मैं सोचने लगा, भला वह इंसान मेरा पिता कैसे हो सकता है जिस ने कभी मुझे मेरी मां से जोड़ने का प्रयास नहीं किया? फिर भी मैं उन से मिलने चला गया. मेरे पहुंचने पर वे बस, मेरा हाथ पकड़े लेटे रहे और फिर सब समाप्त हो गया. अमेरिका से उन के बच्चे भला इतनी जल्दी कैसे आ सकते थे? ताऊजी ने मेरे हाथों ही उन का दाहसंस्कार करवाया. जब मैं लौटने लगा तो ताऊजी ने ही टोक दिया, ‘‘कुछ दिन अपनी मां के पास रह ले, वह अकेली है.’’
मैं 7 दिनों से उस घर में था, पर एक बार भी मां ने मुझे पुकारा नहीं था. उस ने अपने विदेशी बच्चों का नाम लेले कर मृतपति का विलाप तो किया था, मगर मुझ से लिपट कर तो एक बार भी नहीं रोई थी. फिर ऐसी कौन सी डोर थी, जिसे ताऊजी अभी भी गांठ पर गांठ डाल कर जोड़़े रखने का प्रयास कर रहे थे? जब मैं बैग उठा कर चलने लगा, तब मां की आवाज कानों में पड़ी, ‘‘कुशल से कह दीजिए, आशा से मिले तो बता दे कि उस का काम हो जाएगा. शारदा उस का अधिकार उसे देने को तैयार है.’’
तब जैसे पैरों के नीचे से जमीन ही खिसक गईर् थी. ताऊजी की तरफ प्रश्नसूचक भाव से देखा. पता चला, शारदा आशा की सास का नाम है और आशा अपनी ससुराल में अपना स्थान पाने के लिए अकसर मां को फोन करती है.
मैं वापस तो चला आया, परंतु पूरे रास्ते आशा के व्यवहार का अर्थ खोजता रहा. उस ने तो कभी नहीं बताया था कि वह मेरी मां को जानती है और अकसर उन से फोन पर बातचीत करती है.
शाम को मैं अस्पताल में ही था कि आशा चली आई. इतने दिनों बाद उसे देख खून में एक लहर सी उठी. उसे पास तो बिठा लिया, परंतु अविश्वास ने अपना फन न झुकाया.
चंद पलों के बाद वह बोली, ‘‘आप की मां अब अकेली रह गई हैं न. आप उन्हें भी साथ ही ले आते. उन के बच्चे भी तो उन के पास नहीं हैं. आप को उन का सहारा बनना चाहिए.’’
मैं हैरान रह गया और सोचने लगा कि कोई बताए मुझे, तब मुझे किस का सहारा था, जब मां ने 6 साल के बच्चे को ताऊजी की चौखट पर पटका था? क्या उस ने सोचा था कि अनाथ बच्चा कैसे पलेगा? सारे के सारे भाषण मेरे लिए ही क्यों भला? सहसा मुझे याद आया, आशा तो मेरी मां को जानती है. कहीं अपनी ससुराल में अपना अधिकार पाने के लिए मां की वकालत का जिम्मा तो नहीं ले लिया इस ने?
मेरे मन में शक और क्रोध का एक ज्वार सा उठा और आशा को वहीं बैठा छोड़ मैं बाहर निकल गया. उसी रात मां का फोन आ गया. लेकिन ‘हूं…हां’ में ही बात हुई. मां ने मुझे बुलाया था.
सुबह ही त्रिचूर के लिए गाड़ी पकड़ ली. सोचा था मां की गोद में सिर छिपा कर ढेर सारा ममत्व पा लूंगा, मगर वहां तो उन्होंने एक बलिवेदी सजा रखी थी. ताऊजी भी वहीं थे. पता चला कि मां ने आशा की ननद को मेरे लिए चुन रखा है. उस की तसवीर भी उन्होंने मेरे सामने रख दी, ‘‘नीरा पसंद आएगी तुम्हें…’’
‘‘नीरा कौन?’’ मैं अवाक रह गया.
‘‘आशा ने तुम्हें सब समझा कर नहीं भेजा? मैं ने उस से कहा था कि तुम्हें अच्छी तरह समझाबुझा कर भेजे. देखो कुशल, मेरी सारी जायदाद तुम्हारी है. मेरे बच्चों ने वापस आने से इनकार कर दिया है. सब तुम्हें दे दूंगी. बस, नीरा के लिए हां कर दो.’’
मैं हक्काबक्का रह गया. हताश नजरों से ताऊजी को देखा और सोचा कि मेरी मां और आशा दोनों ही सौदेबाज निकलीं. आशा को ससुराल में अपना अधिकार चाहिए और उस के लिए उस ने मुझे मेरी मां के हाथों बेच दिया.
शाम को कोचीन पहुंच कर अपना सारा गुस्सा आशा पर उतारा. वह मेरे उठे हुए हाथ को देख सन्न रह गई. उस के आंसू से भरे चेहरे पर कईर् भाव जागे थे. मानो कुछ कहना चाहती हो, मगर मैं रुका ही नहीं. मेरे लिए सब फिर समाप्त हो गया.
एक दिन सुबहसुबह ताऊजी आ पहुंचे. मेरी अस्तव्यस्त दशा पर वे भीग से गए, ‘‘मुन्ना, तुझे क्या हुआ है?’’
‘‘कुछ भी तो नहीं,’’ जी चाह रहा था, चीखचीख कर आसमान सिर पर उठा लूं.
तभी ताऊजी बोले, ‘‘आशा की सास ने उस का सामान भेजा है, उसे दे आना.’’ उन्होंने एक अटैची की तरफ इशारा किया.
मैं क्रोध से भर उठा कि यही वह सामान है, जिस के लिए आशा मुझे छलती रही. आक्रोश की पराकाष्ठा ही थी जो उठ कर अटैची खोल दी और उस का सारा सामान उलटपलट कर पैरों से रौंद डाला.
तभी एक झन्नाटेदार हाथ मेरे गाल पर पड़ा, ‘‘मुन्ना,’’ ताऊजी चीखे थे, ‘‘एक विधवा से शादी करना चाहते हो, क्या यही सम्मान करोगे उस के पूर्व पति का? अरे, जब तुम उस का सम्मान ही नहीं कर पाओगे तो उस के साथ न्याय क्या करोगे? अतीत की यादों से लिपटी किसी विधवा से शादी करने के लिए बहुत बड़ा कलेजा चाहिए. उस के पति का अपमान कर रहे हो और दावा करते हो कि उस से प्यार करते हो?’’
मेरे पैरों के नीचे शायद आशा के पति की चंद तसवीरें थीं. एक पुरुष के कुछ कपड़े इधरउधर बिखरे पड़े थे. ताऊजी की आंखें आग उगल रही थीं. ऐसा लगा, एक तूफान आ कर चला गया.
थोड़ी देर बाद खुद ही आशा का सामान सहेज कर मैं ने अटैची में रखा और तसवीरें इकट्ठी कर एक तरफ रखीं. फिर अपराधभाव लिए ताऊजी के पास बैठा.
वे गंभीर स्वर में बोले, ‘‘तुम आशा के लायक नहीं हो.’’
‘‘मैं ने सोचा था, उस ने मुझे छला है,’’ मैं धीरे से बोला.
‘‘क्या छला है, उस ने? तुम्हारी मां से यह जरा सामान मंगवाया, पर बदले में क्याक्या दिला दिया तुम्हें. क्या इसी विश्वास के बल पर उस का हाथ पकड़ोगे?’’
मैं चुपचाप रहा था.
‘‘देखो कुशल, आशा मेरी बेटी जैसी है. अगर 25 साल पहले मैं अपनी विधवा भाभी का पुनर्विवाह किसी योग्य पुरुष से करवा सकता था तो अब 25 साल बाद आशा को तुम्हारे जैसे खुदगर्ज से बचा भी सकता हूं. इतना दम है अभी इन बूढ़ी हड्डियों में.’’
‘‘मैं खुदगर्ज नहीं,’’ बड़ी मुश्किल से मैं ने अपने होंठ खोले. फिर उसी पल आशा का सामान उसे देने गया.
वह मेरे हाथों में विजय का सामान देख कर हतप्रभ थी. अपने पति की तसवीरें देख कर वह हैरान रह गई.
मैं ने धीरे से कहा, ‘‘यह सामान तुम्हारे लिए अमूल्य था. मैं तुम्हारी भावनाओं का बहुत सम्मान करता हूं. पर कम से कम मुझे सच तो बतातीं. लेकिन मेरी मां से क्यों मांगा यह सब? सौदेबाजी क्यों की आशा? क्या मेरे बारे में एक बार भी नहीं सोचा?
‘‘तुम ने सोचा, वह औरत जमीन, जायदाद के लोभ से मुझे खरीद लेगी. लेकिन मैं तो पहले से ही तुम्हारे हाथों बेमोल बिक चुका था. क्या कोई बारबार बिक सकता है? फिर यह सामान मंगा कर तुम ने कोई चोरी तो नहीं की? तुम रिश्तों के प्रति ईमानदार हो, तभी तो मैं भी तुम से प्यार करता हूं.’’
आशा मुझे एकटक देख रही थी. मुझे पता ही नहीं चला कि कब और कैसे मैं रो पड़ा.
आशा ने अटैची खोल कर उस में से विजय के कपड़े निकाले. एकएक कपड़े के साथ उस की एकएक याद जुड़ी थी. फिर वह फफकफफक कर रो पड़ी.
मैं ने आशा को अपनी बांहों में ले लिया. फिर आंसू पोंछ उस का माथा चूम लिया. वह मेरी छाती में समाई बिलखने लगी.
‘‘बस आशा, अब मेरे साथ चलो, ताऊजी आए हुए हैं. आज सारी बात तय हो जाएगी,’’ कहते हुए मैं ने उस के माथे पर ढेर सारे चुंबन अंकित कर दिए.