एक दामाद और : पांच बेटी होने के बाद भी उसे कोई दिक्कत नहीं थी क्यों -भाग 3

अगले सप्ताह रूमा की वर्षगांठ थी. जाहिर था उस के लिए अच्छा सा तोहफा खरीदना होगा. सस्ते तोहफे से काम नहीं चलेगा. उस का अपमान हो जाएगा. बहन के आगे उस का सिर झुक जाए, यह वह कभी सहन नहीं करेगी.

‘‘मैं सोच रही थी कि उसे सलवार- कुरते का सूट खरीद दूं. उस दिन देखा था न काशीनाथ के यहां,’’ उर्मिला बोली.

‘‘क्या?’’ नरेश ने चौंक कर कहा, ‘‘मैं ने तो सोचा था कि तुम अपने लिए देख रही थीं. वह तो 150 रुपए का था.’’

‘‘तो क्या हुआ?’’ उर्मिला ने नरेश के गले में हाथ डालते हुए कहा, ‘‘मेरा पति कोई छोटामोटा आदमी थोड़े ही है. अरे, सहायक निदेशक है. पूरे दफ्तर में रोब मारता है.’’

‘‘छोड़ो भी. जरा खर्चा तो देखो. सब काम अपनी हैसियत के अनुसार करना चाहिए.’’

‘‘तो क्या मेरे मियां की इतनी भी हैसियत नहीं है?’’ उर्मिला ने रूठ कर कहा, ‘‘मैं पिताजी से उधार ले लूंगी.’’

नरेश को यह बात अच्छी नहीं लगती. पहले भी इस बात पर लड़ाई हो चुकी थी.

‘‘उधार लेने से तो यह फर्नीचर बेचना ठीक होगा,’’ उस ने गुस्से में आ कर कहा.

‘‘हां, क्यों नहीं,’’ उर्मिला ने नाराज हो कर कहा, ‘‘मेरे पिता का दिया फर्नीचर फालतू है न.’’

‘‘तो मैं ही फालतू हूं. मुझे बेच दो.’’

‘‘जाओ, मैं नहीं बोलती. बहन को एक अच्छी सी भेंट भी नहीं दे सकती.’’

‘‘भेंट देने को कौन मना करता है, पर इतनी महंगी देने की क्या आवश्यकता है? वर्षगांठ तो हर साल ही आएगी. और फिर एक थोड़े ही है, 4-4 हैं. अभी तो औरों की वर्षगांठ भी आने वाली होगी,’’ नरेश ने कहा.

‘‘क्यों, 5वीं को भूल गए?’’ उर्मिला ने व्यंग्य कसा. तभी नरेश को याद आया, 25 तारीख को तो उर्मिला की भी वर्षगांठ है.

‘‘जब मेरी वर्षगांठ मनाओगे तो मेरे लिए भी तो भेंट आएगी. पिताजी बंगलौर गए थे. जरूर मेरे लिए बढि़या साड़ी लाए होंगे. और सुनो,’’ उर्मिला ने आंख नचाते हुए कहा, ‘‘तुम्हारी वर्षगांठ पर मैं सूट का कपड़ा दिलवा दूंगी.’’

‘‘मुझे नहीं चाहिए सूटवूट. तुम अपने तक ही रखो,’’ नरेश ने झुंझला कर कहा, ‘‘एक तुम ही इतनी भारी भेंट पड़ रही हो.’’

‘‘ऐसी बात कह कर मेरा दिल मत दुखाओ,’’ उर्मिला ने नरेश का हाथ अपने दिल पर रखते हुए कहा, ‘‘देखो, कितना छोटा सा है और कैसा धड़क रहा है.’’

और नरेश फिर भूल गया.

दूसरे दिन जब उर्मिला सलवारकुरते का सूट ले आई तो नरेश ने आह भर कर कहा, ‘‘तुम्हारे पिताजी भी बड़े योजना- बद्ध हैं.’’

‘‘कैसे?’’ उर्मिला ने शंका से पूछा. उसे लगा कि नरेश कुछ कड़वी बात कहने जा रहा है.

‘‘तुम सारी बहनों की वर्षगांठें एकएक दोदो सप्ताह के अंतर पर हैं. उन्होंने जरा सा यह भी नहीं सोचा कि दामाद को कुछ तो सांस लेने का अवसर दें.’’

‘‘चलो हटो, ऐसा कहते शर्म नहीं आती?’’

‘‘नहीं. बिलकुल नहीं आती.’’

अब आ गई 25 तारीख, उर्मिला की वर्षगांठ. कई दिनों से तैयारी चल रही थी. शादी के बाद पहली वर्षगांठ थी. माता- पिता ने कहा था कि उन के यहां मनाना. परंतु उर्मिला ने न माना. उसे सब को अपने यहां बुलाने का बड़ा चाव था. अपना ऐश्वर्य व ठाटबाट जो दिखाना था. नरेश 400-500 के खर्च के नीचे आ गया. साड़ी मिलेगी उर्मिला को. हो सकता है बहनें भी कुछ थोड़ाबहुत भेंट के नाम पर दे दें. परंतु उस का खर्चा कैसे पूरा होगा? बैंक में रुपया शून्य तक पहुंच रहा था. वह बारबार उर्मिला को समझा रहा था. परंतु उसे वर्षगांठ मनाने का इतना शौक न था जितना दिखावा करने का. उत्साह न दिखाना नरेश के लिए शायद एक भद्दी बात होती. काफी नाजुक मामला था. नरेश ने सोचा कि पहला साल है. इस बार तो किसी तरह संभालना होगा, बाद में देखा जाएगा.

दावत तो रात की थी, पर बहनें सुबह से ही आ धमकीं. दीदी का हाथ जो बंटाना था. अकेली क्याक्या करेगी? दिन भर होहल्ला मचाती रहीं. फ्रिज में रखा सारा सामान चाट गईं. एक की जगह 2 केक बनाने पड़े. दिन में खाने के लिए गोश्त और मंगाना पड़ा. मिठाई भी और आई. एक दावत की जगह 2 दावतें हो गईं.

संध्या होते ही मातापिता भी आ गए. ‘मुबारक हो, मुबारक हो’ के नारे लग गए. सब के मुंह ऐसे खिले हुए थे जैसे आतशी अनार. उधर नरेश सोच रहा था कि वह अपने घर में है या ससुराल में. काश, यह जश्न एक निजी जश्न होता, केवल वह और उर्मिला ही उस में भाग लेते. अंतरंग क्षणों में यह दिन बीतता और शायद सदा के लिए एक सुखद यादगार होता. तब अगर 1,000 रुपए भी खर्च हो जाते तो वह परवा न करता. सब लोग उसे भूल कर एकदूसरे में इतने मगन थे कि किसी ने यह भी न सोचा कि वहां दामाद भी है या नहीं.

रात के 12 बजतेबजते न जाने कब यह तय हो गया कि 30 तारीख शनिवार को, जिस दिन नरेश की छुट्टी रहती है, सब लोग बहुत दूर एक लंबी पिकनिक पर चलेंगे और इतवार को ही लौटेंगे. रहने और खाने का प्रबंध ससुर की ओर से रहेगा. तब ही यह रहस्य भी खुला कि उर्मिला को 2 महीने का गर्भ है.

‘मुबारक हो, मुबारक हो,’ का शोर गूंज उठा.

‘‘दावत लिए बिना नहीं छोड़ेंगे, जीजाजी,’’ एक साली ने कहा और फिर तो बाकी सालियां भी चिपट गईं.

नरेश का तो भुरता ही बन गया. एकएक साली को चींटियों की तरह झाड़ रहा था और फिर से वे चिपट जाती थीं. उर्मिला मुसकरा रही थी और मां व्यर्थ ही उसे बताने का प्रयत्न कर रही थीं कि उसे क्याक्या सावधानी बरतनी चाहिए.

‘‘मां, मैं कल आ कर समझ लूंगी. अभी तो कुछ पल्ले नहीं पड़ रहा है,’’ उर्मिला ने शरमा कर कहा.

‘‘बेटी, कोई लापरवाही नहीं होनी चाहिए. मेरे विचार में तो तुझे अब हमारे पास ही आ कर रहना चाहिए. वहां तेरी देखभाल अच्छी तरह हो जाएगी.’’

‘‘अरे मां, अभी तो बहुत जल्दी है, मैं आ गई तो फिर इन के खाने का क्या होगा?’’

‘‘ओ हो, कितनी पगली है. अरे नरेश भी आ कर हमारे साथ रहेगा.’’

सालियों ने ताली बजा कर इस सुझाव का स्वागत किया, ‘‘जीजाजी हमारे साथ रहेंगे तो कितना मजा आएगा. जीजाजी, सच, अभी चलिए. हम सब सामान बांध देते हैं. बताइए, क्या ले चलना है?’’

नरेश ने दृढ़ता से कहा, ‘‘यह तो संभव नहीं है. अभी बहुत समय है. वैसे देखभाल तो मां को ही करनी है. बीचबीच में आ कर देखती रहेंगी.’’

‘‘जीजाजी, आप बहुत खराब हैं. पर दावत से नहीं बच सकते. क्यों दीदी?’’

‘‘हांहां,’’ उर्मिला ने कहा, ‘‘यह भी कोई बात हुई? क्या खाओगी, बोलो?’’

न सिर्फ फरमाइशों का ढेर लग गया बल्कि यह भी निर्णय ले लिया गया कि सारी सालियां शुक्रवार को ही आ जाएंगी. दिन में घर रहेंगी. दोनों समय का पौष्टिक भोजन करेंगी. रात में रहेंगी और फिर यहीं से शनिवार को पिकनिक के लिए प्रस्थान करेंगी. पिताजी कार ले कर आ जाएंगे.

नरेश की आंखों के आगे अंधेरा छा गया. उस के पास तो एक फूटी कौड़ी भी नहीं बची थी. सारे दिन इन छोकरियों के नखरे कौन उठाएगा?

सब लोग इतना पीछे पड़े कि नरेश को शुक्रवार की छुट्टी लेने के लिए राजी होना पड़ा. फिर एक बार हर्षध्वनि के साथ तालियां बज उठीं. उस ध्वनि में नरेश को ऐसा लगा कि वह एक ऐसा गुब्बारा है जिस में किसी ने सूई चुभो दी है और हवा धीरेधीरे निकल रही है.

रात में भिगोए हुए काले चनों का जब सुबह नरेश नाश्ता कर रहा था तो उर्मिला ने याद दिलाया कि आज शुक्रवार है और छोकरियां आती ही होंगी. अंडे, आइसक्रीम, मुर्गा, बेकन, केक, काजू की बर्फी इत्यादि का प्रबंध करना होगा, तो नरेश ने अपनी पासबुक खोल कर उर्मिला के आगे कर दी.

‘‘क्या मेरी नाक कटवाओगे?’’

‘‘तो फिर पहले सोचना था न?’’

‘‘क्या हम इतने गएगुजरे हो गए कि उन्हें खाना भी नहीं खिला सकते?’’

‘‘खाना खिलाने को कौन मना करता है. पर जश्न मनाने के लिए पास में पैसा भी तो होना चाहिए.’’

‘‘अब इस बार तो कुछ करना ही होगा.’’

‘‘तुम ही बताओ, क्या करूं? उधार लेने की मेरी आदत नहीं. ऐसे कब तक जिंदगी चलेगी?’’

‘‘देखो, कल पिकनिक पर जाना है. कुछ न कुछ तो खर्च होगा ही. अब ऐसे झाड़ कर खड़े हो गए तो मेरी तो बड़ी बदनामी होगी,’’ उर्मिला ने नरेश को अपनी बांहों में लेते हुए कहा, ‘‘मेरी खातिर. सच तुम कितने अच्छे हो.’’

‘‘सुनो, अपना हार दे दो. बेच कर कुछ रुपए लाता हूं.’’

‘‘क्या कह रहे हो? क्या मैं अपना हार बेच दूं?’’

‘‘तो फिर रुपए कहां से लाऊं?’’

‘‘क्या अपने दोस्तों से उधार नहीं ले सकते?’’

‘‘वे सब तो मेरे ऊपर हंसते हैं. और वैसे वे लोग तो दफ्तर में होंगे. मैं कहां जाता फिरूंगा?’’

तभी घंटी बज उठी. दरवाजा खुलने में देर हुई इसलिए बजती रही, बजती रही. सालियां जो ठहरीं.

‘‘लो, आ गईं.’’

फिर वही खिलखिलाहट.

‘‘जीजाजी, आज तो फिल्म देखने चलेंगे. ऐसे नहीं मानेंगे.’’

‘‘क्यों नहीं, फिल्म जरूर देखेंगे.’’

‘‘ठीक है, तो आप फिल्म का टिकट ले कर आइए और हम लोग दीदी को ले कर बाजार जा रहे हैं.’’

चायपानी के बाद जब नरेश जाने लगा तो अकेले में उर्मिला ने कहा, ‘‘सुनो, रुपए जरूर ले आना. मेरे पास मुश्किल से 40 रुपए होंगे, और वे भी मां के दिए हुए. वापस जल्दी आ जाना.’’

‘‘हां, जल्दी आऊंगा,’’ नरेश ने कहा, ‘‘मेरे पास रुपए कहां हैं? टिकट के पैसे भी तो जेब में नहीं हैं, और फिर पिकनिक का खर्चा अलग.’’

‘‘कहा न, इतने बड़े अफसर होते हुए भी ऐसी बात करते हो,’’ उर्मिला ने कहा.

‘‘ठीक है, जाता हूं, पर संन्यास ले कर लौटूंगा.’’

नरेश चला तो गया, पर सोचने लगा कि इस ‘चंद्रकांता संतति’ पर कहीं न कहीं पूर्णविराम लगाना ही होगा.

कुछ देर भटक कर वह वापस आ गया. देखा तो चौकड़ी पहले से ही घर में बैठी हुई थी और सब का मुंह लटका हुआ था. उन को देखते ही नरेश ने भी अपना मुंह और लटका लिया.

‘‘क्या हुआ, जीजाजी? आप को क्या हुआ?’’

‘‘बहुत बुरा हुआ. कुछ कहने योग्य बात नहीं है. पर तुम लोगों का मुंह क्यों लटका हुआ है? तुम लोग तो खानेपीने का सामान लेने गई थीं न?’’

‘‘हां, गए तो थे, पर दीदी के पर्स में रुपए ही नहीं थे. सारा सामान खरीदा हुआ दुकान पर ही छोड़ कर आना पड़ा. आप कैसे हैं, जीजाजी? पत्नी को घरखर्च का रुपया भी नहीं देते?’’

‘‘लो, यह तो ‘उलटा चोर कोतवाल को डांटे’ वाली बात हो गई. अरे, मैं तो सारा वेतन तुम्हारी दीदी के हाथ में रख देता हूं. मेरे पास तो सिनेमा के टिकट खरीदने के भी पैसे नहीं थे. जल्दीजल्दी में मांगना भूल गया था, सो रास्ते से ही लौट आया.’’

‘‘तो क्या आप टिकट नहीं लाए?’’

‘‘क्या करूं, उधार टिकट मांगने की हिम्मत नहीं हुई, पर मैं ने तसल्ली के लिए एक काम किया है.’’

‘‘हाय जीजाजी, हम आप से नहीं बोलते.’’

उर्मिला ने कहा, ‘‘पर पूछो तो सही क्या लाए हैं?’’

औपचारिकता के लिए छोटी ने पूछा, ‘‘आप क्या लाए हैं, जीजाजी?’’

जेब में से 4 पुस्तिकाएं निकालते हुए नरेश ने कहा, ‘‘सिनेमा के बाहर 50 पैसे में फिल्म के गानों की यह किताब बिक रही थी. मैं ने सोचा कि फिल्म न सही, उस की किताब ही सही. लो, आपस में एकएक बांट लो.’’

जब किसी ने भी किताब न ली तो नरेश आराम से सोफे पर पैर फैला कर बैठ गया और हंसहंस कर किताब जोरजोर से पढ़ कर सुनाने लगा और जहां गाने आए वहां अपनी खरखरी आवाज में गा कर पढ़ने लगा. एक समय आया जब सालियों से भी हंसे बिना नहीं रहा गया.

उर्मिला ने किताब हाथ से छीनते हुए कहा, ‘‘अब बंद भी करो यह गर्दभ राग. कुछ खाने का ही बंदोबस्त करो.’’

‘‘बोलो, हुक्म करो. बंदा हाजिर है. बिरयानी, चिकनपुलाव, कोरमा, पनीर, कोफ्ते, शामी कबाब, सींक कबाब, मुगलई परांठे, मखनी तंदूरी मुर्गा?’’

‘‘बस भी करो, जीजाजी, पता लग गया कि आप वही हैं कि थोथा चना बाजे घना. मैं तो 2 दिन से उपवास किए बैठी थी. लगता है सूखा चना भी नहीं मिलेगा.’’

‘‘भई, सूखा चना तो जरूर मिलेगा.  क्यों, उर्मिला? बस, तो फिर आज चना पार्टी ही हो जाए. जरा टटोलो बटुआ अपना, कहीं उस के लिए भी चंदा इकट्ठा न करना पड़ जाए.’’

बड़ी साली ने कहा, ‘‘अच्छा, दीदी, हम चलते हैं. कल ही आएंगे. तैयार रहना.’’

‘‘नहींनहीं, ऐसे कैसे जाओगी. कुछ तो खा के जाओ. जरा बैठो, कुछ न कुछ तो खाना बन ही जाएगा. बात यह है कि सारी गलती मेरी है. वेतन तो तुम्हारे जीजाजी सब मेरे हाथ में देते हैं, पर मैं झूठी शान में सारा एक ही सप्ताह में खर्च कर देती हूं. अब कब तक तुम से छिपाऊंगी.’’

‘‘नहीं, दीदी, थोड़ी गलती तो हमारी भी है. हमें भी तुम्हारे साथ मिलबैठ कर आनंद लेना चाहिए. तुम्हारे ऊपर बोझ नहीं बनना चाहिए,’’ बड़ी ने कहा.

छोटी ने शैतानी से कहा, ‘‘देखा, दीदी, नंबर 2 कितनी चालाक हैं. अपना रास्ता पहले ही साफ कर लिया कि कोई हम में से जा कर उस के ऊपर बोझ न बने.’’

नरेश ने हंसते हुए कहा, ‘‘तो फिर अब जब पोल खुल गई है तो सिनेमा देखने के लिए तैयार हो जाओ.’’

और फिर जो चीखपुकार मची तो लगा सारा महल्ला सिर पर उठा लिया है. टिकट बालकनी के नहीं, पहले दरजे के थे, जिस पर किसी को आपत्ति नहीं हुई. फिल्म देखने के बाद नरेश उन्हें ढाबे में तंदूरी रोटी और दाल खिलाने ले गया. वह भी सब ने बहुत मजे से पेट भर कर खाया.

 

अमूल्य धरोहर : क्या बच पाई रवि बाबू की कुर्सी

धुंधली तस्वीरें – भाग 1: क्या बेटे की खुशहाल जिंदगी देखने की उन की लालसा पूरी हुई

सुभद्रा देवी अकेली बैठी कुछ सोच रही थीं कि अचानक सुमि की आवाज आई, ‘‘बूआजी.’’

पलट कर देखा तो सुमि ही खड़ी थी. अपने दोनों हाथ पीछे किए मुसकरा रही थी.

‘‘क्या है री, बड़ी खुश नजर आ रही है?’’

‘‘हां, बूआजी, मुंह मीठा कराइए तो एक चीज दूं.’’

‘‘अब बोल भी, पहेलियां न बुझा.’’

‘‘ऊंह, पहले मिठाई,’’ सुमि मचल उठी.

‘‘तो जा, फ्रिज खोल कर निकाल ले, गुलाबजामुन धरे हैं.’’

‘‘ऐसे नहीं, अपने हाथ से खिलाइए, बूआजी,’’ 10 वर्ष की सुमि उम्र के हिसाब से कुछ अधिक ही चंचल थी.

‘‘अब तू ऐसे नहीं मानेगी,’’ वे उठने लगीं तो सुमि ने खिलखिलाते हुए एक भारी सा लिफाफा बढ़ा दिया उन की ओर, ‘‘यह लीजिए, बूआजी. अमेरिका से आया है, जरूर विकी के फोटो होंगे.’’

उन्होंने लपक कर लिफाफा ले लिया, ‘‘बड़ी शरारती हो गई है तू. लगता है, अब तेरी मां से शिकायत करनी पड़ेगी.’’

‘‘मैं गुलाबजामुन ले लूं?’’

‘‘हांहां, तेरे लिए ही तो मंगवा कर रखे हैं,’’ उन्होंने जल्दीजल्दी लिफाफा खोलते हुए कहा.

उन के एकाकी जीवन में एक सुमि ही तो थी जो जबतब आ कर हंसी बिखेर जाती. मकान का निचला हिस्सा उन्होंने किराए पर उठा दिया था, अपने ही कालेज की एक लेक्चरर उमा को. सुमि उन्हीं की बेटी थी. दोनों पतिपत्नी उन का बहुत खयाल रखते थे. उमा के पति तो उन्हें अपनी बड़ी बहन की तरह मानते थे और ‘दीदी’ कहा करते थे. इसी नाते सुमि उन्हें बूआ कहा करती थी.

लिफाफे में विकी के ही फोटो थे. वह अब चलने लगा था. ट्राइसाइकिल पर बैठ कर हाथ हिला रहा था. पार्क में फूलों के बीच खड़ा विकी बहुत सुंदर लग रहा था. उस के जन्म के समय जब वे न्यूयार्क गई थीं, हर घड़ी उसे छाती से लगाए रहतीं. लिंडा अकसर शिकायत करती, ‘आप इस की आदतें बिगाड़ देंगी. यहां बच्चे को गोद में लेने को समय ही किस के पास है? हम काम करने वाले लोग…बच्चे को गोद में ले कर बैठें तो काम कैसे चलेगा भला?’

विक्रम का भी यही कहना था, ‘हां, मां, लिंडा ठीक कहती है. तुम उस की आदतें मत खराब करो. तुम तो कुछ दिनों बाद चली जाओगी, फिर कौन संभालेगा इसे? झूले में डाल दो, पड़ा झूलता रहेगा.’ विक्रम खुद ही विकी को झूले में डाल कर चाबी भर देता, ‘अब झूलने दो इसे, ऐसे ही सो जाएगा.’

गोलमटोल विकी को देख कर उन का मन करता कि उसे हर घड़ी गोद में ले कर निहारती रहें, फिर जाने कब देखने को मिले. जन्म के दूसरे दिन जब नामकरण की समस्या उठी तो विक्रम ने कहा, ‘नाम तो अम्मा तुम ही रखो, कोई सुंदर सा.’

और तब खूब सोचसमझ कर उन्होंने नाम चुना था, ‘विवेक.’ ‘विवेक बन कर हमेशा तुम लोगों को राह दिखाता रहेगा.’

विक्रम हंसने लगा था, ‘खूब कहा मां, हमारे बीच विवेक की ही तो कमी है. जबतब बिना बात के ही ठन जाती है आपस में.’

‘और क्या, अब इस तरह लड़नाझगड़ना बंद करो. वरना बच्चे पर बुरा असर पड़ेगा.’

पूरे 5 वर्ष हो गए थे विक्रम का विवाह हुए. इंजीनियरिंग की डिगरी लेने के बाद अमेरिका गया एमटेक करने तो वहीं रह गया.

पत्र में लिखा था, ‘यहां अच्छी नौकरी मिल गई है, मां. यहां रह कर मैं हर साल भारत आ सकता हूं, तुम से मिलने के लिए. वहां की कमाई में क्या रखा है. घुटघुट कर जीना, जरूरी चीजों के लिए भी तरसते रहना.’

उस का पत्र पढ़ कर जवाब में सुभद्रा देवी लिख नहीं सकीं कि हां बेटे, वहां हर बात का आराम तो है पर अपना देश अपना ही होता है.

उन्हें लगा कि आजकल सिद्धांत की बातें भला कौन सुनता है. इस भौतिकवादी युग में तो बस सब को सिर्फ पैसा चाहिए, आराम और सुख चाहिए. देश के लिए प्यार और कुरबानी तो गए जमाने की बातें हो गईं.

 

हम शर्मिंदा हैं उजरिया -भाग 2

तो अभय सिंह का मन थोड़ा खिन्न हो गया. उस ने ध्यान हटाया और तेज आवाज में बोला, ‘‘खाना तो अच्छा बनाती हो. किस महल्ले में रहती हो?’’ ‘‘जी, गोमती पुल के नीचे वाली बस्ती में,’’ उजरिया धीरे से बोली. ‘‘गोमती पुल के नीचे वाली बस्ती में… पर वहां तो सब मलिन लोग रहते हैं,’’ अभय सिंह ने जल्दीजल्दी खाना खाते हुए कहा. उजरिया उस की बात सुन कर चुप रही और नीचे देखने लगी. ‘‘ठीक है… कोई बात नहीं… जहां भी रहती हो, पर कल से थोड़ा नहाधो कर और चंदन का टीका लगा कर आना… ठाकुरब्राह्मण हो तो दिखना भी तो चाहिए न… लो, हम तो बातोंबातों में तुम्हारी जाति पूछना तो भूल ही गए. ठाकुर हो कि ब्राह्मण?’’ अभय सिंह ने सवाल किया, पर उस का जवाब देने के बजाय उजरिया चुप रही. ‘‘अरे, कौन जात हो… बताओ तो सही?’’ अभय सिंह तेज आवाज में बोला. ‘‘जी, हम जात से खटीक हैं. खाना बनाना सीख लिए हैं,’’ उजरिया के गले से बड़ी मुश्किल से इतनी बात निकली. यह सुनते ही जैसे अभय सिंह को करंट लग गया, ‘‘आक… थू…’

’ अभय सिंह ने मुंह में भरा हुआ सारा दालचावल बाहर की ओर थूक दिया. उस के चेहरे पर नफरत झलक रही थी और उस की आंखों से गुस्से की चिनगारियां निकल रही थीं. उस ने चिल्लाना शुरू कर दिया, ‘‘नीच जात हो कर हमें अपने हाथ का खाना बना कर खिलाती है… हमारा धर्म खराब करना चाहती है…’’ और खाने की थाली उजरिया की तरफ फेंक दी. पलभर में सभी लड़कों ने खाने की थाली नीचे फेंक दीं. ‘‘क्या रे वार्डन, तू भी इस औरत के साथ मिला है. हम को नीच जात के हाथ का खाना खिलाना चाह रहा था तू…’’ अभय सिंह ने लपक कर वार्डन का गरीबान पकड़ लिया. वार्डन ने अभय सिंह से झूठ बोल दिया कि उसे उजरिया ने अपनी जात सवर्ण ही बताई थी. अभय सिंह ने वार्डन का गरीबान छोड़ दिया और गुजरिया की ओर लपका. पंकज तिवारी भी अपनी थाली फेंक कर उजरिया की तरफ बढ़ चला था. दोनों दोस्तों की आंखें एकदूसरे से मिलीं और पंकज तिवारी ने अभय सिंह से कहा, ‘‘इस ने हम से झूठ बोल कर हमारा धर्म खराब किया है… इसे सजा तो देनी ही पड़ेगी… वही सजा, जो हमारे पिताजी गांव की औरतों को दिया करते हैं…’’

इतना कह कर पंकज तिवारी ने आगे बढ़ कर उजरिया की साड़ी का एक कोना पकड़ा और उसे उजरिया के तन से अलग करने लगा. उजरिया ने इस का विरोध किया. वह रोनेगिड़गिड़ाने लगी, पर पंकज पर उस के रोने का कोई असर नहीं हुआ. अभय सिंह और उस के सभी दोस्त एक दलित औरत के हाथ का बना खाना खा कर अपनेआप को दूषित महसूस कर रहे थे और मैस में दूसरे छात्रों के सामने अपनी बेइज्जती का बदला उजरिया से लेने के लिए उसे नंगा कर के बाहर सब के सामने घुमाना चाहते थे, जिस से बाकी छात्रों के सामने उन की धर्मांधता और कट्टरता साबित हो जाती और सवर्ण छात्रों के बीच अभय सिंह का दबदबा और भी बढ़ जाता. अभय सिंह मंडली की इस हरकत को वहां पर बैठे हुए डिमैलो ग्रुप के कुछ समर्थक छात्र भी देख रहे थे. उन लोगों की कुछ इनसानियत जागी, तो उन में से एक ने उजरिया को अभय के चंगुल से बचाते हुए अलग किया और जमीन पर पड़ी हुई उस की साड़ी पहनने को दी, जिसे उजरिया ने तुरंत ही अपने तन से लपेटना शुरू कर दिया.

‘‘तुम लोग बीच में मत आओ. हम ऊंची जाति वाले हैं, किसी नीच के हाथ का बना खाना नहीं खाते,’’ अभय सिंह नफरत भरे अंदाज में बोल रहा था. ‘‘नीच के हाथ का खाना खा नहीं सकते, पर नीच औरत को चाटने में तो तुम लोगों को बहुत मजा आता है न…’’ उजरिया का सब्र जवाब दे चुका था और विद्रोह की चिनगारी उस की आंखों में साफ नजर आ रही थी. उजरिया को इस तरह विद्रोह करता देख कर डिमैलो ग्रुप के लोगों ने उजरिया को और उकसाना शुरू कर दिया. एक लड़के ने पूछा, ‘‘तुम्हारे कहने का क्या मतलब है? खुल कर कहो… हमारे होते हुए तुम्हारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता.’’ उन लड़कों की शह पा कर उजरिया ने आगे बोलना शुरू किया, ‘‘ये लोग जो बड़े ऊंची जाति के बनते हैं और हमारे हाथ का बना खाना खाने से इनकार करते हैं, ये सिर्फ बहुरुपिए हैं, जो शराफत का चोला ओढ़ कर रात के अंधेरे में दलित लड़कियों के साथ मुंह काला करते हैं, तब इन का जाति का बड़ापन कहां चला जाता है…’’ कहे जा रही थी उजरिया. ‘‘ऐ…

क्या बके जा रही है…’’ हरीश सिंह हुनक कर बोला, तो उसे डिमैलो ग्रुप के एक तेजतर्रार लड़के ने चुप करा दिया और उजरिया को अपनी बात जारी रखने के लिए कहा. उजरिया ने अपनी बात आगे कहते हुए बताया, ‘‘गोमती नदी के पुल के नीचे जो मलिन लोगों की बस्ती है, वहां पर सभी लोग बेहद गरीब हैं और अपनी रोजीरोटी के लिए मेहनतमजदूरी करते हैं. वहां रहने वाली अनेक लड़कियां, जो अच्छी पढ़ाईलिखाई की कमी में कुछ नहीं कर पाती हैं, वे अपना जिस्म बेचने के लिए मजबूर हैं. ‘‘बस्ती में बहते हुए नाले को पार करने के बाद एक छोटा सा होटल है, जिस के पीछे के कमरे में सैक्स का धंधा होता है, जिस में काम करने वाली लड़कियां इसी मलिन बस्ती की हैं, जबकि वहां पर आने वाले कस्टमर ज्यादातर ऊंची जाति वाले लोग होते हैं. ‘‘अभी परसों ही ये तीनों भी उसी होटल के कमरे में थे और इन लोगों ने पहले तो एक दलित लड़की के साथ बारीबारी से मुंह काला किया और उस के बाद भी उन का मन नहीं भरा, तो इन तीनों ने उस बेचारी के साथ एकसाथ बहुत बुरा काम किया. ‘‘ये उस लड़की के जिस्म के हर हिस्से को अपनी जीभ से चाट रहे थे और चूम रहे थे,

बगैर इस बात की परवाह किए कि वह किस जाति या किस धर्म की है. ‘‘खाना खाते समय इन लोगों का यह जानना बहुत जरूरी हो जाता है कि उसे पकाने वाली औरत किस जाति की है, पर यह बात किसी के साथ रंगरलियां मनाने से पहले क्यों नहीं सोचते? दलित औरत के हाथ का भोजन नहीं खा सकते, पर दलित औरत के जिस्म को भोगते समय इन का ऊंचापन कहां चला जाता है?’’ उजरिया की ये बातें सुन कर अभय सिंह मंडली के होश उड़ने लगे, तो उन्होंने उसे डांट कर चुप कराना चाहा, पर डिमैलो ग्रुप के लड़कों को बहुत मजा आ रहा था. उन्होंने उजरिया को अपनी बात जारी रखने के लिए कहा. उजरिया काफी गुस्से में लग रही थी. उस ने अभय सिंह की तरफ इशारा करते हुए आगे कहना शुरू किया, ‘‘आज ये वाले साहब… जो ऊंची जाति वाले बनने का ढिंढोरा पीट रहे हैं, उस दिन उस होटल के कमरे में लड़की के पैरों को अपनी जीभ से चाट रहे थे और बीचबीच में उस के मुंह के अंदर अपनी जबान डालने से भी बाज नहीं आ रहे थे…’’ उजरिया ने पंकज की तरफ उंगली दिखाते हुए कहा, ‘‘ये जो दूसरे वाले हैं, ये शायद शराब के बहुत शौकीन हैं, तभी तो उस दलित लड़की के नंगे जिस्म और सीने पर बारबार शराब फेंकते और जब वह शराब फिसल कर उस लड़की के जिस्म के निचले हिस्से में आती, तो ये अपने मुंह से उस शराब को चाटते और फिर मस्त हो जाते…’’

अभय सिंह, पंकज तिवारी और हरीश सिंह को बहुत गुस्सा आ रहा था और शर्म भी… भला इस उजरिया को उन सब की करतूतों के बारे में कैसे पता चल गया और वह भी सबकुछ ऐसे बयान कर रही है, जैसे इस ने अपनी आंखों से देखा हो. ‘‘आगे के कुछ और सीन तो बताओ न…’’ डिमैलो ग्रुप में से एक शोहदा सिसकी भरते हुए बोला. उजरिया ने आगे कहा, ‘‘फिर क्या था, ये तीनों उस अकेली लड़की के हर हिस्से को चूमतेचाटते रहे और उस के जिस्म को तब तक भोगते रहे, जब तक इन के शरीर ने इन का साथ देना नहीं छोड़ दिया.’’ अभय सिंह का गुस्सा उजरिया की बातें सुन कर रफूचक्कर हो चुका था और अब उस की जगह बेशर्मी ने ले ली थी. उस ने दावा किया कि अगर वह कोठे पर जाता है या किसी होटल में किसी लड़की के साथ रंगरलियां मनाता है, तो इस में बुरा ही क्या है? आखिर वह उन लड़कियों को उन के जिस्म की कीमत देता है और फिर वह उन लड़कियों को जबरदस्ती तो वहां नहीं लाता, वे सब तो अपनी मरजी से ही वहां आती हैं. ‘‘मरजी नहीं, वे अपनी मजबूरी से वहां आती हैं और अपना जिस्म बेचती हैं,’’ उजरिया ने हताश भाव से कहा. ‘‘पर, यह सब तुम्हें कैसे पता? और तुम्हारे बताने के ढंग से ऐसा लग रहा है कि जैसे तुम खुद एक धंधे वाली हो और उस होटल के कमरे में जाती रही हो?’’ पंकज तिवारी ने बड़ी मुश्किल से अपना सवाल किया,

 

साथ साथ: कौन-सी अनहोनी हुई थी रुखसाना और रज्जाक के साथ

धुंधली तस्वीरें – भाग 2 : क्या बेटे की खुशहाल जिंदगी देखने की उन की लालसा पूरी हुई

उन्होंने लिख दिया, ‘बेटे, तुम खुद समझदार हो. मुझे पूरा विश्वास है, जो भी करोगे, खूब सोचसमझ कर करोगे. अगर वहां रहने में ही तुम्हारी भलाई है तो वहीं रहो. लेकिन शादीब्याह कर अपनी गृहस्थी बसा लो. लड़की वाले हमेशा चक्कर लगाया करते हैं. तुम लिखो तो दोचार तसवीरें भेजूं. तुम्हें जो पसंद आए, अपनी राय दो तो बात पक्की कर दूं. आ कर शादी कर लो. मैं भी अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाऊंगी.’

बहुत दिनों तक विक्रम ब्याह की बात टालता रहा. आखिर जब सुभद्रा देवी ने बहुत दबाव डाला तो लिखा उस ने, ‘मैं ने यहीं एक लड़की देख ली है, मां. यहीं शादी करना चाहता हूं. लड़की अच्छे परिवार की है, उस के पिता यहां एक प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं. अगर तुम्हें एतराज न हो तो…बात कुछ ऐसी है न मां, जब यहां रहना है तो भारतीय लड़की के साथ निभाने में कठिनाई हो सकती है. यहां की संस्कृति बिलकुल भिन्न है. लिंडा एक अच्छी लड़की है. तुम किसी बात की चिंता मत करना.’

पत्र पढ़ कर वे सहसा समझ नहीं पाईं कि खुश हों या रोएं. नहीं, रोएं भी क्यों भला? उन्होंने तुरंत अपने को संयत कर लिया, विक्रम शादी कर रहा है. यह तो खुशी की बात है. हर मां यही तो चाहती है कि संतान खुश रहे.

बेटे की खुशी के सिवा और उन्हें चाहिए भी क्या? जब त्रिपुरारि बाबू का निधन हुआ तब विक्रम हाई स्कूल में था. नीमा भी अविवाहित थी, तब कालेज में लेक्चरर थी, अब तो रीडर हो गई है. बच्चों पर कभी बोझ नहीं बनीं, बल्कि उन्हें ही देती रहीं. अब इस मौके पर भी विक्रम को खुशी देने में वे कृपण क्यों हों भला.

खुले दिल से लिख दिया, बिना किसी शिकवाशिकायत के, ‘बेटे, जिस में तुम्हें खुशी मिले, वही करो. मुझे कोई एतराज नहीं बल्कि मैं तो कहूंगी कि यहीं आ कर शादी करो, मुझे अधिक खुशी होगी. परिवार के सब लोग शामिल होंगे.’

पर लिंडा इस के लिए राजी नहीं हुई. वह तो भारत आना भी नहीं चाहती थी. विक्रम के बारबार आग्रह करने पर कहीं जा कर तैयार हुई.

कुल 15 दिनों के लिए आए थे वे लोग. सुभद्रा देवी की खुशी की कोई सीमा नहीं थी, सिरआंखों पर रखा उन्हें. पूरा परिवार इकट्ठा हुआ था इस खुशी के अवसर पर. सब ने लिंडा को उपहार दिए.

कैसे हंसीखुशी में 10 दिन बीत गए, किसी को पता ही नहीं चला. घर में हर घड़ी गहमागहमी छाई रहती. लेकिन इस दौरान लिंडा उदास ही रही. उसे यह सब बिलकुल पसंद नहीं था.

उस ने विक्रम से कहा भी, ‘न हो तो किसी होटल में चले चलो, यहां तो दिनभर लोगों का आनाजाना लगा रहता है. वहां कम से कम अपने समय पर अपना तो अधिकार होगा.’

आखिर भारत दर्शन के बहाने विक्रम किसी तरह निकल सका घर से. 4-5 दिन दिल्ली, आगरा, लखनऊ घूमने के बाद वे लोग लौट आए थे.

एक दिन लिंडा ने हंसते हुए कहा, ‘सुना था तुम्हारा देश सिर्फ साधुओं और सांपों का देश है. ऐसा ही पढ़ा था कहीं. पर साधु तो दिखे दोएक, लेकिन सांप एक भी नहीं दिखा. वैसे भी अब सांप रहे भी तो कहां, तुम्हारे देश में तो सिर्फ आदमी ही आदमी हैं. जिधर देखो, उधर नरमुंड. वाकई काबिलेतारीफ है तुम्हारा देश भी, जिस के पास इतनी बड़ी जनशक्ति है वह तरक्की में इतना पीछे क्यों है भला?’

विक्रम कट कर रह गया. कोई जवाब नहीं सूझा उसे. लिंडा ने कुछ गलत तो कहा नहीं था.

‘मैं तो भई, इस तरह जनसंख्या बढ़ाने में विश्वास नहीं रखती,’ एक दिन लिंडा ने यह कहा तो विक्रम चौंक पड़ा, ‘क्या मतलब?’

‘मतलब कुछ खास नहीं. अभी कुछ दिन मौजमस्ती में गुजार लें. दुनिया की सैर कर लें, फिर परिवार बढ़ाने की बात भी सोच लेंगे.’

विक्रम मुसकराया, ‘आखिर परिवार की बात तुम्हारे दिमाग में आई तो. कुछ दिनों बाद तुम खुद महसूस करोगी, हमारे बीच एक तीसरा तो होना ही चाहिए.’

ब्याह के पूरे 4 वर्ष बाद वह स्थिति आई. विक्रम के उत्साह का ठिकाना नहीं था. मां को पहले ही लिख दिया, ‘तुम कालेज से छुट्टियां ले लेना, मां. इस बार कोई बहाना नहीं चलेगा. ऐसे समय तुम्हारा यहां रहना बहुत जरूरी है, मैं टिकट भेज दूंगा. आने की तैयारी अभी से करो.’

इस के पहले भी कई बार बुलाया था विक्रम ने, पर वे हमेशा कोई न कोई बहाना बना कर टालती रही थीं. इस बार तो वे खुद जाने को उत्सुक थीं, ‘भला अकेली बहू बेचारी क्याक्या करेगी. घर में कोई तो होना चाहिए उस की मदद के लिए, बच्चे की सारसंभाल के लिए,’ सब से कहती फिरतीं.

अमेरिका चली तो गईं पर वहां पहुंच कर उन्हें ऐसा लगा कि लिंडा को उन की बिलकुल जरूरत नहीं. मां बनने की सारी तैयारी उस ने खुद ही कर ली थी. उन से किसी बात में राय भी नहीं ली. विक्रम ने बताया, ‘यहां मां बनने वाली महिलाओं के लिए कक्षाएं होती हैं, मां. बच्चा पालने के सारे तरीके सिखाए जाते हैं. लिंडा भी कक्षाओं में जाती रही है.’

लिंडा पूरे 6 दिन अस्पताल में रही. पोता होने की खुशी से सराबोर सुभद्रा देवी के अचरज का तब ठिकाना न रहा जब विक्रम ने बताया, ‘यहां पति के सिवा और किसी को अस्पताल में जाने की इजाजत नहीं, मां. मुलाकात के समय चल कर तुम बच्चे को देख लेना.’

बड़ी मुश्किल से तीसरे दिन दादीमां होने के नाते उन्हें दिन में अस्पताल में रहने की इजाजत मिली. लेकिन वे एक दिन में ही ऊब गईं वहां से. लिंडा को उन की कोई जरूरत नहीं थी और बच्चा तो दूसरे कमरे में था नर्सों की देखभाल में.

लिंडा घर आई तो उन्होंने भरसक उस की सेवा की थी. सुबहसुबह अपने हाथों से कौफी बना कर देतीं. बचपन से मांसमछली कभी छुआ नहीं था, खाना तो दूर की बात थी, पर वहां लिंडा के लिए रोज ही कभी आमलेट बनातीं तो कभी चिकन बर्गर.

काम से फुरसत मिलते ही वे विकी को गोद में उठा लेतीं और मन ही मन गुनगुनाते हुए उस की बलैया लिया करतीं.

 

बिगड़ी लड़की : अजय से ड्राइविंग के बारे में कौन पूछ रहा था – भाग 1

बिगड़ी लड़की शाम हो चुकी थी. बारिश कुछ देर पहले ही रुकी थी. फिर भी दूर या आसपास कहींकहीं बिजली कौंध जाती थी. अजय यों ही टहलने के लिए सड़क पर निकल आया था. घाटियों से उठते बादल नजदीक से गुजर कर जाने कहां इकट्ठा हो रहे थे. लेकिन अजय इस बात से बेखबर था और यहां के माहौल से अनजान भी. इस इलाके में वह दोपहर में ही आया था. आते ही उसे रहने लायक एक जगह मिल गई थी. अजय यहां नौकरी और नए काम के जुगाड़ के लिए आया था.

इस इलाके के बहुत दूर छोटे से गांव में बूढ़े मांबाप और 3 छोटी बहनों को छोड़ कर वह यहां चला आया था. बूढ़े बाप ने साहूकार से कर्जा ले कर जैसेतैसे उसे बीकौम कराया था. अजय ने 2 साल पहले अपने गांव की सुनसान सड़क पर एक तनेजा सेठ को गुंडों से बचाया था, जो रुपए ले कर जमीन खरीदने गांव आए थे. रुपए के लालच में वे गुंडे शायद तनेजा सेठ का खून भी कर देते, लेकिन ऐन मौके पर वहां पहुंच कर अजय ने उन्हें बचा लिया था. सेठजी ने एहसान से भर कर 5,000 रुपए उसे देने चाहे, लेकिन उस ने साफ मना कर दिया और कहा, ‘‘हो सके, तो मुझे कुछ काम दे दीजिएगा.’’ तब सेठजी ने अजय को अपना विजिटिंग कार्ड दे कर कहा था कि कभी जरूरत पड़े तो बेझिझक चले आना.

बीकौम कर लेने के बाद अजय ने अपने दोस्त के यहां ड्राइवरी भी सीख ली थी और साथ ही मेकैनिक भी बन गया था. नौकरी तो उसे कई मिल रही थीं, लेकिन वह शहर जा कर कुछ बड़ा काम करना चाहता था. अजय अपने गांव से इतनी दूर तनेजा सेठजी के पास एक उम्मीद ले कर आया था. अजय यह सब सोचते और टहलते हुए काफी दूर निकल गया. एक जगह खाना खाने वह चला गया. तब फिर से बारिश शुरू हो गई. बारिश के रुकने का उसे इंतजार करना पड़ा. तकरीबन 10 बजे जब फूड कौर्नर बंद होने लगा, तो उसे भी उठना पड़ा. उस ने सूती पैंट, सूती कमीज और नीला ब्लेजर पहन रखा था. वह अपने ब्लेजर को भिगोना नहीं चाहता था, क्योंकि यही पहन कर कल उसे तनेजा सेठजी के पास जाना था. बारिश के रुकने तक अजय एक छज्जे के नीचे खड़ा रहा. 12 बजे बारिश रुकी, तो लंबेलंबे डग भरते हुए वह अपने रहने की जगह चल पड़ा. अचानक उसे पीछे से कोई रोशनी आती दिखाई पड़ी. उस ने पलट कर देखा तो, एक कार उस की ओर टेढ़ीमेढ़ी चली आ रही थी. कार की रफ्तार काफी तेज थी.

फिर भी रास्ते में उसे खड़ा देख कर नजदीक आतेआते वह रुक गई. सफेद लंबी कार थी. उस ने झटपट चालक के नजदीक आ कर देखा. उस कार की खिड़की का शीशा नीचे खिसका, तो वह अचानक चिहुंक गया. आवाज उस के हलक में ही फंस गई. देखा कि गाड़ी में एक सुंदर और जवान लड़की बैठी थी. अंधेरे में भी उस का मुखड़ा चांद की तरह चमक रहा था. उस से पहले कि वह लड़की से कुछ कहता, उस ने शीशा चढ़ा लिया और गाड़ी आगे बढ़ा ली. तभी अजय ने देखा कि कुछ दूरी पर जा कर कार रुक गई और फिर बैक कर के उस की ओर वापस आने लगी. शायद उस लड़की को उस पर दया आ गई है. कार उस के पास आ कर रुकी, खिड़की का शीशा खुला और लड़की ने कहा, ‘‘आप ड्राइविंग जानते हैं?’’ ‘‘हां, बहुत अच्छी तरह से,’’ अजय बोला. ‘‘तो क्या यह गियरलैस गाड़ी चला लोगे?’’ लड़की ने पूछा.

उस की ऊंची आवाज से लग रहा था कि वह नशे में है. उस के हां करने पर लड़की साइड की सीट पर चली गई और कहा, ‘‘गाड़ी चलाओ.’’ वह कार में बैठ गया. जिंदगी में पहली बार वह ऐसी गाड़ी में बैठा था. कार के अंदर लड़की के आसपास इत्र की महक फैली हुई थी. अजय अपने छोटेपन के चलते उसे आंख भर देख भी नहीं सका. लड़की ने बताया, ‘‘मुझे कुछ दोस्तों ने पिला दी है और मुझ से गाड़ी नहीं चल रही. प्लीज, चला दो.’’

हम शर्मिंदा हैं उजरिया -भाग 1

6 फुट का 30 साल का नौजवान… तगड़ा बदन और बड़ीबड़ी गोल आंखें. अपने पीछे आवारा लड़कों की मंडली ले कर घूमना और कैंपस में किसी भी छात्रा पर फब्तियां कसना उस का पसंदीदा काम था. अभय सिंह पिछले कई सालों से यूनिवर्सिटी की राजनीति में पैर पसारने की कोशिश कर रहा था, क्योंकि लखनऊ यूनिवर्सिटी छात्र संघ के अध्यक्ष पद का चुनाव जीतने वाला छात्र सीधे प्रदेश की राजनीति में दखल रख सकता था

और इस से राजनीतिक कैरियर को एक दिशा मिल सकती थी और इसीलिए नाम के लिए ही सही, अपनी पढ़ाई जारी रखना ऐसे छात्रों को अच्छी तरह आता था. अभय सिंह, पंकज तिवारी और हरीश सिंह तीनों पक्के दोस्त थे और ‘प्रयाग’ होस्टल में एकसाथ रहते थे. अभय सिंह गोरखपुर शहर के एक गांव सूरजगढ़ का रहने वाला था. उस के पिता गांव में प्रधान थे. लिहाजा, उन की भी राजनीतिक इच्छाएं कम न थीं और वे चाहते थे कि उन का बेटा आगे बढ़ कर राजनीति में कैरियर बनाए. छात्र संघ चुनाव के लिए जाति के नाम पर छात्रों को बांटना अभय सिंह जैसे छात्र नेताओं का प्रमुख हथियार था. हालांकि, छात्राएं जाति के नाम पर वोट न दे कर एक बेहतर और साफसुथरी इमेज वाले छात्र नेता को वोट देना पसंद करती थीं. अभय सिंह अपनेआप को एक हिंदूवादी कट्टर नेता के रूप में पेश करता था. लाल रंग का कुरता और माथे पर एक लंबा टीका उस की पहचान थी.

कैंपस में पिछले कुछ समय से एक नई लहर सी चल पड़ी थी या यह अभय सिंह की एक नई चाल थी कि वह सवर्णों के साथसाथ दलित छात्रों को भी अपनी मंडली में शामिल करने की जुगत में लगा हुआ था. दूसरी तरफ कैंपस में छात्र नेताओं का एक और ग्रुप था, जिसे ‘डिमैलो ग्रुप’ के नाम से जाना जाता था और उन छात्रों का नेता सिल्बी डिमैलो था. अभय सिंह और सिल्बी डिमैलो में छात्रों के वोट पाने की लड़ाई थी और उन दोनों गुटों में शीत युद्ध चलता ही रहता था और दोनों मंडली के लोगों के बीच मनमुटाव की खबरें आएदिन आती रहती थीं, पर उन में कभी आमनेसामने की लड़ाई नहीं हुई थी. रात के 9 बजे का समय था. अभय सिंह और उस की मंडली के 8-10 लोग अपने होस्टल के कमरे से निकल कर कुछ दूरी पर बने मैस में खाना खाने जा रहे थे. ‘‘क्या भैया, आप सवर्णों के नेता बने फिरते हो और फिर भी आजकल दलित लड़कों को अपने साथ ले कर क्यों घूम रहे हो?’

’ अभय सिंह के तलवे चाटने वाले एक लड़के ने सवाल किया, तो अभय सिंह ने अपनी आंखें उस लड़के पर टिका दीं और जवाब में सिर्फ मुसकराते हुए कहने लगा, ‘‘यह सब राजनीतिक चालबाजी है बबुआ, तुम जरा भी नहीं समझोगे… हिंदूमुसलमान को लड़ाने के अलावा इन दलितों को भी राजनीति में इस्तेमाल किया जाता है…’’ अभय सिंह की इस बात पर उस के साथ के लड़के ताली मार कर ऐसे हंसने लगे जैसे अभय सिंह ने कोई बहुत बड़ा चुटकुला सुना दिया हो. बातोंबातों में ही अभय सिंह और उस की मंडली के चमचे खाने की मेज पर बैठ गए और खाने की प्लेटें उन के सामने लगा दी गईं. एक 15 साल का छोकरा उन लोगों की प्लेट में खाना परोसने लगा. अभय सिंह ने दाल, चावल और सब्जी एकसाथ मिला ली और तेजी से खाने लगा, जबकि पंकज तिवारी सब की नजरें बचा कर चुपके से अपनी जेब में पड़े शराब के पौवे को गिलास में उड़ेलने लगा. ‘‘क्या बात है… आज खाना बहुत लजीज बना है…’’ हरीश ने बड़ेबड़े निवाले गटकते हुए कहा. ‘‘लजीज तो बनेगा ही भैया… अब तक आप लोग महाराज के हाथ का बना खाना खाते थे, पर आज महाराज अपने गांव गया है,

इसलिए आज की रसोई उजरिया ने बनाई है,’’ पास में खड़े वार्डन ने दांत दिखाते हुए कहा. उजरिया का नाम सुन कर लड़कों के कान खड़े हो गए. होस्टल के मैस में कोई औरत आई है और उस का अभय सिंह को पता तक नहीं चला, इस बात से अभय सिंह के अहंकार को थोड़ी चोट जरूर पहुंची, पर इस से ज्यादा वह उजरिया को देख लेने की गरज से इधरउधर गरदन घुमाने लगा, पर उसे वहां कोई औरत नहीं दिखाई दी, तो उस ने वार्डन से उजरिया को सामने लाने के लिए कहा. वार्डन के आवाज लगाने पर उजरिया नाम की एक औरत अपने माथे का पसीना पोंछते हुए आई. उस की उम्र तकरीबन 45 साल और शरीर दुबलापतला पर लंबा था, गड्ढे में जाती आंखें उस के मेहनती होने का सुबूत दे रही थीं. कैंपस में लड़कियों के जिस्म को घूरने वाले अभय सिंह और उस की मंडली के लोग उजरिया को भी ऊपर से नीचे तक घूरने लगे, पर उन्हें उन की पसंद के मुताबिक मांस का उतारचढ़ाव नजर नहीं आया,

 

सीप में बंद मोती : भाग 3

कुछ ही देर में अरुणा ट्रे में चाय और दूध की बोतल ले आई और बोली, ‘‘आप लोग चाय पीजिए, मैं मुन्ने  को दूध पिलाती हूं,’’ और विवेक के न न करते भी उस ने मुन्ने को अपनी गोद में लिटा लिया और बोतल से दूध पिलाने लगी. विवेक धीमे स्वर में आलोक से बोला, ‘‘यार, बीवी हो तो तुम्हारे जैसी, दूसरों  का घर भी कितनी अच्छी तरह संभाल लिया. एक हमारी मेम साहब हैं, अपना घर भी नहीं संभाल सकतीं. घर आओ तो पता चलता है किट्टी पार्टी  में गई हैं या क्लब में. मुन्ना आया के भरोसे रहता है.’’

उस दिन आलोक देर रात तक सो नहीं सका. वह सोच में निमग्न था. उसे तो अपनी पत्नी के सांवले रंग पर शिकायत थी पर यहां तो उस के दोस्तों को अपनी गोरीचिट्टी बीवियों से हर बात पर शिकायत है.

इतवार के दिन सभी दोस्तों ने आलोक की शादी की खुशी में पिकनिक का आयोजन  किया था. विवेक, राजेश, नरेश, विपिन सभी शरीक थे इस पिकनिक में.

खानेपीने का सामान आलोक के दोस्त लाए थे. आलोक को उन्होंने कुछ भी लाने से मना कर दिया था, पर फिर भी अरुणा ने मसालेदार छोले बना लिए  थे. सभी छोलों को  चटकारे लेले कर खा रहे थे. आलोक हैरानी से देख रहा था कि अरुणा ही सब के आकर्षण का केंद्र बनी हुई थी. सोनिया उस से बुनाई डालना सीख रही थी तो नीलम उस  के घने लंबे बालों का राज पूछ रही थी. राजेश की पत्नी लीना उस से मसालेदार छोले बनाने की विधि पूछ रही थी. तभी विवेक बोला, ‘‘अरुणा भाभी, चाय तो आप के हाथ की ही पिएंगे. उस दिन आप की बनाई चाय का स्वाद अभी तक जबान पर है.’’

लीना, सोनिया, नीलम आदि ताश खेलने लगीं और अरुणा स्टोव जला कर चाय बनाने लगी. विवेक भी उस का हाथ बंटाने लगा. चाय की चुसकियों के साथ एक बार फिर  अरुणा की तारीफ शुरू हो गई. चाय खत्म होते ही विवेक बोला, ‘‘अब अरुणा भाभी एक गाना सुनाएंगी.’’

‘‘मैं…मैं…यह आप क्या कह रहे हैं, भाई साहब?’’

‘‘ठीक कह रहा हूं,’’ विवेक बोला, ‘‘आप बेध्यानी में चाय बनाते समय गुनगुना रही थीं. मैं ने पीछे से सुन लिया था. अब कोईर् बहाना नहीं चलेगा. आप को गाना ही पड़ेगा.’’

‘‘हां…हां…’’ सब समवेत स्वर में बोले. मजबूरन अरुणा को गाने के लिए हां भरनी पड़ी. उस ने एक गाना गाना शुरू कर दिया. झील का खामोश किनारा उस की मीठी आवाज से गूंज उठा. सभी मंत्रमुग्ध से उस का गाना सुन रहे थे. आलोक भी हैरान था. अरुणा इतना अच्छा गा लेती है, उस ने कभी सोचा भी नहीं था. बड़े ही मीठे स्वर में वह गा रही थी. गाना खत्म हुआ तो सब ने तालियां बजाईं. अरुणा संकुचित हो उठी. आलोक गहराई से अरुणा को देख रहा था.

उसे लगा अरुणा इतनी सांवली नहीं  है जितनी वह सोचता है. उस की आंखें काफी बड़ी और भावपूर्ण हैं. गठा हुआ बदन, सदा मुसकराते से होंठ एक खास किस्म की शालीनता से भरा हुआ व्यक्तित्च. वह तो सब से अलग है. उस की आंखों पर अब तक जाने कौन सा परदा पड़ा हुआ था जिस के आरपार वह देख नहीं पा रहा था. उस की गहराई में तो गया ही नहीं था जहां अरुणा अपने इस रूपगुण के साथ मौजूद थी, सीप में बंद मोती की तरह.

एक उस के सांवले रंग की ही आड़ ले कर बाकी सभी गुणों को वह अब तक नजरअंदाज करता रहा था. अगर गोरा रंग ही खुशी और सुखमय वैवाहिक जीवन का आधार होता तो उस के दोस्त शायद खुशियों के सैलाब में डूबे होते, पर ऐसा कहां है?

पिकनिक के बाद थकेहारे शाम को वे  घर लौटे तो आलोक क ो अपेक्षाकृत प्रसन्न और मुखर देख कर अरुणा विस्मित सी थी. घर में खामोशी की चादर ओढ़ने  वाला आलोक  आज खुल कर बोल रहा था. कुछ हिम्मत कर के अरुणा बोली, ‘‘क्या बात है? आज आप काफी प्रसन्न नजर आ रहे हैं.’’

‘‘हां, आज मुझे सीप में बंद मोती मिला है,’’ और उस ने अरुणा को बाहुपाश में बांध लिया.

अमूल्य धरोहर : क्या बच पाई रवि बाबू की कुर्सी – भाग 3

‘तब तो गोष्ठी के लिए यहां तक आने की जरूरत ही नहीं थी. इंटरनेट पर सारी जानकारी तो भारत में भी उपलब्ध थी,’’ गायत्रीजी ने नहले पर दहला जड़ा था.

‘‘चलिए महोदय, देर हो रही है. गाड़ी आ गई है,’’ राजा भैया बोले.

‘‘ठीक है, फिर हम लोग चलते हैं… आप गोष्ठी का आनंद लीजिए,’’ रामआसरेजी ने विदा ली थी.

मलयेशिया में 4 दिन पलक झपकते ही बीत गए. लगे हाथों सिंगापुर में भी घूमने का कार्यक्रम बन गया था. गोष्ठी के आयोजकों ने भी अतिथियों के स्वागत- सत्कार के साथसाथ घुमानेफिराने का प्रबंध किया था.

लौटते समय राजा भैया ने चुटकी ली, ‘‘गायत्रीजी, आप तो गोष्ठी में ही उलझी रही हैं. हमें भी कुछ बताइए न, क्या विचारविमर्श हुए… वैसे छपी हुई सामग्री हम ने भी ले ली है.’’

‘‘यों भी होता क्या है इन गोष्ठियों में. उद्घाटन और अंतिम सत्र के अलावा इन में किसी की रुचि नहीं होती,’’ प्रताप सिंह ने भी अपने दिल की बात कह दी.

स्वदेश पहुंचते ही सभी अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गए. मित्रोंसंबंधियों को विदेश से लाए उपहार देना भी इसी दिनचर्या का हिस्सा था. वहां से लाए हुए छायाचित्र और वीडियो भी सब के आकर्षण का केंद्र बने हुए थे.

एक दिन अचानक ही मुख्यमंत्रीजी ने वक्तव्य दे दिया कि वह अपने मंत्रिमंडल में फेरबदल करने वाले हैं. फिर क्या था राजनीतिक सरगर्मियां बढ़ गईं. विधायकगण अपने तरीके से अपनी बात हाईकमान तक पहुंचाने लगे. साम दाम, दंड भेद का सहारा लिया जाने लगा और उन की बात न सुने जाने पर दबी जबान धमकियां भी दी जाने लगीं. रामआसरेजी अपने असंतुष्ट विधायकों के साथ कई बार रवि बाबू से मिल आए थे और अपनी मांगें पूरी करवाने के लिए मांगों की पूरी सूची भी उन्हें थमा दी थी.

2 महीने इसी ऊहापोह में बीत गए थे. अधिकतर विधायक मंत्रिमंडल विस्तार की बात अब लगभग भूल ही गए थे कि एक दिन सुबह की चाय की चुस्कियों के साथ आने वाले समाचार ने हड़कंप मचा दिया था.

रामआसरेजी के असंतुष्ट विधायकों में से केवल गायत्री देवी को ही मंत्रिमंडल में स्थान मिल सका था. वह महिला एवं समाज कल्याण मंत्री बन गई थीं.

आननफानन में सभी विधायक रामआसरे के घर आ जुटे थे. मुख्यमंत्री पार्टी अध्यक्ष रवि बाबू के अलावा गायत्री देवी उन की विशेष कोपभाजन थीं. मुख्यमंत्रीजी तो मंत्रिमंडल का विस्तार करते ही विदेश दौरे पर चले गए थे. आखिर असंतुष्ट विधायकों के दल ने रवि बाबू के यहां धरना देने की योजना बनाई थी.

‘‘आइए मित्रो, बड़ी लंबी आयु है आप की, अभीअभी मैं आप लोगों को ही याद कर रहा था. देखिए न, कितने मनोहारी दृश्य हैं,’’ उन्होंने टीवी पर आते दृश्यों की ओर इशारा किया था.

रामआसरेजी, राजा भैया, प्रताप सिंह, सिद्दीकी, भीमाजी यानी पांचों के विस्फारित नेत्र पलकें झपकना भूल गए थे. मलयेशिया के मनोहारी समुद्र तटों पर आनंद विहार करते, जहाज पर कू्रज में नाचतेगाते उन के दृश्य किसी ने बड़ी चतुराई से सीडी में उतार कर रवि बाबू तक पहुंचाए थे.

‘‘राजा भैया आप नृत्य बड़ा अच्छा करते हैं, साथ में वह लड़की कौन है? और सिद्दीकीजी व रामआसरे बाबू, आप लोग भी छिपे रुस्तम निकले. मुख्यमंत्रीजी कह रहे थे कि जनतांत्रिक दल के विधायक बड़े रसिक हैं,’’ रवि बाबू ने अपने विशेष अंदाज में ठहाका लगाया था.

‘‘तो आप ने सीडी मुख्यमंत्री तक भी पहुंचा दी?’’ प्रताप सिंह और भीमा बाबू ने प्रश्न किया था.

‘‘नहीं रे, यह सीडी मुख्यमंत्री निवास से हम तक आई है,’’ रवि बाबू की मुसकान छिपाए नहीं छिप रही थी.

‘‘समझ गया, मैं सब समझ गया,’’ रामआसरेजी क्रोधित स्वर में बोले थे.

‘‘क्या समझ गए आप?’’

‘‘यही कि यह सब गायत्री देवी का कियाधरा है. इसीलिए उन्हें मंत्री बना कर पुरस्कृत किया गया है,’’ वह बोले थे.

‘‘आप गायत्री देवी को जरूरत से ज्यादा महत्त्व दे रहे हैं. बेचारी सीधीसादी सी घरेलू महिला है, जो अपने ससुर की महत्त्वाकांक्षाओं के चलते राजनीति में चली आई है. जासूसी करना उस के वश का रोग नहीं है,’’ रवि बाबू मानो पहेली बुझा रहे थे.

‘‘तो यह सीडी आप के पास कैसे पहुंची?’’

‘‘अनेक पत्रकार मित्र हैं हमारे, अनेक चैनलों के लिए भी काम करते हैं. वे तो सीधे जनता को दिखाना चाहते थे कि कैसे उन के विधायक एड्स जैसी गंभीर बीमारी के निराकरण के लिए खूनपसीना एक कर रहे हैं. आप के क्षेत्र कार्यकर्ता तो देखते ही वाहवाह कर उठते पर मुख्यमंत्रीजी ने सीडी खरीद ली. कहने लगे, दल की नाक का प्रश्न है. कोई जनतांत्रिक दल के विधायकों पर उंगली उठाए यह उन से सहन नहीं होगा,’’ रवि बाबू का स्वर भीग गया था, आवाज भर्रा गई थी.

कमरे में कुछ देर के लिए खामोशी छाई रही, मानो वहां कोई था ही नहीं, पर शीघ्र ही असंतुष्ट विधायकों की टोली रवि बाबू को नमस्कार कर बाहर निकल गई थी.

‘‘मान गए सर, आप को, क्या चाल चली है. सांप भी मरे और लाठी भी न टूटे,’’ रवि बाबू के सचिव श्रीरंगाचारी बोले थे.

‘‘क्या करें, राजनीति में रहना है तो सब करना पड़ता है. आंखकान खुले रखने ही पड़ते हैं,’’ रवि बाबू ने ठहाका लगाया था और सीडी संभाल कर रख ली थी.

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