
शालू बड़ी सावधानी से घर में दाखिल हुई. इधरउधर देख कर वह दबे पैर अपने कमरे के तरफ बढ़ी, लेकिन दरवाजे पर पहुंचने से पहले ही दीपा बूआ ने उस का हाथ पकड़ कर अपनी तरफ खींच लिया.
दीपा बूआ तकरीबन धकेलते हुए दीपा को कमरे के अंदर ले गईं और अंदर जाते ही सवालों की झड़ी लगा दी, ‘‘कहां गई थी? इतनी देर कहां थी? तू आज फिर रमेश से मिलने गई थी?’’
‘‘हां, मैं रमेश से मिलने गई थी,’’ शालू खाऐखोए अंदाज में बोली.
दीपा बूआ शालू की हालत और उस के हावभाव देख कर परेशान हो कर समझाने लगीं, ‘‘देख शालू, तू रमेश के प्यार में पागल हो गई है, लेकिन तेरा इस तरह उस से मिलनाजुलना ठीक नहीं है. अगर कुछ ऊंचनीच हो गई तो गांव में भैया की क्या इज्जत रह जाएगी…’’
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दीपा बूआ काफी देर तक समझाने की नाकाम कोशिश करती रहीं लेकिन शालू तो जैसे रमेश के प्यार में बावली हो गई थी. उस को ऊंचनीच, सहीगलत कुछ नजर नहीं आ रहा था.
शालू के पिता रामबरन गांव के रसूखदार किसान माने जाते थे. 2 जोड़ी बैल, 4-5 भैंसें, ट्रैक्टरट्रौली, पचासों बीघा खेत, सभी सुखसुविधाओं से भरा बड़ा सा पक्का मकान. सबकुछ उन्होंने अपनी मेहनत से बनाया था.
रामबरन के घर में उन की पत्नी, एक बेटा और बेटी थी. पति से अनबन होने की वजह से उन की छोटी बहन भी उन के साथ ही रहती थी. बड़ा बेटा अजय अभी पढ़ रहा था जबकि बेटी शालू सिर्फ 8वीं जमात तक पढ़ने के बाद पढ़ाई छोड़ कर घर पर मां के साथ घर के कामों में हाथ बंटाती थी.
शालू जब 8वीं जमात में पढ़ रही थी तभी बगल के गांव में ही उस की शादी कर के रामबरन ने बेटी की जिम्मेदारी से छुटकारा पा लिया था.
शादी के समय शालू का होने वाला पति 10वीं जमात में पढ़ता था. दोनों शादी के समय छोटे थे इसलिए शादी के बाद गौने में विदाई तय थी.
शालू और रमेश का गांव अगलबगल में ही था इसलिए बाजार में या किसी दूसरे काम से आनेजाने पर कभीकभार दोनों का सामना हो ही जाता था.
समय बीतता गया. रमेश और शालू दोनों बड़े हो गए थे. रमेश 10वीं जमात पास करने के बाद आगे की पढ़ाई करने के लिए शहर में अपने चाचा के पास चला गया था और उस के बाद होस्टल में रहने लगा था. वह घर पर बहुत कम आता था और अब उस को शहर और होस्टल की हवा लग गई थी.
शालू घर के कामों में बेहद माहिर हो गई थी. यह देख कर रामबरन ने उसे सिलाई सीखने की इजाजत दे दी थी इसलिए अपनी कुछ सहेलियों के साथ वह सिलाई सीखने जाती थी.
शालू को ऊपर वाले ने बड़ी ही फुरसत से बनाया था. साफ चमकता हुआ बेदाग चेहरा, दूध और गुलाब की पंखुड़ी जैसे गुलाबी गालों का रंग, बड़ीबड़ी कजरारी झील जैसी गहरी आंखें, तोते सी नाक, गुलाबी होंठ, कमर तक लहराते काले घने रेशमी बाल, भरा हुआ बदन, आंखों पर काजल ऐसा लगता था जैसे किसी ने चांद पर कालिख की बिंदी लगा दी हो.
सुबह जब शालू तैयार हो कर सिलाई सीखने के लिए साइकिल ले कर सिलाई सैंटर जाती थी तो उस को देख कर गांव के न जाने कितने मनचलों की नीयत खराब हो जाती थी.
शालू को देखते ही तरहतरह की बातें करते हुए लड़के अपने होंठों पर जीभ फेरने लगते थे, जिस का अंदाजा शालू को भी होता था लेकिन वह किसी को भी घास नहीं डालती थी क्योंकि उसे अपने और रमेश के रिश्ते का मतलब पता था.
दीवाली आ रही थी. कालेज बंद हो रहे थे. रमेश के साथ होस्टल में रहने वाले सभी लड़के घर चले गए थे और रमेश की मां ने भी इस बार घर आने के लिए बहुत दबाव बनाया था इसलिए वह इस दीवाली पर अपने?घर आया था.
अगले दिन रमेश गांव के दोस्तों के साथ एक पान की दुकान पर खड़ा था तभी बगल से शालू साइकिल ले कर निकली. रमेश ने जब उसे देखा तो उसे देखता ही रह गया. एक पल को तो उसे लगा जैसे आसमान से कोई परी जमीन पर आ गई है लेकिन थोड़ी ही देर बाद उसे लगा कि यह चेहरा जानापहचाना सा है. वह उसे याद करने की कोशिश करने लगा कि इसे कहां देखा है, लेकिन काफी दिन बीत जाने व कोई मेलजोल न होने की वजह से याद नहीं आ रहा था.
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शालू की तरफ एकटक निहारते देख उस के दोस्त ने कुहनी मारी और बोला, ‘‘क्या रमेश भाई, भाभी को देख कर कहां खो गए?’’
रमेश अचकचा कर बोला, ‘‘अरे कहीं नहीं यार, कौन भाभी, किस की भाभी?’’
तब रमेश के दोस्त ने उसे बताया कि वह जिस हसीना को इतने गौर से देख रहा था वह उस की ही बीवी शालू है.
दोस्त के मुंह से यह सुन कर रमेश का मुंह खुला का खुला रह गया. वह शालू की खूबसूरती व गदराया बदन देख कर हैरान रह गया था. अब उस को एकएक पल काटना भारी पड़ने लगा था.
जैसेतैसे रात कटी तो सुबहसुबह रमेश ने किसी तरह जुगाड़ लगा कर शालू को मिलने के लिए संदेशा भिजवाया.
संदेशा सुनकर शालू सोच में पड़ गई थी क्योंकि इस संदेशे में रमेश ने मिलने को कहा था लेकिन वह सोच रही थी कि अगर रमेश से मिलते हुए किसी ने देख लिया तो बदनामी होगी और अगर न मिलने गई तो रमेश के नाराज होने का डर था.
शालू का मन भी रमेश से मिलने के लिए बेताब था. डरतेडरते शालू ने आने का वादा कर लिया. शाम को दिन ढलने के बाद वह सब से छिप कर दबे पैर गांव के बाहर आम के बगीचे में गई जहां पर रमेश पहले से आ कर उस का इंतजार कर रहा था.
गांव वाले बगीचे में गन्ने की सूखी पत्तियों व पुआल का ढेर लगा कर रखते थे. दोनों उसी की ओट में बैठ कर बांहों में बांहें डाले बातें करने लगे.
थोड़ी देर रमेश के साथ गुजार कर शालू घर आ गई. घर आ कर अपने कमरे में बिस्तर पर गिर गई. उस के हाथपैरों में कंपन हो रही थी. उसे अपने हाथों में रमेश के हाथों की गरमाहट अब तक महसूस हो रही थी.
बेटे को मन ही मन शर्मिंदगी का एहसास हुआ. मां को उस ने अपने आने की बात इस डर से नहीं बताई थी कि शायद सुनंदा तैयार न हो और सुनंदा की मम्मी ने अपनी मजबूरी जता दी.
‘‘अच्छा मां, मैं सुनंदा से पूछता हूं.’’
विनय ने सुनंदा से बात की. सुनंदा को बुखार में पड़े हुए 5 दिन हो गए थे. बहुत अधिक कमजोरी आ गई थी. विनय चाहते हुए भी उस की वैसी देखभाल नहीं कर पा रहा था जैसी होनी चाहिए थी.
सुनंदा ने भी सोचा कि कौन सा वह हमेशा के लिए रहने जा रही है. जब ठीक हो जाएगी तब वापस आ जाएगी. यह सोच कर उस ने हामी भर दी. अपने फ्लैट में ताला लगा कर विनय, सुनंदा को ले कर मां के पास रहने चला गया.
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सुनंदा का बुखार अगले कुछ दिनों में और बिगड़ गया. ब्लड टैस्ट हुए. उसे टायफायड हो गया था. मांबेटी ने सुनंदा की देखभाल में रातदिन एक कर दिया. परीक्षा होते हुए भी वानिया, सुनंदा की देखभाल में मां का पूरा साथ देती. मां बहू के सिरहाने बैठ कर उस का सिर सहलाती रहतीं, ठंडे पानी की पट्टियां करतीं. सुनंदा इस समय इतनी दयनीय स्थिति में थी कि मांबेटी अपना सारा वैमनस्य भूल कर उस की देखभाल कर रही थीं.
सुनंदा अर्धबेहोशी में सबकुछ महसूस करती. मां उसे अपने हाथ से खिलातीं, वानिया सूप, जूस व दलिया बना कर लाती. भाई भी निश्ंिचत हो कर नौकरी पर जा पा रहे थे. धीरेधीरे सुनंदा की तबीयत ठीक होने लगी. अभी कमजोरी बहुत ज्यादा थी. वानिया भाभी को सहारा दे कर कुरसी पर बिठा देती, उस का बिस्तर ठीक कर देती, स्पंज कर कपड़े बदल देती. सुनंदा की कमजोरी भी ठीक होने लगी. उसे पता था कि उस की मम्मी ने अपनी मजबूरी जता दी थी और जिस सास के साथ उस ने कभी सीधे मुंह बात नहीं की, हर समय उस का व्यवहार उस के साथ तना हुआ ही रहा, उसी सास ने अपना सारा बैरभाव भूल कर, कितने प्यार व अपनेपन से उस की देखभाल की.
सुनंदा सोचने लगी कि अगर उस की भाभी की तबीयत खराब होती तो क्या मम्मी मजबूरी जता देतीं…शायद नहीं, भाभी उन की जिम्मेदारी हैं और भाभी भी तो कितनी अच्छी हैं. उस के मातापिता का कितना खयाल करती हैं. दूसरे शहर में रहते हुए भी उस के मम्मीपापा के प्रति पूरी जिम्मेदारी समझती हैं. सुनंदा के प्रति भी उन का व्यवहार कितना प्यार भरा है पर उस ने क्या जिम्मेदारी समझी अपनी सासननद के प्रति, जोकि एक तरह से उस के ऊपर ही निर्भर थे. क्या पढ़ने वाली कुंआरी ननद के प्रति उस का कोई फर्ज नहीं था? उस की देखभाल व उस का भविष्य निर्धारित करने का जिम्मा पिता के न होने पर क्या बड़े भाईभाभी का नहीं था. वृद्ध मां आखिर किस की जिम्मेदारी हैं. उन के रवैए से परेशान हो कर ही मां ने उन्हें जाने के लिए कहा था. बीमारी के बाद बिस्तर पर लेटी सुनंदा खुद से ही सवालजवाब करती रही. जब इनसान पर परेशानियां पड़ती हैं तभी अपनों का महत्त्व समझ में आता है और आदमी की विचारधारा भी बदलती है.
सुनंदा ठीक हो गई. एक दिन सुबह नहाधो कर मां के पास बैठ गई और बोली, ‘‘मांजी, मैं अब ठीक हूं…सोचती हूं परसों से आफिस जाना शुरू कर दूं.’’
‘‘ठीक है,’’ मां संक्षिप्त सा जवाब दे कर चुप हो गईं क्योंकि उन के दिल के घाव पर पपड़ी तो जम गई थी पर घाव सूख नहीं पाया था. बीमार सास के प्रति बहू ने भले ही अपना फर्ज नहीं निभाया था पर उन्होंने अपने फर्ज का पालन किया था. उन्होंने मन ही मन सोचा कि सुनंदा अब अपने घर जाने की सोच रही है इसीलिए वह भूमिका बांध रही है. तो जाए…उन्हें एतराज भी क्या हो सकता है.
सुनंदा कोमल स्वर में बोली, ‘‘सोचती हूं…मैं आफिस चली जाती हूं…मुझे भी इतना समय नहीं मिल पाता कि सुबहशाम खाना बना सकूं इसलिए खाना बनाने वाली का प्रबंध कर देते हैं और साफसफाई करने वाली कपड़े धोने का काम भी कर लिया करेगी, उस की तनख्वाह बढ़ा देंगे.’’
‘‘नहीं, इस की जरूरत नहीं है,’’ मां सपाट स्वर में बोलीं, ‘‘मुझे इस की आदत नहीं है और मेरे पास इतने पैसे भी नहीं हैं…फिर हम मांबेटी का काम ही कितना होता है. तुम ऐसा प्रबंध अपने घर पर कर लो,’’ मां अपनी बात स्पष्ट करती हुई बोलीं.
सुनंदा ठगी सी चुप हो गई. थोड़ी देर बाद बोली, ‘‘क्या यह मेरा घर नहीं है, मांजी?’’
‘‘यह घर तुम्हारा था…तुम ने इसे अपना घर नहीं समझा…इसलिए यह सिर्फ मेरा और वानिया का है.’’
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सुनंदा मां के शब्दों से आहत तो हुई पर उसे आत्मसात करती हुई बोली, ‘‘आप का गुस्सा जायज है, मांजी. मैं आप से माफी मांगती हूं.’’
‘‘मेरे मन में तुम्हारे लिए गुस्सा, माफी, प्यार कुछ भी नहीं है…तुम अपने घर में खुश रहो, मैं अपने घर में खुश हूं.’’
‘‘मां, आप झूठ बोल रही हैं…आप हमें बहुत प्यार करती हैं पर हमारी गलतियों पर आए गुस्से ने आप के प्यार को ढक दिया है.’’
इस बात का मां से कोई जवाब नहीं दिया गया. उन की आंखों में आंसू झिलमिला गए. सुनंदा ने हिम्मत कर के मां के दोनों हाथ पकड़ लिए.
‘‘मां, मुझे अपनी गलतियों का एहसास है…सिर्फ हमारे गलत विचार ही हमारी सोच को गलत तरफ मोड़ देते हैं. मुझे माफ कर दीजिए, मैं अपने घर वापस लौटने की इजाजत चाहती हूं लेकिन इस बार आप की बेटी बन कर.’’
सुनंदा के शब्दों की कोमलता, पश्चात्ताप व ग्लानि से मां के मन का गुबार बहने लगा. उन्होंने बहू को गले लगा लिया और बोलीं, ‘‘अपने बच्चों से किस को प्यार नहीं होता सुनंदा…दिलदिमाग जुडे़ हों, अपनों पर विश्वास हो तो हर रिश्ते की बुनियाद मजबूत होती है. आपस में सहज बातचीत है तो कुछ भी खराब नहीं लगता. गलतफहमियां नहीं पनपतीं…यह तुम्हारा घर है, आज ही जा कर सामान ले आओ.’’
सुनंदा मांजी के गले लगे हुए सोच रही थी, ‘आखिर ऐसा क्या था जो उन दोनों सासबहू के बीच में से बह गया और सबकुछ पारदर्शी हो गया. शायद उस की गलत सोच, गुमान, पराएपन का भाव, अपना न समझने का भाव, उस का अहम, यही सबकुछ बह गया था.
वानिया मां को दवा देने के बाद जूठे बरतन उठा कर कमरे से बाहर चली गई. मां विचारमग्न हो चुपचाप लेट कर सोचने लगीं कि दोनों अच्छा कमाते हैं, जब अपने पास समय नहीं है तो जरा भी जिम्मेदारी महसूस करें तो खाना बनाने के लिए किसी कामवाली का प्रबंध कर सकते हैं, लेकिन पैसे भी नहीं खर्च करना चाहते, समय भी नहीं है, भावना भी नहीं है. दूसरा दिन भर खटता रहे तो उस के लिए तुम्हारे पास दो मीठे बोल भी नहीं हैं.
वानिया ठीक कहती है, जब अपनी भाषा सामने वाले की समझ में नहीं आए तो उस की भाषा में उसे समझाने की कोशिश तो करनी ही चाहिए. आखिर उसे अपनी गलती और दूसरे के महत्त्व का एहसास कैसे हो? मां कई तरह से सोचती रहीं. बेटे को रहने के लिए कंपनी की ओर से अच्छाभला किराया मिलता है. यह घर उन का है, उन के पति ने बनाया था. आधा घर किराए पर उठा कर भी वह और वानिया अपनी जीविका चला सकते हैं. पति का जो थोड़ाबहुत पैसा उन के नाम जमा है वह वानिया के विवाह व शिक्षा आदि के लिए काफी है.
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ऐसा सोच कर कुछ निश्चय कर मां निश्ंचिंत हो कर सो गईं. थोड़े दिन बाद मां ठीक हो गईं. बेटेबहू का रवैया जैसा चल रहा था चलता रहा. एक दिन मौका देख कर मां बहू को सुनाते हुए बेटे से बोलीं, ‘‘विनय, तुम्हें तो कंपनी से अच्छाखासा किराया मिलता है…कहीं अपने लिए किराए का अच्छा सा फ्लैट देख लो.’’
‘‘क्यों, मां?’’ विनय अवाक् सा मां का चेहरा देखता रह गया. सुनंदा की भी त्योरियां चढ़ गईं.
‘‘बात सीधी सी है, बेटा. वानिया अब बड़ी हो रही है…उस की शादी के लिए भी पैसा चाहिए. मैं चाहती हूं कि आधा घर किराए पर दे दूं और वह पैसा वानिया की शादी के लिए जोड़ दूं, वरना तो सारा भार तुम्हारे ऊपर ही पड़ जाएगा,’’ मां कोमल स्वर में बोलीं.
सुनंदा की समझ में चुपचाप बात आ गई. विनय भी थोड़ी देर चुप खड़ा रहा फिर अपने कमरे में चला गया, लेकिन सुनंदा के दिल में उथलपुथल मच गई. अलग रहने पर इन दोनों की जिम्मेदारी भी धीरेधीरे कम हो जाएगी, फिर खत्म भी हो सकती है. साथ रहने पर वानिया की शादी उन्हें अपने स्तर के हिसाब से करनी पड़ेगी, पैसा खर्च होगा. अलग रह कर दोनों जैसा चाहे गरीबी में रहें और जैसी चाहें शादी करें, अगर चाहेंगे तो वे दोनों भी बस, शामिल हो जाएंगे. ऐसा सोच कर वह विनय के पीछे पड़ गई. विनय पहले तो नहीं माना फिर कई तर्कवितर्क के बाद मान गया.
3-4 दिन की मेहनत के बाद आखिर विनय को 2 बेडरूम का खूबसूरत सा फ्लैट मिल गया और दोनों खुशीखुशी नए फ्लैट में चले गए. वानिया तो बहुत खुश हुई पर मां का दिल टीस गया. 1-2 दिन वह थोड़ा असमंजस की दशा में रहीं फिर धीरेधीरे उन्हें भी अच्छा लगने लगा.
मकान का नीचे का हिस्सा किराए पर दे कर मांबेटी ऊपरी हिस्से में चली गईं. किरायेदार आने से जहां उन को सुरक्षा का आभास हुआ वहीं पैसा आने से आर्थिक स्थिति भी मजबूत हो गई. वानिया अपनी पढ़ाई पर अच्छी तरह ध्यान दे रही थी. मां की देखभाल तो वह वैसे भी खुद ही कर रही थी.
उधर सुनंदा की खुशी चार दिन भी नहीं रही. दिन भर घर बंद रहने की वजह से कामवाली काम करे तो कैसे. पैसा होते हुए भी अपने लिए सुविधा जुटाना उन के लिए मुश्किल हो रहा था. समय के अभाव में घर अस्तव्यस्त रहता था. खाने का कोई ठिकाना नहीं था. घरबाहर संभालते- संभालते सुनंदा को 24 घंटे भी कम लगने लगे. सुनंदा पर काम का दबाव बढ़ा तो विनय भी कहां अछूता रहता. घर के कुछ काम उस के भी हिस्से में आ गए. जिस की वजह से आफिस में भी कार्यक्षमता पर असर पड़ने लगा. जहां एक तरफ मांबेटी की जीवनशैली सुधर गई वहीं दूसरी तरफ विनय और सुनंदा की जीवन- शैली गड़बड़ा गई. आराम व निश्चिंतता खत्म हो गई थी.
अति व्यस्त दिनचर्या से सुनंदा की तबीयत गड़बड़ा गई. 1-2 दिन तो किसी तरह से विनय ने देखभाल की लेकिन ज्यादा छुट्टी लेना उस के लिए मुश्किल था. थकहार कर उस ने मां को फोन किया. मजबूरी के चलते सुनंदा चुप रह गई. उस ने मां से कहा कि वह थोड़े दिन उन के पास रहने को आ जाएं.
‘‘कैसे आ सकती हूं, बेटा,’’ मां बेटे की बात सुन कर बोलीं, ‘‘तू तो जानता है कि वानिया के पेपर चल रहे हैं…इस के अलावा बच्चे उस से ट्यूशन पढ़ने आते हैं इसलिए वह मेरे साथ आ नहीं सकती और उसे अकेला छोड़ कर आना मेरे लिए संभव नहीं है.’’
‘‘सुनंदा की तबीयत खराब है, मां.’’
मां थोड़ी देर चुप रहीं, अपनी बीमारी के दौरान बेटेबहू का रवैया याद आया. दिल ने चाहा कि कोई कड़वा सा जवाब दे दें लेकिन फिर अपने को संयत कर के बोलीं, ‘‘बेटा, मजबूरी है, नहीं तो मैं आ ही जाती. सुनंदा की मम्मी को बुला लो थोड़े दिन के लिए…उन के साथ ऐसी मजबूरी नहीं है.’’
मजबूर हो कर विनय ने सुनंदा की मम्मी को फोन किया. उन्होंने भी अपनी न आ पाने की मजबूरी जता दी, ‘‘सुनंदा के पापा को छोड़ कर कैसे आ सकती हूं बेटा, उन की तबीयत भी ठीक नहीं रहती है.’’
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विनय सोच में पड़ गया. मां के पास जाने को सुनंदा तैयार नहीं होगी लेकिन अपनी मम्मी के पास चली जाएगी. यही सोच कर बोला, ‘‘ठीक है मम्मी, फिर मैं सुनंदा को आप के पास छोड़ देता हूं क्योंकि यहां दिन भर फ्लैट में अकेले कैसे रहेगी. मैं भी अब छुट्टी नहीं ले सकता हूं.’’
सुनंदा की मम्मी चुप हो गईं. बीमार बेटी की देखभाल तो करनी ही पड़ेगी. साथ में दामाद भी तो यहीं आएगा. 2 लोगों का काम बढ़ जाएगा. नौकर छुट्टी पर गया था. उन के खुद के बस का था भी नहीं.
‘‘बेटा, नौकर तो इन दिनों छुट्टी पर है…मुझ से तो अपने ही दोनों का काम मुश्किल से हो पा रहा है, तुम अपनी मां को क्यों नहीं बुला लेते,’’ कह कर उन्होंने फोन रख दिया.
क्या करे अब…एक दिन की और छुट्टी लेनी पड़ेगी. उधर मां का मन शांत नहीं हो पा रहा था इसलिए शाम होतेहोते उन्होंने बेटे को फोन कर ही दिया, ‘‘कोई इंतजाम हुआ बेटा. नहीं तो अगर सुनंदा तैयार हो तो तुम लोग थोड़े दिनों के लिए यहां आ जाओ…जब सुनंदा ठीक हो जाए तब चले जाना.’’
‘क्यों होता है कोई ऐसा… क्या रिश्तों से जुड़ने के लिए समय का होना ही जरूरी है, धन का होना ही जरूरी है… ऐसा होता तो कुछ समय पहले जब इक्कादुक्का औरतें नौकरी करती थीं, उन के पास तो समय ही समय था, तो सभी अपनों को बांध पातीं, सभी अच्छी होतीं. लेकिन ऐसा नहीं होता था, तब भी औरतें घर तोड़ने वाली होती थीं, कर्कश होती थीं. रिश्तों को जोड़ने के लिए आप का स्वागत वाला भाव, मीठी वाणी, खुला दिलोदिमाग, उस समय का महत्त्व जो आप अपनों के साथ बिताते हो, मधुर मुसकान जरूरी होती है,’ वानिया बड़बड़ा रही थी.
मां क्या कहें बेटी को. इकलौते भाईभाभी का रूखा सा व्यवहार वानिया को अकसर सहन नहीं होता तो वह जबतब मां के सामने बड़बड़ाती थी. जब बेटे की शादी हुई थी तब नई बहू के अडि़यल स्वभाव से मां परेशान होतीं तो यही बेटी मां को समझाती थी. शायद उसे विश्वास था कि समय के साथ भाभी बदल जाएगी, लेकिन कुछ लोग कभी नहीं बदलते…फिर बुनियादी स्वभाव तो कभी नहीं बदलता.
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करे भी क्या वानिया, पहले भाई ऐसे नहीं थे. वानिया अपने भाई विनय से कम से कम 10 साल छोटी थी और जब वह लगभग 10 साल की थी तब पापा उसे व मां को 20 साल के भाई के सहारे छोड़ कर दुनिया से चल बसे थे.
पापा के गले से झूलने वाली उम्र में वानिया ने पापा को खो दिया था. वह अचानक खामोश व खोईखोई सी रहने लगी. लेकिन भाई जरूर 20 साल की उम्र में 40 के हो गए थे. भाई ने मां व वानिया को ऐसे संभाला कि मांबेटी दोनों ही पति व पिता के जाने का गम भूल गईं.
विनय उस समय इंजीनियरिंग कर रहा था. इंजीनियरिंग करने के बाद उस ने गुड़गांव से एम.बी.ए. किया और वहीं उस की नौकरी लग गई. वह मां व वानिया को भी अपने साथ गुड़गांव ले गया था और वहीं फ्लैट ले कर रहने लगा. जिस साल वानिया के भाई की नौकरी लगी उस साल उस ने 10वीं का इम्तहान दिया था.
12वीं में 95 प्रतिशत अंक लाने पर वानिया ने अपने भाई से अद्भुत सी चीज मांगी और वह थी भाभी, क्योंकि मां के कई बार कहने पर भी उस के भाई विनय शादी की बात को टाल रहे थे पर छोटी बहन की मांग को वह नहीं ठुकरा सके.
विनय ने मां को सुनंदा के बारे में बताया, जिस ने उस के साथ एम.बी.ए. किया था और अब वह भी एक प्रतिष्ठित कंपनी में मैनेजर थी. मां को भला क्या आपत्ति हो सकती थी. धूमधाम से विनय और सुनंदा का विवाह हो गया. भाभी के रूप में सलोनी लंबीछरहरी सुनंदा को देख वानिया और मां दोनों निहाल हो गईं.
विवाह की धूमधाम खत्म हो गई. सभी लोग विदा हो गए. सुनंदा ने भी नौकरी पर जाना शुरू कर दिया. मां चाहती थीं कि सुनंदा कम से कम कुछ दिन की तो छुट्टियां ले लेती तो उन का भी बहू का चाव पूरा हो जाता, लेकिन फिर उन्होंने मन को यह सोच कर समझा लिया कि आखिर इतने उच्च पद पर कार्यरत लड़की की कई दूसरी जिम्मेदारियां भी तो होती हैं.
शुरुआत में मां व वानिया, सुनंदा को जरा भी कष्ट नहीं होने देतीं, लेकिन बहू उन्हें जरा भी भाव नहीं देती थी. दोनों ही इस बात को महसूस करते हुए भी महसूस नहीं करना चाहती थीं. उन्हें तो बस, सुनंदा को प्यार करने व उस के लिए कुछ भी करने में मजा आता था. अब धीरेधीरे नई बहू व भाभी का चाव खत्म होने लगा तो सुनंदा की अकड़ उन्हें खलने लगी. सुबह की चाय से ले कर रात के खाने तक मां जो कुछ भी बहू के लिए शौक से करती थीं अब मजबूरी लगने लगी.
वानिया के लिए बड़े भाई पिता समान थे. वह उन के आसपास मंडराती रहती लेकिन सुनंदा को यह फूटी आंख न सुहाता. उन के कमरे में जब कभी वानिया आ जाती तो सुनंदा का चेहरा गुस्से से तन जाता. उस के चेहरे को भांप कर वानिया वहां से चली जाती. सुनंदा का दर्प हर समय उस की बातों व व्यवहार में झलकता रहता. वह खुद से ज्यादा योग्य व स्मार्ट किसी को समझती ही नहीं थी. मां या वानिया किसी की तारीफ करतीं तो वह झट उस की कमी की तरफ उंगली उठा देती या मुंह बिचका देती. अपने इस स्वभाव की वजह से सुनंदा हर किसी के दिल में अपने लिए ईर्ष्या के भाव पैदा कर देती.
सुनंदा के साथ अपने वैवाहिक जीवन का सामंजस्य बिठाने की कोशिश में विनय, मां व बहन से दूर होने लगा. धीरेधीरे भाईबहन और मांबेटे के बीच संवादहीनता की स्थिति आने लगी. भाई भी मां व वानिया के जन्मदिन पर कोई महंगा सा उपहार दे कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री मानने लगा.
मां बीमार होतीं तो बेटे की ओर से एक बार डाक्टर व दवाइयों की औपचारिकता पूरी कर दी जाती. उस के बाद यह भी नहीं पूछा जाता कि अब तबीयत कैसी है. इन दिनों भी मां की तबीयत ठीक नहीं चल रही थी. भाई मां को एक बार डाक्टर को दिखा कर दवाइयां ले आए थे. उस के बाद उन को इतनी फुरसत भी नहीं थी कि सुबहशाम 5 मिनट मां के पास बैठ कर, कोमल स्वर में उन का हालचाल पूछ पाते.
वानिया ही किसी तरह अपनी कालिज की पढ़ाई के साथ मां की देखभाल करती और सब को खाना भी पका कर खिलाती. रात भर मां का बुखार देखती, दवा देती और उस घड़ी को कोसती जब उस ने भाई से भाभी की मांग की थी और सुनंदा जैसी भाभी इस घर में आई थीं.
बोला यही जाता है कि प्यार देने पर ही प्यार मिलता है पर वानिया सोचती कुछ लोग सुनंदा भाभी जैसे भी होते हैं जिन के सामने प्यार की, मीठे बोलों की, भावनाओं की, मीठे एहसास की कीमत नहीं होती, बल्कि ऐसे लोग उन्हें मूर्ख लगते हैं.
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‘‘मां, तुम कुछ बोलती क्यों नहीं. भाभी के नौकरी करने का यह मतलब तो नहीं कि घर और तुम्हारी तरफ से वह इस कदर लापरवाह हो जाएं. आखिर यह घर और तुम उन की जिम्मेदारी हो,’’ एक दिन वानिया भन्ना कर बोली.
‘‘किसी दूसरे घर की लड़की को क्या कहना है वानिया, जब अपना बेटा ही परिवार व पत्नी के बीच संतुलन नहीं रख पा रहा है.’’
‘‘भैया भी तो कितने बदल गए हैं मां, फिर भी इस तरह सीधा व समर्पित रह कर काम नहीं चलता. जब दूसरा तुम्हारी भाषा नहीं समझता तो जरूरी है कि उसे उस की भाषा में बात समझाई जाए,’’ वानिया गुस्से में बोली.
‘‘उसे समय भी तो नहीं है न,’’ मां बात को टालने और वानिया को शांत करने की गरज से बोलीं. तभी से वानिया यही सब बड़बड़ा रही थी. उस के ऊपर काम का भार बहुत हो गया था. वह कालिज जाती, किचन में काम करती, मां की भी देखभाल करती, पढ़ाई भी करती, शाम को ट्यूशन भी लेती थी क्योंकि जब से भाभी आई थीं, जेबखर्च के लिए उस को भाई के आगे हाथ फैलाना अच्छा नहीं लगता था.
लेखक- नीरज कुमार मिश्रा
दिनेश की आटा मिल भी बंद हो गई. वह भारी मन से साइकिल खड़ी कर के अपने कमरे में गया तो फुलवा उसे देख कर ही समझ गई कि दिनेश कुछ परेशान है.
‘‘क्या बात है जी… आज मुंह लटकाए आ रहे हो… किसी से लडाईझगड़ा हो गया क्या?‘‘ फुलवा न पूछा.
‘‘नहीं रे फुलवा… सुना है, पूरी दुनिया में कोई भयानक बीमारी फैल रही है. लोग मर रहे हैं… इसलिए सरकार ने सारे उद्योग, सभी कामकाज को पूरी तरह से बंद करने का निर्णय लिया है. और ये सब तब तक बंद रहेगा, जब तक यह बीमारी पूरी तरह से खत्म नहीं हो जाती,” दुखी मन से दिनेश ने कहा.
‘‘सबकुछ बंद… पर, ऐसा कैसे हो जाएगा… और काम नहीं होगा तो हमें पैसा कहां से मिलेगा… और… और हम खाएंगे क्या… हमें तो लगता है कि कोई मजाक किया है तुम से,‘‘ फुलवा ने चौंक कर कहा.
पर, ये तो कोई मजाक नहीं था… धीरेधीरे सबकुछ बंद होने की खबर फुलवा को भी पता चल गई और उस को भी मानना पड़ गया कि हां, सबकुछ वास्तव में ही बंद हो गया है.
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महल्ले में सारे मजदूर अपनेअपने घरों में ही बैठे थे और उस बीमारी को कोस रहे थे, जिस ने आ कर उन सब की जिंदगी पर ही एक सवालिया निशान लगा दिया था.
सभी के साथ ही दिनेश का भी दम घुटता था घर में… खाने का सामान और राशन भी धीरेधीरे खत्म हो रहा था. जब ज्यादा परेशानी आई तो दिनेश को अपना गांव याद आया.
‘‘फुलवा, मैं तो कहता हूं कि चलो अपने गांव लौट चलते हैं…”
लेकिन, गांव जाने का नाम सुनते ही फुलवा पूछ बैठी, ‘‘गांव… गांव जा कर क्या करेंगे? यहां जमीजमाई गृहस्थी है… इसे छोड़ कर कहां जाएंगे.”
‘‘यहां शहर में भी अब क्या रखा है… मालिक पगार नहीं दे रहा… अब हम यहां कितने दिन खाएंगे… और क्या खाएंगे… गांव में हमारी जमीन का एक टुकड़ा है… छोटा भाई उस पर खेती करता है… उसी पर हम भी कुछ उगा लेंगे और आराम से रहेंगे… कम से कम मरेंगे तो नहीं,‘‘ परेशान भाव से दिनेश ने कहा.
शहर में लौकडाउन था. सबकुछ ठप हो गया था. बहुत सारे मजदूर अपने गांव को चल पड़े थे. सरकारी तंत्र भी इन मजदूरों के पलायन को व्यवस्थित और सुरक्षित कर पाने में पूरी तरह नाकाम रहा था, इसलिए कई मजदूरों के जत्थे पैदल ही अपने गांव की ओर चल पड़े थे और इस दौरान उन मजदूरों के साथ कई दुखद हादसे भी हो चुके थे.
पर, शहर में काम न होने के कारण किसी भी हालत में दिनेश को यहां रहना रास नहीं आ रहा था. वह बस अपने गांव पहुंच जाना चाहता था. कम से कम गांव पहुंच कर जिंदा तो रह सकेगा वह.
और इसी सोच को लिए वह जब भी फुलवा से बात करता तो वह भी इसी शहर में रहने की बात पर अड़ जाती और दोनों में मनमुटाव की नौबत आ जाती.
दिनेश ने भी शहर में ही रह कर लौकडाउन के खुलने का इंतजार किया, पर हालात दिनबदिन खराब ही होते दिख रहे थे. रोजगार बंद हो गए थे और खानेपीने की चीजें भी महंगी हो रही थीं.
काम पर जाने के लिए बड़े अरमानों से लाई गई साइकिल भी अब धूल खा रही थी. महल्ले में चारों तरफ मरघट जैसा सन्नाटा सा छाया रहता था. महल्ले के कई लोग भी अपनेअपने गांव को चले गए थे और उन्हें गांव को जाता देख दिनेश को भी अपने गांव की याद सताती, पर फुलवा की जिद के आगे वह मजबूर था और मन मसोस कर रह जाता.
अब दिनेश के चेहरे पर पहले वाली चमक नहीं रही, पगार पहले से ही बंद हो गई थी और घर के हालात भी खराब हो गए थे. फुलवा से भी ज्यादा ठिठोली नहीं करता था दिनेश.
कुछ दिन और बीते गए और उस की उदासी का कारण गांव न जा पाना है. इस कारण को फुलवा जान गई, तो उस ने अपनी जिद छोड़ने की सोची, ‘‘सुनोजी, हमें लगता है कि अब हम को भी गांव ही लौट जाना चाहिए. हमारे वास्ते शहर में अब कुछ नहीं बचा है. गांव जा कर कम से कम अपनी जिंदगी तो बचा सकेंगे हम.’’
फुलवा की ये बातें सुन कर दिनेश खुशी से झूम उठा. फुलवा को बांहों में भर कर दिनेश बोला, ‘‘हां फुलवा, मुझे पूरा यकीन था कि तुम जरूर मन जाओगी. हम कल ही सुबहसवेरे गांव की ओर निकल जाएंगे,” दिनेश चहकते हुए कह रहा था.
‘‘पर, ट्रेनें, बसें वगैरह सब तो बंद हैं… फिर हम जाएंगे कैसे?‘‘ फुलवा ने वाजिब सवाल किया.
‘‘अरे, उस की चिंता तू क्यों करती है? मेरे बहुत से साथी तो अपने परिवार के साथ पैदल ही गांव लौट गए हैं. जब वे पैदल जा सकते हैं, तो मैं और तुम साइकिल से क्यों नहीं…?‘‘ दिनेश ने साइकिल की ओर इशारा करते हुए कहा.
‘‘साइकिल से कैसे गांव जाएंगे?‘‘ फुलवा चौंकी.
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‘‘अरे तू चिंता मत कर… मैं अपना सारा सामान मकान मालिक की गाड़ी के गैराज में रख दूंगा. जब स्थिति सामान्य हो जाएगी तो यहां आ कर सामान ले जाऊंगा… फिलहाल तो मैं और तुम साइकिल पर गाना गाते हुए चले चलेंगे गांव की तरफ.”
दिनेश ने समाधान बता दिया.
‘‘ठीक है, फिर हमें अभी से सामान रखने की तैयारी शुरू करनी होगी,” फुलवा ने कहा.
दोनों पतिपत्नी ने अपना हर सामान रखना शुरू कर दिया था और शाम तक सारा सामान मकान मालिक के गैराज में सुरक्षित रखवा दिया गया और हालात सामान्य होने पर सामान हटा लेने की बात भी दिनेश ने मकान मालिक को बता दी.
दिनेश ने शाम को अपनी साइकिल साफ कर दी थी और खापी कर दोनों जल्दी सो गए, क्योंकि अगली सुबह ही उन्हें गांव के लिए निकलना था.
सुबह उठ कर नहाधो कर दोनों तैयार हो गए. फुलवा ने एक छोटा सा कंधे पर लटकाने वाला बैग जरूर साथ ले लिया था.
एक ओर फुलवा का मन भारी हो रहा था, तो वहीं दूसरी ओर दिनेश खुश हो रहा था कि अब उसे शहर की नौकरी में किसी की डांट नहीं खानी पड़ेगी.
दोनों ही कमरे से उतर कर नीचे पहुंचे, जहां साइकिल खड़ी होती थी, पर साइकिल तो वहां से नदारद थी.
दिनेश ने चौंकते हुए इधरउधर खोजा, पर साइकिल वहां नहीं थी. साइकिल के खड़े होने की जगह पर ईंट के एक छोटे टुकड़े से दबा कर परचानुमा कागज जरूर रखा था.
फुलवा ने उसे खोला और पढ़ने लगी, “दोस्त दिनेश, उस दिन मेरे मांगने पर तुम ने मुझे साइकिल तो नहीं दी… मैं ने भी उस बात का बुरा नहीं माना था… पर, सही माने में आज मुझे इस साइकिल की जरूरत उस दिन से भी ज्यादा आ पड़ी है…
“तुम तो शहर के हालात बखूबी जानते ही हो… अब यहां रहना बहुत मुश्किल लग रहा है… तुम यह भी जानते हो कि मेरा एक दिव्यांग बेटा भी है और गांव में उस की मां अकेली हमारी राह देख रही है.
“एक दिव्यांग बेटे को उस की मां से मिलाने के लिए मेरा गांव जाना बहुत जरूरी है. मेरे पास गांव जाने का कोई और साधन न होने के कारण मैं तुम्हारी साइकिल चुरा कर ले जा रहा हूं. वापस कर पाऊंगा या नहीं, यह तो मैं नहीं जानता. पर उम्मीद है कि तुम मुझे माफ कर सकोगे…
“तुम्हारी तरह किस्मत का मारा तुम्हारा पड़ोसी मनोज”
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परचानुमा कागज पढ़ कर फुलवा और दिनेश की आंखों में आंसू आ गए.
बस फर्क खुशी और दुख के आंसुओं का था…
लेखक- नीरज कुमार मिश्रा
अगले ही दिन से फुलवा ने काम करना शुरू कर दिया. वह दिनेश के काम पर जाने के बाद घर से निकली और पूरे महल्ले में अपने काम का नमूना ले कर सब को दिखा आई और साथ में यह बताना भी नहीं भूली कि जिस किसी को कढ़ाई आदि करवानी हो, तो इतने पैसे के साथ उस से बात करें.
खूबसूरती बहुत से कठिन कामों को भी आसान बना देती है. फुलवा खूबसूरत होने के साथसाथ व्यवहार में भी अच्छी थी. जल्द ही फुलवा के काम को लोगों ने पसंद किया. काम के और्डर भी आने लगे और आमदनी भी अच्छी होने लगी.
थोड़ीबहुत दिनेश की कमाई से बचा कर और बाकी अपनी कमाई से अब वे दोनों इस हालत में आ गए थे कि एक नई साइकिल खरीद सकें.
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और वह दिन भी आ गया, जब दिनेश और फुलवा ने पैसे गिने और साइकिल लेने के लिए मार्केट की ओर चल दिए.
आज फुलवा के चेहरे पर खुशी का रंग देखते ही बनता था. उस की गुलाबी साड़ी उस के चेहरे की आभा के आगे फीकी लग रही थी.
‘‘तभी तो राह आतेजाते लोग फुलवा को ही देख रहे हैं,” मन ही मन बुदबुदा रहा था दिनेश.
अपने मनपसंद रंग वाली साइकिल खरीद कर दिनेश बहुत ही खुश हो रहा था. उस ने साइकिल में घंटी भी लगवाई.
‘‘शहरों में घंटी सुनता ही कौन है… पर, हम जब मौज में होंगे तो इसी को बजा लिया करेंगे…
“और हां… वो गद्दी जरा मोटे फोम वाली लगाना भैया, ताकि कोई परेशानी न हो हमें… और एक कैरियर भी लगा देना पीछे… कभीकभी कुछ सामान ही रखना हो तो रख लो और आराम से चलते बनो.”
दिनेश कभी फुलवा को निहार रहा था, तो कभी अपनी नईनवेली साइकिल को.
पहले सोचा कि फुलवा को आगे वाले डंडे पर बिठा कर कोई गाना गाते हुए चल दें… लेकिन, फिर कुछ अच्छा नहीं लगा, तो पीछे कैरियर पर ही बिठा लिए और रास्ते भर गाना गाते और घंटी बजाते घर चला आया.
महल्ले में सब ही दिनेश को देखे जा रहे थे और दिनेश अपनी नई साइकिल के नशे में ही अकड़ा जा रहा था.
उस का आंगन कई किराएदारों का साझा आंगन था और बहुत गुंजाइश इस बात की भी थी कि निकलतेबैठते कोई जलन के कारण दिनेश की नई साइकिल को खरोंच ही मार दे.
हालांकि फुलवा ने रास्ते में ही बुरी नजर से बचने के लिए काला धागा खरीद कर बांध दिया था साइकिल के हैंडल पर, फिर भी सुरक्षा अपनाने में क्या जाता है, इसलिए दिनेश ने अपनी साइकिल को सब से अलग एक कमरे के पिछवाड़े वाले हिस्से में खड़ा करना शुरू कर दिया.
दिनेश जब साइकिल खड़ी कर के आ रहा था तो सामने फुलवा खड़ी मुसकरा रही थी. दिनेश के मन में भी अपनी पत्नी के लिए प्यार उमड़ आया और मस्ती भरी निगाहों से उस से बोला, ‘‘अरे फुलवा, आज तो नई साइकिल आई है… तो आज कुछ खट्टामीठा होना चाहिए.‘‘
‘‘खट्टामीठा… क्या मतलब है तुम्हारा, मैं कुछ समझी नहीं.‘‘
‘‘कुछ ऐसा काम करो, जो जबान का स्वाद खट्टा कर के भी मन को भा जाए और मीठा का मतलब जब तुम मुझे देखो और मैं तुम्हे देखूं और हम लोगों का मुंह अपनेआप मीठा हो जाए,‘‘ कह कर दिनेश ने फुलवा की तरफ आंख मारी, ‘‘धत्त… बेशर्म कहीं के.‘‘ और इतना कह कर फुलवा पीछे की ओर मुड़ी तो दिनेश ने अपने दोनों हाथों से उस के सीने को भींच लिया और बेतहाशा प्यार करने लगा.
दिनेश के हाथ फुलवा की गरदन पर फिसल रहे थे. उस की इन हरकतों से फुलवा भी जोश में आ गई और कमरे में 2 जिस्मों के दहकने की आवाजें साफ सुनाई देने लगीं. कुछ ही देर बाद कमरे का बढ़ा हुआ ताप धीरेधीरे ठंडा हो गया.
सुबह हुई तो नई साइकिल उठा कर दिनेश मिल की तरफ चला गया. जाते समय बड़ी शान से फुलवा से टाटा बायबाय करते हुए गया.
साइकिल के आ जाने से अब सबकुछ सही था. न ही दिनेश को किसी की डांट सुननी और न ही किसी सवारी का इंतजार करना पड़ता. और इधर फुलवा को भी इधरउधर से काम मिल जाता, जिस से कामकाज की गाड़ी अब पटरी पर चल रही थी.
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अपने काम पर जाने से पहले अपनी साइकिल को रगड़ कर पोंछना दिनेश के रोज के कामों में शामिल हो गया था और उस के इस तरह ध्यान रखने से मानो साइकिल भी खुश हो कर उसे धन्यवाद कहती थी.
एक तो महल्ले में फुलवा की जवानी और उस के भड़काऊ कपड़ों की चर्चा पहले से ही थी, फिर उस के काम के हुनर को देख कर महल्ले के लोग उस का लोहा मान गए थे और अब फुलवा ने अपने पति को जो नई साइकिल दिलवा दी. अब महल्ले में दिनेश की साइकिल चर्चा और जलन का केंद्र बनी हुई थी.
रविवार वाले दिन उसी के महल्ले का एक लड़का मनोज दिनेश से बोला, ‘‘अरे भाई दिनेश, आज तो तुम्हें काम पर जाना नहीं है. मुझे थोड़ा तुम्हारी साइकिल की जरूरत है… अगर मिल जाती तो बड़ी मेहरबानी होती.”
साइकिल मांगने की बात पर दिनेश का मूड थोड़ा उखड़ गया. उस की आवाज में तल्खी सी आ गई, ‘‘क्यों…? मेरी साइकिल की भला तुम्हें क्या जरूरत आ पड़ी.”
‘‘गोदाम तक जा कर सिलेंडर लाना है. बस यों गया और यों आया,‘‘ मनोज ने विनम्रता से कहा.
‘‘नहीं भाई… मुझे भी आज जरा फुलवा को ले कर अस्पताल तक जाना है, इसलिए साइकिल तो मैं नहीं दे पाऊंगा.‘‘
दिनेश के इस तरह मना कर देने से मनोज को काफी निराशा हुई और वह मुंह लटका कर वहां से चला गया.
‘‘हुंह… साइकिल न हो गई मानो कोई ठेला हो गया, जिस पर सिलेंडर लाद देंगे… अरे, इतना भारी सिलेंडर मेरी साइकिल के कैरियर को न पिचका देगा भला… महल्ले में और लोग भी तो हैं उन की साइकिल मांगो जा कर,‘‘ मन ही मन बुदबुदा रहा था दिनेश.
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बस कुछ इसी तरह से कट रही थी फुलवा और दिनेश की जिंदगी. अपनी ही दुनिया में मस्त. जिंदगी के हर पल का मजा उठाते हुए, पर इन की खुशियों को एक झटका सा तब लगा, जब एक दिन अचानक देश के प्रधानमंत्री ने टीवी पर आ कर पूरे देश में लौकडाउन का ऐलान कर दिया. लौकडाउन अर्थात सब कामधाम बंद, सारी दुकानें, साप्ताहिक बाजार सब बंद, सारे कारखाने बंद…
लेखक- नीरज कुमार मिश्रा
यों तो फुलवा और दिनेश की शादी हुए 3 साल हो गए थे, पर दिनेश को लगता था जैसे उस के ब्याह को अभी कुछ ही रोज हुए हैं.
फुलवा को निहारते रहने के बाद भी उस का मन नहीं अघाता था. काम पर जाने से पहले फुलवा से मन भर के बातें करता और काम से जब घर लौटता तो फुलवा भी अपने पति के इंतजार में होंठों पर लाली और मांग में सिंदूर भर कर एक मधुर मुसकराहट के साथ दिनेश का स्वागत करती तो दिनेश की तबीयत हरी हो जाती.
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दिनेश फुलवा को अपनी बांहों में भर लेता और उसे पागलों की तरह चूमने लगता, फुलवा भी उस का साथ देती, पर कभीकभी दिनेश का यह बहुत उतावलापन फुलवा को अखरने लगता था, वह दिनेश को पीछे धकेल देती और चाय बनाने का बहाना कर के अपना पीछा छुड़ा लेती, पर फिर भी दिनेश उस के पीछेपीछे पहुंच जाता.
‘‘अरे फुलवा, हम जानते हैं कि तुम तो यहां पाउडर, क्रीम लगा कर बैठी हो और हम आए हैं बाहर से धूलगरदा में सन कर और पसीना में लथपथ हो कर… तभी तो तुम हमारी बांहों में आने से कतरा जाती हो…
‘‘अरे, पर हम भी क्या करें, जब तक तुम को बांहों में कस कर नहीं भर लेते हैं… और दोचार चुम्मा नहीं ले लेते हैं, तब तक हमारे कलेजे में भी ठंडक नहीं पड़ती है.”
‘‘अरे नहीं ना… ऐसी तो कोई बात नहीं है… अपना मरद तो हर हाल में अच्छा लगता है… उस के बदन की महक तो हमेशा ही अच्छी लगती है… अरे, हम तो इस मारे जल्दी से हट जाते हैं कि आप थकेहारे आए हो काम से तो हम आप के लिए कुछ चायनाश्ता बना दें चल कर.”
फुलवा की इन प्यार भरी बातों का दिनेश के पास कोई जवाब नहीं होता, बदले में वह सिर्फ मुसकरा कर रह जाता.
दिनेश का फुलवा के लिए प्यार बेवजह नहीं था, फुलवा थी ही ऐसी…
लंबा शरीर, सुतवां चेहरा, सांवला रंग और गांव में मेहनत करने के कारण उस का अंगअंग कसा हुआ था, ऐसा लगता था कि उस के शरीर को किसी ढांचे में ढाल कर बनाया गया है.
फुलवा जब से अपने शहर के महल्ले में ब्याहने के बाद आई थी, तब ही से महल्ले के मनचले उस की एक झलक पाने के लिए बेचैन रहते थे, जिस का बहुत बड़ा कारण था फुलवा का पहनावा.
फुलवा अपनी गहरी नाभि के नीचे लहंगा पहनती और उस के दो इंच ऊपर सीने पर कसी हुई चोली, और इस पहनावे में जब वह नीचे टंकी पर पानी लेने जाती तो महल्ले के मनचले सारा कामधाम छोड़ कर उसे एकटक निहारते रहते.
ऐसा नहीं था कि दिनेश को इस बात की भनक नहीं थी कि महल्ले में फुलवा के पहनावे और उस की खूबसूरती के चर्चे हैं और इसीलिए वह जब एक दिन काम से घर आया तो फुलवा के लिए एक साड़ी ले आया और रोमांटिक अंदाज में बोला, ‘‘देखो फुलवा, अब शहर में तुम रहने आई हो, इसलिए अब ये गांव वाले कपडे़ तुम पर अच्छे नहीं लगते… और वैसे भी इन कपड़ों में लड़के तुम्हारे अंगों को घूरते हैं. यह मुझे अच्छा नहीं लगता है, इसलिए अब तुम ये साड़ी पहना करो.”
दिनेश की ये प्यारभरी भेंट देख कर फुलवा बहुत खुश हुई और तुरंत ही साड़ी को अपने बदन पर रख कर देखने लगी और दिनेश को खुश होते हुए एक चुंबन दे दिया.
दिनेश शहर की एक आटा मिल में मुंशीगीरी करता था. मिल उस के कमरे से लगभग 15 किलोमीटर की दूरी पर थी, इसलिए उसे रोज या तो बस या फिर टैंपो का सहारा लेना पड़ता था, जो कि खर्चीला तो था ही, साथ ही साथ सवारी पकड़ने के लिए उसे मुख्य सड़क तक आना पड़ता था. इन सब में दिनेश का डेढ़ घंटा व्यर्थ जाता था और फिर भी कभीकभी देर हो जाने पर अपने से सीनियर अधिकारी की डांट भी सुननी पड़ती थी.
एक दिन आटा मिल में दिनेश जब थोड़ी देरी से पंहुचा तो उसे अधिकारी की ऐसी डांट मिली कि मन ही मन उस ने फैसला कर लिया कि अब वह इस शहर में नहीं रहेगा और गांव में जा कर जो थोडीबहुत खेती है, वही देखेगा और आराम से अपने छप्पर के नीचे सोया करेगा. किसी कमबख्त की डांट तो नहीं सुननी पड़ेगी और घर आ कर उस ने अपने मन की बात पत्नी फुलवा को बताई.
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फुलवा ने ठंडे दिमाग से उस की बात सुनी, पर वह 3 साल पहले ही गांव से आई थी. लिहाजा, गांव में होने वाली परेशानियां उस से छिपी नहीं थीं और न ही स्वयं फुलवा ही गांव में रहना चाहती थी. उसे तो शहर की जिंदगी ही अच्छी लगती थी.
फुलवा ने दिनेश को समझाते हुए कहा, ‘‘अब अगर आप थोड़ा सा लेट हो गए, आप से बडे़ अधिकारी ने कुछ कह भी दिया तो इस में शहर छोड़ कर भागने जैसी कौन सी बात है. गांव में हमारे बाबूजी कहा करते थे कि अगर कोई समस्या हो, तो उस की जड़ में जाना चाहिए… समाधान वहीं छिपा होता है…
“और आप की समस्या है कि आप देर से मिल मेें पहुंचत हो… अब अगर आप रोजरोज देर से पहुंचोगे तो डांट तो पड़ेगी ही न… कुछ ऐसा क्यों नहीं करते, जिस से आप मिल में समय पर पहुंच जाओ.”
‘‘क्या करूं फुलवा… सवारी पकड़ने के चक्कर में देर हो जाती है… कभी तो बस देर से आती है, तो कभी इतनी भरी होती है कि मैं उस में बैठने की हिम्मत नहीं कर पाता हूं,” दिनेश ने लाचारी से कहा.
‘‘तो तुम अपनी सवारी क्यों नहीं खरीद लेते,” फुलवा ने उपाय सुझाया.
‘‘क्या मतलब… हम बस, ट्रक खरीद लें क्या…?” यह सुन कर दिनेश चौंक पड़ा.
‘‘नहीं… बस, ट्रक नहीं, अपनी सवारी… मैं तो साइकिल वगैरह की बात कर रही थी.”
‘‘हां… साइकिल ठीक रहेगी… आराम से जब मन हुआ चल दिए… घंटी बजा कर और छुट्टी में भी न किसी सवारी का मुंह देखना और न ही लेट हो जाने के डर से डांट सुनने का डर.‘‘
एक पल को तो ऐसा सोच चहक उठा था दिनेश… पर, अगले ही पल मायूस हो गया.
‘‘पर फुलवा, एक अच्छी साइकिल 3 से 4 हजार रुपए में आती है… और तुम तो जानती हो कि हमारी तनख्वाह ही 5 हजार रुपए है… हम अगर साइकिल ले भी लेंगे तो तुम को क्या खिलाएंगे,‘‘ दिनेश ने मुंह लटका कर कहा.
‘‘हां, समस्या तो है, पर हम अपने गांव में अम्मां से जूट के बोरे पर बहुत अच्छी कढ़ाई करना सीखे हैं… सुना है, शहर में इस काम की बहुत मांग है. हम यहां महल्ले में अगलबगल के लोगों से काम लाएंगे और उस से हमारी आमदनी भी होगी और पहचान भी बनेगी.
“और जब हम और तुम दोनों मिल कर कमाएंगे तो साइकिल के लिए पैसा जल्दी जुट जाएगा न…‘‘ फुलवा ने खुशी से अपनी आंखें घुमाते हुए कहा.
आधेअधूरे मन से दिनेश ने अपनी रजामंदी दे दी.
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दरअसल, गांव की जिंदगी किस्सों और फिल्मों के लिए तो बहुत अच्छी है, पर जिन्होंने गांव की गरीबी देखी है, भुखमरी और अकाल देखा है, उन के दिल से पूछिए और इसीलिए फुलवा बिलकुल भी गांव नहीं जाना चाहती थी और इसीलिए वह दिनेश को मनाए रखने के लिए सारे प्रयास कर रही थी, भले ही इस के लिए उसे खुद भी काम करना पड़ जाए.