाहर खातीपीती रहती है,’’ उन्होंने फुसफुसा कर कहा.

मैं सोच रही थी कि विभा बहू की जगह बेटी होती तो आज का दृश्य कितना अलग होता.

‘‘देखा, सब लोगों का खाना हो गया, पर वह आई नहीं,’’ मामी ने कहा.

‘‘मैं उसे बुला लाऊं?’’

‘‘जाओ, देखो.’’

मैं उस के  कमरे में गई. उस की आंखों में अब भी आंसू थे. मुझे यह जान कर आश्चर्य हुआ कि अमित उसे मेरे कारण औफिस का काम बीच में ही छुड़वा कर ले आया था और ऐसा पहली बार नहीं हुआ था. जब भी कोई मेहमान आता, उसे औफिस से बुलवा लिया जाता.

‘‘तुम ने अमित को समझाने की कोशिश नहीं की?’’

‘‘कई बार कह चुकी हूं.’’

‘‘वह क्या कहता है?’’

‘‘औफिस का काम छोड़ कर आने में तकलीफ होती है तो नौकरी छोड़ दो.’’

क्षणभर को मैं स्तब्ध ही रह गई कि जब नए जमाने का पढ़ालिखा युवक उस के काम की अहमियत नहीं समझता तो पुराने विचारों के मामामामी का क्या दोष.

‘‘चिंता न करो, सब ठीक हो जाएगा. शुरू में सभी को ससुराल में कुछ न कुछ कष्ट उठाना ही पड़ता है,’’ मैं ने उसे धैर्य बंधाते हुए कहा.

फिर घर आ कर इस घटना को मैं लगभग भूल ही गई. संयुक्त परिवार की यह एक साधारण सी घटना ही तो थी. किंतु कुछ माह बीतते न बीतते, एक दिन मामाजी का पत्र आया. उन्होंने लिखा था कि अमित का तबादला अमरावती हो गया है, परंतु विभा ने उस के साथ जाने से इनकार कर दिया है.

पत्र पढ़ कर मुझे पिछली कितनी ही बातें याद हो आईं… अमित मामाजी का एकलौता बेटा था. घर में धनदौलत की कोई कमी न थी, तिस पर उस ने इंजीनियरिंग की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की थी. देखने में भी वह लंबाचौड़ा आकर्षक युवक था. इन तमाम विशेषताओं के कारण लड़की वालों की भीड़ उस के पीछे हाथ धो कर पड़ी थी.

किंतु मामाजी भी बड़े जीवट आदमी थे. उन्होंने तय कर लिया था कि लड़की वाले चाहे जितना जोर लगा लें, पर अमित का विवाह तो वे अपनी शर्तों पर ही करेंगे. जिन दिनों अमित के रिश्ते की बात चल रही थी, मैं ने भी मामाजी को एक मित्रपरिवार की लड़की के विषय में लिखा था. लड़की मध्यवर्गीय परिवार की थी. अर्थशास्त्र में एमए कर रही थी. देखने में भली थी. मेरे विचार में एक अच्छी लड़की में जो गुण होने चाहिए, वे सब उस में थे.

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मामाजी ने पत्रोत्तर जल्दी ही दिया था. उन्होंने लिखा था… ‘बेटी, तुम अमित के लिए जो रिश्ता देखोगी, वह अच्छा ही होगा, इस का मुझे पूरा विश्वास है. पर अमित को विज्ञान स्नातक लड़की चाहिए. दहेज मुझे नहीं चाहिए, लेकिन तुम तो जानती हो, रिश्तेदारी बराबरी में ही भली. जहां तक हो सके, लड़की नौकरी वाली देखो. अमित भी नौकरी वाली लड़की चाहता है.’

मामाजी का पत्र पढ़ कर मैं हैरान रह गई. मामाजी उस युग के आदमी थे जिस में कुलीनता ही लड़की की सब से बड़ी विशेषता मानी जाती थी. लड़की थोड़ीबहुत पढ़ीलिखी और सुंदर हो तो सोने पर सुहागा. जमाने के हिसाब से विचारों में परिवर्तन होना स्वाभाविक है. लेकिन लगता था कि वे बिना यह सोचेविचारे कि उन के अपने परिवार के लिए कैसी लड़की उपयुक्त रहेगी, जमाने के साथ नहीं बल्कि उस से आगे चल रहे थे.

संयोग से दूसरे ही सप्ताह मुझे नागपुर जाने का अवसर मिला. मामाजी से मिलने गई तो देखा, वे बैठक में किसी महिला से बातें कर रहे हैं. वे उस महिला को समझा रहे थे कि अमित के लिए उन्हें कैसी लड़की चाहिए.

उन्होंने दीवार पर 5 फुट से 5 फुट 5 इंच तक के निशान बना रखे थे और उस महिला को समझा रहे थे, ‘‘अपना अमित 5 फुट 10 इंच लंबा है. उस के लिए लड़की कम से कम 5 फुट 3 इंच ऊंची चाहिए. यह देखो, यह हुआ 5 फुट, यह 5 फुट 1 इंच, 2 इंच, 3 इंच. 5 फुट 4 इंच हो तो भी चलेगी. लड़की गोरी चाहिए. लड़की के मामापिता, भाईबहनों के बारे में सारी बातें एक कागज पर लिख कर ले आना. लड़की हमें साइंस ग्रेजुएट चाहिए. अगर गणित वाली हो या पोस्टग्रेजुएट हो तो और भी अच्छा है.’’

सामने बैठी महिला को भलीभांति समझा कर वे मेरी ओर मुखातिब हुए, ‘बेटे, आजकल आर्ट वालों को कोई नहीं पूछता, उन्हें नौकरी मुश्किल से मिलती है. खैर, बीए में कौन सी डिवीजन थी लड़की की? फर्स्ट डिवीजन का कैरियर हो तो सोचा जा सकता है. एमए के प्रथम वर्ष में कितने प्रतिशत अंक हैं?’

मैं समझ गई कि अमित के लिए रिश्ता तय करवाना मेरे बूते के बाहर की बात है. मामाजी के विचारों के साथ अमित की कितनी सहमति थी, इसे तो वही जाने, पर इस झंझट में पड़ने से मैं ने तौबा कर ली. लगभग 2-3 वर्षों की खोजबीन- जांचपरख के बाद अमित के लिए विभा का चयन किया गया था. वह गोरी, ऊंची, छरहरे बदन की सुंदर देह की धनी थी. उस की शिक्षा कौनवैंट स्कूल में हुई थी. वह फर्राटे से अंगरेजी बोल सकती थी. उस ने राजनीतिशास्त्र में एमए किया था.

बंबई से पत्रकारिता का कोर्स करने के बाद वह नागपुर के एक प्रसिद्ध दैनिक समाचारपत्र में कार्यरत थी. इस विवाह संबंध से मामाजी, मामी और अमित सभी बहुत प्रसन्न थे. खुद मामाजी विभा की प्रशंसा करते नहीं थकते थे.

लेकिन विवाह के 3-4 महीने बाद ही स्थिति बदलने लगी. विभा के नौकरी पर जाते ही यथार्थ जीवन की समस्याएं उन के सामने थीं. मामाजी हिसाबी आदमी थे, वे यह सोच कर क्षुब्ध थे कि आखिर बहू के आने से लाभ क्या हुआ? अमित के तबादले ने इस मामले को गंभीर मोड़ पर पहुंचा दिया था.

इस के  बाद नागपुर जाने के अवसर को मैं ने जानबूझ कर टाल दिया था. किंतु लगभग सालभर बाद मुझे एक बीमार रिश्तेदार को देखने नागपुर जाना ही पड़ा. वहीं मामाजी से भेंट हो गई. अमित और विभा के विषय में पूछा तो बोले, ‘‘घर चलो, वहीं सब बातें होंगी.’’ हम लोग घर पहुंचे तो वहां सन्नाटा छाया हुआ था. मामी खिचड़ी बना कर अभीअभी लेटी थीं, उन की तबीयत ठीक नहीं लग रही थी. मुझे देखा तो उठ बैठीं और शिकायत करने लगीं कि मैं ने उन लोगों को भुला दिया है.

‘‘अमित अमरावती में है, उसे वहां बढि़या फ्लैट मिला है पर खानेपीने की कोई व्यवस्था नहीं है. कभी होटल में खा लेता है, कभी नौकर से बनवा लेता है. तुम्हारी मामी बीचबीच में जाती रहती है, इस का भी बुढ़ापा है. यह यहां मुझे देखे या उसे वहां देखे. मेरी तबीयत भी अब पहले जैसी नहीं रही. यहां का कारोबार देखना भी जरूरी है, नहीं तो सब अमरावती में ही रहते. विभा ने नौकरी छोड़ कर अमित के साथ जाने से इनकार कर दिया. सालभर से मायके में है,’’ मामाजी ने बताया.

अमित के विषय में बातें करते हुए दोनों की आंखों में आंसू भर आए. मैं ने ध्यान से देखा तो दीवार पर 5 फुट की ऊंचाई पर लगा निशान अब भी नजर आ रहा था. मन तो हुआ, उन से कहूं, ‘आप की समस्या इतनी विकट नहीं है, जिस का समाधान न हो सके. ऐसे बहुत से परिवार हैं जहां नौकरी या बच्चों की पढ़ाई के कारण पतिपत्नी को अलगअलग शहरों में रहना पड़ता है. विभा और अमित भी छुट्टियां ले कर कभी नागपुर और कभी अमरावती में साथ रह सकते हैं, ’ पर चाह कर भी कह न सकी.

दूसरे दिन सुबह हमसब नाश्ता कर रहे थे कि किसी ने घंटी बजाई. मामाजी ने द्वार खोला तो सामने एक बुजुर्ग सज्जन खड़े थे. मामी ने धीरे से परिचय दिया, ‘‘दीनानाथजी, विभा के पिता.’’ पता चला कि विभा और अमित के मतभेदों के बावजूद वे बीचबीच में मामाजी से मिलने आते रहते हैं.

मामी अंदर जा कर उन के लिए भी नाश्ता ले आईं. दीनानाथ सकुचाते से बोले, ‘‘बहनजी, आप क्यों तकलीफ कर रही हैं, मैं घर से खापी कर ही निकला हूं.’’ फिर क्षणभर रुक कर बोले, ‘‘क्या करें भई, हम तो हजार बार विभा को समझा चुके कि अमित इतने ऊंचे पद पर है, पूर्वजों का जो कुछ है, वह सब भी तुम्हारे ही लिए है, नौकरी छोड़ कर ठाट से रहे. पर वह कहती है कि ‘मैं सिर्फ पैसा कमाने के लिए नौकरी नहीं कर रही हूं. इस काम का संबंध मेरे दिलोदिमाग से है. मैं ने अपना कैरियर बनाने के लिए रातरातभर पढ़ाई की है. नौकरी के लिए कड़ी प्रतिस्पर्धा से गुजरी हूं. अब इस नौकरी को छोड़ देने में क्या सार्थकता है?’ ऐसे में आप ही बताइए,’’ उन्होंने बात अधूरी ही छोड़ दी.

मामाजी ने अखबार पढ़ने का बहाना कर के उन की बात को अनसुना कर दिया. परंतु मामी चुप न रह सकीं, ‘‘भाईसाहब, लड़की तो लड़की ही है, लेकिन हम बड़े लोगों को तो उसे यही शिक्षा देनी चाहिए कि वह अपनी घरगृहस्थी देखते हुए नौकरी कर सके तो जरूर करे. नौकरी के लिए घरपरिवार छोड़ दे, पति को छोड़ दे और मायके में जा बैठे, यह तो ठीक नहीं है.’’

यद्यपि मामी ने अपनी बात बड़ी सरलता और सहजता से कही थी परंतु उन का सीधा आक्षेप दीनानाथजी पर था. कुछ क्षण चुप रह कर वे बोले, ‘‘बहनजी, एक समय था जब लड़कियों को सुसंस्कृत बनाने के लिए ही शिक्षा दी जाती थी. लड़की या बहू से नौकरी करवाना लोग अपमान की बात समझते थे. पर अब तो सब नौकरी वाली, कैरियर वाली लड़की को ही बहू बनाना चाहते हैं. इस कारण लड़कियों के पालनपोषण का ढंग ही बदल गया है. अब वे किसी के हाथ की कठपुतली नहीं हैं कि जब हम चाहें, तब नौकरी करने लगें और जब हम चाहें, तब नौकरी छोड़ दें.’’

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कुछ देर सन्नाटा सा रहा. उन की बात का उत्तर किसी के पास नहीं था. इधरउधर की कुछ बातें कर के दीनानाथ उठ खड़े हुए. मामाजी उन्हें द्वार तक विदा कर के लौटे और बोले, ‘‘देखा बेटी, बुड्ढा कितना चालाक है. गलती मुझ से ही हो गई. शादी के पहले ही मुझे यह शर्त रख देनी थी कि हमारी मरजी होगी, तब तक लड़की से नौकरी करवाएंगे, मरजी नहीं होगी तो नहीं करवाएंगे.’’

उन की इस शेष शर्त को सुन कर मैं अवाक रह गई.

हकीकत: आखिर कहां थी कमाल साहब की अम्मी?

फारुकी साहब के खानदान के हमारे पुराने संबंध थे. वे पुश्तैनी रईस थे. अच्छे इलाके में दोमंजिला मकान था. उन के 2 बेटे थे, जमाल और कमाल. एक बेटी सुरैया थी, जिस की शादी भी अच्छे घर में हुई थी.

फारुकी साहब अब इस दुनिया में नहीं रहे थे. सुनते हैं कि उन की बीवी नवाब खानदान की हैं. उम्र 72-73 साल होगी. वे अकसर बीमार रहती हैं. जमाल व कमाल भी शादीशुदा व बालबच्चेदार हैं. उन का भरापूरा परिवार है. सुरैया से मुलाकात हो जाती थी. उन के भी एक बेटी व एक बेटा है. दोनों की भी शादी हो गई है.

उन्हीं दिनों कमाल साहब के यहां से शादी का कार्ड आया. उन के दूसरे बेटे की शादी थी. कार्ड देख कर बड़ी खुशी हुई. कार्ड उन की अम्मी दुरदाना बेगम के नाम से छपा था. नीचे भी उन्हीं का नाम था. अच्छा लगा कि आज भी लोग बुजुर्गों की इतनी कद्र और इज्जत करते हैं.

शादी में जाने का मेरा पक्का इरादा था. इस तरह अम्मी व सुरैया आपा से भी मुलाकात हो जाती, पर मुझे फ्लू हो गया. मैं शादी में न जा सकी.

फिर कहीं से खबर मिली कि कमाल साहब की अम्मी बीमार हैं. उन्हें लकवे का असर हो गया है. एक दिन मैं कमाल साहब के यहां पहुंच गई. दोनों भाई बड़े ही अपनेपन से मिले. नई बहू से मिलाया गया, खूब खातिरदारी हुई.

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मैं ने कहा, ‘‘कमाल साहब, मुझे अम्मी से मिलना है. कहां हैं वे?’’

कमाल साहब का चेहरा फीका पड़ गया. वे कहने लगे ‘‘दरअसल, अम्मी सुरैया के यहां गई हुई हैं. वे एक ही जगह पर रहतेरहते बोर हो गई थीं.’’

मैं वहां से निकल कर सीधी सुरैया आपा के यहां पहुंच गई. वे मुझे देख कर बेहद खुश हो गईं, फिर अम्मी के कमरे में ले गईं.

खुला हवादार, साफसुथरा महकता कमरा. सफेद बिस्तर पर अम्मी लेटी थीं. वे बड़ी कमजोर हो गई थीं. कहीं से नहीं लग रहा था कि यह एक मरीज का कमरा है.

अम्मी मुझ से मिल कर खूब खुश हुईं, खूब बातें करने लगीं. उन्हीं की बातों से पता चला कि वे तकरीबन डेढ़ साल से सुरैया आपा के पास हैं. जब उन पर लकवे का असर हुआ था. उस के तकरीबन एक महीने बाद ही कमाल और जमाल, दोनों भाई अम्मी को यह कह कर सुरैया आपा के पास छोड़ गए थे कि हमारे यहां अम्मी को अलग से कमरा देना मुश्किल है और घर में सभी लोग इतने मसरूफ रहते हैं कि अम्मी की देखभाल नहीं हो पाती. तब से ही अम्मी सुरैया आपा के पास रहने लगी थीं.

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सुरैया आपा और उन की बहू बड़े दिल से उन की खिदमत करतीं, खूब खयाल रखतीं.

मैं ने सुरैया आपा से कहा, ‘‘अम्मी डेढ़ साल से आप के पास हैं, पर 3-4 महीने पहले कमाल भाई के बेटे की शादी का कार्ड आया था, उस में तो दावत देने वाले में अम्मी का नाम था और दावत भी अम्मी की तरफ से ही थी.’’

सुरैया आपा हंस कर बोलीं, ‘‘दोनों भाइयों के घर में अम्मी के लिए जगह न थी, पर कार्ड में तो बहुत जगह थी. कार्ड तो सभी देखते हैं और वाहवाह करते हैं, घर आ कर कौन देखता है कि अम्मी कहां हैं? दुनिया को दिखाने के लिए यह सब करना पड़ा उन्हें.’’

साथी- भाग 1: क्या रजत और छवि अलग हुए?

रजत औफिस से घर पहुंचा, घंटी बजाई तो छवि ने दरवाजा खोल दिया. छवि पर नजर पड़ते ही रजत का मन खिन्नता से भर गया. उस ने एक उड़ती सी नजर छवि पर डाली और सीधे बैडरूम में चला गया. कपड़े बदल कर वह बाथरूम में फ्रैश हो कर निकला तो छवि कमरे में आ गई.

‘‘चलो, चायनाश्ता रख दिया है…’’ छवि कोमल स्वर में बोली. रजत और भी चिढ़ गया. चप्पलें घसीटता हुआ डाइनिंगटेबल की तरफ बढ़ गया. तब तक बच्चे भी आ गए. सब खातेपीते बातें करने लगे. बच्चों के साथ बात करतेकरते उस का मूड कुछ ठीक हो गया.

अभी वे बातें कर ही रहे थे छवि फिर उठ गई और जूठे बरतन समेटने लगी. उस ने छवि पर नजर दौड़ाई. फैला बेडौल शरीर, बढ़ा पेट, कमर में खोंसा साड़ी का पल्ला, बेतरतीब बालों को ठूंस कर बनाया जूड़ा, बेजान होता चेहरा. बच्चों के साथ बातें करतेकरते रजत का ठीक होता मूड फिर उखड़ गया.

छवि बरतन उठा कर किचन में चली गई. उस के प्रैशर कुकर, चकलाबेलन और बरतनों की खनखन ने अपना बेसुरा संगीत शुरू कर दिया था. रजत ने झुंझला कर अखबार उठाया और बाहर बरामदे में चला गया. थोड़ी देर सुबह के पढ़े बासी अखबार को दोबारा पढ़ता रहा. फिर शाम का धुंधलका छाने लगा तो दिखाई देना कम हो गया. उस ने लाइट नहीं जलाई. अंदर जाने का मन नहीं किया. कुरसी पर पीछे सिर टिका कर यादों में खो गया…

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इसी छवि को कभी रजत ने लड़कियों की भीड़ में पसंद किया था. घर वालों की मरजी के खिलाफ जा कर अपनाया था. उस के जेहन में वह दुबलीपतली, बड़ीबड़ी आंखों वाली सलोनी सी छवि तैर गई.

चाचा की बेटी की शादी में लखनऊ गया रजत जब लौटा तो अकेला नहीं आया. छवि का वजूद भी उस के जेहन से लिपटा साथ आ गया. बरातियों से हंसीठिठोली करती दुलहन की सहेलियों के बीच उस की नजर गोरी, लंबी, छरहरी छवि पर अटक गई.

छवि की लंबी वेणी दिल से लिपट गई. छवि के गुलाबी गाल, बड़ीबड़ी आंखों की झील सी गहराई, रसीले होंठों की चमक भुलाए न भूली. जब भी आंखें बंद करता हंसतीमुसकराती छवि उस की आंखों में उतर जाती.

रजत इंजीनियर था. बहुत अच्छी नौकरी में था. उस के पिता रिटायर्ड आर्मी औफिसर थे. बहुत अच्छेअच्छे घरों से शादी के प्रस्ताव उस के पिता के पास उस के लिए आए हुए थे. उन सब पर घर में सलाहमशवरा चल रहा था. वह खुद भी बहुत खूबसूरत था. इंजीनियरिंग कालेज में कई लड़कियां उस पर जान छिड़कती थीं, पर वह किसी की गिरफ्त में नहीं आया. रीतिका से तो उस की बहुत अच्छी दोस्ती थी. वह उसे केवल दोस्त मानता था. रीतिका ने उसे कई तरह से जताया कि वह उस से शादी करना चाहती है, पर साधारण शक्लसूरत की रीतिका उसे शादी के लिए पसंद नहीं आई.

मगर छवि अपना जादू चला चुकी थी. घर में आए सारे विवाह प्रस्तावों को नकार कर जब उस ने मां के सामने अपनी बात रखी तो मां ने चाचा को फोन कर के सारी बात बताई. फिर उन्होंने छवि के बारे में सबकुछ पता लगाया. छवि बीए पास एक सामान्य घर की लड़की थी. दूसरी जाति की भी थी. मातापिता ने रजत को बहुत समझाया कि सुंदरता ही सब कुछ नहीं होती. लड़की किसी भी तरह उस के योग्य नहीं हैं. आजकल के हिसाब से उसे ज्यादा पढ़ीलिखी भी नहीं कहा जा सकता.

‘‘बीए पास तो है… कौन सा मुझे उस से नौकरी करवानी है,’’ रजत बोला.

‘‘बात नौकरी की नहीं है बेटा… घर का रहनसहन, स्कूलिंग ये सब भी माने रखते हैं. इन सब बातों का असर इंसान के विचारों पर पड़ता है… आज समय बहुत बदल गया है. कुछ समय बाद तुझे खुद यह बात महसूस होने लगेगी. बीए तो हमारी कामवाली की बेटी भी कर रही है तो क्या तू उस से शादी कर सकता है?’’

पिता का ऐसा कहना रजत को खल गया. काम करने वाली की बेटी की तुलना छवि से करने से उस का दिल टूट गया. फिर चिढ़ कर बोला, ‘‘बाकी बातें तो सीखने की हैं… सिखाई जा सकती हैं, पर जो चीज कुदरत देती है वह पैदा नहीं की जा सकती… मेरे साथ रहेगी तो सब सीख जाएगी.’’

अपनी दलीलों से रजत ने मातापिता को चुप कर दिया था. आखिर मातापिता मान गए. छवि उस के जीवन में क्या आई, वह उस के रूपसौंदर्य व भोलीभाली बातों में पूरी तरह डूब गया. छवि जितनी सुंदर थी उस का स्वभाव भी उतना ही अच्छा था. सासससुर ने उसे खुले मन से स्वीकार कर लिया. वे उसे बहुत प्यार करते थे.

प्यार तो रजत भी उसे दीवानों की तरह करता था. औफिस से छूटते ही सीधे घर की दौड़ लगाता. लेकिन घर आ कर देखता छवि किचन में उलझी हुई कभी ससुरजी के लिए सूप बना रही होती है, कभी सास के लिए घुटनों का तेल गरम कर रही होती है, कभी गरम पानी की थैली भर रही होती है, कभी सब्जी काट रही होती है, तो कभी उस के लिए बढि़या नाश्ता बनाने में मसरूफ होती है.

‘‘छोड़ो न छवि ये सब… मुझे ये सब नहीं चाहिए,’’  कह रजत गैस बंद कर देता, ‘‘मांपापा का काम तुम पहले निबटा लिया करो… जब मैं आऊं तो सिर्फ मेरे पास रहा करो,’’ वह उसे अपनी बांहों में कसने की कोशिश करता.

छवि कसमसा जाती, ‘‘क्याकरते हो… मां आ जाएंगी,’’ कह वह जबरन खुद को छुड़ा लेती.

‘‘तो फिर कमरे में चलो,’’ रजत शरारत करते हुए कहता.

‘‘अरे कैसे चल दूं… खाना बनाने में देर हो जाएगी,’’ वह उसे चाय का कप थमा देती, ‘‘देखो, मैं ने आप के लिए ब्रैडरोल बनाए हैं. खा कर बताओ कैसे बने हैं.’’

वह कुढ़ कर कहता, ‘‘हमारी नईनई शादी हुई है छवि… तुम समझती क्यों नहीं,’’ और वह उसे फिर पास खींच कर चूमने का प्रयास करता.

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छवि परे छिटक जाती. अपने मचलते अरमानों को काबू कर रजत पैर पटकता किचन से बाहर निकल जाता. उस का बहुत मन करता कि छवि सबकुछ उस के आने से पहले निबटा कर अच्छी तरह सजधज कर उस का इंतजार करे और उस के आने के बाद उस के पास बैठे, उस के साथ घूमने चले, फिल्म देखने चले, बाहर खाना खाने चले, आइसक्रीम खाने चले.

मगर शायद छवि की जिंदगी में इन सब बातों की प्राथमिकता नहीं थी, उस ने अपनी मां को भी ऐसे ही काम में उलझा देखा था और यही सोचती थी कि काम करने से ही सब खुश होते हैं. यहां तक कि पति भी… पतिपत्नी के बीच इस के अलावा दूसरी बातें भी हैं, जो इस से भी जरूरी हैं, पतिपत्नी के रिश्ते के लिए यह वह नहीं समझती थी.

यहां तक कि अखबार पढ़ना, टीवी पर खबरें सुनना, इन सब बातों से भी उस का कोई मतलब नहीं रहता था. उस के लिए घर और घर का काम, सासससुर की सेवा, पति की देखभाल बस यही सबकुछ था.

रजत का मन करता उस की नईनवेली बीवी उस से कभी रूठे और वह उसे मनाए या उस के नाराज होने पर वह उसे मनाए, मीठी छेड़छाड़ करे. पर धीरेधीरे उसे लगने लगा कि इस माटी की खूबसूरत गुडि़या से ऐसी बातों की उम्मीद करना बेकार है.

समय बीतता रहा. उन के 2 बच्चे भी हो गए. अब तो छवि और भी ज्यादा व्यस्त हो गई. उस के पास पलभर की भी फुरसत नहीं रहती.

वह कई बार कहता, ‘‘छवि, खाना बनाने के लिए कोई रख लो. तुम बस अपनी देखरेख में बनवा लिया करो… काम में इतनी उलझी रहती हो… मेरे लिए तो तुम्हारे पास कभी समय नहीं रहता.’’

‘‘कब समय नहीं रहता आप के लिए,’’ छवि हैरानी से कहती, ‘‘कौन सा काम नहीं करती हूं आप का?’’

‘‘छवि, काम ही तो सबकुछ नहीं होता… तुम समझती क्यों नहीं… हमारी यह उम्र लौट कर नही आएगी… बहुत सी जरूरतें होती हैं तनमन की… इन्हें तुम समझना नहीं चाहती… बिस्तर पर एक मशीन की तरह जरूरत पूरी कर के सो जाना, तो सबकुछ नहीं… इस के अलावा भी बहुत कुछ है जीवन में…’’

छवि रजत की सारी जरूरतों को समझती पर उस के मन को न समझती. वह अच्छी बहू थी, अच्छी मां थी, अच्छी पत्नी थी पर अच्छी साथी नहीं थी. और एक साथी की कमी रजत को हमेशा अकेलेपन, एक अजीब तरह की तृष्णा व भटकन से भर देती.

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