कबीर बारबार घड़ी की ओर देख रहा था. अभी तक उस का ड्राइवर नहीं आया था.
जब ड्राइवर आया तो कबीर उस पर बरस पड़ा, ‘‘तुम लोगों को वक्त की कोई कीमत ही नहीं है. कहां रह गए थे?’’
‘‘साहब, घर में पानी भर गया था, वही निकालने में देर हो गई.’’
‘‘अरे यार, तुम लोगों की यही मुसीबत है. चार बूंदें गिरती नहीं हैं कि तुम्हारा रोना शुरू हो जाता है... पानी... पानी... अब चलो,’’ कार में बैठते हुए कबीर ने कहा.
बरसात के महीने में मुंबई यों बेबस हो जाती है, जैसे कोई गरीब औरत भीगी फटी धोती में खुद को बारिश से बचाने की कोशिश कर रही हो. भरसक कोशिश, मगर सब बेकार... थक कर खड़ी हो जाती है एक जगह और इंतजार करती है बारिश के थमने का.
कार ने रफ्तार पकड़ी और दिनभर का थकामांदा कबीर सीट पर सिरटिका कर बैठ गया. हलकीहलकी बारिश हो रही थी और सड़क पर लोग अपनी रोजमर्रा की जिंदगी से जूझ रहे थे. अनगिनत छाते, पर बचाने में नाकाम. हवा के झोंकों से पानी सब को भिगो गया था.
कबीर ने घड़ी की ओर देखा. 6 बजे थे. सड़क पर भीड़ बढ़ती जा रही थी. ट्रैफिक धीमा पड़ गया था. लोग बेवजह हौर्न बजा रहे थे मानो हौर्न बजाने से ट्रैफिक हट जाएगा. पर वे हौर्न बजा कर अपने बेबस होने की खीज निकाल लेते थे.
ड्राइवर ने कबीर से पूछा, ‘‘रेडियो चला दूं साहब?’’
‘‘क्या... हां, चला दो. लगता है कि आज घर पहुंचने में काफी देर हो जाएगी,’’ कबीर ने कहा.
‘‘हां साहब... बहुत दूर तक जाम लगा है.’’