
लेखक- मनमोहन भाटिया
यह सुन कर सुभाष तो मुसकरा दिए. समीर व साक्षी एकदम सन्न रह गए कि मौके की नजाकत खुद मृतक की पत्नी व साले ही नहीं समझ रहे हैं. तभी डौली के छोटे भाई का मोबाइल फोन बजा. फोन उसी टिंडे नाम के आदमी का था, जिस को अभी भद्दी गालियां निकाली जा रही थीं.
‘‘अबे, कहां मर गया, टिंडे,’’ छोटे भाई ने अभी इतना ही कहा था कि बड़े भाई ने छोटे भाई के हाथ से मोबाइल खींच लिया और चीख कर कहा, ‘‘कुत्ते, यहीं से ट्रिगर दबा दूं…’’ लेकिन दूसरे ही पल वह टिंडे को बधाई देने लगा, ‘‘वेलडन टिंडा, तू जीनियस है, तेरा मुंह मोतियों से भर दूंगा, आज तू ने जीजाजी की शहादत बेकार नहीं जाने दी, वेलडन, टिंडा… अच्छा, पंडित…ठीक है, ठीक है,’’ फोन काट कर बड़ा भाई डौली के गले लग गया, ‘‘बहना, उस हवेली का काम हो गया, टिंडे ने हवेली खाली करवा ली है.’’
‘‘शाबाश भाई, टिंडे ने आज जिंदगी में पहली बार कोई अच्छा काम किया है. खोटे सिक्के ने तो कमाल कर दिया.’’
‘‘बहना,’’ छोटा भाई बोला, ‘‘अच्छा, बड़े, पंडित को कौन ला रहा है?’’
‘‘चिंता न कर, आलू पंडित ला रहा है, बस पहुंचता ही होगा.’’
तभी एक मोटा आदमी पंडित के साथ आया. समीर और साक्षी उस मोटे आदमी को देख कर सोचने लगे, यह मोटा आदमी ही ‘आलू’ होगा.
पंडित के आने पर शोकसभा शुरू हो गई, रिवाज के अनुसार सभास्थल 2 भागों में बंट गया, पुरुष एक ओर व महिलाएं दूसरी ओर बैठ गईं. जो डौली अभी तक स्वीटनेस, क्यूटनेस ढूंढ़ रही थीं, वही दहाड़ें मार कर रो रही थीं, यह क्या मात्र दिखावा. पति मर गया, पत्नी को कोई अफसोस नहीं. सिर्फ बिरादरी के आगे झूठे आंसू.
1 घंटे तक पंडित की कथा चली, लेकिन समीर, साक्षी केवल डौली आंटी और उन के भाइयों के आचरण को ही देखते रहे. पंडित ने क्या कथा की, उन को कुछ नहीं सुनाई दी. सुभाष का मन भी उचाट था. वह भी बिहारी के बारे में सोचते रहे कि उस की मृत्यु सामान्य थी या कुछ और. खैर, 1 घंटे बाद शोकसभा समाप्त हुई. बिरादरी रुखसत होने लगी. सुभाष सभास्थल के बाहर आ गए, वहां कुछ पुराने परिचित वर्षों बाद मिले तो थोड़ीबहुत जानकारी बिहारी के बारे में मिलती रही कि बिहारी कई गैरकानूनी धंधों में लिप्त था, 2 बार जेल की हवा भी खा चुका था, जहां उस की मुलाकात शातिर अपराधियों से हुई और एक पुरानी हवेली पर कब्जे के कारण विरोधियों ने खाने में जहर दे दिया, जिसे फूड पौइजनिंग का नाम दे कर बिरादरी से छिपाया गया. उसी हवेली पर कब्जे का समाचार किसी टिंडे ने दिया था, जो सुभाष ने सुना था.
इधर सुभाष पुरुषों के बीच में और उधर सारिका महिलाओं में व्यस्त थी, जहां गहनों, डिजाइनों की बातें चल रही थीं. शोक प्रकट कर दिया तो दुनियादारी की बातों का सिलसिला चल रहा था.
‘‘सारिका, तू ने तो अपने को मेंटेन कर के रखा है, उम्र का पता ही नहीं चलता है. तेरे साथ तेरी लड़की को देख कर लगता है, हमारी देवरानी हमारी उम्र की है,’’ बबीता ने साक्षी का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘शादी कब कर रही है.’’
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शादी के नाम पर साक्षी एकदम चौंक गई. ताऊजी की शोकसभा पर शादी के रिश्तों की बात कर रही है. लोग क्या कुछ पल भी चुप नहीं रह सकते, वही राग, लेकिन सारिका धीरे से मुसकरा कर बोली, ‘‘दीदी, अभी उम्र ही क्या है, फर्स्ट ईयर में पढ़ रही है, पहले पढ़ाई करे, फिर नौकरी, फिर शादी की सोचेंगे, अभी कोई जल्दी नहीं है.’’
‘‘पढ़ने से कौन रोक रहा है. अच्छा रिश्ता आए तो आंख बंद कर के हां कर देनी चाहिए, बाद में उम्र ज्यादा हो जाए तो अच्छे लड़के नहीं मिलते. मेरे भाई का लड़का एकदम तैयार है, अब तो आफिस जाना शुरू कर दिया है. हमारे से भी ज्यादा काम है उस का. कहे तो बात चलाऊं.’’
‘‘कौन से भाई का लड़का, बड़े या छोटे का?’’ सारिका पूछ बैठी.
साक्षी मन ही मन जलभुन गई पर कुछ बोली नहीं.
‘‘बड़े वाले का बड़ा लड़का. बचपन में जिसे गोलू कहते थे. याद होगा,’’ बबीता बोली.
‘‘अरे, हां, याद आया, गोलू जैसा नाम था वैसा फुटबाल की तरह गोल था…’’
सारिका की बात बीच में ही काटते हुए बबीता ने कहा, ‘‘अब तो जिम जा कर हैंडसम बन गया है, मिलेगी तो गश खा जाएगी.’’
‘‘अभी नहीं दीदी, पहले पढ़ाई पूरी कर ले फिर. अभी सुभाष को कोई जल्दी नहीं है. आजकल लड़कियां जौब भी करती हैं, पढ़ाई बहुत जरूरी है.’’
इतने में रमेश कुछ और रिश्तेदारों के साथ आया, ‘‘भाभीजी, आज हम कितने सालों बाद मिले हैं, भाषी कहां है? अरे, वहां कोने में खड़ा है, भाषी, इधर आ,’’ रमेश की आवाज सुन कर समीर और साक्षी सोचने लगे कि पापा ने एक अलग दुनिया दिखाई है, जिस की कभी कल्पना भी नहीं की थी.
‘‘यार भाषी, देख, आज सभी भाई, भाभी बच्चों सहित जमा हैं, एक यादगार अकसर है, हमसब की एकसाथ फोटो हो जाए,’’ कह कर रमेश ने अपने बेटे को आवाज लगाई, ‘‘जिम्मी, निकाल अपना नया मोबाइल और खींच फोटो. मोबाइल भी क्या चीज निकाली है, छोटा सा मोबाइल और दुनिया भर के फीचर्स.’’
जिम्मी फोटो के साथ वीडियो भी बनाने लगा. सभागार के बाहर शोक का कोई माहौल नहीं था, एक पिकनिक सा माहौल था. कुछ देर बाद सब ने विदा ली.
घर आ कर सुभाष टैलीविजन पर एक न्यूज चैनल देख रहे थे. समीर ने कहा, ‘‘पापा, यह अनुभव जिंदगी भर नहीं भुला पाऊंगा.’’
‘‘बेटे, मृत्यु जीवन का कटु सत्य है. किसी के जाने से संसार का कोई काम नहीं रुकता, हर तरह के लोग दुनिया में तुम्हें मिलेंगे, आज तुम ने देखा कि पत्नी को पति की मृत्यु का कोई दुख नहीं था. शोकसभा एक पार्टी लग रही थी, कहीं ऐसा भी देखोगे कि पत्नी पति की मृत्यु पर टूट जाती है, जितने लोगों के व्यवहार का विश्लेषण करोगे, उतनी ही दुनिया की गहराई को जान पाओगे.
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‘‘हर इनसान अपनी सुविधा के अनुसार जीने का मापदंड स्थापित करता है, अपने लिए कुछ और दूसरों के लिए कुछ और. बेटे, मैं आज तक दुनियादारी नहीं पहचान सका. यह एक विस्तृत विषय है, इसे समझने के लिए पूरा जीवन भी कम है. किताबों से बाहर निकल कर कुछ व्यावहारिक ज्ञान मिले, इसी उद्देश्य से तुम्हें वहां ले कर गए थे. कालेज के बाद असली जिंदगी शुरू होती है, जो रहस्यों से भरपूर है. मुझे लगता है कि बड़े से बड़ा ज्ञानी भी इन रहस्यों को नहीं जान पाया है, हां, अपनी एक परिभाषा वह जरूर दे जाता है.’’
लेखक- मनमोहन भाटिया
महानगरों की जिंदगी पूरी तरह बदल गई है. हर इनसान अपने में ही व्यस्त है. कुसूर किसी का भी नहीं है, वक्त की कमी सभी को है और हर कोई दूसरे से न मिलने की शिकायत करता है. लेकिन व्यक्ति क्या खुद अपने गिरेबान में झांक कर स्वयं को देखता है कि वह खुद जो शिकायत कर रहा है, स्वयं कितना समय दूसरों के लिए निकाल पाता है.
सुबह आफिस जाने के लिए सुभाष तैयार हो कर नाश्ते की मेज पर बैठे समाचारपत्र की सुर्खियों पर नजर डाल रहे थे कि तभी फोन की घंटी बजी. फोन उठा कर उन्होंने जैसे ही हैलो कहा, दूसरी तरफ से आवाज आई, ‘‘क्या भाषी है?’’
एक अरसे के बाद भाषी शब्द सुन कर उन्हें अच्छा लगा और सोचने लगे कि कौन है भाषी कहने वाला, नजदीकी रिश्तेदार ही उन्हें भाषी कहते थे. तभी दूसरी तरफ की आवाज ने उन की सोच को तोड़ा, ‘‘क्या भाषी है?’’
‘‘हां, मैं भाषी बोल रहा हूं, आप कौन, मैं आवाज पहचान नहीं सका,’’ सुभाष ने प्रश्न किया.
‘‘भाषी, तू ने मुझे नहीं पहचाना, क्या बात करता है, मैं मेशी.’’
‘‘अरे, मेशी, कितने सालों बाद तेरी आवाज सुनाई दी है, कहां है तू. तेरी तो आवाज बिलकुल बदल गई है.’’
‘‘थोड़ा सा जुकाम हो रहा है पर यह बता, तू कहां है, कभी नजर ही नहीं आता.’’
‘‘मेशी, तेरे से मिले तो एक जमाना हो गया. क्या कर रहा है?’’
‘‘तेरे से यह उम्मीद न थी, भाषी. तू तो एकदम बेगाना हो गया है. मैं ने सोचा, कहीं तू विदेश तो नहीं चला गया, लेकिन शुक्र है कि तू बदल गया पर तेरा टैलीफोन नंबर नहीं बदला है.’’
‘‘क्या बात है मेशी, सालों बाद बात हो रही है और तू जलीकटी सुना रहा है.’’
‘‘भाषी, तू हरी के अंतिम संस्कार पर भी नहीं पहुंचा, आज उस की उठावनी है, इसलिए फोन कर रहा हूं, शाम को 3 से 4 बजे का समय है.’’
‘‘क्या बात करता है, हरी का देहांत हो गया. कब, कैसे हुआ, मुझे तो किसी ने बताया ही नहीं.’’
‘‘4 दिन हो गए हैं. आज तो उस की शोकसभा है. आना जरूर.’’
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‘‘कहां आऊं, पता तो बता…आज 10 साल बाद हमारे बीच बात हो रही है. न पता बता कर राजी है, न पहले बताया. बस, गिलेशिकवे कर रहा है,’’ भाषी ने तीखे शब्दों में अपनी नाराजगी जाहिर की.
मेशी ने उठावनी कहां होनी है, उस का पता बताया.
सुभाष की पत्नी सारिका रसोई में थी, टिफिन हाथ में ला कर बोली, ‘‘यह लो अपना लंच… नाश्ता यहीं ले कर आऊं या डाइनिंग टेबल पर लगाऊं.’’
‘‘टिफिन से खाना निकाल लो, आज आफिस नहीं जा रहा हूं.’’
‘‘क्यों? तबीयत तो ठीक है न?’’
‘‘हां, मेशी का फोन आया था. अभी उसी से बात कर रहा था. हरी का देहांत हो गया है, वहां जाना है.’’
‘‘क्या?’’ सारिका ने हैरानी से पूछा.
‘‘आज शाम को हरी की उठावनी है.’’
‘‘4 दिन हो गए और हमें पता ही नहीं. किसी ने बताया ही नहीं,’’ इस से पहले सारिका कुछ और कहती सुभाष ने कहा, ‘‘रहने दे, हम क्यों अपना दिमाग और समय खराब करें. जब पता चल ही गया है तो हम अभी हरी के घर चलते हैं और शाम को उठावनी में भी चलेेंगे.’’
‘‘ठीक है, मैं भी तैयार हो जाती हूं, फिर साथ चलते हैं.’’
सारिका तैयार होने चली गई तो सुभाष अतीत में गुम हो गया. हरी, भाषी और मेशी तो उन के घर के नाम थे. तीनों ताऊ, चाचा के लड़के थे. बचपन में सब के मकान एकसाथ थे. तीनों की उम्र में 1-2 साल का ही अंतर था. एकसाथ स्कूल जाना, पढ़ना, खेलना. तीनों भाई ही नहीं दोस्त भी थे.
हरी यानी बिहारी, मेशी यानी रमेश और भाषी यानी सुभाष. तीनों बड़े हो गए लेकिन बचपन के उन के नाम नहीं गए. बाहरी दुनिया के लिए वे भले ही बिहारी, रमेश, सुभाष हों, लेकिन एकदूसरे के लिए हरी, मेशी और भाषी ही थे.
कालेज की पढ़ाई के बाद हरी ताऊजी की दुकान पर बैठ गया. रमेश चाचाजी की दुकान पर और सुभाष ने नौकरी कर ली, क्योंकि उस के पिताजी का व्यापार नुकसान की वजह से बंद हो चुका था और बहनों की शादी के खर्च के बाद मकान भी बिक गया. सुभाष मांबाप के साथ किराए के मकान में रहने लगा तो वे दूर हो गए फिर भी आपसी नजदीकियां और मेलजोल पहले जैसा ही रहा.
सुभाष की शादी सब से पहले हुई, फिर रमेश की और सब से बाद में बिहारी की. जहां सुभाष की पत्नी सारिका गरीब परिवार की थी वहीं रमेश और बिहारी की शादियां बड़े व्यापारियों की बेटियों के साथ बहुत धूमधाम से हुईं. अमीर घर की बेटियां सारिका से दूरी ही बनाए रखती थीं, लेकिन घर के बुजुर्गों के रहते कुछ बोल नहीं पाती थीं.
समय बीतता गया. घर के बुजुर्गों के गुजर जाने के बाद रमेश और बिहारी की पत्नियां सेठानी की पदवी पा गईं, उन के सामने सारिका का कोई पद नहीं था, नतीजतन, सुभाष और सारिका का बचपन के लंगोटिया मेशी, हरी का साथ छूट गया.
एक शहर में रहते हुए भी वे अनजाने हो गए. आज के भौतिकवाद में हैसियत सिर्फ रुपएपैसों से तौली जाती है. सुभाष सोचने लगा, शायद 15 साल बीत गए होंगे, मेशी और हरी से मिले हुए. शायद नातेरिश्ते भी सिर्फ पैसा ही देखते हैं. एक छोटी सी नौकरी करते हुए सुभाष बिहारी और रमेश के नजदीक न आ सका. तभी सारिका की आवाज ने सुभाष को अतीत से वर्तमान में ला दिया.
‘‘कब चलना है, मैं तैयार हूं.’’
सुभाष व सारिका बाइक पर बैठ बिहारी (हरी) के मकान की ओर चल पड़े. सुभाष ने रमेश से बिहारी के नए मकान का पता ले लिया था. सुभाष और सारिका जब बिहारी की कोठी के सामने पहुंचे तो उस की भव्यता देख कर हैरान हो गए और उस के सामने उन्हें अपने 2 कमरे के फ्लैट का कोई वजूद ही नजर नहीं आ रहा था. वे हिम्मत कर के अंदर जाने लगे तो बड़े से भव्य गेट पर गार्ड ने उन्हें रोक लिया और विजिटर रजिस्टर पर नामपता लिखवाया फिर इंटरकौम पर पूछ कर इजाजत ली, तब कहीं अंदर जाने दिया.
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अंदर कुछ लोग पहले से बैठे थे जिन्हें सुभाष नहीं जानते थे. उन्हें कोई रिश्तेदार नजर नहीं आया. काफी देर तक वे बैठे रहे. जो लोग मिलने आ रहे थे, उन के डिजिटल कैमरे से फोटो खींच कर एक लड़का अंदर जाता और फिर मिलने की इजाजत ले कर बरामदे में आता और अपने साथ अंदर छोड़ कर आता.
सुभाष ने बैठेबैठे नोट किया कि उस लड़के के पास रिवाल्वर था. अपने भाई के देहांत पर अफसोस करने आए मगर अफसोस का यह सिस्टम उन की समझ से बाहर था कि क्यों आगंतुकों को एकएक कर के अफसोस जाहिर करने के लिए अंदर भेजा जा रहा है. आखिर 1 घंटे बाद सुभाष को अंदर भेजा गया. एक आलीशान कमरे में उस की भाभी डौली सोफे पर अपने 2 भाइयों के साथ बैठी थी. सोफे के दोनों कोनों पर 2 खूंखार विदेशी नस्ल के कुत्तों को देख कर सुभाष और सारिका ठिठक गए और दूर से ही हाथ जोड़ कर सिर झुका कर अफसोस जाहिर किया.
साढ़े 4 बजने में अभी पूरा आधा घंटा बाकी था पर रश्मि के लिए दफ्तर में बैठना दूभर हो रहा था. छटपटाता मन बारबार बेटे को याद कर रहा था. जाने क्या कर रहा होगा? स्कूल से आ कर दूध पिया या नहीं? खाना ठीक से खाया या नहीं? सास को ठीक से दिखाई नहीं देता. मोतियाबिंद के कारण कहीं बेटे स्वरूप की रोटियां जला न डाली हों? सवेरे रश्मि स्वयं बना कर आए तो रोटियां ठंडी हो जाती हैं. आखिर रहा नहीं गया तो रश्मि बैग कंधे पर डाल कुरसी छोड़ कर उठ खड़ी हुई. आज का काम रश्मि खत्म कर चुकी है, जो बाकी है वह अभी शुरू करने पर भी पूरा न होगा. इस समय एक बस आती है, भीड़ भी नहीं होती.
‘‘प्रभा, साहब पूछें तो बोलना कि…’’
‘‘कि आप विधि या व्यवसाय विभाग में हैं, बस,’’ प्रभा ने रश्मि का वाक्य पूरा कर दिया, ‘‘पर देखो, रोजरोज इस तरह जल्दी भागना ठीक नहीं.’’
रश्मि संकुचित हो उठी, पर उस के पास समय नहीं था. अत: जवाब दिए बिना आगे बढ़ी. जाने कैसा पत्थर दिल है प्रभा का. उस के भी 2 छोटेछोटे बच्चे हैं. सास के ही पास छोड़ कर आती है, पर उसे घर जाने की जल्दी कभी नहीं होती. सुबह भी रोज समय से पहले आती है. छुट्टियां भी नहीं लेती. मोटीताजी है, बच्चों की कोई फिक्र नहीं करती. उस के हावभाव से लगता है घर से अधिक उसे दफ्तर ही पसंद है. बस, यहीं पर वह रश्मि से बाजी मार ले जाती है वरना रश्मि कामकाज में उस से बीस ही है. अपना काम कभी अधूरा नहीं रखती. छुट्टियां अधिक लेती है तो क्या, आवश्यकता होने पर दोपहर की छुट्टी में भी काम करती है. प्रभा जब स्वयं दफ्तर के समय में लंबे समय तक खरीदारी करती है तब कुछ नहीं होता. रश्मि के ऊपर कटाक्ष करती रहती है. मन तो करता है दोचार खरीखरी सुनाने को, पर वक्त बे वक्त इसी का एहसान लेना पड़ता है.
रश्मि मायूस हो उठी, पर बेटे का चेहरा उसे दौड़ाए लिए जा रहा था. साहब के कमरे के सामने से निकलते समय रश्मि का दिल जोर से धड़कने लगा. कहीं देख लिया तो क्या सोचेंगे, रोज ही जल्दी चली जाती है. 5-7 लोगों से घिरे हुए साहब कागजपत्र मेज पर फैलाए किसी जरूरी विचारविमर्श में डूबे थे. रश्मि की जान में जान आई. 1 घंटे से पहले यह विचार- विमर्श समाप्त नहीं होगा.
वह तेज कदमों से सीढि़यां उतरने लगी. बसस्टैंड भी तो पास नहीं, पूरे 15 मिनट चलना पड़ता है. प्रभा तो बीमारी में भी बच्चों को छोड़ कर दफ्तर चली आती है. कहती है, ‘बच्चों के लिए अधिक दिमागखपाई नहीं करनी चाहिए. बड़े हो कर कौन सी हमारी देखभाल करेंगे.’
बड़ा हो कर स्वरूप क्या करेगा यह तो तब पता चलेगा. फिलहाल वह अपना कर्तव्य अवश्य निभाएगी. कहीं वह अपने इकलौते पुत्र के लिए आवश्यकता से अधिक तो नहीं कर रही. यदि उस के भी 2 बच्चे होते तो क्या वह भी प्रभा के ढंग से सोचती? तभी तेज हार्न की आवाज सुन कर रश्मि ने चौंक कर उस ओर देखा, ‘अरे, यह तो विभाग की गाड़ी है,’ रश्मि गाड़ी की ओर लपकी.
‘‘विनोद, किस तरफ जा रहे हो?’’ उस ने ड्राइवर को पुकारा.
‘‘लाजपत नगर,’’ विनोद ने गरदन घुमा कर जवाब दिया.
‘‘ठहर, मैं भी आती हूं,’’ रश्मि लगभग छलांग लगा कर पिछला दरवाजा खोल कर गाड़ी में जा बैठी. अब तो पलक झपकते ही घर पहुंच जाएगी. तनाव भूल कर रश्मि प्रसन्न हो उठी.
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‘‘और क्या हालचाल है, रश्मिजी?’’ होंठों के कोने पर बीड़ी दबा कर एक आंख कुछ छोटी कर पान से सने दांत निपोर कर विनोद ने रश्मि की ओर देखा.
वितृष्णा से रश्मि का मन भर गया पर इसी विनोद के सहारे जल्दी घर पहुंचना है. अत: मन मार कर हलकी हंसी लिए चुप बैठी रही.
घर में घुसने से पहले ही रश्मि को बेटे का स्वर सुनाई दिया, ‘‘दादाजी, टीवी बंद करो. मुझ से गृहकार्य नहीं हो रहा है.’’
‘‘अरे, तू न देख,’’ रश्मि के ससुर लापरवाही से बोले.
‘‘न देखूं तो क्या कान में आवाज नहीं पड़ती?’’
रश्मि ने संतुष्टि अनुभव की. सब कहते हैं उस का अत्यधिक लाड़प्यार स्वरूप को बिगाड़ देगा. पर रश्मि ने ध्यान से परखा है, स्वरूप अभी से अपनी जिम्मेदारी समझता है. अपनी बात अगर सही है तो उस पर अड़ जाता है, साथ ही दूसरों के एहसासों की कद्र भी करता है. संभवत: रश्मि के आधे दिन की अनुपस्थिति के कारण ही आत्मनिर्भर होता जा रहा है.
‘‘मां, यह सवाल नहीं हो रहा है,’’ रश्मि को देखते ही स्वरूप कापी उठा कर दौड़ आया.
बेटे को सवाल समझा व चाय- पानी पी कर रश्मि इतमीनान से रसोईघर में घुसी. दफ्तर से जल्दी लौटी है, थकावट भी कम है. आज वह कढ़ीचावल और बैगन का भरता बनाएगी. स्वरूप को बहुत पसंद है.
खाना बनाने के बाद कपड़े बदल कर तैयार हो रश्मि बेटे को ले कर सैर करने निकली. फागुन की हवा ठंडी होते हुए भी आरामदेह लग रही थी. बच्चे चहलपहल करते हुए मैदान में खेल रहे थे. मां की उंगली पकड़े चलते हुए स्वरूप दुनिया भर की बकबक किए जा रहा था. रश्मि सोच रही थी जीवन सदा ही इतना मधुर क्यों नहीं लगता.
‘‘मां, क्या मुझे एक छोटी सी बहन नहीं मिल सकती. मैं उस के संग खेलूंगा. उसे गोद में ले कर घूमूंगा, उसे पढ़ाऊंगा. उस को…’’
रश्मि के मन का उल्लास एकाएक विषाद में बदल गया. स्वरूप के जीवन के इस पहलू की ओर रश्मि का ध्यान ही नहीं गया था. सरकार जो चाहे कहे. आधुनिकता, महंगाई और बढ़ते हुए दुनियादारी के तनावों का तकाजा कुछ भी हो, रश्मि मन से 2 बच्चे चाहती थी, मगर मनुष्य की कई चाहतें पूरी नहीं होतीं.
स्वरूप के बाद रश्मि 2 बार गर्भवती हुई थी पर दोनों ही बार गर्भपात हो गया. अब तो उस के लिए गर्भधारण करना भी खतरनाक है.
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रश्मि ने समझौता कर लिया था. आखिर वह उन लोगों से तो बेहतर है जिन के संतान होती ही नहीं. यह सही है कपड़ेलत्ते, खिलौने, पुस्तकें, टौफी, चाकलेट स्वरूप की हर छोटीबड़ी मांग रश्मि जहां तक संभव होता है, पूरी करती है. पर जो वस्तु नहीं होती उस की कमी तो रहती ही है.
‘‘देख बेटा,’’ 7 वर्षीय पुत्र को रश्मि ने समझाना आरंभ कर दिया, ‘‘अगर छोटी बहन होगी तो तेरे साथ लड़ेगी. टौफी, चाकलेट, खिलौनों में हिस्सा मांगेगी और…’’
‘‘तो क्या मां,’’ स्वरूप ने मां की बात को बीच में ही काट दिया, ‘‘मैं तो बड़ा हूं, छोटी बहन से थोड़े ही लड़ूंगा. टौफी, चाकलेट, खिलौने सब उस को दूंगा. मेरे पास तो बहुत हैं.’’
अम्मां का चेहरा असंतुष्ट हो उठा. रश्मि किसी तरह पैरों में चप्पल डाल कर दफ्तर के लिए रवाना हुई. तेज चले तो 9 बजे वाली बस अब भी मिल सकती है.
आज शाम रश्मि जल्दी नहीं निकल सकी. 4 बजे साहब ने बुला कर जो टारक योजना समझानी शुरू की तो 5 बजने पर भी नहीं रुके.
‘‘मेरी बस निकल जाएगी, साहब,’’ उस ने झिझकते हुए कहा.
‘‘ओह, मैं तो भूल ही गया,’’ बौस ने चौंक कर घड़ी देखी.
‘‘जी, कोई बात नहीं,’’ रश्मि ने मुसकराने का प्रयास किया.
दफ्तर से निकलते ही टारक योजना दिमाग से निकल गई और रात को क्या भोजन बनाए इस की चिंता ने आ घेरा. जाते हुए सब्जी भी खरीदनी है. बस आने पर धक्कामुक्की कर के चढ़ी पर वह बीच रास्ते में खराब हो गई. रश्मि मन ही मन गालियां देने लगी. दूसरी बस ले कर घर पहुंचतेपहुंचते 7 बज गए. दूर से ही छत के ऊपर छज्जे पर खड़ा स्वरूप दिख गया. छुपनछुपाई खेल रहा था बच्चों के संग. बहुत ही खतरनाक स्थिति में खड़ा था. गलती से भी थोड़ा और खिसक आया तो सीधे नीचे आ गिरेगा. रश्मि का तो कलेजा मुंह को आ गया.
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‘‘स्वरूप,’’ उस ने कठोर स्वर में आवाज दी, ‘‘जल्दी नीचे उतर आओ.’’
‘‘अभी आया, मां,’’ कह कर स्वरूप दीवार फांद कर छत के दूसरी ओर गायब हो गया. अभी तक स्कूल के कपड़े भी नहीं बदले थे. सफेद कमीज व निकर पर दिनभर की गर्द जमा हो गई थी. बाल अस्तव्यस्त और हाथपांव धूल में सने थे. रश्मि का खून खौलने लगा. अम्मां दिन भर क्या करती रहती हैं. लगता है सारा दिन धूप में खेलता रहा है. हजार बार कहा है उसे छत के ऊपर न जाने दिया करें.
‘‘अम्मां,’’ अभी रश्मि ने आवाज ही दी थी कि सास फूट पड़ीं, ‘‘तेरा बेटा मुझ से नहीं संभलता. कल ही किसी क्रेच में इस का बंदोबस्त कर दे. सारा दिन इस के पीछे दौड़दौड़ कर मेरे पैरों में दर्द हो गया. कोई कहना नहीं मानता. स्कूल से लौट कर न नहाया, न कपड़े बदले, न ही ठीक से खाना खाया. ऊधम मचाने में लगा है. तू अपनी आंखों से देख क्या हाल बनाया है. मैं ने छत पर जाने से रोका तो मुझे धक्का मार कर निकल गया.’’
‘‘है कहां वह? अभी तक आया नहीं नीचे,’’ क्रोध से आगबबूला होती रश्मि स्वयं ही छत पर चली.
‘‘क्या बात है? नीचे क्यों नहीं आए?’’ ऊपर पहुंच कर उस ने स्वरूप को झिंझोड़ा.
‘‘बस, अपनी पारी दे कर आ रहा था मां.’’
मां के क्रोध से बेखबर स्वरूप की मासूमियत रश्मि के क्रोध को पिघलाने लगी, ‘‘चलो नीचे. दादी का कहा क्यों नहीं माना?’’
‘‘मुझे अच्छा नहीं लगता,’’ स्वरूप ने मुंह फुलाया, ‘‘इधर मत कूदो, कागज मत फैलाओ. कमरे में बौल से मत खेलो, गंदे पांव ले कर सोफे पर मत चढ़ो.’’
रश्मि की समझ में न आया किस पर क्रोध करे. बच्चे को बचपना करने से कैसे रोका जा सकता है? सास की भी उम्र बढ़ रही है, ऐसे में सहनशीलता कम होना स्वाभाविक है.
‘‘दादी तुम से बड़ी हैं स्वरूप. तुम्हें बहुत प्यार करती हैं. उन का कहना मानना चाहिए.’’
‘‘फिर मुझे आइसक्रीम क्यों नहीं खाने देतीं?’’
रश्मि थकावट महसूस करने लगी. कब तक नासमझ रहेगा स्वरूप.
‘‘आ गए लाट साहब,’’ पोते को देखते ही दादी का गुस्सा भड़क उठा, ‘‘तुम ने अभी तक इसे कुछ भी नहीं कहा? अरे, मैं कहती हूं इतना सिर न चढ़ाओ,’’ अपने प्रति दोषारोपण होते देख रश्मि का शांत होता क्रोध फिर उबल पड़ा.
‘‘चलो, कपड़े बदल कर हाथमुंह धोओ.’’
‘‘मैं नहीं धोऊंगा,’’ स्वरूप ने अड़ कर कहा.
‘‘क्या?’’ रश्मि जोर से चिल्लाई.
‘‘बस, मैं न कहती थी तुम्हारा लाड़प्यार इसे जरूर बिगाड़ेगा. लो, अब भुगतो,’’ सास ने निसंदेह उसे उकसाने के लिए नहीं कहा था पर रश्मि ने तड़ाक से एक चांटा बेटे के कोमल गाल पर जड़ दिया.
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स्वरूप जोर से रो पड़ा, ‘‘नहीं बदलूंगा कपड़े. जाओ, कभी नहीं बदलूंगा,’’ कह कर दूर जा कर खड़ा हो गया.
‘‘हांहां, कपड़े क्यों बदलोगे, सारा दिन आवारा बच्चों के साथ मटरगश्ती के सिवा क्या करोगे? देख रश्मि, असली बात तो मैं भूल गई, जा कर देख बौल मार कर ड्रेसिंग टेबल का शीशा तोड़ डाला है.’’
रश्मि को अब अचानक सास के ऊपर क्रोध आने लगा. थकीमांदी लौटी हूं और घर में घुसते ही राग अलापना शुरू कर दिया. गुस्से में उस ने स्वरूप के गाल पर 2 चांटे और जड़ दिए.
रश्मि क्रोध से और भड़की. पुत्र को खींच कर खड़ा किया और तड़ातड़ पीटना शुरू कर दिया.
‘‘सारी उम्र मुझे तंग करने के लिए ही पैदा हुआ था? बाकी 2 तो मर गए, तू भी मर क्यों न गया?’’
‘‘क्या पागल हो गई है रश्मि. बच्चे ने शरारत की, 2 थप्पड़ लगा दिए बस. अब गाली क्यों दे रही है? क्या पीटपीट कर इसे मार डालेगी?’’
क्रोध, ग्लानि और अवसाद ने रश्मि को तोड़ कर रख दिया था. कमरे में आ कर वह फफकफफक कर रो पड़ी. यह क्या किया उस ने. जान से भी प्रिय एकमात्र पुत्र के लिए ऐसी अशुभ बातें उस के मुंह से कैसे निकलीं?
‘‘जोश को समय पर लगाम दिया कर. जो मुंह में आता है वही बकने लगती है,’’ इकलौता पोता रश्मि की सास को भी कम प्रिय न था, ‘‘अरे, मैं सारा दिन सहती हूं इस की शरारतें और तू ने सुन कर ही पीटना शुरू कर दिया,’’ रश्मि की सास देर तक उसे कोसती रही. रश्मि के आंसू थम ही नहीं रहे थे. रहरह कर किसी अज्ञात आशंका से हृदय डूबता जा रहा था.
तभी एक कोमल स्पर्श पा कर रश्मि ने आंखें खोलीं. जाने स्वरूप कब आंगन से उठ आया था और यत्न से उस के आंसू पोंछ रहा था, ‘‘मत रोओ, मां. कोई मां की बद्दुआ लगती थोड़ी है.’’
रश्मि ने खींच कर पुत्र को हृदय से लगा लिया. कौन सिखाता है इसे इस तरह बोलना. समय से पहले ही संवेदनशील हो गया. फिर अभीअभी जो नासमझी कर रहा था वह क्या था?
जो हो, नासमझ, समझदार या परिपक्व, रश्मि के हृदय का टुकड़ा हर स्थिति में अतुलनीय है. पुत्र को बांहों में भींच कर रश्मि सुख का अनुभव कर रही थी.
रश्मि की बोलती बंद हो गई. समय से पहले क्यों इतना समझदार हो गया स्वरूप? रात का भोजन देख कर नन्हे स्वरूप के मस्तिष्क से छोटी बहन वाला विषय निकल गया. पर रश्मि जानती है यह भूलना और याद आना चलता ही रहेगा. हो सकता है बड़ा होने पर रश्मि स्वरूप को बहन न होने का सही कारण बता भी दे लेकिन जब तक वह इसी तरह जीने का आदी नहीं हो जाता, रश्मि को इस प्रसंग का सामना करना ही होगा.
मनपसंद व्यंजन पा कर स्वरूप चटखारे लेले कर खा रहा था, ‘‘कितना अच्छा खाना है. सलाद भी बहुत अच्छा है. मां, आप रोज जल्दी घर आ जाया करो.’’
रश्मि का मन कमजोर पड़ने लगा. मन हुआ कल ही त्यागपत्र भेज दे, नहीं चाहिए यह दो कौड़ी की नौकरी, जिस के कारण उस के लाड़ले को मनपसंद खाना भी नसीब नहीं होता.
‘‘चलो मां, लूडो खेलते हैं,’’ स्वरूप हाथमुंह धो आया था.
‘‘थोड़ी देर तक पिता के संग खेलो, मैं चौका संभाल कर आती हूं,’’ रश्मि ने बरतन समेटते हुए कहा.
ऐसा नहीं कि केवल सतीश की तनख्वाह से गृहस्थी नहीं चलेगी लेकिन घर में स्वयं उस की तनख्वाह का महत्त्व भी कम नहीं. रोज तरहतरह का खाना, स्वरूप के लिए विभिन्न शौकिया खर्चे, उस के कानवैंट स्कूल का खर्चा आदि मिला कर कोई कम रुपयों की जरूरत नहीं पड़ती. अभी तो अपना मकान भी नहीं. फिर वास्तविकता यह है कि प्रतिदिन हर समय मां घर में दिखेगी तो मां के प्रति उस का आकर्षण कम हो जाएगा. इसी तरह रोज ही अच्छा भोजन मिलेगा तो उस भोजन का महत्त्व भी उस के लिए कम हो जाएगा. जैसेजैसे स्वरूप बड़ा होगा उस की अपनी दुनिया विकसित होती जाएगी. मां के आंचल से निकल कर पढ़ाई- लिखाई, खेलकूद और दोस्तों में व्यस्त हो जाएगा. उस समय रश्मि अकेली पड़ जाएगी. इस से यही बेहतर है कि कुछ पाने के लिए कुछ खोना ही पड़ेगा.
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सब काम निबटा कर रश्मि की आंखें थकावट से बोझिल होने लगीं. निद्रित पुत्र के ऊपर चादर डाल कर वह सतीश की ओर मुड़ी.
‘‘कभी मेरा भी ध्यान कर लिया करो. हमेशा बेटे में ही रमी रहती हो,’’ सतीश ने रश्मि का हाथ थामा.
‘‘जरा याद करो तुम्हारी मां ने भी कभी तुम्हारा इतना ही ध्यान रखा था,’’ रश्मि ने शरारत से कहा.
‘‘वह उम्र तो गई, अब तो हमें तुम्हारा ध्यान चाहिए.’’
‘‘अच्छा, यह लो ध्यान,’’ रश्मि पति से लिपट गई.
सुबह उठ कर, सब को चाय दे कर रश्मि ने स्वरूप के स्कूल का टिफिन तैयार किया. फिर दूध गरम कर के उसे उठाने चली.
‘‘ऊं, ऊं, अभी नहीं,’’ स्वरूप ने चादर तान ली.
‘‘नहीं बेटा, और नहीं सोते. देखो, सुबह हो गई है.’’
‘‘नहीं, बस मुझे सोना है,’’ स्वरूप ने अड़ कर कहा.
आखिर 15 मिनट तक समझाने- बुझाने के बाद उस ने बेमन से बिस्तर छोड़ा. पर ब्रश करने, कपड़े पहनने व दूध पीने के बीच वह बारबार जा कर फिर से चादर ओढ़ कर लेट जाता और मनाने के बाद ही उठता. अंत में बैग कंधे पर डाले सतीश का हाथ पकड़े वह बस स्टाप की ओर रवाना हुआ तो रश्मि ने चैन की सांस ली. बिस्तर संवारना है, खाना बनाना, नाश्ता बनाना, नहाना फिर तैयार हो कर दफ्तर जाना है. रश्मि झटपट हाथ चलाने लगी. कपड़ों का ढेर बड़ा होता जा रहा है. 2 दिन से समय ही नहीं मिल रहा. आज शाम को आ कर अवश्य धोएगी.
‘‘कभी तो आंगन में झाड़ू लगा दिया कर रश्मि,’’ सब्जी छौंकते हुए रश्मि के कान में सास की आवाज पड़ी. कमरों के सामने अहाते के भीतर लंबाचौड़ा आंगन है, पक्के फर्श वाला. झाड़ू लगाने में 15-20 मिनट लग जाना मामूली बात है.
‘‘आप ही बताओ अम्मां, किस समय लगाऊं?’’
‘‘अब यह भी कोई समस्या है? जो दफ्तर जाती हैं क्या वे झाड़ू नहीं लगातीं?’’
रश्मि चुप हो गई. बहस में कुछ नहीं रखा. सब्जी में पानी डाल कर वह कपड़े निकालने लगी.
मांजी अब भी बोले जा रही थीं, ‘‘करने वाले बहुत कुछ करते हैं. स्वेटर बनाते हैं, पापड़बड़ी अचार, डालते हैं, कशीदाकारी करते हैं…’’
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बदन पर पानी डालते हुए रश्मि सोच रही थी, ‘आज जा कर सब से पहले मार्च के महीने का ड्यूटी चार्ट बनाना है.’
‘‘अम्मां, जमादार आए तो उसे 2 रुपए दे कर आंगन में झाड़ू लगवा लेना,’’ रश्मि ने सास को आवाज दी.
‘‘सुन, मेरे लिए एक जोड़ी चप्पल ले आना.’’
‘‘ठीक है, अम्मां,’’ कंघी कर के रश्मि ने लिपस्टिक लगाई.
‘‘वह सामने अंगूठे और पीछे पट्टी वाली चप्पल.’’
रश्मि ने भौंहें सिकोड़ीं, सास किसी खास डिजाइन के बारे में कह रही थीं.
‘‘अरे, वैसी ही जैसी स्वीटी की नानी ने पहनी थी, हलके पीले से रंग की.’’
‘‘अम्मां, मैं शाम को समझ लूंगी और कल चप्पल ला दूंगी.’’
रश्मि टिफिन पैक करने लगी. परांठा भी पैक कर लिया. नाश्ता करने का समय नहीं था.
‘‘मेरे ब्लाउज के जो बटन टूटे थे, लगा दिए हैं?’’
‘‘ओह,’’ रश्मि को याद आया, ‘‘शाम को लगा दूंगी.’’खट्टा-मीठा
शायद 12-15 दिन हो गए हैं. पहली ट्रेन छोड़ने के बाद मैं भटकती रही और फिर देर शाम सड़क से गुजरते ट्रक वालों ने मुझे आगे छोड़ने की पेशकश की. ‘‘कोई रास्ता न देख वह ट्रक में चढ़ गई. फिर चलते ट्रक में मेरे साथ वह सब हुआ, बारबार हुआ, जिस का टीवी न्यूज वाले ढिंढोरा पीटते रहते हैं. जब एक बार ट्रक वालों का मन भर जाता तो मुझे सड़क किनारे फेंक देते. कुछ देर बाद दूसरे उठा लेते. ‘‘मुझे खुद भी याद नहीं कि अब तक कितनों ने मेरे साथ हैवानियत की है. अब मुझे सड़क से डर लगता है. रेलवे स्टेशन पर भीड़ रहती है, कोई मुझे उठा कर नहीं ले जा सकता है, इसलिए अब मैं स्टेशन पर हूं. ‘‘रास्ते में किसी औरत ने बताया था कि मैं कुरुक्षेत्र जाऊं, वहां धार्मिक मेले में बड़े दानी लोग आए हुए हैं. मेरा भला होगा. किसी से पूछ कर बिना टिकट मैं कुरुक्षेत्र से गुजरने वाली ट्रेन में चढ़ गई, स्टेशन चूक गया सो कुरुक्षेत्र के बजाय अंबाला पहुंच गई.
हालत खराब होने की वजह से तब से मैं इसी बड़े स्टेशन पर पड़ी हूं.’’ रश्मि के चुप होने पर हैरानी से सबकुछ सुन रहे तेजा ने दिमाग को झकझोरा. सख्त दिखने वाले तेजा ने कहा, ‘‘मैं तुम्हें पटना जाने वाली ट्रेन का टिकट खरीद कर दूंगा, साथ में खाना खाने लायक पैसे भी दूंगा. तुम अपने घर लौट जाओ.’’ लेकिन रश्मि तैयार नहीं हुई. उस ने कहा, ‘‘अब घर और समाज में कोई मुझे नहीं अपनाएगा.’’ तेजा अब रश्मि पर हक से बोलने लगा, ‘‘बेशक, लोग तुम पर ताने मारें, पर तुम अपने बच्चों के लिए घर लौट जाओ. उन मासूमों का इस दुनिया में कोई पराया ध्यान नहीं रखेगा और तुम्हारा पति तो पहले ही नशेड़ी है.’’ रश्मि ने कहा, ‘‘मैं ऐसी गलती कर चुकी हूं, जहां से कभी वापसी नहीं हो सकती है.’’ तेजा ने रश्मि से कहा, ‘‘तुम पहले कुछ खा लो, फिर डाक्टर से दवा ले लो, ताकि तुम्हारे शरीर में कुछ जान आ सके.’’ तेजा की बात सुन कर अब तक मन की बात बताने वाली रश्मि का चेहरा और अंदाज बदल गया. उस ने धीमी आवाज में अपना फैसला साफ कर देने वाली बात कही,
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‘‘मैं रेलवे स्टेशन के बाहर नहीं जाऊंगी, चाहे तुम पैसे दो या मत दो.’’ यह बात कहने का अंदाज देख कर तेजा समझ गया कि इस औरत का भरोसा सब से उठ चुका है, जो दरिंदगी इस के साथ की गई है, उस ने दिल में डर बैठा दिया है, इसलिए वह अब उस पर भी भरोसा नहीं करेगी. तेजा ने कहा, ‘‘अगर तुम कुछ दिन और स्टेशन पर पड़ी रही तो शायद मर जाओगी.’’ लेकिन रश्मि पर इस का भी खास असर नहीं हुआ. उस ने मुरदा से हो चुके चेहरे को और ढीला छोड़ते हुए कहा, ‘‘मैं बेशक मर जाऊं, लेकिन स्टेशन से बाहर नहीं जाऊंगी. न ही वापस अपने घर जाऊंगी.’’ तेजा ने मन में सोचा कि वह बुरी तरह फंस गया है, इस हालत में इसे छोड़ कर गया तो यह फिर गलत लोगों के हाथ पड़ जाएगी या फिर कुछ दिनों बाद मरने की हालत में पहुंच जाएगी. लेकिन साथ ही उसे यह एहसास भी हुआ कि वह खुद कौन सा चीफ मिनिस्टर है, जो अचानक से इस औरत की जिंदगी को वाकई जिंदा कर देगा? अंदर एक कोने में यह डर भी था कि कहीं उसे आधी रात को बेवकूफ तो नहीं बनाया जा रहा है? बैठेबैठे एक दौर बीत चुका था. तेजा की ट्रेन का वक्त नजदीक आ रहा था. खड़ूस तेजा का दिमाग कन्फ्यूज हो कर तेजी से घूम रहा था. मन में यह भी आ रहा था कि अगर औरत सच बोल रही है तो बरबादी की जिम्मेदार वह खुद ही है. इस तरह घर छोड़ कर भागेगी तो ऐसा ही अंजाम होगा. लेकिन उसे वह वक्त भी याद आया जब झगड़ कर तेजा खुद घर छोड़ कर दिल्ली के एक आश्रम में चला गया था. घर से संन्यासी बनने की ठान कर निकला था, लेकिन 4-5 दिन बाद सुबह 3 बजे चुपचाप आश्रम छोड़ कर वापस घर का रास्ता पकड़ लिया. घर लौटने पर मातापिता और पड़ोसियों ने उस की गरदन नहीं पकड़ी, बल्कि राहत की सांस ली थी. तेजा के मन में आया कि क्या दुनिया है कि घर से भागा एक लड़का वापस आ जाए तो सब को चैन, लेकिन एक औरत के लिए वही सब करना पाप… तेजा की नजर बारबार घड़ी पर जा रही थी.
लग रहा था, वक्त ने रफ्तार बढ़ा ली है. उस की टे्रन के आने की घोषणा हो चुकी थी. लेकिन रश्मि का सच और उस की जिद जान कर तेजा उस के लिए कुछ भी कर पाने की हालत में नहीं था. बिना सोचे तेजा के मुंह से अचानक शब्द निकले, ‘‘मुझे अब जाना होगा रश्मि. ट्रेन आ रही है.’’ तेजा ने जेब से पर्स निकाला. उसे ध्यान नहीं कितने नोट निकले, लेकिन रश्मि को थमा दिए और बैंच से खड़ा हो गया. ‘‘अपना ध्यान रखना,’’ बोल कर तेजा आगे बढ़ने लगा. तेजा को जाते देख रश्मि के चेहरे पर फिर से कुछ बड़ा खो देने के भाव थे. कई दिन से पत्थर बनी उस की आंखें नम हो गईं. पुल पर पलट कर तेजा ने अंधेरे कोने में नजरें दौड़ाईं. ऐसा लग रहा था मानो बैंच के साथ रश्मि की मूर्ति हमेशा से वहीं चिपकी हुई है. तेजा के पैर आगे बढ़ते जा रहे थे. रेलवे स्टेशन की तमाम चिल्लपौं से दूर उस का दिमाग खोया हुआ था, उसे भी नहीं मालूम कहां. एक सन्नाटा पसरा हुआ था. पीछे से धक्का मारते हुए एक आदमी ने कहा, ‘‘नहीं चढ़ना है तो रास्ते से हट जाओ.’’ तेजा जागा और देखा कि उस की ट्रेन सामने है, वह अनजाने में चलते हुए ठीक अपनी बोगी के सामने पहुंच गया है, लेकिन ऊपर चढ़ने के बजाय गेट के बाहर पैर जम गए हैं, इसलिए पीछे से बाकी मुसाफिर उस पर गुस्से में चिल्ला रहे हैं. तेजा हड़बड़ाहट में तेजी से अंदर चढ़ गया. चंद पलों में सीटी बजी और बिजली से चलने वाली ट्रेन के पहियों ने फर्राटा भर दिया. इस से पहले कि ट्रेन पूरी रफ्तार पकड़ पाती, तेजा ने बैग के साथ गेट से छलांग लगा दी. कालेज जाते वक्त रोजाना सरकारी बस के सफर का तजरबा था, इसलिए इंजन की दिशा में दौड़ता रहा वरना स्टेशन पर खड़े लोग तेजा के गिरने के डर में आंखें तकरीबन बंद कर चुके थे.
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कम से कम 30-40 मीटर दौड़ते रहने पर तेजा के लड़खड़ाते पैर संतुलन में आ पाए. तेज सांसें छोड़ता हुआ तेजा रुका और चमकती आंखों के साथ वापस मुड़ा. तेजा को अंदाजा था कि पठानकोट में जाट रैजीमैंट के कैंप पहुंच कर मामा से मदद मिलने की गुंजाइश कम है. मामी और उन के घर वालों का असर फौजी मामा को लाचार बना चुका था, इसलिए वहां जाने में वक्त बरबाद कर नाउम्मीद होने से बेहतर है कि रश्मि और उस के बच्चों को मिलाया जाए. मांबच्चों का मिलन हो जाएगा तो बाकी सब भाड़ में जाएं. तेजा ने फोन निकाल कर दिल्ली के न्यूज चैनल में काम करने वाले दोस्त गौरव को मिला दिया. मालूम था, रात के 2 बजे हैं, गौरव के फोन रिसीव करने के चांस कम हैं, लेकिन फोन को स्पीकर पर लगा कर वह टिकट काउंटर की तरफ बढ़ चला. कोई जवाब नहीं मिला, लेकिन तेजा को कोई परवाह नहीं. रीडायल बटन दबा दिया. घंटी बज रही थी. देर रात होने की वजह से काउंटर खाली था. अंदर टिकट बाबू और एक मैडमजी बातों में मस्त थे. तेजा ने कहा, ‘‘पटना के लिए टे्रन कब मिलेगी?’’ बातचीत के मधुर सफर में खोए टिकट बाबू को यह सवाल घोर बेइज्जती लगा. पहले नजरों से नफरत के बाण चलाए, फिर जबान खोली, ‘‘एक घंटे बाद सुपरफास्ट ट्रेन है. जम्मू से आ रही है, सीधी हावड़ा जाएगी. बीच में दिल्लीपटना जैसे बड़े स्टेशनों पर रुकती है. सीट भी दिलवा दूंगा. अंदर मस्तमस्त बिस्तर मिलेगा, साथ में गरमागरम खाना. लेकिन टिकट खरीदने के लिए औकात चाहिए, अब बोल खरीदेगा टिकट?
‘‘वैसे, सुबह 8 बजे दिल्ली तक पैसेंजर ट्रेन है. वहां से पटना के लिए मिल जाएगी, चल भाग अभी. ये बिहार वाले शांति से चार बात भी नहीं करने देते हैं. हां, तो सपना… मैं क्या कह रहा था?’’ ‘अरे भैया, रात को 2 बजे भी सोने नहीं देते हो, 5-7 दिन की छुट्टी मिलती हैं. समझा करो यार,’ नींद में ऊंघ रहे गौरव ने फोन पर जवाब दिया. ‘‘गौरव, तुम फोन पर बने रहो,’’ तेजा ने स्पीकर बंद कर मुसकराते हुए टिकट बाबू से कहा, ‘‘2 टिकट दे दीजिए,’’ और उस ने डैबिट कार्ड आगे बढ़ा दिया. टिकट बाबू ने तेजा की सूरत को घूरते हुए कार्ड ले लिया. बुनियादी जानकारी पूछी और बटन दबा दिया. 2 टिकट निकाल कर तेजा को थमा दी. टिकट और डैबिट कार्ड ले कर तेजा तेज कदमों से रश्मि की तरफ चल पड़ा. तेजा ने चलते हुए एक सांस में रश्मि की पूरी कहानी फोन पर गौरव को बता दी. गौरव पटना का ही रहने वाला था. दोनों जोधपुर के मिलिटरी स्कूल में एकसाथ पढ़ते थे, क्योंकि दोनों के पिता फौज में वहीं तैनात थे. हालांकि गौरव तेजा से कई क्लास सीनियर था, लेकिन दोनों की खूब जमती थी.
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फोन पर गौरव ने कहा, ‘तेजा इतने दिनों बाद फोन किया वह भी रात के 2 बजे. और यह किस के लिए पागल हुआ जा रहा है. अरे भाई, ऐसे कितने ही लोग रोज बरबाद होते हैं. कितनों को घर पहुंचाएगा तू.’ तेजा ने मजबूत आवाज में कहा, ‘‘गौरव भाई, मैं उसे ले कर पटना आ रहा हूं. समझो, अब मसला पर्सनल है. कुछ देर में तुम्हें उस के घर का अतापता सब मैसेज कर रहा हूं. मुझे इस औरत को उस के बच्चों से मिलाना है. इतना ही नहीं, उस का घर भी बसना चाहिए. तुम अपने विधायक भाई को बोलो या थानेदार को. बस, यह होना चाहिए.’’ गौरव समझ गया कि तेजा के दिमाग में धुन चढ़ गई है. अब यह कुछ नहीं मानेगा या समझेगा. उस ने तेजा को कहा, ‘मैं कल ही दिल्ली से छुट्टी ले कर पटना आया था. तू मुझे उस औरत की जानकारी मैसेज कर. मैं लल्लन भैया से बात करता हूं. अब तू ने कहा है तो निबटाते हैं मसला यार.’ लल्लन भैया 2 दफा विधायक रह चुके थे. गौरव उन की रिश्तेदारी में था. रश्मि अंधेरे की तरफ मुंह किए उसी बैंच पर पत्थर बनी बैठी थी. तेजा ने पहुंच कर कहा, ‘‘तुम्हें स्टेशन से बाहर नहीं जाना है. ट्रेन में मेरे साथ सफर करना है. मैं तुम्हें ले कर पटना जाऊंगा. अगर तुम्हारे बच्चों से मिला कर तुम्हारा संसार नहीं बसा सका, तो जो तुम्हें करना है उस के बाद भी कर सकती हो. चलो उठो, प्लेटफार्म बदलना है.’’ तेजा की इस अंदाज में वापसी देख कर रश्मि सकपका गई. उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है. तेजा की बातें सुन कर वह कल्पना करने की कोशिश कर रही थी कि क्या उस की जिंदगी फिर से खिल सकती है? ‘‘मेरा पति और लोग मुझे जीने नहीं देंगे बाबू,’’ रश्मि ने तेजा से कहा. ‘‘वह सब मुझ पर छोड़ दो,’’ तेजा ने जवाब दिया. जब ट्रेन आई और दोनों उस में चढ़े तो अजीब नजारा था. अंदर के मुसाफिर रश्मि को घूर कर देख रहे थे और रश्मि आलीशान ट्रेन के अंदर हर चीज को घूर रही थी. तेजा उस का हाथ पकड़ कर सीट तक ले गया. प्लेटफार्म पर खरीदा गया खानेपीने का सामान उसे थमा दिया और कहा, ‘‘अब कुछ खा लो.’’ थोड़ी देर में ट्रेन ने सीटी बजा दी और दौड़ चली. पूरे सफर में तेजा और गौरव की फोन पर बातचीत चलती रही. रश्मि इस दौरान लेटेलेटे कभी अचेत सी हो कर सो जाती, तो कभी शीशे की खिड़की के पार नजरें गड़ाए देखती रहती. पटना स्टेशन पर जब गाड़ी रुकी तो रश्मि का भाई, मां उस के 2 छोटेछोटे बच्चों के साथ खड़े थे.
उन के साथ गौरव और लल्लन भैया के 2 आदमी भी थे. ट्रेन से उतर कर रश्मि को समझ नहीं आ रहा था, वह बच्ची बन कर अपनी मां से लिपट कर रोए या रोते हुए ‘मम्मीमम्मी’ बोल कर उस की तरफ आ रहे बच्चों को छाती से चिपका ले. तेजा के सामने वक्त ठहर गया था. उस के मन में सुकून और प्यार की बयार बह रही थी. गौरव तेजा को देखे जा रहा था. लल्लन भैया के दोनों लोग पूरे नजारे पर नजरें गड़ाए हुए थे. बूढ़ी मां, रश्मि, दोनों बच्चे एकदूसरे में खो गए. दूर देहात से आए रश्मि के बड़े भाई को भी खुद पर शर्मिंदगी महसूस हो रही थी. जब रश्मि ने पति के बरताव और घर के हालात के बारे में भाई को बताया था तब उस ने जरूरी कदम नहीं उठाया. उसी का नतीजा छोटी बहन और 2 छोटेछोटे मासूम बच्चों को भुगतना पड़ा. लेकिन अब बड़े भाई ने मन मजबूत कर लिया था. गौरव ने तेजा को बताया कि लल्लन भैया ने रश्मि के आदमी को उठवा लिया है. अब वह नशा मुक्ति केंद्र में बंद है. नशे की हालत में उस का बरताव देख लल्लन भैया भी गरम हो गए थे. 2 थप्पड़ जड़ दिए उसे और बोले कि ऐसे आदमी के पास कोई कैसे रह सकता है? लल्लन भैया ने अपने चमचों से कह दिया था कि रश्मि के ससुराल और मायके वालों से पूरा सच पता करें. सच यही निकला कि रश्मि गलत औरत नहीं थी, लेकिन पति बिगड़ैल निकला. कामचोर, नशेड़ी और दूसरों की सीख मानने वाला. उस हालत में रश्मि को 2 ही रास्ते सूझे, एक तो गले में फंदा लगा ले या फिर घर से भाग जाए.
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लेकिन अब बच्चों के चेहरे देख कर उस के अंदर की ताकत जाग गई थी. उस ने मन ही मन फैसला किया, अब बच्चों के लिए जिएगी. आदमी सही रास्ते पर आया तो ठीक है, वरना बच्चों को खुद पालेगी. बड़े भैया ने बीच में आ कर रश्मि से कहा कि फिलहाल वह मायके में चले. वह और मां उन का ध्यान रखेंगे. गौरव ने कहा, ‘‘रश्मि की सेहत ठीक होने पर उसे लल्लन भैया के दोस्त के स्कूल में नौकरी लगवा देंगे. वह वहां अपने बच्चों को भी पढ़ा सकती है. उस के बिगड़ैल पति को सुधारने की जिम्मेदारी अब लल्लन भैया ने ले ली है. जब वह इनसान बन जाएगा, तब उसे सब बता दिया जाएगा.’’ स्टेशन के बाहर रश्मि का सामान एक जीप में लदा था. यह जीप लल्लन भैया की थी. रश्मि के भाई ने हाथ जोड़ कर तेजा को शुक्रिया कहा. बच्चों के साथ रश्मि और उस के भाई और मां जीप में बैठ गए. दोनों लोग भी गाड़ी में लद लिए. चमचों को और्डर था कि रश्मि को उस के गांव तक सहीसलामत छोड़ कर आएं. जीप तेज धुआं छोड़ते हुए आगे बढ़ चली. गौरव ने तेजा को झकझोरते हुए कहा, ‘‘चलो भैया, अब तो हम मिल कर पटना दर्शन करते हैं.’’