शर्मिंदगी : उस औरत ने किसे नीचा दिखाया

औरत आगे बढ़ी और मेरे पैरों की ओर झुकी, तभी मैं पीछे हट कर बोला, ‘‘इस तरह बारबार मेरे पैरों को मत पकड़ो. यह ठीक नहीं है. रही बात तुम्हारे पति की तो वह निर्दोष होगा तो अदालत से छूट जाएगा.’’

‘‘साहब, पता नहीं अदालत कब छोड़ेगी. अगर आप चाहें तो 5 मिनट में छुड़वा सकते हैं.’’ लड़के ने धीमी आवाज में कहा, ‘‘हमारे ऊपर दया करें साहब, हमारा और कोई नहीं है.’’

वह औरत इस लायक थी कि उसे औफिस बुलाया जा सकता था, वहां उस से इत्मीनान से बात भी की जा सकती थी. मैं ने अपना विजिटिंग कार्ड लड़के को देते हुए कहा, ‘‘यह मेरा कार्ड है. तुम इन्हें ले कर मेरे औफिस आ जाओ. शायद मैं तुम्हारा काम करा सकूं.’’

इस के बाद मैं औफिस चला गया. लेकिन उस दिन मेरा मन काम में नहीं लग रह था. फाइलों को देखते हुए मुझे बारबार उस औरत की याद आ रही थी. मुझे लग रहा था कि वह आती ही होगी. लेकिन उस दिन वह नहीं आई. घर आते हुए मैं उसी के ख्यालों में डूबा रहा. यही सोचता रहा कि पता नहीं वह क्यों नहीं आई.

अगले दिन मैं औफिस पहुंचा तो वह औरत और लड़का मुझे औफिस के गेट के सामने खड़े दिखाई दे गए. मैं जैसे ही कार से उतरा, दोनों मेरे पास आ गए. मैं ने उन्हें सवालिया नजरों से घूरते हुए कहा, ‘‘तुम्हें तो कल ही आना चाहिए था?’’

‘‘हम कल आए तो थे साहब, लेकिन आप के चपरासी ने कहा कि साहब बहुत व्यस्त हैं, इसलिए वह किसी से नहीं मिल सकते.’’ लड़के ने कहा.

‘‘तुम ने उसे मेरा कार्ड नहीं दिखाया?’’

‘‘दिखाया था साहब,’’ लड़के ने कहा, ‘‘चपरासी ने कार्ड देखा ही नहीं. कहा कि इसे जेब में रखो, फिर कभी आ जाना.’’

‘‘ठीक है, 10 मिनट बाद मेरी केबिन के सामने आओ, मैं तुम्हें बुलवाता हूं.’’ मैं ने औरत को नजर भर कर देखते हुए कहा.

10 मिनट बाद दोनों मेरे सामने बैठे थे. लड़के ने फिर वही कहानी दोहराई. मैं ने उस की बातों पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया. जो हंगामा हुआ था, उस का मुझे पता था. यह भी पता था कि उस मामले में कोई असली अपराधी नहीं पकड़ा गया था.

मैं ने हंगामा होने वाले इलाके के थानाप्रभारी को फोन किया. जब उस ने बताया कि अभी महिला के पति के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज नहीं है तो मैं ने कहा, ‘‘जब तक मैं दोबारा फोन न करूं, उस के खिलाफ कोई काररवाई मत करना.’’

इतना कह कर मैं ने फोन काट दिया. वह औरत और लड़का मेरी तरफ ताक रहे थे. मेरे फोन रखते ही लड़के ने कहा, ‘‘साहब, उस ने कुछ नहीं किया.’’

‘‘तुम ने बाहर स्टेशनरी वाली दुकान देखी है?’’ मैं ने लड़के से पूछा.

‘‘जी, वह किताबों वाली दुकान.’’ लड़के ने कहा.

‘‘हां, तुम ऐसा करो,’’ मैं ने उसे 10 रुपए का नोट देते हुए कहा, ‘‘उस दुकान से एक दस्ता कागज ले आओ. उस के बाद बताऊंगा कि तुम्हें क्या करना है.’’

लड़का 10 रुपए का नोट लेने के बजाए बोला, ‘‘मेरे पास पैसे हैं साहब. मैं ले आता हूं कागज.’’

लड़का चला गया तो मैं ने औरत को चाहतभरी नजरों से देखते हुए कहा, ‘‘तुम्हारा काम तो हो जाएगा, लेकिन तुम्हें भी मेरा एक काम करना होगा.’’

मेरी इस बात का मतलब वह तुरंत समझ गई. मैं ने उस के चेहरे के बदलते रंग से इस बात का अंदाजा लगा लिया था. फिर औरतें तो नजरों से ही अंदाजा लगा लेती हैं कि मर्द क्या चाहता है. मैं ने अपनी इच्छा को शब्दों का रूप दे दिया. मैं ने कहा, ‘‘अगर तुम ने मेरी बात नहीं मानी तो तुम्हारा पति कम से कम 3 सालों के लिए जेल चला जाएगा. पुलिस ने उसे हंगामे के मुकदमे में नामजद किया है.’’

यह कहते हुए मेरी नजरें औरत के चेहरे पर जमी रहीं और मैं उसे पढ़ने की कोशिश कर रहा था. मैं ने आगे कहा, ‘‘अगर तुम चाहती हो कि तुम्हारा पति घर आ जाए तो तुम आज 4 बजे अमर कालोनी के स्टौप पर मुझे मिल जाना. स्टौप से थोड़ा हट कर खड़ी होना, जिस से मैं तुम्हें आसानी से पहचान सकूं. अगर तुम नहीं आईं तो मैं यही समझूंगा कि तुम अपने शौहर की रिहाई नहीं कराना चाहती.’’

औरत सिर झुकाए बैठी रही. उस के होंठ कांप रहे थे. लेकिन शब्द नहीं निकल रहे थे. मैं उस के जवाब की प्रतीक्षा करता रहा. जब उस ने कोई जवाब नहीं दिया तो मैं समझ गया कि चुप का मतलब रजामंदी है. मैं ने कहा, ‘‘तुम वहां अकेली ही आना. अगर कोई साथ होगा तो फिर तुम्हारा काम नहीं होगा.’’

उस ने सहमति में सिर हिला कर गर्दन झुका ली. लड़के के आने तक मैं उसे तसल्ली देता हुआ उस की खूबसूरती की तारीफें करता रहा. लेकिन उस ने मेरी तरफ देख कर जरा भी खुशी प्रकट नहीं की. वह मूर्ति की तरह बैठी मेरी बातें सुनती रही. लड़के के आने के बाद मैं ने उसे विदा करते हुए कहा, ‘‘मैं कोशिश करूंगा कि तुम्हारा पति कल तक छूट जाए.’’

दोनों के जाने के बाद मैं औफिस के कामों को निपटाने लगा, लेकिन मन में जो लड्डू फूट रहे थे, वे मुझे उलझाए हुए थे. ठीक 4 बजे मैं अपनी कार से अमर कालोनी के बसस्टौप पर पहुंच गया. दरवाजा खोल कर मैं बाहर निकलने ही वाला था कि उस औरत को अपनी ओर आते देखा. जालिम की चाल दिल में उतर जाने वाली थी.

थोड़ी देर में उस सुंदर चीज को पहलू में लिए मैं उस फ्लैट की ओर जा रहा था, जो मैं ने अपनी अय्याशियों के लिए ले रखा था. मेरी कार हवा से बातें कर रही थी. पूरे रास्ते न तो उस औरत ने होंठ खोले और न ही मैं ने कुछ कहा.

फ्लैट में पहुंच कर पहले मैं ने अपना हलक गीला किया, जिस से मजा दोगुना हो सके. जब अंदर का शैतान पूरी तरह से जाग उठा तो मैं ने उस की ओर हाथ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘मुझे कतई विश्वास नहीं था कि तुम इतनी आसानी से मान जाओगी, मेरा ख्याल है कि तुम्हें अपने पति से बहुत ज्यादा प्यार है. तुम अपने प्यार को जेल जाते नहीं देख सकती थी.’’

मैं अपनी बातें कह रहा था और वह किसी पत्थर की मूर्ति की भांति निश्चल बैठी फर्श को ताके जा रही थी. मैं ने उस के कंधे पर हाथ रख कर अपनी ओर खींचा तो वह एकदम से बिस्तर पर गिर गई. गिरते ही उस ने अपनी आंखें बंद कर लीं. मुझे उस का यह अंदाज काफी पसंद आया.

अगले दिन शाम को 7 बजे के करीब जब मैं घर पहुंचा तो यह देख कर दंग रह गया कि वह औरत, एक आदमी और मेरी पत्नी लौन में बैठे चाय पी रहे थे. मुझे देखते ही वह आदमी उठ खड़ा हुआ और मेरे पास आ कर मेरे पैर छू लिए. मैं ने एक नजर औरत पर डाली. वह नजरें झुकाए खामोश बैठी थी.

मैं ने उस आदमी की ओर देखा तो उस की आंखों में मेरे प्रति आभार के भाव थे. वह मुझे बारबार धन्यवाद दे रहा था. वह कह रहा था, ‘‘साहब, आप बहुत बड़े आदमी हैं. यह एहसान मैं कभी नहीं भूल पाऊंगा.’’

अब मेरे अंदर उस का सामना करने का साहस नहीं रह गया था. मैं उस से पीछा छुड़ा कर घर में जाना चाहता था. लेकिन पत्नी ने पीछे से कहा, ‘‘कहां जा रहे हैं, जरा इधर तो आइए. यह बेचारी कितनी देर से आप का इंतजार कर रही है. आप ने इस का काम करा कर बडे़ पुण्य का काम किया है. आप की वजह से मेरा सिर गर्व से ऊंचा हो गया है. मैं बहुत खुश हूं.’’

मैं ने पलट कर एक नजर पत्नी की ओर देखा. वह सचमुच बहुत खुश दिख रही थी. मैं ने कहा, ‘‘मेरी तबीयत ठीक नहीं है. मैं थोड़ा आराम करना चाहता हूं.’’ कह कर मैं तेजी से दरवाजे में घुस गया.

बैडरूम में पहुंच कर मैं बिस्तर पर ढेर हो गया. कुछ देर बाद पत्नी मेरे कमरे में आई और बैड पर बैठ कर मेरे बालों में अंगुलियां फेरते हुए बोली, ‘‘तुम्हें कुछ पता है, वह बेचारी गूंगी थी, इसीलिए वह हमें नहीं बता पा रही थी कि उस पर क्या जुल्म हुआ था. इसीलिए आभार व्यक्त करने के लिए वह पति को साथ लाई थी. वह कह रहा था कि अगर उसे जेल हो जाती तो यह बेचारी कहीं की नहीं रह जाती. कोई उसे सहारा देने वाला नहीं था.’’

अब मुझ में इस से अधिक सुनने की ताकत नहीं रह गई थी. मैं अपनी शर्मिंदगी छिपाने के लिए तेजी से उठा और बाथरूम में घुस गया.

और वक्त बदल गया : क्या हुआ नीरज के साथ

नीरज की परेशानी दिन ब दिन बढ़ती जा रही थी. स्कूल के इम्तिहान खत्म हो चुके थे. ट्यूशन क्लासेज भी बंद हो गई थीं. अभी उस के सामने कई खर्चे खड़े थे- कमरे का किराया, घर का सामान. उस के पास इतने पैसे न थे कि सारे खर्च एकसाथ निबट जाते. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. नीरज को एकाएक खयाल आया कि मकानमालकिन मिसेज रेमन से बात की जाए, शायद कोई हल निकल आए. मिसेज रेमन उस 2 कमरों के मकान में अकेली ही रहती थीं. छत पर उस का कमरा था. वहां एक कमरा वाशरूम के साथ था. बरामदे को घेर कर छोटी सी रसोई बना दी थी. नीरज के लिए कमरा ठीकठीक था. उस की अच्छी गुजर हो रही थी. पिछले दिनों उस की बीमारी की वजह से पैसों की समस्या खड़ी हो गई थी. इलाज में पैसा खर्च हो गया और बचत न हो सकी.

शाम को वह मिसेज रेमन के दरवाजे की घंटी बजा रहा था. उन्होंने दरवाजा खोला और मुसकरा कर बोलीं, ‘‘हैलो यंगमैन, कैसे हो?’’ उस के जवाब का इंतजार किए बगैर उन्होंने प्यार से उसे बिठाया. उस के न कहने के बावजूद वे चाय ले आईं. फिर पूछा, ‘‘बताओ, कैसे आना हुआ?’’

नीरज ने धीमे से कहा, ‘‘मैम, आप को तो पता है मैं एमई कर रहा हूं और ट्यूशन कर के अपना खर्च चलाता हूं. छुट्टियों में कोई काम कर लेता हूं पर इस बार बीमारी के इलाज में खर्च ज्यादा हो गया, इसलिए इस महीने का किराया वक्त पर नहीं दे पाऊंगा. मुझे थोड़ी मोहलत दे दीजिए.’’

इस से पहले कभी नीरज से मिसेज रेमन को कोई शिकायत न थी. बहुत शिष्ट और शालीन था वह. किराया हमेशा वक्त पर देता था. मिसेज रेमन अच्छी महिला थीं, बोलीं, ‘‘कोई बात नहीं, जब तुम्हें सहूलियत हो तब किराया दे देना. तुम स्टूडैंट हो और बहुत अच्छे लड़के हो. इतनी रियायत तो मैं तुम्हें दे सकती हूं.’’

नीरज खुश हो गया, बोला, ‘‘बहुतबहुत शुक्रिया मैम.’’

वे बोलीं, ‘‘नीरज मेरे पास तुम्हारे लिए एक औफर है. मेरा एक स्टोर है. उस को मेरे एक पुराने मित्र मिस्टर जैकब देखते हैं. वे भी काफी उम्र के हैं. हिसाबकिताब में उन्हें परेशानी होती है. अगर तुम शाम को थोड़ा वक्त निकाल कर हिसाबकिताब देख लो तो तुम्हारे किराए के रुपए भी उसी में से कट जाएंगे और कुछ रुपए तुम्हें मिल भी जाएंगे.’’

नीरज ने तुरंत कहा, ‘‘ठीक है मैम, मैं कल से यह काम शुरू कर दूंगा. इस से मुझे बहुत मदद मिल जाएगी. मैं आप का बहुत एहसानमंद हूं.’’

दूसरे दिन से नीरज 1-2 घंटे स्टोर पर हिसाबकिताब वगैरा देखने लगा. मिस्टर जैकब बहुत सुलझे हुए और सहयोग करने वाले इंसान थे. बड़े अच्छे से उस का काम चलने लगा. महीना पूरा होने पर किराए के पैसे काट कर उसे कुछ रकम भी मिल गई. नीरज के सैमेस्टर शुरू हो गए. परीक्षाएं खत्म होने पर उसे सुकून मिला.

उस दिन वह अच्छे मूड में नीचे गार्डन में बैठा था कि मिसेज रेमन आ गईं. उस की परीक्षाएं खत्म होने की बात सुन कर वे बहुत खुश हुईं. उसे रात के खाने पर आमंत्रित किया. बहुत अच्छे माहौल में खाना खाया गया. उन्होंने बिरयानी बहुत अच्छी बनाई थी. बरसों बाद उसे किसी ने इतने प्यार से खाना खिलाया था. मिसेज रेमन ने छुट्यों में उसे 1-2 जगह और काम दिलाने का भी वादा किया.

रात को जब वह बिस्तर पर लेटा तो मिसेज रेमन के बारे में सोच रहा था. पर पता नहीं कैसे एक खूबसूरत चेहरा उस के खयालों में उभर आया. उस हसीन चेहरे को वह भूल जाना चाहता था. अपने अतीत को अपने जेहन से खुरच कर फेंक देना चाहता था. पर न जाने क्यों वह चेहरा बारबार उस की यादों में चला आता था. न चाहते हुए भी वह अतीत में डूब गया…

उस समय वह करीब 6 साल का था. एक बहुत खूबसूरत औरत, जो उस की मम्मी थी, उसे प्यार करती, उस का खयाल रखती. उस के पापा भी बहुत हैंडसम और डैश्ंिग थे. वे उसे घुमाने ले जाते, खिलौने दिलाते. पर एक बात से वह बहुत परेशान रहता कि अकसर किसी न किसी बात पर उस के मातापिता के बीच लड़ाई हो जाती, खूब तकरार होती. वह सहम कर अपने कमरे में छिप जाता. उस का मासूम दिल यह समझ ही नहीं पाता कि उस के मम्मीपापा क्यों झगड़ते हैं. फिर घर में खाना नहीं पकता. पापा गुस्से से बाहर चले जाते और खूब देर से घर लौटते. वह दूध और डबलरोटी खा कर सो जाता. इसी तरह दिन गुजर रहे थे. एक दिन दोनों के बीच बड़ी जोरदार लड़ाई हुई. फिर पापा जोरजोर से चिल्ला कर पता नहीं क्याक्या बक कर बाहर चले गए. मम्मी भी देर तक चिल्लाती रहीं. उस रात को पापा घर वापस लौट कर नहीं आए. दूसरे दिन आए तो फिर दोनों में तकरार शुरू हो गई. बीचबीच में उस का नाम भी ले रहे थे. फिर पापा सूटकेस में अपना सामान भर कर चले गए और कभी लौट कर नहीं आए. मम्मी का मिजाज बिगड़ा रहता.

3 महीने इसी तरह गुजर गए, फिर मम्मी एकदम, खुश दिखने लगीं. एक दिन एक बैग में उस का सामान पैक किया, फिर उस की मम्मी, जिस का नाम सोनाली था, ने कहा, ‘नीरज, मुझे विदेश में जौब मिल गई है. अब तुम मेरी कजिन नीता आंटी के साथ रहोगे. वे तुम्हारा बहुत खयाल रखेंगी. बेटा, तुम भी उन को तंग न करना.’ दूसरे दिन सोनाली उसे नीता आंटी के यहां छोड़ने गई.

नीरज किसी भी हाल में मम्मी को छोड़ना नहीं चाहता था. रोरो कर उस की हिचकियां बंध गईं. मम्मी भी रो रही थीं पर फिर वे आंचल छुड़ा कर चली गईं. नीरज उदास सा, हालात से समझौता करने को मजबूर था. उस के पास और कोई रास्ता न था.

उस का ऐडमिशन दूसरे स्कूल में हो गया. नीता आंटी का व्यवहार उस से अच्छा था. वे उसे प्यार भी करती थीं. अंकल बहुत कम बोलते, उसे अलग कमरे में अकेले सोना होता था. रात में सोते समय वह कई बार डर कर उठ जाता, तकिया सीने से लगाए रोरो कर रात काट देता. कोई ऐसा न था जो उसे उन काली रातों में उसे सीने से लगा कर प्यार करता. उसे समझ नहीं आता था, मां उसे छोड़ कर क्यों चली गईं? पापा कहां चले गए? दिन बीतते रहे. 10-12 दिनों बाद मम्मी उस से मिलने आईं. खिलौने, चौकलेट, कपड़े लाई थीं. उसे खूब प्यार किया और फिर उसे रोताबिलखता छोड़ कर मलयेशिया चली गईं.

जिंदगी एक ढर्रे पर चलने लगी. नीता आंटी उस का बहुत खयाल रखतीं. आंटी के यहां रहते हुए उसे कई बातें पता चलीं. आंटी की शादी को 8 साल हो गए थे. उन के यहां औलाद न थी. इसलिए उन्होंने उसे गोद लिया था. जैसेजैसे वह बड़ा होता गया, उसे सारी बातें समझ में आती गईं. कुछ बातें उसे नीता आंटी से पता चलीं. कुछ बातें उन की पुरानी बूआ कमला से पता चलीं. उस के मांबाप की कहानी भी उन्हीं लोगों से मालूम पड़ीं.

उस की मम्मी सोनाली बहुत खूबसूरत, चंचल और जहीन थीं. जब वे एमएससी कर रही थीं, उन की मुलाकात उस के पापा रवि से हुई. पहले दोस्ती, फिर मुहब्बत. दोनों के धर्म में फर्क था. दोनों के घरों से शादी का इनकार ही था. पर इश्के जनून कहां रुकावटों से रुकता है. दोनों की पढ़ाई पूरी होते ही उन दोनों ने सोचसमझ कर आपसी सहमति से अपना शहर छोड़ दिया और इस शहर में आ कर बस गए. सोनाली और रवि दोनों ही नए जमाने के साथ चलने वाले, ऊंची उड़ान भरने वाले परिंदे सरीखे थे. पुराने रीतिरिवाजों के विरोधी, नई सोच नई डगर, आजाद खयालों के हामी, उन दोनों ने ‘लिवइन रिलेशन’ में एकसाथ रहना शुरू कर दिया. विवाह उन्हें एक बंधन लगा.

उन का एजुकेशनल रिकौर्ड काफी अच्छा था. जल्द ही उन्हें अच्छी नौकरी मिल गई. जल्द ही उन्होंने जीवन की सारी जरूरी सुविधाएं जुटा लीं. एक साल फूलों की महक की तरह हलकाफुलका खुशगवार गुजर गया. फिर उन की जिंदगी में नीरज आ गया. शुरूशुरू में दोनों ने खुशी से जिम्मेदारी उठाई. दिन पंख लगा कर उड़ने लगे. सोनाली चंचल और आजाद रहने वाली लड़की थी. घर में सासससुर या कोई बड़ा होता तो कुछ दबाव होता, थोड़ा समझौता करने की आदत बनती. पर ऐसा कोई न था.

रवि बेहद महत्त्वाकांक्षी और थोड़ा स्वार्थी था. खर्च और काम बढ़ने से दोनों के बीच धीरेधीरे कलह होने लगी. पहले तो कभीकभार लड़ाई होती, फिर अंतराल घटने लगा. दोनों में बरदाश्त और सहनशीलता जरा न थी. फिर हर दूसरे, तीसरे दिन लड़ाई होने लगी. रवि के अपने मांबाप, परिवार से सारे संबंध टूट चुके थे और वे लोग उस से कोई संबंध रखना भी नहीं चाहते थे. उन के रवि के अलावा एक बेटा और एक बेटी थी. उन्हें डर था कि कहीं रवि के व्यवहार का दोनों बच्चों पर बुरा प्रभाव न पड़ जाए. जो लड़का प्यार की खातिर घरपरिवार छोड़ दे, उस से उम्मीद भी क्या रखी जा सकती है.

रिश्तेदारों से तो रवि पूरी तरह कट चुका था. कभी किसी दोस्त या सहयोगी के यहां कोई समारोह में शामिल होने का मौका मिलता, वहां भी कोई न कोई ऐसी बात हो जाती कि मन खराब हो जाता. कभी कोई इशारा कर के कहता, ‘यही हैं जो लिवइन रिलेशन में रह रहे हैं.’ या कोई कह देता, ‘इन लोगों की शादी नहीं हुई है, ऐसे ही साथ रहते हैं.’ उन दिनों लिवइन रिलेशन बहुत कम चलन में था. लोग इसे बहुत बुरा समझते थे. लोग खूब आलोचना भी करते थे.

रवि भी इस बात को महसूस करता था कि अगर समाज में घुलमिल कर रहना है तो समाज के बनाए उसूलों के अनुसार चलना जरूरी है. पर अब इन सब बातों के लिए बहुत देर हो चुकी थी. जो जैसा चल रहा था, वही अच्छा लगने लगा था.

सोनाली अपने परिवार की बड़ी बेटी थी. उस से छोटी 2 बहनें थीं. उस ने घर से भाग कर रवि के साथ रहना शुरू कर दिया. इन सब बातों की उस के मांबाप को खबर हो गई थी. बिना शादी के दोनों साथ रहते हैं, इस बात से उन्हें बहुत धक्का लगा. ऐसी खबरें तो पंख लगा कर उड़ती हैं. उन की 2 बेटियां कुंआरी थीं. कहीं सोनाली की कालीछाया उन दोनों के भविष्य को भी ग्रहण न लगा दे, यह सोच कर उन लोगों ने सोनाली से कोई संबंध नहीं रखा, न उस की कोई खोजखबर ली. वैसे भी, एक आजाद लड़की को क्या समझाना. इस तरह सोनाली भी अपने परिवार से अलग हो गई थी. उस की रिश्ते की एक बहन नीता इसी शहर में रहती थी. उस से मेलमुलाकात होती रहती थी. उस की शादी को 8 साल हो गए थे. उस की कोई औलाद न थी. वह बच्चे के लिए तरसती रहती थी.

इधर, रवि और सोनाली के बीच अहं का टकराव होता रहता. दोनों पढ़ेलिखे, सुंदर और जहीन थे. कोई झुकना न चाहता था. एक बात और थी, दोनों ही अपने परिवारों से कटे हुए थे. इस बात का एहसास उन्हें खटकता तो था पर खुल कर इस को कभी स्वीकार नहीं करते थे क्योंकि उन की ही गलती नजर आती. फिर सोशललाइफ भी कुछ खास न थी. इसी घुटन और कुंठा ने दोनों को चिड़चिड़ा बना दिया था.

नीरज की जिम्मेदारी और खर्च दोनों को ही भारी पड़ता. दोनों को अपनाअपना पैसा बचाने की धुन सवार रहती. नतीजा निकला रोजरोज की लड़ाई और अंजाम, रवि घर, नीरज और सोनाली को छोड़ कर चला गया. न कोई बंधन था, न कोई दवाब, न कोई कानूनी रोक. बड़ी आसानी से वह सोनाली और बच्चे को छोड़ चला गया. किसी से पता चला कि वह दुबई चला गया.

इधर, सोनाली भी बहुत महत्त्वाकांक्षी थी. उस ने भी दौड़धूप व कोशिश की. उसे मलयेशिया में नौकरी मिल गई. अब सवाल उठा बच्चे का. उस का क्या किया जाए. सोनाली भी अकेले यह जिम्मेदारी उठाना नहीं चाहती थी. अभी उस के सामने पूरी जिंदगी पड़ी थी. उस की कजिन नीता ने सुझाव दिया कि उस की कोई औलाद नहीं है, वह नीरज को अपने बेटे की तरह रखेगी. सोनाली ने नीरज को उसे दे दिया. एक मौखिक समझौते के तहत बच्चा उसे मिल गया. कोई कानूनी कार्यवाही की जरूरत ही नहीं समझी गई.

इस तरह मासूम नीरज, नीता आंटी के पास आ गया. बिना मांबाप के एक मांगे की जिंदगी गुजारने की खातिर. नीता आंटी उस का खूब खयाल रखती थीं, पढ़ाई भी अच्छी चल रही थी. जो बच्चे बचपन में दुख उठाते हैं, तनहाई और महरूमी झेलते हैं, वे वक्त से पहले सयाने और समझदार हो जाते हैं. नीरज ने अपना सारा ध्यान पढ़ाई में लगा दिया. एक ही धुन थी उसे कि कुछ बन कर दिखाना है. मेहनत और लगन से उस का रिजल्ट भी खूब अच्छा आता था.

दुख और हादसे कह कर नहीं आते. नीता आंटी का रोड ऐक्सिडैंट हो गया. 4-5 दिन मौत से संघर्ष करने के बाद वे चल बसीं. नीरज की तो दुनिया उजड़ गई. अब बूआ एकमात्र सहारा थीं. वे उस का बहुत ध्यान रखतीं. अंकल पहले से ही कटेकटे से रहते थे. अब और तटस्थ हो गए. धीरेधीरे हालात सामान्य हो गए. उस वक्त वह 10वीं में पढ़ रहा था. एक साल गुजर गया. आंटी की कमी तो बहुत महसूस होती पर सहन करने के अलावा कोईर् रास्ता न था. पहले भी वह अकेला था अब और अकेला हो गया.

उस के सिर पर आसमान तो तब टूटा जब अंकल दूसरी शादी कर के दूसरी पत्नी को घर ले आए. दूसरी पत्नी रेनू 30-31 साल की स्मार्ट औरत थी. कुछ अरसे तक वह चुपचाप हालात देखती और समझती रही और जब उसे पता चला, नीरज गोद लिया बच्चा है, तो उस के व्यवहार में फर्क आने लगा.

नीरज ने अपनेआप को अपने कमरे तक सीमित कर लिया. खाने वगैरा का काम बूआ ही देखतीं. डेढ़ साल बाद जब रेनू का बेटा पैदा हुआ तो नीरज के लिए जिंदगी और तंग हो गई. अब तो रेनू उसे बातबेबात डांटनेफटकारने लगी थी. खानेपीने पर भी रोकटोक शुरू हो गई. बासी बचा खाना उस के लिए रखा जाता. वह तो गनीमत थी कि बूआ उसे बहुत प्यार करती थीं, छिपछिपा कर उसे खिला देतीं.

धीरेधीरे रेनू ने अंकल के कान भरने शुरू कर दिए. अब नीरज उन की नजरों में भी खटकने लगा. बेवजह के ताने व प्रताड़ना शुरू हो गई. उस दिन तो हद हो गई, उसे एक किताब की जरूरत थी, उस ने अंकल से पैसे मांगे. इस बात को ले कर इतना बड़ा बखेड़ा खड़ा हो गया कि अतीत के सारे कालेपन्ने खोल कर उसे सुनाए गए. उस पर किए गए एहसान जताए गए, खर्च के हिसाब बताए गए. नीरज खामोश खड़ा सब सुनता रहा.  उस के पास कहने को क्या था? उस के मांबाप ने उसे ऐसी स्थिति में ला कर खड़ा कर दिया था कि शरम से उस का सिर झुक जाता था. अच्छे मार्क्स लाने के बाद उस की न कोई कद्र थी, न कोई तारीफ. 10वीं में उस के 97 फीसदी नंबर आए थे. स्कौलरशिप मिल रही थी. पढ़ाई के सारे खर्चे उसी में से पूरे हो जाते. कभीकभार किताबें वगैरा के लिए कुछ पैसे मांगने पड़ते थे. उस पर भी हंगामा खड़ा हो जाता.

उस दिन वह अपने कमरे में आ कर बेतहाशा रोया. उस के मांबाप ने अपनी मुहब्बत व अपने ऐश, अपनी सहूलियतों, अपने स्वार्थ के लिए उस की जिंदगी बरबाद कर दी थी. अगर उन दोनों ने विधिवत शादी की होती, अपनी जिम्मेदारी समझी होती तो ननिहाल या ददिहाल में से कोई भी उसे रख लेता. उस की जिंदगी यों शर्मसार न हुई होती. उसी दिन रात को उस ने तय किया कि 12वीं पास होते ही वह यह घर छोड़ देगा. अपने बलबूते पर अपनी पढ़ाई पूरी करेगा.

12वीं उस ने मैरिट में उत्तीर्ण की. पर घर में कोई खुशी मनाने वाला न था. रूखीफीकी मुबारकबाद मिली. बस, बूआ ने बहुत प्यार किया. अपने पास से मिठाई मंगा कर उसे खिलाई. हां, उस के दोस्तों ने खूब सैलिब्रेट किया. 2-4 दिनों बाद उस ने घर छोड़ दिया. पढ़ाई के खर्चे की उसे कोई फिक्र न थी. स्कौलरशिप मिल रही थी. एक अच्छे स्टूडैंट के लिए कुछ मुश्किल नहीं होती.

उस की परफौर्मेंस बहुत अच्छी थी. उस का ऐडमिशन एक अच्छे कालेज में हो गया. उस ने अपने एक दोस्त के साथ मिल कर कमरा किराए पर ले लिया और ट्यूशन कर के निजी खर्च निकालने लगा. उस का पढ़ाने का ढंग इतना अच्छा था कि उसे 10वीं के बच्चों की ट्यूशन

मिल गई. जिंदगी सुकून से गुजरने लगी. छुट्टियों में काम कर के कुछ और पैसे कमा लेता. बीई में उस ने पोजीशन ली. बीई के बाद उस के दोस्त ने जौब कर

ली और दूसरे शहर में चला गया. मकानमालिक को कमरे की जरूरत थी, उसे वह घर छोड़ना पड़ा. फिर थोड़ी कोशिश के बाद उसे मिसेज रेमन के यहां कमरा मिल गया. यह खूब पुरसुकून व अच्छी जगह थी. उस ने दुनिया के सारे शौक, सारे मजे छोड़ दिए थे. उस की जिंदगी का बस एक मकसद था, पढ़ाई और सिर्फ पढ़ाई. यहां भी वह ट्यूशन कर के अपना खर्च चलाता था. अब स्टोर में भी काम मिल गया, ये सब पुरानी बातें सोचतेसोचते वह नींद की आगोश में चला गया.

नीरज का यह फाइनल सैमेस्टर था. कैंपस सिलैक्शन में उसे एक अच्छी कंपनी ने चुन लिया. जीभर कर उस ने खुशियां मनाई. फाइनल होने के बाद उस ने वही कंपनी जौइन कर ली. शानदार पैकेज, बहुत सी सहूलियतें जैसे उस की राह देख रही थीं. मिसेज रेमन और मिस्टर जैकब को भी उस ने बाहर डिनर कराया. उन दोनों ने भी उसे तोहफे व दुआएं दे कर उस का हौसला बढ़ाया. मिसेज रेमन ने एक मां की तरह प्यार किया. बूआ को साड़ी व पैसे दिए.

वक्त और हालात बदलते देर नहीं लगती. आज वह 6 साल का मजबूर व बेबस बच्चा न था, 24 साल का खूबसूरत, मजबूत और समृद्ध जवान था. एक शानदार घर में रह रहा था. दुनिया की सारी सुखसुविधाएं उस के पास थीं. पर फिर भी उस की आंखों में उदासी और जिंदगी में तनहाई थी. वह हर वीकैंड पर मिसेज रेमन से मिलने जाता. वही एकमात्र उस की दोस्त, साथी या रिश्तेदार थीं. अच्छा वक्त तो वैसे भी पंख लगा कर उड़ता है.

उस दिन शाम को वह लौन में बैठा चाय पी रहा था कि गेट पर एक टैक्सी आ कर रुकी. उस में से एक सांवली सी अधेड़ औरत उतरी और गेट खोल कर अंदर चली आई. नीरज उस महिला को पहचान न सका, फिर भी शिष्टाचार के नाते कहा, ‘‘बैठिए, आप कौन हैं?’’ उस औरत की आंखें गीली थीं. चेहरे पर बेपनाह मजबूरी और उदासी थी. उस ने धीरेधीरे कहना शुरू किया, ‘‘नीरज, तुम ने मुझे पहचाना नहीं. मैं सोनाली हूं, तुम्हारी मम्मी.’’

नीरज भौचक्का रह गया. कहां वह जवान और खूबसूरत औरत, कहां यह सांवली सी अधेड़ औरत. दोनों में बड़ा फर्क था. ‘मम्मी’ शब्द सुन कर नीरज के मन में कोई हलचल न हुई. उस की सारी कोमल भावनाएं बर्फ की तरह सर्द हो कर जम चुकी थीं. अब दिल पर इन बातों का कोई असर न होता था. उस ने सपाट लहजे में कहा, ‘‘कहिए, कैसे आना हुआ? आप को मेरा पता कहां से मिला?’’

‘‘बेटा, मैं दूर जरूर थी पर तुम से बेखबर न थी. तुम्हारा रिजल्ट, तुम्हारी कामयाबी, नौकरी सब की खबर रखती थी. इंटरनैट से दुनिया बहुत छोटी हो गई है. जीजाजी से मिसेज रेमन का पता चला. उन से तुम्हारे बारे में मालूम हो गया. इस तरह तुम तक पहुंच गई. मैं जानती हूं, मेरा तुम से माफी मांगना व्यर्थ है क्योंकि जो कुछ मैं ने किया है उस की माफी नहीं हो सकती. तुम्हारा बचपन, तुम्हारा लड़कपन, मेरी नादानी और मेरे स्वार्थ की भेंट चढ़ गया. मैं ने जज्बात में आ कर गलत फैसला किया. न मैं खुश रह सकी न तुम्हें सुख दे सकी. मैं ने वह खिड़की खुद ही बंद कर दी जहां से ताजी हवा का झोंका, मुहब्बत की ठंडी फुहार मेरे तपते वजूद की तपिश कम कर सकती थी. मैं ने थोड़े से ऐश की खातिर उम्रभर के दुखों से सौदा कर लिया. अब सिर्फ पछतावा ही मेरी जिंदगी है.’’

‘‘ठीक है, सोनाली मैम, जो आप ने किया, सोचसमझ कर किया था. आज से 30-32 साल पहले ‘लिवइन रिलेशनशिप’ इतनी आम बात न थी. बहुत कम लोग यह कदम उठाते थे. आप उस समय इतनी बोल्ड थीं, आप ने यह कदम उठाया. फिर उस को निभाना था. एक बच्चे को जन्म दे कर आप ने उस की जिंदगी के साथ खिलवाड़ किया. न मेरा कोई ननिहाल रहा, न ददिहाल. मैं ने कैसे खुद को संभाला, यह मैं जानता हूं.

‘‘जिस उम्र में बच्चे मां के सीने पर सिर रख कर सोते हैं उस उम्र में मैं ने तकिए से लिपट कर रोरो कर रातें काटी हैं. आप ने और पापा ने सिर्फ अपने ऐश देखे. एक पल को भी, उस बच्चे के बारे में न सोचा जिसे दुनिया में लाने के आप दोनों जिम्मेदार थे. अब मेरी मासूमियत, मेरा बचपन, मेरी कोमल भावनाएं सब बेवक्त मर चुकी हैं.’’

‘‘नीरज, तुम जो भी कह रहे हो, एकदम सच है. मैं ने हर कदम सोचसमझ कर उठाया था. पर उस के अंजाम ने मुझे ऐसा सबक सिखाया है कि हर लमहा मैं खुद को बुराभला कहती हूं. मलयेशिया में मैं ने दूसरी शादी की थी. पर 6 साल तक मुझे औलाद न हुई तो उस ने मुझे तलाक दे दिया. उसे औलाद चाहिए थी और मैं मां न बन सकी. औलाद की बेकद्री की मुझे सजा मिल गई. मैं औलाद मांगती रही, मेरे बच्चा न हुआ. सारे इलाज कराए. यहां औलाद थी तो मैं ने दूसरों को दे दी. मेरे गुनाहों का अंत नहीं है.

‘‘मुझे कैंसर है. थोड़ा ही वक्त मेरे पास है. मैं अपने गुनाहों का, अपनी भूलों का प्रायश्चित्त करना चाहती हूं. अब मैं तुम्हारे पास रहना चाहती हूं. मैं तनहाई से तंग आ गई हूं. मुझे तुम्हारी तनहाई का भी एहसास है. पैसा है मेरे पास, पर उस से तनहाई कम नहीं होती. भले तुम मुझे खुदगर्ज समझो पर यह मेरी आखिरी ख्वाहिश है. एक बार मुझे मेरी गलतियां सुधारने का मौका दो. अपनी बेबस व मजबूर मां की इतनी बात रख लो.’’

नीरज सोच में पड़ गया. एक बार दिल हुआ, मां को माफ कर दे. दूसरे पल संघर्षभरे दिन, अकेले रोतेरोते गुजारी रातें याद आ गईं. उस ने धीमे से कहा, ‘‘सोनाली मैम, इतने सालों से मैं बिना रिश्तों के जीने का आदी हो गया हूं. रिश्ते मेरे लिए अजनबी हो गए हैं. मुझे थोड़ा वक्त दीजिए कि मैं अपने दिल को रिश्ते होने का यकीन दिला सकूं, अपनों के साथ जीने का तरीका अपना सकूं.

‘‘इतने सालों तक तपते रेगिस्तान में झुलसा हूं, अब एकदम से ठंडी फुहार बरदाश्त न कर सकूंगा. मुझे अपनेआप को ‘मां’ शब्द से मिलने का, समझने का मौका दीजिए. अभी मुझे नए तरीकों को अपनाने में थोड़ी हिचकिचाहट है. जैसे ही मुझे लगेगा कि मैं ने मां को पहचान लिया है, मैं आप को खबर कर के लेने आ जाऊंगा. आप अपना फोन नंबर और पता मुझे दे जाइए.’’

सोनाली ने एक उम्मीदभरी नजर से बेटे को देखा. उस की आंखें डबडबा गईं. वह थकेथके कदमों से गेट की तरफ मुड़ गई.

हनीमून : क्या था मुग्धा का प्लान

आशीष को परेशान करने के लिए वह जल्दीजल्दी अपनी मां के पास जाने की जिद करती, परंतु वह बिना किसी नानुकुर के उस की फ्लाइट की टिकट बुक करवा देता. उस की उपेक्षा और तिरस्कार का आशीष पर कोई प्रभाव ही नहीं पड़ता. वह तो अपनी पत्नी की सुंदरता पर मुग्धभाव से मुसकराता रहता. हर क्षण उस की प्रसन्नता के लिए प्रयास करता रहता.

वह उसे अंटशंट बोलती व प्रताडि़त करने के अवसर खोजती रहती. खाली समय में अपने एहसान के खयालों में खोई रहती. सुधाकर को मुग्धा का जल्दीजल्दी आना अच्छा नहीं लगा था. एक दिन वे पत्नी से बोले थे, ‘अपनी लाड़ली को समझाओ, पति के घर रहने की आदत डाले. ‘वह तो हम लोगों का समय अच्छा है कि हमें इतना अच्छा दामाद मिला है, जो उस की हर इच्छा को पूरी करता है.

‘मैं तो यही चाहता हूं कि वह आशीष के प्यार को समझे.’

‘आप ने अपनी बेटी के प्यार को समझा था? आप को उस की हर बात से परेशानी होती है. पहले आप ने बिना उस की रजामंदी के शादी करवा दी. अब आप चाहते हैं कि वह तुरंत उसे अपना ले जबकि आप अच्छी तरह जानते हैं कि बचपन से ही काले रंग के लोगों से वह नफरत करती है. आप को याद नहीं है, पहले मैं भी तो जल्दीजल्दी मायके जाने की जिद करती थी. उस को समय दीजिए, वह आशीष के प्यार की कद्र करने लगेगी.’

‘मैं भी तो यही चाहता हूं कि वह पति के प्यार को समझे, उसे इज्जत दे और उसे प्यार भी करे,’ वे नाराज हो उठे थे, ‘ठीक है, तुम उसे शह देती रहो. जब शादी टूट जाए और दोनों के बीच तलाक हो जाए तो मेरे कंधे पर सिर रख कर मत रोना कि अब क्या करूं? समाज में सब के सामने, मेरी इज्जत खराब हो गई. तुम्हीं तो उस दिन कह रही थीं कि गीता भाभी कह रही थीं कि क्या बात है, मुग्धा की पति से बनती नहीं है क्या?’

‘ऐसा नहीं होगा. लोगों की तो आदत होती है दूसरों के फटे में हाथ डालने की.’

मुग्धा कमरे के बाहर से सब बातें सुन रही थी. वह तमक कर बोली थी, ‘पापा, आप ने मेरी शादी करवा कर समाज में अपनी इज्जत जरूर बचा ली परंतु आप ने कभी यह नहीं सोचा कि काले, बदसूरत और नापसंद आदमी के साथ एक घर में रह कर वह रोज कितनी तकलीफ से गुजरती होगी.

‘आप ने हमेशा अपने बारे में सोचा, समाज क्या कहेगा, यह सोचा. मेरे प्यार, मेरी चाहत और मेरे जख्मों के बारे में कभी नहीं सोच पाए. आप स्वार्थी हैं. यदि मेरे बारबार आने से आप की समाज में बदनामी होती है तो अब मैं नहीं आया करूंगी. आज से मैं आप से रिश्ता तोड़ती हूं.’ वह नाराज हो कर चली गई थी. उस के बाद से मुग्धा न तो कभी उन के पास आई और न ही अपने पापा से कभी फोन पर बात की.

उस का जीवन निरुद्देश्य था. वह टीवी सीरियल्स से सिर फोड़ती या अपने फोन पर उंगलियां चलाती और सब से थकहार कर वह  आशीष को कोसना शुरू कर देती. ‘उफ, मुझे इस आबनूसी अफ्रीकन से मुक्त कर दो,’ वह मन ही मन सोचती रहती, ‘इस का ऐक्सिडैंट क्यों नहीं हो जाता, यह मर क्यों नहीं जाता.’

आशीष सुंदर पत्नी के प्रेम में पागल औफिस से बारबार उसे फोन करता रहता. उस का दिल हर समय डरता रहता कि जब वह औफिस से शाम को घर लौटे तो कहीं वह घर से नदारद हो कर अपने प्रेमी की बांहों में न पहुंच चुकी हो.

जब कभी वह औफिस से रात में देर से घर आता तो वह पूछ लेता, ‘मुग्धा, मैं देर से आता हूं तो तुम परेशान हो जाती होगी?’ हमेशा वह तपाक से बोलती, ‘भला, मैं क्यों परेशान होंगी? जाना चाहो तो हमेशा के लिए जा सकते हो.’

वह हर क्षण उस के अहं पर चोट पहुंचाती कि वह अब नाराज होगा. परंतु वह अपना हौसला नहीं छोड़ता. उस के चेहरे पर हर पल मुसकराहट बनी रहती. कुछ दिनों बाद एक दिन वह बोला, ‘मुग्धा, तुम दिनभर घर में बोर होती होगी, इसलिए तुम्हारे लिए मैं ने एक जौब की बात की है. तुम घर से निकलोगी तो वहां चार लोगों से मिलनाजुलना होगा तो तुम्हें अच्छा लगेगा. तुम्हें दिनभर की बोरियत से छुटकारा मिलेगा.’

आज एक पल को वह सोचने को मजबूर हो गई थी कि यह आदमी उस के बारे में कितना सोचता रहता है. वह बचपन से ही शिक्षाकार्य से जुड़ने का सपना देखती रहती थी. परंतु दिखाने के लिए एहसान जताते हुए वह बोली थी, ‘अब आप ने बात कर ली है तो ठीक है, चलिए, मैं इंटरव्यू दे दूंगी. केवल आप की इच्छा पूरी करने के लिए.’

आज वह एक अरसे बाद ढंग से तैयार हुई थी. आईने में अपने ही अक्स को देख कर वह अपनी सुंदरता पर रीझ उठी थी. परंतु अपने साथ आशीष को देखते ही उस का मूड खराब हो गया था.

आशीष भी अपने को नहीं रोक पाया था और हिचकिचाहट के साथ उस के माथे पर प्यार की मुहर लगाते हुए बोला था, ‘मुग्धा, तुम सच में मुझे मुग्ध कर देती हो.’ आज वह नाराज होने की जगह शरमा गई थी. शादी का एक साल पूरा हो चुका था. उसे अब आशीष की आदतें भाने लगी थीं. वह कालेज जाने लगी थी. वहां जा कर वह खुश रहने लगी थी. वह आशीष के साथ हंस कर बातें भी करने लगी थी.

एक शाम वह बिना बताए उसे लेने के लिए कालेज पहुंच गया था. उस समय वह अपने साथियों के साथ किसी बात पर जोरजोर से ठहाके लगा रही थी. उस को देखते ही वह गंभीर हो उठी थी और बुरा सा मुंह बना कर बोली थी, ‘क्यों, मुझे चैक करने आए थे?’

‘ऐसा क्यों कह रही हो?’

‘आज तुम्हारा बर्थडे है न, इसलिए सुबह ही तो शौपिंग की बात हुई थी. आज खाना भी बाहर ही खा लेंगे.’

‘ओके, ओके.’

शौपिंग के नाम से उस की आंखें चमक उठी थीं. बहुत दिनों बाद आज उस ने कई सारी ब्रैंडेड ड्रैसेज पसंद कर ली थीं. वह ट्रायलरूम से पहनपहन कर आशीष को दिखा कर पूछ भी रही थी, ‘कैसी लग रही हूं.’

फिर वह बोली थी, ‘बिल ज्यादा हो गया हो तो मैं ड्रैसेज कम कर दूं.’

प्रसन्नता से अभिभूत आशीष बोला था, ‘नहींनहीं, 2-4 और लेनी हो तो ले सकती हो. एक लाल रंग की सुंदर सी ड्रैस हाथ में उठा कर वह बोला था, यह वाली तुम पर बहुत फबेगी. यह मेरी ओर से ले लो.’ वह खुश हो कर बोली थी, ‘अरे, इस पर तो मेरी नजर ही नहीं पड़ी थी. सच में, यह तो सब से अधिक सुंदर ड्रैस है.’ आज पहली बार उस ने आशीष को प्यारभरी नजरों से देखा था.

‘मुग्धा इसी तरह मुसकराती और खुश रहा करो तो तुम बहुत सुंदर लगती हो.’

समय के अंतराल से दोनों के बीच की दूरियां कम होने लगी थीं. अब वह आशीष को स्वीकार करने लगी थी. दोनों के बीच पनपते हुए रिश्ते का फल मुग्धा के जीवन में अंकुरित होने लगा था. नवजीवन की सांसों की अनुभूति से आशीष के प्रति वह समर्पित अनुभव करने लगी थी. उस के  प्रति क्रोध और नफरत के स्थान पर प्यार पनपने लगा था.

आशीष पापा बनने वाला है, यह जान कर चमत्कृत था. उस की खुशी का ठिकाना नहीं था. उस ने तो मुग्धा के पांवों तले फूल बिछा दिए थे. उस की दीवानगी ने सारी सीमाएं पार कर दी थीं. उस समय उस ने मीरा को उस की देखभाल के लिए बुलाया था.

मीरा बेटी के पास आईं तो आशीष की मुग्धा के  लिए दीवानगी और प्यार देख कर गदगद हो उठी थीं. उन्होंने मुग्धा को बताया था कि एहसान शादी कर के अपने जीवन में आगे बढ़ चुका है, इसलिए अब उसे भी कसम खानी पड़ेगी कि वह भी आशीष के साथ प्यार व इज्जत के साथ रहेगी. यद्यपि कि वह भी आशीष से प्यार करने लगी थी परंतु आदत के अनुसार, पति के सामने आते उस की जबान कड़वाहट उगलने लगती थी.

एक दिन अंतरंग क्षणों में वह मुग्धा से बोला था, ‘मुझे तो बेटी चाहिए और वह भी तुम्हारी तरह सुंदर और प्यारी सी. यदि बेटा हो गया, वह भी मेरी तरह शक्लसूरत और काले रंग का तब तो तुम्हारे लिए बेटा भी दंडस्वरूप हो जाएगा क्योंकि अभी तो तुम्हें एक ही काले, बदसूरत आशीष को अपने इर्दगिर्द देखना पड़ता है. यदि बेटा भी ऐसा हो जाएगा तब तुम्हारे चारों तरफ बदशक्ल कुरूपों का जमावड़ा हो जाएगा और तुम्हारे लिए इस से बड़ी सजा अन्य कुछ हो ही नहीं सकती.’

मुग्धा द्रवित हो उठी थी. उस ने उस के मुंह पर अपना हाथ रख दिया था, ‘प्लीज, मेरी गलतियों के लिए मुझे माफ कर दो.’ समयानुसार उस की गोद में उस की हमशक्ल परी सी बेटी आ गई थी. मीरा बेटी को समझाबुझा कर लौट गई थीं.

एक दिन आशीष को बहुत जोर का बुखार आ गया था. वह बेहोशी में भी मुग्धामुग्धा पुकार रहा था. उस की बिगड़ती हालत देख आज वह पहली बार अपने को असहाय अनुभव कर रही थी. वह डाक्टर को फोन करते ही आशीष के लंबे जीवन व स्वास्थ्य की कामना करने लगी थी.

अब वह आशीष को दिल से चाहने लगी थी. जिस काले, बदशक्ल व्यक्ति से वह नफरत करती थी, वही अब उस का सर्वस्व बन चुका था. औफिस से आने पर उसे जरा भी देर होती तो वह पलपल में उसे फोन करती रहती. एक दिन वह आशीष से बोली थी, ‘आशीष, मैं ने तुम्हारा हनीमून बरबाद कर दिया था और उस के बाद भी मैं ने तुम्हें बहुत परेशान किया है, इसलिए मैं अब दोबारा उन्हीं पलों को उन्हीं जगहों पर जी कर एक नई शुरुआत करना चाहती हूं.’

‘ओके डियर, आप अपनी छुट्टी के लिए अप्लाई कर दीजिएगा.’

‘मैं ने आप को सरप्राइज देने के लिए सब बुकिंग करवा ली हैं.’

हर्षातिरेक में आशीष उसे बांहों में भर अपने प्यार की मुहर लगा कर हनीमून के बारे में सोचते हुए तेजी से औफिस के लिए निकल गया था. उसी रात हुए इस हादसे से मुग्धा की मनोस्थिति जड़वत हो गई थी. वह निरुद्देश्य, निराधार आईसीयू के बाहर चहलकदमी कर रही थी.

सुधाकर और मां मीरा को देखते ही वह अपने पापा के कंधे से लिपट कर बिलखबिलख कर रोने लगी थी. वह अस्फुट शब्दों में बोली, ‘‘पापा, प्लीज मेरे आशीष को बचा लीजिए. अभी तो मैं ने उसे प्यार करना शुरू ही किया है. मुझे उस के साथ हनीमून पर जाना है.’’

सुधाकर स्वयं को संभाल नहीं पा रहे थे. वे भी रोतेरोते बोले थे, ‘‘कुछ नहीं होगा तेरे आशीष को, तेरा प्यार जो उस के साथ है.’’ सिसकियों के साथ संज्ञाशून्य होतेहोते उस के मुंह से ‘हनीमून पर जाना है,’ निकल रहा था. वहां खड़े सभी लोगों की आंखों से बरबस आंसू निकल पड़े थे.

फेयरवैल : क्या था श्वेता का वो खास गिफ्ट

शनाया को नए पीजी में कुछ दिन तो थोड़ा अजीब लगा पर अब उसे काफी अच्छा लगने लगा था. चारों लड़कियों प्रीति, रुचि, रागिनी और आईना के साथ उस की बहुत अच्छी बनती थी. बस, श्वेता थोड़ा मूडी थी. वह कभी तो बहुत अच्छा व्यवहार करती, लेकिन कभीकभी बिना वजह छोटी सी बात का बतंगड़ बना देती. रुचि के पास एक कार थी. कभीकभी सभी सहेलियां उसी कार से रात को डिस्को चली जाती थीं.

आज भी अचानक ऐसे ही प्लान बन गया. शनाया पहले कभी रात को घर से बाहर नहीं निकलती थी. मम्मी ने उसे सख्ती से मना किया था. बस, पीजी से औफिस और औफिस से पीजी आनाजाना ही होता था. यही शनाया का रूटीन था, पर इस नए पीजी में आने के बाद शनाया में काफी बदलाव आ गया था. वह अपने लुक्स और पहनावे को ले कर सजग हो रही थी.

वह नएनए डांस स्टैप्स भी सीख रही थी. उस ने सभी लड़कियों को नईनई पत्रिकाएं पढ़ने का शौक लगा दिया था. आज श्वेता का मूड भी काफी अच्छा था. डिस्को जाने के लिए वह हमेशा तैयार रहती थी. डिस्को में बार भी था, जहां श्वेता ने पांचों के लिए बियर और्डर की.

शनाया ने साफ मना कर दिया. बहुत जोर देने पर रुचि और प्रीति ने श्वेता का साथ दिया, पर श्वेता ने थोड़ी देर में एक के बाद एक कई पैग चढ़ा लिए. बड़ी मुश्किल से श्वेता को घर वापस लौटने के लिए मनाया गया.

ये सब शनाया और रागिनी को बिलकुल पसंद नहीं आया. रागिनी ने प्रीति और रुचि को भी समझाया कि अलकोहल लेना गलत है. आगे से ऐसी गलती न करे. अगर श्वेता जिद करती है तो ना कहना सीखे.

ये बातें श्वेता के कानों में भी पड़ीं और इस पर बुरी तरह बहस हुई. श्वेता ने पांचों को खूब बुराभला कहा. खैर, कुछ ही दिन में सब सामान्य हो गया. शनाया ने श्वेता को किसी से फोन पर बात करते हुए सुना था, ‘तुम मेरे लिए एक अच्छा फ्लैट ढूंढ़ दो. यहां तो कंपनी ही बेकार है. पांचों लड़कियां जाहिल हैं.’

शनाया ने बात को बढ़ाना उचित नहीं समझा पर उस की फैमिली के बारे में जरूर पूछा. प्रीति ने बताया कि उस के पिता विधायक हैं. इस से ज्यादा कोई भी नहीं जानता था. वह प्रौपर्टी डीलर के जरिए आ पाई थी. ‘मकानमालिक ने वैरिफिकेशन तो कराया ही होगा,’ पता नहीं क्यों शनाया गहराई से सोच रही थी.

मकानमालिक ने वैसे तो सीसीटीवी कैमरे लगा रखे थे, लेकिन वह लड़कियों को कुछ कहते नहीं थे. वे रहते भी काफी दूर थे. बस, महीने बाद किराया वसूलने आते थे.

एक दिन खुशगवार मौसम देख कर श्वेता ने कुछ निकाला. पैकेट देख कर शनाया समझ गई कि यह ड्रग्स है, ‘‘किसी को ट्राई करना हो तो कर सकता है,’’ श्वेता ने रुचि को कहा.

‘‘यार, यह तो गैरकानूनी है. दिस इस वैरी बैड,’’ शनाया ने कह ही दिया. बस, श्वेता को चुप कराना मुश्किल हो गया. अगले दिन पांचों लड़कियों ने श्वेता से साफसाफ कह दिया, ‘‘देखो श्वेता, अलकोहल तक तो ठीक है लेकिन ये सब हम बरदाश्त नहीं करेंगे. आगे से ऐसा मत करना वरना कहीं और रहने का इंतजाम कर लो.’’

श्वेता ने नया फ्लैट देख लिया था. जाने से पहले पांचों ने श्वेता को फेयरवैल देने की योजना बनाई. केक काटने के बाद सब जम कर नाचे. श्वेता की जिद पर सब ने हलकेहलके पैग लिए. खूब मस्ती कर सब सो गए. अगली सुबह श्वेता अपना सामान ले कर चली गई. मांगने पर भी उस ने उन को एड्रैस नहीं बताया.

अब सबकुछ सामान्य था. शनाया भी काफी खुश रहती थी. अचानक एक दिन एक छोटा सा वीडियो शनाया को किसी ने भेजा. वीडियो देख कर वह स्तब्ध रह गई. वे पांचों हाथों में गिलास ले कर नाच रही थीं. उन के कपड़े भी बेहद अस्तव्यस्त थे. वैसे भी लड़कियों के फ्लैट में कपड़ों का खयाल रखता कौन है. उन के अंग साफ दिख रहे थे.

श्वेता जाहिर है, वीडियो शूट कर रही थी. पांचों लड़कियां जैसे गश खा कर गिरीं लगभग 10-15 दिन रोनेधोने के बाद उन्होंने श्वेता को खोज लिया.

‘‘देखो, किसी फ्रैंड ने यह अपलोड किया है. तुम लोग चाहो तो खुशी से साइबर पुलिस से शिकायत करो,’’ श्वेता बोली. वह बेहद चालाक थी. उस ने साइबर पुलिस को भी बताया कि वह वीडियोज फ्रैंड्स को शेयर करती रहती है. उस का फोन भी हरवक्त उस के पास नहीं रहता. इसलिए कैसे, क्या हुआ, वह नहीं बता कती.

श्वेता तो साफ बच निकली पर इन पांचों को फेयरवैल का गिफ्ट जरूर दे गई. खैर, पांचों ने इस शहर को छोड़ कर अन्य किसी शहर में नौकरी करने में ही अपनी भलाई समझी.

 साधना कक्ष : क्या अंजलि मां बन पाई

बच्चा न ठहरने के चलते अंजलि को अकसर मोहन के ताने भी सुनने पड़ रहे थे इसलिए वह कुछ दिनों के लिए मायके में अपनी मां के पास चली आई.

मां को जब इस की वजह पता चली तो उस ने अंजलि से कहा कि वह एक पहुंचे हुए बाबा को जानती है जो बहुत सी औरतों की गोद हरी कर चुके हैं.

अंजलि झाड़फूंक करने वाले बाबाओं और पीरफकीरों पर जरा भी यकीन नहीं करती थी इसलिए उस ने मां को साफ मना कर दिया.

मां ने उस से कहा कि अगर वह बाबा के पास नहीं जाना चाहती है तो अपने पति के घर वापस लौट जाए.

जब अंजलि ने मोहन से बात की तो उस ने कहा कि वह उस से तलाक लेना चाहता है क्योंकि उसे बच्चा नहीं हो रहा है. ऐसे में अंजलि के पास मां की बात मानने के सिवा कोई दूसरा रास्ता ही नहीं बचा था.

एक दिन जब अंजलि मां के साथ बाबा के आश्रम पहुंची तो पता चला कि उस आश्रम में मर्दों के आने की मनाही थी. उस आश्रम में उस बाबा को छोड़ उस के तीमारदारों में सिर्फ औरतें ही शामिल थीं.

बाबा की शिष्याओं ने अंजलि से एक कागज के टुकड़े पर बिना किसी को दिखाए अपनी मनपसंद मिठाई का नाम लिखने को कहा.

अंजलि को कुछ समझ नहीं आ रहा था लेकिन वह मां की इच्छा रखने के लिए सबकुछ करती गई.

अंजलि ने उस कागज पर मनपसंद मिठाई का नाम लिख कर उसे एक डब्बे में रख दिया जिस में बाबा की शिष्याओं ने ताला लगा कर अंजलि को यह कहते हुए उस के हाथ में थमा दिया कि वह इस डब्बे को ले कर साधना कक्ष में जाए.

बाबा अपनी चमत्कारी ताकतों की बदौलत यह जान गए होंगे कि उस ने इस कागज में क्या लिखा है.

साधना कक्ष में पहुंचने पर उसे वही मिठाई खाने को मिलेगी, जो उस ने इस कागज पर लिखी है.

अंजलि जब बाबा के पास साधना कक्ष में जाने लगी तो उस की मां भी उस के साथ हो ली.

बाबा ने अंजलि को वही मिठाई खाने को दी जो उस ने उस कागज पर लिखी थी तो वह हैरान रह गई, क्योंकि अंजलि के सिवा किसी को भी यह नहीं पता था कि उस ने उस कागज पर क्या लिखा है. उस ने बहुत दिमाग दौड़ाया लेकिन गुत्थी सुलझी नहीं.

समस्या जान कर बाबा ने अंजलि से कहा, ‘‘अगर तुम पेट से होना चाहती

हो तो तुम्हें रातभर इस कमरे में अकेले ही रहना होगा क्योंकि यह मेरा साधना कक्ष है. इस कक्ष में सोने से तुम्हारी गोद यकीनन हरी हो जाएगी.’’

अंजलि को इस कमरे में अकेले रात बिताने पर एतराज था. इस पर बाबा ने कहा, ‘‘इस कमरे में कोई और दरवाजा नहीं है और तुम अकेली ही रहोगी. तुम इस कमरे में अपने साथ लाए गए ताले को लगा लेना, जिस की एक चाबी तुम्हारी मां के पास रहेगी. कमरे में किसी के घुसने का सवाल ही नहीं उठता है.’’

अंजलि बेमन से कमरे में रात बिताने को तैयार हुई. बाबा और उस की मां जब कमरे से बाहर निकलने लगे तो बाबा बोला, ‘‘अंजलि, जो प्रसाद मैं ने तुम्हें दिया है, उसे अभी खा लो.’’

अंजलि ने मिठाई खा ली. बाबा ने बाहर निकलने के बाद कमरे में ताला लगा कर चाबी अंजलि की मां को दे दी.

उधर मिठाई खाने के बाद अंजलि पर अजीब सी खुमारी छाने लगी थी. वह अपनी सुधबुध खोने लगी थी और उस की नींद तब खुली, जब दूसरे दिन की सुबह उस की मां ने बंद कमरे का दरवाजा खोला.

अंजलि कमरे से बाहर निकलते समय सोच रही थी कि उस मिठाई में ऐसा क्या था, जिसे खाने के बाद उसे अजीब सी खुमारी छा गई और इस के बाद क्या हुआ, उसे पता नहीं चला. लेकिन वह बेफिक्र भी थी, क्योंकि

उस कमरे की चाबी उस की मां के पास थी और कमरे में घुसने का कोई दूसरा दरवाजा भी नहीं था.

अंजलि को बाबा के आश्रम से लौटे 2 महीने बीत चुके थे कि एक दिन अचानक उसे उलटियां होने लगीं. उस ने अपने डाक्टर दोस्त रमेश से जब चैकअप कराया तो पता चला कि वह पेट से है.

डाक्टर रमेश की बात का अंजलि को यकीन ही नहीं हुआ क्योंकि उसे पति से अलग हुए 5 महीने से ऊपर बीत चुके थे, फिर वह पेट से कैसे हो सकती है?

अंजलि ने डाक्टर रमेश से कहा, ‘‘डाक्टर साहब, आप एक बार फिर से रिपोर्ट देख लीजिए. कहीं ऐसा न हो कि जांच रिपोर्ट में कोई खामी हो.’’

लेकिन डाक्टर रमेश ने कहा कि उस की रिपोर्ट बिलकुल सही है और वह पेट से है.

घर पहुंचने पर अंजलि ने अपनी मां से पेट से होने की बात बताई तो मां की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. लेकिन जब अंजलि बोली कि वह मोहन से 5 महीने से मिली ही नहीं है, तो ऐसा कैसे हो सकता है.

अंजलि बोली, ‘‘मां, बाबा के आश्रम में मेरे साथ रेप किया गया है. कहीं तुम ने बाबा के साधना कक्ष की चाबी किसी को दी तो नहीं थी?’’

मां बोली, ‘‘नहींनहीं, मैं ने सारी रात चाबी अपने पास ही रखी थी और सुबह दरवाजा भी मैं ने ही खोला था.’’

अंजलि यह बात मानने को तैयार न थी. उस का कहना था कि बाबा के आश्रम में ही रेप हुआ है, जिस के चलते वह पेट से हुई है. लेकिन उस की मां बाबा के खिलाफ एक बात सुनने को राजी न थी. वह तो इसे बाबा का चमत्कार मान रही थी.

अंजलि ने यह बात जब मोहन को फोन कर के बताई तो उस ने उस पर ही चरित्रहीन होने का लांछन लगा दिया और कभी भी फोन न करने की बात कह कर फोन काट दिया.

उधर अंजलि को अब पूरा यकीन हो चुका था कि उस रात बाबा के आश्रम में उस के साथ कोई तो हमबिस्तर हुआ था. हो न हो, उस कमरे में कोई गुप्त दरवाजा है जिस के रास्ते कोई उस कमरे में घुसता है और साधना कक्ष में पेट से होने के लालच में रात बिताने वाली औरतों के साथ रेप करता है.

अंजलि ने अब निश्चय कर लिया था कि वह उस पाखंडी बाबा की हकीकत दुनिया के सामने ला कर रहेगी.

अंजलि ने अपने मन की बात मां को बताई तो मां बाबा के खिलाफ जाने को तैयार न हुई, पर जब अंजलि ने अपनी जान देने की बात कही तो मां उस का साथ देने को तैयार हो गई.

अंजलि इस बार फिर बाबा के आश्रम पहुंची और उस ने बाबा को बताया कि वह उन के चमत्कार से पेट से तो हो गई है, लेकिन उस का पति उस से तलाक ले कर दूसरी शादी करने जा रहा है. ऐसे में वह नहीं चाहती है कि वह पेट से हो, इसलिए वह चमत्कार कर के उसे पेट से होने से रोक लें.

बाबा ने अंजलि को एक पुडि़या दे कर कहा, ‘‘तुम इस चमत्कारी भभूत का सेवन करो. इस से तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जाएंगे और पेट में पल रहा बच्चा भी अपनेआप छूमंतर हो जाएगा.’’

अंजलि बाबा के आश्रम से घर आई और उस बाबा द्वारा दी गई भभूत को डाक्टर रमेश के पास ले गई.

डाक्टर रमेश ने उस भभूत को लैब में टैस्ट के लिए भेजा तो उस में बच्चा गिराने की दवा निकली.

अब अंजलि को पूरा यकीन हो चुका था कि बाबा के आश्रम में औरतों के साथ जबरदस्ती सैक्स संबंध बनाने का खेल खेला जा रहा है.

अंजलि दोबारा उस बाबा के आश्रम में पहुंची और बाबा से बोली, ‘‘बाबा, आप की चमत्कारी भभूत के चलते पेट में पल रहा मेरा बच्चा अपनेआप छूमंतर हो गया है. मेरे पति मुझे अपनाने को तैयार हो गए हैं. उन्होंने एक शर्त रखी है कि इस बार मुझे वे तभी वापस ले जाएंगे, जब मैं वहां जाने पर पेट से हो जाऊं.

‘‘मैं चाहती हूं कि आप के चमत्कार से एक बार फिर मैं पेट से हो जाऊं, क्योंकि इस बार अगर मैं पेट से न हुई तो वे मुझे हमेशा के लिए छोड़ देंगे.’’

बाबा ने कहा, ‘‘तुम दोबारा पेट से हो सकती हो. बस, एक रात साधना कक्ष में गुजारनी होगी.’’

अंजलि साधना कक्ष में रात गुजारने को तैयार हो गई, पर इस बार उस ने पुलिस से मिल कर उस बाबा की असलियत बता दी थी. लेकिन पुलिस बिना सुबूत उस बाबा पर हाथ नहीं डाल सकती थी इसलिए पुलिस ने अंजलि को सुबूत इकट्ठा करने के लिए फिर से बाबा के पास जाने को कहा था.

इस बार अंजलि पूरी तैयारी के साथ बाबा के आश्रम में आई थी और बोली कि उस की माहवारी आने के बाद का 13वां दिन है.

साधना कक्ष में बैठा बाबा अंजलि के साथ आई दूसरी औरत को देख कर चौंक गया और पूछा, ‘‘यह कौन है?’’

अंजलि ने बताया, ‘‘ये मेरी मौसी हैं. आज मां की तबीयत खराब होने के चलते मौसी के साथ आना पड़ा.’’

हकीकत तो यह थी कि अंजलि के साथ आई वह औरत पुलिस वाली थी. बाबा के आश्रम में महिला पुलिस भी श्रद्धालुओं के रूप में फैली हुई थी.

बाबा ने अंजलि को फिर वही मिठाई खाने को दी जो उस ने परची पर लिखी थी. लेकिन इस बार अंजलि को जरा भी हैरानी नहीं हुई क्योंकि उसे यह पता चल चुका था कि बाबा को परची पर लिखी गई हर बात पता चल जाती है. इस के पीछे कोई न कोई राज जरूर था, जिस से आज परदा उठने वाला था.

अंजलि इसी सोच में डूबी थी कि बाबा की आवाज उस के कानों में गूंजी, ‘‘अब तुम रात बिताने को तैयार हो. जाओ और मिठाई खा कर आराम करो.’’

इतना कह कर बाबा बाहर चला आया और अंजलि के साथ आई मौसी से साधना कक्ष में ताला लगवा कर अपनी आरामगाह में चला गया.

साधना कक्ष में बंद अंजलि ने इस बार बाबा की दी हुई मिठाई नहीं खाई. वह बाबा का हर राज जान लेना चाहती थी. उस ने जब कमरे को बारीकी से देखा तो ऐसा कुछ नजर नहीं आया जिस से उस कमरे में आने के दूसरे रास्ते के बारे में पता चल पाए.

तभी अंजलि की नजर बाबा के साधना कक्ष के कोने में रखी अलमारी पर गई. उस ने जैसे ही अलमारी के दरवाजे का हैंडल पकड़ कर खोला तो दरवाजा खुल गया.

यह देख कर अंजलि चौंक गई, क्योंकि वह नाममात्र की अलमारी थी. इस कमरे में घुसने का एक खुफिया दरवाजा था, जो दूसरे कमरे में जा कर खुलता था. बगल वाले कमरे में एक बड़ी सी स्क्रीन लगी हुई थी जो पूरे आश्रम का नजारा दिखा रही थी.

तभी अंजलि की नजर एक छोटी सी स्क्रीन पर गई. उस ने उस स्क्रीन पर चल रहे नजारों में जो देखा, उस के बाद उसे परची पर लिखी हर बात के बारे में बाबा को पता चल जाने का सारा राज समझ में आ गया था, क्योंकि जहां पर बैठ कर औरतें अपनी मनपसंद मिठाई का नाम लिखती थीं, वहां आसपास छिपा हुआ कैमरा लगा था.

बाबा इस कमरे में बैठ कर जान लेता था कि किस ने कौन सी मिठाई का नाम लिखा है, फिर उस में वह बेहोशी की दवा मिला कर खुफिया दरवाजे से साधना कक्ष में आ जाता था.

अंजलि को उस कमरे में तरहतरह की मिठाइयां एक फ्रिज में रखी हुई भी मिल गई थीं. तभी उसे बगल के कमरे से कुछ खटपट की आवाज सुनाई दी. वह समझ गई कि इस कमरे में बाबा के आने का समय हो गया है. वह बड़ी सावधानी से साधना कक्ष में लौट आई. वह अपने साथ आई महिला पुलिस को फोन करना नहीं भूली.

अंजलि साधना कक्ष के बिस्तर पर बेहोशी का नाटक कर के पड़ी थी. बाबा साधना कक्ष में आ चुका था.

अंजलि सबकुछ कनखियों से देख रही थी. बाबा अपने कपड़े उतार चुका था. वह अंजलि के ऊपर झुकने ही वाला था कि अंजलि का झन्नाटेदार थप्पड़ बाबा के कान पर पड़ा.

बाबा खुद को संभालते हुए अंजलि पर झपटा लेकिन अंजलि का पैर बाबा के अंग वाले हिस्से पर पड़ा और वह गश खा कर गिर गया.

अंजलि जोर से चिल्लाई. इसी के साथ कमरे का दरवाजा भड़ाक से खुल गया और एकसाथ कई पुलिस वाले कमरे में धड़धड़ाते हुए घुस आए.

बाबा खुद को संभालते हुए खुफिया दरवाजे की तरफ लपका. पुलिस वाले भी उसे पकड़ने के लिए उस तरफ लपके, लेकिन तब तक बाबा कहां छूमंतर हो गया, पता ही नहीं चला.

पुलिस चारों तरफ से आश्रम को घेर चुकी थी लेकिन बाबा आश्रम में कहीं नहीं मिला. तभी आश्रम की एक साध्वी ने जो बताया, उस से पुलिस वाले भी चौंक गए.

उस साध्वी ने बताया, ‘‘मेरी बहन भी इस बाबा के चक्कर में पड़ कर इस की शिष्या बन गई थी. लेकिन वह एक दिन बाबा का राज जान गई और उस ने बाबा की सारी करतूतों का वीडियो भी बना लिया था. तभी बाबा को यह बात पता चल गई और उस ने मेरी बहन को गायब करा दिया.

‘‘तब से मैं अपनी बहन की खोज में यहां पर बाबा की शिष्या बन कर उस के खिलाफ सुबूत इकट्ठा कर रही हूं. इसी दौरान आश्रम में बनाए गए खुफिया ठिकानों के बारे में भी मुझे पता चला.

‘‘बाबा ने आश्रम के अंदर एक खुफिया कमरा बना रखा है जिस में वह खुद के खिलाफ जाने वालों को न केवल कैद करता है बल्कि उन की हत्या कर के उन्हें वहीं दफना भी देता है.’’

उस शिष्या ने पुलिस वालों को आश्रम के पीछे झाड़झंखाड़ में बने एक गुप्त रास्ते से उस खुफिया कमरे तक पहुंचा दिया. वहां छिपा बाबा धर दबोचा गया. उस कमरे से पुलिस को भारी मात्रा में हथियार और कैद की गई औरतें भी मिलीं. उस कमरे में कई कब्रें भी थीं जिन की खुदाई से कई औरतों की अस्थियां बरामद हुईं.

अंजलि की सूझबूझ से पाखंडी बाबा के साधना कक्ष में औरतों के पेट से होने का राज खुल चुका था.

एक बार तो पूछा होता: मजाक हो तो ऐसा

‘‘पता नहीं क्यों किसीकिसी के साथ दम घुटता सा लगता है. जैसे आप की हर सांस पर किसी का पहरा हो या कोई हर पल आप पर नजर रख रहा हो. क्या ऐसे में दम घुटता सा नहीं लगता?’’ सीमा ने प्रश्नवाचक दृष्टि से मेरी ओर देखा.

‘‘कहीं तुम्हें दमा का रोग तो नहीं हो गया?’’ मैं ने भी प्रत्युत्तर में प्रश्न दाग दिया.

मेरा मजाक उस के गले में फांस जैसा अटक जाएगा, मुझे नहीं पता था.

‘‘तुम्हें लग रहा है कि मैं तमाशा कर रही हूं, मैं अपने मन की बात समझाना चाह रही हूं और तुम समझ रहे हो…’’

सीमा का स्वर रुंध जाएगा मुझे पता नहीं था. सहसा मुझे रुकना पड़ा. हंसतीखेलती सीमा इतनी परेशान भी हो सकती है मैं ने कभी सोचा भी नहीं था.

सीमा मेरे पापा के दोस्त की बेटी है और मेरे बचपन की साथी है. हम ने साथसाथ अपनी पढ़ाई पूरी की और जीवन के कई उतारचढ़ाव भी साथसाथ पार किए हैं. ऐसा क्या हो गया उस के साथ. हो सकता है उस के पापा ने कुछ कहा हो, लेकिन पापा के साथ पूरी उम्र दम नहीं घुटा तो अब क्यों दम घुटने लगा.

2 दिन बाद मैं फिर सीमा से मिला तो क्षमायाचना कर कुछ जानने का प्रयास किया.

‘‘ऐसा क्या है, सीमा…मैं तुम्हारे आगे हाथ जोड़ता हूं. अब क्या मुझे भी रुलाओगी तुम?’’

‘‘मेरी वजह से तुम क्यों रोओगे?’’

तनिक रुकना पड़ा मुझे. सवाल गंभीर और जायज भी था. भला मैं क्यों रोऊंगा? मेरा क्या रिश्ता है सीमा से? सीमा की मां का एक्सीडेंट, उन का देर तक अस्पताल में इलाज और फिर उन की मौत, सीमा का अकेलापन, सीमा के पापा का पुनर्विवाह और फिर उन का भी अलगाव. कोई नाता नहीं है मेरा सीमा से, फिर भी कुछ तो है जो मुझे सीमा से बांधता है.

‘‘तुम मेरे कौन हो, राघव?’’

‘‘पता नहीं, तुम्हारे सवाल से तो मुझे दुविधा होने लगी है और विचार करना पड़ेगा कि मैं कौन हूं तुम्हारा.’’

तनिक क्रोध आ गया मुझे. यह सोच कर कि कौन है जो हमारे रिश्ते पर प्रश्नचिह्न लगा रहा है?

‘‘तुम्हारा दिमाग तो नहीं घूम गया. अच्छी बात है, नहीं मिलूंगा मैं तुम से. पता नहीं कैसे लोगों में उठतीबैठती हो आजकल, लगता है किसी मानसिक रोगी की संगत में हो जो खुद तो बीमार होगा ही तुम्हारा भी दिमाग खराब कर रहा है,’’ और इतना कह कर मैं ने हाथ में पकड़ी किताब पटक दी.

‘‘यह लाया था तुम्हारे लिए. पढ़ लो और अपनी सोच को जरा स्वस्थ बनाओ.’’

मैं तैश में उठ कर चला तो आया पर पूरी रात सो नहीं सका. भैयाभाभी और पिताजी पर भी मेरी बेचैनी खुल गई. बातोंबातों में उन के होंठों से निकल गया, ‘‘सीमा के रिश्ते की बात चल रही थी, क्या हुआ उस का? उस दिन भाई साहब बात कर रहे थे कि जन्मपत्री मिल गई है. लड़के को लड़की भी पसंद है. दोनों अच्छी कंपनी में काम करते हैं, क्या हुआ बात आगे बढ़ी कि नहीं…’’

‘‘मुझे तो पता नहीं कि सीमा के रिश्ते की बात चल रही है?’’

‘‘क्या सीमा ने भी नहीं बताया? भाई साहब तो बहुत उतावले हैं इस रिश्ते को ले कर कि लड़का उसी के साथ काम करता है. मनीष नाम है उस का, जाति भी एक है.’’

‘‘अरे, भाभी, आप को इतना सब पता है और मुझे इस का क ख ग भी पता नहीं,’’ इतना कह कर मैं भाभी का चेहरा देखने लगा और भौचक्का सा अपने कमरे में चला आया. पता नहीं चला कब भाभी भी मेरे पीछे कमरे में चली आईं.

‘‘राघव, क्या सचमुच तुम कुछ नहीं जानते?’’

‘‘हां, भाभी, बिलकुल सच कह रहा हूं कि मैं कुछ भी नहीं जानता.’’

‘‘क्यों, सीमा ने नहीं बताया. तुम से तो उस की अच्छी दोस्ती है. जराजरा सी बात भी एकदूसरे के साथ तुम बांटते हो.’’

‘‘भाभी, यही तो मैं भी सोच रहा हूं मगर यह सच है. आजकल सीमा परेशान बहुत है. पिछले 3-4 दिनों में हम जब भी मिले हैं बस, हम में झगड़ा ही हुआ है. मैं पूछता हूं तो कुछ बताती भी नहीं है. हो सकता है वह लड़का मनीष ही उसे परेशान कर रहा हो…उस ने कहा भी था कुछ…’’

सहसा याद आया मुझे. दम घुटने जैसा कुछ कहा था. उसी बात पर तो झगड़ा हुआ था. सब समझ आने लगा मुझे. हो सकता है वह लड़का सीमा को पसंद न हो. वह सीमा की हर सांस पर पहरा लगा रहा हो. बचपन से जानता हूं न सीमा को, जरा सा भी तनाव हो तो उस की सांस ही रुकने लगती है.

‘‘तुम से कुछ पूछना चाहती हूं, राघव,’’ भाभी बड़ी बहन का रूप ले कर बोलीं, ‘‘सीमा तुम्हारी अच्छी दोस्त है या उस से ज्यादा भी है कुछ?’’

‘‘अच्छी मित्र है, यह कैसी बातें कर रही हैं आप? कल सीमा भी पूछ रही थी कि मैं उस का क्या लगता हूं… जैसे वह जानती नहीं कि मैं उस का क्या हूं.’’

‘‘तुम तो पढ़ेलिखे हो न,’’ भाभी बोलीं, ‘‘एमबीए हो, बहुत बड़ी कंपनी में काम करते हो. सब को समझा कर चलते हो, क्या मुझे समझा सकते हो कि तुम सीमा के क्या हो?’’

‘‘हम दोनों बचपन के साथी हैं. बहुत कुछ साथसाथ सहा भी है…’’

भाभी बात को बीच में काट कर बोलीं, ‘‘अच्छा बताओ, क्या 2 पल भी बिना सीमा को सोचे कभी रहे हो?’’

‘‘न, नहीं रहा.’’

‘‘तो क्या उस के बिना पूरा जीवन जी लोगे? उस की शादी कहीं और हो गई तो…’’

‘‘भाभी, मैं सीमा को किसी धर्मसंकट में नहीं डालना चाहता था इसीलिए ऐसा सपना ही नहीं देखा. उस का सुख ही मेंरे लिए सबकुछ है. वह जहां रहे सुखी रहे, बस.’’

‘‘तुम ने उस से पूछा, वह मनीष को पसंद करती है? नहीं न, तुम्हें कुछ पता ही नहीं है. जिस के साथ उस के पिता ने जन्मकुंडली मिलाई है क्या उस के साथ उस के विचार भी मिलते हैं. नहीं जानते न तुम…तुम उस का सुखदुख जानते ही नहीं तो उसे सुखी रखने की कल्पना भी कैसे कर सकते हो. एक बार तो उस से खुल कर बात कर लो. बहुत देर न हो जाए, मुन्ना.’’

भाभी का हाथ मेरे सिर पर आया तो लगा एक ममतामई सुरक्षा कवच उभर आया मन के आसपास. क्या भाभी मेरा मन पहचानती हैं. लगा चेतना पर से कुछ हट सा रहा है.

‘‘ज्यादा से ज्यादा सीमा ना कर देगी,’’ भाभी बोलीं, ‘‘कोई बात नहीं, हम बुरा नहीं मानेंगे. कम से कम दिल की बात कहो तो सही. तुम डरते हो तो मैं अपनी तरफ से बात छेड़ं ू.’’

‘‘मुझे डर है राघव कहीं ऐसा न हो कि वह इतनी दूर चली जाए कि तुम उसे देख भी न पाओ. सवाल अनपढ़ या पढ़ेलिखे होने का नहीं है, कुछ सवाल इतने भी आसान नहीं होते जितना तुम सोचते हो. क्योंकि बड़ेबड़े पढ़ेलिखे भी अकसर कुछ प्रश्नों का उत्तर नहीं दे पाते. सीमा को तो अनपढ़ कह दिया, तुम्हीं कौन से पढ़ेलिखे हो, जरा समझाओ मुझे.’’

किंकर्तव्यविमूढ़ मैं भाभी को देखता रहा. मेरा मन भर आया. अपने भाव छिपाने चाहे लेकिन प्रयास असफल रहा. भाभी से क्या छिपाऊं. शायद भाभी मुझ से ज्यादा मुझे जानती हैं और सीमा को भी.

‘‘मुन्ना, तुम आज ही सीमा से बात करो. मैं शाम तक का समय तुम्हें देती हूं, वरना कल सुबह मैं सीमा से बात करने चली जाऊंगी. अरे, जाति नहीं मिलती न सही, दिल तो मिलता है. वह ब्राह्मण है हम ठाकुर हैं, इस से क्या फर्क पड़ता है? जब उसे साथ ही लेना है तो उस के  लायक बनने की जरूरत ही क्या है?

‘‘जिंदगी इतनी सस्ती नहीं होती बच्चे कि तुम इसे यों ही गंवा दो और इतनी छोटी भी नहीं कि सोचो बस, खत्म हुई ही समझो. पलपल भारी पड़ता है जब कुछ हाथ से निकल जाए. मुन्ना, तुम मेरी बात सुन रहे हो न.’’

मैं भाभी की गोद में समा कर रो पड़ा. पिछले 10 सालों में मां बन कर भाभी ने कई बार दुलारा है. जब भाभी इस घर में आई थीं तब मैं 16-17 साल का था. डरता भी था, पता नहीं कैसी लड़की घर में आएगी, घर को घर ही रहने देगी या श्मशान बना देगी. और अब सोचता हूं कि मेरी यह नन्ही सी मां न होती तो मैं क्या करता.

‘‘तुम बडे़ कब होगे, राघव?’’ चीखी थीं भाभी.

‘‘मुझे बड़े होने की जरूरत ही नहीं है, आप हैं न. अगर आप को लगता है बात करनी चाहिए तो आप बात कर लीजिए, मुझ में हिम्मत नहीं है. उन की ‘न’ उन की ‘हां’ आप ही पूछ कर बता दें. डरता हूं, कहीं दोस्ती का यह रिश्ता हाथ से ही न फिसल जाए.’’

‘‘इस रिश्ते को तो यों भी तुम्हारे हाथ से फिसलना ही है. जितनी पीड़ा तुम्हें सीमा की वजह से होती है वह तब तक कोई अर्थ रखती है जब तक उस की शादी नहीं हो जाती. उस के बाद यह पीड़ा तुम्हारे लिए अभिशाप बन जाएगी और सीमा के लिए भी. राघव, तुम एक बार तो सीमा से खुद बात कर लो. अपने मन की कहो तो सही.’’

‘‘भाभी, आप सोचिए तो, उस के पापा नहीं मानेंगे तो क्या सीमा उन के खिलाफ जाएगी? नहीं जाएगी. इसलिए कि अपने पापा का कहना वह मर कर भी निभाएगी. मेरे प्रति अगर उस के मन में कुछ है भी तो उसे हवा देने की क्या जरूरत?’’

‘‘क्या सीमा यह सबकुछ सह लेगी? इतना आसान होगा नहीं, जितना तुम मान बैठे हो.’’

भाभी गुस्से से मेरे हाथ झटक कर चली गईं और सामने चुपचाप कुरसी पर बैठे अपने भाई पर मेरी नजर पड़ी, जो न जाने कब से हमारी बातें सुन रहे थे.

‘‘क्या लड़के हो तुम? भाभी का पल्ला पकड़ कर रो तो सकते हो पर सीमा का हाथ पकड़ एक जरा सा सवाल नहीं पूछ सकते. आदमी बनो राघव, हिम्मत करो बच्चे, चलो, उठो, नहाधो कर नाश्ता करो और निकलो घर से. आज इतवार है और सीमा भी घर पर ही होगी. हाथ पकड़ कर सीमा को घर ले आओगे तो भी हमें मंजूर है.’’

भैयाभाभी के शब्दों का आधार मेरे लिए एक बड़ा प्रोत्साहन था, लेकिन एक पतली सी रेखा संकोच और डर की मैं पार नहीं कर पा रहा था. किसी तरह सीमा के घर पहुंचा. बाहर ही उस के पापा मिल गए. पता चला सीमा की तबीयत अच्छी नहीं है.

‘‘कभी ऐसा नहीं हुआ उसे. कहती है सांस ही नहीं आती. रात भर फैमिली डाक्टर पास बैठे रहे. क्या करूं मैं, अच्छीभली थी, पता नहीं क्या होता जा रहा है इसे.’’

‘‘अंकल, आप को पता तो है कि घबराहट में सीमा को दम घुटने जैसा अनुभव होता है. उस दिन मुझ से बात करनी भी चाही थी पर मैं ने ही मजाक में टाल दिया था.’’

‘‘तो तुम उस से पूछो, बात करो.’’

मैं सीमा के पास चला आया और उस की हालत देख घबरा गया. 3-3 तकिए पीठ के पीछे रखे वह किसी तरह शरीर को सीधा रख सांस खींचने का प्रयास कर रही थी. एकएक सांस को तरसता इनसान कैसा दयनीय लगता है, मैं ने पहली बार जाना था. आंखें बाहर को फट रही थीं मानो अभी पथरा जाएंगी.

उस की यह हालत देख कर मैं रो पड़ा था. सच ही कहा था भाभी ने कि मेरा सीमा के प्रति स्नेह और ममता इतनी भी सतही नहीं जिसे नकारा जा सके. दोनों हाथ बढ़ा कर किसी तरह हांफते शरीर को सहारा देना चाहा. क्या करूं मैं जो सीमा को जरा सा आराम दे पाऊं. माथा सहला कर पसीना पोंछा. ऐसा लग रहा था मानो अभी सीमा के प्राणपखेरू उड़ जाएंगे. दम घुट जो रहा था.

‘‘सीमा, सीमा क्या हो रहा है तुम्हें, बात करो न मुझ से.’’

दोनों हाथों में उस का चेहरा ले कर सामने किया. आत्मग्लानि से मेरा ही दम घुटने लगा था. उस दिन सीमा कुछ बताना चाह रही थी तो क्यों नहीं सुना मैं ने. अचानक ही भीतर आते पापा की आवाज सुनाई दी.

‘‘सीमा, देखो, तुम से मिलने मनीष आया है.’’

पापा के स्वर में उत्साह था. शायद भावी पति को देख सीमा को चैन आएगा.

एक नौजवान पास चला आया और उस का अधिकारपूर्ण व्यवहार ऐसा मानो बरसों पुराना नाता हो. मेरे मन में एक विचित्र भाव जाग उठा, जैसे मैं सीमा के आसपास कोई अवांछित प्राणी था.

‘‘क्या बात है, सीमा?’’ कल अच्छीभली तो थीं तुम. अचानक ऐसा कैसे हो गया?’’

सवाल पर सवाल, उत्तर न मिलने पर भी एक और सवाल.

‘‘कल शाम तुम्हारा इंतजार करता रहा. नहीं आना था तो एक फोन तो कर देतीं. दीदी और जीजाजी तुम्हारी वजह से नाराज हो गए हैं. उन्हें फोन कर के ‘सौरी’ बोल देना. जीजाजी को कह कर न आने वालों से बहुत चिढ़ है.’’

मुझे मनीष एक संवेदनहीन इनसान लगा. सीमा पर पड़ती उस की नजरों में अधिकार- भावना अधिक थी और चिंता कम. यह इनसान सीमा से प्यार ही कहां कर पाएगा जिसे उस की तकलीफ पर जरा भी चिंता नहीं हो रही. सीमा रो पड़ी थी और अगले पल उस का समूचा अस्तित्व मेरी बांहों में आ समाया और मेरी छाती में चेहरा छिपा कर वह चीखचीख कर रोने लगी.

सीमा के पापा अवाक्थे. मनीष की पीड़ा को मैं नकार नहीं सकता…जिस की होने वाली बीवी उसी की ही नजरों के सामने किसी और की बांहों में समा जाए.

कुछ प्रश्न और कुछ उत्तर शायद इसी एक पल का इंतजार कर रहे थे. सीमा ने पीड़ा की स्थिति में अपना समूल मुझे सौंप दिया था और मेरे शरीर पर उस के हाथों की पकड़ इतनी मजबूत थी कि मेरे लिए विश्वास करना मुश्किल था. स्पर्श की भाषा कभीकभी इतनी प्रभावी होती है कि शब्दों का अर्थ ही गौण हो जाता है.

मेरे हाथों में क्या था, मैं नहीं जानता. लेकिन कुछ ऐसा अवश्य था जिस ने सीमा की उखड़ी सांसों को आसान बना दिया था. मेरे दोनों हाथों को कस कर पकड़ना उस का एक उत्तर था जिस की मुझे भी उम्मीद थी.

मुझे पता ही नहीं चला कब मनीष और पापा कमरे से बाहर चले गए. गले में ढेर सारा आवेग पीते हुए मैं ने सीमा के बालों में उंगलियां डाल सहला दिया. देर तक सीमा मेरी छाती में समाई रही. सांस पूरी तरह सामान्य हो गई थी, जिस पर मैं भी हैरान था और सीमा के पापा भी.

‘‘तुम ने पूछा था न, मैं तुम्हारा कौन हूं? कल तक पता नहीं था. आज बता सकता हूं.’’

चुप थी सीमा, और उस के पापा भी चुप थे. मुझे वे प्रकृति के आगे नतमस्तक से लगे. सीमा की सांसें अगर मेरी नजदीकियों की मोहताज थीं तो इस सच से वे आंखें कैसे मोड़ लेते.

‘‘मुझे बताया क्यों नहीं तुम दोनों ने? बचपन से साथसाथ हो और एकदूसरे पर इतना अधिकार है तो…’’

‘‘अंकल, मुझे भी पता नहीं था. आज ही जान पाया,’’ और इसी के साथ मेरा गला रुंध गया था.

मुझे अच्छी तरह याद है जब सीमा की मां की मौत के कुछ साल बाद उस के पापा ने अपनी बहन के दबाव में आ कर पुनर्विवाह कर लिया था तब वह कितने परेशान थे. सीमा और उस की नई मां के बीच तालमेल नहीं बैठा पा रहे थे. तब अकसर मेरे सामने रो दिया करते थे.

‘‘अपनी जाति अपनी ही जाति होती है. यह औरत हमारी जाति की नहीं है, इसीलिए हम में घुलमिल नहीं पाती.’’

‘‘अंकल, आप अपनी जाति से बाहर भी तो जाना नहीं चाहते थे न. और मैं भी नहीं चाहता था मेरी वजह से सीमा आप से दूर हो जाए. क्योंकि आप ने सीमा के लिए अपने सारे सुख भुला दिए थे.’’

‘‘तो क्या उस का बदला मैं सीमा के जीवन में जहर घोल कर  लूंगा. मैं उस का बाप हूं. जो मैं ने किया वह कोई एहसान नहीं था. कैसे नादान हो, तुम दोनों.’’

सीमा को गले लगा कर अंकल रो पड़े थे. हम तीनों ही अंधेरे में थे. कहीं कोई परदा नहीं था फिर भी एक काल्पनिक आवरण खुद पर डाले बस, जिए जा रहे थे हम.

डरने लगा हूं अब वह पल सोच कर, जब सीमा सदासदा के लिए जीवन से चली जाती. तब शायद यही सोचसोच कर जीवन नरक बन जाता कि एक बार मैं ने बात तो की होती, एक बार तो पूछा होता, एक बार तो पूछा होता.

Mother’s Day 2024- मां: गु़ड्डी अपने बच्चों को आश्रम में छोड़कर क्यों चली गई

रात के 10 बजे थे. सुमनलता पत्रकारों के साथ मीटिंग में व्यस्त थीं. तभी फोन की घंटी बज उठी…

‘‘मम्मीजी, पिंकू केक काटने के लिए कब से आप का इंतजार कर रहा है.’’

बहू दीप्ति का फोन था.

‘‘दीप्ति, ऐसा करो…तुम पिंकू से मेरी बात करा दो.’’

‘‘जी अच्छा,’’ उधर से आवाज सुनाई दी.

‘‘हैलो,’’ स्वर को थोड़ा धीमा रखते हुए सुमनलता बोलीं, ‘‘पिंकू बेटे, मैं अभी यहां व्यस्त हूं. तुम्हारे सारे दोस्त तो आ गए होंगे. तुम केक काट लो. कल का पूरा दिन तुम्हारे नाम है…अच्छे बच्चे जिद नहीं करते. अच्छा, हैप्पी बर्थ डे, खूब खुश रहो,’’ अपने पोते को बहलाते हुए सुमनलता ने फोन रख दिया.

दोनों पत्रकार ध्यान से उन की बातें सुन रहे थे.

‘‘बड़ा कठिन दायित्व है आप का. यहां ‘मानसायन’ की सारी जिम्मेदारी संभालें तो घर छूटता है…’’

‘‘और घर संभालें तो आफिस,’’ अखिलेश की बात दूसरे पत्रकार रमेश ने पूरी की.

‘‘हां, पर आप लोग कहां मेरी परेशानियां समझ पा रहे हैं. चलिए, पहले चाय पीजिए…’’ सुमनलता ने हंस कर कहा था.

नौकरानी जमुना तब तक चाय की ट्रे रख गई थी.

‘‘अब तो आप लोग समझ गए होंगे कि कल रात को उन दोनों बुजुर्गों को क्यों मैं ने यहां वृद्धाश्रम में रहने से मना किया था. मैं ने उन से सिर्फ यही कहा था कि बाबा, यहां हौल में बीड़ी पीने की मनाही है, क्योंकि दूसरे कई वृद्ध अस्थमा के रोगी हैं, उन्हें परेशानी होती है. अगर आप को  इतनी ही तलब है तो बाहर जा कर पिएं. बस, इसी बात पर वे दोनों यहां से चल दिए और आप लोगों से पता नहीं क्या कहा कि आप के अखबार ने छाप दिया कि आधी रात को कड़कती सर्दी में 2 वृद्धों को ‘मानसायन’ से बाहर निकाल दिया गया.’’

ये भी पढ़ें- एक नई पहल

‘‘नहीं, नहीं…अब हम आप की परेशानी समझ गए हैं,’’ अखिलेशजी यह कहते हुए उठ खडे़ हुए.

‘‘मैडम, अब आप भी घर जाइए, घर पर आप का इंतजार हो रहा है,’’ राकेश ने कहा.

सुमनलता उठ खड़ी हुईं और जमुना से बोलीं, ‘‘ये फाइलें अब मैं कल देखूंगी, इन्हें अलमारी में रखवा देना और हां, ड्राइवर से गाड़ी निकालने को कहना…’’

तभी चौकीदार ने दरवाजा खटखटाया था.

‘‘मम्मीजी, बाहर गेट पर कोई औरत आप से मिलने को खड़ी है…’’

‘‘जमुना, देख तो कौन है,’’ यह कहते हुए सुमनलता बाहर जाने को निकलीं.

गेट पर कोई 24-25 साल की युवती खड़ी थी. मलिन कपडे़ और बिखरे बालों से उस की गरीबी झांक रही थी. उस के साथ एक ढाई साल की बच्ची थी, जिस का हाथ उस ने थाम रखा था और दूसरा छोटा बच्चा गोदी में था.

सुमनलता को देखते ही वह औरत रोती हुई बोली, ‘‘मम्मीजी, मैं गुड्डी हूं, गरीब और बेसहारा, मेरी खुद की रोटी का जुगाड़ नहीं तो बच्चों को क्या खिलाऊं. दया कर के आप इन दोनों बच्चों को अपने आश्रम में रख लो मम्मीजी, इतना रहम कर दो मुझ पर.’’

बच्चों को थामे ही गुड्डी, सुमनलता के पैर पकड़ने के लिए आगे बढ़ी थी तो यह कहते हुए सुमनलता ने उसे रोका, ‘‘अरे, क्या कर रही है, बच्चों को संभाल, गिर जाएंगे…’’

‘‘मम्मीजी, इन बच्चों का बाप तो चोरी के आरोप में जेल में है, घर में अब दानापानी का जुगाड़ नहीं, मैं अबला औरत…’’

उस की बात बीच में काटते हुए सुमनलता बोलीं, ‘‘कोई अबला नहीं हो तुम, काम कर सकती हो, मेहनत करो, बच्चोें को पालो…समझीं…’’ और सुमनलता बाहर जाने के लिए आगे बढ़ी थीं.

‘‘नहीं…नहीं, मम्मीजी, आप रहम कर देंगी तो कई जिंदगियां संवर जाएंगी, आप इन बच्चों को रख लो, एक ट्रक ड्राइवर मुझ से शादी करने को तैयार है, पर बच्चों को नहीं रखना चाहता.’’

‘‘कैसी मां है तू…अपने सुख की खातिर बच्चों को छोड़ रही है,’’ सुमनलता हैरान हो कर बोलीं.

‘‘नहीं, मम्मीजी, अपने सुख की खातिर नहीं, इन बच्चों के भविष्य की खातिर मैं इन्हें यहां छोड़ रही हूं. आप के पास पढ़लिख जाएंगे, नहीं तो अपने बाप की तरह चोरीचकारी करेंगे. मुझ अबला की अगर उस ड्राइवर से शादी हो गई तो मैं इज्जत के साथ किसी के घर में महफूज रहूंगी…मम्मीजी, आप तो खुद औरत हैं, औरत का दर्द जानती हैं…’’ इतना कह गुड्डी जोरजोर से रोने लगी थी.

‘‘क्यों नाटक किए जा रही है, जाने दे मम्मीजी को, देर हो रही है…’’ जमुना ने आगे बढ़ कर उसे फटकार लगाई.

‘‘ऐसा कर, बच्चों के साथ तू भी यहां रह ले. तुझे भी काम मिल जाएगा और बच्चे भी पल जाएंगे,’’ सुमनलता ने कहा.

ये भी पढ़ें- दुश्मन

‘‘मैं कहां आप लोगों पर बोझ बन कर रहूं, मम्मीजी. काम भी जानती नहीं और मुझ अकेली का क्या, कहीं भी दो रोटी का जुगाड़ हो जाएगा. अब आप तो इन बच्चों का भविष्य बना दो.’’

‘‘अच्छा, तो तू उस ट्रक ड्राइवर से शादी करने के लिए अपने बच्चों से पीछा छुड़ाना चाह रही है,’’ सुमनलता की आवाज तेज हो गई, ‘‘देख, या तो तू इन बच्चोें के साथ यहां पर रह, तुझे मैं नौकरी दे दूंगी या बच्चों को छोड़ जा पर शर्त यह है कि तू फिर कभी इन बच्चों से मिलने नहीं आएगी.’’

सुमनलता ने सोचा कि यह शर्त एक मां कभी नहीं मानेगी पर आशा के विपरीत गुड्डी बोली, ‘‘ठीक है, मम्मीजी, आप की शरण में हैं तो मुझे क्या फिक्र, आप ने तो मुझ पर एहसान कर दिया…’’

आंसू पोंछती हुई वह जमुना को दोनों बच्चे थमा कर तेजी से अंधेरे में विलीन हो गई थी.

‘‘अब मैं कैसे संभालूं इतने छोटे बच्चों को,’’ हैरान जमुना बोली.

गोदी का बच्चा तो अब जोरजोर से रोने लगा था और बच्ची कोने में सहमी खड़ी थी.

कुछ देर सोच में पड़ी रहीं सुमनलता फिर बोलीं, ‘‘देखो, ऐसा है, अंदर थोड़ा दूध होगा. छोटे बच्चे को दूध पिला कर पालने में सुला देना. बच्ची को भी कुछ खिलापिला देना. बाकी सुबह आ कर देखूंगी.’’

‘‘ठीक है, मम्मीजी,’’ कह कर जमुना बच्चों को ले कर अंदर चली गई. सुमनलता बाहर खड़ी गाड़ी में बैठ गईं. उन के मन में एक अजीब अंतर्द्वंद्व शुरू हो गया कि क्या ऐसी भी मां होती है जो जानबूझ कर दूध पीते बच्चों को छोड़ गई.

‘‘अरे, इतनी देर कैसे लग गई, पता है तुम्हारा इंतजार करतेकरते पिंकू सो भी गया,’’ कहते हुए पति सुबोध ने दरवाजा खोला था.

‘‘हां, पता है पर क्या करूं, कभीकभी काम ही ऐसा आ जाता है कि मजबूर हो जाती हूं.’’

तब तक बहू दीप्ति भी अंदर से उठ कर आ गई.

‘‘मां, खाना लगा दूं.’’

‘‘नहीं, तुम भी आराम करो, मैं कुछ थोड़ाबहुत खुद ही निकाल कर खा लूंगी.’’

ड्राइंगरूम में गुब्बारे, खिलौने सब बिखरे पडे़ थे. उन्हें देख कर सुमनलता का मन भर आया कि पोते ने उन का कितना इंतजार किया होगा.

सुमनलता ने थोड़ाबहुत खाया पर मन का अंतर्द्वंद्व अभी भी खत्म नहीं हुआ था, इसलिए उन्हें देर रात तक नींद नहीं आई थी.

सुमनलता बारबार गुड्डी के ही व्यवहार के बारे में सोच रही थीं जिस ने मन को झकझोर दिया था.

मां की ममता…मां का त्याग आदि कितने ही नाम से जानी जाती है मां…पर क्या यह सब झूठ है? क्या एक स्वार्थ की खातिर मां कहलाना भी छोड़ देती है मां…शायद….

सुबोध को तो सुबह ही कहीं जाना था सो उठते ही जाने की तैयारी में लग गए.

पिंकू अभी भी अपनी दादी से नाराज था. सुमनलता ने अपने हाथ से उसे मिठाई खिला कर प्रसन्न किया, फिर मनपसंद खिलौना दिलाने का वादा भी किया. पिंकू अपने जन्मदिन की पार्टी की बातें करता रहा था.

दोपहर 12 बजे वह आश्रम गईं, तो आते ही सारे कमरों का मुआयना शुरू कर दिया.

शिशु गृह में छोटे बच्चे थे, उन के लिए 2 आया नियुक्त थीं. एक दिन में रहती थी तो दूसरी रात में. पर कल रात तो जमुना भी रुकी थी. उस ने दोनों बच्चों को नहलाधुला कर साफ कपडे़ पहना दिए थे. छोटा पालने में सो रहा था और जमुना बच्ची के बालों में कंघी कर रही थी.

‘‘मम्मीजी, मैं ने इन दोनों बच्चों के नाम भी रख दिए हैं. इस छोटे बच्चे का नाम रघु और बच्ची का नाम राधा…हैं न दोनों प्यारे नाम,’’ जमुना ने अब तक अपना अपनत्व भी उन बच्चों पर उडे़ल दिया था.

सुमनलता ने अब बच्चों को ध्यान से देखा. सचमुच दोनों बच्चे गोरे और सुंदर थे. बच्ची की आंखें नीली और बाल भूरे थे.

अब तक दूसरे छोटे बच्चे भी मम्मीजीमम्मीजी कहते हुए सुमनलता के इर्दगिर्द जमा हो गए थे.

सब बच्चों के लिए आज वह पिंकू के जन्मदिन की टाफियां लाई थीं, वही थमा दीं. फिर आगे जहां कुछ बडे़ बच्चे थे उन के कमरे में जा कर उन की पढ़ाईलिखाई व पुस्तकों की बाबत बात की.

इस तरह आश्रम में आते ही बस, कामों का अंबार लगना शुरू हो जाता था. कार्यों के प्रति सुमनलता के उत्साह और लगन के कारण ही आश्रम के काम सुचारु रूप से चल रहे थे.

3 माह बाद एक दिन चौकीदार ने आ कर खबर दी, ‘‘मम्मीजी, वह औरत जो उस रात बच्चों को छोड़ गई थी, आई है और आप से मिलना चाहती है.’’

‘‘कौन, वह गुड्डी? अब क्या करने आई है? ठीक है, भेज दो.’’

मेज की फाइलें एक ओर सरका कर सुमनलता ने अखबार उठाया.

ये भी पढ़ें- अनोखी जोड़ी…

‘‘मम्मीजी…’’ आवाज की तरफ नजर उठी तो दरवाजे पर खड़ी गुड्डी को देखते ही वह चौंक गईं. आज तो जैसे वह पहचान में ही नहीं आ रही है. 3 महीने में ही शरीर भर गया था, रंगरूप और निखर गया था. कानोें में लंबेलंबे चांदी के झुमके, शरीर पर काला चमकीला सूट, गले में बड़ी सी मोतियों की माला…होंठों पर गहरी लिपस्टिक लगाई थी. और किसी सस्ते परफ्यूम की महक भी वातावरण में फैल रही थी.

‘‘मम्मीजी, बच्चों को देखने आई हूं.’’

‘‘बच्चों को…’’ यह कहते हुए सुमनलता की त्योरियां चढ़ गईं, ‘‘मैं ने तुम से कहा तो था कि तुम अब बच्चों से कभी नहीं मिलोगी और तुम ने मान भी लिया था.’’

‘‘अरे, वाह…एक मां से आप यह कैसे कह सकती हैं कि वह बच्चों से नहीं मिले. मेरा हक है यह तो, बुलवाइए बच्चों को,’’ गुड्डी अकड़ कर बोली.

‘‘ठीक है, अधिकार है तो ले जाओ अपने बच्चों को. उन्हें यहां क्यों छोड़ गई थीं तुम,’’ सुमनलता को भी अब गुस्सा आ गया था.

‘‘हां, छोड़ रखा है क्योंकि आप का यह आश्रम है ही गरीब और निराश्रित बच्चों के लिए.’’

‘‘नहीं, यह तुम जैसों के बच्चों के लिए नहीं है, समझीं. अब या तो बच्चों को ले जाओ या वापस जाओ,’’ सुमनलता ने भन्ना कर कहा था.

‘‘अरे वाह, इतनी हेकड़ी, आप सीधे से मेरे बच्चों को दिखाइए, उन्हें देखे बिना मैं यहां से नहीं जाने वाली. चौकीदार, मेरे बच्चों को लाओ.’’

‘‘कहा न, बच्चे यहां नहीं आएंगे. चौकीदार, बाहर करो इसे,’’ सुमनलता का तेज स्वर सुन कर गुड्डी और भड़क गई.

‘‘अच्छा, तो आप मुझे धमकी दे रही हैं. देख लूंगी, अखबार में छपवा दूंगी कि आप ने मेरे बच्चे छीन लिए, क्या दादागीरी मचा रखी है, आश्रम बंद करा दूंगी.’’

चौकीदार ने गुड्डी को धमकाया और गेट के बाहर कर दिया.

सुमनलता का और खून खौल गया था. क्याक्या रूप बदल लेती हैं ये औरतें. उधर होहल्ला सुन कर जमुना भी आ गई थी.

‘‘मम्मीजी, आप को इस औरत को उसी दिन भगा देना था. आप ने इस के बच्चे रखे ही क्यों…अब कहीं अखबार में…’’

‘‘अरे, कुछ नहीं होगा, तुम लोग भी अपनाअपना काम करो.’’

सुमनलता ने जैसेतैसे बात खत्म की, पर उन का सिरदर्द शुरू हो गया था.

पिछली घटना को अभी महीना भर भी नहीं बीता होगा कि गुड्डी फिर आ गई. इस बार पहले की अपेक्षा कुछ शांत थी. चौकीदार से ही धीरे से पूछा था उस ने कि मम्मीजी के पास कौन है.

‘‘पापाजी आए हुए हैं,’’ चौकीदार ने दूर से ही सुबोध को देख कर कहा था.

गुड्डी कुछ देर तो चुप रही फिर कुछ अनुनय भरे स्वर में बोली, ‘‘चौकीदार, मुझे बच्चे देखने हैं.’’

‘‘कहा था कि तू मम्मीजी से बिना पूछे नहीं देख सकती बच्चे, फिर क्यों आ गई.’’

‘‘तुम मुझे मम्मीजी के पास ही ले चलो या जा कर उन से कह दो कि गुड्डी आई है…’’

कुछ सोच कर चौकीदार ने सुमनलता के पास जा कर धीरे से कहा, ‘‘मम्मीजी, गुड्डी फिर आ गई है. कह रही है कि बच्चे देखने हैं.’’

‘‘तुम ने उसे गेट के अंदर आने क्यों दिया…’’ सुमनलता ने तेज स्वर में कहा.

‘‘क्या हुआ? कौन है?’’ सुबोध भी चौंक  कर बोले.

‘‘अरे, एक पागल औरत है. पहले अपने बच्चे यहां छोड़ गई, अब कहती है कि बच्चों को दिखाओ मुझे.’’

‘‘तो दिखा दो, हर्ज क्या है…’’

‘‘नहीं…’’ सुमनलता ने दृढ़ स्वर में कहा फिर चौकीदार से बोलीं, ‘‘उसे बाहर कर दो.’’

सुबोध फिर चुप रह गए थे.

ये भी पढ़ें- योग की पोल…

इधर, आश्रम में रहने वाली कुछ युवतियों के लिए एक सामाजिक संस्था कार्य कर रही थी, उसी के अधिकारी आए हुए थे. 3 युवतियों का विवाह संबंध तय हुआ और एक सादे समारोह में विवाह सम्पन्न भी हो गया.

सुमनलता को फिर किसी कार्य के सिलसिले में डेढ़ माह के लिए बाहर जाना पड़ गया था.

लौटीं तो उस दिन सुबोध ही उन्हें छोड़ने आश्रम तक आए हुए थे. अंदर आते ही चौकीदार ने खबर दी.

‘‘मम्मीजी, पिछले 3 दिनों से गुड्डी रोज यहां आ रही है कि बच्चे देखने हैं. आज तो अंदर घुस कर सुबह से ही धरना दिए बैठी है…कि बच्चे देख कर ही जाऊंगी.’’

‘‘अरे, तो तुम लोग हो किसलिए, आने क्यों दिया उसे अंदर,’’ सुमनलता की तेज आवाज सुन कर सुबोध भी पीछेपीछे आए.

बाहर बरामदे में गुड्डी बैठी थी. सुमनलता को देखते ही बोली, ‘‘मम्मीजी, मुझे अपने बच्चे देखने हैं.’’

उस की आवाज को अनसुना करते हुए सुमन तेजी से शिशुगृह में चली गई थीं.

रघु खिलौने से खेल रहा था, राधा एक किताब देख रही थी. सुमनलता ने दोनों बच्चों को दुलराया.

‘‘मम्मीजी, आज तो आप बच्चों को उसे दिखा ही दो,’’ कहते हुए जमुना और चौकीदार भी अंदर आ गए थे, ‘‘ताकि उस का भी मन शांत हो. हम ने उस से कह दिया था कि जब मम्मीजी आएं तब उन से प्रार्थना करना…’’

‘‘नहीं, बिलकुल नहीं, बाहर करो उसे,’’ सुमनलता बोलीं.

सहम कर चौकीदार बाहर चला गया और पीछेपीछे जमुना भी. बाहर से गुड्डी के रोने और चिल्लाने की आवाजें आ रही थीं. चौकीदार उसे डपट कर फाटक बंद करने में लगा था.

‘‘सुम्मी, बच्चों को दिखा दो न, दिखाने भर को ही तो कह रही है, फिर वह भी एक मां है और एक मां की ममता को तुम से अधिक कौन समझ सकता है…’’

सुबोध कुछ और कहते कि सुमनलता ने ही बात काट दी थी.

‘‘नहीं, उस औरत को बच्चे बिलकुल नहीं दिखाने हैं.’’

आज पहली बार सुबोध ने सुमनलता का इतना कड़ा रुख देखा था. फिर जब सुमनलता की भरी आंखें और उन्हें धीरे से रूमाल निकालते देखा तो सुबोध को और भी विस्मय हुआ.

‘‘अच्छा चलूं, मैं तो बस, तुम्हें छोड़ने ही आया था,’’ कहते हुए सुबोध चले गए.

सुमनलता उसी तरह कुछ देर सोच में डूबी रहीं फिर मुड़ीं और दूसरे कमरों का मुआयना करने चल दीं.

2 दिन बाद एक दंपती किसी बच्चे को गोद लेने आए थे. उन्हें शिशुगृह में घुमाया जा रहा था. सुमन दूसरे कमरे में एक बीमार महिला का हाल पूछ रही थीं.

तभी गुड्डी एकदम बदहवास सी बरामदे में आई. आज बाहर चौकीदार नहीं था और फाटक खुला था तो सीधी अंदर ही आ गई. जमुना को वहां खड़ा देख कर गिड़गिड़ाते स्वर में बोली थी, ‘‘बाई, मुझे बच्चे देखने हैं…’’

उस की हालत देख कर जमुना को भी कुछ दया आ गई. वह धीरे से बोली, ‘‘देख, अभी मम्मीजी अंदर हैं, तू उस खिड़की के पास खड़ी हो कर बाहर से ही अपने बच्चों को देख ले. बिटिया तो स्लेट पर कुछ लिख रही है और बेटा पालने में सो रहा है.’’

‘‘पर, वहां ये लोग कौन हैं जो मेरे बच्चे के पालने के पास आ कर खडे़ हो गए हैं और कुछ कह रहे हैं?’’

जमुना ने अंदर झांक कर कहा, ‘‘ये बच्चे को गोद लेने आए हैं. शायद तेरा बेटा पसंद आ गया है इन्हें तभी तो उसे उठा रही है वह महिला.’’

‘‘क्या?’’ गुड्डी तो जैसे चीख पड़ी थी, ‘‘मेरा बच्चा…नहीं मैं अपना बेटा किसी को नहीं दूंगी,’’ रोती हुई पागल सी वह जमुना को पीछे धकेलती सीधे अंदर कमरे में घुस गई थी.

सभी अवाक् थे. होहल्ला सुन कर सुमनलता भी उधर आ गईं कि हुआ क्या है.

उधर गुड्डी जोरजोर से चिल्ला रही थी कि यह मेरा बेटा है…मैं इसे किसी को नहीं दूंगी.

झपट कर गुड्डी ने बच्चे को पालने से उठा लिया था. बच्चा रो रहा था. बच्ची भी पास सहमी सी खड़ी थी. गुड्डी ने उसे भी और पास खींच लिया.

‘‘मेरे बच्चे कहीं नहीं जाएंगे. मैं पालूंगी इन्हें…मैं…मैं मां हूं इन की.’’

‘‘मम्मीजी…’’ सुमनलता को देख कर जमुना डर गई.

‘‘कोई बात नहीं, बच्चे दे दो इसे,’’ सुमनलता ने धीरे से कहा था और उन की आंखें नम हो आई थीं, गला भी कुछ भर्रा गया था.

जमुना चकित थी, एक मां ने शायद आज एक दूसरी मां की सोई हुई ममता को जगा दिया था.            द्य

Mother’s Day 2024: प्यार का पलड़ा : कष्ट में सासू मां

सास की बिगड़ती स्थिति को देख कर तनु दुखी थी. वह मांजी को भरपूर सुख और आराम देना चाहती थी पर घर में काम इतना अधिक रहता था कि वह चाह कर भी मांजी की सेवा के लिए पूरा समय नहीं निकाल पाती थी.

जब से एक दुर्घटना में आभा के पैर की हड्डी टूटी, वह सामान्य नहीं हो पाई थीं. चूंकि आपरेशन द्वारा पैर में नकली हड्डी डाली गई थी जो उन्हें जबतब बेचैन कर देती और वह दर्द से घंटों कराहती रहतीं. कहतीं, ‘‘बहू, डाक्टरों ने मेरे पैर में तलवार तो नहीं डाल दी, बड़ी चुभ रही है.’’

दोनों बेटे उन्हें विश्वास दिलाते कि वे उन के पैर का आपरेशन दोबारा से करा देंगे, चाहे कितना भी रुपया क्यों न लग जाए.

आभा झुंझला उठतीं, ‘‘मेरे बूढ़े जिस्म को कितनी बार कटवाओगे. साल भर से यही कष्ट तो भोग रही हूं. पहले दुर्घटना फिर आपरेशन, कब तक बिस्तर पर पड़ी रहूंगी.’’

डाक्टर से जब उन की परेशानी बताई जाती तो वे आश्वासन देते कि उन का आपरेशन संपूर्ण रूप से सफल हुआ है, उन्हें धीरेधीरे सहन करने की आदत पड़ जाएगी.

आभा बेंत के सहारे धीरेधीरे चल कर अपने बेहद जरूरी काम निबटातीं, परंतु उन का हर काम बड़ी मुश्किल से होता था.

वह रसोईघर में जाने का प्रयास करतीं तो छोटी बहू तनु उन्हें सहारा दे कर वापस उन के बिस्तर पर ले आती और थाली परोस कर उन्हें वहीं बिस्तर पर दे जाती.

बेटे कहते, ‘‘मां, 2 बहुओं के होते हुए तुम्हें रसोई में जाने की क्या जरूरत है.’’

आभा दुखी स्वर में  कहतीं, ‘‘कब तक बहुओं पर बोझ बनी रहूंगी.’’

बेटों ने मां की सेवा करने के लिए एक नौकरानी की व्यवस्था कर दी. परंतु बड़ी बहू लीना के काम ही इतने अधिक हो जाते कि नौकरानी को आभा की तरफ ध्यान देने की फुरसत ही नहीं मिल पाती थी.

लीना चाहे कुछ भी करे, उस के खिलाफ बोलने की हिम्मत पूरे घर में किसी के अंदर नहीं थी क्योंकि वह धनी घर से आई थी. घर में आधुनिक सुविधाओं के साधन फ्रिज, रंगीन टेलीविजन और स्कूटर आदि सामान अपने साथ लाई थी. नकद रुपए भी इतने मिले थे कि छत पर बड़ा कमरा उसी से बना था.

घर के लोगों के दब्बूपन का भरपूर लाभ लीना उठा रही थी. वह घर के कामों में हाथ न बंटा कर अधिकांश समय ऊपर  अपने कमरे में रहती थी और नौकरानी लीना को पुकार कर ऊपर ही अपने लिए चाय, बच्चों का दूध मंगाती रहती.

तनु ने नौकरानी पर सख्ती बरती, ‘‘तुम्हें मांजी की सेवा करने के लिए रखा गया है तो वही करो, फालतू का काम क्यों करती हो.’’

लीना तनु की बात से चिढ़ गई. तनु का मायका उस के मुकाबले कुछ भी नहीं था, फिर जब घर के लोग कुछ नहीं कहते तो वह कल की आई छोकरी कौन होती है मुंह चलाने वाली.

लीना ने ऊपर से ही लड़ना शुरू कर दिया कि छोटे बच्चों का साथ होने के कारण नौकरानी की जरूरत उसे अधिक है न कि मांजी को.

घर में फूट न पड़े इस डर से मांजी ने सब से कह दिया कि वह बगैर नौकरानी के अपना काम चला लेंगी, उन का काम ही कितना होता है.

तनु को सास में अपनी मां नजर आती. वह उन्हें घिसटघिसट कर पूजा का कमरा धोते व कपड़े धोते देखती तो दुखी हो जाती.

वह जेठानी से भी लगाव रखती और पूरे परिवार की एकता बनाए रखने का भरसक प्रयास करती थी.

मगर लीना की नजरों में तनु उसी दिन से आंख की किरकिरी बन गई थी. वह उस के खिलाफ बोलने का मौका ताकती और जब मौका मिलने पर बोलना शुरू करती तो उस की सातों पुश्तों को कोस डालती.

तनु फिर भी शांत बनी रह कर अपनेआप को सामान्य बनाए रखने की कोशिश करती रहती.

रवि कहता, ‘‘तुम ने भाभी के खिलाफ बोल कर उन से दुश्मनी पाल ली, जब भैया कुछ नहीं कहते तो तुम ने क्यों कहा?’’

‘‘मुझ से मांजी का कष्ट देखा नहीं जाता. फिर नौकरानी मांजी के लिए रखी गई थी.’’

‘‘इस घर के मालिक हम नहीं, भैयाभाभी हैं. वे जो चाहें कर सकते हैं,’’ रवि ने अपनी लाचारी दिखाई. यद्यपि वह मां को बहुत चाहता था पर उन के सुखआराम के लिए कुछ कर भी तो नहीं सकता था क्योंकि उस का वेतन बहुत साधारण था.

वह मां से आराम करने को कहता, पर वह पूरे दिन बिस्तर पर पड़ी ऊब जातीं.

वह दुर्घटना से पहले की अपनी दिनचर्या में अब भी उसी प्रकार जीना चाहती थीं.

एक दिन रवि ने अपनी मां को पूजाघर की सफाई करते देखा तो सख्ती दिखाते हुए बोला, ‘‘मां, मिट्टीपत्थर के इस भगवान पर फालतू का विश्वास करना छोड़ दो. तुम ने इन की इतनी अधिक पूजा की, इन पर आंख मूंद कर भरोसा किया फिर भी यह तुम्हारे साथ होने वाला हादसा नहीं रोक पाए.’’

‘‘तू हमेशा नास्तिकों जैसी बातें करता है. यह क्यों नहीं सोचता कि दुर्घटना में मेरी जान बच गई, भगवान की कृपा न होती तो मैं मर जाती.’’

‘‘तुम फालतू की अंधविश्वासी हो.’’

आभा के ऊपर बेटेबहुओं के समझाने का कोई असर नहीं पड़ता था. वह पैर के दर्द से कराहती हुई घिसट कर बालटी भर पानी से गणेशजी की तांबे से बनी प्रतिमा को रेत से मांज कर धोतीं और आरती उतार कर लड्डुओं का भोग लगातीं, तब जा कर भोजन का कौर उन के गले से नीचे उतरता था.

तनु को अटपटा लगता कि ऐसे तो मांजी का कष्ट और अधिक बढ़ जाएगा.

एक दिन तनु दरवाजे के बाहर खड़े ठेले वाले से सब्जी खरीद रही थी कि तभी उस की नजर एक लड़की पर पड़ी. लड़की ने फटेपुराने कपड़े पहने हुए थे और नौकरानी जैसी लग रही थी.

तनु ने पुकारा तो वह लड़की उस के नजदीक चली आई. पूछताछ करने पर पता लगा कि उस का नाम माया है और वह कुछ घरों में बरतन, कपड़े धोने व सफाई का काम करती है.

तनु ने उस से 200 रुपए महीने पर मांजी का पूरा काम करना तय कर लिया और सख्ती से ताकीद कर दी कि वह घर के किसी अन्य सदस्य के बहकावे में आ कर मांजी का काम नहीं छोड़ेगी.

माया ने उसी दिन से मांजी का काम करना शुरू कर दिया. उन का कमरा धोया, बिस्तर की चादर बदली और पैरों की मालिश की.

मांजी छोटी बहू का अपने प्रति प्रेम देख कर खुशी से गद्गद हो उठीं और देर तक बहू को आशीर्वाद देती रहीं तथा उस की प्रशंसा करती रहीं.

सास द्वारा तनु की प्रशंसा सुन कर बड़ी बहू लीना जलभुन कर राख हो गई और कहे बिना नहीं चूकी कि छोटी ने अपने पास से 200 रुपए महीने नौैकरानी पर खर्च कर के कोई तीर नहीं मार लिया. वह क्या घर के लिए कम खर्च कर रही है. पूरे दिन की नौकरानी तो उसी के पैसों की है.

ये भी पढ़ें- उपहार

तनु जेठानी की बात का बुरा न मान कर उसे समझाती रही कि दीदी हम दोनों मांजी की बेटियों के समान हैं. उन की किसी बात का बुरा नहीं मानना चाहिए.

लीना बदले की आग में झुलसती रही. उसे बुरा लगता कि सास ने तनु की रखी नौकरानी की जितनी प्रशंसा की उस से आधी भी कभी उस के मायके से मिले दहेज की नहीं की थी.

लीना चिढ़ती रही और तनु को नीचा दिखाने की ताकझांक में लगी रही.

सास का स्नेह तनु के तनमन में हिलोरें भर देता. उस ने पति से कह दिया कि वह अपने खर्चें में से कटौती कर के माया का वेतन चुकाती रहेगी. कम से कम सास को आराम तो मिल रहा है.

धीरेधीरे माया आभा के साथ सगी बेटी जैसी घुलमिल गई. वह रसोई में जा कर उन के लिए चाय व फुलके बना लाती, खिचड़ी बना कर अपने हाथ से खिला देती.

एक बार माया को किसी काम के सिलसिले में 4 दिन की छुट्टी लेनी पड़ गई तो आभा की परेशानी अधिक बढ़ गई. अब तो उन्हें अपने हाथों पानी की बालटी उठाने की आदत भी छूट चुकी थी, ऐसे में पूजाघर की सफाईधुलाई किस प्रकार से की जाए. तनु की भी हालत ऐसी नहीं थी कि वह कुछ काम कर सके क्योंकि वह गर्भावस्था में चक्कर और उलटियों से परेशान थी, फिर डाक्टर ने उसे वजन उठाने के लिए मना कर रखा था.

मां की परेशानी को देख कर बेटों ने उन के पूजाघर में ताला लगाते हुए कह दिया, ‘‘कभी 2-4 दिन गणेशजी को भी आराम कर लेने दो. माया आएगी तो सफाईधुलाई कर लेना.’’

पूजाघर में ताला डाले अभी तीसरा दिन ही बीता था कि उस बंद कमरे से आती बदबू के कारण घर में बैठना कठिन हो गया. शायद कोई चूहा मर कर सड़ गया था.

मां की चिंता व बेचैनी देख कर बेटों ने पूजाघर की चाबी मां को थमा दी और अपने काम पर चले गए.

गणेशजी की प्रतिमा से चिपके सड़े चूहे के जिस्म पर रेंगते कीड़ों को देख कर किसी की भी हिम्मत पूजाघर की सफाई करने की नहीं हुई, ऐसी गंदगी को कौन हाथ लगाए.

घर के लोगों ने जब जमादार को बुला कर चूहा फिंकवाने की बात की तो मांजी बिदक गईं और बोलीं, ‘‘हमारे पूजाघर में जमादार के जाते ही उस की पवित्रता नष्ट हो जाएगी. जमादार तो साक्षात चांडाल का रूप होता है.’’

वह बेटों पर क्रोधित होती रहीं कि यदि वे पूजाघर में ताला बंद नहीं करते तो वहां चूहा नहीं मरता.

बेटे कहते रहे, ‘‘तुम थाली भरभर कर लड्डू गणेशजी को भोग लगाती हो तभी पूजाघर में इतने अधिक चूहे हो गए हैं. और यह कैसे भगवान हैं जो चूहों से अपनी रक्षा नहीं कर पाए तो अपने भक्तों की रक्षा कैसे करेंगे?’’

मां और बेटों में सड़े चूहे को ले कर वादविवाद चलता रहा पर आभा किसी भी प्रकार नीच जाति के आदमी से गणेशजी की प्रतिमा का स्पर्श कराने को तैयार नहीं हुईं.

पूरा दिन घर के लोग पुरानी नौैकरानी को डांटडपट कर मरा चूहा उठाने को तैयार करते रहे पर वह कहती रही कि यह काम माया का है, वही करेगी.

अगले दिन सुबह माया आई तो सभी ने चैन की सांस ली. वह आते ही पूजाघर की सफाई में जुट गई. उस ने तुरतफुरत चूहा उठा कर फेंक दिया और गणेशजी की प्रतिमा को पहले तो रेत से रगड़रगड़ कर साफ किया फिर साबुन लगा कर नहलाया. फिनायल डाल कर पूजाघर की धुलाई की व कई अगरबत्तियां जला कर गणेशजी के सामने रख दीं.

आभा मुग्ध भाव से माया को देखती रहीं और उस के काम की सराहना कर के बारबार प्रशंसा करती रहीं.

माया सफाई का काम पूरा कर के 2 गिलासों में चाय डाल कर ले आई. एक मांजी को थमा दिया और दूसरा अपने मुंह से लगा कर चाय पीती हुई लापरवाही से बोली, ‘‘अम्मां, क्यों हमारी इतनी तारीफ करती हो, मरा हुआ चूहा हम नहीं फेंकेंगे तो कौन फेंकेगा. सफाई करना तो हमारा खानदानी काम है. हमारे दादा म्युनिसिपैलिटी के सफाई कर्मचारी थे. मां अस्पताल में मरीजों की गंदगी फेंकती हैं. पिता व चाचा मुरदाघर की लाशें ढोते हैं.’’

माया के मुंह से उस के खानदान के बखान को सुन कर मांजी की बोलती बंद होने लगी. वह लड़खड़ाती जबान से पूछने लगीं, ‘‘माया, तेरी जाति क्या है?’’

‘‘हम बाल्मीकि हैं, मांजी,’’ माया ऐसे बोली जैसे कितनी बड़ी पंडापुरोहित हो.

‘‘बाल्मीकि यानी कि जमादार?’’

‘‘हां, अम्मां, आप चाहे जो कह लो, वैसे हम हैं तो बाल्मीकि. आप ने रामायण में पढ़ा होगा कि बाल्मीकि के आश्रम में सीता माता रही थीं, उनके लवकुश वहीं पैदा हुए थे.’’

माया की बातें आभा के कानों से टकरा कर वापस लौट रही थीं. एक ही बात उन की समझ में आ रही थी कि माया अछूत कन्या है और उन के पूजाघर की सफाई अब तक उसी के हाथों से हो रही थी.

‘‘हाय, सबकुछ अपवित्र हो गया,’’ मांजी कराह उठी थीं.

तनु रसोईघर से माया की तरफ लपकी कि किसी प्रकार से इसे चुप करा सके, पर माया तो न जाने क्याक्या उगल चुकी थी और सकपकाई जड़ पड़ी मांजी से वह पूछ रही थी, ‘‘क्या हुआ, अम्मां?’’

लीना को आज बदला चुकाने का अवसर मिला था. फटाक से आ कर उस ने माया के गाल पर जोर से तमाचा जड़ दिया.

‘‘कलमुंही, कैसी भोली बन रही है, पूछ रही है क्या हुआ. अरे, क्या नहीं हुआ? तू ने मांजी का सारा धर्म भ्रष्ट कर दिया. गलती तो सारी छोटी बहू की है, जानबूझ कर घर में जमादारिन को ले आई,’’ लीना डांटने के अंदाज में बोली.

तनु भय से थरथर कांप रही थी. कितनी बड़ी गलती हो गई उस से, वह माया को काम पर रखने से पहले उस की जाति पूछना भूल गई थी.

वह सास के पैर पकड़ कर रोने लगी, ‘‘मांजी, मुझे माफ कर दीजिए. बहुत बड़ी गलती हो गई है मुझ से.’’

माया भी रो रही थी. बड़ी बहू ने इतनी जोर से तमाचा मारा था कि उस का गाल लाल हो गया था. उस पर उंगलियों के निशान उभर आए थे.

‘‘अच्छा, अब हम चलें अम्मां, हम से गलती हो गई. हम ने मरा चूहा फेंक कर गलती की, अपने खानदान की प्रशंसा कर के गलती की, हम अपनी गलती की माफी मांगते हैं, अम्मां. हमें अपनी पगार भी नहीं चाहिए,’’ माया उठ कर दरवाजे की तरफ चल दी.

मांजी को जैसे होश आया. लपक कर माया का हाथ कस कर थाम लिया और बोलीं, ‘‘अम्मां को किस के सहारे छोड़ कर जा रही है. अभी मेरा आखिरी वक्त नहीं आ गया कि तू छोड़ कर चल दी. और छोटी बहू, तुम से कोई गलती नहीं हुई है. यह रोना बंद करो और जा कर मुंह धो लो.’’

‘‘क्या? मांजी…आप…’’ तनु आश्चर्य से अटकअटक कर बोली. उस की समझ में मांजी का यह बदला हुआ रूप नहीं आ रहा था.

बाजी उलटी पड़ती देख लीना चुपचाप ऊपर चली गई.

माया की रुलाई फिर से फूट पड़ी थी पर यह खुशी के आंसू थे.

‘‘अम्मां, तुम ने मुझे माफ कर दिया, मैं ने तुम्हरा पूजाघर अपवित्र कर दिया था?’’ माया को जैसे विश्वास नहीं हो रहा था कि उस की नौकरी बनी रहेगी.

‘‘किसी ने कुछ अपवित्र नहीं किया,’’ मांजी निर्णयात्मक स्वर में बोलीं, ‘‘अपवित्रता तो मेरे मन में थी जो अब हमेशा के लिए निकल चुकी है. जा बेटी, माया, तू रसोईघर में जा कर अपने हाथों से मेरे लिए व अपने लिए रोटी सेंक कर ले आ. आज हम दोनों एकसाथ बैठ कर  खाना खाएंगे.’’

माया दौड़ती हुई रसोईघर में चली गई.

मांजी तनु से कह रही थीं, ‘‘आज से सारी छुआछूत बंद. इस माया ने बेटी से बढ़ कर मेरी सेवा की है, जरा सी बात पर क्या इसे निकाल दूंगी. और अगर यह चली गई तो मैं जीऊंगी कैसे. मेरी सेवा, मेरी देखभाल कौन करेगा? छोटी बहू, तुम्हारी यह खोज मेरे लिए बहुत लाभदायक साबित हुई है. माया ने मेरी बेटी की कमी पूरी कर दी.’’

तनु मन ही मन मुसकरा रही थी. जेठानी चाहे कितनी कोशिश कर ले, मांजी के प्यार का पलड़ा उसी की तरफ भारी रहेगा.

Mother’s Day 2024: अर्धविक्षिप्त बच्चे की मां का दर्द

आटा खत्म हो गया था किंतु सुदीर्घ की भूख नहीं, वह उसी प्रकार थाली पर हाथ रखे टुकुरटुकुर देख रहा था. 16 रोटियां वह खा चुका था. मां हो कर भी मैं उस की रोटियां गिन रही थी. फिर आटा गूंध कर सुदीर्घ को खिलापिला कर जब मैं उठी तो रात के साढ़े 10 बज रहे थे.

सुदीर्घ वहीं थाली में हाथ धो कर जमीन पर औंधा पड़ा सो रहा था, उसे किसी तरह खींच कर बिस्तर पर लिटाया. उस की मसहरी लगाई. इस के बाद मैं भी लेट गई.

सुदीर्घ मेरा 20 वर्षीय अर्द्घ्रविक्षिप्त पुत्र था. लगभग 5 वर्ष तक वह सामान्य बच्चों की तरह रहा फिर उस का शरीर तो बढ़ता गया किंतु मानसिक क्षमता जस की तस ही बनी रही. वह हंस कर या क्रोधित हो कर अपनी बात समझा देता था, शरीर से बलवान था. उस से 4 वर्ष बडे़ उस के भाई सुमीर में ऐसी किसी भी तरह की अस्वाभाविकता के लक्षण न थे. वह तीक्ष्ण बुद्घि का स्मार्ट युवक था और बहुत कम उम्र में ही प्रतियोगी परीक्षाओं द्वारा बैंक की नौकरी पा गया था.

मेरे पति, 2 बेटे और ‘मैं’ इस छोटे से परिवार में मानसिक शांति और सुकून न था. सुदीर्घ की भूख अस्वाभाविक थी, हर 2 घंटे में वह खाने के लिए बच्चों की तरह उपद्रव करता. उम्र बढ़ने के साथ उस में उन्मत्तता भी बढ़ती गई. उन्मत्तता की स्थिति में वह चीखता, चिल्लाता, कपड़े फाड़ डालता और पकड़ने वाले पर हिंसक आक्रमण भी कर देता था. उस के पिता और भाई उसे पकड़ कर नींद का इंजेक्शन देते और कमरे में बंद कर देते.

1-2 वर्ष के बाद उस मेें एक समस्या और उत्पन्न हो गई थी. वह लड़कियों और औरतों के प्रति तीव्र आकर्षण महसूस करता एवं अशोभ- नीय हरकतें करने लगा था. कभी काम वाली बाई को परेशान करता. कभी महल्लेटोले की लड़कियों और महिलाओं को घूरता, उन्हें छूने का प्रयास करता. उस की इन आदतों की वजह से ही मैं उसे कहीं भी ले कर नहीं जाती थी.

दीदी के बेटे के विवाह की घटना तो मैं भूल ही नहीं सकती. उन के बहुत अनुरोध पर मैं मय परिवार वहां पहुंची. सुदीर्घ उन के महीनों के लिए बनाए लडडुओं, मठरियों को 2 ही दिन में चट कर गया, रिश्तों की बहनों के साथ भी वह अनापशनाप हरकतें करता, उन के करीब जाने की कोशिश करता, लोग उसे पागल समझ कर टाल जाते, उस पर हंसते और मैं खून का घूंट पी कर रह जाती.

विवाह की पूर्व रात्रि को तो उस ने हद ही कर दी, लड़कियों के बीच जा कर लेट गया. मना करने पर उपद्रव करने लगा. उसे दवा वगैरह दे कर हम उसी रात किराए की कार से लौट गए. उस के बाद मैं ने उसे ले कर कहीं न जाने की कसम खा ली.

मानसिक शांति के अभाव में सुमीर भी घर में कम ही रहता. उस के पिता भी पूरापूरा दिन बाहर बैठ कर अखबार पढ़ते रहते, केवल खाने और सोने को अंदर आते. सुदीर्घ का पूरा दायित्व मुझ पर था. वह मुझे भी धकिया देता, नोच लेता किंतु प्यार से समझाने पर केवल मेरी ही बात सुनता.

एक दिन काम वाली बाई ने मुझ से कहा, ‘माताजी, आप भैया की शादी क्यों नहीं कर देतीं?’

‘कौन लड़की देगा उस को?’ मैं ने उदासीनता से कहा.

‘अरे, गरीब घर की लड़कियां बहुतेरी मिलेंगी, शादी के बाद वह ठीक भी हो जाएंगे.’

मैं ने ‘हां, हूं’ कर दिया, गरीब घर की लड़की की क्या जिंदगी नहीं होती. गुस्से में कहीं उसे मार ही डाले तो कौन जिम्मेदार होगा.

उसी दिन शाम को सुदीर्घ ने काम वाली बाई पर आक्रमण कर दिया. मैं और सुदीर्घ के पापा बाहर बैठे चाय पी रहे थे. नींद का इंजेक्शन लिए सोते सुदीर्घ के प्रति हम निश्चिंत थे. अचानक चीख सुन कर अंदर गए, आंगन में बाई को पकड़ कर कमरे की ओर घसीटते सुदीर्घ को चीख कर मैं ने सावधान किया फिर बाई को छुड़ाने लगी तो उस ने मुझे दानव की तरह धकेल दिया.

हक्केबक्के खड़े उस के पिता ने पास रखी सुमीर की हाकी उठा ली और पागलों की तरह उस पर टूट पड़े. मैं उसे बचाने को आगे बढ़ी और लड़खड़ा कर गिरी और अचेत हो गई. आंखें खुलने पर सुमीर व उस के पिता को अपने पास बैठे पाया.

‘सुदीर्घ कहां है?’ मैं ने पूछा था.

‘यहीं है, घर के बाहर बैठा है,’ सुमीर के पिता ने कहा.

‘बाहर, अरे, कहीं भाग जाएगा?’

‘भाग जाने दो नालायक को. खानेपीने व आराम की खूब समझ है लेकिन अन्य बातों के लिए पागल बन जाता है.’ उस के पिता गुस्से से लाल थे.

मैं रोने लगी. सुमीर ने मुझे समझाया, ‘मां, आप परेशान क्यों हो रही हैं. वह यहीं दरवाजे के बाहर बैठा है. पापा ने उसे पीट कर बाहर निकाला है. सही और गलत की समझ उसे होनी चाहिए, यह सजा जरूरी है, कब तक लाड़प्यार में हम उस की भद्दी हरकतों को बरदाश्त करते रहेंगे.’

मुझे बाई वाली घटना का ध्यान आया, लज्जा आ गई. यह विवेकहीन, बुद्धिहीन, निरा पागल लड़का मेरी ही तो कोख की संतान था. रात में सब के सोने पर मैं धीरे से उठी, रात के 11 बज रहे थे. बेचारा, बिना खाएपिए बाहर बैठा था, किंतु दरवाजा खोलने पर वहां सुदीर्घ नहीं मिला.

सुमीर व उस के पिता को जगाया. दोनों स्कूटर ले कर आसपास का पूरा इलाका छान आए किंतु वह कहीं नहीं मिला. एक राहगीर ने बताया कि उन्होंने एक गोरे, स्वस्थ लड़के को ट्रक के पीछे लटक कर जाते देखा था. पुलिस को खबर की गई किंतु उस का कहीं अतापता न चला.

दिन के बाद महीने और अब साल बीतने को आ रहा था. सुदीर्घ न लौटा न उस का कोई सुराग मिला. हम भी रोरो कर थक चुके थे.

परिजनों की सलाह पर अब हम सुमीर के विवाह का सपना देखने लगे. घर में पायल और चूडि़यों की छनक गूंजेगी, जीने का एक बहाना मिल गया. जीवन में एक लय उत्पन्न हो गई किंतु तभी एक दिन पुलिस हमारे दरवाजे पर आ खड़ी हुई. बताया, सुदीर्घ का पता चल गया था, उस ने एक नशेड़ीगंजेड़ी साधु की संगत में पूरा साल बिता दिया था. निश्चय ही वह भी नशा करने लगा था.

ये भी पढ़ें- अगला मुरगा

पुलिस जीप में हम तीनों हैरान- परेशान बैठ गए, शहर से लगभग 50-55 किलोमीटर दूर एक छोटे से गांव में पुलिस हमें ले कर पहुंची. आगे जो दृश्य हम ने देखा उसे किस तरह सहन किया यह केवल हम ही जानते हैं.

वहां सुदीर्घ नहीं उस की क्षतविक्षत सड़ीगली देह पड़ी थी. तेज रफ्तार से जाते किसी ट्रक की चपेट में वह आ गया था और नशे में धुत उस के साथी को अपनी ही खबर नहीं थी तो उस की क्या होती.

कई दिन बाद गांव वालों की खबर पर पुलिस आई. उस के साथ सुदीर्घ की फोटो व पहचान का मिलान कर के हमें सूचित किया गया था.

सुदीर्घ के शव को जीप में डाल हम लौैट चले. उस का सिर उस के पिता की गोद में पड़ा था. वे पश्चात्ताप की आग में जलते रो रहे थे. उन्होेंने ही उसे घर से निकाला जो था.

मुझे याद आ रहा था कि उस के जन्म पर कितना जश्न मनाया गया था. वह था भी गोलमटोल, प्यारा सा. कितने सपने बुने थे उसे ले कर. लेकिन उस के बड़े होतेहोते सब टूट गए. वह विधि के विधान का एक ‘मजाक’ बन कर रह गया, आश्रित, बलिष्ठ पर बुद्धिहीन. सभ्य लोगों की दुनिया का असभ्य, हिंसक सदस्य, अपने सभी कर्म, कुकर्मों का लेखाजोखा छोड़ पंच तत्त्व में विलीन हो गया.

मैं हमेशा उस के बचपन की यादों में खोई रहती, पगपग पर सुमीर के पिता व सुमीर मुझे संभालतेसमझाते. उन्हीं कठिन परिस्थितियों में ‘इन की’ बड़ी बहन सुमीर के लिए ‘रम्या’ का रिश्ता ले कर आईं. हम ने ‘हां’ कर दी. चट मंगनी पट ब्याह हो गया.

सुंदर, कोमल, बुद्धिमान, शिक्षित ‘रम्या’ हमारे घर खुशियों का झोंका ले कर पहुुंची. टूटे हृदय वाले हम 3 लोगों को उस ने बखूबी संभाल लिया. आराम से बैठ कर रोटी खाने का क्या आनंद होता है वह तो अब हम ने जाना था. मैं और सुमीर के पिता टेलीविजन देखते हुए चाय की चुस्कियां लेते, बातें करते हुए शाम को झोला लिए बाजारहाट कर आते. लौटने पर घर साफसुथरा चमकता हुआ मिलता. गरमागरम भोजन मेज पर सजा रहता.

महल्ले की लड़कियों व औरतों का जमघट अब हमारे घर लगा रहता. पहले जो सुदीर्घ के कारण आसपास नहीं फटकती थीं अब रम्या के सुंदर स्वभाव के आकर्षण में बंधी चली आतीं. उन की चहचहाहटों, खिलखिलाहटों में हम अपने जीवन का लुत्फ उठाते. सुमीर आफिस के बाद अब हर समय घर पर ही बना रहता. जीवन की इन छोटीछोटी खुशियों में इतना आनंदरस होता है, यह हम ने अब जाना. महीने दो महीने में हम रिश्तेदारों के घर भी चक्कर लगा आते और वे भी चले आते. हमें अब जीवन से कोई शिकायत नहीं रह गई थी.

आज दोपहर को खाकी वरदी वाले पुन: ढेरों आशंकाएं लिए जीप में आए. और इन को सुदीर्घ की एक फोटो दिखाई, ‘‘यह आप का लड़का है?’’

‘‘हां, लेकिन इस की मृत्यु हो चुकी है?’’

‘‘नहीं, यह जिंदा है,’’ पुलिस अधिकारी हंस कर बोला.

‘‘मैं कैसे विश्वास करूं, अपने हाथों उस का दाहसंस्कार किया है मैं ने,’’ सुमीर के पिता परेशान थे.

‘‘क्या उस को देख कर आप को लगा था कि वह आप का ही बेटा है, मेरा मतलब सारे पहचान चिह्न आदि?’’

हम में से किसी ने कोई जवाब नहीं दिया. पहचानलायक शरीर तो था ही नहीं, वह तो इस कदर बुरी हालत में था कि उस में पहचान के चिह्न खोजना ही मुश्किल था. सच, किसी अपरिचित भिखारी की मृत देह को दुलारते, पुचकारते, आंसुओं की गंगा बहाते हम ने मुखाग्नि दे डाली थी.

अगले दिन अपने चिरपरिचित अंदाज में सुदीर्घ हमारे सामने खड़ा था. कुछ आवश्यक औपचारिकता पूरी कर के उसे हमें सौंप दिया गया था. इन डेढ़ सालों तक वह किसी अमीर व्यापारी के फार्म हाउस में पड़ा था. वहीं मजदूरों के बीच सुमीर के एक मित्र ने उसे पहचाना था जो वहीं नौकरी कर रहा था, जिस के चलते सुदीर्घ आज हमारी आंखों के सामने खड़ा था.

वह सभी कमरों में घूमता रहा. मेरे पास आया, पिता के पास गया फिर रम्या के पास जा कर ठिठक गया, उस के चारों ओर गोलगोल घूमते हुए वह हंसने लगा. उस के जोरजोर से हंसने से भयभीत हो कर रम्या अपने कमरे की ओर दौड़ी, पीछे वह भी दौड़ा, सुमीर उसे पकड़ कर उस के कमरे में ले गया.

बहुत दिनों बाद मैं ने रसोई में जा कर उस के लिए ढेर सारा खाना बनाया. शाम तक सुदीर्घ के आने की खबर आग की तरह महल्ले में फैल गई. काम वाली बाई ने न आने का समाचार भिजवा दिया. रम्या की सहेलियां बाहर से ही उलटे पांव लौट गईं. रात गहराने से पहले सुमीर, रम्या को अपना सामान पैक करते देख मैं सन्न रह गई.

‘‘मम्मी, अब रम्या का यहां रहना मुश्किल होगा. सुदीर्घ को या तो मानसिक अस्पताल में भरती करवा दो या उस की कहीं भी शादी करवा दो,’’ सुमीर ने कहा.

वह ठीक कह रहा था. मैं और उस के पिता आंखों में आंसू भरे उन्हें जाते विवशता से देखते रहे. हम हताश व निराश थे. अंदर कमरे से खापी कर सो रहे सुदीर्घ के खर्राटों की आवाज आ रही थी. घर में सन्नाटा छाया था. चलती हुई हवा की आवाज भी कान में शोर पैदा कर रही थी.

‘‘हम ने उसे जन्म दिया है, सड़क पर थोड़े ही न फेंक देंगे, उस की जिम्मेदारी तो हमें ही वहन करनी होगी. लेकिन कल तक कितने खुश थे न हम, आज सब हमें छोड़ कर चल दिए,’’ सुमीर के पिता धीरेधीरे कह रहे थे मानो खुद से बतिया रहे हों.

मन की सारी खिन्नता, क्षोभ, असंतोष, दुख और शायद तनिक स्वार्थ से प्रेरित, भरे मन से यह एक वाक्य निकला, ‘‘काश, जिस अपरिचित व्यक्ति का हम ने अंतिम संस्कार किया था वह सुदीर्घ ही होता.’’

सुमीर के पिता चौंक कर मुझे देखने लगे, क्या यह एक अपने कोख से जन्मे पुत्र के लिए मां के कथन थे?

बेटियां : क्या श्वेता बन पाई उस बूढ़ी औरत का सहारा

‘‘ओफ्फो, आज तो हद हो गई…चाय तक पीने का समय नहीं मिला,’’ यह कहतेकहते डाक्टर कुमार ने अपने चेहरे से मास्क और गले से स्टेथोस्कोप उतार कर मेज पर रख दिया.

सुबह से लगी मरीजों की भीड़ को खत्म कर वह बहुत थक गए थे. कुरसी पर बैठेबैठे ही अपनी आंखें मूंद कर वह थकान मिटाने की कोशिश करने लगे.

अभी कुछ मिनट ही बीते होंगे कि टेलीफोन की घंटी बज उठी. घंटी की आवाज सुन कर डाक्टर कुमार को लगा यह फोन उन्हें अधिक देर तक आराम करने नहीं देगा.

‘‘नंदू, देखो तो जरा, किस का फोन है?’’

वार्डब्वाय नंदू ने जा कर फोन सुना और फौरन वापस आ कर बोला, ‘‘सर, आप के लिए लेबर रूम से काल है.’’

आराम का खयाल छोड़ कर डाक्टर कुमार कुरसी से उठे और फोन पर बात करने लगे.

‘‘आक्सीजन लगाओ… मैं अभी पहुंचता हूं्…’’ और इसी के साथ फोन रखते हुए कुमार लंबेलंबे कदम भरते लेबर रूम की तरफ  चल पड़े.

लेबर रूम पहुंच कर डाक्टर कुमार ने देखा कि नवजात शिशु की हालत बेहद नाजुक है. उस ने नर्स से पूछा कि बच्चे को मां का दूध दिया गया था या नहीं.

‘‘सर,’’ नर्स ने बताया, ‘‘इस के मांबाप तो इसे इसी हालत में छोड़ कर चले गए हैं.’’

‘‘व्हाट’’ आश्चर्य से डाक्टर कुमार के मुंह से निकला, ‘‘एक नवजात बच्चे को छोड़ कर वह कैसे चले गए?’’

‘‘लड़की है न सर, पता चला है कि उन्हें लड़का ही चाहिए था.’’

‘‘अपने ही बच्चे के साथ यह कैसी घृणा,’’ कुमार ने समझ लिया कि गुस्सा करने और डांटडपट का अब कोई फायदा नहीं, इसलिए वह बच्ची की जान बचाने की कोशिश में जुट गए.

कृत्रिम श्वांस पर छोड़ कर और कुछ इंजेक्शन दे कर डाक्टर कुमार ने नर्स को कुछ जरूरी हिदायतें दीं और अपने कमरे में वापस लौट आए.

डाक्टर को देखते ही नंदू ने एक मरीज का कार्ड उन के हाथ में थमाया और बोला, ‘‘एक एक्सीडेंट का केस है सर.’’

डाक्टर कुमार ने देखा कि बूढ़ी औरत को काफी चोट आई थी. उन की जांच करने के बाद डाक्टर कुमार ने नर्स को मरहमपट्टी करने को कहा तथा कुछ दवाइयां लिख दीं.

होश आने पर वृद्ध महिला ने बताया कि कोई कार वाला उन्हें टक्कर मार गया था.

‘‘माताजी, आप के घर वाले?’’ डाक्टर कुमार ने पूछा.

‘‘सिर्फ एक बेटी है डाक्टर साहब, वही लाई है यहां तक मुझे,’’ बुढ़िया ने बताया.

डाक्टर कुमार ने देखा कि एक दुबलीपतली, शर्मीली सी लड़की है, मगर उस की आंखों से गजब का आत्म- विश्वास झलक रहा है. उस ने बूढ़ी औरत के सिर पर हाथ फेरते हुए तसल्ली दी और कहा, ‘‘मां, फिक्र मत करो…मैं हूं न…और अब तो आप ठीक हैं.’’

वृद्ध महिला ने कुछ हिम्मत जुटा कर कहा, ‘‘श्वेता, मुझे जरा बिठा दो, उलटी सी आ रही है.’’

इस से डाक्टर कुमार को पता चला कि उस दुबलीपतली लड़की का नाम श्वेता है. उन्होंने श्वेता के साथ मिल कर उस की मां को बिठाया. अभी वह पूरी तरह बैठ भी नहीं पाई थी कि एक जोर की उबकाई के साथ उन्होंने उलटी कर दी और श्वेता की गुलाबी पोशाक उस से सन गई.

मां शर्मसार सी होती हुई बोलीं, ‘‘माफ करना बेटी…मैं ने तो तुम्हें भी….’’

उन की बात बीच में काटती हुई श्वेता बोली, ‘‘यह तो मेरा सौभाग्य है मां कि आप की सेवा का मुझे मौका मिल रहा है.’’

श्वेता के कहे शब्द डाक्टर कुमार को सोच के किसी गहरे समुद्र में डुबोए चले जा रहे थे.

‘‘डाक्टर साहब, कोई गहरी चोट तो नहीं है न,’’ श्वेता ने रूमाल से अपने कपड़े साफ करते हुए पूछा.

‘‘वैसे तो कोई सीरियस बात नहीं है फिर भी इन्हें 5-6 दिन देखरेख के लिए अस्पताल में रखना पड़ेगा. खून काफी बह गया है. खर्चा तकरीबन….’’

‘‘डाक्टर साहब, आप उस की चिंता न करें…’’ श्वेता ने उन की बात बीच में काटी.

‘‘कहां से करेंगी आप इंतजाम?’’ दिलचस्प अंदाज में डाक्टर ने पूछा.

‘‘नौकरी करती हूं…कुछ जमा कर रखा है, कुछ जुटा लूंगी. आखिर, मेरे सिवा मां का इस दुनिया में है ही कौन?’’ यह सुन कर डाक्टर कुमार निश्चिंत हो गए. श्वेता की मां को वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया.

इधर डाक्टर ने लेबररूम में फोन किया तो पता चला कि नवजात बच्ची की हालत में कोई सुधार नहीं है. वह फिर बेचैन से हो उठे. वह इस सच को भी जानते थे कि बनावटी फीड में वह कमाल कहां जो मां के दूध में होता है.

डाक्टर कुमार दोपहर को खाने के लिए आए तो अपने दोनों मरीजों के बारे में ही सोचते रहे. बेचैनी में वह अपनी थकान भी भूल गए थे.

शाम को डाक्टर कुमार वार्ड का राउंड लेने पहुंचे तो देखा कि श्वेता अपनी मां को व्हील चेयर में बिठा कर सैर करा रही थी.

‘‘दोपहर को समय पर खाना खाया था मांजी ने?’’ डाक्टर कुमार ने श्वेता से मां के बारे में पूछा.

‘‘यस सर, जी भर कर खाया था. महीना दो महीना मां को यहां रहना पड़ जाए तो खूब मोटी हो कर जाएंगी,’’ श्वेता पहली बार कुछ खुल कर बोली. डाक्टर कुमार भी आज दिन में पहली बार हंसे थे.

वार्ड का राउंड ले कर डाक्टर कुमार अपने कमरे में आ गए. नंदू गायब था. डाक्टर कुमार का अंदाजा सही निकला. नंदू फोन सुन रहा था.

‘‘जल्दी आइए सर,’’ सुन कर डाक्टर ने झट से जा कर रिसीवर पकड़ा, तो लेबर रूम से नर्स की आवाज को वह साफ पहचान गए.

‘‘ओ… नो’’, धप्प से फोन रख दिया डाक्टर कुमार ने.

नवजात बच्ची बच न पाई थी. डाक्टर कुमार को लगा कि यदि उस बच्ची के मांबाप मिल जाते तो वह उन्हें घसीटता हुआ श्वेता के पास ले जाता और ‘बेटी’ की परिभाषा समझाता. वह छटपटा से उठे. कमरे में आए तो बैठा न गया. खिड़की से परदा उठा कर वह बाहर देखने लगे.

सहसा डाक्टर कुमार ने देखा कि लेबर रूम से 2 वार्डब्वाय उस बच्ची को कपड़े में लपेट कर बाहर ले जा रहे थे… मूर्ति बने कुमार उस करुणामय दृश्य को देखते रह गए. यों तो कितने ही मरीजों को उन्होंने अपनी आंखों के सामने दुनिया छोड़ते हुए देखा था लेकिन आज उस बच्ची को यों जाता देख उन की आंखों से पीड़ा और बेबसी के आंसू छलक आए.

डाक्टर कुमार को लग रहा था कि जैसे किसी मासूम और बेकुसूर श्वेता को गला घोंट कर मार डाला गया हो.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें