Family Story 2025 : बदलते रिश्ते

Family Story 2025 : मेरे बचपन का दोस्त रमेश काफी परेशान और उत्तेजित हालत में मुझ से मिलने मेरी दुकान पर आया और अपनी बात कहने के लिए मुझे दुकान से बाहर ले गया. वह नहीं चाहता था कि उस के मुंह से निकला एक शब्द भी कोई दूसरा सुने.

‘‘मैं अच्छी खबर नहीं लाया हूं पर तेरा दोस्त होने के नाते चुप भी नहीं रह सकता,’’ रमेश बेचैनी के साथ बोला.

‘‘खबर क्या है?’’ मेरे भी दिल की धड़कनें बढ़ने लगीं.

‘‘वंदना भाभी को मैं ने आज शाम नेहरू पार्क में एक आदमी के साथ घूमते देखा है. वह दोनों 1 घंटे से ज्यादा समय तक साथसाथ थे.’’

‘‘इस में परेशान होने वाली क्या बात है?’’ मेरे मन की चिंता काफी कम हो गई पर बेचैनी कायम रही.

‘‘संजीव, मैं ने जो देखा है उसे सुन कर तू गुस्सा बिलकुल मत करना. देख, हम दोनों शांत मन से इस समस्या का हल जरूर निकाल लेंगे. मैं तेरे साथ हूं, मेरे यार,’’ रमेश ने भावुक हो कर मुझे अपनी छाती से लगा लिया.

‘‘तू ने जो देखा है, वह मुझे बता,’’ उस की भावुकता देख मैं, मुसकराना चाहा पर गंभीर बना रहा.

‘‘यार, उस आदमी की नीयत ठीक नहीं है. वह वंदना भाभी पर डोरे डाल रहा है.’’

‘‘ऐसा तू किस आधार पर कह रहा है?’’

‘‘अरे, वह भाभी का हाथ पकड़ कर घूम रहा था. उस के हंसनेबोलने का ढंग अश्लील था…वे दोनों पार्क में प्रेमीप्रेमिका की तरह घूम रहे थे…वह भाभी के साथ चिपका ही जा रहा था.’’

जो व्यक्ति वंदना के साथ पार्क में था, उस के रंगरूप का ब्यौरा मैं खुद रमेश को दे सकता था पर यह काम मैं ने उसे करने दिया.

‘‘क्या तू उस आदमी को पहचानता है?’’ रमेश ने चिंतित लहजे में प्रश्न किया.

मैं ने इनकार में सिर दाएंबाएं हिला कर झूठा जवाब दिया.

‘‘अब क्या करेगा तू?’’

‘‘तू ही सलाह दे,’’ उस की देखादेखी मैं भी उलझन का शिकार बन गया.

‘‘देख संजीव, भाभी के साथ गुस्सा व लड़ाईझगड़ा मत करना. आज घर जा कर उन से पूछताछ कर पहले देख कि वह उस के साथ नेहरू पार्क में होने की बात स्वीकार भी करती हैं या नहीं. अगर दाल में काला होगा… उन के मन में खोट होगा तो वह झूठ का सहारा लेंगी.’’

‘‘अगर उस ने झूठ बोला तो क्या करूं?’’

‘‘कुछ मत करना. इस मामले पर सोचविचार कर के ही कोई कदम उठाएंगे.’’

‘‘ठीक है, पूछताछ के बाद मैं बताता हूं तुझे कि वंदना ने क्या सफाई दी है.’’

‘‘मैं कल मिलता हूं तुझ से.’’

‘‘कल दुकान की छुट्टी है रमेश, परसों आना मेरे पास.’’

रमेश मुझे सांत्वना दे कर चला गया. घर लौटने तक मैं रहरह कर धीरज और वंदना के बारे में विचार करता रहा.

हमारी शादी को 5 साल बीत चुके हैं. वंदना उस समय भी उसी आफिस में काम करती थी जिस में आज कर रही है. धीरज वहां उस का वरिष्ठ सहयोगी था. शादी के बाद जब भी वह आफिस की बातें सुनाती, धीरज का नाम वार्तालाप में अकसर आता रहता.

वंदना मेरे संयुक्त परिवार में बड़ी बहू बन कर आई थी. आफिस जाने वाली बहू से हम दबेंगे नहीं, इस सोच के चलते मेरे मातापिता की उस से शुरू से ही नहीं बनी. उन की देखादेखी मेरा छोटा भाई सौरभ व बहन सविता भी वंदना के खिलाफ हो गए.

सौरभ की शादी डेढ़ साल पहले हुई. उस की पत्नी अर्चना, वंदना से कहीं ज्यादा चुस्त व व्यवहारकुशल थी. वह जल्दी ही सब की चहेती बन गई. वंदना और भी ज्यादा अलगथलग पड़ गई. इस के साथ सब का क्लेश व झगड़ा बढ़ता गया.

अर्चना के आने के बाद वंदना बहुत परेशान रहने लगी. मेरे सामने खूब रोती या मुझ से झगड़ पड़ती.

‘‘आप की पीठ पीछे मेरे साथ बहुत ज्यादा दुर्व्यवहार होता है. मैं इस घर में नहीं रहना चाहती हूं,’’ वंदना ने जब अलग होने की जिद पकड़ी तो मैं बहुत परेशान हो गया.

मुझे वंदना के साथ गुजारने को ज्यादा समय नहीं मिलता था. उस की छुट्टी रविवार को होती और दुकान के बंद होने का दिन सोमवार था. मुझे रात को घर लौटतेलौटते 9 बजे से ज्यादा का समय हो जाता. थका होने के कारण मैं उस की बातें ज्यादा ध्यान से नहीं सुन पाता. इन सब कारणों से हमारे आपसी संबंधों में खटास और खिंचाव बढ़ने लगा.

यही वह समय था जब धीरज ने वंदना के सलाहकार के रूप में उस के दिल में जगह बना ली थी. आफिस में उस से किसी भी समस्या पर हुई चर्चा की जानकारी मुझे वंदना रोज देती. मैं ने साफ महसूस किया कि मेरी तुलना में धीरज की सलाहों को वंदना कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण, सार्थक और सही मानती थी.

‘‘आप का झुकाव अपने घर वालों की तरफ सदा रहेगा जबकि धीरज निष्पक्ष और सटीक सलाह देते हैं. मेरे मन की अशांति दूर कर मेरा हौसला बढ़ाना उन्हें बखूबी आता है,’’ वंदना के इस कथन से मैं भी मन ही मन सहमत था.

घर के झगड़ों से तंग आ कर वंदना ने मायके भाग जाने का मन बनाया तो धीरज ने उसे रोका. घर से अलग होने की वंदना की जिद उसी ने दूर की. उसी की सलाह पर चलते हुए वह घर में ज्यादा शांत व सहज रहने का प्रयास करती थी.

इस में कोई शक नहीं कि धीरज की सलाहें सकारात्मक और वंदना के हित में होतीं. उस के प्रभाव में आने के बाद वंदना में जो बदलाव आया उस का फायदा सभी को हुआ.

पत्नी की जिंदगी में कोई दूसरा पुरुष उस से ज्यादा अहमियत रखे, ये बात किसी भी पति को आसानी से हजम नहीं होगी. मैं वंदना को धीरज से दूर रहने का आदेश देता तो नुकसान अपना ही होता. दूसरी तरफ दोनों के बीच बढ़ती घनिष्ठता का एहसास मुझे वंदना की बातों से होता रहता था और मेरे मन की बेचैनी व जलन बढ़ जाती थी.

धीरज को जाननासमझना मेरे लिए अब जरूरी हो गया. तभी मेरे आग्रह पर एक छुट्टी वाले दिन वंदना और मैं उस के घर पहुंच गए. मेरी तरह उस दिन वंदना भी उस के परिवार के सदस्यों से पहली बार मिली.

धीरज की मां बड़ी बातूनी पर सीधीसादी महिला थीं. उस की पत्नी निर्मला का स्वभाव गंभीर लगा. घर की बेहतरीन साफसफाई व सजावट देख कर मैं ने अंदाजा लगाया कि वह जरूर कुशल गृहिणी होगी.

धीरज का बेटा नीरज 12वीं में और बेटी निशा कालिज में पढ़ते थे. उन्होंने हमारे 3 वर्षीय बेटे सुमित से बड़ी जल्दी दोस्ती कर उस का दिल जीत लिया.

कुल मिला कर हम उन के घर करीब 2 घंटे तक रुके थे. वह वक्त हंसीखुशी के साथ गुजरा. मेरे मन में वंदना व धीरज के घनिष्ठ संबंधों को ले कर खिंचाव न होता तो उस के परिवार से दोस्ती होना बड़ा सुखद लगता.

‘‘तुम्हें धीरज से अपने संबंध इतने ज्यादा नहीं बढ़ाने चाहिए कि लोग गलत मतलब लगाने लगें,’’ अपनी आंतरिक बेचैनी से मजबूर हो कर एक दिन मैं ने उसे सलाह दी.

‘‘लोगों की फिक्र मैं नहीं करती. हां, आप के मन में गलत तरह का शक जड़ें जमा रहा हो तो साफसाफ कहो,’’ वंदना ध्यान से मेरे चेहरे को पढ़ने लगी.

‘‘मुझे तुम पर विश्वास है,’’ मैं ने जवाब दिया.

‘‘और इस विश्वास को मैं कभी नहीं तोड़ूंगी,’’ वंदना भावुक हो गई, ‘‘मेरे मानसिक संतुलन को बनाए रखने में धीरज का गहरा योगदान है. मैं उन से बहुत कुछ सीख रही हूं…वह मेरे गुरु भी हैं और मित्र भी. उन के और मेरे संबंध को आप कभी गलत मत समझना, प्लीज.’’

धीरज के कारण वंदना के स्वभाव में जो सुखद बदलाव आए उन्हें देख कर मैं ने धीरेधीरे उन के प्रति नकारात्मक ढंग से सोचना कम कर दिया. अपनी पत्नी के मुंह से हर रोज कई बार उस का नाम सुनना तब मुझे कम परेशान करने लगा.

उस दिन रात को भी वंदना ने खुद ही मुझे बता दिया कि वह धीरज के साथ नेहरू पार्क घूमने गई थी.

‘‘आज किस वजह से परेशान थीं तुम?’’ मैं ने उस से पूछा.

‘‘मैं नहीं, बल्कि धीरज तनाव के शिकार थे,’’ वंदना की आंखों में चिंता के भाव उभरे.

‘‘उन्हें किस बात की टैंशन है?’’

‘‘उन की पत्नी के ई.सी.जी. में गड़बड़ निकली है. शायद दिल का आपरेशन भी करना पड़ जाए. अभी दोनों बच्चे छोटे हैं. फिर उन की आर्थिक स्थिति भी मजबूत नहीं है. इन्हीं सब बातों के कारण वह चिंतित और परेशान थे.’’

कुछ देर तक खामोश रहने के बाद वंदना ने मेरा हाथ अपने हाथों में लिया और भावुक लहजे में बोली, ‘‘जो काम धीरज हमेशा मेरे साथ करते हैं, वह आज मैं ने किया. मुझ से बातें कर के उन के मन का बोझ हलका हुआ. मैं एक और वादा उन से कर आई हूं.’’

‘‘कैसा वादा?’’

‘‘यही कि इस कठिन समय में मैं उन की आर्थिक सहायता भी करूंगी. मुझे विश्वास है कि आप मेरा वादा झूठा नहीं पड़ने देंगे. हमारे विवाहित जीवन की सुखशांति बनाए रखने में उन का बड़ा योगदान है. अगर उन्हें 10-20 हजार रुपए देने पड़ें तो आप पीछे नहीं हटेंगे न?’’

वंदना के मनोभावों की कद्र करते हुए मैं ने सहज भाव से मुसकराते हुए जवाब दिया, ‘‘अपने गुरुजी के मामलों में तुम्हारा फैसला ही मेरा फैसला है, वंदना. मैं हर कदम पर तुम्हारे साथ हूं. हमारा एकदूसरे पर विश्वास कभी डगमगाना नहीं चाहिए.’’

अपनी आंखों में कृतज्ञता के भाव पैदा कर के वंदना ने मुझे ‘धन्यवाद’ दिया. मैं ने हाथ फैलाए तो वह फौरन मेरी छाती से आ लगी.

इस समय वंदना को मैं ने अपने हृदय के बहुत करीब महसूस किया. धीरज और उस के दोस्ताना संबंध को ले कर मैं रत्ती भर भी परेशान न था. सच तो यह था कि मैं खुद धीरज को अपने दिल के काफी करीब महसूस कर रहा था.

धीरज को अपना पारिवारिक मित्र बनाने का मन मैं बना चुका था.

2 दिन बाद रमेश परेशान व उत्तेजित अवस्था में मुझ से मिलने पहुंचा. वक्त की नजाकत को महसूस करते हुए मैं ने भी गंभीरता का मुखौटा लगा लिया.

‘‘क्या वंदना भाभी ने उस व्यक्ति के साथ नेहरू पार्क में घूमने जाने की बात तुम्हें खुद बताई, संजीव?’’ रमेश ने मेरे पास बैठते ही धीमी, पर आवेश भरी आवाज में प्रश्न पूछा.

‘‘हां,’’ मैं ने सिर हिलाया.

‘‘अच्छा,’’ वह हैरान हो उठा, ‘‘कौन है वह?’’

‘‘उन का नाम धीरज है और वह वंदना के साथ काम करते हैं.’’

‘‘उस के साथ घूमने जाने का कारण भाभी ने क्या बताया?’’

‘‘किसी मामले में वह परेशान थे. वंदना से सलाह लेना चाहते थे. उस से बातें कर के मन का बोझ हलका कर लिया उन्होंने,’’ मैं ने सत्य को ही अपने जवाब का आधार बनाया.

‘‘मुझे तो वह परेशान या दुखी नहीं, बल्कि एक चालू इनसान लगा है,’’ रमेश भड़क उठा, ‘‘उस ने भाभी का कई बार हाथ पकड़ा… कंधे पर हाथ रख कर बातें कर रहा था. मैं यकीन के साथ कह सकता हूं कि भाभी को ले कर उस की नीयत खराब है.’’

‘‘मेरे भाई, तेरा अंदाजा गलत है. वंदना धीरज को अपना शुभचिंतक व अच्छा मित्र मानती है,’’ मैं ने उसे प्यार से समझाया.

‘‘मित्र, पराए पुरुष के साथ शादीशुदा औरत की मित्रता कैसे हो सकती है?’’ उस ने आवेश भरे लहजे में प्रश्न पूछा.

‘‘एक बात का जवाब देगा?’’

‘‘पूछ.’’

‘‘हम दोस्तों में सब से पहले विकास की शादी हुई थी. अनिता भाभी के हम सब लाड़ले देवर थे. उन का हाथ हम ने अनेक बार पकड़ कर उन से अपने दिल की बातें कही होंगी. क्या तब हमारे संबंधों को तुम ने अश्लील व गलत समझा था?’’

‘‘नहीं, क्योंकि हम एकदूसरे के विश्वसनीय थे. हमारे मन में कोई खोट नहीं था,’’ रमेश ने जवाब दिया.

‘‘इस का मतलब कि स्त्रीपुरुष के संबंध को गलत करार देने के लिए हाथ पकड़ना महत्त्वपूर्ण नहीं है, मन में खोट होना जरूरी है?’’

‘‘हां, और तू इस धीरज…’’

‘‘पहले तू मेरी बात पूरी सुन,’’ मैं ने उसे टोका, ‘‘अगर मैं और तुम हाथ पकड़ कर घूमें… या वंदना तेरी पत्नी के साथ हाथ पकड़ कर घूमे…फिल्म देख आए…रेस्तरां में कौफी पी ले तो क्या हमारे और उन के संबंध गलत कहलाएंगे?’’

‘‘नहीं, पर…’’

‘‘पहले मुझे अपनी बात पूरी करने दे. हमारे या हमारी पत्नियों के बीच दोस्ती का संबंध ही तो है. देख, पहले की बात जुदा थी, तब स्त्रियों का पुरुषों के साथ उठनाबैठना नहीं होता था. आज की नारी आफिस जाती है. बाहर के सब काम करती है. इस कारण उस की जानपहचान के पुरुषों का दायरा काफी बड़ा हुआ है. इन पुरुषों में से क्या कोई उस का अच्छा मित्र नहीं बन सकता?’’

‘‘हमें दूसरों की नकल नहीं करनी है, संजीव,’’ मेरे मुकाबले अब रमेश कहीं ज्यादा शांत नजर आने लगा, ‘‘हम ऐसे बीज बोने की इजाजत क्यों दें जिस के कारण कल को कड़वे फल आएं?’’

‘‘मेरे यार, तू भी अगर शांत मन से सोचेगा तो पाएगा कि मामला कतई गंभीर नहीं है. पुरानी धारणाओं व मान्यताओं को एक तरफ कर नए ढंग से और बदल रहे समय को ध्यान में रख कर सोचविचार कर मेरे भाई,’’ मैं ने रमेश का हाथ दोस्ताना अंदाज में अपने हाथों में ले लिया.

कुछ देर खामोश रहने के बाद उस ने सोचपूर्ण लहजे में पूछा, ‘‘अपने दिल की बात कहते हुए जैसे तू ने मेरा हाथ पकड़ लिया, क्या धीरज को भी वंदना भाभी का वैसे ही हाथ पकड़ने का अधिकार है?’’

‘‘बिलकुल है,’’ मैं ने जोर दे कर अपनी राय बताई.

‘‘स्त्रीपुरुष के रिश्ते में आ रहे इस बदलाव को मेरा मन आसानी से स्वीकार नहीं कर रहा है, संजीव,’’ उस ने गहरी सांस खींची.

‘‘क्योंकि तुम भविष्य में उन के बीच किसी अनहोनी की कल्पना कर के डर रहे हो. अब हमें दोस्ती को दोस्ती ही समझना होगा…चाहे वह 2 पुरुषों या 2 स्त्रियों या 1 पुरुष 1 स्त्री के बीच हो. रिश्तों के बदलते स्वरूप को समझ कर हमें स्त्रीपुरुष के संबंध को ले कर अनैतिकता की परिभाषा बदलनी होगी.

‘‘देखो, किसी कुंआरी लड़की के अपने पुरुष प्रेमी से अतीत में बने सैक्स संबंध उसे आज चरित्रहीन नहीं बनाते. शादीशुदा स्त्री का उस के पुरुष मित्र से सैक्स संबंध स्थापित होने का हमारा भय या अंदेशा उन के संबंध को अनैतिकता के दायरे में नहीं ला सकता. मेरी समझ से बदलते समय की यही मांग है. मैं तो वंदना और धीरज के रिश्ते को इसी नजरिए से देखता हूं, दोस्त.’’

मैं ने साफ महसूस किया कि रमेश मेरे तर्क व नजरिए से संतुष्ट नहीं था.

‘‘तेरीमेरी सोच अलगअलग है यार. बस, तू चौकस और होशियार रहना,’’ ऐसी सलाह दे कर रमेश नाराज सा नजर आता दुकान से बाहर चला गया.

मेरा उखड़ा मूड धीरेधीरे ठीक हो गया. बाद में घर पहुंच कर मैं ने वंदना को शांत व प्रसन्न पाया तो मूड पूरी तरह सुधर गया.

हां, उस दिन मैं जरूर चौंका था जब हम रामलाल की दुकान में गए थे और वहां रमेश की पत्नी किसी के हाथों से गोलगप्पे खा रही थी और रमेश मजे में आलूचाट की प्लेट साफ करने में लगा था. यह आदमी कौन था मैं अच्छी तरह जानता था. वह रमेश के मकान में ऊपर चौथी मंजिल पर रहता है और दोनों परिवारों में खासी पहचान है. मैं ने गहरी सांस ली, एक और चेला, गुरु से आगे निकल गया न.

लेखक- डा. सुधीर शर्मा

Social Story : वह बुरी लड़की

‘‘क्या सोच रहे हैं? बहू की मुंह दिखाई कीजिए न. कब से बेचारी आंखें बंद किए बैठी है.’’

कमलकांत हाथ में कंगन का जोड़ा थामे संज्ञाशून्य खड़े रह गए. ज्यादा देर खड़े होना भी मानो मुश्किल लग रहा था, ‘‘मुझे चक्कर आ रहा है…’’ कहते हुए उन्होंने दीवार का सहारा ले लिया और तेजी से हौल से बाहर निकल आए.

अपने कमरे में आ कर वे धम्म से कुरसी पर बैठ गए. ऐसा लग रहा था जैसे वह मीलों दौड़ कर आए हों, पीछेपीछे नंदा भी दौड़ी आई, ‘‘क्या हो गया है आप को?’’

‘‘कुछ नहीं, चक्कर आ गया था.’’

‘‘आप आराम करें. लगता है शादी का गरिष्ठ भोजन और नींद की कमी, आप को तकलीफ दे गई.’’

‘‘मुझे अकेला ही रहने दो. किसी को यहां मत आने देना.’’

‘‘हां, हां, मैं बाहर बोल कर आती हूं,’’ वह जातेजाते बोली.

‘‘नहीं नंदा, तुम भी नहीं…’’ कमलकांत एकांत में अपने मन की व्यथा का मंथन करना चाहते थे जो स्थिति एकदम से सामने आ गई थी उसे जीवनपर्यंत कैसे निभा पाएंगे, इसी पर विचार करना चाहते थे. पत्नी को आश्चर्य हुआ कि उसे भी रुकने से मना कर रहे हैं, फिर कुछ सोच, पंखा तेज कर वह बाहर निकल गई.

धीरेधीरे घर में सन्नाटा फैल गया. नंदा 2-3 बार आ कर झांक गई थी. कमलकांत आंख बंद किए लेटे रहे. एक बार बेटा देबू भी आ कर झांक गया, लेकिन उन्हें चैन से सोता देख कर चुपचाप बाहर निकल गया. कमलकांत सो कहां रहे थे, वे तो जानबूझ कर बेटे को देख कर सोने का नाटक कर रहे थे.

सन्नाटे में उन्हें महसूस हुआ, वह गुजरती रात अपने अंदर कितना बड़ा तूफान समेटे हुए है. बेटे व बहू की यह सुहागरात एक पल में तूफान के जोर से धराशायी हो सकती है. अपने अंदर का तूफान वे दबाए रहें या बहने दें. कमलकांत की आंख के कोरों में आंसू आ कर ठहर गए.

नंदा आई, उन्हें निहार कर और सोफे पर सोता देख स्वयं भी सोफे से कुशन उठा कर सिर के नीचे लगा कालीन पर ही लुढ़क गई. देबू ने कई बार डाक्टर बुलाने के लिए कहा था, पर कमलकांत होंठ सिए बैठे रहे थे. पति के शब्दों का अक्षरश: पालन करने वाली नंदा ने भी जोर नहीं दिया. विवाह के 28 वर्षों में कभी छोटीमोटी तकरार के अलावा, कोई ऐसी चोट नहीं दी थी, जिस का घाव रिसता रहता.

कमलकांत को जब पक्का यकीन हो गया कि नंदा सो गई है तो उन्होंने आंखें खोल दीं. तब तक आंखों की कोरों पर ठहरे आंसू सूख चुके थे. वे चुपचाप उठ कर बैठ गए. कमरे में धीमा नीला प्रकाश फैला था. बाहर अंधेरा था. दूर छत की छाजन पर बिजली की झालरें अब भी सजी थीं.

रात के इस पहर यदि कोई जाग रहा होगा तो देबू, उस की पत्नी या वह स्वयं. उन्होंने बेबसी से अपने होंठों को भींच लिया. काश, उन्होंने स्वाति को पहले देख लिया होता. काश, वह जरमनी गए ही न होते. उन के बेटे के गले लगने वाली स्वाति जाने कितनों के गले लग चुकी होगी. कैसे बताएं वह देबू और नंदा से कि जिसे वह गृहस्वामिनी बना कर लाए हैं वह किंकिर बनने के योग्य भी नहीं है. वह एक गिरी हुई चरित्रहीन लड़की है. अंधकार में दूर बिजली की झिलमिल में उन्हें एक वर्ष पूर्व की घटना याद आई तो वे पीछे अतीत में लुढ़क गए.

कमलकांत का ऊन का व्यापार था. इस में काफी नाम व पैसा कमाया था उन्होंने. घर में किसी चीज की कमी नहीं थी. सभी व्यसनों से दूर कमलकांत ने जो पैसा कमाया, वह घरपरिवार पर खर्च किया. पत्नी नंदा व पुत्र देबू के बीच, उन का बहुत खुशहाल परिवार था.

एक साल पहले उन्हें व्यापार के सिलसिले में मुंबई जाना पड़ा था. वे एक अच्छे होटल में ठहरे थे. वहां चेन्नई की एक पार्टी से उन की मुलाकात होनी थी. नियत समय पर वे शाम 7 बजे होटल के कमरे में पहुंचे थे. लिफ्ट से जा कर उन्होंने होटल के कमरा नंबर 305 के दरवाजे पर ज्यों ही हाथ रखा था, फिर जोर लगाने की जरूरत नहीं पड़ी. एक झटके से दरवाजा खुला और एक लड़की तेजी से बाहर निकली. उस लड़की का पूरा चेहरा उन के सामने था.

उस लड़की की तरफ वे आकर्षित हुए. कंधे पर थैला टांगे, आकर्षक वस्त्रों में घबराई हुई सी वह युवती तेजी से बिना उन की तरफ देखे बाहर निकल गई. पहले तो उन्होंने सोचा, वापस लौट जाएं पता नहीं अंदर क्या चल रहा हो. तभी सामने मिस्टर रंगनाथन, जो चेन्नई से आए थे, दिख गए तो वापस लौटना मुश्किल हो गया.

‘आइए, कमलकांतजी, मैं आप का ही इंतजार कर रहा था. कैसे रही आप की यात्रा?’

‘जी, बहुत अच्छी, पर मिस्टर नाथन, मैं…वह लड़की…’

‘ओह, वे उस समय पैंट और शर्ट पहन रहे थे. मुसकरा कर बोले, ‘ये तो मौजमस्ती की चीजें हैं. भई कमलकांत, हम ऊपरी कमाई वाला पैसा 2 ही चीजों पर तो खर्च करते हैं, बीवी के जेवरों और ऐसी लड़कियों पर,’ रंगनाथन जोर से हंस पड़े.

कमलकांत का जी खराब हो गया. लानत है ऐसे पैसे और ऐश पर. लाखों के नुकसान की बात न होती तो शायद वे वापस लौट आते. लेकिन बातचीत के बीच वह लड़की उन के जेहन से एक सैकंड को भी न उतरी. क्या मजबूरी थी उस की? क्यों इस धंधे में लगी है? इतने अनाड़ी तो वे न थे, जानते थे, पैसे दे कर ऐसी लड़कियों का प्रबंध आराम से हो जाता है.

होटल में ठहरे उन के व्यवसायी मित्र ने जरूर उसे पैसे दे कर बुलवाया होगा. उस वक्त वे उस लड़की की आंखों का पनीलापन भी भूल गए थे. याद था, सिर्फ इतना कि वह एक बुरी लड़की है.

जालंधर लौट कर वे अपने काम में व्यस्त हो गए. कुछ माह बीत गए. तभी उन्हें 3 माह के लिए जरमनी जाना पड़ गया. जब वे जरमनी में थे, देबू का रिश्ता तभी पत्नी ने तय कर दिया था. उन के लौटने के

2 दिनों बाद की शादी की तारीख पड़ी थी. जरमनी से बहू के लिए वे कीमती उपहार भी लाए थे. आने पर नंदा ने कहा भी था, ‘यशोदा को तो तुम जानते हो?’

‘हां भई, तुम्हीं ने तो बताया था जो मुंबई में रहती है. उसी की बेटी स्वाति है न?’

‘हां,’ नंदा बोली, ‘सच पूछो तो पहले मैं बहुत डर रही थी कि पता नहीं तुम इनकार न कर दो कि एक साधारण परिवार की लड़की को…’

‘पगली,’ उस की बात काट कर कमलकांत ने कहा, ‘इतना पैसा हमारे पास है, हमें तो सिर्फ एक सुशील बहू चाहिए.’

‘यशोदा मेरी बचपन की सहेली थी. शादी के बाद पति के साथ मुंबई चली गई थी. 10 वर्ष हुए दिवाकर को गुजरे, तब से बेटी स्वाति ने ही नौकरी कर के परिवार को चलाया है. सुनो, उस का एक छोटा भाई भी है, जो इस वर्ष इंजीनियरिंग में चुन लिया गया है. मैं ने यशोदा से कह दिया है कि बेटे की पढ़ाई के खर्च की चिंता वह न करे. हम यह जिम्मेदारी प्यार से उठाना चाहते हैं. आप को बुरा तो नहीं लगा?’

‘नंदा, यह घर तुम्हारा है और फैसला भी तुम्हारा,’ वे हंस कर बोले थे.

‘पर बहू की फोटो तो देख लो.’

‘अब कितने दिन बचे हैं. इकट्ठे दुलहन के लिबास में ही बहू को देखूंगा. हां, अपना देबू तो खुश है न?’

‘एक ही तो बेटा है. उस की मरजी के खिलाफ कैसे शादी हो सकती है?’

शादी के दौरान भी वे स्वाति को ठीक से न देख पाए थे. जब भी कोई उन्हें दूल्हादुलहन के स्टेज पर उन के साथ फोटो लेने के लिए बुलाने आता, आधे रास्ते से फिर कोई खींच ले जाता. बहू की माथा ढकाई पर वह घूंघट में थी. काश, उसी समय उन्होंने फोटो देख ली होती.

चीं…चीं…के शोर पर कमलकांत वर्तमान में लौट आए. सुबह का धुंधलका फैल रहा था. लेकिन उन के घर की कालिमा धीरेधीरे और गहरा रही थी.

नाश्ते के समय भी जब वे बाहर नहीं निकले तो देबू डाक्टर बुला लाया. उस ने चैकअप के बाद कहा, ‘‘कुछ तनाव है. लगता है सोए भी नहीं हैं. यह दवा दे दीजिएगा. इन्हें नींद आनी जरूरी है.’’

घरभर परेशान था. आखिर अचानक ऐसा क्या हो गया, जो वे एकदम से बीमार पड़ गए. बहू ने आ कर उन के पांव छुए और थोड़ी देर वहां खड़ी भी रही, लेकिन वे आंखें बंद किए पड़े रहे.

‘‘बाबूजी, आप की तबीयत अब कैसी है?’’

‘‘ठीक है,’’ उन्होंने उत्तर दिया.

बहू लौट गई थी. कमलकांत का जी चाहा, इस लड़की को फौरन घर से निकाल दें. यदि यह सारी जिंदगी इसी घर में रहेगी तो भला वे कैसे जी पाएंगे? क्या उन का दम नहीं घुट जाएगा. इस घर की हर सांस, हर कोना उन्हें यह एहसास कराता रहेगा कि उन की बहू एक गिरी हुई लड़की है. इस सत्य से अनभिज्ञ नंदा और देबू, कितने खुश हैं, वे समझ रहे हैं कि स्वाति के रूप में घर में खुशियां आ गई हैं. अजीब कशमकश है जो उन्हें न तो जीने दे रही है, न मरने.

दूसरे दिन जब उन्होंने पत्नी से किसी पहाड़ी जगह चलने की बात कही तो वह हंस दी, ‘‘सठिया गए हो क्या? विवाह हुआ है बेटे का, हनीमून मनाने हम चलें. लोग क्या कहेंगे.’’

‘‘तो बेटेबहू को भेज दो.’’

‘‘उन का तो आरक्षण था, पर बहू ही तैयार नहीं हुई कि पिताजी अस्वस्थ हैं, हम अभी नहीं जाएंगे.’’

वे चिढ़ गए, शराफत व शालीनता का अच्छा नाटक कर रही है यह लड़की. जी हलका करने के लिए वे फैक्टरी चले गए. वहां सभी उन का हाल लेने के लिए आतुर थे. लेकिन इतने लोगों के बीच भी वे सहज नहीं हो पाए. चुपचाप कुरसी पर बैठे रहे. न कोई फाइल खोल कर देखी, न किसी से बात की. जिस ने जो पूछा, ‘हां हूं’ में उत्तर दे दिया.

धीरेधीरे कमलकांत शिथिल होते गए. कारोबार बेटे ने संभाल लिया था. नंदा समझ रही थी, जरमनी में पति के साथ कुछ ऐसा घटा है जिस ने इन्हें तनाव से भर दिया है.

10 माह गुजर गए. स्वाति के पांव उन दिनों भारी थे. अचानक काम के सिलसिले में मुंबई जाने की बात आई तो देबू ने जाने की तैयारी कर ली. पर कमलकांत ने उसे मना कर दिया. मुंबई के नाम से एक दबी चिनगारी फिर भड़क उठी. इतने दिनों बाद भी वह उन के मन से न निकल पाईर् थी. मन में मंथन अभी भी चालू था.

मुंबई जा कर वे एक बार स्वाति के विषय में पता करना चाहते थे. यह प्रमाणित करना होगा कि स्वाति की गुजरी जिंदगी गंदी थी. बलात्कार की शिकार या मजबूरी में इस कार्य में लगी युवती को चाहे वे एक बार अपना लेते, पर स्वेच्छा से इस कार्य में लगी युवती को वे माफ करने को तैयार न थे.

एक बार यदि प्रमाण मिल जाए तो वे बेटे का उस से तलाक दिलवा देंगे. क्यों नहीं मुंबई जा कर यह बात पता करने का विचार उन्हें पहले आया? चुपचाप शादी के अलबम से स्वाति की एक फोटो निकाल उन्होंने मुंबई जाने का विचार बना लिया.

घर में पता चला कि कमलकांत मुंबई जा रहे हैं तो स्वाति ने डरतेसहमते एक पत्र उन्हें पकड़ा दिया, ‘‘बाबूजी, मौका लगे तो घर हो आइएगा. मां आप से मिल कर बहुत खुश होंगी.’’

‘‘हूं,’’ कह कर उन्होंने पत्र ले लिया.

स्वाति के घर जाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था, लेकिन फिर भी कुछ टोह लेने की खातिर उस के घर पहुंच गए.

‘‘बहू यहां कहां काम करती थी?’’ वे शीघ्र ही मतलब की बात पर आ गए.

‘‘होराइजन होटल में, चाचाजी,’’ स्वाति के भाई ने उत्तर दिया.

‘‘भाईसाहब, हमारी इच्छा तो नहीं थी कि स्वाति होटल की नौकरी करे, पर नौकरी अच्छी थी. इज्जतदार होटल है, तनख्वाह भी ठीकठाक थी. फिर आसानी से नौकरी मिलती कहां है?’’

कमलकांत को लगा, समधिन गोलमोल जवाब दे रही हैं कि होटल में उन की बेटी का काम करना मजबूरी थी.

होटल होराइजन के स्वागतकक्ष में पहुंच कर उन्होंने स्वाति की फोटो दिखा कर पूछा, ‘‘मुझे इन मैडम से काम था. क्या आप इन से मुझे मिला सकती हैं?’’

‘‘मैं यहां नई हूं, पता करती हूं,’’ कह कर स्वागतकर्मी महिला ने एक बूढ़े वेटर को बुला कर कुछ पूछा, फिर कमलकांत की तरफ इशारा किया. वह वेटर उन के पास आया फिर साश्चर्य बोला, ‘‘आप स्वातिजी के रिश्तेदार हैं, पहले कभी तो देखा नहीं?’’

‘‘नहीं, मैं उन का रिश्तेदार नहीं, मित्र हूं. एक वर्ष पूर्व उन्होंने मुझ से कुछ सामान मंगवाया था.’’

‘‘आश्चर्य है, स्वाति बिटिया का तो कोई मित्र ही नहीं था. फिर आप से सामान मंगवाना तो बिलकुल गले नहीं उतरता.’’

कमलकांत को समझ में नहीं आया कि क्या उत्तर दें, वेटर कहता रहा, ‘‘वे यहां रूम इंचार्ज थीं. सारा स्टाफ उन की इज्जत करता था.’’

तभी कमलकांत की आंखों के सामने होटल का वह दृश्य घूम गया…जब इसी होटल में उन के चेन्नई के मित्र ठहरे थे. उन्होंने एक छोटा सा निर्णय लिया और उसी होटल में ठहर गए. जब यहां तक पहुंच ही गए हैं तो मंजिल का भी पूरा पता कर ही लें. शाम को चेन्नई फोन मिलाया. व्यापार की कुछ बातें कीं. पता चला 2 दिनों बाद ही चेन्नई की वह पार्टी मुंबई आने वाली है, तो वे भी रुक गए.

सबकुछ मानो चलचित्र सा घटित हो रहा था. कभी कमलकांत सोचते पीछे हट जाएं, बहुत बड़ा जुआ खेल रहे हैं वे. इस में करारी मात भी मिल सकती है. फिर क्या वे उसे पचा पाएंगे? पर इतने आगे बढ़ने के बाद बाजी कैसे फेंक देते.

रात में चेन्नई से आए मित्र के साथ उस के कमरे में बैठ कर इधरउधर की बातों के बीच वे मुख्य मुद्दे पर आ गए, ‘‘रंगनाथन, एक बात बता, यह लड़कियां कैसे मिलती हैं?’’

रंगनाथन ने चौंक कर उन्हें देखा, फिर हंसे, ‘‘वाह, शौक भी जताया तो इस उम्र में. भई, हम ने तो यह सब छोड़ दिया है. हां, यदि तुम चाहो तो इंतजाम हो जाएगा, पर यहां नहीं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘यह होटल इन सब चीजों के लिए नहीं है. यहां इस पर सख्त पाबंदी है.’’

‘‘क्यों झूठ बोलते हो, मैं ने अपनी आंखों से तुम्हारे कमरे से एक लड़की को निकलते देखा था.’’

रंगनाथन कुछ पल सोचता रहा… फिर अचानक चौंक कर बोला, ‘‘तुम 2 वर्ष पहले की बात तो नहीं कर रहे हो?’’

‘‘हां, हां…’’ वही, उस की बात, लपक कर कमलकांत बोले. उन की सांस तेजी से ऊपरनीचे हो रही थी. ऐसा मालूम हो रहा था, जीवन के किसी बहुत बड़े इम्तिहान का नतीजा निकलने वाला हो.

‘‘मुझे याद है, वह लड़की यहां काम करती थी. मैं ने उसे जब स्वागतकक्ष में देखा, तभी मेरी नीयत खराब हो गई थी. अकसर होटलों में मैं लड़की बुलवा लिया करता था. उस दिन…हां, बाथरूम का नल टपक रहा था. उस ने मिस्त्री भेजा. दोबारा फिर जब मैं ने शिकायत तनिक ऊंचे लहजे में की तो वह खुद चली आई.

उस समय वह घर जा रही थी, इसलिए होटल के वस्त्रों में नहीं थी. इस कारण और आकर्षक लग रही थी. मैं ने उस का हाथ पकड़ कर नोटों की एक गड्डी उस के हाथ पर रखी. लेकिन वह मेरा हाथ झटक कर तेजी से बाहर निकल गई. यह वाकेआ मुझे इस कारण भी याद है कि कमरे से निकलते वक्त उस की आंखें आंसुओं में डूब गई थीं.

ऐसा हादसा हमारे साथ कम हुआ था. यहां से जाने के बाद मुझे दिल का दौरा पड़ा. अब ज्यादा उत्तेजना मैं सहन नहीं कर पाता. 6 माह पहले ही पत्नी भी चल बसी. अब सादा, सरल जीवन काफी रास आता है.’’

रंगनाथन बोलते जा रहे थे, उधर कमलकांत को लग रहा था कि वे हलके हो कर हवा में उड़ते जा रहे हैं. अब वे स्वाति की ओर से पूर्ण संतुष्ट थे.

-साधना राकेश 

Family Story : मंदिर

परमहंस गांव से उकता चुका था. गांव के मंदिर के मालिक से उसे महीने भर का राशन ही तो मिलता था, बाकी जरूरतों के लिए उसे और उस की पत्नी को भक्तों द्वारा दिए जाने वाले न के बराबर चढ़ावे पर निर्भर रहना पड़ता था. अब तो उस की बेटी भी 4 साल की हो गई है और उस का खर्च भी बढ़ गया है. तन पर न तो ठीक से कपड़ा, न पेट भर भोजन. एक रात परमहंस अपनी पत्नी को विश्वास में ले कर बोला, ‘‘क्यों न मैं काशी चला जाऊं.’’ ‘‘अकेले?’’ पत्नी सशंकित हो कर बोली.

‘‘अभी तो अकेले ही ठीक रहेगा लेकिन जब वहां काम जम जाएगा तो तुम्हें भी बुला लूंगा,’’ परमहंस खुश होते हुए बोला. ‘‘काशी तो धरमकरम का स्थान है. मुझे पूरा भरोसा है कि वहां तुम्हारा काम जम जाएगा.’’ पत्नी की विश्वास भरी बातें सुन कर परमहंस की बांछें खिल गईं. दूसरे दिन पत्नी से विदा ले कर परमहंस ट्रेन पर चढ़ गया. चलते समय रामनामी ओढ़ना वह नहीं भूला था, क्योंकि बिना टिकट चलने का यही तो लाइसेंस था. माथे पर तिलक लगाए वह बनारस के हसीन खयालों में कुछ ऐसे खोया कि तंद्रा ही तब टूटी जब बनारस आ गया. बनारस पहुंचने पर परमहंस ने चैन की सांस ली.

प्लेटफार्म से बाहर आते ही उस ने अपना दिमाग दौड़ाया. थोडे़ से सोचविचार के बाद गंगाघाट जाना उसे मुनासिब लगा. 2 दिन हो गए उसे घाट पर टहलते मगर कोई खास सफलता नहीं मिली. यहां पंडे़ पहले से ही जमे थे. कहने लगे, ‘‘एक इंच भी नहीं देंगे. पुश्तैनी जगह है. अगर धंधा जमाने की कोशिश की तो समझ लेना लतियाए जाओगे.’’ निराश परमहंस की इस दौरान एक व्यक्ति से जानपहचान हो गई. वह उसे घाट पर सुबहशाम बैठे देखता.

बातोंबातों में परमहंस ने उस के काम के बारे में पूछा तो वह हंस पड़ा और कहने लगा, ‘‘हम कोई काम नहीं करते. सिपाही थे, नौकरी से निकाल दिए गए तो दालरोटी के लिए यहीं जम गए.’’ ‘‘दालरोटी, वह भी यहां?’’ परमहंस आश्चर्य से बोला, ‘‘बिना काम के कैसी दालरोटी?’’ वह सोचने लगा कि वह भी तो ऐसे ही अवसर की तलाश में यहां आया है. फिर तो यह आदमी बड़े काम का है. उस की आंखें चमक उठीं, ‘‘भाई, मुझे भी बताओ, मैं बिहार के एक गांव से रोजीरोटी की तलाश में आया हूं.

क्या मेरा भी कोई जुगाड़ हो सकता है?’’ ‘‘क्यों नहीं,’’ बडे़ इत्मीनान से वह बोला, ‘‘तुम भी मेरे साथ रहो, पूरीकचौरी से आकंठ डूबे रहोगे. बाबा विश्वनाथ की नगरी है, यहां कोई भी भूखा नहीं सोता. कम से कम हम जैसे तो बिलकुल नहीं.’’ इस तरह परमहंस को एक हमकिरदार मिल गया. तभी पंडा सा दिखने वाला एक आदमी, सिपाही के पास आया, ‘‘चलो, जजमान आ गए हैं.’’ सिपाही उठ कर जाने लगा तो इशारे से परमहंस को भी चलने का संकेत दिया. दोनों एक पुराने से मंदिर के पास आए.

वहां एक व्यक्ति सिर मुंडाए श्वेत वस्त्र में खड़ा था. पंडे ने उसे बैठाया फिर खुद भी बैठ गया. कुछ पूजापाठ वगैरह किया. उस के बाद जजमान ने खानेपीने का सामान उस के सामने रख कर खाने का आग्रह किया. तीनों ने बडे़ चाव से देसी घी से छनी पूरी व मिठाइयों का भोजन किया. जजमान उठ कर जाने को हुआ तो पंडे ने उस से पूरे साल का राशनपानी मांगा. जजमान हिचकिचाते हुए बोला, ‘‘इतना कहां से लाएं. अभी मृतक की तेरहवीं का खर्चा पड़ा था.’’ वह चिरौरी करने लगा, ‘‘पीठ ठोक दीजिए महाराज, इस से ज्यादा मुझ से नहीं होगा.’’

बिना लिएदिए जजमान की पीठ ठोकने को पंडा तैयार नहीं था. परमहंस इन सब को बडे़ गौर से देख रहा था. कैसे शास्त्रों की आड़ में जजमान से सबकुछ लूट लेने की कोशिश पंडा कर रहा था. अंतत: 1,001 रुपए लेने के बाद ही पंडे ने सिर झुकवा कर जजमान की पीठ ठोकी. उस ने परम संतोष की सांस ली. अब मृतक की आत्मा को शांति मिल गई होगी, यह सोच कर उस ने आकाश की तरफ देखा. लौटते समय पंडे को छोड़ कर दोनों घाट पर आए. कई सालों के बाद परमहंस ने तबीयत से मनपसंद भोजन का स्वाद लिया था. सिपाही के साथ रहते उसे 15 दिन से ऊपर हो चुके थे. खानेपीने की कोई कमी नहीं थी मगर पत्नी को उस ने वचन दिया था कि सबकुछ ठीक कर के वह उसे बुला लेगा.

कम से कम न बुला पाने की स्थिति में रुपएपैसे तो भेजने ही चाहिए पर पैसे आएं कहां से? परमहंस चिंता में पड़ गया. मेहनत वह कर नहीं सकता था. फिर मेहनत वह करे तो क्यों? पंडे को ही देखा, कैसे छक कर खाया, ऊपर से 1,001 रुपए ले कर भी गया. उसे यह नेमत पैदाइशी मिली है. वह उसे भला क्यों छोडे़? इसी उधेड़बुन में कई दिन और निकल गए. एक दिन सिपाही नहीं आया. पंडा भी नहीं दिख रहा था. हो सकता हो दोनों कहीं गए हों. परमहंस का भूख के मारे बुरा हाल था. वह पत्थर के चबूतरे पर लेटा पेट भरने के बारे में सोच रहा था कि एक महिला अपने बेटे के साथ उस के करीब आ कर बैठ गई और सुस्ताने लगी. परमहंस ने देखा कि उस ने टोकरी में कुछ फल ले रखे थे. मांगने में परमहंस को पहले भी संकोच नहीं था फिर आज तो वह भूखा है, ऐसे में मुंह खोलने में क्या हर्ज?

‘‘माता, आप के पास कुछ खाने के लिए होगा. सुबह से कुछ नहीं खाया है.’’ साधु जान कर उस महिला ने परमहंस को निराश नहीं किया. फल खाते समय परमहंस ने महिला से उस के आने की वजह पूछी तो वह कहने लगी, ‘‘पिछले दिनों मेरे बेटे की तबीयत खराब हो गई थी. मैं ने शीतला मां से मन्नत मांगी थी.’’ परमहंस को अब ज्यादा पूछने की जरूरत नहीं थी. इतने दिन काशी में रह कर कुछकुछ यहां पैसा कमाने के तरीके सीख चुका था. अत: बोला, ‘‘माताजी, मैं आप की हथेली देख सकता हूं.’’ वह महिला पहले तो हिचकिचाई मगर भविष्य जानने का लोभ संवरण नहीं कर सकी. परमहंस कुछ जानता तो था नहीं. उसे तो बस, पैसे जोड़ कर घर भेजने थे. अत: महिला का हाथ देख कर बोला, ‘‘आप की तो भाग्य रेखा ही नहीं है.’’ उस का इतना कहना भर था कि महिला की आंखें नम हो गईं, ‘‘आप ठीक कहते हैं. शादी के 2 साल बाद ही पति का फौज में इंतकाल हो गया.

यही एक बच्चा है जिसे ले कर मैं हमेशा परेशान रहती हूं. एक प्राइवेट स्कूल में काम करती हूं. बच्चा दाई के भरोसे छोड़ कर जाती हूं. यह अकसर बीमार रहता है.’’ ‘‘घर आप का है?’’ परमहंस ने पूछा. ‘‘हां’’ बातों के सिलसिले में परमहंस को पता चला कि वह विधवा थी, और उस ने अपना नाम सावित्री बताया था. विधवा से परमहंस को खयाल आया कि जब वह छोटा था तो एक बार अपने पिता मनसाराम के साथ एक विधवा जजमान के घर अखंड रामायण पाठ करने गया था. रामायण पाठ खत्म होने के बाद पिताजी रात में उस विधवा के यहां ही रुक गए. अगली सुबह पिताजी कुछ परेशान थे. जजमान को बुला कर पूछा, ‘बेटी, यहां कोई बुजुर्ग महिला जल कर मरी थी?’ यह सुन कर वह विधवा जजमान सकते में आ गई. ‘जली तो थी और वह कोई नहीं मेरी मां थी. बाबूजी बहरे थे. दूसरे कमरे में कुछ कर रहे थे. उसी दौरान चूल्हा जलाते समय अचानक मां की साड़ी में आग लग गई.

वह लाख चिल्लाई मगर बहरे होने के कारण पास ही के कमरे में रहते हुए बाबूजी कुछ सुन न सके. इस प्रकार मां अकाल मृत्यु को प्राप्त हुई.’ मनसाराम के मुख से मां के जलने की बात जान कर विधवा की उत्सुकता बढ़ गई और वह बोली, ‘आप को कैसे पता चला?’ ‘बेटी, कल रात मैं ने स्वप्न में देखा कि एक बुजुर्ग महिला जल रही है. वह मुक्ति के लिए छटपटा रही है,’ मनसाराम रहस्यमय ढंग से बोले, ‘इस घटना को 20 साल गुजर चुके थे फिर भी मां को मुक्ति नहीं मिली. मिलेगी भी तो कैसे? अकाल मृत्यु वाले बिना पूजापाठ के नहीं छूटते. उन की आत्मा भटकती रहती है.’

यह सुन कर वह विधवा जजमान भावुक हो उठी. उस ने मुक्ति पाठ कराना मंजूर कर लिया. इस तरह मनसाराम को जो अतिरिक्त दक्षिणा मिली तो वह उस का जिक्र घर आने पर अपनी पत्नी से करना न भूले. परमहंस छोटा था पर इतना भी नहीं कि समझ न सके. उसे पिताजी की कही एकएक बात आज भी याद है जो वह मां को बता रहे थे. जजमान अधेड़ विधवा थी. पास के ही गांव में ग्रामसेविका थी. पैसे की कोई कमी नहीं थी. सो चलतेचलते सोचा, क्यों न कुछ और ऐंठ लिया जाए. शाम को रामायण पाठ खत्म होने के बाद मैं गांव में टहल रहा था कि एक जगह कुछ लोग बैठे आपस में कह रहे थे कि इस विधवा ने अखंड रामायण पाठ करवा कर गांव को पवित्र कर दिया और अपनी मां को भी. मां की बात पूछने पर गांव वालों ने उन्हें बताया कि 20 बरस पहले उन की मां जल कर मरी थी.

बस, मैं ने इसी को पकड़ लिया. स्वप्न की झूठी कहानी गढ़ कर अतिरिक्त दक्षिणा का भी जुगाड़ कर लिया. और इसी के साथ दोनों हंस पडे़. परमहंस के मन में भी ऐसा ही एक विचार जागा, ‘‘आप के पास कुंडली तो होगी?’’ ‘‘हां, घर पर है,’’ सावित्री ने जवाब दिया. ‘‘आप चाहें तो मुझे एक बार दिखा दें, मैं आप को कष्टनिवारण का उपाय बता दूंगा,’’ परमहंस ने इतने निश्छल भाव से कहा कि वह ना न कर सकी. सावित्री तो परमहंस से इतनी प्रभावित हो गई कि घर आने तक का न्योता दे दिया.

परमहंस यही तो चाहता था. सावित्री का अच्छाखासा मकान था. देख कर परमहंस के मन में लालच आ गया. वह इस फिराक में पड़ गया कि कैसे ऐसी कुछ व्यवस्था हो कि कहीं और जाने की जरूरत ही न हो और यह तभी संभव था जब कोई मंदिर वगैरह बने और वह उस का स्थायी पुजारी बन जाए. काशी में धर्म के नाम पर धंधा चमकाने में कोई खास मेहनत नहीं करनी पड़ती.

वह तो उस ने घाट पर ही देख लिया था. मानो दूध गंगा में या फिर बाबा विश्वनाथ को लोग चढ़ा देते हैं. भले ही आम आदमी को पीने के लिए न मिलता हो. सावित्री ने उस की अच्छी आवभगत की. परमहंस कुंडली के बारे में उतना ही जानता था जितना उस का पिता मनसाराम. इधरउधर का जोड़घटाना करने के बाद परमहंस तनिक चिंतित सा बोला, ‘‘ग्रह दोष तो बहुत बड़ा है. बेटे पर हमेशा बना रहेगा.’’ ‘‘कोई उपाय,’’ सावित्री अधीर हो उठी. उपाय है न, शास्त्रों में हर संकट का उपाय है, बशर्ते विश्वास के साथ उस का पालन किया जाए,’’ परमहंस बोला, ‘‘होता यह है कि लोग नास्तिकों के कहने पर बीच में ही पूजापाठ छोड़ देते हैं,’’ कुंडली पर दोबारा नजर डाल कर वह बोला, ‘‘रोजाना सुंदरकांड का पाठ करना होगा व शनिवार को हनुमान का दर्शन.’’

‘‘हनुमानजी का आसपास कोई मंदिर नहीं है. वैसे भी जिस मंदिर की महत्ता है वह काफी दूर है,’’ सावित्री बोली. परमहंस कुछ सोचने लगा. योजना के मुताबिक उस ने गोटी फेंकी, ‘‘क्यों न आप ही पहल करतीं, मंदिर यहीं बन जाएगा. पुण्य का काम है, हनुमानजी सब ठीक कर देंगे.’’ सावित्री ने सोचने का मौका मांगा. परमहंस उस रोज वापस घाट चला आया. सिपाही पहले से ही वहां बैठा था. ‘‘कहां चले गए थे?’’ सिपाही ने पूछा तो परमहंस ने सारी बातें विस्तार से उसे बता दीं. ‘‘ये तुम ने अच्छा किया. भाई मान गए तुम्हारे दिमाग को. महीना भी नहीं बीता और तुम पूरे पंडे हो गए,’’ सिपाही ने हंसी की.

उस के बाद परमहंस सावित्री का रोज घाट पर इंतजार करने लगा. करीब एक सप्ताह बाद वह आते दिखाई दी. परमहंस ने जल्दीजल्दी अपने को ठीक किया. रामनामी सिरहाने से उठा कर बदन पर डाली. ध्यान भाव में आ कर वह कुछ बुदबुदाने लगा. सावित्री ने आते ही परमहंस के पांव छुए. क्षणांश इंतजारी के बाद परमहंस ने आंखें खोलीं. आशीर्वाद दिया. ‘‘मैं ने आप का ध्यान तो नहीं तोड़ा?’’ ‘‘अरे नहीं, यह तो रोज का किस्सा है. वैसे भी शास्त्रों में ‘परोपकार: परमोधर्म’ को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई है. आप का कष्ट दूर हो इस से बड़ा ध्यान और क्या हो सकता है मेरे लिए.’’ परमहंस का निस्वार्थ भाव उस के दिल को छू गया. ‘‘महाराज, कल रात मैं ने स्वप्न में हनुमानजी को देखा,’’ सावित्री बोली. ‘‘इस से बड़ा आदेश और क्या हो सकता है, रुद्रावतार हनुमानजी का आप के लिए.

अब इस में विलंब करना उचित नहीं. मंदिर का निर्माण अति शीघ्र होना चाहिए,’’ गरम लोहे पर चोट करने का अवसर न खोते हुए परमहंस ने अपनी शातिर बुद्धि का इस्तेमाल किया. ‘‘पर एक बाधा है,’’ सावित्री तनिक उदास हो बोली, ‘‘मैं ज्यादा खर्च नहीं कर सकती.’’ परमहंस सोच में पड़ गया. फिर बोला,‘‘कोई बात नहीं. आप के महल्ले से चंदा ले कर इस काम को पूरा किया जाएगा.’’ और इसी के साथ सावित्री के सिर से एक बड़ा बोझ हट चुका था. परमहंस कुछ पैसा घर भेजना चाह रहा था मगर जुगाड़ नहीं बैठ रहा था. उस के मन में एक विचार आया कि क्यों न ग्रहशांति के नाम से हवनपूजन कराया जाए. सावित्री मना न कर सकेगी. परमहंस के प्रस्ताव पर सावित्री सहर्ष तैयार हो गई.

2 दिन के पूजापाठ में उस ने कुल 2 हजार बनाए. कुछ सावित्री से तो कुछ महल्ले की महिलाओं के चढ़ावे से. मौका अच्छा था, सो परमहंस ने मंदिर की बात छेड़ी. अब तक महिलाएं परमहंस से परिचित हो चुकी थीं. उन सभी ने एक स्वर में सहयोग देने का वचन दिया. परमहंस ने इस आयोजन से 2 काम किए. एक अर्थोपार्जन, दूसरे मंदिर के लिए प्रचार. सावित्री का पति फौज में था. फौजी का गौरव देश के लिए हो जाने वाली कुरबानी में होता है. देश के लिए शहीद होना कोई ग्रहों के प्रतिकूल होने जैसा नहीं. जैसा की सावित्री सोचती थी. सावित्री का बेटा हमेशा बीमार रहता था.

यह भी पर्याप्त देखभाल न होने की वजह से था. सावित्री का मूल वजहों से हट जाना ही परमहंस जैसों के लिए अपनी जमीन तैयार करने में आसानी होती है. परमहंस सावित्री की इसी कमजोरी का फायदा उठा रहा था. दुर्गा पूजा नजदीक आ रही थी, सो महल्ला कमेटी के सदस्य सक्रिय हो गए. अच्छाखासा चंदा जुटा कर उन्होंने एक दुर्गा की प्रतिमा खरीदी. पूजा पाठ के लिए समय निर्धारित किया गया तो पता चला कि पुराने पुरोहितजी बीमार हैं. ऐसे में किसी ने परमहंस का जिक्र किया. आननफानन में सावित्री से परमहंस का पता ले कर कुछ उत्साही युवक उसे घाट से लिवा लाए. परमहंस ने दक्षिणा में कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई क्योंकि उस ने दूर तक की सोच रखी थी.

पूजापाठ खत्म होने के बाद उस ने कमेटी वालों के सामने मंदिर की बात छेड़ी. युवाओं ने जहां तेजी दिखाई वहीं लंपट किस्म के लोग, जिन का मकसद चंदे के जरिए होंठ तर करना था, ने तनमन से इस पुण्य के काम में हाथ बंटाना स्वीकार किया. घर से दुत्कारे ऐसे लोगों को मंदिर बनने के साथ पीनेखाने का एक स्थायी आसरा मिल जाएगा. इसलिए वे जहां भी जाते मंदिर की चर्चा जरूर करते, ‘‘चचा, जरा सोचो, कितना लाभ होगा मंदिर बनने से. कितना दूर जाना पड़ता है हमें दर्शन करने के लिए. बच्चों को परीक्षा के समय हनुमानजी का ही आसरा होता है. ऐसे में उन्हें कितना आत्मबल मिलेगा. वैसे भी राम ने कलयुग में अपने से अधिक हनुमान की पूजा का जिक्र किया है.’’ धीरेधीरे लोगों की समझ में आने लगा कि मंदिर बनना पुण्य का काम है. आखिर उन का अन्नदाता ईश्वर ही है.

हम कितने स्वार्थी हैं कि भगवान के रहने के लिए थोड़ी सी जगह नहीं दे सकते, जबकि खुद आलिशान मकानों के लिए जीवन भर जोड़तोड़ करते रहते हैं. इस तरह आसपास मंदिर चर्चा का विषय बन गया. कुछ ने विरोध किया तो परमहंस के गुर्गों ने कहा, ‘‘दूसरे मजहब के लोगों को देखो, बड़ीबड़ी मीनार खड़ी करने में जरा भी कोताही नहीं बरतते. एक हम हिंदू ही हैं जो अव्वल दरजे के खुदगर्ज होते हैं. जिस का खाते हैं उसी को कोसते हैं. हम क्या इतने गएगुजरे हैं कि 2-4 सौ धर्मकर्म के नाम पर नहीं खर्च कर सकते?’’ चंदा उगाही शुरू हुई तो आगेआगे परमहंस पीछेपीछे उस के आदमी.

उन्होंने ऐसा माहौल बनाया कि दूसरे लोग भी अभियान में जुट गए. अच्छीखासी भीड़ जब न देने वालों के पास जाती तो दबाववश उन्हें भी देना पड़ता. परमहंस ने एक समझदारी दिखाई. फूटी कौड़ी भी घालमेल नहीं किया. वह जनता के बीच अपने को गिराना नहीं चाहता था क्योंकि उस ने तो कुछ और ही सोच रखा था. मंदिर के लिए जब कोई जगह देने को तैयार नहीं हुआ तो सड़क के किनारे खाली जमीन पर एक रात कुछ शोहदों ने हनुमान की मूर्ति रख कर श्रीगणेश कर दिया और अगले दिन से भजनकीर्तन शुरू हो गया. दान पेटिका रखी गई ताकि राहगीरों का भी सहयोग मिलता रहे.

फिरकापरस्त नेता को बुलवा कर बाकायदा निर्माण की नींव रखी गई ताकि अतिक्रमण के नाम पर कोई सरकारी अधिकारी व्यवधान न डाले. सावित्री खुश थी. चलो, परमहंसजी महाराज की बदौलत उस के कष्टों का निवारण हो रहा था. तमाम कामचोर महिलाओं को भजनपूजन के नाम पर समय काटने की स्थायी जगह मिल रही थी. सावित्री के रिश्तेदारों ने सुना कि उस ने मंदिर बनवाने में आर्थिक सहयोग दिया है तो प्रसन्न हो कर बोले, ‘‘चलो उस ने अपना विधवा जीवन सार्थक कर लिया.’’ मंदिर बन कर तैयार हो गया. प्राणप्रतिष्ठा के दिन अनेक साधुसंतों व संन्यासियों को बुलाया गया

यह सब देख कर परमहंस की छाती फूल कर दोगुनी हो गई. परमहंस ने मंदिर निर्माण का सारा श्रेय खुद ले कर खूब वाहवाही लूटी. उस का सपना पूरा हो चुका था. आज उस की पत्नी भी मौजूद थी. काशी में उस के पति ने धर्म की स्थायी दुकान खोल ली थी इसलिए वह फूली न समा रही थी. इस में कोई शक भी नहीं था कि थोड़े समय में ही परमहंस ने जो कर दिखाया वह किसी के लिए भी ईर्ष्या का विषय हो सकता था. परमहंस के विशेष आग्रह पर सावित्री भी आई जबकि उस के बच्चे की तबीयत ठीक नहीं थी.

पूजापाठ के दौरान ही किसी ने सावित्री को खबर दी कि उस के बेटे की हालत ठीक नहीं है. वह भागते हुए घर आई. बच्चा एकदम सुस्त पड़ गया था. उसे सांस लेने में दिक्कत आ रही थी. वह किस से कहे जो उस की मदद के लिए आगे आए. सारा महल्ला तो मंदिर में जुटा था. अंतत वह खुद बच्चे को ले कर अस्पताल की ओर भागी परंतु तब तक बहुत देर हो चुकी थी. निमोनिया के चलते बच्चा रास्ते में ही दम तोड़ चुका था.

ख्वाहिश: ‘बांझ’ होने का ठप्पा

ट्रिंग… ट्रिंग… फोन की घंटी बज रही थी. घड़ी में देखा, तो रात के साढ़े 12 बजे थे. इतनी रात में किस का फोन हो सकता है. किसी बुरी आशंका से मन कांप उठा. रिसीवर उठाया तो दूसरी ओर से अशोक की भर्राई हुई आवाज थी, “दीदी शोभा शांत हो गई. वह हम सब को छोड़ कर दिव्यलोक को चली गई.”

कुछ पल को मैं ठगी सी बैठी रही. फोन की आवाज से मेरे पति सुनील भी जाग गए थे. मैं ने उन्हें स्थिति से अवगत कराया. हम ने आपस में सलाह की और फिर मैं ने अशोक को फोन मिलाया, “अशोक, हम जल्दी ही सुबह जयपुर पहुंच जाएंगे, हमारा इंतजार करना.”

सुबह 5 बजे हम दोनों अपनी गाड़ी से जयपुर के लिए रवाना हो गए. दिल्ली से जयपुर पहुंचने में 5 घंटे लगते हैं. वैसे भी सुबहसुबह सड़कें खाली थीं. अत: 4 घंटे में ही पहुंच जाने की आशा थी. रास्तेभर शोभा का खयाल आता रहा.

अतीत की यादें चलचित्र की भांति आंखों के आगे घूमने लगीं.

शोभा मेरे छोटे भाई अशोक की पत्नी थी. वह बहुत मृदुभाषी, कार्यकुशल और खुशमिजाज की थी. याद हो आया वह दिन, जब विवाह के बाद वरवधू का स्वागत करने के लिए मां ने पूजा का थाल मेरे हाथ में पकड़ा दिया. वैसे, बड़ी भाभी का हक बनता था वरवधू को गृहप्रवेश करवाने का. किंतु बड़ी भाभी की तबियत ठीक नहीं थी, वह पेट से थीं और डाक्टर ने उन्हें बेडरेस्ट के लिए कहा हुआ था. अत: आरती का थाल सजा कर मैं ने ही वरवधू को गृहप्रवेश कराया था. बनारसी साड़ी में लिपटी हुई सिमटी सी संकुचित सी खड़ी थी.

अशोक ने उसे मेरा परिचय देते हुए कहा, “ये मेरी बड़ी दीदी हैं, मुझ से 10 साल बड़ी हैं, मेरे लिए मां समान हैं.”

दोनों ने मेरे पैर छुए. मैं ने भी दोनों को प्यार से गले लगा लिया. विवाह के बाद की प्रथाएं संपन्न करवा कर मैं वापस दिल्ली लौट आई.
2 महीने बाद भाभी की जुड़वा बच्चियों हुईं, जिन का नाम सिया और जिया रखा गया.

प्रसव के बाद भाभी बहुत कमजोर हो गई थीं. अत: घर का सारा कार्यभार शोभा ने संभाल लिया. उसे बच्चों से बहुत प्यार था. वह बच्चों का खयाल बहुत उत्साहित हो कर रखती थी.

मां सारी रिपोर्ट विस्तार से मुझे फोन पर बतलाया करती थीं. बच्चों के प्रति शोभा का अपनत्व देख कर भाभी को बहुत अच्छा लगता था.

जब सिया और जिया का नर्सरी स्कूल में दाखिला हुआ तो शोभा उन्हें तैयार करने से ले कर उन के जूते पौलिश करती, उन्हें नाश्ता करवा के टिफिन पैक कर के उन के स्कूल बैग में रख देती और टिफिन पूरा खत्म करना है, यह भी हिदायत दे देती थी. कभीकभी उन को होमवर्क करने में भी वह मदद करती थी. घर में सब सुचारू रूप से चल रहा था.
शोभा के विवाह को 4 वर्ष हो गए थे. मां जब भी मुझे फोन करती थीं, उन की बातों में कुछ बेचैनी का आभास होता था. वे दिल की मरीज थीं. मैं ने जोर दे कर उन की बेचैनी का कारण जानना चाहा, तो उन्होंने बताया, “अब अशोक की शादी को 4 साल हो गए हैं. अगर उस को एक बेटा हो जाता तो मैं पोते का मुंह देख कर दुनिया से जाती.

“न जाने कब मुझे बुला लें,” मैं उन्हें सांत्वना देती रहती थी कि धैर्य रखो. सब ठीक हो जाएगा.

मैं ने मां की इच्छा शोभा तक पहुंचा दी तो वह हंस कर बोली, “दीदी आजकल पोता और पोती में कोई फर्क नहीं होता. सिया और जिया भी तो अपनी हैं. वही मेरे बच्चे हैं,” बच्चों के प्रति उस की आत्मीयता मुझे बहुत अच्छी लगी.

जिस बात का डर था, वही हुआ. अचानक मां को दिल का दौरा पड़ा और पोते की चाहत लिए हुए वे इस दुनिया से चल बसीं.

शोभा के विवाह को 6 वर्ष हो चुके थे. मैं ने लक्ष्य किया कि अब उस के मन में संतान की चाह प्रबल हो रही थी. अशोक ने कई डाक्टरों से संपर्क किया. कुछ डाक्टरी जांच भी हुई, किंतु नतीजा संतोषप्रद नहीं था. मेरे आग्रह पर दोनों दिल्ली भी आए. मेरी जानकार डाक्टर ने रिपोर्ट देख कर यही निष्कर्ष निकाला कि शोभा मां नहीं बन सकती.

अशोक ने सब तरह के उपचार किए, चाहे आयुर्वेदिक हो या होमियोपैथी. यहां तक कि कुछ रिश्तेदारों के कहने पर झाड़फूंक का भी सहारा लिया, किंतु निराश ही होना पड़ा. इस का असर शोभा के स्वास्थ्य पर पड़ने लगा.
शोभा प्राय: फोन कर के मुझे इधरउधर की बहुत सी खबरें देती रहती थी. उस ने एक घटना का जिक्र किया कि कुछ दिन पहले उस के किसी दूर के रिश्तेदार के यहां पुत्र जन्म का उत्सव था. वहां अशोक और शोभा के साथसाथ बड़े भैयाभाभी भी आमंत्रित थे. वहां पहुंच कर जब शोभा ने नवागत शिशु को पालने में झूलते देखा तो वह अपने को रोक ना पाई और आगे बढ़ कर बच्चे को गोद में उठा लिया. तभी पीछे से बच्चे की दादी ने उस के हाथ से बच्चे को छीन लिया और अपनी बहू को डांटते हुए कहा, “तेरा ध्यान कहां है? देख नहीं रही बच्चे को बांझ ने उठा लिया है.”

शोभा ने बताया कि बड़ी भाभी भी वहीं खड़ी थीं. यह बात बतलाते समय शोभा की आवाज में पीड़ा झलक रही थी. मेरा मन संवेदना से भर उठा.

आशोभा ने बतलाया कि अब सिया और जिया उस के पास नहीं आती हैं. या यों कहिए कि भाभी उन बच्चों को शोभा के पास नहीं आने देतीं. इस का कारण भी वह समझ गई थी.

बांझपन का एहसास शोभा को अंदर ही अंदर खोखला कर रहा था. मैं अपनी गृहस्थी में बहुत व्यस्त हो गई थी. मेरे दोनों बच्चे विवाह योग्य थे. अगले वर्ष मेरे पति रिटायर होने वाले थे. अतः हम भविष्य की योजनाओं में व्यस्त हो गए थे. कभीकभी मैं शोभा को फोन कर के उन की कुशलक्षेम जान लेती थी.
फिर एक दिन अशोक का फोन आया. बातचीत से लगा कि वह बहुत परेशान है. मैं ने 3-4 दिन के लिए जयपुर का प्रोग्राम बना लिया. फीकी मुसकराहट से शोभा ने स्वागत किया. वह बहुत कमजोर हो गई थी. अशोक उस की स्थिति से बहुत चिंतित हो गया था. मुझे लगा कि ‘बांझ’ शब्द ने उस को भीतर तक आहत कर दिया है. वह बोली, “अब तो सिया और जिया भी मेरे पास नहीं आती.”

मैं ने प्यार से शोभा को अपने पास बैठाया और कहा, “मेरी बात ध्यान से सुनो और समझने की कोशिश करो. मैं चाहती हूं कि तुम किसी नवजात शिशु को गोद ले लो या कुछ अच्छी संस्थाएं हैं, जहां से बच्चे को लिया जा सकता है. ऐसा करने से एक बच्चे का भला हो जाएगा. उसे एक प्यारी मां मिल जाएगी और तुम्हें एक प्यारा बच्चा मिल जाएगा. यह एक नेक कार्य होगा. एक बच्चे का जीवन अच्छा बन जाएगा. तुम चाहो तो इस में मैं तुम्हारी मदद कर सकती हूं.”

लेकिन शोभा ने गंभीरता से उत्तर दिया, “दीदी, मैं अपनी तकदीर तो बदल नहीं सकती. यदि मेरी तकदीर में संतान का सुख लिखा ही नहीं है तो गोद ले कर भी मैं सुखी नहीं रह पाऊंगी,” कुछ रुक कर वह फिर बोली, “दीदी, मैं अपनी कोख से जन्मा बच्चा चाहती हूं, गोद लिया हुआ नहीं.”

वह अपने फैसले पर अडिग थी और मैं उस के फैसले के आगे निरुतर हो गई.

15 दिन बाद अशोक का फोन आया, वह आवाज से बहुत परेशान लग रहा था. उस ने बताया कि शोभा अब अकसर बीमार रहती है. उसे भूख नहीं लगती है और जबरदस्ती कुछ खाती है तो हजम नहीं होता उलटी हो जाती है. मैं ने सलाह दी कि तुरंत डाक्टरी जांच करवाओ. शोभा की तरफ से मुझे चिंता हो गई. अत: अशोक को सहारा देने के मकसद से मैं ने 3-4 दिन का जयपुर जाने का कार्यक्रम बना लिया.

अशोक ने शोभा के सारे टेस्ट करवा लिए थे. मेरे पहुंचने के अगले दिन वह अस्पताल से रिपोर्ट ले आया. वह बहुत उदास था. मेरे पूछने पर उस ने बताया कि शोभा की किडनी में कैंसर है, जो बहुत फैल गया है. अगर एक महीने पहले जांच करवा लेते तो शायद आपरेशन द्वारा किडनी निकाल देते, लेकिन अब तो कैंसर किडनी के बाहर तक फैल गया है. एक और विशेष बात जो डाक्टर ने बतलाई, वह यह कि शोभा प्रेग्नेंट भी है. प्रेगनेंसी की अभी शुरुआत ही है. एक हफ्ते बाद निश्चित तौर पर पता चल पाएगा. अचरज से मेरा मुंह खुला रह गया. समझ नहीं आया कि दुखी होऊं या खुशी मनाऊं.

शोभा ने मेरी और अशोक की बातें सुन ली थीं. वह मुसकराते हुए बोली, “दीदी, अशोक तो यों ही घबरा जाते हैं. मैं सहज में इन का पीछा छोड़ने वाली नहीं हूं और अब तो मुझे जीना ही है. उस की बातें आज भी मेरे कानों में गूंज रही हैं.
बाद में अशोक ने मुझे बतला दिया था कि डाक्टरों के अनुसार गर्भ को गिरा देने में ही बेहतरी है, क्योंकि कैंसर किडनी से बाहर निकल कर फैल रहा है, अगर तुरंत आपरेशन कर के किडनी निकाल भी दें, फिर भी शोभा का जीवन एक वर्ष से अधिक नहीं होगा और अगर गर्भपात नहीं करवाया तो कैंसर के आपरेशन के बाद की थेरेपी से बच्चे पर बुरा असर पड़ सकता है. या तो वह बचेगा ही नहीं और अगर बच भी जाए तो एब्नार्मल भी हो सकता है. अत: डाक्टर की राय में गर्भपात ही उचित होगा.

शोभा ने सबकुछ सुन लिया था. वह खुश नजर आ रही थी. वह बोली, ”दीदी, मुझे यही खुशी है कि अब मुझे कोई बांझ नहीं कहेगा. डाक्टरों का निर्णय ठीक ही है. मेरे जीवन का सूर्य अस्त हो रहा है. मैं बच्चे को देख पाऊंगी या नहीं, पता नहीं. अगर बच्चा बच भी गया और विकलांग हो गया तो और भी दुःख होगा. तसल्ली यही है कि अब मेरे ऊपर से ‘बांझ’ होने का लांछन हट गया. अब मैं शांतिपूर्वक मर सकूंगी.”

सहसा कार एक झटके के साथ रुक गई. सुनील ने ब्रेक मारा था, क्योंकि सामने एक बड़ा सा गड्ढा आ गया था. मेरी विचार श्रृंखला टूट गई. अब हम जयपुर की सीमा में पहुंच गए थे. बाजार के बीच से गुजरते हुए याद आया कि यहां कई बार शोभा के साथ चाट खाने आती थी, फिर खूब शौपिंग कर के हम दोनों शाम तक घर पहुंचते थे. अब तो केवल याद ही बाकी है.

ठीक साढ़े 9 बजे हम घर पहुंच गए. गाड़ी की आवाज सुन कर अशोक बाहर आ गया. सहारा दे कर उस ने गाड़ी से उतारा और मेरे गले से लग कर जोर से रो पड़ा. अंदर पहुंच कर देखा, शोभा का शव भूमि पर रखा था, बड़ी शांत मुख मुद्रा थी जैसे कुछ कहना चाहती हो. मैं अपने को ना रोक सकी और फफक कर रो पड़ी.
वह समाप्त हो गई. 2 दिन बाद बहुत बोझिल मन से हम दोनों वापस लौट आए. रास्तेभर सोचती रही कि समाज के उलाहनों ने शोभा को बहुत चोट पहुंचाई, लेकिन मरने से पहले उसे यह खुशी थी कि वह बांझ नहीं थी, पर बच्चे की ख्वाहिश अधूरी ही रह गई.

अंधेरी रात का जुगनू: रेशमा की जिंदगी में कौन आया

शाम होते ही नया बना मकान रंगीन रोशनी से जगमगा उठा. मुख्यद्वार पर आने वाले मेहमानों का तांता लगा था. पूरा घर अगरबत्ती, इत्र और लोबान की खुशबू से महक रहा था. कव्वाली की मधुर स्वरलहरी शाम की रंगीनियों में चार चांद लगा रही थी. पंडाल से उठती मसालेदार खाने की खुशबू ने वातावरण को दिलकश बना दिया था.

तभी बाहर जीप रुकने की आवाज सुन कर एक 20-22 वर्ष की लड़की दरवाजे पर आ खड़ी हुई और दोनों हाथ जोड़ कर बोली, ‘‘नमस्ते, चाचाजी.’’

‘‘जीती रहो, रेशमा बिटिया,’’ कहते हुए 2 अंगरक्षकों के साथ इलाके के विधायक रमेशजी ने मकान में प्रवेश किया.

पोर्च में खड़े हो कर मकान के चारों तरफ नजर डालते रमेशजी के चेहरे पर मुसकराहट खिलने लगी, ‘‘बिटिया, आज तुम ने अपने अब्बाजान का सपना पूरा कर के दिखला दिया. तुम्हारी हिम्मत और हौसले को देख कर लोग अब से बेटे नहीं बेटियां चाहेंगे.’’

रमेशजी की इस बात से रेशमा की आंखें नम हो गईं. खुद को संभालते हुए संयत स्वर में बोल उठी रेशमा, ‘‘चाचाजी, आप ने ही तो अब्बू की तरह हमेशा मेरा संबल बढ़ाया. मकान बनाते हुए आने वाली तमाम परेशानियों को सुलझाने में हमेशा मेरी मदद की.’’

‘‘बिटिया, तुम्हारे अब्बू इकबाल मेरा लंगोटिया यार था. उस की असमय मृत्यु के बाद उस के परिवार का खयाल रखना मेरा फर्ज था. मैं ने उसे निभाने की बस कोशिश की है. बाकी सबकुछ तुम्हारे साहस और धैर्य के सहारे ही संभव हो सका है.’’

‘‘चाचाजी, चलिए, खाना टेबल पर लग गया है,’’ रेशमा के चाचा का बेटा आफताब बड़े आदरपूर्वक रमेशजी को खाने की मेज की तरफ ले गया.

रेशमा की अम्मी खालेदा इकबाल ओढ़नी से सिर को ढके परदे के पीछे से चाचाभीतीजी का वात्सल्यमयी वार्तालाप सुन रही थीं और रेशमा को घर के इस कोने से उस कोने तक आतेजाते, मेहमानों का स्वागत करते हुए गृहप्रवेश की मुबारकबाद स्वीकारते हुए भीगी आंखों से मंत्रमुग्ध हो कर देख रही थीं. तभी मेहमानों की भीड़ से उठते कहकहों ने उन्हें चौंकाया और वे दुपट्टे के छोर से उमड़ते आंसुओं को पोंछ कर, अतीत की यादों के चुभते नश्तर से बचने के लिए मेहमानों की गहमागहमी में खो जाने का असफल प्रयास करने लगीं.

देर रात तक मेहमानों को विदा कर के बिखरे सामान को समेट और मेनगेट पर ताला लगा कर ज्योंही वे भीतर जाने लगीं, ऐसा लगा जैसे इकबाल साहब ने आवाज दी हो, ‘फिक्र न करना बेगम, धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा. आज सिर पर छत का साया मिला है, कल रेशमा की शादी, फिर बेटों की गृहस्थी…’

वे चौंक कर पीछे पलटीं तो दूर तक रात की नीरवता के अलावा कुछ भी न था. कहां हैं इकबाल साहब? यहां तो नहीं हैं? कैसे नहीं हैं यहां? यही सोतेजागते, उठतेबैठते हर वक्त लगता है कि वे मेरे करीब ही बैठे हैं. बातें कर रहे हैं. विश्वास ही नहीं हो रहा है कि अब वे हमारे बीच नहीं हैं. बिस्तर पर पहुंचने तक बड़ी मुश्किल से रुलाई रोक पाई थीं रेशमा की अम्मी. दिनभर का रुका हुआ अवसाद आंखों के रास्ते बह निकला. बहुत कोशिशें कीं बीते हुए तल्ख दिनों को भूल जाने की लेकिन कहां भूल पाईं वे.

इकबाल साहब की मौत के बाद हर दिन का सूरज नईनई परेशानियों की तीखी किरणें ले कर उगता और उन की हर रात समस्याओं के समाधान ढूंढ़ने में आंखों ही आंखों में कट जाती. दर्द की लकीरें आंसुओं की लडि़यां बन कर आंखों में तैरती रहतीं.

8 भाईबहनों में 5वें नंबर के इकबाल की शिक्षा माध्यमिक कक्षा से आगे संभव न हो सकी थी. लेकिन कलाकार मस्तिष्क ने 14 साल की उम्र में ही टायरट्यूब खोल कर पंचर बनाने और गाडि़यां सुधारने का काम सीख लिया था. भूरी मूछों की रेखाओं के काली होने तक पाईपाई बचा कर जोड़ी गई रकम से शहर की मेन मार्केट में टायरों के खरीदनेबेचने की दुकान खरीद ली. शाम होते ही दुकान पर दोस्तों का मजमा जमता, ठहाके लगते. शेरोशायरी की महफिल जमती. सालों तक दोस्तों के साथ इकबाल साहब के व्यवहार का झरना अबाध गति से बहता रहा. उन की 2 बेटियां और छोटे भाई के 2 बेटों के बीच गहरा प्यार और अपनापन देख कर रिश्तेदारों और महल्ले वालों के लिए फर्क करना मुश्किल हो जाता कि कौन से बच्चे इकबाल साहब के हैं और कौन से उन के भाई के. खुशियां हमेशा उन के किलकते परिवार के इर्दगिर्द रहतीं.

अकसर एकांत के क्षणों में इकबाल साहब खालेदा का हाथ अपने हाथ में ले कर कहते, ‘बेगम, मेरा कारोबार और ट्यूबलैस टायर बनाने की टेकनिक टायर कंपनी को पसंद आ गई तो मैं खुद डिजाइन बना कर एक आलीशान और खूबसूरत सा घर बनाऊंगा जिस के आंगन में गुलाबों का बगीचा होगा. सब के लिए अलगअलग कमरे होंगे और छत को, आखिरी सिरे तक छूने वाले फूलों की बेल से सजाऊंगा.’

रेशमा अकसर अपनी ड्राइंगकौपी में घर की तसवीर बना कर पापा को दिखाते हुए कहती, ‘पापा, मेरी गुडि़या और डौगी के लिए भी अलग कमरे बनवाइएगा.’

सुन कर इकबाल साहब हंस कर मासूम बेटी को गले लगा कर बोलते, ‘जरूर बनाएंगे बेटे, अगर लंबी जिंदगी रही तो आप की हर ख्वाहिश पूरी करेंगे.’

‘तौबातौबा, कैसी मनहूस बातें मुंह से निकाल रहे हैं आप. आप को हमारी उम्र भी लग जाए,’ रेशमा की अम्मी ने प्यार से झिड़का था शौहर को.

ठंडी सांस भर कर सोचने लगीं, शायद उन्हें आने वाली दुर्घटनाओं का पूर्वाभास हो चुका था. तभी तो तीसरे ही दिन हट्टेकट्टे इकबाल साहब सीने के दर्द को हथेलियों से दबाए धड़ाम से गिर पड़े थे फर्श पर. देखते ही गगनभेदी चीख निकल गई थी रेशमा की अम्मी के मुंह से.

‘पापा की तबीयत खराब है,’ सुन कर तीर की तरह भागी थी रेशमा कालेज से.

घर के दालान में लोगों का जमघट और कमरे में पसरा पड़ा जानलेवा सन्नाटा. बेहोश अम्मी को होश में लाने की कोशिशें करती पड़ोसिन, हालात की संजीदगी से बेखबर सहमे से कोने में खड़े दोनों चचाजान, भाई और फर्श पर पड़ा अब्बू का निर्जीव शरीर. घर का दर्दनाक दृश्य देख कर रेशमा की निस्तेज आंखें पलकें झपकाना ही भूल गईं और पैर बर्फ की सिल्ली की तरह जम गए.

‘बेटी, इकबाल साहब की मौत, मिट्टी का इंतजाम…’ महल्ले के बुजुर्ग अनीस साहब ने डूबते जहाज का मस्तूल पकड़ा दिया रेशमा के कमजोर हाथों में. सुन कर भीतर तक दहल गई रेशमा.

भारी कदमों को घसीटते हुए अलमारी खोल कर, अपनी शादी के लिए अम्मी द्वारा जमा की गई लाल पोटली में बंधी पूंजी अनीस साहब को थमाते हुए रेशमा के हाथ पत्थर के हो गए थे.

अब्बू की मौतमिट्टी, चेहल्लुम, अम्मी की इद्दत के पूरे होने तक रेशमा का खिलंदड़ापन जाने कहां दफन हो गया. शौहर की मौत के सदमे से बुत बनी अम्मी को देख कर, दोनों छोटे भाइयों को अब्बू की याद कर रोते देखती तो उन्हें समझाने के लिए पुचकारते हुए रेशमा कब बड़ी हो गई, उसे खुद भी पता नहीं चला. रेशमा ने अब्बू के अकाउंट्स चेक किए तो बमुश्किल 8-10 हजार रुपए का बैलेंस था.

रेशमा की पढ़ाई छूट गई, दिनचर्या ही बदल गई. रेशमा के उन्मुक्त ठहाकों को आर्थिक अभाव का विकराल अजगर निगलता चला गया. बहुत ढूंढ़ने पर होमलोन देने वाले प्राइवेट बैंक की नौकरी 4 जनों की रोटी का जुगाड़ बनी. घर के खाली कनस्तरों में थोड़ाथोड़ा राशन भरने लगा.

जिंदगी कड़वे तजरबों के चुभते ऊबड़खाबड़ रास्ते से गुजर कर अभी समतल मैदान पर आ भी नहीं पाई थी कि मकान मालिक ने मकान खाली करवाने की जिम्मेदारी पेशेवर गुंडे गोलू जहरीला को सौंप दी.

‘मकान जल्दी खाली कर दीजिए,’ आएदिन दरवाजे पर दस्तक देती उस की डरावनी शक्ल दिखलाई पड़ती.

एक दिन हिम्मत कर के रेशमा ने ज्यों ही दरवाजा खोला तो शराब का भभका उस के नथुनों में घुस गया. गोलू जहरीला ने उसे देखते ही अपना वाक्य दोहरा दिया, ‘मकान जल्दी खाली कर दीजिए नहीं तो…’

‘नहीं तो… क्या कर लेंगे आप?’ भीतर के आक्रोश को दबातेदबाते भी रेशमा की आंखें चिंगारी उगलने लगी थीं.

‘कुछ नहीं. बस, तुम को उठवा लेंगे,’ पान रचे होंठों को तिरछा कर के व्यंग्य से हंसते हुए गोलू जहरीला ने चेतावनी दी तो रेशमा के कानों में जैसे अंगारे सुलगने लगे.

‘बंद कीजिए बकवास. दफा हो जाइए यहां से,’ रेशमा का आक्रोश बरदाश्त का पुल उखाड़ने लगा.

बाहर आवाजों का हंगामा सुन कर भीतर से दौड़ी आई रेशमा की अम्मी. रेशमा को दरवाजे के पीछे ढकेल कर, खुद दरवाजे के बीचोंबीच खड़ी हो कर बोलीं, ‘देखिए, आप जब मरजी हो तब कमर पर बंदूक लटका कर हमारे दरवाजे पर न आया कीजिए. जैसे ही हालात ठीक होंगे, हम आप को घर खाली करने की सूचना दे देंगे.’

सुन कर गोलू चला तो गया लेकिन अपने पीछे छोड़ गया दहशत, डर और मजबूरियों का अंधड़.

उस के जाते ही रेशमा की अम्मी रो पड़ीं. रेशमा के पैर गुस्से से कांपने लगे और दांत किटकिटाने लगे लेकिन विवशता की नदी मुहाने तक आतेआते अपनी रफ्तार खो चुकी थी. दोनों भाइयों को सीने से चिपकाए वह खुद भी रो पड़ी. उस रात न उन के घर में चूल्हा जला न किसी के हलक से पानी का घूंट ही उतरा. सब अपनीअपनी मजबूरियों के शिकंजे में कसे छटपटाते रहे.

वक्त की आंधियों ने कसम खा ली थी रेशमा को तसल्ली देने वाले हर चिराग को बुझा देने की.

3 महीने बाद प्राइवेट बैंक भी बंद हो गया. घर की जरूरतों ने रेशमा को कपड़ों के थोक विक्रेता की दुकान पर कैशियर की नौकरी के लिए ला कर खड़ा कर दिया. छोटी सी तनख्वाह घर की बड़ीबड़ी जरूरतों के सामने मुंह छिपाने लगी और ऊंट के मुंह में जीरे की तरह चिपक गई. बस, जिंदा रहने के लायक तक की चीजें ही खरीद पाते रेशमा के पसीने से भीगी बंद मुट्ठी के नोट. रिश्तेदार, जो अपना काम करवाने के लिए इकबाल साहब से मधुमक्खी की तरह चिपके रहते थे, अब जंगल की नागफनी की तरह हो गए थे. महफिलों, मजलिसों में अब मिलनेजुलने वाले उस के परिवार को देख कर कन्नी काट लेते, जैसे कांटों की बाड़ को छू गए हों.

उस दिन रात का खाना खाते हुए गुमसुम बैठे छोटे भाई से रेशमा ने पूछ ही लिया, ‘क्या हुआ आफाक तबीयत ठीक नहीं है क्या?’ कुछ देर तक साहस बटोरने के बाद भाई के द्वारा बोले गए शब्दों ने रेशमा को कांच के ढेर पर खड़ा कर दिया. ‘बाजी, छोटे मामूजान कह रहे थे कि तुम दोनों भाइयों को रेशमा अब तुम्हारे अम्मीअब्बू के पास भेज देगी, क्योंकि उस की छोटी सी तनख्वाह अब 4 लोगों का पेट नहीं पाल सकेगी. फाके की नौबत आने वाली है. ऐसे में तुम दोनों भाई उस पर बोझ…’ ठहरी हुई झील में मामू ने पत्थर मार दिया था. तिलमिलाहट के ढेर सारे दायरे बनने लगे. रेशमा ने तुरंत मामू को फोन मिलाया और चीख पड़ी, ‘मेरे घर में कंगाली आ जाए या फाकाकशी हो, मैं अपने चचाजात भाइयों को कभी भी अपने से अलग नहीं करूंगी. अगर घर में एक रोटी भी बनेगी न, तो हम चारों एकएक टुकड़ा खा कर सो जाएंगे, मगर किसी के दरवाजे पर हाथ पसारने नहीं जाएंगे. कान खोल कर सुन लीजिए, आज के बाद कभी मेरे मासूम भाइयों को बरगलाने की कोशिश की तो मैं भूल जाऊंगी आप इन के सगे मामू हैं.’

रेशमा का गुस्सा देख कर दोनों भाई तो सहम गए लेकिन खालेदा को यकीन हो गया कि रेशमा की खुद्दारी और आत्मविश्वास बढ़ने लगा है. अगर रेशमा की जगह उन का अपना बेटा होता तो वह अभावों का हवाला दे कर किसी भी सूरत में चचाजान भाइयों की जिम्मेदारी न उठाता. सचमुच अभाव इंसानों को जुदा नहीं करते, जुदा करती हैं उन की स्वार्थी भावनाएं.

घर का खर्च, भाइयों के स्कूल का खर्च, मकान का किराया, सब पूरा करने के बाद रेशमा के पास मुश्किल से आटो का किराया ही बच पाता.

अपनी पसंद का काम न होते हुए भी रेशमा दुकान के काम में दिल लगाने लगी थी. तभी एक दिन सेठ की कर्कश आवाज ने चौंका दिया, ‘रेशमा, तुम ने कल जो हिसाब दिया था उस में 8 हजार रुपए कम हैं.’

‘लेकिन मैं ने तो पूरे पैसे गिन कर गल्ले में रखे थे,’ रेशमा की आत्मविश्वास से भरी आवाज सुन कर सेठ ने जैसे अंगारा छू लिया.

‘मैं ने 10 बार हिसाब मिला लिया है, पैसे कम हैं इसलिए बोल रहा हूं. कहां गए पैसे अगर तुम ने रखे थे तो?’

पलभर के लिए रेशमा का आत्मविश्वास भी डगमगाने लगा था. कहीं किसी ग्राहक को जल्दबाजी में ज्यादा पैसे तो नहीं दे दिए मैं ने, कहीं किसी से कम पैसे तो नहीं लिए? लेकिन दूसरे ही पल उस ने खुद को धिक्कारा. अपनी सतर्कता और हिसाब पर पूरा यकीन था उसे. तभी सेठ की आवाज का चाबुक उस की कोमल और ईमानदार भावना पर पड़ा, ‘रेशमा, अगर तुम मेरे दोस्त की बेटी न होतीं तो अभी, इसी समय पुलिस को फोन कर देता. शर्म नहीं आती चोरी करते हुए. पैसों की जरूरत थी तो मुझ से कहतीं. मैं तनख्वाह बढ़ा देता. लेकिन तुम ने तो ईमानदार बाप का नाम ही मिट्टी में मिला दिया.’

सुन कर तिलमिला गई रेशमा. क्या सफाई देती उन्हें जो उस की विवशता को उस का गुनाह समझ रहे हैं. मेहनत और वफादारी के बदले में मिला उसे जलालत का तोहफा. तभी खुद्दारी सिर उठा कर खड़ी हो गई और 28 दिन की तनख्वाह का हिसाब मांगे बगैर वह दुकान से बाहर निकल गई. अंदर का आक्रोश उफनउफन कर बाहर आने के लिए जोर मार रहा था. मगर रेशमा ने पूरी शिद्दत के साथ उसे भीतर ही दबाए रखा. असमय घर पहुंचती तो अम्मी को सच बतलाना पड़ता. रेशमा पर चोरी का इलजाम लगने और नौकरी हाथ से चले जाने का सदमा अम्मी बरदाश्त नहीं कर पाएंगी. अगर उन्हें कुछ हो गया तो वह कैसे दोनों भाइयों और घर को संभाल पाएगी, यह सोचते हुए रेशमा के कदम अनायास ही मजार की तरफ बढ़ गए.

मजार के अहाते का पुरसुकून, इत्र और फूलों की मनमोहक खुशबू भी उस के रिसते जख्म पर मरहम न लगा सकी. घुटनों पर सिर रख कर फफक कर रो पड़ी. रात 10 बजे मजार का गेट बंद करने आए खादिम ने आवाज लगाई, ‘घर नहीं जाना है क्या, बेटी?’ सुन कर जैसे नींद से जागी. धीमेधीमे मायूस कदम उठाते हुए घर पहुंची. अम्मी का चिंतित चेहरा दोनों भाइयों की छटपटाहट देख कर उसे यकीन हो गया कि मेरे घर के लोग मुझे कभी गलत नहीं समझेंगे.

‘कहां चली गई थीं?’

‘दुकान में ज्यादा काम था आज,’ संक्षिप्त सा जवाब दे कर पानी के साथ रोटी का निवाला गटकते हुए बिना कोई सफाई दिए बिस्तर पर पहुंचते ही मुंह में कपड़ा ठूंस कर बिलखबिलख कर रो पड़ी. उस रात अब्बू बहुत याद आए थे. कमसिन कंधों पर उन की भरीपूरी गृहस्थी का बोझ तो उठा लिया रेशमा ने, मगर उन के नाम को कलंकित करने का झूठा इल्जाम वह बरदाश्त नहीं कर पा रही थी.

दूसरे दिन रोज की तरह लंच बाक्स ले कर रेशमा के कदम अनजाने में अब्बू की दुकान की तरफ मुड़ गए. बरसों बाद जंग लगे ताले को खुलता देख अगलबगल वाले दुकानदार हैरान रह गए.

धूल से अटे कमरे में अब्बू का बनाया हुआ मार्बल का लैंपस्टैंड, सूखा एक्वेरियम और कभी तैरती, मचलती खूबसूरत मछलियों के स्केलटन. दुकान के कोने में बना प्लास्टर औफ पेरिस का फाउंटेन, सबकुछ जैसा का तैसा पड़ा था. अगर कुछ नहीं था तो अब्बू का वजूद. बस, उन की आवाज की प्रतिध्वनि रेशमा के कानों में गूंजने लगी, ‘बेटा, खूब दिल लगा कर पढ़ना. आप को चार्टर्ड अकाउंटैंट और दोनों बेटों को डाक्टर, इंजीनियर बनाऊंगा,’ ऐसे ही गुमसुम बैठे हुए सुबह से शाम गुजर गई.

भरा हुआ टिफिन वापस बैग में डाल कर घर वापस जाने के लिए उठ ही रही थी कि मोबाइल बज उठा, ‘रेशमा, आई एम सौरी. मुझे माफ करना बेटा. मैं गुस्से में तुम को पता नहीं क्याक्या कह गया,’ दूसरी ओर से सेठ की आवाज गूंजी, ‘सुन रही हो न, रेशमा. दरअसल, 8 हजार रुपए मेरे बेटे ने गल्ले से निकाले थे. कल शाम को ही वह जुआ खेलता हुआ पकड़ा गया तो पता चला.’

सुन कर रेशमा स्थिर खड़ी अब्बू की धूल जमी तसवीर को एकटक देखती रही.

‘बेटे, अपने अब्बू के दोस्त को माफ कर दो तो कुछ कहूं.’

इधर से कोई प्रतिउत्तर नहीं.

‘कोई बात नहीं, तुम अगर दुकान पर काम नहीं करना चाहती हो तो कोई बात नहीं, तुम मेरा बुटीक सैंटर संभाल लो. तुम्हारी जैसी मेहनती और ईमानदार इंसान की ही जरूरत है मेरे बुटीक सेंटर को.’

रेशमा ने कोई जवाब नहीं दिया. अपमान और तिरस्कार का आघात,

सेठ की आत्मविवेचना व पछतावे पर भारी रहा.

रास्ते भर ‘बुटीक…बुटीक…बुटीक’ शब्द मखमली दूब की तरह कानों में उगते रहे. स्कूल के दिनों में शौकिया तौर पर एंब्रायडरी सीखी थी रेशमा ने. कुरतों, सलवारों, चादरों, नाइटीज पर खूबसूरत रेशमी धागों से बनी डिजाइनों ने उसे अब्बू और रिश्तेदारों की शाबाशियां भी दिलवाई थीं. थोड़ाबहुत कटे हुए कपड़े भी सिलना सीख गई थी. अनजाने में ही सेठ ने रेशमा की अमावस की अंधेरी रात को पूर्णिमा का उजाला दिखला दिया, स्वाभिमान और आत्मविश्वास से जीने का रास्ता बतला दिया.

पापा की दुकान और रेशमा का शौकिया हुनर, अपना निजी और स्वतंत्र कारोबार, जहां अपना आधिपत्य होगा जहां उसे कोई चोर कह कर जलील नहीं करेगा. जहां वह अपने परिवार के साथसाथ हुनरमंद कारीगरों और उन के परिवारों का पेट पालने का जरिया बन सकेगी. पूरी रात बिस्तर पर करवटें बदलती रही रेशमा. उस दिन आसमां पर चांद की रफ्तार धीमी लगने लगी उसे.

पौ फटते ही रेशमा दोनों भाइयों के साथ पापा की दुकान में खड़ी अनुपयोगी वस्तुओं को ठेले पर लदवा रही थी. लघु उद्योग प्रोत्साहन योजना के तहत बैंक से लोन लेने के लिए आवेदन दे दिया. 1 महीने बाद दुकान के सामने बोर्ड लग गया, ‘जास्मीन बुटीक सैंटर’. दूसरे ही दिन दुकान के शुभारंभ का दावतनामा ले कर बांटने के लिए निकल पड़ी रेशमा. कार्ड देख कर किसी ने हौसला बढ़ाया, तो किसी ने नाउम्मीद और नाकामयाबी के डर से डराया. लेकिन रेशमा कान और मुंह बंद किए हुए पूरे हौसले के साथ जिस रास्ते पर चल पड़ी उस से पलट कर पीछे नहीं देखा.

रेशमा के भीतर का कलाकार धीरेधीरे उभरने लगा, वह कपड़ों की डिजाइन केटलौग्स के अलावा कंप्यूटर स्क्रीन पर ग्राहकों को दिखलाने लगी. धीरेधीरे आकर्षक डिजाइनों व काम की नियमितता देख कर महिला ग्राहकों की भीड़ बढ़ने लगी. शादीब्याह, तीजत्योहारों के मौकों पर तो रेशमा को दम लेने की फुरसत नहीं होती.

कड़ी मेहनत, समझदारी से मृदुभाषी रेशमा के बैंक के बचत खाते में बढ़ोतरी होने लगी. 1 साल के बाद 30×60 स्क्वैर फुट का प्लौट खरीदते समय खालेदा बेगम ने अपने बचेखुचे जेवर भी रेशमा को थमा दिए.

हाउस लोन ले कर रेशमा ने तनहा ही धूप, बरसात, ठंड के थपेड़े सह कर नींव खुदवाने से ले कर मकान बनने तक दिनरात एक कर दिए. दोनों छोटे भाइयों और अम्मी के संबल ने रेशमा का हौसला मजबूत किया. अब कतराने वाले रिश्तेदार, अब्बू के करीबी दोस्त, मकान की मुबारकबाद देने बुटीक सैंटर पर ही आने लगे.

चौक पर लगी घड़ी ने रात के 4 बजाए. रेशमा की अम्मी दर्द की चादर ओढ़े नींद के आगोश में समा गईं लेकिन रेशमा छत की ग्रिल से टिक कर खड़ी, एकटक कोने पर लगी ग्रिल की तरफ देख रही थी. लगा, अब्बू सफेद कुरतापाजामा पहने दीवार से टिक कर खड़े हैं. ‘रेशमा, मेरी बच्ची, मेरा ख्वाब पूरा कर दिया. शाबाश बेटा. मैं जानता हूं तुम दोनों भाइयों को इसी तरह जुगनू बन कर राह दिखलाती रहोगी.’ धीरेधीरे पापा की परछाईं अंधेरे में कहीं खो गई और रेशमा बिस्तर पर आ कर लेट गई. दूर कहीं भोर होने की घंटी बजी. पूर्व दिशा में आसमान का रंग लाल हो चला था.

राजकुमारी: क्या पूरी हो सकी उसकी प्रेम कहानी

उस का नाम ही राजकुमारी था. वैसे तो वह कहीं की राजकुमारी नहीं थी, लेकिन वह सचमुच राजकुमारी लगती थी. उस की खूबसूरती, रखरखाव, बातचीत करने का अंदाज और उस की शाही चाल उसे वाकई राजकुमारी बनाए हुए थे, जबकि वह एक मामूली घर की लड़की थी. जब उस ने पहले दिन दफ्तर में कदम रखा, तो न केवल कुंआरों के, बल्कि शादीशुदा लोगों के दिलों की धड़कनें भी तेज हो गई थीं. ‘चांदी जैसा रूप है तेरा सोने जैसे बाल, एक तू ही धनवान है गोरी बाकी सब कंगाल’, जैसी गजल उन के सामने आ गई थी. सपनों की हसीन शहजादी उन के सामने थी.

दफ्तर की दूसरी लड़कियों और औरतों ने भी जलन और तारीफ भरी नजरों से देखा था उसे. वह सब से अलग नजर आ रही थी. उस पर जवानी ही कुछ ऐसी टूट कर बरस रही थी कि दफ्तर में सभी चौंक पड़े थे. लंबा कद, घने बाल, भरी छातियां, पतली कमर और चाल में कोमलता. लेकिन वह वहां नौकरी करने आई थी, इश्क करने नहीं. उसे औरों से ज्यादा अपने काम से लगाव था. उस ने किसी की तरफ नजर भर कर मुसकरा कर भी नहीं देखा. उस के चेहरे पर खामोशी छाई रहती थी और आंखों में चिंता तैरती रहती थी. ऐसा लगता था कि वह बहुत सी परेशानियों से एकसाथ लड़ रही है. वह एक मामूली साड़ी बांधे हुए थी, लेकिन दूसरी औरतों और लड़कियों के मुकाबले उस की वह मामूली साड़ी भी खूब जंच रही थी उस पर. कई दिन बीत गए. वह सिर्फ अपने काम से काम रखती.

यदि वह किसी की माशूका न होती तो किसी न किसी को अपना दिल दे बैठती. खूबसूरत नौजवानों की इस दफ्तर में भी कमी नहीं थी. आमतौर पर उस तरह की खूबसूरत लड़कियां सहयोगियों पर दाना फेंक कर अपना काम निकालती हैं, पर राजकुमारी उन में से न थी. यह ऐसा सैंटर था, जिस में छोटीछोटी सैकड़ों मेजें लगी थीं. इस कंपनी का मालिक था निर्मल कुमार. अच्छीखासी दौलत होने के बावजूद उस ने अभी तक शादी नहीं की थी. अपनी पसंद की लड़की उसे अभी तक नहीं मिली थी. वह रोशन खयाल और गहरी सोच रखने वाला इनसान था. उस की उम्र 32 साल की थी. वह लंदन से पढ़ कर लौटा था.  उस ने आज तक वहां काम कर रही किसी लड़की की ओर ध्यान नहीं दिया था.

तकरीबन 4 साल से बड़ी सूझबूझ और लगन से वह कंपनी को चला रहा था. उस की कई दोस्त थीं, पर वह किसी से भी प्रेम नहीं करता था, क्योंकि उस की सब दोस्त लड़कियां खुले विचारों की थीं और कितनों के साथ रह चुकी थीं. निर्मल कुमार खुद भी कभी किसी के साथ नहीं सोया था उसे ऐसी लड़की चाहिए थी, जो कहीं भी मुंह मार ले. निर्मल कुमार ने जब पहली बार राजकुमारी को देखा था, तो उस का दिल भी धड़का था. आखिर वह उस के हुस्न की खुशबू से कैसे बच सकता था? वह लाखों में एक थी. निर्मल कुमार पहले मर्द था, मालिक बाद में. राजकुमारी जब भी किसी काम से निर्मल कुमार के सामने जाती, तो वह दो नजर भर देखे बगैर नहीं रह सकता था. इस से पहले भी उस की मुलाकात कई खूबसूरत पढ़ीलिखी ऊंचे घराने वालियों से होती रही थी. लंदन और मुंबई में भी वह कई हसीन लड़कियों से मिल चुका था, लेकिन उस ने उन में से किसी एक के लिए भी अपने दिल में तड़प महसूस नहीं की थी. उसे लगा कि राजकुमारी उतनी ही साफ थी जितना दिखती थी.

उस ने कभी काम के अलावा कुछ बात करने की कोशिश नहीं की, जबकि उस के स्टार्टअप में हर लड़की हर दूसरेतीसरे हफ्ते कोई पर्सनल प्रौब्लम लिए खड़ी होती थी. राजकुमारी में उस ने जैसे कोई खास बात महसूस की थी. वह दिन में 2-3 बार उसे जरूर बुलाता. राजकुमारी की मौजूदगी उसे तड़पाने लगती थी. जब वह कमरे से चली जाती तो उस की पीड़ा और बढ़ जाती. वह अपनी मेज  पर सिर टेक देता और आंखें बंद हो जातीं. फिर वह सोचता कि यह उसे क्या  होता जा रहा है, वह क्यों दीवानगी के खयाल पालने लगा है? इसी तरह कई हफ्ते बीत गए. राजकुमारी को भी अब महसूस होने लगा था कि निर्मल कुमार उस में दिलचस्पी लेने लगा है. लेकिन वह जल्दी ही दिमाग से यह बात निकाल देती. वह अपने और निर्मल कुमार के बीच के फासले को जानती थी.

वह 12,000 रुपए पाने वाली मामूली नौकर थी और निर्मल कुमार करोड़ों का मालिक था. उस के दिल में निर्मल कुमार को पाने या अपनाने की कोई ख्वाहिश नहीं थी, क्योंकि उस का राजकुमार तो राजेश था, जो उस के दिल का मालिक था. उस का और राजेश का साथ उसी समय से था, जब वह 10वीं में पढ़ती थी. लगभग 10 साल पहले की सी ताजगी थी. फिलहाल दोनों ही अपनीअपनी जिंदगी की परेशानियों में उलझे हुए थे. इसी कारण वे अपने सपनों की दुनिया को आबाद नहीं कर सके थे. राजेश भी बहुत सुंदर और गठीला नौजवान था. वह जहां काम करता था, वहां उस की बड़ी इज्जत थी. फैक्टरी का मालिक भी उस पर बहुत मेहरबान था. राजकुमारी और राजेश रोजाना शाम को किसी छोटे से ढाबे या पार्क में मिलते थे. वे देर तक बातें करते रहते थे. हर रोज एक ही परेशानी उन के सामने होती थी.

वे दोनों बातें कर के दिल की भड़ास निकाल लेते थे और अपने दुखों को जैसे बांट लेते थे.  ऐसा करने से उन को बड़ी शांति मिलती थी. कभीकभार जब मौका मिलता, तो दोनों एकदूसरे के साथ रातभर रहते, पर दोनों ने वादा कर रखा था कि वे पक्का शादी करेंगे. दोनों एक ही जाति के थे और घर वाले मंजूर कर लेंगे. यह भी उन्हें मालूम था. निर्मल कुमार ने एक रोज अपने दफ्तर के साथी लोगों को रात के खाने की दावत दी. नवंबर का महीना था. सर्दी शुरू हो चुकी थी. राजकुमारी पार्टी में आई, तो बादामी रंग की साड़ी पहने हुए थी. उस पर चौकलेटी रंग का शाल देखने वालों को बड़ी भली मालूम हो रही थी.  उस के अंगअंग से जवानी उबल रही थी. जब वह हंसती थी तो देखने वालों का कलेजा मुंह को आ जाता था.

चारों ओर एक आह सी निकलती महसूस होती थी. पार्टी में जितने भी लोग थे, सभी उसी को घूर रहे थे. दावत खत्म होने के बाद निर्मल कुमार जब अपने कमरे में पहुंचा तो खुद को बहुत थकाथका सा महसूस करने लगा. उसे बिस्तर पर पड़ेपड़े बहुत देर हो गई. करवटें बदलतेबदलते रात के 3 बज गए. रहरह कर उसे राजकुमारी का मासूम चेहरा दिखाई देता. आज उसे अपने अंदर अधूरेपन का एहसास हो रहा था. बहुतकुछ होते हुए भी वह अपनेआप को बहुत गरीब समझ रहा था. उस की यह गरीबी एक औरत ही दूर कर सकती थी. और वह मालदार औरत थी राजकुमारी.

उस के दिल में कहीं से एक सदमे की लहर आई, जिस ने उसे अपने लपेटे में ले लिया. उसे ऐसा लगा जैसे वह इस दुनिया में अकेला है. उसे कोई चाहने वाला नहीं, प्यार करने वाला नहीं, उस की जवानी को अपनी बांहों में भरने वाला कोई नहीं है. निर्मल कुमार अपनेआप को एक बड़े कैदखाने में बंद पा रहा था, जिस से बाहर निकलने का एक ही रास्ता था, लेकिन वह भी बंद था. फिर उसे अपनेआप में शोर सुनाई देने लगा. पहली बार यह शोर गूंजा था. कितनी ही देर वह इस शोर को सुनता रहा.

क्या राजकुमारी को वह अपना जीवनसाथी बना सकता है? वह सोच रहा था, ‘वह इनकार तो नहीं कर देगी? वह किसी और से तो प्यार नहीं करती? अगर वह किसी से मुहब्बत करती है तो क्या हुआ, मेरे पास तुरुप के पत्ते हैं. मैं अपना सबकुछ उस हुस्न की मलिका के कदमों में डाल दूंगा.’  सोचतेसोचते वह बिस्तर पर लेट गया. अब वह बहुत खुश था. जैसे उस ने राज को पा लिया हो.  अगले दिन उस ने राजकुमारी का शाम को अपनी गाड़ी में पीछा किया. वह रिकशे में 10 लोगों के साथ जहां उतरी, वह कच्चेपक्के मकानों की बस्ती थी. दूसरे दिन पार्क की बैंच पर बैठते हुए राजेश ने कहा, ‘‘कल कहां थी राज? तुम घर पर भी नहीं थी.’’ ‘‘हां, मैं परसों तुम को बताना भूल गई थी… हमारे मालिक ने दफ्तर के तमाम लोगों को खाने पर बुलाया था,’’ राजकुमारी ने राजेश की ओर देखते  हुए कहा. ‘‘अरे भई, निर्मल सेठ?है, जवान है. उस की पार्टी हो तो हमारी गुंजाइश कहां, हम ठहरे गरीब आदमी…’’ सुन कर राजकुमारी ने फौरन कहा, ‘‘यह बात तो है… निर्मल बहुत अमीर है, लेकिन उस में जरा सा भी घमंड नहीं है.’’

राजेश ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘फिर मैं ऐसा समझूं कि मेरी 3,650 दिनों की तपस्या बेकार गई, कहीं तुम्हारा इरादा…’’ ‘‘नहीं…’’ राजकुमारी बोली, ‘‘सब से पहली बात तो यह है कि कहां निर्मल कुमार और कहां मैं. मेरा उस के बारे में सोचना ही बेकार है.’’ ‘‘तुम कितनी मालदार हो, तुम्हें नहीं मालूम…’’ राजेश बोला, ‘‘बस एक बात है, 100 साल पहले मुझे तुम से प्यार था, आज भी है और कल भी रहेगा…’’ राजकुमारी ने खड़े होते हुए कहा, ‘‘मालूम है बाबा, अब उठो.’’ अगले दिन जब निर्मल कुमार के कमरे में राजकुमारी आई, तो वह अपनी कुरसी से खड़ा हो गया और बोला, ‘‘आओ राजकुमारी, मैं तुम्हें बुलाने ही वाला था.’’  वह उसे कुरसी की ओर इशारा करते हुए आगे बोला, ‘‘बैठोबैठो.’’ निर्मल कुमार के इस तरह बोलने पर वह जरा हैरान हुई और ‘जी’ कहती हुई बैठ गई. ‘‘कहो, तुम्हें हमारी पार्टी कैसी लगी?’’

निर्मल कुमार की आंखों में एक खास चमक देखते हुए राजकुमारी ने कहा, ‘‘पार्टी बहुत शानदार रही.’’  वह सोच रही थी कि राजेश उस के दिल में बसा हुआ है तो क्या हुआ, खूबसूरत मर्द तो अपने अंदर चुंबक का असर रखते हैं. वह निर्मल कुमार को गौर से देखने लगी. फिर आंखें झुका कर वह बोली, ‘‘जी कहिए, क्या हुक्म है?’’ ‘‘हुक्म नहीं, गुजारिश है… वह यह है कि आज शाम मैं तुम से एक खास बात करना चाहता हूं. तुम कल साढ़े  7 बजे होटल डिलाइट में मुझ से मिलना. अब तुम जा सकती हो. लेकिन ध्यान रहे, मुलाकात का किसी को पता न चले, समझीं?’’ राजकुमारी ‘ठीक है’ कहते हुए कमरे से बाहर चली गई. उस के दिमाग में कितने ही सवाल उठ खड़े हुए. उसे महसूस हो गया था कि निर्मल कुमार उस पर डोरे डाल रहा है.  उस पार्टी की रात की पार्टी में भी वह उस की निगाहों के इशारे को पढ़ चुकी थी. और उसे वह यकीन भी हो गया कि उस का मालिक ऐयाश नहीं है.

वह अपनी जवानी की आग नहीं बुझाना चाहता, वह जीवनसाथी चाहता है. फिर एक और डर भी उसे परेशान कर रहा था कि अमीर मर्द एक गरीब लड़की को अपनी बीवी कैसे बना सकता है?  शाम को वह राजेश से मिली, तो कुछ खिंचीखिंची सी थी. राजेश ने उस का मन रखने को कहा ‘‘चलो, तुम्हारे कमरे में चलते हैं. वहां बैठ कर बात करेंगे.’’ उधर निर्मल कुमार बेचैन था, पर अगले दिन का इंतजार नहीं करना चाहता था. वह उसी बस्ती तक चला गया और राजकुमारी के कमरे के सामने भी चाय की दुकान में बैठ कर राजकुमारी के दर्शन का इंतजार करने लगा. उस ने उन 2-3 घंटों में बहुतकुछ देख लिया, पर उस का राजकुमारी ने प्रति लगाव कम नहीं हुआ था.

जब अगले दिन दोनों शाम को मिले, तो राजकुमारी ने सिर उठाया और उस से कोई बात नहीं छिपाई. लेकिन जानबूझ कर राजेश के बारे में कुछ नहीं बताया. बाकी सबकुछ सचमुच बता दिया कि मातापिता हैं, 2 बहनें हैं, मकान गिरवी रखा है, दोनों बहनों की शादी बड़ी उलझन बनी हुई है, क्योंकि शादी करने के लिए रकम नहीं है, और हजारों रुपए का कर्ज भी चढ़ा हुआ है, जिसे अपनी पगार से बचा कर वह उतारने की कोशिश कर रही है. उस की कहानी सुन कर निर्मल कुमार वैसे तो दिल ही दिल में बहुत खुश हुआ. पर अब उसे राजेश के बारे में पता करना था. इस हुस्न की मलिका को खरीदने के लिए वह ज्यादा जरूरी था. उस ने बड़ी आसानी से राजेश के बारे में पता कर लिया था. फिर भी उसे भरोसा था कि राजकुमारी और राजेश की सिर्फ दोस्ती है और वह उस की अच्छी साथी बन सकती है, चाहे गरीब घर की क्यों न हो.

बहनों की बात को ले कर उस ने राजकुमारी से पूछा, ‘‘सीधी सी बात है कि बहनों की शादी के बाद तुम शादी करोगी. करोगी न…?’’ राजकुमारी ने एक मीठी सी मुसकान के साथ कहा, ‘‘जी हां.’’ ‘‘यह तो तुम देख रही हो कि मैं ने अब तक शादी नहीं की. तुम्हें देखने के बाद शादी करना चाहता हूं. मुझे एक ऐसी ही पत्नी की तलाश थी.’’ ‘‘मुझ से…? मैं तो…’’ राजकुमारी का गला सूख गया. निर्मल कुमार ने मुसकराते हुए आगे कहा, ‘‘जब तुम मेरी बीवी बन जाओगी, तो जोकुछ मेरा है, वह तुम्हारा होगा. एक शानदार जिंदगी तुम्हारे सामने है. तुम्हारे लिए कोई परेशानी बाकी नहीं रहेगी.

मकान छुड़ा लेना, बहनों की शादी पर जितना चाहे खर्च करना, मुझे कोई एतराज नहीं होगा.’’ राजकुमारी ने फौरन हामी नहीं भरी और इनकार भी नहीं किया. निर्मल कुमार ने उसे देखते हुए कहा, ‘‘इस बात का जवाब आराम से देना…’’ ‘‘हांहां, सोच लो, आराम से सोचो और तब मुझे बताओ. वैसे, मेरा यकीन है कि मेरी बात को तुम ठुकराओगी नहीं, मंजूर कर लोगी. अच्छा, चलो तुम्हें छोड़ते चलते हैं.’’ घर आ कर राजकुमारी रातभर सो नहीं सकी. वह बारबार बिस्तर से उठती और पानी पीती… इसी तरह सवेरे के  6 बज गए.  एक तरफ राजेश था, जिस से वह बेहद प्यार करती थी. वह रातोंरात चाहे राजेश के साथ रही हो, पर उस ने कभी भी जिस्मानी संबंध नहीं बनाए थे.

वह निर्मल कुमार से कम उम्र का भी था और सुंदर भी. वह उसे बहुत चाहती थी.  पर राजेश के साथ भी लगभग यही परेशानियां थीं. इन दोनों ने शादी इसीलिए नहीं की थी कि इस से घर वालों पर असर पड़ता था.  दूसरी ओर निर्मल कुमार एक करोड़पति था. उस की सारी उलझनें चुटकी बजाते ही हल हो सकती थीं. दूसरे दिन वह दिनभर इन्हीं खयालों में गुम रही. वह दफ्तर भी नहीं गई.  2-3 रोज बाद जब राजेश से मिली, तो उसे सारी बातें बता दीं.  राजेश उन दिनों काफी बिजी रहने लगा था. वह कहता था कि शादी के लिए पैसा जमा करने के लिए उस ने  2 पार्टटाइम नौकरियां पकड़ी हैं. राजेश ने पूछा, ‘‘फिर, तुम ने क्या फैसला किया?’’ राजकुमारी ने जमीन की ओर नजरें करते हुए कहा, ‘‘मैं सोच रही हूं, अपने परिवार के लिए यह कुरबानी दे ही दूं… तुम्हें कोई एतराज तो नहीं होगा?’’ सुनते ही राजेश का चेहरा पीला पड़ गया. लेकिन जल्दी ही उस ने अपनेआप पर काबू पा लिया.

राजकुमारी किसी मुजरिम की तरह नजरें नीचे किए बैठी थी, इसलिए वह राजेश का चेहरा नहीं देख पाई थी. राजेश ने धीरे से कहा, ‘‘मुझे भला क्या इनकार हो सकता है? इस ‘सच’ को मान लेना चाहिए तुम्हें.’’ राजकुमारी बोली, ‘‘लेकिन, मैं ने फैसला कर लिया है, जो मैं तुम्हें 2-3 रोज में बताऊंगी. प्लीज, उस दौरान मुझ से कुछ पूछना नहीं.’’ ‘‘छोड़ो इन बातों को,’’ राजेश हंसते हुए बोला, ‘‘तुम निर्मल कुमार की बात मान लो. मेरा क्या, मां कहीं से गांव की लड़की पकड़ कर ब्याह कर देगी.’’ दोनों जब उठे तो राजकुमारी एक फैसले पर पहुंच चुकी थी. राजकुमारी निर्मल कुमार की होने को तैयार हो गई थी और दोनों अपनीअपनी मंजिल की ओर चल पड़े. उस रात वह बहुत खुश थी. फिर भी करवटें बदलती रही. दूसरे दिन भी वह दफ्तर नहीं गई. उसे बुखार हो गया. इसी तरह 4 दिन बीत गए. छठे दिन जब वह दफ्तर जा रही थी, तो उस के दिमाग में हलचल मच गई.

उसे आज निर्मल कुमार को अपना फैसला सुनाना था.  निर्मल कुमार को लगा कि वह राजेश के लिए कहीं चली न गई हो. उस के घर पर जा कर देखा, तो राजकुमारी का कमरा खुला दिखा.  एक घंटे तक न कोई आया और न कोई गया तो वह चुपचाप घर चला गया. राजकुमारी किसी भी कीमत पर राजेश को खोना नहीं चाहती थी. उस की मुहब्बत के आगे निर्मल कुमार की दौलत कुछ भी नहीं थी. उस के दिल की धड़कन तेज हो गई और राजेश की मुहब्बत रंग लाने लगी.  उस ने जब दफ्तर में प्रवेश किया, तो पता चला कि निर्मल साहब आ चुके हैं. वह उन के कमरे में गई और थोड़ी मुसकान के बाद बोली, ‘‘सर, आप बहुत महान हैं कि आप ने मुझे अपनाने का फैसला किया था. पर, मैं अपना दिल तो राजेश को दे चुकी हूं. मैं आप से शादी नहीं कर सकती. यह मेरा इस्तीफा है. मैं राजेश से शादी करूंगी.’’ निर्मल कुमार बोला, ‘‘तुम उस राजेश से बात कर रही हो न, जो इंपैक्ट इंडस्ट्री में काम करता है. उस के मालिक ने अपनी सांवली लड़की के लिए राजेश को तैयार कर लिया था. पर, मैं ने उन्हें बता दिया है कि राजेश और तुम कितनी ही रातें एक कमरे में गुजार चुके हो.

उन के पास तुम्हारे घर के वीडियो पहुंच चुके हैं. उन्होंने आज ही राजेश को धक्के दे कर नौकरी से निकल दिया है.  ‘‘राजेश तुम्हें धोखा देता रहा है. तुम जैसी लड़की से मैं भी अब शादी करने से इनकार करता हूं. इंपैक्ट इंडस्ट्री के मालिक ने राजेश को मेरे भेजे वीडियो के आधार पर उस के खिलाफ मुकदमा भी कर दिया है. वह अब जेल में है. जाओ, जेल में मिल आओ.’’ राजकुमारी उस से आगे एक लफ्ज भी नहीं सुन सकी. उस के हाथ से कागज छूट कर गिर पड़े. राजकुमारी की दुनिया उजड़ चुकी थी. न निर्मल साथ रहा, न राजेश.

वह बेमौत नहीं मरता: एक कठोर मां ने कैसे ले ली बेटे की जान

बड़बड़ा रही थीं 80 साल की अम्मां. सुबहसुबह उठ कर बड़बड़ करना उन की रोज की आदत है, ‘‘हमारे घर में नहीं बनती यह दाल वाली रोटी, हमारे घर में यह नहीं चलता, हमारे घर में वह नहीं किया जाता.’’ सुबह 4 बजे उठ जाती हैं अम्मां, पूजापाठ, हवनमंत्र, सब के खाने में रोकटोक, सोनेजागने पर रोकटोक, सब के जीने के स्तर पर रोकटोक. पड़ोस में रहती हूं न मैं, और मेरी खिड़की उन के आंगन में खुलती है, इसलिए न चाहते हुए भी सारी की सारी बातें मेरे कान में पड़ती रहती हैं.

अम्मां की बड़ी बेटी अकसर आती है और महीना भर रह जाती है. घूमती है अम्मां के पीछेपीछे, उन का अनुसरण करती हुई.

आंगन में बेटी की आवाज गूंजी, ‘‘अम्मां, पानी उबल गया है अब पत्ती और चीनी डाल दूं?’’

‘‘नहीं, थोड़ा सा और उबलने दे,’’ अम्मां अखबार पढ़ती हुई बोलीं.

मुझे हंसी आ गई थी कि 60 साल की बेटी मां से चाय बनाना सीख रही थी. अम्मां चाहती हैं कि सभी पूरी उम्र उन के सामने बड़े ही न हों.

‘‘हां, अब चाय डाल दे, चीनी और दूध भी. 2-3 उबाल आने दे. हां, अब ले आ.’’

अम्मां की कमजोरी हर रोज मैं महसूस करती हूं. 80 साल की अम्मां नहीं चाहतीं कि कोई अपनी इच्छा से सांस भी ले. बड़ी बहू कुछ साल साथ रही फिर अलग चली गई.

बेटे के अलग होने पर अम्मां ने जो रोनाधोना शुरू किया उसे देख कर छोटा लड़का डर गया. वह ऐसा घबराया कि उस ने अम्मां को कुछ भी कहना छोड़ दिया.

दुकान के भी एकएक काम में अम्मां का पूरा दखल था. नौकर कितनी तनख्वाह लेता है, इस का पता भी छोटे लड़के को नहीं था. अम्मां ही तनख्वाह बांटतीं.

छोटे बेटे का परिवार हुआ. बड़ी समझदार थी उस की पत्नी. जब आई थी अच्छे खातेपीते घर की लड़की थी लेकिन अब 18 साल में एकदम फूहड़गंवार बन कर रह गई है.

अम्मां बेटी के साथ बैठ कर चुहल करतीं तो मेरा मन उबलने लगता. गुस्सा आता मुझे कि कैसी औरत है यह. कभी उन के घर जा कर देखो तो, रसोई में वही टीन के डब्बे लगे हैं जिन पर तेल और धुएं की मोटी परत चढ़ चुकी है. बहू की क्या मजाल जो नए सुंदर डब्बे ला कर रसोई में सजा ले और उन में दालें, मसाले डाल ले.

मरजी अम्मां की और फूहड़ता का लेबल बहू के माथे पर. बड़ी बेटी जो दिनरात मां का अहम् संतुष्ट करती है, जिस का अपना घर हर सुखसुविधा से भरापूरा है, जो माइक्रोवेव के बिना खाना ही गरम नहीं कर सकती, वह क्या अपनी मां को समझा नहीं सकती? मगर नहीं, पता नहीं कैसा मोह है इस बेटी का कि मां का दिल न दुखे चाहे हजारों दिल दिनरात कुढ़ते रहे.

‘‘मेरे घर में 3 रोटियां खाने का रिवाज नहीं,’’ अम्मां ने बहू के आते ही घर के नियम उस के कान में डाल दिए थे. जब अम्मां ने देखा कि बहू ने चौथी रोटी पर भी हाथ डाल दिया तो बच्चों को नपातुला भोजन परोसने वाली अम्मां कहां सह लेती कि बहू हर रोज 1-1 रोटी ज्यादा खा जाती.

छोटा लड़का मां को खुश करताकरता ही बीमार रहने लगा था. सुबह से शाम तक दुकान पर काम करता और पेट में डलती गिन कर पतलीपतली 5 रोटियां जो उस के पूरे दिन का राशन थीं. बाजार से कुछ खरीद कर इस डर से नहीं खाता कि नौकरों से पता चलने के बाद अम्मां घर में महाभारत मचा देंगी.

‘‘किसी ने जादूटोना कर दिया है हमारे घर पर,’’ बेटा बीमार पड़ा तो अम्मां यह कहते हुए गंडेतावीजों में ऐसी पड़ीं कि अड़ोसीपड़ोसी सभी उन को दुश्मन नजर आने लगे, जिन में सब से ऊपर मेरा नाम आता था.

अम्मां का पूरा दिन हवनमंत्र में बीतता है और जादूटोने पर भी उन का उतना ही विश्वास था. पूरा दिन परिवार का खून जलाने वाली अम्मां को स्वर्ग चाहिए चाहे जीते जी आसपास नरक बन जाए. छोटा बेटा इलाज के चक्कर में कई बार दिल्ली गया था. सांस अधिक फूलने लगी थी इसलिए इन दिनों वह घर पर ही था. एक सुबह वह चल बसा. हम सब भाग कर उन के घर जमा हुए तो मेरी सूरत पर नजर पड़ते ही अम्मां ने चीखना- चिल्लाना शुरू किया, ‘‘हाय, तू मेरा बेटा खा गई, तूने जादूटोने किए, देख, मेरा बच्चा चला गया.’’

अवाक् रह गई मैं. सभी मेरा मुंह देखने लगे. ऐसा दर्दनाक मंजर और उस पर मुझ पर ऐसा आरोप. मुझे भला क्या चाहिए था अम्मां से जो मैं जादूटोना करती.

‘‘अरे, बड़की बहू तेरी बड़ी सगी है न. सारा छोटा न ले जाए इसलिए उस ने तेरे हाथ जादूटोने भेज दिए…’’

मैं कुछ कहती इस से पहले मेरे पति ने मुझे पीछे खींच लिया और बोले, ‘‘शांति, चलो यहां से.’’

मौका ऐसा था कि दया की पात्र अम्मां वास्तव में एक पड़ोसी की दया की हकदार भी नहीं रही थीं.

इनसान बहुत हद तक अपने हालात के लिए खुद ही जिम्मेदार होता है. उस का किया हुआ एकएक कर्म कड़ी दर कड़ी बढ़ता हुआ कितनी दूर तक चला आता है. लंबी दूरी तय कर लेने के बाद भी शुरू की गई कड़ी से वास्ता नहीं टूटता. 80 साल की अम्मां आज भी वैसी की वैसी ही हैं.

बहू दुकान पर जाती है और बड़ी पोती स्कूल के साथसाथ घर भी संभालती है. अम्मां की सारी कड़वाहट अब पोती पर निकलती है. 4 साल हो गए बेटे को गए. इन 4 सालों में अम्मां पर बस, इतना ही असर हुआ है कि उन की जबान की धार पहले से कुछ और भी तेज हो गई है.

‘‘कितनी बार कहा कि सुबहसुबह शोर मत किया करो, अम्मां, मेरे पेपर चल रहे हैं. रात देर तक पढ़ना पड़ता है और सुबह 4 बजे से ही तुम्हारी किटकिट शुरू हो जाती है,’’ एक दिन बड़ी पोती ने चीख कर कहा तो अम्मां सन्न रह गईं.

‘‘रहना है तो तुम हमारे साथ आराम से रहो वरना चली जाओ बूआ के साथ. दाल वाली रोटी पसंद नहीं तो बेशक भूखी रह जाओ, सादी रोटी बना लो मगर मेरा दिमाग मत चाटो, मेरा पेपर है.’’

‘‘हायहाय, मेरा बेटा चला गया तभी तुम्हारी इतनी हिम्मत हो गई…’’

अम्मां की बातें बीच में काटते हुए पोती बोली, ‘‘बेटा चला गया तभी तुम्हारी भी हिम्मत होती है उठतेबैठते हमें घर से निकालने की. पापा जिंदा होते तो तुम्हारी जबान भी इतनी लंबी न होती…’’

खिड़की से आवाजें अंदर आ रही थीं.

‘‘…अपने बेटे को कभी पेट भर कर खिलाया होता तो आज हम भी बाप को न तरसते. अम्मां, इज्जत लेना चाहती हो तो इज्जत करना भी सीखो. मुझे पापा मत समझना अम्मां, मैं नहीं सह पाऊंगी, समझी न तुम.’’

शायद अम्मां का हाथ पोती पर उठ गया था, जिसे पोती ने रोक लिया था.

तरस आता था मुझे बच्ची पर, लेकिन अब थोड़ी खुशी भी हो रही है कि इस बच्ची को विरोध करना भी आता है.

पेपर खत्म हुए और एक दिन फिर से घर में कोहराम मच गया. घबरा कर खिड़की में से देखा. चमचमाते 3 बड़ेछोटे टं्रक आंगन में पड़े थे. जिन पर अम्मां चीख रही थीं. दुकान से पैसे ले कर खर्च जो कर लिए थे.

‘‘घर में इतने ट्रंक हैं फिर इन की क्या जरूरत थी?’’

‘‘होंगे, मगर मेरे पास नहीं हैं और मुझे अपना सामान रखने के लिए चाहिए.’’

अम्मां कुली का हाथ रोक रही थीं तो पोती ने अम्मां का हाथ झटक दिया था और बोली, ‘‘चलो भैया, टं्रक अंदर रखो.’’

छाती पीटपीट कर रोने लगी थी अम्मां, पोती ने लगे हाथ रसोई में जा कर टीन के सभी डब्बे बाहर ला पटके जिन्हें बाद में कबाड़ी वाला ले गया. पोती ने नए सुंदर डब्बे धो कर सामने मेज पर सजा दिए थे. अम्मां ने फिर मुंह खोला तो इस बार पोती शांत स्वर में बोली, ‘‘पापा कमाकमा कर मर गए, मेरी मां भी क्या कमाकमा कर तुम्हारी झोली ही भरती रहेगी? हमें जीने कब दोगी अम्मां? जीतेजी जीने दो अम्मां, हम पर कृपा करो…’’

पोती की इस बगावत से अम्मां सन्न थीं. वे सुधरेंगी या नहीं, मैं नहीं जानती मगर इतना जरूर जानती हूं कि अम्मां के लिए यह सब किसी प्रलय से कम नहीं था. सोचती हूं इतना ही विरोध अगर छोटे बेटे ने भी कर दिखाया होता तो इस तरह का दृश्य नहीं होता जो अब इस घर का है.

कुछ और दिन बीत गए. 20 साल की पोती धीरेधीरे मुंहजोर होती जा रही है. अपने ढंग से काम करती है और अम्मां का जायज मानसम्मान भी नहीं करती. हर रोज घर में तूतू मैंमैं होती है. बच्चों के खानेपीने में अम्मां की सदा की रोकटोक भला पोती सहे भी क्यों. भाई को पेट भर खिलाती है, कई बार थाली में कुछ छूट जाए तो अम्मां चीखने लगती हैं,  ‘‘कम डालती थाली में तो इतना जाया न होता…’’

‘‘तुम मेरे भाई की रोटियां मत गिना करो अम्मां, बढ़ता बच्चा है कभी भूख ज्यादा भी लग जाती है. तुम्हारी तरह मैं पेट नापनाप कर खाना नहीं बना सकती…’’

‘‘मैं पेट नाप कर खाना बनाती हूं?’’ अम्मां चीखीं.

‘‘क्या तुम्हें नहीं पता? घर में तुम्हीं ने 2 रोटी का नियम बना रखा है न और पेट नाप कर बनाना किसे कहते हैं. तुम्हारी वजह से मेरा बाप मर गया, सांस भी नहीं लेने देती थीं तुम उन्हें. घुटघुट कर मर गया मेरा बाप, अब हमें तो जीने दो. इनसान दिनरात रोटी के लिए खटतामरता है, हमें तो भर पेट खाने दो.’’

अम्मां अब पगलाई सी हैं. सारा राजपाट अब पोती ने छीन लिया है. जरा सी बच्ची एक गृहस्वामिनी बन गई.

‘‘रोती रहती हैं अब अम्मां. सभी को दुश्मन बना चुकी हैं. कोई उन से बात करना नहीं चाहता. पोती को कोसना घटता नहीं. अपनी भूल वह आज भी नहीं मानतीं. 80 साल जी चुकने के बाद भी उन्हें बैराग नहीं सूझता. सब से बड़ा नुकसान उन पंडितों को हुआ है जो अब यज्ञ, हवन के बहाने अम्मां से पूरीहलवा उड़ाने नहीं आ पाते. जब कभी कोई भटक कर आ पहुंचे तो पोती झटक देती है, ‘‘जाओ, आगे जाओ, हमें बख्शो.

तालीम: क्या वारसी साहब की तमन्ना पूरी हुई?

अमन अपने पिता का लख्तेजिगर था, क्योंकि उस खानदान में एक भी बेटा नहीं था. वैसे, वहां धनदौलत की कोई कमी नहीं थी. वारसी साहब खानदानी रईस थे. कई गाडि़यां कीं और कई बंगले थे. वे राजामहाराजा की जिंदगी जी रहे थे, लेकिन बेटे जैसी नेमत से महरूम थे.

वारसी साहब की शादी मुद्दत पहले हो गई थी, पर फिर भी कोई औलाद नहीं हुई. बेटा होने की तमन्ना दिल में बहुत थी. कई मिन्नतों के बाद अमन जैसा चांद सा बेटा वारसी साहब को हुआ. लेकिन शक्ल से तो पर अक्ल से नहीं. उसे अपने पिता की धनदौलत पर ज्यादा ही नाज था. उसे लगता था कि दुनिया में धनदौलत ही सबकुछ है.

वारसी साहब अपने एकलौते बेटे से बहुत ज्यादा लाड़प्यार करते थे, पर उन्हें कंपनी के कामों से इतनी भी फुरसत नहीं मिलती थी कि वे अपने बेटे को तालीम हासिल करने के लिए बोल सकें. वारसी साहब की यही मुहब्बत धीरेधीरे अमन के लिए घातक साबित हो रही थी.

‘‘तुम्हारे पास क्या है छोटू? देखो, मेरे पास कई गाडि़यां हैं, कई बंगले हैं, चहलकदमी के लिए कई बाग है, जबकि तुम्हारे पास खाने के लिए तो दो कौडि़यां होंगी,’’ एक दिन अमन ने अपने पिता के ड्राइवर के बेटे से कहा.

रजा उर्फ छोटू की मां भी वारसी साहब के घर बरतन साफ करती थी, पर वह अच्छे स्कूल में पढ़ता था, क्योंकि उस के मांबाप उस के भविष्य के लिए कुछ भी करने को तैयार थे.

रजा ने अमन के सवाल का जवाब दिया, ‘‘मेरे पास वह सबकुछ है, जो शायद तुम्हारे पास नहीं है.’’

अमन यह सुन कर गुस्से से आगबबूला हो कर बोला, ‘‘अरे, जरा बता तो सही कि ऐसी क्या ऐसी चीज है तेरे पास, जो मेरे पास नहीं है? तुम्हारी मां मेरे घर पर काम करती है. तुम्हारे पिता मेरे पिताजी के कार ड्राइवर हैं. आखिर ऐसी भी तुम्हारे पास क्या जायदाद है?’’

‘‘मेरे पास तालीम जैसी नेमत है, लेकिन तुम्हारे पास नहीं है. तालीम के बिना इनसान गरीब की तरह है. तुम चाहो तो पैसों से डिगरियां खरीद सकते हो, लेकिन सच्ची और अच्छी तालीम नहीं.’’

उन दोनों की बहस को बगीचे में बैठी अमन की दादी सुन रही थीं. अपनी लाठी पकड़ते हुए उन्होंने आवाज लगाई, ‘‘अरे, तुम दोनों मेरे पास आ जाओ. खेलतेखेलते आपस में नाहक झगड़ क्यों रहे हो?’’

अमन ने फरियाद रखी, ‘‘दादी, देखो न छोटू को कि यह क्या बोल रहा है. इस के पास खाने के लिए सही से राशन भी नहीं होगा, पहनने के लिए कपड़े भी नहीं होंगे, लेकिन देखो कैसे बोल रहा है कि जो इस के पास है, वह मेरे पास नहीं है.’’

बूढ़ी दादी ने अपने पोते को समझाते हुए कहा, ‘‘बेटा, छोटू की बात बिलकुल सही है. तालीम की तुलना धनदौलत से नहीं और धनदौलत की तुलना तालीम से नहीं की जा सकती, क्योंकि तालीम दौलतों की दौलत है. हर कोई इसे हासिल नहीं कर सकता.

‘‘रजा के मातापिता गरीब तो हैं और वे अपने घर में नौकरी करते हैं, पर गरीब होने के बाद भी उन्होंने इसे अच्छी तालीम देने की कोशिश की है.

‘‘पर, तुम्हारे मातापिता ने तुम्हें अच्छी तालीम देने में लापरवाही की है, क्योंकि उन दोनों को यही लगता है कि वे इतनी धनदौलत छोड़ कर जाएंगे कि अगर तुम्हारी आने वाली सात नस्लें भी बैठ कर खाएंगी तो खत्म नहीं होगी.’’

‘‘दादी, तुम छोटू की तरफदारी क्यों कर रही हो? मैं आप का पोता हूं या छोटू?’’ अमन ने दादी से पूछा.

‘‘बेटा, अभी मैं तुम्हारी दादी नहीं हूं, बल्कि तुम दोनों की बात का फैसला करने वाली हूं. फैसला करने के समय रिश्तेदारी खत्म. अगर मैं तुम्हारे हक में फैसला करूंगी, तो छोटू के साथ नाइंसाफी होगी. जो सच है, वही मैं कहूंगी.

‘‘आओ, तुम दोनों एक जगह बैठ जाओ. एक बार बचपन में जब मैं अपनी सहेली के साथ झगड़ रही थी, तो मेरी दादी ने एक कहानी सुनाई थी. आज वही कहानी मैं तुम दोनों को सुनाती हूं.

‘‘कई साल पहले एक राजा हुआ करते थे. वे बहुत पढ़ेलिखे थे और उन के पास धनदौलत की कोई कमी नहीं थी. उन का एक बेटा भी था, पर वह अव्वल दर्जे का बेवकूफ था. वह पढ़ाईलिखाई को कुछ नहीं समझता था.

‘‘एक दिन राजा की तबीयत खराब हो गई. कई हकीमों ने राजा का इलाज किया, पर वे राजा को नहीं बचा पाए. अब राजा के मरने के बाद सिंहासन पर उस का बेवकूफ और अनपढ़ बेटा बैठ गया, क्योंकि वह राजा का वारिस जो था.

‘‘वह राजा तो बन बैठा, पर ज्यादा दिन तक नहीं. उस की बेवकूफी का फायदा उठा कर लोगों ने उसे ठग लिया और उसे राजा से रंक बनते देर नहीं लगी.

‘‘कहने का मतलब यह है कि तुम बिना तालीम के अपनी जायदाद को ज्यादा समय तक के लिए नहीं बचा पाओगे. पर अगर तुम्हारे पास अच्छी तालीम होगी, तो बहुत सी जायदाद बना सकते हो…’’

अमन की समझ में दादी की सारी बातें आ चुकी थीं. उसे अपनी भूल पर पछतावा हो रहा था.

‘‘दादी, मुझे माफ कर देना. मैं आज से ही तालीम हासिल करने स्कूल जाया करूंगा. छोटू, तुम भी मुझे माफ कर दो.’’

इस के बाद अमन अब छोटू के साथ तालीम हासिल करने स्कूल जाने लगा था. वे दोनों अच्छे दोस्त भी बन गए थे.

प्यार है: लड़ाई को प्यार से जीत पाए दो प्यार करने वाले

हाइड पार्क सोसाइटी वैसे तो ठाणे के काफी पौश इलाके में स्थित है, यहां के लोग भी अपनेआप को सभ्य, शिष्ट, आधुनिक और समृद्ध मानते हैं, पर जैसाकि अपवाद तो हर जगह होते हैं, और यहां भी है. कई बार ऊपरी चमकदमक से तो देखने में तो लगता है कि परिवार बहुत अच्छा है, सभ्य है पर जब असलियत सामने आती है तो हैरान हुए बिना नहीं रह सकते. ऐसे ही 2 परिवारों के जब अजीब से रंगढंग सामने आए तो यहां के निवासियों को समझ ही नहीं आया कि इन का क्या किया जाए, हंसें या इन्हे टोकें.

बिल्डिंग नंबर 9 के फ्लैट 804 में रहते हैं रोहित, उन की पत्नी सुधा और बेटियां सोनिका और मोनिका. इन के सामने वाले फ्लैट 805 में रहते हैं आलोक, उन की पत्नी मीरा और बेटा शिविन. कभी दोनों परिवारों में अच्छी दोस्ती थी, दोनों के बच्चे एक ही स्कूलकलेज में पढ़ते रहे.

दोनों दंपत्ति बहुत ही जिद्दी, घमंडी और गुस्सैल हैं. जो भी इन परिवारों के बीच दोस्ती रही, वह सिर्फ इन के प्यारे, समझदार बच्चों के कारण ही. अब 1 साल के आगेपीछे शिविन और सोनिका दोनों आगे की पढ़ाई के लिए लंदन चले गए हैं. मोनिका मुंबई में ही फैशन डिजाइनिंग का कोर्स कर रही है. सब ठीक चल ही रहा था कि सोसाइटी में कुछ लोगों ने आमनेसामने के खाली फ्लैट खरीद लिए और अब उन का बड़ा सा घर हो गया, तो इन दोनों दंपत्तियों के मन में आया कि उन्हें भी सामने वाला फ्लैट मिल जाए तो उन का भी घर बहुत बड़ा हो जाएगा.

एक दिन सोसाइटी की मीटिंग चल रही थी कि वहां रोहित ने आलोक से कहा, ”आप का अपना फ्लैट बेचने का कोई मूड है क्या?”

”नहीं भाई, मैं क्यों बेचूंगा…”

”अगर बेचें तो हमें ही बताना, हम खरीद लेंगे.”

”आप भी कभी बेचें तो हमें ही बताना, हमें भी चाहिए आप का फ्लैट.”

”हम तो कहीं नहीं जा रहे, यही रहेंगे.”

“फिर भी जाओ तो हमें बता देना. आजकल तो आसपास बढ़िया सोसाइटी हैं, आप वहां भी देख सकते हैं बड़ा फ्लैट.”

”आप अपने लिए क्यों नहीं देख लेते वहां बड़ा फ्लैट?”

‘’हमें यही सोसाइटी अच्छी लगती है.’’

बात यहीं खत्म नहीं हुई. यह बात जो लोग भी सुन रहे थे, उन्होंने दोनों की आवाजों में बढ़ रही कड़वाहट महसूस की. घर जा कर रोहित ने सुधा से कहा,”इस आलोक को तो मैं यहां से भगा कर दम लूंगा. अपनेआप को समझता क्या है.”

उधर आलोक भी शुरू थे,”मीरा, यह मुझे जानता नहीं है. देखना, मैं इसे यहां से कैसे भगाता हूं.’’

अगले दिन जब दोनों लिफ्ट में मिले, दोनों ने बस एकदूसरे पर नजर ही डाली, हमेशा की तरह हायहैलो भी नहीं हुआ. अगले दिन जब मोनिका सुबह साइक्लिंग के लिए जाने लगी, देखा, साइकिल के ट्यूब कटे हुए हैं, वह वौचमैन को डांटने लगी,”यह किस ने किया है?”

”मैडम, बाहर से तो कोई नहीं आया,’’ वौचमैन बोला

”तो फिर मेरी साइकिल की यह हालत किस ने की?”

वौचमैन डांट खाता रहा, वह तो लगातार यहीं था, पर साइकिल को तो जानबूझ कर खराब किया गया था, यह साफसाफ समझ आ रहा था.मोनिका घर जा कर चिङचिङ करती रही, किसी को कुछ समझ नहीं आया कि किस ने किया. उधर आलोक घर में अपनेआप को शाबाशी दे रहे थे कि रोहित बाबू, अब आगे देखना क्याक्या करता हूं तुम सब के साथ.

जब 2 चालाक लोग आमनेसामने होते हैं तो किसी की कोई हरकत एकदूसरे से छिपी नहीं रह पाती, दोनों एकदूसरे की चालाकी तुरंत पकड़ लेते हैं. यहां भी रोहित समझ गए कि किसी बाहर वाले ने आ कर मोनिका की साइकिल खराब नहीं की है, यह कोई बिल्डिंग का ही रहने वाला है. पूरा शक आलोक पर था जो सच ही था. सोचने लगे कि यह हमें ऐसे परेशान करेगा. मैं करता हूं इसे ठीक.

उन्होंने सुबह बहुत जल्दी उठ कर अपना डस्टबिन आलोक के फ्लैट के बाहर ऐसे रखा कि जो भी दरवाजा खोले, डस्टबिन गिर जाए और सारा कचरा बिखर जाए. आलोक और मीरा सुबह सैर पर जाते थे, एक ही बेटा था जो बाहर है. सुबहसुबह आलोक ने दरवाजा खोला तो कचरा फैल गया. वह भी समझ गए कि किस का काम है. फौरन रोहित की डोरबेल बजा दी, एक बार नहीं, कई बार बजा दी. रोहित ने तो रात में ही डोरबेल बंद कर दी थी, रोहित कीहोल से आलोक को गुस्से में चिल्लाते देख रहे थे. फ्लोर पर जो 2 फ्लैट्स और थे, उन में बैचलर्स रहते थे. इस चिल्लीचिल्लम पर उन्होंने दरवाजा खोला और आलोक से पूछा,”क्या हुआ अंकल?”

”यह देखो, कैसे गंवार हैं. कैसे रखा डस्टबिन.”

बैचलर्स को इन बातों में जरा इंटरैस्ट नहीं था, उन्होंने सर को यों ही हिलाते हुए अपने फ्लैट का दरवाजा बंद कर लिया जैसे कह रहे हों, ”भाई, खुद ही देख लो, हम तो किराएदार हैं.’’

लंदन में साउथ हौल में शिविन और सोनिका एकदूसरे के हाथों में हाथ डाले बेफिक्र घूम रहे हैं. सोनिका के कालेज में ट्रैडिशनल डे है और उसे सूटसलवार पहनना है. यहां ट्रेन से उतरते ही इस एरिया में आते ही ऐसा लगता है जैसे पंजाब आ गए हों. पूरा एरिया पंजाबी है. इंडियन सामानों की दुकानें आदि सबकुछ मिलता है यहां.

सोनिका ने कहा,”शिवू, पहले रोड कैफे में बैठ कर छोलेभटूरे खा लें, फिर कपङे ले लेंगे.’’

”हां, बिलकुल, यह रोड कैफे तो हमारे प्यार से जुड़ा है, यहीं हम मिले थे न सब से पहले?”

सोनिका खिलखिलाई, ”हां, मैं तो गा ही उठी थी, ‘कब के बिछड़े हुए हम कहां आ के मिले…'”

दोनों ने और्डर दिया और एक कोना खोज कर बैठ गए. शिविन ने कहा, ”बस अब अच्छी जगह प्लैसमेंट हो जाए, जौब शुरू हो तो शादी करें.’’

”हां, सही कह रहे हो. यह बताओ, घर वालों का क्या करना है, मुझे नहीं लगता कि तुम्हारे पेरैंट्स नौन सिंधी लड़की को ऐक्सैप्ट करेंगे.”

”न करें, हमारी शादी तो हो कर रहेगी. तुम मेरे बचपन का प्यार हो, उन्हें यह पता नहीं है कि हम यहां लिवइन में ही रह रहे हैं, वक्त आने पर बात कर लूंगा उन से.‘’

शिविन और सोनिका एकदूसरे के प्यार में पोरपोर डूबे हैं और उधर इंडिया में किसी को भनक भी नहीं कि लंदन में क्या चल रहा है. शुरूशुरू में कुछ दिन दोनों किसी और फ्रैंड्स के साथ रूम शेयर कर रहे थे, फिर एक दिन यहीं रोड कैफे में दोनों टकरा गए तो तब से ही साथ हैं.

जो बात इंडिया में दोनों एकदूसरे से नहीं कह पाए थे, यहां आ कर कही कि दोनों एकदूसरे को हमेशा से पसंद करते रहे हैं. अब तो दोनों बहुत आगे निकल चुके हैं. दोनों के पेरैंट्स आजकल चल रहे आपस की लङाईयां और शीतयुद्ध को विदेश में पढ़ रहे अपने बच्चों को नहीं बताते कि बेकार में क्यों उन्हें पढाई में डिस्टर्ब करना. और बच्चे तो होशियार हैं ही, हवा भी नहीं लगने दे रहे कि इंडिया में तो आमनेसामने के पड़ोसी थे, अब तो एकसाथ ही रह रहे.

अब तो रोजरोज का किस्सा हो गया. रोहित और आलोक दोनों इसी कोशिश में थे कि परेशान हो कर सामने वाला फ्लैट बदल ले पर दोनों गजब का इंतजार कर रहे थे. नित नए प्लान बन रहे थे. दरवाजों पर जो मिल्क बैग टांगा जाता है, उस में से दूध 2 की जगह एक पैकेट ही निकलता. कभी उस दूध के पैकेट में 1 छेद कर दिया जाता जिस से सारा दूध रिस कर जमीन पर फैल जाए. सीढ़ियों से उतर कर आने वाले लोग दोनों परिवारों को कोसकोस कर चले जाते. सब को पता चल गया था कि क्या क्या हो रहा है, ऐसे में मैनेजिंग कमिटी की मुश्किल बहुत बढ़ गई थी.

दोनों लोग रोज औफिस जाते और एकदूसरे की शिकायत करते. हरकतें इतनी सफाई से की जा रही थीं कि कोई सुबूत किसी को न मिलता कि किस ने क्या किया है. रोज एक से एक हरकत की जाती, गिरी से गिरी प्लानिंग होती, यहां तक कि सुधा यह जानती थी कि मीरा कौकरोच से बहुत ज्यादा डरती है, इसलिए पैसेज में घूमने वाले कौकरोच को सुधा ने एक पेपर से पकड़ कर मीरा के डोर के अंदर छोड़ दिया. मीरा का गेट खुला हुआ था, मेड काम कर रही थी, उस ने देख लिया. बस, अब तो सुबूत सामने था.

आलोक तो सीधे पुलिस स्टैशन पहुंच गए और सुधा की शिकायत कर दी, साथ में मेड को भी ले गए थे. मेड डर रही थी फिर बाद में मीरा की रिक्वैस्ट पर उन के साथ चली ही गई. थोड़ीबहुत कानूनी काररवाई हुई और रोहित और सुधा को चेतावनी देते हुए छोड़ दिया गया.

सोसाइटी में रहने वाले लोग हैरान थे. अपने फ्लैट को बड़ा करने के लिए दूसरे फ्लैट वालों को कैसे परेशान किया जा रहा था, कैसी जिद और सनक थी अब दोनों परिवारों में जो इतनी बढ़ गई कि इस की खबर लंदन तक पहुंच ही गई. सोनिका और शिविन ने अपने सिर पकड़ लिए. दोनों अपने पेरैंट्स को अलगअलग कोने में बैठ कर समझा रहे थे, मगर कोई असर नहीं हो रहा था.

सोनिका ने कहा, ”यार, अब हमारा क्या होगा?”

”डोंट वरी, हमारे पेरैंट्स बहुत गलत कर रहे हैं, इस जिद में हम तो नहीं पड़ेंगे. पता नहीं क्या फालतू हरकतें कर रहे हैं. वैसे तो अपनी तबीयत और अकेलेपन का रोना रोते रहते हैं और अब देखो, इन सब बातों की कितनी ऐनर्जी है सब में.”

मुंबई में दोनों घरों का माहौल बहुत खराब होता जा रहा था. दोनों परिवार अपनेअपने तरीके से एकदूसरे को नुकसान पहुंचा रहे थे. रात में वीडियो कौल पर सोनिका और शिविन से अब हर बात बताते. शिविन तो इकलौती संतान था, आलोक और मीरा उसी से कह कर अपना दिल हलका करते. सोनिका और शिविन का दिल उदास हो रहा था कि यह तो बड़ा बुरा हो रहा है. कहां तो दोनों सपना देख रहे थे कि दोनों परिवारों का साथ भविष्य में एकदूसरे के लिए अब और कितना बड़ा सहारा होगा, सब एकदूसरे के सुखदुख में साथ रह लेंगे.

शिविन ने बहुत गंभीर मुद्रा में कहा, ”सोनू, कोई वहां एकदूसरे को कोई बड़ा नुकसान पहुंचा दे, इस से पहले उन्हें रोकना होगा. सोच रहा हूं कि हम उन्हें अपना संबंध बता देते हैं, शायद कोई असर हो.”

”ठीक है, कोशिश कर सकते हैं, अब अपने बारे में बता ही देते हैं.’’

उसी दिन जब दोनों अपने परिवार से वीडियो कौल कर रहे थे, दोनों ने बात करतेकरते साफसाफ कहा, ”आप लोग यह झगड़ा यहीं रोक दें क्योंकि जौब मिलते ही हम दोनों शादी कर लेंगे और हम अभी भी साथ ही रह रहे हैं. बहुत सोचसमझ कर हम ने एकदूसरे को अपना जीवनसाथी चुन लिया है और हमारा फैसला बदलेगा नहीं. अब आप लोग देख लीजिए क्या करना है. हमें तो प्यार है, तो है.’’

दोनों परिवारों में जैसे सन्नाटा फैल गया, सब एकदम चुप. कोई किसी से नहीं बोला. कई दिन दोनों तरफ बहुत शांति रही. किसी ने किसी को परेशान नहीं किया. सोनिका और शिविन ने घर कोई बात नहीं की. पूरा समय दिया अपने पेरैंट्स को. मोनिका लगातार सोनिका के टच में थी, वह पूरी कोशिश कर रही थी कि दोनों परिवार झगडे खत्म कर दें.

3 दिन बाद सोनिका से बात कर रहा था परिवार. रोहित बोले, ”इंसान अपनी संतान से ही हारता है, क्या कर सकते हैं, जैसी तुम्हारी मरजी.’’

मोनिका हंस पड़ी, ”पापा, यह हारजीत नहीं है, यह प्यार है.”

उधर मीरा मुसकराती हुई शिविन से कह रही थी, ”ठीक है फिर, प्यार है तो फिर हम क्या कर सकते हैं. बात ही खत्म.

फोन रखने के बाद शिविन और सोनिका चहकते हुए एकदूसरे की बांहों में खो गए थे.

जो बीत गई सो बात गई

अपनेमोबाइल फोन की स्क्रीन पर नंबर देखते ही वसंत उठ खड़ा हुआ. बोला, ‘‘नंदिता, तुम बैठो, वे लोग आ गए हैं, मैं अभी मिल कर आया. तुम तब तक सूप खत्म करो. बस, मैं अभी आया,’’ कह कर वसंत जल्दी से चला गया. उसे अपने बिजनैस के सिलसिले में कुछ लोगों से मिलना था. वह नंदिता को भी अपने साथ ले आया था.

वे दोनों ताज होटल में खिड़की के पास बैठे थे. सामने गेटवे औफ इंडिया और पीछे लहराता गहरा समुद्र, दूर गहरे पानी में खड़े विशाल जहाज और उन का टिमटिमाता प्रकाश. अपना सूप पीतेपीते नंदिता ने यों ही इधरउधर गरदन घुमाई तो सामने नजर पड़ते ही चम्मच उस के हाथ से छूट गया. उसे सिर्फ अपना दिल धड़कता महसूस हो रहा था और विशाल, वह भी तो अकेला बैठा उसे ही देख रहा था. नंदिता को यों लगा जैसे पूरी दुनिया में कोई नहीं सिवा उन दोनों के.

नंदिता किसी तरह हिम्मत कर के विशाल की मेज तक पहुंची और फिर स्वयं को सहज करती हुई बोली, ‘‘तुम यहां कैसे?’’

‘‘मैं 1 साल से मुंबई में ही हूं.’’

‘‘कहां रह रहे हो?’’

‘‘मुलुंड.’’

नंदिता ने इधरउधर देखते हुए जल्दी से कहा, ‘‘मैं तुम से फिर मिलना चाहती हूं, जल्दी से अपना नंबर दे दो.’’

‘‘अब क्यों मिलना चाहती हो?’’ विशाल ने सपाट स्वर में पूछा.

नंदिता ने उसे उदास आंखों से देखा, ‘‘अभी नंबर दो, बाद में बात करूंगी,’’ और फिर विशाल से नंबर ले कर वह फिर मिलेंगे, कहती हुई अपनी जगह आ कर बैठ गई.

विशाल भी शायद किसी की प्रतीक्षा में था. नंदिता ने देखा, कोई उस से मिलने आ गया था और वसंत भी आ गया था. बैठते ही चहका, ‘‘नंदिता, तुम्हें अकेले बैठना पड़ा सौरी. चलो, अब खाना खाते हैं.’’

पति से बात करते हुए नंदिता चोरीचोरी विशाल पर नजर डालती रही और सोचती रही अच्छा है, जो आंखों की भाषा पढ़ना मुश्किल है वरना बहुत से रहस्य खुल जाएं. नंदिता ने नोट किया विशाल ने उस पर फिर नजर नहीं डाली थी या फिर हो सकता है वह ध्यान न दे पाई हो.

आज 5 साल बाद विशाल को देख पुरानी यादें ताजा हो गई थीं. लेकिन वसंत के सामने स्वयं को सहज रखने के लिए नंदिता को काफी प्रयत्न करना पड़ा.

वे दोनों घर लौटे तो आया उन की 3 वर्षीय बेटी रिंकी को सुला चुकी थी. वसंत की मम्मी भी उन के साथ ही रहती थीं. वसंत के पिता का कुछ ही अरसा पहले देहांत हो गया था.

उमा देवी का समय रिंकी के साथ अच्छा कट जाता था और नंदिता के भी उन के साथ मधुर संबंध थे.

वसंत भी सोने लेट गया. नंदिता आंखें बंद किए लेटी रही. उस की आंखों के कोनों से आंसू निकल कर तकिए में समाते रहे. उस ने आंखें खोलीं. आंसुओं की मोटी तह आंखों में जमी थी. अतीत की बगिया से मन के आंगन में मुट्ठी भर फूल बिखेर गई विशाल की याद जिस के प्यार में कभी उस का रोमरोम पुलकित हो उठता था.

नंदिता को वे दिन याद आए जब वह अपनी सहेली रीना के घर उस के भाई विशाल से मिलती तो उन की खामोश आंखें बहुत कुछ कह जाती थीं. वे अपने मन में उपज रही प्यार की कोपलों को छिपा न सके थे और एक दिन उन्होंने एकदूसरे के सामने अपने प्रेम का इजहार कर दिया था.

लेकिन जब वसंत के मातापिता ने लखनऊ में एक विवाह में नंदिता को देखा तो देखते ही पसंद कर लिया और जब वसंत का रिश्ता आया तो आम मध्यवर्गीय नंदिता के मातापिता सुदर्शन, सफल, धनी बिजनैसमैन वसंत के रिश्ते को इनकार नहीं कर सके. उस समय नौकरी की तलाश में भटक रहे विशाल के पक्ष में नंदिता भी घर में कुछ कह नहीं पाई.

उस का वसंत से विवाह हो गया. फिर विशाल का सामना उस से नहीं हुआ, क्योंकि वह फिर मुंबई आ गई थी. रीना से भी उस का संपर्क टूट चुका था और आज 5 साल बाद विशाल को देख कर उस की सोई हुई चाहत फिर से अंगड़ाइयां लेने लगी थी.

नंदिता ने देखा वसंत और रिंकी गहरी नींद में हैं, वह चुपचाप उठी, धीरे से बाहर आ कर उस ने विशाल को फोन मिलाया. घंटी बजती रही, फिर नींद में डूबा एक नारी स्वर सुनाई दिया, ‘‘हैलो.’’

नंदिता ने चौंक कर फोन बंद कर दिया. क्या विशाल की पत्नी थी? हां, पत्नी ही होगी. नंदिता अनमनी सी हो गई. अब वह विशाल को कैसे मिल पाएगी, यह सोचते हुए वह वापस बिस्तर पर आ कर लेट गई. लेटते ही विशाल उस की जागी आंखों के सामने साकार हो उठा और बहुत चाह कर भी वह उस छवि को अपने मस्तिष्क से दूर न कर पाई.वसंत के साथ इतना समय बिताने पर भी नंदिता अब भी रात में नींद में विशाल को सपने में देखती थी कि वह उस की ओर दौड़ी चली जा रही है. उस के बाद खुले आकाश के नीचे चांदनी में नहाते हुए सारी रात वे दोनों आलिंगनबद्ध रहते. उन्हें देख प्रकृति भी स्तब्ध हो जाती. फिर उस की तंद्रा भंग हो जाती और आंखें खुलने पर वसंत उस के बराबर में होते और वह विशाल को याद करते हुए बाकी रात बिता देती.

आज तो विशाल को सामने देख कर नंदिता और बेचैन हो गई थी.

अगले दिन वसंत औफिस चला गया और रिंकी स्कूल. उमा देवी अपने कमरे में बैठी टीवी देख रही थीं. नंदिता ने फिर विशाल को फोन मिलाया. इस बार विशाल ने ही उठाया, पूछा, ‘‘क्या रात भी तुम ने फोन किया था?’’

‘‘हां, किस ने उठाया था?’’

‘‘मेरी पत्नी नीता ने.’’

पल भर को चुप रही नंदिता, फिर बोली, ‘‘विवाह कब किया?’’

‘‘2 साल पहले.’’

‘‘विशाल, मुझे अपने औफिस का पता दो, मैं तुम से मिलना चाहती हूं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘यह तुम मुझ से पूछ रहे हो?’’

‘‘हां, अब क्या जरूरत है मिलने की?’’

‘‘विशाल, मैं हमेशा तुम्हें याद करती रही हूं, कभी नहीं भूली हूं. प्लीज, विशाल, मुझ से मिलो. तुम से बहुत सी बातें करनी हैं.’’

विशाल ने उसे अपने औफिस का पता बता दिया. नंदिता नहाधो कर तैयार हुई. घर में 2 मेड थीं, एक घर के काम करती थी और दूसरी रिंकी को संभालती थी. घर में पैसे की कमी तो थी नहीं, सारी सुखसुविधाएं उसे प्राप्त थीं. उमा देवी को उस ने बताया कि उस की एक पुरानी सहेली मुंबई आई हुई है. वह उस से मिलने जा रही है. नंदिता ने ड्राइवर को गाड़ी निकालने के लिए कहा. एक गाड़ी वसंत ले जाता था. एक गाड़ी और ड्राइवर वसंत ने नंदिता की सुविधा के लिए रखा हुआ था. नंदिता को विशाल के औफिस मुलुंड में जाना था. जो उस के घर बांद्रा से डेढ़ घंटे की दूरी पर था.

नंदिता सीट पर सिर टिका कर सोच में गुम थी. वह सोच रही थी कि उस के पास सब कुछ तो है, फिर वह अपने जीवन से पूर्णरूप से संतुष्ट व प्रसन्न क्यों नहीं है? उस ने हमेशा विशाल को याद किया. अब तो जीवन ऐसे ही बिताना है यही सोच कर मन को समझा लिया था. लेकिन अब उसे देखते ही उस के स्थिर जीवन में हलचल मच गई थी.

नंदिता को चपरासी ने विशाल के कैबिन में पहुंचा दिया. नंदिता उस के आकर्षक व्यक्तित्व को अपलक देखती रही. विशाल ने भी नंदिता पर एक गंभीर, औपचारिक नजर डाली. वह आज भी सुंदर और संतुलित देहयष्टि की स्वामिनी थी.

विशाल ने उसे बैठने का इशारा करते हुए पूछा, ‘‘कहो नंदिता, क्यों मिलना था मुझ से?’’

नंदिता ने बेचैनी से कहा, ‘‘विशाल, तुम ने यहां आने के बाद मुझ से मिलने की कोशिश भी नहीं की?’’

‘‘मैं मिलना नहीं चाहता था और अब तुम भी आगे मिलने की मत सोचना. अब हमारे रास्ते बदल चुके हैं, अब उन्हीं पुरानी बातों को करने का कोई मतलब नहीं है. खैर, बताओ, तुम्हारे परिवार में कौनकौन है?’’ विशाल ने हलके मूड में पूछा.

नंदिता ने अनमने ढंग से बताया और पूछने लगी, ‘‘विशाल, क्या तुम सच में मुझ से मिलना नहीं चाहते?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘क्या तुम मुझ से बहुत नाराज हो?’’

‘‘नंदिता, मैं चाहता हूं तुम अपने परिवार में खुश रहो अब.’’

‘‘विशाल, सच कहती हूं, वसंत से विवाह तो कर लिया पर मैं कहां खुश रह पाई तुम्हारे बिना. मन हर समय बेचैन और व्याकुल ही तो रहा है. हर पल अनमनी और निर्विकार भाव से ही तो जीती रही. इतने सालों के वैवाहिक जीवन में मैं तुम्हें कभी नहीं भूली. मैं वसंत को कभी उस प्रकार प्रेम कर ही नहीं सकी जैसा पत्नी के दिल में पति के प्रति होना आवश्यक है. ऐसा भी नहीं कि वसंत मुझे चाहते नहीं हैं या मेरा ध्यान नहीं रखते पर न जाने क्यों मेरे मन में उन के लिए वह प्यार, वह तड़प, वह आकर्षण कभी जन्म ही नहीं ले सका, जो तुम्हारे लिए था. मैं ने अपने मन को साधने का बहुत प्रयास किया पर असफल रही. मैं उन की हर जरूरत का ध्यान रखती हूं, उन की चिंता भी रहती है और वे मेरे जीवन में बहुत महत्त्वपूर्ण भी हैं, लेकिन तुम्हारे लिए जो…’’

उसे बीच में ही टोक कर विशाल ने कहा, ‘‘बस करो नंदिता, अब इन बातों का कोई फायदा नहीं है, तुम घर जाओ.’’

‘‘नहीं, विशाल, मेरी बात तो सुन लो.’’

विशाल असहज सा हो कर उठ खड़ा हुआ, ‘‘नंदिता, मुझे कहीं जरूरी काम से जाना है.’’

‘‘चलो, मैं छोड़ देती हूं.’’

‘‘नहीं, मैं चला जाऊंगा.’’

‘‘चलो न विशाल, इस बहाने कुछ देर साथ रह लेंगे.’’

‘‘नहीं नंदिता, तुम जाओ, मुझे देर हो रही है, मैं चलता हूं,’’ कह कर विशाल कैबिन से निकल गया.

नंदिता बेचैन सी घर लौट आई. उस का किसी काम में मन नहीं लगा. नंदिता के अंदर कुछ टूट गया था, वह अपने लिए जिस प्यार और चाहत को विशाल की आंखों में देखना चाहती थी, उस का नामोनिशान भी विशाल की आंखों में दूरदूर तक नहीं था. वह सब भूल गया था, नई डगर पर चल पड़ा था.

नंदिता की हमेशा से इच्छा थी कि काश, एक बार विशाल मिल जाए और आज वह मिल गया, लेकिन अजनबीपन से और उसे इस मिलने पर कष्ट हो रहा था.

शाम को वसंत आया तो उस ने नंदिता की बेचैनी नोट की. पूछा, ‘‘तबीयत तो ठीक है?’’

नंदिता ने बस ‘हां’ में सिर हिला दिया. रिंकी से भी अनमने ढंग से बात करती रही.

वसंत ने फिर कहा, ‘‘चलो, बाहर घूम आते हैं.’’

‘‘अभी नहीं,’’ कह कर वह चुपचाप लेट गई. सोच रही थी आज उसे क्या हो गया है, आज इतनी बेचैनी क्यों? मन में अटपटे विचार आने लगे. मन और शरीर में कोई मेल ही नहीं रहा. मन अनजान राहों पर भटकने लगा था. वसंत नंदिता का हर तरह से ध्यान रखता, उसे घूमनेफिरने की पूरी छूट थी.

अपने काम की व्यस्तता और भागदौड़ के बीच भी वह नंदिता की हर सुविधा का ध्यान रखता. लेकिन नंदिता का मन कहीं नहीं लग रहा था. उस के मन में एक अजीब सा वीरानापन भर रहा था.

कुछ दिन बाद नंदिता ने फिर विशाल को फोन कर मिलने की बात की. विशाल ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि वह उस से मिलना नहीं चाहता. नंदिता ने सोचा विशाल को नाराज होने का अधिकार है, जल्द ही वह उसे मना लेगी.

फिर एक दिन वह अचानक उस के औफिस के नीचे खड़ी हो कर उस का इंतजार करने लगी.

विशाल आया तो नंदिता को देख कर चौंक गया, वह गंभीर बना रहा. बोला, ‘‘अचानक यहां कैसे?’’

नंदिता ने कहा, ‘‘विशाल, कभीकभी तो हम मिल ही सकते हैं. इस में क्या बुराई है?’’

‘‘नहीं नंदिता, अब सब कुछ खत्म हो चुका है. तुम ने यह कैसे सोच लिया कि मेरा जीवन तुम्हारे अनुसार चलेगा. पहले बिना यह सोचे कि मेरा क्या होगा, चुपचाप विवाह कर लिया और आज जब मुझे भूल नहीं पाई तो मेरे जीवन में वापस आना चाहती हो. तुम्हारे लिए दूसरों की इच्छाएं, भावनाएं, मेरा स्वाभिमान, सम्मान सब महत्त्वहीन है. नहीं नंदिता, मैं और नीता अपने जीवन से बेहद खुश हैं, तुम अपने परिवार में खुश रहो.’’

‘‘विशाल, क्या हम कहीं बैठ कर बात कर सकते हैं?’’

‘‘मुझे नीता के साथ कहीं जाना है, वह आती ही होगी.’’

‘‘उस के साथ फिर कभी चले जाना, मैं कब से तुम्हारा इंतजार कर रही थी, प्लीज…’’

नंदिता की बात खत्म होने से पहले ही पीछे से एक नारी स्वर उभरा, ‘‘फिर कभी क्यों, आज क्यों नहीं, मैं अपना परिचय खुद देती हूं, मैं हूं नीता, विशाल की पत्नी.’’

नंदिता हड़बड़ा गई. एक सुंदर, आकर्षक युवती सामने मुसकराती हुई खड़ी थी. नंदिता के मुंह से निकला, ‘‘मैं नंदिता, मैं…’’

नीता ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘जानती हूं, विशाल ने मुझे आप के बारे में सब बता रखा है.’’

नंदिता पहले चौंकी, फिर सहज होने का प्रयत्न करती हुई बोली, ‘‘ठीक है, आप लोग अभी कहीं जा रहे हैं, फिर मिलते हैं.’’

नीता ने गंभीरतापूर्वक कहा, ‘‘नहीं नंदिता, हम फिर मिलना नहीं चाहेंगे और अच्छा होगा कि आप भी एक औरत का, एक पत्नी का, एक मां का स्वाभिमान, संस्कारों और कर्तव्यों का मान रखो. जो कुछ भी था उसे अब भूल जाओ. जो बीत गया, वह कभी वापस नहीं आ सकता, गुडबाय,’’ कहते हुए नीता आगे बढ़ी तो अब तक चुपचाप खड़े विशाल ने भी उस के पीछे कदम बढ़ा दिए.

नंदिता वहीं खड़ी की खड़ी रह गई. फिर थके कदमों से गाड़ी में बैठी तो ड्राइवर ने गाड़ी आगे बढ़ा दी.

वह अपने विचारों के आरोहअवरोह में चढ़तीउतरती रही. सोच रही थी जिस की छवि उस ने कभी अपने मन से धूमिल नहीं होने दी, उसी ने अपने जीवनप्रवाह में समयानुकूल संतुलन बनाते हुए अपने व्यस्त जीवन से उसे पूर्णतया निकाल फेंका था.

जिस रिश्ते को कभी जीवन में कोई नाम न मिल सका, उस से चिपके रहने के बदले विशाल को जीवन की सार्थकता आगे बढ़ने में ही लगी, जो उचित भी था जबकि वह आज तक उसी टूटे बिखरे रिश्ते से चिपकी थी जहां से वह विशाल से 5 साल पहले अलग हुई थी.

नंदिता अपना विश्लेषण कर रही थी, आखिरकार वह क्यों भटक रही है, उसे किस चीज की कमी है? एक सुसंस्कृत, शिक्षित और योग्य पति है जो अच्छा पिता भी है और अच्छा इंसान भी. प्यारी बेटी है, घर है, समाज में इज्जत है. सब कुछ तो है उस के पास फिर वह खुश क्यों नहीं रह सकती?

घर पहुंचतेपहुंचते नंदिता समझ चुकी थी कि वह एक मृग की भांति कस्तूरी की खुशबू बाहर तलाश रही थी, लेकिन वह तो सदा से उस के ही पास थी.

घर आने तक वह असीम शांति का अनुभव कर रही थी. अब उस के मन और मस्तिष्क में कोई दुविधा नहीं थी. उसे लगा जीवन का सफर भी कितना अजीब है, कितना कुछ घटित हो जाता है अचानक.

कभी खुशी गम में बदल जाती है तो कभी गम के बीच से खुशियों का सोता फूट पड़ता है. गाड़ी से उतरने तक उस के मन की सारी गांठें खुल गई थीं. उसे बच्चन की लिखी ‘जो बीत गई सो बात गई…’ पंक्ति अचानक याद हो आई.

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