‘‘हांहां, इतवार है न, कोई आ न जाए?’’ कह कर उस ने अलमारी से धुले व इस्तिरी किए हुए परदे निकाल कर महरी को दे दिए और वह दरवाजेखिड़कियों के परदे बदलने लगी.
अकसर इतवार के दिन उस की दृष्टि परदों पर चली जाती और वह सुधा से कह कर परदे बदलवा देता. वह कहता, ‘कोई आ न जाए?’
‘लेकिन हम घर पर रहेंगे ही कहां?’
‘मां के घर दोपहर का भोजन कर के हम सीधे यहां आ रहे हैं.’
‘आज तुम नाटक देखने नहीं चलोगे?’
‘नहीं, आज तो भीड़भाड़ होगी और टिकट भी नहीं मिलेगा.’
‘यह नाटक सिर्फ आज भर होगा.’
‘हफ्ते में एक दिन ही तो मिलता है. उस दिन भी तुम भागमभाग करने के लिए कहती हो.’
‘तुम ने पहले ही बता दिया होता तो मैं कल ही हो आती.’
‘आइंदा तुम शनिवार के दिन ड्रामा देख लिया करो.’
‘और इतवार के दिन?’
‘पूरा आराम.’
इतवार के दिन वह या तो मेहमानों या सुधा के साथ हंसबतिया लेता या फिर सारा दिन लेटा रहता. सुधा कोई न कोई नाटक पढ़ने लगती.
एक दिन उस ने सुधा से कह दिया, ‘तुम किसी नाटक में अभिनय क्यों नहीं कर लेतीं?’
‘कोई अच्छा नाटक मंचित होता है तो उसे दिखाने तो चलते नहीं, अभिनय करने दोगे तुम?’
‘सच, तुम अगर स्टेज पर काम करो तो मैं तुम्हारा नाटक देखने जरूर आऊंगा.’
‘लेकिन मुझे नाटक खेलना नहीं, देखना अच्छा लगता है. कालेज के दिनों में भी मैं हर नाटक देखने के लिए सब से आगे की सीट पर बैठती थी. लेकिन समय के चक्कर में सबकुछ छूटता चला गया.’’
ये भी पढ़ें- ऐसी जुगुनी
‘अब भी मैं तुम्हें जाने से तो मना नहीं करता.’
‘लेकिन तुम साथ तो चलना पसंद नहीं करते.’
‘जाने क्यों नाटक मुझे पसंद ही नहीं आते. हां, फिल्म कहो तो…’
‘चलो, फिल्म ही सही.’
‘मतलब, आज फिल्म देखे बगैर नहीं रहोगी?’
‘नहीं, अगर तुम नहीं चाहते तो…’
‘नहीं, हम चल रहे हैं.’
‘कपड़े बदल लूं.’
‘हांहां.’
झट उस ने वार्डरोब खोला. ‘कौन सी साड़ी पहनूं?’
‘कोई भी.’
‘नहीं. तुम बताओ न.’
‘वह फालसई रंग की साड़ी पहन लो.’
‘तुम्हें हल्के शेड्स पसंद हैं न?’
‘हां.’
वह झट हाथमुंह धो आई और कंघी उठा कर बाल संवारने लगी. उस ने उस के बालों की एकाध लट उस के गाल पर बिखेर दी औैर उस की छवि निहारने लगा.
सुधा प्रसन्न हो कर बोली, ‘जानते हो, जब भी तुम मुझे इस तरह सजानेसंवारने लगते हो तब मुझे बेहद खुशी होती है. तुम्हारी इच्छाएं पूरी होती रहीं तो मैं अपनी जिंदगी सार्थक समझ लूंगी.’
‘‘मैं जाऊं?’’ महरी की आवाज सुन कर उस की विचार तंद्रा टूटी. बोला, ‘‘तुम्हारा काम खत्म हो गया?’’
‘‘हां.’’
‘‘तो जाओ.’’
‘‘एक बात कहूं, साहब?’’
‘‘कहो.’’
‘‘जब तक बीबीजी नहीं लौटतीं तब तक आप अपनी मां के पास क्यों नहीं चले जाते? यहां तो आप को खानेपीने की भी दिक्कत होती होगी.’’
‘‘मां के पास?’’ अरे, हां, मां के पास रसोई के वक्त चले जाओ तो मां नाराज होती हैं, ‘हफ्ते में एक दिन तो आते हो और तब भी दोचार घड़ी चैन से बैठ कर बातचीत भी नहीं करते.’
कभीकभी सुधा खाने के तुरंत बाद फिल्म के लिए निकल आती तो मां खीझ उठतीं.
वह झट नहा कर और फिर कपड़े बदल कर घर से निकलना ही चाहता था कि फिर आवाज आई, ‘‘बीबीजी, कपडे़.’’
उस ने दरवाजा खोला. सामने एक औरत एक छोकरे के साथ खड़ी थी, जिस के सिर पर एक टोकरा रखा था. उस में स्टील के बरतन आदि और कपड़ों की एक गठरी रखी थी.
वह बोली, ‘‘बीबीजी नहीं हैं?’’
‘‘नहीं.’’
‘‘कहा था, कुछेक पुराने कपड़े निकाल कर रखूंगी.’’
‘‘वह तो नहीं है.’’
‘‘कहीं गई हैं?’’
‘‘हां.’’
‘‘कब आएंगी?’’
उस ने चीख कर कहना चाहा, ‘अब वह यहां नहीं आएगी. हां सिर्फ वह रहता है वह. कोई सुधा नहीं रहती.’ लेकिन वह बोला नहीं. चुप रहा. पुराने कपड़े वाली अपने छोकरे के साथ चली गई. उस ने सोचा, ‘अब और वह घर पर बैठा रहा तो कोई न कोई सुधा को पूछता हुआ चला आएगा और उस के अचानक चले जाने का एहसास दिलाता रहेगा. कितना बड़ा झूठ छोड़ गई है सुधा अपने पीछे. यहां न लौटने का निश्चय कर के भी वह इन सब लोगों को अपने लौटने का यकीन दिला गई है. यहां न होते हुए भी यहां होने का एक एहसास छोड़ गई है.’
ये भी पढ़ें- Serial Story: अस्मत का सौदा- भाग 3
जब वह मां के यहां पहुंचा तब बूंदाबांदी होने लगी थी और बरामदे में बैठी मां तेजतर्रार आवाज में पिताजी को जलीकटी सुना रही थीं.
‘‘अब बस भी करो, मां,’’ आदर्श मां को समझा रही थी.
‘‘नहीं, मैं ने बहुत झेला है, अब और नहीं झेल सकती,’’ कह कर मां अपना पुराना राग अलापने लगीं जो वे कईर् बार सुना चुकी हैं.
पापा अब तक चुप थे. लेकिन अब भड़क उठे और किसी गरजतेबरसते बादल की तरह मां के इर्दगिर्द मंडराते हुए ऊंचनीच सुनाने लगे.
‘‘पापा, आज भैया के सामने तो चुप रहिए,’’ आदर्श गिड़डि़ाई.
‘‘अरे, तेरा भैया पराया थोड़े ही है. तू उसे डबल रोटी का उपमा खिला दे. आज मुझे इन से निबट लेने दे.’’
वह आदर्श के साथ दूसरे कमरे में चला गया. मां और पापा दोनों एकदूसरे से ऐसे झगड़ने लगते हैं जैसे अब वे एकदूसरे के साथ नहीं रह पाएंगे. लेकिन थोड़ी देर बाद वे फिर हंसनेबतियाने लगते हैं. अपने मांपापा का यह धूपछांही रंग उस की समझ में नहीं आता.
‘‘बात क्या हुई थी?’’
‘‘मां को एक लड़का पसंद आ गया और वे मेरे हाथ पीले करना चाहती हैं. लेकिन पापा चाहते हैं कि मैं कम से कम डिगरी तो ले लूं. लेकिन मां को डर है कि कहीं मैं भी तुम्हारी तरह प्रेमविवाह न कर लूं,’’ कहतेकहते आदर्श का चेहरा तमतमा आया.
उस ने आहत भाव से आदर्श को देखा.