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‘‘भूल जाओ न उसे,’’ पापा बोले थे, ‘‘समझ लो उस का कोई भी अस्तित्व कहीं है ही नहीं. शरीर का जो हिस्सा सड़गल जाए उसे काट कर अलग करना ही पड़ता है वरना तो सारा शरीर गलने लगता है… तुम्हारा अपना बेटा शादी कर के अपने घर में खुश है न, तुम पतिपत्नी चैन से जीते क्यों नहीं? क्यों उठतेबैठते उसी का रोना ले कर बैठे रहते हो?’’
‘‘अपना बेटा खुश है और यह कौन सा पराया था. भैया, हम ने कभी इस की खुशी पर कोई रोक नहीं लगाई. अपने बेटे पर उतना खर्च नहीं किया जितना इस पर करते रहे. इस की पढ़ाई का कर्ज हम आज तक उतार रहे हैं. अपना बेटा तो वजीफे से ही पढ़ गया. जहां इस ने कहा, वहीं इस की शादी की. अब और क्या करते. कम से कम अपने घर में चैन से जीने तो देता हमें…हमारे पीछे हाथ धो कर पड़ना उस ने अपना अधिकार बना लिया है. हम खुश हुए नहीं कि जहर उगलना शुरू. चार लोगों में तमाशा बनाना जैसे शगल है उस का…अभी राहुल के घर बच्चा होगा…’’
‘‘तब मत बुलाना न उसे. जब तुम जानती हो कि वह तुम्हारा तमाशा बनाता है तब काट कर फेंक क्यों नहीं देतीं उसे.’’
‘‘भैया, वह अपना है.’’
‘‘अपना समझ कर सब सहन करती हो उसी का तो वह फायदा उठाता है. शायद वह तुम पर वही अधिकार चाहता है, जो तब था जब तुम ब्याह कर उस घर में गई थीं. तुम ने अपनी संतान तब पैदा की थी जब तुम्हारा देवर 10 साल का था. इतने साल का उस का एकाधिकार छिन जाना उस से सहा नहीं गया. अपनी सीमा रेखा भूल गया.
‘‘ऐसी मानसिकता धीरेधीरे प्रबल होती गई. उस का अपमानित करना बढ़ता गया और तुम्हारी सहनशक्ति बढ़ती गई. मोहममता की मारी तुम उसे बालहठ समझती रहीं. दबी आवाज में मैं ने तुम से पहले भी कहा था, ‘अपने बेटे और देवर में उचित तालमेल रखो. जिस का जितना हक बनता है उसे न उस से ज्यादा दो और न ही कम.’ अब त्याग दो उसे. अपने जीवन से निकाल दो अभी.’’
स्तब्ध रह गया हूं मैं आज. मेरे पिता जो सदा निभाना सिखाते रहे, आज काट कर फेंक देना सिखाने लगे.
‘‘वो जमाना नहीं रहा अब जब हम आग का दरिया पचा जाया करते थे और समुंदर के समुंदर पी कर भी जाहिर नहीं होने देते थे. आज का इनसान इतना सहनशील नहीं रहा कि बुराई पर बुराई सहता रहे और खून के घूंट पी कर भी मुसकराता रहे.
‘‘आज हर तीसरा इनसान अवसाद में जी रहा है. आखिर क्यों? पढ़ाईलिखाई ने तहजीब में रहना सिखाया है न इसीलिए तहजीब ही निभातेनिभाते हम अवसाद का शिकार हो जाते हैं. जो लोग कुत्तेबिल्ली की तरह लड़ा करते हैं वे तो अपनी भड़ास निकाल चुकते हैं न, भला वे क्यों जाएंगे अवसाद में.
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‘‘संस्कारी और तहजीब वाला इनसान खुद पर ही जुल्म करे, क्या इस से यह अच्छा नहीं कि वह उस इनसान से ही किनारा कर ले. भूल जाओ उस 5 साल के बच्चे को जो कभी तुम्हारा हर पल का साथी था. अब बहुत बदल चुका है वह. समझ लो वह इस शहर में ही नहीं रहता. सोच लो अमेरिका चला गया है…दिल को खुश रखने को यह खयाल क्या बुरा है गायत्री?’’
कुछ कचोटने लगा है मुझे. मेरे आफिस में मेरा एक घनिष्ठ मित्र है जो आजकल बदलाबदला सा लगने लगा है. पिछले 10 साल से हम साथसाथ हैं. अच्छी दोस्ती थी हम में. जब से मेरा प्रोमोशन हुआ है, वह नाखुश सा है. जलन वाली तो कोई बात ही नहीं है क्योंकि उस का क्षेत्र मेरे क्षेत्र से सर्वदा अलग है. ऐसा तो है ही नहीं कि उस की कोई शह मेरी गोद में चली आई हो. कटाकटा सा भी रहता है और मौका मिलते ही चार लोगों के बीच अपमानित भी करता है. पिछले 6 महीने से मैं उस का यह व्यवहार देख रहा हूं, कोशिश भी की है कि बैठ कर पूछूं मगर पता नहीं क्यों वह अवसर भी नहीं देता. कभीकभी लगता है वह मुझ से दुश्मनी भी निकाल रहा है. अपना व्यवहार भी मैं पलपल परख रहा हूं कि कहीं मैं ही कोई भूल तो नहीं कर रहा.
हैरान हूं मैं. मैं तो आज भी वहीं खड़ा हूं जहां कल खड़ा था, ऐसा लगता है वही दूर जा कर खड़ा हो गया है और बातबेबात मेरा उपहास उड़ा रहा है. धीरेधीरे दुखी रहने लगा हूं मैं. आखिर मैं कहां भूल कर रहा हूं. काम में जी नहीं लगता. ऐसा लगता है कोई प्यारी चीज हाथ से निकली जा रही है. शायद मेरे स्नेह का निरादर कर उसे अच्छा लगता है.
‘‘अपनेआप के लिए भी तुम्हारी कोई जिम्मेदारी बनती है न गायत्री. अपने पति के प्रति, अपनी सेहत के प्रति… अपने लिए जीना सीखो, बच्ची.’’
पापा अकसर प्यार से बूआ को बच्ची कहते हैं. बूआ की अपने देवर के प्रति ममता तो मैं बचपन से देखता आ रहा हूं आज ऐसी नौबत चली आई कि उसी से बूआ को हाथ खींचना पड़ेगा… क्योंकि बूआ अवसाद में जा चुकी है. डिप्रेशन का मरीज जब तक डिप्रेशन की वजह से दूर न होगा, जिएगा कैसे.
‘‘कोई भी रिश्ता तभी तक निभ सकता है जब तक दोनों ही निभाने के इच्छुक हों. अमृत का भरा कलश केवल एक बूंद जहर से विषाक्त हो जाता है. हमारा मन तो मानवीय मन है जिस पर इन बूंदों का निरंतर गिरना हमें मार न दे तो क्या करे.
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‘‘अपना निरादर कराना भी तो प्रकृति का अपमान है न. सहना भी तभी तक उचित है जब तक आप सह पाएं. सहने की अति यदि आप को या हमें मारने लग जाए तो क्यों न हाथ खींच लिया जाए, क्योंकि रिश्तों के साथसाथ अपने प्रति भी हमारी कोई जिम्मेदारी है न. क्यों कोई आप के प्यार और अपनत्व का तिरस्कार करता रहे, क्यों आप के वात्सल्य और स्नेह को कोई अपनी जागीर ही समझ कर जब चाहे पैर के नीचे रौंद दे और जब चाहे जरा सा पुचकार दे.
‘‘अब छोटा बच्चा नहीं है वह कि तुम हाथ खींच लोगी तो मर जाएगा. 2 बच्चों का बाप है. अपने आलीशान घर में रहता है. तुम्हारे घर से कहीं बड़ा घर है उस का. क्या कभी बुलाता है वह तुम्हें? क्या तुम से कभी पूछता है वह कि तुम जिंदा हो या मर गईं?
‘‘उसे उतना ही महत्त्व दो जिस के वह लायक है. संकरे बर्तन में ज्यादा वस्तु डाली जाए तो वह छलक कर बाहर निकलती है. यह इनसानी फितरत है बच्ची, पास पड़ी शह की मनुष्य कद्र नहीं करता. जो मिल जाए वह मिट्टी और जो खो जाए वह सोना, तो सोना बनो न पगली…मिट्टी क्यों बनती हो?’’
चुप हो गए पापा. शायद बूआ पर नींद की गोली का असर हो चुका है. गहरी पीड़ा में हैं बूआ. क्षमता से ज्यादा जो सह चुकी हैं.
फूफाजी और पापा बाहर चले आए. हमारा पूरा परिवार बूआ की वजह से दुखी है. निर्णय हुआ कि कुछ दिन दोनों राहुल के पास बंगलौर चले जाएंगे इस माहौल से दूर. शायद जगह बदल कर बूआ को अच्छा लगे.
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हफ्ता भर बीत चुका है. अब मैं अपने नाराज चल रहे मित्र की तरफ देखता ही नहीं हूं. जरूरी बात भी नहीं करता. पास से निकल जाता हूं जैसे उसे देखा ही नहीं. पहले उस के लिए रोज जूस मंगवाता था, अब सिर्फ अपने ही लिए मंगवाता हूं. नतीजा क्या होगा मैं नहीं जानता मगर मैं चैन से हूं. कुंठा तंग नहीं करती, ऐसा लगता है अपनेआप पर दया कर रहा हूं. क्या करूं मेरे लिए भी तो मेरी कोई जिम्मेदारी बनती है न. पापा सच ही तो कह रहे थे, किसी के लिए मिट्टी भी क्यों बना जाए. सहज उपलब्ध हो कर क्यों अपना मान घटाया जाए. आखिर हमारे आत्मसम्मान के प्रति भी हमारी कोई जिम्मेदारी बनती है कि नहीं.