Hindi Romantic Story: इश्क वाला लव – मिस रुशाली की तिरछी नजर का तीर

Hindi Romantic Story: जब से मिस रुशाली की प्यार भरी नजर मु झ पर पड़ी थी, तब से मानो मैं तो जी उठा था. हमारे दफ्तर के सारे मर्दों में मैं ही तो सिर्फ शादीशुदा था और उस पर एक बच्चे का बाप भी. ऐसे में मिस रुशाली पर मेरा जादू चलना किसी चमत्कार से कम न था. पर अब जब यह चमत्कार हो गया था, तब ऐसे में सभी को आहें भरते देख मैं खुद पर नाज कर बैठा था.

‘‘मैं ने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि उस विशाल पर मिस रुशाली फिदा होंगी. पता नहीं, उस हसीना को उस ढहते हुए बूढ़े बरगद के पेड़ में न जाने क्या नजर आया, जो उसे अपना दिल दे बैठी?’’ लंच करते वक्त रमेश आहें भरता हुआ सब से कह रहा था.

‘‘हां भाई, अब यह बेचारा दिल ही तो है. अब यह किसी गधे पर आ जाए, तो इस में उस कमसिन मासूम हसीना का क्या कुसूर?’’ राहुल के इस मजाक पर सभी खिलखिला कर हंस पड़े.

कैंटीन में घुसते वक्त जब मैं ने अपने साथियों की ये बातें सुनीं, तो मैं मन ही मन इतरा उठा और अपना लंच बौक्स उठा कर दोबारा अपनी सीट पर आ कर बैठ गया.

अपने दफ्तर के सारे आशिकों के जलते हुए दिलों से निकलती हुई आहें मेरे मन को ऐसा सुकून दे रही थीं कि मैं खुशी के चलते फिर कुछ खा न पाया.

तब मैं ने चपरासी से कौफी मंगाई और कौफी पी कर फिर से अपने काम में जुट गया. वैसे तो उस समय मैं लैपटौप पर काम कर रहा था, पर मेरा ध्यान तो मिस रुशाली के इर्दगिर्द ही घूम रहा था.

सलीके का पहनावा, तीखे नैननक्श, सुल झे हुए बाल और उस पर मदमस्त चाल. सच में मिस रुशाली एक ऐसा कंपलीट पैकेज है, जिस के लिए जितनी भी कीमत चुकाई जाए, कम है.

अब तो मिस रुशाली के सामने मुझे अपनी पत्नी प्रिया की शख्सीयत बौनी सी लगने लगी थी. वैसे, प्रिया में एक पत्नी के सारे गुण थे और मैं उसे प्यार भी करता था, पर मिस रुशाली से मिलने के बाद मुझे लगने लगा था कि कुछ तो ऐसा है मिस रुशाली में, जो प्रिया में नहीं है.

शायद, मु झे मिस रुशाली से इश्क वाला लव हुआ है, जो शायद उस लव से ज्यादा है, जो मैं अपनी पत्नी प्रिया से करता था, इसलिए तो मिस रुशाली मेरे मन में बसती जा रही थी.

इधर मेरा प्यार परवान चढ़ रहा था, तो उधर मिस रुशाली का जादू मेरे सिर चढ़ कर बोलने लगा था.

लौंग ड्राइव, पांचसितारा होटल में डिनर, महंगे उपहार पा कर मिस रुशाली मु झ पर फिदा हो गई थी. जब भी मैं उस की बड़ीबड़ी  झील सी आंखों में अपने प्रति उमड़ रहे प्यार को देखता, तब मेरा दिल जोरजोर से धड़कने लगता था.

अब तो सिर्फ इसी बात की इच्छा होती कि न जाने ऐसा वक्त कब आएगा, जब मिस रुशाली की प्यार भरी नजरें मु झ पर मेहरबान होंगी और उस प्यार भरी बारिश में मेरा मन भीग जाएगा.

बस, इसी कल्पना की चाह में मैं फिर से जी उठा था. ऐसा लगता था, मानो मैं उस मंजिल को पा गया हूं, जहां धरती और आसमान एक हो जाते हैं.

पर प्रिया मेरे अंदर आए इस बदलाव से कैसे अछूती रह पाती? अब उस की सवालिया नजरें मु झ पर उठने लगी थीं. पर मैं चुप था, क्योंकि मु झे एक सही मौके की तलाश जो थी.

रात को सोते वक्त जब कभी प्रिया मेरे नजदीक आने की कोशिश करती, तब मैं जानबू झ कर उस की अनदेखी कर देता था.

तब मैं तो मुंह फेर कर सो जाता और वह आंसू बहाती रहती. मु झे उस का रोना अखरता था, पर मैं क्या करता? मैं अपने दिल के हाथों मजबूर जो था.

बीतते समय के साथ मेरी मिस रुशाली को पाने की चाह बढ़ने लगी थी, क्योंकि मिस रुशाली की बड़ीबड़ी आंखों में मेरे प्रति प्यार का सागर तेजी से हिलोरें जो लेने लगा था.

अब मु झे लगने लगा था कि शायद सही वक्त आ गया है, जब मु झे प्रिया से तलाक ले कर मिस रुशाली को अपना बनाना होगा, तभी मेरी इस उमस भरी जिंदगी में खुशियों के फूल खिल पाएंगे.

अभी मैं सही मौके की तलाश में था कि अचानक मेरी किस्मत मु झ पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान हो गई. प्रिया के मामाजी के अचानक बीमार होने के चलते वह पूरे 3 दिन के लिए आगरा क्या गई, मु झे तो मानो दबा हुआ चिराग मिल गया.

‘सुनो, मैं आगरा जा रही हूं. तुम्हारा खाना कैसरोल में रखा है,’ प्रिया अपना सामान पैक करते हुए फोन पर मु झ से कह रही थी.

‘‘तुम जल्दी से निकलो. मेरे खाने

की चिंता मत करो, वरना तुम्हारी शाम वाली बस छूट जाएगी,’’ मैं खुशी के मारे हड़बड़ा रहा था.

‘हां जी, वह तो ठीक है. मैं ने श्यामा को बोल दिया है कि वह सुबहशाम आप का मनपसंद खाना बना दिया करेगी,’ प्रिया अभी भी मेरे लिए परेशान थी.

‘‘प्रिया, मैं तो चाह रहा था कि मैं दफ्तर से जल्दी निकल कर तुम्हें बसस्टैंड पर छोड़ आऊं, पर क्या करूं, इतना ज्यादा काम जो है,’’ मैं ने अपनी चालाकी दिखाते हुए कहा.

‘नहीं जी, आप अपना काम करो. मैं चली जाऊंगी,’ इतना कह कर प्रिया ने फोन रख दिया.

प्रिया का इस तरह अचानक चले जाना मु झे एक अनजानी सी खुशी दे गया. मैं बावला सा कभी सोचता कि यहां दफ्तर में ही मिस रुशाली को सबकुछ बता कर अपने घर ले जाऊं.

पर फिर बहुत सोचने के बाद मु झे यही लगा कि मैं अपने घर पहुंच कर फ्रैश होने के बाद ही मिस रुशाली से मिलने जाऊंगा.

जब वह अचानक मु झे देखेगी, तब मु झ पर चुंबनों की बरसात कर देगी और उस प्यारभरी बारिश में भीग कर हम दोनों दो जिस्म एक जान बन जाएंगे.

बस फिर क्या था. मैं तुरंत घर पहुंचा और अच्छी तरह तैयार हो कर मिस रुशाली के पास पहुंच गया.

दरवाजे की घंटी बजाने पर दरवाजा रुशाली ने नहीं, बल्कि एक मोटी सी औरत ने खोला.

‘‘मिस रुशाली…’’

‘‘वह ऊपर रहती है,’’ उस औरत ने बेरुखी से कहा.

फिर मैं ऊपर चढ़ गया. जब मैं रुशाली के कमरे में पहुंचा, तब मैं ने देखा कि वह किसी चालू फिल्मी गाने पर थिरक रही थी. कमरे में चारों तरफ कपड़े बिखरे पड़े थे और जूठे बरतन यहांवहां लुढ़के पड़े थे.

‘‘अरे तुम, अचानक…’’ मु झे अचानक सामने देख वह हड़बड़ा गई, ‘‘वह क्या है न, आज मेड नहीं आई.’’

रुशाली यहांवहां पड़ा सामान समेटने लगी. फिर उस ने सामने पड़ी कुरसी पर पड़ी धूल साफ की और मु झे बैठने का इशारा किया. फिर वह मेरे लिए पानी लेने चली गई.

रुशाली के जाने के बाद जब मैं ने कमरे में चारों तरफ नजर घुमाई, तो गर्द की जमी मोटी सी परत को पाया.

इतना गंदा कमरा देख मेरा जी मिचलाने लगा. अब धीरेधीरे मु झे अपनी प्रिया की कद्र सम झ आने लगी थी. वह तो सारा घर शीशे की तरह चमका कर रखती है, तब भी मैं उसे टोकता ही रहता हूं, पर यहां तो गंदगी का ऐसा आलम है कि पूछो मत.

‘‘कुछ खाओगे क्या?’’ पानी का गिलास देते हुए रुशाली मु झ से पूछ बैठी.

‘‘हां… भूख तो लगी है.’’

‘‘ये लो टोस्ट और चाय,’’ थोड़ी देर में रुशाली मु झे चाय की ट्रे थमाते हुए बोली.

डिनर में चाय देख कर मेरे सिर पर चढ़ा इश्क का रहासहा भूत भी उतर गया.

‘‘वह क्या  है न… मु झे तो बस यही बनाना आता है, क्योंकि सारा खाना तो मेरी आंटी ही बनाती हैं. पेईंग गैस्ट हूं मैं उन की,’’ रुशाली अपना पसीना पोंछते हुए बोली, तो मैं सम झ गया कि अब तक मैं जो कुछ भी रुशाली के लिए महसूस कर रहा था, वह सिर्फ एक छलावा था. मेरा उखड़ा मूड देख कर तुरंत रुशाली ने अपना अगला पासा फेंका.

वह तुरंत मेरे पास आई और बेशर्मी से अपना गाउन उतारने लगी.

‘‘क्या कर रही हो यह…’’ मैं गुस्से से तमतमा उठा.

‘‘अरे, शरमा क्यों रहे हो? जो करने आए थे, वह करे बिना ही वापस चले जाओगे क्या?’’ इतना कह कर वह मु झ से लिपटने लगी.

उसे इस तरह करते देख मैं हड़बड़ा गया. इस से पहले कि मैं खुद को संभाल पाता, उस ने मु झे यहांवहां चूमना शुरू कर दिया.

तभी अचानक मेरे गले में पड़ा लौकेट उस के हाथ में आ गया, जिस

में मेरी बीवी प्रिया और अंशुल का

फोटो था.

‘‘ओह, तो यह है तुम्हारी देहाती पत्नी… अरे, इसे तलाक दे दो और मेरे नाम अपना फ्लैट कर दो, फिर देखो कि मैं कैसे तुम्हें जन्नत का मजा दिलाती हूं?’’ इतना कह कर वह मु झ से लिपटने की कोशिश करने लगी.

‘‘प्यार बिना शर्त के होता है रुशाली,’’ मैं उस समय सिर्फ इतना ही कह पाया.

‘‘आजकल कुछ भी मुफ्त नहीं मिलता, मिस्टर. हर चीज की कीमत होती है और हर किसी को वो कीमत चुकानी ही पड़ती है,’’ इतना कह कर रुशाली जोर से हंस पड़ी.

रुशाली के प्यार का यह घिनौना रूप देख मैं टूट सा गया और उसे धक्का दे कर बाहर आ गया.

हारी हुई नागिन की तरह रुशाली जोर से चीखते हुए बोली, ‘‘विशाल, मेरा डसा तो पानी भी नहीं मांगता, फिर तुम क्या चीज हो?’’

पर मैं तब तक अपनी कार में बैठ चुका था और मेरे इश्क वाले लव का भूत उतर चुका था. Hindi Romantic Story

Story In Hindi: क्या जादू कर दिया – चंपा बनी ‘चंपालाल’

Story In Hindi: चंपा अपने गांव के बसअड्डे पर बस से उतर कर गलियां पार कर के अपने घर की ओर जा रही थी. वह रोजाना सुबह कालेज जाती थी, फिर दोपहर तक वापस आ जाती थी.

चंपा इस गांव के बाशिंदे भवानीराम की बेटी थी. वे चंपा को कालेज पढ़ाना नहीं चाहते थे, मगर चंपा की इच्छा थी और उस के टीचरों के दबाव देने पर वे उसे पढ़ाने के लिए शहर भेजने को राजी हो गए.

जैसे ही चंपा का कालेज में दाखिला हुआ, उस की सहेलियों ने खुशियां मनाईं. वे सब चंपा को पढ़ाकू सम झती थीं और उसे चाहती भी खूब थीं.

जब चंपा गांव के हायर सैकेंडरी स्कूल में पढ़ती थी, तब पूरी जमात में उस का दबदबा था. अगर कोई लड़का ऊंची आवाज में बोल देता था, तब वह उसे ऐसी नसीहत देती थी कि वह चुप हो जाता था. इसी वजह से वह अपनी सहेलियों की चहेती बनी हुई थी.

गांव में भी चंपा की धाक थी. कोई भी बदमाश लड़का उस से कुछ नहीं कहता था. कहने वाले दबी जबान में कहते थे कि यह चंपा नहीं, बल्कि ‘चंपालाल’ है.

अभी चंपा गली का नुक्कड़ पार कर ही रही थी कि दिनेश, जो गांव का एक आवारा लड़का था और शहर के कालेज में पढ़ता था, न जाने कब से उस के पीछेपीछे आ रहा था.

दिनेश उस का रास्ता रोकते हुए बोला, ‘‘कहां जा रही हो चंपा?’’

‘‘अपने घर,’’ हंसते हुए चंपा बोली.

‘‘कभी हमारे घर भी चलो,’’ उस के जिस्म को घूरते हुए दिनेश बोला.

‘‘तुम्हारे घर क्यों भला?’’ चंपा ने हैरानी से पूछा.

‘‘मेरा कहना मानोगी, तो मैं तुम्हें मालामाल कर दूंगा,’’ दिनेश ने लालच देते हुए कहा.

चंपा जानती थी कि दिनेश गांव के रईस मांगीलाल का बिगड़ैल बेटा है. उसे पैसों का खूब घमंड है, इसलिए सारा दिन गांव में आवारागर्दी करता है. लड़कियों को छेड़ना उस की आदत है. उस की करतूत जगजाहिर है, मगर अपनी इज्जत के डर से कोई भी गांव का आदमी उस के मुंह नहीं लगता है.

चंपा को चुप देख कर दिनेश बोला, ‘‘क्या सोच रही हो चंपा? मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया?’’

चंपा ने देखा कि जिस मोड़ पर वे दोनों खड़े थे, उस के आसपास जितने भी मर्दऔरत अपने घरों में बैठ कर बातें कर रहे थे, उन्होंने अपने दरवाजेखिड़कियां बंद कर ली थीं. दिनेश का डर उन के भीतर बैठा हुआ था. ऐसा लग रहा था कि कर्फ्यू लगा हुआ है.

दिनेश जब भी शहर से गांव में आता था और वहां की गलियों में घूमता था, तो उस के डर से सन्नाटा छा जाता था.

आज चंपा का उस से पहली बार सामना हुआ था, इसलिए उस ने भीतर ही भीतर उस से सामना करने के लिए अपने को तैयार कर लिया था.

‘‘चंपा, तू क्या सोचने लगी?’’ उसे चुप देख कर दिनेश ने फिर कहा, ‘‘तू ने जवाब नहीं दिया?’’

‘‘मैं ने जवाब दे तो दिया, शायद तुम ने सुना नहीं. बहरे हो क्या?’’

‘‘क्या कहा, मैं बहरा हूं? शायद तू मु झे जानती नहीं है?’’

‘‘अरे, तु झे तो सारा गांव जानता है,’’ चंपा ने कहा.

‘‘तब फिर क्यों तू दादागीरी कर

रही है?’’

‘‘मैं एक लड़की हूं. मैं क्या दादागीरी करूंगी. गांव का दादा तो तू है,’’ चंपा उसी तरह से जवाब देते हुए बोली.

‘‘जैसा मैं ने सुना था, तू वैसी ही निकली. सुना है, कालेज में भी तू दादा बन कर रहती है?’’ दिनेश ने पूछा.

‘‘मैं ने पहले ही कहा, मैं क्या दादागीरी करूंगी. मगर अब लड़कियां इतनी कमजोर भी नहीं हैं कि हर कोई उन की कमजोरी का फायदा उठा सके,’’ कह कर चंपा ने अपने इरादे जाहिर कर दिए.

दिनेश कोई जवाब नहीं दे पाया. गली में पूरी तरह सन्नाटा था. मगर फिर भी लोग खिड़की खोल कर  झांकने की कोशिश कर रहे थे. उन के भीतर एक डर बैठा हुआ था कि आज चंपा दिनेश के सामने आ गई है.

दिनेश बोला, ‘‘बहुत अकड़ कर बात कर रही है. मैं तेरी यह अकड़ निकाल दूंगा. चल, मेरे साथ. बहुत जवानी का जोश है तु झ में,’’ कह कर दिनेश ने चंपा का हाथ पकड़ लिया.

चंपा गुस्से में चीखते हुए बोली, ‘‘छोड़ दे मेरा हाथ. मैं वैसी लड़की नहीं हूं, जैसा तू सम झ रहा है.’’

‘‘मैं एक बार जिस लड़की का हाथ पकड़ लेता हूं, फिर छोड़ता नहीं हूं,’’ दिनेश ने कहा.

‘‘ये फिल्मी डायलौग मत बोल. चुपचाप मेरा हाथ छोड़ दे.’’

‘‘यह तू नहीं, तेरी जवानी बोल रही है. चल मेरे साथ, जवानी का सारा जोश ठंडा कर देता हूं,’’ कह कर दिनेश उस को घसीट कर ले जाने लगा.

तब चंपा चिल्ला कर बोली, ‘‘मर्द है तो मर्द की तरह बात कर. यों कमरे में बंद कर के क्यों अपनी मर्दानगी दिखा रहा है. अगर तुझे अपनी मर्दानगी दिखानी है, तो यहीं दिखा. उतारूं कपड़े?’’ कहते हुए उस ने अपनी टीशर्ट उतार दी.

दिनेश थोड़ा ढीला पड़ गया. तब चंपा अपना हाथ छुड़ाते हुए बोली, ‘‘क्या सोच रहा है, और उतारूं कपड़े? बुझा ले अपनी प्यास,’’ कहते हुए उस ने टीशर्ट घुमा कर दिनेश को दे मारी.

‘‘मगर एक बात याद रख, गांव की किसी लड़की पर बुरी नजर नहीं रखनी चाहिए. लड़की कमजोर नहीं है. छोड़

दे बुरी नजर. फिर हर औरत को कमजोर भी मत सम झ. इसलिए कहती हूं

कि पैसों का घमंड छोड़ दे. यह एक

दिन तु झे ले डूबेगा,’’ चंपा ने सम झाते हुए कहा.

सारा महल्ला देखता रह गया. लोग बाहर निकल आए. लड़की के हाथों पिटे दिनेश का मुंह छोटा हो गया.

इतना कह कर चंपा वहां से

चली गई.

दिनेश गुस्से से भरा वहीं खड़ा रह गया. आज एक लड़की से हार गया, जो उसे चुनौती दे गई. चुनौती भी ऐसी, जिसे वह पूरा नहीं कर सके. आज तक गांव वालों में से किसी की भी हिम्मत नहीं थी कि कोई उस के खिलाफ बोले, उसे चुनौती दे, मगर आज चंपा ने इस कदर उस को चुनौती दे डाली. वह उस का विरोध नहीं कर सका.

दिनेश ने जब गली की तरफ देखा, तो सभी मर्दऔरत दरवाजा खोल कर उसे हैरत भरी नजरों से देख रहे थे. वह उन से नजरें नहीं मिला सका और चुपचाप अपनी हवेली की तरफ चल दिया.

सारे गली वाले मानो एक ही सवाल अपनेआप से पूछ रहे थे कि चंपा ने दिनेश पर ऐसा क्या जादू किया, जो नीची गरदन कर के चला गया? सभी एकदूसरे से आंखों ही आंखों में इशारा कर रहे थे, मगर कुछ समझ नहीं पा रहे थे. सभी के दिमाग में एक ही बात बैठ चुकी थी कि चंपा की अब खैर नहीं. उस ने दिनेश

से पंगा ले कर अपने ऊपर मुसीबत मोल ले ली है. वह गांव का बहुत बड़ा गुंडा है. पैसों के बल पर वह कुछ भी कर सकता है.

इस घटना से गांव में दहशत फैल गई. सभी गांव वाले खामोश हो गए.

अगले दिन चंपा कालेज पहुंची, तो हीरो बन गई थी. दिनेश की हिम्मत अब टूट चुकी थी.

चंपा कालेज नहीं छोड़ना चाहती थी, इसलिए उस ने भी हालात से सम झौता कर लिया.

इस घटना के कुछ दिनों बाद दिनेश में बहुत बड़ा बदलाव दिखा. पहले वह हमेशा गुंडा बन कर रहा करता था, अपने को सब से बड़ा सम झता था.

आमतौर पर अब वह चंपा के साथ कैंटीन में चाय पीता दिखता. वह अपने दोस्तों से कहता, ‘‘यह रही टीशर्ट… मार चंपा.’’

यह सुन कर चंपा शर्म से लाल हो जाती.

दिनेश शरीफ हो चुका था. गांव की किसी लड़की या किसी बहू को अब वह बुरी नजर से नहीं देखता था. उस पर चंपा ने उस दिन ऐसा क्या जादू कर दिया, यह आज तक राज बना हुआ था. Story In Hindi

Hindi Family Story: अनचाहा बंधन – रिश्तों का बोझ ढोती आशा

Hindi Family Story: कुदरत ऐसे 2 लोगों को क्यों मिलाती है, जो उन्हें एक कर सके, ऐसा कोई रास्ता ही नहीं बनाया होता है? न जाने कैसे रह पाते हैं वे, जैसे कंठ में विष हो, जो न निगला जाए और न उगला जाए? ऐसा ही कुछ आशा और देबू के साथ हुआ.

‘‘पापा, क्यों की आप ने मेरी शादी वहां? क्या जल्दी थी आप को मुझे घर से निकालने की? कितना कहा कि 1-2 साल दे दो मुझे, मैं आगे पढ़ना चाहती हूं. बाद में कर देना शादी मेरी…’’

पापा बोले, ‘‘बाद में क्या हो जाता? तब कुछ बदल जाता क्या?’’

आशा इन्हीं खयालों में खोई हुई थी कि कैसे शादी के थोड़े समय बाद ही उस ने पापा से यह शिकायत की थी, लेकिन पापा ने इस मामले में कुछ खास दिलचस्पी नहीं ली थी.

आशा को याद आ गए वे दिन… बीए ही तो किया था उस ने. आगे पढ़ना चाहती थी वह, लेकिन पापा नहीं माने. वे शादी के लिए जल्दी करने लगे और आननफानन में 4-5 लड़के देख कर ही थक गए और एक जगह हां कर दी.

लड़के वाले भी तैयार थे और शादी कर दी गई. आशा ने कहा भी था, ‘‘एक बार हम दोनों को मिलना चाहिए, बात करनी चाहिए.’’

लेकिन कोई नहीं माना और आखिर में वही हुआ, जिस का डर था. दोनों के विचार नहीं मिलते थे, सोच नहीं मिलती थी, पसंद नहीं मिलती थी. लड़का

कम पढ़ालिखा था, छोटी सोच, हर पल निगाहों में शक, कहां तक सहे कोई, लेकिन और कोई रास्ता भी तो नहीं था.

आशा उस दिन को याद कर के कोसती है, जब…

‘‘आशा, अरे ओ आशा, क्या कर रही है?’’

‘‘कुछ नहीं मम्मी, मैं ये प्रोस्पैक्टस देख रही थी.’’

‘‘क्या देख रही है इस में?’’

‘‘अरे मम्मी, एडमिशन की आखिरी तारीख कौन सी है, यह देख रही थी.’’

‘‘बेटा, कितनी बार कहा है कि तेरे पापा नहीं चाहते कि तू आगे पढ़े. बीए तो कर लिया, बस बहुत है. अब जाओ अपने घर.’’

‘‘मम्मी, कितनी बार कहा आप से, पापा से कहो न कि एक साल का तो कोर्स है, करने दें, उस के बाद जहां ब्याहना है, ब्याह देना. और यह ‘अपने घर’ क्या होता है? क्या यह घर मेरा नहीं है?’’

‘‘बेटा, शादी के बाद ससुराल ही औरत का अपना घर होता है.’’

लेकिन आशा मां से बहस न कर के चुप हो जाती. सोचा था कि 2 साल का कोर्स है, मगर एक साल का झूठ बोल कर एक बार एडमिशन हो जाए तो 2 साल तो फिर पार कर ही लेंगे. नहीं मालूम था कि भविष्य में तो कुछ और ही था.

शादी के बाद रोज का यही हाल…

‘‘किस के खयालो में खोई हो? कहां खो जाती हो? कभी रोटी जल गई, कभी सब्जी में नमक ज्यादा, तो कभी दूध उबल गया… आखिर कौन से यार की याद सताती है तुम्हें? काम में तो ध्यान होता ही नहीं…’’

‘‘देबू, आप से कितनी बार कहा मैं ने कि ऐसा कुछ भी नहीं है जैसा आप कह रहे हो. मेरी जिंदगी में आप के सिवा न कोई था, न होगा,’’ आशा अपने पति देबू को समझाती.

‘‘अच्छा, कालेज में कोई जाए और इश्क न हो, ऐसा कैसे हो सकता है…’’

‘‘कालेज इश्क करने के लिए तो नहीं, और सभी एकजैसे भी नहीं होते. जिन्हें इश्क करना है, बिना कालेज गए भी करते हैं.’’

इस तरह रोज की खिटपिट में 3 साल गुजर गए.

आज आशा को सुबह से चक्कर आ रहे थे. देबू औफिस गए हुए थे. किस से कहती, खुद ही चली गई डाक्टर के पास. चैकअप कराया तो पता चला कि एक वह महीने के पेट से है. मन में खुशी की लहर दौड़ गई कि शायद अब देबू का बरताव उस के प्रति अच्छा हो जाए.

घर आ कर आशा खुशी से देबू का इंतजार करने लगी. रात को जैसे ही बिस्तर पर गई तो देबू के गले में बांहें डाल कर चूम लिया उसे.

इस पर देबू ने झटके से उसे अलग किया और बोला, ‘‘यह क्या बचपना है… ऐसी कौन सी लौटरी लगी है, जो इतना खुश हो?’’

आशा ने धीरे से कहा, ‘‘लौटरी से भी बढ़ कर खुशी है.’’

अब आशा से रहा नहीं गया और बोल ही दिया, ‘‘मैं मां बनने वाली हूं और आप पापा.’’

‘‘तुम मां बनने वाली हो, यह तो ठीक है, मगर पापा मैं ही हूं या तुम्हारा कोई यार…’’

यह सुन कर आग सी लग गई आशा के तनमन में. नहीं सह पाई वह इतनी जिल्लत. एक झटके से उठी और भागी छत की ओर. बस उस ने इतना ही कहा, ‘‘जब हम दोनों को एकदूसरे के लिए बनाया ही नहीं था, तो मिलाया ही क्यों? क्यों बांधा यह अनचाहा बंधन?’’

आशा छत से कूद चुकी थी. थोड़ी देर में वहां एक एंबुलैंस आई. लेकिन उस में अब कुछ भी नहीं रहा था. डाक्टर ने न में सिर हिलाया. एंबुलैंस खाली चली गई. Hindi Family Story

Best Hindi Story: लावारिस – सुनयना की चाह

Best Hindi Story: ‘‘तुम्हें गोली लेने को कहा था,’’ प्रमोद ने शिकायत भरे लहजे में कहा.

‘‘मैं ने जानबूझ कर नहीं ली,’’ सुनयना ने कहा.

‘‘पागल हो गई हो,’’ अपने कपड़े पहन चुके और बालों में कंघी करते हुए प्रमोद ने कहा.

‘‘बच्चा जिंदगी में खुशियां लाता है, घर में चहलपहल हो जाती है और बुढ़ापे का सहारा भी बनता है,’’ सुनयना ने प्रमोद को सम झाया.

‘‘बंद करो अपनी बकवास. मैं तुम से बच्चा कैसे चाह सकता हूं. मेरी तो सोशल लाइफ ही खत्म हो जाएगी,’’ गुस्से से चिल्लाते हुए प्रमोद ने कहा.

‘‘तो आप को खुद ध्यान रखना चाहिए था. मैं ने आप से कंडोम का इस्तेमाल करने को कहा था.’’

‘‘मु झे मजा नहीं आता. आजकल तो औरतों के कंडोम भी आते हैं, तुम्हें इस्तेमाल करने चाहिए.’’

‘‘जो भी हो, इस बार मैं बच्चा नहीं गिरवाऊंगी,’’ सुनयना ने दोटूक कहा.

‘‘तो तुम पछताओगी,’’ धमकता हुआ प्रमोद बोला. फिर दरवाजा खोल वह बाहर चला गया.

प्रमोद कारोबारी था. उस के पास खूब दौलत थी. घर में खूबसूरत पत्नी थी और 3 बच्चे थे.

प्रमोद ने अपना दिल बहलाने के लिए एक रखैल सुनयना रखी हुई थी. उस को फ्लैट ले कर दिया हुआ था. मिलने के लिए वह हफ्ते में 2-3 दफा वहां आता था. कभीकभी वह उसे बिजनैस टूर पर भी ले जाता था.

सुनयना तकरीबन 3 साल से प्रमोद के साथ थी. बीचबीच में 3-4 बार वह पेट से भी हुई थी, लेकिन चुपचाप पेट साफ करवा आई थी.

एक रात मेकअप करते समय सुनयना की नजर अपने चेहरे पर उभरती  झुर्रियों और सिर में 3-4 सफेद बालों पर पड़ी. उसे चिंता हो गई कि अगर उस का ग्लैमर खत्म हो गया, तब क्या होगा?

प्रमोद को कोई और जवान रखैल मिल जाएगी. ऐसी औरतों को बुढ़ापे में कौन पूछता है.

सुनयना के पास प्रमोद द्वारा दिए गए जेवर काफी थे. बैंक के लौकर में जमापूंजी भी काफी थी. अपने मातापिता को पैसे भेजने के बाद भी उस के पास अच्छीखासी रकम बच जाती थी.

उसी रात सुनयना ने सोचा कि अगर उसे प्रमोद से एक बच्चा हो जाए, तो वह उस के बुढ़ापे का सहारा बन जाएगा.

इस के बाद से सुनयना ने पेट से न होने वाली गोलियों को खाना बंद कर दिया था. प्रमोद भी कंडोम का इस्तेमाल कम ही करता था. नतीजतन, सुनयना पेट से हो गई.

प्रमोद गुस्से से लालपीला हो रहा था. कल को सुनयना उसे ब्लैकमेल कर सकती थी.

3-4 दिन बाद प्रमोद सुनयना से मिलने आया और उस से पूछा, ‘‘बच्चा गिरवाया कि नहीं?’’

‘‘मैं ने तुम से कहा था न कि मैं बच्चा चाहती हूं.’’

‘‘तुम से मेरा बच्चा कैसे हो

सकता है?’’

‘‘क्यों नहीं हो सकता? यह बच्चा मेरे बुढ़ापे का सहारा बनेगा.’’

उस शाम को प्रमोद सुनयना के पास जैसे आया था, वैसे ही चला गया. उस के मन में एक ही सवाल उठ रहा था कि अगर सुनयना उस के बच्चे को जन्म देगी, तो क्या होगा?

‘‘मेरे पेट में पल रहे बच्चे के पीछे आप क्यों पड़े हैं? आप मु झे जवाब दे दें, तो कहीं और मैं चली जाती हूं,’’ अगली बार प्रमोद के आने पर सुनयना ने पूछा.

‘‘बच्चा मुझसे है. नाजायज है, मेरे लिए वह परेशानी खड़ी कर सकता है.’’

‘‘क्या परेशानी खड़ी कर सकता है वह?’’

‘‘मेरा वारिस बनने का दावा कर सकता है.’’

‘‘ऐसा कैसे हो सकता है? मैं बताऊंगी तभी न.’’

‘‘बच्चा कल को पूछ भी तो सकता है कि उस का पिता कौन है?’’

‘‘लेकिन, मैं एक बच्चा चाहती हूं.’’

‘‘इस को गिरवा कर तुम किसी और से बच्चा गोद ले लो.’’

‘‘फर्ज करो कि वह आप से नहीं किसी और से है तब?’’

‘‘बकवास मत करो. मैं जानता हूं कि यह मु झ से है.’’

‘‘मैं आप की वफादार हूं और वफादारी का यह इनाम है.’’

यह सुन कर प्रमोद दनदनाता हुआ वहां से चला गया. वह कानूनी और सामाजिक पचड़े के बारे में सोच रहा था कि कल को अगर मैडिकल रिपोर्ट का सहारा ले कर सुनयना बच्चे को उस का बच्चा साबित कर के उस की जायदाद में से हिस्सा मांग सकती है.

प्रमोद की कशमकश को सुनयना बखूबी सम झ रही थी. उस ने चुपचाप अपना सामान समेटना शुरू कर दिया.

एक दिन वह फ्लैट छोड़ कर चली गई. 2 दिन बाद प्रमोद ने फ्लैट का चक्कर लगाया. उस को वहां सन्नाटा मिला. सुनयना कहां गई? धरती निगल गई या आसमान?

प्रमोद कुछ दिनों तक बेचैन रहा, फिर खाली फ्लैट को आबाद करने के लिए एक नई उम्र की कालगर्ल को ला कर बसा दिया.

प्रमोद को यह डर बराबर सता रहा था कि सुनयना उस के सामने उस की नाजायज औलाद को वारिस के तौर पर न ले आए.

एक दिन कार से गुजरते समय प्रमोद की नजर एक नर्सिंगहोम के बाहर रिकशे से उतरती एक औरत पर पड़ी. उस का पेट फूला हुआ था. गौर से देखने पर पता चला कि वह तो सुनयना ही थी. वह जल्दी ही बच्चा जनने वाली थी.

प्रमोद ने कार सड़क की एक तरफ रोक दी और सुनयना के बाहर निकलने का इंतजार करने लगा. लेकिन वह काफी देर तक बाहर नहीं निकली.

तब प्रमोद ने अपना मोबाइल फोन निकाला और नर्सिंगहोम के बाहर लगे बोर्ड पर लिखा मोबाइल फोन नंबर पढ़ कर उस पर फोन किया.

‘‘हैलो, यह अस्पताल का रिसैप्शन है?’’ प्रमोद ने पूछा.

‘जी हां, बोलिए.’

‘‘अभी थोड़ी देर पहले मिसिज सुनयना ने डिलीवरी के लिए विजिट किया था, क्या उन को एडमिट किया गया है?’’

‘जी हां, उन को मैटरनिटी वार्ड में एडमिट कर लिया गया है.’

‘‘थैक्यू,’’ प्रमोद ने इतना कह कर फोन काट दिया.

अब प्रमोद को सुनयना और उस के बच्चे को खत्म करना था. वह अपनी फैक्टरी पहुंचा. अभी तक उस की जिंदगी बिना रुकावट वाली रही थी. उस का अब तक किसी से पंगे वाला वास्ता नहीं पड़ा था.

प्रमोद की फैक्टरी का मैनेजर अरुण बड़ा ही धूर्त था. मालिक के कई उल झे मामले उस ने सुल झाए थे, लेकिन ऐसा पंगा कभी नहीं निबटाया था.

‘‘साहब, आप को सुनयना और उस का बच्चा क्या परेशानी दे सकता है?’’ अरुण ने पूछा.

‘‘कल को वह मेरा वारिस होने का दावा कर सकता है.’’

‘‘क्या सुनयना ने कभी ऐसा इरादा जाहिर किया है?’’

‘‘नहीं. वह तो कहती है कि बच्चा बुढ़ापे का सहारा बनेगा. वह उस बच्चे को पैदा करना चाहती है.’’

‘‘तो इस में आप को क्या परेशानी है?’’

‘‘अरे भाई, कल को वह बच्चा बड़ा हो कर मेरे सामने आ कर खड़ा हो सकता है. मेरी सोशल लाइफ खराब हो सकती है.’’

‘‘वह बच्चा आप से ही है, क्या यह बात सच है?’’

‘‘वह तो यही कहती है. मेरा भी यही विश्वास है कि वह वफादार है.’’

‘‘आप क्या चाहते हैं?’’

‘‘बच्चे और मां को खत्म करना है, खासकर बच्चे को.’’

‘‘ऐसा काम मैं ने कभी नहीं किया. फिर भी देखता हूं कि क्या हो सकता है,’’ अरुण ने कहा.

अरुण सुनयना को पहचानता था. वह नर्सिंगहोम पहुंचा. जच्चाबच्चा वार्ड में सुनयना एक बिस्तर पर लेटी थी.

‘‘एक रिश्तेदार को देखना है. एक मिनट के लिए अंदर जाने दें,’’ अरुण ने वार्ड के बाहर बैठी एक औरत से कहा. इजाजत मिलने के बाद वह अंदर गया और कुछ ही पलों में लौट आया.

सुभाष और अर्जुन सुपारी किलर थे. उन्हें सुनयना को खत्म करने की सुपारी दी गई थी. वे दोनों एक कार में बैठ कर बारीबारी से नर्सिंगहोम की निगरानी करने लगे थे.

‘‘आप यहां अकेली आई हैं? आप के साथ कोई नहीं है?’’ लेडी डाक्टर ने मुआयना करने के बाद सुनयना से पूछा.

‘‘जी, मेरी मजबूरी है,’’ इस पर लेडी डाक्टर सम झ गईं.

सुनयना कुंआरी मां बनने वाली थी. ऐसे मामले नर्सिंगहोम में आते रहते थे, लेकिन कानूनी औपचारिकता अपनी जगह थी. इलाज, डिलीवरी या औपरेशन के दौरान मरीज की मौत हो सकती थी, इसलिए किसी जिम्मेदार आदमी के फार्म पर दस्तखत कराना जरूरी था.

‘‘आप की जिम्मेदारी के फार्म पर दस्तखत कौन करेगा?’’

‘‘मैं खुद ही करूंगी.’’

‘‘ऐसा नहीं हो सकता.’’

तभी सुनयना को दर्द शुरू हो

गया. चंद मिनटों के बाद उस ने एक खूबसूरत बच्चे को जन्म दिया. सारी औपचारिकताएं धरी की धरी रह गईं.

4 दिन बाद सुनयना को छुट्टी मिल गई. बच्चे को गोद में उठाए वह नर्सिंगहोम से बाहर आई. आटोरिकशे में बैठी. उस के पीछे किराए के हत्यारों की कार लग गई.

इंस्पैक्टर मधुकर लोकल थाने के एसएचओ थे. वे चुस्त और मुस्तैद पुलिस अफसर थे. दोपहर का खाना खाने के बाद वे चंदू पनवाड़ी के यहां पान खाते थे. इस बहाने से वे इलाके का दौरा भी कर लेते थे.

नर्सिंगहोम से आटोरिकशे में बैठी सुनयना के पीछे किराए के हत्यारों की कार लगी थी. उन की यह हरकत जीप पर सवार एसएचओ मधुकर की निगाह में आ गई. उन के एक इशारे पर ड्राइवर ने जीप कार के पीछे लगा दी.

आटोरिकशा एक बस्ती में पहुंचा. सुनयना उतरी, भाड़ा चुकाया और अपने किराए के कमरे की तरफ बढ़ी. पीछे आ रही कार थमने लगी. तभी सुभाष की नजर पीछे से आ रही जीप पर पड़ी.

‘‘अर्जुन, कार मत रोकना. पीछे एसएचओ आ रहा है,’’ सुभाष ने कहा, तो अर्जुन ने कार की रफ्तार बढ़ा दी.

एचएचओ मधुकर ने जीप में सादा कपड़ों में बैठे एक पुलिस वाले को इशारे से कुछ सम झाया. वह पुलिस वाला सुनयना की निगरानी करने लगा. कार का नंबर नोट कर मधुरकर ने पुलिस कंट्रोल रूम को भेज दिया.

चंद मिनटों में शहर के खासखास इलाकों में तैनात पुलिस की गाडि़यों को उस कार के बारे में हिदायतें मिल गईं. एक चौराहा पार करते समय एक कार उस कार के पीछे लग गई. उस कार में सादा ड्रैस में मुखबिर थे.

एसएचओ मधुकर थाने पहुंचे. थोड़ी देर में उन का मोबाइल फोन बजा, ‘सर, उस कार में 2 लोग हैं, जो अपराधी नहीं दिख रहे हैं,’ मुखबिर ने खबर दी.

‘‘ठीक है, तुम उन पर निगाह रखो,’’ इंस्पैक्टर मधुकर बोले.

थोड़ी देर बाद एक बस्ती में

तैनात मुखबिर का फोन आया, ‘‘साहब, खतरा है.’’

‘‘क्या खतरा है?’’

‘‘जान जाने का. और क्या खतरा हो सकता है?’’

‘‘तू उन मवालियों को पहचानता

है क्या?’’

‘‘नहीं. पर मेरा अंदाजा है कि इस इलाके का खबरिया राम सिंह भी नहीं पहचानता होगा.’’

‘‘तब हम क्या करें?’’

‘‘इस बाई की हिफाजत और निगरानी.’’

‘‘खतरे की वजह?’’

‘‘इस का बच्चा.’’

‘‘क्या…’’

‘‘तेरी इस क्या का जवाब फिलहाल मेरे पास नहीं है.’’

सुनयना नहीं जानती थी कि वह पुलिस के जासूसों की नजर में आ

चुकी है.

‘‘सेठ की माशूका और उस के बच्चे के ठिकाने का पता हम ने लगा लिया है. जल्दी ही वे दोनों को मार देंगे,’’ प्रमोद के मैनेजर अरुण को सुपारी लेने वाले

ने बताया.

‘‘ठीक है. मेरा और सेठ का नाम नहीं आना चाहिए,’’ अरुण ने कहा.

‘‘आप तसल्ली रखें.’’

बच्चे के जन्म के बाद सुनयना ने अपनी एक सहेली मीरा को फोन किया, जो उस के बारे में सबकुछ जानती थी.

‘‘अरी, तेरे और तेरे बच्चे को मरवाने का ठेका दिया है सेठ ने,’’ उस की सहेली मीरा ने बताया.

‘‘क्या? उस को कैसे पता चला?’’

‘‘वह तेरे पीछे शुरू से ही लगा है.’’

‘‘तु झे किस ने बताया?’’

‘‘तेरी जगह फ्लैट में आई उस नई लड़की ने.’’

‘‘अब मैं क्या करूं?’’ सुनयना

ने पूछा.

‘‘अपना ठिकाना बदल ले.’’

‘‘ठीक है,’’ सुनयना बोली.

दोनों सुपारी किलर सुभाष और अर्जुन आपस में सलाह कर रहे थे.

‘‘बाई इस बस्ती में है. कल उस का घर ढूंढ़ कर उसे खत्म कर देते हैं,’’ सुभाष ने कहा.

सुबह सुनयना बच्चे को कुनकुने पानी से नहला कर साफ कपड़े में लपेट चुकी थी. वह सोच रही थी कि कहां जाए? तभी उस को अपनी पुरानी

सहेली प्रेमलता का ध्यान आया. वह एक अनाथालय की मैनेजर थी.

सुनयना बच्चे को गोद में ले कर बाहर आई. उस ने एक आटोरिकशा किया. आटोरिकशे के चलते ही मवालियों की कार पीछे लगी. उस की खबर पुलिस कंट्रोल रूम को भी हो गई.

आटोरिकशा अनाथालय के बाहर रुका.

‘‘थोड़ी देर इंतजार करो. मैं अभी आई,’’ सुनयना ने आटोरिकशे वाले से कहा.

सुनयना को देखते ही प्रेमलता मुसकराई, ‘‘अरे सुनयना, तुम यहां

कैसे आई?’’

‘‘मैं मुसीबत में फंस गई हूं. जरा

यह बच्चा संभाल. मैं थोड़ा ठहर

कर आऊंगी,’’ बच्चा देते हुए सुनयना

ने कहा.

‘‘यह किस का बच्चा है?’’ प्रेमलता ने पूछा.

‘‘मेरा है,’’ सुनयना बोली.

‘‘तेरा है? तू ने शादी कर ली क्या?’’ प्रेमलता ने पूछा.

‘‘फिर बताऊंगी. शाम को आऊंगी. कुछ दिक्कत है.’’

प्रेमलता ने बच्चा थामा. सुनयना आटोरिकशे में बैठ रेलवे स्टेशन की ओर चली गई.

‘‘उस्ताद, बाई यतीमखाने में गई थी. वहां अपना बच्चा दे आई है, अब क्या करें?’’ सुभाष ने अर्जुन से पूछा.

‘‘सेठ कहता है कि बच्चे को पहले खत्म करना है. यतीम खाने में चलते हैं. बाई को फिर मारेंगे.’’

कार एक तरफ खड़ी कर वे दोनों सुपारी किलर अनाथालय में घुस गए. सुनयना के बच्चे को एक पालने में लिटा कर प्रेमलता मुड़ी ही थी कि 2 बदमाश नौजवानों को देख कर वह चौंकी, ‘‘क्या बात है?’’

‘‘अभी एक बाई तु झे बच्चा दे कर गई है. वह कौन सा है?’’ सुभाष ने कमरे में नजर डालते हुए पूछा. दर्जनों पालनों में नवजात बच्चे अठखेलियां करते दूध पी रहे थे.

‘‘बाई, कौन बाई?’’

‘‘जो अभीअभी यहां आई थी,’’ अर्जुन ने कहा.

‘‘यहां कोई बाई नहीं आई,’’ प्रेमलता बोली.

‘‘सीधी तरह मान जा. बता वह बच्चा कौन सा है,’’ अर्जुन ने चाकू निकालते हुए कहा.

तभी अनाथालय के दरवाजे पर एसएचओ मधुकर ने कदम रखा.

प्रेमलता पुलिस को देखते ही चीखी, ‘‘इंस्पैक्टर साहब, चोरबदमाश…’’

सिपाहियों ने घेरा डाल कर दोनों बदमाशों को पकड़ लिया. थाने में उन्होंने सब सचसच उगल दिया.

मैनेजर अरुण के काबू में आते ही सेठ प्रमोद भी टूट गया.

‘‘आप या तो बच्चे और उस की मां को अपना लें, अन्यथा 10 साल की सजा भुगतें. बच्चा आप का वारिस फिर भी माना जाएगा,’’ इंस्पैक्टर मधुकर ने सम झाते हुए कहा.

मरता क्या न करता, सेठ प्रमोद ने सुनयना को अपनी पत्नी और बच्चे को वारिस मान लिया. Best Hindi Story

Story In Hindi: स्वर्गवासी पुलवा का बयान – भ्रष्टाचार की हद

Story In Hindi: मैंने आज तक कुछ लिखा नहीं, पर लिखने की नौटंकी पूरी की. यही वजह है कि जम कर छप रहा हूं. लिखने को साधना मानने वालों से ज्यादा लिखने की नौटंकी करने वाले छपते हैं.

आज फिर लिखने का नाटक करने की कोशिश में था कि सामने कल ही गिरा पुल भागताभागता, हांफतहांफता, लड़खड़ाता, भरभराता मेरे सामने आ खड़ा हुआ. तनिक सांस लेने के बाद उस ने मुझ से बड़े अदब से पूछा, ‘जनाबजी, क्या फ्री हो?’

‘नहीं, हूं तो नहीं, पर कहो क्या करना है?’

‘मैं अपना दर्दभरा बयान दर्ज करवा कर अपनी आत्मा की शांति चाहता हूं.’

‘तो कोर्ट में जाओ. जज के सामने जो उगलना है, उसे उगलो.’

‘पर, वहां मेरी फिर हत्या हो सकती है, इसलिए…

‘खूनखराबे से मैं बहुत डरता हूं. वह गली के चौक पर हो या कोर्ट में. पता नहीं, क्यों कई बार मुझे महल्ले के चौक और कोर्ट में कोई खास फर्क नहीं लगता, इसलिए कि कहीं गिरे पुल की भी हत्या न हो जाए, मैं ने उसे अपना बयान दर्ज करने की इजाजत देते हुए कहा, ‘डियर, मेरे सामने कहने से होगा तो कुछ नहीं, पर फिर भी जो कहना चाहते हो, मात्र अपने मन की शांति के लिए बिना डरे कहो.’

‘बंधु, मेरे गिरने को ले कर आजकल मेरी बदनामियों का बाजार गरम है. सब मुझ पर तोहमत लगा रहे हैं, मुझे देशद्रोही बता रहे हैं और मैं राष्ट्रभक्त अपनी देशभक्ति को छिपाए मारामारा फिर रहा हूं, पर कहीं मुंह छिपाने तक एक इंच भर जगह नहीं मिल रही. सब को अपने गिरने पर नहीं, मेरे गिरने पर गुस्सा है. पर कोई यह सुनने को तैयार नहीं कि मेरे गिरने से पहले कौनकौन गिरा.’

‘गिरने को अभी भी कोई बचा है क्या? कौनकौन गिरा?’

‘मेरे गिरने से पहले मुझे बनाने का अपनों को ठेका देने वाले वे गिरे, जिन को शौचालय की दीवार तक बनाने का अनुभव न था.’

‘पर अनुभव तो किसी को गिराने से आएगा न…’

‘उस के बाद वे गिरे, जिन्होंने अपनी कमीशन समेट मुझे बनाने को औरों के हवाले कर दिया. उस के बाद वे भी गिरे, जिन्होंने अपना कमीशन ले कर मुझे दूसरे के हाथों कर दिया.’

‘फिर…?’

‘उस के बाद वे गिरे, जिन्होंने मुझे अपना हिस्सा रख औरों के सुपुर्द

कर दिया.’

‘फिर…? मतलब, तुम किसी धंधे वाली की तरह अगलेअगले हाथों

बिकते रहे?’

‘आखिर में उस ने मुझे बनाने का काम शुरू किया, जो मुझे आगे नहीं बेच सकता था,’ कह कर उस ने दुखभरी सांस ली.

‘फिर…?’

‘फिर मेरा निर्माण शुरू हुआ. मुझे पता था कि अब मुझे बनाने की नहीं, मुझे गिराने की साजिश पूरी ईमानदारी से

रची जाएगी, इसलिए मुझे बनाने को घटिया रेत लाया गया. घटिया सरिया लाया गया. जरूरत से कम मुझ में सीमेंट लगाया गया.

‘बंधु, गिरे हुओं के बीच सिर उठा कर खड़े होने की कितनी ही कोशिश की जाए, पर वे दूसरों को भी अपनी तरह गिरा कर ही चैन की सांस लेते हैं. सो, उन्होंने भी ली.’

‘तो सरकारी इंजीनियर साहब

कहां थे? तुम ने उन से शिकायत क्यों नहीं की?’

‘अपने बंगले में. उन का हिस्सा उन को बंगले में भेज दिया जाता. 1-2 बार मैं ने मौका मिलते ही उन से शिकायत करने की कोशिश की, तो उन्होंने मेरा मुंह बंद करवा दिया.’

‘तो उन से बड़े साहब से शिकायत क्यों नहीं की कि वे तुम्हारा मुंह बंद करवा रहे हैं?’

‘उन का हिस्सा भी उन के बंगले में पहुंच जाता. उन से शिकायत करने गया, तो वे बोले कि अगली दफा शिकायत करने आओगे, तो मुंह की खाओगे.’

‘इस देश की सब से बड़ी बीमारी यही है कि जो भी सिस्टम के चरणों में आता है, अपनी शिकायत ले कर ही आता है, उस की जरा भी तारीफ करने कोई नहीं आता.

‘पता नहीं, जनता इतनी नैगेटिव क्यों हो रही है? इसलिए तुम भी सब की तरह चुपचाप जैसे बनाए जा रहे हो बनते रहो. हमारे अनुभवी हाथों से देश के विकास को रोकने की कोशिश करोगे, तो हमारे हाथों बेवक्त मरोगे.’

‘फिर…?’

‘फिर मैं चुप हो गया. मुझे बनातेबनाते मिस्त्री से ले कर बिल पास करने वाले बाबू सब ने अपना कौड़ीकौड़ी हिस्सा लिया, पर मेरा हिस्सा मुझे किसी ने न दिया,’ कह कर वह सिसकने लगा तो मैं ने उसे समझाया, ‘चलो, यह लो मेरा सम्मान में मिला रूमाल. बेकार के अपने आंसू पोंछो. ईमानदारों को उन का हिस्सा आज तक मिला ही कहां? फिर…’

‘फिर अब टूटा और लुटा तुम्हारे सामने हूं.’

‘तो गंगाजी तुम्हें अपने चरणों में जगह दें और तुम्हें गिराने वालों को जांच में क्लीन चिट,’ इस से ज्यादा मैं और कर भी क्या सकता था?

ओम अशांति… ओम अशांति… ओम अशांति… Story In Hindi

Story In Hindi: पाखंड का अंत – बिंदु का गौना

Story In Hindi: बिंदु के मातापिता बचपन में ही गुजर गए थे, पर मरने से पहले वे बिंदु का रिश्ता भमुआपुर के चौधरी हरिहर के बेटे बिरजू से कर गए थे.

उस समय बिंदु 2 साल की थी और बिरजू 5 साल का. बिंदु के मातापिता के मरने के बाद उसे उस के चाचा ने पालापोसा था.

बिंदु के चाचा बहुत ही नेकदिल इनसान थे. उन्होंने बिंदु को शहर में रख कर पढ़ायालिखाया था. यही वजह थी कि 17वें साल में कदम रख चुकी बिंदु 12वीं पास कर चुकी थी.

बिरजू के घर से गौने के लिए कई प्रस्ताव आए, लेकिन बिंदु के चाचा ने उन्हें साफ मना कर दिया था कि वे गौना उस के बालिग होने के बाद ही करेंगे.

उधर बिरजू भी जवान हो गया था. उस का गठीला बदन देख कर गांव की कई लड़कियां ठंडी आहें भरती थीं. पर  बिरजू उन्हें घास तक नहीं डालता था.

‘‘अरे, हम पर भले ही नजर न डाल, पर शहर जा कर अपनी जोरू को तो ले आ,’’ एक दिन चमेली ने बिरजू का रास्ता रोकते हुए कहा.

‘‘ले आऊंगा. तु झे क्या? चल, हट मेरे रास्ते से.’’

‘‘क्या तेरी औरत के संग रहने की इच्छा नहीं होती? कहीं वो तो नहीं है तू…?’’ चमेली ने एक आंख दबा

कर कहा, तो उस की हमउम्र सहेलियां खिलखिला कर हंस पड़ीं.

‘‘चमेली, ज्यादा मत बन. मैं ने कह तो दिया, मु झे इस तरह की बातें पसंद नहीं हैं,’’ कहते हुए बिरजू ने आंखें तरेरीं, तो वे सब भाग गईं.

उधर बिंदु की गदराई जवानी व अदाएं देख कर स्कूल के लड़के उस के आसपास मंडराते रहते थे.

गोरा बदन, आंखें बड़ीबड़ी, उभरी हुई छाती… जब बिंदु अपने बालों को  झटकती, तो कई मजनू आहें भरने लगते.

बिंदु को भी सजनासंवरना भाने लगा था. जब कोई लड़का उसे प्यासी नजरों से देखता, तो वह भी तिरछी नजरों से उसे निहार लेती.

बिंदु के रंगढंग और बिरजू के घर वालों के बढ़ते दबाव के चलते उस के चाचा ने गौने की तारीख तय कर दी और उसी दिन बिरजू आ कर अपनी दुलहन को ले गया.

शहर में पलबढ़ी बिंदु को गांव में आ कर थोड़ा अजीब तो लगा, पर बिरजू को पा कर वह सबकुछ भूल गई.

बिंदु को बहुत चाहने वाला पति मिला था. दिनभर खेत में जीतोड़ मेहनत कर के जब शाम को बिरजू घर आता, तो बिंदु उस का इंतजार करती मिलती.

रात होते ही मौका पा कर बिरजू बिंदु को अपनी मजबूत बांहों में कस कर पने तपते होंठ उस के नरम गुलाबी होंठों पर रख देता था.

कब 2 साल बीत गए, पता ही नहीं चला. बिंदु और बिरजू अपनी हसीन दुनिया में खोए हुए थे कि एक दिन बिंदु की सास अपने पति से पोते की चाहत जताते हुए बोलीं, ‘‘बहू के पैर अभी तक भारी क्यों नहीं हुए?’’

सचाई तो यह थी कि यह बात घर में सभी को चुभ रही थी.

‘‘सुनो,’’ एक दिन बिरजू ने बिंदु

के लंबे बालों को सहलाते हुए पूछा, ‘‘हमारा बच्चा कब आएगा?’’

‘‘मु झे क्या मालूम… यह तो तुम जानो,’’ कहते हुए बिंदु शरमा गई.

‘‘मां को पोते का मुंह देखने की बड़ी तमन्ना है.’’

‘‘और तुम्हारी?’’

‘‘वह तो है ही, मेरी जान,’’ बिरजू ने बिंदु को खुद से सटाते हुए कहा और बत्ती बु झा दी.

‘‘मु झे लगता है, बहू में कोई कमी है. 3 साल हो गए ब्याह हुए और अभी तक गोद सूनी है. जबकि अपने बिरजू के साथ ही गोपाल का गौना हुआ था, वह तो 2 बच्चों का बाप भी बन गया है,’’ एक दिन पड़ोस की काकी घर आईं और बोलीं.

बिंदु के कानों तक जब ऐसी बातें पहुंचतीं, तो वह दुखी हो जाती. वह भी यह सोचने पर मजबूर हो जाती कि आखिर हम पतिपत्नी तो कोई ‘बचाव’ भी नहीं करते, फिर क्या वजह है कि 3 साल होने पर भी मैं मां नहीं बन पाई?

इस बार जब वह अपने मायके गई, तो उस ने लेडी डाक्टर से अपनी जांच कराई. पता चला कि उस की बच्चेदानी की दोनों नलियां बंद हैं. इस वजह से बच्चा ठहर नहीं रहा है. यह जान कर बिंदु घबरा गई.

‘‘क्या अब मैं कभी मां नहीं बन पाऊंगी?’’ डाक्टर से पूछने पर बिंदु का गुलाबी चेहरा पीला पड़ गया.

‘‘ऐसी बात नहीं है. आजकल विज्ञान ने बहुत तरक्की कर ली है. तुम जैसी औरतें भी मां बन सकती हैं,’’ डाक्टर ने कहा, तो बिंदु को चेहरा खिल उठा.

गांव आ कर उस ने बिरजू को सारी बात बताई और कहा, ‘‘तुम्हें मेरे साथ कुछ दिनों के लिए शहर चलना होगा.’’

‘‘शहर तो हम लोग बाद में जाएंगे, पहले तुम आज शाम को बंगाली बाबा के आश्रम में जा कर चमत्कारी भभूत का प्रसाद ले आना. सुना है कि उस के प्रसाद से कई बां झ औरतों के बच्चे हो गए हैं,’’ बिरजू बोला.

‘‘यह तुम कैसी अनपढ़ों वाली बातें कर रहे हो? तुम्हें ऐसा करने को किस

ने कहा?’’

‘‘मां ने.’’

बिंदु ने कहा, ‘‘देखिए, मांजी तो पुराने जमाने की हैं, इसलिए वे इन बातों पर भरोसा कर सकती हैं, पर हम तो जानते हैं कि ये बाबा वगैरह एक नंबर के बदमाश होते हैं. भोलीभाली औरतों को चमत्कार के जाल में फंसा कर…

‘‘नहीं, मैं तो नहीं जाऊंगी किसी के पास,’’ बिंदु ने बहुत आनाकानी की, पर उस की एक न सुनी गई.

बिंदु सम झ गई कि अगर उस ने सू झबू झ से काम नहीं लिया, तो उस का घरसंसार उजड़ जाएगा. उस ने मजबूती से हालात का सामना करने की ठान ली.

बाबा के आश्रम में पहुंच कर बिंदु ने 2-3 औरतों से बात की, तो उस का शक सचाई में बदल गया.

उन औरतों में से एक ने उसे बताया, ‘‘बाबा मु झे अपने आश्रम के अंदरूनी हिस्से में ले गया, जहां घना अंधेरा था.’’

‘‘फिर क्या हुआ तुम्हारे साथ?’’

‘‘पहले तो बाबा ने मु झे शरबत जैसा कुछ पीने को दिया. शरबत पी कर मैं बेहोश हो गई और जब मैं होश में आई, तो ऐसा लगा जैसे मैं ने बहुत मेहनत का काम किया हो.’’

‘‘और भभूत?’’

‘‘वह पुडि़या यह रही,’’ कहते हुए महिला ने हाथ आगे बढ़ा कर भभूत की पुडि़या दिखाई, तो बिंदु पहचान गई कि वह केवल राख ही है.

अगले दिन बिंदु फिर आश्रम में गई, तभी एक सास अपनी जवान बहू को ले कर वहां आई. उसे भी बच्चा नहीं ठहर रहा था.

बाबा ने उसे अंदर आने को कहा. उस के बाद बिंदु की बारी थी, पर जैसे ही वह औरत बाबा के साथ अंदर गई, बिंदु भी नजर बचा कर अंदर घुस गई.

बाबा ने उस औरत को कुछ पीने को दिया. जब वह बेहोश हो गई, तो बाबा ने उस के कपड़े हटा कर…

बिंदु यह सब देख कर हैरान रह गई. उस ने इरादे के मुताबिक अपने कपड़ों में छिपाया हुआ कैमरा निकाला और कई फोटो खींच लिए.

वह औरत तो बेहोश थी और बाबा वासना के खेल में मदहोश था. भला कैमरे की फ्लैश पर किस का ध्यान जाता.

कुछ दिनों बाद बिंदु ने भरी पंचायत में थानेदार के सामने वे फोटो दिखाए. इस से पंचायत में खलबली मच गई.

बाबा को उस के चेलों समेत हवालात में बंद कर दिया गया, पर तब तक अपने  झूठे चमत्कार के बहाने वह न जाने कितनी ही औरतों की इज्जत लूट चुका था. खुद संरपच की बेटी विमला भी

उस पाखंडी के हाथों अपनी इज्जत लुटा चुकी थी.

पूरे गांव में बिंदु के हौसले और उस की सूझबूझ की चर्चा हो रही थी. जिस ने न केवल अपनी इज्जत बचा ली थी, बल्कि गांव की बाकी मासूम युवतियों की जिंदगी बरबाद होने से बचा ली थी.

शहर जा कर बिंदु ने डाक्टर से अपना इलाज कराया और महीनेभर बाद गांव लौटी.

तीसरे महीने जब वह उलटी करने के लिए गुसलखाने की तरफ दौड़ी, तो बिरजू की मां व पूरे घर वालों का चेहरा खुशी से खिल उठा. Story In Hindi

Best Hindi Kahani: अहंकारी – कामना की वासना का खेल

Best Hindi Kahani: अभिजीत 2 दिनों से घर नहीं लौटा था. उस की मां सरला देवी कंपनी में पूछ आई थीं. अभिजीत 2 दिन पहले कंपनी में आया था, यह चपरासी ने सरला देवी को बताया था. अभिजीत 25 साल का अच्छी कदकाठी का नौजवान था. वह सेठ गोपालदास की कंपनी में पिछले 2 साल से बतौर क्लर्क काम कर रहा था. अभिजीत के परिवार में उस की मां सरला देवी के अलावा 2 बहनें थीं. 2 साल पहले अभिजीत के पिता की मौत हो चुकी थी. वे भी सेठ गोपालदास की कंपनी में काम करते थे. उन्हीं की जगह अभिजीत इस कंपनी में काम कर रहा था.

अभिजीत के इस तरह गायब होने से सरला देवी और उन की दोनों बेटियां परेशान थीं. सरला देवी को उम्मीद थी कि सेठ गोपालदास ने उसे कंपनी के किसी काम से बाहर भेजा होगा, पर अब उन के द्वारा इनकार किए जाने पर सरला देवी की परेशानी और बढ़ गई थी.

सरला देवी ने अभिजीत को हर जगह तलाश किया, पर वह कहीं नहीं मिला. आखिर वह गया तो कहां गया, यह बात उस की मां को बेहद परेशान करने लगी. फिर उन्होंने कंपनी के सिक्योरिटी गार्ड से बात की. पहले तो उस ने इधरउधर की बात की, फिर बता दिया कि उस दिन कंपनी की छुट्टी का समय हो गया था. उस में काम करने वाले लोग जा चुके थे.

अभिजीत अपने थोड़े बचे काम को तेजी से निबटा रहा था, ताकि समय से घर लौट सके. तभी सेठ गोपालदास की छोटी बेटी कामना कंपनी में आई. वह अभिजीत की टेबल के करीब आई और अपने हाथ टेबल पर टिका कर झुक गई.

उस समय वह जींस और शर्ट पहने हुई थी, जो उस के भरेभरे जिस्म पर यों कसी हुई थीं कि उस के बदन की ऊंचाइयां और गहराइयां साफ दिख रही थीं.

अभिजीत अपने काम में मशगूल था. कामना ने उस का ध्यान खींचने के लिए अपना पैर धीरे से पटका.

आवाज सुन कर अभिजीत ने नजरें उठा कर देखा तो बस देखता ही रह गया. कामना उस की टेबल पर हाथ टिकाए झुकी हुई थी, जिस से उस के भारी और दूधिया उभारों का ऊपरी हिस्सा शर्ट से झांक रहा था.

वह गार्ड नौजवान था, पर समझदार भी था. उस ने सरला देवी को बताया कि उसे कामना का बरताव अजीब लगा था. वह कोने में खड़ा हो कर उन की बातें सुनने लगा. दफ्तर तो पूरा खाली ही था.  उन दोनों की बातचीत इस तरह थी:

‘कहां खो गए?’ कामना धीरे से बोली थी.

‘कहीं नहीं,’ अभिजीत ने बौखला कर अपनी नजरें उस के उभारों से हटा ली थीं. उस की बौखलाहट देख कर कामना के होंठों पर एक मादक मुसकान खिल उठी थी. वह अभिजीत के सजीले रूप को देखते हुए बोली थी, ‘क्यों, आज घर जाने का इरादा नहीं है?’

‘है तो…’ अभिजीत अपनेआप को संभालते हुए बोला था, ‘थोड़ा सा काम बाकी रह गया था, सोचा, पूरा कर लूं तो चलूं.’

‘काम का क्या है, वह तो होता ही रहेगा…’ कामना बोली थी, ‘पर इनसान को कभीकभी घूमनेफिरने का समय भी निकालना चाहिए.’

‘मैं समझा नहीं.’

‘मैं समझाती हूं…’ कामना अभिजीत की आंखों में झांकते हुए बोली थी, ‘अभिजीत, तुम्हें घर लौटने की जल्दी तो नहीं है न?’

‘कोई खास जल्दी नहीं…’ अभिजीत बोला था.

‘मैं आज मूड में हूं और अगर तुम्हें एतराज न हो, तो तुम मेरे साथ पापा के कमरे में चलो.’

‘पर मैं आप का मुलाजिम हूं और आप मेरे मालिक की बेटी.’

‘मैं इन बातों को नहीं मानती…’ कामना बोली थी, ‘मैं तो बस इतना जानती हूं कि मैं इनसान हूं और तुम भी. तुम मुझे अच्छे लगते हो. अब मैं तुम्हें अच्छी लगती हूं या नहीं, तुम जानो.’

‘आप भी मुझे अच्छी लगती हैं…’ अभिजीत पलभर सोचने के बाद बोला था, ‘ठीक है.’

कामना अभिजीत को ले कर एक कमरे में पहुंचे. दफ्तर में अंधेरा था, पर दरवाजे में एक छेद भी था. गार्ड उसी से देखने लगा कि अंदर क्या हो रहा है.

उस गार्ड ने सरला देवी को बताया कि अभिजीत कामना की इस हरकत से परेशान लग रहा था.

‘अरे, तुम अभी तक खड़े ही हो?’ कामना बोली थी, ‘आराम से सोफे पर बैठो.’

अभिजीत आगे बढ़ कर कमरे में रखे गुदगुदे सोफे पर बैठ गया था. कामना आ कर उस के करीब बैठ गई थी और अभिजीत की आंखों में झांकते हुए बोली थी, ‘अभिजीत, तुम ने किसी से प्यार किया है?’

गार्ड सब सुन सकता था, क्योंकि पूरे दफ्तर में सन्नाटा था.

‘नहीं…’ अभिजीत बोला था, ‘कभी यह काम करने का मौका ही नहीं मिला.’

‘अगर मिला, तो क्या करोगे?’

अभिजीत चुप रहा था.

‘तुम ने जवाब नहीं दिया?’

‘हां, करूंगा’ वह बोला था.

‘आज मौका है और समय भी.’

‘पर लड़की?’

‘तुम्हारा मेरे बारे में क्या खयाल है?’ कहते हुए कामना ने अपनी शर्ट उतार दी. उस के ऐसा करते ही उस के उभार अभिजीत के सामने आ गए थे. उन को देखते ही अभिजीत के सब्र का बांध टूट गया था. जब कामना उस से लिपट गई, तो पलभर के लिए वह बौखलाया, फिर अपने हाथ कामना की पीठ पर कस दिए.

इस के बाद तो अभिजीत सबकुछ भूल कर कामना की खूबसूरती की गहराइयों में उतरता चला गया.

सरला देवी ने कामना के ड्राइवर से भी पूछताछ की. उसे भी बहुतकुछ मालूम था. उस ने बताया कि पिछली सीट पर अकसर कामना मनमाने ढंग से उस का इस्तेमाल करने लगी थी.

कामना का दिल जिस पर आ जाता, वह उसे अपने प्रेमजाल में फांसती, उस से अपना दिल बहलाती और जब दिल भर जाता, तो उसे अपनी जिंदगी से निकाल फेंकती.

ड्राइवर ने आगे बताया कि एक दिन उन दोनों में झगड़ा हुआ था. कामना का दिल उस से भर गया, तो वह उस से कन्नी काटने लगी. उस के इस रवैए से अभिजीत तिलमिला उठा. वह कामना से सच्चा प्यार करता था.

जब कामना को पता चला तो वह बोली थी, ‘अपनी औकात देखी है तुम ने? तुम हमारी कंपनी में एक छोटे से मुलाजिम हो. मैं ब्राह्मण और तुम यादव. दूसरी जाति की लड़की को तुम प्यार कर पा रहे हो, क्या यह कम है. शादी की तो सोचना भी नहीं.’

‘पर तुम ने इसी मुलाजिम से दिल लगाया था?’

‘दिल नहीं लगाया था, बल्कि दिल बहलाया था. अब मेरा दिल तुम से भर गया है, इसलिए हमारे रास्ते अलग हैं.’

‘नहीं…’ अभिजीत तेज आवाज में बोला था, ‘तुम मुझे यों अपनी जिंदगी से नहीं निकाल सकती.’

‘और अगर निकाला तो?’

‘मैं सारी दुनिया को तुम्हारी हकीकत बता दूंगा.’

अभिजीत की बात सुन कर कामना पलभर को हड़बड़ाई, पर अगले ही पल उस की आंखों से गुस्सा टपकने लगा. वह अभिजीत को घूरते हुए बोली, ‘तुम ऐसा कर नहीं पाओगे. मैं तुम्हें ऐसा हरगिज करने नहीं दूंगी.’

यह बात सारा दफ्तर जानता था कि एक दिन अभिजीत से सेठ गोपालदास ने कठोर आवाज में सब के सामने बोला था, ‘तुम ने हमारी बेटी को अपने प्रेमजाल में फंसाया और उस की इज्जत पर हाथ डाला. यह बात खुद कामना ने मुझे बताई है.

‘कोई मेरी बेटी के साथ ऐसी हरकत करे, मैं यह बरदाश्त नहीं कर सकता. तुझे इस की सजा मिलेगी,’ इतना कहने के बाद सेठजी ने अपने आदमियों को इशारा किया था.

सेठजी के आदमी अभिजीत को खींचते हुए दफ्तर से बाहर ले गए. इस के बाद अभिजीत को किसी ने नहीं देखा था.

अभिजीत को गायब हुए जब 10 दिन बीत गए, तो सरला देवी समझ गईं कि अभिजीत मार दिया गया है.

सरला देवी ने उस की गुमशुदगी की रिपोर्ट पुलिस में लिखवा दी.

सरला देवी अपने बेटे को ले कर यों परेशानी के दौर से गुजर रही थीं कि उन की मुलाकात अभिजीत के एक दोस्त से हुई, जो उसी के साथ काम करता था. उस ने सरला देवी को बताया कि अभिजीत को मारने में सेठ गोपालदास का हाथ है.

सरला देवी ने अभिजीत के दोस्त को बताया कि कामना को सबक सिखाना है. कामना अपनी ऐयाशियों में डूबी हुई थी. अभिजीत की मौत से बेपरवाह कामना की नजरें एक दूसरे लड़के को ढूंढ़ रही थीं. उस ने रमेश को फांस लिया.

एक शाम जब कामना अपनी कार में लौंग ड्राइव पर निकली थी, तो रमेश उसे सरला देवी के घर ले गया.

सरला देवी को देख कर कामना की घिग्घी बंध गई. वह सबकुछ उगल गई. रमेश ने उसे एक कुरसी से बांध दिया और कई घंटों तक तड़पने के लिए छोड़ दिया. इस के बाद कामना का पूरा बयान रेकौर्ड कर लिया.

रात में जब सरला देवी ने उसे छोड़ा तो कहा, ‘‘जैसे मैं जिंदगीभर अभिजीत को याद करूंगी, वैसे ही तुम भी करना. यह टेप, यह बयान, हर बार तब काम आएंगे, जब तुम शादी करने की कोशिश करोगी.’’

कामना के पास कोई चारा नहीं बचा था. वह पैदल ही घर की ओर चल पड़ी, हारी और लुटी हुई. Best Hindi Kahani

Story In Hindi: हवस का नतीजा – देवर और भाभी की रासलीला

Story In Hindi: मुग्धा का बदन बुखार से तप रहा था. ऊपर से रसोई की जिम्मेदारी. किसी तरह सब्जी चलाए जा रही थी तभी उस का देवर राज वहां पानी पीने आया. उस ने मुग्धा के हावभाव देखे तो उस के माथे पर हाथ रखा और बोला, ‘‘भाभी, आप को तो तेज बुखार है.’’

‘‘हां…’’ मुग्धा ने कमजोर आवाज में कहा, ‘‘सुबह कुछ नहीं था. दोपहर से अचानक…’’

‘‘भैया को बताया?’’

‘‘नहीं, वे तो परसों आने ही वाले हैं वैसे भी… बेकार परेशान होंगे. आज तो रात हो ही गई… बस कल की बात है.’’

‘‘अरे, लेकिन…’’ राज की फिक्र कम नहीं हुई थी. मगर मुग्धा ने उसे दिलासा देते हुए कहा, ‘‘कोई बात नहीं. मामूली बुखार ही तो है. तुम जा कर पढ़ाई करो, खाना बनते ही बुला लूंगी.’’

‘‘खाना बनते ही बुला लूंगी…’’ मुग्धा की नकल उतार कर चिढ़ाते हुए राज ने उस के हाथ से बेलन छीना और बोला, ‘‘लाइए, मैं बना देता हूं. आप जा कर आराम कीजिए.’’

‘‘न… न… लेट गई तो मैं और बीमार हो जाऊंगी,’’ मुग्धा बैठने वालियों में से नहीं थी. वह बोली, ‘‘हम दोनों मिल कर बना लेते हैं,’’ और वे दोनों मिल कर खाना बनाने लगे.

मुग्धा का पति विनय कंपनी के किसी काम से 3 दिनों के लिए बाहर गया हुआ था. वह कर्मचारी तो कोई बहुत बड़ा नहीं था, लेकिन बौस का भरोसेमंद था. सो, किसी भी काम के लिए वे उसे ही भेजते थे.

मुग्धा का 21 साल का देवर राज प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा था. विनय जैसा प्यार करने वाला पति पा कर मुग्धा भी खुश रहती थी. कुछ पति की तनख्वाह और कुछ वह खुद जो निजी स्कूल में पढ़ाती, दोनों से मिला कर घर का खर्च अच्छे से निकल आता. सासससुर गांव में रहते थे. देवर राज अपनी पढ़ाई के चलते उन के साथ ही रहता था.

जिंदगी में कमी थी तो बस यही कि खुशहाल शादीशुदा जिंदगी के 10 सालों के बाद भी उन के कोई औलाद नहीं थी. अब मुग्धा 35 साल की हो चुकी थी. अपनी हमउम्र बाकी टीचरों को उन के बच्चों के साथ देखती तो न चाहते हुए भी उसे रोना आ ही जाता. वह अपनी डायरी के पन्ने इसी पीड़ा से रंगती जाती.

रोटियां बन चुकी थीं. राज ने उसे कुरसी पर बैठने को बोला और सामान समेटने लगा. मुग्धा ने सिर पीछे की ओर टिकाया और आंखें बंद कर लीं. वातावरण एकदम शांत था. तभी वहां वही तूफान फिर से गरजने लगा जिस का शोर मुग्धा आज तक नहीं भांप पाई थी.

राज की गरदन धीरे से मुग्धा की ओर घूम चुकी थी. वह कनखियों से मुग्धा की फिटिंग वाली समीज में कैद उस के उभारों को देखने लगा था. मुग्धा की सांसों के साथ जैसेजैसे वे ऊपरनीचे होते, वैसेवैसे राज के अंदर का शैतान जागता जाता.

‘‘हो गया सब काम…?’’ बरतनों की आवाज बंद जान कर मुग्धा ने अचानक पूछते हुए अपनी आंखें खोल दीं.

राज हकबका गया और बोला, ‘‘हां भाभी, बस हो ही गया…’’ कह कर राज ने जल्दीजल्दी बाकी काम निबटाया और खाने की चीजों को उठा कर मेज पर ले गया.

मुग्धा ने मुश्किल से 2 रोटियां खाईं, वह भी राज की जिद पर. वह जबरदस्ती सब्जी उस की प्लेट में डाल दे रहा था. खाने के बाद मुग्धा सोने जाने लगी तो राज बोला, ‘‘भाभी, 15 मिनट के लिए आगे वाले कमरे में बैठिए न… मैं आप के लिए दवा ले आता हूं.’’

‘‘अरे नहीं, रातभर में उतर जाएगा…’’ मुग्धा ने मना किया लेकिन राज कहां मानने वाला था.

‘‘मैं पास वाले कैमिस्ट से ही दवा ले कर आ रहा हूं भाभी… जहां से आप मंगाती हैं हमेशा… दरवाजा बंद कर लीजिए… मैं अभी आया…’’ कहता हुआ वह निकल गया.

मुग्धा ने दरवाजा बंद किया और सोफे पर पैर ऊपर कर के बैठ गई.

राज ने तय कर लिया था कि आज तो वह अपने मन की कर के ही रहेगा. इस बीच कैमिस्ट की दुकान आ गई.

‘‘क्या बात है राज बाबू?’’ कैमिस्ट ने राज को खोया सा देखा तो पूछा. राज का ध्यान वापस दुकान पर आया.

‘‘दवा चाहिए थी,’’ उस ने जवाब दिया.

‘‘अबे तो यहां क्या मिठाई मिलती है?’’ कैमिस्ट उसे छेड़ते हुए बोला. वह उस का पुराना दोस्त था.

राज मुसकरा उठा और कहा, ‘‘अरे, जल्दी दे न…’’

‘‘जल्दी दे न…’’ बड़बड़ाते हुए कैमिस्ट ने हैरत से उस की ओर देखा, ‘‘कौन सी दवा चाहिए, यह तो बता?’’

राज को याद आया कि उस ने तो सचमुच कोई दवा मांगी ही नहीं है. उस ने ऐसे ही बोल दिया, ‘‘भाभी की तबीयत ठीक नहीं है. उन्हें बुखार है. जरा नींद की गोली देना.’’

‘नींद की गोली बुखार के लिए…’ सोचते हुए कैमिस्ट ने उसे देखा. वह खुद भी मुग्धा के हुस्न का दीवाना था. हमेशा उस के बारे में चटकारे लेले कर बातें किया करता था. उस ने राज के मन की बात ताड़ ली. ऐसी बातों का उसे बहुत अनुभव जो था. उस ने नींद की गोली के साथ बुखार की भी दवा दे दी.

राज ने लिफाफा जेब में रखा और तेजी से वापस चलने को हुआ कि तभी कैमिस्ट चिल्लाया, ‘‘अरे भाई, खुराक तो सुन ले.’’

राज को अपनी गलती का अहसास हुआ. वह काउंटर पर आया. कैमिस्ट ने उसे डोज बताई और आंख मारते हुए बोला, ‘‘यह नींद वाली एक से ज्यादा मत देना… टाइट चीज है…’’

‘‘अबे, क्या बकवास कर रहा है,’’ राज के मन का डर उस की जबान से बोल पड़ा. उस की तो चोर की दाढ़ी में तिनका वाली हालत हो गई. वह जाने लगा.

कैमिस्ट पीछे से कह रहा था, ‘‘अगली बार हम को भी याद रखना दोस्त…’’

राज उस को अनसुना करता हुआ आगे बढ़ गया. घर लौटने पर डोर बैल बजाते ही मुग्धा ने दरवाजा खोल दिया और बोली, ‘‘यहीं बैठी थी लगातार…’’

‘‘जी भाभी, आइए अंदर चलिए…’’ राज ने अपने माथे से पसीना पोंछते हुए कहा.

मुग्धा अपने कमरे में आ कर लेट गई. राज ने उसे पहले बुखार की दवा दी. मुग्धा दवा ले कर सोने के लिए लेटने लगी तो राज ने उसे रोका, ‘‘भाभी, अभी एक दवा बाकी है…’’

‘‘कितनी सारी ले आए भैया?’’ मुग्धा ने थकी आवाज में बोला और बाम ले कर माथे पर लगाने लगी.

‘‘भाभी दीजिए, मैं लगा देता हूं,’’ कह कर राज ने उस से बाम की डब्बी ले ली और उस के माथे पर मलने लगा. थोड़ी देर बाद उस ने मुग्धा को नींद वाली गोली भी खिला दी और लिटा दिया.

राज उस का माथा दबाता रहा. थोड़ी देर बाद उस ने पुष्टि करने के लिए मुग्धा को आवाज दी. ‘‘भाभी सो गईं क्या?’’

कोई जवाब नहीं मिला. राज ने उस के चेहरे को हिलाडुला कर भी देख लिया. कोई प्रतिक्रिया न पा कर वह समझ गया कि रास्ता साफ हो चुका है.

राज की कनपटियों में खून तेजी से दौड़ने लगा. वह बत्ती जलती ही छोड़ मुग्धा के ऊपर आ गया. मर्यादा के आवरण प्याज के छिलकों की तरह उतरते चले गए. कमरे में आए भूचाल से मेज पर रखी विनयमुग्धा की तसवीर गिर कर टूट गई.

सबकुछ शांत होने पर राज थक कर चूरचूर हो कर मुग्धा के बगल में लेट गया.

‘‘बस अब बुखार उतर जाएगा भाभीजी… इतना पसीना जो निकलवा दिया मैं ने आप का,’’ राज बेशर्मी से बड़बड़ाया और मुग्धा की कुछ तसवीरें खींचने के बाद उसे कपड़े पहना दिए.

मुग्धा अब तक धीमेधीमे कराह रही थी. राज पलंग से उतरा और खुद भी कपड़े पहनने लगा. तभी उस की नजर आधी खुली दराज पर गई. भूल से मुग्धा अपनी डायरी उसी में छोड़ी हुई थी. राज ने उसे निकाला और कपड़े पहनतेपहनते उस के पन्ने पलटने लगा.

अचानक एक पेज पर जा कर उस की आंखें अटक गईं. वह अभी अपनी कमीज के सारे बटन भी बंद नहीं कर पाया था लेकिन उस को इस बात की परवाह नहीं रही. वह अपलक उस पन्ने में लिखे शब्दों को पढ़ने लगा. उस में मुग्धा ने लिखा था, ‘बस अब बहुत रो लिया, बहुत दुख मना लिया औलाद के लिए. मेरा बेटा मेरे पास था और मैं उसे पहचान ही नहीं पाई. जब से मैं यहां आई, उसे बच्चे के रूप में देखा तो आज अपनी कोख के बच्चे के लिए इतनी चिंता क्यों? मैं बहुत जल्दी राज को कानूनी रूप से गोद लूंगी.’

राज की आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा. वह सिर पकड़ कर वहीं बैठ गया और जोरजोर से रोने लगा, फिर भाग कर मुग्धा के पैरों को पकड़ कर अपना माथा उस से रगड़ते हुए रोने लगा, ‘‘भाभी, मुझे माफ कर दो… यह क्या हो गया मुझ से.’’

अचानक राज का ध्यान मुग्धा के बिखरे बालों पर गया. उस ने जल्दी से जमीन पर गिरी उस की हेयर क्लिप उठाई और मुग्धा का सिर अपनी गोद में रख कर बालों को संवारने लगा. वह किसी मशीन की तरह सबकुछ कर रहा था. हेयर क्लिप अच्छे से उस के बालों में लगा कर राज उठा और घर से निकल गया.

अगली सुबह तकरीबन 8 बजे मुग्धा की आंखें खुलीं. उस का सिर अभी तक भारी था. घर में भीड़ लग चुकी थी.

एक आदमी ने आखिरकार बोल ही दिया, ‘‘देवरभाभी के रिश्ते पर भरोसा करना ही पागलपन है…’’

मुग्धा के सिर में जैसे करंट लगा. वह सवालिया नजरों से उसे देखने लगी. तभी इलाके के पुलिस इंस्पैक्टर ने प्रवेश किया और बताया, ‘‘आप के देवर राज की लाश पास वाली नदी से मिली है. उस ने रात को खुदकुशी कर ली…’’

मुग्धा का कलेजा मुंह को आने लगा. वह हड़बड़ा कर पलंग से उठी लेकिन लड़खड़ा कर गिर गई.

एक महिला सिपाही ने राज के मोबाइल फोन में कैद मुग्धा की कल रात वाली तसवीरें उसे दिखाईं और कड़क कर पूछा, ‘‘कल रंगरलियां मनातेमनाते ऐसा क्या कह दिया लड़के से तू ने जो उस ने अपनी जान दे दी?’’

तसवीरें देख कर मुग्धा हैरान रह गई. अपनी शारीरिक हालत से उसे ऐसी ही किसी घटना का शक तो हो रहा था लेकिन दिल अब तक मानने को तैयार नहीं था. वह फूटफूट कर रोने लगी.

इंस्पैक्टर ने उस महिला सिपाही को अभी कुछ न पूछने का इशारा किया और बाकी औपचारिकताएं पूरी कर वहां से चला गया. धीरेधीरे औरतों की भीड़ भी छंटती गई.

विनय का फोन आया था कि वह आ रहा है, घबराए नहीं, लेकिन मुग्धा बस सुनती रही. उस की सूनी आंखों के सामने राज का बचपन चल रहा था. जब वह नईनई इस घर में आई थी.

दोपहर तक विनय लौट आया और भागते हुए मुग्धा के पास कमरे में पहुंचा. वह जड़वत अभी भी पलंग पर बैठी शून्य में ताक रही थी. विनय ने उस के कंधे पर हाथ रखा लेकिन मुग्धा का शरीर एक ओर लुढ़क गया.

‘‘मुग्धा… मुग्धा…’’ चीखता हुआ विनय उसे झकझोरे जा रहा था, पर मुग्धा कभी न जागने वाली नींद में सो चुकी थी. Story In Hindi

Hindi Family Story: नैरो माइंड – तृप्ति के अधूरे सपने

Hindi Family Story: ‘‘मौम, आप कब से इतनी नैरो माइंड हो गई हैं, ऐसा क्या हुआ है? क्यों इतनी परेशान हो रही हैं? सब ठीक हो जाएगा, आजकल यह इतनी बड़ी बात नहीं है. सोसायटी में यह सब चलता रहता है. मैं आज ही विपुल से बात करूंगी.’’

तरू के एकएक शब्द ने तृप्ति के रोमरोम को घायल कर दिया. कितनी मुश्किलों और नाजों से उस ने दोनों बेटियों को पाला था.

तृप्ति और तपन ने तिनकेतिनके जोड़ कर यह घर बसाया था. उस ने अपने सारे अरमानों एवं इच्छाओं का गला घोंट कर इन्हीं बेटियों की खुशी के लिए अपना जीवन कुर्बान कर दिया था.

साधारण परिवार में जन्मी तृप्ति को पढ़ाई के साथ डांस और एक्ंिटग का जन्मजात शौक था. स्कूल में उस की प्रतिभा निखारने में उस की डांस टीचर मिस गोयल का बड़ा हाथ था. उन्होंने तृप्ति के गुण को परख कर उसे निखारा. तृप्ति ने भी उन्हें निराश नहीं किया और स्कूली शिक्षा के दौरान ही शील्ड और मेडल के ढेर लगा दिए.

वह विश्वविद्यालय में पहुंची तो सहशिक्षा के कारण उस के मातापिता ने इस तरह के कार्यक्रम से उसे दूर रहने की हिदायत दे दी, साथ ही कह दिया, ‘बहुत हुआ, अब जो करना हो अपने घर में करना.’ वह मन मार कर डांस और एक्ंिटग से दूर हो गई, लेकिन मन में एक कसक थी तभी उस का विवाह तपन से हो गया.

तपन बैंक में क्लर्क थे. सामान्य तौर पर घर में कोई कमी नहीं थी, लेकिन उस का शौक मन में हिलोरे मार रहा था. उस ने डांस स्कूल में काम करने के लिए तपन को किसी तरह से तैयार किया था तभी तन्वी के आगमन का एहसास हुआ. तन्वी छोटी ही थी तभी गोलमटोल तरू आ गई और वह इन दोनों बेटियों की परवरिश में सब भूल गई. 5-6 साल कब निकल गए, पता ही नहीं लगा. अब तृप्ति को अपनी खुशहाल जिंदगी प्यारी लगने लगी.

धीरेधीरे तन्वी और तरू बड़ी होने लगीं. जब दोनों छोटेछोटे पैरों को उठा कर नाचतीं तो तृप्ति का मन खिल उठता और अनायास ही अपनी बेटियों को स्टेज पर नृत्य करते हुए देखने की वह कल्पना करती. तन्वी एवं तरू को तृप्ति ने डांस स्कूल में दाखिला दिलवा दिया. जल्द ही उन की प्रतिभा रंग दिखाने लगी. वे नृत्य में पारंगत होने लगीं और इसी के साथ तृप्ति के सपने साकार होने लगे.

एक दिन तपन ने टोक दिया, ‘अब ये दोनों बड़ी हो गई हैं, डांस आदि छोड़ कर पढ़ाई पर ध्यान दें.’ तपन के टोकने से तृप्ति नाराज हो उठी और समय बदलने की दुहाई देने लगी. दोनों का आपस में अच्छाखासा झगड़ा भी हुआ और अंत में जीत तृप्ति की ही हुई. तपन चुप हो गए. उन्होंने दोनों लड़कियों को डांस और एक्ंिटग में आगे बढ़ने की इजाजत दे दी.

तन्वी का रुझान अपनेआप ही डांस से हट गया. वह पढ़ाई में रुचि लेने लगी. प्रोफेशनल कोर्स के लिए तन्वी होस्टल चली गई. तरू अकेली हो गई. चूंकि उस पर मां का वरदहस्त था, अत: वह डांस एवं एक्ंिटग के साथ ग्लैमर से भी प्रभावित हो गई थी.

अब तरू के आएदिन स्टेज प्रोग्राम होते. तृप्ति बेटी में अपने सपने साकार होते देख मन ही मन खुश होती रहती. तपन को तरू का काम पसंद नहीं आता था. तरू अकसर ग्रुप के साथ कार्यक्रम के लिए बाहर जाया करती थी. उस को अब बाहर की दुनिया रास आने लगी थी. उस के उलटेसीधे कपड़े तपन को पसंद न आते. अकसर तृप्ति से कहते, ‘तरू, हाथ से निकल रही है.’ इस पर वह दबी जबान से तरू को समझाती लेकिन उस ने कभी भी मां की बातों पर ध्यान नहीं दिया.

‘‘मौम, मुझे 1 हजार रुपए चाहिए.’’

‘‘क्यों? अभी कल ही तो तुम ने पापा से रुपए लिए थे.’’

‘‘मौम, सब मुझ से पार्टी मांग रहे थे… उसी में पैसे खर्च हो गए.’’

‘‘मैं तुम्हारे पापा से कहूंगी.’’

तरू तृप्ति से लिपट गई…तृप्ति पिघल गई. रुपए लेते ही वह फुर्र हो गई.

‘‘मौम, आजकल थिएटर में मेरा रिहर्सल चल रहा है, इसलिए देर से आऊंगी.’’

तृप्ति का माथा ठनका, ‘कल तो तरू ने कहा था कि इस हफ्ते मेरा कोई शो नहीं है.’

अभी वह इस ऊहापोह से निकल भी न पाई थी कि तपन पुकारते हुए आए.

‘‘तरू… तरू…’’

तृप्ति ने उत्तर दिया, ‘‘तरू का आज रिहर्सल है.’’

‘‘वह झूठ पर झूठ बोलती रहेगी, तुम आंख बंद कर उस पर विश्वास करती रहना. वह किसी लड़के की बाइक पर पीछे बैठी हुई कहीं जा रही थी, लड़का बाइक बहुत तेज चला रहा था,’’ तपन क्रोधित हो बोले थे.

तृप्ति घबरा कर चिंतित हो उठी. वह सोचने को मजबूर हो गई कि क्या तरू गलत संगत में पड़ गई है. मन ही मन घुटती हुई वह तरू के आने का इंतजार करने लगी.

लगभग रात में 11 बजे घंटी बजी. तृप्ति सोने की कोशिश कर रही थी. घंटी की आवाज सुन वह गुस्से में तेजी से उठी. दरवाजा खोलते ही तरू की हालत देख कर वह सन्न रह गई.

तरू की आंखें लाल हो रही थीं, एक लंबे बालों वाला लड़का उसे पकड़ कर खड़ा था. तृप्ति तपन से छिपाना चाह रही थी, इसलिए चुपचाप उस को सहारा दे कर उस के कमरे में ले गई और उसे बिस्तर पर लिटा दिया. तरू के मुंह से शराब की दुर्गंध आ रही थी.

तृप्ति की आंखों की नींद उड़ चुकी थी. वह मन ही मन रो रही थी और अपने को कोस रही थी. तरू को किस तरह सुधारे, वह क्या करे, कुछ सोच नहीं पा रही थी. उस का मन आशंकाओं से घिरा हुआ था. उसे तन्वी की याद आ रही थी. उस के मन में छात्रावास के प्रति अच्छे विचार नहीं थे लेकिन तरू तो उस की आंखों के सामने थी फिर कहां चूक हुई जो वह गलत हो गई. तपन ने तो सदैव उसे आगाह किया था, ‘लड़कियों को आजादी दो परंतु आजादी पर निगरानी आवश्यक है. नाजुक उम्र में बच्चे आजादी का नाजायज फायदा उठा कर खतरे में पड़ जाते हैं.’

तृप्ति ने रात पलकों में गुजारी. सुबह जब तरू उठी तो रात के बारे में पूछने पर अनजान बनती हुई बोली, ‘‘कल पार्टी में किसी ने उस की डिं्रक में कुछ मिला दिया था.’’

मां की ममता फिर से हावी हो गई. तृप्ति फिर से उस की बातों में आ गई थी.

अब जब हालात नियंत्रण से बाहर हो चुके थे तो तृप्ति उस पर रोक लगाना चाह रही थी. तरू एक न सुनती. एक दिन तृप्ति प्यार से उस का हाथ सहला रही थी, तभी उस के हाथों के काले निशान पर उस की नजर पड़ी. तुरंत तरू ने सफाई दी, ‘‘कुछ नहीं मौम. मैं स्कूटी ड्राइव करती हूं न, उसी का निशान है,’’ लेकिन उस के बहाने तृप्ति को विचलित कर चुके थे…उंगलियों के बीच में जले के निशान केवल सिगरेट के हो सकते हैं.

तृप्ति अब उस पर नजर रखने लगी. उसे तरहतरह से समझाने का प्रयास करती लेकिन तरू की आंखों पर तो ग्लैमर का चश्मा चढ़ा हुआ था. मोबाइल की घंटी सुनते ही वह भाग जाती थी. तृप्ति हालात को स्वयं ही सुधारने में लगी थी लेकिन तरू उस की एक न मानती.

निराशा एवं हताशा में तृप्ति बीमार रहने लगी तो तपन को चिंता हुई. उन्होंने तरू से कहा, ‘‘तुम कुछ दिन छुट्टी ले कर घर में रहो और मां की देखभाल करो, फिर कुछ दिन मैं छुट्टी ले लूंगा. लेकिन तरू ने एक न सुनी. तपन बहुत नाराज हुए और तृप्ति को ही कोसने लगे. तरू की बरबादी के लिए उसे ही जिम्मेदार बताने लगे. दिन और रात ठहर गए थे. अभी तक तृप्ति परेशान रहती थी अब तपन भी चिंतित और दुखी रहने लगे.

आज तो तरू को बेसिन पर उलटी करते देख कर तृप्ति सिहर गई. उस की बातों ने तो आग में घी का काम किया.

‘‘क्या हुआ, मौम? कोई पहाड़ टूट पड़ा है, क्यों मातम मना रही हो, क्या कोई मौत हो गई है. मैं डाक्टर के पास जा रही हूं, 1 घंटे की बात है, बस, सब नार्मल.’’

तृप्ति फूटफूट कर रो पड़ी. क्या हो गया इस नई पीढ़ी को. यह युवा वर्ग किधर जा रहा है, कहां गईं हमारी मान्यताएं. कहां गई शिक्षा. इतनी जल्दी इतना परिवर्तन. इतनी भटकन, क्या ऐसा संभव है? Hindi Family Story

Hindi Family Story: मैं झूठ नहीं बोलती – सच बोलने वाली हिम्मती

Hindi Family Story: जब से होश संभाला, यही शिक्षा मिली कि सदैव सच बोलो. हमारी बुद्धि में यह बात स्थायी रूप से बैठ जाए इसलिए मास्टरजी अकसर ही  उस बालक की कहानी सुनाते, जो हर रोज झूठमूठ का भेडि़या आया भेडि़या आया चिल्ला कर मजमा लगा लेता और एक दिन जब सचमुच भेडि़या आ गया तो अकेला खड़ा रह गया.

मां डराने के लिए ‘झूठ बोले कौआ काटे’ की लोकोक्ति का सहारा लेतीं और उपदेशक लोग हर उपदेश के अंत में नारा लगवाते ‘सच्चे का बोलबाला, झूठे का मुंह काला.’ भेडि़ये से तो खैर मुझे भी बहुत डर लगता है बाकी दोनों स्थितियां भी अप्रिय और भयावह थीं. विकल्प एक ही बचा था कि झूठ बोला ही न जाए.

बचपन बीता. थोड़ी व्यावहारिकता आने लगी तो मां और मास्टरजी की नसीहतें धुंधलाने लगीं. दुनिया जहान का सामना करना पड़ा तो महसूस हुआ कि आज के युग में सत्य बोलना कितना कठिन काम है और समझदार बनने लगे हम. आप ही बताओ मेरी कोई सहकर्मी एकदम आधुनिक डे्रस पहन कर आफिस आ गई है, जो न तो उस के डीलडौल के अनुरूप है न ही व्यक्तित्व के. मन तो मेरा जोर मार रहा है यह कहने को कि ‘कितनी फूहड़ लग रही हो तुम.’ चुप भी नहीं रह सकती क्योंकि सामने खड़ी वह मुसकरा कर पूछे जा रही है, ‘‘कैसी लग रही हूं मैं?’’

‘अब कहो, सच बोल दूं क्या?’

विडंबना ही तो है कि सभ्यता के साथसाथ झूठ बोलने की जरूरत बढ़ती ही गई है. जब हम शिष्टाचार की बात करते हैं तो अनेक बार आवश्यक हो जाता है कि मन की बात छिपाई जाए. आप चाह कर भी सत्य नहीं बोलते. बोल ही नहीं पाते यही शिष्टता का तकाजा है.

आप किसी के घर आमंत्रित हैं. गृहिणी ने प्रेम से आप के लिए पकवान बनाए हैं. केक खा कर आप ने सोचा शायद मीठी रोटी बनाई है. बस, शेप फर्क कर दी है और लड्डू ऐसे कि हथौड़े की जरूरत. खाना मुश्किल लग रहा है पर आप खा रहे हैं और खाते हुए मुसकरा भी रहे हैं. जब गृहिणी मनुहार से दोबारा परोसना चाहती है तो आप सीधे ही झूठ पर उतर आते हैं.

‘‘बहुत स्वादिष्ठ बना है सबकुछ, पर पेट खराब होने के कारण अधिक नहीं खा पा रहे हैं.’’

मतलब यह कि वह झूठ भी सच मान लिया जाए, जो किसी का दिल तोड़ने से बचा ले.

‘शारीरिक भाषा झूठ नहीं बोलती,’ ऐसा हमारे मनोवैज्ञानिक कहते हैं. मुख से चाहे आप झूठ बोल भी रहे हों आप की आवाज, हावभाव सत्य उजागर कर ही देते हैं. समझाने के लिए वह यों उदाहरण देते हैं, ‘बच्चे जब झूठ बोलते हैं तो अपना एक हाथ मुख पर धर लेते हैं. बड़े होने पर पूरा हाथ नहीं तो एक उंगली मुख या नाक पर रखने लगते हैं अथवा अपना हाथ एक बार मुंह पर फिरा अवश्य लेते हैं,’ ऐसा सोचते हैं ये मनोवैज्ञानिक लोग. पर आखिर अभिनय भी तो कोई चीज है और हमारे फिल्मी कलाकार इसी अभिनय के बल पर न सिर्फ चिकनीचुपड़ी खाते हैं हजारों दिलों पर राज भी करते हैं.

वैसे एक अंदर की बात बताऊं तो यह बात भी झूठ ही है, क्योंकि अपनी जीरो फिगर बनाए रखने के चक्कर में प्राय: ही तो भूखे पेट रहते हैं बेचारे. बड़ा सत्य तो यह है कि सभ्य होने के साथसाथ हम सब थोड़ाबहुत अभिनय सीख ही गए हैं. कुछ लोग तो इस कला में माहिर होते हैं, वे इतनी कुशलता से झूठ बोल जाते हैं कि बड़ेबड़े धोखा खा जाएं. मतलब यह कि आप जितने कुशल अभिनेता होंगे, आप का झूठ चलने की उतनी अच्छी संभावना है और यदि आप को अभिनय करना नहीं आता तो एक सरल उपाय है. अगली बार जब झूठ बोलने की जरूरत पड़े तो अपने एक हाथ को गोदी में रख दूसरे हाथ से कस कर पकड़े रखिए आप का झूठ चल जाएगा.

हमारे राजनेता तो अभिनेताओं से भी अधिक पारंगत हैं झूठ बोलने का अभिनय करने में. जब वह किसी विपदाग्रस्त की हमदर्दी में घडि़याली आंसू बहा रहे होते हैं, सहायता का वचन दे रहे होते हैं तो दरअसल, वह मन ही मन यह हिसाब लगा रहे होते हैं कि इस में मेरा कितना मुनाफा होगा. वोटों की गिनती में और सहायता कोश में से भी. इन नेताओं से हम अदना जन तो क्या अपने को अभिनय सम्राट मानने वाले फिल्मी कलाकार भी बहुत कुछ सीख सकते हैं.

विशेषज्ञों ने एक राज की बात और भी बताई है. वह कहते हैं कि सौंदर्य आकर्षित तो करता ही है, सुंदर लोगों का झूठ भी आसानी से चल जाता है. अर्थात सुंदर होने का यह अतिरिक्त लाभ है. मतलब यह भी हुआ कि यदि आप सुंदर हैं, अभिनय कुशल हैं तो धड़ल्ले से झूठ बोलते रहिए कोई नहीं पकड़ पाएगा. अफसोस सुंदर होना न होना अपने वश की बात नहीं.

गांधीजी के 3 बंदर याद हैं. गलत बोलना, सुनना और देखना नहीं है. अत: अपने हाथों से आंख, कान और मुंह ढके रहते थे पर समय के साथ इन के अर्थ बदल गए हैं. आज का दर्शन यह कहता है कि आप के आसपास कितना जुल्म होता रहे, बलात्कार हो रहा हो अथवा चोट खाया कोई मरने की अवस्था में सड़क पर पड़ा हो, आप अपने आंख, कान बंद रख मस्त रहिए और अपनी राह चलिए. किसी असहाय पर होते अत्याचार को देख आप को अपना मुंह खोलने की जरूरत नहीं.

ऐसा भी नहीं है कि झूठ बोलने की अनिवार्यता सिर्फ हमें ही पड़ती हो. अमेरिका जैसे सुखीसंपन्न देश के लोगों को भी जीने के लिए कम झूठ नहीं बोलना पड़ता. रोजमर्रा की परेशानियों से बचे होने के कारण उन के पास हर फालतू विषय पर रिसर्च करने का समय और साधन हैं. जेम्स पैटरसन ने 2 हजार अमेरिकियों का सर्वे किया तो 91 प्रतिशत लोगों ने झूठ बोलना स्वीकार किया.

फील्डमैन की रिसर्च बताती है कि 62 प्रतिशत व्यक्ति 10 मिनट के भीतर 2 या 3 बार झूठ बोल जाते हैं. उन की खोज यह भी बताती है कि पुरुषों के बजाय स्त्रियां झूठ बोलने में अधिक माहिर होती हैं जबकि पुरुषों का छोटा सा झूठ भी जल्दी पकड़ा जाता है. स्त्रियां लंबाचौड़ा झूठ बहुत सफलता से बोल जाती हैं. हमारे नेता लोग गौर करें और अधिक से अधिक स्त्रियों को अपनी पार्टी में शामिल करें. इस में उन्हीं का लाभ है.

बिना किसी रिसर्च एवं सर्वे के हम जानते हैं कि झूठ 3 तरह का होता है. पहला झूठ वह जो किसी मजबूरीवश बोला जाए. आप की भतीजी का विवाह है और भाई बीमार रहते हैं. अत: सारा बंदोबस्त आप को ही करना है. आप को 15 दिन की छुट्टी तो चाहिए ही. पर जानते हैं कि आप का तंगदिल बौस हर्गिज इतनी छुट्टी नहीं देगा. चाह कर भी आप उसे सत्य नहीं बताते और कोई व्यथाकथा सुना कर छुट्टी मंजूर करवाते हैं.

दूसरा झूठ वह होता है, जो किसी लाभवश बोला जाए. बीच सड़क पर कोई आप को अपने बच्चे के बीमार होने और दवा के भी पैसे न होने की दर्दभरी पर एकदम झूठी दास्तान सुना कर पैसे ऐंठ ले जाता है. साधारण भिखारी को आप रुपयाअठन्नी दे कर चलता करते हैं पर ऐसे भिखारी को आप 100-100 के बड़े नोट पकड़ा देते हैं. यह और बात है कि आप के आगे बढ़ते ही वह दूसरे व्यक्ति को वही दास्तान सुनाने लगता है और शाम तक यों वह छोटामोटा खजाना जमा कर लेता है.

कुछ लोग आदतन भी झूठ बोलते हैं और यही होते हैं झूठ बोलने में माहिर तीसरे किस्म के लोग. इस में न कोई उन की मजबूरी होती है न लाभ. एक हमारी आंटी हैं, उन की बातों का हर वाक्य ‘रब झूठ न बुलवाए’ से शुरू होता है पर पिछले 40 साल में मैं ने तो उन्हें कभी सच बोलते नहीं सुना. सामान्य बच्चों को जैसे शिक्षा दी जाती है कि झूठ बोलना पाप है शायद उन्हें घुट्टी में यही पिलाया गया था कि ‘बच्चे सच कभी मत बोलना.’  बाल सफेद होने को आए वह अभी तक अपने उसी उसूल पर टिकी हुई हैं. रब झूठ न बुलवाए, इस में उन की न तो कोई मजबूरी होती है न ही लाभ.

सदैव सत्य ही बोलूंगा जैसा प्रण ले कर धर्मसंकट में भी पड़ा जा सकता है. एक बार हुआ यों कि एक मशहूर अपराधी की मौत हो गई और परंपरा है कि मृतक की तारीफ में दो शब्द बोले जाएं. यह तो कह नहीं सकते कि चलो, अच्छा हुआ जान छूटी. यहां समस्या और भी घनी थी. उस गांव का ऐसा नियम था कि बिना यह परंपरा निभाए दाह संस्कार नहीं हो सकता. पर कोई आगे बढ़ कर मृतक की तारीफ में कुछ भी बोलने को तैयार नहीं. अंत में एक वृद्ध सज्जन ने स्थिति संभाली.

‘‘अपने भाई की तुलना में यह व्यक्ति देवता था,’’ उस ने कहा, ‘‘सच भी था. भाई के नाम तो कत्ल और बलात्कार के कई मुकदमे दर्ज थे. अपने भाई से कई गुना बढ़ कर. अब उस की मृत्यु पर क्या कहेंगे यह वृद्ध सज्जन. यह उन की समस्या है पर कभीकभी झूठ को सच की तरह पेश करने के लिए उसे कई घुमावदार गलियों से ले जाना पड़ता है यह हम ने उन से सीखा.

मुश्किल यह है कि हम ने अपने बच्चों को नैतिक पाठ तो पढ़ा दिए पर वैसा माहौल नहीं दे पाए. आज के घोर अनैतिक युग में यदि वे सत्य वचन की ही ठान लेंगे तो जीवन भर संघर्ष ही करते रह जाएंगे. फिल्म ‘सत्यकाम’ देखी थी आप ने? वह भी अब बीते कल की बात लगती है. हमारे नैतिक मूल्य तब से घटे ही हैं सुधरे नहीं. आज के झूठ और भ्रष्टाचार के युग में नैतिक उपदेशों की कितनी प्रासंगिकता है ऐसे में क्या हम अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देना छोड़ दें. संस्कार सब दफन कर डालें? प्रश्न कड़वा जरूर है पर पूछना आवश्यक. बच्चों को वह शिक्षा दें, जो व्यावहारिक हो जिस का निर्वाह किया जा सके. उस से बड़ी शर्त यह कि जिस का हम स्वयं पालन करते हों.

सब से बड़ा झूठ तो यही कहना, सोचना है कि हम झूठ बोलते नहीं. कभी हम शिष्टाचारवश झूठ बोलते हैं तो कभी समाज में बने रहने के लिए. कभी मातहत से काम करवाने के लिए झूठ बोलते हैं तो कभी बौस से छुट्टी मांगने के लिए. सामने वाले का दिल न दुखे इस कारण झूठ का सहारा लेना पड़ता है तो कभी सजा अथवा शर्मिंदगी से बचने के लिए. कभी टैक्स बचाने के लिए, कभी किरायाभाड़ा कम करने के लिए. चमचागीरी तो पूरी ही झूठ पर टिकी है. मतलब कभी हित साधन और कभी मजबूरी से. तो फिर हम सत्य कब बोलते हैं?

शीर्षक तो मैं ने रखा था कि ‘मैं झूठ नहीं बोलती’ पर लगता है गलत हो गया. इस लेख का शीर्षक तो होना चाहिए था,  ‘मैं कभी सत्य नहीं बोलती.’

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