नन्हा सा मन: कैसे बदल गई पिंकी की हंसतीखेलती दुनिया – भाग 2

‘हां कुछकुछ,’ निशा बोली थी. ‘क्या वह चिराग मुझे मिल सकता है?’‘क्यों, तू उस का क्या करेगी?’ निशा ने पूछा था.‘उस चिराग को घिसूंगी, फिर उस में से जिन्न निकलेगा. फिर मैं उस से जो चाहूंगी, मांग लूंगी,’ पिंकी बोली.

‘अब वह चिराग तो पता नहीं कहां होगा, तुझे जो चाहिए, मम्मी पापा से मांग ले. मैं तो यही करती हूं.’पिंकी चुप रही. वह उसे कैसे बताए कि अपने लिए नहीं, मम्मीपापा के लिए कुछ मांगना चाहती है. मम्मीपापा का यह रोज का ? झगड़ा उसे पागल बना देगा. एक बार उस की इंग्लिश की टीचर ने भी उसे खूब डांटा था, ‘मैं देख रही हूं तुम पहले जैसी होशियार पिंकी नहीं रही, तुम्हारा तो पढ़ाई में मन ही नहीं लगता.’

पिछले साल का रिजल्ट देख कर टीचर पापामम्मी पर नाराज हुए थे, ‘तुम पिंकी पर जरा भी ध्यान नहीं देतीं, देखो, इस बार इस के कितने कम नंबर आए हैं.’

‘हां, अगर अच्छे नंबर आए तो सेहरा आप के सिर कि बेटी किस की है. अगर कम नंबर आए तो मैं ध्यान नहीं देती. मैं पूछती हूं आप का क्या फर्ज है? पर पहले आप को फुरसत तो मिले अपनी सैक्रेटरी खुशबू से.’

‘पिंकी की पढ़ाई में यह खुशबू कहां से आ गई?’ पापा चिल्लाए.बस, पिंकी के मम्मीपापा में लड़ाई शुरू हो गई. उस दिन उस ने जाना था कि खुशबू आंटी को ले कर दोनों झगड़ते हैं. वह समझ नहीं पाई थी कि खुशबू आंटी से मम्मी क्यों चिढ़ती हैं. एक दो बार वे घर आ चुकी हैं. खुशबू आंटी तो उसे बहुत सुंदर, बहुत अच्छी लगी थीं, गोरी चिट्टी, कटे हुए बाल, खूब अच्छी हाइट. और पहली बार जब वे आई थीं तो उस के लिए खूब बड़ी चौकलेट ले कर आई थीं. मम्मी पता नहीं खुशबू आंटी को ले कर पापा से क्यों झगड़ा करती हैं.

पिंकी के पापा औफिस से देर से आने लगे थे. जब मम्मी ने पूछा तो कहा, ‘ओवरटाइम कर रहा हूं, औफिस में काम बहुत है.’ एक दिन पिंकी की मम्मी ने खूब शोर मचाया. वे चिल्लाचिल्ला कर कह रही थीं, ‘कार में खुशबू को बिठा कर घुमाते हो, उस के साथ शौपिंग करते हो और यहां कहते हो कि ओवरटाइम कर रहा हूं.’

‘हांहां, मैं ओवरटाइम ही कर रहा हूं. घर के लिए सारा दिन कोल्हू के बैल की तरह काम करता हूं और तुम ने खुशबू को ले कर मेरा जीना हराम कर दिया है. अरे, एक ही औफिस में हैं, तो क्या आपस में बात भी नहीं करेंगे,’ पिंकी के पापा ने हल्ला कर कहा था.

‘उसे कार में घुमाना, शौपिंग कराना, रैस्टोरैंट में चाय पीना ये भी औफिस के काम हैं?’

उन दोनों में से कोई चुप होने का नाम नहीं ले रहा था. दोनों का झगड़ा चरमसीमा पर पहुंच गया था और गुस्से में पापा ने मम्मी पर हाथ उठा दिया था. मम्मी खूब रोई थीं और पिंकी सहमीसहमी एक कोने में दुबकी पड़ी थी. उस का मन कर रहा था वह जोरजोर से चीखे, चिल्लाए, सारा सामान उठा कर इधरउधर फेंके, लेकिन वह कुछ नहीं कर सकी थी. आखिर इस झगड़े का अंत क्या होगा, क्या मम्मीपापा एकदूसरे से अलग हो जाएंगे, फिर उस का क्या होगा. वह खुद को बेहद असहाय और असुरक्षित महसूस करने लगी थी.

उस दिन वह आधी रात एक बुरा सपना देख कर अचानक उठ गई और जोरजोर से रोने लगी थी. उस के मम्मीपापा घबरा उठे. दोनों उसे चुप कराने में लग गए थे. उस की मम्मी पिंकी की यह हालत देख कर खुद भी रोने लगी थीं, ‘चुप हो जा मेरी बच्ची. तू बता तो, क्या हुआ? क्या कोई सपना देख रही थी?’ पिंकी की रोतेरोते घिग्घी बंध गई थी. मम्मी ने उसे अपने सीने से कस कर चिपटा लिया था. पापा खामोश थे, उस की पीठ सहला रहे थे.

पिंकी को पापा का इस तरह सहलाना अच्छा लग रहा था. चूंकि मम्मी ने उसे छाती से चिपका लिया था, इसलिए पिंकी थोड़ा आश्वस्त हो गई थी. इस घटना के बाद पिंकी के मम्मीपापा पिंकी पर विशेष ध्यान देने लगे थे. पर पिंकी जानती थी कि ये दुलार कुछ दिनों का है, फिर तो वही रोज की खिचखिच. उस का नन्हा मन जाने क्या सोचा करता. वह सोचती कि माना खुशबू आंटी बहुत सुंदर हैं, लेकिन उस की मम्मी से सुंदर तो पूरी दुनिया में कोई नहीं है. उस को अपने पापा भी बहुत अच्छे लगते हैं. इसीलिए जब दोनों झगड़ते समय अलग हो जाने की बात करते हैं तो उस का दिल धक हो जाता है. वह किस के पास रहेगी? उसे तो दोनों चाहिए, मम्मी भी, पापा भी.

पिंकी ने मम्मी को अकसर चुपकेचुपके रोते देखा है. वह मम्मी को चुप कराना चाहती है, वह मम्मी को दिलासा देना चाहती है, ‘मम्मी, रो मत, मैं थोड़ी बड़ी हो जाऊं, फिर पापा को डांट लगाऊंगी और पापा से साफसाफ कह दूंगी कि खुशबू आंटी भले ही देखने में सुंदर हों पर उसे एक आंख नहीं सुहातीं. अब वह खुशबू आंटी से कभी चौकलेट भी नहीं लेगी. और हां, यदि पापा उन से बोले तो मैं उन से कुट्टी कर लूंगी.’ पर वह अपनी मम्मी से कुछ नहीं कह पाती. जब उस की मम्मी रोती हैं तो उस का मन मम्मी से लिपट कर खुद भी रोने का करता है. वह अपने नन्हे हाथों से मम्मी के बहते आंसुओं को पोंछना चाहती है, वह मम्मी के लिए वह सबकुछ करना चाहती है जिस से मम्मी खुश रहें. पर वह अपने पापा को नहीं छोड़ सकती, उसे पापा भी अच्छे लगते हैं.

शिकार: किसने उजाड़ी मीना की दुनिया – भाग 2

मीरा ने सिसकते हुए टूटेफूटे शब्दों में उसे अपने साथ हुई त्रासदी के बारे में बताया. सुन कर श्याम सन्न रह गया. उस का चेहरा विवर्ण हो गया. उस ने अपना सिर दोनों हाथों में थाम लिया. फिर रुआंसे शब्दों में बोला, ‘‘हे भगवान, मैं नहीं जानता था कि मेरे दोस्त ऐसी घिनौनी हरकत करेंगे. यह तो हैवानियत की हद हो गई.’’

वह उत्तेजित सा हो कर कमरे में चहलकदमी करने लगा.

‘‘अब मेरा क्या होगा?’’ मीरा ने आंसू बहाते हुए कहा.

‘‘तुम क्यों फिक्र करती हो? इस में तुम्हारा कोई कसूर थोड़े ही है. मैं तुम्हें जरा भी दोष नहीं दूंगा. लेकिन एक बात बताओ. क्या तुम्हें पक्का यकीन है कि जो लोग तुम्हें स्टेशन पर लेने आए थे वे मेरे ही दोस्त थे? वे कोई गुंडे मवाली तो नहीं थे न, जो तुम्हें अकेली देख बहलाफुसला कर अपने साथ ले गए.’’

‘‘ये आप क्या कह रहे हैं?’’ मीरा ने तड़प कर कहा, ‘‘मैं क्या इतनी बेवकूफ हूं कि किसी भी अनजान आदमी के साथ मुंह उठा कर चल दूंगी? क्या मुझे किसी भलेमानस और गुंडेमवाली में फर्क करने की तमीज नहीं है? वैसे भी आप ही ने तो कहा था कि आप के दोस्त हमें स्टेशन पर लेने आएंगे. उन्हें मैं ने पहचान भी लिया था, तभी तो उन पर भरोसा कर के उन के साथ गई. पर उन्होंने इस बात का नाजायज फायदा उठाया और मेरे साथ ऐसा वहशियाना सलूक किया.’’

पति का प्यार, जो सिर्फ नाटक था मीरा अपना मुंह ढांप कर सिसकने लगी. श्याम ने उसे अपनी बांहों में ले लिया और उसे दिलासा दी. उस के आंसू पोंछे, ‘‘रोओ नहीं, जो हो गया सो हो गया. बीती बात पर खाक डालो. इस घटना को एक हादसा समझ कर भूल जाओ.’’

‘‘नहीं, ये हादसा इतनी आसानी से नहीं भुलाया जा सकता. पिछले कुछ घंटों की दर्दनाक याद मेरे जेहन में नासूर बन कर हमेशा टीसती रहेगी. मैं तो कहीं मुंह दिखाने लायक भी नहीं रही. मेरे दामन में हमेशा के लिए दाग लग गया.’’

‘‘छि: ऐसी घिसीपिटी बातें न करो. मैं हूं न. मेरे रहते तुम्हें किसी बात की फिक्र करने की जरूरत नहीं है. हम दोनों मिल कर हर मुश्किल को सुलझाएंगे. हर मुसीबत का सामना करेंगे.’’

थोड़ी देर बाद मीरा ने आंसू पोंछ कर कहा, ‘‘अब आप का क्या करने का इरादा है?’’

‘‘सोच रहा हूं कि जा कर उन पाजी दोस्तों को खूब खरीखोटी सुनाऊं. उन की सात पुश्तों की खबर ले डालूं.’’ श्याम ने दांत पीस कर कहा.

‘‘बस इतना ही, और कुछ नहीं.’’

‘‘नहीं, मैं और भी बहुत कुछ कर सकता हूं. मैं उन्हें किराए के गुंडों से पिटवाऊंगा, उन की हड्डीपसली एक कर दूंगा. उन्हें जन्म भर के लिए अपाहिज बना कर छोडूंगा.’’

‘‘लेकिन ये सजा उन नरपिशाचों के लिए नाकाफी है. इस की जगह हमें पुलिस में जाना चाहिए. अभी, इसी वक्त.’’

‘‘पुलिस!’’ श्याम बुरी तरह चौंक गया.

‘‘हां. पुलिस में जाए बिना काम नहीं चलेगा. उन गुनहगारों को उन के किए की सजा दिलानी ही होगी.’’

श्याम सोच में पड़ गया. ‘‘नहीं,’’ उस ने सर हिलाया, ‘‘पुलिस में जाना ठीक नहीं होगा.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘इसलिए कि इस से बात फैल जाएगी. अभी ये बात केवल हम दोनों तक ही सीमित है. पुलिस में रपट लिखाते ही सब कुछ जगजाहिर हो जाएगा. अखबार में सुर्खियां छपेंगी. गली मोहल्ले में हमारा नाम उछाला जाएगा. घरघर में चरचे होंगे. जितने मुंह उतनी बातें.’’

मीरा सोच भी नहीं सकती थी कि यह पति की शातिर चाल है ‘‘लेकिन आजकल ऐसे मामलों में पीड़ित का नाम व पता गोपनीय रखा जाता है. उसे मीडिया और कानून की भरपूर मदद मिलती है, सहयोग मिलता है. पब्लिक की सहानूभूति उसी के साथ होती है. वे दिन लद गए जब बलात्कारी कुकर्म कर के बेदाग बच जाते थे और सारी जिल्लत और रुसवाई नारी को झेलनी पड़ती थी.’’

‘‘यह भी तो सोचो कि बात फैल गई और मेरे मातापिता को खबर लग गई तो प्रलय आ जाएगी. मेरे पिता दिल के मरीज हैं. वे इतना बड़ा आघात कभी नहीं सहन कर पाएंगे. उन्हें हार्ट अटैक आ सकता है.’’

‘‘तो क्या हम चुप लगा जाएं?’’ मीरा ने हैरत से पूछा.

‘‘हां, मेरी मानो तो इस बात पर परदा डालना ही ठीक रहेगा. आखिर इस बात का ढिंढोरा पीटने से हमें क्या हासिल होगा? बदनामी के सिवाय कुछ हाथ नहीं लगेगा. समय सब घाव भर देता है, हमें इस अप्रिय घटना को भूलना होगा. जो बीत गया सो बीत गया.’’

मीरा सोच में डूब गई. कुछ देर सन्नाटा छाया रहा. फिर श्याम बोला, ‘‘तुम नहाधो लो, सुबह की भूखी हो. मुझे भी जोरों की भूख लगी है. मैं पास के होटल से खाना ले आता हूं.’’

‘‘आप फिर मुझे अकेला छोड़ कर जा रहे हैं.’’ वह रुआंसी हो गई.

‘‘ओह, यहां इस बिल्डिंग में तुम्हें किसी तरह का खतरा नहीं है. अड़ोसपड़ोस में भले लोग रहते हैं. बाहर गेट पर चौकीदार तैनात है. दरवाजा अंदर से बंद कर लो. जब मैं लौटूं तभी खोलना. मैं जल्द से जल्द लौट आऊंगा.’’

श्याम अपनी मोटरसाइकिल पर सवार हो कर सीधा अपने दोस्तों के यहां पहुंचा.

‘‘आओ आओ यार,’’ उन्होंने उस का जिंदादिली से स्वागत किया.

‘‘अबे सालो,’’ श्याम ने उन्हें लताड़ा, ‘‘ये तुम लोगों ने मुझे किस मुसीबत में फंसा दिया?’’

‘‘क्यों क्या हुआ?’’

‘‘गधे की औलादों, मीरा को अपना अतापता बताने की क्या जरूरत थी. उसे अपने घर लाने के बजाय कहीं और ले जाते.’’

एक और अध्याय: आखिर क्या थी दादी मां की कहानी- भाग 1

Family Story in Hindi : वृद्धाश्रम के गेट से सटी पक्की सड़क है, भीड़भाड़ ज्यादा नहीं है. मैं ने निकट से देखा, दादीमां सफेद पट्टेदार धोती पहने हुए वृद्धाश्रम के गेट का सहारा लिए खड़ी हैं. चेहरे पर  झुर्रियां और सिर के बाल सफेद हो गए हैं. आंखों में बेसब्री और बेबसी है. अंगप्रत्यंग ढीले हो चुके हैं किंतु तृष्णा उन की धड़कनों को कायम रखे हुए है. तभी दूसरी तरफ से एक लड़का दौड़ता हुआ आया. कागज में लिपटी टौफियां दादीमां के कांपते हाथों में थमा कर चला गया. दादीमां टौफियों को पल्लू के छोर में बांधने लगीं. जैसे ही कोई औटोरिकशा पास से गुजरता, दादीमां उत्साह से गेट के सहारे कमर सीधी करने की चेष्टा करतीं, उस के जाते ही पहले की तरह हो जातीं.

मैं ने औटोरिकशा गेट के सामने रोक दिया. दादीमां के चेहरे से खुशी छलक पड़ी. वे गेट से हाथ हटा कर लाठी टेकती हुई आगे बढ़ चलीं.

‘‘दादीमां, दादीमां,’’ औटोरिकशा से सिर बाहर निकालते हुए बच्चे चिल्लाए.

‘‘आती हूं मेरे बच्चो,’’ दादीमां उत्साह से भर कर बोलीं, औटोरिकशा में उन के पोतापोती हैं, यही समय होता है जब दादीमां उन से मिलती हैं. दादीमां बच्चों से बारीबारी लिपटीं, सिर सहलाया और माथा चूमने लगीं. अब वे तृप्त थीं. मैं इस अनोखे मिलन को देखता रहता. बच्चों की स्कूल से छुट्टी होती और मैं औटोरिकशा लिए इसी मार्ग से ही निकलता. दादीमां इन अमूल्य पलों को खोना नहीं चाहतीं. उन की खुशी मेरी खुशी से कहीं अधिक थी और यही मुझे संतुष्टि दे जाती. दादीमां मुझे देखे बिना पूछ बैठीं, ‘‘तू ने कभी अपना नाम नहीं बताया?’’

‘‘मेरा नाम रमेश है, दादीमां,’’ मैं ने कहा.

‘‘अब तुझे नाम से पुकारूंगी मैं,’’ बिना मेरी तरफ देखे ही दादीमां ने कहा.

स्कूल जिस दिन बंद रहता, दादीमां के लिए एकएक पल कठिन हो जाता. कभीकभी तो वे गेट तक आ जातीं छुट्टी के दिन. तब गेटकीपर उन्हें समझ बुझा कर वापस भेज देता. दादीमां ने धोती की गांठ खोली. याददाश्त कमजोर हो चली थी, लेकिन रोज 10 रुपए की टौफियां खरीदना नहीं भूलतीं. जब वे गेट के पास होतीं, पास की दुकान वाला टौफियां लड़के से भेज देता और तब तक मुझे रुकना पड़ता.

‘‘आपस में बांट लेना बच्चो…आज कपड़े बहुत गंदे कर दिए हैं तुम ने. घर जा कर धुलवा लेना,’’ दादीमां के पोपले मुंह से आवाज निकली और तरलता से आंखें भीग गईं.

मैं मुसकराया, ‘‘अब चलूं, दादीमां, बच्चों को छोड़ना है.’’

‘‘हां बेटा, शायद पिछले जनम में कोईर् नेक काम किया होगा मैं ने, तभी तू इतना ध्यान रखता है,’’ कहते हुए दादीमां ने मेरे सिर पर स्नेह से हाथ फेर दिया था.

‘‘कौन सा पिछला जनम, दादीमां? सबकुछ तो यहीं है,’’ मैं मुसकराया.

दादीमां की आंखों में घुमड़ते आंसू कोरों तक आ गए. उन्होंने पल्लू से आंखें पोंछ डालीं. रास्तेभर मैं सोचता रहा कि इन बेचारी के जीवन में कौन सा तूफान आया होगा जिस ने इन्हें यहां ला दिया.

एक दिन फुरसत के पलों में मैं दादीमां के हृदय को टटोलने की चेष्टा करने लगा. मैं था, दादीमां थीं और वृद्धाश्रम. दादीमां मुझे ले कर लाठी टेकतेटेकते वृद्धाश्रम के अपने कमरे में प्रवेश कर गईं. भीतर एक लकड़ी का तख्त था जिस में मोटा सा गद्दा फैला था. ऊपर हलके रंग की भूरी चादर और एक तह किया हुआ कंबल. दूसरी तरफ बक्से के ऊपर तांबे का लोटा और कुछ पुस्तकें. पोतापोती की क्षणिक नजदीकी से तृप्त थीं दादीमां. सांसें तेजतेज चल रही थीं. और वे गहरी सांसें छोड़े जा रही थीं.

लाठी को एक ओर रख कर दादीमां बिस्तर पर बैठ गईं और मुझे भी वहीं बैठने का इशारा किया. देखते ही देखते वे अतीत की परछाइयों के साथसाथ चलने लगीं. पीड़ा की धार सी बह निकली और वे कहती चली गईं.

‘‘कभी मैं घर की बहू थी, मां बनी, फिर दादीमां. भरेपूरे, संपन्न घर की महिला थी. पति के जाते ही सभी चुकने लगा…मान, सम्मान और अतीत. बहू घर में लाई, पढ़ीलिखी और अच्छे घर की. मुझे लगा जैसे जीवन में कोई सुख का पौधा पनप गया है. पासपड़ोसी बहू को देखने आते. मैं खुश हो कर मिलाती. मैं कहती, चांदनी नाम है इस का. चांद सी बहू ढूंढ़ कर लाई हूं, बहन.

‘‘फिर एकाएक परिस्थितियां बदलीं. सोया ज्वालामुखी फटने लगा. बेटा छोटी सी बात पर ? झिड़क देता. छाती फट सी जाती. मन में उद्वेग कभी घटता तो कभी बढ़ने लगता. खुद को टटोला तो कहीं खोट नहीं मिला अपने में.

‘‘इंसान बूढ़ा हो जाता है, लेकिन लालसा बूढ़ी नहीं होती. घर की मुखिया की हैसियत से मैं चाहती थी कि सभी मेरी बातों पर अमल करें. यह किसी को मंजूर न हुआ. न ही मैं अपना अधिकार छोड़ पा रही थी. सब विरोध करते, तो लगता मेरी उपेक्षा की जा रही है. कभीकभी मुझे लगता कि इस की जड़ चांदनी है, कोई और नहीं.

‘‘एक दिन मुझे खुद पर क्रोध आया क्योंकि मैं बच्चों के बीच पड़ गई थी. रात्रि का दूसरा प्रहर बीत रहा था. हर्ष बरामदे में खड़ा चांदनी की राह देख रहा था. झुंझलाहट और बेचैनी से वह बारबार ? झल्ला रहा था. रात गहराई और घड़ी की सुइयां 11 के अंक को छूने लगीं. तभी एक कार घर के सामने आ कर रुकी. चांदनी जब बाहर निकली तब सांस में सांस आई.

‘‘‘ओह, कितनी देर कर दी. मुझे तो टैंशन हो गई थी,’ हर्ष सिर झटकते हुए बोला था. चांदनी बता रही थी देर से आने का कारण जिसे मैं समझ नहीं पाई थी.

‘‘‘यह ठीक है, लेकिन फोन कर देतीं. तुम्हारा फोन स्विचऔफ आ रहा था,’ हर्ष फीके स्वर में बोला था.

‘‘‘इतने लोगों के बीच कैसे फोन करती, अब आ गई हूं न,’ कह कर चांदनी भीतर जाने लगी थी.

‘‘मुझ से रहा नहीं गया. मैं ने इतना ही कहा कि इतनी रात बाहर रहना भले घर की बहुओं को शोभा नहीं देता और न ही मुझे पसंद है. देखतेदेखते तूफान खड़ा हो गया. चांदनी रूठ कर अपने कमरे में चली गई. हर्र्ष भी उस पर बड़बड़ाता रहा और दोनों ने कुछ नहीं खाया.

अधूरा प्यार : जुबेदा ने अशोक के सामने कैसी शर्त रखी- भाग 1

Romantic Story in Hindi: मैं हैदराबाद में रहता था, पर उन दिनों लंदन घूमने गया था. वहां विश्वविख्यात मैडम तुसाद म्यूजियम देखने भी गया. यहां दुनिया भर की नामीगिरामी हस्तियों की मोम की मूर्तियां बनी हैं. हमारे देश के महात्मा गांधी, अमिताभ बच्चन, ऐश्वर्या राय बच्चन की भी मोम की मूर्तियां थीं. मैं ने गांधीजी की मूर्ति को प्रणाम किया. फिर मैं दूसरी ओर बनी बच्चन और उन्हीं की बगल में बनी ऐश्वर्या की मूर्ति की ओर गया. उस समय तक वे उन की बहू नहीं बनी थीं. मैं उन दोनों की मूर्तियों से हाथ मिलाते हुए फोटो लेना चाहता था. मैं ने देखा कि एक खूबसूरत लड़की भी लगभग मेरे साथसाथ चल रही है. वह भारतीय मूल की नहीं थी, पर एशियाईर् जरूर लग रही थी. मैं ने साहस कर उस से अंगरेजी में कहा, ‘‘क्या आप इन 2 मूर्तियों के साथ मेरा फोटो खींच देंगी?’’

उस ने कहा, ‘‘श्योर, क्यों नहीं? पर इस के बाद आप को भी इन दोनों के साथ मेरा फोटो खींचना होगा.’’

‘‘श्योर. पर आप तो भारतीय नहीं लगतीं?’’

‘‘तो क्या हुआ. मेरा नाम जुबेदा है और मैं दुबई से हूं,’’ उस ने कहा.

‘‘और मेरा नाम अशोक है. मैं हैदराबाद से हूं,’’ कह मैं ने अपना सैल फोन उसे फोटो खींचने दे दिया.

मेरा फोटो खींचने के बाद उस ने भी अपना सैल फोन मुझे दे दिया. मैं ने भी उस का फोटो बिग बी और ऐश्वर्या राय के साथ खींच कर फोन उसे दे दिया.

जुबेदा ने कहा, ‘‘व्हाट ए सरप्राइज. मेरा जन्म भी हैदराबाद में ही हुआ था. उन दिनों दुबई में उतने अच्छे अस्पताल नहीं थे. अत: पिताजी ने मां की डिलीवरी वहीं कराई थी. इतना ही नहीं, एक बार बचपन में मैं बीमार पड़ी थी तो करीब 2 हफ्ते उसी अस्पताल में ऐडमिट रही थी जहां मेरा जन्म हुआ था.’’

‘‘व्हाट ए प्लीजैंट सरप्राइज,’’ मैं ने कहा.

अब तक हम दोनों थोड़ा सहज हो चुके थे. इस के बाद हम दोनों मर्लिन मुनरो की मूर्ति के पास गए. मैं ने जुबेदा को एक फोटो मर्लिन के साथ लेने को कहा तो वह बोली, ‘‘यह लड़की तो इंडियन नहीं है? फिर तुम क्यों इस के साथ फोटो लेना चाहते हो?’’

इस पर हम दोनों हंस पड़े. फिर उस ने कहा, ‘‘क्यों न इस के सामने हम दोनों एक सैल्फी ले लें?’’

उस ने अपने ही फोन से सैल्फी ले कर मेरे फोन पर भेज दी.

मैडम तुसाद म्यूजियम से निकल कर मैं ने पूछा, ‘‘अब आगे का क्या प्रोग्राम है?’’

‘‘क्यों न हम लंदन व्हील पर बैठ कर लंदन का नजारा देखें?’’ वह बोली.

मैं भी उस की बात से सहमत था. इस पर बैठ कर पूरे लंदन शहर की खूबसूरती का मजा लेंगे. दरअसल, यह थेम्स नदी के ऊपर बना एक बड़ा सा व्हील है. यह इतना धीरेधीरे घूमता है कि इस पर बैठने पर यह एहसास ही नहीं होता कि घूम रहा है. नीचे थेम्स नदी पर दर्जनों क्रूज चलते रहते हैं. फिर हम दोनों ने टिकट से कर व्हील पर बैठ कर पूरे लंदन शहर को देखा. व्हील की सैर पूरी कर जब हम नीचे उतरे तब जुबेदा ने कहा, ‘‘अब जोर से भूख लगी है…पहले पेट पूजा करनी होगी.’’

मैं ने उस से पूछा कि उसे कौन सा खाना चाहिए तो उस ने कहा, ‘‘बेशक इंडियन,’’ और फिर हंस पड़ी.

मैं ने फोन पर इंटरनैट से सब से नजदीक के इंडियन होटल का पता लगाया. फिर टैक्सी कर सीधे वहां जा पहुंचे और दोनों ने पेट भर कर खाना खाया. अब तक शाम के 5 बज गए थे. दोनों ही काफी थक चुके थे. और घूमना आज संभव नहीं था तो दोनों ने तय किया कि अपनेअपने होटल लौट जाएं.

मैं ने जुबेदा से जब पूछा कि वह कहां रुकी है तो वह बोली, ‘‘मैं तो हाइड पार्क के पास वेस्मिंस्टर होटल में रुकी हूं. और तुम?’’

मैं ने हंसते हुए कहा, ‘‘जुबेदा, आज तो तुम एक के बाद एक सरप्राइज दिए जा रही हो.’’

‘‘वह कैसे?’’ ‘‘मैं भी वहीं रुका हूं,’’ मैं ने कहा.

जुबेदा बोली ‘‘अशोक, इतना सब महज इत्तफाक ही है… और क्या कहा जा सकता इसे?’’

‘‘इत्तफाक भी हो सकता है या कुछ और भी.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘नहीं. बस ऐसे ही. कोई खास मतलब नहीं… चलो टैक्सी ले कर होटल ही चलते हैं,’’ मैं बोला. इस से आगे चाह कर भी नहीं बोल सका था, क्योंकि मैं जानता था कि यह जिस देश की है वहां के लोग कंजर्वेटिव होते हैं.

हम दोनों होटल लौट आए थे. थोड़ी देर आराम करने के बाद मैं ने स्नान किया. कुछ देर टीवी देख कर फिर मैं नीचे होटल के डिनर रूम में गया. मैं ने देखा कि जुबेदा एक कोने में टेबल पर अकेले ही बैठी है. मुझे देख कर उस ने मुझे अपनी टेबल पर ही आने का इशारा किया. मुझे भी अच्छा लगा कि उस का साथ एक बार फिर मिल गया. डिनर के बाद चलने लगे तो उस ने अपने ही कमरे में चलने को कहा. भला मुझे क्यों आपत्ति होती.

सजा के बाद सजा : भाग 1

‘तमाम गवाहों और सुबूतों के मद्देनजर यह अदालत मुलजिम विनय को दफा 376 के तहत कुसूरवार मानती है और उसे मुजरिम करार देते हुए 10 साल की सजा सुनाती है…’

बलात्कार पीडि़ता की उम्र 18 साल से कम थी, शायद 6 महीने कम. लिहाजा, नाबालिग लड़की के साथ बलात्कार करने के जुर्म में सजा 10 साल की दी गई.

जज साहब को कौन समझाए और वे समझ भी रहे होंगे, तो फायदा क्या है? जो कानून की किताब कहती है, उसी के हिसाब से चलना है उन्हें.

आजकल के माहौल में बहुत सी लड़कियां 15-16 साल की उम्र में घर से भाग रही हैं. वे 14-15 साल की उम्र में ही बालिग हो जाती हैं. उन्हें पूरी जानकारी होती है और उन में जवानी भी उफान मारने लगती है.

18 साल में बालिग मानना तो कानून की भूल है. इसे सुधारना बहुत जरूरी है. 18 साल से पहले यानी कानून की नजर में नाबालिग लड़कियां आप को शहर के पार्कों, सिनेमाघरों, रैस्टोरैंटों, होटल के बंद कमरों में सबकुछ करते हुए मिल जाएंगी.

बात किसी पर कीचड़ उछालने की नहीं है, मौजूदा तकनीकों और माहौल के चलते समय से पहले बालिग होने की है.

यही बात लड़कों पर भी लागू होती है. 21 साल से पहले वे वेश्याओं और महल्ले की आंटियों के साथसाथ पढ़ने वाली लड़कियों और बेहूदा किताबों व फिल्मों से सीख कर समय से पहले ही बालिग हो जाते हैं.

सजा सुनते ही विनय के होश उड़ गए. एक सरकारी मुलाजिम, पत्नी, जवान होती बेटी और नौकरी तलाश करते बेटे के पिता का तो सबकुछ जैसे खत्म हो गया. नौकरी गई. समाज में थूथू हुई. अब बेटी की शादी कैसे होगी? बेटे के भविष्य का क्या होगा?

लेकिन विनय के हाथ में क्या था सिवाय खुद को लुटते देखने के. बच्चों का शर्म से चेहरा उतर गया. पत्नी ने रोते हुए हिम्मत दी, लेकिन क्या होना है? वकील ने तो बड़ी अदालत में अपील करने के लिए कह दिया, लेकिन पैसे कहां से आएंगे?

जिस दिन केस बना था, उस दिन से ले कर आज तक विनय को यह उम्मीद थी कि एक न एक दिन सच सामने आएगा और वे बाइज्जत बरी होंगे. पर अदालत के फैसले के बाद तो मानो सारे दरवाजे बंद हो गए.

पुलिस ने जिस दिन विनय को गिरफ्तार किया था, उस दिन शहरभर के अखबारों में यह मुद्दा खूब छपा था.

पत्नी ने कहा था, ‘मैं बच्चों को ले कर मायके जा रही हूं. अब यहां किस मुंह से रहेंगे. आप की अपील के पैसे वकील साहब को दे दिए हैं. मैं बीचबीच में आती रहूंगी.’

पत्नी रोते हुए उदास हो कर चली गई थी. उस लड़की ने सबकुछ बरबाद कर दिया.

विनय की बेटी की सहेली थी. घर आतीजाती रहती थी. वह विनय को अंकल कहा करती थी और अजीब निगाहों से देखा करती थी.

विनय ने उसे कई बार आवारा किस्म के लड़कों के साथ घूमते देखा था. महल्ले में उस लड़की के बारे में तरहतरह की बातें होने लगी थीं.

उन्होंने अपनी बेटी से कहा भी था कि वह अपनी इस सहेली से दूरी बना कर रखे, लेकिन उलटा बेटी ने सुना दिया था.

वह बोली थी, ‘पापा, अब तो कोऐजुकेशन का जमाना है. लड़के और लड़कियां साथ में पढ़ते हैं. अगर वह किसी लड़के के साथ काम से गई भी होगी, तो इस में लोगों को क्या तकलीफ है? लोग अभी भी पुराने जमाने में जी रहे हैं.’

पत्नी ने भी उन्हें समझाया था, ‘वह लड़की क्या करती है, इस से हमें क्या लेनादेना? उस का कोई भाई भी नहीं है. हमारी बेटी की सहेली है.

‘बच्चे हैं… थोड़ीबहुत मौजमस्ती, हंसीमजाक कर लिया, तो क्या हो गया. अब हमारा जमाना नहीं रहा. बेटियों को पढ़ालिखा रहे हैं, तो उन्हें आजादी भी मिलनी चाहिए.’

यह सुन कर विनय चुप रहे. क्या करते? क्या कहते? लेकिन वे जानते थे कि कमरे में बंद हो कर बच्चे उलटीसीधी किताबें पढ़ते हैं. इंटरनैट पर फालतू चीजें देखते हैं. कभी सीडी ला कर फिल्म देखते हैं. लेकिन इन सब चीजों के लिए बच्चों को खासकर जवान होती बेटियों को कैसे टोकें? कैसे समझाएं?

एक बार धोखे से डीवीडी में सीडी फंसी रह गई थी. बेटी भूल गई होगी या उसे अंदाजा नहीं होगा कि पिता उस के कमरे में आ कर देख लेंगे. बेटी कालेज चली गई. उन्होंने देखा. ब्लू फिल्म की सीडी थी.

उन्होंने अपनी पत्नी को भी बुला कर दिखाया और गुस्से में कहा था, ‘देखो, यह पढ़ाई होती है बंद कमरा कर के.’

पत्नी ने कहा था, ‘इसे वैसा ही छोड़ दो, ताकि बेटी को शक न हो कि हम

ने देख लिया है. मैं अपने तरीके से समझा दूंगी.’

विनय चुप रहे. अब पत्नी ने क्या समझाया? उस का क्या असर पड़ा? पड़ा भी या नहीं? बस, इतना ही पता चला कि बेटी ने शर्मिंदगी से ‘सौरी’ कहा और यह भी कहा कि उस के

कमरे में जा कर जासूसी करने की क्या जरूरत थी?

खैर, दिन गुजरते रहे. विनय की अपील इस बात पर रद्द हो गई कि एक तो नाबालिग, ऊपर से अनुसूचित जाति की लड़की. सजा बरकरार रही. सारी उम्मीदें टूट गईं. सबकुछ खत्म हो गया. जो लोग किसी न किसी केस में सजा भोग रहे थे, वे विनय से गंदे मजाक करते.

‘इस उम्र में भी गजब की जवानी भरी है बुढ़ऊ में. अपनी बेटी की सहेली को ही निबटा दिया…’

पहले तो विनय को ऐसी बातें तीर की तरह चुभती थीं, फिर आदत पड़ गई. धीरेधीरे लोगों को याद रहा, तो सिर्फ यह कि यह शख्स बलात्कार के केस में सजा काट रहा है. फिर जेल, जेल के नियम, जेल में सख्ती, सजा भोगतेभोगते बचे समय में सब अपने दुखदर्द एकदूसरे को सुनाते रहते. कभी घरपरिवार की पिछली बातें, कभी अपराध करने की वजह.

विनय जब भी खुद को बेकुसूर बताते, साथी मुजरिम हंसने लगते. उन्हें यकीन नहीं होता था. वे कहते कि चलो पुलिस झूठी, अदालत भी झूठी, फिर एक नाबालिग लड़की तुम पर बलात्कार का आरोप क्यों लगाएगी? वह अपनी खुद की जिंदगी क्यों बरबाद करेगी? यह कहो कि हो गई गलती. मजे के चक्कर में फंस गए.

आज का इंसान ऐसा क्यों : जिंदगी का है फलसफा – भाग 3

‘‘कहते हैं मैं सौरभ से रुपए मांग कर उन्हें दे दूं. तुम्हीं बताओ, विजय, मैं सौरभ से भी ऐसी आशा क्यों करूं कि वह उस रिश्तेदार का पेट भरे जिस का पेट करोड़ों हजम कर के भी नहीं भरा? अरे, हम बापबेटे कोई इतने बड़े पैसे वाले तो हैं नहीं जो कहीं से लाखों निकाल कर उन्हें दे देंगे.’’

स्तब्ध रह गया मैं. मेरा मित्र जरा सा परेशान हो गया अपनी सुनातेसुनाते. वास्तव में हैरानी थी मुझे.

‘‘मैं ने हाथ जोड़ कर माफी मांगी ली भाई साहब से. कहते हैं मैं मर जाऊंगा तो भी नहीं आएंगे. अब क्या करूं मैं? न आएं, अब मरने से पहले उन की मदद कर मैं अपना परिवार तो सड़क पर लाने से रहा…और मरने के बाद कौन आया कौन नहीं मेरी बला से. मैं देखने तो नहीं आऊंगा कि मेरे मरने पर कौन रोया कौन नहीं.’’

मित्र का हाथ अपनी हथेली में भींच लिया मैं ने. क्या गलत कह रहा है मेरा मित्र. भाई का स्वार्थ वह कहां तक ढोए और क्यों. सदा सादगी में रहा मेरा यह मित्र. लगभग 4-5 साल हम एकदूसरे के पड़ोसी रहे हैं. उन की पत्नी घर का एकएक काम अपने हाथ से करती थीं. कोई फुजूलखर्ची नहीं, कोई शानोशौकत नहीं. भाई साहब अकसर परिवार सहित तब आते थे जब जहाज पकड़ना होता था. कभी गोआ के लिए कभी ऊटी के लिए.

दिल्ली पालम एअरपोर्ट से वह हर साल उड़ानें भरते. हमें हैरानी होती थी, इन के पास इतने पैसे कहां से आते हैं. दूसरा भाई इतना सादा और हम जैसा ही मध्यवर्गीय, जिस की तनख्वाह 20 तारीख को ही आखिरी सांसें लेने लगती है. सच है, जो इंसान औरों के बल पर ऐश करता रहा उसे एक दिन तो जमीन पर आना ही था. और आया भी ऐसा कि उसी से मदद भी मांग रहा है जिस का अधिकार भी उस ने छोड़ा नहीं.

‘‘यह नरक नहीं तो और क्या है? मैं उन का सगा भाई हूं और मेरा स्नेह भी उन्हें दरकार नहीं. मेरा बेटा उन का सम्मान नहीं करता. मेरी पत्नी भी उन की तरफ पीठ कर लेती है. मेरे बाद सब समाप्त हो जाएगा, जानता हूं. कंगाल पिता का साथ बेटे भी कब तक देंगे. कल जिस इंसान ने सब को जूती के नीचे रखा आज उसी की ही जीवन शैली ने उसे कहां ला पटका. मेरे हाथ खड़े हैं, मैं जहां कल था आज भी वहीं हूं. न कल हवा में उड़ता था और न ही आज उड़ सकता हूं…आज तो खैर उड़ने का वक्त भी नहीं बचा.’’

कुछ छू गया मन को. मृत्यु की आंखों में हर पल झांकने वाला मेरा मित्र अपने जीवन का निचोड़ मेरे सामने परोस रहा था. सोम के शब्द याद आने लगे मुझे. हर इंसान का अपनाअपना सच होता है लेकिन कोई सच ऐसा भी होता है जो लगभग सब पर लागू होता है. जमीन से टूटा इंसान जब जमीन पर गिरता है. तब वह औरों पर दोष लगाता है. सदा अपना ही हित सोचने वाला जब सब से कट जाता है तब उन रिश्तों को कोसता है जिन का इस्तेमाल उस ने सदा अपने फायदे के लिए किया. रिश्तों में आज हम जो भी बीज डाल देंगे उसी का फल तो कल खाना पडे़गा…फिर पछताना कैसा और किसी पर दोषारोपण भी क्यों करना.

‘‘मैं तो समझता हूं वह इंसान नसीब वाला है जो अपना मन किसी के आगे खोल कर रख सकता है और ऐसा वही कर पाएगा जिस के मन में छिपाने जैसा कुछ नहीं. सीधासादा साफसुथरा जीवन जीने वाला इंसान छिपाएगा भी क्या. तुम मुझे जानते हो, विश्वास कर सकते हो. मैं जो भी इस पल कह रहा हूं सच होगा क्योंकि अंदर भी वही है जो बाहर है.’’

मैं उस के चेहरे की तृप्त और मीठी मुसकान देख कर सहज अनुमान लगा सकता था कि वह अपने जीवन से नाराज नहीं है. उस का सादा सा घर जहां जरूरत का सारा सामान है, वही उस का साम्राज्य है. वैभव से सुख नहीं मिलता, इस का जीताजागता उदाहरण मेरे समक्ष था. भाभी के तन पर सादे से कपड़े और माथे पर कोई बल नहीं, कोई खीज या कोई संताप नहीं. सुखदुख हमारे ही भीतर है. हमारे ही मन और दिमाग की उपज.

सामर्थ्य के अनुसार ही इंसान चाह करे और जो मिला उसी को कुदरत का प्रसाद समझ कर ग्रहण करे इसी में सुख है. नहीं तो इच्छाओं की राह तो हमारे जीवन से भी कहीं ज्यादा लंबी है. दुखी होने को हजार बहाने हैं हमारे पास. जब चाहो दुखी और परेशान हो लो. अपने ही हाथ में तो है सब.

‘‘हमारी हर भावना ऐसी होनी चाहिए जो पारदर्शी हो. पर ऐसा होता नहीं. हमारे मन में कुछ होता है होंठोें पर कुछ. सामने वाले से बात करते हुए अकसर हम बडे़ अच्छे अभिनेता बन जाते हैं. मन में आग भड़कती है और हम होंठों से फूल बरसाते हैं, क्योंकि वह मुझ से आगे निकल गया. उस का घर मेरे घर से बड़ा हो गया यही तो सब से बड़ा रोना है. अपनी खुशी से खुश होना इंसान को याद ही नहीं रहा.’’

फिर से सोम की कही बातें याद आने लगीं मुझे. उस ने भी तो यही निचोड़ निकाला था उस दिन. हर इंसान अभिनेता बनता जा रहा है, जो शिष्टाचार के नाम पर आप से बात करता है और नपातुला उत्तर ही चाहता है, क्योंकि वास्तव में आप को सुनना उस की इच्छा और चाहत में शामिल ही नहीं होता.

विडंबना भी तो यही है कि आज का इंसान प्यार पाना तो चाहता है लेकिन प्यार करना नहीं, खुश रहना तो चाहता है खुशी देना उसे याद ही नहीं, अपने अधिकार के प्रति तो पूरा जागरूक है पर दूसरे के अधिकार का हनन उस ने कबकब किया उसे पता ही नहीं. अपनी पीड़ा पीड़ा और दूसरे की पीड़ा तमाशा, अपना खून खून दूसरे का खून पानी. कहीं कोई कमी नहीं फिर भी एक अंधी दौड़ में शामिल है आज का आदमी. थक जाता है, अवसाद में चला जाता है, जो पास है उस का सुख लेना भी आखिर क्यों भूल गया है आज का इंसान.

आज का इंसान ऐसा क्यों : जिंदगी का है फलसफा – भाग 1

‘‘कहिए सोमजी, क्या हाल है? भई क्या लिखते हैं आप…बहुत तारीफ हो रही है आप की रचनाओं की. आप अपनी रचनाओं का कोई संग्रह क्यों नहीं निकलवाते. देखिए, आप ने मेरे साथ भी वफा नहीं की. मैं ने मांगा भी था आप से कि कुछ दीजिए न अपना पढ़ने को…’’

‘‘बिना पढ़े ही इतनी तारीफ कर रहे हैं आप साहब, पढ़ लेंगे तो क्या करेंगे…डर गया हूं आप से इसीलिए कभी कुछ दिया नहीं. वैसे मेरे देने न देने से क्या अंतर पड़ने वाला है. पत्रिकाओं में मेरी रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं. आप कहीं से भी उठा कर पढ़ सकते हैं. मैं ने वफा नहीं की ऐसा क्यों कह रहे हैं?’’

‘‘इतना समय किस के पास होता है जो पत्रिका उठा कर पढ़ी जाए…’’

‘‘तो आप जब भी मिलते हैं इतनी चापलूसी किस लिए करते रहते हैं. मुझ पर आरोप क्यों कि मैं ने अपना कुछ पढ़ने को नहीं दिया. पढ़ने वाला कहीं भी समय निकाल लेता है, वह किसी की कमजोर नस का सहारा ले कर अपनी बात शुरू नहीं करता.’’

इतना बोल कर सोम आगे निकल गए और मैं हक्काबक्का सा उन के प्रशंसक का मुंह देखता रहा. उस के बाद यह सोच कर स्वयं भी उन के पीछे लपका कि पुस्तक मेले में वह कहीं खो न जाएं.

‘‘सोमजी, आप ने उस आदमी से इस तरह बात क्यों की?’’

‘‘वह आदमी है ही इस लायक. बनावटी बातों से बहुत घबराहट होती है मुझे.’’

‘‘वह तो आप का प्रशंसक है.’’

‘‘प्रशंसक नहीं है, सिर्फ बात करने के लिए विषय पकड़ता है. जब भी मिलता है यही उलाहना देता है कि मैं ने उसे कुछ पढ़ने को नहीं दिया जबकि सत्य यह है कि उस के पास पत्रिका हो तो भी उठा कर देखता तक नहीं.’’

‘‘आप को उस का न पढ़ना बुरा लगता है?’’

‘‘क्यों भई, लाखों लोग मुझे पढ़ते हैं…एक वह न पढ़े तो मैं क्यों बुरा मानूं. पढ़ना एक शौक है विजय जिस में कोई जबरदस्ती नहीं चल सकती. जिसे पढ़ने की लत हो वह खाना खाते भी पढ़ लेता है और जिसे नहीं पढ़ना उसे किताबों के ढेर में फेंक दो तो भी वह पढ़ेगा नहीं.

‘‘उस का बेटा इस साल फाइनल में है. मेरे हाथ में उस की एसाइनमेंट है. इसलिए जब भी मिलता है प्रशंसा का चारा मेरे आगे डालने लगता है, जो मेरे गले में फांस जैसा फंस जाता है. बेवकूफ हूं क्या मैं? क्या मुझे समझ में नहीं आता कि वह कितना दिखावा कर रहा है. झूठ क्यों बोलना?

‘‘मैं ने तो उसे नहीं कहा कि मेरी तारीफ करो. जब उस ने मेरा लिखा कभी पढ़ा ही नहीं तो झूठी तारीफ भी क्यों करनी. पढ़ कर चाहे बुराई ही करो वह मुझे मंजूर है. जरूरी नहीं मेरा लिखा सब को पसंद ही आए. सब का अपनाअपना दृष्टिकोण है जीवन को नापने का. जोजो मैं ने अपने जीवन में पाया वहवह मेरा सच है. जो तुम जीवन से सीखोगे वही तुम्हारा भी सच होगा. जरूरी तो नहीं न तुम्हारा और मेरा सच एक ही हो.’’

सोमजी अपनी ही रौ में बहते हुए कहते भी गए और अपनी मनपसंद पुस्तकें भी चुनते गए. सच ही तो कह रहे हैं सोमजी…किसी के भी व्यवहार का सच वह कितनी जल्दी पकड़ लेते हैं. मैं ने उन से कहा तो हंस पडे़.

‘‘अरे, नहीं विजय, किसी का भी व्यवहार झट से पकड़ लेना आसान नहीं है. आज का इंसान बहुत समझदार हो गया है. किस की कौन सी नस पर हाथ रख कर अपना कौन सा काम निकालना है उसे अच्छी तरह आता है. और मुझ जैसा भावुक मूर्ख इस का शिकार अकसर हो जाता है.’’

सोमजी, खरीद कर लाई कुछ किताबें उलटतेपलटते हुए मुसकराने लगे. बड़ी गहरी होती है उन की मुसकान. अपनी मनपसंद पुस्तक में कुछ मिल गया था उन्हें. मेरी ओर देख कर बोले, ‘‘विजय, कुछ बातें सिर्फ कहने के लिए ही कही जाती हैं. उन का कोई अर्थ नहीं होता. जैसे कि किसी ने आप से आप का हाथ पकड़ कर आप का हालचाल पूछा. उसे आप की सेहत से कुछ भी लेनादेना नहीं होता. बस, एक शिष्टाचार है. सिर्फ इसलिए पूछा कि सवाल पूछना था. पूछने वाले के शब्दों में कोई गहराई नहीं होती.

‘‘एक सतही सा सवाल है कि आप कैसे हैं. आप कल चाहे किसी भयानक बीमारी से मर ही क्यों न जाएं लेकिन आज आप को सिर्फ यही उत्तर देना है कि आप अच्छे हैं. अपनी बीमारी का दुखड़ा रोना आज का शिष्टाचार नहीं है. अपने मन की बात खुल कर करना आज का शिष्टाचार है ही नहीं. आप के मन में भावनाओं का ज्वारभाटा तूफानी वेग से उमड़घुमड़ रहा हो लेकिन आज का शिष्टाचार, यही सिखाता है कि बस, चुप रह जाओ. एक बनावटी सी…नकली सी मुसकान चेहरे पर लाओ और अपनी पीड़ा अपने तक ही रखतेरखते हंसते हुए कहो, ‘मैं अच्छा हूं.’

‘‘उस आदमी को न तो मेरी रचनाओं से कुछ लेनादेना है न ही मेरी लेखनी से. उस के हाथ अगर अपना कुछ लिखा दे दूंगा तो हो सकता है कह दे, उसे पढ़ने का शौक ही नहीं है. मैं ने बेकार ही तकलीफ की, क्योंकि शिष्टाचार है इसलिए जब भी मिलता है यही एक उलाहना देता है कि मैं ने उसे कुछ दिया नहीं जिसे वह पढ़ पाता.’’

बड़े गौर से मैं सोमजी का चेहरा पढ़ता रहा. सच ही तो कह रहे हैं सोम. वास्तव में आज का युग वह नहीं रहा जो हमारे बचपन और हमारी जवानी में था. हमारे बचपन में वह था जिस की जड़ें आज भी गहरी समाई हैं हमारी चेतना में. शब्दों में गहराई थी. हां का मतलब हां ही होता था और ना का मतलब सिर्फ ना. आज जरूरी नहीं हां का मतलब हां ही हो. शिष्टाचारवश किसी का हां कह देना वास्तव में ना भी हो सकता है. शब्दों में गहराई है कहां जिन में जरा सी ईमानदारी नजर आए. एक ओढ़ा हुआ जीवन सभी जी रहे हैं. शब्दों का नाता सिर्फ जीभ से है सत्य से नहीं.

हफ्ता भर ही बीता उस वाकया को कि मुझे किसी काम से दिल्ली जाना पड़ा. मेरे एक मित्र बीमार थे…उन्हीं ने बुला भेजा था. कैंसर की आखिरी स्टेज पर हैं वह. कब समय आ जाए नहीं जानते इसलिए मिलना चाहते थे. उन के परिवार से 2-4 दिन वास्ता पड़ा मेरा. मौत के कगार पर खड़ा मेरा मित्र किसी भी कोण से दुखी हो ऐसा नहीं लगा मुझे.

‘‘कहिए सोमजी, क्या हाल है? भई क्या लिखते हैं आप…बहुत तारीफ हो रही है आप की रचनाओं की. आप अपनी रचनाओं का कोई संग्रह क्यों नहीं निकलवाते.

रफू की हुई ओढ़नी : घूमर वाली मेघा – भाग 1

एक बार फिर गांव की ओढ़नी ने शहर में परचम लहराने की ठान ली. गांव के स्कूल में 12वीं तक पढ़ी मेघा का जब इंजीनियरिंग में चयन हुआ तो घर भर में खुशी की लहर दौड़ गई थी. देश के प्रतिष्ठित प्रतिष्ठान में ऐडमिशन मिलना कोई कम बड़ी बात है क्या?

“लेकिन यह ओढ़नी शहर के आकाश में लहराना नहीं जानती, कहीं झाड़कांटों में उलझ कर फट गई तो?”

“हवाओं को तय करने दो. इस के बंधन खोल कर इसे आजाद कर दो, देखें अटती है या फटती है…”

“लेकिन एक बार फटने के बाद क्या? फिर से सिलना आसान है क्या? और अगर सिल भी गई तो रहीमजी वाले प्रेम के धागे की तरह क्या जोड़ दिखेगा नहीं? जबजब दिखेगा तबतब क्या सालेगा नहीं?”

“तो क्या किया जाए? कटने से बचाने के लिए क्या पतंग को उड़ाना छोड़ दें?”

न जाने कितनी ही चर्चाएं थीं जो इन दिनों गांव की चौपाल पर चलती थी.

सब के अपनेअपने मत थे. कोई मेघा के पक्ष में तो कोई उस के खिलाफ. हरकोई चाहता तो था कि मेघा को उड़ने के लिए आकाश मिले लेकिन यह भी कि उस आकाश में बाज न उड़ रहे हों. अब भला यह कैसे संभव है कि रसगुल्ला तो खाएं लेकिन चाशनी में हाथ न डूबें.

“संभव तो यह भी है कि रसगुल्ले को कांटे से उठा कर खाया जाए.”

कोई मेघा की नकल कर हंसता. मेघा भी इसी तरह अटपटे सवालों के चटपटे जवाब देने वाली लड़की है. हर मुश्किल का हल बिना घबराए या हड़बड़ाए निकालने वाली. कभी ओढ़नी फट भी गई ना, तो इतनी सफाई से रफू करेगी कि किसी को आभास तक नहीं होगा. मेघा के बारे में सब का यही खयाल था.

लेकिन न जाने क्यों, खुद मेघा को अपने ऊपर भरोसा नहीं हो पा रहा था पर आसमान नापने के लिए पर तो खोलने ही पडते हैं ना… मेघा भी अब उड़ान के लिए तैयार हो चुकी थी.

मेघा कालेज के कैंपस में चाचा के साथ घुसी तो लाज के मारे जमीन में गड़ गई. चाचाभतीजी दोनों एकदूसरे से निगाहें चुराते आगे बढ़ रहे थे. मेघा को लगा मानों कई जोड़ी आंखें उस के दुपट्टे पर टंक गई है. उस ने अपने कुरते के ढलते कंधे को दुरुस्त किया और सहमी सी चाचा के पीछे हो ली.

इस बीच मेघा ने जरा सा निगाह ऊपर उठा कर इधरउधर देखने की कोशिश की लेकिन आंखें कई टखनों से होती हुईं खुली जांघ तक का सफर तय कर के वापस उस तक लौट आईं.

उस ने अपने स्मार्टफोन की तरफ देखा जो खुद उस की तरह ही किसी भी कोण से स्मार्ट नहीं लग रहा था. हर तीसरे हाथ में पकड़ा हुआ कटे सेब के निशान वाला फोन उसे अपने डब्बे को पर्स में छिपाने की सलाह दे रहा था जिसे उस ने बिना किसी प्रतिरोध के स्वीकार कर लिया था.

कालेज की औपचारिकताएं पूरी करने और होस्टल में कमरा अलौट होने की तसल्ली करने के बाद चाचा उसे भविष्य के लिए शुभकामनाएं दे कर वापस लौट गए. अब मेघा को अपना भविष्य खुद ही बनाना था. गंवई पसीने की खुशबू को शहर के परफ्यूम में घोलने का सपना उसे अपने दम पर ही पूरा करना था.

कालेज का पहला दिन. मेघा बड़े मन से तैयार हुई. लेकिन कहां जानती थी कि जिस ड्रैस को उस के कस्बे में नए जमाने की मौडर्न ड्रैस कह कर उसे आधुनिका का तमगा दिया जाता था वही कुरता और प्लाजो यहां उसे बहनजी का उपनाम दिला देंगे. मेघा आंसू पी कर रह गई. लेकिन सिलसिला यहीं नहीं थमा था.

उस के बालों में लगे नारियल तेल की महक, हर कुरते के साथ दुपट्टा रखने की आदत, पांवों में पहनी हुई चप्पलें आदि उसे भीड़ से अलग करते थे. और तो और खाने की टेबल पर भी सब उसे चम्मच की बजाय हाथ से चावल खाते हुए कनखियों से देख कर हंसा करते थे.

“आदिमानव…” किसी ने जब पीछे से विशेषण उछाला तो मेघा को समझते देर नहीं लगी कि यह उसी के लिए है.

“यह सब बाहरी दिखावा है मेघा। तुम्हें इस में नहीं उलझना है,” स्टेशन पर ट्रैन में बैठाते समय पिता ने यही तो सीख की पोटली बांध कर उस के कंधे पर धरी थी.

‘पोटली तो भारी नहीं थी, फिर कंधे क्यों दुखने लगे?’ मेघा सोचने लगी.

हर छात्र की तरह मेघा का सामना भी सीनियर छात्रों द्वारा ली जाने वाली रैगिंग से हुआ. होस्टल के एक कमरे में जब नई आई लड़कियों को रेवड़ की तरह भरा जा रहा था तब मेघा का गला सूखने लगा.

“तो क्या किया जाए इस नई मुरगी के साथ?” छात्राओं से घिरी मेघा ने सुना तो कई बार देखी गई फिल्म ‘थ्री इडियट’ से कौपी आईडिया और डायलौग न जाने तालू के कौन से कोने में हिस्से में चिपक गए.

“भई, दुपट्टे बड़े प्यारे होते हैं इस के. चलो रानी, दुपट्टे से जुड़े कुछ गीतों पर नाच के दिखा दो. और हां, डांस प्योर देसी हो समझी?” गैंग की लीडर ने कहा तो मेघा जड़ सी हो गई.

एक सीनियर ने बांह पकड़ कर उसे बीच में धकेल दिया. मेघा के पांव फिर भी नहीं चले.

“देखो रानी, जब तक नाचोगी नहीं, जाओगी नहीं. खड़ी रहो रात भर,” धमकी सुन कर मेघा ने निगाहें ऊपर उठाईं.

“ओह, कहां फंसा दिया,” मेघा की आंखों में बेबसी ठहर गई.

‘अब घूमर के अलावा कोई बचाव नहीं,’ सोच कर मेघा ने अपने चिंदीचिंदी आत्मविश्वास को समेटा और अपने दुपट्टे को गले से उतार कर कमर पर बांध लिया.

‘हवा में उड़ता जाए, मेरा लाल दुपट्टा मलमल का…’, ‘इन्हीं लोगों ने ले लीन्हा दुपट्टा मेरा…’, ‘लाल दुपट्टा उड़ गया रे बैरी हवा के झौंके से…’ जैसे कई फिल्मी गीतों पर मेघा ने घूमर नाच किया तो सब के मुंह उस के मिक्स ऐंड मैच को देख कर खुले के खुले रह गए. फिरकी की तरह घूमती उस की देह खुद चकरी हो गई थी.

लड़कियां उत्तेजित हो कर सीटियां बजाने लगीं. उस के बाद वह ‘घूमर वाली लड़की’ के नाम से जानी जाने लगी.

खुशी का गम : पति ने किया खिलवाड़ – भाग 1

Family Story in Hindi: मेरे बेटे आकाश की आज शादी है. घर मेहमानों से भरा पड़ा है. हर तरफ शादी की तैयारियां चल रही हैं. यद्यपि मैं इस घर का मुखिया हूं, लेकिन अपने ही घर में मेरी हैसियत सिर्फ एक मूकदर्शक की बन कर रह गई है. आज मेरे पास न पैसा है न परिवार में कोई प्रतिष्ठा. चूंकि घर के नौकरों से ले कर रिश्तेदारों तक को इस बात की जानकारी है, इसलिए सभी मुझ से बहुत रूखे ढंग से पेश आते हैं. बहुत अपमानजनक है यह सब लेकिन मैं क्या करूं? अपने ही घर में उस अपमानजनक स्थिति के लिए मैं खुद ही तो जिम्मेदार हूं. फिर मैं किसे दोष दूं? क्या खुशी, मेरी पत्नी इस के लिए जिम्मेदार है? अंदर से एक हूक  सी उठी. और इसी के साथ मन ने कहा, ‘उस ने तो तुम्हें पति का पूरा सम्मान दिया, पूरा आदर दिया, लेकिन तुम शायद उस के प्यार, उस के समर्पण के हकदार नहीं थे.’

खुशी एक बहुत कुशल गृहिणी है जिस ने कई सालों तक मुझे पत्नी का निश्छल प्यार और समर्पण दिया. पर मैं ही नादान था जो उस की अच्छाइयां कभी समझ नहीं पाया. मैं हमेशा उस की आलोचना करता रहा. उसे मानसिक रूप से प्रताड़ित करता रहा. अपने प्रति उस के लगाव को हमेशा मैं ने ढोंग समझा.

मैं सारा जीवन मौजमस्ती करता रहा और वह मेरी ऐयाशियों को घुटघुट कर सहती रही, मेरे अपमान व अवमाननापूर्ण व्यवहार को सहती रही. वह एक सीधीसादी सुशील महिला थी और उस का संसार सिर्फ मैं और उस का बेटा आकाश थे. वह हम दोनों के चेहरों पर मुसकराहट देखने के लिए कुछ भी करने को हमेशा तैयार रहती थी लेकिन मैं अपने प्रति उस की उस अटूट चाहत को कभी समझ न पाया.

मैं कब विगत दिनों की खट्टीमीठी यादों की लहरों में बहता चला गया. मुझे पता भी नहीं चला था.

उन दिनों मैं कालिज में नयानया आया था. वरिष्ठ छात्र रैगिंग कर रहे थे. एक दिन मैं कालिज में अभी घुसा ही था कि एक दूध की तरह गोरी, अति आकर्षक नैननक्श वाली लड़की कुछ घबराई और परेशान सी मेरे पास आई और सकुचाते हुए मुझ से बोली, ‘आप बी.ए. प्रथम वर्ष में हैं न, मैं भी बी.ए. प्रथम वर्ष में हूं. वह जो सामने छात्रों का झुंड बैठा है, उन लोगों ने मुझ से कहा है कि मैं आप का हाथ थामे इस मैदान का चक्कर लगाऊं. अब वे सीनियर हैं, उन की बात नहीं मानी तो नाहक मुझे परेशान करेंगे.’

‘हां, हां, मेरा हाथ आप शौक से थामिए, चाहें तो जिंदगी भर थामे रहिए. बंदे को कोई परेशानी नहीं होगी. तो चलें, चक्कर लगाएं.’

मेरी इस चुटकी पर शर्म से सिंदूरी होते उस कोमल चेहरे को मैं देखता रह गया था. मैं अब तक कई लड़कियों के संपर्क में आ चुका था लेकिन इतनी शर्माती, सकुचाती सुंदरता की प्रतिमूर्ति को मैं ने पहली बार इतने करीब से देखा था.

उस के मुलायम हाथ को थामे मैं ने पूरे मैदान का चक्कर लगाया था और फिर ताली बजाते छात्रों के दल के सामने आ कर मैं ने उस का कांपता हाथ छोड़ दिया था कि तभी उस ने नजरें जमीन में गड़ा कर मुझ से कहा था, ‘आई लव यू’, और यह कहते ही वह सुबकसुबक कर रो पड़ी थी और मैं मुसकराता हुआ उसे छोड़ कर क्लास में चला गया था.

बाद में मुझे पता चला था कि उस सुंदर लड़की का नाम खुशी था और वह एक प्रतिष्ठित धनाढ्य परिवार की लड़की थी. उस दिन के बाद जब कभी भी मेरा उस से सामना होता, मुझ से नजरें मिलते ही वह घबरा कर अपनी पलकें झुका लेती और मेरे सामने से हट जाती. उस की इस अदा ने मुझे उस का दीवाना बना दिया था. मैं क्लास में कोशिश करता कि उस के ठीक सामने बैठूं. मैं उस का परिचय पाने और दोस्ती करने के लिए बेताब हो उठा था.

मेरे चाचाजी की लड़की नेहा, जो मेरी ही क्लास में थी, वह खुशी की बहुत अच्छी सहेली थी. मैं ने नेहा के सामने खुशी से दोस्ती करने की इच्छा जाहिर की और नेहा ने एक दिन मुझ से उस की दोस्ती करा दी थी. धीरेधीरे हमारी दोस्ती बढ़ गई और खुशी मेरे बहुत करीब आ गई थी.

मैं जैसेजैसे खुशी के करीब आता जा रहा था, वैसेवैसे मुझे निराशा हाथ लगती जा रही थी. मैं स्वभाव से बेहद बातूनी, जिंदादिल, मस्तमौला किस्म का युवक था लेकिन खुशी अपने नाम के विपरीत एक बेहद भावुक किस्म की गंभीर लड़की थी.

कुछ ही समय में वह मेरे बहुत करीब आ चुकी थी और मैं उस की जिंदगी का आधारस्तंभ बन गया था, लेकिन मैं उस के नीरस स्वभाव से ऊबने लगा था. वह मितभाषी थी, जब भी मेरे पास रहती, होंठ सिले रहती. जहां मैं हर वक्त खुल कर हंसता रहता था, वहीं वह हर वक्त गंभीरता का आवरण ओढे़ रहती.

प्यार अपने से: जब प्यार ने तोड़ी मर्यादा- भाग 1

झारखंड राज्य का एक शहर है हजारीबाग. यह कुदरत की गोद में बसा छोटा सा, पर बहुत खूबसूरत शहर है. पहाड़ियों से घिरा, हरेभरे घने जंगल, झील, कोयले की खानें इस की खासीयत हैं. हजारीबाग के पास ही में डैम और नैशनल पार्क भी हैं. यह शहर अभी हाल में ही रेल मार्ग से जुड़ा है, पर अभी भी नाम के लिए 1-2 ट्रेनें ही इस लाइन पर चलती हैं. शायद इसी वजह से इस शहर ने अपने कुदरती खूबसूरती बरकरार रखी है.

सोमेन हजारीबाग में फौरैस्ट अफसर थे. उन दिनों हजारीबाग में उतनी सुविधाएं नहीं थीं, इसलिए उन की बीवी संध्या अपने मायके कोलकाता में ही रहती थी.

दरअसल, शादी के बाद कुछ महीनों तक वे दोनों फौरैस्ट अफसर के शानदार बंगले में रहते थे. जब संध्या मां बनने वाली थी, सोमेन ने उसे कोलकाता भेज दिया था. उन्हें एक बेटी हुई थी. वह बहुत खूबसूरत थी, रिया नाम था उस का. सोमेन हजारीबाग में अकेले रहते थे. बीचबीच में वे कोलकाता जाते रहते थे.

हजारीबाग के बंगले के आउट हाउस में एक आदिवासी जोड़ा रहता था. लक्ष्मी सोमेन के घर का सारा काम करती थी. उन का खाना भी वही बनाती थी. उस का मर्द फूलन निकम्मा था. वह बंगले की बागबानी करता था और सारा दिन हंडि़या पी कर नशे में पड़ा रहता था.

एक दिन दोपहर बाद लक्ष्मी काम करने आई थी. वह रोज शाम तक सारा काम खत्म कर के रात को खाना टेबल पर सजा कर चली जाती थी.

उस दिन मौसम बहुत खराब था. घने बादल छाए हुए थे. मूसलाधार बारिश हो रही थी. दिन में ही रात जैसा अंधेरा हो गया था.

अपने आउट हाउस में बंगले तक दौड़ कर आने में ही लक्ष्मी भीग गई थी. सोमेन ने दरवाजा खोला. उस की गीली साड़ी और ब्लाउज के अंदर से उस के सुडौल उभार साफ दिख रहे थे.

सोमेन ने लक्ष्मी को एक पुराना तौलिया दे कर बदन सुखाने को कहा, फिर उसे बैडरूम में ही चाय लाने को कहा. बिजली तो गुल थी. उन्होंने लैंप जला रखा था.

थोड़ी देर में लक्ष्मी चाय ले कर आई. चाय टेबल पर रखने के लिए जब वह झुकी, तो उस का पल्लू सरक कर नीचे जा गिरा और उस के उभार और उजागर हो गए.

सोमेन की सांसें तेज हो गईं और उन्हें लगा कि कनपटी गरम हो रही है. लक्ष्मी अपना पल्लू संभाल चुकी थी. फिर भी सोमेन उसे लगातार देखे जा रहे थे.

यों देखे जाने से लक्ष्मी को लगा कि जैसे उस के कपड़े उतारे जा रहे हैं. इतने में सोमेन की ताकतवर बाजुओं ने उस की कमर को अपनी गिरफ्त में लेते हुए अपनी ओर खींचा.

लक्ष्मी भी रोमांचित हो उठी. उसे मरियल पियक्कड़ पति से ऐसा मजा नहीं मिला था. उस ने कोई विरोध नहीं किया और दोनों एकदूसरे में खो गए.

इस घटना के कुछ महीने बाद सोमेन ने अपनी पत्नी और बेटी रिया को रांची बुला लिया. हजारीबाग से रांची अपनी गाड़ी से 2 ढाई घंटे में पहुंच जाते हैं.

सोमेन ने उन के लिए रांची में एक फ्लैट ले रखा था. उन के प्रमोशन की बात चल रही थी. प्रमोशन के बाद उन का ट्रांसफर रांची भी हो सकता है, ऐसा संकेत उन्हें डिपार्टमैंट से मिल चुका था.

इधर लक्ष्मी भी पेट से हो गई थी. इस के पहले उसे कोई औलाद न थी. लक्ष्मी के एक बेटा हुआ. नाकनक्श से तो साधारण ही था, पर रंग उस का गोरा था. आमतौर पर आदिवासियों के बच्चे ऐसे नहीं होते हैं.

अभी तक सोमेन हजारीबाग में ही थे. वे मन ही मन यह सोचते थे कि कहीं यह बेटा उन्हीं का तो नहीं है. उन्हें पता था कि लक्ष्मी की शादी हुए 6 साल हो चुके थे, पर वह पहली बार मां बनी थी.

सोमेन को तकरीबन डेढ़ साल बाद प्रमोशन और ट्रांसफर और्डर मिला. तब तक लक्ष्मी का बेटा गोपाल भी डेढ़ साल का हो चुका था.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें