Serial Story: घर लौट जा माधुरी भाग 1

रात के साढ़े 10 बज रहे थे. तृप्ति खाना खा कर पढ़ने के लिए बैठी थी. वह अपने जरूरी नोट रात में 11 बजे के बाद ही तैयार करती थी. रात में गली सुनसान हो जाती थी. कभीकभार तो कुत्तों के भूंकने की आवाज के अलावा कोई शोर नहीं होता था.

तृप्ति के कमरे का एक दरवाजा बनारस की एक संकरी गली में खुलता था. मकान मालकिन ऊपर की मंजिल पर रहती थीं. वे विधवा थीं. उन की एकलौती बेटी अपने पति के साथ इलाहाबाद में रहती थी.

नीचे छात्राओं को देने के लिए 3 छोटेछोटे कमरे बनाए गए थे. 2 कमरों के दरवाजे अंदर के गलियारे में खुलते थे. उन दोनों कमरों में भी छात्राएं रहती थीं.

ये भी पढ़ें- लाजवंती: भाग 1

दरवाजा बाहर की ओर खुलने का एक फायदा यह था कि तृप्ति को किसी वजह से बाहर से आने में देर हो जाती थी तो मकान मालकिन की डांट नहीं सुननी पड़ती थी.

तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया. तृप्ति किसी अनजाने डर से सिहर उठी. उसे लगा, कोई गली का लफंगा तो नहीं. वैसे, आज तक ऐसा नहीं हुआ था. रात 10 बजे के बाद गली की ओर खुलने वाले दरवाजे को किसी ने नहीं खटखटाया था.

कभीकभार बगल वाली छात्राएं कुछ पूछने के लिए साइड वाला दरवाजा खटखटा देती थीं. उन दोनों से वह सीनियर थी, इसलिए वे भी रात में ऐसा कभीकभार ही करती थीं.

पर जब ‘तृप्ति, दरवाजा खोलो… मैं माधुरी’ की आवाज सुनाई पड़ी, तो तृप्ति ने दरवाजे की दरार से झांक कर देखा. यह माधुरी थी. उस के बगल के गांव की एक सहेली. मैट्रिक तक दोनों साथसाथ पढ़ी थीं. बाद में तृप्ति बनारस आ गई थी. बीए करने के बाद बीएचयू की ला फैकल्टी में एडमिशन लेने के लिए वह एडमिशन टैस्ट की तैयारी कर रही थी.

ये भी पढ़ें- कृष्णकली ससुराल चली… ठीक है: भाग 1

माधुरी बगल के कसबे में ही एक कालेज से बीए करने के बाद घर बैठी थी. पिता उस की शादी करने के लिए किसी नौकरी करने वाले लड़के की तलाश में थे.

‘‘अरे तुम… इतनी रात गए… कहां से आ रही हो?’’ हैरान होते हुए तृप्ति ने पूछा.

‘‘बताती हूं, पहले अंदर तो आने दे,’’ कुछ बदहवास और चिंतित माधुरी आते ही बैड पर बैठ गई.

‘‘एक गिलास पानी तो ला… बहुत प्यास लगी है,’’ माधुरी ने इतमीनान की सांस लेते हुए कहा. ऐसा लग रहा था मानो वह दौड़ कर आई थी.

तृप्ति ने मटके से पानी निकाल कर उसे देते हुए कहा, ‘‘गलियां अभी पूरी तरह सुनसान नहीं हुई हैं… वरना अब तक तो इस गली में कुत्ते भी भूंकना बंद कर देते हैं,’’ फिर उस ने माधुरी की ओर एक प्लेट में बेसन का लड्डू बढ़ाते हुए कहा, ‘‘पहले कुछ खा ले, फिर पानी पीना. लगता है, तुम दौड़ कर आ रही हो?’’

माधुरी ने लड्डू खाते हुए कहा, ‘‘इतनी संकरी गली में कमरा लिया है कि तुम्हारे यहां कोई पहुंच भी नहीं सकता. यह तो मैं पिछले महीने ही आई थी इसलिए भूली नहीं, वरना जाने इतनी रात को अब तक कहां भटकती रहती.’’

‘‘पहले मैं गर्ल्स होस्टल में रहना चाहती थी, पर अगलबगल में कोई ढंग का मिल नहीं रहा था, महंगा भी बहुत था. यह बहुत सस्ते में मिल गया. यहां बहुत शांति रहती है, इसलिए इम्तिहान की तैयारी के लिए सही लगा. बस, आ गई. अगर मेरा एडमिशन बीएचयू में हो जाता है, तो आगे से वहीं होस्टल में रहूंगी.

‘‘अच्छा, अब तो बता कैसे आई हो? इतना बड़ा बैग… लगता है, काफी सामान भर रखा है इस में. कहीं जाने का प्लान है क्या?’’ तृप्ति ने पूछा.

‘‘हां, बताती हूं. अब एक कप चाय तो पिला,’’ माधुरी बोली.

‘‘खाना खाया है या बनाऊं… लेकिन, तुम ने खाना कहां से खाया होगा. घर से सीधे आ रही हो या…’’

‘‘खाना तो नहीं खाया है. मौका ही नहीं मिला, लेकिन रास्ते में एक दुकान से ब्रैड ले ली थी. अब इतनी रात को खाने की चिंता छोड़ो. ब्रैडचाय से काम चला लूंगी मैं,’’ माधुरी ने कहा.

चाय और ब्रैड खाने के बाद माधुरी की थकान तो मिट गई थी, पर उस के चेहरे पर अब भी चिंता की लकीरें साफ दिखाई पड़ रही थीं.

माधुरी बोली, ‘‘तृप्ति, तुम्हें याद है, जब हम लोग 9वीं जमात में थे, तब सौरभ नाम का एक लड़का 10वीं जमात में पढ़ता था. वही लंबी नाक वाला, गोरा, सुंदर, जो हमेशा मुसकराता रहता था…’’

‘‘हां, जिस के पीछे कई लड़कियां भागती थीं… और जिस के पिता की गहनों की मार्केट में बड़ी सी दुकान थी,’’ तृप्ति ने याद करते हुए कहा.

ये भी पढ़ें- बस नंबर 9261

‘‘हां, वही.’’

‘‘पर, बात क्या है… तुम कहना क्या चाहती हो?’’

‘‘वही तो मैं बता रही हूं. वह 2 बार मैट्रिक में फेल हुआ तो उस के पिता ने उस की पढ़ाई छुड़वा कर दुकान पर बैठा दिया. पिछले साल भैया की शादी थी. मां भाभी के लिए गहनों के लिए और्डर देने जाने लगीं तो साथ में मुझे भी ले लिया.

‘‘मैं गहनों में बहुत काटछांट कर रही थी, इसलिए उस के पिता ने गहने दिखाने के लिए सौरभ को लगा दिया, तभी उस ने मुझ से पूछा था, ‘तुम माधुरी हो न?’

‘‘मैं ने कहा था, ‘हां, पर तुम कैसे जानते हो?’

‘‘उस ने बताया, ‘भूल गई क्या… हम दोनों एक ही स्कूल में तो पढ़ते थे.’

‘‘मैं उसे पहचानती तो थी, लेकिन जानबूझ कर अनजान बन रही थी. फिर उस ने मेरी ओर देखा तो शर्म से मेरी आंखें झुक गईं. उस दिन गहनों के और्डर दे कर हम लोग घर चले आए, फिर एक हफ्ते बाद मां के साथ मैं भी गहने लेने दुकान पर गई थी.

‘‘मां ने मुझ से कहा था, ‘दुकानदार का बेटा तुम्हारा परिचित है, तो दाम में कुछ छूट करा देना.’

‘‘मैं ने कहा था, ‘अच्छा मां, मैं उस से बोल दूंगी.’

‘‘पर, दाम उस के पिताजी ने लगाए. उस ने पिता से कहा, तो कुछ कम हो गया… घर आने पर मालूम हुआ कि भाभी के लिए जो सोने की अंगूठी खरीदी गई थी, वह नाप में छोटी थी. मां बोलीं, ‘माधुरी, कल अंगूठी ले जा कर बदलवा देना, मुझे मौका नहीं मिलेगा. कल कुछ लोग आने वाले हैं.’

ये भी पढ़ें- एक मुलाकात ऐसी भी: भाग 4

‘‘मैं दूसरे दिन जब दुकान पर पहुंची तो सौरभ के पिताजी नहीं थे. मुझे देख कर वह मुसकराते हुए बोला, ‘आओ माधुरी, बैठो. आज क्या और्डर करना है?’

‘‘मैं ने कहा था, ‘कुछ नहीं… बस, यह अंगूठी बदलवानी है. भाभी की उंगली में नहीं आएगी. नाप में बहुत छोटी है.’‘‘वह बोला था, ‘कोई बात नहीं,

इसे तुम रख लो. भाभी के लिए मैं दूसरी दे देता हूं.’

‘‘मैं ने छेड़ते हुए कहा था, ‘बड़े आए देने वाले… दाम तो कम कर नहीं सकते… मुफ्त में देने चले हो.’

‘‘यह सुन कर उस ने कहा था, ‘कल पिताजी मालिक थे, आज मैं हूं. आज मेरा और्डर चलेगा.’

‘‘सचमुच ही उस ने वही किया, जो कहा. मैं ने बहुत कोशिश की, लेकिन उस ने अंगूठी वापस नहीं ली. भाभी के नाप की वैसी ही दूसरी अंगूठी भी दे दी.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

Serial Story: घर लौट जा माधुरी भाग 3

‘‘बहुत मुश्किल से किसी तरह दवा लाने का बहाना कर के मैं गांव से निकली. फोन पर सौरभ को सारी बातें बताईं. उस ने कहा कि मैं रात में बनारस पहुंच जाऊं. सुबह वहीं से मुंबई के लिए ट्रेन पकड़ लेंगे. उस ने रिजर्वेशन भी करा लिया है. उस का एक दोस्त वहां रहता है. मुझे दोस्त के पास रख कर वह लौट आएगा, फिर पत्नी को तलाक दे कर मुझ से शादी कर लेगा.’’

‘‘ओह… तो तुम मुंबई जाने की तैयारी कर के आई हो?’’ तृप्ति ने कहा.

‘‘हां.’’

‘‘माधुरी, तुम समझदार हो, इसलिए तुम को मैं समझा तो नहीं सकती… और फिर अपनी जिंदगी अपने ढंग से जीने का हक सभी को है, पर हम आपस में इस बारे में बात तो कर ही सकते हैं, जिस से सही दिशा मिल सके और तुम समझ पाओ कि जानेअनजाने में तुम से कोई गलत फैसला तो नहीं हो रहा है.’’

ये भी पढ़ें- लाजवंती: भाग 1

‘‘बोल तृप्ति, समय कम है, मुझे सुबह निकलना भी है. यह तो मुझे भी एहसास हो रहा है कि मैं कुछ गलत कर रही हूं. पर मेरे सामने इस के अलावा कोई रास्ता भी तो नहीं है,’’ माधुरी की चिंता उस के चेहरे से साफ झलक रही थी.

‘‘अच्छा माधुरी, सौरभ के पिता से गहनों की कीमत में छूट कराने के लिए तुम्हें सौरभ से कहना पड़ा था न?’’

‘‘हां.’’

‘‘सौरभ से तुम्हारी जानपहचान भी नहीं थी. सिर्फ इतना ही कि तुम्हारे साथ सौरभ भी एक ही स्कूल में पढ़ता था.’’

‘‘हां.’’

‘‘सौरभ के पास पैसे की कोई कमी नहीं थी. काफी सारा पैसा उस के बैंक अकाउंट में था, जिसे खर्चने के लिए उसे अपने पिता की इजाजत लेने की जरूरत नहीं थी.’’

‘‘यह भी सही है.’’

‘‘सौरभ की शादी उस की मरजी से नहीं हुई थी. गूंगीबहरी होने के चलते अपनी पत्नी को वह पसंद नहीं करता था. कहीं न कहीं उस के मन में किसी दूसरी सुंदर लड़की की चाह थी.’’

‘‘तुम्हारी बातों में सचाई है. कई बार उस ने ऐसा कहा था. लेकिन तुम जिरह बहुत अच्छा कर लेती हो. देखना, तुम अच्छी वकील बनोगी.’’

‘‘वह खुद जवान और सुंदर है और तुम भी उस की सुंदरता की ओर खिंचने लगी थी.’’

‘‘यह भी सही है.’’

ये भी पढ़ें- कृष्णकली ससुराल चली… ठीक है: भाग 1

‘‘फिर अब तो तुम मानोगी कि तुम से ज्यादा तुम्हारी शारीरिक सुंदरता उसे अपनी ओर खींच रही थी और पहली ही झलक में उस ने तुम में अपनी हवस पूरी की इच्छा की संभावना तलाश ली होगी. और जब तुम ने उस की सोने की महंगी अंगूठी स्वीकार कर ली तब वह पक्का हो गया कि अब तुम उस के जाल में आसानी से फंस सकती हो.

‘‘फिर वही हुआ, अपने पैसे का उस ने भरपूर इस्तेमाल किया और तुम पर बेतहाशा खर्च किया, जिस के नीचे तुम्हारा विवेक भी मर गया. तुम्हारी समझ कुंठित हो गई और तुम ने अपनी जिंदगी का सब से बड़ा धन गंवा दिया, जिसे कुंआरापन कहते हैं.’’

माधुरी के माथे पर पसीने की बूंदें छलक आईं.

‘‘बोल तृप्ति बोल, अपने मन की बात खुल कर मेरे सामने रख,’’ माधुरी उत्सुकता से उस की बातें सुन रही थी.

‘‘माधुरी, अब जिस सैक्स सुख के लिए मर्द शादी तक इंतजार करता है, वही उसे उस के पहले ही मिल जाए और उसे यह विश्वास हो जाए कि अपने पैसों से तुम्हारी जैसी लड़कियों को आसानी से इस्तेमाल किया जा सकता है, तो वह अपनी पत्नी को तलाक देने और दूसरी से शादी करने का झंझट क्यों मोल लेगा?

‘‘फिर वह अच्छी तरह जानता है कि उस की पत्नी की बदौलत ही उस के पास इतनी दौलत है और उसे तलाक देते ही उस को इस जायदाद से हाथ धोना पड़ जाएगा. मुकदमे का झंझट होगा, सो अलग.

ये भी पढ़ें- पहचानपत्र

‘‘मुझे तो लगता है, तुम किसी बड़ी साजिश की शिकार होने वाली हो. तुम से उस का मन भर गया है. अब वह तुम्हें अपने दोस्त को सौंपना चाहता है.’’

‘‘नहींनहीं…’’ अचानक माधुरी के मुंह से चीख सी निकली.

‘‘पर, इस सब में केवल सौरभ ही कुसूरवार नहीं है, तुम भी हो. तुम ने क्या सोच कर अंगूठी अपने जीजाजी और मां से छिपाई.

‘‘जीजाजी के सामने ही क्यों नहीं कहा कि सौरभ, यह अंगूठी तुम्हें उपहार में दे रहा है. मां को भी क्यों नहीं बताया कि लाख मना करने पर भी सौरभ ने अंगूठी नहीं ली.

‘‘अगर तुम ने ऐसा किया होता तो फिर सौरभ समझ जाता कि उस ने गलत जगह अपनी गोटी डाली है और वह आगे बात न बढ़ाता. जवानी और पैसे के लालच में तुम्हारी मति मारी गई थी. तुम गलत को सही और सही को गलत समझने लगी थी.

‘‘तुम्हारी मां गहनों में छूट चाहती थीं. हर ग्राहक की चाहत सस्ता खरीदने की होती है, उन की भी थी. लेकिन वे नाजायज कुछ नहीं चाहती थीं. उन्होंने धूप में अपने बाल सफेद नहीं किए हैं. उन को सौरभ की अंगूठी देने के पीछे की मंशा पता चल गई थी, इसीलिए ऐसे लोगों से दूर रहने की सलाह दी थी.

‘‘अब तुम्हारी शादी जिस लड़के से तय हुई है, तुम उस से बात करती. उस के स्वभाव, व्यवहार और चरित्र का पता लगाती. अगर पसंद नहीं आता तो साफ इनकार कर देती. यह एक सही कदम होता. इस के लिए कई लोग तुम्हारी मदद में आगे आ जाते. तुम्हारा आत्मविश्वास बना रहता और मनोबल भी ऊंचा रहता.’’

ये भी पढ़ें- एक मुलाकात ऐसी भी: भाग 4

माधुरी बोली, ‘‘एक गिलास पानी पिला तृप्ति. अब मैं सब समझ गई हूं. कल घर लौट जाऊंगी. मां से बोल दूंगी, आगे की पढ़ाई के लिए समझने मैं तृप्ति के पास आई थी. मां पूछेंगी तो तुम भी यही कह देना.’’

तृप्ति ने कहा, ‘‘कल सुबह मैं चाची को फोन कर के बता दूंगी. सौरभ को अभी तुम बोल दो. अभी वह भी सोया न होगा. बनारस आने की तैयारी में लगा होगा. उस से कहो कि मैं अब गांव लौट रही हूं. मांबाबूजी का दिल दुखाना नहीं चाहती. तुम्हारा घर तोड़ कर किसी की आह नहीं लेना चाहती.

‘‘मुझे पूरा भरोसा है कि सौरभ खुश होगा कि बला उस के सिर से टलेगी.’’

तृप्ति ने सच ही कहा था. सौरभ अभी जाग रहा था और थोड़ी देर पहले ही मुंबई वाले अपने दोस्त से कहा था, ‘यार, अब इस बला को तुम संभालो. वह सुंदर है. खर्च करोगे तो तुम्हारी हो जाएगी. जब मन भर जाएगा तो कुछ दे कर उस के गांव वाली ट्रेन पर बिठा देना. अब मुझे एक दूसरी मिल गई है.’

ये भी पढ़ें- बस नंबर 9261

सौरभ ने एक छोटा सा जवाब दिया था, ‘जैसी तुम्हारी इच्छा. मैं रिजर्वेशन कैंसिल करा देता हूं.’

माधुरी का मन अब हलका था, ‘‘तृप्ति, अब एक काम और कर दे. कल क्यों आज ही घर में फोन कर दे. अभी रात के 12 बजे हैं. मांबाबूजी बहुत चिंतित होंगे. मैं चुपके से यहां आ गई हूं.’’

‘‘अच्छा, बोलती हूं…’’ तृप्ति माधुरी की मां को समझा रही थी, ‘‘चिंता न करें आंटीजी. माधुरी मेरे पास आ गई है. वह आगे पढ़ना चाहती है. आप ने उस को घर से निकलने पर बंदिश लगा दी थी न, इसलिए… हां, उसे बता कर निकलना चाहिए था… अच्छा प्रणाम, माधुरी सो गई है, कल सुबह बात कर लेगी.’’

फोन कट गया. माधुरी को अपने किए पर पछतावा तो था, पर आगे साजिश में फंसने से बच जाने की खुशी भी थी. साथ ही, अपनी सहेली तृप्ति पर गर्व भी था. दोनों सहेलियां बात करतेकरते सो गईं.

Serial Story: घर लौट जा माधुरी भाग 2

‘‘मैं ने डरतेडरते कहा था, ‘इस को वापस लेने से इनकार कर दिया मां.’

‘‘यह सुन कर मां ने कठोर आवाज में पूछा था, ‘किस ने? उस छोकरे ने या उस के बाप ने?’

‘‘मैं ने कहा था, ‘उस के पिताजी नहीं थे, आज वही था.’

‘‘मां ने कहा था, ‘अंगूठी निकाल दे. कल मैं लौटा आऊंगी. बेवकूफ लड़की, तुम नहीं जानती, यह सुनार का छोकरा तुझ पर चारा डाल रहा है. उस की मंशा ठीक नहीं है. अब आगे से उस की दुकान पर मत जाना.’

‘‘मां की बात मुझे बिलकुल नहीं सुहाई. पिछली बार जब मैं उस की दुकान पर गई थी तब तो दाम कम कराने के लिए उसी से पैरवी करवा रही थीं. अब जब इतना बड़ा उपहार अपनी इच्छा से दिया तो नखरे कर रही हैं.

‘‘सच कहूं तृप्ति, मां के इस बरताव से मेरा सौरभ के प्रति और झुकाव बढ़ गया. उस दिन के बाद से मैं उस की दुकान पर जाने का बहाना ढूंढ़ने लगी.

ये भी पढ़ें- लाजवंती: भाग 1

‘‘एक दिन मौका मिल ही गया. बड़े वाले जीजाजी घर आए थे. मां ने जब भाभी के लिए खरीदे गए गहनों को दिखाया तो वे बोले, ‘सुनार ने वाजिब दाम लगाया है. मुझे भी उपहार में देने के लिए एक अंगूठी की जरूरत है. सलहज की उंगली का नाप आप के पास है ही, इस से थोड़ी अलग डिजाइन की अंगूठी मैं भी उसी दुकान से ले लेता हूं.’

‘‘मां ने कहा था, ‘माधुरी साथ चली जाएगी. दुकानदार का लड़का इस का परिचित है. कुछ छूट भी कर देगा.’

‘‘मां ने अंगूठी लौटाने वाली बात को जानबूझ कर छिपा लिया था. वे नहीं चाहती थीं कि मुझ पर किसी तरह का आरोप लगे. मेरी शादी के लिए बाबूजी किसी नौकरी वाले लड़के की तलाश में थे.

‘‘दूसरे दिन जीजाजी के साथ जब मैं उस की दुकान पर पहुंची तब सौरभ किसी औरत को अंगूठी दिखा रहा था. मुझे देखते ही वह मुसकराया और बैठने के लिए इशारा किया. जब जीजाजी ने अंगूठी दिखाने को कहा तो उस के पिताजी ने उसी की ओर इशारा कर दिया.

‘‘तभी कोई फोन आया और उस के पिताजी बोले, ‘2-3 घंटे के लिए मैं कुछ जरूरी काम से बाहर जा रहा हूं. ये लोग पुराने ग्राहक हैं, इन का ध्यान रखना.’

‘‘यह सुन कर सौरभ के चेहरे पर मुसकान थिरक गई. वह बोला, ‘जी बाबूजी, मैं सब संभाल लूंगा.’’

‘‘जीजाजी ने एक अंगूठी पसंद की और उस का दाम पूछा. मैं ने कहा, ‘मेरे जीजाजी हैं.’

ये भी पढ़ें- कृष्णकली ससुराल चली… ठीक है: भाग 1

‘‘मेरा इशारा समझ कर सौरभ ने कहा, ‘फिर तो जो आप दे दें, मुझे मंजूर होगा.’

‘‘जीजाजी ने बहुत कहा, लेकिन वह एक ही रट लगाए रहा, ‘आप जो देंगे, ले लूंगा. आप लोग पुराने ग्राहक हैं. आप लोगों से क्या मोलभाव करना है.’

‘‘जीजाजी धर्मसंकट में थे. उन्होंने अपना डैबिट कार्ड बढ़ाते हुए कहा, ‘अब मैं भी मोलभाव नहीं करूंगा. आप जो दाम भर देंगे, स्वीकार कर लूंगा.’

‘‘खैर, जीजाजी ने जो सोचा था, उस से कम दाम उस ने लगाया. उस ने हम लोगों के लिए मिठाई मंगाई और जब जीजाजी मुंह धोने वाशबेसिन की ओर गए तो वही पुरानी अंगूठी मुझे जबरन थमाते हुए कहा था, ‘अब फिर न लौटाना… नहीं तो मेरा दिल टूट जाएगा.’

‘‘जीजाजी देख न लें, इसलिए मैं ने उस अंगूठी को ले कर छिपा लिया.

‘‘उस दिन के बाद हम दोनों मौका निकाल कर चोरीछिपे एकदूसरे से मिलते रहे. सौरभ से मालूम हुआ कि उस के पिताजी ने पिछले साल उस की शादी एक अमीर लड़की से दहेज के लालच में करा दी थी. लड़की तो सुंदर है, लेकिन गूंगीबहरी है. वह अपने मातापिता की एकलौती बेटी है. मां का देहांत हो चुका है. पिता ने अपनी जायदाद लड़की के नाम कर दी है. शहर में एक तिमंजिला मकान भी उस की नाम से है. उस मकान से हर महीने अच्छा किराया मिलता है. रुपयापैसा उसी के अकाउंट में जमा होता है. पिताजी ने भी गहनों की यह दुकान उस के नाम कर दी है.

‘‘तृप्ति, सौरभ मुझ पर इतना पैसा खर्च करने लगा कि मैं उसी की हो कर रह गई.’’

‘‘यानी तुम ने अपना जिस्म भी उसे सौंप दिया?’’ तृप्ति ने हैरान होते हुए पूछ लिया.

‘‘क्या करती… कई बार हम लोग होटल में मिले. कोई न कोई बहाना बना कर मैं सुबह निकलती और उस के बुक कराए होटल में पहुंच जाती. शुरू में तो काफी हिचकिचाई, पर बाद में उस के आग्रह के आगे झुक गई.’’

‘‘फिर…?’’ तृप्ति ने पूछा.

‘‘फिर क्या… मैं हर वक्त उसी के बारे में सोचने लगी. उस ने मुझे भरोसा दिलाया कि कुछ दिनों बाद वह अपनी पत्नी को तलाक दे देगा और मुझ से शादी कर लेगा.’’

‘‘और तुम्हें विश्वास हो गया?’’

‘‘उस ने शपथ ले कर कहा है. मुझे विश्वास है कि वह धोखा नहीं देगा.’’

‘‘अब बताओ कि तुम यहां कैसे आई हो?’’ तृप्ति ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘एक हफ्ता पहले जीजाजी आए थे. उन्होंने बाबूजी के सामने एक लड़के का प्रस्ताव रखा था. लड़का एक सरकारी दफ्तर में है, लेकिन बचपन से ही उस का एक पैर खराब है, इसलिए लंगड़ा कर चलता है. वह मुझ से बिना दहेज की शादी करने को तैयार है.

‘‘बाबूजी तैयार हो गए. मां ने विरोध किया तो कहने लगे, ‘एक पैर ही तो खराब है. सरकारी नौकरी है. उसे कई रियायतें भी मिलेंगी.

‘‘जब मां भी तैयार हो गईं तो मैं ने मुंह खोला, पर उन्होंने मुझे डांटते हुए कहा, ‘तुम्हें तो नौकरी मिली नहीं, अब मुश्किल से नौकरी वाला एक लड़का मिला है, तो जबान चलाती है.’

‘‘लेकिन, बात यह नहीं थी. किसी ने मां के कान में डाल दिया था कि मेरा सौरभ से मिलनाजुलना है. मां को तो उसी समय शक हो गया था, जब मैं अंगूठी बिना लौटाए आ गई थी.

‘‘इधर सौरभ मेरे लिए कुछ न कुछ हमेशा खरीदता रहता था. अब घर में क्याक्या छिपाती मैं. कोई न कोई बहाना बनाती, पर मां का शक दूर न होता. वे भी चाहती थीं कि किसी तरह जल्द से जल्द मेरी शादी हो जाए, ताकि समाज में उन की नाक न कटे.

‘‘मां का मुझ पर भरोसा नहीं रहा था. उन्होंने मुझे गांव से बाहर जाने की मनाही कर दी. उधर बाबूजी ने जीजाजी के प्रस्ताव पर हामी भर दी.

लड़के ने मेरा फोटो और बायोडाटा देख कर शादी करने का फैसला मुझ पर छोड़ दिया. बिना मुझ से सलाह लिए मांबाबूजी ने अगले महीने मेरी शादी की तारीख भी पक्की कर दी है.

‘‘मांबाबूजी का यह रवैया मुझे नागवार लगा, इसलिए मैं  सौरभ से इस संबंध में बात करना चाहती थी. मैं उस के साथ कहीं भाग जाना चाहती थी.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

Serial Story : मेरी मां का नया प्रेमी

Serial Story : मेरी मां का नया प्रेमी – भाग 2

कुछकुछ आभास श्वेता को उन की डायरी से ही हुआ था. एक बार उन की डायरी में कुछ कविताओं के अंश नोट किए हुए मिले थे.

‘तुम चले जाओगे पर थोड़ा सा यहां भी रह जाओगे, जैसे रह जाती है पहली बारिश के बाद हवा में धरती की सोंधी सी गंध.’

एक पृष्ठ पर लिखी ये पंक्तियां पढ़ कर तो श्वेता भौचक ही रह गई थी…सब कुछ बीत जाने के बाद भी बचा रह गया है प्रेम, प्रेम करने की भूख, केलि के बाद शैया में पड़ गई सलवटों सा… सबकुछ नष्ट हो जाने के बाद भी बचा रहेगा प्रेम, …दीपशिखा ही नहीं, उस की तो पूरी देह ही बन गई है दीपक, प्रेम में जलती हुई अविराम…

मम्मी अचानक ही आ गई थीं और डायरी पढ़ते देख एक क्षण को सिटपिटा गई थीं. बात को टालने और स्थिति को बिगड़ने से बचाने के लिए श्वेता खिसियायी सी हंस दी थी, ‘‘यह कवि आप को बहुत पसंद आने लगे हैं क्या, मम्मी?’’

‘‘नहीं, तुम गलत समझ रही हो,’’ मम्मी ने व्यर्थ हंसने का प्रयत्न किया था, ‘‘एक छात्रा को शोध करा रही हूं नए कवियों पर…उन में इस कवि की कविताएं भी हैं. उन की कुछ अच्छी पंक्तियां नोट कर ली हैं डायरी में. कभी कहीं भाषण देने या क्लास में पढ़ाने में काम आती हैं ऐसी उजली और दो टूक बात कहने वाली पंक्तियां.’’ फिर मां ने स्वयं एक पृष्ठ खोल कर दिखा दिया था, ‘‘यह देखो, एक और कवि की पंक्तियां भी नोट की हैं मैं ने…’’ वह बोली थीं.

ये भी पढ़ें- Short Story : जब मैं छोटा था

उस पृष्ठ को वह एक सांस में पढ़ गई थी, ‘‘धीरेधीरे जाना प्यार की बहुत सी भाषाएं होती हैं दुनिया में, देश में और विदेश में भी लेकिन कितनी विचित्र बात है प्यार की भाषा सब जगह एक ही है और यह भी जाना कि वर्जनाओं की भी भाषा एक ही होती है…प्यार की भाषा में शब्द नहीं होते सिर्फ अक्षर होते हैं और होती हैं कुछ अस्फुट ध्वनियां और उन्हीं को जोड़ कर बनती है प्यार की भाषा…’’

मां के उत्तर से वह न सहमत हुई थी, न संतुष्ट पर वह व्यर्थ उन से और इस मसले पर उलझना नहीं चाहती थी. शायद यह सोच कर चुप लगा गई थी कि मां भी आखिर हैं तो एक स्त्री ही और स्त्री में प्रेम पाने की भूख और आकांक्षा अगर आजीवन बनी रह जाए तो इस में आश्चर्य क्या है?

पिता के साथ मां ने एक लंबा वैवाहिक जीवन जिया था. उस दुर्घटना में वह अचानक मां को अकेला छोड़ कर चले गए थे. शरीर की कामनाएंइच्छाएं तो अतृप्त रह ही गई होंगी…55-56 साल की उम्र थी तब मम्मी की. इस उम्र में शरीर पूरी तरह मुरझाता नहीं है. फिर पिता महीने 2 महीने में ही घर आ पाते थे. पूरा जीवन तो मां ने एक अतृप्ति के साथ बियाबान रेगिस्तान में प्यासी हिरणी की तरह मृगतृष्णा में काटा होगा…आगे और आगे जल की तलाश में भटकी होंगी…और वह जल उन्हें मिला होगा अमन अंकल में या हो सकता है मिल रहा हो प्रभु अंकल में.

एक शहर के महाविद्यालय में किसी व्याख्यान माला में भाषण देने गई थीं मम्मी. उन के परिचय में जब वहां बताया गया कि साहित्य में उन का दखल एक डायरी लेखिका के रूप में भी है तो उन के भाषण के बाद एक सज्जन उन से मिलने उन के निकट आ गए, ‘‘आप ही

डा. कुमुदजी हैं जिन की डायरियों के कई अंश…’’ मम्मी उठ कर खड़ी हो गई थीं, ‘‘आप का परिचय?’’

‘‘यहां निकट ही एक नेशनल पार्क है… मैं उस में एक छोटामोटा अधिकारी हूं.’’ इसी बीच महाविद्यालय के एक प्राध्यापकजी टपक पड़े थे, ‘‘हां, कुमुदजी यह छोटे नहीं मोटे अधिकारी हैं. वन्य जीवों पर इन्होंने अनेक शोध कार्य किए हैं. हमारे जंतु विज्ञान विभाग में यह व्याख्यान देने आते रहते हैं. यह विद्यार्थियों को जानवरों से संबंधित बड़ी रोचक जानकारियां देते हैं. अगर आप के पास समय हो तो आप इन का नेशनल पार्क अवश्य देखने जाएं… आप को वहां कई नए अनुभव होंगे.’’

ये भी पढ़ें – ईर्ष्या : क्या था उस लिफाफे में

श्वेता को मां ने बताया था, ‘‘यह महाशय ही प्रभुनाथ हैं.’’

मां की डायरी में बाद में श्वेता ने पढ़ा था.

‘किसीकिसी आदमी का साथ कितना अपनत्व भरा होता है और उस के साथ कैसे एक औरत अपने को भीतर बाहर से भरीभरी अनुभव करती है. क्या सचमुच आदमी की उपस्थिति जीवन में इतनी जरूरी होती है? क्या इसी जरूरीपन के कारण ही औरत आदमी को आजीवन दुखों, परेशानियों के बावजूद सहती नहीं रहती?’

खालीपन और अकेलेपन, भीतर के रीतेपन को भरने के लिए जीवन में क्या सचमुच किसी पुरुष का होना नितांत आवश्यक नहीं है…कहीं कोई आदमी आप के जीवन में होता है तो आप को लगता रहता है कि कहीं कोई है जिसे आप की जरूरत है, जो आप की प्रतीक्षा करता है, जो आप को प्यार करता है…चाहता है, तन से भी, मन से भी और शायद आत्मा से भी…

प्रभुनाथ के साथ पूरे 7 दिन तक नेशनल पार्क के भीतर जंगल के बीच में बने आरामदेय शानदार हट में रही… तरहतरह के जंगली जंतु तो प्रभुनाथ ने अपनी जीप में बैठा कर दिखाए ही, थारू जनजाति के गांवों में भी ले गए और उन के बारे में अनेक रोचक और विचित्र जानकारियां दीं, जिन से अब तक मैं परिचित नहीं थी.

‘दुनिया में कितना कुछ है जिसे हम नहीं जानते. दुनिया तो बहुत बड़ी है, हम अपने देश को ही ठीक से नहीं जानते. इस से पहले हम ने कभी सपने में भी कल्पना नहीं की थी कि यह नेशनल पार्क…यह मनोरम जंगल, जंगल में जानवरों, पेड़पौधों की एक भरीपूरी विचित्र और अद्भुत आनंद देने वाली एक दुनिया भी होती है, जिसे हर आदमी को जीवन में जरूर देखना और समझना चाहिए.’

प्रभुनाथ ने चपरासी को मोटर- साइकिल से भेज कर भोजन वहीं उसी आलीशान हट में मंगा लिया था. साथ बैठ कर खाया. खाने के बाद प्रभुनाथ उठे और बोले, ‘‘तो ठीक है मैडम…आप यहां रातभर आराम करें. हम अपने क्वार्टर में जा कर रहेंगे.’’

‘‘नहीं. मैं अकेली हरगिज इस जंगल में नहीं रहूंगी,’’ मैं हड़बड़ा गई थी, ‘‘रात हो आई है और जानवरों की कैसी डरावनीभयावह आवाजें रहरह कर आ रही हैं. कहीं कोई आदमखोर यहां आ गया और उस ने इस हट के दरवाजे को तोड़ कर मुझ पर हमला कर दिया तो?’’

‘‘क्या आप को इस हट का कोई दरवाजा टूटा या कमजोर नजर आता है? हर तरह से इसे सुरक्षित बनाया गया है. इस में देश और प्रदेश के मंत्री, सचिव और आला अफसर, उन के परिवार आ कर रहते हैं. मैडम, आप चिंता न करें. बस रात को कोई जानवर या आदमी दरवाजे को धक्का दे, पंजों से खरोंचे तो आप दरवाजा न खोलें. यहां आप को पीने के लिए पानी बाथरूम में मिलेगा. चाय-कौफी बनाना चाहेंगी तो उस के लिए गैसस्टोव और सारी जरूरी क्राकरी व सामग्री किचन में मिलेगी. बिस्तर आरामदेय है. हां, रात में सर्दी जरूर लगेगी तो उस के लिए 2 कंबल रखे हुए हैं.’’

ये भी पढ़ें- Short Story : मान अभिमान

‘‘वह सब ठीक है प्रभु…पर मैं यहां अकेली नहीं रहूंगी या तो आप साथ रहें या फिर हमें भी अपने क्वार्टर की तरफ के किसी क्वार्टर में रखें.’’

‘‘नहीं मैडम,’’ वह मुसकराए, ‘‘आप डायरी लेखिका हैं. हिंदी की अच्छी वक्ता और प्रवक्ता हैं. हम चाहते हैं कि आप यहां के वातावरण को अपने भीतर तक अनुभव करें. देखें कि कैसा लगता है. बिलकुल नया सुख, नया थ्रिल, नया अनुभव होगा…और वह नया थ्रिल आप अकेले ही महसूस कर पाएंगी…किसी के साथ होने पर नहीं.

‘‘आप देखेंगी, जीवन जब खतरों से घिरा होता है…तो कैसाकैसा अनुभव होता है…जान बचे, इस के लिए ऐसेऐसे देवता आप को मनाने पड़ते हैं जिन की याद भी शायद आप को अब तक कभी न आई हो…बहुत से लेखक इस अनुभव के लिए ही यहां इस हट में आ कर रहना पसंद करते हैं.’’

Serial Story : मेरी मां का नया प्रेमी – भाग 3

‘‘वह तो सब ठीक है…पर आप को मैं यहां से जाने नहीं दूंगी.’’ फिर कुछ सोच कर पूछ बैठीं, ‘‘बाहर गेट के क्वार्टरों में आप की प्रतीक्षा पत्नीबच्चे भी तो कर रहे होंगे? अगर ऐसा है तो आप जाएं पर हमें भी वहीं किसी क्वार्टर में रखें.’’

गंभीर बने रहे काफी देर तक प्रभुनाथ. फिर एक लंबी सांस छोड़ते हुए बोले, ‘‘अपने बारे में किसी को मैं कम ही बताता हूं. यहां बाईं तरफ जो छोटा कक्ष है उस में एक अलमारी में जहां वन्य जीवजंतुओं से संबंधित पुस्तकें हैं वहीं मेरे द्वारा लिखी गई और शोध के रूप में तैयार पुस्तक भी है. अकसर यहां मंत्री लोग और अफसर अपनी किसी न किसी महिला मित्र को ले कर आते हैं और 2-3 दिन तक उस का जम कर देह सुख लेते हैं. उन के लिए हम लोग यहां हर सुविधा जुटा कर रखते हैं. क्या करें, नौकरी करनी है तो यह सब भी इंतजाम करने पड़ते हैं…’’

झेंप गईं डा. कुमुद, ‘‘खैर, वह सब छोडि़ए. आप अपने परिवार के बारे में बताइए.’’

‘‘एक बार हम पिकनिक मनाने यहां इसी हट पर अपने परिवार के साथ आए हुए थे. अधिक रात होने पर पता नहीं पत्नी को क्या महसूस हुआ कि बोली, ‘यहां से चलिए, बाहर के क्वार्टरों में ही रहेंगे. यहां न जाने क्यों आज अजीब सा भय लग रहा है.’ हम जीप में बैठ कर वापस बाहर की तरफ चल दिए. पत्नी, लड़की और लड़का. हमारे 2 ही बच्चे थे. अभी कुछ ही दूर चले होंगे कि खतरे का आभास हो गया. एक शेर बेतहाशा घबराया हुआ भागता हमारे सामने से गुजरा. पीछे कुछ बदमाश, जिन्हें हम लोग पोचर्स कहते हैं. जंगली जानवरों का चोरीछिपे शिकार करने वाले उन पोचरों से हमारा सामना हो गया.’’

‘‘निहत्थे नहीं थे हम. एक बंदूक साथ थी और साहसी तो मैं शुरू से रहा हूं इसीलिए यह नौकरी कर रहा हूं. बदमाशों को ललकारा कि अगर किसी जानवर को तुम लोगों ने गोली मारी तो हम आप को गोली मार देंगे. जीप को चारों ओर घुमा कर हम ने उस की रोशनी में बदमाशों की पोजीशन जाननी चाही कि तभी उन्होंने हम पर अपने आधुनिक हथियारों से हमला बोल दिया. हम संभल तक नहीं पाए… पत्नी और बेटी की मौत गोली लगने से हो गई. लड़का बच गया क्योंकि वह जीप के नीचे घुस गया था.

ये भी पढ़ें- कल तुम बिजी आज हम बिजी : भाग 2

‘‘मैं उन्हें ललकारता हुआ अपनी बंदूक से फायर करने लगा. गोलियों की आवाज ने गार्डों को सावधान कर दिया और वे बड़ीबड़ी टार्चों और दूसरी गाडि़यों को ले कर तेजी से इधर की तरफ हल्ला बोलते आए तो बदमाश नदी में उतर कर अंधेरे का लाभ उठा कर भाग गए.’’

‘‘फिर दूसरी शादी नहीं की,’’ उन्होंने पूछा.

‘‘लड़के को हमारी ससुराल वालों ने इस खतरे से दूर अपने पास रख कर पाला…साली से मेरी शादी उन लोगों ने तय की पर एकांत में साली ने मुझ से कहा कि वह किसी और को चाहती है और उसी से शादी भी करना चाहती है. मैं बीच में न आऊं तो ही अच्छा है. मैं ने शादी से इनकार कर दिया…’’

ये  भी पढ़ें- Short Story – खरीदारी : अपमान का कड़वा घूंट

‘‘लड़का कहां है आजकल?’’

डा. कुमुद ने पूछा.

‘‘बस्तर के जंगलों में अफसर है. उस की शादी कर दी है. अपनी पत्नी के साथ वहीं रहता है.’’

‘‘मैं ने तो सुना है कि बस्तर में अफसर अपनी पत्नी को ले कर नहीं जाते. एक तो नक्सलियों का खतरा, दूसरे आदिवासियों की तीरंदाजी का डर… तीसरे वहां आदमी को बहुत कम पैसों में औरत रात भर के लिए मिल जाती है.’’ इतना कह कर डा. कुमुद मुसकरा दीं.

‘‘जेब में पैसा हो तो औरत सब जगह उपलब्ध है…यहां भी और कहीं भी… इसलिए मैं ने शादी नहीं की. जरूरत पड़ने पर कहीं भी चला जाता हूं.’’ प्रभु मुसकराए.

‘‘हां, पुरुष होने के ये फायदे तो हैं ही कि आप लोग बेखटके, बिना किसी शर्म के, बिना लोकलाज की परवा किए, कहीं भी देहसुख के लिए जा सकते हैं…पैसों की कमी होती नहीं है आप जैसे बड़े अफसरों को…अच्छी से अच्छी देह आप प्राप्त कर सकते हैं. मुश्किल तो हम संकोचशील औरतों की है. हमें अगर देह- सुख की जरूरत पड़े तो हम बेशर्मी लाद कर कहां जाएं? किस से कहें?’’

‘‘वक्त बहुत बदल गया है कुमुदजी…अब औरतें भी कम नहीं हैं. वह बशीर बद्र का शेर है न… ‘जी तो बहुत चाहता है कि सच बोलें पर क्या करें हौसला नहीं होता, रात का इंतजार कौन करे आजकल दिन में क्या नहीं होता.’’’

मुसकराती रहीं कुमुद देर तक, ‘‘बड़े दिलचस्प इनसान हैं आप भी, प्रभुनाथजी.’’

ये भी पढ़ें- Short Story- ईर्ष्या : क्या था उस लिफाफे में

श्वेता डायरी के अगले पृष्ठ को पढ़ कर अपने धड़कते दिल को मुश्किल से काबू में कर पाई थी…

मां ने लिख रखा था… ‘7 दिन रही उस नेशनल पार्क में और जो देहसुख उन 7 दिनों में प्राप्त किया शायद अगले 7 जन्मों में प्राप्त न हो सके. आदमी का सुख वास्तव में अवर्णनीय, अव्याख्य और अव्यक्त होता है…इस सुख को सिर्फ देह ही महसूस कर सकती है…उम्र और पदप्रतिष्ठा से बहुत दूर और बहुत अलग…’.

Serial Story : मेरी मां का नया प्रेमी – भाग 1

श्वेता ने मां को फोन लगाया तो फोन पर किसी पुरुष की आवाज सुन कर वह चौंक गई…कौन हो सकता है? एक क्षण को उस के दिमाग में सवाल कौंधा. अमन अंकल तो होने से रहे. मां ने ही एक दिन बताया था, ‘तुम्हारे अमन अंकल को बे्रन स्ट्रोक हुआ था. अचानक ब्लडप्रेशर बहुत बढ़ गया था. आधे धड़ को लकवा मार गया. उन के लड़के आए थे, अपने साथ उन्हें हैदराबाद लिवा ले गए.’

‘‘हैलो…बोलिए, किस से बात करनी है आप को?’’ सहसा वह अपनी चेतना में वापस लौटी. संयत आवाज में पूछा, ‘‘आप…आप कौन? मां से बात करनी है. मैं उन की बेटी श्वेता बोल रही हूं.’’ स्थिति स्पष्ट कर दी.

‘‘पास के जनरल स्टोर तक गई हैं. कुछ जरूरी सामान लाना होगा. रोका था मैं ने…कहा भी कि लिख कर हमें दे दो, ले आएंगे. पर वह कोई स्पेशल डिश बनाना चाहती हैं शाम को. तुम्हें तो पता होगा, पास में ही सब्जी की दुकान है. वहां वह अपनी स्पेशल डिश के लिए कुछ सब्जियां लेने गई हैं…पर यह सब मैं तुम से बेकार कह रहा हूं. तुम मुझे जानती नहीं होगी. इस बीच कभी आई नहीं तुम जो मुझे देखतीं और हमारा परिचय होता… बस, इतना जान लो…मेरा नाम प्रभुनाथ है और तुम्हारी मां मुझे प्रभु कहती हैं. तुम चाहो तो प्रभु अंकल कह सकती हो.’’

ये कहानी भी पढ़ें : मान अभिमान

‘‘प्रभु अंकल…जब मां आ जाएं, बता दीजिएगा…श्वेता का फोन था.’’ और इतना कह कर उस ने फोन काट दिया. न स्वयं कुछ और कहा, न उन्हें कहने का अवसर दिया.

श्वेता की बेचैनी उस फोन के बाद बहुत बढ़ गई. कौन हो सकते हैं यह महाशय? क्या अमन अंकल की तरह मां ने किसी नए…आगे सोचने से खुद हिचक गई श्वेता. कैसे सोचे? मां आखिर मां होती है. उन के बारे में हमेशा, हर बार, हर पुरुष को ले कर हर ऐसीवैसी बात कैसे सोची जा सकती है?

फिर भी यह सवाल तो है ही कि प्रभुनाथ अंकल कौन हैं? कैसे होंगे? कितनी उम्र होगी? मां से कब, कहां, कैसे, किन हालात में मिले होंगे और उन का संबंध मां से इतना गहरा कैसे बन गया कि मां अपना पूरा घर उन के भरोसे छोड़ कर पास के जनरल स्टोर तक चली गईं… सामान और स्पेशल डिश के लिए सब्जियां लेने…

इस का मतलब हुआ प्रभु अंकल मां के लिए कोई स्पेशल व्यक्ति हैं…लेकिन यह नाम पहले तो कभी मां से सुना नहीं. अचानक कहां से प्रकट हो गए यह अंकल? और इन का मां से क्या संबंध होगा…जिन के लिए मां स्पेशल डिश बनाती हैं…कह रहे थे कि जब वह आते हैं तो मां जरूर कोई न कोई स्पेशल डिश बनाती हैं…इस का मतलब हुआ यह महाशय वहां नहीं, कहीं और रहते हैं और कभीकभार ही मां के पास आते हैं.

अड़ोसपड़ोस के लोग अगर देखते होंगे तो मां के बारे में क्या सोचते होंगे? कसबाई शहर में इस तरह की बातें पड़ोसियों से कहां छिपती हैं? मां ने क्या कह कर उन का परिचय पड़ोसियों को दिया होगा? और उस परिचय पर क्या सब ने यकीन कर लिया होगा?

स्थिति पर श्वेता जितना सोचती जाती, उतने ही सवालों के घेरे में उलझती जाती. पिछली बार जब वह मां से मिलने गई थी तो उन की लिखनेपढ़ने की मेज पर एक नई डायरी रखी देखी थी. मां को डायरी लिखने का शौक है और महिला होने के नाते उन की वह डायरी अकसर पत्रपत्रिकाओं में छपती भी रहती है, अखबारों के साहित्य संस्करणों से ले कर साहित्यिक पत्रिकाओं तक में उन के अंश छपते हैं. चर्चा भी होती है. शहर में सब इसलिए भी उन्हें जानते हैं कि वहां के महाविद्यालय में हिंदी की प्रवक्ता थीं. लंबी नौकरी के बाद वहीं से रिटायर हुईं. मकान पिता ही बना गए थे. अवकाश प्राप्त जिंदगी आराम से वहीं गुजार रही हैं. भाई विदेश में है. श्वेता के पास आ कर वह रहना नहीं चाहतीं. बेटीदामाद के पास आ कर रहना उन्हें अपनी स्वतंत्रता में बाधक ही नहीं लगता बल्कि अनुचित भी लगता है.

इंतजार करती रही श्वेता कि मां अपनी तरफ से फोन करेंगी पर उन का फोन नहीं आया. मां की डायरी में एक अंगरेजी कवि का वाक्य शुरू में ही लिखा हुआ पढ़ा था ‘इन यू ऐट एव्री मोमेंट, लाइफ इज अबाउट टू हैपन.’ यानी आप के भीतर हर क्षण, जीवन का कुछ न कुछ घटता ही है…जीवन घटनाविहीन नहीं होता.

महाविद्यालय में पढ़ते समय भी श्वेता अपनी सहेलियों से मां की प्रशंसा सुनती थी. बहुत अच्छा बोलती हैं. उन की स्मृति गजब की है. ढेरों कविताओं के उदाहरण वह पढ़ाते समय देती चली जाती हैं. भाषा पर जबरदस्त अधिकार है. कालिज में शायद ही कोई उन जैसे शब्दों का चयन अपने व्याख्यान में करता है. पुरुष अध्यापक प्रशंसा में कह जाते हैं कि प्रो. कुमुदजी पता नहीं कहां से इतना वक्त निकाल लेती हैं यह सब पढ़नेलिखने का?

पढ़ें ये कहानी : नायाब नुसखे रिश्वतबाजी के

कुछ मुंहफट जड़ देते कि पति रेलवे में स्टेशन मास्टर हैं. अकसर इस स्टेशन से उस स्टेशन पर फेंके जाते रहते हैं. बाहर रहते हैं और महीने में दोचार दिन के लिए ही आते हैं. इसलिए पति को ले कर उन्हें कोई व्यस्तता नहीं है. रहे बच्चे तो वे अब बड़े हो गए हैं. बेटा आई.आई.टी. में पढ़ने बाहर चला गया है. कल को वहां से निकलेगा तो विदेश के दरवाजे उसे खुले मिलेंगे. लड़की पढ़ रही है. योग्य वर मिलते ही उस की शादी कर देंगी. फुरसत ही फुरसत है उन्हें…पढ़ेंगीलिखेंगी नहीं तो क्या करेंगी?

श्वेता एम.ए. के बाद शोधकार्य करना चाहती थी पर पिता को अपने एक मित्र का उपयुक्त लड़का जंच गया. रिश्ता तय कर दिया और श्वेता की शादी कर दी. बी.एड. उस ने शादी के बाद किया और पति की कोशिशों से उसे दिल्ली में एक अच्छे पब्लिक स्कूल में नौकरी मिल गई. पति एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में उच्च पद पर थे. व्यस्तता के बावजूद श्वेता अपने संबंध और कार्य से खुश थी. छुट्टियों में जबतब मां के पास हो आती, कभी अकेली, कभी बच्चों के साथ, तो कभी पति भी साथ होते.

आई.आई.टी. के तुरंत बाद भाई अमेरिका चला गया था. इधर मंदी के चलते अमेरिका से भारत आना उस के लिए अब संभव न था. कहता है अगर नौकरी से महीने भर बाहर रहा तो कंपनी समझ लेगी कि बिना इस आदमी के काम चल सकता है तो क्यों व्यर्थ में एक आदमी की तनख्वाह दी जाए. वैसे भी अमेरिका में जौब की बहुत मारामारी चल रही है.

फिर भी भाई को पिता की एक हादसे में हुई मृत्यु के बाद आना पड़ा था और बहुत जल्दी क्रियाकर्म कर के वापस चला गया था. पिता उस दिन अपने नियुक्ति वाले स्टेशन से घर आ रहे थे लेकिन टे्रन को एक छोटे स्टेशन पर भीड़ ने आंदोलन के चलते रोक लिया था. टे्रन पर पत्थर फेंके गए तो कुछ दंगाइयों ने टे्रन में आग लगा दी. जिस डब्बे में पिताजी थे उस डब्बे को लोगों ने आग लगा दी थी. सवारियां उतर कर भागीं तो उन पर दंगाइयों ने ईंटपत्थर बरसाए.

पत्थर का एक बड़ा टुकड़ा पिता के सिर में आ कर लगा तो वह वहीं गिर पड़े. साथ चल रहे अमन अंकल ने उन्हें उठाया. सिर से खून बहुत तेजी से बह रहा था. लोगों ने उन्हें ले कर अस्पताल तक नहीं जाने दिया. रास्ता रोके रहे. हाथपांव जोड़ कर अमन अंकल ने किसी तरह पिताजी को कहीं सुरक्षित जगह ले जाने का प्रयास किया पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी और उन की मृत्यु हो गई थी.

भाई ने पिता के फंड, पेंशन आदि की सारी जिम्मेदारी अमन अंकल को ही सौंप दी थी, ‘‘अंकल आप ही निबटाइए ये सरकारी झमेले. आप तो जानते हैं, इन कामों को निबटाने में महीनों लगेंगे, अगर मैं यहां रुक कर यह सब करता रहा तो मेरी नौकरी चली जाएगी.’’

‘‘तुम चिंता न करो. अपनी नौकरी पर जाओ. यहां मैं सब संभाल लूंगा. इसी रेलवे विभाग में हूं. जानता हूं. ऊपर से नीचे तक लेटलतीफी का राज कायम है.’’

अमन अंकल ने ही फिर सब संभाला था. बाद में उन का ट्रांसफर वहीं हो गया तो काम को निबटाने में और अधिक सुविधा रही. तब से अमन अंकल का हमारे परिवार से संबंध जुड़ा. वह अरसे तक जारी रहा. उन का एक ही लड़का था जो आई.टी. इंजीनियर था. पहले बंगलौर में नौकरी पर लगा था. बाद में ऊंचे वेतन पर हैदराबाद चला गया.

अमन अंकल की पत्नी की मृत्यु कैंसर से हो गई थी. नौकरी शेष थी तो अमन अंकल वहीं रह कर नौकरी निभाते रहे. इस बीच उन का हमारे परिवार में आनाजाना जारी रहा. मां की उन्होंने बहुत देखरेख की. पिता की मृत्यु का सदमा वह उन्हीं के कारण सह सकीं. यह उन का हमारे परिवार पर उपकार ही रहा. बाकी मां से उन के क्या और कैसे संबंध रहे, वह अधिक नहीं जानती.

प्रोजैक्ट-भाग 3: समीर के साथ शादी की दूसरी सालगिरह वाले दिन क्या हुआ

2-3 पैग पीने के बाद रंजीत ने कहा, ‘इस शहर में किसी चीज की जरूरत हो, तो मुझे बताइएगा. आप की हर ख्वाहिश पूरी होगी. और फिर उसी ने हमें बताया कि समीर की पत्नी शालिनी का चालचलन कुछ ठीक नहीं है. काम के बोझ के चलते वह अपनी बीवी को पूरा वक्त नहीं दे पाता, औफिस में भी ओवरटाइम करता है. और उधर इस के घर में हर रोज नएनए लोगों का आनाजाना लगा रहता है. इस बारे में समीर को जरा भी खबर नहीं है. एकदो बार तो मैं भी जा चुका हूं. आप का भी अगर मूड हो तो बताइएगा.‘

फिर दूसरा अफसर अपनी सफाई में बोला, ‘हम उस की बातों में आ गए और अगले दिन औफिस में समीर का प्रोजैक्ट सलैक्ट करने के बाद जब हम अपने रूम में आए, तो हमारे पीछेपीछे रंजीत भी 2 व्हिस्की की बोतल ले कर रूम में आ गया. और जब हम पीने बैठे तो उस ने बातोंबातों में कहा, ‘समीर दोपहर 3 बजे की ट्रेन से नोएडा जा रहा है, इस से अच्छा मौका फिर कभी नहीं मिलेगा, मैं तुम दोनों को उस के घर तक छोड़ दूंगा. और समीर के जाने के बाद शालिनी को भी तो अपने घर आने वाले खास मेहमानों का इंतजार रहेगा ही न,‘ कहते हुए उसी ने हमें समीर के घर तक अपनी गाड़ी से छोड़ा.

अब तक उन दोनों की बातों से सबकुछ स्पष्ट हो गया. उन की बातें सुन कर समीर का खून खौलने लगा था, तभी बौस बोले, ‘रंजीत ने समीर के साथ ऐसा क्यों किया? वह तो औफिस में इस का सीनियर है.‘

‘असली प्रोब्लम ही यही है सर कि वह मेरा सीनियर है, फिर भी पिछले 3 सालों से हर साल कंपनी से आने वाले अफसरों ने आज तक उस का कोई प्रोजैक्ट सलैक्ट नहीं किया. और इस बार आप ने यह काम मुझे सौंप दिया, तो उस ने इसे अपनी तौहीन समझते हुए मुझ से बदला लेने के लिए यह सब खेल खेला,‘ बौस की बात काटते हुए समीर ने अपना पक्ष रखा, तो बौस की आंखों के आगे जो भी धुंधला था सब साफ हो गया.

बौस ने पुलिस को रंजीत पर कड़ी कार्यवाही करने के निर्देश दिए और उन दोनों अफसरों की शिकायत कंपनी के हैड औफिस में कर दी, जिस के बाद उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया.

अपने आसपास के लोगों से भी हमें उतना ही सचेत रहने की आवश्यकता है, जितना अनजान अजनबियों से. शायद, यह बात अब शालिनी और समीर दोनों की समझ आ चुकी थी.

प्रोजैक्ट-भाग 2: समीर के साथ शादी की दूसरी सालगिरह वाले दिन क्या हुआ

लेखक-पुखराज सोलंकी

शाम 4 बजे के आसपास शालिनी किचन में चाय बना रही थी कि डोरबेल बजी. दरवाजा खोल कर देखा, तो वह भौचक्की रह गई. सामने वही 2 अफसर खड़े थे, जो थिएटर में समीर के बौस के साथ मौजूद थे. उन्हें हिलते हुए देख शालिनी को यह समझने में जरा भी देर नहीं लगी कि वे दोनों शराब के नशे में हैं. वह तो उन्हें बाहर से ही रवाना करने वाली थी, लेकिन वे अंदर आ गए तो उस ने उन्हें अनमने मन से बैठने की कह कर खुद किचन में चली गई.

जब शालिनी चाय ले कर आई, तो उन्हें चाय का कप पकड़ाते हुए पूछा, ‘समीर ने बताया नहीं कि आप आने वाले हो, और आप ने घर कैसे पहचान लिया? आप तो किसी दूसरे शहर ‘दरअसल, उस दिन हम लोग थिएटर से लौटते समय इसी रास्ते से हो कर गए थे, तो बौस ने ही हमें बताया था कि यह समीर का घर है. बस इसीलिए इधर से गुजरते हुए सोचा कि आप को बधाई देते चलें,‘ एक अफसर बोला.

‘वैसे, आप का बहुतबहुत धन्यवाद, जो आप ने समीर के प्रोजैक्ट को सलैक्ट किया. बहुत मेहनत की है उस ने इस पर,‘ शालिनी उन का अहसान जताते हुए बोली.‘अजी सलैक्ट तो उसी दिन कर लिया था जब आप को थिएटर में पहली दफा देखा था,‘ दूसरा अफसर बोला.

‘क्या मतलब…?‘ शालिनी तपाक से बोली‘जी, सच कहा है. जिसे ले कर वह गया है, वह तो कंपनी का प्रोजैक्ट है, लेकिन हमारा प्रोजैक्ट तो आप ही हो न भाभीजी,‘ कहते हुए उस ने शालिनी के हाथ पर झपट्टा मारा.

अब तक शालिनी उन की मंशा अच्छी तरह समझ चुकी थी. उस ने झटक कर अपना हाथ छुड़ाया और सीधे बाहर की ओर भागी. वे लड़खड़ाते हुए दरवाजे तक पहुंचे, तब तक शालिनी ने बाहर की कुंडी लगा कर उन्हें घर में बंद कर दिया.

बाहर निकल कर शालिनी ने मदद के लिए दाएंबाएं देखा, लेकिन कोई नजर नहीं आया. मोबाइल भी घर के अंदर छूट गया. तभी उसे सामने से एक आटोरिकशा आता दिखा, वह उस ओर दौड़ी. आटोरिकशा जब उस के पास आ कर रुका, तो वह भौंचक्की रह गई. उसे अपनी आंखों पर यकीन नहीं हुआ, लेकिन ये सच था.

उस आटोरिकशा में समीर ही बैठा हुआ था. शालिनी को इस हालत में देख समीर कुछ समझ नहीं पाया कि आखिर माजरा क्या है. शालिनी ने उसे सारी बात बताई और उस के वापस लौट आने की वजह भी पूछी, तो समीर ने कहा, ‘स्टेशन पहुंचने पर मुझे मालूम चला कि गाड़ी 3 घंटे देरी से चल रही है, इसीलिए सोचा कि यहां भीड़भाड़ में रहने से अच्छा है, घर पर ही आराम किया जाए. खैर, जो होता है अच्छे के लिए होता है,‘ कह कर उस ने मोबाइल निकाला और अपने बौस को फोन लगा कर इस पूरे घटनाक्रम के बारे में बताया.

‘तुम लोग बाहर ही रुके रहो समीर, मैं जल्दी ही वहां पहुंचता हूं,’ कह कर बौस ने फोन रखा. उधर वे दोनों अफसर भद्दी गालियां देते हुए अंदर से लगातार दरवाजा पीट रहे थे. कुछ देर बाद सामने से बौस की कार आती दिखाई दी. पीछेपीछे पुलिस की जीप भी आ रही थी.

जब कार पास आ कर रुकी, तो बाहर निकल कर बौस ने कहा, ‘घबराओ मत समीर. ऐसे लोगों की अक्ल ठिकाने लगाना मुझे अच्छे से आता है. ये लोग समझते हैं कि अनजान शहर में हम कुछ भी कर सकते हैं, लेकिन ऐसे लोगों के पर मुझे अच्छे से काटने आते हैं. पुलिस को मैं ने ही फोन किया है.’

पुलिस की जीप आ कर रुकी, तो झट से 4-5 पुलिस वाले बाहर निकले. समीर ने अपने घर की ओर इशारा किया, जिस में से उन दोनों अफसरों की भद्दी गालियों की आवाज आ रही थी. पुलिस ने दरवाजा खोला और उन दोनों को वहीं पर ही दबोच लिया और ले जा कर जीप में बिठाया.

बौस ने समीर से कहा, ‘शालिनी बेटी ने एक काम तो अच्छा किया कि इन्हें घर में बंद कर दिया, वरना आज अगर ये भाग जाते तो इन को पकड़ पाना थोड़ा मुश्किल होता, क्योंकि आज रात 9 बजे की फ्लाइट से ये दोनों मुंबई जाने वाले थे.‘

बौस ने आगे कहा, ‘दरअसल, गलती मेरी ही है, उस दिन थिएटर से लौटते  वक्त हम लोग इधर से गुजर रहे थे, तो मैं ने यों ही इन्हें कह दिया था कि हमारे औफिस में आप के सामने जो अपना प्रोजैक्ट पेश करेगा, उस समीर का घर यही है. लेकिन मुझे क्या पता था कि ये लोग शराब के नशे में अपना विवेक भूल कर ऐसी नीच हरकत कर बैठेंगे. इन्हें सिर्फ पुलिस को सौंपने से कुछ नहीं होगा. जब तक दोनों को नौकरी से न निकलवा दूं, मैं चैन की सांस नहीं लेने वाला. खैर, जो होता है अच्छे के लिए होता है.

‘तुम लोग आओ, मेरी गाड़ी में बैठो. थाने चल कर शालिनी के बयान दर्ज करवाने हैं.‘

शालिनी और समीर दोनों कार में बैठे. बौस ने कार स्टार्ट कर आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘इन का तो अभी काम हो जाएगा, रही बात तुम्हारे प्रोजैक्ट की तो उस पर की गई तुम्हारी मेहनत मैं बेकार नहीं जाने दूंगा. उस के लिए मैं कंपनी से बात कर लूंगा. तुम थोड़ा धैर्य रखो. इन दोनों की तो शिकायत कर कंपनी से निकलवाऊंगा. साथ ही, इस प्रोजैक्ट के लिए अगले महीने की तारीख तय करने की कोशिश करूंगा.

‘और इस बार जाते वक्त शालिनी को भी साथ लेते जाना. यह भी घूम आएगी तुम्हारे साथ. वहां मीटिंग में बस 2-3 घंटे का ही काम होता है. फिर ऐश करना तुम लोग,‘ बौस ने यह कहा, तो शालिनी और समीर दोनों के चेहरे एक लंबी सी मुसकान ने दस्तक दे दी.

बौस ने गाड़ी को ब्रेक लगाया. पुलिस स्टेशन आ चुका था और पीछेपीछे पुलिस की वह जीप भी आ गई थी, जिस में वे दोनों अफसर मौजूद थे जो कि लाख मना करने के बावजूद शराब के नशे में ऊलजलूल बके जा रहे थे. उन की हरकत और मामले की गंभीरता को देखते हुए उन्हें सलाखों के पीछे धकेल दिया गया.

‘फिलहाल तो ये दोनों अभी नशे में हैं. कल सुबह इन का नशा उतरते ही पूछताछ की जाएगी. उस के बाद ही स्थिति साफ हो पाएगी.

‘और हां.. इस दौरान अगर आप में से किसी की जरूरत पड़ी, तो आप को फोन कर दिया जाएगा. अभी आप लोग जा सकते हैं,‘ पुलिस ने शालिनी और समीर के बयान दर्ज कर के कहा. और फिर तीनों वहां से निकल गए.

बौस ने उन दोनों को घर छोड़ते हुए कहा, ‘पुलिस स्टेशन से फोन आए, तो मुझे भी इत्तिला कर देना. मैं भी साथ चलूंगा.‘

अगले दिन सुबह फोन की घंटी के साथ ही समीर की आंख खुली. फोन पुलिस स्टेशन से था. बात कर के समीर ने शालिनी को जगाते हुए कहा, ‘सुनो डियर, पुलिस स्टेशन से फोन आया है. पुलिस ने उन दोनों से पूछताछ कर ली. सुबह साढे़ 10 बजे हमें पुलिस स्टेशन बुलाया है. तुम जल्दी से उठ कर तैयारी करो. मैं बौस को फोन मिलाता हूं,‘ शालिनी को जगा कर समीर ने अपने बौस को इस बारे में जानकारी दी. और फिर साढे़ 10 बजे तीनों पुलिस स्टेशन पहुंच गए.

उन तीनों को देख थानाधिकारी ने कुरसी की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘आइए.. आइए.. बैठिए, आप लोग किसी रंजीत नाम के शख्स को जानते हैं, जो कि आप ही के औफिस में काम करता है.’

‘हां… हां, बिलकुल, औफिस में वह मेरा सीनियर है,‘ समीर बोला.‘लेकिन, रंजीत का इस केस से क्या ताल्लुक…?‘ बौस ने आश्चर्यमिश्रित भाव से कहा.

‘‘आप लोग मुझे उस का पूरा पता और मोबाइल नंबर दीजिए. अभी पता चल जाएगा कि इस केस से उस का क्या ताल्लुक है,’ थानाधिकारी ने प्रतिउत्तर में कहा. और फिर आवाज लगाई, ‘हवलदार, उन दोनों नशेड़ियों को बाहर लाओ जरा.’

अब दोनों अफसर अपनी झुकी गरदन के साथ उन सब के सामने थे. उन दोनों को अपनी आंखों के सामनेपा कर बौस ने कहा, ‘तुम जैसे अफसरों को पहचानने में मुझ से चूक कैसे हो गई. मैं ने अपने 22 साल के कैरियर में अब तक इतने बेशर्म और घटिया किस्म के अफसर नहीं देखे.‘‘इस में हमारी कोई गलती नहीं है, हमें माफ कर दीजिए,‘ एक अफसर बौस की बात काटते हुए बोला.

‘गलती तुम्हारी नहीं, गलती तो मेरी है, जो तुम्हें उस दिन फिल्म देख कर लौटते समय रास्ते में पड़ने वाले समीर के घर के बारे में बताया,‘ बौस ने अपनी भड़ास निकालते हुए कहा.

‘ऐसा बिलकुल नहीं है सर, दरअसल, उस दिन फिल्म देखने के बाद आप ने तो हमें होटल के गेट तक ही छोड़ा था, लेकिन जब हम अंदर गए तो आप के औफिस में काम करने वाला रंजीत रूम के आगे खड़ा हमारा इंतजार कर रहा था. रूम में जा कर हम ने कुछ देर बात की और फिर उस ने अपने बैग में से व्हिस्की की बोतल निकाल कर हमारी मानमनौव्वल की, तो हम ने भी हामी भर दी.

प्रोजैक्ट-भाग 1: समीर की शादी की दूसरी सालगिरह वाले दिन क्या हुआ

लेखक-पुखराज सोलंकी

शनिवार को ओवर टाइम करने के बावजूद भी समीर का काम पूरा नहीं हो पाया था. रविवार को छुट्टी थी और सोमवार को औफिस की मीटिंग में किसी भी हाल में उसे प्रोजैक्ट पेश करना था, इसलिए वह औफिस का काम घर पर ले आया था, ताकि कैसे भी कर के प्रोजैक्ट समय पर पूरा हो जाए.

लेकिन, घर पहुंचते ही उसे याद आया कि रविवार को वह अपनी पत्नी शालिनी के साथ फिल्म देखने जाने वाला है. और इस बार वह मना भी नहीं कर सकता था, क्योंकि अब की मैरिज एनिवर्सरी भी तो इसी रविवार को पड़ रही है.

पिछली बार की तरह इस बार वह अपने काम की वजह से शालिनी का मूड औफ नहीं करना चाहता था. रात के खाने के बाद वह शालिनी से यह कह कर अपने काम में जुट गया, ‘सौरी डियर.. आज थोड़ा काम निबटा लूं, कल पूरा दिन ऐंजौए करेंगे.‘

समीर के चेहरे पर काम का तनाव साफ झलक रहा था, जिसे चाह कर भी वह शालिनी से छुपा न सका. शालिनी उस की ओर करवट ले कर लेटी उसे देखती रही और लेटेलेटे कब उस की आंख लग गई, उसे पता ही नहीं चला.

अगले दिन सुबह जब शालिनी तैयार हो कर समीर के सामने आई, तो वह उस की तारीफ किए बिना नही रह सका. अभी उस की तारीफ खत्म भी नहीं हुई थी कि शालिनी ने अपनी बंद मुट्ठी समीर की ओर बढ़ाई. समीर ने उस का हाथ थाम कर बंद मुट्ठी की एकएक कर उंगली खोली और मुट्ठी में बंद चमकीली सिंदूरदानी अपने हाथ में ले कर शालिनी की मांग भरी और उसे अपनी बांहों में भर लिया.

इस दौरान शालिनी को भी न जाने क्या शरारत सूझी, वह उस की पीठ पर अपनी उंगली फिराते हुए बोली, ‘बताओ, मैं ने क्या लिखा है?‘

‘तुम्हारा नाम,‘ शालिनी को अपनी बांहों में कसते हुए समीर ने कहा.‘बिलकुल गलत. अच्छा चलो, दोबारा लिखती हूं, अब ठीक से बताना.‘शालिनी  फिर से समीर की पीठ पर उंगली से कुछ लिखने लगी. अपनी पीठ पर घूमती शालिनी की उंगली के साथसाथ समीर ने अपना दिमाग भी घुमाना शुरू किया और फिर तपाक से बोला, ‘आई लव यू.‘

सही जवाब पा कर शालिनी के चेहरे पर मुसकान फैल गई, ‘आई लव यू टू मेरी जान, चलो, अब जल्दी से तैयार हो जाओ. याद है न, आज हम लोग फिल्म देखने जाने वाले थे,‘ समीर को याद दिला कर शालिनी अपने काम में बिजी हो गई.

शालिनी चाहती तो आज फिल्म देखने का प्रोग्राम कैंसिल भी कर सकती थी. उस की कोई खास इच्छा नहीं थी फिल्म देखने की और न ही थिएटर में उस के पसंद की कोई मूवी लगी थी. उसे तो बस कैसे भी कर के इस बार यह खास दिन समीर के साथ बिताना था.

हालांकि शालिनी अच्छी तरह से जानती थी कि इस बार समीर के लिए यह प्रोजैक्ट कितना माने रखता है. लेकिन फिर भी उस ने समीर की मरजी देखनी चाही और चुप रही.

शालिनी यह सब सोच ही रही थी कि समीर तैयार हो कर उस के सामने आ खड़ा हुआ. वह समीर को अपलक देखती रही, समीर नीचे से ऊपर तक बिलकुल टिपटौप था. बस चेहरा थोड़ा उतरा हुआ था. तैयार होने बावजूद वह अपने चेहरे से काम का तनाव नहीं छुपा सका. अनमना सा समीर शालिनी को साथ ले कर चल पड़ा.

वहां थिएटर में पहुंच कर वे गाड़ी पार्क कर के अंदर की ओर जाने लगे कि वहां पार्किंग में पहले से खड़ी एक ब्लैक कार को देख कर समीर चैंक गया और बोला, ‘अरे, बौस की गाड़ी, मतलब, बौस भी फिल्म देखने आए हुए हैं.‘

‘इतना बड़ा शहर है, इस कंपनी और इस कलर की गाड़ी किसी और की भी तो हो सकती है, क्या नंबर याद है तुम्हें बौस की गाड़ी का?‘ शालिनी ने पूछा.

नंबर को सुनते ही समीर बोला, ‘खैर, छोड़ो जो होगा देखा जाएगा. दोनों आगे बढे़ और थिएटर में अपनी सीट पर जा कर बैठ गए. फिल्म शुरू हो चुकी थी. फिल्म का शुरुआती सीन ही इतना सस्पैंस भरा था कि समीर की उत्सुकता बढ़ गई और उस के चेहरे से काम का तनाव जाता रहा.

इंटरवल में जब वह स्नैक्स लेने कैंटीन पहुंचा, तो भीड़ में अपने कंधे पर अचानक किसी का हाथ पाया. उस ने पीछे मुड़ कर देखा तो वही हुआ जिस बात का अंदेशा था. उस का बौस सोमवार की मीटिंग में आने वाले उन दोनों अफसरों के साथ फिल्म देखने पहुंचा हुआ था.

‘क्या बात है समीर अकेलेअकेले, पहले पता होता तो तुम्हें भी साथ ले आते हम लोग,‘ बौस ने मुसकराते हुए कहा.‘नहीं सर, मैं अकेला नहीं शालिनी भी साथ में है, वह वहां बैठी है. वैसे, आज हमारी शादी की दूसरी सालगिरह है. बस इसीलिए फिल्म दिखाने ले आया.‘

‘ओहो… कांग्रेचुलेशन समीर. और हां, मैडम कहां है भई, आज तो उन्हें भी बधाई देनी बनती है,‘ बौस ने ठहाका लगाते हुए कहा.समीर अपने बौस और उस के साथ आए दोनों अफसरों को शालिनी के पास ले आया. सब ने शालिनी को बधाई दी.

‘क्या लेंगे सर आप लोग ठंडा या गरम?‘ समीर ने पूछा.‘भई, तुम्हारी शादी की सालगिरह है, सिर्फ इतने से काम नहीं चलने वाला पूरी पार्टी देनी होगी.’समीर ने पार्टी के लिए हां भरी, तभी फिल्म शुरू हो गई, तो सभी अपनीअपनी सीटों पर जा कर बैठ गए.

फिल्म के खत्म होने पर समीर ने शालिनी को कुछ शौपिंग कराई. शहर की कई फेमस जगहों पर घुमाया, वहां सेल्फियां लीं और घर लौटते हुए खाना उसी होटल में खाया, जहां वे शादी से पहले कई बार एकसाथ गए थे.

रात गहराने लगी थी. घर पहुंच कर समीर सीधे अपने काम में जुट गया. फिर से उस के चेहरे पर वही काम का तनाव देख शालिनी समझ गई. कपड़े चेंज कर वह भी उस की मदद करने की मंशा से पास आ कर बैठ गई. उस ने भी कुछ हाथ बंटाया और देर रात तक समीर के उस महत्वाकांक्षी प्रोजैक्ट को अंजाम तक पहुंचा ही दिया.

समीर अब काफी हलका महसूस कर रह था. उसे उम्मीद नहीं थी कि दिनभर की मौजमस्ती के बाद देर रात तक प्रोजैक्ट तैयार हो जाएगा. वह खुशी से उछल पड़ा. मदद के लिए शालिनी का शुक्रिया अदा करते हुए उसे अपनी बांहों में भर लिया.

शालिनी भी तो यही चाहती थी. उसे मालूम था कि जब तक काम पूरा नहीं होगा, समीर उस के पास नहीं आने वाला इसीलिए उस ने साथ लग कर उस के काम को अंजाम तक पहुंचाया.

‘थैंक यू सो मच डियर, तुम न होती तो सुबह हो जाती,‘ कहते हुए समीर ने शालिनी के गले पर नौनस्टोप एक बाद एक किस करने लगा.

शालिनी की सांसों की रफ्तार बढ़ने लगी. वह भी उस का साथ देते हुए बोली, ‘अब सुबह एकदूसरे की बांहों में ही होगी.‘ और समीर को कस कर अपनी बांहों में जकड़ लिया.

अगले दिन सुबह किचन में खटपट की आवाज से शालिनी की आंख खुली, तो चैंक गई. किचन में जा कर देखा तो हमेशा देर से उठने वाला समीर आज नहाधो कर नाश्ता बनाने लगा है.

‘क्यों मैडम पूरे 3 घंटे लेट उठी हो. लगता है, कल रात कुछ ज्यादा ही मेहनत कर ली थी,‘ शालिनी को देख कर समीर बोला.‘मेहनत न करती तो तुम्हारा प्रोजैक्ट कैसे पूरा होता.‘

‘मैं इस मेहनत की नहीं उस मेहनत की बात कर रहा हूं,‘ यह सुन कर शालिनी शरमा कर बाथरूम की ओर चल दी.जब तक वह बाहर निकली, तब तक समीर नाश्ता कर चुका था. और आज शाम थोड़ी देर से आने की कह कर वह औफिस के लिए निकल गया.

औफिस पहुंच कर जब उस ने मीटिंग में बौस के सामने अपना प्रोजैक्ट पेश किया, तो बौस ने बाहर से आए उन अफसरों के सामने उस प्रोजैक्ट को रखा.

कुछ देर की बातचीत, जांचपरख और नफानुकसान देखने के बाद समीर के उस महत्वाकांक्षी प्रोजैक्ट को सलैक्ट करने का डिसीजन ले लिया गया.

बौस ने उसे अगले ही दिन लखनऊ से नोएडा जाने का टिकट थमाते हुए कहा, ‘2 दिन बाद कंपनी के हैड औफिस नोएडा में एक मीटिंग है, जिस में तुम्हें देशविदेश से आए लोगों के सामने इसी प्रोजैक्ट को एक बार फिर से पेश करना होगा. यह लो टिकट. कल दोपहर 3 बजे की ट्रेन है. अब तो दोदो पार्टियां बनती हैं.‘

‘जी सर जरूर, लौट के आने पर 2 नहीं 4 पार्टियां दे दूंगा एकसाथ,‘ समीर खुशीखुशी बोला.घर पहुंच कर समीर ने शालिनी को यह खुशखबरी दी. इस प्रोजैक्ट में उस ने भी तो अपना सहयोग दिया था. यह सुन कर वह भी बहुत खुश हुई. समीर ने जब बताया कि कल वह 2 दिन के लिए दोपहर 3 बजे की ट्रेन से कंपनी के काम से नोएडा जा रहा है, इसलिए पैकिंग कर देना. तब से शालिनी पैकिंग में जुट गई.

अगले दिन समीर शालिनी को काम खत्म होते ही जल्द लौट आने का वादा कर के निश्चित समय पर स्टेशन की ओर घर से निकल गया.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें