कुदरत ऐसे 2 लोगों को क्यों मिलाती है, जो उन्हें एक कर सके, ऐसा कोई रास्ता ही नहीं बनाया होता है? न जाने कैसे रह पाते हैं वे, जैसे कंठ में विष हो, जो न निगला जाए और न उगला जाए? ऐसा ही कुछ आशा और देबू के साथ हुआ.

‘‘पापा, क्यों की आप ने मेरी शादी वहां? क्या जल्दी थी आप को मुझे घर से निकालने की? कितना कहा कि 1-2 साल दे दो मुझे, मैं आगे पढ़ना चाहती हूं. बाद में कर देना शादी मेरी...’’

पापा बोले, ‘‘बाद में क्या हो जाता? तब कुछ बदल जाता क्या?’’

आशा इन्हीं खयालों में खोई हुई थी कि कैसे शादी के थोड़े समय बाद ही उस ने पापा से यह शिकायत की थी, लेकिन पापा ने इस मामले में कुछ खास दिलचस्पी नहीं ली थी.

आशा को याद आ गए वे दिन... बीए ही तो किया था उस ने. आगे पढ़ना चाहती थी वह, लेकिन पापा नहीं माने. वे शादी के लिए जल्दी करने लगे और आननफानन में 4-5 लड़के देख कर ही थक गए और एक जगह हां कर दी.

लड़के वाले भी तैयार थे और शादी कर दी गई. आशा ने कहा भी था, ‘‘एक बार हम दोनों को मिलना चाहिए, बात करनी चाहिए.’’

लेकिन कोई नहीं माना और आखिर में वही हुआ, जिस का डर था. दोनों के विचार नहीं मिलते थे, सोच नहीं मिलती थी, पसंद नहीं मिलती थी. लड़का

कम पढ़ालिखा था, छोटी सोच, हर पल निगाहों में शक, कहां तक सहे कोई, लेकिन और कोई रास्ता भी तो नहीं था.

आशा उस दिन को याद कर के कोसती है, जब...

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