रिश्तों की कसौटी : भाग 3- क्या था उस डायरी में

उसी रात सुरभी को अमित साहनी का फोन आया कि वह कल साढ़े 11 बजे की फ्लाइट से मुंबई आ रहे हैं. सुरभी को मां की डायरी का हर वह पन्ना याद आ रहा था जिस में लिखा था कि काश, मृत्यु से पहले एक बार अमित उस के सवालों के जवाब दे जाता. कल का दिन मां की जिंदगी का अहम दिन बनने जा रहा था. यही सोचते हुए सुरभी की आंख लग गई.

अगले दिन उस ने नर्स से दवा आदि के बारे में समझ कर उसे भी रात को आने को बोल दिया.

करीब 1 बजे अमित साहनी उन के घर पहुंचे. सुरभी ने हाथ जोड़ कर उन का अभिवादन किया तो उन्होंने ढेरोें आशीर्वाद दे डाले.

‘‘आप यहीं बैठिए, मैं मां को बता कर आती हूं. एक विनती है, हमारी मुलाकात का मां को पता न चले. शायद बेटी के आगे वे कमजोर पड़ जाएं,’’ सुरभी ने कहा और ऊपर चली गई.

ये भी पढ़ें- यह कैसा प्यार : क्या शिवानी सही थी

‘‘मम्मी, आप से कोई मिलने आया है,’’ उस ने अनजान बनते हुए कहा.

‘‘कौन है?’’ मां ने सूप का बाउल कम्मो को पकड़ाते हुए पूछा.

‘‘कोई मिस्टर अमित साहनी नाम के सज्जन हैं. कह रहे हैं, दिल्ली से आए हैं,’’ सुरभी वैसे ही अनजान बनी रही.

‘‘क…क…कौन आया है?’’ मां के शब्दों में एक शक्ति सी आ गई थी.

‘‘ऐसा करती हूं आप यहीं रहिए. उन्हें ही ऊपर बुला लेते हैं,’’ मां के चेहरे पर आए भाव सुरभी से देखे नहीं जा रहे थे. वह जल्दी से कह कर बाहर आ गई.

मालती कुछ भी सोचने की हालत में नहीं थीं. यह वह मुलाकात थी जिस के बारे में उन्होंने हर दिन सोचा था.

थोड़ी देर में सुरभी के पीछेपीछे अमित साहनी कमरे में दाखिल हुए, मालती के पसंदीदा पीले गुलाबों के बुके के साथ. मालती का पूरा अस्तित्व कांप रहा था. फिर भी उन्होंने अमित का अभिवादन किया.

सुरभी इस समय की मां की मानसिक अवस्था को अच्छी तरह समझ रही थी. वह आज मां को खुल कर बात करने का मौका देना चाहती थी, इसलिए डा. आशुतोष के पास उन की कुछ रिपोर्ट्स लेने के बहाने वह घर से बाहर चली गई.

‘‘कितने बेशर्म हो तुम जो इस तरह से मेरे सामने आ गए?’’ न चाहते हुए भी मालती क्रोध से चीख उठीं.

‘‘कैसी हो, मालती?’’ उस की बातों पर ध्यान न देते हुए अमित ने पूछा और पास के सोफे पर बैठ गए.

‘‘अभी तक जिंदा हूं,’’ मालती का क्रोध उफान पर था. उन का मन तो कर रहा था कि जा कर अमित का मुंह नोच लें.

इस के विपरीत अमित शांत बैठे थे. शायद वे भी चाहते थे कि मालती के अंदर का भरा क्रोध आज पूरी तरह से निकल जाए.

‘‘होटल ताज में ईश्वरनाथजी से मुलाकात हुई थी. उन्हीं से तुम्हारे बारे में पता चला. तभी से मन बारबार तुम से मिलने को कर रहा था,’’ अमित ने सुरभी के सिखाए शब्द दोहरा दिए. परंतु यह स्वयं उस के दिल की बात भी थी.

‘‘मेरे साथ इतना बड़ा धोखा क्यों किया, अमित?’’ अपलक अमित को देख रही मालती ने उन की बातों को अनसुना कर अपनी बात रखी.

इतने में कम्मो चाय और नाश्ता रख गई.

‘‘तुम्हें याद है वह दोपहरी जब मैं ने एक तसवीर के विषय में तुम से पूछा था और तुम ने उन्हें अपनी मां बताया था?’’ अमित ने मालती को पुरानी बातें याद दिलाईं.

मालती यों ही खामोश बैठी रहीं तो अमित ने आगे कहना शुरू किया, ‘‘उस तसवीर को मैं तुम सब से छिपा कर एक शक दूर करने के लिए अपने साथ दिल्ली ले गया था. मेरा शक सही निकला था. यह वृंदा यानी तुम्हारी मां वही औरत थी जो दिल्ली में अपने पार्टनर के साथ एक मशहूर ब्यूटीपार्लर और मसाज सेंटर चलाती थी. इस से पहले वह यहीं मुंबई में मौडलिंग करती थी. उस का नया नाम वैंडी था.’’

इस के बाद अमित ने अपनी चाय बनाई और मालती की भी.

उस ने आगे बोलना शुरू किया, ‘‘उस मसाज सेंटर की आड़ में ड्रग्स की बिक्री, वेश्यावृत्ति जैसे धंधे होते थे और समाज के उच्च तबके के लोग वहां के ग्राहक थे.’’

‘‘ओह, तो यह बात थी. पर इस में मेरी क्या गलती थी?’’ रोते हुए मालती ने पूछा.

‘‘जब मैं ने एम.बी.ए. में नयानया दाखिला लिया था तब मेरे दोस्तों में से कुछ लड़के भी वहां के ग्राहक थे. एक बार हम दोस्तों ने दक्षिण भारत घूमने का 7 दिन का कार्यक्रम बनाया और हम सभी इस बात से बहुत रोमांचित थे कि उस मसाज सेंटर से हम लोगों ने जो 2 टौप की काल गर्ल्स बुक कराई थीं उन में से एक वैंडी भी थी जिसे हाई प्रोफाइल ग्राहकों के बीच ‘पुरानी शराब’ कह कर बुलाया जाता था. उस की उम्र उस के व्यापार के आड़े नहीं आई थी,’’ अमित ने अपनी बात जारी रखी. उसे अब मालती के सवाल भी सुनाई नहीं दे रहे थे.

ये भी पढ़ें- खुल गई आंखें : रवि के सामने आई हकीकत

चाय का कप मेज पर रखते हुए अमित ने फिर कहना शुरू किया, ‘‘मेरी परवरिश ने मेरे कदम जरूर बहका दिए थे मालती, पर मैं इतना भी नीचे नहीं गिरा था कि जिस स्त्री के साथ 7 दिन बिताए थे, उसी की मासूम और अनजान बेटी को पत्नी बना कर उस के साथ जिंदगी बिताता? मेरा विश्वास करो मालती, यह घटना तुम्हारे मिलने से पहले की है. मैं तुम से बहुत प्यार करता था. मुझे अपने परिवार की बदनामी का भी डर था, इसलिए तुम से बिना कुछ कहेसुने दूर हो गया,’’ कह कर अमित ने अपना सिर सोफे पर टिका दिया.

आज बरसों का बोझ उन के मन से हट गया था. मालती भी अब लेट गई थीं. वे अभी भी खामोश थीं.

थोड़ी देर बाद अमित चले गए. उन के जाने के बाद मालती बहुत देर तक रोती रहीं.

रात के खाने पर जब सुरभी ने अमित के बारे में पूछा तो उन्होंने उसे पुराना पारिवारिक मित्र बताया. लगभग 3 महीने बाद मालती चल बसीं. परंतु इतने समय उन के अंदर की खुशी को सभी ने महसूस किया था. उन के मृत चेहरे पर भी सुरभी ने गहरी संतुष्टि भरी मुसकान देखी थी.

मां की तेरहवीं वाले दिन अचानक सुरभी को उस डायरी की याद आई. उस में लिखा था : मुझे क्षमा कर देना अमित, तुम ने अपने साथसाथ मेरे परिवार की इज्जत भी रख ली थी. मैं पूर्ण रूप से तृप्त हूं. मेरी सारी प्यास बुझ गई.

पढ़ते ही सुरभी ने डायरी सीने से लगा ली. उस में उसे मां की गरमाहट महसूस हुई थी. आज उसे स्वयं पर गर्व था क्योंकि उस ने सही माने में मां के प्रति अपनी दोस्ती का फर्ज जो अदा किया था.

ये भी पढ़ें- अनाम रिश्ता : कैसा था नेहा और अनिरुद्ध का रिश्ता

रिश्तों की कसौटी : भाग 1- क्या था उस डायरी में

‘‘अंकल, मम्मी की तबीयत ज्यादा बिगड़ गई क्या?’’ मां के कमरे से डाक्टर को निकलते देख सुरभी ने पूछा.

‘‘पापा से जल्दी ही लौट आने को कहो. मालतीजी को इस समय तुम सभी का साथ चाहिए,’’ डा. आशुतोष ने सुरभी की बातों को अनसुना करते हुए कहा.

डा. आशुतोष के जाने के बाद सुरभी थकीहारी सी लौन में पड़ी कुरसी पर बैठ गई.

2 साल पहले ही पता चला था कि मां को कैंसर है. डाक्टर ने एक तरह से उन के जीने की अवधि तय कर दी थी. पापा ने भी उन की देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. मां को ले कर 3-4 बार अमेरिका भी हो आए थे और अब वहीं के डाक्टर के निर्देशानुसार मुंबई के जानेमाने कैंसर विशेषज्ञ डा. आशुतोष की देखरेख में उन का इलाज चल रहा था. अब तो मां ने कालेज जाना भी बंद कर दिया था.

ये भी पढ़ें- उपलब्धि : ससुर के भावों को समझ गई बहू

‘‘दीदी, चाय,’’ कम्मो की आवाज से सुरभी अपने खयालों से वापस लौटी.

‘‘मम्मी के कमरे में चाय ले चलो. मैं वहीं आ रही हूं,’’ उस ने जवाब दिया और फिर आंखें मूंद लीं.

सुरभी इस समय एक अजीब सी परेशानी में फंस कर गहरे दुख में घिरी हुई थी. वह अपने पति शिवम को जरमनी के लिए विदा कर अपने सासससुर की आज्ञा ले कर मां के पास कुछ दिनों के लिए रहने आई थी.

2 दिन पहले स्टोर रूम की सफाई करवाते समय मां की एक पुरानी डायरी सुरभी के हाथ लगी थी, जिस के पन्नों ने उसे मां के दर्द से परिचित कराया.

‘‘ऊपर आ जाओ, दीदी,’’ कम्मो की आवाज ने उसे ज्यादा सोचने का मौका नहीं दिया.

सुरभी ने मां के साथ चाय पी और हर बार की तरह उन के साथ ढेरों बातें कीं. इस बार सुरभी के अंदर की उथलपुथल को मालती नहीं जान पाई थीं.

सुरभी चाय पीतेपीते मां के चेहरे को ध्यान से देख रही थी. उस निश्छल हंसी के पीछे वह दुख, जिसे सुरभी ने हमेशा ही मां की बीमारी का हिस्सा समझा था, उस का राज तो उसे 2 दिन पहले ही पता चला था.

थोड़ी देर बाद नर्स ने आ कर मां को इंजेक्शन लगाया और आराम करने को कहा तो सुरभी भी नीचे अपने कमरे में आ गई.

रहरह कर सुरभी का मन उसे कोस रहा था. कितना गर्व था उसे अपने व मातापिता के रिश्तों पर, जहां कुछ भी गोपनीय न था. सुरभी के बचपन से ले कर आज तक उस की सभी परेशानियों का हल उस की मां ने ही किया था. चाहे वह परीक्षाओं में पेपर की तैयारी करने की हो या किसी लड़के की दोस्ती की, सभी विषयों पर मालती ने एक अच्छे मित्र की तरह उस का मार्गदर्शन किया और जीवन को अपनी तरह से जीने की पूरी आजादी दी. उस की मित्रमंडली को उन मांबेटी के इस मैत्रिक रिश्ते से ईर्ष्या होती थी.

अपनी बीमारी का पता चलते ही मालती को सुरभी की शादी की जल्दी पड़ गई. परंतु उन्हें इस बात के लिए ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी. परेश के व्यापारिक मित्र व जानेमाने उद्योगपति ईश्वरनाथ के बेटे शिवम का रिश्ता जब सुरभी के लिए आया तो मालती ने चट मंगनी पट ब्याह कर दिया. सुरभी ने शादी के बाद अपना जर्नलिज्म का कोर्स पूरा किया.

‘‘दीदी, मांजी खाने पर आप का इंतजार कर रही हैं,’’ कम्मो ने कमरे के अंदर झांकते हुए कहा.

खाना खाते समय भी सुरभी का मन मां से बारबार खुल कर बातें करने को कर रहा था, मगर वह चुप ही रही. मां को दवा दे कर सुरभी अपने कमरे में चली आई.

‘कितनी गलत थी मैं. कितना नाज था मुझे अपनी और मां की दोस्ती पर मगर दोस्ती तो हमेशा मां ने ही निभाई, मैं ने आज तक उन के लिए क्या किया? लेकिन इस में शायद थोड़ाबहुत कुसूर हमारी संस्कृति का भी है, जिस ने नवीनता की चादर ओढ़ते हुए समाज को इतनी आजादी तो दे दी थी कि मां चाहे तो अपने बच्चों की राजदार बन सकती है. मगर संतान हमेशा संतान ही रहेगी. उन्हें मातापिता के अतीत में झांकने का कोई हक नहीं है,’ आज सुरभी अपनेआप से ही सबकुछ कहसुन रही थी.

हमारी संस्कृति क्या किसी विवाहिता को यह इजाजत देती है कि वह अपनी पुरानी गोपनीय बातें या प्रेमप्रसंग की चर्चा अपने पति या बच्चों से करे. यदि ऐसा हुआ तो तुरंत ही उसे चरित्रहीन करार दे दिया जाएगा. हां, यह बात अलग है कि वह अपने पति के अतीत को जान कर भी चुप रह सकती है और बच्चों के बिगड़ते चालचलन को भी सब से छिपा कर रख सकती है. सुरभी का हृदय आज तर्क पर तर्क दे रहा था और उस का दिमाग खामोशी से सुन रहा था.

सुरभी सोचसोच कर जब बहुत परेशान हो गई तो उस ने कमरे की लाइट बंद कर दी.

मां की वह डायरी पढ़ कर सुरभी तड़प कर रह गई थी. यह सोच कर कि जिन्होंने अपनी सारी उम्र इस घर को, उस के जीवन को सजानेसंवारने में लगा दी, जो हमेशा एक अच्छी पत्नी, मां और उस से भी ऊपर एक मित्र बन कर उस के साथ रहीं, उस स्त्री के मन का एक कोना आज भी गहरे दुख और अपमान की आग में झुलस रहा था.

ये भी पढ़ें- आशीर्वाद : नीलम की कहानी का क्या हुआ अंजाम

उस डायरी से ही सुरभी को पता चला कि उस की मां यानी मालती की एम.एससी. करते ही सगाई हो गई थी. मालती के पिता ने एक उद्योगपति घराने में बेटी का रिश्ता पक्का किया था. लड़के का नाम अमित साहनी था. ऊंची कद- काठी, गोरा रंग, रोबदार व्यक्तित्व का मालिक था अमित. मालती पहली ही नजर में अमित को दिल दे बैठी थीं. शादी अगले साल होनी थी. इसलिए मालती ने पीएच.डी. करने की सोची तो अमित ने भी हामी भर दी.

अमित का परिवार दिल्ली में था. फिर भी वह हर सप्ताह मालती से मिलने आगरा चला आता. मगर ठहरता गेस्ट हाउस में ही था. उन की इन मुलाकातों में परिवार की रजामंदी भी शामिल थी, इसलिए उन का प्यार परवान चढ़ने लगा. पर मालती ने इस प्यार को एक सीमा रेखा में बांधे रखा, जिसे अमित ने भी कभी तोड़ने की कोशिश नहीं की.

मालती की परवरिश उन के पिता, बूआ व दादाजी ने की थी. उन की मां तो 2 साल की उम्र में ही उन्हें छोड़ कर मुंबई चली गई थीं. उस के बाद किसी ने मां की खोजखबर नहीं ली. मालती को भी मां के बारे में कुछ भी पूछने की इजाजत नहीं थी. बूआजी के प्यार ने उन्हें कभी मां की याद नहीं आने दी.

बड़ी होने पर मालती ने स्वयं से जीवनभर एक अच्छी और आदर्श पत्नी व मां बन कर रहने का वादा किया था, जिसे उन्होंने बखूबी पूरा किया था.

उन की शादी से पहले की दीवाली आई. मालती के ससुराल वालों की ओर से ढेरों उपहार खुद अमित ले कर आया था. अमित ने अपनी तरफ से मालती को रत्नजडि़त सोने की अंगूठी दी थी. कितना इतरा रही थीं मालती अपनेआप पर. बदले में पिताजी ने भी अमित को अपने स्नेह और शगुन से सिर से पांव तक तौल दिया.

दोपहर के खाने के बाद बूआजी के साथ घर के सामने वाले बगीचे में अमित और मालती बैठे गपशप कर रहे थे. इतने में उन के चौकीदार ने एक बड़ा सा पैकेट और रसीद ला कर बूआजी को थमा दी.

रसीद पर नजर पड़ते ही बूआ खीजती हुई बोलीं, ‘2 महीने पहले कुछ पुराने अलबम दिए थे, अब जा कर स्टूडियो वालों को इन्हें चमका कर भेजने की याद आई है,’ और पैसे लेने वे घर के अंदर चली गईं.

ये भी पढ़ें- अनोखा बदला : निर्मला की जिस्म की प्यास

‘लो अमित, तब तक हमारे घर की कुछ पुरानी यादों में तुम भी शामिल हो जाओ,’ कह कर मालती ने एक अलबम अमित की ओर बढ़ा दिया और एक खुद देखने लगीं.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

रिश्तों की कसौटी : क्या था उस डायरी में

रिश्तों की कसौटी : भाग 2- क्या था उस डायरी में

संयोग से मालती के बचपन की फोटो वाला अलबम अमित के हाथ लगा था, जिस में हर एक तसवीर को देख कर वह मालती को चिढ़ाचिढ़ा कर मजे ले रहा था. अचानक एक तसवीर पर जा कर उस की नजर ठहर गई.

‘यह कौन है, मालती, जिस की गोद में तुम बैठी हो?’ अमित जैसे कुछ याद करने की कोशिश कर रहा था.

‘यह मेरी मां हैं. तुम्हें तो पता ही है कि ये हमारे साथ नहीं रहतीं. पर तुम ऐसे क्यों पूछ रहे हो? क्या तुम इन्हें जानते हो?’ मालती ने उत्सुकता से पूछा.

‘नहीं, बस ऐसे ही पूछ लिया,’ अमित ने कहा.

ये भी पढ़ें- अनोखा बदला : निर्मला की जिस्म की प्यास

‘ये हम सब को छोड़ कर वर्षों पहले ही मुंबई चली गई थीं,’ यह स्वर बूआजी का था.

बात वहीं खत्म हो गई थी. शाम को अमित सब से विदा ले कर दिल्ली चला गया.

इतना पढ़ने के बाद सुरभी ने देखा कि डायरी के कई पन्ने खाली थे. जैसे उदास हों.

फिर अचानक एक दिन अमित साहनी के पिता का माफी भरा फोन आया कि यह शादी नहीं हो सकती. सभी को जैसे सांप सूंघ गया. किसी की समझ में कुछ नहीं आया. अमित 2 सप्ताह के लिए बिजनेस का बहाना कर जापान चला गया. इधरउधर की खूब बातें हुईं पर बात वहीं की वहीं रही. एक तरफ अमित के घर वाले जहां शर्मिंदा थे वहीं दूसरी तरफ मालती के घर वाले क्रोधित व अपमानित. लाख चाह कर भी मालती अमित से संपर्क न बना पाईं और न ही इस धोखे का कारण जान पाईं.

जगहंसाई ने पिता को तोड़ डाला. 5 महीने तक बिस्तर पर पड़े रहे, फिर चल बसे. मालती के लिए यह दूसरा बड़ा आघात था. उन की पढ़ाई बीच में छूट गई.

बूआजी ने फिर से मालती को अपने आंचल में समेट लिया. समय बीतता रहा. इस सदमे से उबरने में उसे 2 साल लग गए तो उन्होंने अपनी पीएच.डी. पूरी की. बूआजी ने उन्हें अपना वास्ता दे कर अमित साहनी जैसे ही मुंबई के जानेमाने उद्योगपति के बेटे परेश से उस का विवाह कर दिया.

अब मालती अपना अतीत अपने दिल के एक कोने में दबा कर वर्तमान में जीने लगीं. उन्होंने कालेज में पढ़ाना भी शुरू कर दिया. परेश ने उन्हें सबकुछ दिया. प्यार, सम्मान, धन और सुरभी.

सभी सुखों के साथ जीते हुए भी जबतब मालती अपनी उस पुरानी टीस को बूंदबूंद कर डायरी के पन्नों पर लिखती थीं. उन पन्नों में जहां अमित के लिए उस की नफरत साफ झलकती थी, वहीं परेश के लिए अपार स्नेह भी दिखता था. उन्हीं पन्नों में सुरभी ने अपना बचपन पढ़ा.

रात के 3 बजे अचानक सुरभी की आंखें खुल गईं. लेटेलेटे वे मां के बारे में सोच रही थीं. वे उन के उस दुख को बांटना चाहती थीं, पर हिचक रही थीं.

अचानक उस की नजर उस बड़ी सी पोस्टरनुमा तसवीर पर पड़ी जिस में वह अपने मम्मीपापा के साथ खड़ी थी. वह पलंग से उठ कर तसवीर के करीब आ गई. काफी देर तक मां का चेहरा यों ही निहारती रही. फिर थोड़ी देर बाद इत्मीनान से वह पलंग पर आ बैठी. उस ने एक फैसला कर लिया था.

सुबह 6 बजे ही उस ने पापा को फोन लगाया. सुन कर सुरभी आश्वस्त हो गई कि पापा के लौटने में सप्ताह भर बाकी है. वह पापा की गैरमौजूदगी में ही अपनी योजना को अंजाम देना चाहती थी.

उस दिन वह दिल्ली में रह रहे दूसरे पत्रकार मित्रों से फोन पर बातें करती रही. दोपहर तक उसे यह सूचना मिल गई कि अमित साहनी इस समय दिल्ली में अपने पुश्तैनी मकान में हैं.

शाम को मां को बताया कि दिल्ली में उस की एक पुरानी सहेली एक डाक्युमेंटरी फिल्म तैयार कर रही है और इस फिल्म निर्माण का अनुभव वह भी लेना चाहती है. मां ने हमेशा की तरह हामी भर दी. सुरभी नर्स और कम्मो को कुछ हिदायतें दे कर दिल्ली चली गई.

अब समस्या थी अमित साहनी जैसी बड़ी हस्ती से मुलाकात की. दोस्तों की मदद से उन तक पहुचंने का समय उस के पास नहीं था, इसलिए उस ने योजना के अनुसार अपने ससुर ईश्वरनाथ से अपनी ही एक दोस्त का नाम ले कर अमित साहनी से मुलाकात का समय फिक्स कराया. ईश्वरनाथ के लिए यह कोई बड़ी बात न थी.

ये भी पढ़ें- उस का घर : दिलों के विभाजन की गंध

अगले दिन सुबह 10 बजे का वक्त सुरभी को दिया गया. आज ऐसे वक्त में पत्रकारिता का कोर्स उस के काम आ रहा था.

खैर, मां की नफरत से मिलने के लिए उस ने खुद को पूरी तरह से तैयार कर लिया.

अगले दिन पूरी जांचपड़ताल के बाद सुरभी ठीक 10 बजे अमित साहनी के सामने थी. वे इस उम्र में भी बहुत तंदुरुस्त और आकर्षक थे. पोतापोती व पत्नी भी उन के साथ थे.

परिवार सहित उन की कुछ तसवीरें लेने के बाद सुरभी ने उन से कुछ औपचारिक प्रश्न पूछे पर असल मुद्दे पर न आ सकी, क्योंकि उन की पत्नी भी कुछ दूरी पर बैठी थीं. सुरभी इस के लिए भी तैयार हो कर आई थी. उस ने अपनी आटोग्राफ बुक अमित साहनी की ओर बढ़ा दी.

अमित साहनी ने जैसे ही चश्मा लगा कर पेन पकड़ा, उन की नजर मालती की पुरानी तसवीर पर पड़ी. उस के नीचे लिखा था, ‘‘मैं मालतीजी की बेटी हूं और मेरा आप से मिलना बहुत जरूरी है.’’

पढ़ते ही अमित का हाथ रुक गया. उन्होंने प्यार भरी एक भरपूर नजर सुरभी पर डाली और बुक में कुछ लिख कर बुक सुरभी की ओर बढ़ा दी. फिर चश्मा उतार कर पत्नी से आंख बचा कर अपनी नम आंखों को पोंछा.

सुरभी ने पढ़ा, लिखा था : ‘जीती रहो, अपना नंबर दे जाओ.’

पढ़ते ही सुरभी ने पर्स में से अपना कार्ड उन्हें थमा दिया और चली गई.

फोन से उस का पता मालूम कर तड़के साढ़े 5 बजे ही अमित साहनी सिर पर मफलर डाले सुरभी के सामने थे.

‘‘सुबह की सैर का यही 1 घंटा है जब मैं नितांत अकेला रहता हूं,’’ उन्होंने अंदर आते हुए कहा.

सुरभी उन्हें इस तरह देख आश्चर्य में तो जरूर थी, पर जल्दी ही खुद को संभालते हुए बोली, ‘‘सर, समय बहुत कम है. इसलिए सीधी बात करना चाहती हूं.’’

‘‘मुझे भी तुम से यही कहना है,’’ अमित भी उसी लहजे में बोले.

तब तक वेटर चाय रख गया.

‘‘मेरी मम्मी आप की ही जबान से कुछ जानना चाहती हैं,’’ गंभीरता से सुरभी ने कहा.

सुन कर अमित साहनी की नजरें झुक गईं.

‘‘आप मेरे साथ कब चल रहे हैं मां से मिलने?’’ बिना कुछ सोचे सुरभी ने अगला प्रश्न किया.

‘‘अगर मैं तुम्हारे साथ चलने से मना कर दूं तो?’’ अमित साहनी ने सख्ती से पूछा.

‘‘मैं इस से ज्यादा आप से उम्मीद भी नहीं करती, मगर इनसानियत के नाते ही सही, अगर आप उन का जरा सा भी सम्मान करते हैं तो उन से जरूर मिलिएगा. वे अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर हैं,’’ कहतेकहते नफरत और दुख से सुरभी की आंखें भर आईं.

ये भी पढ़ें- यह कैसा प्यार : क्या शिवानी सही थी

‘‘क्या हुआ मालती को?’’ चाय का कप मेज पर रख कर चौंकते हुए अमित ने पूछा.

‘‘उन्हें कैंसर है और पता नहीं अब कितने दिन की हैं…’’ सुरभी भरे गले से बोल गई.

‘‘ओह, सौरी बेटा, तुम जाओ, मैं जल्दी ही मुंबई आऊंगा,’’ अमित साहनी धीरे से बोले और सुरभी से उस के घर का पता ले कर चले गए.

दोपहर को सुरभी मां के पास पहुंच गई.

‘‘कैसी रही तेरी फिल्म?’’ मां ने पूछा.

‘‘अभी पूरी नहीं हुई मम्मी, पर वहां अच्छा लगा,’’ कह कर सुरभी मां के गले लग गई.

‘‘दीदी, कल रात मांजी खुद उठ कर अपने स्टोर रूम में गई थीं. लग रहा था जैसे कुछ ढूंढ़ रही हों. काफी परेशान लग रही थीं,’’ कम्मो ने सीढि़यां उतरते हुए कहा.

थोड़ी देर बाद मां से आंख बचा कर उस ने उन की डायरी स्टोर रूम में ही रख दी.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

उपलब्धि : ससुर के भावों को समझ गई बहू

उपलब्धि : भाग 3- ससुर के भावों को समझ गई बहू

‘‘कमरे में रुई के गुब्बारे नहीं, उस के मथे हुए अरमानों की धूल उड़ रही थी. मेरे देखते ही देखते उन्होंने रजाई के चीथड़े कर दिए. ठंड से ठिठुर कर वह जाड़ा गुजारा मैं ने, पर मामा से दूसरी रजाई मांगने का साहस न जुटा पाया. जीवनभर कभी भी किसी से जिद कर के कुछ मांगने का दिन नहीं आया. ‘‘आज किसी बच्चे की कोई भी जिद पूरी कर के मुझे बड़ी आत्मतृप्ति होती है.

‘‘इस कच्ची उम्र में होस्टल में मत भेजो, जबकि तुम लोग जिंदा हो, मैं जिंदा हूं. कल से मैं पढ़ाया करूंगा मीतू को. वह सुधर जाएगी. मांबाप के प्यार में वह ताकत है जो शायद होस्टल के कठोर अनुशासन में नहीं है.’’ छोटी बहू की आंखें सजल हो उठतीं. क्या किसी के पास थोड़ा सा भी अतिरिक्त प्यार नहीं बचता है एक अनाथ बच्चे के लिए? थोड़ा सा स्नेह जहां जादू कर सकता है, सारे विष को अमृत में बदल सकता है, वहां ये समर्थ दुनिया वाले अपनी क्षमता का दुरुपयोग क्यों करते हैं?

ये भी पढ़ें- अनाम रिश्ता : कैसा था नेहा और अनिरुद्ध का रिश्ता

कुछ देर के लिए बाबूजी की उन धुंधली आंखों की सजल गहराई में डूबतीउतराती वह वर्षों पीछे घिसटती चली जाती. प्यार का लबालब भरा प्याला किसी के होंठों से लगा है, पर वह उस स्वाद की अहमियत नहीं जानता और जिस के आगे से अचानक प्यार की भरी लुटिया खींच ली गई हो वह प्यासे मृग की भांति भाग रहा है. और वह खो जाती है अपने वार्षिक परीक्षाफल की घोषणा के दिनों की याद में. वह कक्षा में प्रथम आती है और उस से उम्र में बड़ी चचेरी बहन किसी तरह पास हो जाती है. चाची हाथ मटकामटका कर कहती है, ‘‘देखो, आजकल की बहुरूपिया लड़कियों को, कैसे दीदे फाड़ कर चीखती थी कि हाय, मेरा परचा बिगड़ गया. इधर देखो तो पहला नंबर ले कर आ रही है. हाय, कितने नाटक रचे.’

वह प्रथम आई है, इस की खुशी मनाना तो दूर रहा, पर कभी परचा बिगड़ जाने पर रो पड़ने की बात पर चाची उलाहना देना न भूलीं. स्वाभाविक था कि कितना भी अच्छा विद्यार्थी हो, वह परीक्षा के दिनों में ऊटपटांग सोचता है, डरता है. पर उस के लिए तो स्वाभाविक बात या व्यवहार करना भी संभव न था. वह सब की नजरों में एक वयस्क, समझदार और सख्त लड़की थी, जिस के लिए नाबालिग की तरह व्यवहार करना अशोभन था. और जब आर्थिक झंझटों के बावजूद बाबूजी ने उसे अपनी छोटी बहू मनोनीत किया था, तब तो मानो कहर बरपा था.

‘क्या देख कर ले जा रहे हैं?’ एक ने कटाक्ष करते हुए कहा था. ताईजी का स्नेह जरूर था इस पर. हौलेहौले वे बोली थीं, ‘अजी, ऐसा मत कहो. हमारी बिटिया का चेहरामोहरा तो अच्छा है. हरदम हंसती आंखें, तीखी नाक और पढ़ाई में अव्वल.’

हां, उस के साधारण से चेहरे पर एक ही असाधारण बात थी. उस की हंसती हुई आंखें-जैसे प्रतिज्ञा कर ली थी उन आंखों ने कि हर उदासी को हरा कर रहेंगे और यही उस का गुण बन गया था-हंसमुख बने रहना. वह अपने आसपास देखती कि इस अभावग्रस्त दुनिया में सुखसुविधा के बीच भी आदमी अभाव का अनुभव कर रहा है. जो भौतिक सुखों से वंचित है वह भी और जो सुविधाप्राप्त है वह भी. शायद भौतिक सुख दुनिया के हर कोने तक पहुंचाने में हम असमर्थ हैं, पर स्नेह के अगाध सागर से लबालब भरा है यह मानव मन. यदि थोड़ा सा भी सिंचन करना शुरू कर दे हर कोई तो सारी धरती, सारी जगती सिंच जाए. इतना थोड़ा सा त्याग वह भी करेगी और करवाएगी. आखिर इस में तो कोई खर्च नहीं है? आजकल की दुनिया में हिसाब से चलना पड़ता है, पर मन का कोई बजट नहीं बन सका है आज तक और न ही प्यार का कोई माप. इसलिए जहां तक स्नेहप्रेम खर्च करने का सवाल है, बेझिझक आगे बढ़ा जा सकता है. वहां न कोई औडिट होगा न कोई चार्ज.

पर हिसाबी है न मानव मन. हो सकता है कभी कोई माप निकल आए और स्नेह का भी हिसाब देना पड़े. शायद यही सोच कर स्नेह के भंडार भरे पड़े हैं और रोते दिलों को लुटाने को कोई तैयार नहीं दूरदर्शी, समझदार आदमी की जात. खिलखिला कर हंस उठी वह. ‘‘कैसी पगली हो तुम? मन ही मन हंसती हो और रोती हो,’’ पति की मीठी झिड़की सुन कर चुप हो गई वह. फिर तुनक कर बोली, ‘‘क्यों, हंसने पर कोई टैक्स तो है नहीं और जहां तक रोने का सवाल है, तुम्हें पा कर, तुम लोगों के बीच इस ग्रीन हाउस की ठंडी छांव में रो कर भी शांति मिलती है. मानो, बीती कड़वी यादों को धो कर बहाए दे रही हूं.’’

कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी. परिवार के सभी सदस्य रजाई में दुबके पड़े थे, पर इतना शोरगुल होने लगा कि एकएक कर सब उठने को मजबूर हो गए. बैठक से शोरगुल की आवाज आ रही थी. एकएक कर सब भीतर झांकने लगे.

ये भी पढ़ें- हवस का नतीजा : राज ने भाभी के साथ क्या किया

‘‘आइए, आइए,’’ छोटी का सदा सहास स्वर. मेज पर एक बड़ा सा केक रखा था. और चाय की प्यालियां सजी थीं. सारे बच्चे बाबूजी को खींच कर मेज तक ला रहे थे. छोटी ने प्यालियां भरनी शुरू कीं. चाय की सुगंध से कमरा महक उठा. बच्चों ने दादाजी को ताजे गुलाब के फूलों का गुलदस्ता भेंट किया. छोटी ने उन की कांपती उंगलियों में छुरी पकड़ा दी. बच्चे एकसाथ गाने लगे, ‘‘हैप्पी बर्थ डे टू यू… दादाजी, जन्मदिन मुबारक हो…’’

परिवार के सदस्यों ने भुने हुए काजुओं के साथ चाय की चुस्की ली. केक का बड़ा सा टुकड़ा छोटी ने बाबूजी को पकड़ा दिया. कनखियों से सास की ओर देखा बाबूजी ने. फिर उन की आंखों में जो स्नेह का सागर उमड़ रहा था वह सब के कल्याण के लिए, सारी दुनिया के वंचित लोगों के लिए, सारी जगती के अतृप्त बच्चों के मंगल के लिए बहने लगा… ‘‘मेरा जन्मदिन आज तक किसी ने नहीं मनाया था, बेटी…’’ और छोटी को लगा, स्नेह के इन कीमती मोतियों को वह पिरो कर रख ले.

उपलब्धि : भाग 2- ससुर के भावों को समझ गई बहू

बाबूजी के प्रति एक नई स्नेहधारा प्रवाहित होने लगी उस के हृदय में. उस की थीसिस जमा हो गई थी. अब बाकी रहा था साक्षात्कार. सुबहसुबह बस से इंटरव्यू के लिए जाना था. घर के सभी सदस्य अभी सो रहे थे. उस के एक परीक्षक आज ही वापस भी चले जाने वाले थे शाम की गाड़ी से, इसलिए इतनी सुबह जाना था. किसी तरह तैयार हो कर वह निकली. सामने कांपते हाथों में चाय का प्याला पकड़े बाबूजी खड़े थे. लज्जित हो वह बोली, ‘‘आप ने क्यों तकलीफ की?’’

सस्नेह वे बोले, ‘‘मेरी कामना है कि तुम्हारा उद्देश्य सफल हो.’’ झुक कर उन के पांव छू कर वह चल दी.

एकांत के सुनहरे क्षणों में स्नेहमयी बांहों की घेराबंदी से अपने को मुक्त करती हुई वह बोली, ‘‘आज मुझे सुबहसुबह बड़ी अजीब सी स्थिति का सामना करना पड़ा. बाबूजी ने स्वयं अपने हाथों से मुझे चाय बना कर ला कर दी है.’’

ये भी पढ़ें- खुल गई आंखें : रवि के सामने आई हकीकत

‘‘तो इस में इतना परेशान होने की क्या बात है, रानी? बाबूजी तो काफी समय से यही करते आए हैं. मां इतनी सुबह उठ नहीं पाती थीं. रात में घर के ढेरों काम रहते थे. बाबूजी रोज 5 बजे सुबह हम लोगों को चाय बना कर देते थे. तब कहीं जा कर हम लोग पढ़ने के लिए बैठते थे.’’ ‘‘ओह डार्लिंग, जिस बात को तुम लोग इतना सामान्य मानते हो, वह मेरे लिए एक निहायत ही मूल्यवान अनुभव है,’’ वह बोली, और उत्तर में मिली एक मुसकान.

इस घर के चारों ओर जो हरियाली थी उसी के कारण पड़ोसी उसे ग्रीन हाउस कहते और इस परिवार के सदस्यों का आपसी स्नेह सब की ईर्ष्या की वस्तु थी. नई बहू का शोषण करने के इरादे से कोई बातूनी आ कर कहती, ‘‘चलो न, छोटी, आज मेरे पति फ्री हैं. हम दोनों नाइट शो देख आएं. मेरे पति, तुम्हारे पति के सहकर्मी ही नहीं, जिगरी दोस्त भी हैं.’’ तनिक झिझक से वह कहती, ‘‘बाबूजी को ज्यादा रात गए घर लौटना पसंद नहीं है.’’

‘‘ओह, अपने बूढ़े ससुर से कहो ये दकियानूसी बातें भूल जाएं. आखिर एक मैट्रिकुलेट का देखनेसोचने का क्षेत्र तो सीमित होगा ही.’’

छोटी का दिल छलनी होने लगा. बाबूजी ज्यादा पढ़ नहीं पाए, क्या इसलिए वे व्यापक रूप से देखसमझ नहीं पाते? काश, ये छींटे कसने वाली यह गु्रेजुएट महिला जानती कि कितनी तमन्ना थी उन में पढ़ने की. पर कौन पढ़ाता उन्हें? दूर के रिश्ते के एक मामा ने मैट्रिक पास करते ही असम के जंगलों में भेज दिया उन्हें नौकरी करने. किसी तरह अपने को संभाल कर बोली, ‘‘छोटी ननदें हैं न घर में, उन पर क्या असर पड़ेगा?’’ ‘‘अरे, छोड़ो भी. वे क्या तुझे आदर्श बना कर जी रही हैं. ये स्कूलकालेजों में पढ़ने वाली छोकरियां तो अब तक अपना आदर्श ढूंढ़ चुकी होंगी.’’

अब वह क्या कहती? शिक्षा के दीवाने बाबूजी क्या उन लोगों को छोड़ने वाले हैं? हाथ धो कर पीछे लगे रहते हैं ताकि उन लोगों की पढ़ाई पूरी हो जाए. शांत, समझदार सास कभीकभी तुनक भी उठतीं, ‘पढ़ाई के पीछे होशोहवास खो बैठते हैं. यही एक नशा है इन को. लड़कियां घर का कामधाम भले ही न सीखें, बस दिनरात किताबें लिए रटती रहेंगी. लड़कों को तो पढ़ालिखा कर बड़ा लाट बना दिया.’ ‘लाट नहीं तो क्या? उन के ठाठ क्या किसी से कम हैं?’ बाबूजी एक संतोषपूर्ण मुखमुद्रा में चिल्लाचिल्ला कर कहते, ‘पड़ोसी पूछते हैं कि तुम्हारा कितना बैंक बैलेंस है? मैं कहता हूं कि मैं ने अपना पैसा बैंकों में जमा कर दिया है. पांचों बेटे मेरे हीरे हैं.’ उन्हें बैंक बैलेंस शून्य होने का कोई भी दुख नहीं था.

बेटे कभीकभी चिढ़ जाते, ‘हां, हां, लिखायापढ़ाया ही तो है. और क्या दिया है? हम लोग अपनी मेहनत से आगे बढ़े. तुम ने खापी कर सब खर्च कर दिया.’ ‘जरूर किया. कमाया है, खाऊंगा नहीं?’ बाबूजी अपना धीरज खो बैठते. भिन्नभिन्न प्रकार के पकवानों के प्रति वे अपना लोभ न रोक पाते. खाने का शौक बराबर रहा है उन्हें. यह तो उन के बाजार से अपनी मनपसंद चीजें लाने का शौक देख कर ही वह समझ जाती. दूसरी बहुएं और सास मुंह में कपड़ा ठूंस कर ठिठोली करतीं, ‘‘दांत नहीं रहे, फिर भी खाते किस शौक से हैं. शायद उम्र के साथ लालच और भी बढ़ गया है.’’

मनोविज्ञान की छात्रा छोटी सोचती कि इन लोगों को कौन समझाए. स्नेह और प्यार की वह भूख जो मिट न पाई, उसे जीभ की संतुष्टि द्वारा पेटभर कर मिटाना चाहता है स्नेह का प्यासा वह व्यक्ति. उस के अतृप्त मन ने अपना समाधान खोज निकाला है, पर यदि वह बोलने लगे तो वे हंस कर बोलेंगी, ‘‘चल री, यह कोई तेरी विश्वविद्यालय की कक्षा है, जो लैक्चर झाड़ रही है. अपनी छात्राओं को सिखाना जा कर.’’ प्यार मिला नहीं, पर प्यार लुटाना आता है बाबूजी को. पतंग पकड़ने के लिए जाने पर किस तरह मामा के हाथों पिटाई हुई थी, वही किस्सा सुनातेसुनाते वे मंडू को पतंग बनाना सिखाते. ‘‘स्कूल खुल रहे हैं, मीतू की बरसाती लानी है,’’ सुबह से ही वे हल्ला मचाने लगते मानो मीतू की बरसाती लाने से बड़ा कोई काम इस दुनिया में बचा ही न हो. जब मीतू शैतानी करती तब संझली कहती, ‘‘अब मैं इसे होस्टल में डाल दूंगी.’’

ये भी पढ़ें- अनाम रिश्ता : कैसा था नेहा और अनिरुद्ध का रिश्ता

‘‘मजाक में भी होस्टल का नाम मत लेना. बेटी, मांबाप के रहते बच्ची को भला होस्टल में क्यों रहना पड़े इस कच्ची उम्र में? मुझे भी मामा ने 9वीं कक्षा में होस्टल में रख दिया था…’’ वे खो जाते उन दिनों की याद में जब उन्हें पोखर से कमल चुरा कर लाने में बड़ा आनंद आता था. लालाजी के कुम्हड़े की बेल काट कर फेंक देने में हर्ष होता था. और कितना मजा आता था चाचाजी की गाय के बछड़े को छोड़ देने में, जिस से पूरा दूध बछड़ा पी जाए और लल्लन चाचा उसे गालियां सुनाने घर आ धमकें. इस खेल में उपलब्धि शायद भौतिक लाभ की दृष्टि से कुछ भी न होती, पर एक किशोर बालक का अहं तृप्त हो जाता. पर किस को परवा थी उस के अहं की. वह तो पराश्रित अनाथ बालक था, इसीलिए मामा ने उसे होस्टल में भरती कर दिया था. ‘‘जाड़े के दिन थे. बहू और मामा नई रजाई दे गए थे मुझे. लड़कों ने मेरी नईनई रजाई देखी तो ईर्ष्यावश दौड़े आए और हंसने लगे, ‘अरे, मुंडी रजाई है, मुंडी.’ मेरी रजाई के किनारों पर पाइपिंग नहीं थी. बस, छोकरों को बहाना मिल गया. सब के सब टूट पड़े मुंडी रजाई पर और सारी रुई नोचनोच कर हवा में उछालने लगे. एक असहाय किशोर पर उस रात क्या बीती, यह उस का दिल ही जानता है.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

उपलब्धि : भाग 1- ससुर के भावों को समझ गई बहू

पहले आने वालों का तांता लगा रहा और अब जाने वालों का सामान बंध रहा था. घर एक चौराहा बन गया था, न वहां किसी को पहचानने का काम था न जानने की फुरसत. सपने की तरह दिन बीत गए और अब एकदूसरे के करीब आने का वक्त मिला था. बैंडबाजे, शहनाई की इतराती धुन और बच्चों के कोलाहल के बाद यह मधुर शांति अच्छी ही लग रही थी उसे. केवल बहुत ही नजदीकी संबंधियों और इस बड़े परिवार के सदस्यों के सिवा लगभग सभी मेहमान विदा हो चुके थे.

जब भी खाली समय मिलता, अवकाशप्राप्त वृद्ध ससुर नई छोटी बहू के पास आ कर बैठ जाते. नयानया घूंघट बारबार खिसक जाता और मंद मुसकान से भरी 2 आंखें वृद्ध की ओर सस्नेह ताकती रहतीं. यह सब बिलकुल नयानया लग रहा था उसे. वास्तविकता की क्रूर धरती पर पली, आदर्श की सूखी ऋतुओं को झेलती, हर परिस्थिति से जूझने की क्षमता रखने वाली वह इस अनोखे स्नेहसिक्त ‘ग्रीन हाउस’ की छत तले अपनेआप को नए सांचे में ढाल रही थी. ‘‘बेटी, अधूरी मत छोड़ना अपनी पढ़ाई, तुझे कोई सहयोग दे न दे, मैं पूरा सहयोग दूंगा. मैं तो दीवाना हूं लिखाईपढ़ाई का.’’ वृद्ध बारबार उस से यह आशा कर रहे थे कि वह उन की बात का उत्साह से जवाब देगी जबकि वह लाज से सिमटी कनखियों से जेठानी व ननदों की भेदभरी मुसकान का सामना कर रही थी.

ये भी पढ़ें- यह कैसा प्यार : क्या शिवानी सही थी

क्या बाबूजी भूल गए कि उस का ब्याह हुए केवल 3 ही दिन हुए हैं और अभी वह जिस दुनिया में विचर रही है, वह पढ़ाईलिखाई से कोसों दूर है? पर बाबूजी की निरंतर कथनी न जाने किस अंतरिक्षयान की सी तेज रफ्तार से उसे चांदसितारों की स्वप्निल दुनिया से वास्तविकता की धरती पर ला पटके दे रही थी. पिछले कुछ दिनों में वह लगभग भूल गई थी कि उसे अपने शोधकार्य की थीसिस इसी माह के अंत में जमा करनी है. नातेरिश्तेदारों के मानसम्मान, आवभगत और बच्चों के कोलाहल के बीच भी बाबूजी बराबर उसे आआ कर कुरेदते रहते थे, ‘‘देख बेटी, राजा अपने देश में ही पूज्य होता है, पर विद्वान

का हर जगह सम्मान होता है. तुम विदुषी हो, अपना ध्यान बंटने न देना. तुम्हारे हमजोली लाख भड़काएं, तुम अडिग रहना.’’ और यह कुछ हद तक सच भी था. बड़ी ननद 2-3 बार मजाक में कह चुकी थी, ‘‘अब मेरा भैया ही इस की थीसिस बन गया है. क्या होगी अब लिखाईपढ़ाई इस से. और पीएचडी कर के भी क्या करना है? आखिर में तो वही चूल्हाचौका करना है.’’

‘‘सिर्फ यही दीदी?’’ मझली जेठानी ने आंख मारते हुए कहा था और लाज से उस के कान लाल हो उठे थे. परिवार की हमउम्र सदस्याएं कहती थीं, ‘‘यह दिन रोजरोज नहीं आएगा. जाओ, क्वालिटी में तुम दोनों आज नाइट शो में फिल्म देख आओ.’’ भरेपूरे परिवार में 2 सहमतेधड़कते दिलों को मिलाने वाले मासूम एकांत क्षण, भविष्य के सुनहरे स्वप्नजाल और एकदूसरे में खो जाने के अरमान, पर घड़ी की टिकटिक की तरह बूढ़े बाबूजी की वही रट हरदम मानो कानों पर चोट करती रहती और वह अपनेआप को अपराधी महसूस करने लगती. ओह, ज्यादा पढ़लिख लेना भी अच्छा नहीं, जीना दूभर हो जाता है.

मधुर मिलन की मीठी घडि़यों में भी एक अपराधी सी हो उठती वह. क्या यही चीज कभी उस की कम पढ़ीलिखी जेठानी या बड़ी ननद को कचोटती न रही होगी? कभी नहीं. वे तो जीवन की स्थूल उपलब्धि से ही बेहद संतुष्ट दिखलाई देती हैं. वह केवल सूक्ष्मतम उपलब्धि की बात क्यों सोचती है? इतने बड़े मकान की बंद हवा में वह घुटन सी महसूस करती और इसीलिए वह छत पर जा कर आसमान के नीचे खुले में खड़ी हो जाती. एक बार वह बादल के एक सफेद टुकड़े की सूर्यकिरणों के साथ होती अठखेलियां देखने में मग्न थी कि उस के कानों में कुछ खुसुरफुसुर सुनाई दी.

‘‘बाबूजी का सारा स्नेह मानो बरसात की तरह उमड़ा आ रहा है. छोटी बहू ने आज क्या खाना खाया? वह कमजोर होती जा रही है? और देखा, ढेर सारे फल उस के लिए बाजार से खरीद लाए. खाए चाहे न खाए. हम लोगों से भी तो पूछना था?’’ तभी उसे याद आया. नई जगह में आ कर उसे भूख ही नहीं लग रही थी. यह बात जान कर कि उसे रोज रात को गरम दूध पीने की आदत थी, ससुर अपने सामने बैठा कर दूध का गिलास देने लगे थे. फिर जब भूख नहीं सुधरी तो बारबार पूछते, ‘‘तुम्हें क्या तकलीफ है, बेटी, शरमाना मत. जरूर बतलाना.’’ और फिर एक दिन ढेरों फल ले आए थे. वह क्या बोलती? स्मितभरी आंखों से उन की ओर ताकती रही. उसे यह सब अजीब सा लगता.

बचपन में ही वह मातापिता को खो बैठी थी. ताऊचाचा, ताईचाची और फुफेरेचचेरे भाईबहनों के कठोर अनुशासन के बीच वह जान ही न पाई थी कि ममता का स्रोत उस के जीवन में सूख गया है. स्नेहममता का यह नया झरना उस के लिए अनोखा था. समय पर उसे खानेपहनने को मिल जाता है. पर कभी किसी ने उस के दिल में क्या है, जानने का न तो प्रयत्न किया था और न ही कभी यह सोचा था कि उस की भी कोई इच्छा हो सकती है. ये छोटीछोटी बातें, ये जराजरा से आग्रह उस के लिए तो हिमालय जैसे थे.

ये भी पढ़ें- खुल गई आंखें : रवि के सामने आई हकीकत

सीढि़यों पर पदचाप ऊपर की ओर ही आ रहा था. मझली के उलाहने का उत्तर देती हुई मझली बोली, ‘‘तुम ठीक कह रही हो, दीदी, पर बाबूजी ने छोटी को देखने के बाद यही कहा था, ‘लड़की देखनेसुनने में साधारण है, पर प्रतिभाशाली लगती है. खैर, प्रतिभाशाली लड़कियां तो मेरे छोटे बेटे के लिए कई मिली हैं, लेकिन मैं यहीं उस की शादी करूंगा.’ मालूम है क्यों? छोटी के मांबाप नहीं हैं न. बाबूजी उस की पीड़ा शायद हम लोगों से ज्यादा समझते हैं.’’ ‘‘हां, यह तो सच है. उस लिहाज से देखो तो बाबूजी का स्नेह भले ही पक्षपातपूर्ण हो, पर है सही.’’

उस ने हौलेहौले चूडि़यां खनका दीं. दोनों तब तक ऊपर आ चुकी थीं. ‘‘अरे छोटी, तेरी चूडि़यों की खनक से पता चला, तू यहां है. तेरी ही बात हो रही थी. बाबूजी तुम से बेहद स्नेह करते हैं. मालूम है क्यों? उन्हें भी न मां का प्यार मिला, न पिता का लाड़.’’ फिर उसे प्यार से अपनी छाती से सटा कर मझली बोली, ‘‘मेरे प्यारे देवर को पाने के बाद तुझ सा प्रसन्न भला और कौन हो सकता है?’’ प्यार के इस छोटे से प्रदर्शन से ही उस का दिल कुलांचें भरने लगा. कभी भी किसी ने उसे इस तरह प्यार नहीं किया था. बचपन से ही वह वयस्कों में मानी जाने लगी थी. उस की बालसुलभ आकांक्षाओं को भी तो असमय ही कुचल दिया गया था अनुशासन की कुल्हाड़ी से.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

टौमी : प्यार और स्नेह की अनोखी दास्तान

टौमी : भाग 3- प्यार और स्नेह की अनोखी दास्तान

अब सोचती हूं कि जिस से मैं ने सालों पहले कैलिफोर्निया में कुत्ता रखने के बारे में बात की थी, उसे नहीं पता कि वह क्या कह रही थी. उस ने मुझे साफ मना कर दिया था. उस के विचार से कुत्ता मुझ से किसी भी हालत में जुड़ नहीं सकता क्योंकि मैं उस की देखभाल नहीं कर सकती. मैं तो उसे खाना तक नहीं दे सकती हूं. ऐसी हालत में कुत्ता मुझ से बिलकुल नहीं जुड़ेगा. पर वह गलत थी क्योंकि टौमी को तो मुझ से जुड़ने में जरा भी समय नहीं लगा.

टौमी के लिए यह कोई मसला ही नहीं था कि कौन उस के लिए खाना रखता है. जब तक मैं न कह दूं, वह खाने को छूता तक नहीं था. मेरी कुरसी के बायीं ओर उस का एक छोेटा व लचीला पट्टा बंधा होता था. वह जानता था कि छोटा पट्टा काम का पट्टा है और लचीला, छोटाबड़ा होने वाला आराम से घूमने वाला पट्टा है. वह मेरे स्वामी होने के एहसास को अच्छी तरह जानता था. उसे पता था कि घर का मालिक कौन है, चाहे उसे खाना कोईर् भी परोसे.

ये भी पढ़ें- नादानियां : उम्र की इक दहलीज

टौमी मेरी असमर्थताओं को भी जान गया था. उस ने समाधान निकाल लिया था कि मैं कैसे उसे सहला सकती हूं, उसे कैसे अपना प्यारदुलार दे सकती हूं. अपनी परिचारिका की सहायता से सुबहसुबह मैं थोड़ाथोड़ा अपनी बाहों को फैलाने की चेष्टा करती थी. हमारे रिश्ते की शुरुआत में ही टौमी, जब मेरी बाहें अधर में, हवा में होतीं, मेरे सीने पर आ जाता और मेरी गरदन चाटने लगता और फिर अपने शरीर को मेरे हाथों के नीचे स्थापित कर लेता. उस का यह प्रयास हर रोज सुबह के नाश्ते से पहले उस के आखिरी दम तक बना रहा.

मेरे लिए उस से जुड़ने के वास्ते यह बहुत जरूरी था कि मैं उसे उस की जरूरत की सब चीजें प्रदान करूं, विशेषरूप से पहले साल. मैं उसे रोज घुमाने ले जाती चाहे कितनी भी गरमी या सर्दी हो. पर दूसरे साल से इस में ढील पड़ गई. सर्दी में दूसरों को मैं ने यह काम सौंप दिया. हां, अधिक सर्दी के दिन छोड़ कर, मैं ही उसे घुमाने ले जाती थी. या यों कहूं कि मैं उस के साथ घूमती थी.

पहले पहल अकेले जाने में बड़ी समस्या आई. बाहर से अंदर आते समय तो वाचमैन मेरे लिए दरवाजा खोल देता था और लिफ्ट का बटन दबा देता था. मैं अपनी फ्लोर पर जा कर अपने घर का मुख्यद्वार अपने सिर में लगे कंट्रोल से खोल लेती थी. पर अकेले बाहर जाने की समस्या विकट थी कि कैसे एलिवेटर का बटन दबाया जाए. दीवार पर क्या चिपकाया जाए जिस की मदद से टौमी एलिवेटर का बटन दबा सके. इस में समय लग रहा था कि एक दिन मैं ने अपनी माउथस्टिक से बटन दबाने की सोची. स्टिक की लंबाई पूरी पड़ गई और समस्या हल हो गई.

अब मैं आसपड़ोस के लोगों से भी मिलने लगी, डौग पार्क में भी मेरी कइयों से दोस्ती हो गई. साथ ही, मैं अपने कई काम खुद ही करने लगी. अब मैं अकेले टौमी के साथ बाहर जाने के लिए प्रोत्साहित होने लगी. मेरी बाहर अकेले जाने की घबराहट कब खत्म हो गई, पता ही न चला. लोग मेरे से पहले टौमी को देख लेते थे और उस की वजह से ही मेरी व्हीलचेयर अजनबियों को कम भयग्रस्त करती थी.

जब मैं टौमी से पहले की अपनी जिंदगी देखती हूं कि किस तरह मैं ने खुद को अपने फ्लैट तक सीमित कर लिया था, कैद कर लिया था तो स्वयं को पहचान भी नहीं पाती हूं. मैं टौमी की बदौलत बहुत ही आत्मनिर्भर, आरामदेह, शांतिप्रद, सुखी हो गई थी. मैं इतने साल कैसे एक कौकून की तरह बंद कर के रही, आश्चर्य करती हूं. टौमी मुझे उस स्थिति के नजदीक ले आया जो दुर्घटना के पहले थी. ऐसी स्थिति जो इन परिस्थितियों में मेरे लिए खुशहाली लाई. टौमी ने मेरे लिए उस संसार के द्वार खोल दिए थे जो मैं ने अपने लिए अनावश्यक रूप से स्वयं ही बंद कर लिए थे.

हमारी झोली में कई साहसिक और कुछ भयग्रस्त करने वाले किस्से भी हैं. आज भी उन्हें याद कर सिहर जाती हूं. पार्क में एक रात अकेले होने पर पिट बुल द्वारा अटैक अभी भी बदन को सिहरा जाता है. एक बार वह मुश्किल से एलिवेटरद्वार बंद होने से पहले अंदर घुस पाया था. एक बार तो वह कार से टकरातेटकराते बचा था. मैं ने अपनी व्हीलचेयर का पहिया कार की ओर मोड़ दिया था जिस से कि मेरे पैरों पर भले ही आघात हो पर कम से कम टौमी बच जाए. लेकिन हम दोनों ही बच गए.

हालांकि आखिर में टौमी खाने के प्रति थोड़ा लालची होने लगा था लेकिन फिर भी वह जैकेट पहन कर काम में जरा भी शिथिलता नहीं आने देता था. हां, कौटेज में जाने पर वह मस्तमौला हो जाता था. वहां वह ज्यादा से ज्यादा ड्राइववे तक मेरे साथ जाता. उस के बाद मैं कितना ही उसे पुचकारती, बढ़ावा देती, वह मेरे साथ आगे न बढ़ता. हां, किसी और के साथ मजे में वह सब जगह घूमता. मैं सोचती कि क्या यह इस स्थान के प्रति मेरी भावनाओं को समझ रहा है. मैं सालों बाद भी, उस स्थान से जहां मैं गिरी थी, स्वयं को उबार नहीं पा रही थी. मेरे अंतर्मन के किसी कोने में उस स्थान के प्रति हलकी सी भयग्रस्त भावना समाई हुई थी. शायद इसीलिए, यह वहां नहीं जाना चाहता था.

एक सुबह मैं ने अपनी उस असुरक्षा की भावना को जड़ से उखाड़ फेंकने का निश्चय किया और संपूर्ण साहस बटोर, परिचारिका को बिना बताए उस पथ पर चल दी. ड्राइववे पर टौमी कुछ दूर तक मेरे साथसाथ चला पर आधे रास्ते जा, स्वभावगत वह वहीं रुक गया. मैं धीरेधीरे आगे बढ़ती रही, टौमी को पुकारती रही पर वह टस से मस न हुआ. बस, खड़ा देखता रहा. मैं ने भी अपना प्रण न छोड़ा, बढ़ती गई. ड्राइववे के अंतिम छोर पर मैं रुकी. पलट कर मैं ने उसे कई बार पुकारा, हर आवाज में- कड़ी, उत्साहित, डांटने वाली, आदेश वाली, मानमनौवल वाली, भयभीत आवाज की नकल करते हुए भी पुकारा, यहां तक कि भावनात्मक ब्लैकमेल भी किया पर वह वहीं चुपचाप खड़ा रहा. फिर झल्ला कर मैं ने कहा, ‘ठीक है, मैं अकेले ही आगे जा रही हूं. मैं ने सोचा कि देखूं कि वह मुझे आंखों से ओझल हो, देख क्या करता है. जैसे ही मैं पलटी, पाया कि गाड़ी के पहिए रेत में धंस अपनी ही जगह पर घूम रहे हैं. मेरी पीठ टौमी व कौटेज की तरफ थी. मैं करीबकरीब उसी जगह पर फंसी थी जहां सालों पहले गिरी थी.

ये भी पढ़ें- मुसाफिर : चांदनी ने कैसे उसके साथ मजे किए

मुझे याद नहीं, कि वास्तव में मेरे मुंह से पूरी तरह से टौमी का नाम निकला भी था या नहीं, कि मैं ने उसे अपनी ओर दौड़ता हुआ आता महसूस किया. फिर मुझे याद नहीं कि मैं ने इतने सालों के साथ में कभी भी उस की ऐसी शारीरिक मुद्रा देखी हो. उस की मौन भाषा, उस की शारीरिक मुद्रा बारबार मुझ से पूछ रही थी कि मैं तुम्हारे लिए क्या करूं.

मैं ने कहा, ‘टौमी, बोलो.’ अधिकतर जब भी मैं टौमी को ऐसा आदेश देती थी, वह एक बार भूंकता था या कभीकभी जब ज्यादा उत्साहित होता तो 2 बार. पर इस समय वह मेरे आदेश देने पर कई बार भूंका, जैसे वह समय की नजाकत पहचान रहा हो.

मैं टौमी की शारीरिक भाषा से पार नहीं पा रही थी. उस की उस समय की दयनीय आंखें, उस की मुखमुद्रा जीवनभर मेरे साथ रहेंगी. मैं उस की प्रशंसा करती रही और उसे बोलने को उत्साहित करती रही. तकरीबन 10-15 मिनट लगे होंगे जब मैं ने पदचापों को अपनी ओर आते सुना. यदि टौमी न होता तो न जाने मैं कब तक और किस हाल में वहां पड़ी होती.

यादें, न जाने कितनी यादें, अब तो बस टौमी की यादों का पिटारा ही साथ रह गया है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें