साठ पार का प्यार : भाग 1

सुबह सुबह रजाई से मुंह ढांपे समीर  काफी देर तक जब पत्नी के उठाने का और गरमागरम चाय के कप का इंतजार करतेकरते थक गए तो रजाई से धीरे से मुंह निकाल कर बाहर झांका, ‘अभी तक कहां है सुहानी’ तो जो कुछ नजर आया, उस पर यकीन करना मुश्किल हो गया.

उलटेसीधे गाउन पर 2-3 स्वेटर पहने, मुंह और सिर भी शौल से लपेटे रहने वाली सुहानी आज गुलाबी रंग का चुस्त ट्रैक सूट पहने, ड्रैसिंग मिरर के सामने खुद को कई एंगल से निहारनिहार कर खुश हो रही थी.

‘‘यह क्या कर रही हो सुहानी,’’ समीर हैरानी से पलकें झपकाते हुए बोले.

‘‘ओह, उठ गए तुम. मैं जौगिंग पर जा रही हूं.’’ वह ‘जौगिंग’ शब्द पर जोर डालती हुई मीठी मुसकराहट के साथ आगे बोली, ‘‘मैं ने चाय पी ली, तुम्हारी रखी है, गरम कर के पी लेना.’’

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‘‘लेकिन तुम इतने कम कपड़े पहन कर कहां जा रही हो, सर्दी लग जाएगी. वाक पर तो रोज ही जाती हो, आज यह जौगिंग की क्या सूझी,’’ समीर उठ कर बैठते हुए बोले. उन्हें सामने खड़ी सुहानी पर अभी भी विश्वास नहीं हो रहा था.

‘‘डार्लिंग,’’ सुहानी प्यार से उन के गालों पर हलकी सी चिकौटी काटती, दिलकश मुसकराहट बिखेरती हुई बोली, ‘‘पहले सारे किस्सेकहानियों में फोर्टीज की बात होती थी, अब सिक्सटीज की बात होती है. सुना नहीं, ‘लव इन सिक्सटीज?’ ’’

वह थोड़ा सा उन से सट कर बैठती हुई आगे बोली, ‘‘मैं ने सोचा, लव दूसरे से करना जरूरी है क्या, क्यों न खुद से ही शुरुआत की जाए. पहले खुद से, फिर तुम से,’’ उस ने रोमांटिक अंदाज में समीर के होंठों पर उंगली फेरने के साथ उन की आंखों में झांका.

समीर को गले से थूक निगलना पड़ा. 64 साल की उम्र में भी बांछें खिल गईं. मन ही मन सोचने लगे, ‘वैसे तो हाथ ही नहीं आती है…अब उम्र हो गई है, ये है, वो है. बिगड़ी घोड़ी सी बिदक जाती है. आज क्या हो गया.’

‘‘लेकिन इतने कम कपड़ों में तुम्हें ठंड नहीं लगेगी,’’ बुढ़ापे में चिंता स्वाभाविक थी.

‘‘अंदर से सारा इंतजाम किया हुआ है,’’ वह अंदर पहने कपड़े दिखाती हुई बोली, ‘‘ठंड नहीं लगेगी. अब तुम भी रजाई फेंक कर उठ जाओ और चाय गरम कर के पीलो,’’ उस ने फिर एक बार समीर के होंठों को हौले से छूने के साथ मस्तीभरी नजरों से देखा.

समीर को लगा कि शायद सुहानी कहीं मस्ती में उन के होंठों को चूम ही न ले. पर सुहानी का इतना नेक इरादा न था. वह उठ खड़ी हुई.

उस ने एकदो बार अपनी ही जगह पर खड़े हो कर जूते फटकारे. थोड़ी उछलीकूदी.

‘‘यह क्या कर रही हो?’’ समीर की हैरानी अभी भी कम नहीं हो रही थी.

‘‘बौडी को वार्मअप कर रही हूं डियर,’’ कह कर, तीरे नजर उन पर डाल कर, उन्हें खुश करती, 2 उंगलियों से बाय करती, बलखाती हुई सुहानी बाहर निकल गई.

समीर बेवकूफों की तरह थोड़ी देर वैसे ही बैठ कर उस भिड़े दरवाजे को देखते रहे जो अचानक लगे धक्के से अभी भी हिल रहा था. फिर हकीकत में वे रजाई फेंक कर उठ खड़े हो गए.

सड़क पर सुहानी हलकी चाल से दौड़ रही थी. उस का पहला दिन था. एक तय चाल से वाक करना और हलकी चाल से दौड़ना, दोनों बातें अलग थीं. अधिक थकान न हो, इसलिए वह बहुत एहतियात बरत रही थी. समीर को रिटायर हुए 4 साल हो गए थे. रिटायर होने के बाद भी 2 साल तक वे छिटपुट इधरउधर जौब करते रहे, पर 2 साल से पूरी तरह घर पर ही थे. समीर को सेहत का पाठ पढ़ातेपढ़ाते सुहानी थक चुकी थी. समीर सेहत के मामले में लापरवाह थे.

सुहानी अपनी सेहत का पूरा खयाल  रखती थी, रोज वाक पर जाती  थी, खाने में परहेज करती थी. पर समीर के पास हर बात के लिए कारण ही कारण थे. कभी नौकरी की व्यस्तता का बहाना, फिर कभी रिटायरमैंट के

बाद कुछ समय आराम करने का बहाना. 2 साल से हर तरह से खाली होने के बावजूद समीर को सुबह की सैर पर ले जाना टेढ़ी खीर था. वे आलसी इंसान थे. आराम से उठो, सब तरह का खाना खाओपियो, ऐश करो.

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समीर का बढ़ता वजन, बढ़ता पेट देख कर सुहानी को चिंता होती. उन का बढ़ता ब्लडप्रैशर, कभीकभी शुगर का बढ़ना उस की पेशानी में बल डाल देता. वह सोच में पड़ जाती कि कैसे समीर को अपनी सेहत पर ध्यान देने की आदत डाले, कैसे समझाए समीर को, कैसे उन का आलसीपन दूर करे.

इसी कशमकश में डूबतीउतराती सुहानी की नजर एक दिन पत्रिका में छपे एक लेख ‘लव इन सिक्सटीज’ पर पड़ी. वाह, कितना रोमांचक और रोमैंटिक टाइटल है. उस लेख को पढ़ कर पलभर के लिए उसे भी रोमांच हो आया. उस का दिल किया कि थोड़ा रोमांस वह भी कर ले समीर से. पर समीर के थुलथुलेपन को देख कर उस का सारा रोमांस काफूर हो गया.

बात सिर्फ सेहत के प्रति लापरवाही की होती, तो भी एक बात थी, पर घर में दिनभर खाली रहने के चलते समीर को हर छोटीछोटी बात पर टोकने की आदत पड़ गई थी. घर में काम वाली, धोबी, प्रैसवाला, माली सभी समीर के इस रवैए से परेशान रहने लगे थे.

‘ठीक से काम नहीं करती हो तुम, पोंछा ऐसे लगाते हैं क्या, बरतन भी कितने गंदे धोती हो. प्रैस कितनी गंदी कर के लाता है यह प्रैसवाला, लगता है बिना प्रैस किए ही तह कर दिए कपड़े.’’ कभी माली के पीछे पड़ जाते, ‘‘कुछ काम नहीं करता यह माली, बस आता है और फेरी लगा कर चला जाता है. तुम भी इसे देखती नहीं हो…’’

कभी सुहानी के ही पीछे पड़ जाते, ‘‘तुम कामवाली को गरम पानी क्यों देती हो काम करने के लिए? गीजर चला कर बरतन धोती है, गरम पानी से पोंछा लगाती है. उस से बिजली का बिल बढ़ता है. कामवाली को सर्दी की वजह से आने में देर हो जाती तो समीर की भुनभुनाहट शुरू हो जाती. रोज देर से आने लगी है, तुम इसे कुछ कहती क्यों नहीं, लगता है इस ने सुबह कहीं काम पकड़ लिया है?’’

पोंछा लगा कर कामवाली कमरे का पंखा चला देती तो वे हर कमरे का पंखा बंद कर के बड़बड़ाते रहते, ‘मैं तो नौकर हूं न, पंखे बंद करना मेरा काम है. सर्दी हो या गरमी, इसे पंखे जरूर चलाने हैं.’

माली से जब वे अपने हिसाब से काम कराने लगते तो उसे कुछ समझ नहीं आता और वह भाग खड़ा होता. जब सुहानी कई बार फोन कर के मिन्नतें करती तब जा कर वह आता. कामवाली डांट खा कर जबतब छुट्टी कर लेती. प्रैसवाला कईकई दिनों के लिए गायब हो जाता. सुहानी को काम करने वालों को रोकना मुश्किल हो रहा था. पर समीर थे कि अपने निठल्लेपन से बाज नहीं आ रहे थे.

काम वाले जबतब सुहानी से साहब की शिकायत करते रहते. सुहानी समीर को कई बार समझाती, ‘इन के पीछे क्यों पड़े रहते हो समीर. तुम अपने काम से काम रखा करो. इन सब को जैसे मैं इतने सालों से हैंडिल कर रही थी, अब भी कर लूंगी. तुम्हारे ऐसे रवैए से ये सब किसी दिन भाग खड़े होंगे.’

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पर समीर को तो लगता कि सब सुहानी को बेवकूफ बनाते हैं. उन के कानों पर जूं न रेंगती. उन के पास तो वक्त ही वक्त था इन सब बातों पर ध्यान देने के लिए. सुहानी कई कामों में लगी रहती. कई सामाजिक कामों से भी उस ने खुद को जोड़ रखा था. वह एक लेडीज क्लब की मैंबर भी थी. उसे समीर की इन बेकार की बातों से उलझन होती. वह चाहती, समीर भी अपनी नियमित दिनचर्या बनाएं, ताकि उन की सेहत भी ठीक रहे और वे किसी सामाजिक संस्था से भी जुड़ें जिस से व्यस्त रहें और से उन की मानसिक सेहत भी ठीक रहे.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

साठ पार का प्यार : सुहानी ने कैसा पैतरा अपनाया

अनोखा रिश्ता : भाग 4

उस रात खाना खाने के बाद मुझे मिसेज दास ने अपने कमरे में बुलाया. वह चारपाई पर बैठी अपनी चप्पलों को पैर से इधरउधर सरका रही थीं. पास  ही जयशंकर एक कुरसी पर चुपचाप बैठा छत के पंखे को देखे जा रहा था. मिसेज दास ने इशारे से अपने पास बुलाया और मुझे अपने बगल में बैठने को कहा. बड़ा समय लिया उन्होंने अपनी चुप्पी तोड़ने में.

‘जयशंकर बता रहा था कि तुम्हारे परिचित ने तुम्हें आज 600 रुपए दिए थे, यह बताओ कि हम पर तुम ने कितने पैसे खर्च कर डाले?’

‘करीब 300 रुपए.’

‘बाकी के 300 रुपए तो तुम्हारे पास हैं न?’

मैं ने शेष 300 रुपए जेब से निकाल कर उन के सामने रख दिए.

अब मिसेज दास ने अपना फैसला चंद शब्दों में मुझे सुना दिया कि तुम कल सुबह जयशंकर के साथ जा कर धनबाद के लिए किसी भी ट्रेन में अपना आरक्षण करवा लो. तुम्हारी मां घबरा रही होंगी. अपने परिचित का पता मुझे लिखवा दो. जब तुम्हारे बाबा का पैसा आ जाएगा तब मैं जयशंकर के हाथ यह 600 रुपए वापस करवा कर शेष रुपए तुम्हारे बाबा के नाम मनीआर्डर कर दूंगी. तुम्हें हम पर भरोसा तो है न?’

मुझे पता था कि यह मिसेज दास का अंतिम फैसला है और उसे बदला नहीं जा सकता. अपने एक झूठ को छिपाने के लिए मुझे मिसेज दास को एक मनगढ़ंत पता देना ही पड़ा.

दूसरे दिन मुझे एक टे्रन में आरक्षण मिल गया. मेरी टे्रन शाम को 7 बजे थी. मैं बुझे मन से घर वापस लौटा. खाना खाने के बाद मैं मिसेज दास की चारपाई पर लेट गया और मिसेज दास जयशंकर को साथ ले कर मेरी विदाई की तैयारी में लग गईं. वह मेरे रास्ते के लिए जाने क्याक्या पकाती और बांधती रहीं. हर 10 मिनट पर जयशंकर मुझ से चाय के लिए पूछने आता था पर मेरे मन में एक ऐसा शूल फंस गया था जो निकाले न निकल रहा था.

ट्रेन अपने नियत समय पर आई. मैं मिसेज दास के पांव छू कर और जयशंकर के गले मिल कर अपनी सीट पर जा बैठा.

कुछ दिनों के बाद बाबूजी का भेजा रुपया धनबाद के पते पर वापस आ गया. मनीआर्डर पर मात्र मिसेज दास का पता भर लिखा था.

मेरा यह अक्षम्य झूठ 25 वर्षों तक एक नासूर की तरह आएदिन पकता, फूटता और रिसता रहा था.

सोच के इस सिलसिले के बीच जागतेसोते मैं गुवाहाटी आ गया. रिकशा पकड़ कर मैं मिसेज दास के घर की ओर चल दिया. घर के सामने पहुंचा तो उस का नक्शा ही बदला हुआ था. कच्चे बरामदे के आगे एक दीवार और एक लोहे का फाटक लग गया था. छोटे से अहाते में यहांवहां गमले, बरामदे की छत तक फैली बोगनबेलिया की लताएं, एक लिपापुता आकर्षक घर.

मुझे पता था कि मिस्टर दास का अधूरा सपना बस, जयशंकर ही पूरा कर सकता है और उस ने पूरा कर के दिखा भी दिया.

फाटक की कुंडी खटखटाने में मुझे तनिक भी संकोच नहीं हुआ. मैं यहां किसी तरह की कोई उम्मीद ले कर नहीं आया था. बस, मुझे मिसेज दास से एक बार मिलना था. खटका सुन कर वह कमरे से बाहर निकलीं. शायद इन 25 सालों के बाद भी मुझ में कोई बदलाव न आया था.

उन्होंने मुझे देखते ही पहचान लिया. बिना किसी प्रतिक्रिया केझट से फाटक खोला और मुझे गले से लगा कर रोने लग पड़ीं. फिर मेरा चेहरा अपनी आंखों के सामने कर के बोलीं, ‘‘तुम तो बिलकुल अंगरेजों की तरह गोेरे लगते हो.’’

मैं उन के पांव तक न छू पाया. वह मेरा हाथ पकड़ कर घर के अंदर ले गईं. कमरों की साजसज्जा तो साधारण ही थी पर घर की दीवारें, फर्श और छतें सब की मरम्मत हुई पड़ी थी. मिसेज दास रत्ती भर न बदली थीं. न तो उन की ममता में और न उन की सौम्यता में कोई बदलाव आया था. बस, एक बदलाव मैं उन में देख रहा था कि उन के स्वर अब आदेशात्मक न रहे.

मेरे लिए यह बिलकुल अविश्वसनीय था. एम.एससी. करने के बाद जयशंकर अपनी इच्छा से एक करोड़पति की लड़की से शादी कर के डिब्रूगढ़ चला गया था. उस ने मां के साथ अपने सभी संबंध तोड़ डाले, जिस की मुझे सपनों में भी कभी आहट न हुई.

मिसेज दास की बड़ी बहन अब दुनिया में न रहीं. वह अपनी चल और अचल संपत्ति अपनी छोटी बहन के नाम कर गई थीं जो तकरीबन डेढ़ लाख रुपए की थी. जिस का

एक भाग उन्होंने अपने घर की मरम्मत में लगाया और बाकी के सूद और

अपनी सीमित पेंशन से अपना जीवन निर्वाह एक तरह से सम्मानित ढंग से कर रही थीं.

अब वह मेरे लिए मिसेज दास न थीं. मैं उन्हें खुश करने के लिए बोला, ‘‘मां, आप के हाथ की बनी रोहू मछली खाने का मन कर रहा है.’’

यह सुनते ही उन की आंखों से सावनभादों की बरसात शुरू हो गई. वह एक अलमारी में से मेरी चिट्ठियों का पूरा पुलिंदा ही उठा लाईं और बोलीं, ‘‘तुम्हारी एकएक चिट्ठी मैं अनगिनत बार पढ़ चुकी हूं. कई बार सोचा कि तुम्हें जवाब लिखूं पर शंकर मुझे बिलकुल तोड़ गया, बेटा. जब मेरी अपनी कोख का जन्मा बेटा मेरा सगा न रहा तो तुम पर मैं कौन सी आस रखती? फिर भी एक प्रश्न मैं तुम से हमेशा ही पूछना चाहती थी.’’

‘‘कौन सा प्रश्न, मां?’’

‘‘तुम्हें वह 600 रुपए मिले कहां से थे?’’

अब मुझे उन्हें सबकुछ साफसाफ बताना पड़ा.

सबकुछ सुनने के बाद उन्होंने मुझ से पूछा, ‘‘और एक बार भी तुम्हारा मन तुम्हें पैसे पकड़ने से पहले न धिक्कारा?’’

‘‘नहीं, क्योंकि मुझेअपने मन की चिंता न थी. मुझे आप के अभाव खलते थे पर अगर मुझे उन दिनों यह पता होता कि मैं अपने उपहारों के बदले आप को खो दूंगा तो मैं उन पैसों को कभी न पकड़ता. आप से कभी झूठ न बोलता. आप का अभाव मुझे अपने जीवन में अपनी मां से भी अधिक खला.’’

मिसेज दास चुपचाप उठीं और अपने संदूक से एक खुद का बुना शाल अपने कंधे पर डाल कर वापस आईं.

‘‘आओ, बाजार चलते हैं. तुम्हें मछली खानी है न. मेरे साथ 1-2 दिन तो रहोगे न, कितने दिन की छुट्टी है?’’

मैं उन के साथ 4 दिन तक रहा और उन की ममता की बौछार में अकेला नहाता रहा.

5वें दिन सुबह से शाम तक वह अपने चौके में मेरे रास्ते के लिए खाना बनाती रहीं और मुझे स्टेशन भी छोड़ने आईं. पूरे दिन उन से एक शब्द भी न बोला गया. बात शुरू करने से पहले ही उन का गला रुंध जाता था.

अब जब भी बर्लिन में मुझे उन की चिट्ठी मिलती है तो मैं अपना सारा घर सिर पर उठा लेता हूं. कई दिनों तक उन के पत्र का एकएक शब्द मेरे दिमाग में गूंजता रहता है, विशेषकर पत्र के अंत में लिखा उन का यह शब्द ‘तुम्हारी मां मनीषा.’

मैं उन्हें जब पत्र लिखने बैठता हूं अनायास मेरी भाषा बच्चों जैसी नटखट  हो जाती है. मेरी उम्र घट जाती है. मुझे अपने आसपास कोहरे या बादल नजर नहीं आते. बस, उन का सौम्य चेहरा ही मुझे हर तरफ नजर आता है.

अनोखा रिश्ता : भाग 3

खाने के बाद मैं ने मिसेज दास को अपनी गढ़ी कहानी सुना दी कि आज अचानक शहर में मुझे मेरे ननिहाल का एक आदमी मिला. स्टेशन के पास ही उस का अपना एक निजी होटल है. मुझे उस से मिलने 9 बजे जाना है.

मिसेज दास चौंकीं, ‘इतनी रात में क्यों?’

इस सवाल का जवाब मेरे पास था…‘होटल के कामों में वह दिन भर व्यस्त रहते हैं. उन के पास समय नहीं होता.’

‘ठीक है, तुम जयशंकर को साथ ले कर जाना. वह यहां के बारे में ठीक से जानता है. गुवाहाटी इतना सुरक्षित नहीं है. मैं इतनी रात में तुम्हें अकेले कहीं भी जाने की अनुमति नहीं दे सकती.’

मैं ने इस बारे में पहले सोच लिया था अत: बोला, ‘मिसेज दास, मैं बच्चा थोड़े ही हूं जो आप इतना घबरा रही हैं. हो सकता है कि अगला कुछ खानेपीने को कहे, ऐसे में अच्छा नहीं लगता किसी को बिना आमंत्रण के साथ ले जाना.’

मेरी बात सुन कर मिसेज दास की पेशानी पर बल पड़े पर उन्हें सबकुछ युक्तिसंगत लगा.

‘ठीक है, समय से तैयार हो जाना. मैं एक रिकशा तुम्हारे लिए तय कर दूंगी. वह तुम्हें वापस भी ले आएगा.’

ठीक साढ़े 8 बजे मिसेज दास एक रिकशे वाले को बुला कर लाईं. मैं उस पर बैठ कर स्टेशन की ओर चल पड़ा. स्टेशन के सामने वह मुझे उतार कर बोला, ‘मैं अपना रिकशा स्टैंड पर लगा कर स्टेशन

के सामने आप का इंतजार करूंगा.’

9 बजने में अभी 5 मिनट बाकी थे. अंदर से मैं थोड़ा घबरा रहा था. प्लेटफार्मों को जोड़ने वाले पुल पर आधी गुवाहाटी अपने चिथड़ों में लिपटी सो रही थी. घुप अंधेरा था. यह शर्मा कहीं किसी षड्यंत्र में मुझे फंसाने तो नहीं जा रहा, सोचते ही मेरी रीढ़ की हड्डी तक सिहर गई थी. अचानक मुझे पुल पर एक आदमी लगभग भागता हुआ आता दिखा. इस घुप अंधेरे में भी शर्माजी की आंखें मुझे पहचानने में धोखा न खाईं… ‘ये हैं 600 रुपए. इन्हें संभालो और फटाफट अपना रास्ता नाप लो.’

मैं आननफानन में सारे रुपए अपनी जेब में ठूंस कर वहां से चल दिया. बाहर आते ही मेरा रिकशा वाला मुझे मिल गया. मैं ने एक घंटे का समय ले रखा था. हम घर की तरफ वापस लौट पड़े. रास्ते भर पुलिस की सीटियों और चोरचोर पकड़ो का स्वर मेरे कानों में गूंजता रहा.

घर पर मेरी असहजता कोई भी भांप न पाया. मिसेज दास और जयशंकर दोनों जागे हुए थे. बरामदे के सामने रिकशे के रुकते ही दोनों बरामदे में आ गए, ‘क्या हुआ, इतनी जल्दी वापस क्यों आ गए?’

वह बिहारी होटल में था ही नहीं तो मैं उस के नाम एक परची पर यहां का पता लिख कर वापस आ गया. कब तक मैं उस का इंतजार करता. आप भी देर होने पर घबरातीं.

‘चाय पीओगे,’ बड़ी आत्मीयता से मिसेज दास बोलीं.

मैं यह भी नहीं चाहता था कि मिसेज दास मेरी असहजता भांप लें. थकावट का बहाना बना कर बरामदे में आ गया और अपनी चौैकी पर लेट कर एक पतली सी चादर अपने चेहरे तक तान ली. नींद तो मुझे आने से रही.

रात भर बुरेबुरे खयाल तसवीर बन कर मेरी आंखों के सामने आते रहे और एक अनजाने भय से मैं रात भर बस, करवटें ही बदलता रहा. रात में 2-3 बार मिसेज दास मेरी मच्छरदानी ठीक करने आईं. मैं झट अपनी आंखें मूंद लेता था. ये शर्माजी के 600 रुपए अभी तक मेरी दाईं जेब में ठुंसे पड़े थे जिन्हें सहेजने की मेरे पास हिम्मत न थी.

सुबह होते ही रात का भय जाता रहा. रोज की तरह अपनी दिनचर्या शुरू हुई. 10 बजे के बाद मैं अकेला था.

मैं बाहर निकला तो नुक्कड़ पर मुझे वही रिकशे वाला टकरा गया जो स्टेशन ले गया था. उस के रिकशे पर बैठ कर मैं पास के एक बाजार में गया. 2 घंटे की खरीदारी में मिसेज दास के लिए मैं ने एक ऊनी शाल खरीदी और एक जोड़ी ढंग की चप्पल भी.

जयशंकर के लिए एक रेडीमेड पैंट और कमीज खरीदी. इस के अलावा मैं ने तरहतरह की मौसमी सब्जियां, सेब, नारंगी, मिठाइयां और एक किलो रोहू मछली भी खरीदी. इस खरीदारी में 300 रुपए खर्च हो गए पर रास्ते भर मैं बस, यही सोच कर खुश होता रहा कि इतने सारे सामानों को देख कर मिसेज दास और जयशंकर कितने खुश होंगे.

जयशंकर कालिज से वापस घर आया तो सामान का ढेर देखते ही पूछा, ‘बाबा, का पैसा आ गया क्या?’

मैं ने उसे बताया कि मेरे ननिहाल वाला आदमी आया था. जबरदस्ती मेरे हाथ पर 600 रुपए रख गया. मेरे नाना से वापस ले लेगा. तुम मिठाई खाओ न.

जयशंकर बिना कोई प्रतिक्रिया दिखाए अपने कपड़े बदल कर दोपहर का खाना लगाने लगा. मैं उसे कुरेदता रहा पर वह बिना एक शब्द बोले सिर झुकाए खाना खाता रहा.

जब मैं थोड़ा सख्त हुआ तो वह कहने लगा. बस, तुम ने हमारा स्वाभिमान आहत किया है. इतने पैसे खर्च करने से पहले तुम्हें मां से बात कर लेनी चाहिए थी. मां को उपहारों से बड़ी घबराहट होती है.’

मिसेज दास के आने तक घर में एक अजीब सन्नाटा छाया रहा. जयशंकर चुपचाप उदास अपनी पढ़ाईलिखाई की मेज पर जा बैठा और मैं अपना अपराधबोध लिए बरामदे में आ कर चुपचाप तखत पर लेट गया.

करीब साढ़े 4 बजे मिसेज दास आईं और मुझे बरामदे में लेटा देख कर बोलीं, ‘इस गरमी में तुम बरामदे में क्यों लेटे हो? जयशंकर वापस नहीं आया है क्या?’

कमरे से अब सिर्फ जयशंकर की आवाज आ रही थी. वह असमी भाषा में पता नहीं क्याक्या अपनी मां को बताए जा रहा था. मैं अपनेआप को बड़ा उपेक्षित महसूस कर रहा था.

मिसेज दास कमरे से बाहर निकलीं. मैं अपना सिर नीचा किए रोए जा रहा था. उन्होंने बढ़ कर मेरा चेहरा अपने दोनों हाथों में ले कर पेट से लगा लिया और पीठ सहलाने लगीं. फिर अपने आंचल से मेरी आंखें पोंछ कर मुझे कमरे में ले गईं और पीने को एक गिलास पानी दिया. उस के बाद वह सारे सामान को खोल कर देखने लगीं. उन के इशारे पर जयशंकर भी अपने कपड़े नापने उठा. पैंट और कमीज दोनों उस के नाप के थे. शाल और चप्पल भी मिसेज दास को बड़े पसंद आए. वह सब्जियां और मिठाइयां सजासजा कर रखने लगीं. बारबार मुझे बस इतना ही सुनने को मिलता था, ‘इतना क्यों खरीदा? गुवाहाटी के सारे बाजार कल से उठने वाले थे क्या?’

मैं खुश था कि कम से कम घर का तनाव थोड़ा कम तो हुआ.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

अनोखा रिश्ता : भाग 2

दूसरे दिन सुबह मैं जयशंकर के साथ पोस्टआफिस गया. मैं ने घर पर एक टेलीग्राम डाल दिया. जब हम वापस आए, मिसेज दास बरामदे में खाना बना रही थीं. मैं ने उन के हाथ पर टेलीग्राम की रसीद और शेष पैसे रख दिए. मैं इस परिवार में कुल 6 दिन रहा था. इन 6 दिन में एक बार मिसेज दास ने मीट बनाया था और एक बार मछली.

एक दिन शाम को जयशंकर ने ही मुझे बताया कि बाबा के गुजरने के बाद मेरे चाचा एक बार मां के पास शादी का प्रस्ताव ले कर आए थे पर मां ने उसे यह कह कर ठुकरा दिया कि मेरे पास जयशंकर है जिसे मैं बस, उस के बाबा के साथ ही बांट सकती हूं और किसी के साथ नहीं. जयशंकर को अगर आप मार्गदर्शन दे सकते हैं तो दें वरना मुझे ही सबकुछ देखना होगा. मैं अपने पति की आड़ में उसे एक ऐसा मनुष्य बनाऊंगी कि उसे दुनिया याद करेगी.

मिसेज दास का असली नाम मनीषा मुखर्जी था और उन के पति का नाम प्रणव दास. जब मैं उन से मिला था तब मेरी उम्र 21 साल की थी और वह 42 वर्ष की थीं. उन के कमरे की मेज पर पति की एक मढ़ी तसवीर थी. मैं अकसर देखता था कि बातचीत के दौरान जबतब उन की नजर अपने पति की तसवीर पर टिक जाती थी, जैसे उन्हें हर बात की सहमति अपने पति से लेनी हो.

यह गुवाहाटी में मेरा तीसरा दिन था. मिसेज दास स्कूल जा चुकी थीं. जयशंकर भी कालिज जा चुका था. मैं घर पर अकेला था सो शहर घूमने निकल पड़ा. घूमतेघूमते स्टेशन तक पहुंच गया. अचानक मेरी नजर एक होटल पर पड़ी, जिस का नाम रायल होटल था. कभी  बचपन में अपने ममेरे भाइयों से सुन रखा था कि बगल वाले गांव के एक बाबू साहब का गुवाहाटी रेलवे स्टेशन के समीप एक होटल है. मैं बाबू साहब से न कभी मिला था और न उन्हें देखा था. मैं तो उन का नाम तक नहीं जानता था. पर मुझे यह पता था कि शाहाबाद जिले के बाबू साहब अपने नाम के पीछे राय लिखते हैं.

होटल वाकई बड़ा शानदार था. मैं ने एक बैरे को रोक कर पूछा, ‘इस होटल के मालिक राय साहब हैं क्या?’

‘हां, हैं तो पर भैया, यहां कोई जगह खाली नहीं है.’

‘मैं यहां कोई काम ढूंढ़ने नहीं आया हूं. तुम उन से जा कर इतना कह दो कि मैं चिलहरी के कौशल किशोर राय का नाती हूं और उन से मिलना चाहता हूं.’

थोड़ी देर बाद वह बैरा मुझे होटल के एक कमरे तक पहुंचा आया, जहां बाबू साहब अपने बेड पर एक सैंडो बनियान और हाफ पैंट पहने नाश्ता कर रहे थे. गले में सोने की एक मोटी चेन पड़ी थी. बड़े अनमने ढंग से उन्होंने मुझ से कुछ पीने को पूछा और उतने ही अनमने ढंग से मेरे नाना का हालचाल पूछा.

मुझे ऐसा लग रहा था कि जग बिहारी राय को बस, एक डर खाए जा रहा था कि कहीं मैं उन से कोई मदद न मांग लूं. अब उस कमरे में 2 मिनट भी बैठना मुझे पहाड़ सा लग रहा था. संक्षेप में मैं अपने ननिहाल का हालचाल बता कर उन्हें कोसता कमरे से बाहर निकल आया.

जयशंकर के पास बस, 2 जोड़ी कपड़े थे. बरामदे के सामने वाले कमरे की मेज उस के पढ़नेलिखने की थी पर उस की साफसफाई मिसेज दास खुद ही करती थीं. मैं उन्हें मां कह कर भी बुला सकता था पर मैं उन की ममता का एक अल्पांश तक न चुराना चाहता था. वैसे तो जयशंकर थोड़े लापरवाह तबीयत का लड़का था पर उसे यह पता था कि उस की मां के सारे सपने उसी से शुरू और उसी पर खत्म होते हैं. मिसेज दास हमारी मसहरी ठीक करने आईं. मैं अभी भी जाग रहा था तो कहने लगीं. ‘नींद नहीं आ रही है?’

‘नहीं, मां के बारे में सोच रहा था.’

‘भूख तो नहीं लगी है, तुम खाना बहुत कम खाते हो.’

मैं उठ कर बैठ गया और बोला, ‘मिसेज दास, मेरा मन घबरा रहा है. मैं आप के कमरे में आऊं?’

‘आओ, मैं अपने और तुम्हारे लिए चाय बनाती हूं.’

फिर मैं उन्हें अपने और अपने परिवार के बारे में रात के एक बजे तक बताता रहा और बारबार उन्हें धनबाद आने का न्योता देता रहा.

अगले दिन गुवाहाटी के गांधी पार्क में मेरी मुलाकात एक बड़े ही रहस्यमय व्यक्ति से हुई. वह सज्जन एक बैंच पर बैठ कर अंगरेजी का कोई अखबार पढ़ रहे थे. मैं भी जा कर उन की बगल में बैठ गया. देखने में वह मुझे बड़े संपन्न से लगे. परिचय के बाद पता चला कि उन का पूरा नाम शिव कुमार शर्मा था. वह देहरादून के रहने वाले थे पर चाय का व्यवसाय दार्जिलिंग में करते थे. व्यापार के सिलसिले में उन का अकसर गुवाहाटी आनाजाना लगा रहता था.

2 दिन पहले जिस ट्रेन में सशस्त्र डकैती पड़ी थी, उस में वह भी आ रहे थे अत: उन्हें अपने सारे सामान से तो हाथ धोना ही पड़ा साथ ही उन के हजारों रुपए भी लूट लिए गए थे. उन्हें कुछ चोटें भी आईं, जिन्हें मैं देख चुका था. डकैतों का तो पता न चल पाया पर एक दक्षिण भारतीय के घर पर उन्हें शरण मिल गई जो गुवाहाटी में एक पेट्रोल पंप का मालिक था.

मैं ने उन की पूरी कहानी तन्मय हो कर सुनी. अब अपने बारे में कुछ बताने में मुझे बड़ी झिझक हुई. यह सोच कर कि जब मैं उन की बातों का विश्वास न कर पाया तो वह भला मेरी बातों का भरोसा क्यों करते? उन्हें बस, इतना ही बताया कि धनबाद से मैं यहां अपने एक दोस्त से मिलने आया हूं.

वह मुझे ले कर एक कैफे में गए जहां हम ने समोसे के साथ कौफी पी.  वहीं उन्होंने मुझे बताया कि जिस दक्षिण भारतीय के घर वह ठहरे हैं वह लखपति आदमी है. मैं घर से बाहर निकला नहीं कि जेब में 200 रुपए जबरन ठूंस देता है.

‘तुम अपने दोस्त से मिलने आए हो?’ उन्होंने पूछा तो मैं ने हां में अपनी गरदन हिला दी.

‘क्या करता है तुम्हारा दोस्त?’

‘बी.एससी. कर रहा है, सर.’

‘उस के मांबाप मालदार हैं?’

‘नहीं, वह विधवा मां का इकलौता बेटा है. मां एक प्राइमरी स्कूल में पढ़ाती हैं. फिर मैं ने उन्हें मिसेज दास के बारे में थोड़ाबहुत संक्षेप में बताया. कैफे के बाहर अचानक शर्माजी ने मुझ से पूछा, ‘आज शाम को तुम क्या कर रहे हो?’

‘कुछ खास नहीं.’

‘तुम 9 बजे के आसपास मुझ से शहर में कहीं मिल सकते हो?’

‘पर कहां? यहां तो मैं पहली बार आया हूं.’

वह कुछ सोचते हुए बोले, ‘ऐसा करो, तुम आज मेरा इंतजार रात के 9 बजे गुवाहाटी स्टेशन के पुल पर करना जो सारे प्लेटफार्मों को जोड़ता है. तुम समय से वहां पहुंच जाना क्योंकि मेरे पास शायद तब उतना समय न होगा कि तुम्हारे  किसी सवाल का जवाब दे सकूं.’

आशंकाओं की धुंध लिए मैं घर वापस आया. मिसेज दास खाना बना रही थीं. जयशंकर उन की मदद कर रहा था. मुझे देखते ही जयशंकर कहने लगा, ‘अगर तुम आने में थोड़ा और देर करते तो मां मुझे तुम्हारी खोज में भेजने वाली थीं. दोपहर का खाना भी तुम ने नहीं खाया.’

मैं माफी मांग कर हाथमुंह धोने चला गया. मेरे दिमाग में बस, एक ही सवाल कुंडली मारे बैठा था कि मिसेज दास को कौन सी कहानी गढ़ के सुनाऊं ताकि वह निश्ंिचत हो कर मुझे शर्माजी से मिलने की अनुमति दे दें.

हाथमुंह धो कर मैं बरामदे में आ गया और आ कर चौकी पर चुपचाप बैठ गया. इस शर्मा से मेरा कोई कल्याण होने वाला है, यह भनक तो मुझे थी पर मैं मिसेज दास को कौन सा बहाना गढ़ कर सुनाऊं, यह मेरे दिमाग में उमड़घुमड़ रहा था.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

अनोखा रिश्ता : भाग 1

जयशंकर से गले मिल कर जब मैं अपनी सीट पर जा कर बैठा तो देखा मनीषा दास आंचल से अपनी आंखें पोंछे जा रही थीं. उन के पांव छूते समय ही मेरी आंखें नम हो गई थीं. धीरेधीरे टे्रन गुवाहाटी स्टेशन से सरकने लगी और मैं डबडबाई आंखों से उन्हें ओझल होता देखता रहा.

इस घटना को 25 वर्ष बीत चुके हैं. इन 25 वर्षों में जयशंकर की मां को मैं ने सैकड़ों पत्र डाले. अपने हर पत्र में मैं गिड़गिड़ाया, पर मुझे अपने एक पत्र का भी जवाब नहीं मिला. मुझे हर बार यही लगता कि श्रीमती दास ने मुझे माफ नहीं किया. बस, यही एक आशा रहरह कर मुझे सांत्वना देती रही कि जयशंकर अपनी मां की सेवा में जीजान से लगा होगा.

मेरे लिए मनीषा दास की निर्ममता न टूटी जिसे मैं ने स्वयं खोया, अपनी एक गलती और एक झूठ की वजह से. इस के बावजूद मैं नियमित रूप से पत्र डालता रहा और उन्हें अपने बारे में सबकुछ बताता रहा कि मैं कहां हूं और क्या कर रहा हूं.

एक जिद मैं ने भी पकड़ ली थी कि जीवन में एक बार मैं श्रीमती दास से जरूर मिल कर रहूंगा. असम छोड़ने के बाद कई शहर मेरे जीवन में आए, बनारस, इलाहाबाद, लखनऊ, दिल्ली, देहरादून फिर मास्को और अंत में बर्लिन. इन 25 वर्षों में मुझ से सैकड़ों लोग टकराए और इन में से कुछ तो मेरी आत्मा तक को छू गए लेकिन मनीषा दास को मैं भूल न सका. वह जब भी खयालों में आतीं  मेरी आंखें नम कर जातीं.

मां की तबीयत खराब चल रही थी. 6 सप्ताह की छुट्टी ले कर भारत आया था. मां को देखने के बाद एक दिन अनायास ही मनीषा दास का खयाल जेहन में आया तो मैं ने गुवाहाटी जाने का फैसला किया और अपने उसी फैसले के तहत आज मैं मां समान मनीषा दास से मिलने जा रहा हूं.

गुवाहाटी मेल अपनी रफ्तार से चल रही थी. मैं वातानुकूलित डब्बे में अपनी सीट पर बैठा सोच रहा था कि यदि श्रीमती दास ने मुझे अपने घर में घुसने नहीं दिया या फिर मुझे पहचानने से इनकार कर दिया तब? इस प्रश्न के साथ ही मैं ने मन में दृढ़ निश्चय कर लिया कि चाहे जो हो पर मैं अपने मन की फांस को निकाल कर ही आऊंगा.

मेरे जेहन में 25 साल पहले की वह घटना साकार रूप लेने लगी जिस अपराधबोध की पीड़ा को मन में दबाए मैं अब तक जी रहा हूं.

मैं गुवाहाटी मेडिकल कालिज में अपना प्रवेश फार्म जमा करवाने गया था. रास्ते में मेरा बटुआ किसी ने निकाल लिया. उसी में मेरे सारे पैसे और रेलवे के क्लौक रूम की रसीद भी थी. इस घटना से मेरी तो टांगें ही कांपने लगीं. मैं सिर पकड़ कर प्लेटफार्म की एक बेंच पर बैठ गया.

इस परदेस में कौन मेरी बातों पर भरोसा करेगा. मुझे कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था. तभी एक लड़का मेरे पास समय पूछने आया. मैं ने अपनी कलाई उस की ओर बढ़ा दी. वह स्टेशन पर किसी को लेने आया था. समय देख कर वह भी मेरे बगल में बैठ गया. थोड़ी देर तक तो वह चुप रहा फिर अपना परिचय दे कर मुझे कुरेदने लगा कि मैं कहां से हूं, गुवाहाटी में क्या कर रहा हूं? मैं ने थोड़े में उसे अपना संकट सुना डाला.

थोड़ी देर की खामोशी के बाद वह बोला, ‘धनबाद का किराया भी तो काफी होगा.’

‘हां, 100 रुपए है.’ यह सुन कर वह बोला कि यह तो अधिक है. पर

तुम  अपना जी छोटा न करो. मां को आने दो उन से बात करेंगे.

तभी एक टे्रन आने की घोषणा हुई और वह लड़का बिना मुझ से कुछ कहे उठ गया. उस की बेचैनी मुझ से छिपी न थी. ट्रेन के आते ही प्लेट-फार्म पर ऐसी रेलपेल मची कि वह लड़का मेरी आंखों से ओझल हो गया.

15 मिनट बाद जब प्लेटफार्म से थोड़ी भीड़ छंटी तो मैं ने देखा कि वह लड़का अपनी मां के साथ मेरे सामने खड़ा था. मैं ने उठ कर उन के पांव को छुआ तो उन्होंने धीरे से मेरा सिर सहलाया और बस, इतना ही कहा, ‘जयशंकर बता रहा था कि तुम्हारा सूटकेस क्लौक रूम में है जिस की रसीद तुम गुम कर चुके हो. सूटकेस का रंग तो तुम्हें याद है न.’

मैं उन के साथ क्लौक रूम गया. अपना पता लिखवा कर वह सूटकेस निकलवा लाईं. जयशंकर ने अपनी साइकिल के कैरियर पर मेरा सूटकेस लाद लिया और मैं ने उस की मां का झोला अपने कंधे से लटका लिया. पैदल ही हम घर की तरफ चल पड़े.

आगेआगे जयशंकर एक हाथ से साइकिल का हैंडल और दूसरे से मेरा सूटकेस संभाले चल रहा था, पीछेपीछे मैं और उस की मां. जयशंकर का घर आने का नाम ही न ले रहा था. रास्ते भर उस की मां ने मुझ से एक शब्द तक न कहा, वैसे जयशंकर ने मुझे पहले ही बता दिया था कि मेरी मां सोचती बहुत हैं बोलती बहुत कम हैं. तुम इसे सहज लेना.

रास्ते भर मैं जयशंकर की मां के लिए एक नाम ढूंढ़ता रहा. उन के लिए मिसेज दास से उपयुक्त कोई दूसरा नाम न सूझा.

आखिरकार हम एक छोटी सी बस्ती में पहुंचे, जहां मिसेज दास का घर था, जिस की ईंटों पर प्लास्टर तक न था. देख कर लगता था कि सालों से घर की मरम्मत नहीं हुई है. छत पर दरारें पड़ी हुई थीं. कई जगहों से फर्श भी टूटा हुआ था पर कमरे बेहद साफसुथरे थे. दरवाजों और खिड़कियों पर भी हरे चारखाने के परदे लटक रहे थे. इन 2 कमरों के अलावा एक और छोटा सा कमरा था जिस में घर का राशन बड़े करीने से सजा कर रखा गया था.

मिसेज दास ने मुझे एक तौलिया पकड़ाते हुए हाथमुंह धोने को कहा. जब मैं बाथरूम से बाहर निकला तो संदूक पर एक थाली में कुछ लड्डू और मठरी देखते ही मेरी जान में जान आ गई.

मिसेज दास ने आदेश देते हुए कहा, ‘तुम जयशंकर के साथ थोड़ा नाश्ता कर लो फिर उस के साथ बाजार चले जाना. जो सब्जी तुम्हें अच्छी लगे ले आना. तब तक मैं खाने की तैयारी करती हूं.’

नाश्ता करने के बाद मैं जयशंकर के साथ सब्जी खरीदने के लिए बाजार चला गया. वापस लौटने तक मिसेज दास पूरे बरामदे की सफाई कर के पानी का छिड़काव कर चुकी थीं. दोनों चौकियों पर दरियां बिछी हुई थीं और वह एक गैस के स्टोव पर चावल बना रही थीं. घर वापस आते ही जयशंकर अपनी मां के साथ रसोई में मदद करने लगा और मैं वहीं बरामदे में बैठा अपनी वर्तमान दशा पर सोचता रहा. कब आंख लग गई पता ही न चला.

जयशंकर के बुलाने पर मैं बरामदे से कमरे में पहुंचा और दरी पर पालथी मार कर बैठ गया. मिसेज दास सारा खाना कमरे में ही ले आईं और मेरे सामने अपने पैर पीछे की तरफ मोड़ कर बैठ गईं. जहां हम बैठे थे उस के ऊपर बहुत पुराना एक पंखा घरघरा रहा था. खाने के दौरान ही मिसेज दास ने कहना शुरू किया, ‘बेटा, हम तो गुवाहाटी में बस, अपनी इज्जत ढके बैठे हैं. 100-200 रुपए की सामर्थ्य भी हमारे पास नहीं है. मुझे दीदी को लिखना होगा. पैसे आने में शायद 8-10 दिन लग जाएं. तुम कल सुबह जयशंकर के साथ जा कर अपने घर पर एक टेलीग्राम डाल दो वरना तुम्हारे मातापिता चिंतित होंगे.’

मेरा मन भर आया. सहज होते ही मैं ने उन से कहा, ‘इतने दिनों में तो मेरे घर से भी पैसे आ जाएंगे. आप अपनी दीदी को कुछ न लिखें. मैं तो यह सोच कर परेशान हूं कि 8-10 दिन तक आप पर बोझ बना रहूंगा…’

‘तुम ऐसा क्यों सोचते हो,’ मिसेज दास ने बीच में ही मुझे टोकते हुए कहा, ‘जो रूखासूखा हम खाते हैं तुम्हारे साथ खा लेंगे.’

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

कर्तव्य : क्या दीपक और अवनि खरे उतरे

कर्तव्य : भाग 5

अवनि कुछ पूछने ही वाली थी कि दीपक के कराहने की आवाज आई और उस के हाथों की उंगलियां हिलने लगीं. नर्स भागते हुए डाक्टर को बुलाने गई और अवनि ने दीपक का हाथ पकड़ लिया. डाक्टर आए, उन्होंने अवनि और नीरज को बाहर जाने को कहा और दीपक को चैक करने लगे. थोड़ी देर बाद नर्स बाहर आई और बोली, ‘‘आप लोग अंदर आ सकते हैं.’’ अंदर आ कर देखा तो दीपक की आंखें खुली थीं और वह सब को देख रहा था. उस ने अवनि को देख कर हाथ उठाने की कोशिश की पर वह फिर धीरे से हाथ नीचे करता हुआ फिर बेहोश हो गया.

डाक्टर सब को बाहर लाए और बोले, ‘‘अब दीपक जल्दी ठीक हो जाएगा, सुबह तक उसे पूरी तरह होश आ जाएगा.’’ अवनि और नीरज फिर होटल आ गए.

सुबह 8 बजे दोनों अस्पताल पहुंचे. अंदर जाने से पहले नीरज ने अवनि से कहा, ‘‘देखो, दीपक को होश आने के बाद उस से ज्यादा बात नहीं करना और न ही पूछताछ, गुस्सा तो बिलकुल नहीं. उस के पूरी तरह ठीक होने के बाद फिर तुम जानो और वो, मैं फिर बीच में नहीं बोलूंगा.’’

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अवनि ने ‘‘हां’’ कहा और दोनों मुसकराते हुए रूम में गए तो देखा दीपक को होश आ चुका था. नर्स ने कहा, ‘‘ये अभी बोलने की स्थिति में नहीं हैं और डाक्टर भी चैक कर के जा चुके हैं.’’ अवनि वहीं बैठ गई. उस ने नर्स को देखा, वह खुश थी, उस के चेहरे पर थकान का नामोनिशान नहीं था.

अवनि ने नर्स से कहा, ‘‘अब तो आप घर जा सकती हो, अब तो इन्हें होश भी आ गया.’’ अवनि ने ‘इन्हें’ शब्द पर जोर दे कर कहा तो नर्स भी मुसकरा कर बोली, ‘‘हां, बस, आप एक घंटे बाद इन्हें ये 2 गोलियां और फिर एक घंटे बाद यह सीरप दे दीजिएगा और प्लीज, इन से ज्यादा बात नहीं करना. इन्हें तकलीफ होगी. गोली और सीरप लेने के बाद इन्हें नींद आ जाएगी. तब तक मैं भी जाऊंगी,’’ कहती हुई नर्स चली गई.

अवनि दीपक को देखने लगी. दीपक कुछ कहना चाह रहा था, उस के होंठ हिले तो अवनि ने उसे इशारे से चुप रहने को कहा. समय पर अवनि ने उसे दवा दी और फिर वह सो गया. शाम होने से पहले नर्स भी आ गई. उस ने आते ही दीपक को चैक किया, फिर रिपोर्ट लिखी. डाक्टर ने भी चैक किया. करीब 2 हफ्ते तक अवनि ने दीपक की खूब सेवा की और समय पर उसे दवाइयां व खाना देती रही. जल्दी ही दीपक थोड़ा ठीक हुआ और कुछकुछ बोलने की स्थिति में भी आ गया. अवनि और नीरज को उस ने अपनी इस स्थिति के बारे में अभी भी कुछ नहीं बताया और न ही अवनि ने कुछ पूछा. बस, साधारण बातें ही कीं.

रात को नीरज ने अवनि से कहा, ‘‘अब दीपक ठीक हो रहा है. कुछ दिनों में पूरी तरह ठीक हो जाएगा. अब हमें वापस घर चलना चाहिए. सुहानी के स्कूल से भी फोन आया था. उस के एग्जाम शुरू होने वाले हैं. एग्जाम के बाद हम फिर आ जाएंगे. बीचबीच में उस से फोन पर बात करते रहना.’’ अवनि का जाने का मन तो नहीं था पर बच्ची के एग्जाम के कारण उस ने हां कह दी. फिर अब दीपक भी अच्छा हो ही रहा था.

अगले दिन नीरज डाक्टर के पास गए. उन्हें अपने जाने के बारे में बता कर फिर कुछ रुपयों का चैक दिया और दीपक के रूम में गए. अवनि और नीरज ने दीपक से कहा, ‘‘अपना ध्यान रखना, बच्ची की परीक्षा नहीं होती तो हम नहीं जाते.’’ दीपक ने बच्ची को देखने की इच्छा जाहिर की तो बोले, ‘‘बाहर खेल रही है, उसे अंदर नहीं लाते और वैसे भी यहां छोटे बच्चों का आना मना है.’’ फिर दोनों ने दीपक से ‘अपना ध्यान रखना’ कहते हुए विदा ली और अवनि ने नर्स की ओर देख कर कहा, ‘‘इन का अच्छे से ध्यान रखोगी, यह हमें पूरा विश्वास है. इन्हें अकेला मत छोड़ना कभी.’’ नर्स ने शरमाते हुए हां में सिर हिला दिया.

करीब 20 दिन तक सुहानी के एग्जाम चले, फिर रिजल्ट के कुछ दिनों बाद उस की धमाचौकड़ी, फिर स्कूल रीओपन, उस की ड्रैस, किताबें आदि की खरीदारी, पढ़ाई, इस सब के कारण होने वाली थकान के बावजूद भी अवनि 2-3 दिन में दीपक से बात कर लेती थी. इस सब में वक्त कैसे गुजर गया, पता ही नहीं चला.

‘‘मम्मी, मम्मी उठो, कोई अंकलआंटी आए हैं, बाहर आप का इंतजार कर रहे हैं. उठो, उठो,’’ अवनि का हाथ जोरजोर से हिलाते हुए सुहानी ने उसे उठा दिया. ‘‘कौन आया है, क्यों चिल्ला रही हो… अच्छा जाओ, तुम खेलो. मैं देखती हूं,’’ कहती हुई वह बाहर आई तो उस के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा. सामने खड़े हुए व्यक्ति को देखते ही हंसते हुए जोर से चिल्लाई, ‘‘दीपक, तुम यहां? कैसे हो? कब आए? बताया भी नहीं? फोन तो करते?’’ अपने वही पुराने अंदाज में सवालों की बौछार करते हुए उस की आंखों से आंसू निकल आए. फिर थोड़ा संभल कर बोली, ‘‘ये कौन है? अच्छा, ये तो…’’

‘‘दीपक की ज्योति है,’’ यह आवाज सुन कर वह चौंकी और दरवाजे की तरफ देखा तो वहां नीरज खड़े थे. उन्होंने कहा, ‘‘जी हां, यह है दीपक की ज्योति, वही… हौस्पिटल वाली नर्स. इन का चक्कर कई महीनों से चल रहा था, पर हमें कुछ बताया नहीं. इस शहर में आ गए, फिर भी खबर नहीं दी. वह तो मुझे बसस्टैंड पर टैक्सी में बैठते हुए दिख गए.’’

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‘‘फिर आप ने मुझे फोन क्यों नहीं किया,’’ अवनि ने पूछा.

‘‘इन्होंने मना कर दिया, पूछो इन से,’’ नीरज बोले, ‘‘अरे भाई, कुछ बोलते क्यों नहीं, चुप क्यों खड़े हो, बोलो.’’

‘‘क्या बोलूं, कैसे बोलूं, मुझे बोलने का मौका तो दो, तुम दोनों ही बोले जा रहे हो,’’ दीपक ने कहा तो दोनों ने हंसते हुए कहा, ‘‘सौरी, बैठो और बताओ.’’

‘‘मैं तुम दोनों को सरप्राइज देना चाहता था,’’ फिर अवनि की तरफ देख कर बोला, ‘‘मुझे अचानक सामने देख कर तुम्हारी खुशी और अपने प्रति प्यार को देखना चाहता था… और मैं ने देख भी लिया कि तुम मुझे कितना प्यार करती हो. मैं बहुत खुश हूं कि तुम मेरी दोस्त हो और नीरज भी,’’ दीपक ने कहा, ‘‘मुझे ज्योति और डाक्टर ने सब बता दिया. तुम लोगों ने मेरे लिए क्याक्या किया और कितनी परेशानी उठाई. मैं तुम लोगों का हमेशा एहसानमंद रहूंगा.’’

‘‘दोस्ती में एहसान शब्द नहीं होता. यह मेरा फर्ज था. तुम ने भी तो मेरे लिए क्याकुछ नहीं किया. यहां तक कि अपनी सेहत खराब होने के बाद भी मेरे साथ रहे. मेरी मदद की और खुद तकलीफ उठाई,’’ अवनि ने कहा.

इस तरह गिलेशिकवे, शिकायतगुस्सा, हंसीमजाक में रात हो गई. ‘‘क्या तुम दोनों ने शादी कर ली?’’ अवनि ने पूछा.

‘‘नहीं, तुम को बिना बताए और बिना बुलाए तो शादी होती ही नहीं,’’ दीपक ने कहा. अवनि ने ज्योति को छेड़ते हुए कहा, ‘‘क्यों ज्योति, ‘इन्हें’ बहुत प्यार करती हो न. इन से शादी करने का इरादा है?’’ ज्योति ने ‘हां’ में सिर हिलाया. अवनि ने फिर कहा,’’ इन्होंने तुम्हारे घर वालों की रजामंदी भी ली होगी.’’ इस बार ज्योति शरमाते हुए ‘हां’ बोल कर वहां से थोड़ा आगे चली गई.

‘‘ज्योति ने भी तुम्हारा खूब ध्यान रखा. बहुत सेवा की है उस ने तुम्हारी. कितने दिनों तक वहीं रही. घर भी नहीं जाती थी. बहुत अच्छी लड़की है. अब तो तुम दोनों की शादी बहुत धूमधाम से करेंगे,’’ अवनि ने कहा तो नीरज ने भी अवनि की बात से सहमति जताई.

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2 महीने बाद दीपकज्योति की शादी धूमधाम से हुई. दीपक ने अपना औफिस फिर से जौइन कर लिया और ज्योति ने भी शादी के कुछ दिनों बाद एक अस्पताल में नर्स की नौकरी कर ली. सब का मिलनाजुलना बदस्तूर जारी था और सब जिंदगी आराम से जी रहे थे.

कर्तव्य : भाग 4

डाक्टर के पास गए तो उन्होंने बताया, ‘‘कुछ सालों से दीपक के फेफड़ों में संक्रमण है जो उसे गैराज में काम करते हुए धूल व धुएं के कारण हो गया था. पहले भी उस का इलाज यहां होता रहा और उसे भरती होने के लिए कहा गया. पर उस ने कहा था, ‘मेरे ऊपर कुछ महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी है और मेरी दोस्त की शादी भी है.’ यह कह कर उस ने सभी जरूरी दवाइयां ली और चला गया. फिर बाद में आया ही नहीं. अभी जब वह यहां आया तो उस की स्थिति बेहद गंभीर थी. अभी भी कुछ कहा नहीं जा सकता.’’

अवनि ने नीरज को देखा फिर डाक्टर से कहा, ‘‘उस के इलाज में कोई कमी नहीं रहनी चाहिए, डाक्टर साहब.’’

‘‘देखिए, हम अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहे हैं. सबकुछ हमारे हाथ में नहीं है. और मैं आप को यह भी बता दूं कि उस का इलाज लंबा है पर 90 फीसदी चांसेज हैं कि वह ठीक हो जाए. पर कुछ हमारी भी मजबूरियां हैं.’’ डाक्टर ने कहा.

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अवनि ने पूछा, ‘‘कैसी मजबूरी?’’ तो डाक्टर ने थोड़ा सकुचाते हुए कहा, ‘‘कुछ दवाइयां हैं जो यहां नहीं मिलतीं, उन्हें और्डर दे कर मुंबई या फिर चैन्नई से मंगवाना पड़ता है और कंपनी को कुछ ऐडवांस भी देना पड़ता है. दीपक ने जो रकम यहां जमा की थी वह सब खत्म हो गई. उस के औफिस से भी एक बार 50 हजार रुपए का चैक आया था. वह भी दवाई और अस्पताल के चार्ज में लग गया. उसे बाहर तो नहीं कर सकते, पर कुछ ही दिनों में हम उसे जनरल वार्ड में शिफ्ट करने वाले हैं.’’

दीपक की ऐसी स्थिति के बारे में सुन कर अवनि अपना रोना रोक नहीं सकी और बाहर आ गई. नीरज ने डाक्टर से कहा, ‘‘अब आप रुपयों की चिंता न करें और जो दवाइयां बाहर से मंगवानी हों, फौरन मंगवाए और दीपक का इलाज करें.’’ यह कहते हुए नीरज ने अपने बैग से चैकबुक निकाली और 1 लाख रुपए का चैक बना कर डाक्टर को दे दिया. डाक्टर ने चैक लेते हुए कहा, ‘‘आप निश्चिंत रहिए. मैं आज ही ईमेल कर दवाइयां का और्डर दे देता हूं और कल ड्राफ्ट से ऐडवांस भी भेज दूंगा. कल रात तक फ्लाइट से दवाइयां भी आ जाएंगी, फिर हम उस का बेहतर इलाज कर पाएंगे. उम्मीद रखिए. 1-2 महीने में वह बिलकुल ठीक हो जाएगा.’’

नीरज डाक्टर के रूम से बाहर आए तो देखा कि बच्ची सो गई थी. नीरज ने अवनि के कंधे पर हाथ रखा तो उन्हें देख कर उस की आंखों में आंसू आ गए और वह हाथ जोड़ कर उम्मीदभरी नजरों से नीरज को देखने लगी.

नीरज सब समझ गए. उस ने अवनि के हाथों को पकड़ा और उसे गले लगाते हुए कहा, ‘‘मैं सब समझता हूं, तुम दीपक की चिंता मत करो. हम उस का अच्छे से अच्छा इलाज करवाएंगे.’’ यह कहते हुए उस ने अभी अंदर डाक्टर से हुई बात सविस्तार बता दी. अवनि ने थैंक्यू कहा और रोने लगी. नीरज ने कहा, ‘‘दीपक तुम्हारा दोस्त है तो मेरा भी दोस्त हुआ. तुम यों हाथ जोड़ कर और थैंक्यू बोल कर मुझे शर्मिंदा मत करो.’’

थोड़ी देर बाद सुहानी सो कर उठी और रोने लगी तो नीरज उसे खिलाते हुए बाहर निकल गए. अवनि ने थोड़ी देर बाद कुछ सोचते हुए सिर हिलाया. वह अब समझ गई थी कि क्यों दीपक इतने दिनों तक गायब था, वह इतना कमजोर क्यों हो गया और शादी की खरीदारी के लिए अकेले ही इंदौर क्यों आया, खरीदारी  तो एक बहाना था अपनी बीमारी के बारे में उसे बताने से बचने का, और उस ने बैग क्यों नहीं दिखाया, उस में जरूर दवाइयां, डाक्टर के परचे और बिल रहे होंगे.

कुछ ही देर में नीरज और सुहानी आए और अवनि के पास बैठ गए. दोनों ने फिर अपना सामान गाड़ी में रखा और पास के होटल में रूम ले कर आराम करने लगे. अवनि और नीरज ने सुहानी को खाना खिलाया और खुद भी जैसेतैसे थोड़ा खाना खाया और फिर नीरज और सुहानी सो गए, पर अवनि को नींद नहीं आ रही थी. उसे रहरह कर दीपक की बातें याद आतीं. उस के साथ घूमना, पढ़ना, काम करना और हंसीमजाक के साथसाथ छोटीछोटी बातों पर लड़नाझगड़ना वगैरह. यही सोचतेसोचते वह भी सो गई.

अगले दिन सुबह दोनों फिर अस्पताल गए. डाक्टर ने बताया, ‘‘दीपक को होश नहीं आया, हमारी दी हुई दवाइयां असर नहीं कर रही हैं, शायद मुंबई से आई दवाइयां असर कर जाएं. दवाइयां रात तक ही आएंगी, तभी कुछ कर सकते हैं.’’ डाक्टर के ऐसा कहते ही अवनि दीपक के पास बैठ गई. एक घंटे बाद नीरज ने अवनि से कहा, ‘‘यहां बैठने से कोई फायदा नहीं. होटल चलते हैं. कुछ खा कर आराम करो. रात में फिर आएंगे.’’ फिर दोनों होटल चल गए.

रात को 8 बजे दोनों फिर अस्पताल पहुंचे और सीधे डाक्टर के पास गए और दवाइयों के बारे में पूछताछ की. डाक्टर ने बताया, ‘‘दवाइयां शहर में आ चुकी हैं. लगभग एक घंटे में एयरपोर्ट से अस्पताल पहुंच जाएंगी.’’

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दोनों दवाइयों के इंतजार में बैठ गए. अवनि को यह एक घंटा बहुत ज्यादा लगने लगा. जैसे ही दवाइयां डाक्टर के पास पहुंचीं, उन्होंने उसी नर्स को बुलाया जिस पर दीपक की देखरेख का जिम्मा था. उन्होंने नर्स को दवाइयां से संबंधित कुछ समझाया और थोड़ी सावधानी बरतने की सलाह दे कर दवाइयों के साथ उसे दीपक के कमरे में भेजा. डाक्टर ने नीरज और अवनि से कहा, ‘‘आप बाहर बैठिए, हम उस का इलाज शुरू करते हैं, आप चिंता न करें, सब ठीक होगा.’’

करीब 2 घंटे बाद डाक्टर और नर्स दीपक के रूम से बाहर आए तो नीरज और अवनि बाहर ही खड़े थे. डाक्टर ने कहा, ‘‘दवाई दे दी हैं, अगले 8 घंटे में उस का असर दिखना शुरू हो जाएगा, नहीं तो…’’ यह कह कर डाक्टर चले गए. अवनि को तो यह सुनते ही चक्कर आने लगे, दोनों वहीं बैठ गए सुबह के इंतजार में. बीचबीच में डाक्टर आते और दीपक को चैक कर के चले जाते. नीरज बच्ची को ले कर होटल चले गए, पर अवनि वहीं बैठी रही.

सुबह करीब 7 बजे दीपक को देखने डाक्टर आए और करीब आधे घंटे बाद बाहर आ कर अवनि से बोले, ‘‘दवाइयों ने थोड़ा असर करना शुरू कर दिया है, अभी हालत ठीक हैं, पर पूरी तरह से नहीं कहा सकता कि कितने दिन और लगेंगे. आप लोग चाहें तो वापस जा सकते हैं. उस की हालत खतरे से बाहर है. और हां, आप उस के पास कुछ देर बैठ सकते हैं.’’ अवनि अंदर गई तो देखा वही नर्स दीपक को औक्सीजन मास्क, इंजैक्शन लगा रही थी. उस की आंखों से लगता था कि वह भी रातभर नहीं सोई. अवनि के पूछने पर उस ने भी ‘हां’ ही कहा.

फिर अवनि और नर्स आपस में धीरेधीरे बातें करने लगीं. अवनि ने नर्स से कहा, ‘‘तुम जा कर थोड़ा आराम कर लो, मैं यहीं बैठती हूं.’’ नर्स ने एकदम से कहा, ‘‘नहीं, मैं इन्हें ऐसी हालत में छोड़ कर नहीं जाऊंगी.’’ फिर थोड़ा रुक कर बोली, ‘‘मतलब, नहीं जा सकती, यह मेरी ड्यूटी है.’’

अवनि ने आश्चर्य से नर्स को देखा तो वह फिर अपने काम में लग गई. थोड़ी ही देर में नीरज, सुहानी को बाहर छोड़ कर अंदर आए तो अवनि ने डाक्टर द्वारा कही गई बात नीरज को बता दी तो वे मुसकराकर बोले, ‘‘अब दीपक जल्दी ही ठीक हो जाएगा.’’

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दोपहर को डाक्टर आए. दीपक को चैक करने के बाद बोले, ‘‘रात तक होश आ जाएगा.’’ वे इतना कह कर चले गए. अवनि आज खुश थी. रात 8 बजे दोनों फिर अस्पताल गए. नर्स अभी भी वहीं थी. अवनि ने पूछा तो वह बोली, ‘‘मैं घर नहीं जाऊंगी, जब तक ये होश में नहीं आ जाते.’’ अवनि सोचने लगी, ऐसी नर्स तो पहली बार देखी जो मरीज की सेवा करने के कारण घर न जाए. उस ने नर्स को देखा तो नर्स ने सिर नीचे कर लिया.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

कर्तव्य : भाग 3

कई दिनों तक नीरज ने अवनि और उस के काम पर नजर रखी. उसे अवनि की सादगी, व्यवहार और काम करने का तरीका काफी पसंद आया (शायद अवनि भी). अब वह औफिस के हर मामले में उस की सलाह लेने लगा. एकदो बार तो उस ने पर्सनल मामले में भी उस से पूछ लिया. नीरज और अवनि को साथसाथ काम करते हुए कई महीने हो गए. नीरज अवनि को चाहने भी लगा था, शायद अवनि भी नीरज को. लेकिन दोनों एकदूसरे से मन की बात कह नहीं पा रहे थे. दीपक को अवनि की बातों से इस का अंदाजा हो गया था.

दीपक ने अवनि की मां को नीरज के बारे में बताया. मां ने कहा, ‘‘तुम अवनि को अच्छी तरह जानते हो. उस की पसंदनापसंद भी समझते हो. तुम ही बात करना उस से. लेकिन पहले नीरज के बारे में जानकारी हासिल कर लो कि कैसा लड़का है, उस का परिवार, व्यवहार आदि.’’ दीपक ने मां को आश्वासन दिया कि वे चिंता न करें, वह सब देख लेगा.

एक दिन रविवार की दोपहर नीरज अवनि के घर पहुंच गया और बोला, ‘‘यहां से गुजर रहा था तो सोचा तुम से और तुम्हारी मां से भी मिलता चलूं.’’ अवनि ने नीरज को अपनी मां व छोटी बहन से मिलवाया. फिर हंसती हुई बोली, ‘‘ये है मेरा बैस्ट फ्रैंड दीपक.’’

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‘‘अच्छा तो ये हैं दीपक, आप के बारे में अवनि से कई बार सुन चुका हूं,’’ नीरज ने कहा.

सब ने आपस में कुछ देर बातें कीं. तभी दीपक ने मां से धीरे से कहा, ‘‘शादी की बात करने का अच्छा मौका है.’’ मां जैसे ही नीरज से कुछ कहने को हुईं, एकदम से नीरज ने अपनी और अपने परिवार की जानकारी देने के बाद कहा, ‘‘मुझे अवनि पसंद है और मैं उस से शादी करना चाहता हूं. शायद अवनि भी यही चाहती है. उस ने शर्म के मारे आप से बात नहीं की होगी. क्या आप हमारी शादी के लिए आशीर्वाद देंगी?’’ एक ही सांस में नीरज ने इतना सब कह दिया और फिर पानी पी कर चुप हो गया.

मां और दीपक की तो मनमांगी मुराद पूरी हो गई. उन्होंने अवनि की तरफ देखा तो वह शरमाती हुई अंदर चली गई. मां ने ‘हां’ कहा और जल्दी ही दोनों की शादी कराने की बात कही.

कुछ दिनों से अवनि खुश भी थी और थोड़ी चिंता में भी रहती. नीरज ने उस से पूछा तो उस ने अपने मन की बात कही, ‘‘मेरी शादी के बाद मां और छोटी का क्या होगा. कैसे होगा?’’

‘‘इस में चिंता की क्या बात है? हम सब साथ ही रहेंगे, एक ही घर में,’’ नीरज ने कहा. यह सुनते ही अवनि की खुशी का तो ठिकाना ही नहीं रहा, उसे दोहरी खुशी हुई.

शादी की तारीख तय हुई लेकिन इधर कुछ दिनों से दीपक का कुछ अतापता नहीं था. अवनि ने उस के औफिस जा कर पता किया तो मालूम हुआ कि उस की तबीयत खराब होने के कारण वह छुट्टी पर है. वह उस के घर गई तो वहां भी ताला लगा हुआ था. अवनि की चिंता बढ़ गई. दीपक का फोन तो पहले से ही स्विच औफ था. अवनि वापस अपने घर आई और दीपक की चिंता में बिना कुछ खाएपिए ही सो गई.

अगले दिन सुबह एक औटो घर के सामने रुका. उस ने देखा कि दीपक उस में से सामान निकाल रहा है. सामान रखा भी नहीं था कि अवनि ने उस पर सवालों की बौछार कर दी. दीपक चुपचाप सुनता रहा. अवनि जब चुप हुई तो उस ने कहा, ‘‘तुम्हारी बात खत्म हो गई हो तो मैं कुछ बोलूं?’’ अवनि चुप जरूर हो गई थी पर अभी भी गुस्से में थी. दीपक फिर बोला, ‘‘तुम्हारी शादी के लिए अपनी तरफ से तुम को देने के लिए और घर के लिए छोटामोटा सामान, कपड़े वगैरह लेने इंदौर गया था. तुम को बता कर जाता तो तुम मना करतीं, औफिस से छुट्टी नहीं मिलती तो वहां पर भी तबीयत खराब होने का बहाना बनाया.’’ यह सुन कर अवनि का गुस्सा थोड़ा शांत हुआ. उस ने सामान की तरफ देखा. उस पर इंदौर का पता लिखा हुआ था. फिर भी वह थोड़े गुस्से में बोली, ‘‘क्या जरूरत थी ये सब लाने की. चलो, ठीक है लाए, तो वहां से क्यों, यहां भी तो सब मिलता है.’’

थोड़ी बहसबाजी के बाद सब नौर्मल हो गया और सब सामान देखने लगे. दीपक लगभग 50-60 हजार रुपए का सामान लाया था. दीपक ने एक बैग नहीं खोला, अवनि के पूछने पर उस ने कहा, ‘‘औफिस की कुछ स्टेशनरी है.’’ अवनि ने उस से ‘थैक्यू माई बैस्ट फ्रैंड, कहा.

निश्चित दिन शादी हुई. सब खुश थे. दीपक, सुधा और छोटी सब ने मिल कर खूब डांस और धमाल किया. शादी का समारोह सादगीपूर्ण हुआ. अवनि की विदाई हुई. शादी के कुछ दिन बाद अवनि ने मां और छोटी को अपने पास बुला लिया. दीपक कुछ दिन तो अवनि से बराबर मिलता रहा लेकिन बाद में उस का मिलनाजुलना कम हो गया.

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समय के साथसाथ छोटी भी बड़ी हो गई. उस की भी शादी हो गई और बाद में मां अपनी बीमारी व अपने पति की याद में रहरह कर चल बसीं. दीपक भी अब कम आता, 2-3 महीने में एक बार. उस को देख कर लगता कि काफी बीमार और कमजोर है. पूछने पर कहता, ‘‘काम ज्यादा है, खानेपीने का समय नहीं मिलता. टाइमटेबल बिगड़ गया है. अब ध्यान रखूंगा.’’ ऐसा आश्वासन देता और चला जाता.

एक बार 3 महीने से ज्यादा समय हो गया दीपक से मिले, तो अवनि एक दिन सुबहसुबह ही उस के घर पहुंच गई. पर वहां ताला लगा देख कर उस के औफिस भी गई. औफिस में जा कर पता चला कि वह तो कई महीने से औफिस आया ही नहीं. उस की तबीयत बहुत खराब थी. इंदौर जाने को कह गया है इलाज के लिए. यह सुनते ही अवनि के पैरों तले जमीन खिसक गई. फिर थोड़ा संभलती हुई बोली, ‘‘मुझे वहां उस अस्पताल का पता और फोन नंबर मिल सकता है.’’ औफिस वालों ने उसे अस्पताल का पता और फोन नंबर दे दिया.

अवनि जैसेतैसे घर पहुंची. नीरज औफिस जा चुके थे लेकिन अवनि ने उन्हें फोन लगा कर फौरन घर बुलाया और सारी बात बताई. नीरज को भी झटका लगा कि दीपक ने कभी बताया क्यों नहीं? दोनों ने फौरन इंदौर जाने का फैसला किया.

कुछ देर बार दोनों अपनी छोटी सी बच्ची के साथ अपनी गाड़ी से इंदौर के लिए रवाना हुए. अवनि रास्तेभर यही सोचती रही कि दीपक ने ऐसा क्यों किया, कभी कुछ बताया क्यों नहीं, क्या हुआ होगा उसे?

साढ़े 4 घंटे के सफर के बाद वह उस अस्पताल के सामने खड़ी थी जहां दीपक भरती था. अंदर जाते समय उस के पैर कांप रहे थे. रिसैप्शन पर पहुंच कर नीरज ने दीपक का नाम बता कर उस का वार्ड पूछा तो जवाब मिला ‘‘सैकंड फ्लोर, आईसीयू वार्ड, बैड नंबर 6.’’ ऊपर वार्ड के सामने जा कर नीरज बोले, ‘‘तुम थोड़ी देर यहीं बैठो, मैं देख कर आता हूं. फिर तुम जाना. छोटे बच्चों को अंदर ले जाना मना है.’’ अवनि ने कुछ नहीं कहा, सिर्फ हां में सिर हिला दिया.

नीरज अंदर गए. बैड नंबर 6 के पास जा कर रुके तो देखा, दीपक को औक्सीजन मास्क लगा था. साथ ही खून और एक अन्य  दवाई की बोतल भी लगी थी. वह बेहोश था. थोड़ी देर रुकने के बाद वह बाहर आए और बच्ची को लेते हुए अवनि से कहा, ‘‘अब तुम जाओ, और देखो, उस से कुछ बोलना नहीं, वह बेहोश है. बस, चुपचाप देख कर चली आना. फिर डाक्टर से मिलने चलेंगे.’’

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अवनि ने इस बार कुछ नहीं बोला. फिर डरतीडरती अंदर गई. बैड नंबर 6 के पास रुकी. दीपक को देखा, उस की ऐसी हालत देख कर वह एकदम से चक्कर खाने लगी. पास खड़ी नर्स ने उसे पकड़ा और बाहर ले आई. बाहर आते ही वह रोने लगी. नीरज उसे चुप कराते हुए बोले, ‘‘चलो, डाक्टर से मिलते हैं.’’

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