सहारा: क्या जबरदस्ती की शादी निभा पाई सुलेखा

“शादी… यानी बरबादी…” सुलेखा ने मुंह बिचकाते हुए कहा था, जब उस की मां ने उस के सामने उस की शादी की चर्चा छेड़ी थी.

“मां मुझे शादी नहीं करनी है. मैं हमेशा तुम्हारे साथ रह कर तुम्हारी देखभाल करना चाहती हूं,” और फिर सुलेखा ने बड़े प्यार से अपनी मां की ओर देखा.

“नहीं बेटा, ऐसा नहीं कहते,” मां ने स्नेह भरी दृष्टि से अपनी बेटी की ओर देखा.

“मां, मुझे शादी जैसे रस्मों पर बिलकुल भरोसा नहीं,.. विवाह संस्था एकदम खोखली हो चुकी है…

“आप जरा अपनी जिंदगी में देखो… शादी के बाद पापा से तुम्हें कौन सा सुख मिला है. पापा ने तो तुम्हें किसी और के लिए तलाक…” कहती हुई वह अचानक रुक सी जाती है और आंसू भरी नेत्रों से अपनी मां की ओर देखती है तो मां दूसरी तरफ मुंह घुमा लेती हैं और अपने आंसुओं को छिपाने की कोशिश करते हुए बोलती हैं, “अरे छोड़ो इन बातों को. इस वक्त ऐसी बातें नहीं करते. और फिर लड़कियां तो होती ही हैं पराया धन.

“देखना ससुराल जा कर तुम इतनी खो जाओगी कि अपनी मां की तुम्हें कभी याद भी नहीं आएगी,” और वह अपनी बेटी को गले से लगा कर उस के माथे को चूम लेती है.

मालती अपनी बेटी सुलेखा को बेहद प्यार करती हैं. आज 20 वर्ष हो गए उन्हें अपने पति से अलग हुए.

जब मालती का अपने पति से तलाक हुआ था, तब सुलेखा महज 5 वर्ष की थी. तब से ले कर आज तक उन्होंने सुलेखा को पिता और मां दोनों का ही प्यार दिया था. सुलेखा उन की बेटी ही नहीं, बल्कि उन की सुखदुख की साथी भी थी.

अपनी टीचर की नौकरी से जितना कुछ कमाया था, वह सभी कुछ अपनी बेटी पर ही लुटाया था. अच्छी से अच्छी शिक्षादीक्षा के साथसाथ उस की हर जरूरतों का खयाल रखा था. मालती ने अपनी बेटी को कभी किसी बात की कमी नहीं होने दी थी, चाहे खुद उन्हें कितना भी कष्ट झेलना पड़ा हो.

आज जब वह अपनी बेटी की शादी कर ससुराल विदा करने की बात कर रही थीं तो भी उन्होंने अपने दर्द को अपनी बेटी के आगे जाहिर नहीं होने दिया, ताकि उन की बेटी को कोई कष्ट ना हो.

सुलेखा आजाद खयालों की लड़की है और उस की परवरिश भी बेहद ही आधुनिक परिवेश में हुई है. उस की मां ने कभी किसी बात के लिए उस पर बंदिश नहीं लगाई.

सुलेखा ने भी अपनी मां को हमेशा ही एक स्वतंत्र और संघर्षपूर्ण जीवन बिताते देखा है. ऐसा नहीं कि उसे अपनी मां की तकलीफों का अंदाजा नहीं है. वह बहुत अच्छी तरह से यह बात जानती है कि चाहे कुछ भी हो, कितना भी कष्ट उन्हें झेलना पड़े झेल लेंगी, परंतु अपनी तकलीफ कभी उस के समक्ष व्यक्त नहीं करेंगी.

सुलेखा का शादी से इस तरह बारबार इनकार करने पर मालती बड़े ही भावुक हो कर कहती हैं, “बेटा तू क्यों नहीं समझती? तुझे ले कर कितने सपने संजो रखे हैं मैं ने और तुम कब तक मेरे साथ रहोगी. एक ना एक दिन तुम्हें इस घर से विदा तो होना ही है,” और फिर हंसते हुए वे बोलती हैं, “और, तुम्हें एक अच्छा जीवनसाथी मिले इस में मेरा भी तो स्वार्थ छुपा हुआ है. कब तक मैं तुम्हारे साथ रहूंगी. एक ना एक दिन मैं भी इस दुनिया को अलविदा तो कहने वाली ही हूं… फिर तुम अकेली अपनी जिंदगी कैसे काटोगी…” कहते हुए उन का गला भर्रा जाता है.

योगेंद्र एक पढ़ालिखा लड़का है, जो कि एक प्राइवेट कंपनी में मैनेजर के पद पर तैनात है. उस के परिवार में उस के मांबाप, भैयाभाभी के अलावा उस की दादी हैं, जो 80 या 85 उम्र की हैं.

मालती को अपनी बेटी के लिए यह रिश्ता बहुत पसंद आता है. उन्हें लगा कि उन की बेटी इस भरेपूरे परिवार में बहुत ही खुशहाल जिंदगी जिएगी. यहां पर तो सिर्फ उन के सिवा उस के साथ सुखदुख को बांटने वाला कोई और नहीं था. वहां इतने बड़े परिवार में उन की बेटी को किसी बात की कमी नहीं होगी. तो उन्होंने अपनी बेटी का रिश्ता तय कर दिया.

विदाई के वक्त सुलेखा की आंखों से तो आंसू थम ही नहीं रहे थे. धुंधली आंखों से उस ने अपनी मां की तरफ और उस घर की ओर देखा, जिस में उस का बचपन बीता था.

“अरे, पूरा पल्लू माथे पर रखो… ससुराल में गृहप्रवेश के वक्त किसी ने जोर से झिड़कते हुए कहा और उस के माथे का पल्लू उस की नाक तक खींच दिया गया…

“परंतु आंखें पल्लू में ढक गईं तो मैं देख कैसे पाऊंगी…” उस ने हलके स्वर में कहा.

तभी अचानक अपने सामने उस ने नीली साड़ी में नाक तक घूंघट किए हुए अपनी जेठानी को देखा, जो बड़ों के सामने शिष्टाचार की परंपरा की रक्षा करने के लिए अपनी नाक तक घूंघट खींच रखी थी.

“तुम्हें तुम्हारी मां ने कुछ सिखाया नहीं कि बड़ों के सामने घूंघट रखा जाता है,” यह आवाज उस की सास की थी.

“आप मेरी मां की परवरिश पर सवाल ना उठाएं…” सुलेखा की आवाज में थोड़ी कठोरता आ गई थी.

“तुम मेरी मां से तमीज से बात करो,” योगेंद्र गुस्से से सुलेखा की ओर देखते हुए चिल्ला पड़ता है.

ऐसा बरताव देख सुलेखा तिलमिला सी जाती है और गुस्से से योगेंद्र की ओर देखती है.

“अरे, नई बहू दरवाजे पर ही कब तक खड़ी रहेगी? कोई उसे अंदर क्यों नहीं ले आता?” दादी सास ने सामने के कमरे पर लगे बिस्तर पर से बैठेबैठे ही आवाज लगाई. दरवाजे पर जो कुछ हो रहा था, उसे सुन पाने में वे असमर्थ थीं. वैसे भी उन के कानों ने उन के शरीर के बाकी अंगों के समान ही अब साथ देना छोड़ दिया था. यमराज तो कई बार आ कर दरवाजे से लौट गए थे, क्योंकि उन्हें अपने छोटे पोते की शादी जो देखनी थी.

अपनी लंबी उम्र और घर की उन्नति के लिए कई बार काशी के बड़ेबड़े पंडितों को बुला कर बड़े से बड़े कर्मकांड पूजाअर्चना करवा चुकी हैं, ताकि चित्रगुप्त का लिखा बदलवाया जा सके, उन्हीं पंडितों में से किसी ने कभी यह भविष्यवाणी कर दी थी कि उन के छोटे पोते की शादी के बाद उन की मृत्यु का होना लगभग तय है और उसे टालने का एकमात्र उपाय यह है कि जिस लड़की की नाक पर तिल हो, उसी लड़की से छोटे पोते की शादी कराई जाए.

अतः सुलेखा की नाक पर तिल का होना ही उसे उस घर की पुत्रवधू बनने का सर्टिफिकेट दादीजी द्वारा दे दिया गया था और अब उन्हें बेचैनी इस बात से हो रही थी कि पंडितजी द्वारा बताए गए मुहूर्त के भीतर ही नई बहू का गृहप्रवेश हो जाना चाहिए… वरना कहीं कुछ अनिष्ट ना हो जाए.

लेकिन घूंघट के ना होने पर उखड़े उस विवाद ने अब तूल पकड़ना शुरू कर दिया था.

“आप मुझ से ऐसी बात कैसे कर सकते हैं?” सुलेखा गुस्से से चिल्लाते हुए बोलती है.

“तुम्हें तुम्हारे पति से कैसे बात करनी चाहिए, क्या तुम्हारी मां ने तुम्हें यह भी नहीं सिखाया,” घूंघट के अंदर से ही सुलेखा की जेठानी ने आग में घी डालते हुए कहा.

“अरे, इसे तो अपने पति से भी बात करने की तमीज नहीं है,” सुलेखा की सास ने बेहद ही गुस्से में कहा.

“आप मुझे तमीज मत सिखाइए…” सुलेखा के स्वर भी ऊंचे हो उठे थे.

“पहले आप अपने बेटे को एक औरत से बात करने का सलीका सिखाइए… ”

“सुलेखा…” योगेंद्र गुस्से में चीख पड़ता है.

“चिल्लाइए मत… चिल्लाना मुझे भी आता है,” सुलेखा ने भी ठीक उसी अंदाज में चिल्लाते हुए कहा था.

“इस में तो संस्कार नाम की कोई चीज ही नहीं है. पति से जबान लड़ाती है,” सास ने फटकार लगाते हुए कहा.

“आप लोगों के संस्कार का क्या…? नई बहू से कोई इस तरह से बात करता है,” सुलेखा ने भी जोर से चिल्लाते हुए कहा.

“तुम सीमा लांघ रही हो…” योगेंद्र चिल्लाता है.

“और आप लोग भी मुझे मेरी हद न सिखाएं….”

“सुलेखा…” और योगेंद्र का सुलेखा पर हाथ उठ जाता है.

सुलेखा गुस्से से तिलमिला उठती है. साथ में उस की आंखों में से आंसुओं की धारा बहने लगती है और आंसुओं के साथसाथ विद्रोह भी उमड़ पड़ता है.

अचानक उस के पैर डगमगा जाते हैं और नीचे रखे तांबे के कलश से उस के पैर जा टकराते हैं और वह कलश उछाल खाता हुआ सीधा दादी सास के सिर से जा टकराता है और दादी सास इस अप्रत्याशित चोट से चेतनाशून्य हो कर बिस्तर पर ही एक ओर लुढ़क जाती हैं. सभी तरफ कोहराम मच जाता है.

लोग चर्चा करते हुए कहते हैं, “देखो तो जरा नई बहू के लक्षण… कैसे तेवर हैं इस के… गुस्से में दादी सास को ही कलश चला कर दे मारी… अरे हाय… हाय, अब तो ऊपर वाला ही रक्षा करे…

सुलेखा ने नजर उठा कर देखा तो सामने के कमरे में बिस्तर पर दादी सास लुढ़की हुई थीं. उन का सिर एक तरफ को झुका हुआ था और गले से तुलसी की माला नीचे लटकी हुई जमीन को छू रही थी.

यह दृश्य देख कर सुलेखा की सांसें मानो क्षणभर के लिए जैसे रुक सी गईं…

“अरे हाय, ये क्या कर दिया तुम ने,” सुलेखा की जेठानी अपने सिर के पल्लू को पीछे की ओर फेंकती हुई बेतहाशा दादी सास की ओर दौड़ पड़ती है.

सुलेखा को तभी अपनी जेठानी का चेहरा दिखा, उस के होठों पर लाल गहरे रंग की लिपिस्टिक लगी हुई थी और साड़ी की मैचिंग की ही उस ने बिंदी अपने बड़े से माथे पर लगा रखी थी. आखों पर नीले रंग के आईशैडो भी लगा रखे थे और गले में भारी सा लटकता हुआ हार पहन रखा था. उन का यह बनावसिंगार उन के अति सिंगार प्रिय होने का प्रमाण पेश कर रहा था.

सुलेखा भी दादी सास की स्थिति देख कर घबरा जाती है और आगे बढ़ कर उन्हें संभालने की कोशिश में अपने पैर आगे बढ़ा पाती उस के पहले ही योगेंद्र उस का हाथ जोर से पकड़ कर खींचते हुए उसे पीछे की ओर धकेल देता है. वह पीछे की दीवार पर अपने हाथ से टेक बनाते हुए खुद को गिरने से बचा लेती है…

“कोई जरूरत नहीं है तुम्हें उन के पास जाने की. जहां हो वहीं खड़ी रहो,” योगेंद्र ने यह बात बड़ी ही बेरुखी से कही थी.

अपने पति के इस व्यवहार से उस का मन दुखी होता है. वह उसी तरह दीवार के सहारे खुद को टिकाए खड़ी रह जाती है. उस की आंखों से छलछल आंसू बहने लगते हैं. वह मन ही मन सोचने लगती है कि जिस रिश्ते की शुरुआत इतने अपमान और दुख के साथ हो रही है, उस रिश्ते में अब आखिर बचा ही क्या है जो आज नए जीवन की शुरुआत से पहले ही उस का इस कदर अपमान कर रहा है.

जिस मानसिकता का प्रदर्शन उस के पति और उन के घर वालों ने किया है, जितनी कुंठित विचारधारा इन सबों की है, वैसी मानसिकता के साथ वह अपनी जिंदगी नहीं गुजार पाएगी. उस के लिए वहां रुक पाना अब मुश्किल हुआ जा रहा था और इन सब से ज्यादा अगर कोई चीज उसे सब से ज्यादा तकलीफ पहुंचा रही थी, तो वह था योगेंद्र का उस के प्रति व्यवहार. कहां तो वह मन में सुंदर सपने संजोए अपनी मां के घर से विदा हुई थी, अपने जीवनसाथी के लिए जिस सुंदर छवि, जिस सुंदर चित्र को उस ने संजोया था, वह अब एक झटके में ही टूटताबिखरता नजर आ रहा था.

खैर, उन की पूजापाठ, यज्ञ, अनुष्ठान आदि के प्रभाव से भी दादी सास मौत के मुंह से बच निकलती हैं.

“अरे, अब क्या वहीं खड़ी रहेगी महारानी… कोई उसे अंदर ले कर आओ,” सास ने बड़े ही गुस्से में आवाज लगाई.

“नहीं, मैं अब इस घर में पैर नहीं रखूंगी,” सुलेखा ने बड़ी ही दृढ़ता से कहा.

“क्या कहा…? कैसी कुलक्षणी है यह…? अब और कोई कसर रह गई है क्या…?” सास ने गुस्से से गरजते हुए कहा.

“अब ज्यादा नाटक मत करो… चलो, अंदर चलो…” योगेंद्र ने उस का हाथ जोर से खींच कर कहा.

“नहीं, मै अब आप के घर में एक पल के लिए भी नहीं रुकूंगी,” कहते हुए सुलेखा एक झटके में योगेंद्र के हाथ से अपने हाथ को छुड़ा लेती है.

“जिस व्यक्ति ने मेरे ऊपर हाथ उठाया. जिस के घर में मेरी इतनी बेइज्जती हुई, अब मैं वहां एक पल भी नहीं रुक सकती,” कहते हुए सुलेखा दरवाजे से बाहर निकल कर अपनी मां के घर की ओर चल देती है.

सुलेखा मन ही मन सोचती जाती है, ‘जिस रिश्ते में सम्मान नहीं, उसे पूरी उम्र कैसे निभा पाऊंगी? जो परंपरा एक औरत को खुल कर जीने पर भी पाबंदी लगा दे. जिस रिश्ते में पति जैसा चाहे वैसा सुलूक करें और पत्नी के मुंह खोलने पर भी पाबंदी हो, वैसे रिश्ते से तो अकेले की ही जिंदगी बेहतर है.

‘मां ने तो सारी जिंदगी अकेले ही काटी है बिना पापा के सहारे के. उन्होंने तो मेरे लिए अपनी सारी खुशियों का बलिदान किया है. सारी उम्र उन्होंने मुझे सहारा दिया है. अब मैं उन का सहारा बनूंगी…”

Holi 2024: दीवारें बोल उठीं

परेशान इंद्र एक कमरे से दूसरे कमरे में चक्कर लगा रहे थे. गुस्से में बुदबुदाए जाने वाले शब्दों को शिल्पी लाख चाहने पर भी सुन नहीं पा रही थी. बस, चेहरे के भावों से अनुमान भर ही लगा पाई कि वे  हालात को कोस रहे हैं. अमन की कारस्तानियों से दुखी इंद्र का जब परिस्थितियों पर नियंत्रण नहीं रहता था तो वह आसपास मौजूद किसी भी व्यक्ति में कोई न कोई कारण ढूंढ़ कर उसे ही कोसना शुरू कर देते.

यह आज की बात नहीं थी. अमन का यों देर रात घर आना, घर आ कर लैपटाप पर व्यस्त रहना, अब रोज की दिनचर्या बन गई थी. कान से फोन चिपका कर यंत्रवत रोबोट की तरह उस के हाथ थाली से मुंह में रोटी के कौर पहुंचाते रहते. उस की दिनचर्या में मौजूद रिश्तों के सिर्फ नाम भर ही थे, उन के प्रति न कोई भाव था न भाषा थी.

औलाद से मांबाप को क्या चाहिए होता है, केवल प्यार, कुछ समय. लेकिन अमन को देख कर यों लगता कि समय रेत की मानिंद मुट्ठी से इतनी जल्दी फिसल गया कि मैं न तो अमन की तुतलाती बातों के रस का आनंद ले पाई और न ही उस के नन्हे कदम आंखों को रिझा पाए. उसे किशोर से युवा होते देखती रही. विभिन्न अवस्थाओं से गुजरने वाले अमन के दिल पर मैं भी हाथ कहां रख पाई.

वह जब भी स्कूल की या दोस्तों की कोई भी बात मुझे बताना चाहता तो मैं हमेशा रसोई में अपनी व्यस्तता का बहाना बना कर उसे उस के पापा के पास भेज देती और इंद्र उसे उस के दादा के पास. समय ही नहीं था हमारे पास उस की बातें, शिकायतें सुनने का.

आज अमन के पास समय नहीं है अपने अधेड़ होते मांबाप के पास बैठने का. आज हम दोनों अमन को दोषी मानते हैं. इंद्र तो उसे नई पीढ़ी की संज्ञा दे कर बिगड़ी हुई औलाद कहते हैं, लेकिन वास्तव में दोषी कौन है? हम दोनों, इंद्र या मैं या केवल अमन.

लेकिन सप्ताह के 6 दिन तक रूखे रहने वाले अमन में शनिवार की रात से मैं प्रशंसनीय परिवर्तन देखती. तब भी वह अपना अधिकतर समय यारदोस्तों की टोली में ही बिताना पसंद करता. रविवार की सुबह घर से निकल कर 4-5 घंटे गायब रहना उस के लिए मामूली बात थी.

‘न ढंग से नाश्ता करता है, न रोटी खाता है.’ अपने में सोचतेसोचते मैं फुसफुसा रही थी और मेरे फुसफुसाए शब्दों की ध्वनि इतनी साफ थी कि तिलमिलाए इंद्र अपने अंदर की कड़वाहट उगलने से खुद को रोक नहीं पाए. जब आवेग नियंत्रण से बाहर हो जाता है तो तबाही निश्चित होती है. बात जब भावोंविचारों में आवेग की हो और सद्व्यवहार के बंधन टूटने लगें तो क्रोध भी अपनी सीमाएं तोड़ने लगता है.

मेरी बुदबुदाहट की तीखी प्रतिक्रिया देते हुए इंद्र ने कहा, ‘‘हां हां, तुम हमेशा खाने की थाली सजा कर दरवाजे पर खड़ी रह कर आरती उतारो उस की. जबजब वह घर आए, चाहो तो नगाड़े पीट कर पड़ोसियों को भी सूचित करो कि हमारे यहां अतिविशिष्ट व्यक्ति पधारे हैं. कहो तो मैं भी डांस करूं, ऐसे…’’

कहतेकहते आवेश में आ कर इंद्र ने जब हाथपैर हिलाने शुरू किए तो मैं अचंभित सी उन्हें देखती रही. सच ही तो था, गुस्सा इनसान से सही बात कहने व संतुलित व्यवहार करने की ताकत खत्म कर देता है. मुझे इंद्र पर नहीं खामखा अपने पर गुस्सा आ रहा था कि क्यों मैं ने अमन की बात शुरू की.

इंद्र का स्वभाव जल्दी उखड़ने वाला रहा है, लेकिन उन के गुस्से के चलते मैं भी चिड़चिड़ी होती गई. इंद्र हमेशा अमन के हर काम की चीरफाड़ करते रहते. शुरू में अपनी गलती मान कर इस काम में सुधार करने वाले अमन को भी लगने लगा कि उस के काम की, आलोचना सिर्फ आलोचना के लिए की जा रही है और इसे ज्यादा महत्त्व देना बेकार है.

यह सब सोचतेसोचते मैं ने अपने दिमाग को झटका. तभी विचार आया कि बस, बहुत हो गया. अब इन सब से मुझे खुद को ही नहीं, इंद्र को भी बाहर निकालना होगा.

आज सुबह से माहौल में पैदा हो रही तल्खियां और तल्ख न हों, इसलिए मैं ने इंद्र को पनीर परोसते हुए कहा, ‘‘आप यों तो उस के कमरे में जा कर बारबार देखते हो कि वह ठीक से सोया है या नहीं, और वैसे छोटीछोटी बातों पर बच्चों की तरह तुनक जाते हो. आप के दोस्त राजेंद्र भी उस दिन समझा रहे थे कि गुस्सा आए तो बाहर निकल जाया करो.

‘‘बस, अब बहुत हो गया बच्चे के पीछे पुलिस की तरह लगे रहना. जीने दो उसे अपनी जिंदगी, ठोकर खा कर ही तो संभलना जानेगा’’ मैं ने समझाने की कोशिश की.

‘‘ऐसा है शिल्पी मैडम, जब तक जिंदा हूं, आंखों देखी मक्खी नहीं निगली जाती. घर है यह, सराय नहीं कि जब चाहे कोई अपनी सुविधा और जरूरत के मुताबिक मुंह उठाए चला आए और देहरी पर खड़े दरबान की तरह हम उसे सैल्यूट मारें,’’ दोनों हाथों को जोर से जोड़ते हुए इंद्र जब बोले तो मुझे उन के उस अंदाज पर हंसी आ गई.

रविवार को फिर अमन 10 बजे का चाय पी कर निकला और 1 बजने को था, पर वह अभी तक नदारद था. बहुत मन करता है कि हम सब एकसाथ बैठें, लेकिन इस नीड़ में मैं ने हमेशा एक सदस्य की कमी पाई. कभी इंद्र की, कभी अमन की. इधर हम पतिपत्नी व उधर मेरे बूढ़े सासससुर की आंखों में एकदूसरे के साथ बैठ कर भरपूर समय बिताने की लालसा के सपने तैरते ही रह जाते.

अपनी सास गिरिजा के साथ बैठी उदास मन से मैं दरवाजे की ओर टकटकी लगाए देख रही थी. आंखों में रहरह कर आंसू उमड़ आते, जिन्हें मैं बड़ी सफाई से पोंछती जा रही थी कि तभी मांजी बोलीं, ‘‘बेटी, मन को भीगी लकड़ी की तरह मत बनाओ कि धीरेधीरे सुलगती रहो. अमन के नासमझ व्यवहार से जी हलका मत करो.’’

‘‘मांजी, अभी शादी होगी उस की. आने वाली बहू के साथ भी अमन का व्यवहार…’’

शिल्पी की बात को बीच में ही रोक कर समझाते हुए मांजी बोलीं, ‘‘आने वाले कल की चिंता में तुम बेकार ही नई समस्याओं को जन्म दे रही हो. कभी इनसान हालात के परिणाम कुछ सोचता है लेकिन उन का दूसरा ही रूप सामने आता है. नदी का जल अनवरत बहता रहता है लेकिन वह रास्ते में आने वाले पत्थरों के बारे में पहले से सोच कर बहना तो रोकता नहीं न. ठीक वैसे ही इनसान को चलना चाहिए. इसलिए पहले से परिणामों के बारे में सोच कर दिमाग का बोझ बेकार में मत बढ़ाओ.’’

‘‘पर मांजी, मैं अपने को सोचने से मुक्त नहीं कर पाती. कल अगर अपनी पत्नी को भी समय न दिया और इसी तरह से उखड़ाउखड़ा रहा तो ऐसे में कोई कैसे एडजस्ट करेगा?

‘‘मैं समझ नहीं पा रही, वह हम से इतना कट क्यों रहा है. क्या आफिस में, अपने फें्रड सर्कल में भी वह इतना ही कोरा होगा? मांजी, मैं उस के दोस्त निखिल से इस का कारण पूछ कर ही रहूंगी. शायद उसे कुछ पता हो. अभी तक मैं टालती आ रही थी लेकिन अब जानना चाहती हूं कि कुछ साल पहले तक जिस के हंसीठहाकों से घर गुलजार रहता था, अचानक उस के मुंह पर ताला कैसे लग गया?

‘‘इंद्र का व्यवहार अगर उसे कचोट रहा है बेटी, तो इंद्र तो शुरू से ही ऐसा रहा है. डांटता है तो प्यार भी  करता है,’’ अब मां भी कुछ चिंतित दिखीं, ‘‘शिल्पी, अब जब तुम ने ध्यान दिलाया है तो मैं भी गौर कर रही हूं, नहीं तो मैं भी इसे पढ़ाई की टेंशन समझती थी…’’

बातों के सिलसिले पर डोरबेल ने कुछ देर के लिए रोक लगा दी.

लगभग 3 बजे अमन लौट कर आया था.

‘‘आप लोग मुझे यों घूर क्यों रहे हो?’’ अमन ने कमरे में घुसते हुए दादी और मां को अपनी ओर देखते हुए पा कर पूछा.

अमन के ऐसा पूछते ही मेरा संयम फिर टूट गया, ‘‘कहां चले गए थे आप? कुछ ठौरठिकाना होता है? बाकी दिन आप का आफिस, आज आप के दोस्त. कुछ घर वालों को बताना जरूरी समझते हैं आप या नहीं?’’ मैं जबजब गुस्से में होती तो अमन से बात करने में तुम से आप पर उतर आती.

लेकिन बहुत ही संयत स्वर में मुझे दोनों कंधों से पकड़ कर गले लगा कर अमन बोला, ‘‘ओ मेरी प्यारी मां, आप तो गुस्से में पापा को भी मात कर रही हो. चलोचलो, गुस्सागुस्सी को वाशबेसिन में थूक आएं,’’ और हंसतेहंसते दादी की ओर मुंह कर के बोला, ‘‘दादी, गया तो मैं सैलून था, बाल कटवाने. सोचा, आज अच्छे से हेड मसाज भी करवा लूं. पूरे हफ्ते काम करते हुए नसें ख्ंिचने लगती हैं. एक तो इस में देर हो गई और ज्यों ही सैलून से निकला तो लव मिल गया.

‘‘आज उस की वाइफ घर पर नहीं थी तो उस ने कहा कि अगर मैं उस के साथ चलूं तो वह मुझे बढि़या नाश्ता बना कर खिलाएगा. मां, तुम तो जानती हो कि कल से वही भागादौड़ी. हां, यह गलती हुई कि मुझे आप को फोन कर देना चाहिए था,’’ मां के गालों को बच्चे की तरह पुचकारते हुए वह नहाने के लिए घुसने ही वाला था कि पापा का रोबीला स्वर सुन कर रुक गया.

‘‘बरखुरदार, अच्छा बेवकूफ बना रहे हो. आधा दिन यों ही सही तो आधा दिन किसी और तरह से, हो गया खत्म पूरा दिन. संडे शायद तुम्हें किसी सजा से कम नहीं लगता होगा. आज तुम मुंह खोल कर सौरी बोल रहे हो, बाकी दिन तो इस औपचारिकता की भी जरूरत नहीं समझते.’’

अमन के चेहरे पर कई रंग आए, कई गए. नए झगड़े की कल्पना से ही मैं भयभीत हो गई. दूसरे कमरे से निकल आए दादा भी अब एक नए विस्फोट को झेलने की कमर कस चुके थे. दादी तो घबराहट से पहले ही रोने जैसी हो गईं. इतनी सी ही देर में हर किसी ने परिणाम की आशा अपनेअपने ढंग से कर ली थी.

लेकिन अमन तो आज जैसे शांति प्रयासों को बहाल करने की ठान चुका लगता था. बिना बौखलाए पापा का हाथ पकड़ कर उन्हें बिठाते हुए बोला, ‘‘पापा, जैसे आप लोग मुझ से, मेरे व्यवहार से शिकायत रखते हो, वैसा ही खयाल मेरा भी आप के बारे में है.

‘‘मैं बदला तो केवल आप के कारण. मुझे रिजर्व किया तो आप ने. मोबाइल चेपू हूं, लैपटाप पर लगा रहता हूं वगैरावगैरा कई बातें. पर पापा, मैं ऐसा क्यों होता गया, उस पर आप ने सोचना ही जरूरी नहीं समझा. फें्रड सर्कल में हमेशा खुश रहने वाला अमन घर आते ही मौन धारण कर लेता है, क्यों? कभी सोचा?

‘‘आफिस से घर आने पर आप हमेशा गंभीरता का लबादा ओढ़े हुए आते. मां ने आप से कुछ पूछा और आप फोन पर बात कर रहे हों तो अपनी तीखी भावभंगिमा से आप पूछने वाले को दर्शा देते कि बीच में टोकने की जुर्रत न की जाए. पर आप की बातचीत का सिलसिला बिना कमर्शियल बे्रक की फिल्म की भांति चलता रहता. दूसरों से लंबी बात करने में भी आप को कोई प्रौब्लम नहीं होती थी लेकिन हम सब से नपेतुले शब्दों में ही बातें करते.

‘‘आप की कठोरता के कारण मां अपने में सिमटती गईं. जब भी मैं उन से कुछ पूछता तो पहले तो लताड़ती ही थीं लेकिन बाद में वह अपनी मजबूरी बता कर जब माफी मांगतीं तो मैं अपने को कोसता था.

‘‘इस बात में कोई शक नहीं कि आप घर की जरूरतें एक अच्छे पति, पिता और बेटे के रूप में पूरी करते आए हैं. बस, हम सब को शिकायत थी और है आप के रूखे व्यवहार से. मेरे मन में यह सोच बर्फ की तरह जमती गई कि ऐसा रोबीला व्यक्तित्व बनाने से औरों पर रोब पड़ता है. कम बोलने से बाकी लोग भी डरते हैं और मैं भी धीरेधीरे अपने में सिमटता चला गया.

‘‘मैं ने भी दोहरे व्यक्तित्व का बोझ अपने ऊपर लादना शुरू किया. घर में कुछ, बाहर और कुछ. लेकिन इस नाटक में मन में बची भावुकता मां की ओर खींचती थी. मां पर तरस आता था कि इन का क्या दोष है. दादी से मैं आज भी लुकाछिपी खेलना चाहता हूं,’’ कहतेकहते अमन भावुक हो कर दादी से लिपट गया.

‘‘अच्छा, मैं ऐसा इनसान हूं. तुम सब मेरे बारे में ऐसी सोच रखते थे और मेरी ही वजह से तुम घर से कटने लगे,’’ रोंआसे स्वर में इंद्र बोले.

‘‘नहीं बेटा, तुम्हारे पिता के ऐसे व्यवहार के लिए मैं ही सब से ज्यादा दोषी हूं,’’ अमन को यह कह कर इंद्र की ओर मुखातिब होते हुए दादा बोले, ‘‘मैं ने अपने विचार तुम पर थोपे. घर में हिटलरशाही के कारण तुम से मैं अपेक्षा करने लगा कि तुम मेरे अनुसार उठो, बैठो, चलो. तुम्हारे हर काम की लगाम मैं अपने हाथ में रखने लगा था.

‘‘छोटे रहते तुम मेरा हुक्म बजाते रहे. मेरा अहं भी संतुष्ट था. यारदोस्तों में गर्व से मूंछों पर ताव दे कर अपने आज्ञाकारी बेटे के गुणों का बखान करता. पर जैसेजैसे तुम बड़े होते गए, तुम भी मेरे प्रति दबे हुए आक्रोश को  व्यक्त करने लगे.

‘‘तुम्हारी समस्या सुनने के बजाय, तुम्हारे मन को टटोलने की जगह मैं तुम्हें नकारा साबित कर के तुम से नाराज रहने लगा. धीरेधीरे तुम विद्रोही होते गए. बातबात पर तुम्हारी तुनकमिजाजी से मैं तुम पर और सख्ती करने लगा. धीरेधीरे वह समय भी आया कि जिस कमरे में मैं बैठता, तुम उधर से उठ कर चल पड़ते. मेरा हठीला मन तुम्हारे इस आचरण को, तुम्हारे इस व्यवहार को अपने प्रति आदर समझता रहा कि तुम बड़ों के सामने सम्मानवश बैठना नहीं चाहते.

‘‘लेकिन आज मैं समझ रहा हूं कि स्कूल में विद्यार्थियों से डंडे के जोर पर नियम मनवाने वाला प्रिंसिपल घर में बेटे के साथ पिता की भूमिका सही नहीं निभा पाया.

‘‘पर जितना दोषी आज मैं हूं उतना ही दोष तुम्हारी मां का भी रहा. क्यों? इसलिए कि वह आज्ञाकारिणी बीवी बनने के साथसाथ एक आज्ञाकारिणी मां भी बन गई? एक तरफ पति की गलतसही सब बातें मानती थी तो दूसरी तरफ बेटे की हर बात को सिरमाथे पर लेती थी.’’

‘‘हां, आप सही कह रहे हैं. कम से कम मुझे तो बेटे के लिए गांधारी नहीं बनना चाहिए था. जैसे आज शिल्पी अमन के व्यवहार के कारण भविष्य में पैदा होने वाली समस्याओं के बारे में सोच कर चिंतित है, उस समय मेरे दिमाग में दूरदूर तक यह बात ही नहीं थी कि इंद्र का व्यवहार भविष्य में कितना घातक हो सकता है. हम सब यही सोचते थे कि इस की पत्नी ही इसे संभालेगी लेकिन शिल्पी को गाड़ी के पहियों में संतुलन खुद ही बिठाना पड़ा,’’ प्रशंसाभरी नजरों से दादी शिल्पी को देख कर बोलीं.

‘‘हां अमन, शिल्पी ने इंद्र के साथ तालमेल बिठाने में जो कुछ किया उस की तो तेरी दादी तारीफ करती हैं. यह भी सच है कि इस दौरान शिल्पी कई बार टूटी भी, रोई भी, घर भी छोड़ना चाहा, इंद्र से एक बारगी तो तलाक लेने के लिए भी अड़ गई थी लेकिन तुम्हारी दादी ने उस के बिखरे व्यक्तित्व को जब से समेटा तब से वह हर समस्या में सोने की तरह तप कर निखरती गई,’’ ससुरजी ने एक छिपा हुआ इतिहास खोल कर रख दिया.

‘‘यानी पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाले इस झूठे अहम की दीवारों को अब गिराना एक जरूरत बन गई है. जीवन में केवल प्यार का ही स्थान सब से ऊपर होना चाहिए. इसे जीवित रखने के लिए दिलों में एकदूसरे के लिए केवल सम्मान होना चाहिए, हठ नहीं,’’ अमन बोला.

‘‘अच्छा, अगर तुम इतनी ही अच्छी सोच रखते थे तो तुम हठीले क्यों बने,’’ पापा की ओर से दगे इस प्रश्न का जवाब देते हुए अमन हौले से मुसकराया, ‘‘तब क्या मैं आप को बदल पाता? और दादा क्या आप यह मानते कि आप ने अपने बेटे के लिए कुशल पिता की नहीं, प्रिंसिपल की ही भूमिका निभाई? यानी दादा से पापा फिर मैं, इस खानदानी गुंडागर्दी का अंत ही नहीं होता,’’ बोलतेबोलते अमन के साथ सभी हंस पड़े.

मेरी खुशी का तो ओरछोर ही न था, क्योंकि आज मेरा मकान वास्तव में एक घर बन गया था.

Holi 2024: सुधा- एक जांबाज लड़की की कहानी

दरवाजे की घंटी की मीठी आवाज ने सारे घर को गुंजा दिया था. यह घंटी अब कभीकभार ही बजती है, पर जब भी बजती है, तो सारे घर के माहौल को महका देती है.

मैं ने बड़े ही जोश से दरवाजा खोला था. दरवाजा खोलते ही एक सूटबूटधारी नौजवान पर निगाह पड़ते ही मेरी आंखों में अपनेआप सवालिया निशान उभर आया था. मुझे लगा था कि इस ने या तो गलत घर का दरवाजा खटखटा दिया है या फिर किसी का पता पूछना चाहता है, क्योंकि उसे मैं नहीं पहचानता था.

‘‘मैं सौरभ… मेरी मां सुधा और पिताजी गौरव… उन्होंने मुझ से बोला था कि मैं आप से आशीर्वाद ले कर आऊं…’’

‘‘ओह… अच्छा… कैसे हैं वे दोनों…’’ मेरे सामने अतीत के पन्ने खुलते चले गए थे. एकएक चेहरा ऐसे सामने आता जा रहा था मानो मैं अतीत के चलचित्र देख रहा हूं.

‘‘पिताजी तहसीलदार बन गए हैं… उन्होंने यह बताने को जरूर बोला था.’’

‘‘ओह… अच्छा, पर वे तो रीडर थे… मैं ने ही उन्हें नियुक्त किया था…’’ मुझे वाकई हैरानी हो रही थी.

‘‘जी, इसलिए तो उन्होंने मुझे आप को बताने के लिए बोला था… उन्होंने विभागीय परीक्षा दी थी… उस में वे पास हो गए थे और नायब तहसीलदार बना दिए गए थे… बाद में उन का प्रमोशन हो गया और अब वे तहसीलदार बन गए हैं,’’ सौरभ सबकुछ पूरे जोश के साथ बताता चला जा रहा था.

‘‘अच्छा… और सुधा का स्कूल…’’

‘‘मम्मी का स्कूल… अभी चल रहा है… तकरीबन 4 एकड़ में नई बिल्डिंग बन गई है और उस में 2,000 से ज्यादा बच्चे पढ़ रहे हैं…’’

जब सौरभ ने मेरे पैर छू कर बताया कि वह सुधा का बेटा है, तब मेरी यादों के धुंधले पड़ चुके पन्ने अचानक पलटने लगे.

सुधा… ओह… वह जांबाज लड़की, जिस ने एक झटके में ही आपने मातापिता का घर केवल इसलिए छोड़ दिया था कि वह किसी के साथ नाइंसाफी कर रहे थे. वैसे तो मैं उन को पहचानता नहीं था… वह तो उस दिन वे कचहरी आए थे, कार्ट मैरिज का आवेदन देने, तब मैं ने जाना था पहली बार उन को…

‘‘सर, मैं और ये कोर्ट मैरिज करना चाहते हैं…’’

मेरा ध्यान सुधा के साथ खड़े एक लड़के की ओर गया. सामान्य सी कदकाठी का दुबलापतला लड़का बैसाखियों के सहारे खड़ा था. उस के चेहरे पर उदासी साफ झलक रही थी.

मुझे हैरानी हुई थी कि इतनी खूबसूरत लड़की कैसे इस लड़के को पसंद कर सकती है और शादी कर सकती है. मैं ने आवेदनपत्र को गौर से पढ़ा :

नाम- कु. सुधा

पिता का नाम- रामलाल

शिक्षा- पोस्ट ग्रेजुएशन

लड़के का नाम- गौरव

पिता का नाम- स्व. गिरिजाशंकर

शिक्षा- बीए

मेरी निगाह एक बार फिर उन दोनों की तरफ घूम गई थी.

‘‘सर, आवेदन में कुछ रह गया है क्या? अंक सूची भी लगी हुई है. मेरी उम्र

18 साल से ज्यादा है और इन की उम्र 21 साल पूरी हो चुकी है…’’

मैं ने अपनी निगाहों को उन से हटा लिया था, ‘‘नहीं… आवेदन तो ठीक है… पर क्या मातापिता की रजामंदी है?’’

‘‘जी नहीं, तभी तो कोर्ट मैरिज कर रहे हैं. वैसे, हम बालिग हैं और अपनी पसंद से शादी कर सकते हैं…’’ सुधा ने जवाब दिया था.

‘‘ठीक है… आप 15 दिन बाद फिर आइए. हम नोटिस चस्पां करेंगे और फिर आप को शादी की तारीख बताएंगे…’’

दरअसल, मैं चाहता था कि लड़की को कुछ दिन और सोचने का मौका मिले कि कहीं वह जल्दबाजी में या जोश में तो शादी नहीं कर रही है.

उस लड़की को ले कर मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी. वह भले घर की लग रही थी और खूबसूरत भी थी. लड़का किसी भी लिहाज से उस के लायक नहीं लग रहा था. शुरू में तो मुझे लगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि लड़का किसी

तरह से उसे ब्लैकमेल कर रहा हो…

मैं ने छानबीन कराने का फैसला कर लिया था.

सुधा के पिता का बड़ा करोबार था. शहर में उन की इज्जत भी बहुत थी. सुधा उन की एकलौती संतान थी, जो लाड़प्यार में पली थी.

गौरव सुधा के पिताजी की दुकान में काम करता था. वह काफी गरीब परिवार से था, पर शरीफ था. उस की मां ने मेहनतमजदूरी कर के उसे पालापोसा और पढ़ायालिखाया था.

मां बूढ़ी हो चुकी थीं. इस वजह से गौरव को पढ़ाई बीच में ही छोड़ कर काम पर लग जाना पड़ा था. वह सुधा के पिताजी के यहां काम करने लगा था.

गौरव की मेहनत और ईमानदारी को देखते हुए एक दिन सेठजी ने उसे मैनेजर बना दिया और वह सेठजी का पूरा कारोबार संभालने लगा था.

इसी दौरान सुधा का परिचय गौरव से हुआ. सुधा भी गौरव से बेहद प्रभावित हुई. वे दोनों हमउम्र थे. इस वजह से उन में जानपहचान बढ़ती चली गई. इस के बावजूद उन के बीच में ऐसा कुछ नहीं था, जिसे सामाजिक तौर से गलत माना जा सके.

गौरव ने अपनी पारिवारिक परेशानियों की वजह से पढ़ाई भले ही छोड़ दी हो, पर वह समय निकाल कर पढ़नेलिखने के अपने शौक को पूरा करता रहता था. सेठजी के काम से उसे जरा सी भी फुरसत मिलती, वह या तो लिखने बैठ जाता या पढ़ने.

सुधा पोस्ट ग्रेजुएशन के आखिरी साल में थी. वह कभीकभार गौरव से पढ़ाई के विषय पर चर्चा करने लगी थी. वह जानती थी कि गौरव ने भले ही पोस्ट ग्रेजुएशन न किया हो, पर उसे जानकारी पूरी थी.

गौरव की मां की बीमारी ठीक नहीं हो रही थी. गौरव की तनख्वाह का एक बड़ा हिस्सा मां की दवाओं पर ही खर्च हो जाता था, पर उसे सुकून था कि वह मां की सेवा कर रहा है.

सुधा गौरव के हालात के बारे में इतना बेहतर तो नहीं जानती थी, पर मां की बीमारी और माली तंगी को वह समझने लगी थी.

तभी गौरव के साथ घटे दर्दनाक हादसे ने उसे गौरव के और करीब ला दिया था. सेठजी के गोदाम में रखी एक लोहे की छड़ उस के पैरों को छलनी करती हुई तब आरपार निकल गई थी, जब वह माल का निरीक्षण कर रहा था.

गौरव को तत्काल अस्पताल ले जाया गया, पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी. डाक्टरों को उस का एक पैर काट देना पड़ा था.

गौरव अब विकलांग हो चुका था. वह अब सेठजी के किसी काम का नहीं रहा था, इसलिए उन्होंने उस का इलाज तो पूरा कराया, पर इस के बाद उसे काम पर आने से मना कर दिया.

अपने पिताजी के इस बरताव से सुधा दुखी थी. अपंग गौरव के सामने दो जून की रोटी का संकट पैदा हो गया था. सुधा ने अपने पिताजी को काफी समझाने की कोशिश भी की थी, पर उन्होंने साफ कह दिया था, ‘‘हम बैठेबिठाए किसी को तनख्वाह नहीं दे सकते.’’

‘‘पर, वह आप की रोकड़बही का काम करेगा न, पहले भी वह यही काम करता था और आप खुद उस के काम की तारीफ करते थे,’’ सुधा ने कहा था.

‘‘रोकड़बही का काम कितनी देर का रहता है… बाकी दिनभर तो वह बेकार ही रहेगा न. पहले वह इस काम के अलावा बैंक जाने से ले कर गोदाम तक का काम कर लेता था, पर अब तो वह यह भी नहीं कर पाएगा,’’ सेठजी मानने को तैयार नहीं थे.

ऐसे में सुधा के पास एक आखिरी हथियार बचा था अपने पिता को धमकी देने का, ‘‘पिताजी, अगर आप ने गौरव को काम पर नहीं रखा, तो मैं भी इस घर में नहीं रहूंगी…’’

‘‘ठीक है बेटी, जैसी तुम्हारी मरजी,’’ पिताजी ने इतना कह कर बात को खत्म कर दिया था. वे इसे सुधा का बचपना ही मान कर चल रहे थे, परंतु सुधा स्वाभिमानी लड़की थी. उसे अपने पिता से इस तरह के जवाब की उम्मीद नहीं थी. उसने गौरव को अपनाने का फैसला कर लिया.

जब सुधा ने अपना फैसला सुनाया, तो उस की मां दुखी हो गई थीं. उन्होंने उसे रोका भी था, पर वे अपनी बेटी के स्वभाव से परिचित थीं. इस वजह से उन्होंने उसे जाने दिया.

‘‘यह मत समझना कि मैं किसी फिल्मी पिता की तरह तुम्हें समझाबुझा कर वापस लाने की कोशिश करूंगा… वैसे भी तुम बालिग हो और अपना फैसला खुद ले सकती हो…’’ पिताजी की आवाज में सहजता ही थी. उधर गौरव की मां जरूर घबरा गई थीं.

‘‘नहीं बेटी, मैं तुम्हें अपने घर पर नहीं रख सकती. हम तो पहले से ही इतने परेशान हैं, तुम क्यों हमारी परेशानी बढ़ाना चाहती हो…’’ कहते हुए गौरव की मां फफक पड़ी थीं.

‘‘मां, मैं तो अब आ ही चुकी हूं. अब मैं वापस तो जाने से रही, इसलिए आप परेशान न हों… मैं सब संभाल लूंगी… अपने पिताजी को भी.’’

सुधा ने परिवार को वाकई संभाल लिया था. वह मां की पूरी सेवा करती और गौरव का भी ध्यान रखती. गौरव घर में रह कर बच्चों को पढ़ाता रहता और सुधा एक स्कूल में टीचर बन गई थी.

एक दिन सुधा ही गौरव को ले कर कचहरी गई थी, ताकि कोर्ट मैरिज का आवेदन दे सके. यों बगैर शादी किए वह कब तक इस परिवार में रह सकती थी.

सुधा और गौरव की पूरी कहानी का पता चलने के बाद मैं ने उन दोनों की मदद करने का फैसला ले लिया था. दोनों की कोर्ट मैरिज हो गई थी.

गौरव को मैं ने ही कचहरी में काम पर लगा लिया था. सुधा का मन स्कूल संचालन में ज्यादा था. सो, मैं ने अपने माध्यमों का उपयोग कर उस को स्कूल खोलने की इजाजत दिला दी थी, साथ ही अपने परिचितों से उस स्कूल में अपने बच्चों का दाखिला दिलाने को भी कह दिया था.

सुधा का स्कूल खुल चुका था. 2 कमरे से शुरू हुआ उस का स्कूल धीरेधीरे बड़ा होता जा रहा था.

सौरभ का जब जन्म हुआ, तब तक सुधा का स्कूल शहर के नामी स्कूलों में गिना जाने लगा था.

रिटायर होने के बाद मैं अपने शहर आ गया था. इस के चलते फिर न तो सुधा से कभी मुलाकात हो सकी और न ही सौरभ के बारे में जान सका. आज जब सौरभ को यों अपने सामने देखा तो पहचान ही नहीं पाया.

सुधा और गौरव ने जीरो से शुरुआत की थी और आज उंचाइयों पर पहुंच गए थे. मुझे खुशी इस बात की भी थी कि इस सब में मेरा भी कुछ न कुछ योगदान था. अपने ही लगाए पौधे को जब माली फलताफूलता देखता है, तो उसे खुशी तो होती ही है.

अच्छी बात यह भी थी कि गौरव और सुधा मुझे अभी भूले भी नहीं थे, जबकि न जाने कितना समय गुजर चुका है.

मैं ने सौरभ को गले से लगा लिया और पूछा, ‘‘और बेटा, तुम क्या कर रहे हो?’’

‘‘जी, मेरा अभीअभी आईएएस में चयन हुआ है. मैं जानता हूं अंकल कि आप ने मेरे परिवार को इस मुकाम तक पहुंचाने में कितना सहयोग दिया है. मां ने मुझे सबकुछ बताया है. अगर उस समय आप उन का साथ नहीं देते तो शायद…’’ उस की आंखों में आंसू डबडबा आए थे. मैं ने एक बार फिर उसे अपने सीने से लगा लिया था.

अंधेरे से उजाले की ओर

कमरे में प्रवेश करते ही डा. कृपा अपना कोट उतार कर कुरसी पर धड़ाम से बैठ गईं. आज उन्होंने एक बहुत ही मुश्किल आपरेशन निबटाया था.

शाम को जब वे अस्पताल में अपने कक्ष में गईं, तो सिर्फ 2 मरीजों को इंतजार करते हुए पाया. आज उन्होंने कोई अपौइंटमैंट भी नहीं दिया था. इन 2 मरीजों से निबटने के बाद वे जल्द से जल्द घर लौटना चाहती थीं. उन्हें आराम किए हुए एक अरसा हो गया था. वे अपना बैग उठा कर निकलने ही वाली थीं कि अपने नाम की घोषणा सुनी, ‘‘डा. कृपा, कृपया आपरेशन थिएटर की ओर प्रस्थान करें.’’

माइक पर अपने नाम की घोषणा सुन कर उन्हें पता चल गया कि जरूर कोई इमरजैंसी केस आ गया होगा.

मरीज को अंदर पहुंचाया जा चुका था. बाहर मरीज की मां और पत्नी बैठी थीं.

मरीज के इतिहास को जानने के बाद डा. कृपा ने जैसे ही मरीज का नाम पढ़ा तो चौंक गईं. ‘जयंत शुक्ला,’ नाम तो यही लिखा था. फिर उन्होंने अपने मन को समझाया कि नहीं, यह वह जयंत नहीं हो सकता.

लेकिन मरीज को करीब से देखने पर उन्हें विश्वास हो गया कि यह वही जयंत है, उन का सहपाठी. उन्होंने नहीं चाहा था कि जिंदगी में कभी इस व्यक्ति से मुलाकात हो. पर इस वक्त वे एक डाक्टर थीं और सामने वाला एक मरीज. अस्पताल में जब मरीज को लाया गया था तो ड्यूटी पर मौजूद डाक्टरों ने मरीज की प्रारंभिक जांच कर ली थी. जब उन्हें पता चला कि मरीज को दिल का जबरदस्त दौरा पड़ा है तो उन्होंने दौरे का कारण जानने के लिए एंजियोग्राफी की थी, जिस से पता चला कि मरीज की मुख्य रक्तनलिका में बहुत ज्यादा अवरोध है. मरीज का आपरेशन तुरंत होना बहुत जरूरी था. जब मरीज की पत्नी व मां को इस बात की सूचना दी गई तो पहले तो वे बेहद घबरा गईं, फिर मरीज के सहकर्मियों की सलाह पर वे मान गईं. सभी चाहते थे कि उस का आपरेशन डा. कृपा ही करें. इत्तफाक से डा. कृपा अपने कक्ष में ही मौजूद थीं.

मरीज की बीवी से जरूरी कागजों पर हस्ताक्षर लिए गए. करीब 5 घंटे लगे आपरेशन में. आपरेशन सफल रहा. हाथ धो कर जब डा. कृपा आपरेशन थिएटर से बाहर निकलीं तो सभी उन के पास भागेभागे आए.

डा. कृपा ने सब को आश्वासन दिया कि आपरेशन सफल रहा और मरीज अब खतरे से बाहर है. अपने कमरे में पहुंच कर डा. कृपा ने कोट उतार कर एक ओर फेंक दिया और धड़ाम से कुरसी पर बैठ गईं.

आंखें बंद कर आरामकुरसी पर बैठते ही उन्हें अपनी आंखों के सामने अपना बीता कल नजर आने लगा. जिंदगी के पन्ने पलटते चले गए.

कृपा शक्लसूरत में अपने पिता पर गई थी

उन्हें अपना बचपन याद आने लगा… जयपुर में एक मध्यवर्गीय परिवार में वे पलीबढ़ी थीं. उन का एक बड़ा भाई था, जो मांबाप की आंखों का तारा था. कृपा की एक जुड़वां बहन थी, जिस का नाम रूपा था. नाम के अनुरूप रूपा गोरी और सुंदर थी, अपनी मां की तरह. कृपा शक्लसूरत में अपने पिता पर गई थी. कृपा का रंग अपने पिता की तरह काला था. दोनों बहनों की शक्लसूरत में मीनआसमान का फर्क था. बचपन में जब उन की मां दोनों का हाथ थामे कहीं भी जातीं, तो कृपा की तरफ उंगली दिखा कर सब यही पूछते कि यह कौन है?

उन की मां के मुंह से यह सुन कर कि दोनों उन की जुड़वां बेटियां हैं, लोग आश्चर्य में पड़ जाते. लोग जब हंसते हुए रूपा को गोद में उठा कर प्यार करते तो उस का बालमन बहुत दुखी होता. तब कृपा सब का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए रोती, मचलती.

तब उसे पता नहीं था कि मानवमन तो सुंदरता का पुजारी होता है. तब वह समझ नहीं पाती थी कि लोग क्यों उस के बजाय उस की बहन को ही प्यार करते हैं. एक बार तो उसे इस तरह मचलते देख कर किसी ने उस की मां से कह भी दिया था कि लीला, तुम्हारी इस बेटी में न तो रूप है न गुण.

धीरेधीरे कृपा को समझ में आने लगा अपने और रूपा के बीच का यह फर्क.

मां कृपा को समझातीं कि बेटी, समझदारी का मानदंड रंगरूप नहीं होता. माइकल जैकसन काले थे, पर पूरी दुनिया के चहेते थे. हमारी बेटी तो बहुत होशियार है. पढ़लिख कर उसे मांबाप का नाम रोशन करना है. बस, मां की इसी बात को कृपा ने गांठ बांध लिया. मन लगा कर पढ़ाई करती और कक्षा में हमेशा अव्वल आती.

कृपा जब थोड़ी और बड़ी हुई तो उस ने लड़कों और लड़कियों को एकदूसरे के प्रति आकर्षित होते देखा. उस ने बस, अपने मन में डाक्टर बनने का सपना संजो लिया था. वह जानती थी कि कोई उस की ओर आकर्षित नहीं होगा. यदि मनुष्य अपनी कमजोर रग को पहचान ले और उसे अनदेखा कर के उस क्षेत्र में आगे बढ़े जहां उसे महारत हासिल हो, तो उस की कमजोर रग कभी उस की दुखती रग नहीं बन सकती. इसीलिए जब जयंत ने उस की ओर हाथ बढ़ाया तो उस ने उसे ठुकरा दिया.

कृपा का ध्यान सिर्फ अपने लक्ष्य की ओर था. एक दिन उस ने जयंत को अपने दोस्तों से यह कहते हुए सुना कि मैं कृपा से इसलिए दोस्ती करना चाहता हूं, क्योंकि वह बहुत ईमानदार लड़की है, कितने गुण हैं उस में, हमेशा हर कक्षा में अव्वल आती है, फिर भी जमीन से जुड़ी है.

उस दिन के बाद कृपा का बरताव जयंत के प्रति नरम होता गया. 12वीं कक्षा की परीक्षा में अच्छे नंबर आना बेहद जरूरी था, क्योंकि उन्हीं के आधार पर मैडिकल में दाखिला मिल सकता था. सभी को कृपा से बहुत उम्मीदें थीं.

जयंत बेझिझक कृपा से पढ़ाई में मदद लेने लगा. वह एक मध्यवर्गीय परिवार से संबंध रखता था. खाली समय में ट्यूशन पढ़ाता था ताकि मैडिकल में दाखिला मिलने पर उसे पैसों की दिक्कत न हो.

कृपा लाइब्रेरी में बैठ कर किसी एक विषय पर अलगअलग लेखकों द्वारा लिखित किताबें लेती और नोट्स तैयार करती थी.

पहली बार जब उस ने अपने नोट्स की एक प्रति जयंत को दी तो वह कृतार्थ हो गया. कहने लगा कि तुम ने मेरी जो मदद की है, उसे जिंदगी भर नहीं भूल पाऊंगा.

अब जब भी कृपा नोट्स तैयार करती तो उस की एक प्रति जयंत को जरूर देती.

एक दिन जयंत ने कृपा के सामने प्रस्ताव रखा कि यदि हमारा साथ जीवन भर का हो जाए तो कैसा हो?

कृपा ने मीठी झिड़की दी कि अभी तुम पढ़ाई पर ध्यान दो, मजनू. ये सब तो बहुत बाद की बातें हैं.

कृपा ने झिड़क तो दिया पर मन ही मन वह सपने बुनने लगी थी. जयंत स्कूल से सीधे ट्यूशन पढ़ाने जाता था, इसलिए कृपा रोज जयंत से मिल कर थोड़ी देर बातें करती, फिर जयंत से चाबी ले कर नोट्स उस के कमरे में छोड़ आती. चाबी वहीं छोड़ आती, क्योंकि जयंत का रूममेट तब तक आ जाता था.

एक दिन लाइब्रेरी से बाहर आते समय कृपा ने हमेशा की तरह रुक कर जयंत से बातें कीं. जयंत अपने दोस्तों के साथ खड़ा था, पर जातेजाते वह जयंत से चाबी लेना भूल गई. थोड़ी दूर जाने के बाद अचानक जब उसे याद आया तो वापस आने लगी. वह जयंत के पास पहुंचने ही वाली थी कि अपना नाम सुन कर अचानक रुक गई.

जयंत का दोस्त उस से कह रहा था कि तुम ने उस कुरूपा (कृपा) को अच्छा पटाया. तुम्हारा काम तो आसान हो गया, यार. इस साथी को जीवनसाथी बनाने का इरादा है क्या?

जयंत ने कहा कि दिमाग खराब नहीं हुआ है मेरा. उसे इसी गलतफहमी में रहने दो. बनेबनाए नोट्स मिलते रहें तो मुझे रोजरोज पढ़ाई करने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी. परीक्षा से कुछ दिन पहले दिनरात एक कर देता हूं. इस बार देखना, उसी के नोट्स पढ़ कर उस से भी अच्छे नंबर लाऊंगा.

जयंत के मुंह से ये सब बातें सुन कर कृपा कांप गई. उस के पैरों तले से जमीन खिसक गई. इतना बड़ा धोखा? वह उलटे पांव लौट गई. भाग कर घर पहुंची तो इतनी देर से दबी रुलाई फूट पड़ी. मां ने उसे चुप कराया. सिसकियों के बीच कृपा ने मां को किसी तरह पूरी बात बताई.

कुछ देर के लिए तो मां भी हैरान रह गईं, पर वे अनुभवी थीं. अत: उन्होंने कृपा को समझाया कि बेटे, अगर कोई यह सोचता है कि किसी सीधेसादे इनसान को धोखा दे कर अपना उल्लू सीधा किया जा सकता है, तो वह अपनेआप को धोखा देता है. नुकसान तुम्हारा नहीं, उस का हुआ है. व्यवहार बैलेंस शीट की तरह होता है, जिस में जमाघटा बराबर होगा ही. जयंत को अपने किए की सजा जरूर मिलेगी. तुम्हारी मेहनत तुम्हारे साथ है, इसलिए आज तुम चाबी लेना भूल गईं. पढ़ाई में तुम्हारी बराबरी इन में से कोई नहीं कर सकता. प्रकृति ने जिसे जो बनाया उसे मान कर उस पर खुश हो कर फिर से सब कुछ भूल कर पढ़ाई में जुट जाओ.

मां की बातों से कृपा को काफी राहत मिली, पर यह सब भुला पाना इतना आसान नहीं था.

हिम्मत जुटा कर दूसरे दिन हमेशा की तरह कृपा ने जयंत से चाबी ली, पर नोट्स रखने के लिए नहीं, बल्कि आज तक उस ने जो नोट्स दिए थे उन्हें निकालने के लिए. अपने सारे नोट्स ले कर चाबी यथास्थान रख कर कृपा घर की ओर चल पड़ी. 2-4 दिनों में छुट्टियां शुरू होने वाली थीं, उस के बाद इम्तिहान थे. चाबी लेते समय उस ने जयंत से कह दिया था कि अब छुट्टियां शुरू होने के बाद ही उस से मिलेगी, क्योंकि उसे 2-4 दिनों तक कुछ काम है. घर जाने पर उस ने मां से कह दिया कि वह छुट्टियों में मौसी के घर रह कर अपनी पढ़ाई करेगी.

जिस दिन छुट्टियां शुरू हुईं, उस दिन सुबह ही कृपा मौसी के घर की ओर प्रस्थान कर गई. जाने से पहले उस ने एक पत्र जयंत के नाम लिख कर मां को दे दिया.

छुट्टियां शुरू होने के बाद एक दिन जब जयंत ने नोट्स निकालने के लिए दराज खोली तो पाया कि वहां से नोट्स नदारद हैं. उस ने पूरे कमरे को छान मारा, पर नोट्स होते तो मिलते. तुरंत भागाभागा वह कृपा के घर पहुंचा. वहां मां ने उसे कृपा की लिखी चिट्ठी पकड़ा दी.

कृपा ने लिखा था, ‘जयंत, उस दिन मैं ने तुम्हारे दोस्त के साथ हुई तुम्हारी बातचीत को सुन लिया था. मेरे बारे में तुम्हारी राय जानने के बाद मुझे लगा कि मेरे नोट्स का तुम्हारी दराज में होना कोई माने नहीं रखता, इसलिए मैं ने नोट्स वापस ले लिए. मेरे परिवार वालों से मेरा पता मत पूछना, क्योंकि वे तुम्हें बताएंगे नहीं. मेरी तुम से इतनी विनती है कि जो कुछ भी तुम ने मेरे साथ किया है, उस का जिक्र किसी से न करना और न ही किसी के साथ ऐसी धोखाधड़ी करना वरना लोगों का दोस्ती पर से विश्वास उठ जाएगा. शुभ कामनाओं सहित, कृपा.’

पत्र पढ़ कर जयंत ने माथा पीट लिया. वह अपनेआप को कोसने लगा कि यह कैसी मूर्खता कर बैठा. इस तरह खुल्लमखुल्ला डींगें हांक कर उस ने अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मार ली थी. उस के पास किताबें खरीदने के लिए पैसे नहीं थे, न ही इतना वक्त था कि नोट्स तैयार करता.

इम्तिहान से एक दिन पहले कृपा वापस अपने घर आई. दोस्तों से पता चला कि इस बार जयंत परीक्षा में नहीं बैठ रहा है.

उस के बाद कृपा की जिंदगी में जो कुछ भी घटा, सब कुछ सुखद था. पूरे राज्य में अव्वल श्रेणी में उत्तीर्ण हुई थी कृपा. दूरदर्शन, अखबार वालों का तांता लग गया था उस के घर में. सभी बड़े कालेजों ने उसे खुद न्योता दे कर बुलाया था.

मुंबई के एक बड़े कालेज में उस ने दाखिला ले लिया था. एम.बी.बी.एस. की पढ़ाई पूरी करने के बाद उस ने आगे की पढ़ाई के लिए प्रवेश परीक्षाएं दीं. यहां भी वह अव्वल आई. उस ने हृदयरोग विशेषज्ञ बनने का फैसला लिया. एम.डी. की पढ़ाई करने के बाद उस ने 3 बड़े अस्पतालों में विजिटिंग डाक्टर के रूप में काम करना शुरू किया. समय के साथ उसे काफी प्रसिद्धि मिली.

इधर उस की जुड़वां बहन की पढ़ाई में खास दिलचस्पी नहीं थी. मातापिता ने उस की शादी कर दी. उस का भाई अपनी पत्नी के साथ दिल्ली में रहता था. भाई कभी मातापिता का हालचाल तक नहीं पूछता था. बहू ने दूरी बनाए रखी थी. जब अपना ही सिक्का खोटा था तो दूसरों से क्या उम्मीद की जा सकती थी.

बेटे के इस रवैए ने मांबाप को बहुत पीड़ा पहुंचाई थी. कृपा ने निश्चय कर लिया था कि मातापिता और लोगों की सेवा में अपना जीवन बिता देगी. कृपा ने मुंबई में अपना घर खरीद लिया और मातापिता को भी अपने पास ले गई.

चर्मरोग विशेषज्ञ डा. मनीष से कृपा की अच्छी निभती थी. दोनों डाक्टरी के अलावा दूसरे विषयों पर भी बातें किया करते थे, पर कृपा ने उन से दूरी बनाए रखी. एक दिन डा. मनीष ने डा. कृपा से शादी करने की इच्छा जाहिर की, पर दूध का जला छाछ भी फूंकफूंक कर पीता है.

डा. कृपा ने दृढ़ता के साथ मना कर दिया. उस के बाद डा. मनीष की हिम्मत नहीं हुई दोबारा पूछने की. मां को जब पता चला तो मां ने कहा, ‘‘बेटे, सभी एक जैसे तो नहीं होते. क्यों न हम डा. मनीष को एक मौका दें.’’

डा. मनीष अपने किसी मरीज के बारे में डा. कृपा से सलाह करना चाहते थे. डा. कृपा का सेलफोन लगातार व्यस्त आ रहा था, तो उन्होंने डा. कृपा के घर फोन किया.

डा. कृपा घर पर भी नहीं थी. उस की मां ने डा. मनीष से बात की और उन्हें दूसरे दिन घर पर खाने पर बुला लिया. मां ने डा. मनीष से खुल कर बातें कीं. 4-5 साल पहले उन की शादी एक सुंदर लड़की से तय हुई थी, पर 2-3 बार मिलने के बाद ही उन्हें पता चल गया कि वे उस के साथ किसी भी तरह सामंजस्य नहीं बैठा सकते. तब उन्होंने इस शादी से इनकार कर दिया था.

मां की अनुभवी आंखों ने परख लिया था कि डा. मनीष ही डा. कृपा के लिए उपयुक्त वर हैं. अब तक डा. कृपा भी घर लौट चुकी थी. सब ने एकसाथ मिल कर खाना खाया. बाद में मां के बारबार आग्रह करने पर डा. मनीष से बातचीत के लिए तैयार हो गई डा. कृपा. उस ने डा. मनीष से साफसाफ कह दिया कि उस की कुछ शर्तें हैं, जैसे मातापिता की देखभाल की जिम्मेदारी उस की है, इसलिए वह उन के घर के पास ही घर ले कर रहेंगे. वह डा. मनीष के घर वालों की जिम्मेदारी भी लेने को तैयार थी, लेकिन इमरजैंसी के दौरान वक्तबेवक्त घर से जाना पड़ सकता है, तब उस के परिवार वालों को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए, वगैरह.

डा. मनीष ने उस की सारी शर्तें मान लीं और उन का विवाह हो गया. डा. मनीष जैसे सुलझे हुए व्यक्ति को पा कर कृपा को जिंदगी से कोई शिकायत नहीं रह गई थी. कुछ साल पहले डा. कृपा अपनेआप को कितनी कोसती थी. लेकिन अब उसे लगने लगा कि उस की जिंदगी में अब कोई अंधेरा नहीं है, बल्कि चारों तरफ उजाला ही उजाला है.

डा. कृपा धीरेधीरे वर्तमान में लौट आई. इस के बाद उस का सामना कई बार जयंत से हुआ. पहली बार होश आने पर जब जयंत ने डा. कृपा को देखा तो चौंकने की बारी उस की थी. कई बार उस ने डा. कृपा से बात करने की कोशिश की, पर डा. कृपा ने एक डाक्टर और मरीज की सीमारेखा से बाहर कोई भी बात करने से मना कर दिया.

डा. कृपा सोचने लगी, आज वह डा. मनीष के साथ कितनी खुश है. जिंदगी में कटु अनुभवों के आधार पर लोगों के बारे में आम राय बना लेना कितनी गलत बात है. कुदरत ने सुख और दुख सब के हिस्से में बराबर मात्रा में दिए हैं. जरूरत है तो दुख में संयम बरतने की और सही समय का इंतजार करने की. किसी की भी जिंदगी में अंधेरा अधिक देर तक नहीं रहता है, उजाला आता ही है.

दुनिया: जब पड़ोसिन ने असमा की दुखती रग पर रखा हाथ

यह फ्लैट सिस्टम भी खूब होता है. कंपाउंड में सब्जी वाला आवाजें लगाता तो मैं पैसे डाल कर तीसरी मंजिल से टोकरी नीचे उतार देती, लेकिन मेरे लाख चीखनेचिल्लाने पर भी सब्जी वाला 2-4 टेढ़ीमेढ़ी दाग लगी सब्जियां व टमाटर चढ़ा ही देता. एक दिन मामूली सी गलती पर पोस्टमैन 1,800 रुपए का मनीऔर्डर ले कर मेरे सिर पर सवार हो गया और आज हौकर हमारा अखबार फ्लैट नंबर 111 में डाल गया.

मिसेज अनवर वही अखबार लौटाने आई थीं. मैं ने शुक्रिया कह कर उन से अखबार लिया और फौर्मैलिटी के तौर पर उन्हें अंदर आने के लिए कहा तो वे झट से अंदर आ गईं और फैल कर बैठ गईं. कुछ देर इधरउधर की बातें कर के मैं उन के लिए कौफी लेने किचन की तरफ बढ़ी तो वे भी मेरे पीछे ही चली आईं और लाउंज में मौजूद चेयर संभाल ली. मैं ने वहीं उन्हें कौफी का कप थमाया और लंच की तैयारी में जुट गई.

वे बोलीं, ‘‘कुछ देर पहले मैं ने तुम्हारे फ्लैट से एक साहब को निकलते देखा था. उन्हें लाख आवाजें दी मगर उन्होंने सुनी नहीं, इसलिए मुझे खुद ही आना पड़ा.’’

‘‘चलिए अच्छी बात है, इसी बहाने आप से मुलाकात तो हो गई,’’ कह कर मैं मुसकरा दी. फिर गोश्त कुकर में चढ़ाया, फ्रिज से

सब्जी निकाली और उन के सामने बैठ कर छीलने लगी.

‘‘सच कहती हूं, जब से तुम आई हो तब से ही तुम से मिलने को दिल करता था, मगर इस जोड़ों के दर्द ने कहीं आनेजाने के काबिल कहां छोड़ा है.’’

मैं खामोशी से लौकी के बीज निकालती रही. तब उन्होंने पूछा, ‘‘तुम्हारे शौहर तो मुल्क से बाहर हैं न?’’

‘‘जी…?’’ मैं ने चौंक कर उन्हें देखा, ‘‘जिन साहब को आप ने सुबह देखा, वही तो…’’

‘‘हैं… वे तुम्हारे शौहर हैं?’’

मिसेज अनवर जैसे करंट खा कर उछलीं और मैं ने ऐसे सिर झुका लिया जैसे आफताब सय्यद मेरे शौहर नहीं, मेरा जुर्म हों. वैसे इस किस्म के जुमले मेरे लिए नए नहीं थे मगर हर बार जैसे मुझे जमीन में धंसा देते थे. मैं ने लाख बार उन्हें टोका है कि कम से कम बाल ही डाई कर लिया करें, मगर बनावट उन्हें पसंद ही नहीं है.

मिसेज अनवर ने यों तकलीफ भरी सांस ली जैसे मेरी सगी हों. फिर बोलीं, ‘‘कितनी प्यारी दिखती हो तुम, क्या तुम्हारे घर वालों को तुम्हें जहन्नुम में धकेलते वक्त जरा भी खयाल नहीं आया?’’

फिर वे लगातार व्यंग्य भरे वाक्य मुझ पर बरसाती रहीं और कौफी पीती रहीं. मेरी अम्मी को सारी जिंदगी ऐसे ही लोगों की जलीकटी बातें सताती रहीं. अब्बा बैंकर थे और बहुत जल्दी दुनिया छोड़ गए थे. अम्मी पढ़ीलिखी थीं, इसलिए अब्बा की बैंकरी उन के हिस्से में आ गई. अम्मी की आधी जिंदगी 2-2 पैसे जमा करते गुजरी. उन्होंने अपने लहू से अपने पौधों की परवरिश की, मगर जब फल खाने का वक्त आया तो…

बड़ी आपा शक्ल की प्यारी मगर, मिजाज की ऊंची निकलीं. उन के लिए रिश्ते तो आते रहे मगर उन की उड़ान बहुत ऊंची थी. मास्टर डिगरी लेने के बाद उन्हें लैक्चररशिप मिल गई तो उन की गरदन में कुछ ज्यादा ही अकड़ आ गई और अम्मी के खाते में बेटी की कमाई खाने का इलजाम आ पड़ा.

‘‘बेटी की शादी कब कर रही हैं आप? अब कर ही डालिए. इतनी देर भी सही नहीं.’’ लोग ऐसे कहते जैसे अम्मी के कान और आंखें तो बंद हैं. वे मशवरे के इंतजार में बैठी हैं. अम्मी बेटी की बात मुंह पर कैसे लातीं. किसकिस को बड़ी आपा के मिजाज के बारे में बतातीं.

अम्मी पाईपाई पर जान देती थीं और सारा जमाजोड़ बेटियों के लिए बैंक में रखवा देती थीं. आपा हर रिश्ते पर नाक चढ़ा कर कह देतीं, ‘‘असमा या हुमा की कर दीजिए न, आखिर उन्हें भी तो आप को ब्याहना ही है.’’

और इस से पहले कि असमा या हुमा के लिए कुछ होता बड़े भैया उछलने लगे. मेरी शादी होगी तो जारा सरदरी से ही. अम्मी भौचक्की रह गईं. अभी तो पेड़ का पहला फल भी न खाया था. अभी दिन ही कितने हुए थे बड़े भाई को नौकरी करते हुए. जारा सरदारी भैया की कुलीग थी. अम्मी ने ताड़ लिया कि बेटा बगावत के लिए आमादा है. ऐसे में हथियार डाल देने के अलावा कोई चारा न था. फिर वही हुआ जो भाई ने चाहा था.

जारा सरदरी को अपनी कमाई पर बड़ा घमंड और शौहर पर पूरा कंट्रोल था. ससुराल वालों से उस का कोई मतलब न था. बहुत जल्दी उस ने अपने लिए अलग घर बनवा लिया.

अम्मी को बड़ी आपा की तरफ से बड़ी मायूसी हो रही थी लेकिन हुमा के लिए एक ऐसा रिश्ता आ गया, जो अम्मी को भला लगा. आखिरकार बड़ी आपा के नाम की सारी जमापूंजी खर्च कर उसे ब्याह दिया. हुमा का भरापूरा ससुराल था. ससुराल के लोगों के मिजाज अनूठे थे. इस पर शौहर निखट्टू.

उस की सारी उम्मीदें ससुराल वालों से थीं कि वे उसे घरजमाई रख लें, कारोबार करवा दें या घर दिलवा दें. यह कलई बाद में खुली. झूठ पर झूठ बोल कर अम्मी को दोनों हाथों से लूटा गया. मगर ससुराल वालों की हवस पूरी न हुई.

हुमा बहुत जल्दी घर लौट आई. उस का सारा दहेज ननदों के काम आया. फिर बहुत मुश्किल से तलाक मिलने पर उसे छुटकारा मिला. लेकिन इस पर खानदान के कई लोगों ने अम्मी को यों लताड़ा जैसे अम्मी को पहले से सब कुछ पता था.

हुमा का उजड़ना उन्हें मरीज बना गया. वे आहिस्ताआहिस्ता घुल रही थीं. एक रोज वे बिस्तर से जा लगीं, मगर सांसें जैसे हम दोनों बहनों में अटकी थीं.

कभी-कभी बड़े भैया बीवीबच्चे समेत घर आते तो अम्मी की परेशानियां जबान पर आ जातीं. लेकिन वे हर बात उड़ा जाते. ‘‘अम्मी, हो जाएगा सब कुछ. आप फिक्र न किया करें.’’

परेशानियों के इसी दौर में छोटे भैया से मायूस हो कर अम्मी ने उन्हें ब्याहा. छोटे भैया अपने पैरों पर खड़े थे. लेकिन घर की जिम्मेदारियों से दूर भागते थे. घर की गाड़ी अम्मी के बचाए पैसों पर ही चल रही थी. लेकिन घर चलाने के लिए एक जिम्मेदार औरत का होना जरूरी होता है, यह सोच कर ही अम्मी ने छोटे भैया को ब्याह दिया था.

लेकिन अम्मी एक बार फिर मात खा गईं. छोटी भाभी बहुत होशियार और समझदार साबित हुईं, मगर मायके के लिए. उन के दिलोदिमाग पर मायके का कब्जा था. कोई न कोई बहाना बना कर मायके की तरफ दौड़ लगाना और कई दिन डेरा डाल कर वहां पड़ी रहना उन की फितरत थी. ससुराल में वे कभीकभी ही नजर आतीं. अचानक छोटे भैया को दुबई में नौकरी का चांस मिल गया और भाभी का पड़ाव हमेशा के लिए मायके में बन गया.

इस दौरान एक खुशी की बात यह हुई कि बड़ी आपा के लिए एक भला रिश्ता मिल गया. संजीदा, सोबर और जिम्मेदार एहसान अलवी. पढ़ेलिखे होने के साथसाथ अरसे से अमेरिका में रहते थे. आपा जितनी उस उम्र की थीं, उस से कम की ही नजर आती थीं और एहसान अलवी अपनी उम्र से 2-4 साल ज्यादा के दिखते थे.

अम्मी को फिर इनकार का अंदेशा था. उन्होंने आपा को समझाया, ‘‘ऐसा रिश्ता फिर मिलने वाला नहीं. समझो कि गोल्डन चांस है. पानी पल्लू के नीचे से गुजर जाए तो लौट कर नहीं आता.’’

पता नहीं क्या हुआ कि यह बात आपा की अक्ल में समा गई. फिर चट मंगनी, पट ब्याह. आपा अमेरिका चली गईं.

शादी के नाम पर हुमा रोने बैठ जातीऔर एक ही रट लगाती, ‘‘मुझे नहीं करनी शादीवादी.’’

मैं आईने के समाने खड़ी होती तो आठआठ आंसू रोती. हमारे खानदान के हर घर में रिश्ता मौजूद था, मगर लड़के 4 अक्षर पढ़ कर किसी काबिल हो जाते हैं, तो खानदान की फीकी सीधी लड़कियों पर हाथ नहीं रखते हैं. ऐसे में सारी रिश्तेदारी धरी की धरी रह जाती है. फिर अब उन्हें बदला भी लेना था. अम्मी ने भी तो खानदान की किसी लड़की पर हाथ नहीं रखा था. उन के दोनों बेटों की बीवियां तो पराए खानदान की थीं. इस धक्कमपेल में मेरी उम्र 30 पार कर गई.

फिर अचानक बड़ी आपा की ससुराल के किसी फंक्शन में आफताब सय्यद के रिश्तेदारों ने मुझे पसंद किया. आफताब की सारी फैमिली कनाडा में रहती थी और उन के सभी भाईबहन शादीशुदा थे. आफताब की पहली शादी नाकाम हो चुकी थी. बीवी ने नया घर बसा लिया था. उन के 2 बच्चे थे, जो आफताब के पास ही थे. अम्मी को मेरी नेक सीरत पर भरोसा था. और मुझे भी कहीं न कहीं तो समझौता करना ही था. पानी पल्लू के नीचे से गुजर जाए तो लौट कर नहीं आता, यह बात मैं ने गिरह में बांध ली थी.

आफताब बहुत खयाल रखने वाले शौहर साबित हुए. हमारी उम्र में फर्क बहुत ज्यादा न था. मगर दुनिया तो यही समझती थी कि वे मुझ से बहुत बड़े हैं और बच्चों समेत सारी गृहस्थी मेरी मुट्ठी में है. इस एहसास की झील में कोई न कोई कंकड़ डाल कर हलचल मचा ही देता था. तब मुझे लगता था कि इंसान अपनी जिंदगी से समझौता कर भी ले तो दुनिया उसे कहां छोड़ती है?

भीगा मन : वक्त की कीमत

कबीर बारबार घड़ी की ओर देख रहा था. अभी तक उस का ड्राइवर नहीं आया था.

जब ड्राइवर आया तो कबीर उस पर बरस पड़ा, ‘‘तुम लोगों को वक्त की कोई कीमत ही नहीं है. कहां रह गए थे?’’

‘‘साहब, घर में पानी भर गया था, वही निकालने में देर हो गई.’’

‘‘अरे यार, तुम लोगों की यही मुसीबत है. चार बूंदें गिरती नहीं हैं कि तुम्हारा रोना शुरू हो जाता है… पानी… पानी… अब चलो,’’ कार में बैठते हुए कबीर ने कहा.

बरसात के महीने में मुंबई यों बेबस हो जाती है, जैसे कोई गरीब औरत भीगी फटी धोती में खुद को बारिश से बचाने की कोशिश कर रही हो. भरसक कोशिश, मगर सब बेकार… थक कर खड़ी हो जाती है एक जगह और इंतजार करती है बारिश के थमने का.

कार ने रफ्तार पकड़ी और दिनभर का थकामांदा कबीर सीट पर सिरटिका कर बैठ गया. हलकीहलकी बारिश हो रही थी और सड़क पर लोग अपनी रोजमर्रा की जिंदगी से जूझ रहे थे. अनगिनत छाते, पर बचाने में नाकाम. हवा के झोंकों से पानी सब को भिगो गया था.

कबीर ने घड़ी की ओर देखा. 6 बजे थे. सड़क पर भीड़ बढ़ती जा रही थी. ट्रैफिक धीमा पड़ गया था. लोग बेवजह हौर्न बजा रहे थे मानो हौर्न बजाने से ट्रैफिक हट जाएगा. पर वे हौर्न बजा कर अपने बेबस होने की खीज निकाल लेते थे.

ड्राइवर ने कबीर से पूछा, ‘‘रेडियो चला दूं साहब?’’

‘‘क्या… हां, चला दो. लगता है कि आज घर पहुंचने में काफी देर हो जाएगी,’’ कबीर ने कहा.

‘‘हां साहब… बहुत दूर तक जाम लगा है.’’

‘‘तुम्हारा घर कहां है?’’

‘‘साहब, मैं अंधेरी में रहता हूं.’’

‘‘अच्छा… अच्छा…’’ कबीर ने सिर हिलाते हुए कहा.

रेडियो पर गाना बज उठा, ‘रिमझिम गिरे सावन…’

बारिश तेज हो गई थी और सड़क पर पानी भरने लगा था. हर आदमी जल्दी घर पहुंचना चाहता था. गाना बंद हुआ तो रेडियो पर लोगों को घर से न निकलने की हिदायत दी गई.

कबीर ने घड़ी देखी. 7 बजे थे. घर अभी भी 15-20 किलोमीटर दूर था. ट्रैफिक धीरेधीरे सरकने लगा तो कबीर ने राहत की सांस ली. मिनरल वाटर की बोतल खोली और दो घूंट पानी पीया.

धीरेधीरे 20 मिनट बीत गए. बारिश अब बहुत तेज हो गई थी. बौछार के तेज थपेड़े कार की खिड़की से टकराने लगे थे. सड़क पर पानी का लैवल बढ़ता ही जा रहा था. बाहर सब धुंधला हो गया था. सामने विंड शील्ड पर जब वाइपर गुजरता तो थोड़ाबहुत दिखाई देता. हाहाकार सा मचा हुआ था. सड़क ने जैसे नदी का रूप ले लिया था.

‘‘साहब, पानी बहुत बढ़ गया है. हमें कार से बाहर निकल जाना चाहिए.’’

‘‘क्या बात कर रहे हो… बाहर हालत देखी है…’’

‘‘हां साहब, पर अब पानी कार के अंदर आने लगा है.’’

कबीर ने नीचे देखा तो उस के जूते पानी में डूबे हुए थे. उस ने इधरउधर देखा. कोई चारा न था. वह फिर भी कुछ देर बैठा रहा.

‘‘साहब चलिए, वरना दरवाजा खुलना भी मुश्किल हो जाएगा.’’

‘‘हां, चलो.’’

कबीर ने दरवाजा खोला ही था कि तेज बारिश के थपेड़े मुंह पर लगे. उस की बेशकीमती घड़ी और सूट तरबतर हो गए. उस ने चश्मा निकाल कर सिर झटका और चश्मा पोंछा.

‘‘साहब, छाता ले लीजिए,’’ ड्राइवर ने कहा.

‘‘नहीं, रहने दो,’’ कहते हुए कबीर ने चारों ओर देखा. सारा शहर पानी में डूबा हुआ था. कचरा चारों ओर तैर रहा था. इस रास्ते से गुजरते हुए उस ने न जाने कितने लोगों को शौच करते देखा था और आज वह उसी पानी में खड़ा है. उसे उबकाई सी आने लगी थी. इसी सोच में डूबा कबीर जैसे कदम बढ़ाना ही भूल गया था.

‘‘साहब चलिए…’’ ड्राइवर ने कहा.

कबीर ने कभी ऐसे हालात का सामना नहीं किया था. उस के बंगले की खिड़की से तो बारिश हमेशा खूबसूरत ही लगी थी.

कबीर धीरेधीरे पानी को चीरता हुआ आगे बढ़ने लगा. कदम बहुत भारी लग रहे थे. चारों ओर लोग ही लोग… घबराए हुए, अपना घर बचाते, सामान उठाए.

एक मां चीखचीख कर बिफरी सी हालत में इधरउधर भाग रही थी.

उस का बच्चा कहीं खो गया था. उसे अब न बारिश की परवाह थी, न अपनी जान की.

कबीर ने ड्राइवर की तरफ देखा.

‘‘साहब, हर साल यही होता है. किसी का बच्चा… किसी की मां ले जाती है यह बारिश… ये खुले नाले… मेनहोल…’’

‘‘क्या करें…’’ कह कर कबीर ने कदम आगे बढ़ाया तो मानो पैर के नीचे जमीन ही न थी और जब पैर जमीन पर पड़ा तो उस की चीख निकल गई.

‘‘साहब…’’ ड्राइवर भी चीख उठा और कबीर का हाथ थाम लिया.

कबीर का पैर गहरे गड्ढे में गिरा था और कहीं लोहे के पाइपों के बीच फंस गया था.

ड्राइवर ने पैर निकालने की कोशिश की तो कबीर की चीख निकल गई. शायद हड्डी टूट गई थी.

‘‘साहब, आप घबराइए मत…’’ ड्राइवर ने हिम्मत बंधाते हुए कहा, ‘‘मेरा घर नजदीक ही है. मैं अभी किसी को ले कर आता हूं.’’

कबीर बहुत ज्यादा तकलीफ में उसी गंदे पानी में गरदन तक डूबा बैठा रहा. कुछ देर बाद उसे दूर से ड्राइवर भाग कर आता दिखाई दिया. कबीर को बेहोशी सी आने लगी थी और उस ने आंखें बंद कर लीं.

होश आया तो कबीर एक छोटे से कमरे में था जो घुटनों तक पानी से भरा था. एक मचान बना कर बिस्तर लगाया हुआ था जिस पर वह लेटा हुआ था. ड्राइवर की पत्नी चाय का गिलास लिए खड़ी थी.

‘‘साहब, चाय पी लीजिए. जैसे ही पानी कुछ कम होगा, हम आप को अस्पताल ले जाएंगे,’’ ड्राइवर ने कहा.

चाय तिपाई पर रख कर वे दोनों रात के खाने का इंतजाम करने चले गए. कबीर कमरे में अकेला पड़ा सोच रहा था, ‘कुदरत का बरताव सब के साथ समान है… क्या अमीर, क्या गरीब, सब को एक जगह ला कर खड़ा कर देती है… और ये लोग… कितनी जद्दोजेहद भरी है इन की जिंदगी. दिनरात इन्हीं मुसीबतों से जूझते रहते हैं. आलीशान बंगलों में रहने वालों को इस से कोई सरोकार नहीं होता. कैसे हो? कभी इस जद्दोजेहद को अनुभव ही नहीं किया…’

कबीर आत्मग्लानि से भर उठा था. यह उस की जिंदगी का वह पल था जब उस ने जाना कि सबकुछ क्षणिक है. इनसानियत ही सब से बड़ी दौलत है. बारिश ने उस के तन को ही नहीं, बल्कि मन को भी भिगो दिया था.

कबीर फूटफूट कर रो रहा था. उस के मन से अमीरीगरीबी का फर्क जो मिट गया था.

बड़ा जिन्न: क्या सकीना वाकई में जिन्न से मिली थी

सकीना बी.ए. पास थी और शक्ल ऐसी कि लाखों में एक. कई जगह से उस की शादी के पैगाम आए परंतु उस के मांबाप ने सब नामंजूर कर दिए. कारण यह था कि सभी लड़के साधारण घरानों के थे. कुछ नौकरी करते थे तो कुछ का छोटामोटा व्यापार था. उन का रहनसहन भी साधारण था.

सकीना के बाप कुरबान अली चाहते थे कि सकीना को ऊंचे खानदान, धनी लड़का और ऊंचा घर मिले. ऐसा लड़का उन्हें जल्दी ही मिल गया. हालांकि समाज की मंडियों में ऐसे लड़कों के ग्राहकों की कमी नहीं होती, मगर कुरबान अली की बोली इस नीलामी में सब से ऊंची थी.

कुरबान अली बेटी के लिए जो लड़का लाए, वह खरा सैयद था. लड़के के बाप ठेकेदार थे, लंबाचौड़ा मकान था और हजारों की आमदनी थी. लड़का कुछ भी नहीं करता था. बस, बाप के धन पर मौज उड़ाता था.

वह लड़का भी कुरबान अली को 80 हजार रुपए का पड़ा. स्कूटर, रंगीन टीवी, वी.सी.आर., फ्रिज सबकुछ ही देना पड़ा. कुरबान अली का दिवाला निकल गया. उन के होंठों पर से वर्षों के लिए मुसकराहट गायब हो गई. ऊंचे लड़के के लिए ऊंची कीमत देनी पड़ी थी. छोटू ठेकेदार का एक ही बेटा था. अच्छे पैसे बना लिए उस के. क्यों न बनाते? जब देने वाले हजार हों तो लेने वाले क्यों तकल्लुफ करें? बब्बन मियां एक बीवी के मालिक हो गए और 80 हजार रुपए के भी.

एक वर्ष बीत गया. स्कूटर भी पुराना हो गया और बीवी भी. पुरानी वस्तुओं पर इतना ध्यान नहीं दिया जाता, जितना नई पर दिया जाता है. बब्बन मियां की दिलचस्पी सकीना में न होने के बराबर रह गई.

सकीना सबकुछ सह लेती परंतु उस की गोद खाली थी. सासननदों ने शोर मचाना शुरू कर दिया. बच्चा होने के दूरदूर तक आसार नहीं थे. सकीना जानती थी कि औरत का पहला फर्ज बच्चा पैदा करना है.

आसपास की बूढ़ियों ने सकीना की सास से कहा, ‘‘बहू पर असर है. इसे जलालशाह के पास ले जाओ.’’

सकीना स्वयं पढ़ीलिखी थी और उस का घराना भी जाहिल नहीं था. ससुराल में तो अंधेरा ही अंधेरा था, जहालत और अंधविश्वास का.

उस ने बहुत सिर मारा. ससुराल वालों को समझाया, ‘‘जिन्नआसेब, भूतप्रेत, असर, जादूटोना ये सब जहालत की बातें हैं. जिस का जो काम है उसे ही करना चाहिए. घड़ी में खराबी हो जाए तो उसे घड़ीसाज ही ठीक करता है. टूटे हुए जूतों को मोची संभालते हैं. मोटरकार की मरम्मत मिस्तरी करता है परंतु मेरा इलाज डाक्टर की जगह पीर क्यों करेगा?’’

सास खीज कर बोलीं, ‘‘जबान बंद कर. क्या इसीलिए पढ़ालिखा है तू ने कि पीरफकीरों पर भी कीचड़ उछाले? जानती नहीं कि हजारों लोग पीर जलालशाह की खानकाह में हाजिरी दे कर अपनी खाली झोलियां मुरादों से भर कर लौटते हैं? क्या वे सब पागल हैं?’’

एक बूढ़ी ने सास के कान में कहा, ‘‘यह सकीना नहीं बोल रही है, यह तो इस पर सवार जिन्न की आवाज है. इस पर न बिगड़ो.’’

सकीना ने मजबूर हो कर बब्बन मियां से कहा, ‘‘यह क्या जहालत है? मुझे पीर साहब के पास खानकाह भेजा जा रहा है. वैसे तो औरतों से इतना सख्त परदा कराया जाता है, लेकिन पीर साहब भी तो गैर आदमी हैं. आप शायद नहीं जानते कि ये लोग खुद भी किसी जिन्न से कम नहीं होते. मुझे किसी डाक्टर को दिखा दीजिए या फिर मुझे घर भिजवा दीजिए.’’

बब्बन मियां ने साफसाफ कह दिया, ‘‘पीर साहब को खुदा ने खास ताकत दी है. उन्होंने सैकड़ों जिन्न उतारे हैं. वह किसी औरत के लिए भी गैरमर्द नहीं हैं क्योंकि उन की आंखें औरत के बदन को नहीं, उस की रूह को देखती हैं. तुम पर असर है, इसलिए तुम अपने घर भी नहीं जा सकतीं. कान खोल कर सुन लो, तुम्हें पीर साहब से इलाज कराना ही होगा. अगर तुम्हारे बच्चा न हुआ तो फिर मुझे इस खानदान के वारिस के लिए दूसरी शादी करनी पड़ेगी.’’

सकीना कांप उठी. जुमेरात के दिन वही औरतें खानकाह में जाती थीं जो बच्चे की मुराद मानती थीं. पीर साहब की यह पाबंदी थी कि उन के साथ कोई मर्द नहीं जा सकता था.

जब सकीना बुरका ओढ़ कर खानकाह पहुंची तो दिन छिप रहा था. रास्ते के दोनों तरफ मर्द और औरतें हाथों में सुलगते हुए पलीते लिए बैठे थे. एक ओर फकीरों की भीड़ थी. वहां हार, फूल और मिठाई की दुकानें भी थीं. हवा में लोबान और अगरबत्तियों की खुशबू बिखरी पड़ी थी.

खानकाह की बड़ी सी इमारत औरतों से भरी पड़ी थी. चौड़े मुंह वाले भारीभरकम पीर साहब कालीन पर बैठे थे. घनी दाढ़ी और लाललाल आंखें. वह औरतों को देखदेख कर उन्हें पलीते पकड़ा रहे थे.

सकीना की बारी आई तो उन की लाल आंखों में चमक आ गई.

‘‘बहुत बड़ा जिन्न है,’’ वह दाढ़ी पर हाथ फेर कर बोले, ‘‘2 घंटे बाद सामने वाले दरवाजे से अंदर चली जाना. एक आदमी तुम्हें बता देगा.’’

सकीना यह सुन कर और भी परेशान हो गई.

‘न जाने क्या चक्कर है?’ वह सोच रही थी, ‘अगर कोई ऐसीवैसी बात हुई तो मैं अपनी जान तो दे ही सकती हूं.’ और उस ने गिरेबान में रखे चाकू को फिर टटोल कर देखा.

2 घंटे बीतने पर एक भयंकर शक्ल वाले आदमी ने सकीना के पास आ कर कहा, ‘‘उस दरवाजे में से अंदर चली जाओ. वहां अंधेरा है, जिस में पीर साहब जिन्न से लड़ेंगे. डरना नहीं.’’

सकीना कांपती हुई अंदर दाखिल हुई. घुप अंधेरा था.

उस के कानों में सरसराहट की सी आवाज आई और फिर घोड़े की टापों की सी धमक के बाद सन्नाटा छा गया.

उस के कानों के पास किसी ने कहा, ‘‘मैं जिन्न हूं और तुझे उस दिन से चाहता हूं जब तू छत पर खड़ी बाल सुखा रही थी. मैं ने ही तेरे बच्चे होने बंद कर रखे हैं. सुन, मैं तो हवा हूं. मुझ से डर कैसा?’’

सकीना पसीने में नहा गई. उसे किसी की सांसों की गरमी महसूस हो रही थी.

उस ने थरथर कांपते हुए गिरेबान से चाकू निकाल लिया.

किसी ने सकीना से लिपटना चाहा. मगर अगले ही पल उस का सीधा हाथ ऊपर उठा. चाकू ‘खचाक’ से किसी नरम वस्तु में धंस गया. उलटा हाथ बालों से टकराया. उस ने झटका दिया. बालों का गुच्छा मुट्ठी में आ गया. उसी के साथ एक करुणा भरी चीख कमरे में गूंज गई.

सकीना पागलों के समान उलटे पैरों भाग खड़ी हुई, भागती ही रही.

अगले दिन वह पुलिस थाने में अपना बयान लिखवा रही थी और पीर साहब अस्पताल में पड़े थे. उन के पेट में गहरा घाव था और दाढ़ी खुसटी हुई थी.

दर्द: क्यों आजर ने एक्सिडेंट का नाटक किया

‘‘तुम अभी तक गई नहीं हो…’’ छोटी बहन हया ने हैरान हो कर जोया से पूछा.

‘‘कहां…?’’ जोया ने भी हैरान होते हुए कहा.

‘‘आजर भाई को अस्पताल में देखने,’’ हया ने कहा.

‘‘मैं क्यों जाऊं…’’ जोया ने लापरवाही से कहा.

‘‘घर के सब लोग जा चुके हैं, लेकिन तुम हो कि अभी तक नहीं गईं… आखिर वे तुम्हारे मंगेतर हैं…’’

‘‘मंगेतर… मंगेतर था… लेकिन अब नहीं. एक अपाहिज मेरा मंगेतर नहीं हो सकता. मु झे उस की बैसाखी नहीं बनना,’’ जोया आईने के सामने खड़ी अपने बाल संवार रही थी और छोटी बहन हया के सवालों के जवाब लापरवाही से दे रही थी.

जब बाल सैट हो गए तो जोया ने खुद को आईने में नीचे से ऊपर तक देखा और पर्स नचाते हुए दरवाजे से बाहर निकल गई.

आजर के यहां का दस्तूर था कि रिश्ते आपस में ही हुआ करते थे और शायद इसी रिवाज को जिंदा रखने के लिए मांबाप ने बचपन में ही उस का रिश्ता उस के चाचा की बेटी जोया से तय कर दिया था.

आजर कम बोलने वाला सुलझा हुआ लड़का था और जोया को उसकी मां के बेजा लड़ाप्यार ने जिद्दी बना दिया था.

शायद यही वजह थी कि बचपन में दोनों साथ खेलतेखेलते  झगड़ने लगते थे. जो खिलौना आजर के हाथ में होता, जोया उसे लेने की जिद करती और जब तक आजर उसे दे नहीं देता, वह चुप न होती.

उस दिन तो हद ही हो गई थी. आजर पुरानी कौपी का कवर लिए हुए था. कवर पर कोई तसवीर बनी थी. शायद उसे पसंद थी.

जोया की नजर उस कवर पर पड़ गई. वह चिल्लाने लगी. ‘यह मेरा है… इसे मैं लूंगी…’’

आजर भी बच्चा था. बजाय उसे देने के दोनों हाथ पीछे कर के छिपा लिया. वह चीखती रही, चिल्लाती रही… यहां तक कि बड़े लोग भी वहां आ गए.

‘तोबा… कागज के टुकड़े के लिए जिद कर रही है… अभी अगर यह आजर के हाथ में न होता तो रद्दी होता… क्या लड़की है. कयामत बरपा कर दी इस ने तो…’ बड़ी अम्मी बड़बड़ाई थीं.

यों ही लड़ते झगड़ते दोनों बड़े हो गए और बचपन पीछे छूट गया. दोनों उम्र के उस मुकाम पर थे, जहां जागती आंखें ख्वाब देखने लगती हैं और जब आजर ने जोया की आंखों में देखा तो हया की लाली उतर आई… नजर अपनेआप  झुकती चली गई. शायद उसे मंगेतर का मतलब सम झ आ गया था. अब वह आजर की इज्जत करती… उस की बातों में शरीक होती… उस के नाम पर हंसती… घर वालों को इतमीनान हो गया था कि चलो, सबकुछ ठीक हो गया है.

बड़ी अम्मी इन दिनों मायके गई हुई थीं और जब लौटीं तो उन के साथ एक दुबलीपतली सी लड़की सना थी, जिस की मां बचपन में गुजर चुकी थी. बाप ने दूसरी शादी कर ली थी… अब उस के भी 4 बच्चे थे… बेचारी कोल्हू के बैल की तरह लगी रहती.

दादा से पोती की हालत देखी न जाती. दादा बड़ी अम्मी के रिश्ते के चाचा थे… जब बड़ी अम्मी उन से मिलने गईं तो पोती का दुखड़ा ले कर बैठ गए. ‘किसी की मां न मरे…’ बड़ी अम्मी ने ठंडी सांस ली, ‘पर, आप इसे हमारे साथ भेज दीजिए,’ बड़ी अम्मी ने कुछ सोच कर कहा था.

अंधा क्या चाहे दो आंखें… वे खुशीखुशी राजी हो गए. लेकिन बहू का खयाल आते ही उन की सारी खुशी काफूर हो गई. वह न जाने देगी और जब नजर उठाई तो वह दरवाजे पर खड़ी थी. उस ने सारी बातें सुन ली थीं.

बड़ी अम्मी कब हारने वाली थीं. उन्होंने अपने तरकश से एक तीर छोड़ा… जो सही निशाने पर जा बैठा. उन्होंने हर महीने कुछ रकम भेजने का वादा किया और उसे ले आईं.

सना ने आते ही पूरा घर संभाल लिया था. इतना काम उस के लिए कुछ भी नहीं था. वह आंखें बंद कर के कर लेती और उसे सौतेली मां के जुल्मों से भी नजात मिल गई थी. वह यहां आ कर खुश थी.

अगर कभी घर में गैस खत्म हो जाती तो लकडि़यों के चूल्हे पर सेंकी हुई सुर्खसुर्ख रोटियां और धीमीधीमी आंच पर दम की हुई हांड़ी से निकलती खुशबू फैलती तो भूख अपनेआप लग जाती.

चाची की तरफ मातम बरपा होता, ‘अरे, गैस खत्म हो गई. अब क्या करें…  भाभी सिलैंडर वाला आया क्या…’ फिर बाजार से पार्सल आते, तब जा कर खाना मिलता.

और अगर कभी मिर्ची पाउडर खत्म हो जाता, तो सना खड़ी मिर्च निकाल लेती और उन्हें सिलबट्टे पर पीस कर खाना तैयार कर देती. सालन देख कर अम्मी को पता चलता था कि मिर्ची खत्म हो गई है.

और चाची की तरफ ऐसा होता तो जोया कहती, ‘न बाबा न, मेरे हाथ में जलन होने लगती है. हया, तुम इसे पीस लो.’

हया भी साफ मना कर देती.

सना तुम कौन हो… कहां से आई हो… सादगी की मूरत… जिंदगी की आइडियल सना… तुम्हारी किन लफ्जों में तारीफ करूं…

यह सुन कर आजर का दिल बिछबिछ जाता… फिर उसे जोया का खयाल आता… वह तो उस का मंगतेर है. कल को उस की उस से शादी हो जाएगी, फिर यह कशिश क्यों? वह सना की तरफ क्यों खिंचा जा रहा है? अकसर तनहाई में वह उस के बारे में सोचता रहता.

एक दिन आजर गाड़ी से लौट रहा था कि रास्ते में उस का ऐक्सिडैंट हो गया. अस्पताल पहुंचने पर डाक्टर ने कहा, ‘अब ये अपने पैरों पर चल नहीं सकेंगे.’

सारा घर वहां जमा था. सब का रोरो कर बुरा हाल था.

जब से आजर का ऐक्सिडैंट हुआ था, जोया ने अपने कालेज के दोस्तों से मिलना शुरू कर दिया था. आज भी वह तैयार हो कर किसी से मिलने गई थी. हया के लाख सम झाने पर भी उस पर कोई असर नहीं हुआ था.

आजर अस्पताल के बैड पर दोनों पैरों से लाचार लेटा हुआ था… हर आहट पर देखता… शायद वह आ जाए… जिस से दिल का रिश्ता जुड़ा है… वफा के सिलसिले हैं…लेकिन दूर तक जोया का कहीं पता न था.

एक आहट पर उस के खयालात बिखर गए. अम्मी आ रही थीं. उन के पीछे सना थी. अम्मी ने इशारा किया तो वह सामने स्टूल पर बैठ गई.

अम्मी रात का खाना ले कर आई थीं. आजर खाना खा रहा था और कनखियों से सना को देख रहा था. फुल आस्तीन वाला कुरता, चूड़ीदार पाजामा, सिर पर चुन्नी डाले वह खामोश बैठी थी.

‘काश, इस की जगह जोया होती,’ आजर ने सोचा, फिर जल्दी से नजरें  झुका लीं. कहीं उस के चेहरे से अम्मी उस का दर्द न पढ़ लें… और मुंह में निवाला रख कर चबाने लगा.

जब आजर खाने से फारिग हो गया, तो अम्मी बरतन समेटने लगीं.

‘‘अम्मी, आप रहने दीजिए. मैं कर लूंगी,’’ सना की महीन सी आवाज आई. उस ने बरतन समेट कर थैले में रखे और खड़ी हो गई.

जब सना बरतन उठा रही थी तो खुशबू का  झोंका उस के पास से आया और आजर को महका गया. अम्मी उसे अपना खयाल रखने की हिदायत दे कर चली गईं.

आज आजर को डिस्चार्ज मिल गया था. बैसाखियों के सहारे जब वह घर के अंदर आया तो अम्मी का कलेजा मुंह को आने लगा. अब सना आजर का पहले से ज्यादा खयाल रखने लगी थी.

एक दिन देवरानीजेठानी बरामदे में बैठी हुई थीं. देवरानी शायद बात का सिरा ढूंढ़ रही थी, ‘‘भाभी, हम आप से कुछ कहना चाहते हैं…’’ कहते हुए उन्होंने उन की आंखों में देखा.

‘‘जोया ने इस रिश्ते के लिए मना कर दिया है. वह आजर से निकाह नहीं करना चाहती, क्योंकि आजर तो…’’ उन्होंने जुमला अधूरा ही छोड़ दिया और उठ कर चली आईं.आजर ने नोटिस किया था कि अम्मी बहुत बु झीबु झी सी रहती हैं. आखिर आजर पूछ ही बैठा, ‘‘अम्मी, क्या बात है… आप बहुत उदास रहती हैं…

‘‘कुछ नहीं… बस ऐसे ही… जरा तबीयत ठीक नहीं है…’’‘‘मैं जानता हूं कि आप क्यों परेशान हैं… जोया ने इस रिश्ते से मना कर दिया है.’’

अम्मी ने चौंक कर आजर की तरफ देखा.

‘‘हां अम्मी, मु झे मालूम है… वह मु झे देखने तक नहीं आई… अगर रिश्ता नहीं करना था तो इनसानियत के नाते तो आ सकती थी. जिस का इनसानियत से दूरदूर तक वास्ता न हो, मु झे खुद उस से कोई रिश्ता नहीं रखना.’’

‘‘मेरे बच्चे,’’ अम्मी की आंखों से आंसू निकल पड़े. उन्होंने उसे गले से लगा लिया.

‘‘अम्मी, मेरी शादी होगी… उसी वक्त पर होगी…’’ अम्मी ने उस की आंखों में देखा, जिस का मतलब था, ‘अब तु झ से कौन शादी करेगा…’

‘‘अम्मी, मैं सना से शादी करूंगा. मैं ने सना से बात कर ली है.’’

यह सुन कर अम्मी ने फिर उसे गले से लगा लिया.

शादी की तैयारियां होने लगीं और जो वक्त जोया के साथ शादी के लिए तय था, उसी वक्त पर आजर और सना का निकाह हो गया.

आजर को कुछ याद आया. एक बार जोया ने बातोंबातों में कहा था कि शादी के बाद वह हनीमून के लिए स्विस्ट्जरलैंड जाएगी…

आजर ने स्विट्जरलैंड जाने की ख्वाहिश जाहिर की तो अम्मी ने उसे जाने की इजाजत दे दी.

आज आजर हनीमून से लौट रहा था. सना अंदर दाखिल हुई तो कितनी निखरीनिखरी और कितनी खुश लग रही थी. फिर उस ने दरवाजे की तरफ मुसकरा कर देखा और कहा, ‘‘आइए न…’’ इतने पर आजर अंदर दाखिल हुआ. उसे देख कर अम्मी की आंखें हैरत से फैलती चली गईं. वह अपने पैरों पर चल कर आ रहा था.

‘‘बेटे, यह सब क्या है?’’ उन्होंने आगे बढ़ कर उसे थाम लिया.

‘‘बताता हूं… पहले आप बैठिए तो सही…’’ आजर ने दोनों हाथ पकड़ कर उन्हें बिठा दिया.

‘‘आप बड़े लोग अपने बच्चों के फैसले तो कर देते हैं, लेकिन यह भूल जाते हैं कि बड़े हो कर उन की सोच कैसी होगी, उन के खयालात कैसे होंगे, उन का नजरिया कैसा होगा और मु झे सच्चे हमदर्द की तलाश थी, जिस के अंदर कुरबानी का जज्बा हो. एकदूसरे के लिए तड़प हो. और ये सारी खूबियां मुझे सना में नजर आईं… इसलिए मैं ने डाक्टर से मिल कर एक प्लान बनाया. वह ऐक्सिडैंट  झूठा था. मेरे पैर सहीसलामत थे. यह मेरा सिर्फ नाटक था… नतीजा आप के सामने है.

‘‘जोया ने खुद इस रिश्ते से इनकार कर दिया… सना ने मुझ अपाहिज को कुबूल किया… मैं सना का हूं…’’

दरवाजे पर खड़ी जोया ने सारी बातें सुन ली थीं. उस का जी चाह रहा था कि सबकुछ तोड़फोड़ डाले.

उज्ज्वला: क्या सुनील ने उज्ज्वला को पत्नी के रूप में स्वीकारा

सुनील के जाते ही उज्ज्वला कमरे में आ गई और तकिए में मुंह गड़ा कर थकी सी लेट गई. सुनील के व्यवहार से मन का हर कोना कड़वाहट से भर गया था. जितनी बार उस ने सुनील से जुड़ने का प्रयत्न किया था उतनी बार सुनील ने उसे बेदर्दी से झटक डाला था. उस ने कभी सोचा भी नहीं था कि जीवन में यह मोड़ भी आ सकता है.

शादी से पहले कई बार उपहास भरी नजरें और फब्तियां झेली थीं, पर उस समय कभी ऐसा नहीं सोचा था कि स्वयं पति भी उस के प्रति उपेक्षा और घृणा प्रदर्शित करते रहेंगे. बचपन कितना आनंददायी था. स्कूल में बहुत सारी लड़कियां उस की सहेलियां बनने को आतुर थीं. अध्यापिकाएं भी उसे कितना प्यार करती थीं. वह हंसमुख, मिलनसार होने के साथसाथ पढ़ने में अव्वल जो थी. पर ऐसे निश्चिंत जीवन में भी मन कभीकभी कितना खिन्न हो जाया करता था.

उसे बचपन की वह बात आज भी कितनी अच्छी तरह याद है, जब पहली बार उस ने अपनेआप में हीनता की भावना को महसूस किया था. मां की एक सहेली ने स्नेह से गाल थपथपा कर पूछा था, ‘क्या नाम है तुम्हारा, बेटी?’ ‘जी, उज्ज्वला,’ उस ने सरलता से कहा. इस पर सहेली के होंठों पर व्यंग्यात्मक हंसी उभर आई और उस ने पास खड़ी महिला से कहा, ‘लोग न जाने क्यों इतने बेमेल नाम रख देते हैं?’ और वे दोनों हंस पड़ी थीं. वह पूरी बात समझ नहीं सकी थी. फिर भी उस ने खुद को अपमानित महसूस किया था और चुपचाप वहां से खिसक गई थी.

फिर तो कई बार ऐसे अवसर आए, जब उस ने इस तरह के व्यवहार से शर्मिंदगी महसूस की. उसे अपने मातापिता पर गुस्सा आता था कि प्रकृति ने तो उसे रंगरूप देने में कंजूसी की ही पर उन्होंने क्यों उस के काले रंग पर उज्ज्वला का नाम दे कर व्यंग्य किया और उसे ज्यादा से ज्यादा उपहास का पात्र बना दिया. मात्र नाम दे कर क्या वे उज्ज्वला की निरर्थकता को सार्थकता में बदल पाए थे.

जब वह स्कूल के स्नेहिल प्रांगण को छोड़ कर कालिज गई थी तो कितना तिरस्कार मिला था. छोटीछोटी बातें भी उस के मर्म पर चोट पहुंचा देती थीं. अपने नाम और रंग को ले कर किया गया कोई भी मजाक उसे उत्तेजित कर देता था. आखिर उस ने किसी से भी दोस्ती करने का प्रयत्न छोड़ दिया था. फिर भी उसे कितने कटु अनुभव हुए थे, जो आज भी उस के दिल में कांटे की तरह चुभते हैं.

सहपाठी विनोद का हाथ जोड़ कर टेढ़ी मुसकान के साथ ‘उज्ज्वलाजी, नमस्ते’ कहना और सभी का हंस पड़ना, क्या भूल सकेगी कभी वह? शर्म और गुस्से से मुंह लाल हो जाता था. न जाने कितनी बातें थीं, जिन से उस का हर रोज सामना होता था. ऐसे माहौल में वह ज्यादा से ज्यादा अंतर्मुखी होती गई थी.

वे दमघोंटू वर्ष गुजारने के बाद जब कुछ समय के लिए फिर से घर का सहज वातावरण मिला तो मन शांत होने लगा था. रेणु और दीपक उस की बौद्धिकता के कायल थे और उसे बहुत मानते थे. मातापिता भी उस के प्रति अतिरिक्त प्यार प्रदर्शित करते थे. ऐसे वातावरण में वह बीते दिनों की कड़वाहट भूल कर सुखद कल्पनाएं संजोने लगी थी.

उज्ज्वला के पिता राजकिशोर जूट का व्यापार करते थे और व्यापारी वर्ग में उन की विशेष धाक थी. उन के व्यापारी संस्कार लड़कियों को पढ़ाने के पक्ष में न थे. पर उज्ज्वला की जिद और योग्यता के कारण उसे कालिज भेजा था. अब जल्दी से जल्दी उस की शादी कर के निवृत्त हो जाना चाहते थे. अच्छा घराना और वर्षों से जमी प्रतिष्ठा के कारण उज्ज्वला का साधारण रंगरूप होने के बावजूद अच्छा वर और समृद्ध घर मिलने में कोई विशेष दिक्कत नहीें हुई.

दीनदयाल, राजकिशोर के बचपन के सहपाठी और अच्छे दोस्त भी थे. दोस्ती को संबंध में परिवर्तित कर के दोनों ही प्रसन्न थे. दीनदयाल कठोर अनुशासन- प्रिय व्यक्ति थे तथा घर में उन का रोबदाब था. वह लड़कालड़की को आपस में देखनेदिखाने तथा शादी से पूर्व किसी तरह की छूट देने के सख्त खिलाफ थे.

सुनील सुंदर, आकर्षक और सुशिक्षित नौजवान था. फिर सी.ए. की परीक्षा में उत्तीर्ण हो कर तो वह राजकिशोर की नजरों में और भी चढ़ गया था. ऐसा सुदर्शन जामाता पा कर राजकिशोर फूले नहीं समा रहे थे. सुनील को भी पूरा विश्वास था कि उस के पिता जो भी निर्णय लेंगे, उस के हित में ही लेंगे. पर सुहागरात को दुबलीपतली, श्यामवर्ण, आकर्षणहीन उज्ज्वला को देखते ही उस की सारी रंगीन कल्पनाएं धराशायी हो गईं. वह चाह कर भी प्यार प्रदर्शित करने का नाटक नहीं कर सका.

बाबूजी के प्रति मन में बेहद कटुता घुल गई और बिना कुछ कहे एक ओर मुंह फेर कर नाराज सा सो गया. पैसे वाले प्रतिष्ठित व्यापारियों का समझौता बेमेल वरवधू में सामंजस्य स्थापित नहीं करा पाया था. उज्ज्वला धड़कते दिल से पति की खामोशी के टूटने का इंतजार करती रही. सबकुछ जानते हुए भी इच्छा हुई थी कि सुनील की नाराजगी का कारण पूछे, माफी भी मांगे, पर सुनील के आकर्षक व्यक्तित्व से सहमी वह कुछ नहीं बोल पाई थी. आखिर घुटनों में सिर रख कर तब तक आंसू बहाती रही थी जब तक नींद न आ गई थी.

‘‘बहू, खाना नहीं खाना क्या?’’ सास के स्वर से उज्ज्वला अतीत के उन दुखद भंवरों से एक झटके से निकल कर पुन: वर्तमान से आ जुड़ी. न जाने उसे इस तरह कितनी देर हो गई. हड़बड़ा कर गीली आंखें पोंछ लीं और अपनेआप को संयत करती नीचे आ गई. वह खाने के काम से निवृत्त हो कर फिर कमरे में आई तो सहज ही चांदी के फ्रेम में जड़ी सुनील की तसवीर पर दृष्टि अटक गई. मन में फिर कोई कांटा खटकने लगा. सोचने लगी, इन 2 सालों में किस तरह सुनील छोटीछोटी बातों से भी दिल दुखाते रहे हैं. कभीकभार अच्छे मूड में होते हैं तो दोचार औपचारिक बातें कर लेते हैं, वरना उस के बाहुपाश को बेदर्दी से झटक कर करवट बदल लेते हैं.

अब तक एक बार भी तो संपूर्ण रूप से वह उस के प्रति समर्पित नहीं हो पाए हैं. आखिर क्या गलती की है उस ने? शिकायत तो उन्हें अपने पिताजी से होनी चाहिए थी. क्यों उन के निर्णय को आंख मूंद कर सर्वोपरि मान लिया? यदि वह पसंद नहीं थी तो शादी करने की कोई मजबूरी तो नहीं थी. इस तरह घुटघुट कर जीने के लिए मजबूर कर के वह मुझे किस बात की सजा दे रहे हैं? बहुत से प्रश्न मन को उद्वेलित कर रहे थे. पर सुनील से पूछने का कभी साहस ही नहीं कर सकी थी.

नहीं, अब नहीं सहेगी वह. आज सारी बात अवश्य कहेगी. कब तक आज की तरह अपनी इच्छाएं दबाती रहेगी? उस ने कितने अरमानों से आज रेणु और दीपक के साथ पिकनिक के लिए कहीं बाहर जाने का कार्यक्रम बनाया था. बड़े ही अपनत्व से सुबह सुनील को सहलाते हुए बोली थी, ‘‘आज इतवार है. मैं ने रेणु और दीपक को बुलाया है. सब मिल कर कहीं पिकनिक पर चलते हैं.’’

‘‘आज ही क्यों, फिर कभी सही,’’ उनींदा सा सुनील बोला. ‘‘पर आज आप को क्या काम है? मेरे लिए न सही उन के लिए ही सही. अगर आप नहीं चलेंगे तो वे क्या सोचेंगे? मैं ने उन से पिकनिक पर चलने का कार्यक्रम भी तय कर रखा है,’’ उज्ज्वला ने बुझे मन से आग्रह किया.

‘‘जब तुम्हारे सारे कार्यक्रम तय ही थे तो फिर मेरी क्या जरूरत पड़ गई? तुम चली जाओ, मेरी तरफ से कोई मनाही नहीं है. मैं घर पर गाड़ी भी छोड़ दूंगा,’’ कह कर सुनील ने मुंह फेर लिया. उसे बेहद ठेस पहुंची. पहली बार उस ने स्वेच्छा से कोई कार्यक्रम बनाया था और सुनील ने बात को इस कदर उलटा ले लिया. न तो वह कोई कार्यक्रम बनाती और न ही यह स्थिति आती. उज्ज्वला ने उसी समय दीपक को फोन कर के कह दिया, ‘‘तेरे जीजाजी को कोई जरूरी काम है, इसलिए फिर कभी चलेंगे.’’

मन बहुत खराब हो गया था. फिर किसी भी काम में जी नहीं लगा. बारबार अपनी स्थिति को याद कर के आंखें भरती रहीं. क्या उसे इतना भी अधिकार नहीं है कि अपने किसी शौक में सुनील को भी शामिल करने की सोच सके? आज वह सुनील से अवश्य कहेगी कि क्यों वह उस से इस कदर घृणा करते हैं और उस के साथ कहीं भी जाना पसंद नहीं करते.

शाम उतरने लगी थी. लंबी परछाइयां दरवाजों में से रेंगने लगीं तो उज्ज्वला शिथिल कदमों से रसोई में आ कर खाना बनाने में जुट गई. हाथों के साथसाथ विचार भी तेज गति से दौड़ने लगे. रोज की यह बंधीबंधाई जिंदगी, जिस में जीवन की जरा भी हसरत नहीं थी. बस, भावहीनता मशीनी मानव की तरह से एक के बाद एक काम निबटाते रहो. कितनी महत्त्वहीन और नीरस है यह जिंदगी.

मातापिता खाना खा चुके थे. सुनील अभी तक नहीं आया था. उज्ज्वला बचा खाना ढक कर मन बहलाने के लिए टीवी के आगे बैठ गई. घंटी बजी तो भी वैसे ही कार्यक्रम में खोई बैठी रहने का उपक्रम करती रही. नौकर ने दरवाजा खोला. सुनील आया और जूते खोल कर सोफे पर लेट सा गया. ‘‘बड़ी देर कर दी. चल, हाथमुंह धो कर खाना खा ले. बहू इंतजार कर रही है तेरा,’’ मां ने कहा.

‘‘बचपन का एक दोस्त मिल गया था. इसलिए कुछ देर हो गई. वह खाना खाने का बहुत आग्रह करने लगा, इसलिए उस के घर खाना खा लिया था,’’ सुनील ने लापरवाही से कहा.

उज्ज्वला अनमनी सी उठी और थोड़ाबहुत खा कर, बाकी नौकर को दे कर अपने कमरे में आ गई, ‘सुनील जैसे आदमी को कुछ भी कहना व्यर्थ होगा. यदि मन की भड़ास निकाल ही देगी तो भी क्या ये दरारें पाटी जा सकेंगी? कहीं सुनील उस से और ज्यादा दूर न हो जाए? नहीं, वह कभी भी अपनी कमजोरी जाहिर नहीं करेगी. आखिर कभी न कभी तो उस के अच्छे बरताव से सुनील पिघलेंगे ही,’ मन को सांत्वना देती उज्ज्वला सोने का प्रयत्न करने लगी. सुबह का सुखद वातावरण, ठंडी- ठंडी समीर और तरहतरह के पक्षियों के मिलेजुले स्वर जैसे कानों में रस घोलते हुए.

‘सुबह नींद कितनी जल्दी टूट जाती है,’ बिस्तर से उठ कर बेतरतीब कपड़ों को ठीक करती उज्ज्वला सोचने लगी, ‘कितनी सुखी होती हैं वे लड़कियां जो देर सुबह तक अलसाई सी पति की बांहों में पड़ी रहती हैं.’ वह कमरे के कपाट हौले से भिड़ा कर रसोई में आ गई. उस ने घर की सारी जिम्मेदारियों को स्वेच्छा से ओढ़ लिया था. उसे इस में संतोष महसूस होता था. वह सासससुर की हर जरूरत का खयाल रखती थी, इसलिए थोड़े से समय में ही दोनों का दिल जीत लिया था.

भजन कब के बंद हो चुके थे. कोहरे का झीना आंचल हटा कर सूरज आकाश में चमकने लगा था. कमरे के रोशनदानों से धूप अंदर तक सरक आई थी. ‘‘सुनिए जी, अब उठ जाइए. साढ़े 8 बज रहे हैं,’’ उज्ज्वला ने हौले से सुनील की बांह पर हाथ रख कर कहा. चाह कर भी वह रजाई में ठंडे हाथ डाल कर अधिकारपूर्वक छेड़ते हुए नहीं कह सकी कि उठिए, वरना ठंडे हाथ लगा दूंगी.

बिना कोई प्रतिकार किए सुनील उठ गया तो उज्ज्वला ने स्नानघर में पहनने के कपड़े टांग दिए और शेविंग का सामान शृंगार मेज पर लगाने लगी. जरूरी कामों को निबटा कर सुनील दाढ़ी बनाने लगा. उज्ज्वला वहीं खड़ी रही. शायद किसी चीज की जरूरत पड़ जाए. सोचने लगी, ‘सुनील डांटते हैं तो बुरा लगता है. पर खामोश हो कर उपेक्षा जाहिर करते हैं, तब तो और भी ज्यादा बुरा लगता है.’ ‘‘जरा तौलिया देना तो,’’ विचारों की शृंखला भंग करते हुए ठंडे स्वर में सुनील ने कहा.

उज्ज्वला ने चुपचाप अलमारी में से तौलिया निकाल कर सुनील को थमा दिया. सुनील मुंह पोंछने लगा. अचानक ही उज्ज्वला की निगाह सुनील के चेहरे पर बने हलकेहलके से सफेद दागों पर अटक गई. मुंह से खुद ब खुद निकल गया, ‘‘आप के चेहरे पर ये दाग पहले तो नहीं थे.’’

‘‘ऐसे ही कई बार सर्दी के कारण हो जाते हैं. बचपन से ही होते आए हैं,’’ सुनील ने लापरवाही से कहा. ‘‘फिर भी डाक्टर से राय लेने में हर्ज ही क्या है?’’

‘‘तुम बेवजह वहम मत किया करो. हमेशा अपनेआप मिटते रहे हैं,’’ कह कर सुनील स्नानघर में घुस गया तो उज्ज्वला भी बात को वहीं छोड़ कर रसोई में आ गई और नाश्ते की तैयारी में लग गई. पर इस बार सुनील के चेहरे के वे दाग ठीक नहीं हुए थे. धीरेधीरे इतने गहरे होते गए थे कि चेहरे का आकर्षण नष्ट होने लगा था. सुनील पहले जितना लापरवाह था, अब उतना ही चिंतित रहने लगा. इस स्थिति में उज्ज्वला बराबर सांत्वना देती और डाक्टरों की बताई तरहतरह की दवाइयां यथासमय देती रही.

अब सुनील उज्ज्वला से चिढ़ाचिढ़ा नहीं रहता था. अधिकतर किसी सोच में डूबा रहता था, पर उज्ज्वला जो भी पूछती, शांति से उस का जवाब देता था. उज्ज्वला को न जाने क्यों इस आकस्मिक परिवर्तन से डर लगने लगा था. रात गहरा चुकी थी. सभी टीवी के आगे जमे बैठे थे. आखिर उकता कर उज्ज्वला ऊपर अपने कमरे में आ गई तो सुनील भी मातापिता को हाल में छोड़ कर पीछेपीछे आ गया. हमेशा की तरह उज्ज्वला चुपचाप लेट गई थी. चुपचाप, मानो वह सुनील की उपेक्षा की आदी हो गई हो. सुनील ने बत्ती बंद कर के स्नेह से उसे बांहों में कस लिया और मीठे स्वर में बोला, ‘‘सच बताओ, उज्ज्वला, तुम मुझ से नफरत तो नहीं करतीं?’’

उस स्नेहस्पर्श और आवाज की मिठास से उज्ज्वला का रोमरोम आनंद से तरंगित हो उठा था. पहली बार प्यार की स्निग्धता से परिचित हुई थी वह. खुशी से अवरुद्ध कंठ से फुसफुसाई, ‘‘आप ने ऐसा कैसे सोच लिया?’’

‘‘अब तक बुरा बरताव जो करता रहा हूं तुम्हारे साथ. पिताजी के प्रति जो आक्रोश था, उस को तुम पर निकाल कर मैं संतोष महसूस करता रहा. सोचता था, मेरे साथ धोखा हुआ और बेवजह ही इस के लिए मैं तुम को दोषी मानता रहा. पर तुम मेरे लिए हमेशा प्यार लुटाती रहीं. मैं मात्र दैहिक सौंदर्य की छलना में मन के सौंदर्य से अनजान बना रहा. अब मैं जान गया कि तुम्हारा मन कितना सुंदर और प्यार से लबालब है. मैं तुम्हें सिर्फ कांटों की चुभन ही देता रहा और तुम सहती रहीं. कैसे सहन किया तुम ने मुझे? मैं अपनी इन भूलों के लिए माफी मांगने लायक भी नहीं रहा.’’

‘‘बस, बस, आगे कुछ कहा तो मैं रो पडूँगी,’’ सुनील के होंठों पर हथेली रखते हुए उज्ज्वला बोली, ‘‘मुझे पूरा विश्वास था कि एक न एक दिन मुझे मेरी तपस्या का फल अवश्य मिलेगा. आप ऐसा विचार कभी न लाना कि मैं आप से घृणा करती हूं. मेरे मन में आप का प्यार पाने की तड़प जरूर थी, पर मैं ने कभी भी अपनेआप को आप के काबिल समझा ही नहीं. आज मुझे ऐसा लगता है मानो मैं ने सबकुछ पा लिया हो.’’

‘‘उज्ज्वला, तुम सचमुच उज्ज्वला हो, निर्मल हो. मैं तुम्हारा अपराधी हूं. आज मैं अपनेआप को कंगाल महसूस कर रहा हूं. न तो मेरे पास सुंदर दिल है और न ही वह सुंदर देह रही जिस पर मुझे इतना घमंड था,’’ सुनील ने ठंडी सांस ले कर उदासी से कहा.

‘‘जी छोटा क्यों करते हैं आप? हम इलाज की हर संभव कोशिश करेंगे. फिर भी ये सफेद दाग ठीक नहीं हुए तो भी मुझे कोई गम नहीं. यह कोई खतरनाक बीमारी नहीं है. प्यार इतना सतही नहीं होता कि इन छोटीछोटी बातों से घृणा में बदल जाए. मैं तो हमेशाहमेशा के लिए आप की हूं,’’ उज्ज्वला ने कहा. सुनील ने भावविह्वल हो कर उसे इस तरह आलिंगनबद्ध कर लिया मानो अचानक उसे कोई अमूल्य निधि मिल गई हो.

बस एक भूल: जब एक पत्नी ने पति को बना दिया नामर्द

जब बड़ी बेटी मधु की शादी में विद्यासागर के घर शहनाई बज रही थी, तो खुशी से उन की आंखें भर आईं. उधर बरातियों के बीच बैठे राजेश के पिता की भी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था, क्योंकि उन के एकलौते बेटे की शादी मधु जैसी सुंदर व सुशील लड़की से हो रही थी. लेकिन उन्हें क्या पता था कि यह शादी उन के लिए सिरदर्द बनने वाली है. शादी को अभी 2 दिन भी नहीं हुए थे कि मधु राजेश को नामर्द बता कर मायके आ गई.

यह बात दोनों परिवारों के गांवों में जंगल में लगी आग की तरह फैल गई. सब अपनीअपनी कहानियां बनाने लगे. कोई कहता कि राजेश ज्यादा शराब पी कर नामर्द बन गया है, तो कोई कहता कि वह पैदाइशी नामर्द था. इस से दोनों परिवारों की इज्जत धूल में मिल गई.

राजेश जहां भी जाता, गांव वालों से यही सुनने को मिलता कि उन्हें तो पहले से ही मालूम था कि आजकल की लड़की उस जैसे गंवार के साथ नहीं रह सकती.

विद्यासागर के दुखों का तो कोई अंत ही नहीं था. वे बस एक ही बात कहते, ‘मैं अपनी बेटी को कैसी खाई में धकेल रहा था…’

मधु के घर में मातम पसरा हुआ था, पर जैसे उस के मन में कुछ और ही चल रहा था.

मधु की ससुराल वाले बस यही चाहते थे कि वे किसी तरह से मधु को अपने यहां ले आएं, क्योंकि गांव वाले उन को इतने ताने मार रहे थे कि उन का घर से निकलना मुश्किल हो गया था.

राजेश के पिता विद्यासागर से बात करना चाहते थे, पर उन्होंने साफ इनकार कर दिया था.

कुछ दिनों बाद मधु की ससुराल वाले कुछ गांव वालों के साथ मधु को लेने आए, तो मधु ने जाने से साफ इनकार कर दिया.

विद्यासागर ने भी मधु की ससुराल वालों की उन के गांव वालों के सामने जम कर बेइज्जती कर दी और धमकाते हुए कहा, ‘‘आज के बाद यहां आया, तो तेरी टांगें तोड़ दूंगा.’’

यह सुन कर राजेश के पिता भी उन्हें धमकाने लगे, ‘‘अगर तुम अपनी बेटी को मेरे साथ नहीं भेजोगे, तो मैं तुम पर केस कर दूंगा.’’

विद्यासागर ने कहा, ‘‘जो करना है कर ले, पर मैं अपनी बेटी को तेरे घर कभी नहीं भेजूंगा.’’ मामला कोर्ट में पहुंच गया. मधु तलाक चाहती थी, पर राजेश उसे रखना चाहता था.

कुछ दिनों तक केस चला, लेकिन दोनों परिवारों की माली हालत कमजोर होने की वजह से उन्होंने आपस में समझौता कर लिया व तलाक हो गया. मधु बहुत खुश थी, क्योंकि वह तो यही चाहती थी.

एक दिन जब मधु सुबहसवेरे दुकान पर जा रही थी, तो वहां उसे दीपक दिखाई दिया, जो उस के साथ पढ़ता था. मधु ने दीपक को धीरे से कहा, ‘‘आज शाम को मैं तेरा इंतजार मंदिर में करूंगी. वहां आ जाना.’’

दीपक ने कुछ जवाब नहीं दिया. मधु मुसकरा कर चली गई.

जब शाम को वे दोनों मंदिर में मिले, तो मधु ने खुशी से कहा, ‘‘देख दीपक, मैं तेरे लिए सब छोड़ आई हूं. वह रिश्ता, वह नाता, सबकुछ.’’

‘‘मेरे लिए… तुम कहना क्या चाहती हो मधु?’’ दीपक ने थोड़ा चौंक कर उस से पूछा.

‘‘दीपक, मैं सिर्फ तुम से प्यार करती हूं और तुम से ही शादी करना चाहती हूं,’’ मधु ने थोड़ा बेचैन अंदाज में कहा.

‘‘यह तुम क्या कह रही हो मधु?’’ दीपक ने फिर पूछा.

मधु ने कहा, ‘‘मैं सच कह रही हूं दीपक. मैं तुम से प्यार करती हूं. कल यह समाज मेरे फैसले का विरोध करे, इस से पहले हम शादी कर लेते हैं.’’

‘‘मधु, तुम पागल तो नहीं हो गई हो. जब गांव वाले सुनेंगे, तो मुझे जान से मार देंगे और पता नहीं, मेरी मां मेरा क्या हाल करेंगी?’’ दीपक ने थोड़ा घबरा कर कहा.

‘‘क्या तुम गांव वालों और अपनी मां से डरते हो? क्या तुम ने मुझ से प्यार नहीं किया?’’

‘‘हां मधु, मैं ने तुम से ही प्यार किया है, पर तुम से शादी करूंगा, ऐसा कभी नहीं सोचा.’’

मधु ने गुस्से में कहा ‘‘धोखेबाज, तू ने शादी के बारे में कभी नहीं सोचा, पर मैं सिर्फ तेरे बारे में ही सोचती रही. ऐसा न हो कि मैं कल किसी और की हो जाऊं. चल, शादी कर लेते हैं,’’ मधु ने दीपक का हाथ पकड़ कर कहा.

‘‘नहीं मधु, मुझे अपनी मां से बहुत डर लगता है. अगर हम दोनों ने ऐसा किया, तो गांव में हम दोनों की बदनामी होगी,’’ दीपक ने समझाते हुए कहा.

मधु ने बोल्ड अंदाज में कहा, ‘‘तुम अपनी मां और गांव वालों से डरते होगे, पर मैं किसी से नहीं डरती. मैं करूंगी तुम्हारी मां से बात.’’ दीपक ने उसे समझाने की बहुत कोशिश की, पर मधु ने अपनी जिद के आगे उस की एक न सुनी.

अगले दिन जब मधु दीपक की मां से बात करने गई, तो उस की मां ने कड़क आवाज में कहा, ‘‘मुझे नहीं मालूम था कि तुम इतनी गिरी हुई लड़की हो. तुम ने इस नाजायज प्यार के लिए अपना ही घर उजाड़ दिया.’’

‘‘मैं अपना घर उजाड़ कर नहीं आई मांजी, बल्कि दीपक के लिए सब छोड़ आई हूं. मेरे लिए दीपक ही सबकुछ है. मुझे अपनी बहू बना लीजिए, वरना मैं मर जाऊंगी,’’ मधु ने गिड़गिड़ा कर कहा. ‘‘तो मर जा, लेकिन मुझे सैकंडहैंड बहू नहीं चाहिए,’’ दीपक की मां ने दोटूक शब्दों में कहा.

‘‘मैं सैकंडहैंड नहीं हूं मांजी. मैं वैसी ही हूं, जैसी गई थी,’’ मधु ने कहा.

‘‘लगता है कि शादी के बाद तुझ में कोई शर्मलाज नहीं रही है. अंधे प्यार ने तुझे पागल बना दिया है. दीपक तेरे गांव का है… तेरा भाई लगेगा. मैं तेरे पापा को सब बताऊंगी,’’ दीपक की मां ने मधु को धमकाते हुए कहा. इस के आगे मधु ने कुछ नहीं कहा. वह चुपचाप वहां से चली गई.

दीपक की मां ने विद्यासागर से कहा, ‘‘तुम्हारी बेटी दीपक के प्यार के चलते ही अपनी ससुराल में न बस सकी. अपनी बेटी को बस में रखो, वरना एक दिन वह तुम्हारी नाक कटा देगी.’’ यह सुनते ही विद्यासागर का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया.

विद्यासागर ने घर जाते ही मधु से गुस्से में पूछा, ‘‘मधु, वह लड़का सच में नामर्द था या फिर तुम ने उसे नामर्द बना दिया?’’

‘‘वह मुझे पसंद नहीं था,’’ मधु ने बेखौफ हो कर कहा.

‘‘इसलिए तुम ने उसे नामर्द बना दिया,’’ विद्यासागर ने गुस्से में कहा.

‘‘हां,’’ मधु बोली.

‘‘मतलब, तुम ने पहले ही सोच लिया था कि यह रिश्ता तोड़ना है?’’

‘‘हां.’’

फिर विद्यासागर उसे बहुतकुछ सुनाने लगे, ‘‘जब तुम्हें रिश्ता तोड़ना ही था, तो यह रिश्ता जोड़ा ही क्यों? जब रिश्ते की बात हो रही थी, तो मैं ने बारबार पूछा था कि यह रिश्ता पसंद है न? हर बार तू ने हां कहा था. क्यों? ‘‘तेरी ससुराल वाले मुझ से बारबार एक ही बात कह रहे थे कि राजेश नामर्द नहीं है, पर मैं ने तुझ पर भरोसा कर के उन की एक न सुनी.

‘‘वह मेरी मजबूरी थी, क्योंकि आप से कहीं रिश्ता हो ही नहीं रहा था. बड़ी मुश्किल से आप ने मेरे लिए एक रिश्ता तय किया, तो मैं उसे कैसे नकार देती?’’ मधु ने शांत लहजे में कहा.

‘‘जानती हो कि तुम्हारे चलते मैं आज कितनी बड़ी मुसीबत में फंस गया हूं. तेरी शादी का कर्ज अभी तक मेरे सिर पर है. सोचा था कि इस साल तेरी छोटी बहन की शादी कर देंगे, पर तुझ से छुटकारा मिले तब न.’’ मधु पिता की बात ऐसे सुन रही थी, जैसे उस ने कुछ गुनाह ही न किया हो.

‘‘जेब में एक पैसा नहीं है. तेरा छोटा भाई अभी 10 साल का है. उस से अभी क्या उम्मीद करूं? आसपास के लोग तो बस हम पर हंसते हैं. ‘‘पता नहीं, आजकल के बच्चों को हो क्या गया है. वे रिश्तों की अहमियत क्यों नहीं समझते हैं. रिश्ता तोड़ना तो आजकल एक खेल सा बन गया है. इस से मांबाप की कितनी परेशानी बढ़ती है, यह आजकल के बच्चे समझें तब न.

‘‘वैसे भी लड़कियों को रिश्ता तोड़ने का एक अच्छा बहाना मिल गया है कि लड़का पसंद न हो, तो उसे नामर्द बता दो. यह एक ऐसी बीमारी है, जिस का कोई इलाज ही नहीं है,’’ इस तरह एकतरफा गरज कर मधु के पिता बाहर चले गए.

यह बात धीरेधीरे पूरे गांव में फैल गई. गांव वाले मधु के खिलाफ होने लगे. अब तो उस का घर से बाहर निकलना मुश्किल हो गया. दीपक भी अपनी मां के कहने पर नौकरी के लिए शहर चला गया. विद्यासागर ने मधु की दूसरी शादी कराने की बहुत कोशिश की, पर कहीं बात नहीं बनी. वे जानते थे कि लड़की की एक बार शादी होने के बाद उस की दूसरी शादी कराना बड़ा ही मुश्किल होता है.

इस तरह एक साल गुजर गया. मधु को भी अपनी गलती का एहसास हो गया था. वह बारबार यही सोचती, ‘मैं ने क्यों अपना घर उजाड़ दिया? मेरे चलते ही परिवार वाले मुझ से नफरत करते हैं.’ फिर बड़ी मुश्किल से मधु के लिए एक रिश्ता मिला. उस आदमी की बीवी कुछ महीने पहले मर गई थी. वह विदेश में रह कर अच्छा पैसा कमाता था.

मधु की मां ने उस से पूछा, ‘‘सचसच बताना कि तुझे यह रिश्ता मंजूर है?’’

मधु ने धीरे से कहा, ‘‘हां.’’

मां ने कहा, ‘‘इस बार कुछ गड़बड़ की, तो अब इस घर में भी जगह नहीं मिलेगी.’’

मधु बोली, ‘‘ठीक है.’’

फिर मधु की शादी गांव से दूर एक शहर में कर दी गई. वह आदमी भी मधु को देख कर बहुत खुश था. जब मधु एयरपोर्ट पर अपने पति के साथ विदेश जाने लगी, तो उस के परिवार वालों ने सबकुछ भुला कर उसे विदा किया. उस की मां ने नम आंखों से जातेजाते मधु से पूछ ही लिया, ‘‘क्या तुम इस रिश्ते से खुश हो?’’ मधु ने भी नम आंखों से कहा, ‘‘खुश हूं. एक गलती कर के पछता रही हूं. अब मैं भूल से भी ऐसी गलती दोबारा नहीं करूंगी.’’

विद्यासागर ने मधु से भर्राई आवाज में कहा, ‘‘मधु, मैं ने गुस्से में तुम से जोकुछ भी कहा, उसे भूल जाना.’’

कुछ देर बाद पूरे परिवार ने नम आंखों से मधु को विदा कर दिया.

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