‘मां’ तो ‘मां’ है: क्या सास को मां मान सकी पारुल

बेटा पारुल 3 बजने को है खाना खाया कि नहीं ओह! माँ नही खाया आप चिंता ना करो अभी खा लेती हूँ, ठीक है 15 मिनट में फिर फोन करती हूँ सब काम छोड़ पहले खाना खा. कहने को तो निर्मला जी पारुल की सास हैं पर शादी के बाद उसकी हर इच्छा का ध्यान रखते हुए भरपूर प्यार दिया हर जरूरत का ख्याल रखा फटाफट टिफिन खोल खाना खाने बैठी ताकि माँ को तसल्ली हो जाए, खा-पी 10-15 मिनट आराम करने की सोच किसी को कमरे में ना आने के लिए चपरासी को बोल दिया.

आँख बंद कर बैठी ही थी कि एक साल पुरानी यादों ने आ घेरा, उसकी और साहिल की जोड़ी को जो कोई देखता यही कहता एक-दूसरे के लिए ही बने हैं परस्पर इतना आपसी प्रेम कि शादी के 24 साल बाद भी एक साथ घूमते-फिरते यही कोशिश रहती हर क्षण साथ ही रहें पल भर को भी अलग ना होना पड़े, बेहद प्यार करने वाले दो बेटे अंकुर व नवांकुर कहने का मतलब हंसता-मुस्कुराता सुखी परिवार. किंतु विधाता के मन की कोई नहीं जानता, पिछले साल नए साल की पार्टी का जश्न मना खुशी-खुशी सोए रात को अचानक साहिल की छाती में तेज़ दर्द उठा जब तक पारुल या घरवाले कुछ समझ हॉस्पिटल पहुंचाते तब तक साहिल का साथ छूट चुका था पारुल की दुनिया वीरान हो चुकी थी.

‌सुबह से ही लोगों का आना-जाना शुरू हो गया, साहिल थे ही इतने मिलनसार-ज़िंदादिल कि कोई विश्वास नहीं कर पा रहा था वो अब नहीं है अनंत यात्रा के लिए निकल चुके हैं. पारुल को समझ नहीं आ रहा था या यूं कहलें समझना नहीं चाह रही थी ये क्या हो रहा है? एकाएक जिंदगी में कैसा तूफान आ गया? जिससे सारा घर बिखर गया तहस-नहस हो गया, बच्चों का सास-ससुर का मुँह देख अपने को हिम्मत देने लगती फिर अगले ही पल साहिल की याद संभलने ना देती.

खैर! जाने वाला चला गया, अब तो रीति-रिवाज़ निभाने ही थे तीसरे दिन उठावनी की रस्म हुई
विधि-विधान से सब  होने के बाद निर्मला जी पारुल की तरफ देख बोलीं, जल्दी से अच्छी सी साड़ी पहन तैयार हो जा आज ऑफिस खोलने जाना है. पारुल क्या किसी को भी समझ नहीं आया निर्मला जी कह क्या रही हैं? कुछ देर से फिर बोलीं, जा पारुल तैयार होकर आ तुझे आज से ही साहिल का सपना पूरा करना है जो उसका मोटरपार्ट्स का काम है जिन ऊंचाइयों तक वो ले जाना चाहता था अब तुझे ही पूर्ण करना है, उठ! मेरी बिटिया देर ना कर अपने साहिल की इच्छा पूरी करने का प्रण कर.

‌पारुल जानती-समझती थी माँ जो कुछ भी कहेंगी या करेंगी उसमे कहीं ना कहीं भलाई होगी हित ही छुपा होगा, इसलिये सवाल-जवाब किए बिना तैयार हो शॉप के लिए चल दी साथ में ससुर और दोनों बेटे अंकुर-नवांकुर थे. शॉप खोल काम शुरू करने की रस्म निभाई किंतु घर आकर उसके सब्र का बांध फिर टूट गया, निर्मला जी ने तो अपना दिल पत्थर का बना लिया था क्योंकि उनकी आंखों को पारुल व बच्चों का भविष्य जो दिख रहा था.

निर्मला जी ने अपने पति की ओर देखा फिर दोनों जन पारुल के पास आए, सिर पर हाथ रख ढाढस बांधने लगे. निर्मला जी उसका सिर अपनी गोदी में रख पुचकारते हुए बोलीं, हमारा प्यारा साहिल हमसे बहुत दूर चला गया जीवन का कटु सत्य है अब कभी ना लौटकर आएगा, परंतु यह भी उतना ही कटु सत्य है कि जाने वाले के करीबी या जो पारिवारिक सदस्य होते हैं उनकी बाकी जिंदगी सिर्फ रो-रोकर शोक करते रहने से तो नहीं बीत सकती.

जिंदा रहने के लिए खाना-पीना और घरेलू-बाहरी सभी काम करना अत्यंत जरूरी रहता है, यह तो जीवन है बेटा जिसके नियम-कायदे हम इंसानों को मानने ही पड़ते हैं हमारी इच्छा या अनिच्छा मायने नहीं रखती. बेटा अब साहिल तो नहीं है लेकिन तुझसे जुड़े दोनों बच्चे तथा हमारा परिवार है, हम सभी को एक-दूसरे का सहारा बन रहना होगा एक-दूजे के लिए ख़ुशीपूर्वक ज़िंदगानी बितानी होगी.

सबसे अहम बात जीने के लिए आत्मनिर्भर होना पड़ेगा बेटा पारुल जो भी तुझे समझा अथवा कह रही हूँ वो हमेशा अपनी माँ की सीख मान याद रखना, अब से मैं तेरी सासू माँ नहीं माँ हूँ और माँ तो माँ होती है.

साहिल को गए अभी तीन दिन हुए हैं ऐसे ही 30 दिन फिर 3 महीने और साल दर साल होते जाएंगे, ये नाते-रिश्तों का तू सोच रही हो कि तेरा व तेरे बच्चों का संग-साथ देते रहेंगे तो अभी से इस भ्रम में ना रह, भूल जा कोई साथ देता रहेगा.

वो तो जब तक हम माँ-पिता हैं तब तक तुझे किसी तरह की परेशानी ना होने देंगे लेकिन बाद में मेरी बिटिया को किसी पर भी निर्भर ना होना पड़े अभी से इस बारे में सोचना होगा, हम अपने अनुभवों व तज़ुर्बे से बता रहे हैं कोई जीवन में ज्यादा दिन साथ नहीं दे सकता एकाध दिन की बात अलग है. उठ! बेटा पारुल आगे की सोच, जो होना था हो गया हम चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते अब अपने और बच्चों के भविष्य की सोच बाकी का जीवन कैसे बिताना है ध्यान दे.

माँमाँ यह क्या कह रही हो आप, क्या करूं कैसे करूं? मुझे तो कुछ नहीं आता सब तो साहिल ही संभालते थे, आप सब मेरी चिंता ना करो मेरी जिंदगी कैसे ना कैसे बीत ही जाएगी.

कैसी बात कर रही है? सिर्फ भावनाओं के सहारे नहीं रहा जा सकता, समय के साथ-साथ प्रैक्टिकल होना पड़ता है जिंदगी बसर करने के लिए बहुत कुछ सहना और फिर करना भी पड़ता है. साहिल तो यादों में हम सबके साथ हमेशा रहेगा, अब तेरहवीं की रस्म के बाद ऑफिस जा व साहिल ने जो बिजनेस शुरू किया है उसको किसी के भी भरोसे ना छोड़ते हुए स्वयं के बलबूते आगे बुलंदियों तक ले जा, यह काम तुझे ही पूरा करना है बेटा.

अब कुछ और ना सोच, कुछ दिनों बाद तू ऑफिस की जिम्मेदारी संभाल घर और बच्चों को मैं देख लिया करूंगी फिर कह रही हूँ, साहिल की यादों के संग आगे बढ़ अपनी जिंदगी हंसते-मुस्कुराते बच्चों व अपनों के साथ बिता.

किन्तु…पर कैसे माँ मुझे तो बिजनेस का कुछ भी अता-पता नहीं, अकेले नहीं संभाल सकती मैं.

कितनी बार हंसकर ही सही पर साहिल से कहती थी अपने साथ कभी तो मुझे भी ऑफिस ले चला करो जानना-समझना चाहती हूँ तो पता है माँ, साहिल बोला करते थे तू तो घर की रानी बनकर रह किसी बात की चिंता ना कर मैं हूँ ना सब संभालने के लिए, अब तुम्हीं बताओ ऐसा कहकर फिर क्यूँ छोड़कर चले गए मुझे अब कैसे संभालूं?

कोई बात नहीं मेरी बच्ची, होनी का किसी को नहीं पता कब क्या हो जाए? कोई नही जानता यहां तक कि अगले पल की खैर-खबर नहीं रहती. तू समझदार हैं पढ़ी-लिखी है इसलिए काम के बारे में जल्दी सीख जाएगी, तेरे पापा को भी थोड़ी बहुत बिज़नेस की जानकारी व समझ है. वैसे तो साहिल अपने पापा को भी ऑफिस ना आने देता था यही कहता रहता था, घर पर रह आराम करो बहुत काम कर लिया किंतु फिर भी कुछेक जानकारी तो है जिससे काफी हद तक तुझे स्वनिर्भर होने में अपना योगदान दे सकेंगे.

हाँ बेटा! तू बिलकुल चिंता मत कर, अभी तेरा पापा जिंदा है नई राह पर हर कदम तेरे साथ है बस! मानसिक तौर पर खुद को मजबूत कर ले ज़रा हिम्मत ना हार, हम सबकी खुशियों का एकमात्र सहारा तू ही है. अंकुर तथा नवांकुर के जीवन की अभी शुरुआत हुई है उनके उज्जवल भविष्य की कामना करते हुए उन्हें खुशियों की सौगात देने का स्वयं से वादा करते हुए घर-बाहर की जिम्मेदारी निष्ठा से पूर्ण करने का निश्चय कर, तेरे मम्मी-पापा सिर्फ और सिर्फ तेरे संग हैं.

पारुल अब हम दोनों की बात का मान रखते हुए स्वाभिमान के साथ अपने उद्देश्य को हर हाल में पूरा करना, हिम्मत कर एक और बात मन की कहना चाहूँगी, बिटिया यदि जीवन के किसी मोड़ या रास्ते में दूसरा साहिल मिलने लगे तो इधर-उधर की परवाह किए बिना निःसंकोच उसका हाथ थाम लेना, इससे सफर जीवन का आसानी से कट जाएगा समय का ज्यादा मालुम ना पड़ेगा.

माँमाँ…..आगे के शब्द नही मुँह से निकल सके निःशब्द हो चुकी थी पारुल, सिर्फ अपने माँ-पिताजी तुल्य सास-ससुर को निहार रही थी.

तभी मैडम-मैडम की आवाज से पारुल का ध्यान भंग हुआ चेतना में वापिस लौटी, हाँ-हाँ बोलो क्या कहना चाहते हो? वो मीटिंग के लिए आपका सभी इंतज़ार कर रहे हैं बता दें कब शुरू करनी है? ओह! तुम सभी मेंबर्स को जाकर कह दो 10 मिनट से बातचीत करते हैं.

पारुल उठी, एक गिलास पानी पिया और अपनी सासू माँ यानी अपनी माँ को मन ही मन हाथ जोड़ तहे दिल से धन्यवाद दिया, क्योंकि उन्हीं के स्नेहपूर्ण मार्गदर्शन से प्रेरित हो कुछ ही समय में आत्मनिर्भर बन अपना आत्मसम्मान अपनी खुद की पहचान बनाने में कामयाब हो सकी थी.

कारवां : लोगों के साथ भी, लोगों के बाद भी

अतीत के ढेर में दफन दम तोड़ती, मुड़ीतुड़ी न जाने कैसीकैसी यादों को वह खींच लाती है…घटनाएं चाहे जब की हों पर उन्हें आज के परिवेश में उतारना उसे हमेशा से बखूबी आता है…कुछ भी तो नहीं भूलता उसे. छोटी से छोटी बातें भी ज्यों की त्यों याद रहती हैं.

आज अपना असली रंग खो चुके पुराने स्वेटर के बहाने स्मृतियों को बटोरने चली है…अब स्वेटर क्या अतीत को ही उधेड़ने बैठ जाएगी…उधेड़ती जाएगी…उस में पड़ आई हर सिकुड़न को बारबार छुएगी, सहलाएगी…ऐसे निहारेगी कि बस, पूछो मत…फिर गोले की शक्ल में ढालने बैठ जाएगी.

‘‘तुम्हें कुछ याद भी है नरेंद्र या नहीं, यह स्वेटर मैं ने कब बुना था तुम्हारे लिए? तब बुना था जब तुम टूर पर गए थे कहीं. हां, याद आया हैदराबाद. मालूम है नरेंद्र, अंकिता तब गोद में थी और मयंक मात्र 4 साल का था. तुम लौटे तो मैं ने कहा था कि नाप कर देखो तो इसे…हैरान रह गए थे न तुम, तुम ने मेरे हाथ से स्वेटर ले कर देखते हुए पता है क्या कहा था…’’ उस की नजरें मेरे चेहरे पर आ टिकीं, उस के होंठ मुसकराने लगे.

‘‘क्या कहा था, यही न कि भई वाह, कमाल करती हो तुम भी…तुम्हारा हाथ है या मशीन, कब बनाया? बहुत मेहनत, बहुत लगन चाहिए ऐसे कामों के लिए. यही कहा था न मैं ने…’’ उस की आंखों में आंखें डाल कर कहा मैं ने…नहीं कहता तो कहती कि तुम तो ध्यान से मेरी कोई बात सुनते ही नहीं…जैसे कि तुम्हारा  कोई मतलब ही नहीं हो इन बातों से…इस घर में किस से बातें करूं मैं, दीवारों से…

गला रुंध आएगा उस का…आंखें नम पड़ जाएंगी…गलत क्या कहेगी शोभना…उस के और मेरे सिवा इस घर में कौन है, ऊपर से मैं भी चुप लगा जाऊं तो…मेरा क्या है…मैं अगर चुप भी रहूं, वक्त तो तब भी कट ही जाया करता है मेरा. शोभना की तरह बोलने की आदत भी तो नहीं है मेरी. मुझे तो बस, उस को सुनना अच्छा लगता है…अच्छा भी क्या लगता है, न सुनूं तो करूं क्या? 2 दिन भी उस की बकबक सुनने को अगर मैं न होऊं न तो वह बीमार पड़ जाती है बेचारी, सच कहूं तो उस के चेहरे पर मायूसी मुझे जरा भी नहीं भाती…वह तो गुनगुनाती, मुसकराती मेरे इर्दगिर्द डोलती हुई ही अच्छी लगती है. आज तो कुछ ज्यादा ही खुश नजर आ रही थी वह…अब अपने मुंह से कुछ कहे या न कहे मगर मैं तो इस खुशी का राज जानता था…उस के चेहरे की मुसकराहट…होंठों पर गुनगुनाहट मुझे इस बात का एहसास करा जाती है कि अब कोई त्योहार आने वाला है या फिर छुट्टियां…हो सकता है बच्चे आ ही जाएं, घरआंगन चहक उठेगा…बागबगीचा महक उठेगा. असमय अपने चमन में आ जाने वाली बहार की कल्पना मात्र से ही उस का चेहरा खिल उठा है…कोई भी छुट्टियां आने से पहले यही हाल होता है उस का…समय बे समय उठ जाने वाला गांठों का दर्द कुछ दिनों के लिए तो जैसे कहीं गायब ही हो जाता है…और सिरदर्द, कुछ दिन के लिए उस की भी शिकायत से मुक्ति मिल जाती है मेरे कानों को. वरना जब देखो तब…सिर पर पट्टा बंधा हुआ है और होंठ दर्द से कराह रहे होते हैं… ‘उफ् सिर दर्द से फटा जा रहा है…जाने क्या हो गया है….’

शोभना कई दिन से एक ही रट लगाए हुए है. पीछे का स्टोर रूम साफ करवा लूं…कहती है कि ऊनीसूती कपड़ों का जाने क्या हाल होगा, काफी समय से एक ही जगह तह किए पड़े हैं. पिछले दस दिन से हर छुट्टी के दिन काम वाली के लड़के रामधारी को भी बुलवा लेती है मदद के लिए…मैं अकसर चिढ़ जाया करता हूं, ‘एक ही दिन तो चैन से घर में बैठने को मिलता है और तुम हो कि…’

‘काहे की छुट्टी…तुम्हारा तो हर दिन संडे है…नहीं करवाना है कुछ तो वह बोलो…’

कैसे कहूं कि काम जैसा काम हो तब तो करवाऊं भी…कपड़ों को निकालेगी… छोटेछोटे ऊनीसूती फ्राक्स…टोपीमोजे… दस्ताने…एकएक को खोलखोल कर निहारेगी…सहलाएगी और फिर ज्यों की त्यों सहेज कर रख देगी. मजाल है जो किसी चीज को हाथ भी लगाने दे…सब की धूल झाड़ कर जब वापस रखना ही है तो काहे की सफाई…कुछ कह दो तो इस उम्र में कहासुनी और हो जाएगी.

मेरी सोच से बेखबर शोभना बड़ी ही तन्मयता से गोले पर गोले बनाए जा रही थी, ‘‘क्या करोगी अब इस का?’’ मैं ने यों ही पूछ लिया. ‘‘अब…धोऊंगी… सुखाऊंगी…फिर लच्छी करूंगी…फिर गोले बनाऊंगी…’’

‘‘फिर…’’

‘‘…फिर…एक स्वेटर बनाऊंगी… अपने लिए…’’

‘‘स्वेटर…अपने लिए…इस गरमी में…’’ मैं चौंका.

‘‘ए.सी. रूम में पड़ेपड़े कहां पता चलता है कि सर्दी है या गरमी…कुछ हाथ में रहता है तो समय सरलता से कट जाता है.’’

‘‘…समय काटने के और भी बहुत से साधन हैं या आंखें फोड़ना जरूरी है, देखता हूं कभी ऊन ले कर बैठ जाओगी तो कभी सिलाई की मशीन…’’

‘‘तो क्या करूं, तुम्हारी तरह किताब या पेपर ले कर बैठी रहूं…’’

‘‘नहीं बाबा, कुछ भी करो मगर मुझ से मत उलझो…लेकिन एक बात बताओ, तुम क्या करोगी इस का? तुम तो कभी कुछ गरम कपड़े पहनती ही नहीं थीं…दिसंबरजनवरी में भी सुबहसुबह बिना शाल के घूमा करती थीं…कहा करती थीं कि तुम्हें ऊनी कपड़े चुभते हैं…फिर…’’

‘‘अरे बाबा, वो तब की बात थी… अब तो बहुत ठंड लगती है, पहले सौ काम होते थे तब ठंड की कौन परवा किया करता था.’’

‘‘अच्छा, तो ये क्यों नहीं कहतीं कि अब बूढ़ी हो गई हो तुम…उम्र ढलने के साथ अब ठंड ज्यादा लगती है तुम्हें…’’

‘‘हां, और तुम तो जैसे…’’ बात बीच में ही छोड़ कर खामोश हो गई पर कितनी देर, ‘‘नरेंद्र, कभी सुबह से शाम कब हो जाती थी पता ही नहीं चलता था न…घड़ी की सृई के पीछे भागतेभागते थक जाया करती थी मैं…पूरी तरह नींद भी नहीं खुलती और अंकिता के रोने की आवाज कानों में पड़ रही होती…तुम चिढ़ कर कुछ भुनभुनाते और तकिया कान पर धर कर सो जाया करते…फिर शुरू होता काम का शाम तक न थमने वाला सिलसिला…घड़ी पर नजर जाती… ‘बाप रे, 7 बजने वाले हैं…’ जरूर काम वाली खटखटा कर लौट गई होगी…अब क्या? अब तो 10 बजे से पहले आएगी नहीं… गंदे बरतन सिंक में पड़े मुझे मुंह चिढ़ा रहे होते…बच्चों का टिफिन…तुम्हारा लंच… उफ्…फटे दूध में सनी तीनों बोतलें… झुंझलाहट आती अपनेआप पर ही…फिर कितनी भी जल्दी करती, नाश्ते में देर हो ही जाती…लंच बाक्स तुम्हारे पीछे भागभाग कर सीढि़यों पर पकड़ाया करती थी.’’

अकसर वह इस टापिक को इसी मोड़ पर ला कर…एक गहरी सांस छोड़ कर खत्म किया करती… उसे एकटक देखता रह जाता मैं…बात की शुरुआत में कितनी उत्तेजित रहती…और अंत आतेआते…मानो रेत से भरी अंजुरी खाली हो रही हो…मेरे भी होंठ मुसकराने के अंदाज में फैलतेफैलाते मानो ठिठक जाते हैं…कितनी बार तो सुन चुका हूं यही सब.

‘‘नरेंद्र, वक्त कैसे गुजर जाता है…है न, पता ही नहीं चलता…सब से बड़ी मीता की शादी को आज 20 साल पूरे हो जाएंगे. सब से छोटी अंकिता भी 2 बच्चों की मां बन चुकी है. बीच के दोनों मोहित और मयंक अपनेअपने गृहस्थ जीवन का सुखपूर्वक आनंद ले रहे होंगे. सुखी हों भी क्यों न, उन की सुखसुविधा का सदैव ही तो ध्यान रखा है हम ने…उन की जरूरतें पूरी करने के लिए हम क्या कुछ नहीं किया करते थे…मांबाप नहीं एक दोस्त बन कर पाला था हम ने उन्हें…तभी तो अपने प्यार के बारे में मोहित ने सब से पहले मुझे बताया था.

‘‘‘मां, बस, एक बार तुम ममता से मिल तो लो. दाद दोगी मेरी पसंद की… हीरा चुना है हीरा आप के लिए.’ मैं ने उस के लिए कौन सा रत्न चुना था, कहां बता पाई थी उसे…आज भी जब कभी शर्माजी की बेटी हिना मेरे सामने होती है तो मेरे दिल में एक कसक सी उठती है…काश… हिना मेरी बहू होती…’’ वैसे वह अच्छी तरह जानती है कि उस का यों अतीत में भटकना मुझे जरा भी नहीं अच्छा लगता, तभी तो आहिस्ताआहिस्ता खामोश होती चली गई, ‘‘मैं भी, न जाने कबकब की बातें याद करती हूं…है न…’’ मेरे खीझने से पहले ही वह सतर्क हो गई.

मैं आज में जीता हूं…पेपर पढ़ने से फुरसत मिलती है तो घर के आगेपीछे की खाली पड़ी, थोड़ी सी कच्ची जमीन के चक्कर काटने लग जाता हूं…और शोभना, उस की सूई तो जब देखो तब एक ही परिधि में घूमती रहती है. वही मोहित…मयंक…उन के बच्चे…मीता… अंकिता…उन के बच्चे…कुछ नहीं भूलती वह…

‘‘याद आ रही है बच्चों की…’’ मैं उस के करीब खिसक आया, ‘‘नातीपोतों के लिए इतना तरसती हो तो हो क्यों नहीं जातीं किसी के पास…सभी तो बुलाते रहते हैं तुम्हें.’’

हमेशा की तरह भड़क गई वह मेरे ऐसा कहने पर, ‘‘कहीं नहीं जाना मुझे… तुम तो यही चाहते हो कि मैं कहीं चली जाऊं और तुम्हें मेरी बकबक से छुट्टी मिल जाए…न कहीं जानेआने की बंदिश… न खानेपीने की रोकटोक…’’ बात अधूरी छोड़ चली गई वह…

पिछले कुछ वर्षों से वह कहीं जाना ही नहीं चाहती…माना मोहित के पास नहीं जाना चाहती…बड़ी बहू के स्वभाव में अजीब सा रूखापन है…बहुत अपनापन तो छोटी बहू में भी नजर नहीं आता…घर 2 पाली में बंटाबंटा सा लगता है…एक में पतिपत्नी और बच्चे…दूसरे में मांबाप और बेटा…बेटे का डबल रोल देखतेदेखते किसी का भी मन उचट जाए…वह उन सासों में से है भी नहीं जो बहू को दोषी और बेटे को निर्दोष समझें…शायद यही कारण था कि उस का मन सब से उचट गया था…

कभी कुछ कुरेद कर पूछना चाहो तो कुछ कहती भी नहीं…जो भी हो, बड़ी सफाई से अपना दर्द छिपा लिया करती है वह, कहती है, ‘अपना घर अपना ही होता है नरेंद्र…वैसे भी मैं उम्र के इस पड़ाव पर तुम से अलग रहना नहीं चाहती…तुम्हारा साथ बना रहे बस, और कुछ नहीं चाहिए मुझे…’ पहले तो ऐसी नहीं थी वह…जरा सा किसी बच्चे का जन्मदिन भी पड़ता था तो छटपटाने लगती वह…ज्यादा नहीं साल 2 साल पहले की बात है, मोहित के बेटे मयूर का जन्मदिन आने वाला था…बस, क्या था…बेसन के  लड्डू बंधने लगे… मठरियां बनने लगीं…रोजरोज की खरीदारी…कभी बहू के लिए साडि़यां लाई जा रही थीं तो कभी सलवार सूट… बच्चों के लिए ढेरों कपड़े…दुनिया भर की तैयारियां देख कर दंग रह गया था मैं… ‘ये क्या…जन्मदिन तो बस, मयूर का ही है न….’

‘तो क्या हुआ? मोहित हो या मयूर…मेरे लिए तो ऐसे अवसर पर सभी बराबर हैं,’ इतराती हुई सी बोली थी वह.

‘हमें रिजर्वेशन करवाने से पहले एक बार मोहित से बात नहीं कर लेनी चाहिए?’

‘अरे…इस में बात क्या करनी है? हर बार ही तो जाते हैं हम…खैर, तुम्हारी मरजी…कर लो…’ फोन सेट आगे खींच कर रिसीवर मेरी ओर बढ़ा दिया था शोभना ने….

‘नहीं डैड, ममा को कहिए, इस बार हम लोग नहीं मना रहे मयूर का जन्मदिन, वैसे भी उस का क्लास टैस्ट चल रहा है. हम नहीं चाहते कि उस का माइंड डिस्टर्ब हो.’

बस, सारी की सारी तैयारियां धरी रह गईं…लाख समझाया था मैं ने उसे कि तुम्हें आने से कहां मना किया है उस ने…

‘बुलाया भी कहां है…एक बार ये भी तो नहीं कहा न कि आप लोग तो आ जाइए.’

कभीकभी क्यों…अकसर ही सोचता हूं मैं कि शोभना, मेरी पत्नी, मेरी तरह क्यों नहीं सोचती. सोचती तो शायद आज वह भी सुखी रहती…हैरानी होती है.

छद्म वेश : मधुकर और रंजना की कहानी

शाम धुंध में डूब चुकी थी. होटल की ड्यूटी खत्म कर तेजी से केमिस्ट की दुकान पर पहुंची. उसे देखते ही केमिस्ट सैनेटरी पैड को पेक करने लगा. रंजना ने उस से कहा कि इस की जगह मेंस्ट्रुअल कप दे दो. केमिस्ट ने एक पैकेट उस की तरफ बढ़ाया.

मधुकर सोच में पड़ गया कि यह युवक मेंस्ट्रुअल कप क्यों ले रहा है. ऐसा लगता तो नहीं कि शादी हो चुकी हो. शादी के बाद आदमियों की भी चालढाल बदल जाती है.

इस बात से बेखबर रंजना ने पैकेट अपने बैग में डाला और घर की तरफ कदम बढ़ा दिए. बीचबीच में रंजना अपने आजूबाजू देख लेती. सर्दियों की रात सड़क अकसर सुनसान हो जाती है. तभी रंजना को पीछे से पदचाप लगातार सुनाई दे रही थी, पर उस ने पीछे मुड़ कर देखना उचित नहीं समझा. उस ने अपनी चलने की रफ्तार बढ़ा दी. अब उस के पीछे ऐसा लग रहा था कि कई लोग चल रहे थे. दिल की धड़कन बढ़ गई थी. भय से चेहरा पीला पड़ गया था. घर का मोड़ आते ही वह मुड़ गई.

अब रंजना को पदचाप सुनाई नहीं दे रही थी. यह सिलसिला कई दिनों से चल रहा था. यह पदचाप गली के मोड़ पर आते ही गायब हो जाती थी. घर में भी वह किसी से इस बात का जिक्र नहीं कर सकती. नौकरी का बहुत शौक था. घर की माली हालत अच्छी थी. वह तो बस शौकिया नौकरी कर रही थी. स्त्री स्वतंत्रता की पक्षधर थी, पर खुद को छद्म वेश में छुपा कर ही रखती थी. स्त्रीयोचित सजनेसंवरने की जगह वह पुरुष वेशभूषा में रहती. रात में लौटती तो होंठों पर लिपस्टिक और आईब्रो पेंसिल से रेखाएं बना लेती. अंतरंग वस्त्र टाइट कर के पहनती, ताकि स्त्रियोचित उभार दिखाई न दे. इस से रात में जब वह लौटती तो भय नहीं लगता था.

लेकिन कुछ दिनों से पीछा करती पदचापों ने उस के अंदर की स्त्री को सोचने पर मजबूर कर दिया. रंजना ने घर के गेट पर पहुंच कर अपने होंठ पर बनी नकली मूंछें टिशू पेपर से साफ कीं और नौर्मल हो कर घर में मां के साथ भोजन किया और सो गई.

होटल जाते हुए उस ने सोचा कि आज वह जरूर देखेगी कि कौन उस का पीछा करता है. रात में जब रंजना की ड्यूटी खत्म हुई तो बैग उठा कर घर की ओर चल दी. अभी वह कुछ ही दूर चली थी कि पीछे फिर से पदचाप सुनाई दी.

रंजना ने हिम्मत कर के पीछे देखा. घने कोहरे की वजह से उसे कुछ दिखाई नहीं दिया. एक धुंधला सा साया दिखाई दिया. जैसे ही वह पलटी, काले ओवर कोट में एक अनजान पुरुष उस के सामने खड़ा था.

यह देख रंजना को इतनी सर्दी में पसीना आ गया. शरीर कांपने लगा. आज लगा, स्त्री कितना भी पुरुष का छद्म वेश धारण कर ले, शारीरिक तौर पर तो वह स्त्री ही है. फिर भी रंजना ने हिम्मत बटोर कर कहा, ‘‘मेरा रास्ता छोड़ो, मुझे जाने दो.’’

‘‘मैं मधुकर. तुम्हारे होटल के करीब एक आईटी कंपनी में सौफ्टवेयर इंजीनियर हूं.’’

‘‘तुम इस होटल में काम करते हो. यह तो मैं जानता हूं.’’

‘‘तुम शादीशुदा हो क्या?’’

रंजना ने नहीं में गरदन हिलाई. वह जरूरत से ज्यादा डर गई. उस का बैग हाथ से छूट गया और सारा सामान बिखर गया.

रंजना अपना सामान जल्दीजल्दी समेटने लगी, लेकिन मधुकर के पैरों के पास पड़ा केमिस्ट के यहां से खरीदा मेंस्ट्रुअल कप उस की पोल खोल चुका था. मधुकर ने पैकेट चुपचाप उठा कर उस के हाथ में रख दिया.

‘‘तुम इस छद्म में क्यों रहती हो? मेरी इस बात का जवाब दे दो, मैं रास्ता छोड़ दूंगा.’’

‘‘रात की ड्यूटी होने की वजह से ये सब करना पड़ा. स्त्री होने के नाते हमेशा भय ही बना रहता. इस छद्म वेश में किसी का ध्यान मेरी ओर नहीं गया, लेकिन आप ने कैसे जाना?’’

‘‘रंजना, मैं ने तुम्हें केमिस्ट की दुकान पर पैकेट लेते देख लिया था.’’

‘‘ओह… तो ये बात है.’’

‘‘रंजना चलो, मैं तुम्हें गली तक छोड़ देता हूं.’’

दोनों खामोश साथसाथ चलते हुए गली तक आ गए. मधुकर एक बात का जवाब दो कि तुम ही कुछ दिनों से मेरा पीछा कर रहे हो.

रहस्यमयी लड़के का राज आज पता चल ही गया. हाहाहा… क्या बात है?

चलतेचलते बातोंबातों में मोड़ आ गया. मधुकर रंजना से विदा ले कर चला गया.

रंजना कुछ देर वहीं खड़ी रास्ते को निहारती रही. दिल की तेज होती धड़कनों ने रंजना को आज सुखद एहसास का अनुभव हुआ.

घर पहुंच कर मां को आज हुई घटना के बारे में बताया. मां कुछ चिंतित सी हो गईं.

सुबह एक नया ख्वाब ले कर रंजना की जिंदगी में आई. तैयार हो कर होटल जाते हुए रंजना बहुत खुश थी. मधुकर की याद में सारा दिन खोई रही. मन भ्रमर की तरह उड़उड़ कर उस के पास चला जाता था.

ड्यूटी खत्म कर रंजना उठने को हुई, तभी एक कस्टमर के आ जाने से बिजी हो गई. घड़ी पर निगाह गई तो 8 बज चुके थे. रंजना बैग उठा कर निकली, तो मधुकर बाहर ही खड़ा था.

‘‘रंजना आज देर कैसे हो गई?’’

‘‘वो क्या है मधुकर, जैसे ही निकलने को हुई, तभी एक कस्टमर आ गया. फौर्मेलिटी पूरी कर के उसे रूम की चाबी सौंप कर ही निकल पाई हूं.’’

रंजना और मधुकर साथसाथ चलते हुए गली के मोड़ पर पहुंच मधुकर ने विदा ली और चला गया.

यह सिलसिला चलते हुए समय तो जैसे पंखों पर सवार हो उड़ता चला जा रहा था. दोनों को मिले कब 3 महीने बीत गए, पता ही नहीं चला. आज मधुकर ने शाम को डेट पर एक रेस्तरां में बुलाया था.

ड्रेसिंग टेबल के सामने खड़ी रंजना खुद को पहचान नहीं पा रही थी. मां की साड़ी में लिपटी रंजना मेकअप किए किसी अप्सरा सी लग रही थी. मां ने देखा, तो कान के पीछे काला टीका लगा दिया और मुसकरा दीं.

‘‘मां, मैं अपने दोस्त मधुकर से मिलने जा रही हूं,’’ रंजना ने मां से कहा, तो मां पूछ बैठी, ‘‘क्या यह वही दोस्त है, जो हर रोज तुम्हें गली के मोड़ तक छोड़ कर जाता है?’’

‘‘हां मां ,ये वही हैं.’’

‘‘कभी उसे घर पर भी बुला लो. हम भी मिल लेंगे तुम्हारे दोस्त से.’’‘‘हां मां, मैं जल्दी ही मिलवाती हूं आप से,’’ कंधे पर बैग झुलाती हुई रंजना निकल पड़ी.

गली के नुक्कड़ पर मधुकर बाइक पर बैठा उस का इंतजार कर रहा था.

बाइक पर सवार हो रैस्टोरैंट पहुंच गए. मधुकर ने रैस्टोरैंट में टेबल पहले ही से बुक करा रखी थी.

रैस्टोरैंट में अंदर जा कर देखा तो कौर्नर टेबल पर सुंदर सा हार्ट शेप बैलून रैड रोज का गुलदस्ता मौजूद था.

‘‘मधुकर, तुम ने तो मुझे बड़ा वाला सरप्राइज दे दिया आज. मुझे तो बिलकुल भी याद नहीं था कि आज वैलेंटाइन डे है. नाइस अरैंजमैंट मधुकर…

‘‘आज की शाम तुम ने यादगार बना दी…’’

‘‘रंजना बैठो तो सही, खड़ीखड़ी मेरे बारे में कसीदे पढ़े जा रही हो, मुझे भी तो इजहारेहाल कहने दो…’’ मुसकराते हुए मधुकर ने कहा.

‘‘नोटी बौय… कहो, क्या कहना है?’’ हंसते हुए रंजना बोली.

मधुकर ने घुटनों के बल बैठ रंजना का हाथ थाम कर चूम लिया और दिल के आकार की हीरे की रिंग रंजना की उंगली में पहना दी.

‘‘अरे वाह… रिंग तो  बहुत सुंदर है,’’ अंगूठी देख रंजना ने कहा.

डिनर के बाद रंजना और मधुकर बाइक पर सवार हो घर की ओर चले जा रहे थे, सामने से एक बाइक पर 2 लड़के मुंह पर कपड़ा बांधे उन की बाइक के सामने आ गए. मधुकर को ब्रेक लगा कर अपनी बाइक रोकनी पड़ी.

लड़कों ने फब्तियां कसनी शुरू कर दीं और मोटरसाइकिल को उन की बाइक के चारों तरफ घुमाने लगे. उस समय सड़क भी सुनसान थी. वहां कोई मदद के लिए नहीं था. रंजना को अचानक अपनी लिपिस्टिक गन का खयाल आया. उस ने धीरे से बैग में हाथ डाला और गन चला दी.

गन के चलते ही नजदीक के थाने  में ब्लूटूथ के जरीए खबर मिल गई. थानेदार 5 सिपाहियों को ले कर निकल पड़े. कुछ ही देर में पुलिस के सायरन की आवाज सुनाई देने लगी.

लड़कों ने तुरतफुरत बैग छीनने की कोशिश की. मधुकर ने एक लड़के के गाल पर जोरदार चांटा जड़ दिया. इस छीनाझपटी में रंजना का हाथ छिल गया, खून रिसने लगा.

बैग कस कर पकड़े होने की वजह से बच गया.

सामने से पुलिस की गाड़ी  आती देख लड़के दूसरी दिशा में अपनी बाइक घुमा कर भाग निकलने की कोशिश करें, उस से पहले थानेदार ने उन्हें धरदबोचा और पकड़ कर गाड़ी में बैठा लिया.

थानेदार ने एक सिपाही को आदेश दिया कि इस लड़के की बाइक आप चला कर इस के घर पहुंचा दें. इस लड़के और लड़की को हम जीप से इन के घर छोड़ देते हैं.

रंजना और मधुकर जीप में सवार हो गए.

‘‘आप का क्या नाम है?’’ थानेदार ने अपना सवाल रंजना से किया.

‘‘मेरा नाम रंजना है. मैं एक होटल में रिसेप्शनिस्ट हूं. ये मेरे दोस्त मधुकर हैं. ये आईटी कंपनी में इंजीनियर के पद पर हैं.’’

‘‘रंजना, आप बहुत ही बहादुर हैं. आप ने सही समय पर अपनी लिपिस्टिक गन का इस्तेमाल किया है.’’

‘‘सर, रंजना वाकई बहुत हिम्मत वाली है.’’

थानेदार ने मधुकर से पूछा, ‘‘तुम भी अपने घर का पता बताओ.’’

‘‘सर, त्रिवेणी आवास विकास में डी 22 नंबर मकान है. उस से पहले ही मोड़ पर रंजना का घर है.’’

‘‘ओके मधुकर, वह तो पास ही में है.’’

पुलिस की जीप रंजना के घर के सामने रुकी.

पुलिस की गाड़ी देख रंजना की मां घबरा गईं और रंजना के पापा को आवाज लगाई, ‘‘जल्दी आइए, रंजना पुलिस की गाड़ी से आई है.’’

रंजना के पापा तेजी से बाहर की ओर लपके. बेटी को सकुशल देख उन की जान में जान आई.

थानेदार जोगिंदर सिंह ने सारी बात रंजना के पापा को बताई और मधुकर को भी सकुशल घर पहुंचाने के लिए कहा.

थानेदार जोगिंदर सिंह मधुकर को अपने साथ ले कर जीप में आ बैठे, ‘‘चल भई जवान तुझे भी घर पहुंचा दूं, तभी चैन की सांस लूंगा.’’

मधुकर को घर के सामने छोड़ थानेदार जोगिंदर सिंह वापस थाने चले गए.

मधुकर ने घर के अंदर आ कर इस बात की चर्चा मम्मीपापा के साथ खाना खाते हुए डाइनिंग टेबल पर विस्तार से बताई.

मधुकर के पापा का कहना था कि बेटा, तुम ने जो भी किया उचित था. रंजना की समझदारी से तुम दोनों सकुशल घर आ गए. मधुकर रंजना जैसी लड़की तो वाकई बहू बनानेलायक है. मम्मी ने भी हां में हां मिलाई.

‘‘मधुकर, खाना खा कर रंजना को फोन कर लेना.’’ मां ने कहा.

‘‘जी मम्मी.’’

मधुकर ने खाना खाने के बाद वाशबेसिन पर हाथ धोए और वहां लटके तौलिए से हाथ पोंछ कर सीधा अपने कमरे की बालकनी में आ कर रंजना को फोन मिलाया. रिंग जा रही थी, पर फोन रिसीव नहीं किया.

मधुकर ने दोबारा फोन मिलाया ट्रिन… ट्रिन. उधर से आवाज आई, ‘‘हैलो, मैं रंजना की मम्मी बोल रही हूं…’’

‘‘जी, मैं… मैं मधुकर बोल रहा हूं. रंजना कैसी है?’’

‘‘बेटा, रंजना पहली बार साड़ी पहन कर एक स्त्री के रूप में तैयार हो कर गई थी और ये घटना घट गई. यह घटना उसे अंदर तक झकझोर गई है. मैं रंजना को फोन देती हूं. तुम ही बात कर लो.’’

‘‘रंजना, मैं मधुकर.‘‘

‘‘क्या हुआ रंजना? तुम ठीक तो हो ? तुम बोल क्यों नहीं रही हो?’’

‘‘मधुकर, मेरी ही गलती है कि मुझे इतना सजधज कर साड़ी पहन कर जाना ही नहीं चाहिए था.’’

‘‘देखो रंजना, एक न एक दिन तुम्हें इस रूप में आना ही था. घटनाएं तो जीवन में घटित होती रहती हैं. उन्हें कपड़ों से नहीं जोड़ा जा सकता है. संसार में सभी स्त्रियां स्त्रीयोचित परिधान में ही रहती हैं. पुरुष के छद्म वेश में कोई नहीं रहतीं. तुम तो जमाने से टक्कर लेने के लिए सक्षम हो… इसलिए संशय त्याग कर खुश रहो.’’

‘‘मधुकर, तुम ठीक कह रहे हो. मैं ही गलत सोच रही थी.’’

‘‘रंजना, मैं तुम्हें हमेशा के लिए अपना बनाना चाहता हूं.’’

‘‘लव यू… मधुकर.’’

‘‘लव यू टू रंजना… रात ज्यादा हो गई है. तुम आराम करो. कल मिलते हैं… गुड नाइट.’’

सुबह मधुकर घर से औफिस जाने के लिए निकल ही रहा था कि मम्मी की आवाज आई, ‘‘मधुकर सुनो, रंजना के घर चले  जाना. और हो सके तो शाम को मिलाने के लिए उसे घर ले आना.’’

‘‘ठीक है मम्मी, मैं चलता हूं,’’ मधुकर ने बाइक स्टार्ट की और निकल गया रंजना से मिलने.

रंजना के घर के आगे मधुकर बाइक पार्क कर ही रहा था कि सामने से रंजना आती दिखाई दी. साथ में उस की मां भी थी. रंजना के हाथ में पट्टी बंधी थी.

‘‘अरे रंजना, तुम्हें तो आराम करना चाहिए था.’’

‘‘मधुकर, मां के बढ़ावा देने पर लगा कि बुजदिल बन कर घर में पड़े रहने से तो अपना काम करना बेहतर है.’’

‘‘बहुत बढ़िया… गुड गर्ल.’’

‘‘आओ चलें. बैठो, तुम्हें होटल छोड़ देता हूं.’’

‘‘रंजना, मेरी मां तुम्हें याद कर रही थीं. वे कह रही थीं कि रंजना को शाम को घर लेते लाना… क्या तुम चलोगी मां से मिलने?’’

‘‘जरूर चलूंगी आंटी से मिलने. शाम 6 बजे तुम मुझे होटल से पिक कर लेना.’’

‘‘ओके रंजना, चलो तुम्हारी मंजिल आ गई.’’

बाइक से उतर कर रंजना ने मधुकर को बायबाय किया और होटल की सीढ़ियां चढ़ कर अंदर चली गई.

मधुकर बेचैनी से शाम का इंतजार कर रहा था. आज रंजना को मां से मिलवाना था.

मधुकर बारबार घड़ी की सूइयों को देख रहा था, जैसे ही घड़ी में 6 बजे वह उठ कर चल दिया, रंजना को पिक करने के लिए.

औफिस से निकल कर मधुकर होटल पहुंच कर बाइक पर बैठ कर इंतजार करने लगा. उसे एकएक पल भारी लग रहा था.

रंजना के आते ही सारी झुंझलाहट गायब हो गई और होंठों पर मुसकराहट तैर गई.

बाइक पर सवार हो कर दोनों मधुकर के घर पहुंच गए.

मधुकर ने रंजना को ड्राइंगरूम में बिठा कर कर मां को देखने अंदर गया. मां रसोई में आलू की कचौड़ी बना रही थीं.

‘‘मां, देखो कौन आया है आप से मिलने…’’ मां कावेरी जल्दीजल्दी हाथ पोछती हुई ड्राइंगरूम में पहुंचीं.

‘‘मां, ये रंजना है.’’

‘‘नमस्ते आंटीजी.’’

‘‘नमस्ते, कैसी हो  रंजना.’’

‘‘जी, मैं ठीक हूं.’’

मां कावेरी रंजना को ही निहारे जा रही थीं. सुंदर तीखे नाकनक्श की रंजना ने उन्हें इस कदर प्रभावित कर लिया था कि मन ही मन वे भावी पुत्रवधू के रूप में रंजना को देख रही थीं.

‘‘मां, तुम अपने हाथ की बनी गरमागरम कचौड़ियां नहीं खिलाओगी. मुझे तो बहुत भूख लगी है.’’

मां कावेरी वर्तमान में लौर्ट आई और बेटे की बात पर मुसकरा पड़ीं और उठ कर रसोई से प्लेट में कचौड़ी और चटनी रंजना के सामने रख कर खाने का आग्रह किया.

रंजना प्लेट उठा कर कचौड़ी खाने लगी. कचौड़ी वाकई बहुत स्वादिष्ठ बनी थी.

‘‘आंटी, कचौड़ी बहुत स्वादिष्ठ बनी हैं,’’ रंजना ने मां की तारीफ करते हुए कहा.

मधुकर खातेखाते बीच में बोल पड़ा, ‘‘रंजना, मां के हाथ में जादू है. वे खाना बहुत ही स्वादिष्ठ बनाती हैं.’’

‘‘धत… अब इतनी भी तारीफ मत कर मधुकर.’’

नाश्ता खत्म कर रंजना ने घड़ी की तरफ देखा तो 7 बजने वाले थे. रंजना उठ कर जाने के लिए खड़ी हुई.

‘‘मधुकर बेटा, रंजना को उस के घर तक पहुंचा आओ.’’

‘‘ठीक है मां, मैं अभी आया.’’

मां कावेरी ने सहज, सरल सी लड़की को अपने घर की शोभा बनाने की ठान ली. उन्होंने मन ही मन तय किया कि कल रंजना के घर जा कर उस के मांबाप से उस का हाथ मांग लेंगी. इस के बारे में मधुकर के पापा की भी सहमति मिल गई.

सुबह ही कावेरी ने अपने आने की सूचना रंजना की मम्मी को दे दी थी.

शाम के समय कावेरी और उन के पति के आने पर रंजना की मां ने उन्हें आदरपूर्वक ड्राइंगरूम में बिठाया.

‘‘रंजना के पापा आइए, यहां आइए, देखिए मधुकर के मम्मीपापा आ गए  हैं.’’

रंजना और मधुकर के पापा के बीच राजनीतिक उठापटक के बारे में बातें करने के साथ ही कौफी की चुसकी लेते हुए इधरउधर की बातें भी हुईं.

रंजना की मम्मी मधुकर की मां कावेरी के साथ बाहर लौन में झूले पर बैठ प्रकृति का आनंद लेते हुए कौफी पी रही थीं.

मधुकर की मां कावेरी बोलीं, ‘‘शारदाजी, मैं रंजना का हाथ अपने बेटे के लिए मांग रही हूं. आप ना मत कीजिएगा.’’

‘‘कावेरीजी, आप ने तो मेरे मन की बात कह दी. मैं भी यही सोच रही थी,’’ कहते हुए रंजना की मां शारदाजी मधुकर की मां कावेरी के गले लग गईं.

‘‘कावेरीजी चलिए, इस खुशखबरी को अंदर चल कर सब के साथ सैलिब्रेट करते हैं.’’

शारदा और कावेरी ने हंसते हुए ड्राइंगरूम में प्रवेश किया तो दोनों ने चौंक कर देखा.

‘‘क्या बात है, आप लोग किस बात पर इतना हंस रही हैं?’’ रंजना के पिता महेश बोले.

‘‘महेशजी, बात ही कुछ ऐसी है. कावेरीजी ने आप को  समधी के रूप में पसंद कर लिया है.’’

‘‘क्या… कहा… समधी… एक बार फिर से कहना?’’

‘‘हां… हां… समधी. कुछ समझे.’’

‘‘ओह… अब समझ आया आप लोगों के खिलखिलाने का राज.’’

‘‘अरे, पहले बच्चों से तो पूछ कर रजामंदी ले लो,’’ मधुकर के पाप हरीश ने मुसकरा कर कहा.

रंजना के पापा महेश सामने से बच्चों को आता देख बोले, ‘‘लो, इन का नाम लिया और ये लोग हाजिर. बहुत लंबी उम्र है इन दोनों की.’’

मधुकर ने आते ही मां से चलने के लिए कहा.

‘‘बेटा, हमें तुम से कुछ बात करनी है.”

“कहिए मां, क्या कहना चाहती हैं?’’

‘‘मधुकर, रंजना को हम ने तुम्हारे लिए मांग लिया है. तुम बताओ, तुम्हारी क्या मरजी है.’’

‘‘मां, मुझे कोई ओब्जैक्शन नहीं है. रंजना से भी पूछ लो कि वे क्या चाहती हैं?’’

मां कावेरी ने रंजना से पूछा, ‘‘क्या तुम मेरी बेटी बन कर मेरे घर आओगी.’’

रंजना ने शरमा कर गरदन झुकाए हुए हां कह दी.

यह देख रंजना के पापा महेशजी चहक उठे. अब तो कावेरीजी आप मेरी समधिन हुईं.

ऐसा सुन सभी एकसाथ हंस पड़े. तभी रंजना की मां शारदा मिठाई के साथ हाजिर हो गईं.

‘‘लीजिए कावेरीजी, पहले मिठाई खाइए,’’ और झट से एक पीस मिठाई का कावेरी के मुंह में खिला दिया.

कावेरी ने भी शारदा को मिठाई खिलाई. प्लेट हरीशजी की ओर बढ़ा दी. मधुकर ने रंजना को देखा, तो उस का चेहरा सुर्ख गुलाब सा लाल हो गया था. रंजना एक नजर मधुकर पर डाल झट से अंदर भाग गई.

‘‘शारदाजी, एक अच्छा सा सुविधाजनक दिन देख शादी की तैयारी कीजिए. चलने से पहले जरा आप रंजना को बुलाइए,’’ मधुकर की मां कावेरी ने कहा.

रंजना की मां शारदा उठीं और अंदर जा कर रंजना को बुला लाईं. कावेरी ने अपने हाथ से कंगन उतार कर रंजना को पहना दिए.

रंजना ने झुक कर उन के पैर छुए.

हरीश और कावेरी मधुकर के साथ शारदाजी और महेशजी से विदा ले कर घर आ गए.

2 महीने बाद शारदाजी के घर से आज शहनाई के स्वर गूंज रहे थे. रंजना दुलहन के रूप में सजी आईने के सामने बैठी खुद को पहचान नहीं पा रही थी. छद्म वेश हमेशा के लिए उतर चुका था.

‘‘सुनो रंजना दी…’’ रंजना की कजिन ने आवाज लगाई, ‘‘बरात आ गई…’’

रंजना मानो सपने से हकीकत में आ गई. रंजना के पैर शादी के मंडप की ओर बढ़ गए.

नई चादर: विधवा शरबती की मुसीबत

बस, इतनी सी थी उस की खूबसूरती की जमापूंजी, मगर करमू जैसे मरियल से अधेड़ के सामने तो वह सचमुच अप्सरा ही दिखती थी. आगे चल कर सब ने शरबती की सीरत भी देखी और उस की सीरत सूरत से भी चार कदम आगे निकली. अपनी मेहनतमजदूरी से उस ने गृहस्थी ऐसी चमकाई कि इलाके के लोग अपनीअपनी बीवियों के सामने उस की मिसाल पेश करने लगे.

करमू की बिरादरी के कई नौजवान इस कोशिश में थे कि करमू जैसे लंगूर के पहलू से निकल कर शरबती उन के पहलू में आ जाए. दूसरी बिरादरियों में भी ऐसे दीवानों की कमी न थी. वे शरबती से शादी तो नहीं कर सकते थे, अलबत्ता उसे रखैल बनाने के लिए हजारों रुपए लुटाने को तैयार थे.

धीरेधीरे समय गुजरता रहा और शरबती एक बच्चे की मां बन गई. लेकिन उस की देह की बनावट और कसावट पर बच्चा जनने का रत्तीभर भी फर्क नहीं दिखा. गांव के मनचलों में अभी भी उसे हासिल करने की पहले जैसे ही चाहत थी. तभी जैसे बिल्ली के भाग्य से छींका टूट पड़ा. करमू एक दिन काम की तलाश में शहर गया और सड़क पार करते हुए एक बस की चपेट में आ गया. बस के भारीभरकम पहियों ने उस की कमजोर काया को चपाती की तरह बेल कर रख दिया था.

करमू के क्रियाकर्म के दौरान गांव के सारे मनचलों में शरबती की हमदर्दी हासिल करने की होड़ लगी रही. वह चाहती तो पति की तेरहवीं को यादगार बना सकती थी. गांव के सभी साहूकारों ने शरबती की जवानी की जमानत पर थैलियों के मुंह खोल रखे थे, मगर उस ने वफादारी कायम रखना ही पति के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि समझते हुए सबकुछ बहुत किफायत से निबटा दिया.

शरबती की पहाड़ सी विधवा जिंदगी को देखते हुए गांव के बुजुर्गों ने किसी का हाथ थाम लेने की सलाह दी, मगर उस ने किसी की भी बात पर कान न देते हुए कहा, ‘‘मेरा मर्द चला गया तो क्या, वह बेटे का सहारा तो दे ही गया है. बेटे को पालनेपोसने के बहाने ही जिंदगी कट जाएगी.’’

वक्त का परिंदा फिर अपनी रफ्तार से उड़ चला. शरबती का बेटा गबरू अब गांव के प्राइमरी स्कूल में पढ़ने जाने लगा था और शरबती मनचलों से खुद को बचाते हुए उस के बेहतर भविष्य के लिए मेहनतमजदूरी करने में जुटी थी. उन्हीं दिनों उस इलाके में परिवार नियोजन के लिए नसबंदी कैंप लगा. टारगेट पूरा न हो सकने के चलते जिला प्रशासन ने आपरेशन कराने वाले को एक एकड़ खेतीबारी लायक जमीन देने की पेशकश की.

एक एकड़ जमीन मिलने की बात शरबती के कानों में भी पड़ी. उसे गबरू का भविष्य संवारने का यह अच्छा मौका दिखा. ज्यादा पूछताछ करती तो किस से करती. जिस से भी जरा सा बोल देती वही गले पड़ने लगता. जो बोलते देखता वह बदनाम करने की धमकी देता, इसलिए निश्चित दिन वह कैंप में ही जा पहुंची. शरबती का भोलापन देख कर कैंप के अफसर हंसे.

कैंप इंचार्ज ने कहा, ‘‘एक विधवा से देश की आबादी बढ़ने का खतरा कैसे हो सकता है…’’

कैंप इंचार्ज का टका सा जवाब सुन कर गबरू के भविष्य को ले कर देखे गए शरबती के सारे सपने बिखर गए. बाहर जाने के लिए उस के पैर नहीं उठे तो वह सिर पकड़ कर वहीं बैठ गई.

तभी एक अधेड़ कैंप इंचार्ज के पास आ कर बोला, ‘‘सर, आप के लोग मेरा आपरेशन नहीं कर रहे हैं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘कहते हैं कि मैं अपात्र हूं.’’

‘‘क्या नाम है तुम्हारा? किस गांव में रहते हो?’’

‘‘सर, मेरा नाम केदार है. मैं टमका खेड़ा गांव में रहता हूं.’’

‘‘कैंप इंचार्ज ने टैलीफोन पर एक नंबर मिलाया और उस अधेड़ के बारे में पूछताछ करने लगा, फिर उस ने केदार से पूछा, ‘‘क्या यह सच है कि तुम्हारी बीवी पिछले महीने मर चुकी है?’’

‘‘हां, सर.’’

‘‘फिर तुम्हें आपरेशन की क्या जरूरत है. बेवकूफ समझते हो हम को. चलो भागो.’’

केदार सिर झुका कर वहां से चल पड़ा. शरबती भी उस के पीछेपीछे बाहर निकल आई. उस के करीब जा कर शरबती ने धीरे से पूछा, ‘‘कितने बच्चे हैं तुम्हारे?’’

‘‘एक लड़का है. सोचा था, एक एकड़ खेत मिल गया तो उस की जिंदगी ठीकठाक गुजर जाएगी.’’

‘‘मेरा भी एक लड़का है. मुझे भी मना कर दिया गया… ऐसा करो, तुम एक नई चादर ले आओ.’’

केदार ने एक नजर उसे देखा, फिर वहीं ठहरने को कह कर वह कसबे के बाजार चला गया और वहां से एक नई चादर, थोड़ा सा सिंदूर, हरी चूडि़यां व बिछिया वगैरह ले आया.

थोड़ी देर बाद वे दोनों कैंप इंचार्ज के पास खड़े थे. केदार ने कहा, ‘‘हम लोग भी आपरेशन कराना चाहते हैं साहब.’’

अफसर ने दोनों पर एक गहरी नजर डालते हुए कहा, ‘‘मेरा खयाल है कि अभी कुछ घंटे पहले मैं ने तुम्हें कुछ समझाया था.’’

‘‘साहब, अब केदार ने मुझ पर नई चादर डाल दी है,’’ शरबती ने शरमाते हुए कहा.

‘‘नई चादर…?’’ कैंप इंचार्ज ने न समझने वाले अंदाज में पास में ही बैठी एक जनप्रतिनिधि दीपा की ओर देखा.

‘‘इस इलाके में किसी विधवा या छोड़ी गई औरत के साथ शादी करने के लिए उस पर नई चादर डाली जाती है. कहींकहीं इसे धरौना करना या घर बिठाना भी कहा जाता है,’’ उस जनप्रतिनिधि दीपा ने बताया.

‘‘ओह…’’ कैंप इंचार्ज ने घंटी बजा कर चपरासी को बुलाया और कहा, ‘‘इस आदमी को ले जाओ. अब यह अपात्र नहीं है. इस की नसबंदी करवा दें… हां, तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘शरबती.’’

‘‘तुम कल फिर यहां आना. कल दूरबीन विधि से तुम्हारा आपरेशन हो जाएगा.’’

‘‘लेकिन साहब, मुझे भी एक एकड़ जमीन मिलेगी न?’’

‘‘हां… हां, जरूर मिलेगी. हम तुम्हारे लिए तीसरी चादर ओढ़ने की गुंजाइश कतई नहीं छोड़ेंगे.’’

शरबती नमस्ते कह कर खुश होते हुए कैंप से बाहर निकल गई तो उस जनप्रतिनिधि ने कहा, ‘‘साहब, आप ने एक मामूली औरत के लिए कायदा ही बदल दिया.’’

‘‘दीपाजी, यह सवाल तो कायदेकानून का नहीं, आबादी रोकने का है. ऐसी औरतें नई चादरें ओढ़ओढ़ कर हमारी सारी मेहनत पर पानी फेर देंगी. मैं आज ही ऐसी औरतों को तलाशने का काम शुरू कराता हूं,’’ उन्होंने फौरन मातहतों को फोन पर निर्देश देने शुरू कर दिए. दूसरे दिन शरबती कैंप में पहुंची तो वहां मौजूद कई दूसरी औरतों के साथ उस का भी दूरबीन विधि से नसबंदी आपरेशन हो गया.

कैंप की एंबुलैंस पर सवार होते समय उसे केदार मिला और बोला, ‘‘शरबती, मेरे घर चलो. तुम्हें कुछ दिन देखभाल की जरूरत होगी.’’

‘‘मेरी देखभाल के लिए गबरू है न.’’

‘‘मेरा भी तो फर्ज बनता है. अब तो हम लिखित में मियांबीवी हैं.’’

‘‘लिखी हुई बातें तो दफ्तरों में पड़ी रहती हैं.’’

‘‘तुम्हारा अगर यही रवैया रहा तो तुम एक बीघा जमीन भी नहीं पाओगी.’’

‘‘नुकसान तुम्हारा भी बराबर होगा.’’

‘‘मैं तुम्हें ऐसे ही छोड़ने वाला नहीं.’’

‘‘छोड़ने की बात तो पकड़ लेने के बाद की जाती है.’’

शरबती का जवाब सुन कर केदार दांत पीस कर रह गया. कुछ साल बाद गबरू प्राइमरी जमात पास कर के कसबे में पढ़ने जाने लगा. एक दिन उस के साथ उस का सहपाठी परमू उस के घर आया.

परमू के मैलेकुचैले कपड़े और उलझे रूखे बाल देख कर शरबती ने पूछा, ‘‘तुम्हारी मां क्या करती रहती है परमू?’’

‘‘मेरी मां नहीं है,’’ परमू ने मायूसी से बताया.

‘‘तभी तो मैं कहूं… खैर, अब तो तुम खुद बड़े हो चुके हो… नहाना, कपड़े धोना कर सकते हो.’’

परमू टुकुरटुकुर शरबती की ओर देखता रहा. जवाब गबरू ने दिया, ‘‘मां, घर का सारा काम परमू को ही करना होता है. इस के बापू शराब भी पीते हैं.’’

‘‘अच्छा शराब भी पीते हैं. क्या नाम है तुम्हारे बापू का?’’

‘‘केदार.’’

‘‘कहां रहते हो तुम?’’

‘‘टमका खेड़ा.’’

शरबती के कलेजे पर घूंसा सा लगा. उस ने गबरू के साथ परमू को भी नहलाया, कपड़े धोए, प्यार से खाना खिलाया और घर जाते समय 2 लोगों का खाना बांधते हुए कहा, ‘‘परमू बेटा, आतेजाते रहा करो गबरू के साथ.’’

‘‘हां मां, मैं भी यही कहता हूं. मेरे पास बापू नहीं हैं, तो मैं जाता हूं कि नहीं इस के घर.’’

‘‘अच्छा, इस के बापू तुम्हें अच्छे लगते हैं?’’

‘‘जब शराब नहीं पीते तब… मुझे प्यार भी खूब करते हैं.’’

‘‘अगली बार उन से मेरा नाम ले कर शराब छोड़ने को कहना.’’ इसी के साथ ही परमू और गबरू के हाथों दोनों घरों के बीच पुल तैयार होने लगा. पहले खानेपीने की चीजें आईंगईं, फिर कपड़े और रोजमर्रा की दूसरी चीजें भी आनेजाने लगीं. फिर एक दिन केदार खुद शरबती के घर जा पहुंचा.

‘‘तुम… तुम यहां कैसे?’’ शरबती उसे अपने घर आया देख हक्कीबक्की रह गई.

‘‘मैं तुम्हें यह बताने आया हूं कि मैं ने तुम्हारा संदेश मिलने से अब तक शराब छुई भी नहीं है.’’

‘‘तो इस से तो परमू का भविष्य संवरेगा.’’

‘‘मैं अपना भविष्य संवारने आया हूं… मैं ने तुम्हें भुलाने के लिए ही शराब पीनी शुरू की थी. तुम्हें पाने के लिए ही शराब छोड़ी है शरबती,’’ कह कर केदार ने उस का हाथ पकड़ लिया.

‘‘अरे… अरे, क्या करते हो. बेटा गबरू आ जाएगा.’’

‘‘वह शाम से पहले नहीं आएगा. आज मैं तुम्हारा जवाब ले कर ही जाऊंगा शरबती.’’

‘‘बच्चे बड़े हो चुके हैं… समझाना मुश्किल हो जाएगा उन्हें.’’

‘‘बच्चे समझदार भी हैं. मैं उन्हें पूरी बात बता चुका हूं.’’

‘‘तुम बहुत चालाक हो. कमजोर रग पकड़ते हो.’’

‘‘मैं ने पहले ही कह दिया था कि मैं तुम्हें छोड़ूंगा नहीं,’’ केदार ने उस की आंखों में झांकते हुए कहा. शरबती की आंखें खुद ब खुद बंद हो गईं. उस दिन के बाद केदार अकसर परमू को लेने के बहाने शरबती के घर आ जाता. गबरू की जिद पर वह परमू के घर भी आनेजाने लगी. जब दोनों रात में भी एकदूसरे के घर में रुकने लगे तो दोनों गांवों के लोग जान गए कि केदार ने शरबती पर नई चादर डाल दी है.

परमू, गबरू और केदार बहुत खुश थे. खुश तो शरबती भी कम नहीं थी, मगर उसे कभीकभी बहुत अचंभा होता था कि वह अपने पहले पति को भूल कर केदार की पकड़ में आ कैसे गई?

एक दिन अपने लिए : आभा किसे पहचान नहीं पाई

‘कल संडे है. सोनू की भी छुट्टी है. अलार्म बंद कर के सोती हूं,’ सोचते हुए आभा मोबाइल की तरफ बढ़ी, मगर फिर एक बार व्हाट्सऐप चैक कर लें सोच उस ने हरे से सम्मोहक आइकोन पर क्लिक कर दिया. स्क्रोल करतेकरते एक अनजान नंबर से आए मैसेज पर अंगूठा रुक गया.

‘‘कैसी हो आभा?’’ पढ़ कर एकबार को तो आभा समझ नहीं पाई कि किस का मैसेज है, फिर डीपी पर टैब किया. तसवीर कुछ जानीपहचानी सी लगी.

‘‘अरे, यह तो अनुराग है,’’ आभा के दिमाग को पहचानने में ज्यादा मशकक्त नहीं करनी पड़ी.

‘‘फाइन,’’ लिख कर आभा ने 2 अंगूठे वाली इमोजी के साथ रिप्लाई सैंड कर दी.

‘‘क्या हुआ? किस का मैसेज था?’’ मां ने अचानक आ कर पूछा तो आभा को लगा मानो चोरी पकड़ी गई हो.

‘‘यों ही…कोई अननोन नंबर था,’’ कह कर आभा ने बात टाल दी.

‘‘अच्छा सुनो सोनू को सुबह 4 बजे जगा देना. उसे अपने फाइनल ऐग्जाम के प्रोजैक्ट पर काम करना है. और हां 1 कप चाय भी बना देना ताकि उस की नींद खुल जाए…’’ मां ने उसे आदेश सा दिया और फिर सोने चली गईं.

अलार्म बंद करने को बढ़ता आभा का हाथ रुक गया. उस ने मोबाइल को चार्जिंग में लगा दिया ताकि कहीं बैटरी लो होने के कारण वह स्विच औफ न हो जाए वरना नींद खुलेगी और फिर 4 बजे नहीं जगाया तो सोनू नाराज हो कर पूरा दिन मुंह फुलाए घूमता रहेगा. मां नाराज होंगी सो अलग. यह और बात है कि इस चक्कर में उसे रातभर नींद नहीं आई. वैसे नींद न आने का एक कारण अनुराग का मैसेज भी था.

आभा रातभर अनुराग के बारे में ही सोचती रही. अनुराग उस के कालेज का दोस्त था. एकदम पक्के वाला… शायद कुछ और समय दोनों ने साथ बिताया होता तो यह दोस्ती प्यार में बदल सकती थी, मगर कालेज के बाद अनुराग सरकारी नौकरी की तैयारी करने के लिए कोचिंग लेने दिल्ली चला गया. न इकरार का मौका मिला और न ही इजहार का… एक कसक थी जो मन में दबी की दबी ही रह गई.

इसी बीच आभा के पिता की एक ऐक्सीडैंट में मृत्यु हो गई और अपनी मां के साथसाथ छोटे भाई सोनू की जिम्मेदारी भी उस पर आ गई. पिता के जाने के बाद मां अकसर बीमार रहने लगी थीं. सोनू उन दिनों छठी कक्षा की परीक्षा देने वाला था.

आभा का अपने पिता की जगह उन के विभाग में नौकरी मिल गई. वह जिंदगी की गुत्थी सुलझाने के फेर में उलझती चली गई. 10 साल बाद आज अचानक अनुराग के मैसेज ने उस के दिल में खलबली सी मचा दी थी.

‘कल दिन में बात करूंगी,’ सोचते हुए आखिर उसे नींद आ ही गई.

घरबाहर संभालती आभा हर सुबह 5 बजे बिस्तर छोड़ देती और फिर यह उसे रात 11 बजे ही नसीब होता. औफिस जाने से पहले नाश्ते से ले कर लंच तक का काम उसे निबटाना होता.

9 बजे तक वह भी औफिस के लिए निकल लेती, क्योंकि 10 बजे बायोमैट्रिक प्रणाली से अपनी उपस्थिति दर्ज करवानी होती है. उस के बाद कब शाम के 6 बज जाते हैं, पता ही नहीं चलता. घर लौटने पर 1 कप गरम चाय का प्याला जरूर उसे मां के हाथ का मिलता जिसे पी कर वह फिर से रिचार्ज हो कर अपने मोर्चे पर तैनात होने यानी रसोई में जाने के लिए कमर कस लेती.

जैसेतैसे रात के 11 बजे तक कंप्यूटर की तरह खुद को शटडाउन दे कर चार्जिंग में लगा देती है ताकि अगले दिन के लिए बैटरी पूरी तरह चार्ज रहे. यही है उस की दिनचर्या… कभीकभार मेहमानों के आ जाने या मां की बीमारी बढ़ जाने आदि पर यह और भी ज्यादा हैक्टिक हो जाती है. फिर तो बस शरीर मानो रोबोट ही बन जाता है. अंतिम बार खुद के लिए कब कुछ लमहे निकाले थे, याद ही नहीं पड़ता…

बस, इसी तरह मशीन सी चलती जिंदगी में अचानक अनुराग के मैसेज ने जैसे लूब्रिकैंट का काम किया.

सुबह के लगभग 11 बजे जब आभा औफिस के रूटीन काम से थोड़ा फ्री हुई तो उसे अनुराग का खयाल आया. मोबाइल में उस के रात वाले मैसेज को ढूंढ़ कर फोन नंबर एक कागज पर लिखा और डायल कर दिया. जैसे ही फोन के दूसरी तरफ घंटी बजी, उस के दिल की धड़कनें भी तेज हो गईं.

‘‘कैसी हो आभा?’’ स्नेह से भरी आवाज सुन कर आभा खिल उठी.

‘‘थोड़ी व्यस्त… थोड़ी मस्त…’’ अपना कालेज के जमाने वाला डायलौग मार कर वह खिलखिला पड़ी. अनुराग ने भी उस की हंसी में भरपूर साथ दिया. दोनों काफी देर तक इधरउधर की बातें करते रहे. आभा के पिता की मृत्यु की खबर सुन कर अनुराग उस के प्रति सहानुभूति से भर उठा. आभा ने भी उस के परिवार के बारे में जानकारी ली और फिर आगे भी संपर्क में रहने का वादा करने के साथ फोन रख दिया.

अनुराग से बात करने के बाद आभा को लगा कि जिस तरह मशीनों में तकनीकी खामियां आती हैं और उन्हें मरम्मत की जरूरत पड़ती है ठीक उसी तरह उस के मन को भी मैकेनिक की जरूरत थी. तभी तो आज पुराने दोस्त से बात कर के उस का मन भी कितना हलका हो गया. ठीक वैसे ही जैसे ओवरहालिंग के बाद मशीनें स्मूद हो जाती हैं

लगभग रोज आभा और अनुराग की फोन पर बात होने लगी. वक्त और संपर्क की खाद और पानी मिलने से यह रिश्ता भी पुष्पितपल्लवित होने लगा. कभीकभी आभा के मन में अनुराग को पाने की ख्वाहिश बलवती होने लगती, मगर उस की पत्नी का खयाल कर के वह अपने मन को समझा लेती थी.

‘‘सुनो, औफिशियल काम से तुम्हारे शहर में आया हूं… होटल राजहंस… शाम को मिल सकती हो?’’ अनुराग के अचानक आए इस प्रस्ताव से आभा चौंक गई.

‘‘हां, मगर… किसी ने देख लिया तो… बिना मतलब बवाल हो जाएगा… किसकिस को सफाई दूंगी… तुम तो जानते हो, यह शहर बहुत बड़ा नहीं है…’’ आभा ने कह तो दिया मगर उस के दिल और दिमाग में जंग जारी थी. मन ही मन वह भी अनुराग का साथ चाहती थी.

‘‘क्या तुम रह पाओगी बिना मिले जबकि तुम्हें पता है कि मैं तुम से कुछ ही मिनट्स की दूरी पर हूं,’’ अनुराग ने प्यार से कहा.

‘‘अच्छा ठीक है… मैं शाम को 5 बजे आती हूं?’’ आखिर आभा का दिल उस के दिमाग से जंग जीत ही गया.

इतने बरसों बाद प्रिय को सामने देख कर आभा भावुक हो गई और अनुराग की बांहों में समा गई. अनुराग ने भी उसे अपने घेरे में कस लिया और फिर उस के माथे पर एक चुंबन अंकित कर दिया.

दोनों लगभग घंटेभर तक साथ रहे. कौफी पी और बहुत सी बातें कीं. अनुराग की ट्रेन शाम 7 बजे की थी, इसलिए आभा ने उस से फिर मिलने का वादा करते हुए विदा ली.

इसी तरह 6 महीने बीत गए. फोन पर बात और वीडियो चैट करतेकरते दोनों काफी नजदीक आ गए थे. कभीकभी दोनों बहुत ही अंतरंग बातें भी कर लेते थे, जिन्हें सुन कर आभा के शरीर में झनझनाहट सी होने लगती थी.

एक रोज जब अनुराग की पत्नी अपने मायके गई हुई थी तब वह आभा के साथ देर रात वीडियो पर चैट कर रहा था.

‘‘अनुराग, अपनी शर्ट उतार दो,’’ अचानक आभा ने कहा.

अनुराग ने एक पल सोचा और फिर शर्ट उतार दी. उस के बाद पाजामा भी.

‘‘अब तुम्हारी बारी है…’’ अनुराग ने कहा तो आभा का चेहरा शर्म से लाल हो गया. उस ने तुरंत चैट बंद कर दी मगर अब आभा का युवा मन अनुराग की कामना और भी तीव्रता से करने लगा. सोनू और मां की जिम्मेदारियों के कारण वह अपनी शादी के बारे में सोच नहीं पा रही थी. मगर उस की अपनी भी कुछ कामनाएं थीं जो रहरह कर सिर उठाती थीं.

‘काश, उसे सिर्फ एक दिन भी अनुराग के साथ बिताने को मिल जाए. इस एक दिन में वह अपनी पूरी जिंदगी जी लेगी. अनुराग का प्रेम अपने मनमस्तिष्क में समेट लेगी,’ आभा कल्पना करने लगी. वह ऐसी संभावनाएं तलाशने लगी कि उसे यह मौका हासिल हो सके. वह नहीं जानती थी कि कल क्या होगा, मगर एक रात वह अपनी मरजी से जीना चाहती थी.

उस ने एक दिन डरतेडरते अपनी यह कल्पना अनुराग के साथ साझा की तो वह भी राजी हो गया. तय हुआ कि दोनों दूर के किसी तीसरे शहर में मिलेंगे.

अनुराग के लिए तो यह ज्यादा मुश्किल नहीं था, लेकिन आभा का बिना कारण बाहर जाना संभव नहीं था. मगर तकदीर भी शायद आभा पर मेहरबान होना चाह रही थी. अत: उसे एक दिन उस के लिए देना चाह रही थी ताकि वह अपनी कल्पनाओं में रंग भर सके.

आभा के औफिस में वार्षिक खेलकूद प्रतियोगिताओं का आयोजन हुआ. आभा ने शतरंज में भाग लिया. अधिक महिला प्रतिभागी न होने के कारण उस का चयन राज्य स्तर पर विभागीय प्रतिभागी के रूप में हो गया. इस प्रतियोगिता का फाइनल राउंड जयपुर में होना था, जिस में भाग लेने के लिए आभा को 2 दिनों के लिए जयपुर जाना था.

आभा ने टूरनामैंट की डेट फिक्स होते ही अनुराग को बता दिया. हालांकि आभा सहित सभी प्रतिभागियों के ठहरने की व्यवस्था विभाग के गैस्ट हाउस में की गई थी, मगर आभा ने अपनी सहेली के घर रुकने की खास परमिशन अपने लीडर से ले ली.

आभा अपने साथियों के साथ बस से सुबह 6 बजे जयपुर पहुंच गई. अनुराग की ट्रेन 10 बजे आने वाली थी. आभा ठीक 10 बजे रेलवे स्टेशन पहुंच गई. फिर अनुराग के साथ एक होटल में पतिपत्नी के रूप में चैकइन किया. थोड़ी देर बातें करने के बाद आभा ने उस से विदा ली, क्योंकि दोपहर बाद उस का मैच था. हालांकि दोनों ही अब दूरी बरदाश्त नहीं कर पा रहे थे, मगर जिस बहाने ने उन्हें मिलाया था उसे निभाना भी तो जरूरी था वरना पूरी टीम को उस पर शक हो जाता.

आभा ने बेमन से अपना मैच खेला और पहले ही राउंड में बाहर हो गई. उस ने टीम लीडर से तबीयत खराब होने का बहाना बनाया और 2 ही घंटों में वापस होटल आ गई. अनुराग ने उसे देखते ही बांहों में भर लिया और उस के चेहरे पर चुंबनों की झड़ी लगा दी. आभा ने उसे कंट्रोल किया. वह इन लमहों को चाय की चुसकियों की तरह घूंटघूंट पी कर जीना चाहती थी. आभा की जिद पर दोनों मौल में घूमने चले गए. रात 9 बजे डिनर करने के बाद जब वे रूम में आए तो अनुराग ने उस की एक न सुनी और सीधे बिस्तर पर खींच लिया और उस पर बरस पड़ा. आभा प्यार की इस पहली बरसात में पूरी तरह भीग गई.

उस के बाद रातभर दोनों जागते रहे और रिमझिम फुहारों का आनंद लेते रहे. सुबह दोनों ने एकसाथ शावर लिया और नहातेनहाते एक बार फिर प्यार के दरिया में तैरने लगे. आभा पूरी तरह तृप्त हो चुकी थी. आज उसे लगा मानो उस की हर इच्छा पूरी हो गई. अब उसे अधिक की चाह नहीं थी.

इसी बीच आभा के टीम लीडर का फोन आ गया. उन्हें 10 बजे रवाना होना था. आभा ने अनुराग के होंठों को एक बार भरपूर चूसा और दोनों होटल से बाहर आ गए. अनुराग ने उस के लिए कैब बुला ली थी.

‘‘कैसा रहा तुम्हारा यह अनुभव?’’ अनुराग ने शरारत से पूछा.

‘‘मैं ने आज जाना है कि कभीकभी फूलों को तोड़ कर खुशबू हवा में बिखेर देनी चाहिए… कभीकभी किनारों को तोड़ कर बहने में कोई बुराई… खुद के लिए चाहने में कुछ भी अपराध नहीं…बेशक समाज इसे नैतिकता के तराजू में तोलता है, मगर मैं ने अपने मन की सुनी और मुझे उसी का पलड़ा भारी लगा,’’ आभा ने अनुराग का हाथ थाम कर दार्शनिक की तरह कहा.

अनुराग उस की बात को कितना समझा, कितना नहीं यह मालूम नहीं, मगर आभा आज एक दिन अपने लिए जी कर बेहद खुश थी. अब वह एकबार फिर से तैयार थी. बाकी सब के लिए जीने की खातिर.

सबक: संध्या का कौनसा राज छिपाए बैठा था उसका देवर

संध्या की आंखों में नींद नहीं थी. बिस्तर पर लेटे हुए छत को एकटक निहारे जा रही थी. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे, जिस से वह आकाश के चंगुल से निकल सके. वह बुरी तरह से उस के चंगुल में फंसी हुई थी. लाचार, बेबस कुछ भी नहीं कर पा रही थी. गलती उस की ही थी जो आकाश को उसे ब्लैकमेल करने का मौका मिल गया. वह जब चाहता उसे एकांत में बुलाता और जाने क्याक्या करने की मांग करता. संध्या का जीना दूभर हो गया था. आकाश कोई और नहीं उस का देवर ही था. सगा देवर. एक ही घर, एक ही छत के नीचे रहने वाला आकाश इतना शैतान निकलेगा, संध्या ने कल्पना भी नहीं की थी. वह लगातार उसे ब्लैकमेल किए जा रहा था और वह कुछ भी नहीं कर पा रही थी. बात ज्यादा पुरानी नहीं थी. 2 माह पहले ही संध्या अपने पति साहिल के साथ यूरोप ट्रिप पर गई थी. 50 महिलापुरुषों का गु्रप दिल्ली इंटरनैशनल एअरपोर्ट से रवाना हुआ.

15 दिनों की यात्रा से पूर्व सब का एकदूसरे से परिचय कराया गया. संध्या को उस गु्रप में नवविवाहित रितू कुछ अलग ही नजर आई. उसे लगा रितू के विचार काफी उस से मिलते हैं. बातबात पर खिलखिला कर हंसने वाली रितू से वह जल्द ही घुलमिल गई. रितू का पति प्रणव भी काफी विनोदी स्वभाव का था. हर बात को जोक्स से जोड़ कर सब को हंसाने की आदत थी उस की. एक तरह से रितू और प्रणव में सब को हंसाने की प्रतिस्पर्धा चलती थी. संध्या इस नवविवाहित जोड़े से खासी प्रभावित थी. संध्या और उस के पति साहिल के बीच वैसे तो सब कुछ सामान्य था, लेकिन जब भी वह रितू और प्रणव की जोड़ी को देखती आहें भर कर रह जाती. प्रणव के विपरीत साहिल गंभीर स्वभाव का इंसान था, जबकि संध्या साहिल से अलग खुले विचारों वाली थी. यूरोप यात्रा के दौरान ही संध्या, रितू और प्रणव इतना घुलमिल गए कि विभिन्न पर्यटन स्थलों में घूम आने के बाद भी होटल के रूम में खूब बातें करते, हंसीमजाक होता. साहिल संध्या का हाथ पकड़ खींच कर ले जाता. वह कहता कि चलो संध्या, बहुत देर हो गई. इन्हें भी आराम करने दो. हम भी सो लेते हैं. गु्रप लीडर ने सुबह जल्दी उठने को बोला है.

मगर संध्या को कहां चैन मिलता. वह अपने रूम में आ कर भी मोबाइल पर शुरू हो जाती. वहाट्सऐप पर शुरू हो जाता रितू से जोक्स, कौमैंट्स भेजने का सिलसिला. रितू ने संध्या के फेसबुक पर फ्रैंड रिक्वैस्ट भेज डाली. संध्या ने तुरंत स्वीकार कर ली. दिन में जो फोटोग्राफी वे लोग करते उसे वे व्हाट्सऐप पर एकदूसरे को भेजते. फोटो पर कौमैंट्स भी चलते. रात को रितू और संध्या के बीच व्हाट्सऐप पर घंटों बातें चलतीं. जोक्स से शुरू हो कर, समाजपरिवार की बातें होतीं. धीरेधीरे यह सिलसिला व्यक्तिगत स्तर पर आ गया. एकदूसरे की पसंद, रुचि से ले कर स्कूलकालेज की पढ़ाई, बचपन में बीते दिनों की बातें साझा करने लगीं.

एक रात रितू ने व्हाट्सऐप पर संध्या के सामने दिल खोल कर रख दिया. शादी से पहले के प्यार और शादी तक सब कुछ बता दिया. शादी से पहले रितू की लाइफ में प्रणव था. दोनों एक ही कालेज में पढ़ते थे. दोनों का परिवार अलगअलग धर्म और जाति का था. उन के प्यार में कुछ अड़चनें आईं. शादी को ले कर दोनों परिवारों में तकरार हुई पर आखिर रितू और प्रणव ने सूझबूझ दिखाते हुए अपनेअपने परिवार को मना लिया. रितू और प्रणव की शादी हो गई.व्हाट्सऐप पर रितू की लव स्टोरी पढ़ कर संध्या के मन में हलचल पैदा हो गई. उसे अपना अतीत याद हो आया. उस रात उस का मन किया वह भी रितू को वह सब कुछ बता दे जो उस का अतीत है, लेकिन वह हिम्मत नहीं कर पाई कि पता नहीं रितू क्या सोचेगी. वह उस के बारे में न जाने क्या धारणा बना ले. अजीब सी हलचल मन में लिए संध्या सो गई.

अगली रात संध्या अपनेआप को रोक नहीं पाई. रोज की तरह व्हाट्सऐप पर बातों का सिलसिला चल ही रहा था कि मौका देख कर संध्या ने लिख डाला कि मेरा भी एक अतीत है रितू. मैं भी किसी से प्यार करती थी. पर वह प्यार मुझे नहीं मिल सका.

रितू ने आश्चर्य वाला स्माइली भेजा और लिखा कि बताओ कौन था वह? क्या लव स्टोरी है तुम्हारी?

फिर संध्या ने रितू को अपनी लव स्टोरी बताने का सिलसिला शुरू कर दिया. वह मेरे कालेज में ही था. उस का नाम संजय था. हम दोनों एकदूसरे से बहुत प्यार करते थे. हर 1-2 घंटे में मोबाइल पर हमारी बातें नहीं होतीं, तो लगता बहुत कुछ अधूरा है लाइफ में. दोनों में खूब बातें होतीं और तकरार भी. दुनिया से बेखबर हम अपने प्यार की दुनिया में खोए रहते. हमारा प्यार सारी हदें पार कर गया. विश्वास था कि घर वाले हमारी शादी को राजी हो जाएंगे. इसी विश्वास को ले कर मैं ने खुद को संजय को सौंप दिया. संध्या ने रितू को व्हाट्सऐप पर आगे लिखा, उस दिन पापा ने मुझ से कहा कि बेटी, तुम्हारी पढ़ाई पूरी हो चुकी है. हम चाहते हैं कि अब अच्छा सा लड़का देख कर तुम्हारी शादी कर दें. मैं एकाएक पापा से कुछ नहीं बोल पाई. बस, इतना ही कहा कि पापा मुझे नहीं करनी शादी. अभी मेरी उम्र ही क्या हुई है.

इस पर पापा ने कहा कि उम्र और क्या होगी? 25 साल की तो हो चुकी हो. जब मैं ने कहा कि नहीं पापा, मुझे नहीं करनी शादी तो वे हंस पड़े. बोले सच में अभी बच्ची हो. मैं ने पापा की बात को गंभीरता से नहीं लिया, पर वे मेरी शादी को ले कर गंभीर थे. एक दिन पापा ने मुझे बताया कि एक अच्छे परिवार का लड़का है तेरे लायक. किसी बड़ी कंपनी में सौफ्टवेयर इंजीनियर है. 25 लाख का पैकेज है. वे अगले हफ्ते तुझे देखने आ रहे हैं. पापा की बात सुन कर मैं अवाक रह गई. मुझ से रहा नहीं गया. मैं ने हिम्मत जुटा कर पापा से कहा कि पापा, मैं एक लड़के से प्यार करती हूं. आप उन से बात कर लीजिए. पापा मेरी तरफ देखते रह गए. उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि उन की नजर में मैं सीधीसादी नजर आने वाली लड़की किस हद तक आगे बढ़ चुकी हूं.

पापा ने पूछा कि कौन है वह लड़का? मैं ने संजय का नाम, पता बताया तो पापा का गुस्सा बढ़ गया कि कभी उस परिवार में अपनी बेटी का रिश्ता नहीं करूंगा. मैं अंदर तक हिल गई. मुझे लगा मेरे सपने रेत से बने महल की तरह धराशायी हो जाएंगे. मैं ने तो संजय को सब कुछ सौंप दिया था. धरती हिलती हुई नजर आई उस दिन मुझे.

पापा और सब घर वालों ने 2-4 दिन में ऐसा माहौल बनाया कि मेरी और संजय की शादी नहीं हो पाई. अगले हफ्ते ही साहिल और उस के घर वाले मुझे देखने आ गए. मुझे पसंद कर लिया गया. रिश्ता पक्का हो गया. पापा ने सख्त हिदायत दी कि संजय का जिक्र भूल कर भी कभी न करूं. इस तरह मेरी शादी साहिल से हो गई. मैं अतीत भूल कर अपना घर बसाने में लग गई. शादी को 2 साल हो चुके हैं. संध्या ने रितू से व्हाट्सऐप पर अपने अतीत की बातें शेयर की और संजय का वह फोटो भेजा जो उस ने संजय के फेसबुक अकाउंट से डाउनलोड किया था.

‘‘अरे वाह, मैडम तुम ने तो बखूबी हैंडल कर लिया लाइफ को,’’ रितू ने संध्या की कहानी सुन कर लिखा.

इसी तरह हंसीमजाक और व्यक्तिगत बातें शेयर करते हुए यूरोप का ट्रिप पूरा हो गया. जब वे वापस घर पहुंचे तो संध्या और साहिल थक कर चूर हो चुके थे. तब रात के 2 बज रहे थे. सुबह देर तक सोते रहे. सास ने दरवाजा खटखटाया कि संध्या, साहिल उठ जाओ… सुबह के 11 बज चुके हैं. नहा कर नाश्ता कर लो. संध्या हड़बड़ा कर उठी. फटाफट फ्रैश हो कर तैयार हुई और किचन में आ गई. नाश्ता तैयार कर डाइनिंग टेबल पर लगाया तब तक साहिल भी तैयार हो चुका था. दोनों ने नाश्ता किया. तभी संध्या को खयाल आया कि मोबाइल कहां है. उस ने इधरउधर देखा पर नहीं मिला. आखिर कहां गया मोबाइल? उसे ध्यान आ रहा था कि रात को जब आई थी तो डाइनिंग टेबल पर रखा था.

‘‘संध्या मैं औफिस जा रहा हूं. आज बौस आ रहे हैं. 3 बजे उन के साथ मीटिंग है,’’ साहिल ने घर से निकलते हुए कहा.

‘‘ठीक है.’’

साहिल के जाने के बाद संध्या मोबाइल ढूंढ़ने में जुट गई. हर जगह देखा. वह अपने देवर आकाश के कमरे में जा पहुंची कि कहीं उस ने देखा हो. वह उस के कमरे में पहुंची तो मोबाइल आकाश के हाथों में देखा. वह मोबाइल स्क्रीन पर व्हाट्सऐप पर मैसेज पढ़ रहा था. वह मैसेज जो संध्या ने रितू को लिखे थे. वह सब कुछ पढ़ चुका था और मोबाइल को साइड में रखने ही जा रहा था.

‘‘आकाश, क्या कर रहे हो? मेरा मोबाइल तुम्हारे पास कहां से आया? क्या देख रहे थे इस में?’’ संध्या ने पूछा तो हमउम्र देवर आकाश के होंठों पर कुटिल मुसकान दौड़ गई.

‘‘कुछ नहीं भाभी, बस आप की लव स्टोरी पढ़ रहा था. आप के लवर का फोटो भी देखा. बहुत स्मार्ट है वह. क्या नाम था उस का संजय?’’ आकाश ने कहा तो संध्या की आंखों के सामने अंधेरा छा गया.

‘‘कुछ नहीं है… आकाश वे सब मजाक की बातें थीं,’’ संध्या ने गिड़गिड़ाते हुए कहा.

‘‘अगर भैया को ये सब मजाक की बातें बता दूं तो…?’’ आकाश ने तिरछी नजरें करते हुए कहा. उस की आंखों में शरारत साफ नजर आ रही थी.

संध्या को आकाश के इरादे नेक नहीं लगे. उसे अफसोस था कि उस ने किसी अनजानी दोस्त के सामने क्यों अपने अतीत की बातें व्हाट्सऐप पर लिखी. लिख भी दी थीं तो डिलीट क्यों नहीं कीं.

‘‘तुम ऐसा कुछ नहीं करोगे आकाश. यह मजाक अच्छा नहीं है तुम्हारे लिए,’’ संध्या ने सख्त लहजे में कहा.

यह सुन कर आकाश अपनी औकात पर उतर आया, ‘‘भाभी जान, क्यों घबराती हो, ऐसा कुछ नहीं करूंगा. आप बस देवर को खुश कर दिया करो.’’

संध्या गुस्सा पीते हुए बोली, ‘‘मुझे क्या करना होगा? तुम क्या चाहते हो?’’

‘‘भाभी, इतना बताना पड़ेगा क्या आप को? आप शादीशुदा हैं. शादी से पहले भी आप काफी ज्ञान रखती थीं,’’ आकाश ने बेशर्मी से कहा.

संध्या को लगा वह बहुत बड़े जाल में फंसने जा रही है. अब करे भी तो क्या करे?

‘‘क्या सोच रही हो संध्या? आकाश अचानक भाभी से संध्या के संबोधन पर उतर आया.

‘‘मुझे सोचने का वक्त दो आकाश,’’ संध्या ने कहा.

‘‘ओके, नो प्रौब्लम. जैसा तुम्हें ठीक लगे. पर याद रखना मेरे पास बहुत कुछ है. भैया को पता चल गया तो धक्के मार कर घर से निकाल देंगे तुम्हें.’’

‘‘पता है, तुम किस हद तक नीचता कर सकते हो,’’ संध्या ने रूखे स्वर में कहा.

संध्या अब क्या करे? कैसे पीछा छुड़ाए आकाश से? वह देवरभाभी के रिश्ते को कलंकित करने पर उतारू था. वह जब भी मौका मिलता संध्या का रास्ता रोक कर खड़ा हो जाता कि क्या सोचा तुम ने?

आकाश मोबाइल पर संध्या को कौल करता, ‘‘इतने दिन हो गए, अभी तक सोचा नहीं क्या? क्यों तड़पा रही हो?’’

संध्या पर आकाश लगातार दबाव बढ़ा रहा था. उस का जीना दूभर हो गया. इसी उधेड़बुन में वह करवटें बदल रही थी. उस की नींद उड़ चुकी थी. वह सुबह तक किसी निर्णय पर पहुंचना चाहती थी. उस के सामने दुविधा यह थी कि वह खुद को बचाए या आकाश की वजह से परिवार में होने वाले विस्फोट से बचे. वह चाहती थी किसी तरह आकाश को समझा सके, ताकि यह बात अन्य सदस्यों तक नहीं पहुंचे, लेकिन करे तो क्या करें. अचानक उस के दिमाग में एक विचार कौंधा. हां, यही ठीक रहेगा. उस ने मन ही मन सोचा और गहरी नींद में सो गई. अगले दिन संध्या ने घर का कामकाज निबटाया और अपनी सास से बोली, ‘‘मम्मीजी, मुझे मार्केट जाना है कुछ घर का सामान लाने. घंटे भर में वापस जा जाऊंगी.’’

फिर संध्या जब घर लौटी तो उस के चेहरे पर चिंता की लकीरों के बजाय चमक थी. उस ने पढ़ा था कि राक्षस को मारने के लिए मायावी होना ही पड़ता है. वह आकाश को भी उसी के हथियार से मारेगी… उस का सामना करेगी. मार्केट से वह अपने मोबाइल में वायस रिकौर्डिंग सौफ्टवेयर डलवा आई. कुछ देर बाद ही आकाश ने घर से बाहर जा कर संध्या के मोबाइल पर कौल की. संध्या पूरी तरह तैयार थी.

‘‘हैलो संध्या क्या सोचा तुम ने?’’ आकाश ने पूछा.

‘‘मुझे क्या करना होगा?’’ संध्या ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं बस वही सब… तुम्हें बताना पड़ेगा क्या?’’

‘‘हां, बताना पड़ेगा. मुझे क्या पता तुम क्या चाहते हो?’’

‘‘तुम मेरे साथ…’’ और फिर सब कुछ बताता चला गया आकाश. कब, कहां, क्या करना होगा.

‘‘और अगर मैं मना कर दूं तो क्या करोगे?’’ संध्या ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं तुम्हारी लव स्टोरी सब को बता दूंगा.’’

संध्या गुस्से से चिल्ला पड़ी, ‘‘जाओ, सब को बताओ. परंतु एक बात याद रखना तुम जो मुझे ब्लैकमेल कर रहे हो न मैं इस की शिकायत पुलिस में करूंगी. ऐसी हालत कर दूंगी कि कई जन्मों तक याद रखोगे.’’

‘‘कैसे करोगी?’’ क्या प्रूफ है तुम्हारे पास?’’ आकाश ने कहा.

‘‘घर आ कर देख लेना यों कायरों की तरह घर से बाहर जा कर क्या बात कर रहे हो,’’ संध्या का गुस्सा बढ़ता ही जा रहा था.

शाम को आकाश घर आया. संध्या ने मौका मिलते ही धीमे से कहा ‘‘पू्रफ दूं या वैसे ही मान जाओगे? तुम ने जो भी बातें की हैं वह सब मोबाइल में रिकौर्ड हैं और इस की सीडी अपने लौकर में रख ली है.’’

आकाश को विश्वास नहीं हो रहा था कि संध्या इस कदर पलटवार करेगी. वह चुपचाप अपने कमरे में खिसक गया. संध्या आज अपनी जीत पर प्रसन्न थी. व्हाट्सऐप के जरीए जो मुसीबत उस पर आई थी, वह उस से छुटकारा पा चुकी थी.

चोट: शिवेंद्र अपनी टीस को झेलते हुए कैसे कामयाबी की सीढि़यां चढ़ता गया

दिल्ली से सटे तकरीबन 40 किलोमीटर दूर रावतपुर नाम के एक छोटे से कसबे में अमरनाथ नाम का एक किसान रहता था. उस के पास तकरीबन डेढ़ एकड़ जमीन थी, जिस में फसल उगा कर वह अपने परिवार को पाल रहा था. पत्नी, एक बेटा और एक बेटी यही छोटा सा परिवार था उस का, इसलिए आराम से गुजारा हो रहा था.

अमरनाथ का बड़ा बेटा शिवेंद्र पढ़नेलिखने में बहुत तेज तो नहीं था, पर इंटरमीडिएट तक सभी इम्तिहान ठीकठाक अंकों से पास करता गया था.

अमरनाथ को उम्मीद थी कि ग्रेजुएशन करने के बाद उसे कहीं अच्छी सी नौकरी मिल ही जाएगी और वह खेतीकिसानी के मुश्किल काम से छुटकारा पा जाएगा.

रावतपुर कसबे में कोई डिगरी कालेज न होने के चलते अमरनाथ के सामने शिवेंद्र को आगे पढ़ाने की समस्या खड़ी हो गई. उस ने काफी सोचविचार कर बच्चों को ऊंची तालीम दिलाने के लिए दिल्ली में टैंपरेरी ठिकाना बनाने का फैसला लिया और रावतपुर में अपने खेत बंटाई पर दे कर सपरिवार दिल्ली के सोनपुरा महल्ले में एक कमरा किराए पर ले कर रहने लगा.

अमरनाथ ने शिवेंद्र को आईआईटी की प्रवेश परीक्षा की तैयारी के लिए ज्ञान कोचिंग सैंटर में दाखिला करा दिया और बेटी सुमन को पास के ही महात्मा गांधी बालिका विद्यालय में दाखिला दिला दिया. उस ने अपना ड्राइविंग लाइसैंस बनवाया और आटोरिकशा किराए पर ले कर चलाना शुरू कर दिया.

आटोरिकशा के मालिक को रोजाना 400 रुपए किराया देने के बाद भी शाम तक अमरनाथ की जेब में 3-4 सौ रुपए बच जाते थे जिस से उस का घरखर्च चल जाता था.

अमरनाथ सुबह 8 बजे आटोरिकशा ले कर निकालता और शिवेंद्र को कोचिंग सैंटर छोड़ता हुआ अपने काम पर निकल जाता. शिवेंद्र की छुट्टी शाम को 4 बजे होती थी.

अमरनाथ इस से पहले ही कोचिंग सैंटर के पास के चौराहे पर आटोरिकशा ले कर पहुंच जाता और शिवेंद्र को घर छोड़ कर दोबारा सवारियां ढोने के काम में लग जाता.

अमरनाथ सुबहशाम बड़ी चालाकी से उसी रूट पर सवारियां ढोता जिस रूट पर शिवेंद्र का कोचिंग सैंटर था और जब शिवेंद्र को लाते और ले जाते समय कोई सवारी उसी रूट की मिल जाती तो अमरनाथ की खुशी का ठिकाना न रहता.

एक दिन शाम को साढ़े 4 बजे के आसपास अमरनाथ चौराहे पर शिवेंद्र का इंतजार कर रहा था कि तभी ट्रैफिक पुलिस का दारोगा डंडा फटकारता हुआ वहां आ गया और उस से तुरंत अमरनाथ को वहां से आटोरिकशा ले जाने को कहा.

अमरनाथ ने दारोगा को बताया कि उस का बेटा कोचिंग पढ़ कर आने वाला है. वह उसी के इंतजार में चौराहे पर खड़ा है. बेटे के आते ही वह चला जाएगा.

‘‘अच्छा, मुझे कानून बताता है. भाग यहां से वरना मारमार कर हड्डीपसली एक कर दूंगा.’’ दारोगा गुर्राया.

‘‘साहब, अगर मैं यहां से चला गया तो मेरा बेटा…’’

अमरनाथ अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि दारोगा ने ताबड़तोड़ उस पर डंडा बरसाना शुरू कर दिया. उसी समय शिवेंद्र वहां पहुंच गया. अपने पिता को लहूलुहान देख उस की आंखों में खून उतर आया. उस ने लपक कर दारोगा का डंडा पकड़ लिया.

शिवेंद्र को देख अमरनाथ कराहते हुए बोला, ‘‘साहब, मैं इसी का इंतजार कर रहा था. अब मैं जा रहा हूं.’’

अमरनाथ ने शिवेंद्र की ओर हाथ बढ़ाते हुए उठने की कोशिश की तो शिवेंद्र ने दारोगा का डंडा छोड़ अपने पिता को उठा लिया और आटोरिकशा में बिठा कर आटो स्टार्ट कर दिया.

शिवेंद्र ने दारोगा को घूरते हुए आटोरिकशा चलाना शुरू किया तो दारोगा ने एक भद्दी सी गाली दे कर आटोरिकशा पर अपना डंडा पटक दिया.

इस घटना के 3-4 दिन बाद तक शिवेंद्र कोचिंग पढ़ने नहीं गया. हथेली जख्मी हो जाने के चलते अमरनाथ आटोरिकशा चलाने में नाकाम था, इसलिए वह घर पर ही पड़ा रहा और घरेलू उपचार करता रहा.

घरखर्च के लिए शिवेंद्र ने बैटरी से चलने वाला आटोरिकशा किराए पर उसी आटो मालिक से ले लिया जिस से उस के पिता किराए पर आटोरिकशा लेते थे, ताकि ड्राइविंग लाइसैंस का झंझट न पड़े. वह पूरे दिल से आटोरिकशा चलाता और फिर देर रात तक पढ़ाई करता.

एक दिन रात को शिवेंद्र पढ़तेपढ़ते सो गया. उस की मां की नींद जब खुली तो उस ने शिवेंद्र की किताब उठा कर रख दी. तभी उस की निगाह तकिए के पास रखे बड़े से चाकू पर गई.

सुबह उठ कर शिवेंद्र की मां ने उस से पूछा, ‘‘तू यह चाकू क्यों लाया है और इसे तकिए के नीचे रख कर क्यों सोता है?’’

अपनी मां का सवाल सुन कर शिवेंद्र सकपका गया. उस ने कोई जवाब देने के बजाय चुप रहना ही ठीक समझा. उस की मां ने जब बारबार यही सवाल दोहराया तो वह दांत पीसते हुए बोला, ‘‘उस दारोगा के बच्चे का पेट फाड़ने के लिए लाया हूं जिस ने मेरे पापा की बेरहमी से पिटाई की है.’’

शिवेंद्र का जवाब सुन कर उस की मां सन्न रह गई.

शिवेंद्र के जाने के बाद मां ने यह बात अमरनाथ को बताई. अमरनाथ ने जब यह सुना तो उस के होश उड़ गए. कुछ पलों तक वह बेचैनी से शून्य में देखता रहा, फिर अपनी पत्नी से कहा, ‘‘तू ने मुझे पहले क्यों नहीं बताया? उसे घर के बाहर क्यों जाने दिया? अगर वह कुछ ऐसावैसा कर बैठा तो…?’’

रात को 8 बजे जब आटोरिकशा वापस जमा कर के शिवेंद्र घर लौटा और दिनभर की कमाई पिता को दी तो अमरनाथ ने उसे अपने पास बैठा कर बहुत प्यार से समझाया, ‘‘बेटा, दारोगा ने सही किया या गलत, यह अलग बात है, मगर जो तू कर रहा है, उस से न केवल तेरी जिंदगी बरबाद हो जाएगी, बल्कि पूरा परिवार ही तबाह हो जाएगा.

‘‘हम सब के सपनों का आधार तू ही है बेटा, इसलिए दारोगा से बदला लेने की बात तू अपने दिमाग से बिलकुल निकाल ही दे, इसी में हम सब की भलाई है.’’

शिवेंद्र चुपचाप सिर झुकाए अपने पिता की बातें सुनता रहा. दुख और मजबूरी से उस की आंखें डबडबा आईं. बहुत समझाने पर उस ने अपनी कमर में खुंसा चाकू निकाल कर अमरनाथ के सामने फेंक दिया और उस के पास से हट गया.

अमरनाथ ने चुपचाप चाकू उठा कर अपने बौक्स में रख कर ताला लगा दिया.

अगले दिन अमरनाथ ने चोट के बावजूद खुद आटोरिकशा संभाल लिया और शिवेंद्र को ले कर कोचिंग सैंटर गया.

शिवेंद्र जब आटो से उतर कर कोचिंग सैंटर चला गया तो कुछ देर तक अमरनाथ बाहर ही खड़ा रहा. फिर कोचिंग सैंटर के हैड टीचर जिन्हें सब अमित सर कहते थे, के पास गया और उन्हें दारोगा वाली पूरी बात बताई.

अमित सर ने अमरनाथ की पूरी बात सुनी और उसे भरोसा दिलाया कि वे शिवेंद्र की काउंसलिंग कर के जल्दी ही उसे सही रास्ते पर ले आएंगे.

अमरनाथ के जाने के बाद अमित सर ने शिवेंद्र को अपने कमरे में बुलाया और उस से पुलिस द्वारा की गई ज्यादती के बारे में पूछा, तो शिवेंद्र फफक कर रो पड़ा.

जब शिवेंद्र 5-7 मिनट तक रो चुका तो अमित सर ने उसे चुप कराते हुए सवाल किया, ‘‘क्या तुम जानते हो कि पुलिस वाले ने तुम्हारे पिता पर हाथ क्यों उठाया?’’

‘‘सर, उन की कोई गलती नहीं थी. वे चौराहे पर मेरा इंतजार कर रहे थे. यह बात उन्होंने उस पुलिस वाले को बताई भी थी.’’

‘‘मतलब, उन की कोई गलती नहीं थी. अब यह बताओ कि अगर तुम्हारे पिता की जगह पर कोई अमीर आदमी बड़ी सी महंगी कार लिए अपने बेटे का वहां इंतजार कर रहा होता तो क्या पुलिस वाला उस आदमी पर हाथ उठाता?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘इस का मतलब यह है कि गरीब होने के चलते तुम्हारे पिता के ऊपर हाथ उठाने की हिम्मत उस दारोगा ने की.’’

‘‘जी सर.’’

‘‘तो बेटा, तुम्हें उस दारोगा से बदला लेने के बजाय उस गरीबी से लड़ना चाहिए जिस के चलते तुम्हारे पिता की बेइज्जती हुई. होशियारी इनसान से लड़ने में नहीं, हालात से लड़ने में है.

‘‘अगर तुम लड़ना ही चाहते हो तो गरीबी से लड़ो और इस का एक ही उपाय है ऊंची तालीम. अपनी गरीबी से संघर्ष करते हुए खुद को इस काबिल बनाओ कि उस जैसे पुलिस वाले को अपने घर में गार्ड रख सको.

‘‘तुम मेहनत कर के आईआईटी की प्रवेश परीक्षा में कामयाबी पाओ. फिर इंजीनियरिंग की डिगरी हासिल कर के कोई बड़ी नौकरी हासिल करो. फिर तुम देखना कि वह दारोगा ही क्या, उस के जैसे कितने ही लोग तुम्हारे सामने हाथ जोड़ेंगे और आईएएस बन गए तो यही दारोगा तुम्हें सैल्यूट मारेगा.

‘‘तुम्हारे इस संघर्ष में मैं तुम्हारा साथ दूंगा. बोलो, मंजूर है तुम्हें यह संघर्ष?’’

अमित सर की बात सुन कर शिवेंद्र का चेहरा सख्त होता चला गया, मानो उस की चोट फूट कर बह जाने के लिए उसे बेताब कर रही हो.

शिवेंद्र ने दोनों हाथ उठा कर कहा, ‘‘हां सर, मैं लडूंगा. पूरी ताकत से लड़ूंगा और इस लड़ाई को जीतने के लिए जमीनआसमान एक कर दूंगा.’’

दारोगा के गलत बरताव से शिवेंद्र के मन पर जो चोट लगी थी उस की टीस को झेलते हुए वह कामयाबी की सीढि़यां चढ़ता गया और आईआईटी मुंबई से जब वह इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर के लौटा तो 35 लाख रुपए सालाना तनख्वाह का प्रस्ताव भी जेब में ले कर आया. शिवेंद्र ने अपनी तनख्वाह के बारे में जब अमरनाथ को बताया तो उस का मुंह खुला का खुला रह गया, फिर वह तकरीबन चीखते हुए बोला, ‘‘अरे शिवेंद्र की मां, इधर आ. देख तो अपना शिवेंद्र कितना बड़ा आदमी हो गया है.’’

पूरे परिवार के लिए वह दिन त्योहार की तरह बीता. शाम को काजू की बरफी ले कर शिवेंद्र अमित सर के घर पहुंचा तो उन्होंने उसे गले लगा कर उस की पीठ थपथपाई और बोले, ‘‘मुझे खुशी है कि वक्त ने तुम्हारे दिल को जो चोट दी, उसे तुम ने सहेज कर रखा और उस का इस्तेमाल सीढ़ी के रूप में कर के तरक्की की चोटी तक पहुंचे.

‘‘अब तुम्हें पीछे मुड़ कर देखने की जरूरत नहीं है. बस, यह ध्यान रखना कि किसी को तुम्हारे चलते बेइज्जत न होना पड़े, किसी गरीब को तुम से चोट न पहुंचे, यही तुम्हारा असली बदला होगा.’’

परिचय: कौन पराया, कौन अपना

मैं अपने केबिन में बैठी मुंशीजी से पेपर्स टाइप करवा रही थी. मन काम में नहीं लग रहा था. पिछले 1 घंटे से मैं कई बार घड़ी देख चुकी थी, जो लंच होने की सूचना शीघ्र ही देने वाली थी. दरअसल, मुझे वंदना का इंतजार था. पूरी वकील बिरादरी में एक वही तो थी, जिस से मैं हर बात कर सकती थी. इधर घड़ी ने 1 बजाया,

उधर वंदना अपना काला कोट कंधे पर टांगे और अपने चेहरे को रूमाल से पोंछती हुई अंदर दाखिल हुई. मेरे चेहरे पर मुसकान दौड़ गई. ‘‘बहुत गरमी है आज,’’ कहती हुई वंदना कुरसी खींच कर बैठ गई. मुंशीजी खाना खाने चले गए. मेरा चेहरा फिर गंभीर हो गया. वंदना एक अच्छी वकील होने के साथ ही मन की थाह पा लेने वाली कुशाग्रबुद्धि महिला भी है.

‘‘आज फिर किसी केस में उलझ गई हैं श्रीमती सुनंदिता सिन्हा,’’ उस ने प्रश्नसूचक दृष्टि मेरे चेहरे पर टिका दी.

‘‘नहीं तो.’’

‘‘इस ‘नहीं तो’ में कोई दम नहीं है. तुम कोई बात छिपाते वक्त शायद यह भूल जाती हो कि हम पिछले 3 साल से साथ हैं और अच्छी दोस्त भी हैं.’’

मैं उत्तर में केवल मुसकरा दी.

‘‘चलो, चल कर लंच करें, मुझे बहुत भूख लगी है,’’ वंदना बोली.

‘‘नहीं वंदना, यहीं बैठ जाओ. एक दिलचस्प केस पर काम कर रही हूं मैं.’’

‘‘किस केस पर काम चल रहा है भई?’’ वह उतावली हो कर बोली.

मैं उसे नम्रता के बारे में बताने लगी.

‘‘आज नम्रता मेरे पास आई थी. वह सुंदर, मासूम, भोलीभाली, बुद्धिमान युवती है. 4 साल पहले उस की शादी मुकुल दवे के साथ हुई थी. दोनों खुश भी थे. किंतु शादी के तकरीबन 2 साल बाद उस का परिचय एक अन्य लड़की के साथ हुआ. उन दोनों के बारे में नम्रता को कुछ ही दिन पहले पता चला है. मुकुल, जो एक 3 साल के बेटे का पिता है, उस ने गुपचुप ढंग से उस लड़की से 2 साल पहले विवाह कर रखा है. लड़की उसी के महल्ले में रहती थी. अजीब बात है.’’

‘‘ऐसा तो हर रोज कहीं न कहीं होता रहता है. तुम और मैं, वर्षों से देख रहे हैं. इस में अजीब बात क्या है?’’ वंदना बोली.

‘‘अजीब यह है कि लड़की उसी महल्ले में रहती थी, जिस में नम्रता. बल्कि नम्रता उस लड़की को जानती थी. हैरानी तो इस बात की है कि उन दोनों के पास रहते हुए भी वह यह कैसे नहीं जान पाई कि उस के पति के इस औरत के साथ संबंध हैं.’’

वंदना मेरी इस बात पर ठहाका लगा कर हंस पड़ी, ‘‘भई, मुकुल क्या नम्रता को यह बता कर जाता था कि वह फलां लड़की से मिलने जा रहा है और वह उसे रंगे हाथों आ कर पकड़ ले. वैसे नम्रता को उस के बारे में पता कैसे चला?’’

‘‘उस बेचारी को खुद मुकुल ने बताया कि वह उसे तलाक देना चाहता है. नम्रता उसे तलाक देना नहीं चाहती. उस का उस के पति के सिवा इस दुनिया में कोई नहीं है. कोई प्रोफेशनल टे्रनिंग भी नहीं है उस के पास कि वह आत्मनिर्भर हो सके,’’ मैं ने लंबी सांस छोड़ी.

‘‘क्या वह दूसरी औरत छोड़ने के लिए तैयार  होगा? तुम तो जानती हो ऐसे संबंधों को साबित करना कितना कठिन होता है,’’ वंदना घड़ी देख उठती हुई बोली.

‘‘मुश्किल तो है, लेकिन लड़ना तो होगा. साहस से लड़ेंगे तो जरूर जीतेंगे,’’ मेरे चेहरे पर आत्मविश्वास था.

‘‘अच्छा चलती हूं,’’ कह कर वंदना चली गई.

मैं दिन भर कचहरी के कामों में उलझी रही. शाम 5 बजे के लगभग घर लौटी तो शांतनु लौन में मेघा के साथ खेल रहे थे. मेरी गाड़ी घर में दाखिल होते ही मेघा मम्मीमम्मी कह कर मेरी तरफ दौड़ी. मैं मेघा को गोद में उठाने को लपकी. शांतनु हमें देख मंदमंद मुसकरा रहे थे. उन्होंने झट से एक खूबसूरत गुलाब तोड़ कर मेरे बालों में लगा दिया.

‘‘कब आए?’’ मैं ने पूछा.

‘‘आधा घंटा हो गया जनाब,’’ कह कर शांतनु मेरे लिए चाय कप में उड़ेलने लगे.

‘‘अरे अरे, मैं बना लेती हूं.’’

‘‘नहीं, तुम थक कर लौटी हो, तुम्हारे लिए चाय मैं बनाता हूं,’’ वह मुसकरा कर बोले. तभी फोन की घंटी बजी और अंदर चले गए. मैं आंखें मूंदे वहीं कुरसी पर आराम करने लगी.

शांतनु का यही स्नेह, यही प्यार तो मेरे जीवन का सहारा रहा है. घर आते ही शांतनु और मेघा के अथाह प्रेम से दिन भर की थकान सुकून में बदल जाती है. अगर शांतनु का साथ न होता तो शायद मैं कभी भी इतनी कामयाब वकील न होती कि लोग मुझे देख कर रश्क कर सकें.

दिन बीतते गए. यही दिनचर्या, यही क्रम. पता नहीं क्यों मैं नम्रता के केस में अधिक ही दिलचस्पी लेने लगी थी और हर कीमत पर उस के पति को सबक सिखाना चाहती थी, जो अपनी  पत्नी को छोड़ किसी अन्य पर रीझ गया था.

मुझे नम्रता के केस में उलझे हुए लगभग 1 साल बीत गया. दिन भर की व्यस्तता में वंदना की मुसकराहट मानसिक तनाव को कम कर देती थी. उस दिन भी कोर्ट में नम्रता के केस की तारीख थी. मैं जीजान से जुटी थी. आखिर फैसला हो ही गया.

मुकुल दवे सिर झुकाए कोर्ट में खड़ा था. उस ने जज साहब के सामने नम्रता से माफी मांगी और जिंदगी भर उस लड़की से न मिलने का वादा किया. नम्रता की आंखों में खुशी के आंसू थे. मैं भी बहुत खुश थी. घर लौट कर यही खुशखबरी मैं शांतनु को सुनाना चाहती थी.

उस दिन शांतनु पहली बार लौन में नहीं बल्कि अपने कमरे में मेरा इंतजार कर रहे थे. इस से पहले कि मैं कुछ कह पाती वह बोले, ‘‘बैठो सुनंदिता, मुझे तुम से कुछ जरूरी बातें करनी हैं.’’

उन की मुखमुद्रा गंभीर थी. मैं कुरसी खींच कर पास बैठ गई. मैं ने आज तक उन्हें इतना गंभीर नहीं देखा था.

वह बोले, ‘‘हमारी शादी को 6 साल हो गए हैं सुनंदिता और इन 6 सालों में मैं ने यह महसूस किया है कि तुम एक संपूर्ण स्त्री नहीं हो, जो मुझे पूर्णता प्रदान कर सके. तुम में कुछ अधूरा है, जो मुझे पूर्ण होने नहीं देता.’’

मैं अवाक् रह गई. मेरा चेहरा आंसुओं से भीग गया.

वह आगे बोले, ‘‘मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं है सुनंदिता. तुम एक चरित्रवान पत्नी, अच्छी मां और अच्छी महिला भी हो. मगर कहीं कुछ है जो नहीं है.’’

शब्द मेरे गले में घुटते चले गए, ‘‘तो इतना बता दो शांतनु, वह कौन  है, जिस के तुम्हारे जीवन में आने से मैं अधूरी लगने लगी हूं?’’

‘‘तुम चाहो तो मेघा को साथ रख सकती हो. उसे मां की जरूरत है.’’

‘‘मुझे मेरे प्रश्न का उत्तर दो, शांतनु, कौन है वह?’’

वह खिड़की के पास जा कर खड़े हो गए और अचानक बोले, ‘‘वंदना.’’

मुझ पर वज्रपात हुआ.

‘‘हां, एडवोकेट वंदना प्रधान.’’

मैं बेजान हो गई. यहां तक कि एक सिसकी भी नहीं ले सकी. जी चाह रहा था कि पूछूं, कब मिलते थे वंदना से और कहां? सारा दिन तो वह कोर्ट में मेरे साथ रहा करती थी. तभी वंदना के वे शब्द मेरे कानों में गूंज उठे, ‘क्या मुकुल नम्रता को बता कर जाता होगा कि कब मिलता है उस पराई स्त्री से. ऐसा तो रोज ही होता है.’

‘मैं नम्रता से कहा करती थी कि कैसी बेवकूफ स्त्री हो तुम नम्रता, पति के हावभाव, उठनेबैठने, बोलनेचालने से तुम इतना भी अंदाजा नहीं लगा सकीं कि उस के दिल में क्या है.’ मैं खुद भी तो ऐसा नहीं कर पाई.

मैं ने कस कर अपने कानों पर हाथ टिका लिए. जल्दीजल्दी सामान अपने सूटकेस में भरने लगी. शांतनु जड़वत खड़े रहे. मैं मेघा की उंगली थामे गेट से बाहर निकल आई.

अगले दिन मैं कोर्ट नहीं गई. दिमाग पर बारबार अपने ही शब्द प्रहार कर रहे थे, ‘एक महल्ले में रह कर भी नम्रता कुछ न जान पाई’ और मैं दिन में वंदना और शाम को शांतनु इन दोनों के बीच में ही झूलती रही थी फिर भी…गिला करती तो किस से. पराया ही कौन था और अपना ही कौन निकला. एक पल को मन चाहा कि मुकुल की तरह शांतनु भी हाथ जोड़ कर माफी मांग ले. लेकिन दूसरे ही पल शांतनु का चेहरा खयालों में उभर आया. मन वितृष्णा से भर उठा. मैं शायद उसे कभी माफ न कर सकूं?

मैं नम्रता नहीं हूं. अगले दिन मुंशी जी टाइपराइटर ले कर बैठे और बोले, ‘‘जी, मैडम, लिखवाइए.’’

‘‘लिखिए मुंशीजी, डिस्साल्यूशन आफ मैरिज बाई डिक्री ओफ डिवोर्स सुनंदिता सिन्हा वर्सिज शांतनु सिन्हा,’’ टाइपराइटर की टिकटिक का स्वर लगातार ऊंचा हो रहा था.

मोहरा: क्या चाहती थी सुहानिका?

सुहानिका आज कुछ ज्यादा ही खुश थी. अभी 2 महीने पहले ही तो उस ने एक असिस्टैंट के रूप में यह औफिस जौइन किया था. शुरुआत में उस की तनख्वाह 20 हजार रुपए महीना थी और इन 2 महीने में ही उस की तनख्वाह 40 हजार रुपए महीना हो गई.

सुहानिका को बखूबी मालूम है कि उस के औफिस की बहनजी टाइप लड़कियां उस के बारे में उलटीसीधी बातें करती हैं, पर उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है.

एक दिन रुचिका सुहानिका को देखते हुए बोली, ‘‘तुम कब तक खूबसूरती की बैसाखी के सहारे नौकरी करोगी. तुम से तो एक पावर पौइंट भी ठीक से नहीं बन पाता है.’’

सुहानिका अपनी आंखों को और बड़ा कर के बोली, ‘‘रुचिका, मेरे पास जो है, मैं उस के सहारे ही तो आगे बढ़ूंगी न.’’

रुचिका ने मुंह बिचका कर कहा, ‘‘बेशर्म हो तुम.’’

सुहानिका ने जवाब दिया, ‘‘हां, पर सच्ची हूं.’’

23 साल की सुहानिका का बचपन गरीबी में गुजरा था. उस की मम्मी कैसी थीं, उसे नहीं मालूम, बस तसवीरों में ही उन की यादें उस के साथ थीं.

सुहानिका के पापा बिजली महकमे में क्लर्क थे. वे अपनी छोटी सी तनख्वाह से ही घर चलाते थे. सुहानिका की दादी हर समय उसे ताने मारती रहती थीं, ‘‘तेरे चलते मेरे बेटे ने दूसरी शादी नहीं की. अगर दूसरी मां आ जाती न, तो तेरी जो कैंची की तरह जबान चल रही है न, उसे काट देती.’’

सुहानिका भी कहां चुप रहने वालों में से थी. वह खटाक से जवाब देती, ‘‘दादी, तुम अपने मन को बहला रही हो. कर दो न दूसरी शादी तुम पापा की. दरअसल, सचाई यह है एक बुढ़ाते क्लर्क, जिस के साथ उस की बूढ़ी मां और जवान बेटी रहती हो, का शादी के बाजार में कोई मोल नहीं है.’’

ऐसे ही लड़तेझगड़ते सुहानिका ने जवानी की दहलीज पर कदम रखा था. खुलता गेहुआं, भूरी आंखें, सुतवा नाक, लाल सुर्ख होंठ, घने घुंघराले बाल, जो उस के चेहरे के चारों ओर बिखरे रहते थे.

दादी गुस्से में सुहानिका के बालों को मधुमक्खी का छत्ता बोलती थीं, पर वही दादी हर शनिवार की रात सरसों और नारियल का तेल उस के बालों में बड़े प्यार से मलती थीं.

सुहानिका के पिता सतीश तोमर अदना से इनसान थे. मझोला कद, मझोली कदकाठी. उन की जिंदगी में सबकुछ ही मझोला था. वे दब्बू किस्म के इनसान थे.

सुहानिका ने कितनी बार अपने पापा को चिंतित देखा था. वे हर समय दफ्तर के काम में बिजी रहते थे, पर फिर भी कभी कोई तरक्की नहीं कर पाए. इस बात ने उन्हें अंदर ही अंदर चिड़चिड़ा कर दिया था.

उधर अपने बेटे की चिड़चिड़ाहट का असर सुहानिका की दादी पर भी होता था और कुलमिला कर यह नतीजा था कि सुहानिका का अपने ही घर में दम घुटता था.

सुहानिका की जिंदगी में हर चीज की कमी थी, जैसे प्यार, पैसा, विश्वास और आजादी. वह बस रूपरंग के मामले में अच्छी थी.

जब सुहानिका 15 साल की थी, तब उस के स्कूल के एक सीनियर लड़के ने उस के सामने दोस्ती का प्रस्ताव रखा था. सुहानिका ने बिना सोचे हां कर दी थी. वह सिलसिला आज तक जारी है. सुहानिका को सबकुछ मिल रहा था. पैसा, उपहार और वह सबकुछ, जो एक आरामदायक जिंदगी के लिए चाहिए.

पापा और दादी की नेक सलाह सुहानिका के कानों से टकरा कर वापस चली जाती थी. उस की क्या गलती है. उसे भी तो खुश रहने का हक है.

कालेज में भी सुहानिका हर हफ्ते किसी नए लड़के के साथ देखी जाती थी. उस के बारे में यह बात मशहूर थी कि 2 डेट के बाद सुहानिका का मन भर जाता है.

सुहानिका को शतरंज के शह और मात के इस खेल में अब एक अलग सा रोमांच होने लगा था. यह उस के चरित्र का एक हिस्सा बन चुका था.

अपनी खूबसूरती व नखरों के बल पर ही सुहानिका ने इस टूर ऐंड ट्रैवल कंपनी में असिस्टैंट की नौकरी हासिल की थी. उस का बौस अजय रावत अव्वल दर्जे का घटिया इनसान था. उसे खूबसूरत लड़कियों का साथ बेहद पसंद था. वह उन पर जीभर कर पैसे लुटाता था और बदले में लड़कियां उस के अहम को सहलाती थीं और उस की मर्दाना कमजोरी को वे बड़े आराम से ढक लेती थीं.

ऐसे ही सुहानिका ने भी किया, पर एक दिन जब वह अजय के साथ दफ्तर में ही रासलीला खेल रही थी, तभी उस कंपनी के मालिक का बेटा रोहित शर्मा वहां आ गया. सुहानिका और अजय के अस्तव्यस्त कपड़े देख रोहित को कुछ पूछने की जरूरत नहीं लगी.

अजय को तुरंत इस्तीफा लिखने के लिए कह दिया गया, पर सुहानिका को रोहित ने अंदर बुलाया. सुहानिका ने भी मौके का पूरा फायदा उठाया और सारी बात अजय के सिर पर डाल दी.

सुहानिका रोतेरोते बोल रही थी, ‘‘सर, मुझे एक मौका और दीजिए. यह मेरी मजबूरी थी.’’

न जाने क्या ऐसा जादू किया था कि सबकुछ जानते हुए भी रोहित ने सुहानिका को न सिर्फ मौका दिया, बल्कि कुछ महीने में अपने लिए भी वहीं इंदौर में एक फ्लैट किराए पर ले लिया.

सुहानिका को अच्छी तरह पता था कि रोहित ने ऐसा क्यों किया है. अब सुहानिका उस कंपनी की ब्रांच हैड बन गई थी.

रोहित के हफ्ते में 3 दिन अब इंदौर में ही बीतते थे. उस ने अपने परिवार को बताया था कि उस को रात में भी काम करना पड़ता है, क्योंकि ब्रांच बहुत ज्यादा नुकसान में चल रही है.

रोहित के पिता सुरेंद्र शर्मा बहुत खुश थे कि आखिरकार बेटे को अक्ल आ ही गई. पर जब सालाना रिपोर्ट आई तो सुरेंद्र का माथा ठनका, क्योंकि इंदौर की ब्रांच बिलकुल गड्ढे में चली गई थी.

उधर हफ्ते में 3 दिन रोहित का हवाई यात्रा से इंदौर जाना वैसे सुरेंद्र शर्मा की जेब पर भारी पड़ रहा था. जब उन्होंने रोहित से इस बारे में बात की तो वह गुस्से में बोला, ‘‘पापा, मैं रातदिन मेहनत कर रहा हूं, आप थोड़ा सब्र तो कीजिए.’’

सुरेंद्र ज्यादा दिनों तक सब्र नहीं रख पाए. एक दिन जब रोहित इंदौर गया हुआ था, तो वे भी पीछेपीछे पहुंच गए. वहां जा कर उन्हें सारा माजरा समझ आ गया था कि क्यों रोहित इंदौर के इतने चक्कर काट रहा है. उन्होंने फौरन इंदौर की ब्रांच बंद करने का फैसला ले लिया.

सुरेंद्र शर्मा जब इंदौर की ब्रांच बंद कर के लौटे तो सुहानिका भी उन के साथ थी. सुहानिका ने उन्हें बड़े आराम से इस बात का विश्वास दिला दिया था कि उसे रोहित ने यह सब करने पर मजबूर किया था.

दिल्ली पहुंच कर सुरेंद्र ने सुहानिका के लिए एक नौकरी के इंतजाम के साथसाथ एक छोटे फ्लैट का बंदोबस्त भी कर दिया.

सुहानिका का बहुत पहले ही अपने घर वालों से नाममात्र का मतलब रह गया था. वैसे, सुरेंद्र जब सुहानिका को दिल्ली लाए, तो उन के मन में सुहानिका के प्रति कोई बुरा भाव नहीं था.

पर सुहानिका को अपनी जिंदगी बहुत रूखी लग रही थी. सुरेंद्र ने जो नौकरी लगवाई थी, उस में उसे मेहनत करनी पड़ रही थी, जिस की उसे आदत नहीं थी.

फिर सुहानिका ने सुरेंद्र शर्मा को मोहरा बनाने की सोची. अब वह किसी न किसी बहाने से उन्हें फोन करने लगी और उन से मिलने भी लगी. ऐसी ही एक मुलाकात में उस ने अपनेआप को सुरेंद्र को सौंप दिया. सुरेंद्र शर्मा जानते थे कि यह ठीक नहीं है, क्योंकि सुहानिका महज 25 साल की थी और वे 55 साल के थे.

एक तो सुरेंद्र शर्मा अपनी पत्नी की मौत के बाद पिछले 10 साल से अकेलेपन का दर्द झेल रहे थे और दूसरे कौन ऐसा मर्द होगा, जो किसी खूबसूरत और जवान लड़की का मोह छोड़ सके.

सुरेंद्र शर्मा पर सुहानिका के रूप का ऐसा सिक्का चला कि वे समाज और परिवार की परवाह करे बिना सुहानिका के साथ शादी के बंधन में बंध गए. सब नातेरिश्तेदारों ने जम कर शिकायत की, पर दोनों ने किसी की नहीं सुनी.

धीरे-धीरे एक साल और बीत गया. सुहानिका को धनदौलत, ऐशोआराम की कमी नहीं थी, पर अब उसे एक साथी की कमी महसूस होने लगी थी. सुरेंद्र से सुहानिका को प्यार तो नहीं था, पर एक लगाव सा हो गया था. लेकिन वह फिर से बोर हो गई थी.

तभी सुहानिका की जिंदगी में पवन नामक लड़का आया, जो रिश्ते में सुरेंद्र शर्मा का भतीजा लगता था और दिल्ली में नौकरी करने के लिए आया हुआ था.

सुहानिका अपनेआप को रोक नहीं पाई और उस ने फिर से एक नया मोहरा ढूंढ़ लिया.

उधर पवन को सुहानिका के लिए बहुत हमदर्दी हो रही थी. उसे लग रहा था, बेचारी सुहानिका को कितने मर्दों ने अपने फायदे के लिए मोहरा बनाया होगा और फिर भी उस का दिल कितना बड़ा है कि वह सुरेंद्र चाचा के प्रति पत्नी के सारे फर्ज निभा रही है. उन की उम्र के चलते सुहानिका ने अपनी मां बनने की इच्छा का भी बहुत पहले गला घोंट दिया था. ऐसी लड़की का अगर मैं दोस्त बन जाऊं तो इस में क्या खराबी है

उधर चांदनी रात में सुहानिका सुरेंद्र के साथ शतरंज के खेल में मोहरे चल रही थी और उस का दिमाग बहुत तेजी के साथ इस बात पर विचार कर रहा था कि वह कब और कैसे इस नए मोहरे को मात देगी. आखिर उस की गलती क्या है? उसे भी तो खुश रहने का हक है?

यह सोचते हुए सुहानिका के होंठों पर एक कुटिल मुसकान थिरक उठी और उस ने एक झटके से अपनी एक बहुत ही बोल्ड सैल्फी पवन को पोस्ट कर दी. वह खुला निमंत्रण था, अगले शिकार का.

अपना कौन: मधुलिका आंटी का अपनापन

मम्मीपापा अचानक ही देहरादून छोड़ कर दिल्ली आ बसे. यहां का स्कूल और सहेलियां कशिश को बहुत पसंद आईं. देहरादून पिछली कक्षा की किताबों की तरह पीछे छूट गया. बस, मधुलिका आंटी की याद गाहेबगाहे आ जाती थी.

‘‘देहरादून से सभी लोग आप से मिलने आते हैं. बस, मधुलिका आंटी नहीं आतीं,’’ कशिश ने एक रोज हसरत से कहा.

‘‘मधुलिका आंटी डाक्टर हैं और देवेन अंकल वकील. दोनों ही अपनी प्रैक्टिस छोड़़ कर कैसे आ सकते हैं?’’ मां ने बताया.

मां और भी कुछ कहना चाह रही थीं लेकिन उस से पहले ही पापा ने कशिश को पानी पिलाने को कहा. वह पानी ले कर आई तो सुना कि पापा कह रहे थे, ‘कशिश की यह बात तुम मधु को कभी मत बताना.’

कशिश को समझ में नहीं आया कि इस में न बताने वाली क्या बात थी.

जल्दी ही उम्र का वह दौर शुरू हो गया जिस में किसी को खुद की ही खबर नहीं रहती तो मधु आंटी को कौन याद करता.

मम्मीपापा न जाने कैसे उस के मन की बात समझ लेते थे और उस के कुछ कहने से पहले ही उस की मनपसंद चीज उसे मिल जाती थी. उस की सहेलियां उस की तकदीर से रश्क किया करतीं. कशिश का मेडिकल कालिज में अंतिम वर्ष था. मम्मीपापा दोनों चाहते थे कि वह अच्छे नंबरों से पास हो. वह भी जीजान से पढ़ाई में जुटी हुई थी कि दादी के मरने की खबर मिली. दादादादी अपने सब से छोटे बेटे सुहास और बहू दीपा के साथ चंडीगढ़ में रहते थे. पापा के अन्य भाईबहन भी वहां पहुंच चुके थे. घर में काफी भीड़ थी. दादी के अंतिम संस्कार के बाद दादाजी ने कहा, ‘‘शांति बेटी, तुम्हारी मां के जो जेवर हैं, मैं चाहता हूं कि वह तुम सब आपस में बांट लो. तू सब से बड़ी है इसलिए सब के जाने से पहले तू बराबर का बंटवारा कर दे.’’

रात को जब कशिश दादाजी के लिए दूध ले कर गई तो दरवाजे के बाहर ही अपना नाम सुन कर ठिठक गई. दादाजी शांति बूआ से पूछ रहे थे, ‘‘तुझे कशिश से चिढ़ क्यों है. वह तो बहुत सलीके वाली और प्यारी बच्ची है.’’

‘‘मैं कशिश में कोई कमी नहीं निकाल रही पिताजी. मैं तो बस, यही कह रही हूं कि मां के गहने हमारी पुश्तैनी धरोहर हैं जो सिर्फ  मां के अपने बच्चों को मिलने चाहिए, किसी दूसरे की औलाद को नहीं. मां के जो भी जेवर अभी विभा भाभी को मिलेंगे वह देरसवेर देंगी तो कशिश को ही, यह नहीं होना चाहिए.’’ शांति बूआ समझाने के स्वर में बोलीं.

कशिश इस के आगे कुछ नहीं सुन सकी. ‘दूसरे की औलाद’ शब्द हथौड़े की तरह उस के दिलोदिमाग पर प्रहार कर रहा था. उस ने चुपचाप लौट कर दूध का गिलास नौकर के हाथ दादाजी को भिजवा दिया और सोचने लगी कि वह किसी दूसरे यानी किस की औलाद है.

दूसरी जगह और इतने लोगों के बीच मम्मीपापा से कुछ पूछना तो मुनासिब नहीं था. तभी दीपा चाची उसे ढूंढ़ती हुई आईं और बरामदे में पड़ी कुरसी पर निढाल सी लेटी कशिश को देख कर बोलीं, ‘‘थक गई न. जा, सो जा अब.’’

तभी कशिश के दिमाग में बिजली सी कौंधी. क्यों न दीपा चाची से पूछा जाए. दोनों की उम्र में ज्यादा फर्क न होने के कारण उस की दीपा चाची से बहुत बनती थी और पिछले 3-4 रोज से एकसाथ काम करते हुए दोनों में दोस्ती सी हो गई थी.

‘‘आप से कुछ पूछना है चाची, बताएंगी ?’’ उस ने निवेदन करने के अंदाज में कहा.

‘‘जरूर,’’ दीपा ने प्यार से उस का सिर सहलाया.

‘‘मैं कौन हूं?’’

कशिश के इस प्रश्न से दीपा चौंक पड़ी फिर संभल कर बोली, ‘‘मेरी प्यारी भतीजी, कशिश.’’

‘‘मगर मैं आप की असली भतीजी तो नहीं हूं न, क्योंकि मैं डा. विकास और डा. विभा की नहीं किसी दूसरे की औलाद…’’

‘‘यह तू क्या कह रही है?’’ दीपा ने बात काटी.

‘‘जो भी कह रही हूं  चाची, सही कह रही हूं’’ और कशिश ने शांति बूआ और दादाजी के बीच हुई बातचीत दोहरा दी.

दीपा झल्ला कर बोली, ‘‘तुम्हारी शांति बूआ को भी बगैर बवाल मचाए खाना नहीं पचता…’’

‘‘उन्होंने कोई बवाल नहीं मचाया, चाची, सिर्फ सचाई बताई है पर अगर आप मुझे यह नहीं बताएंगी कि मैं किस की औलाद हूं तो बवाल मच सकता है.’’

‘‘मैं जो बताऊंगी उस पर तू यकीन करेगी?’’

अगर यकीन नहीं करना होता तो आप से पूछती ही क्यों? असलियत जानने के बाद मैं मम्मीपापा से कुछ नहीं पूछूंगी और कम से कम यहां तो कतई नहीं.

‘‘कभी भी और कहीं भी नहीं पूछना बेटे, वरना वे बहुत दुखी होंगे कि शायद उन की परवरिश में ही कोई कमी रह गई. तुम डा. मधुलिका और देंवेंद्र नाथ वर्मा की बेटी हो. विभा भाभी और मधुलिका बचपन की सहेलियां हैं. यह स्पष्ट होने पर कि बचपन में हुई किसी दुर्घटना के चलते विभा भाभी कभी मां नहीं बन सकतीं, मधुलिका ने उन की गोद में तुम्हें डाल दिया था. विभा भाभी और विकास भाई साहब ने तुम्हें शायद ही कभी शिकायत का मौका दिया हो.’’

कशिश ने सहमति में सिर हिलाया.

‘‘मम्मीपापा से मुझे कोई शिकायत नहीं है लेकिन मधु आंटी ने मुझे क्यों और कैसे दे दिया?’’

‘‘दोस्ती की खातिर.’’

‘‘दोस्ती ममता से ज्यादा…’’

तभी अंदर से बहुत उत्तेजित स्वर सुनाई देने लगे. सब से ऊंचा स्वर विकास का था.

‘‘मेरे लिए मेरे जीवन की सब से अमूल्य निधि मेरी बेटी है, जिस के लिए मैं देहरादून से सरकारी नौकरी छोड़ कर चला आया. उस के लिए क्या चंद गहने नहीं छोड़ सकता? मैं कल सवेरे यानी आप के बंटवारे से पहले ही यहां से चला जाऊंगा’’

‘‘लेकिन मां की उठावनी?’’ शांति बूआ ने पूछा.

‘‘उस के लिए आप सब हैं न. मां की अंत समय में सेवा कर ली, मेरे लिए यही बहुत है,’’ विकास ने कड़वे स्वर में कहा, ‘‘जो लोग मेरी बेटी को पराया समझते हों उन के साथ रहना मुझे गवारा नहीं है.’’

दीपा ने कशिश की ओर देखा और उस ने चुपचाप सिर झुका लिया.

‘‘यह अब नहीं रुकेगा. रोक कर शांति तुम बात मत बढ़ाओ,’’ दादाजी का स्वर उभरा. उसी समय विकास कशिश को पुकारता हुआ वहां आया और उसे इस तरह बांहों में भर कर अपने कमरे में ले गया जैसे कोई कशिश को उस से छीन न ले, ‘‘कल हम दिल्ली लौट रहे हैं कशिश, सो अब तुम सो जाओ. सुबह जल्दी उठना होगा,’’ विकास ने कहा.

‘‘जी, पापा,’’ कशिश ने कहा और चुपचाप बिस्तर पर लेट गई. विकास ने बत्ती बुझा दी.

‘‘विकास,’’ कुछ देर के बाद विभा का स्वर उभरा, ‘‘मुझे लगता है इस तरह लौट कर तुम सब की भावनाओं को ठेस पहुंचा रहे हो.’’

‘‘शांति बहनजी ने जिस बेदर्दी से मेरी भावनाओं को कुचला है न उस के मुकाबले में मेरी ठेस तो बहुत मामूली है,’’ विकास ने तल्खी से कहा, ‘‘जो भी मेरी बेटी को नकारेगा उसे मैं कदापि स्वीकार नहीं करूंगा… चाहे वह कोई भी हो… यहां तक कि तुम भी.’’

अगली सुबह उन्हें विदा करने को केवल दादाजी, सुहास और दीपा ही थे और सब शायद अप्रिय स्थिति से बचने के लिए नींद का बहाना कर के उठे ही नहीं.

घर आ कर विभा और विकास अपने काम में व्यस्त हो गए और कशिश पढ़ाईर् में. हालांकि कशिश को लग रहा था कि चंडीगढ़ से लौटने के बाद पापा उसे ले कर कुछ ज्यादा ही पजेसिव हो गए हैं लेकिन वह अपने असली मातापिता से मिलने और यह जानने को बेचैन थी कि उन्होंने उसे अपनी गोद से उठा कर दूसरे की गोद में क्यों डाल दिया? उस ने मम्मी की डायरी में से मधुलिका मौसी का फोन नंबर और पता तो नोट कर लिया था मगर वह खत या फोन के जरिए नहीं, स्वयं मिल कर यह बात पूछना चाहती थी.

परीक्षा सिर पर थी और पढ़ाई में दिल नहीं लग रहा था. कशिश यही सोचती रहती थी कि क्या बहाना बना कर देहरादून जाए. समीरा उस की खास सहेली थी. उस से कशिश की बेचैनी छिप नहीं सकी. उस के पूछने पर कशिश को बताना ही पड़ा.

‘‘समझ में नहीं आ रहा कि देहरादून किस बहाने से जाऊं.’’

‘‘तू भी अजब भुलक्कड़ है. कई बार तो बता चुकी हूं कि सालाना परीक्षा खत्म होते ही मेरे बड़े भाई की शादी है और बरात देहरादून जाएगी. मैं तुझे बरात में ले चलती हूं. वहां जा कर तू जहां कहेगी तुझे पहुंचवाने का इंतजाम करवा दूंगी. सो अब सारी चिंता छोड़ कर पढ़ाई कर.’’

समीरा की बात से कशिश को कुछ राहत मिली. और फिर शाम को समीरा उस के मम्मीपापा से मिल कर बरात में चलने की स्वीकृति लेने उस के घर आ गई.

‘‘बरात में जाने के बारे में सोचने के बजाय फिलहाल तो तुम दोनों पढ़ाई में ध्यान लगाओ,’’ पापा ने समीरा की बात सुन कर बड़े प्यार से दोनों का सिर सहलाया.

‘‘अंतिम साल की परीक्षा है. इस के नतीजे पर तुम्हारा पूरा भविष्य निर्भर करता है. कशिश को तो मैं कार्डियोलोजी में महारत हासिल करने के लिए अमेरिका भेज रहा हूं. तुम्हारा क्या इरादा है, समीरा?’’

‘‘अगर मैं भी कार्डियोलोजिस्ट बन गई अंकल, तो मुझ में और कशिश में दोस्ती के  बजाय स्पर्धा हो जाएगी और हमारी दोस्ती खत्म हो ऐसा रिस्क मुझे नहीं लेना है. सो कुछ और सोचना पडे़गा मगर सोचने को फिलहाल आप ने मना कर दिया है,’’ समीरा हंसी.

समीरा को विदा कर के कशिश जब अंदर आई तो उस ने अपने पापा को यह कहते सुना, ‘‘मैं नहीं चाहता विभा कि कशिश देहरादून जाए और मधुदेवेन से मिले. इसलिए समीरा के भाई की शादी से पहले ही कशिश को ले कर कहीं और घूमने चलते हैं.’’

‘‘कैसे जाओगे विकास? इस बार आई.एम.ए. का वार्षिक अधिवेशन तुम्हारी अध्यक्षता में होगा और वह उन्हीं दिनों में है.’’

कशिश लपक कर कमरे में आई और कहने लगी, ‘‘मेरी एक बात मानेंगी, मम्मा? आप प्लीज, मधु मौसी को मेरे देहरादून आने के बारे में कुछ मत बताना क्योंकि मैं शादी की रौनक छोड़ कर उन से मिलने नहीं जाने वाली.’’

पापा के चेहरे पर यह सुन कर राहत के भाव उभरे थे.

‘‘ठीक कहती हो. अपनी सहेलियों को छोड़ कर मां की सहेली के साथ बोर होने की कोई जरूरत नहीं है.’’

‘‘थैंक यू, पापा,’’ कह कर कशिश बाहर आ कर दरवाजे के पास खड़ी हो गई.

पापा, मम्मी से कह रहे थे कि अच्छा है, कशिश उन दिनों शादी में जा रही है क्योंकि हम दोनों तो अधिवेशन की तैयारी में व्यस्त हो जाएंगे और यह घर पर बोर होती रहने से बच जाएगी. इस तरह समस्या हल होते ही कशिश जीजान से पढ़ाई में जुट गई.

देहरादून स्टेशन पर बरात का स्वागत करने वालों में कई महिलाएं भी थीं. लड़की के पिता सब का एकदूसरे से परिचय करवा रहे थे. एक अत्यंत चुस्तदुरुस्त, सौम्य महिला का परिचय करवाते हुए उन्होंने कहा, ‘‘यह डा. मधुलिका हैं. कहने को तो हमारी फैमिली डाक्टर और पड़ोसिन हैं लेकिन हमारे परिवार की ही एक सदस्य हैं. हमारे से ज्यादा शादी की धूमधाम इन की कोठी में है क्योंकि सभी मेहमान वहीं ठहरे हुए हैं.’’

कशिश को यकीन नहीं हो रहा था कि उस का काम इतनी आसानी से हो जाएगा. उस ने आगे बढ़ कर मधुलिका को अपना परिचय दिया. मधुलिका ने उसे खुशी से गले से लगाया और पूछा कि विभा क्यों नहीं आई?

‘‘आंटी, मम्मीपापा आजकल एक अधिवेशन में भाग ले रहे हैं. मैं भी इस बरात में महज आप से मिलने आई हूं,’’ कशिश ने बिना किसी हिचक के कहा, ‘‘मुझे आप से अकेले में बात करनी है.’’

मधुलिका चौंक पड़ी फिर संभल कर बोली, ‘‘अभी तो एकांत मिलना मुश्किल है. रात को बरात की खातिरदारी से समय निकाल कर तुम्हें अपने घर ले चलूंगी.’’

‘‘उस में तो बहुत देर है, उस से पहले ही घर ले चलिए न,’’ कशिश ने मनुहार की.

‘‘अच्छा, दोपहर को क्लिनिक से लौटते हुए ले जाऊंगी.’’

दोपहर को मधुलिका ने खुद आने के बजाय उसे लाने के लिए अपनी गाड़ी भेज दी. वह अपने क्लिनिक में उस का इंतजार कर रही थी.

‘‘तुम अकेले में मुझ से बात करना चाहती हो, जो फिलहाल घर पर मुमकिन नहीं  है. बताओ क्या बात है?’’ मधुलिका मुसकराई.

‘‘मैं यह जानना चाहती हूं कि आप ने मुझे क्यों नकारा, क्यों मुझे दूसरों को पालने के लिए दे दिया? मां, मुझे मालूम हो चुका है कि मैं आप की बेटी हूं,’’ और कशिश ने चंडीगढ़ वाला किस्सा उन्हें सुना दिया.

‘‘विभा और विकास ने तुम्हें क्या वजह बताई?’’ मधुलिका ने पूछा.

‘‘उन्हें मैं ने बताया ही नहीं कि मुझे सचाई पता चल गई है. वह दोनों मुझे इतना ज्यादा प्यार करते हैं कि  मैं कभी सपने में भी उन से कोई अप्रिय बात पूछ कर उन्हें दुखी नहीं कंरूगी.’’

‘‘यानी कि तुम्हें विभा और विकास से कोई शिकायत नहीं है?’’

‘‘कतई नहीं. लेकिन आप से है. आप ने क्यों मुझे अपने से अलग किया?’’

‘‘कमाल है, बजाय मेरा शुक्रिया अदा करने के कि तुम्हें इतने अच्छे मम्मीपापा दिए, तुम शिकायत कर रही हो?’’

‘‘सवाल अच्छेबुरे का नहीं बल्कि उन्हें दिया क्यों, यह है?’’

‘‘मान गए भई, पली चाहे कहीं भी हो, रहीं वकील की बेटी,’’ मधुलिका ने बात हंसी में टालनी चाही.

‘‘मगर वकील की बेटी को डाक्टर की बेटी कहलवाने की क्या मजबूरी थी?’’

‘‘मजबूरी कुछ नहीं थी बस, दोस्ती थी. विभा मां नहीं बन सकती थी और अनाथालय से किसी अनजान बच्चे को अपनाने में दोनों हिचक रहे थे. बेटे और बेटी के जन्म के बाद मेरा परिवार तो पूरा हो चुका था. सो जब तुम होने वाली थीं तो हम लोगों ने फैसला किया कि चाहे लड़का हो या लड़की यह बच्चा हम विभा और विकास को दे देंगे. ऐसा कर के मैं नहीं सोचती कि मैं ने तुम्हारे साथ कोई अन्याय किया है.’’

‘‘अन्याय तो खैर किया ही है. पहले तो सब ठीक था मगर असलियत जानने के बाद मुझे अपने असली मातापिता का प्यार चाहिए…’’

तभी कुछ खटका हुआ और एक प्रौढ़ पुरुष ने कमरे में प्रवेश किया. मधुलिका चौंक ०पड़ी.

‘‘आप इस समय यहां?’’

‘‘कोर्ट से लौट रहा था तो बाहर तुम्हारी गाड़ी देख कर देखने चला आया कि खैरियत तो है.’’

‘‘ऋचा की बरात में कशिश भी आई है. मुझ से अकेले में बात करना चाह रही थी, सो यहां बुलवा लिया,’’ मधुलिका ने कहा और कशिश की ओर मुड़ी,‘‘यह तुम्हारे देवेन अंकल हैं.’’

‘‘अंकल क्यों, पापा कहिए न?’’ कशिश नमस्ते कर के देवेन की ओर बढ़ी लेकिन देवेन उस की अवहेलना कर के मधुलिका के जांच कक्ष में

जाते हुए कड़े स्वर में बोले, ‘‘इधर आओ, मधु.’’

मधुलिका सहमे स्वर में कशिश को रुकने को कह कर परदे के पीछे चली गई.

‘‘यह सब क्या है, मधु? मैं ने तुम्हें कितना समझाया था कि अपने बेटेबेटी का प्यार और हक बांटने के लिए मुझे तीसरी औलाद नहीं चाहिए, तुम गर्भपात करवाओ. मगर तुम नहीं मानीं और इसे अपनी सहेली के लिए पैदा किया. खैर, उन के दिल्ली जाने के बाद मैं ने चैन की सांस ली थी मगर यह फिर टपक पड़ी मुझे पापा कहने, हमारे सुखी परिवार में सेंध लगाने के लिए. साफ कहे दे रहा हूं मधु, मेरे लिए यह अनचाही औलाद है. न मैं स्वयं इस का अस्तित्व स्वीकार करूंगा न अपने बच्चों…’’

कशिश आगे और नहीं सुन सकी. उस ने फौरन बाहर आ कर एक रिकशा रोका. अब उसे दिल्ली जाने का इंतजार था, जहां उस के मम्मीपापा व्यस्तता के बावजूद उस के बगैर बेहाल होंगे. प्यार जन्म से नहीं होता है. प्यार तो प्यार करने वालों से होता है और जो प्यार उसे अपने दिल्ली वाले मातापिता से मिला, उस का तो कोई मुकाबला ही नहीं.

 

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