अपराजिता: क्या पप्पी बचा पायगी अपनी जान?

मेरे जागीरदार नानाजी की कोठी हमेशा मेरे जीवन के तीखेमीठे अनुभवों से जुड़ी रही है. मुझे वे सब बातें आज भी याद हैं.

कोठी क्या थी, छोटामोटा महल ही था. ईरानी कालीनों, नक्काशीदार भारी फर्नीचर व झाड़फानूसों से सजे लंबेचौड़े कमरों में हर वक्त गहमागहमी रहती थी. गलियारों में शेर, चीतों, भालुओं की खालें व बंदूकें जहांतहां टंगी रहती थीं. नगेंद्र मामा के विवाह की तसवीरें, जिन में वह रूपा मामी, तत्कालीन केंद्रीय मंत्रियों व उच्च अधिकारियों के साथ खडे़ थे, जहांतहां लगी हुई थीं.

रूपा मामी दिल्ली के प्रभावशाली परिवार की थीं. सब मौसियां भी ठसके वाली थीं. तकरीबन सभी एकाध बार विदेश घूम कर आ चुकी थीं. नगेंद्र मामा तो विदेश में नौकरी करते ही थे.

देशी घी में भुनते खोए से सारा घर महक रहा था. लंबेचौड़े दीवानखाने में तमाम लोग मामा व मौसाजी के साथ जमे हुए थे. कहीं राजनीतिक चर्चा गरम थी तो कहीं रमी का जोर था. नरेन मामा, जिन की शादी थी, बारबार डबल पपलू निकाल रहे थे. सभी उन की खिंचाई कर रहे थे, ‘भई, तुम्हारे तो पौबारह हैं.’

नगेंद्र मामा अपने विभिन्न विदेश प्रवासों के संस्मरण सुना रहे थे. साथ ही श्रोताओं के मुख पर श्रद्धामिश्रित ईर्ष्या के भाव पढ़ कर संतुष्ट हो चुरुट का कश खींचने लगते थे. उन का रोबीला स्वर बाहर तक गूंज रहा था. लोग तो शुरू से ही कोठी के पोर्टिको में खड़ी कार से उन के ऊंचे रुतबे का लोहा माने हुए थे. अब हजारों रुपए फूंक भारत आ कर रहने की उदारता के कारण नम्रता से धरती में ही धंसे जा रहे थे.

यही नगेंद्र मामा व रूपा मामी जब एक बार 1-2 दिन के लिए हमारे घर रुके थे तो कितनी असुविधा हुई थी उन्हें भी, हमें भी. 2 कमरों का छोटा सा घर  चमड़े के विदेशी सूटकेसों से कैसा निरीह सा हो उठा था. पिताजी बरसते पानी में भीगते डबलरोटी, मक्खन, अंडे खरीदने गए थे. घर में टोस्टर न होने के कारण मां ने स्टोव जला कर तवे पर ही टोस्ट सेंक दिए थे, पर मामी ने उन्हें छुआ तक नहीं था.

आमलेट भी उन के स्तर का नहीं था. रूपा मामी चाय पीतेपीते मां को बता रही थीं कि अगर अंडे की जरदी व सफेदी अलगअलग फेंटी जाए तो आमलेट खूब स्वादिष्ठ और अच्छा बनता है.

यही मामी कैसे भूल गई थीं कि नाना के घर मां ही सवेरे तड़के उठ रसोई में जुट जाती थीं. लंबेचौडे़ परिवार के सदस्यों की विभिन्न फरमाइशें पूरी करती कभी थकती नहीं थीं. बीच में जाने कब अंडे वाला तवा मांज कर पिताजी के लिए अजवायन, नमक का परांठा भी सेंक देती थीं. नौकर का काम तो केवल तश्तरियां रखने भर तक था.

दिन भर जाने क्या बातें होती रहीं. मैं तो स्कूल रही. रात को सोते समय मैं अधजागी सी मां और पिताजी के बीच में सोई थी. मां पिताजी के रूखे, भूरे बालों में उंगलियां फिरा रही थीं. बिना इस के उन्हें नींद ही नहीं आती थी. मुझे भी कभी कहते. मैं तो अपने नन्हे हाथ उन के बालों में दिए उन्हीं के कंधे पर नींद के झोंके में लुढ़क पड़ती थी.

मां कह रही थीं, ‘पिताजी को बिना बताए ही ये लोग आपस में सलाह कर के यहां आए हैं. उन से कह कर देखूं क्या?’

‘छोड़ो भी, रत्ना, क्यों लालच में पड़ रही हो? आज नहीं तो कुछ वर्ष बाद जब वह नहीं रहेंगे, तब भी यही करना पडे़गा. अभी क्यों न इस इल्लत से छुटकारा पा लें. हमें कौन सी खेतीबाड़ी करनी है?’ कह कर पिताजी करवट बदल कर लेट गए.

‘खेतीबाड़ी नहीं करनी तो क्या? लाखों की जमीन है. सुनते हैं, उस पर रेलवे लाइन बनने वाली है. शायद उसे सरकार द्वारा खरीद लिया जाएगा. भैया क्या विलायत बैठे वहां खेती करेंगे.’

मां को इस तरह मीठी छुरी तले कट कर अपना अधिकार छोड़ देना गले नहीं उतर रहा था. उत्तर भारत में सैकड़ों एकड़ जमीन पर उन की मिल्कियत की मुहर लगी हुई थी.

भूमि की सीमाबंदी के कारण जमीनें सब बच्चों के नाम अलगअलग लिखा दी गई थीं. बंजर पड़ी कुछ जमीनें ‘भूदान यज्ञ’ में दे कर नाम कमाया था. मां के नाम की जमीनें ही अब नगेंद्र मामा बडे़ होने के अधिकार से अपने नाम करवाने आए थे. वैसे क्या गरीब बहन के घर उन की नफासतपसंद पत्नी आ सकती थी?

स्वाभिमानी पिताजी को मिट्टी- पत्थरों से कुछ मोह नहीं था. जिस मायके से मेरे लिए एक रिबन तक लेना वर्जित था वहां से वह मां को जमीनें कैसे लेने देते? उन्होंने मां की एक न चलने दी.

दूसरे दिन बड़ेबडे़ कागजों पर मामा ने मां से हस्ताक्षर करवाए. मामी अपनी खुशी छिपा नहीं पा रही थीं.

शाम को वे लोग वापस चले गए थे.

अपने इस अस्पष्ट से अनुभव के कारण मुझे नगेंद्र मामा की बातें झूठी सी लगती थीं. उन की विदेशों की बड़बोली चर्चा से मुझ पर रत्ती भर प्रभाव नहीं पड़ा. पिताजी शायद अपने कुछ साहित्यकार मित्रों के यहां गए हुए थे. लिखने का शौक उन्हें कोठी के अफसरी माहौल से कुछ अलग सा कर देता था.

मुझे यह देख कर बड़ा गुस्सा आता था कि पिताजी का नाम अखबारों, पत्रिकाओं में छपा देख कर भी कोई इतना उत्साहित नहीं होता जितना मेरे हिसाब से होना चाहिए. अध्यापक थे तो क्या, लेखक भी तो थे. पर जाने क्यों हर कोई उन्हें ‘मास्टरजी’ कह कर पुकारता था.

सब मामामौसा शायद अपनी अफसरी के रोब में अकड़े रहते थे. कभी कोई एक शेर भी सुना कर दिखाए तो. मोटे, बेढंगे सभी कुरतापजामा, बास्कट पहने मेरे छरहरे, खूबसूरत पिताजी के पैर की धूल के बराबर भी नहीं थे. उन की हलकी भूरी आंखें कैसे हर समय हंसती सी मालूम होती थीं.

अनजाने में कई बार मैं अपने घर व परिस्थितियों की रिश्तेदारों से तुलना करती तो इतने बडे़ अंतर का कारण नहीं समझ पाई थी कि ऊंचे, धनी खानदान की बेटी, मां ने मास्टर (पिताजी) में जाने क्या देखा कि सब सुख, ऐश्वर्य, आराम छोड़ कर 2 कमरों के साधारण से घर में रहने चली आईं.

नानानानी ने क्रोध में आ कर फिर उन का मुंह न देखने की कसम खाई. जानपहचान वालों ने लड़कियों को पढ़ाने की उदारता पर ही सारा दोष मढ़ा. परंतु नानी की अकस्मात मृत्यु ने नाना को मानसिक रूप से पंगु सा कर दिया था.

मां भी अपना अभिमान भूल कर रसोई का काम और भाईबहनों को संभालने लगीं. नौकरों की रेलपेल तो खाने, उड़ाने भर को थी.

नानाजी ने कई बार कोठी में ही आ कर रहने का आग्रह किया था, परंतु स्वाभिमानी पिताजी इस बात को कहां गवारा कर सकते थे? बहुत जिद कर के  नानाजी ने करीब की कोठी कम किराए पर लेने की पेशकश की, परंतु मां पति के विरुद्ध कैसे जातीं?

फिर पिताजी की बदली दूसरे शहर में हो गई, पर घर में शादी, मुंडन, नामकरण या अन्य कोई भी समारोह होने पर नानाजी मां को महीना भर पहले बुलावा भेजते, ‘तुम्हारे बिना कौन सब संभालेगा?’

यह सच भी था. उन का तर्क सुन कर मां को जाना ही पड़ता था.

असुविधाओं के बावजूद मां अपना पुराना सा सूटकेस बांध कर, मुझे ले कर बस में बैठ जातीं. बस चलने पर पिताजी से कहती जातीं, ‘अपना ध्यान रखना.’

कभीकभी उन की गीली आंखें देख कर मैं हैरान हो जाती थी, क्या बडे़ लोग भी रोते हैं? मुझे तो रोते देख कर मां कितना नाराज होती हैं, ‘छि:छि:, बुरी बात है, आंखें दुखेंगी,’ अब मैं मां से क्या कहूं?

सोचतेसोचते मैं मां की गोद में आंचल से मुंह ढक कर सो जाती थी. आंख खुलती सीधी दहीभल्ले वाले की आवाज सुन कर. एक दोना वहीं खाती और एक दोना कुरकुरे भल्लों के ऊपर इमली की चटनी डलवा रास्ते में खाने के लिए रख लेती. गला खराब होगा, इस की किसे चिंता थी.

कोठी में आ कर नानाजी हमें हाथोंहाथ लेते. मां को तो फिर दम मारने की भी फुरसत नहीं रहती थी. बाजार का, घर का सारा काम वही देखतीं. हम सब बच्चे, ममेरे, मौसेरे बहनभाई वानर सेना की तरह कोठी के आसपास फैले लंबेचौड़े बाग में ऊधम मचाते रहते थे.

आज भी मैं, रिंपी, डिंकी, पप्पी और अन्य कई लड़कियां उस शामियाने की ओर चल दीं जहां परंपरागत गीत गाने के लिए आई महिलाएं बैठी थीं. बीच में ढोलकी कसीकसाई पड़ी थी पर बजाने की किसे पड़ी थी. पेशेवर गानेवालियां गा कर थक कर चाय की प्रतीक्षा कर रही थीं.

सभी महिलाएं अपनी चकमक करती कीमती साडि़यां संभाले गपशप में लगी थीं. हम सब बच्चे दरी पर बैठ कर ठुकठुक कर के ढोलकी बजाने का शौक पूरा करने लगे. मैं ने बजाने के लिए चम्मच हाथ में ले लिया. ठकठक की तीखी आवाज गूंजने लगी. नगेंद्र मामा की डिंकी व रिंपी के विदेशी फीते वाले झालरदार नायलोनी फ्राक गुब्बारे की तरह फूल कर फैले हुए थे.

पप्पी व पिंकी के साटन के गरारे खेलकूद में हमेशा बाधा डालते थे, सो अब उन्हें समेट कर घुटनों से ऊपर उठा कर बैठी हुई थीं. गोटे की किनारी वाले दुपट्टे गले में गड़ते थे, इसलिए कमर पर उन की गांठ लगा कर बांध रखे थे.

इन सब बनीठनी परियों सी मौसेरी, ममेरी बहनों में मेरा साधारण छपाई का सूती फ्राक अजीब सा लग रहा था. पर मुझे इस का कहां ज्ञान था. बाल मन अभी आभिजात्य की नापजोख का सिद्धांत नहीं जान पाया था. जहां प्रेम के रिश्ते हीरेमोती की मालाओं में बंधे विदेशी कपड़ों में लिपटे रहते हों वहां खून का रंग भी शायद फीका पड़ जाता है.

रूपा मामी चम्मच के ढोलकी पर बजने की ठकठक से तंग आ गई थीं. मुझे याद है, सब औरतें मग्न भाव से उन के लंदन प्रवास के संस्मरण सुन रही थीं. अपने शब्द प्रवाह में बाधा पड़ती देख वह मुझ से बोलीं, ‘अप्पू, जा न, मां से कह कर कपडे़ बदल कर आ.’

हतप्रभ सी हो कर मैं ने अपनी फ्राक की ओर देखा. ठीक तो है, साफसुथरा, इस्तिरी किया हुआ, सफेद, लाल, नीले फूलों वाला मेरा फ्राक.

किसी अन्य महिला ने पूछा, ‘यह रत्ना की बेटी है क्या?’

‘हां,’ मामी का स्वर तिरस्कारयुक्त था.

‘तभी…’ एक गहनों से लदी जरी की साड़ी पहने औरत इठलाई.

इस ‘तभी’ ने मुझे अपमान के गहरे सागर में कितनी बार गले तक डुबोया था, पर मैं क्या समझ पाती कि रत्ना की बेटी होना ही सब प्रकार के व्यंग्य का निशाना क्यों बनता है?

समझी तो वर्षों बाद थी, उस समय तो केवल सफेद चमकती टाइलों वाली रसोई में जा कर खट्टे चनों पर मसाला बुरकती मां का आंचल पकड़ कर कह पाई थी, ‘मां, रूपा मामी कह रही हैं, कपड़े बदल कर आ.’

मां ने विवश आंखों में छिपी नमी किस चतुराई से पलकें झपका कर रोक ली थी. कमरे में आ कर मुझे नया फ्राक पहना दिया, जो शायद अपनी पुरानी टिशू की साड़ी फाड़ कर दावत के दिन पहनने के लिए बनाया था.

‘दावत वाले दिन क्या पहनूंगी?’ इस चिंता से मुक्त मैं ठुमकतीकिलकती फिर ढोलक पर आ बैठी. रूपा मामी की त्योरी चढ़ गईं, साथ ही साथ होंठों पर व्यंग्य की रेखा भी खिंच गई.

‘मां ने अपनी साड़ी से बना दिया है क्या?’ नाश्ते की प्लेट चाटते मामी बोलीं. वही नाश्ता जो दोपहर भर रसोई में फुंक कर मां ने बनाया था. मैं शामियाने से उठ कर बाहर आ गई.

सेहराबंदी, घुड़चढ़ी, सब रस्में मैं ने अपने छींट के फ्राक में ही निभा दीं. फिर मेहमानों में अधिक गई ही नहीं. दावत वाले दिन घर में बहुत भीड़भाड़ थी. करीबकरीब सारे शहर को ही न्योता था. हम सब बच्चे पहले तो बैंड वाले का गानाबजाना सुनते रहे, फिर कोठी के पिछवाड़े बगीचे में देर तक खेलते रहे.

फिर बाग पार कर दूर बने धोबियों के घरों की ओर निकल आए. पुश्तों से ये लोग यहीं रहते आए थे. अब शहर वालों के कपड़े भी धोने ले आते थे. बदलते समय व महंगाई ने पुराने सामंती रिवाज बदल डाले थे. यहीं एक बड़ा सा पक्का हौज बना हुआ था, जिस में पानी भरा रहता था.

यहां सन्नाटा छाया हुआ था. धोबियों के परिवार विवाह की रौनक देखने गए हुए थे. हम सब यहां देर तक खेलते रहे, फिर हौज के किनारे बनी सीढि़यां चढ़ कर मुंडेर पर आ खडे़ हुए. आज इस में पानी लबालब भरा था. रिंपी और पप्पी रोब झाड़ रही थीं कि लंदन में उन्होंने तरणताल में तैरना सीखा है. बाकी हम में से किसी को भी तैरना नहीं आता था.

डिंकी ने चुनौती दी थी, ‘अच्छा, जरा तैर कर दिखाओ तो.’

‘अभी कैसे तैरूं? तैरने का सूट भी तो नहीं है,’ पप्पी बोली थी.

‘खाली बहाना है, तैरनावैरना खाक आता है,’ रीना ने मुंह चिढ़ाया.

तभी शायद रिंपी का धक्का लगा और पप्पी पानी में जा गिरी.

हम सब आश्वस्त थे कि उसे तैरना आता है, अभी किनारे आ लगेगी, पर पप्पी केवल हाथपैर फटकार कर पानी में घुसती जा रही थी. सभी डर कर भाग खड़े हुए. फिर मुझे ध्यान आया कि जब तक कोठी पर खबर पहुंचेगी, पप्पी शायद डूब ही जाए.

मैं ने चिल्ला कर सब से रुकने को कहा, पर सब के पीछे जैसे भूत लगा था. मैं हौज के पास आई. पप्पी सचमुच डूबने को हो रही थी. क्षणभर को लगा, ‘अच्छा ही है, बेटी डूब जाए तो रूपा मामी को पता लगेगा. हमारा कितना मजाक उड़ाती रहती हैं. मेरा कितना अपमान किया था.’

तभी पप्पी मुझे देख कर ‘अप्पू…अप्पू…’ कह कर एकदो बार चिल्लाई. मैं ने इधरउधर देखा. एक कटे पेड़ की डालियां बिखरी पड़ी थीं. एक हलकी पत्तों से भरी टहनी ले कर मैं ने हौज में डाल दी और हिलाहिला कर उसे पप्पी तक पहुंचाने का प्रयत्न करने लगी. पत्तों के फैलाव के कारण पप्पी ने उसे पकड़ लिया. मैं उसे बाहर खींचने लगी. घबराहट के कारण पप्पी डाल से चिपकी जा रही थी. अचानक एक जोर का झटका लगा और मैं पानी में जा गिरी. पर तब तक पप्पी के हाथ में मुंडेर आ गई थी. मैं पानी में गोते खाती रही और फिर लगा कि इस 9-10 फुट गहरे हौज में ही प्राण निकल जाएंगे.

होश आया तो देखा शाम झुक आई थी. रूपा मामी वहीं घास पर मुझे बांहों में भरे बैठी थीं. उन की बनारसी साड़ी का पानी से सत्यानास हो चुका था. डाक्टर अपना बक्सा खोले कुछ ढूंढ़ रहा था. मां और पिताजी रोने को हो रहे थे.

‘बस, अब कोई डर की बात नहीं है,’ डाक्टर ने कहा तो मां ने चैन की सांस ली.

‘आज हमारी बहादुर अप्पू न होती तो जाने क्या हो जाता. पप्पी के लिए इस ने अपनी जान की भी परवा नहीं की,’ नगेंद्र मामा की आंखों में कृतज्ञता का भाव था.

मैं ने मां की ओर यों देखा जैसे कह रही हों, ‘तुम्हारा दिया अपराजिता नाम मैं ने सार्थक कर दिया, मां. आज मैं ने प्रतिशोध की भावना पर विजय पा ली.’

शायद मैं ने साथ ही साथ रूपा मामी के आभिजात्य के अहंकार को भी पराजित कर दिया था.

जल समाधि: आखिर क्यूं परेशान था सुशील? भाग 1

राममोहन पंचायत के जिला अध्यक्ष थे. उन्होंने जनता की भलाई के लिए अनेक काम करवाए थे और हमेशा ही सरकार की नई योजनाओं को आम जनता तक पहुंचाने के लिए आगे रहते थे, इसलिए जनता के बीच उन की इमेज भी अच्छी थी.

60 साल की उम्र में भी खानेपीने के शौकीन राममोहन के चेहरे पर एक हलकी सी मुसकराहट हमेशा ही फैली रहती थी, पर यह मुसकराहट तब न जाने कहां गायब हो जाती थी, जब उन का सामना अपने एकलौते बेटे सुशील से होता था. उसे देखते ही वे मुंह घुमा लेते थे. इस मनमुटाव की वजह यह थी कि सुशील के 2 बेटियां ही थीं. राममोहन को अपने वंश के खत्म हो जाने का डर सता रहा था. सुशील अपने एक दोस्त के साथ मिल कर एक एनजीओ चलाता था, जो अनाथ बच्चों को आश्रय देने और उन की पढ़ाई वगैरह का खर्च चलाती थी.

पिछली 2 बार से जब भी सुशील की बीवी रीता को बच्चा ठहरा था, तो उस ने पेट में पल रहे भ्रूण के लिंग की जांच करवाई थी. पेट में पल रहा बच्चा लड़की है, यह जानने के बाद सुशील और रीता ने पेट गिरा दिया और समय बीतने के बाद कहीं न कहीं सुशील के मन में यह बात घर कर गई थी कि उस के अंदर लड़का पैदा करने की ताकत नहीं है. लिहाजा, अब सुशील खुश भी नहीं रह पाता था. शाम को जल्दी ही खाना खा कर चादर ओढ़ कर सो जाता, न बेटियों के साथ हंसनाखेलना और न ही रीता के साथ कोई बातचीत. पर आज पता नहीं कैसे उस ने रीता से उस का हालचाल पूछ ही लिया, ‘‘क्या बात है रीता, इतनी टैंशन में क्यों रहती हो आजकल?’’

‘‘अब टैंशन मैं न लूं तो कौन ले… एक तो 2-2 लड़कियां और पिताजी को अपने वंश की चिंता… ताने तो मुझे सुनने पड़ते हैं न…’’ रीता ने कहा. रीता अपनी बेटियों के बारे में इसलिए भी चिंतित थी कि उन दोनों का रंग सांवला था और आजकल लोग गोरे रंग की लड़कियों से ही शादी करना पसंद करते हैं. लेकिन आज जैसे ही रीता ने टैलीविजन पर गोरा बनाने वाली क्रीम का इश्तिहार देखा, तो वह नुक्कड़ की दुकान पर क्रीम लेने चली गई.

इस दुकान पर प्रकाश नाम का एक 40 साल का दिलफेंक आदमी बैठता था. वह जाति से ब्राह्मण था और अपनी दुकान पर भी उस ने देवीदेवताओं की तसवीरें लगा रखी थीं. अपने गोरे चेहरे पर एक लंबा सा टीका लगा कर वह धार्मिक होने का दिखावा करता था. धर्म की आड़ ले कर ही तो बड़ेबड़े ओछे काम किए जाते हैं. जैसे ही रीता दुकान पर पहुंची, तो प्रकाश की आंखें उस के गदराए बदन का ऐक्सरे करने में जुट गईं. ‘‘अरे, आइए रीताजी, आप मेरी दुकान में आईं, तो इस दुकान के भाग्य  खुल गए…’’ रीता प्रकाश की यह बात सुन कर मुसकराए बिना न रह सकी और बिना कुछ कहे उस ने गोरा होने वाली क्रीम मांग ली. ‘‘आप तो इतनी खूबसूरत हैं, आप को भला किसी क्रीम की क्या जरूरत…’’

अपनी तारीफ सुनना तो हर औरत को अच्छा लगता है. रीता के मन में भी यह सुन कर एक गुदगुदी सी हुई थी. प्रकाश से क्रीम लेने के बाद रीता जैसे ही वापस मुड़ी, तो प्रकाश ने उसे अपनी दुकान का कार्ड देते हुए उसे बताया कि कार्ड पर उस का मोबाइल नंबर है. अगर उसे किसी भी चीज की जरूरत हो, तो वह उस प्रोडक्ट का नाम लिख कर भेज दे, तो वह ‘होम डिलीवरी’ करवा देगा, वह भी एकदम मुफ्त.

अपनी दोनों बेटियों के गालों पर रोजाना क्रीम लगाने के बाद रीता को महसूस हुआ कि उन की रंगत में कुछ सुधार तो जरूर हुआ है, इसलिए उस ने सोचा कि क्यों न एकाध क्रीम और मंगवा ले. उस ने मोबाइल से प्रकाश को क्रीम भेजने के लिए मैसेज कर दिया. मैसेज देखने के कुछ देर बाद ही खुद प्रकाश रीता के घर पहुंच गया. साथ ही, वह रीता की बेटियों के लिए चौकलेट और बिसकुट ले जाना नहीं भूला था. इस के बाद तो अगली सुबह से ही रीता के मोबाइल पर प्रकाश के गुड मौर्निंग वाले मैसेज आने लगे. बदले में रीता ने भी जवाब देना शुरू कर दिया था.

कुछ दिनों के बाद प्रकाश ने रीता को चुटकुले भेजने शुरू किए, तो रीता उन्हें पढ़ कर हंसती थी. धीरेधीरे वे चुटकुले नौनवैज चुटकुलों में बदल गए और रीता के मन को गुदगुदाने लगे. धीरेधीरे प्रकाश ने एक गंदी तसवीर भी रीता को भेजी और जैसे ही रीता ने उसे देखा, तो थोड़ी ही देर बाद प्रकाश ने उसे ‘डिलीट फौर एवरीवन’ की मदद से डिलीट कर दिया और माफी मांगते हुए अगला मैसेज कर दिया कि गलती से चला गया था. लेकिन कहीं न कहीं प्रकाश की यह गलती रीता को भी मन ही मन अच्छी तो लग ही रही थी.

एक सुबह की बात है. राममोहन अपने आंगन में आरामकुरसी पर बैठे हुए लोगों की समस्याएं सुलझा रहे थे कि तभी प्रकाश भी वहां आया और राममोहन के पैर छूने के बाद उस ने उन्हें बातोंबातों में बता दिया कि वह रीताजी के लिए कुछ ब्यूटी प्रोडक्ट्स लाया है. सुशील उस समय घर में नहीं था, फिर भी राममोहन ने उसे अंदर जाने की इजाजत दे दी. रीता और उस की बेटियों के साथ कुछ समय बिता कर प्रकाश वापस चला गया, मगर उस दिन के बाद से वह अकसर रीता के घर आनेजाने लगा और कई बार तो वह राममोहन के सामने ही घर आया, मगर राममोहन ने न तो कभी रीता के चरित्र पर शक किया और न ही प्रकाश को आने से रोका.

आज सुशील जल्दी ही बाहर चला गया था. दोनों बेटियां पास के घर में खेलने चली गई थीं कि तभी प्रकाश बेझिझक हो कर आ गया. रीता भी उसे देख कर नहीं चौंकी. ‘‘इस बार गेहूं की फसल बिलकुल भी अच्छी नहीं हुई,’’ प्रकाश के बैठते ही रीता ने कहा. ‘‘फसल तो तब अच्छी होगी, जब बीज अच्छा होगा… खाली खेत में हल चलाने से कुछ नहीं होगा,’’ प्रकाश ने रीता को ऊपर से नीचे की ओर घूरते हुए कहा. उन दोनों के बीच अब तक एक अलग ही रिश्ता पनप रहा था, जिसे मन ही मन में दोनों समझ रहे थे. प्रकाश ने  हाथ धोने के लिए जाते समय रीता के पास से गुजरते हुए अपनी कुहनी का दबाव उस के सीने पर बढ़ा दिया और जैसी कि प्रकाश को उम्मीद थी, रीता ने इस बात का कोई विरोध नहीं किया.

सहारे की तलाश: क्या प्रकाश को जिम्मेदार बना पाई वैभवी?- भाग 3

‘‘मां, चलने की तैयारी कर लो चुपचाप. यहां लंबा रहना संभव नहीं हो पाएगा. आप और पापा हमारे साथ चलिए, दिल्ली में अच्छी चिकित्सा सुविधा मिल जाएगी और पापा की देखभाल भी हो जाएगी, आप बिलकुल भी फिक्र मत करो, मां. सारी जिम्मेदारी हमारे ऊपर डाल कर निश्ंिचत रहो. पापा की देखभाल हमारी जिम्मेदारी है.’’ सास का मन बारबार भर रहा था. वे चुपचाप अपने कमरे में आ गईं. वैभवी भी अपने कमरे में गई और अटैची में कपड़े डालने लगी. प्रकाश सिटपिटाया सा चुपचाप बैठा था. वह स्वयं जानता था कि वह वैभवी को कुछ भी बोलने का अधिकार खो चुका है. अटैची पैक करतेकरते वैभवी चुपचाप प्रकाश को देखती रही. अपनी अटैची पैक कर के वैभवी प्रकाश की तरफ मुखातिब हुई, ‘‘तुम्हारी अटैची भी पैक कर दूं.’’

‘‘वैभवी, एक बार फिर से सोच लो, पापा को ऐसे छोड़ कर नहीं जा सकते हम. मुझे तो रुकना ही पड़ेगा, लेकिन नौकरी से इतनी लंबी छुट्टी मेरे लिए भी संभव नहीं है. मांपापा को साथ ले चलते हैं, वरना कैसे होगा उन का इलाज?’’

प्रकाश का गला भर्राया हुआ था. वह प्रकाश की आंखों में देखने लगी, वहां बादलों के कतरे जैसे बरसने को तैयार थे. अपने मातापिता से इतना प्यार करने वाला प्रकाश, आखिर उस के मातापिता के लिए इतना संवेदनहीन कैसे हो सकता है?

पिताजी की याद आते ही उस का मन एकाएक प्रकाश के प्रति कड़वाहट और नकारात्मक भावों से भर गया. लेकिन उस के संस्कार उसे इस की इजाजत नहीं देते थे. वह अपने सासससुर के प्रति ऐसी निष्ठुर नहीं हो सकती. कोई भी इंसान जो अपने ही मातापिता से प्यार नहीं कर सकता, वह दूसरों से क्या प्यार करेगा. और जो अपने मातापिता से प्यार करता हो, वह दूसरों के प्रति इतना संवेदनहीन कैसे हो सकता है? उसे अपनेआप में डूबा देख कर प्रकाश उस के सामने खड़ा हो गया, ‘‘बोलो वैभवी, क्या सोच रही हो, पापा को साथ ले चलें न? उस ने प्रकाश के चेहरे पर पलभर नजर गड़ाई, फिर तटस्थता से बोली, ‘‘टैक्सी बुक करवा लो जाने के लिए.’’

कह कर वह बाहर निकल गई. प्रकाश कुछ समझा, कुछ नहीं समझा पर फिर घर के माहौल से सबकुछ समझ गया. पर वैभवी उसे कुछ भी कहने का मौका दिए बगैर अपने काम में लगी हु थी. तीसरे दिन वे मम्मीपापा को ले कर दिल्ली चले गए. पापा की एंजियोप्लास्टी हुई, कुछ दिन अस्पताल में रहने के बाद पापा घर आ गए. उन की देखभाल वैभवी बहुत प्यार से कर रही थी. प्रकाश उस के प्रति कृतज्ञ हो रहा था. पर वह तटस्थ थी. उस के दिल का घाव भरा नहीं था. प्रकाश को तो उस के पिताजी की सेवा करने की भी जरूरत नहीं थी. उस ने तो सिर्फ औपरेशन के वक्त रह कर उन को सहारा भर देना था, जो वह नहीं दे पाया था. उस के भाई के लिए भलाबुरा कहने का भी प्रकाश का कोई अधिकार नहीं था. जबकि उस ने अपना भी हिस्सा ले कर भी अपना फर्ज नहीं निभाया था. ये सब सोच कर भी वैभवी के दिल के घाव पर मरहम नहीं लग पा रहा था. पापा की सेवा वह पूरे मनोयोग से कर रही थी, जिस से वह बहुत तेजी से स्वास्थ्य लाभ कर रहे थे. उस के सासससुर उस के पास लगभग 3 महीने रहे. उस के बाद सास जाने की पेशकश करने लगीं पर उस ने जाने नहीं दिया, कुछ दिनों के बाद उन्होंने जाने का निर्णय ले लिया. प्रकाश और वैभवी उन्हें देहरादून छोड़ कर कुछ दिन रुक कर, बंद पड़े घर को ठीकठाक कर वापस आ गए.

सबकुछ ठीक हो गया था पर उस के और प्रकाश के बीच का शीतयुद्ध अभी भी चल रहा था, उन के बीच की वह अदृश्य चुप्पी अभी खत्म नहीं हुई थी. प्रकाश अपराधबोध महसूस कर रहा था और सोच रहा था कि कैसे बताए वैभवी को कि उसे अपनी गलती का एहसास है. उस से बहुत बड़ी गलती हो गई थी. वह समझ रहा था कि इस तरह बच्चे मातापिता की जिम्मेदारी एकदूसरे पर डालेंगे तो उन की देखभाल कौन करेगा. कल यही अवस्था उन की भी होगी और तब उन के बेटाबेटी भी उन के साथ यही करें तो उन्हें कैसा लगेगा. एकाएक वैभवी की तटस्थता को दूर करने का उसे एक उपाय सूझा. वह वैभवी को टूर पर जाने की बात कह कर चंडीगढ़ चला गया. प्रकाश को गए हुए 2 दिन हो गए थे. शाम को वैभवी रात के खाने की तैयारी कर रही थी, तभी दरवाजे की घंटी बज उठी. उस ने जा कर दरवाजा खोला. सामने मांपिताजी खड़े थे.

‘‘मांपिताजी आप, यहां कैसे?’’ वह आश्चर्यचकित सी उन्हें देखने लगी.

‘‘हां बेटा, दामादजी आ गए और जिद कर के हमें साथ ले आए, कहने लगे अगर मुझे बेटा मानते हो तो चल कर कुछ महीने हमारे साथ रहो. दामादजी ने इतना आग्रह किया कि आननफानन तैयारी करनी पड़ी.’’

तभी उस की नजर टैक्सी से सामान उतारते प्रकाश पर पड़ी. वह पैर छू कर मांपिताजी के गले लग गई. उस की आंखें बरसने लगी थीं. पिताजी के गले मिलते हुए उस ने प्रकाश की तरफ देखा, प्रकाश मुसकराते हुए जैसे उस से माफी मांग रहा था. उस ने डबडबाई आंखों से प्रकाश की तरफ देखा, उन आंखों में ढेर सारी कृतज्ञता और धन्यवाद झलक रहा था प्रकाश के लिए. प्रकाश सोच रहा था उस के सासससुर कितने खुश हैं और उस के खुद के मातापिता भी कितने खुश हो कर गए हैं यहां से. जब अपनी पूरी जवानी मातापिता ने अपने बच्चों के नाम कर दी तो इस उम्र में सहारे की तलाश भी तो वे अपने बच्चों में ही करेंगे न, फिर चाहे वह बेटा हो या बेटी, दोनों को ही अपने मातापिता को सहारा देना ही चाहिए.

जो बीत गई सो बात गई- भाग 3

कुछ दिन बाद नंदिता ने फिर विशाल को फोन कर मिलने की बात की. विशाल ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि वह उस से मिलना नहीं चाहता. नंदिता ने सोचा विशाल को नाराज होने का अधिकार है, जल्द ही वह उसे मना लेगी.

फिर एक दिन वह अचानक उस के औफिस के नीचे खड़ी हो कर उस का इंतजार करने लगी.

विशाल आया तो नंदिता को देख कर चौंक गया, वह गंभीर बना रहा. बोला, ‘‘अचानक यहां कैसे?’’

नंदिता ने कहा, ‘‘विशाल, कभीकभी तो हम मिल ही सकते हैं. इस में क्या बुराई है?’’

‘‘नहीं नंदिता, अब सब कुछ खत्म हो चुका है. तुम ने यह कैसे सोच लिया कि मेरा जीवन तुम्हारे अनुसार चलेगा. पहले बिना यह सोचे कि मेरा क्या होगा, चुपचाप विवाह कर लिया और आज जब मुझे भूल नहीं पाई तो मेरे जीवन में वापस आना चाहती हो. तुम्हारे लिए दूसरों की इच्छाएं, भावनाएं, मेरा स्वाभिमान, सम्मान सब महत्त्वहीन है. नहीं नंदिता, मैं और नीता अपने जीवन से बेहद खुश हैं, तुम अपने परिवार में खुश रहो.’’

‘‘विशाल, क्या हम कहीं बैठ कर बात कर सकते हैं?’’

‘‘मुझे नीता के साथ कहीं जाना है, वह आती ही होगी.’’

‘‘उस के साथ फिर कभी चले जाना, मैं कब से तुम्हारा इंतजार कर रही थी, प्लीज…’’

नंदिता की बात खत्म होने से पहले ही पीछे से एक नारी स्वर उभरा, ‘‘फिर कभी क्यों, आज क्यों नहीं, मैं अपना परिचय खुद देती हूं, मैं हूं नीता, विशाल की पत्नी.’’

नंदिता हड़बड़ा गई. एक सुंदर, आकर्षक युवती सामने मुसकराती हुई खड़ी थी. नंदिता के मुंह से निकला, ‘‘मैं नंदिता, मैं…’’

नीता ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘जानती हूं, विशाल ने मुझे आप के बारे में सब बता रखा है.’’

नंदिता पहले चौंकी, फिर सहज होने का प्रयत्न करती हुई बोली, ‘‘ठीक है, आप लोग अभी कहीं जा रहे हैं, फिर मिलते हैं.’’

नीता ने गंभीरतापूर्वक कहा, ‘‘नहीं नंदिता, हम फिर मिलना नहीं चाहेंगे और अच्छा होगा कि आप भी एक औरत का, एक पत्नी का, एक मां का स्वाभिमान, संस्कारों और कर्तव्यों का मान रखो. जो कुछ भी था उसे अब भूल जाओ. जो बीत गया, वह कभी वापस नहीं आ सकता, गुडबाय,’’ कहते हुए नीता आगे बढ़ी तो अब तक चुपचाप खड़े विशाल ने भी उस के पीछे कदम बढ़ा दिए.

नंदिता वहीं खड़ी की खड़ी रह गई. फिर थके कदमों से गाड़ी में बैठी तो ड्राइवर ने गाड़ी आगे बढ़ा दी.

वह अपने विचारों के आरोहअवरोह में चढ़तीउतरती रही. सोच रही थी जिस की छवि उस ने कभी अपने मन से धूमिल नहीं होने दी, उसी ने अपने जीवनप्रवाह में समयानुकूल संतुलन बनाते हुए अपने व्यस्त जीवन से उसे पूर्णतया निकाल फेंका था.

जिस रिश्ते को कभी जीवन में कोई नाम न मिल सका, उस से चिपके रहने के बदले विशाल को जीवन की सार्थकता आगे बढ़ने में ही लगी, जो उचित भी था जबकि वह आज तक उसी टूटे बिखरे रिश्ते से चिपकी थी जहां से वह विशाल से 5 साल पहले अलग हुई थी.

नंदिता अपना विश्लेषण कर रही थी, आखिरकार वह क्यों भटक रही है, उसे किस चीज की कमी है? एक सुसंस्कृत, शिक्षित और योग्य पति है जो अच्छा पिता भी है और अच्छा इंसान भी. प्यारी बेटी है, घर है, समाज में इज्जत है. सब कुछ तो है उस के पास फिर वह खुश क्यों नहीं रह सकती?

घर पहुंचतेपहुंचते नंदिता समझ चुकी थी कि वह एक मृग की भांति कस्तूरी की खुशबू बाहर तलाश रही थी, लेकिन वह तो सदा से उस के ही पास थी.

घर आने तक वह असीम शांति का अनुभव कर रही थी. अब उस के मन और मस्तिष्क में कोई दुविधा नहीं थी. उसे लगा जीवन का सफर भी कितना अजीब है, कितना कुछ घटित हो जाता है अचानक.

कभी खुशी गम में बदल जाती है तो कभी गम के बीच से खुशियों का सोता फूट पड़ता है. गाड़ी से उतरने तक उस के मन की सारी गांठें खुल गई थीं. उसे बच्चन की लिखी ‘जो बीत गई सो बात गई…’ पंक्ति अचानक याद हो आई.

जिस गली जाना नहीं: क्या हुआ था सोम के साथ- भाग 2

चाची का रुंधा स्वर बहुत याद आता है उसे. उस के बाद चाची से मिला ही कब. उन की मृत्यु का समाचार मिला था. चाचा से अफसोस के दो बोल बोल कर साथ कर्तव्य की इतिश्री कर ली थी. इतना तेज भाग रहा था कि रुक कर पीछे देखना भी गवारा नहीं था. मोहममता को नकार रहा था और आज उसी मोह को तरस रहा है. मोहममता जी का जंजाल है मगर एक सीमा तक उस की जरूरत भी तो है. मोह न होता तो उस की चाची उसे सदा खुश रहने का आशीष कभी न देती. उस के उस व्यवहार पर भी इतना मीठा न बोलती. मोह न हो तो मां अपनी संतान के लिए रातभर कभी न जागे और अगर मोह न होता तो आज वह भी अपनी संतान को याद करकर के अवसाद में न जाता. क्या नहीं किया था सोम ने अपने बेटे के लिए.

विदेशी संस्कार नहीं थे, इसलिए कह सकता है अपना खून पिलापिला कर जिसे पाला वही तलाक होते

ही मां की उंगली पकड़ चला गया. मुड़ कर देखा भी नहीं निर्मोही ने. उसे जैसे पहचानता ही नहीं था. सहसा उस पल अपना ही चेहरा शीशे में नजर आया था.

‘जिस गली जाना नहीं उस गली की तरफ देखना भी क्यों?’

उस के हर सवाल का जवाब वक्त ने बड़ी तसल्ली के साथ थाली में सजा कर उसे दिया है. सुना था इस जन्म का फल अगले जन्म में मिलता है अगर अगला जन्म होता है तो. सोम ने तो इसी जन्म में सब पा भी लिया. अच्छा ही है इस जन्म का कर्ज इसी जन्म में उतर जाए, पुनर्जन्म होता है, नहीं होता, कौन जाने. अगर होता भी है तो कर्ज का भारी बोझ सिर पर ले कर उस पार भी क्यों जाना. दीवाली और नजदीक आ गई. मात्र 5 दिन रह गए. सोम का अजय से मिलने को बहुत मन होने लगा. मां और बाबूजी उसे बारबार पोते व बहू से बात करवाने को कह रहे हैं पर वह टाल रहा है. अभी तक बता ही नहीं पाया कि वह अध्याय समाप्त हो चुका है.

किसी तरह कुछ दिन चैन से बीत जाएं, फिर उसे अपने मांबाप को रुलाना ही है. कितना अभागा है सोम. अपने जीवन में उस ने किसी को सुख नहीं दिया. न अपनी जन्मदाती को और न ही अपनी संतान को. वह विदेशी परिवेश में पूरी तरह ढल ही नहीं पाया. दो नावों का सवार रहा वह. लाख आगे देखने का दावा करता रहा मगर सत्य यही सामने आया कि अपनी जड़ों से कभी कट नहीं पाया. पत्नी पर पति का अधिकार किसी और के साथ बांट नहीं पाया. वहां के परिवेश में परपुरुष से मिलना अनैतिक नहीं है न, और हमारे घरों में उस ने क्या देखा था चाची और मां एक ही पति को सात जन्म तक पाने के लिए उपवास रखती हैं. कहां सात जन्म तक एक ही पति और कहां एक ही जन्म में 7-7 पुरुषों से मिलना. ‘जिस गली जाना नहीं उस गली की तरफ देखना भी क्यों’ जैसी बात कहने वाला सोम आखिरकार अपनी पत्नी को ले कर अटक गया था. सोचने लगा था, आखिर उस का है क्या, मांबाप उस ने स्वयं छोड़ दिए  और पत्नी उस की हुई नहीं. पैर का रोड़ा बन गया है वह जिसे इधरउधर ठोकर खानी पड़ रही है. बहुत प्रयास किया था उस ने पत्नी को समझाने का.

‘अगर तुम मेरे रंग में नहीं रंग जाते तो मुझ से यह उम्मीद मत करो कि मैं तुम्हारे रंग में रंग जाऊं. सच तो यह है कि तुम एक स्वार्थी इंसान हो. सदा अपना ही चाहा करते हो. अरे जो इंसान अपनी मिट्टी का नहीं हुआ वह पराई मिट्टी का क्या होगा. मुझ से शादी करते समय क्या तुम्हें एहसास नहीं था कि हमारे व तुम्हारे रिवाजों और संस्कृति में जमीनआसमान का अंतर है?’

अंगरेजी में दिया गया पत्नी का उत्तर उसे जगाने को पर्याप्त था. अपने परिवार से बेहद प्यार करने वाला सोम बस यही तो चाहता था कि उस की पत्नी, बस, उसी से प्रेम करे, किसी और से नहीं. इस में उस का स्वार्थ कहां था? प्यार करना और सिर्फ अपनी ही बना कर रखना स्वार्थ है क्या?

स्वार्थ का नया ही अर्थ सामने चला आया था. आज सोचता है सच ही तो है, स्वार्थी ही तो है वह. जो इंसान अपनी जड़ों से कट जाता है उस का यही हाल होना चाहिए. उस की पत्नी कम से कम अपने परिवेश की तो हुई. जो उस ने बचपन से सीखा कम से कम उसे तो निभा रही है और एक वह स्वयं है, धोबी का कुत्ता, घर का न घाट का. न अपनों से प्यार निभा पाया और न ही पराए ही उस के हुए. जीवन आगे बढ़ गया. उसे लगता था वह सब से आगे बढ़ कर सब को ठेंगा दिखा सकता है. मगर आज ऐसा लग रहा है कि सभी उसी को ठेंगा दिखा रहेहैं. आज हंसी आ रही है उसे स्वयं पर. पुन: उसी स्थान पर चला आया है जहां आज से 10 साल पहले खड़ा था. एक शून्य पसर गया है उस के जीवन में भी और मन में भी.

शाम होते ही दम घुटने लगा, चुपचाप छत पर चला आया. जरा सी ताजी हवा तो मिले. कुछ तो नया भाव जागे जिसे देख पुरानी पीड़ा कम हो. अब जीना तो है उसे, इतना कायर भी नहीं है जो डर जाए. प्रकृति ने कुछ नया तो किया नहीं, मात्र जिस राह पर चला था उसी की मंजिल ही तो दिखाई है. दिल्ली की गाड़ी में बैठा था तो कश्मीर कैसे पहुंचता. वहीं तो पहुंचा है जहां उसे पहुंचना चाहिए था.

छत पर कोने में बने स्टोररूम का दरवाजा खोला सोम ने. उस के अभाव में मांबाबूजी ने कितनाकुछ उस में सहेज रखा है. जिस की जरूरत है, जिस की नहीं है सभी साथसाथ. सफाई करने की सोची सोम ने. अच्छाभला हवादार कमरा बरबाद हो रहा है. शायद सालभर पहले नीचे नई अलमारी बनवाई गई थी जिस से लकड़ी के चौकोर तिकोने, ढेर सारे टुकड़े भी बोरी में पड़े हैं. कैसी विचित्र मनोवृत्ति है न मुनष्य की, सब सहेजने की आदत से कभी छूट ही नहीं पाता. शायद कल काम आएगा और कल का ही पता नहीं होता कि आएगा या नहीं और अगर आएगा तो कैसे आएगा.

4 दिन बीत गए. आज दीवाली है. सोम के ही घर जा पहुंचा अजय. सोम से पहले वही चला आया, सुबहसुबह. उस के बाद दुकान पर भी तो जाना है उसे. चाची ने बताया वह 4 दिन से छत पर बने कमरे को संवारने में लगा है.

‘‘कहां हो, सोम?’’

चौंक उठा था सोम अजय के स्वर पर. उस ने तो सोचा था वही जाएगा अजय के घर सब से पहले.

‘‘क्या कर रहे हो, बाहर तो आओ, भाई?’’

ऐताहासिक कहानी: वंश की मर्यादा- भाग 3

हरावल में रहने की जिम्मेदारी हर किसी को नहीं मिल सकती, इसलिए आप को पूरी जिम्मेदारी निभानी है. मातृभूमि के लिए मरने वाले अमर हो जाते हैं अत: मरने से किसी को डरने की कोई जरूरत नहीं. अब खींचो अपने घोड़ों की लगाम और चढ़ा दो मराठा

सेना पर.’’

माजीसा ने भी अन्य वीरों की तरह एक हाथ से तलवार उठाई और दूसरे हाथ से घोड़े की लगाम खींच घोड़े को एड़ लगा दी. युद्ध शुरू हुआ, तलवारें टकराने लगीं. खच्चखच्च कर सैनिक कटकट कर गिरने लगे. तोपों, बंदूकों की आवाजें गूजने लगीं. हरहर महादेव के नारों से यह भूमि गूंज उठी.

माजीसा भी बड़ी फुरती से पूरी तन्मयता के साथ तलवार चला दुश्मन के सैनिकों को काटते हुए उन की संख्या कम कर रही थीं कि तभी किसी दुश्मन ने पीछे से उन पर भाले का एक वार किया. भाला उन की पसलियां चीरता हुआ निकल गया और तभी माजीसा के हाथ से घोड़े की लगाम छूट गई और वे धम्म से नीचे गिर गईं.

 

सांझ हुई तो युद्ध बंद हुआ और साथी सैनिकों ने उन्हें अन्य घायल सैनिकों के साथ उठा कर वैद्यजी के शिविर में इलाज के लिए पहुंचाया. वैद्यजी घायल माजीसा की मरहमपट्टी करने ही लगे थे कि उन के सिर पर पहने लोहे के टोपे से निकल रहे लंबे केश दिखाई दिए.

वैद्यजी देखते ही समझ गए कि यह तो कोई औरत है. बात राणाजी तक पहुंची, ‘‘घायलों में एक औरत! पर कौन? कोई नहीं जानता. पूछने पर अपना नाम व परिचय भी नहीं बता रही.’’

सुन कर राणाजी खुद चिकित्सा शिविर में पहुंचे. उन्होंने देखा कि औरत जिरह वस्त्र पहले खून से लथपथ पड़ी थी. पूछा, ‘‘कृपया बिना कुछ छिपाए सचसच बताएं. आप यदि दुश्मन खेमे से भी होंगी, तब भी मैं आप का अपनी बहन के समान आदर करूंगा.

अत: बिना किसी डर और संकोच के

सचसच बताएं.’’

घायल माजीसा ने जबाब दिया, ‘‘कोसीथल ठाकुर साहब की मां हूं अन्नदाता.’’

सुनकर राणाजी आश्चर्यचकित हो गए, ‘‘आप युद्ध में क्यों आ गईं?’’

‘‘अन्नदाता का हुक्म था कि सभी जागीरदारों को युद्ध में शामिल होना है और जो नहीं होगा, उस की जागीर जब्त कर ली जाएगी. कोसीथल जागीर का ठाकुर मेरा बेटा अभी मात्र 2 साल का है अत: वह अपनी फौज का नेतृत्व करने में सक्षम नहीं, सो अपनी फौज का नेतृत्व करने के लिए मैं युद्ध में शामिल हुई.

‘‘यदि अपनी फौज के साथ मैं हाजिर नहीं होती तो मेरे बेटे पर देशद्रोह व हरामखोरी का आरोप लगता और उस की जागीर भी जब्त होती. यह हमारे वंश की मर्यादा के अनुकूल नहीं होता. इस कारण वंश की मर्यादा की रक्षा के लिए मुझे युद्ध में भाग लेना पड़ा.’’

माजीसा के वचन सुन कर राणाजी के मन में उठे करुणा व अपने ऐसे सामंतों पर गर्व के लिए आंखों में आंसू छलक आए. खुशी से गदगद हो राणा बोले, ‘‘धन्य हैं आप जैसी मातृशक्ति! मेवाड़ की आज बरसों से जो आनबान बची हुई है, वह आप जैसी देवियों के प्रताप से ही बची हुई है. आप जैसी देवियों ने ही मेवाड़ का सिर ऊंचा रखा हुआ है. जब तक आप जैसी देवी माताएं इस मेवाड़ भूमि पर रहेंगी, तब तक कोई माई का लाल मेवाड़ का सिर नहीं झुका सकता.

‘‘मैं आप की वीरता, साहस और देशभक्ति को नमन करते हुए इसे इज्जत देने के लिए अपनी ओर से कुछ ईनाम देना चाहता हूं. यदि आप की इजाजत हो तो. सो अपनी इच्छा बताएं कि आप को ऐसा क्या दिया जाए, जो आप की इस वीरता के लायक हो.’’

माजीसा सोच में पड़ गईं. आखिर मांगे तो भी क्या मांगें. आखिर वे बोलीं, ‘‘अन्नदाता, यदि कुछ देना ही है तो कुछ ऐेसा दें, जिस से मेरे बेटे कहीं बैठें तो सिर ऊंचा कर बैठैं.’’

राणाजी बोले, ‘‘आप को हुंकार की कलंगी बख्शी जाती है, जिसे आप का बेटा ही नहीं, उस की पीढि़यों के वंशज भी उस कलंगी को पहन अपना सिर ऊंचा कर आप की वीरता को याद रखेंगे.’’

सुन कर माजीसा बोलीं, ‘‘धन्य हो आप अन्नदाता, धन्य हो.’’

‘‘धन्य तो आप हैं जिस ने वंश की मर्यादा बचाने के लिए अपने प्राणों की भी परवाह नहीं की. आप से बढ़ कर वीर कोई नहीं.’’ राणाजी ने कहा.

माजीसा के वंशज उस कलंगी को पहन कर अपना सिर गर्व से ऊंचा रखते हैं. यह कलंगी की निशानी सैकड़ों वर्षों बाद आज भी माजीसा की वीरता की याद दिलाती है.

अंत भला तो सब भला- भाग 3

‘‘न… नो, सर. मैं रविवार की सुबह आप के घर आ जाऊंगी,’’ कहते हुए संगीता का पूरा शरीर ठंडे पसीने से नहा गया था. उस के साथ उमेश साहब के घर चलने के लिए हर कोई तैयार था पर संगीता सारे कागज ले कर वहां अकेली पहुंची. उन के घर में कदम रखते हुए वह शर्म के मारे खुद को जमीन में गड़ता महसूस कर रही थी. उमेश साहब की पत्नी शिखा का सामना करने की कल्पना करते ही उस का शरीर कांप उठता था. रवि के मुंबई जाने से कुछ दिन पूर्व ही वह शिखा से पहली बार मिली थी. उस मुलाकात में जो घटा था, उसे याद करते ही उस का दिल किया कि वह उलटी भाग जाए. लेकिन अपना काम कराने के लिए उसे उमेश साहब के घर की दहलीज लांघनी ही पड़ी.

अचानक उस दिन का घटना चक्र उस की आंखों के सामने घूम गया. उस दिन रवि शिखा को एक स्कूल में इंटरव्यू दिलाने ले जा रहा था. रवि का बैंक उस स्कूल के पास ही था. उसे बैंक में कुछ पर्सनल काम कराने थे. जितनी देर में शिखा स्कूल में इंटरव्यू देगी, उतनी देर में वह बैंक के काम करा लेगा, ऐसा सोच कर रवि कुछ जरूरी कागज लेने शिखा के साथ अपने घर आया था. संगीता उस दिन अपनी मां से मिलने गई हुई थी. वह उस वक्त लौटी जब शिखा एक गिलास ठंडा पानी पी कर उन के घर से अकेली स्कूल जा रही थी. वह शिखा को पहचानती नहीं थी, क्योंकि उमेश साहब ने कुछ हफ्ते पहले ही अपना पदभार संभाला था.

‘‘कौन हो तुम  मेरे घर में किसलिए आना हुआ ’’ संगीता ने बड़े खराब ढंग से शिखा से पूछा था.

‘‘रवि और मेरे पति एक ही औफिस में काम करते हैं. मेरा नाम शिखा है,’’ संगीता के गलत व्यवहार को नजरअंदाज करते हुए शिखा मुसकरा उठी थी.

‘मेरे घर मेें तुम्हें मेरी गैरमौजूदगी में आने की कोई जरूरत नहीं है… अपने पति को धोखा देना है तो कोई और शिकार ढूंढ़ो…मेरे पति के साथ इश्क लड़ाने की कोशिश की तो मैं तुम्हारे घर आ कर तुम्हारी बेइज्जती करूंगी,’’ उसे यों अपमानित कर के संगीता अपने घर में घुस गई थी. तब उसे रोज लगता था कि रवि उस के साथ उस के गलत व्यवहार को ले कर जरूर झगड़ा करेगा पर शिखा ने रवि को उस दिन की घटना के बारे में कुछ बताया ही नहीं था. अब रवि की दिल्ली में बदली कराने के लिए उसे शिखा के पति की सहायता चाहिए थी. अपने गलत व्यवहार को याद कर के संगीता शिखा के सामने पड़ने से बचना चाहती थी पर ऐसा हो नहीं सका.

उन के ड्राइंगरूम में कदम रखते ही संगीता का सामना शिखा से हो गया.

‘‘मैं अकारण अपने घर आए मेहमान का अपमान नहीं करती हूं. तुम बैठो, वे नहा रहे हैं,’’ उसे यह जानकारी दे कर शिखा घर के भीतर चल दी.

‘‘प्लीज, आप 1 मिनट मेरी बात सुन लीजिए,’’ संगीता ने उसे अंदर जाने से रोका.

‘‘कहो,’’ अपने होंठों पर मुसकान सजा कर शिखा उस की तरफ देखने लगी.

‘‘मैं…मैं उस दिन के अपने खराब व्यवहार के लिए क्षमा मांगती हूं,’’ संगीता को अपना गला सूखता लगा.

‘‘क्षमा तो मैं तुम्हें कर दूंगी पर पहले मेरे एक सवाल का जवाब दो…यह ठीक है कि तुम मुझे नहीं जानती थीं पर अपने पति को तुम ने चरित्रहीन क्यों माना ’’ शिखा ने चुभते स्वर में पूछा.

‘‘उस दिन मुझ से बड़ी भूल हुई…वे चरित्रहीन नहीं हैं,’’ संगीता ने दबे स्वर में जवाब दिया.

‘‘मेरी पूछताछ का भी यही नतीजा निकला था. फिर तुम ने हम दोनों पर शक क्यों किया था ’’

‘‘उन दिनों मैं काफी परेशान चल रही थी…मुझे माफ कर…’’

‘‘सौरी, संगीता. तुम माफी के लायक नहीं हो. तुम्हारी उस दिन की बदतमीजी की चर्चा मैं ने आज तक किसी से नहीं की है पर अब मैं सारी बात अपने पति को जरूर बताऊंगी.’’

‘‘प्लीज, आप उन से कुछ न कहें.’’

‘‘मेरी नजरों में तुम कैसी भी सहायता पाने की पात्रता नहीं रखती हो. मुझे कई लोगों ने बताया है कि तुम्हारे खराब व्यवहार से रवि और तुम्हारे ससुराल वाले बहुत परेशान हैं. अपने किए का फल सब को भोगना ही पड़ता है, सो तुम भी भोगो. शिखा को फिर से घर के भीतरी भाग की तरफ जाने को तैयार देख संगीता ने उस के सामने हाथ जोड़ दिए, ‘‘मैं आप से वादा करती हूं कि मैं अपने व्यवहार को पूरी तरह बदल दूंगी…अपनी मां और बहन का कोई भी हस्तक्षेप अब मुझे अपनी विवाहित जिंदगी में स्वीकार नहीं होगा…मेंरे अकेलेपन और उदासी ने मुझे अपनी भूल का एहसास बड़ी गहराई से करा दिया है.’’

‘‘तब रवि जरूर वापस आएगा… हंसीखुशी से रहने की नई शुरुआत के लिए तुम्हें मेरी शुभकामनाएं संगीता…आज से तुम मुझे अपनी बड़ी बहन मानोगी तो मुझे बड़ी खुशी होगी.’’

‘‘थैंक यू, दीदी,’’ भावविभोर हो इस बार संगीता उन के गले लग कर खुशी के आंसू बहाने लगी थी. उमेश साहब के प्रयास से 4 दिन बाद रवि के दिल्ली तबादला होने के आदेश निकल गए. इस खबर को सुन कर संगीता अपनी सास के गले  लग कर खुशी के आंसू बहाने लगी थी. उसी दिन शाम को रवि के बड़े भैया उमेश साहब का धन्यवाद प्रकट करने उन के घर काजू की बर्फी के डिब्बे के साथ पहुंचे.

‘‘अब तो सब ठीक हो गया न राजेश ’’

‘‘सब बढि़या हो गया, सर. कुछ दिनों में रवि बड़ी पोस्ट पर यहीं आ जाएगा. संगीता का व्यवहार अब सब के साथ अच्छा है. अपनी मां और बहन के साथ उस की फोन पर न के बराबर बातें होती हैं. बस, एक बात जरा ठीक नहीं है, सर.’’

‘‘कौन सी, राजेश ’’

‘‘सर, संयुक्त परिवार में मैं और मेरा परिवार बहुत खुश थे. अपने फ्लैट में हमें बड़ा अकेलापन सा महसूस होता है,’’ राजेश का स्वर उदास हो गया.

‘‘अपने छोटे भाई के वैवाहिक जीवन को खुशियों से भरने के लिए यह कीमत तुम खुशीखुशी चुका दो, राजेश. अपने फ्लैट की किस्त के नाम पर तुम रवि से हर महीने क्व10 हजार लेने कभी बंद मत करना. यह अतिरिक्त खर्चा ही संगीता के दिमाग में किराए के मकान में जाने का कीड़ा पैदा नहीं होने देगा.’’

‘‘आप ठीक कह रहे हैं, सर. वैसे रवि से रुपए ले कर मैं नियमित रूप से बैंक में जमा कराऊंगा. भविष्य में इस मकान को तोड़ कर नए सिरे से बढि़या और ज्यादा बड़ा दोमंजिला मकान बनाने में यह पैसा काम आएगा. तब मैं अपना फ्लैट बेच दूंगा और हम दोनों भाई फिर से साथ रहने लगेंगे,’’ राजेश भावुक हो उठा. ‘‘पिछले दिनों रवि को मुंबई भेजने और तुम्हारे फ्लैट की किस्त उस से लेने की हम दोनों के बीच जो खिचड़ी पकी है, उस की भनक किसी को कभी नहीं लगनी चाहिए,’’ उमेश साहब ने उसे मुसकराते हुए आगाह किया. ‘‘ऐसा कभी नहीं होगा, सर. आप मेरी तरफ से शिखा मैडम को भी धन्यवाद देना. उन्होंने रवि के विवाहित जीवन में सुधार लाने का बीड़ा न उठाया होता तो हमारा संयुक्त परिवार बिखर जाता.’’

‘‘अंत भला तो सब भला,’’ उमेश साहब की इस बात ने राजेश के चेहरे को फूल सा खिला दिया था.

दादी अम्मा : आखिर कहां चली गई थी दादी अम्मा- भाग 2

सुलेमान बेग युवावस्था में रोजगार पाने की गरज से अपनी बीवी सकीना बेगम को ले कर इस शहर में आ गए थे. उस समय उन के पास एक संदूकिया और पुराना बिस्तर था. उन का पुश्तैनी घराना निर्धन था. यही मजबूरी उन्हें यहां ले आई थी. किसी मिलने वाले ने सुझाव दिया था कि यहां साहबों के बच्चों को ट्यूशन पढ़ा कर गुजरबसर कर सकते हैं. साहब खुश हो गए तो नौकरी भी मिल सकती है.

उस की बात सही निकली. सुलेमान बेग की मेहनत, लगन और सहयोगी व्यवहार से प्रभावित हो कर एक साहब ने 1 साल बीततेबीतते उन की तहसील में तीसरे दरजे की नौकरी भी लगवा दी. कुछ दिनों में सरकारी क्वार्टर भी मिल गया.

नौकरी और क्वार्टर मिलने की खुशी सुलेमान बेग से संभाली नहीं जा रही थी. पहले दिन क्वार्टर में घुसते ही सकीना बेगम को उन्होंने सीने से लगा लिया, ‘बेगम, मेरी जिंदगी में तुम्हारे कदम क्या पड़े, कामयाबी का पेड़ लग गया.’

‘यह सब आप की मेहनत का फल है. मैं तो यही चाहती हूं कि आप सलामत रहें. मेरी उम्र भी आप को लग जाए,’ भावावेश में सकीना बेगम की आंखों में आंसू छलक आए.

‘ऐसा न कहो, तुम हो तो यह घर है. नहीं तो कुछ भी नहीं होता,’ कहते हुए सुलेमान बेग ने उन का माथा चूम लिया.

सुलेमान बेग के 4 बच्चे हुए. 1 बेटी और उस के बाद 3 बेटे. वेतन कम होने से घर का खर्च बमुश्किल चल पाता था. दोनों पतिपत्नी ने अपना पेट काट कर बच्चों की परवरिश की थी. अपने शौकों को दबा कर बच्चों की ख्वाहिशें पूरी करने में लगे रहे. तबादले होते रहने की स्थिति में एक स्थायी निवास के लिए सुलेमान बेग ने जोड़तोड़ कर के 4 कमरों का घर बना लिया.

सुलेमान बेग का तबादला इधरउधर होता रहा. बच्चों के लिए घर पैसे भेजने के वास्ते किराए के एक कमरे में रहते, मलयेशिया के बने सस्ते कपड़े पहनते और स्वयं तवे पर दो रोटी डाल कर गुजरबसर करते. लेकिन इस का बुरा असर यह हुआ कि वे जबतब बीमार रहने लगे थे.

उन की अनुपस्थिति में सकीना बेगम ही बच्चों को बटोरे रहतीं. वे स्वयं ही घर का सारा कामकाज करतीं. चूल्हे पर सब का खाना बनातीं. कपड़े और बरतन धोतीं. पौ फटते ही उठ जातीं, गाय की सानी करतीं फिर साफसफाई करने के बाद बच्चों को रोटी और साग खिला कर स्कूल भेजतीं. कम वेतन में भी उन के त्याग ने घर को खुशियों से भर रखा था. कुछ बातें वे खुद ही सह लेतीं, पति और बच्चों पर जाहिर नहीं होने देतीं.

एक बार ईद के मौके पर पैसे की कुछ ज्यादा ही तंगी थी. लेकिन बच्चे इस से बेखबर नए कपड़ों की जिद करने लगे, ‘अम्मा, सभी संगीसाथी नएनए कपड़ों की शेखी बघार रहे हैं. हम उन से कम थोड़े ही हैं, ऐसे कपड़े बनवाएंगे कि सब देखते रह जाएंगे. है न अम्मीजान.’

सकीना बेगम को काटो तो खून नहीं. पिछले दिनों लाल गेहूं के पैसे भी कहां दिए थे दुकानदार को. बाद में कुछ और किराने का सामान भी उधार ही आया था. पति की बीमारी, बच्चों की पढ़ाई से आर्थिक तंगी और बढ़ चली थी. नकद सामान आता भी कहां से. बड़ी खुशामद के बाद किराने वाले ने मुंह बिगाड़ते हुए 1 किलो सेंवइयां दी थीं. ऐसे में कपड़ों के बारे में तो वे सोच भी नहीं सकती थीं. सोचा था, नील डाल कर कपड़े फींच देंगी, बच्चे गौर नहीं करेंगे, ऐसे ही टल जाएगी ईद. लेकिन…

बच्चों की बात सुन कर अपने को संयत कर उन्होंने दिलासा दी, ‘क्यों नहीं, हम क्या किसी से कम हैं. सब के कपड़े बनेंगे, आखिर सालभर में एक ही बार तो मीठी ईद आती है.’ बड़ी मुश्किल से उन्होंने बेटी के विवाह के लिए अपनी शादी में चढ़े चांदी के 2 जेवर बचा कर रखे थे. बिना किसी को बताए वे उन्हें गिरवीं रख कर स्वयं को छोड़ सब के कपड़े खरीद लाईं. सुलेमान बेग ने जब उन के कपड़ों के बारे में पूछा तो हंसती हुई बोलीं, ‘अरे, मैं तो घर में ही रहती हूं, मुझे किसी को दिखाना थोड़े ही है.’

सुलेमान बेग की नौकरी के चलते घर में न रहने और वेतन बहुत कम होने के बीच बड़ी कक्षाओं में आने पर 2 बड़े लड़के दूसरे शहर में ट्रेन से जा कर पढ़ने लगे तो उन पर और भार पड़ गया. बच्चों के बड़े होने पर जैसेतैसे जोड़गांठ कर जब उन्होंने बेटी का विवाह कर दिया तो कुछ चैन की सांस ली. तीनों बेटे भी बड़े थे, लेकिन धन के अभाव में उन के लिए रोटियां सेंकनी पड़तीं. चूल्हे में जब वे लोहे की फूंकनी से कंडों को सुलगाने के लिए फूंकतीं तो उन की सांस तो फूल ही जाती, साथ में धुएं और राख से आंखें भी लाल हो जातीं.

वैसे तो वे सहती रहतीं लेकिन उन का सब्र उस समय जवाब दे जाता जब गीली लकडि़यां सुलगने में बहुत देर लगातीं और फूंकनी फूंकतेफूंकते उन की जान कलेजे को आ जाती. ‘पता नहीं कब मुझे आराम नसीब होगा. लगता है मर कर ही चैन मिलेगा,’ कहते हुए वे देर तक बड़बड़ाती रहतीं.

बेटे उच्च शिक्षा तो नहीं ले पाए फिर भी सुलेमान बेग ने 2 बड़े बेटों को शहर में ही तृतीय श्रेणी की नौकरियों पर लगवा दिया और छोटे लड़के को मैडिकल स्टोर खुलवा दिया. आर्थिक स्थिति कुछ सुधरने पर जैसेतैसे जब बड़े बेटे रेहान की शादी हुई तो सकीना बेगम को लगा कि अब उन्हें रातदिन कोल्हू के बैल जैसी जिंदगी से छुटकारा मिल जाएगा. लेकिन जैसा सोचा था वैसा हुआ नहीं.

उदास क्षितिज की नीलिमा: आभा को बहू नीलिमा से क्या दिक्कत थी- भाग 1

‘यह नीलिमा भी कहां जा कर मर जाती है. कितनी बार कहा है कि नीरू के औफिस जाते ही हमें निकलना होगा. दिन चढ़ने से भगवान की सुबह की अर्चना खराब हो जाती है,’ यह बुदबुदाती 55 वर्षीया आभा अपनी बहू पर गरजतीबरसती पूजा की डलिया लिए दरवाजे पर तैयार खड़ी थीं.

पहले ही इन की पूजाअर्चना कुछ कम नहीं थी. घर में आधा दिन पूजापाठ, फिर नियमित मंदिर जाने की आदत से कई बार इन के पति झल्ला जाते थे. अब जब 2 साल पहले पति की मृत्यु और 6 महीने पहले इकलौते बेटे 30 साल के निरूपम के ब्याह हो जाने से इन की व्यस्तता कुछ कम हो गई है, तो पूजापाठ और कर्मकांड दोगुने हो गए हैं.

ये लोग रांची के पहाड़ी मंदिर के पास रहते हैं. नजदीक के विशाल पहाड़ पर स्थित शिव का मंदिर आभा के नित्य दर्शन का केंद्र है. अब पैरों में दर्द की वजह से रोजाना 700 सीढ़ियां चढ़ कर मंदिर तक पहुंचना संभव नहीं होता, इसलिए वे मंदिर प्रांगण में नीचे बरगद के चबूतरे पर बैठ बहू के पूजा कर के कर वापस आने का इंतजार करती हैं. और तब तक पंडित सेवाराम उन के साथ गपशप करते हुए उन की परेशानियां खरोंच कर निकालते व अगली किसी पूजा के लिए उन्हें तैयार करते रहते.

बहु नीलिमा तैयार हो कर अपने कमरे से बाहर आ गई थी. 22 साल की आकर्षक युवती जींस और टीशर्ट में बहुत प्यारी लग रही थी.

सास आभा बहू नीलिमा को देखते ही फट पड़ीं, “यह क्या पहन लिया तुम ने? अब तक तो साड़ी पहन कर ही चल रही थी. मंदिर जा रही हो, कोई डिस्को क्लब नहीं. बेशर्म, जाओ जल्दी, साड़ी पहन कर आओ.”

“मां, भगवान भी ड्रैस देख कर आशीष देते हैं क्या? ड्रैस में बदलाव तो खुद की खुशी के लिए है.”

“सास से जबान लड़ाती है, यही सिखा कर भेजा है तुम्हारे घर वालों ने? जल्दी साड़ी पहन कर आओ. लगता है निरूपम से तुम्हारी शिकायत करनी ही पड़ेगी.”

नीलिमा साड़ी पहन कर आ तो गई लेकिन रोजरोज की यह मुसीबत उसे भारी पड़ने लगी थी.

वह सोचती जा रही थी, कितनी उबाऊ दिनचर्या हो गई है उस की शादी के बाद.

सुबह से लगपड़ कर 9 बजे के अंदर पति को नाश्ता व खाना दे कर औफिस भेजो, रसोई और घर को व्यवस्थित कर नहाने जाओ, ब्याहता सा श्रृंगार कर हर दिन पहाड़ी पर मंदिर जाओ, फिर वापस भी इस जल्दी में आओ कि बरतन धोने वाली दीदी न चली जाए वापस. वरना घर आ कर बरतन, कपड़ा धोना, पोंछना… तब भी चैन कहां, आएदिन सास मंडली और उन के भजन कीर्तन… नाश्ता, खाना, साफसफाई में ही शाम हो आती.

उधर, पति भी चिलगोजे के बीज, मां के दुमछल्ले. दिमाग नाम की कोई चीज तो जैसे उस के पास है ही नहीं. 30 साल की उम्र है, साधारण नाकनक्श में आम सा दिखता इंसान कम से कम अगर दिमाग से पैदल न होता तो भी वह इस शादी को ले कर इतनी निराश न होती.

पति जब कुढ़मगज, तो सास के इस तरह की समय की बरबादी वाली नित्य क्रिया से छुट्टी कैसे मिले उसे.

किसी तरह औफिस का बंधाबंधाया काम निबटा कर जब निरूपम  घर आता तो मां के हुक्म बजाने और लोगों की मीनमेख निकालने में मां का साथ देने के सिवा वह करता भी क्या था.

मां ने पत्नी की उलटीसीधी शिकायत की नहीं कि, आव देखे न ताव पत्नी पर पड़े बरस.

फिर अगर पत्नी बिस्तर पर साथ देने को रुचि न दिखाए, तो दूसरी सुबह कमअक्ल इस बात की भी शिकायत मां के पास ले जाता.

अरे, कुछ बातें सिर्फ पतिपत्नी के बीच ही रहती हैं, इतनी भी समझ नहीं जिसे, उस से दिल जुड़े भी तो कैसे.

पूजा की थाली लिए साड़ी में लटपटाती नीलिमा 700 सीढ़ियां चढ़तीचढ़ती एक खाली पड़ी कील अपनी चप्पल में गड़वा बैठी. चप्पल से होते हुए कील के पैर के तलवे में चुभने से पैर में चोट के साथ मोच आ गई, सो अलग. ऊपर पहाड़ी मंदिर पहुंच कर वह जैसेतैसे नलके पर पहुंची.

विश्वास: क्या थी कहानी शिखा की – भाग 1

फोन पर ‘हैलो’ सुनते ही अंजलि ने अपने पति राजेश की आवाज पहचान ली.

राजेश ने अपनी बेटी शिखा का हालचाल जानने के बाद तनाव भरे स्वर में पूछा, ‘‘तुम यहां कब लौट रही हो?’’

‘‘मेरा जवाब आप को मालूम है,’’ अंजलि की आवाज में दुख, शिकायत और गुस्से के मिलेजुले भाव उभरे.

‘‘तुम अपनी मूर्खता छोड़ दो.’’

‘‘आप ही मेरी भावनाओं को समझ कर सही कदम क्यों नहीं उठा लेते हो?’’

‘‘तुम्हारे दिमाग में घुसे बेबुनियाद शक का इलाज कर ने को मैं गलत कदम नहीं उठाऊंगा…अपने बिजनेस को चौपट नहीं करूंगा, अंजलि.’’

‘‘मेरा शक बेबुनियाद नहीं है. मैं जो कहती हूं, उसे सारी दुनिया सच मानती है.’’

‘‘तो तुम नहीं लौट रही हो?’’ राजेश चिढ़ कर बोला.

‘‘नहीं, जब तक…’’

‘‘तब मेरी चेतावनी भी ध्यान से सुनो, अंजलि,’’ उसे बीच में टोकते हुए राजेश की आवाज में धमकी के भाव उभरे, ‘‘मैं ज्यादा देर तक तुम्हारा इंतजार नहीं करूंगा. अगर तुम फौरन नहीं लौटीं तो…तो मैं कोर्ट में तलाक के लिए अर्जी दे दूंगा. आखिर, इनसान की सहने की भी एक सीमा…’’

अंजलि ने फोन रख कर संबंधविच्छेद कर दिया. राजेश ने पहली बार तलाक लेने की धमकी दी थी. उस की आंखों में अपनी बेबसी को महसूस करते हुए आंसू आ गए. वह चाहती भी तो आगे राजेश से वार्तालाप न कर पाती क्योंकि उस के रुंधे गले से आवाज नहीं निकलती.

शिखा अपनी एक सहेली के घर गई हुई थी. अंजलि के मातापिता अपने कमरे में आराम कर रहे थे. अपनी चिंता, दुख और शिकायत भरी नाराजगी से प्रभावित हो कर वह बिना किसी रुकावट के कुछ देर खूब रोई.

रोने से उस का मन उदास और बोझिल हो गया. एक थकी सी गहरी आस छोड़ते हुए वह उठी और फोन के पास पहुंच कर अपनी सहेली वंदना का नंबर मिलाया.

राजेश से मिली तलाक की धमकी के बारे में जान कर वंदना ने उसे आश्वासन दिया, ‘‘तू रोनाधोना बंद कर, अंजलि. मेरे साहब घर पर ही हैं. हम दोनों घंटे भर के अंदर तुझ से मिलने आते हैं. आगे क्या करना है, इस की चर्चा आमने- सामने बैठ कर करेंगे. फिक्र मत कर, सब ठीक हो जाएगा.’’

वंदना उस के बचपन की सब से अच्छी सहेली थी. उस का व उस के पति कमल का अंजलि को बहुत सहारा था. उन दोनों के साथ अपने सुखदुख बांट कर ही पति से दूर वह मायके में रह रही थी. अपना मानसिक संतुलन बनाए रखने के लिए अंजलि जो बात अपने मातापिता से नहीं कह पाती, वह इन दोनों से बेहिचक कह देती.

राजेश से फोन पर हुई बातचीत का ब्योरा अंजलि से सुन कर वंदना चिंतित हो उठी तो उस के पति कमल की आंखों में गुस्से के भाव उभरे.

‘‘अंजलि, कोई चोर कोतवाल को उलटा नहीं धमका सकता है. राजेश को तलाक की धमकी देने का कोई अधिकार नहीं है. अगर वह ऐसा करता है तो समाज उसी के नाम पर थूथू करेगा,’’ कमल ने आवेश भरे लहजे में अपनी राय बताई.

‘‘मेरी समझ से हमें टकराव का रास्ता छोड़ कर राजेश से बात करनी चाहिए,’’ चिंता के मारे अपनी उंगलियां मरोड़ते हुए वंदना ने अपने मन की बात कही.

‘‘राजेश से बातचीत करने को अगर अंजलि उस के पास लौट गई तो वह अपने दोस्त की विधवा के प्रेमजाल से कभी नहीं निकलेगा. उस पर संबंध तोड़ने को दबाव बनाए रखने के लिए अंजलि का यहां रहना जरूरी है.’’

‘‘अगर राजेश ने सचमुच तलाक की अर्जी कोर्ट में दे दी तो क्या करेंगे हम? तब भी तो अंजलि

को मजबूरन वापस लौटना पडे़गा न.’’

‘‘मैं नहीं लौटूंगी,’’ अंजलि ने सख्त लहजे में उन दोनों को अपना फैसला सुनाया, ‘‘मैं 2 महीने अलग रह सकती हूं तो जिंदगी भर को भी अलग रह लूंगी. मैं जब चाहूं तब अध्यापिका की नौकरी पा सकती हूं. शिखा को पालना मेरे लिए समस्या नहीं बनेगा. एक बात मेरे सामने बिलकुल साफ है. अगर राजेश ने उस विधवा सीमा से अपने व्यक्तिगत व व्यावसायिक संबंध बिलकुल समाप्त नहीं किए तो वह मुझे खो देंगे.’’

वंदना व कमल कुछ प्रतिक्रिया दर्शाते, उस से पहले ही बाहर से किसी ने घंटी बजाई. अंजलि ने दरवाजा खोला तो सामने अपनी 16 साल की बेटी शिखा को खड़ा पाया.

‘‘वंदना आंटी और कमल अंकल आए हुए हैं. तुम उन के पास कुछ देर बैठो, तब तक मैं तुम्हारे लिए खाना लगा लाती हूं,’’ भावुकता की शिकार बनी अंजलि ने प्यार से अपनी बेटी के कंधे पर हाथ रखा.

‘‘मेरा मूड नहीं है, किसी से खामखां सिर मारने का. जब भूख होगी, मैं खाना खुद ही गरम कर के खा लूंगी,’’ बड़ी रुखाई से जवाब देने के बाद साफ तौर पर चिढ़ी व नाराज सी नजर आ रही शिखा अपने कमरे में जा घुसी.

अंजलि को उस का अचानक बदला व्यवहार बिलकुल समझ में नहीं आया. उस ने परेशान अंदाज में इस की चर्चा वंदना और कमल से की.

‘‘शिखा छोटी बच्ची नहीं है,’’ वंदना की आंखों में चिंता के बादल और ज्यादा गहरा उठे, ‘‘अपने मातापिता के बीच की अनबन जरूर उस के मन की सुखशांति को प्रभावित कर रही है. उस के अच्छे भविष्य की खातिर भी हमें समस्या का समाधान जल्दी करना होगा.’’

‘‘वंदना ठीक कह रही है, अंजलि,’’ कमल ने गंभीर लहजे में कहा, ‘‘तुम शिखा से अपने दिल की बात खुल कर कहो और उस के मन की बातें सहनशीलता से सुनो. मेरी समझ से हमारे जाने के बाद आज ही तुम यह काम करना. कोई समस्या आएगी तो वंदना और मैं भी उस से बात करेंगे. उस की टेंशन दूर करना हम सब की जिम्मेदारी है.’’

उन दोनों के विदा होने तक अपनी समस्या को हल करने का कोई पक्का रास्ता अंजलि के हाथ नहीं आया था. अपनी बेटी से खुल कर बात करने के  इरादे से जब उस ने शिखा के कमरे में कदम रखा, तब वह बेचैनी और चिंता का शिकार बनी हुई थी.

‘‘क्या बात है? क्यों मूड खराब है तेरा?’’ अंजलि ने कई बार ऐसे सवालों को घुमाफिरा कर पूछा, पर शिखा गुमसुम सी बनी रही.

‘‘अगर मुझे तू कुछ बताना नहीं चाहती है तो वंदना आंटी और कमल अंकल से अपने दिल की बात कह दे,’’  अंजलि की इस सलाह का शिखा पर अप्रत्याशित असर हुआ.

‘‘भाड़ में गए कमल अंकल. जिस आदमी की शक्ल से मुझे नफरत है, उस से बात करने की सलाह आज मुझे मत दें,’’  शिखा किसी ज्वालामुखी की तरह अचानक फट पड़ी.

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