क्यों, आखिर क्यों : भाग 1- मां की ममता सिर्फ बच्चे को देखती है

आज लगातार 7वें दिन भी जब मालती काम पर नहीं आई तो मेरा गुस्सा सातवां आसमान छू गया, खुद से बड़बड़ाती हुई बोली, ‘क्या समझती है वह अपनेआप को? उसे नौकरानी नहीं, घर की सदस्य समझा है. शायद इसीलिए वह मुझे नजरअंदाज कर रही है…आने दो उसे…इस बार मैं फैसला कर के ही रहूंगी…यदि वह काम करना चाहे तो सही ढंग से करे वरना…’ अधिक गुस्से के चलते मैं सही ढंग से सोच भी नहीं पा रही थी.

मालती बेहद विश्वासपात्र औरत है. उस के भरोसे घर छोड़ कर आंख मूंद कर मैं कहीं भी आजा सकती हूं. मेरी बच्चियों का अपनी औलाद की तरह ही वह खयाल रखती है. फिर यह सोच कर मेरा हृदय उस के प्रति थोड़ा पसीजा कि कोई न कोई उस की मजबूरी जरूर रही होगी वरना इस से पहले उस ने बिना सूचित किए कभी लंबी छुट्टी नहीं ली.

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मेरे मन ने मुझे उलाहना दिया, ‘राधिका, ज्यादा उदार मत बन. तू भी तो नौकरी करती है. घर और दफ्तर के कार्यों के बीच सामंजस्य बनाए रखने की हरसंभव कोशिश करती है. कई बार मजबूरियां तेरे भी पांव में बेडि़यां डाल कर तेरे कर्तव्य की राह को रोकती हैं…पर तू तो अपनी मजबूरियों की दुहाई दे कर दफ्तर के कार्य की अवहेलना कभी नहीं करती?’

दफ्तर से याद आया कि मालती के कारण मेरी भी 7 दिन की छुट्टी हो गई है. बौस क्या सोचेंगे? पहले 2 दिन, फिर 4 और अब 7 दिन के अवकाश की अरजी भेज कर क्या मैं अपनी निर्णय न ले पाने की कमजोरी जाहिर नहीं कर रही हूं?

तभी धड़ाम की आवाज के साथ ऋचा की चीख सुन कर मैं चौंक गई. मैं बेडरूम की ओर भागी. डेढ़ साल की ऋचा बिस्तर से औंधेमुंह जमीन पर गिर पड़ी थी. मैं ने जल्दीजल्दी उसे बांहों में उठाया और डे्रसिंग टेबल की ओर लपकी. जमीन से टकरा कर ऋचा के माथे की कोमल त्वचा पर गुमड़ उभर आया था. दर्द से रो रही ऋचा के घाव पर मरहम लगाया और उसे चुप कराने के लिए अपनी छाती से लगा लिया. मां की ममता के रसपान से सराबोर हो कर धीरेधीरे वह नींद के आगोश में समा गई.

फिर मुझे मालती की याद आ गई जिस की सीख की वजह से ही तो मैं अपनी दोनों बेटियों को स्तनपान का अधिकार दे पाई थी वरना मैं ने तो अपना फिगर बनाए रखने की दीवानगी में बच्चियों को अपनी छाती से लगाया ही न होता…सोच कर मेरी आंखों से 2 बूंदें कब फिसल पड़ीं, मैं जान न पाई.

ऋचा को बिस्तर पर लिटा कर मैं अपने काम में उलझ गई. हाथों के बीच तालमेल बनाती हुई मेरी विचारधारा भी तेजी से आगे बढ़ने लगी.

मां से ही जाना था कि जब मेरा जन्म हुआ था तब मां के सिर पर कहर टूट पड़ा था. रंग से तनिक सांवली थीं. अत: दादीजी को जब पता चला कि बेटी पैदा हुई है तो यह कह कर देखने नहीं गईं कि लड़की भी अपनी मां जैसी काली होगी, उसे क्या देखना? चाचीजी ने जा कर दादी को बताया, ‘मांजी, बच्ची एकदम गोरीचिट्टी, बहुत ही सुंदर है, बिलकुल आप पर गई है…सच…आप उसे देखेंगी तो अपनेआप को भूल जाएंगी.’

‘फिर भी वह है तो लड़की की जात…घर आएगी तब देख लूंगी,’ दादी ने घोषणा की थी.

मेरे भैया उम्र में मुझ से 3 साल बड़े थे…सांवले थे तो क्या? आगे चल कर वंश का नाम बढ़ाने वाले थे…अत: उन का सांवला होना क्षम्य था.

ज्योंज्यों मैं बड़ी होती गई, त्योंत्यों मेरी और भैया की परवरिश में भेदभाव किया जाने लगा. उन के लिए दूध, फल, मेवा, मिठाई सबकुछ और मेरे लिए सिर्फ दालचावल. यह दादी की सख्त हिदायत थी. वह मानती थीं कि लड़कियां बड़ी सख्त जान होती हैं, ऐसे ही बड़ी हो जाती हैं. लड़के नाजुक होते हैं, उन की परवरिश में कोई कमी नहीं होनी चाहिए. आखिर वही हमारे परिवार की शान में चार चांद लगाते हैं. बेटियां तो पराया धन होती हैं… कितना भी खिलाओपिलाओ, पढ़ाओ- लिखाओ…दूसरे घर की शोभा और वंश को आगे बढ़ाती हैं.

मम्मी और चाचीजी दोनों ही गांव की उच्चतर माध्यमिक पाठशाला में शिक्षिका थीं. वे सुबह 11 बजे जातीं और शाम साढ़े 6 बजे लौटतीं. मेरी देखभाल के लिए कल्याणी को नियुक्त किया गया था, लेकिन दादी उस से घर का काम करवातीं. बहुत छोटी थी तब भी मुझे एक कोने में पड़ा रहने दिया जाता. कई बार कपड़े गीले होते…पर कल्याणी को काम से इतनी फुर्सत ही नहीं मिलती कि वह मेरे गीले कपड़े बदल दे. एक बार इसी वजह से मैं गंभीर रूप से बीमार भी हो गई थी. बुखार का दिमाग पर असर हो गया था. मौत के मुंह से मुश्किल से बहार आई थी.

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इस हादसे की बदौलत ही मम्मी को पता चला था कि दादी के राज में मेरे साथ क्या अन्याय किया जा रहा था. तब मां दादी से नजरें बचा कर एक कोने में छिप कर खूब रोई थीं…पापा 1 महीने के दौरे पर से जब लौटे तब मां ने उन्हें सबकुछ बता दिया. अपनी बच्ची के प्रति मां द्वारा किए गए अन्याय ने उन्हें बहुत दुख पहुंचाया था किंतु मम्मीपापा के संस्कारों ने उन्हें दादी के खिलाफ कुछ भी करने की इजाजत नहीं दी.

कुछ समय बाद पता चला कि मां ने सूरत के केंद्रीय विद्यालय में अर्जी दी थी. साक्षात्कार के बाद उन का चयन हो जाने पर पापा ने भी अपना तबादला सूरत करवा लिया. मैं मम्मी के साथ उन के स्कूल जाने लगी और भैया अन्य स्कूल में.

दादी मां द्वारा खींची गई बेटेबेटी की भेद रेखा ने मुझे इतना विद्रोही बना दिया था कि मैं अपने को लड़का ही समझने लगी थी. शहर में आ कर मैं ने मर्दाना पहनावा अपना लिया. मेरी मित्रता भी लड़कों से अधिक रही.

मम्मी कहतीं, ‘बेटी, तुम लड़की बन कर इस संसार में पैदा हुई हो और चाह कर भी इस हकीकत को झुठला नहीं सकतीं. मेरी बच्ची, इस भ्रम से बाहर आओ और दुनिया को एक औरत की नजर से देखो. तुम्हें पता चल जाएगा कि दुनिया कितनी सुंदर है. सच, दादी की उस एक गलती की सजा तुम अपनेआप को न दो, अभी तो ठीक है, लेकिन शादी के बाद तुम्हारे यही रंगढंग रहे तो मुझे डर है कि पुन: तुम्हें कहीं मायका न अपनाना पड़े.’

मम्मी के लाख समझाने के बावजूद मैं चाह कर भी अपनेआप को बदल नहीं पाती. सौभाग्य से मुझे वेदांत मिले जिन्हें सिर्फ मुझ से प्यार है, मेरी जिद से उन्हें कोई सरोकार नहीं. उन्होंने कभी मेरे लाइफ स्टाइल पर एतराज जाहिर नहीं किया.

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टेलीफोन की घंटी कानों में पड़ते ही मैं फिर वर्तमान में आ पहुंची. दूसरी तरफ अंजलि भाभी थीं. उन्होंने बताया कि तेजस लोकल टे्रन से गिर गया था. इलाज के लिए उसे अस्पताल में दाखिल करवाया गया है. मैं ने उसी वक्त वेदांत को एवं आलोक भैया को फोन द्वारा सूचित तो कर दिया लेकिन मैं अजीब उलझन में पड़ गई. न तो मैं ऋचा को अकेली छोड़ कर जा सकती थी और न ही उसे अस्पताल ले जाना मेरे लिए ठीक रहता. अब क्या करूं…एक बार फिर मुझे मालती की याद आ गई…उफ, इस औरत का मैं क्या करूं?

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क्यों, आखिर क्यों : मां की ममता सिर्फ बच्चे को देखती है

अंधविश्वास की बलिवेदी पर : रूपल क्या बचा पाई इज्जत

खुशियों का समंदर : सच ऐसे नहीं हारता

खुशियों का समंदर : भाग 2- सच ऐसे नहीं हारता

अपने भाई की बात सुन कर सरला बहुत नाराज हुई तो भाई ने भी अपना गरल उगल कर उन के जले हुए तनमन पर खूब नमक रगड़ा.

‘‘हां, तो सरला, तुम्हारी बहू कितनी भी सुंदर और काबिल क्यों न हो, उस पर विधवा होने का ठप्पा तो लग ही चुका है. वह तो मैं ही था कि इस का उद्धार करने चला था वरना इस की औकात क्या है. सालभर के अंदर ही अपने खसम को खा गई. वह तो यहां है, इसलिए बच गई वरना हमारे यहां तो ऐसी डायन को पहाड़ से ढकेल देते हैं. मैं ने तो इस का भला चाहा, पर तुम्हें समझ में आए तब न. जवानी की गरमी जब जागेगी तो बाहर मुंह मारेगी, इस से तो अच्छा है कि घर की ही भोग्या रहे.’’

सरला के भाई की असभ्यता पर लालचंद चीख उठे, ‘‘अरे, कोई है जो इस जानवर को मेरे घर से निकाले. इस की इतनी हिम्मत कि मेरी बहू के बारे में ऐसी ऊलजलूल बातें करे. सरला, आप ने मुझ से पूछे बिना इसे कैसे बुला लिया. आप के चचेरे भाइयों के परिवार की काली करतूतों से पहाड़ का चप्पाचप्पा वाकिफ है.’’ लालचंद क्रोध के मारे कांप रहे थे.

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‘‘न, न, बहनोई साहब, मुझे निकलवाने की जरूरत नहीं है. मैं खुद चला जाऊंगा, पर एक बात याद रखिएगा कि आज आप ने मेरी जो बेइज्जती की है उसे सूद समेत वसूल करूंगा. तुम जिस बहू के रूपगुण पर रिझे हुए हो, सरेआम उसे पहाड़ की भोग्या न बना दिया तो मैं भी ब्राह्मण नहीं.’’ यह कहता हुआ सरला का बदमिजाज भाई निकल गया पर अपनी गर्जना से उन दोनों को दहलाते हुए भयभीत कर गया. उस के जाने के बाद कई दिनों तक घर का वातावरण अशांत रहा.

सरला के भाई की धमकियां पहाड़ के समाज के साथसाथ व्यापार में लालचंद से स्पर्धा रखने वाले व्यवसायियों के समाज में भी प्रतिध्वनित होने लगी थीं. बहू के साथ उन के नाजायज रिश्ते की बात कितनों की जबान पर चढ़ गई थी. यह समाज की नीचता की पराकाष्ठा थी. पर समाज तो समाज ही है जो कुछ भी उलटासीधा कहने और करने का अधिकार रखता है. उस ने बड़ी निर्दयता से ससुरबहू के बीच नाजायज रिश्ता कायम कर दिया. सरेआम उन

पर फब्तियां कसी जाने लगी थीं. आहिस्ताआहिस्ता ये अफवाहें पंख फैलाए लालचंद के घर में भी आ गईं.

अपने अति चरित्रवान, सच्चे पति और कुलललना बहू के संबंध में ऐसी लांछनाएं सुन कर सरला मृतवत हो गई. नील की मृत्यु के आघात से उबर भी नहीं पाई थी कि पितापुत्री जैसे पावन रिश्ते पर ऐसा कलुष लांछन बिजली बन कर उन के आशियाने को ध्वंस कर गया. वह उस मनहूस दिन को कोस रही थी जब अपने उस भाई से अहल्या की दूसरी शादी की मंशा जता बैठी थी. लालचंद के कुम्हलाए चेहरे को देखते ही वह बिलख उठती थी.

अहल्या लालचंद के साथ बाहर जाने से कतराने लगी थी. उस ने इस बुरे वक्त से भी समझौता कर लिया था पर लालचंद और सरला को क्या कह कर समझाती. जीवन के एकएक पल उस के लिए पहाड़ बन कर रह गए थे, लेकिन वह करती भी क्या. समाज का मुखौटा इतना घिनौना भी हो सकता है, इस की कल्पना उस ने स्वप्न में भी नहीं की थी. इस के पीछे भी तो सत्यता ही थी.

ऐसे नाजायज रिश्तों ने कहीं न कहीं पैर फैला ही रखे थे. एक तो ऐसे ही नील की मृत्यु ने उसे शिला बना दिया था. उस में न तो कोई धड़कन थी और न ही सांसें. बस, पाषाण बनी जी रही थी. उस के जेहन में आत्महत्या कर लेने के खयाल उमड़ रहे थे. कल्पना में उस ने कितनी बार खुद को मृतवत देखा पर सासससुर की दीनहीन अवस्था को स्मरण करते ही ये सारी कल्पनाएं उड़नछू हो जाती थीं.

वह नील की प्रेयसी ही बनी रही, उस के इतने छोटे सान्निध्य में उस के हृदय की साम्राज्ञी बनी रही. प्रकृति ने कितनी निर्दयता से उस के प्रिय को छीन लिया. अभी तो नील की जुदाई ही सर्पदंश बनी हुई थी, ऊपर से बिना सिरपैर की ये अफवाहें. कैसे निबटे, अहल्या को कुछ नहीं सूझ रहा था. अपने ससुर लालचंद का सामना करने से भी वह कतरा रही थी. पर लालचंद ने हिम्मत नहीं खोई. उन्होंने अहल्या को धैर्य बनाए रखने को कहा.

अब बाहर भी अहल्या अकेले ही जाने लगी थी तो लालचंद ने भी जाने की जिद नहीं की. फैक्टरी के माल के निर्यात के लिए बड़े ही उखड़े मन से इस बार वह अकेली ही मुंबई गई. जिस शोरूम के लिए माल निर्यात करना था वहां एक बहुत ही परिचित चेहरे को देख कर वह चौंक उठी. वह व्यक्ति भी विगत के परिचय का सूत्र थामे उसे उत्सुकता से निहार रहा था?.

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अहल्या अपने को रोक नहीं सकी और झटके से उस की ओर बढ़ गई.

‘‘तुम गिरीश ही हो न, यहां पर कैसे? ऐसे क्या देख रहे हो, मैं अहल्या हूं. क्या तुम्हें मैं याद नहीं हूं. रसोईघर से चुरा कर न जाने कितने व्यंजन तुम्हें खिलाए होंगे. पकड़े जाने पर बड़ी ताई मेरी कितनी धुनाई कर दिया करती थीं. मुझे मार खाए दो दिन भी नहीं होते थे कि मुंहउठाए तुम पहुंच जाया करते थे. दीनू काका कैसे हैं? पहाड़ी के ऊंचेनीचे रास्ते पर जब भी मेरे या मेरी सहेलियों की चप्पल टूट जाती थी, तो उन की सधी उंगलियां उस टूटी चप्पल को नया बना देती थीं. तुम्हें भी तो याद होगा?’’

अहल्या के इतने सारे प्रश्नों के उत्तर में गिरीश मुसकराता रहा, जिस से अहल्या झुंझला उठी, ‘‘अब कुछ बताओगे भी कि नहीं. काकी की असामयिक मृत्यु से संतप्त हो कर, सभी के मना करने के बावजूद वे तुम्हें ले कर कहीं चले गए थे. सभी कितने दुखी हुए थे? मुझे आज भी सबकुछ याद है.’’

‘‘बाबा मुझे ले कर मेरे मामा के पास कानपुर आ गए थे. वहीं पर जूते की दुकान में नौकरी कर ली और अंत तक करते रहे. पिछले साल ही वे गुजर गए हैं, पर उन की इच्छानुसार मैं ने मन लगा कर पढ़ाई की. एमए करने के बाद मैं ने एमबीए कर लिया और इस शोरूम का फायनांस देखने लगा. पर आप यहां पर क्या कर रही हैं?’’ एक निम्न जाति का बेटा हमउम्र और पहाड़ की एक ही बस्ती में रहने वाली अहल्या को तुम कहने की हिम्मत नहीं जुटा सका. यही क्या कम है कि कम से कम अहल्या ने उसे पहचान तो लिया. उस से बात भी कर ली, यह क्या कम खुशी की बात है उस के लिए वरना उस की औकात क्या है?

‘‘अरे, यह क्या आपआप की रट लगा रखी है. चलो, कहीं चल कर मैं भी अपनी आपबीती से तुम्हें अवगत करा दूं,’’ कहती हुई अहल्या उसे साथ लिए कुछ देर तक सड़क पर ही चहलकदमी करती रही. फिर वे दोनों एक कैफे में जा कर बैठ गए.

अश्रुपूरित आंखों और रुंधे स्वर में अहल्या ने अपनी आपबीती गिरीश से कह सुनाई, सुन कर उस की पलकें गीली हो गईर् थीं, लेकिन घरबाहर फैली हुई अफवाहों को कह कर अहल्या बिलख उठी. जब तक वह मुंबई में रही, दोनों मिलते रहे. गिरीश के कारण इस बार अहल्या के सारे काम बड़ी आसानी से हो गए.

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खुशियों का समंदर : भाग 3- सच ऐसे नहीं हारता

सूरत लौटने के रास्ते तक अहल्या पहाड़ पर बिताए अपने बचपन और गिरीश से जुड़े किस्से याद करती रही. बाद में पढ़ाई के लिए उसे भी तो दिल्ली आना पड़ा था.

घर पहुंच कर अहल्या ने गिरीश की मदद की बातें सरला और लालचंद को भी बताईं. उन दोनों ने निर्णय लेने में समय नहीं गंवाया. तत्काल ही गिरीश को ऊंची तनख्वाह और सारी सुविधाएं दे कर अपनी फैक्टरी में नियुक्त कर लिया. शहर से बाहर जाने का सारा काम गिरीश ने बड़ी खूबी से संभाल लिया था. लालचंद हर तरह से संतुष्ट थे.

समय पंख लगा कर उड़ान भरता रहा. गिरीश भी सेठ लालचंद परिवार के निकट आता गया. उस का भी तो कोई नहीं था. प्यार मिला तो उधर ही बह गया. अहल्या ने गिरीश के बारे में सभीकुछ बता दिया था सिवा उस की जाति के. गिरीश को भी मना कर दिया था कि भूल कर भी वह अपनी जाति को किसी के समक्ष प्रकट न करे. पहले तो उस ने आनाकानी की पर अहल्या के समझाने पर उस ने इसे भविष्य पर छोड़ दिया था.

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अहल्या जानती थी कि जिस दिन उस के साससुर गिरीश की जाति से अवगत होंगे, उस के प्रवेश पर रोक लग जाएगी. बड़ी मुश्किल से तो घर का वातावरण थोड़ा संभाला था.

आरंभ में गिरीश संकुचित रहा पर अपनी कुशलता, ईमानदारी और निष्ठा से उस ने दोनों फैक्टरियां ही नहीं संभालीं, बल्कि अपने मृदुल व्यवहार से लालचंद और सरला का हृदय भी जीत लिया था. गिरीश अब उन के कंपाउंड में बने गैस्टहाउस में ही रहने लगा था. सारी समस्याओं का हल गिरीश ही बन गया था.

लालचंद और सरला की आंखों में अहल्या और गिरीश को ले कर कुछ दूसरे ही सपने सजने लगे थे, लेकिन अहल्या की उदासीनता को देख कर वे आगे नहीं बढ़ पाते थे. उस ने एक सहकर्मी से ज्यादा गिरीश को कभी कुछ समझा ही नहीं था. उस के साथ एक दूरी तक ही नजदीकियां रखे थी वह. कई बार वह उन दोनों को समझा चुकी थी पर लालचंद और सरला दिनोंदिन गिरीश के साथ सारी दूरियां को मिटाते जा रहे थे. कभी लाड़दुलार से खाने के लिए रोक भी लिया तो अहल्या उस का खाना बाहर ही भिजवा देती थी.

गिरीश का मेलजोल भी यह क्रूर समाज स्वीकार नहीं कर सका. कोई न कोई आक्षेप उन की ओर उड़ाता ही रहा. आजिज आ कर एक दिन सरला बड़े मानमनुहार के साथ अहल्या से पूछ ही बैठी, ‘‘गिरीश तुम्हें कैसा लगता है? हम दोनों को तो उस ने मोह ही लिया है. हम चाहते हैं कि तुम उसे अपने जीवन में स्थान दे कर हर तरह से व्यवस्थित हो जाओ. है तो तुम्हारा बचपन का साथी ही. क्या पता इसी संयोग से हम सब उस से इतने जुड़ गए हों. हम भी कितने दिनों तक तुम्हारा साथ देंगे. यह समाज बड़ा ही जालिम है, तुम्हें यों अकेले जीने नहीं देगा. नील की यादों के सहारे जीवन बिताना बड़ा कठिन है. फिर वह तुम्हें कोई बंधन में भी तो नहीं बांध गया है जिस के सहारे तुम जी लोगी. सब समय की बात है वरना एक साल कम नहीं था.’’

प्रत्युत्तर में अहल्या कुछ देर उन्हें देखती रही, फिर बड़े ही सधे स्वर में बोली, ‘‘आप गिरीश को जानती हैं पर उस की पारिवारिक पृष्ठभूमि को नहीं. मुझे भी कुछ याद नहीं है. क्या पता अगर हमारी आशाओं की कसौटी पर उस का परिवेश ठीक नहीं उतरा तो कुछ और पाने की चाह में उस के इस सहारे को भी खो बैठेंगे. मुझ पर अब किसी अफवाह का असर नहीं होता, अहल्या नाम की शिला जो हूं जिसे दूसरों ने छला और लूटा. वे जिन्होंने लूटा, देवता बने रहे, पर मैं अहल्या जैसी पत्थर पड़ी किसी की ठोकर का इंतजार क्यों करूं. किसी राम के मैले पैरों की अपेक्षा भी नहीं है मुझे. जैसे जीवन गुजर रहा है, गुजरने दीजिए.’’

पर आज तो सरला अपने मन की बात किसी न किसी तरह से अहल्या से मनवा ही लेना चाहती थी. उन की जिद को टालने के ध्येय से अहल्या ने गिरीश से ही पूछ लेने को कहा.

और एक दिन लालचंद व सरला ने गिरीश से उस की पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे जानना चाहा तो उस ने भी छिपाना ठीक नहीं समझा और बेझिझक हो, सभीकुछ उन के समक्ष उड़ेल कर उन की जिज्ञासा को हर तरह शांत कर दिया. लालचंद तो तत्काल वहां से उठ कर अंदर चले गए. अपनी सारी आशाओं पर तुषारापात हुए देख, सरला ने घबरा कर आंखें मूंद लीं. गिरीश अपनी इस अवमानना को समझते हुए झटके से उठ कर चला गया. पहाड़ के सब से ऊंचे ब्राह्मण की मानसिकता निम्नजाति से आने वाले गिरीश को किसी तरह स्वीकार नहीं कर पा रही थी. दोनों फिर अवसाद में डूब गए, कहीं दूर तक कोई किनारा नजर नहीं आ रहा था.

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हफ्ता गुजर गया पर न गिरीश उन दोनों से मिलने आया और ही इन्होंने  पहले की तरह मनुहार कर के उसे बुलाया. इस संदर्भ में अहल्या ने जब सरला से पूछा तो उन की पलकें भीग गईं. आहत ुहो कर उन्होंने अहल्या से कहा, ‘‘गिरीश की जाति के बारे में क्या तुम्हें सच मालूम नहीं था? अगर था तो बताया क्यों नहीं? इतने दिनों तक क्यों अंधेरे में रखा. हमारे सारे मनसूबे पर पानी फिर गया. पलभर में एक बार फिर प्रकृति ने हमारी आंखों से सारे सपने नोच लिए.’’

कुछ देर अहल्या सोचती रही, फिर उन की आंखों में निर्भयता से देखते हुए बोली, ‘‘मैं उस की जाति से अनजान नहीं थी, लेकिन वह तो हमारी फैक्टरी के अफसर होने के सिवा कुछ नहीं था, और इस से जाति का क्या लेनादेना. भरोसे का आदमी था, इसलिए सारे कामों को उसे सौंप दिया.’’ लालचंद भी वहां पर आ गए थे.

अहल्या ने निसंकोच लालचंद से कहा, ‘‘पापा, अगर अफवाहों के चक्रव्यूह में फंस कर आप ने उसे फैक्टरी के कामों से निकाल दिया तो उस जैसे भरोसे का आदमी फिर शायद ही मिले. आप दोनों के दुखों का कारण मैं ही हूं. मैं ने सोच लिया है यहां से हमेशा के लिए चले जाने का. गिरीश आप दोनों की देखरेख कर लेगा. अगर उसे निकाला तो मैं भी उस के साथ निकल जाऊंगी. आप के साथ अपने नाम को फिर से जुड़ते देख मैं मर जाना चाहूंगी. यह जालिम दुनिया हमें जीवित ही निगल जाएगी,’’ यह कह कर अहल्या रो पड़ी.

अपने सिर पर किसी स्पर्श का अनुभव कर के अहल्या ने सिर उठाया तो लालचंद को अपने इतने निकट पा कर चौंक गई. लालचंद बोल पड़े,  ‘‘गिरीश के परिवेश को भूल कर अगर हम हमेशा के लिए उसे अपना बेटा बना लें तो इस की अनुमति तुम दोगी?’’ अहल्या ने सिर झुका लिया.

आज वर्षों बाद लालचंद की विशाल हवेली फिर एक बार दुलहन की तरह सजी हुई थी. मंच पर वरवधू बने गिरीश और अहल्या के साथ सेठ दंपती अपार खुशियों से छलकते सागर को समेट रहे थे. सारी कटुताओं को विस्मृत करते हुए इस खुशी के अवसर पर लालचंद ने दोस्तदुश्मन सभी को आमंत्रित किया था. कहीं भीड़ के समूह में उन की उदारता की प्रशंसा हो रही थी तो कहीं आलोचना. पर जो भी हो, अपने हृदय की विशालता से उन के जैसे कट्टर ब्राह्मण ने गिरीश की जाति को भूल उसे अपने बेटे नील का स्थान दे कर बड़ा ही क्रांतिकारी व अनोखा काम किया था.

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खुशियों का समंदर : भाग 1- सच ऐसे नहीं हारता

सूरत की सब से बड़ी कपड़ा मिल के मालिक सेठ लालचंद का इकलौता बेटा अचानक भड़के दंगे में मारा गया. दंगे में यों तो न जाने कितने लोगों की मौत हुई थी पर इस हाई प्रोफाइल ट्रैजडी की खबर से शहर में सनसनी सी फैल गई थी. गलियों में, चौक पर, घरघर में इसी दुर्घटना की चर्र्चा थी. फैक्टरी से घर लौटते समय दंगाइयों ने उस की गाड़ी पर बम फेंक दिया था. गाड़ी के साथ ही नील के शरीर के भी चिथड़े उड़ गए थे. कोई इसे सुनियोजित षड्यंत्र बता रहा था तो कोई कुछ और ही. जितने मुंह उतनी बातें हो रही थीं. जो भी हो, सेठजी के ऊपर नियति का बहुत बड़ा वज्रपात था.

नील के साथ उस के मातापिता और नवविवाहिता पत्नी अहल्या सभी मृतवत हो गए थे. एक चिता के साथ कइयों की चिताएं जल गई थीं. घर में चारों ओर मौत का सन्नाटा फैला हुआ था. 3 प्राणियों के घर में होश किसे था कि एकदूसरे को संभालते. दुख की अग्नि में जल रहे लालचंद अपने बाल नोच रहे थे तो उन की पत्नी सरला पर रहरह कर बेहोशी के दौरे पड़ रहे थे. अहल्या की आंखों में आंसुओं का समंदर सूख गया था. जिस मनहूस दिन से घर से अच्छेखासे गए नील को मौत ने निगल लिया था, उस पल से उस ने शायद ही अपनी पलकों को झपकाया था. उसे तो यह भी नहीं मालूम कि नील के खंडित, झुलसे शरीर का कब अंतिम संस्कार कर दिया गया. सेठजी के बड़े भाई और छोटी बहन का परिवार पहाड़ से आ गए थे, जिन्होंने घर को संभाल रखा था. फैक्टरी में ताला लग गया था.

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4 दशक पहले लालचंद अपनी सारी जमापूंजी के साथ बिजनैस करने के सपने लिए इस शहर में आए थे. बिजनैस को जमाना हथेलियों पर पर्वत उतारना था, पर लालचंद की कर्मठता ने यह कर दिखाया. बिजनैस जमाने में समय तो लगा पर अच्छी तरह से जम भी गया. जब मिल सोना उगलने लगी तो उन्होंने एक और मिल खोल ली. शादी के 10 वर्षों बाद उन के आंगन में किलकारियां गूंजी थीं. बेटा नील के बाद दूसरी संतान की आशा में उन्होंने अपनी पत्नी का कितना डाक्टरी इलाज, झाड़फूंक, पूजापाठ करवाया, पर सरला की गोद दूसरी बार नहीं भरी.

नील की परवरिश किसी राजकुमार की तरह ही हुई. और होती भी क्यों न, नील मुंह में सोने का चम्मच लिए पैदा जो हुआ था. नील भी बड़ा प्रतिभाशाली निकला. अति सुंदर व्यक्तित्व और अपनी विलक्षण प्रतिभा से सेठजी को गौरवान्वित करता. वह अहमदाबाद के बिजनैस स्कूल का टौपर बना. विदेशी कंपनियों से बड़ेबड़े औफर आए पर सेठजी का अपना बिजनैस ही इतना बड़ा था कि उसे कहीं जाने की आवश्यकता नहीं पड़ी.

पिछले साल ही लालचंद ने अपने मित्र की बेटी अहल्या से नील की शादी बड़ी धूमधाम से की थी. अपार सौंदर्य और अति प्रतिभाशालिनी अहल्या के आने से उन के महल जैसे विशाल घर का कोनाकोना सज गया था. बड़े ही उत्साह व उमंगों के साथ सेठजी ने बेटेबहू को हनीमून के लिए स्विट्जरलैंड भेजा था. जहां दोनों ने महीनाभर सोने के दिन और चांदी की रातें बिताई थीं.

अहल्या और नील पतिपत्नी कम, प्रेमी और प्रेमिका ज्यादा थे. उन दोनों के प्यार, मनुहार, उत्साह, उमंगों से घर सुशोभित था. हर समय लालचंद और सरलाजी की आंखों के समक्ष एक नन्हेमुन्ने की आकृति तैरती रहती थी.

दादा-दादी बनने की उत्कंठा चरमसीमा पर थी. वे दोनों सारी लज्जा को ताक पर रख कर अहल्या और नील से अपनी इस इच्छा की पूर्ति के लिए गुजारिश किया करते थे. प्रत्युत्तर में दोनों अपनी सजीली मुसकान से उन्हें नहला दिया करते थे. ये कोई अपने हाथ की बात थोड़े थी. उन की भी यही इच्छा थी कि एकसाथ ही ढेर सारे बच्चों की किलकारियों से यह आंगन गूंज उठे. पर प्रकृति तो कुछ और जाल बिछाए बैठी थी. पलभर में सबकुछ समाप्त हो गया था.

कड़कती बिजली गिर कर हंसतेखेलते आशियाने को क्यों न ध्वंस कर दे, लेकिन सदियों से चली आ रही पत्थर सरीखी सामाजिक परंपराओं को निभाना तो पड़ता ही है. मृत्यु के अंतिम क्रियाकर्म की समाप्ति के दिन सरला अपने सामने अहल्या को देख कर चौंक गई. शृंगाररहित, उदासियों की परतों में लिपटे, डूबते सूर्य की लाली सरीखे सौंदर्य को उन्होंने अब तक तो नहीं देखा था. सभी की आंखें चकाचौंध थीं. कैसे और कहां रख पाएगी ऐसे मारक सौंदर्य को. इसे समाज के गिद्धों की नजर से कैसे बचा पाएगी. अपने दुखों की ज्वाला में इस सदविधवा के अंतरमन में गहराते हाहाकार को वह कैसे भूल गई थी. उस की तो गोद ही उजड़ी है पर इस का तो सबकुछ ही नील के साथ चला गया.

‘‘उठिए मां, हमारे दुखों के रथ पर चढ़ कर नील तो आ नहीं सकते. इतने बड़े विध्वंस से ही हमें अपने मृतवत जीवन के सृजन की शुरुआत करनी है,’’ कहती हुई सरला को लालचंद के पास ले जा कर बैठा दिया. दोनों की आंखों से बह रही अविरल अश्रुधारा को वह अपनी कांपती हथेलियों से मिटाने की असफल चेष्टा करती रही.

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नील की जगह अब लालचंद के साथ अहल्या फैक्टरी जाने लगी थी. उस ने बड़ी सरलता से सबकुछ संभाल लिया. उस ने भले ही पहले नौकरी न की हो पर एमबीए की डिगरी तो थी ही उस के पास. सरला और लालचंद ने भी किसी तरह की रोकटोक नहीं की. अहल्या के युवा तनमन की अग्नि शांत करने का यही उपाय बच गया था. लालचंद की शारीरिक व मानसिक अवस्था इस काबिल नहीं थी कि वे कुछ कर सकें. नील ही तो सारी जिम्मेदारियों को अब तक संभाले हुए था.

फैक्टरी की देखभाल में अहल्या ने दिनरात एक कर दिया. दुखद विगत को भूलने के लिए उसे कहीं तो खोना था. लालचंद और सरला भले ही अहल्या का मुंह देख कर जी रहे थे, पर उन के इस दुख का कोई किनारा दृष्टिगत नहीं हो रहा था. एक ओर उन दोनों का मृतवत जीवन और अनिद्य सुंदरी युवा विधवा अहल्या तो दूसरी तरफ उन की अकूत संपत्ति, फैला हुआ व्यापार और अहल्या पर फिसलती हुई लोगों की गिद्ध दृष्टियां. तनमन से टूटे वे दोनों कितने दिन तक जी पाएंगे. उन के बाद अकेली अहल्या किस के सहारे रहेगी.

समाज की कुत्सित नजरों के छिपे वार से उस की कौन रक्षा करेगा. इस का एक ही निदान था कि वे अहल्या की दूसरी शादी कर दें. लेकिन सच्चे मन से एक विधवा को अपनाएगा कौन? उस की सुंदरता और उन की दौलत के लोभ में बहुत सारे युवक तैयार तो हो जाएंगे पर वे कितनी खुशी उसे दे पाएंगे, यह सोचते हुए उन्होंने भविष्य पर सबकुछ छोड़ दिया. अभी जख्म हरा है, सोचते हुए अहल्या के दुखी मन को कुरेदना उन्होंने ठीक नहीं समझा.

ऐसे ही समय बीत रहा था. न मिटने वाली उदासियों में जीवन का हलका रंग प्रवेश करने लगा था. फैक्टरी के काम से जब भी लालचंद बाहर जाते, अहल्या साथ हो लेती. काम की जानकारी के अलावा, वह उन्हें अकेले नहीं जाने देना चाहती थी. सरला ने भी उसे कभी रोका नहीं क्योंकि अब तो सभीकुछ अहल्या को ही देखना था. शिला बनी अहल्या के जीवन में खुशियों के रंग बिखर जाएं, इस के लिए दोनों प्रयत्नशील थे.

एक विधवा के लिए किसी सुयोग्य पात्र को ढूंढ़ लेना आसान भी नहीं था. सरला के चचेरे भाई आए तो थे मातमपुरसी के लिए पर अहल्या के लिए अपने बेटे के लिए सहमति जताई तो दोनों ही बिदक पड़े. इन के कुविख्यात नाटे, मोटे, काले, मूर्ख बेटे की कारगुजारियों से कौन अनजान था. पिछले साल ही पहाड़ की किसी नौकरानी की नाबालिग बेटी के बलात्कार के सिलसिले में पुलिस उसे गिरफ्तार कर के ले गई थी पर साक्ष्य के अभाव में छूट गया था. इन लोगों की नजर उन की अकूत संपत्ति पर थी, इतना तो लालचंद और सरला समझ ही गए थे.

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जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

सिल्वर जुबली गिफ्ट : भाग 3- मौत में उस ने अपना मान रखा

इधर कुछ दिनों से सुगंधा को अपने दाएं स्तन में एक ठोस गांठ सी महसूस हो रही थी. जब उस ने इंद्र से स्थिति बयां की तो उस ने पूछा, ‘‘दर्द होता है क्या उस गांठ में?’’ ‘‘नहीं, दर्द तो नहीं होता,’’ सुगंधा ने जवाब दिया.

‘‘तो शायद तुम्हें मेनोपौज होने वाला है. मैं ने पढ़ा था कि मेनोपौज के दौरान कभीकभी ऐसे लक्षण पाए जाते हैं. घबराने की कोई बात नहीं, जान. कुछ नहीं होगा तुम्हें.’’

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इंसान की फितरत होती है कि वह अनिष्ट की तरफ से आंखें बंद कर के सुरक्षित होने की गलतफहमी में खुश रहने की कोशिश करता है. सुगंधा भी इस का अपवाद नहीं थी. मगर जब कुछ महीनों के बाद उस के निपल्स के आसपास की त्वचा में परतें सी निकलने लगीं और कुछ द्रव्य सा दिखने लगा तो वह घबराई. धीरेधीरे निपल्स कुछ अंदर की तरफ धंसने लगे और शुरुआत में जो एक गांठ दाएं स्तन में प्रकट हुई थी, वैसी ही गांठें अब दोनों बगलों में भी उभर आई थीं. अब झटका लगने की बारी इंद्र की थी, वह अपने हाथ लगी ट्रौफी को किसी भी कीमत पर नहीं खोना चाहता था. जब वह सुगंधा को फैमिली डाक्टर के पास ले कर पहुंचा तो डाक्टर ने जनरल चैकअप करने के बाद तत्काल ही मैमोग्राम कराने की सलाह दी. मैमोग्राम रिपोर्ट में स्तन कैंसर के संकेत पाए जाने पर जरूरी ब्लडटैस्ट कराए गए. स्तन से टिश्यूज ले कर टैस्ट के लिए पैथोलौजी भेजे गए. सुगंधा की सभी रिपोर्ट्स के रिजल्ट को देखते हुए अब फैमिली डाक्टर ने उसे स्तन कैंसर विशेषज्ञ औंकोलौजिस्ट के पास जाने की सलाह दी.

‘‘आप ने इन्हें यहां लाने में काफी देर कर दी है. अब तक तो कैंसरस सैल ब्रैस्ट के बाहर भी बड़े क्षेत्र में फैल चुके हैं और अब इस बीमारी को किसी भी तकनीकी सर्जरी द्वारा कंट्रोल नहीं किया जा सकता. मुझे खेद के साथ कहना पड़ रहा है, सर, इन का कैंसर अब उस स्टेज पर पहुंच चुका है जहां कोई भी इलाज असर नहीं करता,’’ औंकोलौजिस्ट ने सारी रिपोर्ट्स का सूक्ष्म निरीक्षण और सुगंधा का पूरी तरह से चैकअप करने के बाद इंद्र से कहा. उस रात घर वापस आ कर इंद्र और सुगंधा दोनों ही न सो सके. इंद्र की नींद क्यों उड़ी हुई थी, यह तो अस्पष्ट था मगर सुगंधा एक अजब से सुकून में जागी हुई थी. उस के दिलोदिमाग में बारबार गुलजार की मशहूर गजल का शेर घूम रहा था, ‘‘दफन कर दो हमें कि सांस मिले, नब्ज कुछ देर से थमी सी है.’’ सुगंधा के लिए तो नब्ज पिछले 26 वर्षों से थमी सी थी.

उस रात सुगंधा ने निश्चय किया कि उस का तनमन उस का तनमन है, किसी नामर्द, फरेबी की मिल्कीयत नहीं. उसे खुद के सम्मान का पूरापूरा अधिकार है. जीतेजी तो वह अपना मान न रख पाई और इंद्र उस की भावनाओं से अधिकारपूर्व खेलता रहा. वह सोचता रहा उस के साथ सात फेरे ले कर सुगंधा उस की मिल्कीयत बन गई थी. मगर भूल गया था कि वह सात फेरे गृहस्थ जीवन की नींव होते हैं और वह नींव मजबूत होती है तनमन से एकदूसरे को पूर्ण समर्पित हो कर, एक दूजे का बन कर, खुशियों का आशियाना बनाने से. झूठ के जाल बिछा कर किसी के पंख काट पर उसे पिंजरे में रखने से नहीं.

सुगंधा उम्रभर चुप्पी साधे रही. जीतेजी वह इंद्र से बगावत करने का साहस नहीं कर पाई थी, मगर मौत में ही सही, वह अपना मान जरूर करेगी. वह बदला लेगी और इंद्र को दुनिया के सामने बेनकाब कर के ऐसी जिल्लत देगी जो हिंदुस्तान की किसी भी पत्नी ने अपने पति को न दी हो. ऐसी जिल्लत, जिस के बोझ से दब कर वह अपनी बाकी की जिंदगी कराहते हुए जीने को विवश हो जाएगा. वह अपने एक वार से इंद्र के अनगिनत सितम का हिसाब बराबर करेगी. वह जानती थी कि अब उस के पास ज्यादा सांसें नहीं बची हैं, इसलिए दूसरे ही दिन उस ने शहर के जानेमाने वकील सुधांशु राय को फोन लगाया, मिलने का वक्त निश्चित करने के लिए ताकि वह अपना वसीयतनामा तैयार करवा सके. वैसे भी, अभी तो उस का इंद्र को सिल्वर जुबली गिफ्ट देना भी तो बाकी था.

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यह वसीयतनामा जायदाद के लिए नहीं था, बल्कि उस के अंतिम संस्कार का था. दुनिया को बताने के लिए कि उस की शादी अमान्य थी, इंद्र तो शादी के योग्य ही नहीं था. उम्रभर वह नारीत्व के लिए तरसी थी. मातृत्व की हूक कलेजे में दबाती रही थी. वह कोई हृदयरोगी नहीं थी. एक बच्चे को जन्म देने के लिए वह पूरी तरह स्वस्थ थी. रोग तो इंद्र को था नपुंसकता का. ऐसा रोग जिस से वह विवाहपूर्व पूरी तरह परिचित था. फिर भी उसे एक पत्नी चाहिए थी, घर में ट्रौफी की तरह सजाने और दुनिया से अपनी नामर्दगी छिपाने के लिए. वह अपनी वसीयत में इंद्र को अपने अंतिम संस्कार से बेदखल कर गई थी और खुद को एक विधवा की हैसियत से सुपुर्देखाक करने की जिम्मेदारी अपने बेटे समान इकलौते भतीजे को सौंप गई थी.

सुगंधा दुनिया से जा चुकी थी अतृप्त ख्वाहिशों के साथ. उस ने उम्रभर अपनी कामनाओं का गला घोंटा, अपनी इच्छाओं की जमीन को बंजर रख कर, इंद्र के कोरे अहं के पौधे को सींचा था. 26 वर्षों तक दुनियादारी के बोझ से दबी सुगंधा मौत में इंद्र को जबरदस्त तमाचा मार कर गई थी. झूठे बंधन से मुक्त हो कर वह शांति से चिरनिद्रा में सो गई थी और छोड़ गई थी इंद्र को बेनकाब कर के.

अब बाकी बची उम्र सिसकियों में काटने की बारी इंद्र की थी. वह जब भी दीवार पर लटकी सुगंधा की तसवीर को देखता तो सिहर उठता. तसवीर में उस की आंखों को देख कर उसे ऐसा प्रतीत होता मानों वे आंखें उस से पूछ रही हों, ‘एक बार मुझे मेरा दोष तो बताओ, क्या किया था मैं ने ऐसा, जिस की सजा तुम मुझे जिंदगीभर देते रहे. पूरी हो कर भी मैं ने मातृत्व का सुख न जाना. तुम अपना अधूरापन जानते थे, फिर भी तुम ने मेरी जैसी स्त्री से विवाह किया. अपराध तुम्हारा था, तुम से विवाह कर के आहें मैं भरती रही. दिल मेरा जलता रहा.’ इंद्र की रातें अब बिस्तर में करवटें बदलते हुए कटती थीं. उसे याद आतीं हर सुबह सुगंधा की रोई हुई उनींदी आंखें. काश, उस ने वक्त रहते सुगंधा का दर्द, उस की तड़प महसूस की होती तो उस की बेचैनी का आज यह आलम न होता और सुगंधा उसे ऐसा सिल्वर जुबली गिफ्ट दे कर दुनिया से अलविदा न होती.

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सिल्वर जुबली गिफ्ट : भाग 2- मौत में उस ने अपना मान रखा

केक काटने की रस्म हो चुकी थी, अब बारी थी स्पीच देने की. सुगंधा ने तो उस शाम के लिए कुछ नहीं लिखा था क्योंकि सचाई पब्लिक में सुनाने लायक नहीं थी और झूठ को शब्दों का रुपहला जामा पहनाने की हिम्मत अब शिथिल होने लगी थी. मगर इंद्र ने पिछले कई महीनों से परिश्रम कर के, चिंतनमनन करकर के शब्दों का मखमली जाल बुना था और नातेरिश्तेदारों का दिल छू लेने वाली स्पीच तैयार की थी.

उस ने बड़े आत्मविश्वास के साथ स्पीच देना शुरू किया, ‘‘सुगंधा इज माई बैटरहाफ. मैं सुगंधा के बिना अपने वजूद की कल्पना भी नहीं कर सकता. सुगंधा मेरी वाइफ ही नहीं, मेरी लाइफ हैं. सुगंधा ही हैं जिन्होंने मेरे विचारों को पंख दिए हैं. सुगंधा वे हैं जो हर अच्छेबुरे वक्त में परछाईं की तरह मेरे साथ खड़ी रह कर मेरी ताकत बनी रही हैं. सुगंधा अपने नाम को पूर्ण सार्थक करते हुए मेरे जीवन के उपवन को महका कर खुशगवार बनाती रही हैं.

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‘‘जब शादी की रात सुगंधा ने डरतेडरते मुझे बताया कि उन को दिल में छेद की बीमारी है और बच्चे को जन्म देना उन के लिए खतरनाक हो सकता है तो मैं ने उन से वादा किया था कि वे जैसी हैं, मुझे स्वीकार हैं. इतना ही नहीं, उस दिन के बाद मैं ने अपने कलेजे पर पत्थर रख लिया और सुगंधा के सामने संतान की चाहत या संतान न होने का मलाल भूल कर भी नहीं जताया. मैं ने वादा किया था और जगजाहिर है कि उसे निभा कर भी दिखा दिया.

मैं ने सुगंधा को उन की हर कमी के साथ अपनाया, और अपना तनमन सबकुछ उन पर वार दिया. अब आज के इस पावन अवसर पर मेरे पास इस से ज्यादा कुछ नहीं है जो कि मैं उन्हें सिल्वर जुबली गिफ्ट के रूप में दे सकूं.’’ इंद्र ने स्पीच खत्म करते हुए सुगंधा को अपनी बांहों में भर के एक जोरदार चुंबन दे दिया, जैसे कि सिल्वर जुबली की मुहर लगा रहा हो. रिसैप्शन हौल में चीयर्स की आवाजें और तालियों की गड़गड़ाहट गूंजने लगी. सुगंधा की पलकों की कोरों से 2 आंसू उस के गालों पर लुढ़क गए, जिन्हें इंद्र ने बड़े ही प्यार से पोंछ कर उपस्थितजनों के दिमाग में खुशी के आंसुओं का खिताब दे दिया.

इस से पहले कि कोई सुगंधा की आंखों में झांक कर सचाई के दीदार कर पाता और उस के गुलाब जैसे सुंदर चेहरे पर छाती म्लानता की एक झलक भी ले पाता, इंद्र उसे अपनी आगोश में समेट कर डिनरहौल की तरफ ले गया और अपने हाथों से किसी नवविवाहित की तरह मनुहार करते हुए उसे खाना खिलाने लगा.

जिस शादी में सुगंधा की सांसें घुट रही थीं, जिंदगी ढोना मुश्किल रहा था, उस की शानदार यादगार सिल्वर जुबली मनाई जा रही थी. उस के दिल में घृणा का दरिया बह रहा था. उस की हंसी खोखली थी, मुसकराहट में दर्द की लकीरें उभर आती थीं. कोई नहीं जानता था कि सुगंधा अपनी ‘ब्यूटी विद ब्रेन’ इमेज के भीतर कितनी खोखली और कमजोर है.

इंद्र ने शादी की पहली रात को ही अपनी कमी का परदाफाश होने पर सुगंधा से स्पष्ट लहजे में कहा था, ‘किस को क्या बताओगी मेरी जान, यह हिंदुस्तान है. यहां एक बार लड़की की शादी करने में तो बाप के जूते घिस जाते हैं, फिर कोई भला तुम्हारा मुझ से तलाक करा कर क्या करेगा. माई लव, न तो तुम घर की रहोगी न घाट की. बेहतर होगा कि तुम मेरे साथ चुपचाप जिंदगी बसर कर लो. तुम क्या सोचती हो कि तुम मेरी कमजोरी का डंका दुनिया में बजाओगी और मैं चुपचाप इसे बरदाश्त कर लूंगा. अगर तुम ने यह जुर्रत की तो फिर मैं भी तुम्हारे चरित्र पर लांछन लगा कर तुम्हें सब की नजरों में गिरा दूंगा और तुम्हें कहीं का न छोड़ूंगा. अच्छे से अच्छा वकील करने की ताकत है मुझ में और उधर तुम्हारे पिताजी, वे तो तुम्हारी शादी की दावत भी ठीक से न कर पाए. फिर भला राजा भोज को गंगू तेली कैसे टक्कर दे सकता है…इसलिए माई लव, मेरी यह बेशुमार दौलत एंजौय करो और खुश रहो.

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आखिर तुम शहर के जानेमाने बिजनैसमैन की पत्नी तो बनी रहोगी.’ सुगंधा की हालत उस पंछी की तरह थी जो चोट खा कर उड़ने को फड़फड़ा रहा हो. उड़ने का हर प्रयास विफल हो कर उस के दर्द में इजाफा कर रहा था, उस के आत्मविश्वास को ध्वस्त कर के उसे और कमजोर बना रहा था. शादी होते ही उस के कुंआरे सपनों की कलियां मुकम्मल फूल बनने के पहले ही मुरझा गई थीं.

सारे रिश्तेदार सिल्वर जुबली पार्टी के दूसरे ही दिन विदा हो चुके थे. आजकल किस को फुरसत होती है किसी के सुखदुख में लंबे समय तक शरीक होने की. जाते वक्त भी कइयों के चेहरे ईर्ष्या की स्याही से पुते हुए थे. रिश्तेदारी की विवाहयोग्य युवतियों के आंखों में सुगंधा जैसी शाही जिंदगी की तमन्ना का प्रतिबिंब झिलमिला रहा था. कोई नहीं सोचना चाहता कि कभीकभी ऊपर से ठीक दिखने वाला व्यक्ति अंदर से घुटघुट कर मर रहा होता है. खुशियों का पैमाना कीमती कपड़े, महंगा पर्यटन, लक्जरी कार नहीं होती. खुशी होती है मन की शांति से, संतृप्त खुशहाल जिंदगी से, मन की सुखी, चटकती धरती पर किसी के प्यार की फुहार से मिली ठंडक से, घर में गूंजती किलकारियों से.

क्या पाया है उस ने इंद्र से? नहीं पूरा कर पाया वह उस के कुंआरे सपनों को, नहीं पूर्ण कर पाया वह उस के नारीत्व को, ऐसे नाम के पति के साथ एक बच्चे का सपना संजोना तो रेगिस्तान में दूब उगाने की सोचने जैसा था.

अपनी खामी को ढांपने के लिए शादी के शुरुआती दिनों में ही उस ने रिश्तेदारों और दोस्तों में ऐलान कर दिया कि सुगंधा को हृदयरोग है और प्रैग्नैंसी उस के लिए घातक हो सकती है. संबंधों का एकतरफा निर्वाह सुगंधा ने किया था और दुनिया में उस को हृदयरोगी बता कर त्याग की मूर्ति स्वयं इंद्र बन बैठा था. यह कैसी विडंबना थी, यह कैसा न्याय था समय का, जहां गुनाहगार किसी की जिंदगी तबाह कर के इज्जतदार बना हुआ था. इंद्र के गुनाह की शिकार सुगंधा विवाहित हो कर भी उम्रभर अतृप्ति के एहसास में गीली लकड़ी की तरह सुलगती रही थी.

शादी की जाती है खुशियों के लिए, खुशियों की तिलांजलि देने के लिए नहीं. सुगंधा करवाचौथ का व्रत करती आई थी दुनियादारी की मजबूरी में बिना किसी भाव, बिना किसी श्रद्धा के. उम्र बीती थी ठंडी आहें भरने में. ऐसे संबंधों में सोच ही कुचली जाती है, समर्पण नहीं होता. अब तक सिल्वर जुबली पार्टी को भी करीबकरीब 6 महीने पूरे हो चुके थे. सुगंधा के लिए खुद को संभालना मुश्किल होता जा रहा था. मन के साथ अब तन भी टूटने लगा था. चलने में कदम डगमगाने लगे थे, हाथों के कंपन से मन की कमजोरी छिपाए न छिपती थी. उस शानदार सिल्वर जुबली की शहर में चर्चा पर अब धूल जमने लगी थी. सब के लिए जिंदगी कमज्यादा बदल रही थी, मगर सुगंधा का जीवन उसी ढर्रे पर चल रहा था, सदा की तरह तनहा दिन, लंबीकाली उदास रातें.

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सिल्वर जुबली गिफ्ट : भाग 1- मौत में उस ने अपना मान रखा

दोपहर से ही मेहमानों की गहमागहमी थी. सभी दांतों तले उंगली दबाए भव्य आयोजन की चर्चा में व्यस्त थे. ‘‘कम से कम 2-3 लाख रुपए का खर्चा तो आया ही होगा,’’ एक फुसफुसाहट थी.

‘‘कैसी बात करती हो मौसी, इतने तो अब गांव की दावतों में खर्च हो जाते हैं. यह तो फाइवस्टार की दावत है और वह करीब 1,500 आदमियों की,’’ एक खनकती आवाज ने अपने समसामयिक ज्ञान को बोध कराया. ‘‘अब भइया, ये न मनाएंगे ऐसी मैरिज एनिवर्सरी तो क्या हम मनाएंगे. इन के शहर में ही तो 400 साल पहले एक बादशाह ने वक्त के माथे पर ताजमहल का अमिट तिलक लगाया था,’’ डाह से भरा कुछ फटा सा स्वर गूंजा.

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‘‘सही बात है जहां पलोबढ़ो वहां की आबोहवा का असर तो पड़ता ही है.’’ जितने मुंह उतनी ही बातें सुनाई दे रही थीं और पास ही के कमरे में अपनी सिल्वर जुबली पार्टी के लिए तैयार होती सुगंधा के कानों में भी पड़ रही थीं. उस ने सोचा, ‘ठीक ही तो कह रहे हैं सब, इंद्र मेरे अरमानों की कब्र तो शादी की पहली रात को ही खोद चुका था और पिछले 25 वर्षों से मेरी भावनाओं को लगातार पत्थर कर के उस कब्र पर मकबरा भी बना रहा है. अगर तथ्यों की बारीकियों में जाएं तो ताजमहल के हर पत्थर पर भी फरेब की ही इबारत लिखी दिखाई देगी, मुहब्बत की नहीं.’

सुगंधा के मन में पिछले 25 वर्षों से बर्फ बन कर जमी वेदना आर्द्र हो कर बाहर निकलने को व्याकुल हो रही थी. उस का मन हो रहा था कि वह इस दुख को अपनी आवाज बना ले और दुनिया को चीखचीख कर बताए कि हर चमकती चीज सोना नहीं होती, यहां तक कि संसारभर में मुहब्बत का प्रतीक माने जाने वाले ताजमहल की हकीकत भी घिनौनी ही है. आज सुगंधा और इंद्र के विवाह के

25 साल पूरे हो चुके थे. सुगंधा ने ब्यूटीशियन को पेमैंट दे कर विदा किया और आदमकद दर्पण में खुद को निहारने लगी. इंद्र ने आज के दिन के लिए शहर के सब से नामी ड्रैस डिजाइनर से खासतौर पर साड़ी तैयार करवाई थी. दर्पण में खुद का रूप निहारने पर मन गर्व के सागर में गोते खाने लगा. अनायास ही वह दिन याद आ गया जब उस ने 25 साल पहले इसी तरह तैयार होने के बाद खुद को आदमकद दर्पण में निहारा था. फर्क था तो भावनाओं का, तब मन में पिया मिलन की लहरें हिलोरें ले रही थीं और आज 25 साल पहले सुहागरात को हुई उस की ख्वाहिशों की लाश का रंज टीस रहा था. थकने लगी थी वह अब यह सब बरदाश्त करतेकरते. मन करता था कि भाग जाए कहीं सब की निगाहों से दूर, कहीं बहुत दूर, किसी ऐसी दुनिया में जहां वह सुकून की सांस ले सके.

शादी से सिल्वर जुबली तक के सफर में कितने ही ज्वारभाटे आए थे. वह आज वरमाला के दिन से कहीं ज्यादा खूबसूरत लग रही थी. 25 साल से रिश्ते की कड़वाहट का जहर पीती रही थी. मन इस जहर की कड़वाहट से संतृप्त हो दम तोड़ने को छटपटा रहा था. मगर तन, वह तो बेशर्म बन कर और निखरता चला गया था. तभी दरवाजे पर दस्तक की आवाज ने सुगंधा के मानसपटल पर चल रहे अतीत के चलचित्र में विघ्न डाला. ‘‘जल्दी से बाहर आओ माई लव, पार्टी शुरू होने का समय हो चुका है, अब तक तो ज्यादातर मेहमान होटल पहुंच चुके होंगे. अच्छा नहीं लगता कि हम ‘स्टार्स औफ द इवनिंग’ हो कर भी सब से बाद में वहां पहुंचें,’’ इंद्र ने कमरे में दाखिल होते हुए सुगंधा से कहा. इंद्र अपने चचेरे भाई विजय के साथ दूसरे कमरे में तैयार हो कर आया था.

‘‘लोग उम्र के साथ ढलते जाते हैं मगर भाभीजान, आप तो उम्र के साथ पुरानी शराब की तरह दिलकश होती जा रही हैं,’’ विजय भी इंद्र के पीछेपीछे चले आए और आदतानुसार उन्होंने मुगलिया अंदाज में सीधा हाथ अपने माथे पर रख कर, थोड़ा सा बाअदब मुद्रा में झुकते हुए कहा, ‘‘इस से पता चलता है कि जागीरदार ने अपनी जागीर की हिफाजत में बड़ी ही एहतियात बरती है.’’ इंद्र खुद की तारीफ करने का कोई अवसर व्यर्थ नहीं जाने देता था.

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सुगंधा पर उन की बातों का कोई असर हो रहा है या नहीं, इस की परवा किए बिना दोनों भाई अपनी ही बातों पर जोरजोर से कहकहे लगाने लगे. घर में आए हुए सारे रिश्तेदार भी अब तक होटल जाने के लिए निकल चुके थे. होटल और घर की दूरी सिर्फ एक किलोमीटर की थी, मगर इंद्र ने सब की सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए किराए की कई कारों का इंतजाम करा रखा था. कुछ पास के शहरों में रहने वाले रिश्तेदार अपनी कारों में ही आए थे. सब से आखिर में सुगंधा, इंद्र और विजय ही घर में बचे थे. इंद्र के निर्देशानुसार विजय ने इंद्र की निजी कार को लाल गुलाब की लडि़यों से बड़ी ही खूबसूरती के साथ सजाया था और भाईभाभी के शोफर की भूमिका भी बखूबी निभाई.

होटल के रिसैप्शन हौल में घुसते ही भव्यता की रंगीन चकाचौंध ने सुगंधा की बुद्धिमत्ता का हरण करना शुरू कर दिया और वह रंगीन चकाचौंध कुछ पल के लिए उस के जीवन के काले यथार्थ पर हावी होेने लगी. सुगंधा की दशा सुंदरवन में कुलांचें मारती हिरनी सी हो गई, उसे वहम होने लगा कि उस की जिंदगी तो इतनी भव्य है, फिर वह दुखी और एकाकी कैसे हो सकती है. सचाई भव्यता का ग्रास बन कर सुगंधा की बुद्धिमत्ता को ग्रहण लगा रही थी. मित्र, परिचित, रिश्तेदार सभी बधाइयां देने स्टेज पर आ रहे थे और सुगंधा व इंद्र के सुखी वैवाहिक जीवन का राज जानने को उत्सुक थे.

कुछ चेहरों पर डाह था तो कुछ पर बढि़या दावत मिलने की संतुष्टि. कोई कहता कि एकदूसरे के लिए बने हैं. हकीकत इस के विपरीत कितनी बेनूर, बेरंग थी, इस का इल्म किसी को न था. दुनिया की नजरों में सुगंधा और इंद्र की शादी एक आदर्श मिसाल थी, मगर बंद दरवाजों के पीछे का विद्रूप सच सुगंधा अपने मन की सात परतों में छिपाए बैठी थी. इंद्र की बातों का वह एक आंसरिंग मशीन के जैसे ही जवाब देती आई थी. सामाजिकरूप से वह ब्याहता थी, मगर इंद्र को भावनात्मक तलाक तो वह बहुत पहले ही दे चुकी थी.

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