आज पूरे दफ्तर में अजीब सी खामोशी पसरी हुई थी. कई हफ्तों से चल रही चटपटी गपशप को अचानक विराम लग गया था. सुबह दफ्तर में आते ही एकदूसरे से मिलने पर हाय, हैलो, नमस्ते की जगह हर किसी की जबान पर निदेशक, महेश पुरी का ही नाम था. हर एक के हाथ में अखबार था जिस में महेश पुरी की आत्महत्या की खबर छपी थी. महेश पुरी अचानक ऐसा कदम उठा लेंगे, ऐसा न उन के घर वालों ने सोचा था न ही दफ्तर वालों ने. वैसे तो इस दुनिया से जाने वालोें की कभी कोई बुराई नहीं करता, लेकिन महेश पुरी तो वास्तव में एक सज्जन व्यक्ति थे. उन के साथ काम करने वालों के दिल में उन के लिए इज्जत और सम्मान था. 30 वर्षों के कार्यकाल में उन से कभी किसी को कोई शिकायत नहीं रही. महेश पुरी बहुत ही सुलझे हुए, सभ्य तथा सुसंस्कृत व्यक्ति थे. कम बोलना, अपने मातहत काम करने वालों की मदद करना, सब के सुखदुख में शामिल होना तथा दफ्तर में सौहार्दपूर्ण वातावरण बनाए रखना उन के व्यक्तित्व के विशेष गुण थे.
लगभग 6 महीने पहले उन की ब्रांच में कविता तबादला हो कर आई थी. कविता ज्यादा दिनों तक एक जगह टिक कर काम कर ही नहीं सकती थी. वह अपने आसपास किस्से, कहानियों, दोस्तों और संबंधों का इतना मजबूत जाल बुन लेती कि साथ काम करने वाले कर्मचारी दफ्तर और घर को भूल कर उसी में उलझ जाते. लेकिन जब विभाग के काम और अनुशासन की स्थिति नियंत्रण से बाहर हो जाती तो कविता का वहां से तबादला कर दिया जाता. कविता जिस भी विभाग में जाती, वहां काम करने वाले पुरुष मानो हवा में उड़ने लगते. हंसहंस कर सब से बातें करना, चायपार्टियां करते रहना, अपनी कुरसी छोड़ कर किसी भी सीट पर जा बैठना कविता के स्वभाव में शामिल था. ऐसे में दिन का पता ही नहीं लगता कब पंख लगा कर उड़ जाता. कविता चीज ही ऐसी थी, खूबसूरत, जवान, पढ़ीलिखी तथा आधुनिक विचारधारा वाली फैशनेबल लड़की.
नित नए फैशन के कपड़े पहन कर आना, भड़कीला मेकअप, ऊंची हील के सैंडिल, कंधों तक झूलते घने काले केश, गोराचिट्टा रंग, गठा शरीर और 5 फुट 3 इंच का कद, ऐसी मोहक छवि और ऐसा व्यवहार भला किसे आकर्षित नहीं करेगा? सहकर्मी भी दिनभर उस से रस लेले कर बातें करते. कोई कितना भी कम बोलने वाला हो, कविता उसे कुछ ही दिनों में रास्ते पर ले आती और वह भी दिनभर बतियाने लगता. वह जिस की भी सीट पर जाती, उस सहकर्मी की गरदन तन जाती लेकिन शेष सहकर्मियों की गरदनें भले ही फाइलों पर झुकी हों परंतु उन के कान उन दोनों की बातों पर ही लगे रहते.
इतना ही नहीं, कविता जिस सैक्शन में होती वहां के काम की रिपोर्ट खराब होने लगती क्योंकि उस के रहते दफ्तर में काम करने का माहौल ही नहीं बन पाता. बस पुरुष कर्मचारियों में एक होड़ सी लगी रहती कि कौन कविता को पहले चाय क औफर करता है और कौन लंच का. किस का निमंत्रण वह स्वीकार करती है और किस का ठुकरा देती है. हालांकि कविता को उस के इस खुले व्यवहार के बारे में समझाने की कोशिश बेकार ही साबित होती फिर भी उस की खास सहेली, रमा उसे अकसर समझाने की कोशिश करती रहती. लेकिन कविता ने कभी उस की एक नहीं सुनी. कविता का मानना था कि यह 21वीं सदी है, औरत और मर्द दोनों के बराबर अधिकार हैं. ऐसे में मर्दों से बात करना, उन के साथ चाय पीने, कहीं आनेजाने में क्या हर्ज है? आदमी कोई खा थोड़े ही जाते हैं? वह उन से बात ही तो करती है, प्यार या शादी के वादे थोड़े करती है जो मुश्किल हो जाएगी. रमा का कहना था कि यदि ऐसी बात है तो फिर वह आएदिन किसी न किसी की शिकायत कर के अपना तबादला क्यों करवाती रहती है? कविता सफाई देते हुए कहती कि इस में उस का क्या कुसूर, पुरुषों की सोच ही इतनी संकुचित है, कोई सुंदर लड़की हंस कर बात कर ले या उस के साथ चाय पी ले तो उन की कल्पना को पंख लग जाते हैं फिर न उन्हें अपनी उम्र का खयाल रहता है न समाज का.
Social Story in Hindi: समाज में रहन के लिए हमें कुछ चुनौतियों को स्वीकार करना पड़ता है. इसके कुछ नियम-कानून होते हैं, जिसे किसी भी हाल में फॉलो करने के लिए मजबूर किया जाता है. तो इस आर्टिकल में हम आपके लिए लेकर आए हैं, सरस सलिल की Top 10 Social Story in Hindi. समाज से जुड़ी दिलचस्प कहानियां, जिससे आप समाज में हो रहे घटनाओं से रू-ब-रू होंगे. तो अगर आपको भी है कहानियां पढ़ने के शौक तो पढ़िए सरस सलिल की Top 10 Social Story in Hindi.
लिपस्टिक: क्या नताशा बॉस का दिल जीत पाई?
मधुरिमा ने लाल ड्रैस के साथ लाल रंग की लिपस्टिक लगाई और जब वह आईने में देखने लगी तो उसे खुद अपने पर प्यार आ गया था.
मन ही मन खुद पर इतराते हुए वह सोच रही थी कि आज की डील तो फाइनल हो कर ही रहेगी. जब स्त्री हो कर उस का अपना मन खुद को देख कर काबू नहीं हो पा रहा है तो पुरुषों का क्या कुसूर?
औफिस पहुंची. मिस्टर देवेश उस का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे. उसे देखते ही उन्होंने शरारत से सीटी बजाई. ये ही तो हैं उन की कंपनी का तुरुप का इक्का. लड़की में गजब का टैलेंट है. वह जहां कहीं भी उन के साथ जाती है, डील करवा कर ही आती है. 23 वर्ष की उम्र के हिसाब से मधुरिमा काफी तेज थी.
2. यह कैसा प्यार: रमा और विजय के प्यार का क्या हुआ अंजाम
वे दोनों बचपन से एक ही कालोनी में आसपड़ोस में रहते हुए बड़े हुए थे. दोनों ने एकसाथ स्कूल व कालेज की पढ़ाई पूरी की. उन के संबंध मित्रता तक सीमित थे, वो भी सीमित मात्रा में. दोनों एक ही जाति के थे. सो, स्कूल समय तक एकदूसरे के घर भी आतेजाते थे. कालेज में भी एकदूसरे की पढ़ाई में मदद कर देते थे. एकदूसरे के छोटेमोटे कामों में भी सहयोग कर देते थे. लेकिन कालेज के समय से उन का एकदूसरे के घर आनाजाना बहुत कम हो गया. जाना हुआ भी तो अपने काम के साथ में एकदूसरे के परिवार से मिलना मुख्य होता था.
दोनों अपने समाज, जाति की मर्यादा जानते थे. अब दोनों जवानी की उम्र से गुजर रहे थे. रमा तभी विजय के घर जाती जब विजय की बहन से उसे काम होता. विजय से तो एक औपचारिक सी हैलो ही होती. कालेज में भी उन का मिलना बहुत जरूरत पर ही होता. रमा को यदि विजय से कोई काम होता तो वह विजय की बहन या मां से कहती. विजय को वैसे तो जाने की जरूरत नहीं पड़ती थी रमा के घर, पर कई बार ऐसे मौके आते कि जाना पड़ता. जैसे रमा को नोट्स देने हों या कालेज की लाइब्रेरी से निकाल कर पुस्तकें देनी हों.
3. बलात्कारी की हार: आखिर अमित ने प्रिति के साथ क्या किया
‘‘बधाई हो आप को, बेटी का जन्म हुआ है,’’ नर्स ने बिस्तर पर लेटी हुई प्रीति से कहा.
प्रीति ने उनींदी आंखों से अपनी बेटी की तरफ देखा, उस के होंठों पर मुसकराहट तैर आई और आंखों से चांदी के दो छोटे गोले कपोलों पर ढुलक गए.
प्रीति ने एक लंबी सांस छोड़ी और आंखों को कमरे के एक कोने में टिका दिया. ‘‘नहीं सिस्टर नहीं, यह मेरी बेटी नहीं है. यह तो मेरी जीत है, मेरी जित्ती.’’ अचानक से कह उठी थी प्रीति. कमरे के एक कोने में टिकी आंखों ने यादों की परतों की पड़ताल करनी शुरू कर दी थी.
4. गोधरा में गोदनामा: क्यों वह खुद को मारना चाहता था?
social-story-in-hindi
मरने के अलावा उसे और कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था. जीने के लिए उस के पास कुछ नहीं था. न पत्नी न बच्चे, न मकान, न दुकान. उस का सबकुछ लुट चुका था. एक लुटा हुआ इंसान, एक टूटा हुआ आदमी करे भी तो क्या?
उस का घर दंगाइयों ने जला दिया था. हरहर महादेव के नारे श्रीराम पर भी कहर बरपा चुके थे. वह हिंदू था लेकिन उस की पत्नी शबनम मुसलमान थी. उस के बेटे का नाम शंकर था. फिर भी वे गोधरा में चली नफरत की आग में स्वाहा हो चुके थे.
श्रीराम अपने व्यापार के काम से रतलाम गया हुआ था. तभी अचानक दंगे भड़क उठे. जंगल की आग को तो बुझाया जा सकता है लेकिन आग यदि नफरत की हो और उस पर धर्म का पैट्रोल छिड़का जाता रहे, प्रशासन दंगाइयों का उत्साहवर्द्धन करता रहे तो फिर मुश्किल है उस आग का बुझना. ऊपर से एक फोन आया प्रशासन को. लोगों का गुस्सा निकल जाने दो. जो हो रहा है होने दो. बस, फिर क्या था? मौत का खूनी खेल चलता रहा. जिन दोस्तों ने श्रीराम का विवाह करवाया था वे अब कट्टरपंथी बन चुके थे.
5. कोरा कागज: माता-पिता की सख्ती से घर से भागे राहुल के साथ क्या हुआ?
social-story-in-hindi
राहुल औफिस से घर आया तो पत्नी माला की कमेंट्री शुरू हो गई, ‘‘पता है, हमारे पड़ोसी शर्माजी का टिंकू घर से भाग गया.’’
‘‘भाग गया? कहां?’’ राहुल चौंक कर बोला.
‘‘पता नहीं, स्कूल की तो आजकल छुट्टी है. सुबह दोस्त के घर जाने की बात कह कर गया था. तब से घर नहीं आया.’’
‘‘अरे, कहीं कोई अनहोनी तो नहीं हो गई. पुलिस में रिपोर्ट की या नहीं?’’ राहुल डर से कांप उठा.
‘‘हां, पुलिस में रिपोर्ट तो कर दी पर 13-14 साल का नादान बच्चा न जाने कहां घूम रहा होगा. कहीं गलत हाथों में न पड़ जाए. नाराज हो कर गया है. कल रात उस को बहुत डांट पड़ी थी, पढ़ाई के कारण. उस की मां तो बहुत रो रही हैं. आप चाय पी लो. मैं जाती हूं, उन के पास बैठती हूं. पड़ोस की बात है, चाय पी कर आप भी आ जाना,’’ कह कर माला चली गई.
6. हिजड़ा: गुलशन चाचा को कैसा अक्स दिखाई पड़ता था?
social-story-in-hindi
पिछले कई दिनों से बस स्टैंड के दुकानदार उस हिजड़े से परेशान थे जो न जाने कहां से आ गया था. वह बस स्टैंड की हर दुकान के सामने आ कर अड़ जाता और बिना कुछ लिए न टलता. समझाने पर बिगड़ पड़ता. तालियां बजाबजा कर खासा तमाशा खड़ा कर देता.
एक दिन मैं ने भी उसे समझाना चाहा, कुछ कामधंधा करने की सलाह दी. जवाब में उस ने हाथमुंह मटकाते हुए कुछ विचित्र से जनाने अंदाज में अपनी विकलांगता (नपुंसकता) का हवाला देते हुए ऐसीऐसी दलीलें दे कर मेरे सहित सारे जमाने को कोसना प्रारंभ किया कि चुप ही रह जाना पड़ा. कई दिनों तक उस की विचित्र भावभंगिमा के चित्र आंखों के सामने तैरते रहते और मन घृणा से भर उठता.
फिर एकाएक उस का बस स्टैंड पर दिखना बंद हो गया तो दुकानदारों ने राहत की सांस ली, लेकिन उस के जाने के 2-3 दिन बाद ही न जाने कहां से एक अधनंगी मैलीकुचैली पगली बस स्टैंड व ट्रांसपोर्ट चौराहे पर घूमती नजर आने लगी थी. अस्पष्ट स्वर में वह न जाने क्या बुदबुदाती रहती और हर दुकान के सामने से तब तक न हटती जब तक कि उसे कुछ मिल न जाता.
7. एक मुलाकात: अंधविश्वास के मकड़जाल में फंसी सपना के साथ क्या हुआ?
social-story-in-hindi
सपना लिसे मेरी मुलाकात दिल्ली में कमानी औडिटोरियम में हुई थी. वह मेरे बगल वाली सीट पर बैठी नाटक देख रही थी. बातोंबातों में उस ने बताया कि उस के मामा थिएटर करते हैं और वह उन्हीं के आग्रह पर आई है. वह एमएससी कर रही थी. मैं ने भी अपना परिचय दिया. 3 घंटे के शो के दौरान हम दोनों कहीं से नहीं लगे कि पहली बार एकदूसरे से मिल रहे हैं. सपना तो इतनी बिंदास लगी कि बेहिचक उस ने मुझे अपना मोबाइल नंबर भी दे दिया.
एक सप्ताह गुजर गया. पढ़ाई में व्यस्तता के चलते मुझे सपना का खयाल ही नहीं आया. एक दिन अनायास मोबाइल से खेलते सपना का नंबर नाम के साथ आया, तो वह मेरे जेहन में तैर गई. मैं ने उत्सुकतावश सपना का नंबर मिलाया.
8. मीठी छुरी : क्यों चंचला की हकीकत से नवीन अनजान था?
चंचला भाभी के स्वभाव में जरूरत से कुछ ज्यादा मिठास थी जो शुरू से ही मेरे गले कभी नहीं उतरी, लेकिन घर का हर सदस्य उन के इस स्वभाव का मुरीद था. वैसे भी हर कोई चाहता है कि उस के घर में गुणी, सुघड़, सब का खयाल रखने वाली और मीठे बोल बोलने वाली बहू आए. हुआ भी ऐसा ही. चंचला भाभी को पा कर मां और बाबूजी दोनों निहाल थे, बल्कि धीरेधीरे चंचला भाभी का जादू ऐसा चला कि मां और बाबूजी नवीन भैया से ज्यादा उन की पत्नी यानी चंचला भाभी को प्यार और मान देने लगे. कभी बुलंदियों को छूने का हौसला रखने वाले, प्रतिभाशाली और आकर्षक व्यक्तित्व वाले नवीन भैया अपनी ही पत्नी के सामने फीके पड़ने लगे.
मेरे 4 भाईबहनों में सब से बड़े थे मयंक भैया, फिर सुनंदा दी, उस के बाद नवीन भैया और सब से छोटी थी मैं. हम चारों भाईबहनों में शुरू से ही नवीन भैया पढ़ने में सब से होशियार थे. इसलिए घर के लोगों को भी उन से कुछ ज्यादा ही आशाएं थीं. आशा के अनुरूप, नवीन भैया पहली बार में ही भारतीय प्रशासनिक सेवा की मुख्य लिखित परीक्षा में चुन लिए गए और उस दौरान मौखिक परीक्षा की तैयारियों में जुटे हुए थे, जब एक शादी में उन की मुलाकात चंचला भाभी से हुई.
वह है शेफाली. मात्र 24-25 वर्ष की. सुंदर, सुघड़, कुंदन सा निखरा रूप एवं रंग ऐसा जैसे चांद ने स्वयं चांदनी बिखेरी हो उस पर. कालेघुंघराले बाल मानों घटाएं गहराई हों और बरसने को तत्पर हों. किंतु उस धमाके ने उसे ऐसा बना दिया गोया एक रंगबिरंगी तितली अपनी उड़ान भरना भूल गई हो, मंडराना छोड़ दिया हो उस ने.
मुझे याद है जब हम पहली बार पैरिस में मिले थे. उस ने होटल में चैकइन किया था. छोटी सी लाल रंग की टाइट स्कर्ट, काली जैकेट और ऊंचे बूट पहने बालों को बारबार सहेज रही थी. मेरे पति भी होटल काउंटर पर जरूरी औपचारिकता पूरी कर रहे थे. हम दोनों को ही अपनेअपने कमरे के नंबर व चाबियां मिल गई थीं. दोनों के कमरे पासपास थे. दूसरे देश में 2 भारतीय. वह भी पासपास के कमरों में. दोस्ती तो होनी ही थी. मैं अपने पति व 2 बच्चों के साथ थी और वह आई थी हनीमून पर अपने पति के साथ.
हत्या की सूचना पाकर पुलिस जब एक पुरानी फैक्टरी के पास पहुंची, तो उसे वहां खून से सनी एक लाश मिली. मरने वाला शख्स यही कोई 25-26 साल का नौजवान था. हत्यारे ने बड़ी बेरहमी से उस की हत्या की थी. पुलिस को यही लग रहा था कि हत्या लूट के चलते की गई थी, लेकिन सीसीटीवी फुटेज देखने पर पता चला है कि हत्या किसी लूट के इरादे से नहीं, बल्कि आपसी रंजिश के चलते हुई थी.
हत्या करने वाला एक नहीं, बल्कि 2 आदमी थे और दोनों के हाथों में धारदार चाकू थे. उन दोनों आदमियों ने उस नौजवान की बहुत पिटाई की थी. वह अपने दोनों हाथ जोड़ कर जान की भीख मांगता दिख रहा था, मगर उन दोनों ने बारीबारी से उस के पेट में चाकू से इतने वार किए कि मौके पर ही उस की मौत हो गई.
पुलिस को वहां गुनाह के कोई सुबूत नहीं मिल पाए और न ही गुनाहगारों की कोई पहचान हो पाई, क्योंकि दोनों हत्यारों का चेहरा पूरी तरह से ढका हुआ था.
राजबाला को उन के इस प्रकार के बर्ताव से बड़ा आश्चर्य हुआ और मन ही मन सोचने लगी, ‘सचमुच मेरे पति बड़े सुंदर हैं, चतुर और वीर हैं, पर नामालूम बीच में नंगी तलवार रख कर सोने का क्या मतलब है?’
कई दिन इसी तरह बीत गए, परंतु राजबाला को इतना साहस नहीं हुआ कि कुछ पूछती. अंत में एक दिन दोनों में बातचीत होने लगी. राजबाला ने साहस कर के पूछा, ‘‘प्राणनाथ, मैं देखती हूं कि आप प्राय: ठंडी और गहरी सांसें लेते रहते हैं. इस से पता चलता है कि आप को कोई बड़ा कष्ट हो रहा है. मैं तो आप के चरणों की दासी हूं, मुझ से छिपाना उचित नहीं है. मैं विचार करूंगी कि किस प्रकार आप की चिंता दूर हो सकती है.’’
राजबाला की बात सुन कर उस का दिल भर आया और मुंह नीचा कर के उस ने चुप्पी साध ली.
राजबाला ने फिर कहा, ‘‘स्वामी, घबराने की कोई बात नहीं है. इस संसार में सभी पर विपत्ति आती है. चिंता व्यर्थ है. संसार में हर रोग की दवा है. आप चिंता न कीजिए, मुझ से कहिए. यथासंभव मैं आप की सहायता करूंगी. यदि मेरे मरने से भी आप को सुख मिलता है या आप का भला होता है तो मेरे प्राण आप की सेवा को हर समय तैयार हैं.’’
राजबाला का इतना कहना था कि अजीत सिंह ने राजबाला का हाथ पकड़ लिया और दुखभरे शब्दों में अपनी सब कथा कह सुनाई.
जब अजीत सिंह यह सब कह चुका तो राजबाला ने कहा, ‘‘स्वामी, आप ने बड़ा त्याग कर के मुझे मोल लिया है. मैं कभी आप की इस कृपा को नहीं भूल सकती. पर यह ऐसी जगह नहीं है, जहां 20 हजार रुपए मिल सकें. इसलिए इसे छोड़ना उचित है.
‘‘मैं इसी समय मरदाना वेश धारण करती हूं. मैं और आप संगसंग रहेंगे. जब कोई आप से मेरे बारे में पूछे तो आप साले बहनोई बताएं. चलिए, परदेश चल कर महाजन के 20 हजार रुपए चुकाने का उपाय करें.’’
आधी रात का समय था, जब पतिपत्नी में इस प्रकार की बातचीत हुई. सब लोग बेसुध सो रहे थे. राजबाला ने मरदाना वेश धारण किया. अजीत सिंह और राजबाला दोनों महल से बाहर आए और घोड़ों पर सवार हो कर चल दिए.
कई दिन के सफर के बाद 2 सुंदर बांके युवक घोड़ों पर सवार उदयपुर में दिखाई दिए. उस समय मेवाड़ की राजगद्दी पर महाराज जगत सिंह राज करते थे. राणा महल की छत पर बैठे नगर को देख रहे थे. नए राजपूतों को देख कर उन का हाल जानने के लिए राणा ने 2 दूतों को भेजा.
थोड़ी देर में दोनों राजपूत राणा के सामने लाए गए. जब दोनों राजपूत प्रणाम कर चुके तो महाराज ने पूछा, ‘‘तुम कौन हो? कहां से आए हो? और कहां जा रहे हो?’’
अजीत सिंह ने उत्तर दिया, ‘‘महाराज, हम दोनों राजपूत हैं. मेरा नाम अजीत सिंह और ये मेरे साले हैं. इन का नाम गुलाब सिंह है. नौकरी की तलाश में आप के यहां आए हैं. सौभाग्य से आप के दर्शन हो गए. अब आगे क्या होगा, नहीं मालूम.’’
राजा राजपूतों के ढंग को देख कर बहुत प्रसन्न हुए और राजपूतों के नाम पर मोहित हो कर महाराज ने हंस कर उत्तर दिया, ‘‘तुम लोग मेरे यहां रहो. एक हवेली तुम्हारे रहने के लिए दी जाती है. खानपान के लिए अतिरिक्त 5 हजार रुपए और दिए जाएंगे.’’
राजबाला और अजीत सिंह दोनों अब उदयपुर में रहने लगे, परंतु 20 हजार रुपए की चिंता सदा लगी रहती थी. रुपए जुटाने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था. वह वर्षा ऋतु के आरंभ में यहां आए थे और वर्षा ऋतु बीत गई.
फिर दशहरे का त्यौहार आया. इस पर राजपूताना में बड़ा उत्सव मनाया जाता है. उदयपुर में पाड़े (भैंसे) का वध किया जाता है. महाराज के साथ सब सामंत, जागीरदार, सरदार घोड़ों पर सवार हुए. उन के साथ गुलाब सिंह और अजीत सिंह भी चल दिए.
इतने में ही एक गुप्तचर ने आ कर खबर दी, ‘‘महाराज की जय हो. पाड़े के स्थान पर एक सिंह की खबर है.’’
राणा ने राजपूतों से कहा, ‘‘वीरों, आज का दिन धन्य है जो सिंह आया है. ऐसा अवसर बड़ी कठिनाई से मिलता है. अब पाड़े का ध्यान छोड़ कर सिंह का शिकार करो.’’
बस, फिर क्या था. हांके वालों ने सिंह को जा कर घेर लिया और उस के निकलने के लिए केवल एक ही रास्ता रखा जिधर राजा और सरदार उस सिंह का इंतजार कर रहे थे.
महाराज हाथी पर थे. वह चाहते थे कि स्वयं सिंह का शिकार करें. इसलिए उन्होंने और सरदारों को उचितउचित स्थान पर खड़ा कर दिया. जब सिंह ने देखा कि उसे लोग घेर रहे हैं तो वह राणा की ओर बढ़ा.
उसे देख का राणा डर गए क्योंकि उन्होंने पहले कभी इतना बड़ा सिंह नहीं देखा था. उसे मारना आसान काम नहीं था. सब सरदार लोग भी डर गए. सिंह झपट कर राणा के हाथी पर आया और उस के मस्तक से मांस का लोथड़ा नोच कर पीछे हट गया.
राणा के हाथ से भय के मारे तीरकमान भी छूट गए. सिंह फिर छलांग लगाने को ही था कि गुलाब सिंह ने दूर से देखा और अजीत सिंह से कहा, ‘‘ठाकुर साहब, महाराज की जान खतरे में है. उन्हें ऐसे कठिन समय में छोड़ना अति कायरता की बात है. मुझ से अब देखा नहीं जाता. प्रणाम, मैं जाता हूं.’’
‘‘खड़ेखड़े क्या सोच रहे हो, मिलाओ फोन दुर्गा और काली को. बता दो यह नामाकूल यहां है,’’ सुनीता की आंखों से अंगारे बरसने लगे.
जयप्रकाश ने सुनीता के पैर पकड़ लिए. ‘‘भाभीजी नहीं, उन्हें कुछ नहीं बताओ.’’
सुनीता ने पैर झटके, ‘‘पर क्यों? शादी करने से पहले क्या हम से सलाह ली थी? तेरी बरात में नाचे थे क्या?’’
देवराज ने सुनीता को शांत किया, ‘‘छोड़ नीते, इस की हालात ठीक नहीं है. ब्लडप्रैशर भी ज्यादा लग रहा है. इस को आराम करने दे. कुछ सोचते हैं.
‘‘अच्छा जय, हम दूसरे कमरे में जा रहे हैं, तू आराम से सो जा. फिक्र न कर, जब तक तू यहां है, दुर्गा और काली को फोन नहीं करेंगे.’’
जयप्रकाश ने 3 दिनों से आराम नहीं किया था, वह थोड़ी देर में सो गया.
दूसरे कमरे में देवराज और सुनीता जयप्रकाश के बारे में बात कर रहे थे और उन्होंने एक फैसला किया कि जब तक जयप्रकाश की तबीयत ठीक नहीं होती, वे दुर्गा और काली से कोई बात नहीं करेंगे.
बात तकरीबन 10 साल पहले की है. लंबा, गोरा, जवान गबरू जयप्रकाश, जिस को देख कर कोई भी लड़की गश खा जाए, ग्रेजुएशन के फौरन बाद सरकारी नौकरी लग गई परिवहन विभाग में, जहां रिश्वत के बिना कोई काम होता ही नहीं. 2 साल में ही मोटी रकम जमा कर ली.
एक तो गबरू जवान, ऊपर से मोटी रिश्वत वाली पक्की नौकरी. शादी के लिए खूबसूरत लड़कियों के घर वाले आगेपीछे घूमने लगे. खूबसूरत दुर्गा के साथ शादी करे. खूबसूरत जोड़े को देख कर हर कोई गश खाता था. शायद दुनिया की नजर लगी. दोनों के औलाद नहीं हुई. बड़े से बड़ा कोई भी डाक्टर नहीं?छोड़ा. सारे इलाज करवाए, पर औलाद का सुख नहीं पा सके.
7 साल बीत गए. दुर्गा ने खुद ही जयप्रकाश को दूसरी शादी करने की इजाजत दी.
गरीब परिवार की कमला से शादी हो गई. रंग काली यानी सांवला होने के चलते जयप्रकाश कमला को ‘काली’ कहता था. दुर्गा पुराने मकान में रहती थी, जबकि काली दूसरे मकान में.
जयप्रकाश एक दिन दुर्गा के पास रहता. सुबह का नाश्ता दुर्गा के साथ होता. दुर्गा टिफिन औफिस के लिए देती. शाम को जयप्रकाश काली के पास रहता. सुबह का नाश्ता काली के साथ, काली टिफिन औफिस के लिए देती. शाम को जयप्रकाश दुर्गा के पास जाता. यह सिलसिला 3 साल तक चलता रहा.
कुदरत का करिश्मा देखिए, जयप्रकाश को 2 औलादों का सुख मिला. काली से पहली औलाद और ठीक एक साल बाद दुर्गा से दूसरी औलाद.
जहां 7 सालों तक दुर्गा औलाद को तरसती रही, काली के मां बनते ही वह भी मां बन गई. सभी खुश थे. किसी को किसी से शिकायत नहीं थी.
देवराज जयप्रकाश का खास यार था, हंसीमजाक चलता रहता था. देवराज मजाक करता कि क्या किस्मत पाई है, लोगों से एक बीवी संभाली नहीं जाती, तू ने 2-2 के साथ गृहस्थी रमा रखी है.
फिर एक दिन ऐसा भी आया कि वह उन 2 बीवियों से भागता फिरा, जो उस को इतना ज्यादा प्यार करती है. आखिर काम भी तो उस ने गलत किया है. उस की मति मारी गई है. कहावत है, गीदड़ की मौत आती है, तब वह शहर की ओर दौड़ लगाता है.
जयप्रकाश ने तीसरी शादी कर ली, वह भी गुपचुप, किसी को कोई खबर नहीं. एक नर्स के साथ तीसरी शादी. उस नर्स को भी नहीं पता चला कि जयप्रकाश की 2 पत्नियां पहले से हैं. रुपए की कोई कमी नहीं, एक फ्लैट और ले लिया तीसरी पत्नी के लिए.
जयप्रकाश अभी भी गबरू जवान, कोई उस को देख कर कह ही नहीं सकता था कि वह 2 पत्नियों वाला और2 बच्चों का पिता है. नर्स उस के रुपयों की चमक में खो गई.
2 पत्नियों के साथ गजब का रूटीन था. एक दिन एक के साथ, दूसरे दिन दूसरी के साथ. वह भी दोनों की रजामंदी के साथ दोनों पत्नियों को मालूम होता था कि उन का पति कहां है. जब तीसरी शादी कर ली और ज्यादा समय तीसरी के साथ बीतने लगा, तो रूटीन बिगड़ गया.
दोनों पत्नियों का माथा ठनका. आपस में बातचीत की, कुछ नहीं पता चला कि मामला क्या है. तब दोनों औफिस में गईं, तो जयप्रकाश गायब.
औफिस वालों को भी नहीं पता कि भाई साहब कहां हैं. आखिर कब तक औफिस नहीं जाएगा. सरकारी नौकरी है, बिना बताए कब तक छुट्टी पर रहेगा. यह एक पत्नी से भटक कर दूसरीतीसरी का चसका होता तो खतरनाक है. स्वाद कहें, लंपटपन कहें, इस का अंत तो बुरा होता?ही है.
दोपहर के 2 बजे जयप्रकाश की नींद खुली. सुनीता ने खाना खिलाया.
‘‘भाई साहब, आप ने यह क्या किया…? जो किया बहुत ही गलत किया. तीसरी शादी क्या सोच कर की, 2 काफी नहीं थीं क्या? यहां लोग एक को संभाल नहीं सकते, आप की 2 के साथ परफैक्ट सैटिंग थी.’’
सुनीता की कटीजली बातें सुन कर जयप्रकाश फिर से डिप्रैशन में चला गया. खाने का निवाला निगल नहीं सका. बदन पसीने से नहा गया. देवराज ने उसे कार में बिठाया और नजदीक के नर्सिंगहोम ले गया. डाक्टरों ने इलाज शुरू किया. टैस्ट किए गए. दवाओं के असर से नींद आ गई.
सुनीता ने देवराज से कहा, ‘‘सुनोजी, अब आप दुर्गा और काली को फोन कर दो. कब तक छिपा कर बात रखी जा सकती है. जो करेगा, वही भरेगा. हम इस धोखेबाज का साथ कभी नहीं देंगे.’’
‘‘ठीक कहती?है तू. बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी. आज तीसरी की है, क्या मालूम, कल को चौथी कर ले.’’
देवराज ने दुर्गा और काली को फोन कर के नर्सिंगहोम बुला लिया है.
कुछ देर बाद दुर्गा और काली नर्सिंगहोम आती हैं. सभी विषय की गंभीरता पर चर्चा कर रहे हैं. दुर्गा और काली का गुस्सा सातवें आसमान पर था.
देवराज और सुनीता को इस की भनक लग चुकी थी. वे तो सिर्फ मूकदर्शक बन कर मैच देख सकते हैं.
रात के 8 बजे नर्सिंगहोम में डाक्टरों और नर्सों की ड्यूटी बदली. नाइट शिफ्ट की नर्स ने कमरे में प्रवेश किया. जयप्रकाश को देख कर वह सुबकसुबक कर रोने लगी.
‘‘जय, यह क्या हो गया तुम को?’’ फिर कमरे में बैठे दुर्गा, काली, सुनीता और देवराज से पूछा, ‘‘मैं ने आप को पहचाना नहीं?’’
‘‘क्या आप जयप्रकाश को जानती हो?’’ सुनीता ने नर्स से पूछा.
‘‘जय मेरा पति?है,’’ सुन कर दुर्गा, काली, सुनीता और देवराज एकसाथ चिल्ला पड़े. ‘क्या… पति?’
नर्स बौखला गई, ‘‘चिल्ला क्यों रहे हो? देखते नहीं, मेरा पति बीमार है. लेकिन आप मेरे पति के कमरे में क्या कर रहे हो?’’
नर्स की बात सुन कर दुर्गा और काली ने उग्र रूप धारण कर लिया. दुर्गा ने नर्स का एक हाथ पकड़ा और दूसरा काली ने. दोनों हाथ मरोड़ दिए. दर्द से नर्स चिल्ला पड़ी. शोर सुन कर वार्डबौय और जूनियर डाक्टर आ गए और नर्स को छुड़वाया.
‘‘आप नर्स के साथ झगड़ क्यों रहे हो? यह नर्सिंगहोम है. दूसरे पेशेंट डिस्टर्ब हो रहे हैं,’’ जूनियर डाक्टर ने नर्स को उन के चुंगल से बचाया.
देवराज नाजुक मौके को संभालता है और डाक्टर को समझाता है कि कोई अप्रिय बात नहीं होगी. कोई किसी के साथ मारपीट नहीं करेगा.
देवराज की बात सुन कर जूनियर डाक्टर और वार्डबौय चले जाते हैं. देवराज दुर्गा, काली और नर्स को शांत करता है.
सुनीता सब को पानी देती है.
देवराज नर्स से पूछता है, ‘‘आप ने जयप्रकाश से शादी कब की?’’
अगर नीलेश कुंआरा होता और उस से संध्या का प्रेम संबंध होता तो वह खुल कर रजनी से अपने मन की बात कह देती, क्योंकि इस में शर्मिंदगी वाली कोई बात नहीं थी लेकिन अब नीलेश उस का प्रेमी नहीं. रसिक भर था जो तभी तक उस के साथ था जब तक उस का मन उस से भर न जाता और वह यह भी जानती थी कि हवस के ऐसे संबंध बहुत दिनों तक नहीं टिकते, एक न एक दिन उन्हें टूटना ही है.
इन्हीं विचारों में खोई हुई संध्या काफी उदास हो गई. अभी तक उस के इलाज में जो भी खर्च हुआ था उस का भुगतान नीलेश ही कर रहा था और उस के इस एहसान तले वह अपने को दबी हुई महसूस कर रही थी.
संध्या नौकरी करते हुए तकरीबन एक वर्ष हो गया था. अकेले होने के चलते उस का खर्चा सीमित था. रजनी का खर्चा तो उस से भी कम था क्योंकि वह स्वभाव से ही कम खर्च करती थी और मकान किराए से भी कुछ न कुद आमदनी हो जाती थी.
फिर पारिवारिक हालात ऐसी कभी नहीं रहे कि उसे फुजूलखर्ची की आदत लगे. उस की मां चपरासी थी और पारिवारिक पैंशेन ऐसे भी मूल पैंशेन की आधी होती?है. सीमित आमदनी से ही उसे 2-2 बेटियों को पढ़ाना था, साथ ही घर बनाने में भी बहुत खर्च आ रहा था.
संध्या का ज्यादातर खर्च नीलेश ही संभाल लेता, इसलिए उस के अकाउंट में अच्छीखासी रकम जमा हो गई थी. उस ने तय किया कि वह अस्पताल का सारा खर्चा नीलेश को लौटा देगी और आगे से खुद इस को वहन करेगी.
संध्या ने सोचा कि रजनी को वह अपने क्वार्टर से चैक बुक लाने के लिए कहेगी, चाबी नीलेश के पास ही होगी, क्योंकि उसी ने आते वक्त उस का फ्लैट लौक किया होगा.
यही सब सोचते हुए शाम हो गई. नीलेश औफिस बंद कर सीधे अस्पताल पहुंचा. तब तक रजनी भी जाग गई थी.
‘‘अब कैसी हो, संध्या,’’ आते ही नीलेश ने पूछा.
‘‘ठीक हूं, सिर में थोड़ा दर्द?है,’’ संध्या ने कहा तो नीलेश बोला, ‘‘डाक्टर से नहीं कहा?’’
‘‘परचा मुझे दो, मैं दवा ला देता हूं,’’ नीलेश ने कहा तो रजनी ने दीदी के हाथ से परचा लेते हुए कहा, ‘‘तुम क्यों परेशान होते हो. मैं ला देती हूं न.’’
‘‘तुम दवा के पैसे लेते जा, फार्मेंसी वाले नकद भुगतान लेते?हैं,’’ नीलेश ने कहा तो संध्या कुछ न बोली, क्योंकि उस के पास पैसे नहीं थे और रजनी तो अभी दूसरों की मुहताज थी.
‘‘रहने दो, मैं पैमेंट कर दूंगी.’’
‘‘अभी तुम्हें पैसे की बहुत जरूरत है.’’ संभाल कर रखो, ‘‘कहते हुए नीलेश रजनी को 2,000 रुपए का एक नोट थमा दिया.
रजनी ने दवा ला कर संध्या को दी और कहा, ‘‘अगर दीदी ठीक रहती हैं तो मैं नीलेश के घर जा कर भाभी से मिलूंगी मैं यह जानना चाहती हूं कि वे अब तक दीदी से मिलने कभी अस्पताल क्यों नहीं आई.’’
यह सुनते ही वहां सन्नाटा सा पसर गया. न संध्या ने कुछ कहा नीलेश ने. अब वे कहते भी क्या उन्हें अचानक रजनी से इस तरह के प्रस्ताव की उम्मीद नहीं थी.
दोनों को चुप देख कर रजनी बोली, ‘‘दीदी, क्या मैं ने कुछ गलत कह दिया.’’
‘‘नहीं, लेकिन अभी तुम्हारा वहां जाना ठीक नहीं है. तुम मुझे देखने आई हो, इसलिए अभी अस्पताल में ही रहो. जब मैं यहां से डिस्चार्ज हो जाऊंगी तब तुम्हें खुद साथ ले कर चलूंगी.’’
‘‘लेकिन दीदी, मुझे वहां रहना थोड़े है, मैं तो मिल कर तुरंत नीलेश के साथ ही लौट जाऊंगी.’’
‘‘मैं बोल रही हूं न, अभी तुम्हारा वहां जाना ठीक नहीं?है,’’ संध्या ने कुछ नाराजगी भरे तेवर में कहा तो रजनी ने आगे कुछ नहीं कहा.
नीलेश ने इस समय कुछ भी बोलना उचित नहीं समझा और 1-2 घंटे रह कर तथा डाक्टर से मिल कर और फोन पर जरूरत पड़ने पर बात करने के लिए कह कर घर लौट गया.
उस रात रजनी संध्या के साथ ही रही. दूसरे दिन नीलेश आया तो उस ने पूछने पर बताया कि उस के फ्लैट की चाबी उसी के पास?है. संध्या नीलेश से बोली, ‘‘मेरी अलमारी की चाबी मेरे बैडरूम में बिस्तर के नीचे रखी है. तुम रजनी को साथ ले कर जाओ. उसे चाबी दे देना, वह अलमारी से मेरी चैकबुक और एटीएम निकाल कर ले आएगी. वह मेरे फ्लैट में एक बार पहले आ चुकी है. उसे पता है.
संध्या के कहने पर रजनी नीलेश के साथ चाबी लेने उस के फ्लैट में गई. वहां उस ने देखा कि फ्लैट के बैडरूम में कंडोम का एक डब्बा और शराब की 2 बोतलें फर्श पर गिरी थीं और बैडरूम के बिस्तर पर सलवटें पड़ी हुई थीं.
रजनी यह सब देख कर हैरान होती हुई बोली, ‘‘दीदी के बैडरूम में कंडोम और शराब की बोतलें… समझ में नहीं आता ये सब यहां कहां से आए.’’
नीलेश चुप रहा. अब बोलता भी क्या. यह सब उस की ही कारिस्तानी थी. वह संध्या की गैरहाजिरी में अपने औफिस के एक नई लेडी असिस्टैंट को इसी फ्लैट में बुलाता था.
अचानक रजनी को संध्या ने चाबी लाने के लिए भेजा. उस ने सोचा, रजनी संध्या की गैरहाजिरी में उस के बैडरूम में थोड़े ही जाएगी. वह उसे ड्राइंगरूम में बैठा कर चाबी लाने जाएगा. इसी बीच बैड को झाड़ कर वहां से वे चीजें हटा देगा, लेकिन रजनी ने उसे ऐसा करने का मौका ही नहीं दिया. आते ही सीधे संध्या के बैडयम में घुस गई.
अब नीलेश चारों ओर से घिर गया था. कई सवाल उस के चारों ओर मंडराने लगे थे.
खास कर यह सवाल उसे सब से ज्यादा परेशान कर रहा था कि उस का और संध्या के बीच क्या संबंध है. दूसरे सवाल भी थे जिस का उस के पास कोई जवाब नहीं था. मसलन वह रजनी को अपने घर ले जाने से न यों बच रहा है, जबकि रजनी अब तक इस बारे में उस से 2 बार कह चुकी है. उस से अब तक किसी ने पूछा तो नहीं था लेकिन यह सवाल भी उठ सकता था कि वह संध्या पर इस तरह क्यों पैसे खर्च कर रहा है, जबकि संध्या अब खुद एक कालेज में नौकरी कर रही है, लेकिन इस का उस के पास जवाब था. वह कह सकता था कि अचानक संध्या बीमार हुई थी, इसलिए उस ने ऐसा इनसानियत के तौर पर किया.
आज के सवाल का नीलेश के पास कोई जवाब नहीं था. फिर भी उसे अपनी चुप्पी तो तोड़नी ही थी, इसलिए वह झूठ बोला, ‘‘इस का जवाब तो तुम्हारी दीदी ही दे सकती है, मैं तो तुम्हारी दीदी के अस्पताल जाने के बाद पहली बार यहां आया हूं.’’
नीलेश ने सोचा कि अब ऐसी बातों के बारे में रजनी अपनी बहन से तो पूछेगी नहीं, इसलिए इस से बढि़या बहाना कोई दूसरा हो नहीं सकता था. अब रजनी क्या बोलती. उस ने सोचा कि दीदी अकेली रहती है, हो सकता?है किसी से उन का संपर्क हो, लेकिन दीदी को तो उस ने कभी शराब पीते नहीं देखा.
हो सकता है कि उन का कोई बौयफ्रैंड हो जो शराब का लती हो और यहां भी साथ में शराब की बोतलें ले कर आ गया हो. लेकिन ये बातें उसे संतुष्ट न कर पा रही थीं. दीदी कभी ऐसी न थी. अगर ऐसा होता तो भी ये चीजें वे कमरे में यों ही न छोड़ती. वे जरूर इन्हें साफ कर देतीं.
नीलेश जरूर झूठ बोलता?है, यह इसी की कारिस्तानी हैं, लेकिन बिना किसी ठोस प्रश्न के वह यह भी तो नहीं कह सकती थी कि नीलेश उस से कुछ छिपा रहा है.
नीलेश एक आशिकमिजाज आदमी था, इसलिए उस की नजर रजनी पर भी टिकी हुई थी लेकिन संध्या बुरा न मान जाए और रजनी कोई बखेड़ा न खड़ा कर दे, यह सोच कर वह कोई ऐसा काम नहीं करना चाहता था जिस से संध्या की नजरों में वह गिर जाएं.
संध्या नीलेश के लिए एक सौफ्ट टारगेट थी जिस का वह मनचाहा इस्तेमाल कर रहा था और जिस से वह बिछड़ना भी न चाहता था. रजनी ने भी कई बार महसूस किया कि नीलेश की कामुक निगाहें उस को भेद रही हैं. सच तो यह था कि वह नीलेश के साथ अकेले दीदी के फ्लैट में भी न आना चाहती थी लेकिन दीदी ने जब कह दिया तो वह उन की बात को टाल भी न सकी.
नीलेश ने बैडरूम में बिखरे समान को फेंकना चाहा तो रजनी ने मना कर दिया कहा, ‘‘मैं दीदी से पूछूंगी कि इतनी लापरवाह वे क्यों हैं, इसलिए इन चीजों को ऐसे ही छोड़ दो.’
रजनी के सख्त तेवर देख कर नीलेश ने कमरे को वैसे ही छोड़ दिया. अब वह कमरे को साफ करने की जिद करता तो शक उसी के प्रति गहराता. अब रजनी फ्लैट से जल्दी से जल्दी निकल जाना चाहती थी.
फिर उस के मन में जाने क्या आया कि बोली, ‘‘इधर से लौटते हुए भाभी से मिल कर अस्पताल लौटना चाहती हूं, इसलिए अपने घर से हो कर अस्पताल चलो.’’
यह सुन कर नीलेश घबराया, लेकिन बात को उस ने संभाल लिया और बोला, ‘‘मेरा घर यहां से काफी दूर है, जानती ही हो दिल्ली में कितना ट्रैफिक है, किसी दूसरे दिन चलेंगे.’’
एक दिन जब संध्या नीलेश के बंगले पर आई हुई थी और नीलेश उस से प्यार पाने की जिद कर रहा था, तब उस ने उस से कहा, ‘हमलोग जो यह कर रहे हैं, क्या वह तुम्हें अच्छा लगता है नीलेश? बोलो क्या यह एक सही कदम है?’
नीलेश हवस का मारा हो रहा था, इसलिए इस समय वह संध्या से इस मुद्दे पर बहस के मूड में न था. वह बोला, ‘अब इन दकियानूसी बातों से बाहर आओ संध्या. तुम किस जमाने में जी रही हो? अब ऐसी बातें घिसीपिटी हो गई हैं. जिस तरह शरीर को भूख लगती है और उस को मिटाने के लिए खाने की जरूरत होती है कुछ इसी तरह की जरूरत है सैक्स, इसलिए इस पर सोचना करना बंद करो और जिंदगी का मजा लो.’
‘फिर इनसान ने और जानवर में क्या फर्क रह जाएगा नीलेश? संध्या बोली थी, ‘सभ्य समाज में सभी लोग यही करेंगे तो क्या अराजकता न फैल जाएगी?’
‘कुछ नहीं होगा, सदियों से होता आया है ऐसे. थोड़ी अपनी सोच को बड़ा बनाओ. अब सभ्य समाज में ये सब आम बातें हैं. हां, यह जरूर है कि लोग खुलेतौर पर इस से बचते हैं.
‘क्या पहले यह सब नहीं होता था? क्या राजाओं और सामंतों के यहां पत्नी के अलावा जरूरी औरतों को रखैल बना कर रखने का रिवाज नहीं था?’
संध्या चुप हो गई. वह जानती थी कि नीलेश पर अब हवस हावी है. उसे बस उस का शरीर चाहिए.
संध्या ने नीलेश से कहा, ‘नहीं नीलेश, अब बहुत हुआ. अब तुम वादा करो कि मुझ से शादी करोगे, तभी मैं तुम्हारे साथ रह सकती हूं.’
नीलेश बोला था, ‘तुम चिंता मत करो. मैं शादी कर लूंगा लेकिन अभी नहीं. इतनी जल्दी मैं शादी के बंधन में नहीं बंधना चाहता. अभी तो मैं एकदम फ्री जिंदगी का लुफ्त उठाना चाहता हूं.’
संध्या समझ गई थी कि नीलेश उस का शारीरिक शोषण कर रहा था और भावनात्मक ब्लैकमेलिंग. अब उस को नीलेश से नफरत होने लगी थीं. आखिर नीलेश औरत को समझता क्या है, केवल भोग्या. नीलेश ही नहीं, ऐसी सोच अनेक मर्दों की थी. सदियों से मर्द औरतों को भोग्या ही तो समझते आया है. वह उठी और उस के बंगले से बाहर निकल आई.
नीलेश ने उसे रोकने की काफी कोशिश की. लेकिन वह नहीं रुकी.
वहां से लौटने के बाद संध्या ने नीलेश को फोन करना बंद कर दिया और एक प्रोफैसर के अंडर रिसर्च करने लगी. रातदिन की लगन का नतीजा यह हुआ कि उस को डाक्टरेट की डिगरी मिल गई और उस के बाद एक कालेज में लेक्चरर की नौकरी भी.
इसी बीच संध्या की मां की मौत हो गई. मां के जाने के बाद अब वह अकेली पड़ गई थी. जमीन तो पिता ने ही खरीदी थी. उन की मौत के बाद उन के जीपीएफ के पैसे और अपने जिंदगीभर की कमाई से मां ने किसी तरह एक छोटा घर बनवा दिया था, वरना उन्हें सिर ढकने के लिए किसी किराए के मकान की शरण लेनी पड़ती.
मां की मौत के बाद संध्या ने एक अपार्टमेंट खरीद लिया और अकेलापन की जिंदगी बिताने लगी. रजनी कानपुर में ही रह कर एक कालेज से एमए करने लगी.
इधर नीलेश की शादी हो गई. फिर एक बेटी भी पैदा हो गई. वह संध्या को भूलने लगा था. अब उसे उस को याद करने की जरूरत भी क्या थी. जिस की उसे चाह थी उस का स्वाद वह ले चुका था.
अचानक एक दिन नीलेश की मुलाकात संध्या से हो गई. वह अपनी पत्नी और बच्चों को ले कर लाल किला घूमने आया था. उस दिन संध्या भी अपनी कुछ सहेलियों के साथ लाल किला घूमने आई थी.
नीलेश ने अपनी पत्नी से उस का परिचय यह कह कर कराया कि वह कानपुर में उस के कालेज में पढ़ती थी. दिल्ली में आज उस से पहली बार मुलाकात हो रही है. वह सारी बातें छिपा गया. संध्या क्या बोलती, वह चुप रही.
संध्या को अब नीलेश में कोई दिलचस्पी अब तक जो कुछ हुआ था. उसे एक बुरा सपना समझ कर भूल जाने में ही उस की भलाई थी. लेकिन जब नीलेश ने उस से उस का फोन नंबर मांगा तो वह इनकार भी न कर पाई. बातोंबातों में ही नीलेश ने यह भी जान लिया कि वह किस अपार्टमैंट में कहां रहती?है.
उस के बाद जो कुछ हुआ वह पहले से भी ज्यादा गलत था. उस अकेला समझ कर नीलेश उस के फ्लैट में आने लगा.
कहते हैं न कि एक बार बांध की मेंड़ टूट जाती है तो वह कमजोर पड़ जाती है. संध्या को नीलेश के साथ हमबिस्तर होने की आदत तो पहले से ही थी. जब नीलेश उस के संपर्क में फिर आया तब वह यह जानते हुए भी कि यह गलत है. उस के झांसे में आ गई, क्योंकि अब उसे भी सैक्स की आदत लग गई थी. अब नीलेश उस पर खुल कर खर्च करने लगा.
इस संबंध के बारे में संध्या ने रजनी से कुछ भी नहीं बताया था. अब बताती भी कैसे. यह बताने वाली बात तो थी नहीं.
उधर नीलेश की पत्नी भी नीलेश के इस नाजायज रिश्ते से अनजान थी. जब संध्या को ब्रेन हैमरेज हुआ तो रात में नीलेश ने बहाना बनाया था कि उस के एक औफिस के साथ की अचानक तबीयत खराब हो गई है और जब वह संध्या को भरती करा कर काफी देर बाद घर लौटा तब भी बात छिपा ली. बोला, उस के साथी को ब्रेन हैमरेज हो गया है, वह अकेला रहता?है, इसलिए उस की देखरेख के लिए उसे रोज अस्पताल जाना होगा.
सुधा बहुत ही सरल स्वभाव की लड़की थी. जिस से नीलेश ने पिता के बहुत जोर देने पर शादी की थी. सुधा उस के पिता के एक दोस्त की एकलौती बेटी थी. जिन की एक अच्छीखासी प्रोपर्टी थी. उसी पर नीलेश के पिता की निगाह थी. इसी प्रोपर्टी के लालच में उस के पिता ने सुधा से नीलेश की शादी पर इतना जोर दिया था.
इधर संध्या से नीलेश का संबंध टूट गया था. सुधा देखने में रखरखाव थी और नीलेश की कोई गर्लफ्रैंड भी नहीं थी. इसलिए उस ने इस शादी से इनकार नहीं किया था. सरल और सादे स्वभाव सुधा ने नीलेश की बातों पर यकीन कर लिया.
अब चाहे जितनी भी सरल स्वभाव की पत्नी क्यों न हो वह पति के नाजायज रिश्ते को स्वीकार तो करेगी नहीं. इस बात को नीलेश अच्छी तरह जानता था और वह घर में किसी तरह का तनाव नहीं लेना चाहता था, इसलिए उस ने सुधा से अपने इस रिश्ते को छिपा लिया था.
वह इस बात को रजनी से भी नहीं बताना चाहता था. इसलिए रजनी कहने के बाद भी वह उसे अपने घर ले कर नहीं गया.
संध्या इन्हीं घटनाओं के भंवर में न जाने कब तक फंसी रही. उसे नींद भी न आ रही थी. रजनी थकीमांदी होने के चलते गहरी नींद में थी, लेकिन उसे नीलेश से अपने संबंधों के बारे में कभी न कभी तो बताना ही होगा, इस की चिंता भी उसे खाए जा रही थी.
कविता को अपनी खूबसूरती का, उसे देख कर मर्दों के आहें भरने का, कुछ पल उस के साथ बिताने की चाहत का अंदाजा था तभी तो उस ने जब जो चाहा, वह पाया. आउट औफ टर्न प्रोमोशन, आउट आफ टर्न मकान और स्वच्छंद जीवन. अगर कभी कोई उपहासपरिहास में मर्यादा की सीमाएं लांघ भी जाए तो भी कविता ने बुरा नहीं माना लेकिन कौन सी बात कविता को बुरी लग जाए और पुरुष सहकर्मी की शिकायत ऊपर तक पहुंच जाए, अनुमान लगाना कठिन था. परिणामस्वरूप कविता का तबादला दूसरी जगह कर दिया जाता. दफ्तर भी कविता की शिकायतें सुनसुन कर और तबादले करकर के परेशान हो गया था.
महेश पुरी के विभाग में कविता का तबादला शायद दफ्तर की सोचीसमझी नीति के तहत हुआ था. इधर पिछले कुछ वर्षों से कविता की शिकायतें बढ़ती जा रही थीं. दफ्तर के उच्च अधिकारियों के लिए वह एक सिरदर्द बनती जा रही थी. उधर, पूरे दफ्तर में महेश पुरी की सज्जनता और शराफत से सभी परिचित थे. कविता को उन के विभाग में भेज कर दफ्तर ने सोचा होगा कि कुछ दिन बिना किसी झंझट के बीत जाएंगे. कविता भी इस विभाग में पहले से कहीं अधिक खुश थी. कविता की दृष्टि से देखा जाए तो इस के कई कारण थे. पहला, यहां कोई दूसरी महिला कर्मचारी नहीं थी. महिला सहकर्मी कविता को अच्छी नहीं लगती क्योंकि उस का रोकनाटोकना, समझाना या उस के व्यवहार को देख कर हैरान होना या बातें बनाना कविता को बिलकुल पसंद नहीं आता था. दूसरा मुख्य कारण था, इस ब्रांच के अधिकांश पुरुष कर्मचारी कुंआरे थे. उन के साथ उठनेबैठने, घूमनेफिरने, कैंटीन में जाने में उसे कोई परेशानी नहीं होती क्योंकि उन्हें न अपनी बीवियों का डर होता और न ही शाम को घर भागने की जल्दी. अत: दोनों ओर से स्वच्छंदतापूर्ण व्यवहार का आदानप्रदान होता. यही कारण था कि कुछ ही दिनों में कविता जानपहचान की इतनी मंजिलें तय कर गई जो दूसरे विभागों में वह आज तक नहीं कर पाई थी.
एक दोपहर कविता महेश पुरी के कैबिन से बाहर निकली तो उस का चेहरा गुस्से से तमतमाया हुआ था. अपना आंचल ठीक करती, गुस्से से पैर पटकती, अंगरेजी में 2-4 मोटीमोटी गालियां देती वह कमरे से बाहर चली गई. पूरा स्टाफ यह दृश्य देख कर हतप्रभ रह गया. कोई कुछ भी न समझ पाया. सब ने इतना अनुमान जरूर लगाया कि कविता ने दफ्तर के काम में कोई भारी भूल की है या फिर उस के खिलंदड़े व्यवहार और काम में ध्यान न देने के लिए डांट पड़ी है. दूसरी तरफ सब लोग इस बात पर भी हैरान थे कि साहब ने कविता को बुलाया तो था ही नहीं फिर उसे साहब के पास जाने की जरूरत ही क्या थी. फाइल तो चपरासी के हाथ भी भिजवाई जा सकती थी.
ब्रांच में अभी अटकलें ही लग रही थीं कि तभी कविता विजिलैंस के 3-4 उच्च अधिकारियों को साथ ले कर दनदनाती हुई अंदर आ गई. वे सभी महेश पुरी के कैबिन में दाखिल हो गए. मामला गंभीर हो चला था. कर्मचारियों की समझ में कुछ नहीं आ रहा था. अधिकारियों का समूह अंदर क्या कर रहा था, किसी को कुछ पता नहीं लग रहा था? जैसेजैसे समय बीत रहा था, बाहर बैठे कर्मचारियों की बेचैनी बढ़ने लगी थी. वैसे तो वे सब फाइलों में सिर झुकाए बैठे थे, लेकिन ध्यान और कान दीवार के उस पार लगे थे. कुछ देर बाद विजिलैंस अधिकारी बाहर, बिना किसी से कुछ बात किए, चले गए थे. उन के पीछेपीछे कविता भी बाहर आ गई. परेशान, गुस्से में लालपीली, बड़बड़ाती हुई अपनी सीट पर आ कर बैठ गई और कुछ लिखने लगी. किसी की भी हिम्मत नहीं हुई कि पूछे, आखिर हुआ क्या? पुरी साहब आखिर किस बात पर नाराज हैं? उन्होंने ऐसा क्या कह दिया?
कविता भी इस चुप्पी को सह नहीं पा रही थी. वह गुस्से से बोली, ‘समझता क्या है अपनेआप को? इस के अपने घर में कोई औरत नहीं है क्या?’
सुनते ही सब अवाक् रह गए. सब की नजरों में एक ही प्रश्न अटका था, ‘क्या महेश पुरी भी…?’ किसी को यकीन ही नहीं हो रहा था. कविता फिर फुफकार उठी, ‘बहुत शरीफ दिखता है न? इस बुड्ढे को भी वही बीमारी है, जरा सुंदर लड़की देखी नहीं कि लार टपकने लगती है.’ इतना सुनते ही पूरी ब्रांच में फुसफुसाहट शुरू हो गई. कोई भी कविता की बात से सहमत नहीं लग रहा था. पुरी साहब किसी लड़की पर बुरी नजर रखें, यकीन नहीं हो रहा था, लेकिन कुछ लोग यह भी कह रहे थे कि कविता अकारण तो गुस्सा न करती. कोई कारण तो होगा ही. पुरी के मामले में लोगों का यकीन डगमगाने लगा. थोड़ी देर बाद मुंह नीचा किए महेश पुरी तेज कदमों से बाहर निकल गए और उस के बाद फिर कभी दफ्तर नहीं आए. उस दिन से प्रतिदिन दफ्तर में घंटों उस घटना की चर्चा होती. पुरी साहब और कविता के बारे में बातें होने लगीं. कविता के चाहने वाले भी दबी जबान में उस पर छींटाकशी करने से नहीं चूक रहे थे तो दूसरी तरफ वर्षों से दिल ही दिल में पुरी साहब को सज्जन मानने वाले भी उन पर कटाक्ष करने से नहीं चूक रहे थे. वास्तव में यह आग और घी का, लोहे और चुंबक का रिश्ता है, किसे दोष दें?
पुरी साहब तो उस दिन के बाद से कभी दफ्तर ही नहीं आए, लेकिन कविता शान से रोज दफ्तर आती, यहांवहां बैठती, जगहजगह पुरी साहब के विरुद्ध प्रचार करती रहती. दिन में कईकई बार वह इसी किस्से को सुनाती कि कैसे पुरी ने उस के साथ दुर्व्यवहार करने की कोशिश की. नाराज होते हुए सब से पूछती, ‘खूबसूरत होना क्या कोई गुनाह है?’ ‘क्या हर खूबसूरत लड़की बिकाऊ होती है?’ ‘नौकरी करती हूं तो क्या मेरी कोई इज्जत नहीं है?’ …वगैरह. कविता की बातें मजमा इकट्ठा कर लेतीं. लोग पूरी हमदर्दी से सुनते फिर कुछ नमकमिर्च अपनी तरफ से लगाते और किस्सा आगे परोस देते. बात आग की तरह इस दफ्तर तक ही नहीं, दूर की ब्रांचों तक फैल गई. कविता के सामने हमदर्दी रखने वाले भी उस की पीठ पीछे छींटाकशी से बाज न आते.
दफ्तर में इस घटना के लिए एक जांच कमेटी नियुक्त कर दी गई थी. जांच कमेटी अपना काम कर रही थी. 1-2 बार पुरी साहब को भी दफ्तर में तलब किया गया. शर्मिंदगी से वे जांच कमेटी के आगे पेश होते और चुपचाप लौट जाते. वर्षों साथ रहे पुरी के पुराने दोस्तों की भी उन से बात करने की हिम्मत नहीं हो रही थी. किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि पुरी साहब से क्या कहें, क्या पूछें? आज का अखबार पढ़ते ही रमा स्वयं को रोक न सकी और कविता के घर पहुंच गई. वह कुछ साल पहले महेश पुरी के साथ काम कर चुकी थी. कविता का चेहरा कुछ उतरा हुआ था. रमा को देख कर वह कुछ घबरा गई. गुस्साई रमा ने बिना किसी भूमिका के अखबार कविता के सामने पटकते हुए पूछा, ‘‘यह क्या है?’’
तभी गुलाब सिंह का घोड़ा तीर की तरह सनसनाता हुआ आगे बढ़ा, हाथी अपना धैर्य छोड़ चुका था. सिंह फिर छलांग लगाने को ही था कि हवा के झोंके की तरह आ कर गुलाब सिंह ने उसे अपने भाले के निशाने पर ले लिया. भाले सहित सिंह जमीन पर गिरा.
बस, फिर क्या था, सवार ने एक ऐसा हाथ तलवार का मारा कि सिंह का सिर अलग जा गिरा. उसी समय उस के कान और पूंछ काट कर घोड़े की जीन के नीचे रख कर लोगों के बीच जा पहुंचा और बातचीत करने लगा.
परंतु उस ने इस काम को इतनी फुरती में किया कि किसी को ज्ञात भी न हुआ कि वह घुड़सवार कौन था, जिस ने सिंह को मारा. सिंह के मरने पर चारों ओर राजा की जयजयकार होने लगी. सब लोगों ने अपनीअपनी जगह से आ कर राजा को घेर लिया. सरदारों ने कहा, ‘‘ईश्वर ने आज बड़ी दया की. हम सब की जान में जान आई.’’
जब सभी बधाई दे चुके तो राजा ने कहा, ‘‘वह कौन बहादुर था, जिस ने आज मेरी प्राणों की रक्षा की. उस को मेरे सामने लाओ. मैं उसे ईनाम दूंगा.’’
परंतु मारने वाला बहुत दूर खड़ा था. वह अपने को उजागर करना भी नहीं चाहता था. राणा ने थोड़ी देर तक राह देखी. परंतु जब कोई नहीं आया तो खुशामदी दरबारी लोग अपनेअपने मित्रों के नाम बताने लगे.
राणा ने कहा, ‘‘नहीं, मैं ने उसे जाते हुए देखा है. हालांकि ठीकठीक नहीं कह सकता, परंतु पहचान तो उसे अवश्य लूंगा. उस के मुख की सुंदरता मेरी आंखों में खपी जाती है.’’
राजा की बात सुन कर सब चुप हो गए और सवारी महल की ओर चली. जब राणा फाटक पर पहुंचे तो हाथी से उतर कर आज्ञा दी, ‘‘एकएक आदमी मेरे सामने से हो कर निकल जाएं.’’
आज्ञानुसार बारीबारी से सभी लोग राणा के सामने से निकल कर महल में चले गए. जब गुलाब सिंह जाने लगा तो राणा ने उसे देख कर पूछा, ‘‘क्या सिंह को तुम ने मारा है?’’
गुलाब सिंह ने सिर झुका कर कहा, ‘‘जिस को श्रीमान कहें, वही सिंह का वध कर सकता है. सिंह की मृत्यु तो आप की आज्ञा के अधीन है.’’
राणा बोले, ‘‘मैं समझता हूं, सिंह तुम ने ही मारा है परंतु मैं यह यकीन से नहीं कह सकता, क्योंकि तीव्रगति से दौड़ते घोड़े ने मुझे इतना अवसर न दिया कि मैं मारने वाले को ठीक से पहचान सकता.’’
अजीत सिंह भी निकट था, वह बोला, ‘‘अनाथों के नाथ, सिंह के कान और पूंछ नहीं हैं, इस से ज्ञात होता है कि उस को मारने वाले ने प्रमाण के लिए उस के कान और पूंछ काट लिए हैं.’’
राणा ने गुलाब सिंह से कहा, ‘‘कान और पूंछ हाजिर करो.’’
गुलाब सिंह ने तुरंत घोड़े की जीन के नीचे से निकाल कर उन्हें राणा के सामने पेश किया. राणा बोले, ‘‘राजपूतो, तुम बड़े वीर हो. आज से तुम मेरे संग रहो. मैं तुम्हें अपना अंगरक्षक नियुक्त करता हूं.’’
हालांकि दोनों राजपूत संग रहते थे परंतु रात के समय दोनों को अलगअलग हो जाना पड़ता था. अजीत सिंह तो रात को दरबार में रहता था और राजबाला (गुलाब सिंह) की ड्यूटी राजा के सुख भवन में थी. एक दिन राजबाला अपनी बेबसी पर नीचे स्वर में मल्हार के राग गाने लगी.
अजीत सिंह ने राजबाला के राग को सुना. उस के हृदय में भी वही भाव उद्दीप्त हो गया. उस ने भी राजबाला के राग में स्वर मिला दिया. राणा की रानी बहुत चतुर थी. दोनों गाने वालों के राग की आवाज रात के समय उस के कानों में पड़ी.
उस ने राणा से कहा, ‘‘मुझे ज्ञात होता है कि ये दोनों राजपूत जो तुम्हारी सेवा में हैं स्त्री और पुरुष हैं. यह जो पुरुष रानी निवास पर पहरे पर है, अवश्य यह स्त्री है. कोई कारण है, जिस से ये एकदूसरे से नहीं मिलते और मन ही मन कुढ़ते हैं.’’
राणा खूब ठहाके मार कर हंसे फिर बोले, ‘‘खूब, तुम्हें खूब सूझी. ये दोनों सालेबहनोई हैं. सदा से संग रहते हैं. आज यह यहां ड्योढ़ी पर हैं कि कभी अलग नहीं होंगे. इन दोनों में गाढ़ी प्रीत है.’’
रानी बोली, ‘‘महाराज, आप जो कहते हैं सत्य होगा, परंतु मेरी भी बात मान लीजिए. इन की परीक्षा कीजिए. अपने आप ही झूठसच ज्ञात हो जाएगा.’’
राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ और तुरंत ही अजीत सिंह और गुलाब सिंह दोनों को अपने महल में बुला भेजा. दोनों बड़े डरे कि क्या बात है. कोई नई आफत तो नहीं आई.
उन्होंने राणा के सामने जा कर प्रणाम किया. तब राणा ने पूछा, ‘‘गुलाब सिंह और अजीत सिंह यह बताओ कि तुम दोनों मर्द हो या तुम में से कोई स्त्री है?’’
दोनों चुप थे. क्या उत्तर देते. राणा ने फिर वही प्रश्न किया, ‘‘तुम दोनों बोलते क्यों नहीं? तुम्हें जो दुख हो कहो. मेरे अधिकार में होगा तो अभी इसी समय दूर कर दूंगा. लाज, भय की कोई बात नहीं.’’
अजीत सिंह ने सिर झुका कर राणा को अपनी सारी कहानी कह सुनाई. राणा ने उसी समय दासी को बुला कर कहा, ‘‘देखो, यह जो बहन मरदाना वेश में खड़ी है, मेरी पुत्री है. इस को अभी महल में ले जा कर स्त्रियों के कपड़े पहना दो और महल में रहने के लिए अलग स्थान दो, हर प्रकार से इन को आराम दो.’’
राजबाला राणा को प्रणाम कर उन की आज्ञा मान कर उसी समय सिर झुका कर महल में चली गई.
इस के बाद राणा ने अजीत सिंह से कहा, ‘‘राजपूत, मैं तेरे बापदादा के नाम को जानता हूं. तेरा वचनबद्ध होना धन्य है. मैं ने आज तक अपनी आयु में ऐसा योगी नहीं देखा था. तू मनुष्य नहीं देवता है. जा महल में अब अपनी स्त्री से बात कर.’’
रात को किसी को नींद नहीं आई. सुबह होते ही राणा ने 20 हजार रुपए सूद सहित अजीत सिंह को दिए.
वह उसी समय ऊंटनी पर चढ़ कर जैसलमेर की ओर चल दिया. कई दिन के सफर के बाद अजीत सिंह जैसलमेर मोहता सेठ के पास पहुंचा और सूद सहित 20 हजार रुपए सौंप दिए.
एक बरस से अजीत सिंह का कोई अतापता नहीं था. बनिया अपने रुपयों से निराश हो गया था परंतु उसे कोई रंज न था. क्योंकि वह अजीत सिंह के पिता अनार सिंह से बहुत कुछ ले चुका था. रुपए वापस पा कर सेठ बहुत खुश हुआ और बोला, ‘‘तुम वास्तव में क्षत्रिय हो, तुम जानते हो कि वचन क्या होता है. तुम महान हो.’’
अजीत सिंह सेठ के रुपए दे कर उदयपुर आया और राणा के पैरों पर गिर पड़ा, ‘‘आप ने मेरी लाज रख ली.’’
राणा ने राजबाला को प्राणरक्षक देवी का खिताब दिया. वह उदयपुर में इसी नाम से विख्यात थीं. वह जब कभी राणा के महल में उन के होते हुए जाती, राणा बेटी कह कर पुकारते थे.
पतिपत्नी दोनों राणा के कृपापात्र बन गए. राणा उन्हें बहुत प्यार करते थे, मानो वे उन के ही बेटेबेटी हों. राजबाला और उस के पति के लिए एक अलग से महल बनवा दिया गया और उन्हें एक जागीर भी अलग प्रदान की कई.
सेठ के रुपए चुका कर उदयपुर जाने के बाद उस रात जब बिस्तर पर अजीत सिंह
और राजबाला सोए, तब उन के बीच
तलवार नहीं थी. दोनों ने अपना वचन धर्म निभाया था और उस दिन दो जिस्म एक जान बन गए थे.
चंचला भाभी के स्वभाव में जरूरत से कुछ ज्यादा मिठास थी जो शुरू से ही मेरे गले कभी नहीं उतरी, लेकिन घर का हर सदस्य उन के इस स्वभाव का मुरीद था. वैसे भी हर कोई चाहता है कि उस के घर में गुणी, सुघड़, सब का खयाल रखने वाली और मीठे बोल बोलने वाली बहू आए. हुआ भी ऐसा ही. चंचला भाभी को पा कर मां और बाबूजी दोनों निहाल थे, बल्कि धीरेधीरे चंचला भाभी का जादू ऐसा चला कि मां और बाबूजी नवीन भैया से ज्यादा उन की पत्नी यानी चंचला भाभी को प्यार और मान देने लगे. कभी बुलंदियों को छूने का हौसला रखने वाले, प्रतिभाशाली और आकर्षक व्यक्तित्व वाले नवीन भैया अपनी ही पत्नी के सामने फीके पड़ने लगे.
मेरे 4 भाईबहनों में सब से बड़े थे मयंक भैया, फिर सुनंदा दी, उस के बाद नवीन भैया और सब से छोटी थी मैं. हम चारों भाईबहनों में शुरू से ही नवीन भैया पढ़ने में सब से होशियार थे. इसलिए घर के लोगों को भी उन से कुछ ज्यादा ही आशाएं थीं. आशा के अनुरूप, नवीन भैया पहली बार में ही भारतीय प्रशासनिक सेवा की मुख्य लिखित परीक्षा में चुन लिए गए और उस दौरान मौखिक परीक्षा की तैयारियों में जुटे हुए थे, जब एक शादी में उन की मुलाकात चंचला भाभी से हुई.
निम्न मध्यवर्गीय परिवार की साधारण से थोड़ी सुंदर दिखने वाली चंचला भाभी को नवीन भैया में बड़ी संभावनाएं दिखीं या वाकई प्यार हो गया, किसे मालूम, लेकिन नवीन भैया उन के प्यार के जाल में ऐसे फंसे कि उन्होंने अपना पूरा कैरियर ही दांव पर लगा दिया. उन से शादी करने की ऐसी जिद ठान ली कि उस के आगे झुक कर उन की मौखिक परीक्षा के तुरंत बाद उन की शादी चंचला भाभी से कर दी गई.
शादी के बाद भाभी ने घर वालों से बहुत जल्द अच्छा तालमेल बना लिया, लेकिन नवीन भैया को पहला झटका तब लगा जब भारतीय प्रशासनिक सेवा का फाइनल रिजल्ट आया. आईएएस तो दूर की बात उन का तो पूरी लिस्ट में कहीं नाम नहीं था. अब उन्हें अपना सपना टूटता नजर आया, वे चंचला भाभी को मांबाबूजी के सुपुर्द कर नए सिरे से अपनी पढ़ाई शुरू करने दिल्ली चले गए.
नवीन भैया भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा में 3 बार शामिल हुए. हर बार असफल रहे. भैया हतप्रभ थे. बारबार की इस असफलता ने उन के आत्मविश्वास को जड़ से हिला दिया.
जिन नौकरियों को कभी नवीन भैया ने पा कर भी ठोकर मार दी थी, अब उन्हीं को पाने के लिए लालायित रहते, कोशिश करते पर हर बार असफलता हाथ आती. जब किसी काम को करने से पहले ही आत्मविश्वास डगमगाने लगे तो सफलता प्राप्त करना कुछ ज्यादा ही मुश्किल हो जाता है. उन के साथ यही हो रहा था.
नवीन भैया पटना लौट आए थे. यहां भी वे नौकरी की तलाश में लग गए, कहीं कुछ हो नहीं पा रहा था. बाबूजी उन का आत्मविश्वास बढ़ाने के बदले उन्हें हमेशा निकम्मा, कामचोर और न जाने क्याक्या कहते रहते.
प्रतिभाशाली लोगों को चाहने वालों की कमी नहीं होती और उन से ईर्ष्या करने वाले भी कम नहीं होते. होता यह है कि जब कोई प्रतिभाशाली व्यक्ति कामयाबी की राह नहीं पकड़ पाता तो उस के चाहने वाले उस से मुंह मोड़ने लगते हैं और ईर्ष्या करने वाले ताने कसने का कोई मौका नहीं छोड़ते.
नवीन भैया से जलने वाले रिश्तेदारों और पड़ोसियों को भी मौका मिल गया उन पर तरहतरह के व्यंग्यबाण चलाते रहने का. उन की असफलता से आहत उन के अपने भी उन्हें जबतब जलीकटी सुनाने लगे. पासपड़ोस के लोग तो अकसर उन्हें कलैक्टर बाबू कह उन के जले पर नमक छिड़कते, जिसे सुन एक बार नवीन भैया तो मरनेमारने पर उतारू हो गए थे. जब बाबूजी को इस घटना के बारे में मालूम हुआ तो वे क्रोध में अंधे हो उन्हें बेशर्म और नालायक जैसे अपशब्दों से नवाजते हुए मारने तक दौड़ पड़े थे.
पूरी तरह टूट चुके नवीन भैया देर तक ड्राइंगरूम के एक कोने में सुबकसुबक कर रोते रहे थे. उन का तो आत्मविश्वास के साथ जैसे स्वाभिमान भी खत्म हो रहा था. दूसरे ही दिन नौकरी की तलाश में जाने के लिए उन्होंने बाबूजी से ही रुपए मंगवाए थे. भाई की दुर्दशा से आहत बड़े भैया ने दूसरा कोई रास्ता न देख समझाबुझा कर उन का दाखिला ला कालेज में करवा दिया.
रजनी ने बाथरूम में जल्दी से स्नान किया और होटल के वेटर से नीलेश द्वारा मंगाए खाने के लिए बैठी, तो नीलेश ने कहा, ‘‘इधर कई दिनों से सुबह ही घर से अस्पताल के लिए चल पड़ता हूं, इसलिए मैं भी लंच यहीं लेता हूं.’’
लंच लेते समय रजनी ने एक बार फिर नीलेश का दीदी के साथ संबंध पूछने के बारे में सोचा, लेकिन जब नीलेश खुद कुछ न बोला, तो उस ने भी इस वक्त इस बारे में ज्यादा कुरेदना सही नहीं समझा. सोचा, अब दीदी के होश आने पर ही वह इस बारे में उन्हीं से पूछ लेगी.
लंच खत्म करने के बाद वे दोनों थोड़ी देर आराम करने के लिए बैठे ही थे कि नीलेश को उस के चपरासी के भाई ने फोन पर बताया कि उस की दीदी को अब होश आ गया है. यह सुनते ही रजनी का चेहरा खुशी से चमक उठा.
नीलेश खुश हो कर बोला, ‘‘तुम्हारे आने से संध्या को एक नई जिंदगी मिली?है, रजनी. तुम्हारी बहन जितनी तुम्हारे लिए खास हैं, उतनी ही मेरे लिए भी हैं. चलो, चल कर उन से मिलें. तुम्हें देख कर वे बहुत खुश होंगी.’’
‘‘लेकिन, मुझे अब तक यह समझ में नहीं आया कि तुम मेरी दीदी के लिए इतना कुछ क्यों कर रहे हो?’’
‘‘तुम सब्र रखो. कुछ दिनों के बाद तुम खुद ही सबकुछ जान जाओगी. अभी हमें जल्द से जल्द चल कर संध्या से मिलना चाहिए. ब्रेन हैमरेज के दिन से ही वह कोमा में है.’’
रजनी आगे कुछ न बोली. वैसे भी उस ने तय किया था कि दीदी से ही वह इस बारे में जानने की कोशिश करेगी.
संध्या रजनी को नीलेश के साथ देख कर कमजोर और बीमार होने के बाद भी घबरा सी गई.
अचानक कई सवाल उस के जेहन में कौंधने लगे. इतना तो उसे याद था कि अचानक उस के सिर में बहुत दर्द उठा था और उलटी होने लगी थी. घबरा कर संध्या ने बाहर का दरवाजा खोला था, ताकि किसी पड़ोसी की मदद ले सके. इस के फौरन बाद उस ने नीलेश को फोन किया था. इस के बाद क्या हुआ, उसे पता नहीं था.
‘‘मैं यहां कब से हूं?’’ नीलेश को देख कर संध्या ने पूछा, फिर रजनी से मुखातिब हुई, ‘‘तुम यहां कब आई?’’
‘‘पिछले हफ्ते अचानक तुम्हें ब्रेन हैमरेज हुआ था. यह तो गनीमत थी कि बेहोश होने के पहले तुम ने मुझे फोन कर दिया था और उस समय फोन की रिंग सुन कर मेरी नींद टूट गई थी. जब मैं ने तुम्हारा फोन नंबर देखा तो घबरा गया. समझ गया कि कोई न कोई खास बात जरूर है, वरना इतनी रात को तुम मुझे फोन क्यों करोगी.
‘‘सुधा से बहाना कर के मैं गाड़ी ले कर तुम्हारे अपार्टमैंट्स में पहुंच गया था. वहां के गार्ड को सोते से जगा कर जब तुम्हारे फ्लैट के पास पहुंचा, तब तुम्हारी हालत देख कर मेरे तो होश ही उड़ गए थे. तुम दरवाजे पर बेहोश हो कर गिरी पड़ी थी. अगलबगल कोई नहीं था. शायद लोगों को आवाज लगाने के पहले ही तुम बेहोश हो गई थी.
‘‘घर से निकलने के पहले मैं ने कई बार तुम्हें फोन किया, लेकिन जब तुम ने फोन रिसीव नहीं किया, तब किसी अनहोनी के डर से मैं बहुत घबरा गया था. ‘‘खैर, मेरी और गार्ड की आवाज सुन कर तब तक अगलबगल वाले पड़ोसी भी अपनाअपना दरवाजा खोल कर बाहर आ गए थे. उन की मदद से मैं तुम्हें नीचे लाया और अस्पताल में भरती करा दिया. समय से इलाज हो जाने के चलते…’’
‘‘शुक्रिया नीलेश. सच में तुम न रहते, तो आज मैं तुम से बात करने के लिए जिंदा न बचती…’’ नीलेश की बात बीच में ही काट कर संध्या बोली, ‘‘लेकिन, यह रजनी यहां कब आई? इस के बारे में तो मैं ने तुम्हें कभी बताया नहीं था.’’
‘‘दीदी, मैं आज सुबह ही आई हूं. नीलेश ने ही फोन कर के आप के बारे में मुझे बताया था.’’
‘‘तुम्हारे मोबाइल फोन की कौंटैक्ट लिस्ट से मुझे रजनी का फोन नंबर मिला था. उस में उस के नाम की जगह तुम ने ‘छोटी’ लिखा था. मुझे लगा कि यही तुम्हारी छोटी बहन होगी.’’
‘‘सही अंदाजा लगाया था तुम ने नीलेश. बचपन से ही मैं इसे छोटी कह कर ही पुकारती आई हूं. अब क्या बताऊं तुम्हें. अब हमारे मांबाप नहीं रहे, छोटी की जिम्मेदारी भी मुझ पर ही है.’’
‘‘लेकिन, तुम ने तो मुझे इस के बारे में ज्यादा बताया नहीं?’’ नीलेश ने कहा.
‘‘तुम ने मुझे इस के लिए कभी मौका ही कहां दिया. जब कभी अपनी बात कहना चाहती, तो टोक देते थे. कहते कि रहने दो, मुझे तुम्हारा अतीत नहीं जानना, वर्तमान में ही सिर्फ जीना चाहता हूं मैं.’’
‘‘अच्छा दीदी, अब आप आराम करो. घर लौट कर बातें करेंगे,’’ रजनी बोली, तो संध्या चुप हो गई.
‘‘हां, ठीक कहती है रजनी. अभी तुम पूरी तरह ठीक नहीं हो. डाक्टर बोल रहा था कि अभी तुम्हें एक हफ्ता और अस्पताल में ही रहना होगा. पूरी तरह आराम की जरूरत है. इतनी भी बातें इसलिए कर पाई, क्योंकि अस्पताल वालों ने तुम्हें आईसीयू से वार्ड में शिफ्ट कर दिया है.’’
ध्या चुप तो हो गई लेकिन कई सवाल उस के दिमाग में अब घूमने लगे थे. क्या रजनी उस के और नीलेश के संबंधों को जानती है? रजनी नीलेश के बारे में क्या सोच रही होगी? क्या नीलेश ने रजनी से उस के अपने संबंधों के बारे में बता दिया? अगर बता दिया तो उस के मन में उस के प्रति किस तरह के विचार आ रहे होंगे? क्या रजनी जानती है कि उस का नीलेश से नाजायज रिश्ता है? नीलेश पहले से ही शादीशुदा ही नहीं बल्कि एक बेटी का पिता भी है.
नीलेश ने अपनी पत्नी से उस से अपने संबंधों को छिपाया है. अस्पताल का इतना भारी खर्च नीलेश क्यों उठा रहा है? अगर उस ने समय पर उसे अस्पताल न पहुंचाया होता तो क्या वह बचती? फिर कौन रजनी की पढ़ाईलिखाई का क्या होता? क्या वह अपनी पढ़ाई बिना किसी दबाव के पूरा कर पाती?
कुछ देर बाद नीलेश अपने घर लौट गया, क्योंकि वह सुबह से ही अस्पताल में था. रजनी के आ जाने के बाद से वह थोड़ा रिलैक्स हो गया था. फिर अब संध्या होश में भी आ गई थी और उस की हालत में काफी सुधार भी था.
नीलेश का संध्या पर इतना बड़ा एहसान लद चुका था कि उसे चुकाना उस के लिए इस जिंदगी में मुमकिन नहीं था. अगर वह अस्पताल का खर्चा चुका भी देती है तब भी क्या नीलेश का एहसान खत्म हो जाता? नहीं, कभी नहीं, क्योंकि पैसे से उस की जान नहीं बची थी नीलेश के उस के प्रति लगाव से बची थी. क्या वह इस बात को कभी भूल पाएगी?
रातभर जगी रहने के चलते संध्या को दवा और खाना दे कर रजनी उस के बगल में पड़ी एटैंडैंट के लिए रखे बैड पर सो गई, लेकिन संध्या को नींद कहां. वह यादों में खोने लगी थी.
नीलेश और संध्या कानपुर के एक कालेज में पढ़ते थे. उस समय नीलेश के पिताजी जिले में एक औफिस में सरकारी अफसर थे. उन की आमदनी अच्छी थी, इसलिए नीलेश कालेज में भी काफी ठाटबाट से रहता.
संध्या कालेज में सब से खूबसूरत लड़की थी. कालेज के कई लड़के उस के पीछे भागते थे, पर वह किसी को भी घास नहीं डालती. लेकिन नीलेश कहां हार मानने वाला था. वह लगातार कई महीनों तक उस का पीछा करता रहा और एक दिन संध्या उस की दीवानगी के आगे झुक ही गई, लेकिन इसी बीच नीलेश के पिताजी का ट्रांसफर इलाहाबाद हो गया. इस के बावजूद नीलेश ने रजनी का पीछा नहीं छोड़ा. वह उस से फोन और सोशल मीडिया पर हमेशा संपर्क में रहा.
इसी बीच नीलेश ने बीकौम किया, फिर बिजनैस मैनेजमैंट का कोर्स कर के वह दिल्ली की एक कंपनी में मैनेजर बन गया.
इधर संध्या ने कानपुर से ही एमए किया और डाक्टरेट करने के लिए दिल्ली आ गई.
नीलेश से उस का पहले से तो परिचय था ही, यहां आते ही उस से मिलनाजुलना भी शुरू हो गया. उस समय संध्या एक गर्ल्स होस्टल में रहती थी. नीलेश को कंपनी की ओर से एक बंगला मिला था.
कभीकभी जब मन नहीं लगता तो संध्या नीलेश के बंगले पर आ जाती. समय के साथ उन के बीच नजदीकियां बढ़ने लगीं.
बंगले में जब वे दोनों अकेले होते तो नीलेश कभीकभी संध्या के काफी करीब आ जाता और उस की खूबसूरती की तपती आंच से अपने को नहीं बचा पाता. नतीजा यह होता कि वह उस के शरीर को छूने करने की कोशिश करने लगता. संध्या किसी अनजाने आकर्षण के चलते उसे मना नहीं कर पाती.
जब ज जबां दिल एकसाथ हों और वह भी अकेले, तो खुद को हवस की आग से कब तक संभाल पाते. नतीजा हुआ कि एक दिन रात में नीलेश की जिद पर संध्या उस के बंगले में रुक गई और 2 तपती देह आपस में मिलने से अपने को न रोक पाई जब उन के बीच एक बार मर्यादा का बांध टूटा तो फिर टूटता ही चला गया.
शुरू में तो संध्या इस से काफी नर्वस हुई. होती भी क्यों नहीं. जिस समाज और संस्कार के पेड़ तले उस का पालनपोषण हुआ था, वह शादी के पहले शारीरिक संबंध बनाने की इजाजत नहीं देता था.
इस तरह की लड़कियों को समाज बदचलन कहता था, लेकिन संध्या जानती थी कि जो समाज ऐसे सैक्स संबंधों को नकारता था वही परदे के पीछे इस तरह की घिनौनी हरकतों के लिए जिम्मेदार भी था.
समाज के इस दोहरे मापदंड से उसे गुस्सा आता था, इसलिए वह अंदर से इस अपराधबोध से परेशान थी.