Hindi Story : पानी – रमन ने कैसे दिया जवाब

Hindi Story : पटवारी गंगाराम प्रसाद की मोटरसाइकिल जब गांव के छोर पर बने उन के दोमंजिला मकान के सामने रुकी, तब शाम का अंधेरा गहरा चुका था. उन्होंने मोटरसाइकिल बरामदे में खड़ी की ही थी कि उन की बीवी सुशीला देवी हमेशा की तरह गिलास में पानी ले कर बाहर निकल आई. गंगाराम ने मोटरसाइकिल की डिक्की से एक छोटा सा बैग निकाला. पानी भरा गिलास एक हाथ से थामते हुए, दूसरे हाथ में पकड़ा बैग बीवी के आगे बढ़ाते हुए वे बोले, ‘‘लो, इस को अपनी अलमारी में संभाल कर रख दो.’’

सुशीला बैग के वजन को हाथों पर ही तौलते हुए बोली, ‘‘लगता है, आज का दिन काफी अच्छा रहा है.’’ गंगाराम कुल्ला करने लगे थे, इसलिए जल्दी से कोई जवाब न दे सके. पलट कर रूमाल से होंठों को पोंछते हुए वे बोले, ‘‘वाकई आज का दिन बहुत अच्छा रहा. जाने कब से लटकते आ रहे 2 केस आज निबट गए और मुझे भी उम्मीद से ज्यादा मिला है.’’

‘‘आओ,’’ सुशीला ने घर के अंदर जाने के लिए मुड़ते हुए कहा, ‘‘चाय तैयार है.’’ कुछ देर बाद गंगाराम एक आराम कुरसी पर बैठे हुए चाय पी रहे थे और अपने पास खड़ी सुशीला से कह रहे थे, ‘‘पूरे 25 हजार दिए हैं एक ने और दूसरे ने 18 हजार. दोनों का इस रकम से

4-5 गुना कीमत का फायदा जो कराया है मैं ने.’’ ‘‘अब तो रमन के लिए दुकान पक्की हो जाएगी न?’’ सुशीला देवी की बात सुन कर गंगाराम के चौड़े माथे पर शिकन पड़ गई. वे बोले, ‘‘अभी नहीं. तुम रमन के पीछे क्यों पड़ी हो? दुकान तो शहर की नई बाजार में पहले से ही ले ली है, पर अभी उसे चालू नहीं करवाऊंगा. वह दुकान कपड़े का धंधा करने के लिए बड़े मौके की है. और तुम्हारे बेटे को तो मैडिकल स्टोर खोलने की सनक सवार है. तुम ने उसे इतना सिर चढ़ा रखा है कि मेरी बात उस के पल्ले ही नहीं पड़ती.’’

सुशीला से एकाएक ही कुछ कहा न गया. गंगाराम ही बोले, ‘‘कहां गए हैं तुम्हारे साहबजादे?’’ ‘‘शहर गया है. कह रहा था कि किसी दोस्त के घर

दावत है.’’ सुशीला के इतना कहते ही गंगाराम ने बड़बड़ाना शुरू कर दिया, ‘‘अब क्या आधी रात के पहले लौट कर आएगा? अपना आगापीछा कुछ सोचता ही

नहीं. बस पैसे उड़ाना जानता है, पैसे कमाना नहीं.’’ ‘‘इन सब बातों से क्या फायदा है?’’ सुशीला बोली, ‘‘जब वह कहता है, तो आप उसे दुकान क्यों नहीं खुलवा देते?’’

‘‘वह अपने अंदर दुकान की जिम्मेदारी संभालने लायक हुनर भी तो पैदा करे.’’ कुछ देर की चुप्पी के बाद सुशीला ने अचानक कहा, ‘‘आप जो रकम घर ले आए हैं, उसे बैंक में जमा नहीं करेंगे क्या?’’

‘‘नहीं,’’ गंगाराम ने कहा, ‘‘बल्कि कल बैंक से और पैसे निकालूंगा और ईंटसीमेंट वगैरह सारा सामान मंगवाने की सोच रहा हूं कि मंदिर बनवाने का काम शुरू करवा दूं. ‘‘हां सुशीला, मां की आत्मा की शांति के लिए यह जरूरी है. मैं ने मां को वचन दिया था कि उन के नाम से मैं अपने गांव में एक बढि़या सा मंदिर जरूर बनवाऊंगा.

‘‘तुम तो जानती ही हो कि बचपन में मैं ने बड़े ही कष्ट के दिन देखे हैं. मैं ने तुम को पहले भी बताया है कि मां ने सूत कातकात कर मुझे पढ़ायालिखाया और पालापोसा. यह उन का ही आशीर्वाद है कि मैं इस नौकरी के लायक हो सका. ‘‘लेकिन, सुख के दिन आने से पहले ही मां गुजर गईं. मैं जीतेजी तो उन को कोई सुख न दे सका, पर उन की अंतिम इच्छा जरूर पूरी करूंगा.’’

तभी बाहर रमन की मोपेड की आवाज सुनाई दी. गंगाराम के चेहरे पर तनाव आ गया. सुशीला ने जल्दी से कहा, ‘‘अब आप उस पर बिगड़ना मत. मैं उसे समझा दूंगी,’’ इतना कह कर सुशीला कमरे से बाहर निकल गई.

सुबह की गुलाबी धूप में गंगाराम का चेहरा चमक रहा था. वे सुशीला पर गरज रहे थे, ‘‘मैं कहता हूं कि उस ने जब 3 सौ रुपए मांगे थे, तो तुम ने बगैर मुझ से पूछे हामी भरी ही क्यों? मैं क्या मर गया था? पैसे देने ही थे, तो उस के सामने अलमारी खोली ही क्यों?’’ ‘‘मैं क्या जानती थी कि वह इतनी बड़ी रकम को ही उड़ा ले जाएगा? मेरी तो समझ में नहीं आ रहा कि वह इतनी बड़ी रकम का करेगा क्या?’’

‘‘क्या करेगा? अरे, जिसे पैसे बरबाद करने की लत पड़ चुकी हो, उस के लिए लाखोंकरोड़ों की रकम भी कम पड़ जाएगी,’’ गंगाराम ने कहा और दोनों हाथों में अपना सिर थाम लिया. गंगाराम ने थोड़ी देर बाद अपना चेहरा ऊपर उठाया. सुशीला देवी रोंआसी हो उठी थी. गंगाराम ने दांत किटकिटा कर कहा, ‘‘आने दो उसे घर वापस. जाएगा कहां? मैं उस की अच्छी खबर लूंगा.’’ ‘‘उसे कुछ भी कहना, पर एक बात ध्यान रखना कि वह अब बच्चा नहीं है. जवान खून में उबाल जल्दी आता है. कहीं कोई बात लग गई और उस ने कुछ करकरा लिया, तो हम तो कहीं मुंह दिखाने लायक न रहेंगे.’’

‘‘कुछ नहीं करेगा वह,’’ गंगाराम ने कड़क आवाज में कहा. उसी शाम जब गंगाराम घर लौटे, तो सुशीला देवी ने पानी से भरा गिलास पकड़ाते हुए पहला सवाल यही किया, ‘‘रमन का कुछ पता चला?’’

‘‘भाड़ में जाए वह,’’ गंगाराम गुस्से में बोले. सुशीला ने आगे कुछ न पूछा. गंगाराम ने बरामदे में ही पड़ी आराम कुरसी पर पसरते हुए

शरीर को ढीला छोड़ कर आंखें बंद कर लीं. अभी कुछ ही मिनट बीते थे कि रमन लाल रंग की मोटरसाइकिल खड़ी कर के नीचे उतरा और अपनी ओर घूरते गंगाराम व सुशीला की ओर उड़ती नजरों से देखते हुए वह घर की ओर बढ़ा.

गंगाराम ने कहा, ‘‘ठहरो.’’ रमन खड़ा हो गया. अपनी आंखों से फैंसी चश्मा उतार कर कमीज की जेब में रखते हुए वह बोला, ‘‘कहिए?’’

‘‘तुम अलमारी से पैसे ले गए थे?’’ गंगाराम के बोलने से पहले ही सुशीला ने पूछा. रमन ने उसी सपाट लहजे में कह दिया, ‘‘और कौन ले जा सकता था? मुझे यह मोटरसाइकिल खरीदने के लिए पैसों की जरूरत थी, सो ले गया. उस खटारा मोपेड से मैं तंग आ चुका था. पहले भी कहा था कि मैं उसे बेच कर एक ठीकठाक गाड़ी लेना चाहता हूं.’’

‘‘तुम…?’’ गंगाराम गुस्से में न जाने क्याक्या बकते चले गए. रमन चुपचाप खड़ा सबकुछ सुनता रहा. सुशीला ने गंगाराम को शांत करने के लिए कुछ कहना चाहा, पर गंगाराम ने उस को भी डपट दिया. हांफते हुए गंगाराम की जबान लड़खड़ाने लगी, तो वे चुप हो गए और जल्दीजल्दी सांसें लेने लगे.

रमन ने शांतिपूर्वक कहा, ‘‘पैसे मैं ने ही तो खर्च किए हैं. कोई डकैती तो हो नहीं गई, जो आप इतना परेशान हुए जा रहे हैं?’’ गंगाराम भड़क उठे, ‘‘तुम अपने बाप को सिखा रहे हो? जब कमाओगे, तब पता चलेगा…’’

‘‘ओह, तो इसे भी आप अपनी कमाई मानते हैं,’’ रमन कुटिल हंसी हंसते हुए बोला, ‘‘काश, हिंदुस्तान का हर आदमी ऐसे ही कमाई करने लायक हो जाए, तो इस देश से गरीबी मिट जाए. ‘‘और फिर आप के बारे में तो मशहूर है कि आप 2 पक्षों में से जो पक्ष कमजोर होता है, उस की जायदाद को हड़पने में मालदार और ताकतवर की मदद कर उन से एक मोटी रकम वसूल लेते हैं.

‘‘बोलिए, ऐसा होता?है या नहीं? इस हराम की दौलत को अपनी कमाई कहने में शर्म नहीं आती आप को?’’ सुशीला हैरान रह गई, जब गंगाराम रमन की इतनी सारी कड़वी बातें सुन कर भी भड़के नहीं, बल्कि धीरे से कहा, ‘‘तुम को पता है कि तुम्हारी दादी की अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए मैं ने वह रकम…’’

रमन बोला, ‘‘कैसा है आप का वह भगवान, जिसे आप हराम की कमाई से मंदिर बनवा कर देंगे? ‘‘आप का कहना है कि आप की

मां ने सूत कातकात कर आप को पढ़ायालिखाया, उसी मां की आखिरी इच्छा पूरी करने के लिए आप गरीबों की गरदनें काटकाट कर पुण्य कमा रहे हैं?’’ गंगाराम के मुंह से इस के आगे एक बोल न फूटा.

Hindi Story : गुरु की शिक्षा – बड़ी मामी से सब क्यों परेशान थे

Hindi Story : सारे घर में कोलाहल मचा हुआ था, ‘‘अरे, छोटू, साथ वाला कमरा साफ कर दिया न?’’

‘‘अरे, सुमति, देख तो खाना वगैरह सब तैयार है.’’

‘‘अजी, आप क्यों ऐसे बैठे हैं, जल्दी कीजिए.’’

पूरे घर को पद्मा ने सिर पर उठा रखा था. बड़ी मामी जो आ रही थीं दिल्ली.

वैसे तो निर्मला, सुजीत बाबू की मामी थीं, इस नाते वह पद्मा की ममिया सास हुईं, परंतु बड़े से छोटे तक वह ‘बड़ी मामी’ के नाम से ही जानी जाती थीं. बड़ी मामी ने आज से करीब 8-9 वर्ष पहले दिल्ली छोड़ कर अपने गुरुभभूतेश्वर स्वामी के आश्रम में डेरा जमा लिया था. उन्होंने दिल्ली क्यों छोड़ी, यह बात किसी को मालूम नहीं थी. हां, बड़ी मामी स्वयं यही कहती थीं, ‘‘हम तो सब बंधन त्याग कर गुरुकी शरण में चले गए. वरना दिल्ली में कौन 6-7 लाख की कोठी को बस सवा 4 लाख में बेच देता.’’

जाने के बाद लगभग 4 साल तक बड़ी मामी ने किसी की कोई खोजखबर नहीं ली थी. पर एक दिन अचानक तार भेज कर बड़ी मामी आ धमकीं मामा सहित. बस, तब से हर साल दोनों चले आते थे. पद्मा पर उन की विशेष कृपादृष्टि थी. कम से कम पद्मा तो यही समझती थी.

उस दिन भी रात की गाड़ी से बड़ी मामी आ रही थीं. इसलिए सभी भागदौड़ कर रहे थे. रात को पद्मा और सुजीत बाबू दोनों उन्हें स्टेशन पर लेने गए. वैसे घर से स्टेशन अधिक दूर न था, फिर भी पद्मा जितनी जल्दी हो सका, घर से निकल गई.

पद्मा को गए अभी 15 मिनट ही हुए थे कि बड़ी जोर से घर की घंटी बजी.

‘‘छोटू, देखो तो,’’ सुमति बोली.

छोटू ने दरवाजा खोला. वह हैरानी से चिल्लाया, ‘‘बहूजी, बड़ी मामी.’’

समीर और सुमति फौरन दौड़े.

‘‘मामीजी आप मां कहां है?

‘‘तो क्या पद्मा मुझे लेने पहुंची है? मैं ने तो 5-7 मिनट इंतजार किया. फिर चली आई.’’

‘‘हां, दूसरों को सहनशीलता का पाठ पढ़ाती हैं. परंतु खुद…’’ समीर धीरे बोला, परंतु सुमति ने स्थिति संभाल ली.

थोड़ी देर में पद्मा और सुजीत बाबू भी हांफते हुए आ गए.

‘‘नमस्कार, मामाजी,’’

‘‘जुगजुग जिओ. देख री पद्मा, तेरे लिए घर के सारे मसाले ले आई हूं. हमें आश्रम में सस्ते मिलते हैं न.’’

पद्मा गद्गद हो गई,  ‘‘इतनी तकलीफ क्यों की, मामीजी.’’

‘‘अरी, तकलीफ कैसी? तुझे मुफ्त में थोड़े ही दूंगी. वैसे मैं तो दे दूं, पर हमारे गुरुजी कहते हैं, किसी से कुछ लेना नहीं चाहिए. क्यों बेकार तुम्हें ‘पाप’ का भागीदार बनाऊं. क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ मामाजी तो जैसे समर्थन के लिए तैयार थे.

पद्मा का मुंह ही उतर गया.

पद्मा को छोड़ कर घर में कोई भी अन्य व्यक्ति मामी को पसंद नहीं करता था. बस, वह हमेशा अपने आश्रम की बातें करती थीं. कभी अपने गुरुकी तारीफों के पुल बांधने लगतीं परंतु उन की कथनी और करनी में जमीनआसमान का अंतर था. जितने दिन बड़ी मामी रहतीं, पूरे घर में कोहराम मचाए रखतीं. सभी भुनभुनाते रहते थे, सिर्फ पद्मा को छोड़ कर. उस पर तो बड़ी मामी के गुरुऔर आश्रम का भूत सवार था.

दूसरे दिन सुबह 5 बजे उठ कर बड़ी मामी ने जोरजोर से मंत्रोच्चारण शुरू कर दिया. सुमति को रेडियो सुनने का बहुत शौक था. उस ने देखा कि 7 बज रहे हैं. वैसे भी बड़ी मामी तो 5 बजे की उठी थीं, इसलिए उस ने रेडियो चालू कर दिया. पर बड़ी मामी का मुंह देखते ही बनता था. लाललाल आंखें ऐसी कि खा जाएंगी.

पद्मा ने देखा तो फौरन बहू को झिड़का, ‘‘बंद कर यह रेडियो, मामीजी पाठ कर रही हैं.’’

‘‘रहने दे, बहू. मेरा क्या, मैं तो बरामदे में पाठ कर लूंगी. किसी को तंग करने की शिक्षा हमारे गुरु ने नहीं दी है.’’

‘‘नहींनहीं, बड़ी मामी. चल री बहू, बंद कर दे.’’

रेडियो तो बंद हो गया पर सुमति का चेहरा उतर गया. दोपहर में छोटू ने रेडियो लगा दिया तो बड़ी मामी उसे खाने को दौड़ीं, ‘‘अरे मरे, नौकर है, और शौक तो देखो राजा भोज जैसे. चल, बंद कर इसे. मुझे सोना है.’’

छोटू बोला, ‘‘अच्छा, बड़ी मामी, फिर तुम्हारे गुरुका टेप चला दूं.’’

‘‘ठहर दुष्ट, मेरे गुरुजी के बारे में ऐसा बोलता है. आज तुझे न पिटवाया तो मेरा नाम बदल देना.’’

जब तक पद्मा को पूरी बात पता चले, छोटू खिसक चुका था.

‘‘सच बहूजी, अब तो 15 दिन तक रेडियो, टीवी सब बंद,’’ छोटू ने कहा.

‘‘हां रे,’’ सुमति ने गहरी सांस ली.

अगले दिन शाम को चाय पीते हुए बड़ी मामी बोल पड़ीं, ‘‘हमारे आश्रम में खानेपीने की बहुत मौज है. सब सामान मिलता है. समोसा, कचौरी, दालमोठ, सभी कुछ, क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ सदा की भांति मामाजी ने उत्तर में सिर हिलाया.

पद्मा खिसिया गई, ‘‘बड़ी मामी, यहां भी तो सब मिलता है. जा छोटू, जरा रोशन की दुकान से 8 समोसे तो ले आ.’’

‘‘रहने दो, बहू, हम ने तो खूब खाया है अपने समय में. खुद खाया और सब को खिलाया. मजाल है, किसी को खाली चाय पिलाई हो.’’

‘‘तो मामीजी, हम ने भी तो बिस्कुट और बरफी रखी ही है,’’ सुमति ने कहा.

बस, बड़ी मामी तो सिंहनी सी गरजीं, ‘‘देखा, बहू.’’

पद्मा ने भी झट बहू को डांट दिया, ‘‘बहू, बड़ों से जबान नहीं लड़ाते. चल, मांग माफी.’’

‘‘रहने दे, बहू, हम तो अब इन बातों से दूर हो चुके हैं. सच, न किसी से दोस्ती, न किसी से बैर. क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ मामाजी ने खूंटे से बंधे प्यादे की तरह सिर हिलाया.

‘‘बहू, शाम को जरा बाजार तो चलना. कुछ खरीदारी करनी है,’’ सुबह- सुबह मामी ने आदेश सुनाया.

‘‘आज शाम,’’ पद्मा चौंकी.

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’

‘‘आज मां को अपनी दवा लेने डाक्टर के पास जाना है,’’ समीर ने बताया.

‘‘मैं क्या जबरदस्ती कर रही हूं. वैसे हमारे गुरुजी ने तो परसेवा को परमधर्म बताया है.’’

‘‘हांहां, मामीजी, मैं चलूंगी. दवा फिर ले आऊंगी.’’

‘‘सोच ले, बहू, हमारा क्या है, हम तो गुरु  के आसरे चलते हैं,’’ टेढ़ी नजरों से समीर को देखती हुई मामी चली गईं.

समीर ने मां को समझाना चाहा, पर उस पर तो गुरुजी के वचनों का भूत सवार था. बोली, ‘‘ठीक ही तो है, बेटा. परसेवा परम धर्म है.’’

और शाम को पद्मा बाजार गई. पर लौटतेलौटते सवा 8 बजे गए. बड़ेबड़े 2 थैले पद्मा ने उठाए हुए थे और हांफ रही थी.

आते ही बड़ी मामी बोलीं, ‘‘सुनो जी, यहां आज बाजार लगा हुआ था. अच्छा किया न, चले गए. सामान काफी सस्ते में मिल गया है.’’

सारा सामान निकाल कर मामी एकदम उठीं और बोलीं, ‘‘हाय री, पद्मा, लिपस्टिक तो लाना भूल ही गए. अब कल चलेंगे.’’

‘‘मामीजी, आप और लिपस्टिक?’’ सुमति बोली.

‘‘अरे, हम तो इन बंधनों से मुक्त हो गए हैं, वरना कौन मैं इतनी बूढ़ी हो गई हूं. हमारे आश्रम में तो नातीपोती वाली भी लाललाल रंग की लिपस्टिक लगाती हैं. मैं तो फिर भी स्वाभाविक रंग लेती हूं. सच, क्या पड़ा है इन चोंचलों में. हमारे लिए तो गुरु ही सबकुछ हैं.’’

‘बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम,’ छोटू फुसफुसाया तो समीर और सुमति चाह कर भी हंसी न रोक सके. हालांकि बड़ी मामी ने छोटू की बात तो नहीं सुनी फिर भी उन्होंने भृकुटि तान लीं.

अगले दिन पद्मा की तबीयत खराब हो गई. इसलिए उठने में थोड़ी देर हो गई. उस ने देखा कि बड़ी मामी रसोई में चाय बना रही हैं.

‘‘मुझे उठा दिया होता, मामीजी,’’  पद्मा ने कहा.

‘‘नहींनहीं, तुम सो जाओ चैन से. हमारे गुरुजी ने इतना तो सिखाया ही है कि कोई काम न करना चाहे तो उस के साथ जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए.’’

‘‘नहींनहीं, मामीजी. ऐसी बात नहीं. आज जरा तबीयत ठीक नहीं थी,’’ पद्मा मिमियाई.

‘‘तो बहू, जा कर आराम कर न. हम किसी से कुछ आशा नहीं करते. यह हमारे गुरुजी की शिक्षा है.’’

उस दिन तो पद्मा के मन में आया कि कह दे ‘चूल्हे में जाओ तुम और तुम्हारे गुरुजी.’

दोपहर को खाते वक्त बड़ी मामी ने सुमति से पूछा, ‘‘क्यों सुमति, दही नहीं है क्या?’’

‘‘नहीं मामीजी. आज सुबह दूध अधिक नहीं मिला. इसलिए जमाया नहीं. नहीं तो चाय को कम पड़ जाता.’’

‘‘हमारे आश्रम में तो दूधघी की कोई कमी नहीं है. न भी हो तो हम कहीं न कहीं से जुगाड़ कर के मेहमानों को तो खिला ही देते हैं.’’

‘‘हां, अपनी और बात है. भई, हम न तो लालच करते हैं, न ही हमें जबान के चसके हैं. हमारे गुरुजी ने तो हमें रूखीसूखी में ही खुश रहना सिखाया है क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ रटारटाया उत्तर मिला.

‘‘रूखीसूखी?’’ सुमति ने मुंह बिगाड़ा, ‘‘2 सूखे साग, एक रसे वाली सब्जी, रोटी, दालभात, चटनी, पापड़ यह रूखीसूखी है?’’

शाम को बड़ी मामी ने फिर शोर मचाया, ‘‘हम ने तो सबकुछ छोड़ दिया है. अब लिपस्टिक लगानी थी. पर हमारे गुरुजी ने शिक्षा दी है, किसी की चीज मत इस्तेमाल करो. भले ही खुद कष्ट सहना पड़े.’’

‘‘लिपस्टिक न लगाने से कैसा कष्ट, मामीजी?’’ छोटू ने छेड़ा.

‘‘चल हट, ज्यादा जबान न लड़ाया कर,’’ बड़ी मामी ने उसे झिड़क दिया.

आखिर पद्मा को बड़ी मामी के साथ बाजार जाना ही पड़ा. लौटी तो बेहद थकी हुई थी और बड़ी मामी थीं कि अपना ही राग अलाप रही थीं, ‘‘जितना हो सके, दूसरों के लिए करना चाहिए. नहीं तो जीवन में रखा ही क्या है, क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ मामाजी के बोलने से पहले ही छोटू बोला और भाग गया.

एक दिन बैठेबैठे ही बड़ी मामी बोलीं, ‘‘जानती है, पद्मा, वहां अड़ोस- पड़ोस में मैं ने तेरी बहुत तारीफें कर रखी हैं. सब से कहती हूं, ‘बहू हो तो पद्मा जैसी. मेरा बड़ा खयाल रखती है. क्याक्या सामान नहीं ले कर रखती मेरे लिए.’ सच बहू, तू मेरी बहुत सेवा करती है.’’

पद्मा तो आत्मविभोर हो गई. कुछ कह पाती, उस से पहले ही बड़ी मामी फिर से बोल पड़ीं, ‘‘हां बहू, सुना है यहां काजू की बरफी बहुत अच्छी मिलती है. सोच रही थी, लेती जाऊं. वैसे हमें कोई लालसा नहीं है. पर अपनी पड़ोसिनों को भी तो दिखाऊंगी न कि तू ने क्या मिठाई भेजी है.’’

पद्मा तो ठंडी हो गई, ‘इस गरमी में, जबकि पीने को दूध तक नहीं है, इन्हें बरफी चाहिए, वह भी काजू वाली. 80 रुपए किलो से कम क्या होगी?’

अभी पद्मा इसी उधेड़बुन में थी कि बड़ी मामी ने फिर मुंह खोला, ‘‘बहू, अब किसी को कोई चीज दो तो खुले दिल से दो. यह क्या कि नाम को पकड़ा दी. यह पैसा कोई साथ थोड़े ही चलेगा. यही हमारे गुरुजी का कहना है. हम तो उन्हीं की बताई बातों पर चलते हैं.’’

पद्मा को लगा कि अगर वह जल्दी ही वहां से न खिसकी तो जाने बड़ी मामी और क्याक्या मांग बैठेंगी.

फिर बड़ी मामी ने नई बात छेड़ दी. ‘‘जानती है, बहू. हमारे गुरुजी कहते हैं कि जितना हो सके मन को संयम में रखो. खानपान की चीजों की ओर ध्यान कम दो. अब तू जाने, घर में सब के साथ मैं भी अंटसंट खा लेती हूं. पर मेरा अंतर्मन मुझे कोसता है, ‘छि:, खाने के लिए क्या मरना.’ इसलिए बहू, आज से हमारे लिए खाने की तकलीफ मत करना. बस, हमें तो रात में एक गिलास दूध, कुछ फल और हो सके तो थोड़ा मेवा दे दिया कर, आखिर क्या करना है भोगों में पड़ कर.’’

कहां तो पद्मा बड़ी मामी के गुण गाते न थकती थी, कहां अब वह पछता रही थी कि किस घड़ी में मैं ने यह बला अपने गले बांध ली थी.

बस, जैसेतैसे 20 दिन गुजरे, जब बड़ी मामी जाने लगीं तो सब खुश थे कि बला टलने को है. पर जातेजाते भी बड़ी मामी कह गईं, ‘‘बहू, अब कोई इतनी दूर से भाड़ा लगा कर आए और रखने वाले महीना भर भी न रखें तो क्या फायदा? हमारे गुरुजी तो कहते हैं, ‘घर आया मेहमान, भगवान समान’ पर अब वह बात कहां. हां, हमारे यहां कोई आए, तो हम तो उसे तब तक न छोड़ें जब तक वह खुद न जाने को चाहे.’’

यह सुन कर सुमति ने पद्मा की ओर देखा तो पद्मा कसमसा कर रह गई.

‘‘अच्छा बहू, इस बार आश्रम आना. तू ने तो देख रखा है, कैसा अच्छा वातावरण है. सत्संग सुनेगी तो तेरे भी दिमाग में गुरु के कुछ वचन पड़ेंगे, क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ मामाजी का जवाब था.

बड़ी मामी को विदा करने के बाद सब हलकेफुलके हो कर घर लौटे. घर आ कर समीर ने पूछा, ‘‘क्यों मां, कब का टिकट कटा दूं?’’

‘‘कहां का?’’ पद्मा ने पूछा.

‘‘वहीं, तुम्हारे आश्रम का. बड़ी मामी न्योता जो दे गई हैं.’’

‘‘न बाबा, मैं तो भर पाई उस गुरु से और उस की शिष्या से. कान पकड़ लेना, जो दोबारा उन का जिक्र भी करूं. शिष्या ऐसी तो गुरु के कहने ही क्या. सच, आज तक मैं ऊपरी आवरण देखती रही. सुनीसुनाई बातों को ही सचाई माना. परंतु सच्ची शिक्षा है, अपने अच्छे काम. ये पोंगापंथी बातें नहीं.’’

‘‘सच कह रही हो, मां?’’ आश्चर्यचकित समीर ने पूछा.

‘‘और नहीं तो क्या, क्यों जी?’’

और समवेत स्वर सुनाई दिया, ‘‘हां जी.’’

Hindi Story : रिश्ता – शमा के लिए आया रफीक का रिश्ता

Hindi Story : शमा के लिए रफीक का रिश्ता आया. वह उसे पहले से जानती थी. वह ‘रेशमा आटो सर्विस’ में मेकैनिक था और अच्छी तनख्वाह पाता था.

शमा की मां सईदा अपनी बेटी का रिश्ता लेने को तैयार थीं.

शमा बेहद हसीन और दिलकश लड़की थी. अपनी खूबसूरती के मुकाबले वह रफीक को बहुत मामूली इनसान समझती थी. इसलिए रफीक उसे दिल से नापसंद था.

दूसरी ओर शमा की सहेली नाजिमा हमेशा उस की तारीफ करते हुए उकसाया करती थी कि वह मौडलिंग करे, तो उस का रुतबा बढ़ेगा. साथ ही, अच्छी कमाई भी होगी.

एक दिन शमा ख्वाबों में खोई सड़क पर चली जा रही थी.

‘‘अरी ओ ड्रीमगर्ल…’’ पीछे से पुकारते हुए नाजिमा ने जब शमा के कंधे पर हाथ रखा, तो वह चौंक पड़ी.

‘‘किस के खयालों में चली जा रही हो तुम? तुझे रोका न होता, तो वह स्कूटर वाला जानबूझ कर तुझ पर स्कूटर चढ़ा देता. वह तेरा पीछा कर रहा था,’’ नाजिमा ने कहा.

शमा ने नाजिमा के होंठों पर चुप रहने के लिए उंगली रख दी. वह जानती थी कि ऐसा न करने पर नाजिमा बेकार की बातें करने लगेगी.

अपने होंठों पर से उंगली हटाते हुए नाजिमा बोली, ‘‘मालूम पड़ता है कि तेरा दिमाग सातवें आसमान में उड़ने लगा है. तेरी चमड़ी में जरा सफेदी आ गई, तो इतराने लगी.’’

‘‘बसबस, आते ही ऐसी बातें शुरू कर दीं. जबान पर लगाम रख. थोड़ा सुस्ता ले…’’

थोड़ा रुक कर शमा ने कहा, ‘‘चल, मेरे साथ चल.’’

‘‘अभी तो मैं तेरे साथ नहीं चल सकूंगी. थोड़ा रहम कर…’’

‘‘आज तुझे होटल में कौफी पिलाऊंगी और खाना भी खिलाऊंगी.’’

‘‘मेरी मां ने मेरे लिए जो पकवान बनाया होगा, उसे कौन खाएगा?’’

‘‘मैं हूं न,’’ शमा नाजिमा को जबरदस्ती घसीटते हुए पास के एक होटल में ले गई.

‘‘आज तू बड़ी खुश है? क्या तेरे चाहने वाले नौशाद की चिट्ठी आई है?’’ शमा ने पूछा.

यह सुन कर नाजिमा झेंप गई और बोली, ‘‘नहीं, साहिबा का फोटो और चिट्ठी आई है.’’

‘‘साहिबा…’’ शमा के मुंह से निकला.

साहिबा और शमा की कहानी एक ही थी. उस के भी ऊंचे खयालात थे. वह फिल्मी दुनिया की बुलंदियों पर पहुंचना चाहती थी.

साहिबा का रिश्ता उस की मरजी के खिलाफ एक आम शख्स से तय हो गया था, जो किसी दफ्तर में बड़ा बाबू था. उसे वह शख्स पसंद नहीं था.

कुछ महीने पहले साहिबा हीरोइन बनने की लालसा लिए मुंबई भाग गई थी, फिर उस की कोई खबर नहीं मिली थी. आज उस की एक चिट्ठी आई थी.

चिट्ठी की खबर सुनने के बाद शमा ने नाजिमा के सामने साहिबा के तमाम फोटो टेबिल पर रख दिए, जिन्हें वह बड़े ध्यान से देखने लगी. सोचने लगी, ‘फिल्म लाइन में एक औरत पर कितना सितम ढाया जाता है, उसे कितना नीचे गिरना पड़ता है.’

नाजिमा से रहा नहीं गया. वह गुस्से में बोल पड़ी, ‘‘इस बेहया लड़की को देखो… कैसेकैसे अलफाजों में अपनी बेइज्जती का डंका पीटा है. शर्म मानो माने ही नहीं रखती है. क्या यही फिल्म स्टार बनने का सही तरीका है? मैं तो समझती हूं कि उस ने ही तुम्हें झूठी बातों से भड़काया होगा.

‘‘देखो शमा, फिल्म लाइन में जो लड़की जाएगी, उसे पहले कीमत तो अदा करनी ही पड़ेगी.’’

‘‘फिल्मों में आजकल विदेशी रस्म के मुताबिक खुला बदन, किसिंग सीन वगैरह मामूली बात हो गई है.

‘‘कोई फिल्म गंदे सीन दिखाने पर ही आगे बढ़ेगी, वरना…’’ शमा बोली.

‘‘सच पूछो, तो साहिबा के फिल्मस्टार बनने से मुझे खुशी नहीं हुई, बल्कि मेरे दिल को सदमा पहुंचा है. ख्वाबों की दुनिया में उस ने अपनेआप को बेच कर जो इज्जत कमाई, वह तारीफ की बात नहीं है,’’ नाजिमा ने कहा.

बातोंबातों में उन दोनों ने 3-3 कप कौफी पी डाली, फिर टेबिल पर उन के लिए वेटर खाना सजाने लगा.

‘‘शमा, ऐसे फोटो ले जा कर तुम भी फिल्म वालों से मिलोगी, तो तुझे फौरन कबूल कर लेंगे. तू तो यों भी इतनी हसीन है…’’ हंस कर नाजिमा बोली.

‘‘आजकल मैं इसलिए ज्यादा परेशान हूं कि मां ने मेरी शादी रफीक से करने के लिए जीना मुश्किल कर दिया है. उन्हें डर है कि मैं भी मुंबई न भाग जाऊं.’’

‘‘अगर तुझे रफीक पसंद नहीं है, तो मना कर दे.’’

‘‘वही तो समस्या है. मां समझती हैं कि ऐसे कमाऊ लड़के जल्दी नहीं मिलते.’’

‘‘उस में कमी क्या है? मेहनत की कमाई करता है. तुझे प्यारदुलार और आराम मुहैया कराएगा. और क्या चाहिए तुझे?’’

‘‘तू भी मां की तरह बतियाने लगी कि मैं उस मेकैनिक रफीक से शादी कर लूं और अपने सारे अरमानों में आग लगा दूं.

‘‘रफीक जब घर में घुसे, तो उस के कपड़ों से पैट्रोल, मोबिल औयल और मिट्टी के तेल की महक सूंघने को मिले, जिस की गंध नाक में पहुंचते ही मेरा सिर फटने लगे. न बाबा न. मैं तो एक हसीन जिंदगी गुजारना चाहती हूं.’’

‘‘सच तो यह है कि तू टैलीविजन पर फिल्में देखदेख कर और फिल्मी मसाले पढ़पढ़ कर महलों के ख्वाब देखने लगी है, इसलिए तेरा दिमाग खराब होने लगा है. उन ख्वाबों से हट कर सोच. तेरी उम्र 24 से ऊपर जा रही है. हमारी बिरादरी में यह उम्र ज्यादा मानी जाती है. आगे पूछने वाला न मिलेगा, तो फिर…’’

इसी तरह की बातें होती रहीं. इस के बाद वे दोनों अपनेअपने घर चली गईं.

उस दिन शमा रात को ठीक से सो न सकी. वह बारबार रफीक, नाजिमा और साहिबा के बारे में सोचती रही.

रात के 3 बज रहे थे. शमा ने उठ कर आईने के सामने अपने शरीर को कई बार घुमाफिरा कर देखा, फिर कपड़े उतार कर अपने जिस्म पर निगाहें गड़ाईं और मुसकरा दी. फिर वह खुद से ही बोली, ‘मुझे साहिबा नहीं बनना पड़ेगा. मेरे इस खूबसूरत जिस्म और हुस्न को देखते ही फिल्म वाले खुश हो कर मुझे हीरोइन बना देंगे.’’

जब कोई गलत रास्ते पर जाने का इरादा बना लेता है, तो उस का दिमाग भी वैसा ही हो जाता है. उसे आगेपीछे कुछ सूझता ही नहीं है.

शमा ने सोचा कि अगर वह साहिबा से मिलने गई, तो वह उस की मदद जरूर करेगी. क्योंकि साहिबा भी उस की सहेली थी, जो आज नाम व पैसा कमा रही है.

लोग कहते हैं कि दूर के ढोल सुहावने होते हैं. वे सच कहते हैं, लेकिन जब मुसीबत आती है, तो वही ढोल कानफाड़ू बन कर परेशान कर देते हैं.

शमा अच्छी तरह जानती थी कि उस की मां उसे मुंबई जाने की इजाजत नहीं देंगी, तो क्या उस के सपने केवल सपने बन कर रह जाएंगे? वह मुंबई जरूर जाएगी, चाहे इस के लिए उसे मां को छोड़ना पड़े.

शमा ने अपने बैंक खाते से रुपए निकाले, ट्रेन का रिजर्वेशन कराया और मां से बहाना कर के एक दिन मुंबई के लिए चली गई.

शमा ने साहिबा को फोन कर दिया था. साहिबा ने उसे दादर रेलवे स्टेशन पर मिलने को कहा और अपने घर ले चलने का भरोसा दिलाया.

जब ट्रेन मुंबई में दादर रेलवे स्टेशन पर पहुंची, उस समय मूसलाधार बारिश हो रही थी. बहुत से लोग स्टेशन पर बारिश के थमने का इंतजार कर रहे थे. प्लेटफार्म पर बैठने की थोड़ी सी जगह मिल गई.

शमा सोचने लगी, ‘घनघोर बारिश के चलते साहिबा कहीं रुक गई होगी.’

उसी बैंच पर एक औरत बैठी थी. शायद, उसे भी किसी के आने का इंतजार था.

शमा उस औरत को गौर से देखने लगी, जो उम्र में 40 साल से ज्यादा की लग रही थी. रंग गोरा, चेहरे पर दिलकशी थी. अच्छी सेहत और उस का सुडौल बदन बड़ा कशिश वाला लग रहा था.

शमा ने सोचा कि वह औरत जब इस उम्र में इतनी खूबसूरत लग रही है, तो जवानी की उम्र में उस पर बहुत से नौजवान फिदा होते रहे होंगे.

उस औरत ने मुड़ कर शमा को देखा और कहा, ‘‘बारिश अभी रुकने वाली नहीं है. कहां जाना है तुम्हें?’’

शमा ने जवाब दिया, ‘‘गोविंदनगर जाना था. कोई मुझे लेने आने वाली थी. शायद बारिश की वजह से वह रुक गई होगी.’’

‘‘जानती हो, गोविंदनगर इलाका इस दादर रेलवे स्टेशन से कितनी दूर है? वह मलाड़ इलाके में पड़ता है. यहां पहली बार आई हो क्या?’’

‘‘जी हां.’’

‘‘किस के यहां जाना है?’’

‘‘मेरी एक सहेली है साहिबा. हम दोनों एक ही कालेज में पढ़ती थीं. 2-3 साल पहले वह यहां आ कर बस गई. उस ने मुझे भी शहर देखने के लिए बुलाया था.’’

उस औरत ने शमा की ओर एक खास तरह की मुसकराहट से देखते हुए पूछा, ‘‘तुम्हारे पास सामान तो बहुत कम है. क्या 1-2 दिन के लिए ही आई हो?’’

‘‘अभी कुछ नहीं कह सकती. साहिबा के आने पर ही बता सकूंगी.’’

‘‘कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम अपने घर से बिना किसी को बताए यहां भाग कर आई हो? अकसर तुम्हारी उम्र की लड़कियों को मुंबई देखने का बड़ा शौक रहता है, इसलिए वे बिना इजाजत लिए इस नगरी की ओर दौड़ पड़ती हैं और यहां पहुंच कर गुमराह हो जाती हैं.’’

शमा के चेहरे की हकीकत उस औरत से छिप न सकी.

‘‘मुझे लगता है कि तुम भी भाग कर आई हो. मुमकिन है कि तुम्हें भी हीरोइन बनने का चसका लगा होगा, क्योंकि तुम्हारी जैसी हसीन लड़कियां बिना सोचे ही गलत रास्ते पर चल पड़ती हैं.’’

‘‘आप ने मुझे एक नजर में ताड़ लिया. लगता है कि आप लड़कियों को पहचानने में माहिर हैं,’’ कह कर शमा हंस दी.

‘‘ठीक कहा तुम ने…’’ कह कर वह औरत भी हंस दी, ‘‘मैं भी किसी जमाने में तुम्हारी उम्र की एक हसीन लड़की गिनी जाती थी. मैं भी मुंबई में उसी इरादे से आई थी, फिर वापस न लौट सकी.

‘‘मैं भी अपने घर से भाग कर आई थी. मुझ से पहले मेरी सहेली भी यहां आ कर बस चुकी थी और उसी के बुलावे पर मैं यहां आई थी, पर जो पेशा उस ने अपना रखा था, सुन कर मेरा दिल कांप उठा…

‘‘वह बड़ी बेगैरत जिंदगी जी रही थी. उस ने मुझे भी शामिल करना चाहा, तो मैं उस के दड़बे से भाग कर अपने घर जाना चाहती थी, लेकिन यहां के दलालों ने मुझे ऐसा वश में किया कि मैं यहीं की हो कर रह गई.

‘‘मुझे कालगर्ल बनना पड़ा. फिर कोठे तक पहुंचाया गया. मैं बेची गई, लेकिन वहां से भाग निकली. अब स्टेशनों पर बैठते ऐसे शख्स को ढूंढ़ती फिरती हूं, जो मेरी कद्र कर सके, लेकिन इस उम्र तक कोई ऐसा नहीं मिला, जिस का दामन पकड़ कर बाकी जिंदगी गुजार दूं,’’ बताते हुए उस औरत की आंखें नम हो गईं.

‘‘कहीं तुम्हारा भी वास्ता साहिबा से पड़ गया, तो जिंदगी नरक बन जाएगी. तुम ने यह नहीं बताया कि तुम्हारी सहेली करती क्या है?’’ उस औरत ने पूछा.

शमा चुप्पी साध गई.

‘‘नहीं बताना चाहती, तो ठीक है?’’

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है. वह हीरोइन बनने आई थी. अभी उस को किसी फिल्म में काम करने को नहीं मिला, पर आगे उम्मीद है.’’

‘‘फिर तो बड़ा लंबा सफर समझो. मुझे भी लोगों ने लालच दे कर बरगलाया था,’’ कह कर औरत अजीब तरह से हंसी, ‘‘तुम जिस का इंतजार कर रही हो, शायद वह तुम्हें लेने नहीं आएगी, क्योंकि जब अभी वह अपना पैर नहीं जमा सकी, तो तुम्हारी खूबसूरती के आगे लोग उसे पीछे छोड़ देंगे, जो वह बरदाश्त नहीं कर पाएगी.’’

दोनों को बातें करतेकरते 3 घंटे बीत गए. न तो बारिश रुकी, न शाम तक साहिबा उसे लेने आई. वे दोनों उठ कर एक रैस्टोरैंट में खाना खाने चली गईं.

शमा ने वहां खुल कर बताया कि उस की मां उस की शादी जिस से करना चाहती थीं, वह उसे पसंद नहीं करती. वह बहुत दूर के सपने देखने लगी और अपनी तकदीर आजमाने मुंबई चली आई.

‘‘शमा, बेहतर होगा कि तुम अपने घर लौट जाओ. तुम्हें वह आदमी पसंद नहीं, तो तुम किसी दूसरे से शादी कर के इज्जत की जिंदगी बिताओ, इसी में तुम्हारी भलाई है, वरना तुम्हारी इस खूबसूरत जवानी को मुंबई के गुंडे लूट कर दोजख में तुम्हें लावारिस फेंक देंगे, जहां तुम्हारी आवाज सुनने वाला कोई न होगा.’’

शमा उस औरत से प्रभावित हो कर उस के पैरों पर गिर पड़ी और वापस जाने की मंसा जाहिर की.

‘‘अगर तुम इस ग्लैमर की दुनिया में कदम न रखने का फैसला कर घर वापस जाने को राजी हो गई हो, तो मैं यही समझूंगी कि तुम एक जहीन लड़की थी, जो पाप के दलदल में उतरने से बच गई. मैं तुम्हारे वापसी टिकट का इंतजाम करा दूंगी,’’ उस औरत ने कहा.

शमा घर लौट कर अपनी बूढ़ी मां सईदा की बांहों में लिपट कर खूब रोई.

आखिरकार शमा रफीक से शादी करने को राजी हो गई.

मां ने भी शमा की शादी बड़े ही धूमधाम से करा दी.

अब रफीक और शमा खुशहाल जिंदगी के सपने बुन रहे हैं. शमा भी पिछली बातें भूलने की कोशिश कर रही है.

Hindi Story : शुभचिंतक – शक्की पत्नी की दुविधा

Hindi Story : राकेश से झगड़ कर सविता महीने भर से मायके में रह रही थी. उन के बीच सुलह कराने के लिए रेणु और संजीव ने उन दोनों को अपने घर बुलाया. यह मुलाकात करीब 2 घंटे चली पर नतीजा कुछ न निकला.

‘‘अब साक्षी के साथ मेरा कोई संबंध नहीं है,’’ राकेश बोला, ‘‘अतीत के उस प्रेम को भुलाने के बाद ही मैं ने सविता से शादी की है. अब वह मेरी सिर्फ सहकर्मी है. उसे और मुझे ले कर सविता का शक बेबुनियाद है. हमारे विवाहित जीवन की सुरक्षा व सुखशांति के लिए यह नासमझी जबरदस्त खतरा पैदा कर रही है.’’ अपने पक्ष में ऐसी दलीलें दे कर राकेश बारबार सविता पर गुस्से से बरस पड़ता था.

‘‘मैं नहीं चाहती हूं कि ये दोनों एकदूसरे के सामने रहें,’’ फुफकारती हुई सविता बोली, ‘‘इन्हें किसी दूसरी जगह नौकरी करनी होगी. इन की उस के साथ ही नौकरी करने की जिद हमारी गृहस्थी के लिए खतरा पैदा कर रही है.’’ ‘‘तुम्हारे बेबुनियाद शक को दूर करने के लिए मैं अपनी लगीलगाई यह अच्छी नौकरी कभी नहीं छोडूंगा.’’

‘‘जब तक तुम ऐसा नहीं करोगे, मैं तुम्हारे पास नहीं लौटूंगी.’’

दोनों की ऐसी जिद के चलते समझौता होना असंभव था. नाराज हो कर राकेश वापस चला गया. ‘‘हमारा तलाक होता हो तो हो जाए पर राकेश की जिंदगी में दूसरी औरत की मौजूदगी मुझे बिलकुल मंजूर नहीं है,’’ सविता ने कठोर लहजे में अपना फैसला सुनाया तो उस की सहेली रेणु का दिल कांप उठा था.

रेणु के पति संजीव ने सविता के पास जा कर उस का कंधा पकड़ हौसला बढ़ाने वाले अंदाज में कहा, ‘‘सविता, मैं तुम से पूरी तरह सहमत हूं. राकेश की नौकरी न छोड़ने की जिद यही साबित कर रही है कि दाल में कुछ काला है. तुम अभी सख्ती से काम लोगी तो कई भावी परेशानियों से बच जाओगी.’’ राकेश की इस सलाह को सुन कर सविता और रेणु दोनों ही चौंक पड़ीं. वह बिलकुल नए सुर में बोला था. अभी तक वह सविता को राकेश के पास लौट जाने की ही सलाह दिया करता था.

‘‘मैं अभी भी कहती हूं कि राकेश पर विश्वास कर के सविता को वापस उस के पास लौट जाना चाहिए. उसे उलटी सलाह दे कर आप बिलकुल गलत शह दे रहे हैं,’’ रेणु की आवाज में नाराजगी के भाव उभरे. ‘‘मेरी सलाह बिलकुल ठीक है. राकेश को अपनी पत्नी की भावनाओं को समझना चाहिए. यह यहां रहती रही तो जल्दी ही उस की अक्ल ठिकाने आ जाएगी.’’

संजीव को अपने पक्ष में बोलते देख सविता की आवाज में नई जान पड़ गई, ‘‘रेणु, तुम मेरी सब से अच्छी सहेली हो. कम से कम तुम्हें तो मेरी मनोदशा को समझ कर मेरा पक्ष लेना चाहिए. मुझे तो आज संजीव अपना ज्यादा बड़ा शुभचिंतक नजर आ रहा है.’’ ‘‘लेकिन यह समझदारी की बात नहीं कर रहे हैं,’’ रेणु ने नाराजगी भरे अंदाज में उन दोनों को घूरा.

‘‘मेरा बताया रास्ता समझदारी भरा है या नहीं यह तो वक्त ही बताएगा रेणु. फिलहाल लंच कराओ क्योंकि भूख के मारे अब पेट का बुरा हाल हो रहा है,’’ संजीव ने प्यार से अपनी पत्नी रेणु का गाल थपथपाया, पर वह बिलकुल भी नहीं मुसकराई और नाराजगी दर्शाती रसोई की तरफ बढ़ गई. आगामी दिनों में संजीव का सविता के प्रति व्यवहार पूरी तरह से बदल गया. इस बदलाव को देख रेणु हैरान भी होती और परेशान भी.

‘‘सविता, तुम जैसी सुंदर, स्मार्ट और आत्मनिर्भर युवती को अपमान भरी जिंदगी बिलकुल नहीं जीनी चाहिए… ‘‘तुम राकेश से हर मामले में इक्कीस हो, फिर तुम क्यों झुको और दबाव में आ कर गलत तरह का समझौता करो?

‘‘तुम जैसी गुणवान रूपसी को जीवनसंगिनी के रूप में पा कर राकेश को अपने भाग्य पर गर्व करना चाहिए. तुम्हें उस के हाथों किसी भी तरह का दुर्व्यवहार नहीं सहना है,’’ संजीव के मुंह से निकले ऐसे वाक्य सविता का मनोबल भी बढ़ाते और उस के मन की पीड़ा भी कम करते. अगर रेणु सविता को बिना शर्त वापस लौटने की बात समझाने की कोशिश करती तो वह फौरन नाराज हो जाती.

धीरेधीरे सविता और संजीव एक हो गए और रेणु अलगथलग पड़ती चली गई. राकेश की चर्चा छिड़ती तो उस के शब्दों पर दोनों ही ध्यान नहीं देते. सविता संजीव को अपना सच्चा हितैषी बताती. अब रेणु के साथ अकसर उस का झगड़ा ही होता रहता था. सविता के सामने ही संजीव अपनी पत्नी रेणु से कहता, ‘‘यह बेचारी कितनी दुखी और परेशान चल रही है. इस कठिन समय में इस का साथ हमें देना ही होगा.

‘‘अपने दुखदर्द के दायरे से निकल कर जब यह कुछ खुश और शांत रहने लगेगी तब हम जो भी इसे समझाएंगे, वह इस के दिमाग में ज्यादा अच्छे ढंग से घुसेगा. अभी हमें इस का मजबूत सहारा बनना है, न कि सब से बड़ा आलोचक.’’

संजीव, सविता का सब से बड़ा प्रशंसक बन गया. उस के हर कार्य की तारीफ करते उस की जबान न थकती. उसे खुश करने को वह उस के सुर में सुर मिला कर बोलता. उस के लतीफे सुन सविता हंसतेहंसते दोहरी हो जाती. अपने रंगरूप की तारीफ सुन उस के गाल गुलाबी हो उठते. ‘‘तुम कहीं सविता पर लाइन तो नहीं मार रहे हो?’’ एक रात अपने शयनकक्ष में रेणु ने पति संजीव से यह सवाल पूछ ही लिया.

‘‘इस सवाल के पीछे क्या ईर्ष्या व असुरक्षा का भाव छिपा है, रेणु?’’ संजीव उस की आंखों में आंखें डाल कर मुसकराया. ‘‘अभी तो ऐसा कुछ नहीं हुआ है न?’’

‘‘जिस दिन मैं अपनी आंखों से कुछ गलत देख लूंगी उस दिन तुम दोनों की खैर नहीं,’’ रेणु ने नाटकीय अंदाज में आंखें तरेरीं.

संजीव ने हंसते हुए उसे छाती से लगाया और कहा, ‘‘पति की जिंदगी में दूसरी औरत के आने की कल्पना ऐसा सचमुच हो जाने की सचाई की तुलना में कहीं ज्यादा भय और चिंता को जन्म देती है डार्लिंग. मैं सविता का शुभचिंतक हूं, प्रेमी नहीं. तुम उलटीसीधी बातें न सोचा करो.’’ उस वक्त संजीव की बांहों के घेरे में कैद हो कर रेणु अपनी सारी चिंताएं भूल गई पर सविता व अपने पति की बढ़ती निकटता के कारण अगले दिन सुबह से वह फिर तनाव का शिकार हो गई थी.

संजीव का साथ सविता को बहुत भाने लगा था. वह लगभग रोज शाम को उन के घर चली आती या फिर संजीव आफिस से लौटते समय उस के घर रुक जाता. सविता के मातापिता व भैयाभाभी उसे भरपूर आदरसम्मान देते थे. उन सभी को लगता कि संजीव से प्रभावित सविता उस के समझाने से जल्दी ही राकेश के पास लौट जाएगी. सविता ने एक शाम ड्राइंगरूम में सामने बैठे संजीव से कहा, ‘‘यू आर माई बेस्ट फ्रेंड. तुम्हारा सहारा न होता तो मैं तनाव के मारे पागल ही हो जाती. थैंक यू वेरी मच.’’

‘‘दोस्तों के बीच ऐसे ‘थैंक यू’ कानों को चुभते हैं, सविता. हमारी दोस्ती मेरे जीवन में भी खुशियों की महक भर रही है. तुम्हारे शानदार व्यक्तित्व से मैं भी बहुत प्रभावित हूं,’’ संजीव की आंखों में प्रशंसा के भाव उभरे. ‘‘तुम दिल के बहुत अच्छे हो, संजीव.’’

‘‘और तुम बहुत सुंदर हो, सविता.’’ संजीव ने उस की प्रशंसा आंखों में गहराई से झांकते हुए की थी. उस की भावुक आवाज सविता के बदन में अजीब सी सरसराहट दौड़ा गई. वह संजीव की आंखों से आंखें न मिला सकी और लजाते से अंदाज में उस ने अपनी नजरें झुका लीं.

संजीव अचानक उठा और उस के पास आ कर बोला, ‘‘मेरे होते हुए तुम किसी बात की चिंता न करना. मैं हर पल तुम्हारे साथ हूं. कल रविवार को नाश्ता हमारे साथ करना, बाय.’’ आगे जो हुआ वह सविता के लिए अप्रत्याशित था. संजीव ने बड़े भावुक अंदाज में उस का हाथ पकड़ कर चूम लिया था. संजीव की इस हरकत ने सविता की सोचनेसमझने की शक्ति हर ली. उस ने नजरें उठाईं तो संजीव की आंखों में उसे अपने लिए प्रेम के गहरे भाव नजर आए.

संजीव को सविता अपना अच्छा दोस्त और सब से बड़ा शुभचिंतक मानती थी. उस दोस्त ने अब प्रेमी बनने की दिशा में पहला कदम उस का हाथ चूम कर उठाया था. संजीव की आंखों में देखते हुए सविता पहले शर्माए से अंदाज में मुसकराई और फिर अपनी नजरें झुका लीं. उस ने संजीव को अपना प्रेमी बनने की इजाजत इस मुसकान के रूप में दे दी थी.

बिना और कुछ कहे संजीव अपने घर चला गया था. उस रात सविता ढंग से सो नहीं पाई थी. सारी रात मन में संजीव व राकेश को ले कर उथलपुथल चलती रही थी. सुबह तक वह न राकेश के पास लौटने का निर्णय ले सकी और न ही संजीव से निकटता कम करने का. मन में घबराहट व उत्तेजना के मिलेजुले भाव लिए वह अगले दिन सुबह संजीव और रेणु के घर पहुंच गई. मौका मिलते ही वह संजीव से खुल कर ढेर सारी बातें करने की इच्छुक थी. नएनए बने

प्रेम संबंध को निभाने के लिए बड़ी गोपनीयता व सतर्कता की जरूरत को वह रेखांकित करने के लिए आतुर थी. ‘‘रेणु नाराज हो कर मायके चली गई है,’’ घर में प्रवेश करते ही संजीव के मुंह से यह सुन कर सविता जोर से चौंक पड़ी थी.

‘‘क्यों नाराज हुई रेणु?’’ सविता ने धड़कते दिल से पूछा. ‘‘कल शाम तुम्हारा हाथ चूमने की खबर उस तक पहुंच गई.’’

‘‘वह कैसे?’’ घबराहट के मारे सविता का चेहरा पीला पड़ गया. ‘‘शायद तुम्हारी भाभी ने कुछ देखा और रेणु को खबर कर दी.’’

‘‘यह तो बहुत बुरा हुआ, संजीव. मैं रेणु का सामना कैसे करूंगी? वह मेरी बहुत अच्छी सहेली है,’’ सविता तड़प उठी. सविता को सोफे पर बिठाने के बाद उस की बगल में बैठते हुए संजीव ने दुखी स्वर में कहा, ‘‘कल शाम जो घटा वह गलत था. मुझे अपनी भावनाओं को नियंत्रण में रखना चाहिए था.’’

‘‘दोस्ती को कलंकित कर दिया मैं ने,’’ सविता की आंखों से आंसू बहने लगे. एक गहरी सांस छोड़ कर संजीव बोला, ‘‘रेणु से मैं बहुत प्यार करता हूं. फिर भी न जाने कैसे तुम ने मेरे दिल में जगह बना ली है…तुम से भी प्यार करने लगा हूं मैं…रेणु बहुत गुस्से में थी. मुझे समझ नहीं आ रहा है, अब क्या होगा?’’

‘‘हम से बड़ी भूल हो गई है,’’ सविता सुबक उठी. ‘‘ठीक कह रही हो तुम. तुम्हारे दुखदर्द को बांटतेबांटते मैं भावुक हो उठता था. तुम्हारा अकेलापन दूर करने की कोशिश मैं शुभचिंतक बन कर रहा था और अंतत: प्रेमी बन बैठा.’’

‘‘कुसूरवार मैं भी बराबर की हूं, संजीव. जो पे्रम अपने पति से मिलना चाहिए था, उसे अपने दोस्त से पाने की इच्छा ने मुझे गुमराह किया.’’ ‘‘तुम ठीक कह रही हो, सविता,’’ संजीव सोचपूर्ण लहजे में बोला, ‘‘तुम अगर राकेश के साथ होतीं…उस के साथ प्रसन्न व सुखी होतीं, तो हमारे बीच अच्छी दोस्ती की सीमा कभी न टूटती. तुम्हारा अकेलापन, राकेश से बनी अनबन और मेरी सहानुभूति व तुम्हारा सहारा बनने की कोशिशें हमारे बीच अवैध प्रेम संबंध को जन्म देने का कारण बन गए. अब क्या होगा?’’

‘‘मुझे राकेश के पास लौट जाना चाहिए…अपनी सहेली के दिल पर लगे जख्म को भरने का यही एक रास्ता है, बाद में कभी मैं उस से माफी मांग लूंगी,’’ सविता ने कांपते स्वर में समस्या का हल सामने रखा. ‘‘तुम्हारा लौटना ही ठीक रहेगा, सविता, फिर मेरे दिमाग में एक और बात भी उठ रही है.’’

‘‘कौन सी बात?’’ ‘‘यही कि तुम राकेश से दूर हो कर अगर मेरी सहानुभूति व ध्यान पा कर गुमराह हो सकती हो, तो आजकल राकेश भी तुम से दूर व अकेला रह रहा है. उस लड़की साक्षी के साथ उस का आज संबंध नहीं भी है, तो कल को वह ऐसी ही सहानुभूति व अपनापन तुम्हारे पति से जता कर उस के दिल में अवैध प्रेम संबंध का बीज क्या आसानी से नहीं बो सकेगी?’’

संजीव की अर्थपूर्ण नजरें सविता के दिल की गहराइयों तक उतर गईं. देखते ही देखते आंसुओं के बजाय उस की आंखों में तनाव व चिंता के भाव उभर आए.

‘‘यू आर वेरी राइट, संजीव,’’ सविता अचानक उत्तेजित सी नजर आने लगी, ‘‘राकेश से अलग रह कर मैं सचमुच भारी भूल कर रही हूं. खुद भी मुसीबत का शिकार बनी हूं और उधर राकेश को किसी साक्षी की तरफ धकेलने का इंतजाम भी नासमझी में खुद कर रही हूं. आई मस्ट गो बैक.’’ ‘‘हां, तुम आज ही राकेश के पास लौट जाओ. मैं भी रेणु को मना कर वापस लाता हूं.’’

‘‘रेणु मुझे माफ कर देगी न?’’ ‘‘जब मैं कहूंगा कि आज तुम ने मुझे यहां आ कर खूब डांटा, तो वह निश्चित ही तुम्हें कुसूरवार नहीं मानेगी. तुम दोनों की दोस्ती बनाए रखने को…एकदूसरे की इज्जत आंखों में बनाए रखने को मैं सारा कुसूर अपने ऊपर ले लूंगा.’’

‘‘थैंक यू, संजीव. मैं सामान पैक करने जाती हूं,’’ सविता झटके से उठ खड़ी हुई. ‘‘मेरी शुभकामनाएं तुम्हारे साथ हैं,’’ संजीव भावुक हो उठा.

‘‘तुम बहुत अच्छे दोस्त…बहुत अच्छे इनसान हो.’’ ‘‘तुम भी, अपना और राकेश का ध्यान रखना. गुडबाय.’’

सविता ने हाथ हिला कर ‘गुडबाय’ कहा और दरवाजे की तरफ बढ़ गई.

उस के जाने के बाद दरवाजा बंद कर के संजीव ड्राइंगरूम में लौटा तो मुसकराती रेणु ने उस का स्वागत किया. वह अंदर वाले कमरे से निकल कर ड्राइंगरूम में आ गई थी. ‘‘तुम ने तो कमाल कर दिया. सविता तो राकेश के पास आज ही वापस जा रही है,’’ रेणु बहुत प्रसन्न नजर आ रही थी.

‘‘मुझे खुशी है कि मेरी योजना सफल रही. सविता को यह बात समझ में आ गई है कि जीवनसाथी से, उस की जिंदगी में दूसरी औरत की उपस्थिति के भय के कारण दूर रहना मूर्खतापूर्ण भी है और खतरनाक भी.’’ ‘‘मैं फोन कर के राकेश को पूरे घटनाक्रम की सूचना दे देता हूं,’’ संजीव मुसकराता हुआ फोन की तरफ बढ़ा.

‘‘आप ने अपनी योजना की जानकारी मुझे आज सुबह से पहले क्यों नहीं दी?’’ ‘‘तब तुम्हारी प्रतिक्रियाओं में बनावटीपन आ जाता, डार्लिंग.’’

‘‘योजना समाप्त हुई, तो अब सविता को भुला तो दोगे न?’’ ‘‘तुम अकेला छोड़ कर नहीं जाओगी तो उस का प्रेम मुझे कभी याद नहीं आएगा जानेमन,’’ उसे छेड़ कर संजीव जोर से हंसा तो रेणु ने पहले जीभ निकाल कर उसे चिढ़ाया और फिर उस की छाती से जा लगी.

Hindi Story : सवाल का जवाब – रीना ने कैसे दिया जवाब

Hindi Story : अनजान शहर और उस पर घिरती शाम. रीना का मन घबराने लगा था. वह सोच रही थी, ‘आज के जमाने में पति के साथ होना भी कौन सी सिक्योरिटी की गारंटी है. अभी हाल ही में हनीमून पर आई एक नईनवेली दुलहन को उस के पति के सामने ही खींच कर…’ ‘‘मुकेश, तुम्हें मैं ने बोला था न कि या तो जल्दी लौटने की कोशिश करेंगे या पहले से कोई रुकने की जगह तय कर लेंगे… तुम ने दोनों में से एक भी काम नहीं किया…’’ रीना ने अपने पति मुकेश से शिकायती लहजे में कहा.

‘‘अरे डार्लिंग, चिंता मत करो…’’ मुकेश अपनी दुकान के लिए खरीदे गए माल का हिसाब मिलातेमिलाते बोला, ‘‘यहां ज्यादा देर हुई तो राजन के यहां रुक जाएंगे. पिछली बार याद है कितना गुस्सा कर रहा था वह कि मेरा घर होते हुए भी होटल में क्यों रुके?’’ राजन मुकेश का दोस्त था. अकसर उन के घर आताजाता रहता था, लेकिन चूंकि रीना अपने घरपरिवार में ही खुश रहने वाली औरत थी, सो उसे जल्दी किसी से घुलनामिलना पसंद नहीं था.

‘‘अरे, तुम पागल हो क्या…’’ रीना झल्ला गई, ‘‘राजन कौन है तुम्हारा? चाचा, मामा, नाना… मैं ने पहले भी कहा है कि किसी के भी घर यों ही नहीं रुकना चाहिए…’’ ‘‘फिर होटल का खर्च लगेगा. माल लेने आते हैं यहां, घूमने थोड़े ही,’’ मुकेश ने उसे समझाने की गरज से कहा.

रीना चिढ़ कर यह कहते हुए चुप हो गई, ‘‘जो मन में आए, करो.’’ आखिर वही हुआ जो रीना नहीं चाहती थी. सारा सामान लेतेलेते शाम के 7 बज गए. वापस लौटना भी खतरे से खाली नहीं था. हाईवे का सुनसान रास्ता और इतने सारे सामान के साथ रीना जैसी खूबसूरत जवान बीवी.

मुकेश ने डरतेडरते पूछा, ‘‘चलो न, बस रातभर की तो बात हैं.’’ रीना ने चुपचाप कुछ सामान उठा लिया मानो अनिच्छा से सहमति दे रही हो. मुकेश उस के साथ राजन के घर पहुंचा जो वहां से तकरीबन एक किलोमीटर की दूरी पर ही था.

राजन उन दोनों को देखते ही खिल उठा, ‘‘अरेअरे भाभीजी, आइएआइए… इस बार तू ने समझदारी की है मुकेश.’’ रीना को यों किसी के घर जाना बिलकुल पसंद नहीं था. वह सकुचाते हुए सोफे पर बैठ गई और घर पर ननद को फोन लगाया. अपने 5 साल के नटखट बेटे की चिंता सताना स्वाभाविक था.

‘‘टिंकू ज्यादा तंग तो नहीं कर रहा है न पायल?’’ रीना ने पूछा. ‘नहीं भाभी, टीवी देख रहा है…’ रीना की ननद पायल ने फोन पर बताया.

‘‘अच्छा सुनो… फ्रिज में दाल है, गरम कर लेना…’’ वह उसे जरूरी निर्देश देने लगी. तब तक मुकेश बाथरूम से फ्रैश हो कर आ चुका था. रीना ने फोन काट दिया. ‘‘फ्रैश हो लो तुम भी…’’ मुकेश धीरे से बोला, ‘‘इंतजाम सही है. साफसुथरा है सब…’’

रीना हिचकते हुए उठी. देखा कि राजन किचन में जुटा था. उस की अच्छीखासी सरकारी नौकरी थी लेकिन उस ने शादी नहीं की थी, सो सब काम वह खुद ही करता था. खाना खाने के बाद उस ने उन्हें उन का कमरा दिखाया. ‘‘चलिए भाभी, गुड नाइट…’’ कहता हुआ राजन बाहर जातेजाते अचानक मुड़ा और बोला, ‘‘मैं यह पूछना तो भूल ही गया कि मेरी कुकिंग कैसी लगी?’’

‘‘जी अच्छी थी. खाना अच्छा बना लेते हैं आप,’’ रीना ने मुसकरा कर जवाब दिया. राजन चला गया. उस के जाते ही मुकेश ने दरवाजा बंद किया और बिस्तर पर बैठ कर रीना से लिपटने लगा.

‘‘अरेअरे, क्या कर रहे हो… वह भी दूसरे के घर में,’’ रीना उस की इस हरकत पर असहज हो गई. ‘‘2 मिनट में कर लूंगा, तुम लेटो तो…’’ मुकेश ने अपने होंठ उस के चेहरे पर रगड़ने शुरू कर दिए.

‘‘बाबा, यह हमारा बैडरूम नहीं है…’’ रीना उस के हाथ अपने सीने से हटाने की नाकाम कोशिश करते हुए बोली, लेकिन न जाने आज मुकेश पर क्या धुन सवार थी. उस ने उसे बिस्तर पर दबा ही दिया. रीना इंतजार कर रही थी कि जल्दी यह सब खत्म हो लेकिन आज मुकेश में गजब का बल आया हुआ था. सामने लगी घड़ी में रीना बीतते मिनटों को हैरत से गिन रही थी.

‘‘क्या हो गया है जी तुम को…’’ अनियमित सांसों के बीच वह किसी तरह बोल पाई लेकिन मुकेश सुने तब न. हार कर रीना भी सहयोग करने पर मजबूर हो गई. काफी देर बाद दोनों अगलबगल निढाल पड़े सुस्ता रहे थे. ‘‘कपड़े तुम्हारे… जल्दी पहनो…’’ अपने अंदरूनी कपड़ों को खोजती पसीने से तरबतर रीना ने मुकेश के ऊपर उस की टीशर्ट रखते हुए कहा. आज उसे भी भरपूर संतुष्टि मिली थी लेकिन चादर के हाल पर बहुत शर्म भी आने लगी कि सुबह राजन देख कर क्या सोचेगा. लेकिन मुकेश इन सब बातों से बेपरवाह खर्राटे लेने में मगन था.

भोर के तकरीबन 4 बजे रीना की आंख लगी, जिस से उठने में देर हो गई. 7 बजे राजन दरवाजा खटखटाने लगा. रीना ने मुकेश को चिकोटी काट कर जगाया.

‘‘राजन दरवाजे पर है…’’ मुकेश के उठते ही वह फुसफुसा कर बोली. मुकेश ने दरवाजा खोला.

‘‘चल, हाथमुंह धो कर फ्रैश हो ले. मैं नाश्ता बनाने जा रहा हूं,’’ राजन ने मुकेश से कहा और साथ लाया अखबार रीना को दे कर चला गया. नाश्ता करते ही रीना ने तुरंत सामान बांध लिया. बिसकुट और साबुन के कुछ पैकेट जबरदस्ती राजन को थमा कर वे दोनों वहां से चल पड़े.

कुछ हफ्तों बाद एक दिन जब रीना नहा रही थी, उसी समय डोरबैल बज उठी. मुकेश दुकान गया हुआ था और पायल अपने होस्टल जा चुकी थी. घर में बस रीना और टिंकू ही थे. रीना ने जल्दीजल्दी साड़ी बांधी और दरवाजा खोला तो देखा कि सामने राजन खड़ा था.

‘‘ओह राजन भैया…’’ रीना ने उस का औपचारिक स्वागत करते हुए उसे अंदर बुलाया. ‘‘मुकेश तो दुकान के लिए निकल चुका होगा?’’ राजन ने इधरउधर देख कर पूछा.

‘‘हां, इस समय तो वे दुकान पर ही होते हैं…’’ रीना बोली, ‘‘बैठिए, मैं चाय बनाती हूं,’’ कह कर रीना जल्दी से किचन में चली गई. टिंकू अपने कमरे में खेल रहा था. चाय पीतेपीते रीना को कुछ ठीक महसूस नहीं हो रहा था. उसे लग रहा था कि राजन की नजर उस की कमर पर… लेकिन वह इन खयालों को झटक दे रही थी. हां, उस ने पल्लू को करीने से कर लिया था.

‘‘रुकिए, मैं मुकेश को फोन करती हूं…’’ ऐसा बोल कर वह उठने को हुई कि राजन ने हाथ पकड़ कर जरबदस्ती रीना को बिठा लिया. ‘‘अरे बैठिए न भाभी… वह तो आ ही जाएगा.’’

रीना को उस का हाथ पकड़ना बिलकुल अच्छा नहीं लगा. जल्दी से हाथ खींच कर छुड़ाया और बेटे को बुलाने लगी जिस से एकांत मिटे, ‘‘टिंकूटिंकू… देखो अंकल आए हैं,’’ मगर उस के आने से पहले ही राजन बोल उठा, ‘‘भाभी, मुझे आप को कुछ दिखाना है.’’ ‘‘क्या दिखाना है?’’ रीना को कुछ समझ नहीं आया. राजन ने अपने मोबाइल फोन पर कोई वीडियो प्ले कर उसे थमा दिया. मोबाइल पर चलती पोर्न फिल्म देख कर रीना गुस्से और बेइज्जती से भर उठी.

‘‘यह क्या बेहूदगी है…’’ रीना ने चिल्ला कर मोबाइल राजन पर फेंकते हुए कहा, ‘‘निकलो अभी के अभी यहां से, उस दिन बहुत शरीफ होने का ढोंग कर रहा था राक्षस…’’ लेकिन राजन एकदम शांत बैठा रहा. उस ने मोबाइल फोन दोबारा उस की ओर घुमाया, ‘‘जरा, इस फिल्म की हीरोइन को तो देख लो भाभीजान…’’

उस वीडियो की लड़की का चेहरा देखते ही रीना को तो जैसे चक्कर आने लगे. वीडियो में वह और मुकेश थे. वह समझ गई कि राजन ने उसी रात यह वीडियो बनाया था जब वे लोग उस के यहां रुके थे. ‘‘मैं ने ही मुकेश के खाने में वह मर्दानगी की दवा मिलाई थी जिस से वह आप को खुश कर दे और मैं वीडियो बना सकूं…’’ राजन बेशर्मी से हंसता हुआ बोला, ‘‘हाहाहा, वह बेचारा अनजाने में ही हीरो बन गया.’’

रीना बेइज्जती के मारे वहीं फूटफूट कर रो पड़ी. चिडि़या जाल में फंसी समझ कर राजन ने उस के कंधे पर हाथ रखा और कहा, ‘‘भाभी, आप की आंखें प्यार में डूबी अच्छी लगती हैं, रोती नहीं. चलिए बिस्तर पर, एक फिल्म मेरे साथ भी बना ही लीजिए, मुकेश से भी ज्यादा मस्त कर दूंगा आप को… ‘‘मेरी कमाई भी उस से तिगुनी है और मुकेश को हमारे बारे में कुछ पता भी नहीं चलेगा,’’ राजन ने बेशर्मी से कहा.

रीना को अपने कानों पर यकीन नहीं हो रहा था कि उस दिन का उतना सभ्य राजन आज इतने गंदे तरीके से उस से बातें कर रहा है. वह शेरनी की तरह उठी और उसे धक्का दे कर दूर धकेल दिया. वह सोफे के पास जा गिरा लेकिन खुद पर काबू रखता हुआ गुर्राया, ‘‘रीना, मैं तुझे मसल कर रहूंगा और ज्यादा नानुकर की न तो तेरी यह फिल्म जाएगी वैबसाइट पर… जब से तुझे देखा है, तुझ को ही सोचसोच कर सपने देखता हूं, मुझे आज मना मत कर.’’ राजन फिर से उठा और रीना को अपनी बांहों में भर लिया. रीना ने अपने सिर का जोरदार प्रहार राजन की नाक पर किया. वह दर्द से बिलबिलाता हुआ नीचे बैठ गया. नाक से खून आने लगा था.

रीना ने उस पर लातमुक्कों की बरसात कर दी. वह खुद को बचाने के लिए इधर से उधर हो रहा था. शोर सुन कर टिंकू भी वहां आ चुका था और वैसा सीन देख कर घबरा कर रो रहा था. आंसुओं को पोंछते हुए रीना दहाड़ी, ‘‘पति को धोखा देने के लिए सिखा रहा है मुझे. वैबसाइट पर डालेगा मेरा वीडियो? हैवान, जा कर डाल दे, कौन क्या कर लेगा मेरा? इस में मैं अपने पति के साथ हूं कोई गलत काम नहीं कर रही. अखबार वाले मेरा नाम छिपा लेंगे, टैलीविजन वाले तेरा चेहरा वायरल कर देंगे और पुलिस चुटकी में इस वीडियो को डिलीट करवा देगी… जेल में तू सड़ेगा, मेरा कुछ नहीं बिगड़ने वाला.’’

राजन किसी तरह से संभलता हुआ वहां से भागने की कोशिश करने लगा, पर रीना के हाथ में पास रखा पेपरवेट आ चुका था. उस ने मारमार कर राजन की खोपड़ी से भी खून निकाल दिया. वह बेहोश हो कर लुढ़क गया. रीना ने मुकेश को फोन कर दिया. वह पुलिस को साथ लिए ही घर आया. राजन के इस रूप पर मुकेश को भी भरोसा नहीं हो रहा था.

पुलिस की जीप में बैठते राजन के कानों में रीना की गुर्राहट पिघले सीसे की तरह घुस रही थी, ‘‘इस सबला का जवाब याद रखना दरिंदे…’’

Hindi Story : सप्ताह का एक दिन – क्या थी शोभा की समस्या

Hindi Story : अजय अभी भी अपनी बात पर अडिग थे, ‘‘नहीं शोभा, नहीं… जब बेटी के पास हमारे लिए एक दिन का भी समय नहीं है तब यहां रुकना व्यर्थ है. मैं क्यों अपनी कीमती छुट्टियां यहां रह कर बरबाद करूं…और फिर रह तो लिए महीना भर.’’

‘‘पर…’’ शोभा अभी भी असमंजस में ही थीं.

‘‘हम लोग पूरे 2 महीने के लिए आए हैं, इतनी मुश्किल से तो आप की छुट्टियां मंजूर हो पाई हैं, फिर आप जल्दी जाने की बात कहोगे तो रिचा नाराज होगी.’’

‘‘रिचा…रिचा…अरे, उसे हमारी परवा कहां है. हफ्ते का एक दिन भी तो नहीं है उस के पास हमारे लिए, फिर हम अभी जाएं या महीने भर बाद, उसे क्या फर्क पड़ता है.’’

अजय फिर बिफर पड़े थे. शोभा खामोश थीं. पति के मर्म की चोट को वह भी महसूस कर रही थीं. अजय क्या, वह स्वयं भी तो इसी पीड़ा से गुजर रही थीं.

अजय को तो उस समय भी गुस्सा आया था जब फोन पर ही रिचा ने खबर दी थी, ‘‘ममा, जल्दी यहां आओ, आप को सौरभ से मिलवाना है. सच, आप लोग भी उसे बहुत पसंद करेंगे. सौरभ मेरे साथ ही माइक्रोसौफ्ट में कंप्यूटर इंजीनियर है. डैशिंग पर्सनैलिटी, प्लीजिंग बिहेवियर…’’ और भी पता नहीं क्याक्या कहे जा रही थी रिचा.

अजय का पारा चढ़ने लगा, फोन रखते ही बिगड़े थे, ‘‘अरे, बेटी को पढ़ने भेजा है. वह वहां एम.एस. करने गई है या अपना घर बसाने. दामाद तो हम भी यहां ढूंढ़ लेंगे, भारत में क्या अच्छे लड़कों की कमी है, कितने रिश्ते आ रहे हैं. फिर हमारी इकलौती लाड़ली बेटी, हम कौन सी कमी रहने देंगे.’’

बड़ी मुश्किल से शोभा अजय को कुछ शांत कर पाई थीं, ‘‘आप गुस्सा थूक दीजिए…देखिए, पसंद तो बेटी को ही करना होगा, तो फिर यहां या वहां क्या फर्क पड़ता है. अब हमें बुला रही है तो ठीक है, हम भी देख लेंगे.’’

‘‘अरे, हमें तो वहां जा कर बस, उस की पसंद पर मुहर लगानी है. उसे हमारी पसंद से क्या लेनादेना. हम तो अब कुछ कह ही नहीं सकते हैं,’’ अजय कहे जा रहे थे.

बाद में रिचा के और 2-3 फोन आए थे. बेमन से ही सही पर जाने का प्रोग्राम बना. अजय को बैंक से छुट्टी मंजूर करानी थी, पासपोर्ट, वीजा बनना था, 2 महीने तो इसी में लग गए…अब इतनी दूर जा रहे हैं, खर्चा भी है तो कुछ दिन तो रहें, यही सब सोच कर 2 महीने रुकने का प्रोग्राम बनाया था.

पर यहां आ कर तो महीना भर काटना भी अजय को मुश्किल लगने लगा था. रिचा का छोटा सा एक कमरे का अपार्टमेंट. गाड़ी यहां अजय चला नहीं सकते थे, बेटी ही कहीं ले जाए तो जाओ…थोड़ेबहुत बस के रूट पता किए पर अनजाने देश में सभी कुछ इतना आसान नहीं था.

फिर सब से बड़ी बात तो यह कि रिचा के पास समय नहीं था. सप्ताह के 5 दिन तो उस की व्यस्तता के होते ही थे. सुबह 7 बजे घर से निकलती तो लौटने में रात के 8 साढे़ 8 बजते. दिन भर अजय और शोभा अपार्टमेंट में अकेले रहते. बड़ी उत्सुकता से वीक एंड का इंतजार रहता…पर शनिवार, इतवार को भी रिचा का सौरभ के साथ कहीं जाने का कार्यक्रम बन जाता. 1-2 बार ये लोग भी उन के साथ गए पर फिर अटपटा सा लगता. जवान बच्चों के बीच क्या बात करें…इसलिए अब खुद ही टाल जाते, सोचते, बेटी स्वयं ही कुछ कहे पर रिचा भी तो आराम से सौरभ के साथ निकल जाती.

‘‘सबकुछ तो बेटी ने तय कर ही लिया है. बस, हमारी पसंद का ठप्पा लगवाना था उसे, पर बुलाया क्यों था हमें जब सप्ताह का एक दिन भी उस के पास हमारे लिए नहीं है,’’ अजय का यह दर्द शोभा भी महसूस कर रही थीं, पर क्या कहें?

अजय ने तो अपना टिकट जल्दी का करवा लिया था. 1 ही सीट खाली थी. कह दिया रिचा से कि बैंक ने छुट्टियां कैंसल कर दी हैं.

‘‘मां, तुम तो रुक जातीं, ठीक है, पापा महीना भर रह ही लिए, छुट्टियां नहीं हैं, और अभी फिलहाल तो सीट भी 1 ही मिल पाई है.’’

शोभा ने चुपचाप अजय की ओर देखा था.

‘‘भई, तुम्हारी तुम जानो, जब तक चाहो बेटी के पास रहो, जब मन भर जाए तो चली आना.’’

अजय की बातों में छिपा व्यंग्य भी वह ताड़ गई थीं, पर क्या कहतीं, मन में जरूर यह विचार उठा था कि ठीक है रिचा ने पसंद कर लिया है सौरभ को, पर वह भी तो अच्छी तरह परख लें, अभी तो ठीक से बात भी नहीं हो पाई है और फिर उस के इस व्यवहार से अजय को चोट पहुंची है. यह भी तो समझाना होगा बेटी को. अजय तीसरे दिन चले गए थे.

अब और अकेलापन था…बेटी की तो वही नचर्या थी. क्या करें…इधर सुबह टहलने का प्रोग्राम बनाया तो सर्दी, जुकाम, खांसी सब…

जब 2-3 दिन खांसते हो गए तो रिचा ने ही उस दिन सुबहसुबह मां से कह दिया, जब वह चाय बना रही थीं, ‘‘अरे, आप की खांसी ठीक नहीं हो रही है, पास ही डा. डेनियल का नर्सिंग होम है, वहां दिखा दूं आप को…’’

‘‘अरे, नहीं,’’ शोभा ने चाय का कप उठाते हुए कहा, ‘‘खांसी ही तो है. गरम पानी लूंगी, अदरक की चाय तो ले ही रही हूं. वैसे मेरे पास कुछ दवाइयां भी हैं, अब यहां तो क्या है, हर छोटीमोटी बीमारी के लिए ढेर से टेस्ट लिख देते हैं.’’

‘‘नहीं मां, डा. डेनियल ऐसे नहीं हैं. मैं उन से दवा ले चुकी हूं. एक बार पैर में एलर्जी हुई थी न तब…बिना बात में टेस्ट नहीं लिखेंगे, और उन की पत्नी एनी भी मुझे जानती हैं, अभी मेरे पास टाइम है, आप को वहां छोड़ दूं. वैसे क्लिनिक पास ही है. आप पैदल ही वापस आ जाना, घूमना भी हो जाएगा.’’

रिचा ने यह सब इतना जोर दे कर कहा था कि शोभा को जाना ही पड़ा.

डा. डेनियल का क्लिनिक पास ही था… सुबह से ही काफी लोग रिसेप्शन में जमा थे. नर्स बारीबारी से सब को बुला रही थी.

यहां सभी चीजें एकदम साफसुथरी करीने से लगी हुई लगती है और लोग कितने अनुशासन में रहते हैं.

शोभा की विचार शृंखला शुरू हो गई थी, उधर रिचा कहे जा रही थी, ‘‘मां, डा. डेनियल ने अपनी नर्स से विवाह कर लिया था और अस्पताल तो वही संभाल रही हैं, किसी डाक्टर से कम नहीं हैं, अभी पहले डा. डेनियल की मां आप का बायोडाटा लेंगी…75 से कम उम्र क्या होगी, पर सारा सेके्रटरी का काम वही करती हैं.’’

‘‘अपने बेटे के साथ ही रहती होंगी,’’ शोभा ने पूछा.

‘‘नहीं, रहती तो अलग हैं. असल में बहू से उन की बनती नहीं है, बोलचाल तक नहीं है पर बेटे को भी नहीं छोड़ पाती हैं, तो यहां काम करती हैं.’’

शोभा को रिचा की बातें कुछ अटपटी सी लगने लगी थीं. उधर नर्स ने अब शोभा का ही नाम पुकारा था.

‘‘अच्छा, मां, मैं अब चलूं, आप अपनी दवा ले कर चली जाना, रास्ता तो देख ही लिया है न, बस 5 मिनट पैदल का रास्ता है, यह रही कमरे की चाबी,’’ कह कर रिचा तेजी से निकल गई थी.

नर्स ने शोभा को अंदर जाने का इशारा किया. अंदर कमरे में बड़ी सी मेज पर कंप्यूटर के सामने डा. मिसेज जौन बैठी थीं.

‘‘हाय, हाउ आर यू,’’ वही चिर- परिचित अंदाज इस देश का अभिवादन करने का.

‘‘सो, मिसेज शोभा प्रसाद…व्हाट इज योर प्रौब्लम…’’ और इसी के साथ मिसेज जौन की उंगलियां खटाखट कंप्यूटर पर चलने लगी थीं.

शोभा धीरेधीरे सब बताती रहीं, पर वह भी अभिभूत थीं, इस उम्र में भी मिसेज जौन बनावशृंगार की कम शौकीन नहीं थीं. करीने से कटे बाल, होंठों पर लाल गहरी लिपस्टिक, आंखों में काजल, चुस्त जींस और जैकेट.

हालांकि उन के चेहरे से उम्र का स्पष्ट बोध हो रहा था, हाथ की उंगलियां तक कुछ टेढ़ी हो गई थीं, क्या पता अर्थराइटिस रहा हो. फिर भी कितनी चुस्ती से सारा काम कर रही थीं.

‘‘अब आप उधर जाओ… डा. डेनियल देखेंगे आप को.’’

शोभा सोच रही थीं कि मां हो कर भी यह महिला यहां बस, जौब के एटीकेट्स की तरह  ही व्यवहार कर रही हैं…कहीं से पता नहीं चल रहा है कि     डा. डेनियल उसी के बेटे हैं.

डा. डेनियल की उम्र भी 50-55 से कम क्या होगी…लग भी रहे थे, एनी भी उसी उम्र के आसपास होगी…पर वह काफी चुस्त लग रही थी और उस की उम्र का एहसास नहीं हो रहा था. बनावशृंगार तो खैर यहां की परंपरा है.

‘‘यू आर रिचाज मदर?’’ डा. डेनियल ने देखते ही पूछा था. शायद रिचा ने फोन कर दिया होगा.

खैर, उन्होंने कुछ दवाइयां लिख दीं और कहा, ‘‘आप इन्हें लें, फिर फ्राइडे को और दिखा दें…आप को रिलीफ हो जाना चाहिए, नहीं तो फिर मैं और देख लूंगा.’’

‘‘ओके, डाक्टर.’’

शोभा ने राहत की सांस ली. चलो, जल्दी छूटे. दवाइयां भी बाहर फार्मेसी से मिल गई थीं. पैदल घर लौटने से घूमना भी हो गया. दिन में कई बार फिर मिसेज जौन का ध्यान आता कि वह भी तो मां हैं पर रिचा ने कैसे इतनी मैकेनिकल लाइफ से अपनेआप को एडजस्ट कर लिया है. वहां देख कर तो लगता ही नहीं है कि मां की बेटेबहू से कोई बात भी होती होगी. रिचा भी कह रही थी कि मां अकेली हैं, अलग रहती हैं. अपने टाइम पर आती हैं, कमरा खोलती हैं, काम करती हैं. पता नहीं, शायद इन लोगों की मानसिकता ही अलग हो.

जैसे दर्द इन्हें छू नहीं पाता हो, तभी तो इतनी मुस्तैदी से काम कर लेते हैं. शोभा को फिर रिचा का ध्यान आया. इस वीक एंड में वह बेटी से भी खुल कर बात करेंगी. भारत जाने से पहले सारी मन की व्यथा उड़ेल देना जरूरी है. वह थोड़े ही मिसेज जौन की तरह हो सकती हैं.

वैसे डा. डेनियल की दवा से खांसी में काफी फायदा हो गया था. फिर भी रिचा ने कहा, ‘‘मां, आप एक बार और दिखा देना…चाहो तो इन दवाओं को और कंटीन्यू करा लेना.’’

वह भी सोच रही थीं कि इडे को जा कर डाक्टर को धन्यवाद तो दे ही दूं. पैदल घूमना भी हो जाएगा.

सब से रहस्यमय व्यक्तित्व तो उन्हें मिसेज जौन का लगा था. इसलिए उन से भी एक बार और मिलने की इच्छा हुई थी…आज अपेक्षाकृ त कम भीड़ थी, नर्स ने बताया कि आज एनी भी नहीं आई हैं, डाक्टर अकेले ही हैं,…

‘‘क्यों…’’

‘‘एनी छुट्टी रखती हैं न फ्राइडे को.’’

‘‘अच्छा, पर सेक्रेटरी,’’

‘‘हां, आप इधर चली जाओ, पर जरा ठहरो, मैं देख लूं.’’

मिसेज जौन के कमरे के बाहर अब शोभा के भी पैर रुक गए थे. शायद वह फोन पर बेटे से ही बात कर रही थीं.

‘‘पर डैनी…पहले ब्रेकफास्ट कर लो फिर देखना पेशेंट को…यस, मैं ने मफी बनाए थे…लाई हूं और यहां काफी भी बना ली है…यस कम सून…ओके.’’

‘‘आप जाइए…’’

नर्स ने कहा तो शोभा अंदर गईं… वास्तव में आज मिसेज जौन काफी अच्छी लग रही थीं…आज जौन वाला एटीट्यूड भी नहीं था उन का.

‘‘हलो, मिसेज शोभा, यू आर ओके नाउ,’’ चेहरे पर मुसकान फैल गई थी मिसेज जौन के.

‘‘यस…आय एम फाइन…’’ डाक्टर साहब ने अच्छी दवाइयां दीं.’’

‘‘ओके, ही इज कमिंग हिअर… यहीं आप को देख लेंगे. आप काफी लेंगी,’’ मिसेज जौन ने सामने रखे कप की ओर इशारा किया.

‘‘नो, थैंक्स, अभी ब्रेकफ ास्ट कर के ही आई हूं.’’

शोभा को आज मिसेज जौन काफी बदली हुई और मिलनसार महिला लगीं.

‘‘यू आर आलसो लुकिंग वेरी चियरफुल टुडे,’’ वह अपने को कहने से रोक नहीं पाई थीं.

‘‘ओह, थैंक्स…’’

मिसेज जौन भी खुल कर हंसी थीं.

‘‘बिकौज टुडे इज फ्राइडे…दिस इज माइ डे, मेरा बेटा आज मेरे पास होगा, हम लोग नाश्ता करेंगे, आज एनी नहीं है इसलिए, यू नो मिसेज शोभा, वीक का यही एक दिन तो मेरा होता है. दिस इज माई डे ओनली डे इन दी फुल वीक,’’ मिसेज जौन कहे जा रही थीं और शोभा अभिभूत सी उन के चेहरे पर आई चमक को देख रही थीं.

शब्द अभी भी कानों में गूंज रहे थे …ओनली वन डे इन ए वीक…

फिर अजय याद आए, बेटी के पास सप्ताह भर में एक दिन भी नहीं है हमारे लिए …अजय का दर्द भरा स्वर…और आज उसे लगा, मानसिकता कहीं भी अलग नहीं है.

वही मांबाप का हृदय…वही आकांक्षा फिर अलग…कहां हैं हम लोग.

‘ओनली डे इन ए वीक…’ वाक्य फिर ठकठक कर दिमाग पर चोट करने लगा था.

Hindi Story : डिजिटल डकैत – साइबर क्रिमिनल ने सुजाता को कैसे धोखा दिया

Hindi Story : किचन में खाना बना रही सुजाता को उस के फोन ने आवाज दी, जो डाइनिंग टेबल पर रखा था. सुजाता ने अपने आटे से सने हाथों को पानी से साफ किया और अपने फोन की ओर बढ़ी.

सुजाता ने देखा कि किसी अनजान नंबर से फोन आया है. पहली बार तो उस ने फोन उठाया ही नहीं, पर जब दोबारा फोन बजा तो फोन उस के हाथ में ही था, सो झट से उठा कर सुजाता ने पूछा, ‘‘हैलो… कौन बोल रहा है?’’

सामने से एक अनजान आवाज आई, ‘और भई सुजाता, आजकल तो लगता है भूल ही गई हो हमें?’

‘‘हां… पर आप कौन हैं?’’

‘अब आप तो फोन करेंगी नहीं, तो सोचा कि क्यों न हम ही कर लें,’ उस अनजान आदमी ने कहा.

‘‘पर माफ कीजिएगा, आप हैं कौन? आप को पहचाना नहीं,’’ सुजाता ने कहा.

‘अच्छा चलिए, अब आप ही बताइए कि मैं कौन हूं? देखता हूं, आप मुझे पहचान पाती हैं या नहीं?’

‘‘अच्छा तो आप बताइए कि आप मुझे कब से जानते हैं और कैसे जानते हैं?’’ सुजाता ने पूछा.

‘अरे, हम तो आप को बचपन से जानते हैं. बस, आप ही भूल गई हैं.’

‘‘तुम कहीं सचिन तो नहीं?’’

‘जी हां, अब कैसे पहचान लिया?’

‘‘तुम सच में सचिन ही हो?’’ सुजाता ने हैरानी से पूछा.

‘क्यों, कोई शक है क्या?’

‘‘अरे… नहीं यार, मैं ने तो बस ऐसे ही तुक्का मारा और सही लग गया. यह बताओ कि तुम्हारी आवाज कैसे बदल गई है पहले से?’’

‘बदलेगी नहीं क्या… इतने दिन भी तो हो गए हैं,’ सचिन ने बताया.

‘‘और बताओ क्या चल रहा है आजकल? वैसे भी कालेज खत्म होने के बाद आज बात हो पा रही है हमारी,’’ सुजाता ने कहा.

‘बस, मेरा तो सब ऐसे ही है. तुम बताओ, शादीवादी हुई कि नहीं?’

‘‘शादी भी हो गई और अभी इन के लिए खाना ही बना रही थी. फोन आया तो सोचा पहले बात ही कर लेती हूं.’’

‘अरे नहीं सुजाता, तुम पहले खाने की तैयारी करो, हम तो कल भी बात कर लेंगे. अच्छा, सुनो…’

फोन रखते हुए सुजाता ने फिर से फोन कान पर लगा लिया और पूछा,  ‘‘हां, बोलो?’’

‘एक काम था तुम से.’

‘‘हां, बोलो?’’

‘वह जरा मुझे एक आदमी से 50,000 रुपए लेने थे, पर वह औनलाइन पेमेंट करना चाहता है.’

‘‘हां, तो इस में परेशानी वाली बात क्या?है?’’ सुजाता ने पूछा.

‘परेशानी यह है कि मैं कोई नैटबैंकिंग इस्तेमाल नहीं करता और न ही मुझे इन सब के बारे में कोई जानकारी है. मैं चाहता था कि अगर तुम मुझे अपनी नैटबैंकिंग का पासवर्ड बता दो, तो मैं इस आदमी से पेमेंट ले सकूं.

‘और एक बार पैसे तुम्हारे पास आ गए तो फिर तो मुझे मिल ही जाएंगे. पैसे तुम्हारे बैंक में हों या मेरे पास हों… बात तो एक ही है न,’ सचिन ने सुजाता से बनावटी हंसी हंसते हुए कहा.

‘‘अच्छा ठीक है… तो लिखो मेरा पासवर्ड,’’ सुजाता ने अपनी नैटबैंकिंग का पासवर्ड सचिन को दे दिया और फोन रख कर खाना बनाने में बिजी हो गई.

कुछ देर बाद अमीश औफिस से आया और हाथमुंह धो कर खाना खाने की तैयारी करने लगा. सुजाता ने जब तक खाना लगा दिया और दोनों एकसाथ खाने के लिए बैठ गए.

टेबल पर रखे सुजाता के फोन पर नोटिफिकेशन आया ‘25,000 रुपीज पेड.’ सुजाता को जोर का धक्का लगा मानो उस का निवाला उस के मुंह में ही अटक गया हो.

सुजाता को गंभीरता से नोटिफिकेशन खंगालते देख अमीश ने उस से इस चिंता की वजह जाननी चाही. सुजाता ने उसे बताया कि किस तरह एक फ्रौड ने

उसे अपने झांसे में फंसा कर उस का  सारा अकाउंट खाली कर दिया.

सुजाता की इस बेवकूफी पर अमीश ने उसे खूब फटकार लगाई, पर अब सुजाता को उस की गलती का पछतावा हो चुका था. सुजाता को बस इस बात की फिक्र थी कि उस के पैसे किसी तरह से वापस मिल जाएं.

अमीश ने रोतीबिलखती सुजाता को एक बहुत ही रोचक जानकारी दी. अमीश ने बताया, ‘‘अब औनलाइन फ्रौड से डरने की कोई बात नहीं. भारतीय रिजर्व बैंक कहता है कि अगर आप के साथ किसी तरह की धोखाधड़ी या औनलाइन फ्रौड होता है, तो उस की सूचना बैंक को 3 दिन के अंदर दे देनी चाहिए.

‘‘अगर हम बैंक को 3 दिन के भीतर अपने साथ हुए फ्रौड की सूचना दे देते हैं, तो बैंक हमें सौ फीसदी रिफंड कर देगा. अगर हम से 3 दिन के भीतर सूचना देने में कोई चूक हो गई, तो इस के बाद बैंक की किसी भी तरह की कोई जिम्मेदारी नहीं होगी.’’

सुजाता ने राहत की सांस ली और वे दोनों तुरंत बैंक को अपने साथ हुए फ्रौड के बारे में सूचित करने चले गए. तकरीबन 10 दिन के भीतर ही सुजाता के एकाउंट से निकले हुए 25,000 रुपए वापस उस के अकाउंट में आ गए.

दोनों को अपने पैसे वापस आते देख बड़ी खुशी हुई और सुजाता ने अब से ऐसे किसी अनजान इनसान पर भरोसा करने से कान पकड़ लिए.

अगले दिन अखबार में लोगों को अपना सगासंबंधी बता कर उन के खाते का पासवर्ड पूछने वाले साइबर क्रिमिनल को पुलिस ने पकड़ा, जिस पर तकरीबन 2 दर्जन फ्रौड के केस दर्ज थे.

लेखक- हेमंत कुमार

Hindi Story : पैबंद – रमा की जिंदगी में मदन ने कैसे भरा प्यार का रंग

Hindi Story : घंटी बजी तो दौड़ कर उस ने दरवाजा खोला. सामने लगभग 20 साल का एक नवयुवक खड़ा था.

उस ने वहीं खड़ेखडे़ दरवाजे के बाहर से ही अपना परिचय दिया,”जी मैं मदन हूं, पवनजी का बेटा. पापा ने आप को संदेश भेजा होगा…”

“आओ भीतर आओ,” कह कर उस ने दरवाजे पर जगह बना दी.

मदन संकोच करता हुआ भीतर आ गया,”जी मैं आज ही यहां आया हूं. आप को तकरीबन 10 साल पहले देखा था, तब मैं स्कूल में पढ़ रहा था.

“आप की शादी का कार्ड हमारे घर आया था, तब मेरे हाईस्कूल के  ऐग्जाम थे इसलिए आप के विवाह में शामिल नहीं हो सका था. मैं यहां कालेज की पढ़ाई के लिए आया हूं और यह लीजिए, पापा ने यह सामान आप के लिए भेजा है,”कह कर उस ने एक बैग दे दिया. बैग में बगीचे के  ताजा फल, सब्जियां, अचार वगैरह थे.

उस ने खूब खुशी से आभार जता कर बैग ले लिया और उस को चायनाश्ता  वगैरह सर्व किया.

इसी बीच उस ने जोर दे कर कहा,”तुम यहीं पर रहो. मैं तुम्हारे पापा को कह चुकी हूं कि सबकुछ तैयार मिल जाएगा. तुम अपनी पढ़ाईलिखाई पर ध्यान देना.”

मदन यह सुन कर बस एक बार में ही मान गया मानों इसी बात को सुनने के  लिए बैचेन था. वह उठा और जल्दी से अपना सब सामान, जो उस ने बाहर बरामदे मे रखा था भीतर ले आया.

उस दिन मदन अपना कमरा ठीक करता रहा. कुछ ही देर बाद वह वहां अपनापन महसूस करने लगा था मगर उस का दिल यहां इतनी जल्दी लग जाएगा यह उस ने सोचा ही नहीं था.

अगले दिन मदन को उस ने अपने पति से मिलवाया. मदन हैरान रह गया कि वे मकान के सब से पिछले कमरे मे खामोश लेटे हुए थे.

‘कमाल है, कल दोपहर से रात तक इन की आवाज तक सुनाई नहीं दी,’मदन सोचता रहा .

उस ने मदन की सोच में व्यवधान डालते हुए कहा,”दरअसल, बात यह है कि यह दिनभर तो सोते रहते हैं  और रातभर जागते हैं. मगर कल कुछ ऐसा हुआ कि दिनभर और रातभर सोते ही रहे.”

वह मदन के आने से बहुत ही खुश थी. 2 लोगों के सुनसान घर में कुछ रौनक तो हो गई थी.

1 सप्ताह बाद एक दिन मदन रसोई में आ कर उस का हाथ बंटाने लगा तो वह हंस कर बोली,”अभी तुम बच्चे हो. तुम्हारा काम है पढ़ना.”

जवाब में उस ने कहा,”हां, पढ़ना तो मेरा काम जरूर है मगर इतना भी बच्चा नहीं हूं मैं, पूरे 21 बरस का हूं…”

उस ने आश्चर्य से देखा तो मदन बोला,”12वीं में 1 साल खराब हो गया था इसलिए वरना अभी कालेज में सैकेंड ईयर में होता.”

“हूं…” कह कर वह चुप हो गई.

एक दिन बातोंबातों में मदन ने उस से पूछा,”आप के पति को क्या हुआ है? वे कमरे में अकसर क्यों रहते हैं?”

“वे बिलकुल फिट थे पहले तो. अच्छाखासा कारोबार देख रहे थे. हमारा सेब और चैरी का बगीचा है.  उस से बहुत अच्छी आमदनी होती है.

“हुआ यह कि ये पिछले साल ही पेड़ से गिर पड़े. सब इलाज करा लिया है… कंपकंपा कर चल पाते हैं फिलहाल तो.

“10 कदम चलने में भी पूरे 10 मिनट लगते हैं. इसलिए अपने कमरे में ही चहलकदमी करते हैं. सप्ताह में 2 दिन फिजियोथेरैपी कराने वाला आता है बाकी फिल्में देखते हैं, उपन्यास पढ़ते हैं.

“धीरेधीरे ठीक हो जाएंगे. डाक्टर ने कहा है कि समय लगेगा पर फिर आराम से चलने लगेंगे.”

“ओह…”

मदन ने यह सुन कर उन की तरफ देखा. वह जानता था कि मुश्किल से 4-5 साल ही हुए होंगे इन के विवाह को. उस ने अंदाज लगाया और अपनी उंगली में गिनने लगा.

वह फिर बोली,”हां 4 साल हो गए हैं इस अप्रैल में. याद है ना तुम्हारी 10वीं के पेपर चल रहे थे तब.

“और उस से पहले भी मैं आप से नहीं मिला था. शायद 7वीं में पढ़ता था तब एक बार आप को देखा था. आप पापा के पास कुछ किताबें ले कर आई थीं.”

“हां…हां… तब तुम्हारे पापा मेरे इतिहास के शिक्षक थे और मैं उन को किताबें लौटाने आई थी. उस के बाद मैं दूसरे स्कूल में जाने लगी थी और तुम्हारे पापा मेरे अध्यापक से मेरे भाई बन गए थे.”

दिन गुजरते रहे. मदन को वहां रहते 5 महीने हो गए थे. वह यों तो लड़कपन के उबड़खाबड़ रास्ते पर ही चल रहा था लेकिन यह साफ समझ गया था कि इन दोनों की खामोश जिंदगी में फिजियोथेरैपिस्ट के अलावा वही है जो थोड़ाबहुत संगीत की सुर, लयताल पैदा कर रहा था.

मदन ने देखा था कि बगीचे में काम करने वाले ठेकेदार वगैरह भी एकाध बार आए थे और कोई बैंक वाला भी आता था, पर कभीकभी.

मदन आज बिलकुल ही फुरसत में था इसलिए वह गुनगुनाता हुआ रसोई में गया और चट से उस की दोनों आंखें बंद कर के उस के कानों में मुंह लगा कर बोला,”रमा, आज मैं कर दूंगा सारा काम. तुम इधर आओ…यहां बैठो, इस जगह…” और वह हौलेहौले रमा के मुलायम, अभीअभी धुले गीले और खुशबूदार बालों को लगभग सूंघता हुआ उस को एक कुरसी पर बैठाने लगा लेकिन रमा उस को वहां बैठा कर खुद उस की गोद में आसीन हो गई.

दोनों कुछ पल ऐसे ही रहे. न हिलेडुले  न कुछ बोले बस, चुपचाप एकदूसरे को महसूस करते रहे. 2 मिनट बीते होंगे कि कहीं से कुछ खांसने की सी आवाज आई तो दोनों चौंक गए और घबरा कर रमा ने मदन को अपनेआप से तुरंत अलग किया हालांकि मदन की इच्छा नहीं थी कि वह उस से अलग हो.

मदन मन ही मन बीती दोपहर की उस मधुर बेला को अचानक याद करने लगा और उस के चेहरे पर एक शरारती मुसकान तैर गई. रमा ने यह सब ताड़ लिया था वह उस के दाहिने गाल पर एक हलकी सी चपत लगा कर और बाएं गाल पर मीठा सा चुंबन दे कर उठ खड़ी हुई.

उसी पल मदन भी यह फुसफुसाता हुआ कि दूसरे गाल से इतनी नाइंसाफी क्यों, अपनी जगह से खड़ा हो गया और उस के बगल में आ कर  काम करने लगा.

रमा के बदन में जैसे बिजली कौंध रही थी. वह कितनी प्रफुल्लित थी, यह उस का प्यासा मन जानता था. वह तो ऐसे अद्भुत अनुभव को तरस ही गई थी मगर मदन ने उस का अधूरापन दूर कर दिया था. तपते  रेगिस्तान में इतनी बरसात होगी और इतनी शानदार वह खुद बीता हुआ  कल याद कर के पुलक सी उठी थी.

खांसने की आवाज दोबारा आने लगी थी. वह 2 कप चाय ले कर मदन को प्यार से देखती हुई वहां से निकली और पति के कमरे तक पहुंच गई. मदन चाय की चुसकियां लेते हुए  अपने लिए नाश्ता बनाने लगा.

उस ने जानबूझ कर 2 बार एक छोटी कटोरी फर्श पर गिराई मगर रमा उस के इस इशारे को सुन कर भी उस के पास नहीं गई.

पति की दोनों हथेलियों को सहलाती हुई रमा उन में मदन की देह को महसूस करती रही और अपनेआप से बोलती रही,’प्यार हमारे जीवन में बिलकुल इसी तरह आना चाहिए किसी उन्मुक्त झरने की तरह,’उस के भीतर गुदगुदहाट सी मदहोशी छा रही थी.

लेकिन रमा इस बात से बिलकुल ही  बेखबर थी कि पति को उस का अनजाना सा स्पर्श उद्वेलित कर रहा था. वे कल से एक नई रमा को देख कर हैरान थे.

इस पूरे हफ्ते रमा ने और भी कुछ नयानया सा रूप दिखाया था. वह उन की तरफ पीठ कर के लेटती थी मगर अब तो वे दोनों बिलकुल आमनेसामने होते थे.

यह वही रमा है… वे हैरान रह गए थे. उन को याद आ रहा था कि जिस को अपने पति की इतनी सी गुजारिश भी नागवार गुजरती थी, जब वे कहते थे कि रमा मेरी दोनों हथेलियां थाम लो ना… रमा वे कुछ सैकेंड अनमने मन से उन को अपने हाथों में पकड़ लेती और फिर करवट ले कर गहरी नींद में खो जाती थी.

अब आजकल तो चमत्कार हो रहा था. रमा जैसे नईनवेली दुलहन सी बन चुकी थी और उस के ये तेवर और अंदाज उन को चकित कर रहे थे.

मदन भी जो शुरूशुरू में उन से कभीकभार ही एकाध सैकेंड को ही  मिलता था, वह अब कंधे भी दबा रहा था, चाय भी पिला रहा था.

एक दिन रसोई से कुछ अजीब सी आवाजें आ रहीं थीं जैसे 2 लोग लड़ाई कर रहे हों लेकिन बगैर कुछ बोले वे पहले तो हैरान हो कर कल्पना करते रहे फिर छड़ी के सहारे हौलेहौले वहां तक पहुंचे तो देख कर स्तब्ध ही रह गए. वहां 2 दीवाने एकदूसरे मे खोए हुए थे और इतना कि उन दोनों में से किसी एक को भी उन के होने की आहट तक नहीं थी.

वे वापस लौट गए तो कुछ कदम चलने के बाद अपने कमरे के पास ही अचानक ही लड़खङा गए.

खट…की सी आवाज आई. इस आवाज से मदन चौंक गया था मगर रमा की किलकारी गूंज उठी थी,”10 कदम में भी उन को पूरे 10 मिनट लगते हैं…”

और फिर 2 अलगअलग आवाजों की  खिलखिलाहट कोई दैत्य बन कर रसोई से दौड़ कर आई और अपना रूप बदल लिया. अब वह छिछोरी हंसी उन के कानों में गरम तेल बन कर दिल तक उतरती चली गई. सीने की जलन से तड़प कर वे चुपचाप लेट गए. आंखें बंद कर लीं, दोनों मुट्ठियां कस कर भींच ली और लेटे रहे मगर किसी भी हालत में एक आंसू तक नहीं बहने दिया.

रमा को जो जीवन एक लादा हुआ जीवन लग रहा था अब वही जीवन फूल सा, बादलों सा, रूई के फाहे सा लग रहा था. वह मदन के यहां आने को कुदरत के किसी करिश्मे की तरह मान चुकी थी.

मदन को यहां 1 साल पूरा होने जा रहा था और रमा अब खिल कर निखरनिखर सी गई थी.

सुबहशाम और रातरात भर पूरा जीवन मस्ती से सराबोर था. बस एक ही अजीब सी बात हो रही थी…

रमा ने गौर किया कि इन दिनों पति शाम को जल्दी सो जाते हैं. इतना ही नहीं वे अपने दोनों हाथ तकिए में बिलकुल छिपा कर रखते हैं.

Hindi Story : जुआरी – क्या थी बड़े भैया की वसीयत

Hindi Story : ‘जिंदगी क्या इतनी सी होती है?’ बड़े भैया अपने बिस्तर पर करवटें बदलते हुए सोच रहे थे और बचपन से अब तक के तमाम मौसम उन की धुंधली नजर में तैरने लगे. अंत में उन की नजर आ कर उन कुछ करोड़ रुपयों पर ठहर गई जो उन्होंने ताउम्र दांत से पकड़ कर जमा किए थे. कितने बड़े परिवार में उन्होंने जन्म लिया था. बड़ी बहन कपड़े पहना कर बाल संवारती थी, बीच की बहन टिफिन थमाती थी. जूते पहन कर जब वह बाहर निकलते तो छोटा भाई साइकिल पकड़ कर खड़ा मिलता था.

‘भैया, मैं भी बैठ जाऊं?’ साइकिल बड़े भाई को थमाते हुए छोटा विनम्र स्वर में पूछता. ‘चल, तू भी क्या याद रखेगा…’ रौब से यह कहते हुए साइकिल का हैंडल पकड़ कर अपना बस्ता छोटे भाई को पकड़ा देते फिर पीठ पर एक धौल मारते हुए कहते, ‘चल, फटाफट बैठ.’

छोटा साइकिल की आगे की राड पर मुसकराता हुआ बैठता. तीसरा जब तक आता उन की साइकिल चल पड़ी होती. अगले दिन साइकिल पर बैठने का नंबर जब तीसरे भाई का आता तो दूसरे को पैदल ही स्कूल जाना पड़ता. इस तरह तीनों भाई भागतेदौड़ते कब स्कूल से कालिज पहुंच गए पता ही नहीं चला.

कितनी तेज रफ्तार होती है जिंदगी की. कालिज में आने के बाद उन की जिंदगी में बैथिनी क्या आई, वह अपने ही खून से अलग होते चले गए. बैथिनी का भाई सैमसन उन के साथ कालिज में पढ़ता था. ईसाई धर्म वाले इस परिवार का उन के ब्राह्मण परिवार से भला क्या और कैसा मेल हो सकता था. पढ़ाई पूरी होतेहोते तो बैथिनी के साथ उन की मुहब्बत की पींगें आसमान को छूने लगीं. सैमसन का नेवी में चुनाव हो गया तो उन का आर्मी में. वह जब कभी भी अपने प्रेम का खुलासा करना चाहते उन का ब्राह्मण होना आडे़ आ जाता और उन की बैथिनी इस ब्राह्मण घर की दहलीज नहीं लांघने पाती. पिताजी असमय ही काल का ग्रास बन गए और वह आर्मी की अपनी टे्रनिंग में व्यस्त हो गए.

फौज की नौकरी में वह जब कभी छुट्टी ले कर घर आते उन के लिए रिश्तों की लाइन लग जाती और वह बड़े मन से लड़कियां देखने जाते. कभी मां के साथ तो कभी बड़ी बहनों और उन के पतियों के साथ. पिताजी ने काफी नाम कमाया था, सो बहुत से उच्चवर्गीय परिवार इस परिवार से रिश्ता जोड़ना चाहते थे पर उन के मन की बात किसे मालूम थी कि वह चुपचाप बैथिनी को अपनी हमसफर बना चुके थे. वह मां के जीतेजी उन की नजर में सुपुत्र बने रहे और कपटी आवरण ओढ़ लड़कियां देखने का नाटक करते रहे. वैसे भी पिताजी की मृत्यु के बाद घर में उन से कुछ पूछनेकहने वाला कौन था. 4 बड़ी बेटियों के बाद उन का जन्म हुआ था. उन के बाद 3 छोटे भाई और सब से छोटी एक और बहन भी थी. सो वह अपने ‘बड़ेपन’ को कैश करना बचपन से ही सीख गए थे. चारों बड़ी बहनों का विवाह तो पिताजी ही कर गए थे. अब बारी उन की थी, सो मां की चिंता आंसुओं में ढलती रहती पर न उन्हें कोई लड़की पसंद आनी थी और न ही आई.

छोटे भाइयों को भी अपने राम जैसे भाई का सच पता नहीं था, तभी तो भारतीय संस्कृति व परिवार की डोर थामे वे देख रहे थे कि उन का बड़ा भाई सेहरा बांधे तो उन का भी नंबर आए. वह जानते थे कि जिस ईसाई लड़की को उन्होंने अपनी पत्नी बनाया है उस का राज एक न एक दिन खुल ही जाएगा, अत: कुछ इस तरह का इंतजाम कर लेना चाहिए कि घर में बड़े होने की प्रतिष्ठा भी बनी रहे और उन की इस गलती को ले कर घर व रिश्तेदारी में कोई बवाल भी न खड़ा हो.

इस के लिए उन्होंने पहले तो सेना की नौकरी से इस्तीफा दिया फिर बैथिनी को ले कर इंगलैंड पहुंच गए. हां, अपने विदेश जाने से पहले वह एक बड़ा काम कर गए थे. उन्होंने इस बीच, सब से छोटी बहन का ब्याह कर दिया था. अब 3 भाई कतार में थे कि बड़े भैया ब्याह करें तो उन का नंबर आए. 70 साल की मां की आंखों में बड़े के ब्याह को ले कर इतने सपने भरे थे कि वह पलकें झपकाना भी भूल जातीं. आखिर इंतजार का यह सिलसिला तब टूटा जब उन से छोटे ने अपना जीवनसाथी चुन कर विवाह कर लिया. मां को इस प्रकार चूल्हा फूंकते हुए भी तो जवान बेटा नहीं देख सकता था. वह भी तब जब बड़ा भाई विदेश चला गया हो.

घर में आई पहली बहू को मां इतना लाड़दुलार कभी नहीं दे पाईं जितना उन्होंने बड़े की बहू के लिए अपनी झोली में समेट कर रखा था. उस बीच बड़े के गुपचुप ब्याह की खबर हवा में तैरती हुई मां के पास न जाने कितनी बार पहुंची लेकिन वह तो बड़े के खिलाफ कुछ भी सुनने के लिए तैयार नहीं थीं. बहू दिशा यह सोच कर कि वह अपना फर्ज पूरा कर रही है, अपने में मग्न रहने का प्रयास करती. मां से बडे़ की अच्छाई सुनतेसुनते जब उस के कान पक जाते तो उन की उम्र का लिहाज कर वह खुद ही वहां से हट जाती थी. संस्कारी, सुशिक्षित परिवार की होने के कारण दिशा बेकार की बातों पर चुप्पी साध लेना ही उचित समझती. वह जब भी विदेश से आते, मां उन के विवाह का ही राग अलापती रहतीं, जबकि कई बार अनेक माध्यमों से उन के कान में बडे़ बेटे के विवाह की बात आ चुकी थी. बाकी सब चुप ही रहते. वही गरदन हिलाहिला कर मां के प्यार को कैश करते रहते. अपने मुंह से उन्होंने ब्याह की बात कभी न कही, न स्वीकारी और पिताजी के बाद तो साहस किस का था जो उन से कोई कुछ पूछाताछी करता. बडे़ भाई के रूप में वह महानता की ऐसी विभूति थे जिस में कोई बुराई हो ही नहीं सकती.

धीरेधीरे सब भाइयों ने विवाह कर लिया. कब तक कौन किस की बाट देखता? सब अपनीअपनी गृहस्थी में व्यस्तत्रस्त थे तो मां की आंखों में बड़े के ब्याह के सपने थे, जबकि वह विदेश में अपनी प्रेयसी पत्नी के साथ मस्त थे. वह जब भी हिंदुस्तान आते तो अकेले. दिखावा इतना करते कि हर भाई को यही लगता कि बडे़ भैया बस, केवल उसी के हैं पर भीतर से निर्विकार वे सब को नचा कर फिर से उड़ जाते. जब भी उन के हिंदुस्तान आने की खबर आती, सब के मन उड़ने लगते, आंखें सपने बुनतीं, हर एक को लगता इस बार बड़े भैया जरूर उसे विदेश ले जाने की बात करेंगे. आखिर यही तो होता है. परिवार का एक सदस्य विदेश क्या जाता है मानो सब की लाटरी निकल आती है. लेकिन उन्होंने किसी भी भाई की उंगली इस मजबूती से नहीं पकड़ी कि वह उन के साथ हवाई जहाज में बैठ सके. शायद उन्हें भीतर से कोई डर था कि घर के किसी भी सदस्य को स्पांसर करने से कहीं उन की पोलपट्टी न खुल जाए. गर्ज यह कि वह अपनी प्रिय बैथिनी के चारों ओर ताउम्र घूमते रहे. जब घूमतेघूमते थक जाते तो कुछ दिनों के लिए भारत चले आते थे.

मां की मौत के बाद ही वह बैथिनी को ले कर घर की दहलीज लांघ सके थे. पर अब फायदा भी क्या था? सब के घर अलगअलग थे, सब की अपनी सोच थी और सब के मन में विदेश का आकर्षण, जो बड़े भैया को देखते ही लाखों दीपों की शक्ल में उजास फैलाने लगता.

वर्ष गुजरते रहे और परिवार की दूसरी पीढ़ी की आंखों में विदेश ताऊ के पास जा कर पैसा कमाने के स्वप्न फीके पड़ते रहे. भारत में उन्होंने अपना ‘एन आर आई’ अकाउंट खुलवा रखा था सो जब भी आते बैंक में जा कर रौब झाड़ते. उन के व्यवहार से भी उन के डालर और पौंड्स की महक उठती रहती. इंगलैंड में भी उन का अच्छाखासा बैंक बैलेंस था. औलाद कोई हुई नहीं. जब तक काम किया, उस के बाद एक उम्र तक आतेआते उन्हें देश की याद सताने लगी. बैथिनी को भारत नहीं आना था और उन्हें विदेश में नहीं रहना था, सो जीवन की गोधूलि बेला में वह एक बार भाई के बेटे के विवाह में विदेश से देश क्या आए वापस न जाने की ठान ली.

भाइयों के पेट में प्रश्नों का दर्द पीड़ा देने लगा. जिस औरत के साथ बड़े भाई ने पूरा जीवन बिता दिया उसे इस उम्र में कैसे छोड़ सकते हैं? अब वह भाइयों के पास ही रहने लगे थे और क्रमश: वह और बैथिनी एकदूसरे से दूर हो गए थे. अब परिवार के युवा वर्ग की आशा निराशा में बदल चुकी थी. बस, अब तो यह था कि जो उन की सेवा करता रहे, उसी को लड्डू मिल जाए. पर वह तो जरूरत से ज्यादा ही समझदार थे. अपने हाथों में भरे हुए लड्डुओं की खुशबू जहां रहते वहां हवा में बिखेर देते और जब तक लड्डू किसी को मिलें उन्हें समेट कर वह वहां से दूसरे भाई के पास चल देते.

अब कुछ सालों से उन का स्वास्थ्य साथ नहीं दे रहा था, सो उन्हें एक भाई के पास जम कर रहना ही पड़ा. शायद वह समझ नहीं पा रहे थे या मानने को तैयार नहीं थे कि उन्हें अपने शरीर को छोड़ कर जाना होगा. एक ‘एन आर आई’ की अकड़ में वह रहते… ‘एन आर आई’ होने के भ्रम में वह बरसों तक इसी खौफ में सांसें गिनते रहे कि कोई उन्हें लूट लेगा. बैथिनी को कितनीकितनी बार उन की बीमारी की खबर दी गई पर उस का रटारटाया उत्तर रहता, ‘उस को ही यहां पर आना होगा, मैं तो भारत में आने से रही.’ सो न वह गए और न बैथिनी आई. आज वह पलंग पर लेटेलेटे अपने जीवन को गोभी के पत्तों की तरह उतरता देख रहे हैं. उन्हें आज परत दर परत खुलता जीवन जैसे नंगा हो कर खुले आकाश के नीचे बिखेर रहा है और उन के हाथ में पकड़े लड्डू चूरचूर हो रहे हैं पर उन की बंद मुट्ठी किसी को उस में से एक कण भी देने के लिए तैयार नहीं है.

यों तो हमसब ही शून्य में अपने ऊपर आरोपित तामझामों का लबादा ओढ़े खडे़ हैं, सब ही तो भीतर से नंगे, अपनेआप को झूठे आवरणों में छिपाए हुए हैं. कोई पाने के लालच में सराबोर तो कोई खोने के भय से भयभीत. जिंदगी के माने कुछ भी हो सकते हैं. बडे़ भैया अब गए, तब गए, इसी ऊहापोह में कई दिन तक छटपटाते रहे पर उन की मुट्ठियां न खुलीं. ‘एन आर आई’ के तमगे को लिपटाए एक शख्स अकेलेपन के जंगल से गुजरता हुआ बंद मुट््ठियों को सीने से लगाए एक दिन अचानक ही शांत हो गया. फिर बैथिनी को बताया गया. फोन पर सुन कर बैथिनी बोली, ‘‘जितनी जल्दी हो सके मुझे डैथ सर्टिफिकेट भेज देना,’’ इतना कह कर फोन पटक दिया गया. भली मानस उस की मिट्टी तो सिमट जाने देती.

खैर, अब बडे़ भैया की अटैचियां खुलने की बारी थी. शायद उन में ही कहीं लड्डू छिपा कर रख गए हों. सभी भाई, भतीजे, बहुएं, बड़े भैया के सामान के चारों ओर उत्सुक दृष्टि व धड़कते दिल से गोल घेरे में बैठेखडे़े थे. ‘‘लो, यह रही वसीयत,’’ एक पैक लिफाफे को खोलते हुए छोटा भाई चिल्लाया.

‘‘लाओ, मुझे दो,’’ बीच वाले ने छोटे के हाथ से लगभग छीन कर पढ़ना शुरू किया…आखिर में लिखा था, ‘मेरी सारी चल और अचल संपत्ति मेरी पत्नी बैथिनी को मिलेगी और इंगलैंड व भारत का सब अकाउंट मैं पहले ही उस के नाम कर चुका हूं.’ अब सभी भाई व उन के बच्चे एक- दूसरे की ओर चोर नजरों से देख कर हारे हुए जुआरियों की भांति पस्त हो कर सोफों में धंस गए थे और शून्य में वहीं बडे़ भैया की ठहाकेदार हंसी गूंजने लगी थी.

Hindi Story : लड़ाई – शह और मात का पेचीदा खेल

Hindi Story : उस दिन चौपाल पर रामखिलावन की रामायण बंच रही थी. उस का लड़का सतपाल बलि का बकरा बनेगा. सरकार ने उस के बाप को जमीन दी थी ठाकुरों वाली, बड़े नीम के उत्तर में नाले की तरफ ठाकुरों का सातपुश्तों का अधिकार था. पहले सरकार ने चकबंदी का चक्कर चलाया, फिर खेत नपाई हुई और आखिर में नाले के उत्तर की जमीन सरकार ने कब्जे में कर ली.

अब भला सरकार का कैसा कब्जा? वहां घूमने वाले सूअरों को क्या सरकार ने रोक दिया? क्या अब भी वहां शौच को लोग नहीं जाते? नाले की सड़ांध सरकार साथ ले गई क्या? जी हां, कुछ भी नहीं बदला. बस, फाइलों में पुराने नाम कट गए, नए नाम लिख गए.

पिछले साल बुढ़ऊ के मेले में मंत्री साहब आए थे. गरीबों का उद्धार शायद उन्हीं के हाथों होना था. गांव के 13 गरीब भूमिहीन लोगों को जमीन के पट्टे दिए गए. रामखिलावन भी उन में से एक था.

उन 13 भूमिहीन लोगों ने गांव से तहसील तक के 365 चक्कर लगाए और अंत में थकहार कर बैठ गए. रामखिलावन भी उधारी का आटा पोटली में बांध कर कचहरी को सलाम कर आया.

सारी जमीन ठाकुर अयोध्यासिंह की थी. गांव के गरीब मजदूर ठाकुर साहब की रैयत के समान थे. ठाकुर साहब को दया आ गई. तहसील वगैरह के चक्कर और खर्चपानी को देख कर उन्होंने 400-400 रुपए उन गरीबों को दान दे कर उन के आंसू पोंछ दिए, साथ ही स्टांप पर उन से हस्ताक्षर करा लिए.

संयोग से रामखिलावन को उन दिनों पेचिश हो गई. गिरिराज की बुढि़या मां के बारहवें में 35 लड्डू निगले तो पेट में नगाड़े बज उठे. और फिर जो पीली नदी का बांध टूटा तो रामखिलावन 20 घंटे लोटा लिए दौड़ते नजर आए. किसी ने सलाह दी कि पीपरगांव के मंगलाप्रसाद हकीम की दवा फांको.

40 कोस तय कर के पीपरगांव जा पहुंचा रामखिलावन. यहां वह 20 दिन रहा. बांध पर पक्की सीमेंट की गिट्टियां चढ़वा कर वह गांव लौटा. सब की सुनी तो दौड़ादौड़ा गया ठाकुर की हवेली. ठाकुर अयोध्यासिंह ‘लाम’ पर गए हुए थे. उसे अज्ञातवास भी कह सकते हैं. कोई नहीं जानता था कि उन का वह ‘लाम पर जाना’ क्या होता था, लेकिन जब लौट कर आते थे तो ढेर सारा मालमत्ता ले कर आते थे.

रामखिलावन का समय ही खराब था. उन्हीं दिनों ठाकुर साहब का साला हरगोविंद आया हुआ था. हरगोविंद थोड़ा बिगड़ा मिजाज रईस था. लेकिन उस के आने से गांव में रौनक आ जाती थी. कल्लू मियां की कव्वाल जमात, गणेशीराम की भगत मंडली, प्यारेदुलारे का स्वांग, शिवशंकर की नौटंकी, गोविंदराम की रामलीला मंडली, हरगोपाल की रासलीला, आगरे की नत्थोबाई, बनारस की सदाबहार सुंदरी शहजादी, कभी मुजरे, कभी नाच, कभी नाटक…मतलब यह कि रातरात भर मेले लगते गांव में.

उस समय रामखिलावन निराश हो कर लौट रहा था कि सामने से हरगोविंद आते दिखाई दिए. हरगोविंद ने नाक सिकोड़ कर उसे देखा और रामखिलावन लगे अपना राग अलापने, ‘‘बड़ा अन्याय हुआ है हमारे साथ, बाबू. ठाकुर साहब ने सब को जमीन के रुपए चुका दिए लेकिन मुझे फूटी कौड़ी भी नहीं मिली. गिरिराज, पंचोली, नथुआ, भुट्टो, दीना, वीरो, भज्जू सब को रुपए मिल गए लेकिन बाबू साहब, मुझे नहीं मिला एक पैसा भी.’’

अब हरगोविंद आए थे छुट्टन की झोंपड़ी से खापी कर झूमते हुए. पहले तो उन्होंने रामखिलावन को पुचकारा. फिर गले लिपट कर प्यार किया, फिर पैर पकड़ कर खूब रोए और फिर जो उन्होंने रामखिलावन की धुनाई की तो रामखिलावन को पुरखे याद आ गए.

वह तो अच्छा हुआ कि गायत्री चाची ने एक लोटा पानी हरगोविंद के सिर पर डाल कर उसे ठंडा कर दिया, नहीं तो उस दिन रामखिलावन की खैर नहीं थी. रामखिलावन 33 करोड़ कथित देवताओं को रोपीट रहा था. तभी उस का बेटा सतपाल आ गया उस के पास. सतपाल सेना में रंगरूट बन गया था. सुना था कि अब कोई बड़ा अफसर है. बंदूक चलाता था और हुक्म देता था.

सेना का लीपापोता रंगरूट व जवान सतपाल सूरत और मिजाज दोनों से ही अक्खड़ था. वैसे वह पिता रामखिलावन की ही कौन सी इज्जत करता था. बड़े तालाब के मेले पर भीड़ के सामने उस ने बाप को थप्पड़ मारा था, लेकिन उस समय तो वह सेना का अफसर था, किस की मजाल थी जो उस के बाप को हाथ भी लगा पाता.

सबकुछ सुन कर सतपाल ने अपनी वरदी कसी, टोपी जरा ठीकठाक की, फिर हाथ में बड़ा गंड़ासा ले कर जा पहुंचा ठाकुर की हवेली पर.

हरगोविंद कहीं बाहर निकल चुका था. लेकिन सतपाल खाली हाथ कैसे लौटता, दरवाजे पर खड़ा हरगोविंद का विलायती कुत्ता अंगरेजी में भौंके जा रहा था. सतपाल ने एक ही बार में उसे चीर कर रख दिया. फिर हौज भरे पानी में गंड़ासा धो कर घर लौट आया.

शायद उसी रात ठाकुर अयोध्यासिंह गांव लौट आए थे. वह बहुत देर तक सतपाल की हरकत पर क्रोध से लालपीले होते रहे थे.

शांत होने पर फंटी को सतपाल के घर भेजा. रामखिलावन से फंटी बोला, ‘‘तुम मूर्ख, जल में रह कर मगरमच्छ से बैर करोगे. रामकरन को देखा है. आज भी बैसाखी के सहारे चलता है. कुंती मौसी को तो जानते हो न. ठाकुर साहब को बदनाम करने के लिए होहल्ला किया तो उस का लड़का परमू जंगल में ही रह गया. लाश भी नहीं मिली. कुंती मौसी आज भी ठाकुर के घर रोटी बनाती है और ठाकुर की नजरें गरम रखती है. तुम तो भुनगे हो, भुनगे. अगर ठाकुर साहब की आंख भी टेढ़ी हो गई तो कहीं भी जगह नहीं मिलेगी. सतपाल की लाश कुत्ते की तरह किसी नालेपोखर में पड़ी सड़ती नजर आएगी.’’

तभी सतपाल आ गया. शायद वह फंटी को जानता था. वह मंटो अहीर का लड़का था, ‘बड़ा दादा बनता फिरता है. सुना है कि दूरदूर गांवों में भाड़ा ले कर लट्ठ चलाने जाता है. चलो, आज इस का भी पानी देख लेते हैं.’

‘‘कौन है बे. बिना पूछे घर में कैसे घुस आया?’’

‘‘जानता नहीं है, फंटी बाबू को? सेना में 200 रुपल्ली का सिपाही क्या बन गया, अपनी औकात ही भूल गया. सात पुश्तों से ठाकुरों की पत्तलें चाटचाट कर दिन काट रहे हो. आज चींटी के भी पंख निकल आए हैं. जाओ बच्चू, दूधदही खाके आओ. फिर चोंच लड़ाना हम से. तुम्हारे जैसे तीतरबटेर को तो चुटकी में मसल कर रख देते हैं.’’

सतपाल के गरम खून को वह अपमान बरदाश्त न हुआ. पास ही पड़ा फावड़ा उठा लिया. फंटी भी उस की टांगों में घुस गया और उसे गैंडे की तरह उछाल दिया. पहले तो सतपाल फावड़ा ले कर आंगन की बुखारी में जा पड़ा. उस का सिर फट गया. फिर जो उसे गुस्सा आया तो वह दनादन फावड़ा चलाने लगा. एक फावड़ा सीधा फंटी के कपाल पर लगा और माथे के ऊपर की एक चौथाई चमड़ी फावड़े के साथ नीचे लटक गई. खोपड़ी तरबूज की तरह छिल गई.

दोनों योद्धा लड़तेलड़ते घर से बाहर आ गए थे. फंटी दरवाजे पर ही गिर पड़ा. किसी ने चिल्ला कर कहा, ‘‘मर गया… खून…खून हो गया. भाग सतपाल…भाग रामखिलावन…भागो…’’

लेकिन दोनों में से कोई भी नहीं भागा. ठाकुर के आदमी तुरंत खाट ले कर आए और अपने वीर योद्धा को उठा कर ले गए.

लोग समझ रहे थे कि अब आएंगे ठाकुर के लोग. अब आएगी पुलिस. अब होगा डट कर खूनखराबा. लेकिन कुछ नहीं हुआ.

ठाकुर चुप, सतपाल चुप. सारा गांव चुप. ठाकुर ने कह दिया, ‘‘नहीं पुलिसवुलिस का क्या काम है? हमारा मामला है, हम खुद सुलट लेंगे.’’

फंटी मरा नहीं. फैजाबाद के अस्पताल में ठीक होने लगा. अयोध्या की हवा ने उसे नई जिंदगी दी.

गांव की चौपाल पर रामखिलावन और सतपाल की ही चर्चा थी, ‘‘छोड़ेगा नहीं ठाकुर सतपाल को. इतनी बड़ी बेइज्जती कैसे सह सकता है?’’

कुछ नौजवान सतपाल के गुट में आ गए…ठाकुरों से कटे हुए, पिटे हुए लोग. कुछ ठाकुर अयोध्यासिंह को कुरेदते, ‘‘कुछ करो, ठाकुर साहब. ऐसे तो इन का दिमाग फिर जाएगा. कुछ रास्ता निकालो.’’ ठाकुर ने तो नहीं, चौधरी बदरीप्रसाद ने जरूर रास्ता निकाल लिया.

चौधरी साहब सत्तारूढ़ पार्टी के अनुभवी घाघ नेता थे. 3 बार सांसद रह चुके थे. इस बार ठाकुरों ने इलाके में नहीं घुसने दिया. वह तो कहो कि पहले की कुछ जमापूंजी थी, जो आज तक चूस रहे थे. नहीं तो रोने को मजदूर भी न मिलते.

सतपाल के कारनामे की खबर उन्हें मिली तो तैश में आ गए. सतपाल को शहर बुलवा लिया. फिर समझानेबुझाने लगे. वकीलों, पेशकारों से सलाहमशवरा किया. कानूनी बातें समझ में बैठाई गईं और फिर ठोक दिया ठाकुर अयोध्यासिंह पर 420, मारपीट, धौंसपट्टी, फसाद, शांतिभंग और लूटपाट का अभियोग. पुलिस में रिपोर्ट के साथसाथ अदालत में मुकदमा दायर कर दिया.

उधर ठाकुर अयोध्यासिंह को अपनी गलती का एहसास हुआ. बगल में दुश्मन और फोड़े को उन्हें नजरअंदाज नहीं करना चाहिए था. खैर, ठाकुरों ने अपनी पंचायत जोड़ी, मैदान संभाला. कोर्टकचहरी साधे, वकीलों- पेशकारों को बुलाया और फिर शुरू हुई एक ठंडी लड़ाई.

ठाकुर के ‘लाम’ के आदमी शायद आ टिके थे हवेली में. उन के लकदक ऊंचे लालसफेद घोड़े, जिन के खड़े कान और लंबी पूंछें उन की ऊंची नस्ल का पता दे रहे थे. ठाकुर की चौपाल पर हुक्कापानी का सिलसिला गुलजार होता गया.

इधर सतपाल के कच्चे मकान के पीछे ईश्वरी प्रसाद के अहाते में 8-9 खाटें बिछ जातीं. कुछ लोग शहर से आए थे. एकदम उजड्ड, एकदम ठूंठ, आसपास की बहूबेटियों को ऐसे देखते, जैसे वे औरतें न हों गुलाबजामुन हों.

दोनों तरफ भीड़ बढ़ने लगी थी. कुछ तनातनी भी चल रही थी. इधर एकाएक ठाकुरों ने चुनौती दी कि या तो 2 दिन के अंदर बाहर के लोगों को बाहर कर दो, वरना सारी बस्ती जला कर खाक कर देंगे.

1 दिन गुजर गया. कुछ राजनीति के फंदे तैयार किए गए. उसी दिन आ गया हरगोविंद. बस, उसे ही मुहरा बनाया गया. सारा कार्यक्रम तय हो गया.

शाम को लोटा ले कर हरगोविंद उत्तरी नाले की ओर निकला. एक हाथ में लोटा, एक हाथ में लाठी. लाठी तो वहां आमतौर पर रखते ही थे न. कोई नई बात नहीं थी. आधी धोती लपेटे, आधी कंधे पर डाले.

पीपल के पास वाली बेरिया की झाड़ी के पीछे उस ने लोटा रखा. तभी पिरबी आती दिखाई दी. सिर पर 2 सेर घास का बोझ, हाथ में हंसिया. पास से निकली. हरगोविंद ने उसे देखा. उस ने उसे देखा. वह मुसकराई और हरगोविंद उस के पीछे.

पिरबी फौरन पलटी और हरगोविंद से लिपट गई और फिर तुरंत ही अपने कपड़े फाड़ने लगी. वह किसी फिल्मी दृश्य की तरह चीखनेचिल्लाने लगी, ‘‘बचाओ…मार डाला…बचाओ…बचाओ…’’

बचाने वालों को वहां तक आने में देर नहीं लगी. 30-35 जवान हाथों में लाठियां लिए आ गए. हरगोविंद की सामूहिक धुनाईपिटाई कर के उसे गांव में लाया गया.

नथुआ पहले से ही तहसील रवाना हो चुका था. शायद पुलिस को पहले से ही तैयार रखा गया था. शायद शहर से पुलिस अधीक्षक के आदेश अग्रिम रूप से मिल गए थे. तभी तो तहसील की पुलिस ठाकुर की हवेली के लठैतों से पहले पहुंच गई.

हरगोविंद को तहसील ले जाया गया, फिर वहां से शहर. 2 दिन की अदालत की छुट्टी. पक्का बंदोबस्त.

इधर गांवगांव डुग्गी पिटी. अखबारों में छपा. रेडियो में गूंजा. सरकार ने सिर झुका कर इसे निंदनीय कार्य कहा. एक पिछड़े वर्ग की कन्या पर वहशी आक्रमण, पुलिस की सक्रिय भूमिका की सराहना, थानेदार जनार्दनप्रसाद की पदोन्नति.

दूरदूर के गांवों में संदेशा पहुंचा. 8 तारीख को पिछड़ी जाति की प्रादेशिक सभा, जुर्म के खिलाफ, गुलामी के विरुद्ध, प्रचार के लिए बड़ेबड़े बैनर परचे, लंबाचौड़ा बजट. कौन कर रहा था वह सब खर्च? कौन कर रहा था वह प्रबंध? कोई नहीं जानता था.

लोग भीड़ की इकाई बन कर चुपचाप घिसट रहे थे. सभा में जुड़ रहे थे.

‘‘मुर्दाबाद…मुर्दाबाद’’

‘‘नादिरशाही नहीं चलेगी…’’

‘‘गुंडागर्दी नहीं चलेगी…’’ नारे लग रहे थे.

उधर ठाकुरों की सेना तैयारी कर रही थी. जंगीपुरा की 20 झोंपडि़यों में आग लगा दी गई. 13 आदमी मर गए. किस ने लगाई वह आग? ठाकुरों की जमात में प्रश्न दर प्रश्न.

ठाकुरों के कुएं में मरा हुआ सूअर- 3 टुकड़ों में. पिछड़े वर्ग की सभा में प्रश्न दर प्रश्न…ऐसा किस ने किया?

सतपाल घबरा गया था. चौधरी बदरीप्रसाद का चुनाव क्षेत्र तैयार हो रहा था. उन्होंने खुल कर मैदान पकड़ा था. जानपहचान के नेताओं, मंत्रियों को ले कर गांव में आ गए थे, ‘‘छि:छि:, बहुत बुरी बात है. मरने वालों को 10-10 हजार रुपए…’’

मरने वाले ले जाएं आ कर अपना रुपया? कौन देगा वह रुपया? कलक्टर, तहसीलदार, सरपंच या पटवारी?

झूठ, कुछ नहीं मिलेगा. कुछ भी नहीं मिलेगा. फिर भी, ‘‘चौधरी बदरीप्रसाद जिंदाबाद.’’

‘‘गरीबों का मसीहा…बदरीप्रसाद…’’

उधर फिर नया युद्ध, नई नीति. हरगोविंद को छुड़वा कर शहर रवाना कर दिया गया. नई चाल चली गई और युद्ध का विषय बदल दिया गया.

बदल गया युद्ध का विषय, यानी रमजान रिकशे वाले को दाऊदयाल के लड़के संदीप ने पीट दिया. मकसूद बोल उठे, ‘‘अकेला जान कर पीट रहे हो न. अभी मियांपाडे़ के कसाई आ गए तो काट कर भुस भर देंगे.’’

संदीप अकड़ गया मकसूद से, ‘‘बाप लगता है तेरा. इन जैसे पचासों देखे हैं. चरकटे.’’ और फिर कर दी रमजान की जम कर पिटाई.

मकसूद ले गए उसे निकाल कर. फिर जाने क्या मंत्र फूंका कान में कि शाम को 7 बजे कल्लन, करीम, अकरम और मकसूद को ले कर आ गया रमजान. भरे बाजार में उस ने संदीप को गद्दी से खींच लिया और 10-20 जूते खोपड़ी पर रसीद कर दिए.

बाजार में होहल्ला मच गया. कुछ लोगों ने दूर से पत्थर बरसाने शुरू कर दिए. उन लोगों ने चाकू खोल लिए. फिर सब भाग खड़े हुए.

रात में मंदिरमसजिदों में सभाएं हुईं. प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाया गया. रात भर दोनों धर्मों में पत्थरबाजी होती रही.

और उसी दिन सतपाल नौकरी पर लौट गया. ठाकुर अयोध्यासिंह उस लड़ाई को भुलाने का विचार करतेकरते सो गए.

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