मसला: जरूरी नहीं है स्कूलों में धार्मिक पढ़ाई-लिखाई

28फरवरी, 2023 को मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के जहांगीराबाद  इलाके के रसीदिया सीएम राइज स्कूल में 2 टीचरों का बच्चों को क्लास से बाहर निकाल कर नमाज पढ़ने का वीडियो जैसे ही सोशल मीडिया पर वायरल हुआ, तो हमेशा हिंदूमुसलिम का राग अलापने वालों के कलेजे पर जैसे सांप लोट गया. मामला खबरों की सुर्खियां बना, तो शिक्षा विभाग के आला अफसरों के कानों तक यह बात पहुंची और आननफानन में जांच के आदेश दे दिए.

जहांगीराबाद सीएम राइज रसीदिया स्कूल के ही कुछ टीचरों ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि स्कूल में नमाज पढ़ने की यह कोई नई बात नहीं है. हर शुक्रवार को यहां बच्चे भी नमाज पढ़ते हैं और इस के बारे में सब जानते हैं, लेकिन कोई कुछ नहीं कहता.

इस मामले में स्कूल के प्रिंसिपल केडी श्रीवास्तव ने तो पूरी तरह से पल्ला झाड़ते हुए कहा, ‘‘मुझे इस की जानकारी ही नहीं है और न ही मेरी नजर में कभी ऐसी कोई बात सामने आई.’’

सरकारी स्कूल में नमाज पढ़ने पर इतना बवाल मच गया, लेकिन मध्य प्रदेश के गांवकसबों के बहुत सारे स्कूल तो ऐसे भी हैं, जहां पर गणेश पूजा, दुर्गा पूजा जैसे धार्मिक आयोजन के साथसाथ रामचरितमानस के पाठ किए जाते हैं और इन में टीचर और स्टूडैंट भी हिस्सा लेते हैं.

इतना ही नहीं, सैकड़ों स्कूलों में सरस्वती के मंदिर बने हुए हैं, जिन में नियमित रूप से पूजापाठ का आडंबर भी होता है. नरसिंहपुर जिले के रायपुर हायर सैकंडरी स्कूल में तो हिंदू देवीदेवताओं गणेश, शंकर, हनुमान और सरस्वती के मंदिर टीचरों और गांव वालों ने चंदा इकट्ठा कर के बनवाए हैं. इसी तरह हायर सैकंडरी स्कूल खुर्सीपार, केएनवी स्कूल गाडरवारा में भी सरस्वती देवी के मंदिर बने हुए हैं.

मध्य प्रदेश में ऐसे हालात 2-4 स्कूलों के ही नहीं हैं, बल्कि ज्यादातर स्कूलों में तो रोज स्कूल खुलने पर पहले सरस्वती पूजा की जाती है. स्कूलों में देवीदेवताओं के मंदिर और उन में होने वाले पूजापाठ और नमाज के आयोजन साबित करते हैं कि स्कूल तालीम देने के बजाय धार्मिक अखाड़े बन कर रह गए हैं.

जानकारों का कहना है कि वैसे तो ऐसी धार्मिक गतिविधियों को ले कर शासन से कोई साफ निर्देश नहीं हैं, लेकिन ड्यूटी के दौरान किसी सरकारी परिसर या क्लास में नमाज वगैरह नहीं की जा सकती.

इस मामले में राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के अध्यक्ष प्रियंक कानूनगो का कहना है कि क्लास में धार्मिक गतिविधि करना कानूनन गलत है. इस सब के बावजूद भी स्कूलों में धार्मिक आयोजन धड़ल्ले से होते हैं.

भारत का संविधान कहता है कि हमारा देश धर्मनिरपेक्ष है, मगर धर्म के नाम पर फैली कट्टरता लोगों के बीच गहरी खाई खोदने का काम कर रही है और कुछ सरकारें इसे खादपानी दे रही हैं.

एडवोकेट जगदीश पटेल ने बताया कि कोई भी ऐसा काम सरकारी भवन या सरकारी संपत्ति पर नहीं करना चाहिए, जो किसी एक धर्म विशेष को प्रमोट करता हो. ऐसी गतिविधियों से देश की संप्रभुता, अखंडता और धर्मनिरपेक्षता पर असर पड़ता है, जो संविधान के प्रावधानों के उलट है.

सिलेबस में भरा पाखंड

कहने को तो हमारा देश धर्मनिरपेक्ष है, पर चुनी हुई सरकारों की कट्टरता की वजह से शिक्षा नीति और स्कूली सिलेबस भी धार्मिक रंग में पूरी तरह से रंगे हुए हैं. आज स्कूलों में पढ़ाए जाने वाले सिलेबस में वैज्ञानिक सोच के बजाय धर्म से जुड़ी दकियानूसी कथाकहानियों को अहमियत दी जा रही है.

हमें यह भी सोचना चाहिए कि सिलेबस में अगर किसी धर्म विशेष की बातें या उस से जुड़ी किताबें, ग्रंथ शामिल किए जाएंगे, तो इस का उलटा असर उन छात्रों पर पड़ सकता है,

जो किसी धर्म संप्रदाय को न मानने वाले हों या दूसरे धर्म, संप्रदाय से ताल्लुक रखते हों.

इस बारे में खुद नैशनल काउंसिल फौर ऐजुकेशनल रिसर्च ऐंड ट्रेनिंग (एनसीईआरटी) की स्टडी गौरतलब है, जिस के द्वारा तैयार किए गए मैन्युअल का फोकस तकरीबन इसी बात पर है कि स्कूल असैंबली में होने वाली प्रार्थनाएं और स्कूल की दीवारों पर चस्पां की गई देवीदेवताओं की तसवीरें किस तरह अल्पसंख्यक समुदाय के बच्चों में भेदभाव की भावना पैदा करते हैं.

सरकारी फंड का इस्तेमाल

जिन सरकारी स्कूल या मदरसों में धार्मिक शिक्षा दी जाती है, उन्हें सरकार लाखों रुपए फंड के रूप में देती है. संविधान का अनुच्छेद 28 कहता है कि जिस शिक्षण संस्थान को सरकार से फंडिंग मिलती है, वहां धार्मिक शिक्षा नहीं दी सकती है. लेकिन भारत में अभी ज्यादातर मदरसे संविधान के अनुच्छेद 30 के आधार पर चल रहे हैं. इस में भारत के अल्पसंख्यकों को यह अधिकार है कि वे अपने खुद के भाषाई और शैक्षिक संस्थानों की स्थापना कर सकते हैं और बिना किसी भेदभाव के सरकार से ग्रांट भी मांग सकते हैं.

भारत कहने के लिए तो एक धर्मनिरपेक्ष देश है, लेकिन यहां धार्मिक शिक्षा देने पर किसी को कोई एतराज नहीं होता है. और ऐसा नहीं है कि सिर्फ मदरसों को ही सरकार से फंडिंग मिलती है. देश में संस्कृत स्कूलों को भी सरकार से पैसे की मदद मिलती है और कई शिक्षण संस्थानों को भी अलगअलग श्रेणी में मदद दी जाती है. लेकिन इन संस्थानों और मदरसों में फर्क यह है कि मदरसों की मूल भावना में इसलाम को ही केंद्र में रखा जाता है, जबकि इन संस्थानों में धार्मिक शिक्षा पर ज्यादा जोर नहीं होता.

राजनीतिक फायदा

देश में विभिन्न दलों के लोग अपने राजनीतिक हित साधने के लिए बारबार धर्म और राजनीति का तालमेल कराने की वकालत करते हैं. इस का नतीजा यह है कि इस समय देश का सामाजिक तानाबाना किस दौर से गुजर रहा है, यह आज सब के सामने है. टैलीविजन का कोई भी चैनल लगा कर देखिए, आप को सहिष्णुता, असहिष्णुता, धर्म आधारित जनसंख्या, धर्मग्रंथ, धर्म स्थान, सांप्रदायिकता, धर्म परिवर्तन, बीफ, गौवंश, लव जिहाद, धर्मांतरण, मंदिरमसजिद जैसे विषयों पर गरमागरम बहस होती सुनाई देगी.

इन बहसों को देख कर ऐसा लगता है कि देश के सामने इस समय सब से बड़ी समस्याएं यही हैं. देश को विकास, महंगाई नियंत्रण, सामाजिक उत्थान, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, औद्योगीकरण, पर्यावरण संरक्षण, प्रदूषण नियंत्रण, सड़क, बिजली, पानी आदि की न तो जरूरत है, न ही राजनीतिक दल व मीडिया इन बातों पर बहस करनेकराने की कोई जरूरत समझते हैं.

दुनिया के सभी देशों में विद्यालय इसलिए खोले जाते हैं, ताकि बच्चों को सामान्य ज्ञान, विज्ञान, व्यावसायिक ज्ञान और उन के अपने जीवन चरित्र और राष्ट्र के विकास में काम आने वाली शिक्षाएं दी जा सकें.

जहां तक धार्मिक शिक्षा दिए जाने का सवाल है, तो इस के लिए तकरीबन सभी धर्मों में अलग धार्मिक शिक्षण संस्थाएं मौजूद हैं, जो अपनेअपने धर्म प्रचार के लिए अपने ही धर्म के बच्चों को अपनेअपने धर्मग्रंथों व अपने धर्म के महापुरुषों के जीवन परिचय और आचरण संबंधी शिक्षा देती हैं.

राजनीतिक दल धर्म और राजनीति का घालमेल करने की गरज से और समुदाय विशेष को अपनी ओर लुभाने के मकसद से अपने राजनीतिक हित साधने के लिए ये सरकारी व गैरसरकारी स्कूलों के सिलेबस में धर्मग्रंथ विशेष को शामिल कराए जाने की वकालत करते देखे जा रहे हैं. कई राज्यों में तो इस प्रकार की पढ़ाई शुरू भी कर दी गई है.

कई राज्य ऐसे भी हैं, जहां किसी एक धर्म के धर्मग्रंथ को स्कूल के सिलेबस में शामिल किए जाने का दूसरे धर्मों के लोग विरोध कर रहे हैं. उन के द्वारा यह मांग की जा रही है कि या तो अमुक धर्मग्रंथ की शिक्षाओं को सिलेबस से हटाया जाए या फिर दूसरे धर्मों के धर्मग्रंथों की शिक्षाओं को भी शामिल किया जाए.

शायद राजनीतिक लोग भी यही चाहते हैं कि इस तरह के विरोधाभासी स्वर उठें और ऐसी आवाजें बुलंद होने के चलते ही समाज धर्म के नाम पर बंटे. फिर देश के लोग रोटी, कपड़ा, मकान, विकास, बेरोजगार, महंगाई, शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली और पानी जैसे बुनियादी मसलों से दूर हो कर धर्म के नाम पर बंट जाएं और उसी आधार पर वोट डालें.

धार्मिक शिक्षा की वकालत

मध्य प्रदेश भी देश के ऐसे ही कुछ राज्यों में एक है, जहां हिंदू धर्म के प्रमुख धर्मग्रंथ के रूप में स्वीकार्य भगवत गीता और रामचरितमानस को स्कूली सिलेबस में शामिल करने का फैसला लिया गया है. स्कूलों में गीता के पाठ पढ़ाए जाने के बाद दूसरे धर्मों के लोगों ने इस मांग को ले कर विरोध प्रदर्शन किया है कि स्कूली सिलेबस में कुरान, बाइबिल और गुरुग्रंथ साहिब जैसे धर्मग्रथों के सार भी उन पुस्तकों में शामिल किए जाएं.

इस विरोध के बाद बाइबिल व गुरुग्रंथ जैसे दूसरे धर्मग्रथों की प्रमुख शिक्षाओं को भी राज्य के प्राथमिक और उच्च प्राथमिक सिलेबस में शामिल किए जाने का मसौदा सरकार ने सिलेबस तय करने वाली समिति को भेजा है.

राज्य सरकार द्वारा सिलेबस में विभिन्न धर्मों के प्रमुख धार्मिक ग्रंथों की शिक्षाओं को और इन के सार को शामिल किए जाने के पक्ष में यह तर्क दिया जा रहा है कि स्कूल के बच्चे इन की स्टडी कर के बचपन में ही नैतिक शिक्षा हासिल कर सकेंगे और अपने धर्म के साथसाथ दूसरे धर्मों की शिक्षाओं की जानकारी भी हासिल कर सकेंगे.

यह तर्क भी दिया जा रहा है कि इस कदम से बच्चों में अपने धर्म के साथ ही दूसरे धर्म के प्रति सम्मान की भावना पैदा होगी और बच्चों में सर्वधर्म समभाव का बोध विकसित होगा, लेकिन राजनीतिक दलों के नेता आएदिन धर्म के नाम पर लोगों को लड़ाने का काम करते हैं.

दूसरी तरफ सच यह भी है कि विभिन्न धर्मों के धर्मग्रंथों में कई ऐसी दकियानूसी बातें भी हैं, जो आज के वैज्ञानिक युग में गले नहीं उतरती हैं. धार्मिक कथाकहानियों में तो यही बताया गया है कि सूरज पूर्व दिशा से उग कर पश्चिम दिशा में डूबता है. पढ़ने वाले बच्चे भी सहजता से यही मान कर चलते हैं कि सूरज पृथ्वी के चारों ओर घूमता है, जबकि विज्ञान ने साबित कर दिया है कि सूरज एक तारा है और पृथ्वी उस के चारों ओर घूमती है.

इसी तरह धर्मग्रंथों में सौरमंडल के 9 ग्रहों को देवताओं की तरह पूजनीय बता कर उन की पूजापाठ का विधान बताया गया है, जबकि सचाई यह है कि हमारे सौरमंडल में 8 ग्रह बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, बृहस्पति, शनि, यूरेनस और नैप्च्यून हैं, जो सूरज के चारों ओर चक्कर काटते हैं.

दूसरी बात यह है कि धर्मग्रंथों की शिक्षा देने के लिए पहले से ही विभिन्न धर्मों के लोग अपनेअपने मदरसे, गुरुकुल, संस्कृत पाठशालाएं और गिरजाघर आदि संचालित कर रहे हैं, जिन में वे अपनेअपने धर्म के बच्चों को अपने धर्मग्रंथ व अपने धर्मगुरुओं से संबंधित शिक्षाएं देते आ रहे हैं. फिर आखिर स्कूली शिक्षा के सिलेबस में किसी भी धर्म के किसी भी धर्मग्रंथ की शिक्षा या उस के सार को शामिल करने की जरूरत ही क्या है?

धार्मिक नाम वाले स्कूल

देश में चलने वाले ज्यादातर प्राइवेट स्कूलों के नाम भी धार्मिक आधार पर रखे गए हैं. मध्य प्रदेश में सरस्वती शिक्षा परिषद हर गांवकसबे में सरस्वती शिशु मंदिर के नाम से स्कूल संचालित कर रही है और बाकायदा इन स्कूलों को सरकारी अनुदान के साथ सांसद, विधायक अपनी निधि में से लाखों रुपए की मदद देते हैं.

नरसिंहपुर जिले में ही सरस्वती शिशु मंदिर, शारदा विद्या निकेतन और श्रीकृष्णा विद्या मंदिर, लवकुश विद्यापीठ, रेवाश्री पब्लिक स्कूल, मां नर्मदा संस्कृत पाठशाला, श्री नरसिंह पब्लिक स्कूल जैसे दर्जनों स्कूल चल रहे हैं.

इसी तरह से पूरे प्रदेश में सैंट मैरी, सैंटट जोसेफ, सैंट जेवियर्स, सैंट थौमस, खालसा कालेज, राधारमण कालेज, श्रीराम इंजीनियरिंग कालेज, लक्ष्मीनारायण इंजीनियरिंग ऐंड मैडिकल कालेज, अंजुमन इसलामिया कालेज जैसे शिक्षण संस्थान धड़ल्ले से चल रहे हैं.

देश में सभी धर्मों के स्कूल चल रहे हैं, जिन में अपनेअपने धर्म की शिक्षा दी जा रही है. आज देश के नौनिहालों को वैज्ञानिक सोच विकसित करने वाली शिक्षा की जरूरत है, मगर धार्मिक कट्टरता की वजह से हम बच्चों को धार्मिक शिक्षा देने पर आमादा हैं.

धर्म से बढ़ रहा भेदभाव

धार्मिक शिक्षा हमें तार्किक बनाने के बजाय अंधविश्वासी बनाती है. ज्यादातर समस्याओं की जड़ धार्मिक शिक्षा ही है. धार्मिक शिक्षा के चलते सामाजिक व राजनीतिक कट्टरता बढ़ रही है. यह शिक्षा हमें एकदूसरे से भेदभाव करना सिखाती है.

यही वजह है कि देश के कई राज्य घरेलू हिंसा की चपेट में हैं, वहां अंदरूनी धार्मिक, पंथिक, वर्गीय संघर्ष होते रहते हैं. इस से उन्हें आर्थिक व सामाजिक नुकसान झेलना पड़ रहा है.

धार्मिक शिक्षा से समाज में प्रेम, शांति, अहिंसा, इनसानियत की गारंटी नहीं है तो फिर क्यों न ऐसी शिक्षा से दूर रहा जाए? धार्मिक शिक्षा समाज को अंधविश्वासी बनाती है.

धर्म की शिक्षा से सब से ज्यादा फायदा पंडेपुरोहित, मुल्लामौलवियों पादरी का है. यही वे लोग हैं, जो धार्मिक शिक्षा को बनाए रखने में जीजान से लगे हैं.

हर धर्मगुरु अपने धर्म को सब से बेहतर मानता है. सब का अपना अहं है, सब की एकदूसरे के साथ प्रतियोगिता है और वे सब दूसरे धर्म वालों से नफरत करते हैं. धर्म हमें बारबार हिंसा की ओर ले जाते हैं.

आज धर्म मानव कल्याण के नाम पर प्रतियोगिता मात्र बन कर रह गया है और जहां प्रतियोगिता होगी, वहां ईर्ष्या होगी. जहां ईर्ष्या होगी, वहां अशांति होगी.

इस शिक्षा की जरूरतस्कूली सिलेबस में धार्मिक शिक्षा शामिल करने से बच्चों के समय की बरबादी होगी और सांसारिक, उन के भविष्य संबंधी और व्यावसायिक शिक्षा ग्रहण करने में भी बाधा पैदा होगी.

यह जरूरी नहीं कि भविष्य में देश के दूसरे राज्य भी सभी धर्मों के धर्मग्रंथों को स्कूलों में पढ़ाए जाने की इजाजत दें और ऐसा भी मुमकिन है कि धर्म विशेष के लोगों को खुश करने के लिए विभिन्न राज्यों की सरकारों द्वारा ऐसा किया भी जाए, मगर इस में कोई दोराय नहीं कि राजनीतिबाजों द्वारा इस विषय पर जो भी फैसला लिया जाएगा, उस के पीछे बच्चों के उज्ज्वल भविष्य की चिंता तो कम, वोट बैंक साधने की फिक्र ज्यादा होगी.

वैसे भी हमारे देश में इस समय धर्मगुरुओं, प्रवचनकर्ताओं, मौलवियों, पादरियों और ज्ञानियों की एक बाढ़ सी आ गई है और यह बताने की भी जरूरत नहीं है कि ऐसे ‘महान लोग’ व धर्म के ठेकेदार हमें अपने ‘आचरण’ से क्या शिक्षा दे रहे हैं और उन में से कइयों को जेल की हवा खानी पड़ी है.

आज का स्कूली सिलेबस इस तरह का है कि वह शिक्षा आम जिंदगी में किसी काम नहीं आती. हायर सैकंडरी स्कूलों और कालेजों में इलैक्ट्रिक करंट पढ़ने के बाद भी बिजली के घरेलू उपकरणों की सामान्य मरम्मत के लिए भी बिजली मिस्त्री की मदद लेनी पड़ती है.

इसी तरह स्कूल में पढ़ाए जाने वाले संस्कृत विषय की जिंदगी में कोई उपयोगिता समझ नहीं आती. ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए बच्चों के लिए यह भाषा कथापुराण और पूजाहवन करने में काम आती है और इस की बदौलत दानदक्षिणा भी खूब मिल जाती है, मगर पिछड़े दलितों के लिए यह भाषा जबरन थोपी हुई लगती है.

आज स्कूलों में तो बच्चों को केवल विज्ञान, सामान्य ज्ञान, समाजशास्त्र, भूगोल, गणित की तालीम देने के साथसाथ व्यावसायिक शिक्षा की जरूरत ज्यादा है. आज भी देश के गांवकसबों में तकनीकी संस्थानों की कमी है.

यही वजह है कि नौजवान पीढ़ी पढ़लिख कर भी नकारा घूम रही है. धार्मिक शिक्षा की घुट्टी उसे इस तरह पिला दी गई है कि बेरोजगार नौजवान कांवड़ यात्रा, दुर्गा पूजा, गणेश पूजा और धार्मिक यात्रा, भंडारे में अपना कीमती समय गंवा रहे हैं. मौजूदा दौर में ऐसी व्यावसायिक शिक्षा की जरूरत है, जिस के बलबूते नौजवान अपनी रोजीरोटी का जुगाड़ आसानी से कर सकें.

औलाद की चाह बन गई मुसीबत की राह

रमन की शादी हुए 6 साल हो गए, मगर अभी तक कोई औलाद नहीं हुई. चूंकि दोनों पतिपत्नी धार्मिक स्वभाव के थे, इसलिए वे देवीदेवता से मन्नतें मांगते रहते थे, लेकिन तब भी बच्चा न हुआ.

तभी उन्हें पता चला कि एक चमत्कारी बाबा आए हैं. अगर उन का आशीर्वाद मिल जाए, तो बच्चा हो सकता है. यह जान कर रमन और उस की बीवी सीमा उस बाबा के पास पहुंचे.

सीमा बाबा के पैरों पर गिर पड़ी और कहने लगी, ‘‘बाबा, मेरा दुख दूर करें. मैं 6 साल से बच्चे का मुंह देखने के लिए तड़प रही हूं.’’

‘‘उठो, निराश मत हो. तुम्हें औलाद का सुख जरूर मिलेगा…’’ बाबा ने कहा, ‘‘अच्छा, कल आना.’’

अगले दिन सीमा ठीक समय पर बाबा के पास पहुंच गई. बाबा ने कहा, ‘‘बेटी, औलाद के सुख के लिए तुम्हें यज्ञ कराना पड़ेगा.’’

‘‘जी बाबा, मैं सबकुछ करने को तैयार हूं. बस, मुझे औलाद हो जानी चाहिए,’’ सीमा ने कहा, तो बाबा ने जवाब दिया, ‘‘यह ध्यान रहे कि इस यज्ञ में कोई भी देवीदेवता किसी भी रूप में आ कर तुझे औलाद दे सकते हैं, इसलिए किसी भी हालत में यज्ञ भंग नहीं होना चाहिए, नहीं तो तेरे पति की मौत हो जाएगी.’’

‘‘जी बाबा,’’ सीमा ने कहा और बाबा के साथ एकांत में बने कमरे में चली गई. वहां बाबा खुद को भगवान बता कर उस के अंगों के साथ खेलने लगा.

सीमा कुछ नहीं बोली. वह समझी कि बाबाजी उसे औलाद का सुख देना चाहते हैं, इसलिए वह चुपचाप सबकुछ सहती रही.

लेकिन शरद ऐसे बाबाओं के चोंचलों को अच्छी तरह जानता था, इसलिए जब उस की बीवी टीना ने कहा, ‘‘हमें भी बच्चे के लिए किसी साधुसंत से औलाद का आशीर्वाद ले लेना चाहिए,’’ तब शरद बोला, ‘‘औलाद केवल साधुसंत के आशीर्वाद से नहीं होती है. इस के लिए जब तक पतिपत्नी दोनों कोशिश न करें, तब तक कोई बच्चा नहीं दे सकता.’’

‘‘मगर हम यह कोशिश पिछले 5 साल से कर रहे हैं. हमें बच्चा क्यों नहीं हो रहा है?’’ टीना ने पूछा.

‘‘इस की जांच तो डाक्टर से कराने पर ही पता चल सकती है कि हमें बच्चा क्यों नहीं हो रहा है. समय मिलते ही मैं डाक्टर से हम दोनों की जांच कराऊंगा.’’

टीना ने कहा, ‘‘ठीक है.’’

दोपहर को टीना की सहेली उस से मिलने आई, जो उसे एक नीमहकीम के पास ले गई. नीमहकीम ने टीना से कुछ सवाल पूछे, जिस का उस ने जवाब दे दिया.

इस दौरान ही उस नीमहकीम ने यह पता लगा लिया था कि टीना को माहवारी हुए आज 14वां दिन है, इसलिए वह बोला, ‘‘तुम्हारे अंग की जांच करनी पड़ेगी.’’

‘‘ठीक है, डाक्टर साहब. मैं कब आऊं?’’ टीना ने पूछा.

‘‘जांच आज ही करा लो, तो अच्छा रहेगा,’’ नीमहकीम ने कहा, तो टीना राजी हो गई.

तब वह नीमहकीम टीना को अंदर के कमरे में ले गया, फिर बोला, ‘‘आप थोड़ी देर यहीं बैठिए और इस थर्मामीटर को 5 मिनट तक अपने अंग में लगाइए.’’ टीना ने ऐसा ही किया.

5 मिनट बाद डाक्टर आया. उस के एक हाथ में अंग फैलाने का औजार और दूसरे हाथ में एक इंजैक्शन था, जिस में कोई दवा भरी थी, जिसे देख कर टीना ने पूछा, ‘‘यह क्या है डाक्टर साहब?’’

‘‘इस से तुम्हारे अंग की दूसरी जांच की जाएगी,’’ कह कर नीमहकीम ने टीना से थर्मामीटर ले लिया और टीना को मेज पर लिटा दिया. इस के बाद वह उस के अंग में औजार लगा कर जांच करने लगा.

जांच के बहाने नीमहकीम ने टीना के अंग में इंजैक्शन की दवा डाल दी और कहा, ‘‘कल फिर अपनी जांच कराने आना.’’

टीना अभी तक घबरा रही थी, मगर आसान जांच देख कर खुश हुई. फिर दूसरे दिन भी यही हुआ. मगर उस दिन इंजैक्शन को अंग में आगेपीछे चलाया गया था. इस के बाद उसे 14 दिन बाद आने को कहा गया.

टीना जब 14 दिन बाद नीमहकीम के पास गई, तब वह सचमुच मां बनने वाली थी.

यह जान कर टीना बहुत खुश हुई. मगर जब यही खुशी उस ने अपने पति शरद को सुनाई, तो वह नाराज हो गया.

‘‘बता किस के पास गई थी?’’ शरद चीख पड़ा.

‘‘यह मेरा बच्चा नहीं है. मैं ने कल ही अपनी जांच कराई थी. डाक्टर का कहना है कि मेरे शरीर में बच्चा पैदा करने की ताकत ही नहीं है. तब मैं बाप कैसे बन गया?’’ शरद ने कहा.

शरद के मुंह से यह सुनते ही टीना सब माजरा समझ गई. वह जान गई कि नीमहकीम ने जांच के बहाने उस के अंग में अपना वीर्य डाल दिया था. मगर अब क्या हो सकता था. टीना औलाद के नाम पर ठगी जा चुकी थी.

आज के जमाने में औलाद पैदा करने की कई विधियों का विकास हो चुका है. परखनली से भी कई बच्चे पैदा हो चुके हैं. यह सब विज्ञान के चलते मुमकिन हुआ है. फिर भी लोग पुराने जमाने में जीते हुए ऐसे धोखेबाजों के पास बच्चा मांगने जाते हैं. इस से बढ़ कर दुख की बात और क्या हो सकती है.

स्कैटिंग : रिस्क और रोमांच का मजा

दुनिया में ऐडवैंचर प्रेमियों की कमी नहीं है. कभी वे पर्वत की ऊंचाइयों को छूने की कोशिश करते हैं तो कभी लहरों के बीच जा कर भीगने का आनंद उठाते हैं. कभी बाइक पर खतरनाक स्टंट कर के देखने वालों का दिल दहला देते हैं. दरअसल, ऐडवैंचर का शौक ही ऐसा है.

इन्हीं ऐडवैंचर्स खेलों में स्कैटिंग भी काफी पौपुलर है, जिसे आप स्कूलकालेज के ग्राउंड से ले कर बर्फ पर भी कर सकते हैं. बस, आप को जरूरत है अपने कदमों को बैलेंस बनाते हुए हवा को चीरते हुए आगे बढ़ कर स्कैटिंग का लुत्फ उठाने की. इस में पांवों के दबाव से गति और घुमाव देखते ही बनता है.

स्कैट्स के आविष्कार का श्रेय

1760 में पहला रोलर स्कैट बनाने का श्रेय जौन जोसफ मर्लिन को जाता है, जिन के दिमाग में एक आइडिया आया कि क्यों न छोटे धातु के पहिए लगा कर स्कैट्स तैयार किए जाएं. उन का यह विचार सफल भी हुआ, लेकिन शुरुआती चरण में कुछ कमियां रहीं, जिन्हें बाद में सुधार कर बेहतरीन स्कैट्स तैयार किए गए. आज जो इनलाइन स्कैट्स से मिलतेजुलते हैं. अभी तक इनलाइन स्कैट्स का ही चलन था, लेकिन 1863 में क्वाड स्कैट्स आए, जो विकसित डिजाइन था. इस में हर पैर के लिए 2 आगे और 2 पीछे पहिए होते थे. इस स्कैट से टर्न लेने और तेजी से आगे बढ़ कर खुद को कंट्रोल करने में आसानी होती थी. इसे बनाने का श्रेय न्यूयौर्क के जेम्स लेनौर्ड प्लिंपटन को जाता है.

1990-93 में सेफ्टी के उद्देश्य से रोलर ब्लेड आधारित ब्रैंडेड स्कैट्स लौंच किए गए, जिन्हें काफी पसंद किया गया और इन की बढ़ती प्रसिद्धि को देखते हुए दूसरी कंपनियों ने भी इन से मिलतेजुलते स्कैट्स बना कर प्रतिस्पर्धा को और बढ़ाया.

आज तो ऐडवांस स्कैट्स दुनिया के सामने हैं, जिन्हें प्रयोग में ला कर स्कैट्स प्रेमी स्कैटिंग का लुत्फ उठाते हैं.

स्कैटिंग की श्रेणियां

रोलर स्कैटिंग

रोलर स्कैटिंग ऐसी स्कैटिंग है, जिस का मजा आप घर और बाहर दोनों जगह उठा सकते हैं. इस में आप किसी भी समतल सतह पर रोलर स्कैट्स की मदद से आनंद उठा सकते हैं. इस तरह के स्कैट्स में 2 पहिए आगे और 2 पीछे लगे होते हैं.

इनलाइन स्कैटिंग

इनलाइन स्कैटिंग में स्कैटर बहुत ही हलके बूट्स, जिन के नीचे 3 से 5 पहिए एक ही लाइन में अटैच होते हैं, पहन कर स्कैटिंग करते हैं. इन्हें बनाने का श्रेय अमेरिका के स्कौट ओल्सेन को जाता है. इन स्कैट्स में धातु के ब्रेक, यूरेथेन व्हील्स और हील ब्रेक लगे होते हैं. इन की मदद से स्कैटर को बैलेंस बनाने में आसानी होती है साथ ही जब उन्हें रोकना होता है, तो हील बे्रक का यूज करते हैं, जिस में रबड़ पैड स्कैट्स के पीछे अटैच होता है, जिस से चोट लगने का डर नहीं रहता.

आइस स्कैटिंग

आइस स्कैटिंग के खेल में जो स्कैटर्स होते हैं वे खास तरह के स्कैट्स पहन कर बर्फ पर इस खेल का आनंद उठाते हैं. यह खेल ज्यादातर उन देशों में खेला जाता है जहां ज्यादा ठंड पड़ती है.

बर्फ पर स्कैटिंग किस तरह की

  • आइस स्कैटिंग में आइस स्कैट्स की मदद से बर्फ पर स्कैटिंग की जाती है.
  • फिगर स्कैटिंग में अलग या आइस पर स्कैटिंग की जाती है. इसे 1908 में पहली बार ओलिंपिक में विंटर स्पोर्ट्स में शामिल किया गया.
  • स्पीड स्कैटिंग में कड़ी प्रतिस्पर्धा के बीच प्रतियोगी एकदूसरे से आगे निकलने की कोशिश करते हैं.
  • टूर स्कैटिंग में बर्फ पर स्कैट्स की सहायता से लंबी सैर का लुत्फ उठाया जाता है.
  • ठोस सतह पर स्कैटिंग किस किस तरह की
  • रोलर और इनलाइन स्कैटिंग में समतल जगह पर घूमने का आनंद उठाया जाता है.
  • वर्ट स्कैटिंग में वर्ट रैंप पर राइड का लुत्फ उठाया जाता है.
  • जिस तरह हम सड़क पर साइकिल चला कर खुद को रोमांच प्रदान करते हैं, ठीक उसी तरह रोड स्कैटिंग में सड़क पर स्कैटिंग करते हैं.
  • स्कैट बोर्ड को प्रयोग कर के भी स्कैटिंग के मजे को कई गुना बढ़ाया जाता है.
  • आर्टिस्टिक रोलर स्कैटिंग भी फिगर स्कैटिंग से मिलताजुलता खेल ही है, लेकिन इस में भाग लेने वाले आइस स्कैट्स की जगह रोलर स्कैट्स पर दौड़ते हैं.

  • स्कैटिंग चैंपियनशिप
  • ‘द फ्रैंच फिगर स्कैटिंग चैंपियनशिप’ फ्रांस में प्रतिवर्ष आयोजित की जाती है, जिस का उद्देश्य प्रतियोगिता के माध्यम से देश के बैस्ट स्कैटर्स की पहचान कर के उन्हें आगे बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करना है. इस में मैडल बैस्ट महिला व बैस्ट पुरुष स्कैटर के साथ पियर स्कैटिंग व आइस डांसिंग में बैस्ट प्रदर्शन करने वालों को दिया जाता है.
  • ‘द स्विस फिगर स्कैटिंग चैंपियनशिप’ जो स्विट्जरलैंड में आयोजित की जाती है, में विजेताओं को ताज पहना कर सम्मानित किया जाता है.
  • 2016 में दक्षिण कोरिया के सियोल में वर्ल्ड शौर्ट ट्रैक स्पीड स्कैटिंग चैंपियनशिप का आयोजन हुआ, जिसे काफी पसंद किया गया.
  • इसी तरह देशदुनिया में स्कैटिंग प्रतियोगिताओं का आयोजन होता है.
  • स्वास्थ्य के लिए भी फायदेमंद
  • खुद को स्वस्थ रखने के लिए हमें नियमित ऐक्सरसाइज करना जरूरी होता है. वैसे तो यह आप पर निर्भर करता है कि आप खुद को स्वस्थ रखने के लिए जौगिंग, ब्रिस्क वौक, स्किपिंग वगैरा में से क्या करना पसंद करते हैं लेकिन चाहें तो रोलर स्कैटिंग से बहुत कम समय में ज्यादा कैलोरी बर्न कर सकते हैं. जैसे अगर एक सामान्य पुरुष का वजन 190 पाउंड के बराबर है, तो वह रोलर स्कैटिंग से हर मिनट में 10 कैलोरीज बर्न करता है जबकि 163 पाउंड वजन वाली महिला हर मिनट में 9 कैलोरीज बर्न करती है. साथ ही इस से हड्डियों को भी मजबूती मिलती है.
  • अमेरिकन हार्ट एसोसिएशन के एक शोध के अनुसार रोलर स्कैटिंग से हार्ट को भी मजबूती प्रदान होती है यानी इस से फायदे अनेक हैं.

पैसे और शोहरत के लालच में फंसते युवा

कुछ ही लोग ऐसे होते हैं जो सफलता की राह तक पहुंचते हैं और दूसरों के लिए मिसाल बन जाते हैं जबकि कुछ मंजिल तक पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देते हैं. ऐसा ही कुछ काम किया है इंडोनेशिया के युवक हेंडी ने. उस के पिता कतर में काम करते थे. हेंडी को बचपन से ही पैसे कमाने की ललक थी.

एक बार वह छुट्टियों में पिता के पास कतर गया था. वहां उस ने कबाब खाया, जो उसे बहुत अच्छा लगा. तभी उस के दिमाग में एक आइडिया आया और वह सोचने लगा कि इतनी बेहतरीन चीज आखिर उस के देश में क्यों पौपुलर नहीं है. अगर वह इसे अपने देश में ही बना कर बेचे तो बहुत अच्छा पैसा कमाएगा.

इंडोनेशिया में उस समय तक कबाब लोगों को ज्यादा पसंद नहीं था. घर वापस आ कर हेंडी ने सीमित साधनों के साथ कबाब को जनजन तक पहुंचाने की ठान ली. 2003 में उस ने एक ठेला गाड़ी ली और कबाब बेचने के लिए अपने एक दोस्त को भी साथ ले लिया, लेकिन जब काम ज्यादा अच्छा नहीं चला तो उस दोस्त ने भी साथ छोड़ दिया, लेकिन हेंडी ने हिम्मत नहीं हारी.

तब वह कालेज में द्वितीय वर्ष में पढ़ रहा था. उस ने सोचा कि ऐसे तो काम नहीं चलेगा इसलिए उस ने पढ़ाई भी छोड़ दी. परिवार वालों ने इस का काफी विरोध किया.

लेकिन हेंडी ने किसी की नहीं सुनी औरअपने काम में लगन से जुट गया. धीरेधीरे काम ने रफ्तार पकड़ ली.

आज वह दुनिया की सब से बड़ी कबाब चेन ‘कबाब टर्की बाबा रफी’ को सफलतापूर्वक चला रहा है. आज हेंडी की कंपनी इंडोनेशिया के अलावा फिलीपींस और मलयेशिया तक फैल चुकी है. उस की कंपनी में काम करने वालों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है और वह 2 हजार को पार कर चुकी है. उस के हजार से ज्यादा आउटलेट्स हैं. इस काम के लिए हेंडी को कई पुरस्कार भी मिल चुके हैं. इस तरह उस ने साबित कर दिया कि मेहनत के बल पर इंसान किसी भी ऊंचाई को छू सकता है.

लालच से बचें

आज सभी पैसा कमाने की अंधी दौड़ में लगे हैं. युवा भी इस के दीवाने हैं. वे ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाने के चक्कर में रहते हैं. लोगों के पास आज जितना पैसा आता जा रहा है उतना ही उन का लालच भी बढ़ रहा है. कभीकभी पैसा तो मिल जाता है, लेकिन उस के चक्कर में अपने दूर हो जाते हैं. कई बार अधिक पैसा कमाने की चाह भी इंसान को गलत रास्ते पर ले जाती है.

आज पैसा ही पहचान बन गया है, इसीलिए सारी भीड़ इस के पीछे भाग रही है. सब रिश्तेनाते व संबंधों में पैसे को ही प्रमुखता दी जाती है, पैसे को ही सर्वश्रेष्ठ समझा जा रहा है. यहां तक कि पैसा कमाने के लिए लोग घर से दूर शहरों में रह कर मशीन की तरह काम कर रहे हैं, जिस कारण उन के पास अपनों के लिए भी समय नहीं है.

विदेश जाने की चाहत

विदेश जाने की ललक, वहां रह कर पैसा कमाने की चाह, यह सपना भारत का हर नौजवान देखता है, लेकिन इसे साकार करना सब के बस की बात नहीं होती. विदेश में काम करने की प्रक्रिया इतनी कठिन है कि उस की औपचारिकता पूरी कर पाना काफी कठिन है. इस के बावजूद हजारों युवा सुनहरे भविष्य का सपना ले कर विदेश काम करने जाते हैं, लेकिन वे वहां धोखा खा जाते हैं.

आज यूरोप और अमेरिका में काम के लिए वीजा पाना टेढ़ी खीर है, लेकिन खाड़ी देशों में काम मिलने में आसानी रहती है. यही कारण है कि हमारे हजारों युवा वहां काम करने के लिए जाते हैं, लेकिन उन्हें परेशानी तब होती है जब वे किसी इसलामिक कानून के उल्लंघन में पकड़े जाते हैं.

वहां हमारे युवा ही ज्यादा क्यों पकड़े जाते हैं, इस के कई कारण हैं. एक तो वहां के सख्त इसलामिक कानून की जानकारी इन युवाओं को नहीं होती और दूसरा न ही इन युवकों को शरीअत के बारे में ज्यादा मालूम होता है. वे वहां अनजाने में इन कानूनों का उल्लंघन कर बैठते हैं, जिस से मुसीबत में फंस जाते हैं.

खाड़ी देशों में अधिकतर वे युवक जाते हैं जिन के वहां रिश्तेदार काम करते हैं या कोई परिचित रहता है. ये कम पढ़ेलिखे युवक वहां जा कर कानून की मार झेलते हैं. उन का कम पढ़ालिखा होना ही उन की परेशानी का सबब बन जाता है. वहां साइन बोर्ड अंगरेजी और अरबी में लिखे होते हैं. वे उन्हें समझ नहीं पाते और छोटीछोटी गलतियां करने के कारण पकड़ लिए जाते हैं.

कभीकभी ऐसे मामले भी देखने में आए हैं जिन में बड़े घराने के युवा पर्यटक वीजा पर वहां जाते हैं और गैरकानूनी तरीके से काम करने लगते हैं, फिर पकड़े जाने पर जेल की हवा खाते हैं.

ऐसे में भारतीय दूतावासों के सामने 2 तरह की चुनौती खड़ी हो जाती है, एक तो जो लोग अनजाने में अपराध कर बैठते हैं, उन के लिए तो वहां की सरकार से गुहार लगाई जा सकती है, लेकिन जो गैरकानूनी तरीके से वहां काम कर रहे होते हैं उन के फंसने पर मामला बहुत पेचीदा हो जाता है, जिस कारण वे जल्द जेल से निकल नहीं पाते, क्योंकि वहां का कानून बहुत कड़ा है.

विदेश मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार, भारत से बाहर रहने वाले 2 करोड़ 19 लाख प्रवासी भारतीयों में से 27त्न खाड़ी देशों में काम कर रहे हैं. इन में सब से ज्यादा मजदूर वर्ग है जो युवा है. संसार के 68 देशों की जेलों में बंद भारतीयों की सब से बड़ी तादाद खाड़ी देशों में ही है, जिन में युवा ज्यादा हैं.

विदेशी जेलों में बंद कुल भारतीयों में से 45 फीसदी खाड़ी देशों में हैं. इसलामिक कानून के उल्लंघन, चोरी, धोखाधड़ी और गैरकानूनी तरीके से काम करने या वहां रहने के आरोप में खाड़ी के 8 देशों में भारतीय युवा बंद हैं.

सऊदी अरब में लगभग 1,470 और संयुक्त अरब अमीरात में करीब 825 भारतीय युवा जेलों में बंद हैं. इराक, कुवैत, ओमान, कतर, बहरीन और यमन की जेलों में करीब 2,900 भारतीय नागरिक आज भी सजा काट रहे हैं.

इन के परिवार के लोग उन्हें छुड़ाने के लिए दूतावासों और विदेश मंत्रालय के चक्कर काटतेकाटते थक जाते हैं, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिलती. कितने मांबाप तो अपनी जिंदगी की पूरी कमाई भी इसी में लुटा देते हैं, लेकिन बेटे को नहीं छुड़ा पाते. इस तरह न जाने कितने युवक विदेश जा कर पैसा कमाने के लालच में अपनी जिंदगी बरबाद कर रहे हैं.

छात्रों और अभिभावकों के सामने मुख्य प्रश्न है शिक्षा द्वारा रोजगार प्राप्ति अहम हो. लेकिन यह भी सत्य है कि रोजगार प्राप्ति के लिए छात्र जो सामान्य शिक्षा हासिल करते हैं, वही काफी नहीं है. अब सामान्य शिक्षा के अतिरिक्त अपने को योग्य साबित करने के लिए विशेष डिग्रियों के लिए युवक प्रयत्न करते हैं.

विशेष शिक्षा प्राप्त करने के लिए छात्रों को अतिरिक्त परिश्रम, समय व धन की आवश्यकता होती है, लेकिन सामान्य शिक्षा में भी परीक्षा में नकल, अंकपत्र में हेराफेरी जैसे हथकंडे अपना कर जबतब वे अपनी अयोग्यता का ही परिचय देते हैं.

जो योग्य छात्र अच्छी शिक्षा हासिल कर भी लेते हैं. वे रोजगार के लिए दरदर की ठोकरें खाते हैं. बड़ीबड़ी डिग्रियां ले कर भी बेरोजगार घूमते हैं या छोटेमोटे प्राइवेट स्कूलों में कम वेतन पर नौकरी करते हैं.

अगर इतना भर भी नहीं मिला तो पैसा कमाने के लिए विदेश के रास्ते खोजे जाते हैं. कमाना बुरा नहीं है लेकिन बेइंतहा पैसा कमाने के चक्कर में पनपा लालच व्यक्ति को घोर स्वार्थी बनाता है.

स्कूलों के अलावा अब कोचिंग संस्थानों ने भी शिक्षा को एक अच्छाखासा धंधा बना दिया है. अभिभावकों का भी विश्वास सरकार द्वारा संचालित स्कूलों और कालेजों की अपेक्षा कोचिंग संस्थानों में जमता जा रहा है.

अध्यापक कोचिंग संस्थानों को कमाई का अतिरिक्त व मोटा जरिया जान कर इन में पढ़ाने से गुरेज नहीं करते. शिक्षा में प्रायोगिक शिक्षा का पहले ही अभाव है और समाज का अधिकतम हिस्सा शिक्षा के मूलस्वरूप को ही बिगाड़ने में लगा है.

कब्रिस्तान में भाषाएं और खत्म होती संस्कृति

कहावत है कि किसी संस्कृति को खत्म करना हो तो उस की भाषा नष्ट कर दीजिए. यह जुमला कुछ हद तक सही ही है क्योंकि भाषा किसी समुदाय की प्रमुख पहचान होती है, जो कि तेजी से नष्ट हो रही है. वैश्वीकरण ने दुनिया को सिर्फ फायदे पहुंचाए हों, ऐसा नहीं है. इस ने हम से बहुतकुछ छीना भी है.

छोटीछोटी संसकृतियां वैश्वीकरण की आंधी में तिनके की तरह बह रही हैं. उन की बोलीभाषा, उन की सांस्कृतिक पहचान आदि पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है. कुछ अरसे पहले एक सर्वेक्षण में कहा गया कि पिछले 50 वर्षों में भारत में 250 भाषाएं खत्म हो गईं. भाषाएं अलगअलग वजहों से बड़ी तेजी से मर रही हैं. ऐसे में यह कहा जाने लगा है कि भारत क्या भाषाओं का कब्रिस्तान बनता जा रहा है.

काफी समय से लुप्त होती भाषाओं की चिंता करने वालों के बीच में यह सवाल उठ रहा है. यह मुद्दा काफी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि भारत दुनिया का सब से ज्यादा भाषाओं वाला दूसरा देश है. पिछले 50 वर्षों में भारत की करीब 20 फीसदी भाषाएं विलुप्त हो गई हैं. पीपुल लिंगुइस्टिक सर्वे के मुख्य संयोजक गणेश देवी ने कुछ अरसे पहले यह खुलासा किया था. उन का दावा है कि भारत से ‘लोक’ की जबान काटने की सुनियोजित साजिश की जा रही है.

50 वर्षों से पहले 1961 की जनगणना के बाद 1,652 मातृभाषाओं का पता चला था. उस के बाद ऐसी कोई सूची नहीं बनी. उस वक्त माना गया था कि 1,652 नामों में से करीब 1,100 मातृभाषाएं थीं, क्योंकि कई बार लोग गलत सूचनाएं दे देते थे. वड़ोदरा के भाषा शोध और प्रकाशन केंद्र के सर्वे से यह बात सामने आई है. 1971 में केवल 108 भाषाओं की सूची ही सामने आई थी क्योंकि सरकारी नीतियों के मुताबिक किसी भाषा को सूची में शामिल करने के लिए उसे बोलने वालों की तादाद कम से कम 10 हजार होनी चाहिए. यह भारत सरकार ने शर्त के तौर पर रखा था.

इस बार भाषाओं के बारे में निष्कर्ष निकालने के लिए 1961 की सूची को आधार बनाया गया. इस से पहले ब्रिटिश शासनकाल में अंगरेज अफसर जौन अब्राहम ग्रियर्सन की अगुआई में 1894-1928 के बीच इस तरह का भाषाई सर्वे हुआ था. उस के 100 वर्षों बाद भाषा रिसर्च ऐंड पब्लिकेशन सैंटर नामक संस्था की ओर से भारतीय भाषाओं का लोक सर्वेक्षण यानी पीएलएसआई किया गया.

सर्वेक्षण में कहा गया है कि 1961 में भारत में 1,100 भाषाएं बोली जाती थीं. पिछले 50 वर्षों के दौरान इन में से 250 भाषाएं लुप्त हो गई हैं और फिलहाल 850 भाषाएं जीवित हैं.

सर्वेक्षण की प्रासंगिकता के सवाल पर उन के प्रवक्ता ने कहा कि हर शब्द एक अलग विश्वदृष्टि पेश करता है. मिसाल के तौर पर, हम कितने लाख बार रोए होंगे तो एक शब्द पैदा हुआ होगा आंसू, यह शब्द गया तो हमारी विश्वदृष्टि भी गई.

हालांकि, इस सर्वे में बोली और भाषा में वर्गीकरण नहीं किया गया है. इस विषय पर विद्वानों का कहना है कि यह विवाद ही फुजूल है. भाषा सिर्फ भाषा होती है. हम इस धारणा को सिरे से खारिज करते हैं कि जिस भाषा की लिपि नहीं है वह बोली है. विश्व की ज्यादातर भाषाओं के पास लिपि नहीं है.

लिपियों का अभाव

दुनिया में कुल 6 हजार भाषाएं हैं और 300 से ज्यादा के पास अपनी कोई लिपि नहीं है, लेकिन वे बहुत मशहूर भाषाएं हैं. यहां तक कि अंगरेजी की भी अपनी लिपि नहीं है. वह भी उधार की लिपि यानी रोमन में लिखी जाती है. हिंदी देवनागरी में लिखी जाती है. देवनागरी में ही संस्कृत, मराठी, नेपाली आदि भाषाएं भी लिखी जाती हैं. यानी भाषा की अपनी लिपि होनी जरूरी नहीं है.

कुछ विद्वान इस की परिभाषा देते हैं कि जो भाष कराए, वही भाषा है, उस का लिखा जाना जरूरी नहीं है. वेदों के बारे में भी कहा जाता है कि वह बोला हुआ ज्ञान है. श्रुति है. वह पढ़ा अथवा लिखा हुआ ज्ञान बाद में बना.

सैकड़ों भाषाओं के करोड़ों शब्दों की विश्वदृष्टि को अगली पीढ़ी को सौंपने के उद्देश्य से सर्वे किया गया. सर्वे के मुताबिक, करीब 400 भाषाएं ऐसी हैं जो घुमंतू, आदिवासी और गैरअधिसूचित जातियों द्वारा बोली जाती हैं.

सर्वेक्षण में जिन 780 भाषाओं का अध्ययन किया गया, उन में से 400 भाषाओं का व्याकरण और शब्दकोश भी तैयार किया गया है.

अध्ययन में पाया गया कि दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, हैदराबाद जैसे शहरों में 300 से अधिक भाषाएं बोली जाती हैं. अरुणाचल में 90 भाषाएं बोली जाती हैं. दादर और नागर हवेली में गोरपा नाम की एक भाषा मिली जिस का अब तक कोई रिकौर्ड नहीं है. हिंदी बोलने वालों की संख्या लगभग 40 करोड़ है, जबकि सिक्किम में माझी बोलने वालों की संख्या सिर्फ 4 है.

सर्वेक्षण में उन भाषाओं को भी शामिल किया गया जिन्हें बोलने वालों की संख्या 10 हजार से कम है. सर्वेक्षण में इन भाषाओं को शामिल करने के पीछे देवी ने तर्क दिया कि बंगलादेश युद्घ के बाद भाषाई संघर्ष की संभावनाओं को खत्म करने के लिए रणनीति के तहत उन भाषाओं को जनगणना में शामिल करना बंद कर दिया गया, जिन्हें बोलने वालों की संख्या 10 हजार से कम हो. यही वजह है कि 1961 की जनगणना में 1,652 भाषाओं का जिक्र है, जबकि 1971 में यही घट कर 182 हो गई और 2001 में 122 रह गई.

सर्वेक्षण में ऐसा माना गया कि 1961 की जनगणना में जिन 1,652 भाषाओं का जिक्र है, उन में से अनुमानतया 1,100 को भाषा का दरजा दिया जा सकता है. भारत सरकार की तरफ से 2006-07 में भारतीय भाषाओं पर सर्वेक्षण कराए जाने की पहल हुई थी, लेकिन यह योजना आगे नहीं बढ़ सकी.

भाषाओं का विमर्श केवल प्रमुख भाषाओं तक सीमित है. जैसे, हाल ही में कर्नाटक और तमिलनाडु में हिंदी थोपने के खिलाफ आंदोलन हुआ. इसी तरह कई हिंदीभाषी राज्यों में अंगरेजी को निशाना बनाया जाता है क्योंकि कुछ लोगों को लगता है कि अंगरेजी की लोकप्रियता भारतीय भाषाओं की कीमत पर बढ़ रही है.

फंड का फेर

हिंदी बनाम अंगरेजी से या हिंदी बनाम कन्नड़ की बहस से एक महत्त्वपूर्ण बहस यह भी चल रही है कि छोटी आदिवासी भाषाएं कैसे राज्यों की अधिकृत भाषाओं के सामने टिक पाएंगी. कागजों पर सरकारें लुप्त हो रही भाषाओं की मदद करते बहुतकुछ दिखाती हैं. 2014 के बाद आई सरकार ने उन भाषाओं का डौक्युमैंटेशन और संरक्षण का काम शुरू किया है जिन्हें बोलने वाले 10 हजार से कम हैं. यह काम सैंट्रल इंस्टिट्यूट औफ लैंग्वेजेज द्वारा किया जा रहा है. जिस के बारे में वहां के कर्मचारियों का कहना है कि उस के पास फंड कम है और योग्य कर्मचारियों की कमी भी है.

इस के अलावा सरकार ने 9 विश्वविद्यालयों में विलुप्त भाषाओं के केंद्र स्थापित किए हैं. अंतर्राष्ट्रीय संस्था फाउंडेशन औफ एनडैंजर्ड लैंग्वैजेज के अध्यक्ष निकोलस औस्टलर का कहना है कि इस मामले में सरकार का समर्थन जरूरी है, मगर लंबे समय में समुदाय तभी फलतेफूलते हैं जब वे मामलों को अपने हाथों में लेते हैं.

वैश्विक स्तर पर देखें तो वहां भी अंगरेजी के वर्चस्व के आगे सैकड़ों भाषाओं पर अस्तित्व का संकट है. संयुक्त राष्ट्र की ओर से 2009 में जारी आंकड़ों के मुताबिक, सब से खराब हालत भारत में है जहां 196 भाषाएं विलुप्ति के कगार पर हैं. इस के बाद अमेरिका का स्थान है, जहां 192 भाषाएं विलुप्तप्राय हैं. इंडोनेशिया में 147 भाषाएं मिटने वाली हैं.

दुनिया में 199 भाषाएं ऐसी हैं जिन्हें बोलने वालों की संख्या 10 से भी कम है. 178 भाषाएं ऐसी हैं जिन्हें बोलने वालों की संख्या 150 लोगों से भी कम है. एक अनुमान के मुताबिक, दुनियाभर में 6,900 भाषाएं बोली जाती हैं, जिन में से 2,500 भाषाओं की स्थिति चिंताजनक है. यदि भाषा संस्कृति का आधार है तो इन भाषाओं के नष्ट होने के साथ ये संस्कृतियां भी नष्ट हो जाएंगी.

गणेश देवी के मुताबिक, दुनिया की 6 हजार भाषाओं में से 4 हजार भाषाओं पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है, जिन में से 10 फीसदी भाषाएं भारत में बोली जाती हैं. दूसरे शब्दों में, कुल 780 भाषाओं में से 400 भारतीय भाषाएं विलुप्त हो सकती हैं.

उल्लेखनीय है कि दुनिया की सब से ज्यादा भाषाएं पापुआ न्यू गिनी में हैं. इन की संख्या 838 है. तीसरा नंबर इंडोनेशिया का है जहां 707 भाषाएं हैं. चौथे नंबर पर नाइजीरिया है 526 भाषाओं के साथ. उस के बाद क्रमश: अमेरिका (422), चीन (300), मैक्सिको (289), कैमरून (281), आस्ट्रेलिया (245), ब्राजील (229) के नंबर आते हैं. मगर भारत में अन्य देशों की तुलना में ज्यादा भाषाएं विलुप्त हो रही हैं. पापुआ न्यू गिनी में 98, इंडोनेशिया 143, अमेरिका 191, चीन 144, मैक्सिको 143, आस्ट्रेलिया 108, ब्राजील 190 और कनाडा में 87 भाषाएं विलुप्त हो चुकी हैं.

भारत में 2 तरह की भाषाएं लुप्त हुई हैं. एक तो तटीय इलाकों के लोग ‘सी फार्मिंग’ की तकनीक में बदलाव होने से शहरों की तरफ चले गए. उन की भाषाएं ज्यादा विलुप्त हुईं. दूसरे, जो डीनोटिफाइड कैटेगरी है, बंजारा समुदाय के लोग, जिन्हें एक समय अपराधी माना जाता था. वे अब शहरों में जा कर अपनी पहचान छिपाने की कोशिश कर रहे हैं. ऐसे 190 समुदाय हैं, जिन की भाषाएं बड़े पैमाने पर लुप्त हो गई हैं.

गणेश देवी के अनुसार, बंजारों, आदिवासी या अन्य पिछड़े समाजों की भाषाएं पूरे विश्व में लगातार नष्ट हो रही हैं. यह आधुनिकता की सब से बड़ी विडंबना है. ऐसे लोग देश के लगभग हर हिस्से में फैले हैं. ऐसा नहीं है कि ये लोग जीवित नहीं हैं. ये जिंदा हैं और इन की संख्या लाखों में हैं, लेकिन ये अपनी भाषा भूल चुके हैं.

जानकारों का एक समूह मानता है कि ग्लोबलाइजेशन की वजह से मातृभाषाओं की मौत हो रही है. लोग जहां जाते हैं वहीं की भाषा अपना लेते हैं और अपनी भाषा को छोड़ देते हैं.

वैसे, ग्लोबलाइजेशन को कितना ही कोस लीजिए, वह वक्त का तकाजा है. उस में छोटे समुदायों के आपस में जुड़ने से दुनिया एक गांव बनती जा रही है. माइग्रेशन, परिवहन और संचार के साधन लोगों को पास ला रहे हैं. इस में पुरानी भाषाओं और बोलियों का क्षय होना स्वाभाविक है. मगर उस में से जो प्रमुख भाषाएं उभर कर आ रही हैं उन में से करोड़ों लोग जुड़ते हैं.

जब देखें लड़का तो कुछ बातें ध्यान में रखें

अब वह जमाना नहीं रहा जब युवकयुवती देखने जा कर अपनी पसंदनापसंद बताता था. बदलते दौर में अब न सिर्फ युवक बल्कि युवती भी लड़का देखने जाती है और दस तरह की बातें पौइंट आउट करती है जैसे वह दिखने में कैसा है? उस का वे औफ टौकिंग कैसा है? बौडी फिजिक बोल्ड है या नहीं ममाज बौय तो नहीं है? वगैरावगैरा.

आज बराबर की हिस्सेदारी के कारण युवतियां किसी चीज से समझौता करना पसंद नहीं करतीं. यह ठीक भी है कि जिस के साथ ताउम्र रहना है उस के बारे में जितना हो सके जान लेना चाहिए ताकि आगे किसी तरह का कोई डाउट न रहे.

ऐसे में आप जब लड़का देखने जाएं तो कुछ बातें ध्यान में रखें और खुद भी ऐसा कुछ न करें जो आप की नैगेटिव पर्सनैलिटी को दर्शाए.

  • जब भी आप युवक से पहली बार मिलें तो उस की बौडी लैंग्वेज पर खास ध्यान दें. इस से आप को उस की आधी पर्सनैलिटी का तो ऐसे ही अंदाजा हो जाएगा. बात करते हुए देख लें कि कहीं वह बात करने से ज्यादा अपने हाथपैर तो नहीं हिला रहा. बात करते हुए फेस पर अजीब से रिऐक्शन तो नहीं आ रहे. इस से आप को उसे जज करने में काफी आसानी होगी.
  •  बात करते समय इस बात पर गौर फरमाएं कि कहीं वह तू से बात करना तो शुरू नहीं करता कि यार, मुझे तो बिलकुल तेरे जैसी लड़की चाहिए, तू तो आज बहुत क्यूट लग रही है. अगर ऐसा कहे तो समझ जाएं कि वह आप के लायक युवक नहीं है, क्योंकि जो पहली बातचीत में ही तू तड़ाक पर आ जाए उस से भविष्य में रिस्पैक्ट की उम्मीद नहीं की जा सकती.
  • भले ही उस युवक का सैलरी पैकेज काफी अच्छा हो, लेकिन इस का यह मतलब तो नहीं कि उस की हर बात में सैलरी का ही जिक्र हो. जैसे अगर हम दोनों की शादी हो गई तो तुम ऐश करोगी, तुम्हें ब्रैंडेड चीजें यूज करने का मौका मिलेगा, क्योंकि मैं औफिस के काम से विदेश भी जाता रहता हूं. इस से आप को अंदाजा हो जाएगा कि उसे अपनी सैलरी पर घमंड है.
  • युवक को जानने के साथसाथ आप उस की फैमिली को भी एकनजर में जानने की कोशिश करें. आप को उन की बातचीत के तरीके से पता लग जाएगा कि वे कैसे विचारों के लोग हैं. लड़की को जौब करवाने के फेवर में हैं या नहीं. घर में लड़की से ज्यादा लड़के को तो महत्त्व नहीं देते. इन सारी बातों का पता होने पर आप को डिसीजन लेने में काफी आसानी होगी.
  • बातोंबातों में कहीं दहेज की ओर तो इशारा नहीं है. जैसे हमारी बड़ी बहू तो शादी में हर चीज लाई थी, हमारा लड़का तो 15 लाख रुपए सालाना कमाता है, हमारे यहां तो रिश्तेदारों का शादी में खास खातिरदारी का रिवाज है. आप को जो देना है अपनी लड़की को देना है, हमें कुछ नहीं चाहिए जैसी बातें अगर मीटिंग में की जा रही हैं तो समझ जाएं कि उन्हें लड़की से ज्यादा दहेज में इंट्रस्ट है.
  • आप की फैमिली लड़की को आप से बात करने के लिए कह रही है और वह इस के लिए मम्मी से परमिशन ले कर खुद को ममाज बौय दिखाने की कोशिश करे तो समझ जाएं कि लड़के की खुद की कोई पर्सनैलिटी नहीं है और वह हर बात के लिए मम्मी पर डिपैंड रहता है.
  • अगर थोड़ी सी सीरियस बात के बाद वह सीधा कपड़ों पर आ जाए जैसे मुझे तो सूट वगैरा बिलकुल पसंद नहीं हैं. मैं तो चाहता हूं कि मेरी लाइफ पार्टनर हमेशा हौट ड्रैसेज पहने, इस से आप को यह समझने में आसानी होगी कि उसे आप से ज्यादा छोटे कपड़ों में इंट्रस्ट है, जो हैप्पी मैरिड लाइफ के लिए सही नहीं है.
  • कहीं ऐसा तो नहीं कि फर्स्ट मीटिंग में ही युवक आप से फ्यूचर प्लानिंग के बारे में बात करना शुरू कर दे कि हम तो शादी के बाद अकेले रहेंगे, इस तरह चीजों को मैनेज करेंगे, मुझे तो लड़के बहुत पसंद हैं इस से आप को उस की मैच्योरिटी के बारे में पता चल जाएगा.
  • जरूरी नहीं कि जब हम इस तरह की मीटिंग के लिए कहीं बाहर जाएं तो हमेशा लड़की वाले ही बिल पे करें. भले ही आप के पेरैंट्स उन्हें बिल पे न करने दें, लेकिन फिर भी यह बात जानने के लिए थोड़ी देर तक बिल पे न करें. अगर वह एक बार भी बिल पे करने का जिक्र न करे तो समझ जाएं कि वह सिर्फ फ्री में खानेपीने वाले सिद्धांत पर चलने वाला है.
  • भले ही आप काफी स्मार्ट हों, लेकिन इस का यह मतलब नहीं कि आप लड़के के गुणों को देखने के बजाय उस की स्मार्टनैस के बेस पर ही उसे पौइंट्स दें. एक बात मान कर चलें कि स्मार्टनैस थोड़े दिन ही अच्छी लगती है उस के बाद तो व्यक्ति के गुणों के बल पर ही जिंदगी चलती है. इसलिए आउटर के साथसाथ इनर पर्सनैलिटी को भी ध्यान में रखें.
  • हमारे घर में यह होता है, हम ऐसे रहते हैं, हम यह नहीं खाते, मौल्स के अलावा हम कहीं और से शौपिंग नहीं करते. भले ही आप का लिविंग स्टैंडर्ड काफी हाई हो, लेकिन अगर आप इस तरह की बातें लड़के से करेंगी तो वह चाहे आप कितनी भी सुंदर क्यों न हों, आप से शादी नहीं करेगा.
  • माना कि युवतियों को शौपिंग का शौक होता है, लेकिन इस का मतलब यह तो नहीं कि आप युवक से 20 मिनट में 15 मिनट शौपिंग को ले कर ही बात करें. जैसे मैं हफ्ते में जब तक एक बार शौपिंग नहीं कर लेती तब तक मुझे चैन नहीं आता, क्या तुम्हें शौपिंग पसंद है? अगर हमारी शादी हो गई तो क्या तुम मेरे साथ हर वीकैंड पर शौपिंग पर चला करोगे? ऐसी बातों से सिर्फ यही शो होगा कि आप को मैरिज से ज्यादा शौपिंग में इंट्रस्ट है जो आप की नैगेटिव पर्सनैलिटी को शो करेगा.

  • आज सोशल मीडिया का जमाना है, लेकिन इस का यह मतलब नहीं कि हर जगह सोशल मीडिया ही हावी हो. ऐसे में जब आप लड़के से बात कर रही हैं तो यह न पूछ बैठें कि आप सोशल साइट्स पर ऐक्टिव हैं कि नहीं. अगर हैं तो अपनी आईडी दीजिए ताकि मैं अपनी फ्रैंडलिस्ट में आप को ऐड कर सकूं. इस से लड़के तक यही मैसेज जाएगा कि आप सोशल मीडिया को ले कर कितनी क्रेजी हैं तभी इतनी सीरियस टौक में आप सोशल मीडिया को ले आई हैं.
  • जब भी आप लड़के से मिलने जाएं तो उस का बायोडाटा अच्छी तरह पढ़ लें कि वह कहां जौब करता है, इस से पहले उस ने किनकिन कंपनियों में जौब की है, उस की फैमिली में कितने मैंबर्स हैं और कौन क्या करता है. यहां तक कि उस की कंपनी व पद के बारे में भी जानकारी रखें. इस से जब वह अपनी कंपनी के बारे में बता रहा होगा तो आप की तरफ से भी अच्छा फीडबैक मिल पाएगा.पहली मुलाकात में ही आप उस से अपना नंबर शेयर न करें, क्योंकि आप को क्या पता कि बात बनेगी या नहीं. इसलिए इस बात को अपने
  • पेरैंट्स पर छोड़ दें, क्योंकि अगर आप का रिश्ता बना तो पेरैंट्स खुद ही आप को नंबर दिलवा देंगे ताकि आप को एक दूसरे को जानने का मौका मिल सके.
  • अगर बड़े किसी टौपिक पर बात कर रहे हैं कि जैसे हम शादी तो अपने होम टाउन से ही करेंगे तो ऐसे में आप बीच में टांग न अड़ाने लगें कि नहीं आंटी ऐसा नहीं होगा. आप के इस व्यवहार से आप की बदतमीजी ही शो होगी इसलिए जब तक जरूरी न हो तब तक बीच में न बोलें.
  • अगर आप को लड़के की कोई बात पसंद नहीं आ रही तो एकदम से गुस्से में न आ जाएं बल्कि शांत तरीके से अपनी बात रखें, इस से उस पर आप का अच्छा प्रभाव पड़ेगा और उसे लगेगा कि आप चीजों को अच्छे से ऐडजस्ट करना जानती हैं.

इस तरह आप को अपने लाइफ पार्टनर के सिलैक्शन में आसानी होगी.

गोरखधंधा : मर्दानगी बेचने वालों से सावधान

‘यह लीजिए साहब… पुश्तैनी जोड़ों के दर्द को जड़ से मिटा देगी… यह जड़ीबूटी डायबिटीज, पेट की खराबी, सुस्ती, थकावट सब दूर कर देगी… काम में मन न लगना, मन अशांत रहना, हर मर्ज की दवा है हमारे पास,’ जैसी बातें कह कर ठग ग्राहकों को खूब लूटते हैं.

‘यह दवा आप को किसी डाक्टर के पास या मैडिकल स्टोर में नहीं मिलेगी.

‘साहब, हम इसे जंगल से ढूंढ़ ढूंढ़ कर लाते हैं. हमारे खानदान के लोगों को ही इस जड़ी के बारे में मालूम है. यह हिमालय की चोटी पर उगती है, बर्फ में ढूंढ़नी पड़ती है. बहुत महंगी बिकती है. इसे खाने के बाद सामने वाला चारों खाने चित नहीं हुआ, तो सारा पैसा वापस.’

ऐसी ही बातें सुन कर खदान में काम करने वाले एक मजदूर ने सड़क किनारे तंबू लगा कर दवा बेचने वाले से तेल लिया. उसे अंग पर लगाने के थोड़ी देर बाद तकलीफ होनी शुरू हो गई. अंग फूल कर मोटा हो गया. उस में जलन व दर्द होने लगा. धीरे धीरे तकलीफ इतनी बढ़ गई कि वह छटपटाने लगा.

उस मजदूर की बीवी ने पड़ोसियों की मदद से उसे अस्पताल पहुंचाया. डाक्टरों ने फौरन इलाज कर के दर्द व जलन दूर कर दी. पर तेल लगाने से जो छूत की बीमारी हुई थी, उसे ठीक होने में डेढ़ महीना लग गया.

इसी तरह एक आदमी ने सैक्स ताकत बढ़ाने के लिए सड़क किनारे दवा बेचने वाले से दवा ली. दवा खाने के थोड़ी देर बाद हाथपैरों में ऐंठन शुरू हो गई. उस की बीवी पति की हालत देख कर घबरा गई. उस ने पड़ोसियों को बुलाया, जो उसे अस्पताल ले गए. डाक्टर ने इलाज किया, जहां वह काफी समय बाद ठीक हुआ.

जब उस आदमी ने डाक्टर से ताकत की दवा लेने के बारे में बताया, तो डाक्टर ने उसे बताया कि ऐसी दवाओं में नशीली चीजें होती हैं. उन्हीं के असर से उसे ऐसी तकलीफ हो गई थी.

सारणी में सड़क के किनारे तंबू लगा कर दवा बेचने वाले तथाकथित वैद्य के पास एक आदमी पहुंचा. बाहर से साधारण दिखने वाले तंबू के अंदर का नजारा चकाचौंध कर देने वाला था. सामने सैकड़ों शीशियों में गोलियां, चूर्ण, कैप्सूल, जड़ीबूटियां वगैरह रखी हुई थीं.

उस ने मरीज के रूप में अपना हाथ दिखाया, तो उस वैद्य ने हाथ की नाड़ी को पकड़ कर कहा, ‘शरीर में गरमी हो गई है. इस से शरीर का धातु पतला हो कर बाहर चला जा रहा है. शरीर में पानी की मात्रा बढ़ रही है, जिस से वह फूल गया है.’

वैद्य ने 750 रुपए की एक महीने की दवा लेने को कहा और पौष्टिक चीजें खाने की राय दी. जब उस से कहा गया कि मैं तो पूछताछ करने आया हूं, तो वह वैद्य घबरा गया. अपनेआप को संभालते हुए उस ने कहा कि मैं तो मजाक कर रहा था. इतने रुपए की दवा नहीं लगेगी.

जब उस से पूछा कि धातु क्या होता है? दवा से अंग कैसे मोटा हो जाता है? जवानी की ताकत बढ़ाने वाली दवा में क्याक्या मिलाते हैं? तो उस ने सवालों के जवाब देने से मना कर दिया और कहा कि वह कल अपने गुरु से इन सवालों के जवाब मालूम कर के बता देगा.

दूसरे दिन वहां पर तंबू नहीं था. वैसे, उस तंबू वाले तथाकथित वैद्य की कमाई का अंदाजा उस के पास मौजूदा रंगीन टैलीविजन, मोटरसाइकिल, मेटाडोर वगैरह से लगाया जा सकता है.

खानदानी इलाज करने वाले तथाकथित वैद्यों की जवान पीढ़ी भी इसी काम में लगी हुई है. इस काम में लगे ज्यादातर नौजवान नासमझ हैं. उस की वजह यह है कि एक ही जगह पर अधिक दिनों तक तंबू लगा कर न रहने से बच्चे स्कूली पढ़ाई नहीं कर पाते हैं.

उन का कहना है कि पढ़लिख कर उन्हें कौन सी नौकरी करनी है. उन्हें तो बाप दादाओं से मिले हुनर का ही काम करना है. जड़ीबूटी बेचना उन की विरासत है. वह इसे छोड़ना नहीं चाहते हैं. उन की औरतें भी इसी काम में लगी रहती हैं. मर्दों को बुला कर सैक्स की दवा बेचने में उन्हें शर्म या झिझक महसूस नहीं होती.

इन के पास केवल आदमी ही इलाज के लिए जाते हैं, ऐसा नहीं है. तमाम औरतें व स्कूली छात्राएं छाती बढ़ाने, ढीली छाती को कसने, पेट गिराने, बांझपन, ल्यूकोरिया, माहवारी संबंधी बीमारियां, ठंडापन, बालों का झड़ना, कीलमुहांसे वगैरह की शिकायतें ले कर इन तंबुओं में पहुंचती हैं.

पिछले दिनों एक मामला सामने आया. जब एक कालेज की छात्रा कीलमुहांसे के इलाज के लिए तंबू में पहुंची, तब तंबू के तथाकथित वैद्य ने उसे छेड़ दिया. जब बात कालेज के छात्रों को पता चली, तो उन्होंने आ कर तंबू उखाड़ दिया. तथाकथित वैद्य वहां से फरार हो गया.

सैक्स मामलों के जानकार डाक्टर का कहना है कि सड़क के किनारे तंबू लगा कर दवा बेचने वालों से किसी भी तरह का इलाज नहीं कराना चाहिए. इन्हें दवाओं के बारे में सही जानकारी नहीं होती, जिस की वजह से इन की दी हुई दवाएं इस्तेमाल करने पर फायदा होने के बजाय नुकसान होता है.

इन के द्वारा दी गई जवानी बढ़ाने वाली दवाओं में नशीली चीजों का इस्तेमाल किया जाता है, जो शरीर को काफी नुकसान पहुंचाती हैं.

बोडो संघर्ष बयां करती बुनकरी

अकसर हम असम को केवल बोडो समस्या के लिए याद करते हैं, लेकिन इस के अलावा भी वहां बहुतकुछ है. असम के इन्हीं बोडोलैंड इलाकों की बोडो बुनकरों ने अपने हुनर से नई इबारत लिखनी शुरू कर दी है. असम की इन आदिवासी बोडो औरतों ने बुनकरी की कला के जरीए अपने हाथों का हुनर दुनिया के सामने पेश किया है. असम के चिरांग जिले के रौमई गांव की इन बुनकरों के बनाए कपड़ों की पहचान सात समंदर पार तक है. बोडो बुनकरों के हाथों से बने ये कपड़े केवल कपड़े ही नहीं हैं, बल्कि उन हजारों बोडो औरतों का जुनून है, जो उन्हें अपने दम पर कुछ करने की ओर आगे बढ़ा रहा है. लेकिन अफसोस की बात यह है कि दुनियाभर की औरतों के लिए साड़ी बुन रहीं ये असमिया औरतें अपना तन भी पूरी तरह से नहीं ढक पाती हैं.

इन बुनकरों के बनाए कपड़े आज अमेरिका, जरमनी और दुबई में बड़ी तादाद में बिक रहे हैं. इन के द्वारा संचालित सब से बड़ा शोरूम बेंगलुरु में खोला गया है. असम में भी कई छोटेछोटे स्टोर चलाए जा रहे हैं. कच्चा माल बेंगलुरु से असम आता है और रंगाई तमिलनाडु में होती है. हालांकि अब असम में ही रंगाई शुरू करने की कोशिशें की जा रही हैं.

कपड़ों पर गंवई सभ्यता

 इन औरतों द्वारा बनाई जा रही साडि़यों के डिजाइनों में गांवदेहात की सभ्यता बेहद खूबसूरती से झांकती है. इन में मोर, पत्तियां, कछुए की आकृति जैसे डिजाइन सब से ज्यादा पसंदीदा माने जाते हैं.

तकरीबन 3 सौ से ज्यादा बुनकरों के कपड़ों का यह कारोबार सालाना एक करोड़ रुपए तक पहुंच गया है. खास बात यह भी है कि तकरीबन 3 मीटर का दुकना यानी साड़ी जैसा कपड़ा पहनने वाली ये बुनकर अपने ठेठ और आदिवासी अंदाज को भूलती नहीं हैं.

एक ही मंत्र ‘सहकारिता’

ये बुनकर औरतें सहकारिता के मूल मंत्र को ले कर काम कर रही हैं. रौमई गांव के पास बड़े कसबे बोंगाईगांव के सुदूर गांवदेहात के इलाकों में भी ये औरतें अपने घरों पर ही कपड़ा बनाती हैं. जिस औरत के यहां काम हो रहा होता है, उस की मदद के लिए दूसरी औरतें भी वहां पहुंच जाती हैं.

देशी तकनीक

देशी तकनीक से बनी मशीनों पर धागा और साड़ी बुनने के काम के लिए ये औरतें 7-8 हजार रुपए महीने तक कमा लेती हैं. अमूमन, एक औरत का टारगेट 30 मीटर साड़ी या दूसरा कपड़ा बुनने का होता है. अगर कोई औरत

30 मीटर की साड़ी तय समय में बना पाने में नाकाम रहती है, तो समूह की दूसरी औरतें उस की मदद करने में जुट जाती हैं.

बनाया ‘साइकिल बैंक’

इन बुनकरों को अपने रोजमर्रा के काम जैसे पानी लाना, सब्जी लाना वगैरह के लिए तकरीबन 2 किलोमीटर पैदल चल कर जाना पड़ता था, जिस में काफी समय बरबाद होता था. इस के लिए संस्था ने औरतों को लोन पर साइकिल मुहैया कराना शुरू किया है. इस के बाद इन औरतों ने आपसी समझ से अक्तूबर, 2013 में खुद का ‘साइकिल बैंक’ बना लिया.

इस बैंक को चलाने वाली रीमा बताती हैं कि 11 ग्रुप बनाए गए हैं. हर ग्रुप में 12 सदस्य शामिल हैं. हर औरत ने 40 से 60 रुपए हर महीना इकट्ठा करना शुरू किया. जिस औरत को बैंक से साइकिल लेनी होती है, उसे अमानत के रूप में 11 सौ रुपए जमा कराने पड़ते हैं. साथ ही, हर महीने किस्त के रूप में सौ रुपए और ब्याज के रूप में 60 रुपए देने पड़ते हैं. अब तक 68 औरतों ने ‘साइकिल बैंक’ से साइकिलें खरीदी हैं.

साइकिल न केवल इन औरतों के लिए जरूरी बन गई है, बल्कि मनोरंजन का साधन भी बन गई है. औरतों के बीच महीने में एक बार धीमी और तेज साइकिल चलाने की रेस भी कराई जाती है.

पीने को साफ पानी नहीं, मूर्तिपूजा आरओ के पानी से

राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग की उपाध्यक्ष और भारतीय जनता पार्टी की सांसद अनुसुइया उइके अपनी टीम समेत कुछ आदिवासी इलाकों का दौरा कर के भोपाल आईं, तो झल्लाई हुईं और बेहद गुस्से में थीं.

मीडिया के सामने उन्होंने बिना किसी लिहाज के अपनी ही सरकार को आड़े हाथ लिया. उन्होंने कहा कि आदिवासियों की हालत बहुत ही चिंताजनक है. उन की भलाई के लिए चलाई जा रही सरकारी योजनाओं में भारी भ्रष्टाचार हो रहा है. आदिवासी इलाकों के स्कूलों में पढ़ाने के लिए टीचर नहीं हैं और सब से ज्यादा चिंता और खतरे की बात आदिवासियों को पीने के लिए साफ पानी न मिलना है.

इत्तिफाक से उसी दिन सुप्रीम कोर्ट का एक अहम फैसला उज्जैन में बने महाकाल मंदिर को ले कर यह आया था कि अब महाकाल का अभिषेक आरओ के पानी से ही किया जाएगा, क्योंकि साधारण पानी से अभिषेक करने पर शंकर की पिंडी यानी मूर्ति को नुकसान पहुंच रहा है.

अपने फैसले में सब से बड़ी अदालत ने मूर्तिपूजा यानी अभिषेक के कई नियम भी बना दिए हैं, जिस से शिवलिंग को नुकसान न पहुंचे.

इन दोनों खबरों से यह बात उजागर होती है कि देश को आदिवासियों से ज्यादा पत्थर की मूर्तियों की चिंता है, जो पंडेपुजारियों की आमदनी का एक बड़ा जरीया है और शिवलिंग की उस से भी ज्यादा चिंता है कि उस के अभिषेक को ले कर कानून बनाए जा रहे हैं. आदिवासी गंदा पानी पीपी कर बीमार हो कर मरते रहें, यह चिंता की बात नहीं है.

आजादी के इतने साल बाद भी आदिवासी समदाय को पढ़ाईलिखाई की सहूलियतें नहीं हैं. उन के इलाकों में डाक्टर नहीं हैं और लोकतंत्र और राजनीति को शर्मसार कर देने वाली सचाई यह है कि वे गंदे नालों और कुओं का पानी पीने को मजबूर हैं, जिस पर किसी सरकार या अदालत का ध्यान नहीं जाता.

ऐसा सिर्फ इसलिए है कि आदिवासी सरल और सीधे हैं. उन्हें संविधान में लिखे अपने बुनियादी हकों की भी सही जानकारी नहीं है. दरअसल, यह एक गहरी साजिश है कि इस तबके को पिछड़ा ही रखा जाए और उस के भले के नाम पर खरबों रुपए की योजनाएं बना कर उन से पैसा बनाया जाए, जिस का फायदा अफसर, नेता, मंत्री सब उठाते हैं.

अनुसुइया उइके का गुस्सा जायज है, जिस पर खुद कोर्ट को पहल करते हुए सरकार से पूछना चाहिए कि ऐसा क्यों है कि आदिवासी गंदा पानी पीने को मजबूर हैं?

जागरूक लोगों को भी सोचना चाहिए कि किसी शिवलिंग का अभिषेक आरओ के पानी से हो, इस से पहले इस पिछड़े और अपढ़ तबके को इंसाफ और बुनियादी सहूलियतें दिलाने के लिए मुहिम छेड़ी जाए, नहीं तो फिर नक्सलवादी हिंसा करेंगे, जिस पर हायहाय तो सब करेंगे, लेकिन आदिवासी समाज के फायदे की बात गायब हो जाएगी.

कोई भी पूजापाठ या मूर्तिपूजा देशवासियों से ज्यादा अहम नहीं है, लेकिन ऐसा हो रहा है, तो विकास किस का और कैसा हो रहा है, यह बताने की जरूरत नहीं है. चूंकि आदिवासी समाज खुद को हिंदू नहीं मानता है, इसलिए भी उस की अनदेखी हो रही है और उसे जानबूझ कर शिकार बनाया जा रहा है.

बाल विवाह की बढ़ती सनक

देशभर में 26.8 फीसदी लड़कियों और 20 फीसदी लड़कों की शादी आज भी कच्ची उम्र में की जा रही है. नैशनल फैमिली हैल्थ सर्वे-4 की रिपोर्ट कहती है कि बिहार में 21 साल से पहले 40 फीसदी लड़कों और 18 साल से पहले 39 फीसदी लड़कियों की शादी करा दी जाती है, वहीं उत्तर प्रदेश में 28.8 फीसदी लड़कों और 21 फीसदी लड़कियों की शादी बालिग होने से पहले ही कर दी जाती है.

सर्वे में कहा गया है कि गांवदेहात में बड़े लैवल पर धड़ल्ले से बाल विवाह किए जा रहे हैं. गांवों में 24 फीसदी लड़कों और 37 फीसदी लड़कियों की शादी कानून द्वारा तय की गई शादी की उम्र्र से पहले ही कर दी जाती है.

साल 1929 में बनाया गया बाल विवाह निरोधक कानून कहता है कि लड़की की शादी 18 साल और लड़के की शादी 21 साल की उम्र से पहले नहीं की जा सकती है.

साल 2006 में बाल विवाह निरोध अधिनियम को नए सिरे से लागू किया गया. बाल विवाह प्रतिरोध अधिनियम, 2006 की धारा-2(ए) के तहत 21 साल से कम उम्र के लड़कों और 18 साल से कम उम्र की लड़कियों को नाबालिग करार दिया गया है.

इस कानून के तहत बाल विवाह को गैरकानूनी करार दिया गया है. बाल विवाह की इजाजत देने, शादी तय करने, शादी कराने या शादी समारोह में हिस्सा लेने वालों को भी सजा दिए जाने का कानून है.

कानून की धारा-10 के मुताबिक, बाल विवाह कराने वाले को 2 साल तक साधारण कारावास या एक लाख रुपए के जुर्माने की सजा दी जा सकती है, वहीं धारा-11 (1) कहती है कि बाल विवाह को बढ़ावा देने या उस की इजाजत देने वालों को 2 साल तक का कठोर कारावास और एक लाख रुपए जुर्माने की सजा हो सकती है.

बाल विवाह पर रोक लगाने की हकीकत यह है कि बिहार में पिछले 11 सालों में बाल विवाह के कुल 15 केस ही दर्ज किए गए हैं, जबकि भारी पैमाने पर बाल विवाह जारी हैं.

सरकार और अफसरों की लापरवाही का यह नतीजा है कि राज्य के जिन जिलों में सब से ज्यादा बाल विवाह होते हैं, वहां एक भी केस दर्ज नहीं हुआ है.

साल 2006 से ले कर अगस्त, 2017 के बीच गोपालगंज में 4, नालंदा में 3, पटना, सहरसा और कटिहार में 2-2 और जहानाबाद व शिवहर में एकएक केस दर्ज किए गए.

बेगुसराय में 53.2, मधेपुरा में 56.3, सुपौल में 56.9, जमुई में 50.8 फीसदी बाल विवाह होते हैं, इस के बाद भी इन जिलों में बाल विवाह का एक भी केस दर्ज नहीं किया जा सका.

14 जून, 2017 को जहानाबाद के काको में मासूम 12 साल की बच्ची टिकुलिया की शादी हो रही थी. वह फूटफूट कर रो रही थी. उसे शादी के बारे में कुछ पता नहीं था. वह इस बात के लिए रो रही थी कि अब उसे अपने घर से दूर किसी दूसरे के घर में रहना पड़ेगा.

परंपरा की जंजीरों में जकड़े उस के मांबाप और रिश्तेदार जबरन उस की शादी की रस्म अदा कराते रहे. उस की सिसकियों के बीच शहनाइयां बजती रहीं और परिवार वाले तरहतरह के पकवान खाने का लुत्फ उठाते रहे.

कच्ची उम्र में जबरन बेटियों और बेटों की शादी करने वाले मांबाप अपने मासूम बच्चों को जिंदगीभर के लिए दर्द के दलदल में फंसा कर छोड़ देते हैं.

बिहार के कटिहार जिले के समेली गांव की रहने वाली निशा की शादी उस के मांबाप ने 11 साल की उम्र में कर दी थी. उस समय वह जानती भी नहीं थी कि शादी किस चिडि़या का नाम है? आज वह 24 साल की हो चुकी है.

शादी के बाद के 5 सालों में वह 4 बच्चों की मां बन गई. वह जिस्मानी रूप से इतनी कमजोर है कि ठीक से चलफिर नहीं पाती है. कच्ची उम्र में शादी कर के उस के मांबाप ने एक तो उस का बचपन छीन लिया और जवानी में जिस्मानी व दिमागी तौर पर कमजोर बना कर उसे समय से पहले ही बूढ़ा कर डाला.

डाक्टर राजीव पांडे बताते हैं कि कम उम्र में शादी होने से लड़के और लड़कियां दिमागी और जिस्मानी रूप से कच्चे होते हैं. उन्हें न तो सैक्स के बारे में कुछ पता होता है, न ही परिवार की जिम्मेदारियों की जानकारी होती है. कम उम्र में उन पर ढेर सारा बोझ डाल कर उन के मांबाप अपनी बेटियों को मौत के मुंह में धकेल देते हैं.

कम उम्र में मां बन जाने से जच्चा और बच्चा दोनों की जान को खतरा होता है. यह लड़के व लड़कियों के मांबाप और समाज को समझना चाहिए.

राष्ट्रीय परिवार सैंपल सर्वे के मुताबिक, देशभर में 22 साल से 24 साल की उम्र वर्ग की 47.4 फीसदी औरतें ऐसी हैं, जिन की शादी 18 साल से पहले कर दी गई थी. इस में 56 फीसदी औरतें गांवों की और 29 फीसदी शहरी इलाकों की हैं.

देशभर में बाल विवाह के मामले में बिहार अव्वल है. यहां 69 फीसदी लड़कियों की शादी 18 साल से पहले कर के मांबाप अपने ‘बोझ’ को हटा डालते हैं. वहीं राजस्थान में 57.6, उत्तर प्रदेश में 54.9, महाराष्ट्र में 40.4, मध्य प्रदेश में 53.8, छत्तीसगढ़ में 45.2, आंध्र प्रदेश में 54.8, पश्चिम बंगाल में 54.8, गुजरात में 35.4, असम में 38.6, ओडिशा में 37.5, तमिलनाडु में 23.3, गोवा में 12.1 फीसदी लड़कियों की शादी 18 साल से पहले कर दी जाती हैं. परंपरा की दुहाई देते हुए मांबाप अपनी मासूम बेटियों की जिंदगी खुद ही तबाह कर डालते हैं.

बाल विवाह को रोकने और इसे बढ़ावा देने वालों पर कड़ी कार्यवाही के लिए ढेरों कानून बने हुए हैं और सरकार इस पर रोक लगाने के लिए अकसर नएनए ऐलान करती रहती है. इस के बावजूद देशभर में बाल विवाह का चलन तेजी से बढ़ता जा रहा है.

समाजसेवी अनिता सिन्हा कहती हैं कि जब तक औरतें पढ़ेंगीलिखेंगी नहीं, तब तक वे जागरूक नहीं हो सकती हैं. बाल विवाह को रोकने के लिए औरतों का पढ़ालिखा होना बहुत ही जरूरी है. इस के बाद ही वे बाल विवाह के खतरों को समझ सकेंगी और अपने बच्चों का बाल विवाह नहीं होने देंगी.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें