अकीदन बूआ

अकीदन बूआ की लाश चौराहे पर रखी थी. पूरा गांव उन के अंतिम दर्शनों के लिए उमड़ पड़ा था. गांव के हर मर्दऔरत की जबान पर आज अकीदन बूआ का नाम था. हर कोई आज उन की अच्छाइयों के चर्चे करते नहीं थक रहा था. हर कोई यही महसूस कर रहा था, जैसे कोई उन का अपना उन से बिछड़ गया हो.

गांव में किसी के यहां अगर कोई कामकाज होता, तो अकीदन बूआ को सब से पहले खबर हो जाती. सभी धर्मजाति के लोग उन्हें अपने परिवार के सदस्य की तरह मानते थे. उन का अपना घर आगजनी की भेंट चढ़ गया था. उस के बाद से गांव का हर घर उन का अपना घर बन गया था. उन की सुबह किसी घर में होती, तो दोपहर किसी दूसरे के यहां और शाम कहीं और.

कभी अकीदन बूआ का अपना भी एक घर हुआ करता था. उन का भी हंसताखेलता, भरापूरा परिवार हुआ करता था. उन का आदमी फौज में था. देश के बंटवारे के समय उन के देवरदेवरानी और सासससुर अपने बच्चों समेत पाकिस्तान चले गए थे.

सासससुर ने उन्हें बहुत सम?ाया कि अकीदन तू भी पाकिस्तान चल. तेरे आदमी को चिट्ठी भेज कर वहीं बुलवा लिया जाएगा, लेकिन उन्होंने उन के साथ पाकिस्तान जाने से इनकार कर दिया था.

सासससुर, देवरदेवरानी और उन के बच्चों के चले जाने के बाद घर भांयभांय करने लगा. घर में निपट अकेली बची अकीदन को दिन काटना मुश्किल लगने लगा था. काफी दिनों से उन के पति यासीन की भी कोई चिट्ठी न आने से वे परेशान हो उठीं. उन का आदमी जो हर महीने खर्चा भेजता था, वह भी आना बंद हो गया था.

एक दिन पाकिस्तान से एक चिट्ठी आई, जो उस के ससुर ने लिखी थी. उस चिट्ठी में लिखा था. ‘अकीदन, तेरे आदमी को यहां फौज में जगह मिल गई है. तू अगर आना चाहे तो चिट्ठी में लिख भेज. यासीन तु?ो लेने आ जाएगा.’

लेकिन अकीदन को अपने गांव और यहां की मिट्टी से इतना लगाव हो गया था कि वे किसी भी कीमत पर यहां से जाना नहीं चाहती थीं.

उन्होंने चिट्ठी के जवाब में साफसाफ लिख भेजा, ‘जिस मुल्क की मिट्टी में मैं ने जन्म लिया है, उसी की खाक में मिल कर अपने को धन्य सम?ांगी. मु?ो लेने आने की सोचना भी मत, वरना यहां से तुम्हें निराश ही लौटना पड़ेगा. मैं यहीं ठीक हूं.’

अब अकीदन बूआ को इस बात का पता चल गया था कि उन का आदमी भी पाकिस्तान का हो गया है. ऐसे में उन के सामने रोजीरोटी की समस्या बनी हुई थी, क्योंकि उन के आदमी की कमाई पर ही घर का खर्च चलता था और अब खर्च आना बंद हो गया था, इसलिए भुखमरी से निबटने के लिए उन्होंने एक तरकीब सोची.

उन्होंने अपने जेवरात बेच कर घर पर ही एक छोटी सी परचून की दुकान खोल ली. ग्राहक बनाने के लिए उन्होंने छोटेछोटे बच्चों को जरीया बनाया. उन की दुकान पर जो भी बच्चा सौदा लेने आता, वे उसे एक टौफी मुफ्त में देतीं. देखते ही देखते हर घर के बच्चे उन की दुकान की ओर खिंचने लगे.

जब अकीदन बूआ की दुकान चलने लगी, तो उन्होंने अपनी दुकान के सामने यह सूचना लिख कर टंगवा दी कि अकीदन बूआ की दुकान पर सौदा खरीदने पर बच्चों को टौफी और बड़ों को माउथ फ्रैशनर उपहार में दिया जाएगा.

यह सूचना धीरेधीरे सारे गांव में फैल गई. इस से गांव की बड़ीबड़ी दुकानें प्रभावित होने लगीं.

अकीदन बूआ चूंकि सभी चीजें वाजिब दाम पर बेचती थीं और मुनाफा दूसरों से कम लेती थीं व जरूरतमंदों को उधार भी दे देती थीं. इसी वजह से ज्यादा मुनाफाखोर दुकानदारों की ओर से गांव वालों का मोह भंग होने लगा. अब अकीदन बूआ की दुकान का नाम सारे गांव की जबान पर था.

अकीदन बूआ की दुकान के आगे एकएक कर अब कई दुकानें बंद होती चली गईं. जिन लोगों की दुकानें बंद हो गई थीं, वे गोलबंद हो कर उन के खिलाफ साजिश रचने की योजना बनाने में जुट गए.

एक दिन जब अकीदन बूआ गांव से बाहर किसी काम से गई हुई थीं, तो साजिश करने वालों ने मौका पा कर अकीदन बूआ के घर को आग लगा दी. इतना ही नहीं, आग बु?ाने के बहाने उन्होंने मिट्टी का तेल छिड़क कर आग को और भड़का दिया.

सारा घर धूधू कर आग में जल उठा. सबकुछ जल कर खाक हो चुका था. सिर छिपाने तक को आसरा नहीं बचा था.

अकीदन बूआ लौट कर जब घर आईं, तो घर की जगह उन्हें राख का ढेर मिला. आदमी का साथ तो पहले ही छूट चुका था, आज घर का साया भी नहीं रह गया था. वे किसी अनाथ बच्चे की तरह फफक पड़ीं.

गांव के लोग भी अकीदन बूआ के दुख में शामिल हो गए. उन्होंने उन्हें हिम्मत बंधाई. गांव वालों में से एक ने कहा, ‘‘अब से गांव के हर घर को तुम अपना घर सम?ा. तुम्हारे लिए गांव के हर घर के दरवाजे खुले हैं.’’

थोड़े ही दिनों में अकीदन बूआ ने अपने अच्छे बरताव, सेवा भाव और गांव वालों के दुखसुख में बराबर शरीक हो कर सब का दिल जीत लिया.

गांव के मुखिया ने एक दिन पंचायत बुला कर अकीदन बूआ को घर बनवा कर देने की बात कही, तो उन्होंने यह कहते हुए मना कर दिया कि अब उन्हें घर की जरूरत नहीं है.

अब सारा गांव ही उन का घर था. गांव के बच्चे अपनी अकीदन बूआ के लाड़प्यार से बहुत प्रभावित थे. वे अकसर शाम के समय उन्हें घेर कर बैठ जाते और कहानियां सुनाने की जिद करते. गांव में जब कोई मां शरारत करने पर अपने बच्चे को मारनेपीटने के लिए हाथ उठाती, तो बच्चा कहता, ‘‘मारोगी तो अकीदन बूआ को बता दूंगा.’’

यह सुन कर मां की ममता जाग जाती और वह बच्चे को छाती से चिपका लेती.

आज जब अकीदन बूआ हमेशा के लिए शांत हो गई थीं, तो पूरा गांव हैरान था. बच्चे फटीफटी आंखों से उन्हें देखते हुए कह रहे थे, ‘अकीदन बूआ उठो… अकीदन बूआ उठो…’ पर शायद वे नहीं जानते थे कि अकीदन बूआ अब कभी नहीं उठेंगी.

सबक : गीता ने कौन सा कदम उठाया

‘‘देख लेना, मैं एक दिन घर छोड़ कर चली जाऊंगी, तब तुम लोगों को मेरी कीमत पता लगेगी,’’ बड़बड़ाते हुए गीता अपने घर से काम करने के लिए बाहर निकल गई.

गीता की इस चेतावनी का उस के मातापिता और भाईबहन पर कोई असर नहीं पड़ता था, क्योंकि वे जानते थे कि वह अगर घर छोड़ कर जाएगी, तो जाएगी कहां…? आना तो वापस ही पड़ेगा.

आजकल गीता यह ताना अकसर अपने मातापिता को देने लगी थी. वह ऊब गई थी उन का पेट पालतेपालते. आखिर कब तक वह ऐसी बेरस जिंदगी ढोती रहेगी. उस की अपनी भी तो जिंदगी है, जिस की किसी को चिंता ही नहीं है.

गीता के अलावा उस की 2 बहनें और एक भाई भी था. बाप किसी फैक्टरी में मजदूरी करता था, लेकिन अपनी कमाई का सारा पैसा शराब और जुए में उड़ा देता था.

महज 10 साल की उम्र में ही गीता ने अपनी मां लक्ष्मी के साथ घरों में झाड़ूपोंछा और बरतन साफ करने के काम में हाथ बंटाना शुरू कर दिया था. वह बहुत जल्दी खाना बनाना भी सीख गई थी, क्योंकि उस ने देखा था कि इस पेशे में अच्छे पैसे मिलते हैं और उस ने घरों में खाना बनाने का काम शुरू कर दिया. धीरेधीरे गीता ब्यूटीशियन का कोर्स किए बिना ही फेसियल, मेकअप वगैरह सीख कर थोड़ी और आमदनी भी करने लगी.

बचपन से ही गीता बहुत जुझारू थी. लक्ष्मी पढ़ीलिखी नहीं थी, लेकिन वह अपने बच्चों को पढ़ाना चाहती थी, इसलिए वह भी जीतोड़ मेहनत कर के पैसा कमाती थी, जिस से कि उस के बच्चे पढ़ सकें.

लक्ष्मी स्वभाव से बहुत सरल और अपने काम के प्रति समर्पित थी, इसलिए कालोनी में जिस के घर भी वह काम करती थी, वे उसे बहुत पसंद करते थे और जब भी उसे जरूरत पड़ती, उस की पैसे और सामान दे कर मदद करते थे.

समय बीतता गया. गीता ने प्राइवेट से इम्तिहान दे कर बीए की डिगरी हासिल कर ली. हैदराबाद में रहने से वहां के माहौल के चलते उस की अंगरेजी भी बहुत अच्छी हो गई थी.

लोग गीता की तारीफ करते नहीं थकते थे कि पढ़ाई के साथ वह घर का खर्चा भी चलाने में अपनी मां के काम को कमतर समझ कर उस की मदद करने में कभी कोताही नहीं बरतती थी.

इस के उलट गीता की दोनों बहनों ने रैगुलर रह कर पढ़ाई की, लेकिन कभी अपनी मां के काम में हाथ नहीं बंटाया, क्योंकि पढ़ाई के चलते अहंकारवश उन को उस का काम छोटा लगता था, बल्कि वे तो अपने घर का काम भी नहीं करना चाहती थीं. दिनभर पढ़ना या टैलीविजन देखना ही उन की दिनचर्या थी.

गीता उन को कुछ कहती, तो वे उसे उलटा जवाब दे कर उस का मुंह बंद कर देतीं, लक्ष्मी भी उन का पक्ष लेते हुई कहती कि अभी वे छोटी हैं, उन के खेलनेकूदने के दिन हैं.

गीता के भाई राजू ने इंटर के बाद पढ़ाई छोड़ दी. उस का कभी पढ़ाई में मन लगा ही नहीं, लेकिन सपने उस के काफी बड़े थे. दोस्तों के साथ मोटरसाइकिल पर घूमना और देर रात घर लौट कर अपनी बहनों पर रोब गांठना उस की दिनचर्या में शामिल हो गया था.

लक्ष्मी अपने लाड़ले एकलौते बेटे की हर जिद के सामने हार जाती थी, क्योंकि वह घर छोड़ कर चला जाऊंगा की धमकी दे कर अपनी हर बात मनवाना चाहता था.

एक बार राजू मोटरसाइकिल खरीदने की जिद पर अड़ गया, तो लक्ष्मी ने लोगों से उधार ले कर उस की इच्छा पूरी की. किसी ऊंची पोस्ट पर काम करने वाले आदमी, जिन के यहां दोनों मांबेटी काम करती थीं, से कह कर दूसरे शहर में राजू की नौकरी लगवाई कि अपने दोस्तों से दूर रहेगा, तो उस का काम में मन लगेगा. उस के लिए पैसों की जरूरत पड़ी, तो लक्ष्मी ने अपने कान के सोने के बूंदे गिरवी रख कर उस की भरपाई की.

एक दिन अचानक राजू अच्छीखासी नौकरी छोड़ कर गायब हो गया. पूरा परिवार उस की इस हरकत से बहुत परेशान हुआ.

कुछ महीने बाद पता चला कि राजू तो एक लड़की से शादी कर के उस के साथ इसी शहर में रह रहा है. वह लड़की किसी ब्यूटीपार्लर में काम करती थी.

लक्ष्मी और गीता को यह जान कर बड़ी हैरानी हुई कि उन लोगों ने उस का भविष्य बनाने के लिए क्याकुछ नहीं किया और उस ने लड़की के चक्कर में अपने कैरियर की भी परवाह नहीं की.

राजू के इसी शहर में रहने के चलते आएदिन उस की खबर इन लोगों को मिलती रहती थी. लक्ष्मी किसी तरह कोशिश कर के उस की नौकरी लगवाती, वह फिर नौकरी छोड़ कर घर बैठ जाता, जरूरत पड़ने पर वह जबतब लक्ष्मी से पैसे की मांग करता, तो अपने बेटे के प्यार में सबकुछ भूल कर वह उस की मांग पूरी करती.

अब गीता को अपनी मां लक्ष्मी की राजू के प्रति हमदर्दी अखरने लगी. उस का मन बगावत करने लगा कि बचपन से उस ने दोनों बहनों और भाई की जिंदगी बनाने के लिए क्याकुछ नहीं किया, लेकिन लक्ष्मी को उसे छोड़ कर सभी की बहुत चिंता रहती थी. यहां तक कि जब गीता अपने पिता को कुछ कहती, तो लक्ष्मी उसे डांटती कि वे उस के पिता हैं, उस को उन के बारे में ऐसा नहीं बोलना चाहिए.

गीता गुस्से से बोलती, ‘‘कैसे पिता…? क्या बच्चे पैदा करने से ही कोई पिता बन जाता है? जब वे हमें पाल नहीं सकते, तो उन्हें बच्चे पैदा करने का हक ही क्या था…?’’

गीता को अपनी मां लक्ष्मी से बहुत हमदर्दी रहती थी, लेकिन जवान होतेहोते उसे समझ आने लगा था कि वह अपनी हालत के लिए खुद भी जिम्मेदार है.

सुबह की निकली जब गीता रात को 8 बजे घर पहुंचती, तो देखती कि दोनों बहनें टैलीविजन देख रही हैं, मां खाना बना रही हैं, मांजने के लिए बरतनों का ढेर लगा हुआ है, तो उस का मन गुस्से से भर उठता. लेकिन किसी को भी कुछ कहने से फायदा नहीं था और वह मन मसोस कर रह जाती थी.

गीता ने अब बीऐड भी कर लिया था और वह एक स्कूल में नौकरी करने लगी थी, लेकिन उस ने खाली समय में घरों के काम में मां का हाथ बंटाना नहीं छोड़ा था. स्कूल से जो तनख्वाह मिलती थी, वह तो पूरी अपनी मां को दे देती थी, लेकिन घरों से उसे जो आमदनी होती थी, वह अपने पास रख लेती थी.

देखते ही देखते गीता 26 साल की हो गई थी, लेकिन उस की शादी की किसी को चिंता ही नहीं थी. पर उस ने अपने भविष्य के लिए सोचना शुरू कर दिया था और मन ही मन घर छोड़ने का विचार करने लगी. ऐसा कर के वह उन सब को सबक सिखाना चाहती थी.

गीता ने अब बातबात पर कहना शुरू कर दिया था कि वह घर छोड़ कर चली जाएगी, लेकिन वे लोग उस की इस बात को कभी गंभीरता से नहीं लेते थे, क्योंकि उन्हें उम्मीद ही नहीं थी कि वह कभी ऐसा कदम भी उठा सकती है. पर बात यह नहीं थी.

गीता ने मन ही मन स्कूल में बने स्टाफ क्वार्टर में रहने की योजना बनाई और एक दिन वाकई अपने घर छोड़ने की खबर कागज पर लिख कर चुपचाप चली गई.

जैसे ही घर वालों को उस के जाने की खबर मिली, सभी सकते में आ गए. सब से ज्यादा मां लक्ष्मी को झटका लगा, क्योंकि गीता की कमाई के बिना घर चलाना मुश्किल था. मां के हाथपैर फूल गए थे.

एक हफ्ता बीत गया, लेकिन गीता घर नहीं आई. उस को कई बार फोन भी किया, लेकिन गीता ने फोन नहीं उठाया. हार कर लक्ष्मी अपनी बीच वाली बेटी के साथ उस के स्कूल पहुंच गई.

लक्ष्मी के कहने पर गार्ड गीता को बुलाने गया. थोड़ी देर में गीता आ गई. उस को देख कर वे दोनों रोते हुए उस से लिपटने के लिए दौड़ीं, लेकिन गीता ने हाथ से उन्हें रोक लिया.

इस से पहले कि लक्ष्मी कुछ कहती, गीता बोली, ‘‘मुझे पता है, तुम्हें मेरी नहीं, बल्कि मेरे पैसों की जरूरत है. मैं उस घर में तभी कदम रखूंगी, जब वहां मेरे पैसे की नहीं, मेरी कद्र होगी. तुम सभी के मेरे जैसे दो हाथ हैं, इसलिए मेरी तरह तुम सभी मेहनत कर के अपने खर्चे चला सकते हो. तभी तुम्हें पता चलेगा कि पैसा कितनी मेहनत से कमाया जाता है.

‘‘अब मुझ से किसी तरह की उम्मीद मत रखना. अब मैं सिर्फ अपने लिए जीऊंगी. मुझ से कभी दोबारा मिलने की कोशिश भी नहीं करना…’’ और इतना कह कर वह वहां से तुरंत लौट गई.

अपनी बेटी की दोटूक बात सुन कर मां लक्ष्मी हैरान रह गई. वह उस के इस रूप की कल्पना भी नहीं कर सकती थी. उसे याद आया, जब डाक्टर ने लक्ष्मी के लिए ब्रैस्ट कैंसर का शक जाहिर किया था, तब गीता छिपछिप कर कितना रोती थी. उस के साथ डाक्टरों के चक्कर भी लगाने जाती थी और जब शक बेवजह का निकला, तो खुशी के आंसू उस की आंखों से बह निकले थे और आज वह इतनी कठोर कैसे हो गई? लक्ष्मी वहीं थोड़ी देर के लिए सिर पकड़ कर बैठ गई.

लक्ष्मी ने अपने सभी बच्चों को बचपन से ही हनत करना सिखाया होता और पैसे की अहमियत बताई होती, तो गीता को न अपना घर छोड़ना पड़ता और न लक्ष्मी के ऊपर मुसीबतों का पहाड़ टूटता.

अपने पति और बेटे के प्रति अंधे प्यार ने उन्हें निकम्मा और नकारा बना दिया था, जिस के चलते उन्होंने कभी जिम्मेदारी निभाने की कोशिश ही नहीं की. उन को मुफ्त के पैसे लेने की आदत पड़ गई थी. वे दोनों इस परिवार पर बोझ बन गए थे.

मां लक्ष्मी को गीता के जाने से अपनी गलती का एहसास हुआ, लेकिन अब पछताए होत क्या जब चिडि़या चुग गई खेत. लक्ष्मी को अब नए सिरे से घर का खर्च चलाना था, उस ने कुछ घरों से उधार लिया, यह कह कर कि हर महीने उस की पगार से काट लें. पहले ही खर्चा चलाना मुश्किल था, उस पर उधार चुकाना उस के लिए किसी बोझ से कम नहीं था.

पति और बेटे से तो उम्मीद लगाना ही बेकार था, लेकिन बीच वाली बेटी ने किसी दुकान में नौकरी कर ली और छोटी बेटी ने अपनी पढ़ाई के साथसाथ मां के साथ घरों के काम में हाथ बंटाना शुरू कर दिया, लेकिन उन को अपने खर्चों में भारी कटौती करनी पड़ी. इस वजह से वे दोनों बहनें चिड़चिड़ी सी रहने लगी थीं.

गीता के स्वभाव और उस को अपने काम के प्रति निष्ठावान देख कर उस के एक सहयोगी ने उस के सामने शादी का प्रस्ताव रखा, तो उस ने हामी भरने में बिलकुल भी देरी नहीं लगाई.

शादी के बाद गीता ने घर और स्कूल की जिम्मेदारी बखूबी निभा कर सब का मन मोह लिया और सुखी जिंदगी जीने लगी.

गीता ने जो कदम उठाया, उस से उस की जिंदगी में तो खुशी आई ही, बाकी सब को भी कम से कम सबक तो मिला कि मुफ्त की कमाई ज्यादा दिनों तक हजम नहीं होती. हो सकता है कि भविष्य में लक्ष्मी का परिवार एकजुट हो जाए, जिस से उन्हें गरीबी के दलदल से बाहर निकलने का रास्ता मिल जाए.

दीवार: भाग 1

आस्ट्रेलिया में 6 सप्ताह बिताने के बाद जया और राहुल जब वापस आए तो घर खोलते ही उन्हें हलकी सी गंध महसूस हुई. यह गंध इतने दिनों तक घर बंद होने के कारण थी.  सफर की थकान के कारण राहुल और जया का मन चाय पीने को कर रहा था, जया बोली, ‘‘जानकी कल शाम पूजा के फ्रिज में दूध रख गई होगी, तुम खिड़कियां व दरवाजे खोलो राहुल, मैं तब तक दूध ले कर आती हूं.’’

‘‘दूध ले कर या चाय का और्डर कर के?’’ राहुल हंसा.

‘‘आस तो नाश्ते की भी है,’’ कह कर जया बाहर निकल गई.  बराबर के फ्लैट में रहने वाले कपिल और पूजा से उन की अच्छी दोस्ती थी.  कुछ देर बाद जया सकपकाई सी वापस आई और बोली, ‘‘कपिल और पूजा ने यह फ्लैट किसी और को बेच दिया है. मैं ने घंटी बजाई तो दरवाजा एक नेपाली लड़के ने खोला और पूजा के बारे में पूछा तो बोला कि वे तो अब यहां नहीं रहतीं, यह फ्लैट हमारे साहब ने खरीद लिया है.’’

जया अभी राहुल को नए पड़ोसी के बारे में बता ही रही थी कि तभी दरवाजे की घंटी बजी. जया ने जैसे ही दरवाजा खोला तो देखा कि जानकी दूध के पैकेट लिए खड़ी थी.

‘‘माफ करना मैडम, आने में थोड़ी देर हो गई, पूजा मैडम का नया फ्लैट…’’

‘‘कोई बात नहीं,’’ जया ने बात काटी, ‘‘यह बता, पूजा मैडम कहां गईं?’’

‘‘7वें माले पर, मगर क्यों, यह नहीं मालूम,’’ जानकी ने रसोई में जाते हुए कहा.

‘‘चलो, है तो सोसायटी में ही, मिलने पर पूछेंगे कि तीसरे माले से 7वें माले पर क्यों चढ़ गई? चाय तो जानकी पिला देगी मगर नाश्ता तो खुद ही बनाना पड़ेगा,’’ जया ने राहुल से कहा.

‘‘नाश्ते के लिए इडलीसांभर और फल ला दूंगा.’’

राहुल के बाजार जाने के बाद दरवाजा बंद कर के जया मुड़ी ही थी कि फिर घंटी बजी. जया ने दरवाजा खोला. बराबर वाले फ्लैट का वही नेपाली लड़का एक ढकी हुई टे्र लिए खड़ा था.  ‘‘साहब ने नाश्ता भिजवाया है,’’ कह कर उस ने बराबर वाले फ्लैट की ओर इशारा किया जहां एक संभ्रांत प्रौढ़ सज्जन दरवाजे पर ताला लगा रहे थे. ताला लगा कर वे जया की ओर मुड़े और मुसकरा कर बोले, ‘‘मैं आप का नया पड़ोसी आनंद हूं. मुझे पूजा और कपिल से आप के बारे में सब मालूम हो चुका है. आस्टे्रलिया की लंबी यात्रा के बाद आप थकी हुई होंगी इसलिए पूजा की जगह मैं ने आप के लिए नाश्ता बनवा दिया है.’’

‘‘आप ने तकलीफ क्यों की? राहुल गए हैं न नाश्ता लाने…’’

‘‘तो यह आप लंच में खा लेना,’’ आनंद नौकर की ओर मुड़े. ‘‘मुरली, टे्र अंदर टेबल पर रख दो.’’

मुरली ने लपक कर टे्र अंदर टेबल पर रख दी और फिर आनंद का ब्रीफकेस उठा कर लिफ्ट की ओर चला गया.  ‘‘इतना संकोच करने की जरूरत नहीं है, बेटी,’’ आनंद ने प्यारभरे स्वर में कहा, ‘‘अब हम पड़ोसी हैं, एकदूसरे का सुखदुख बांटने वाले.’’

जया भावविह्वल हो गई, ‘‘थैंक यू, अंकल…’’

‘‘साहब, लिफ्ट आ गई,’’ मुरली ने पुकारा.

‘‘शाम को मिलते हैं, टेक केयर,’’ आनंद ने लिफ्ट की ओर जाते हुए कहा.

तभी राहुल आ गया और खुशबू सूंघते हुए बोला, ‘‘मैं गया तो था न नाश्ता लाने फिर तुम ने क्यों बना लिया?’’  ‘‘मैं ने नहीं बनाया, हमारे नए पड़ोस से आया है,’’ जया ने राहुल के मुंह में परांठे का टुकड़ा रखते हुए कहा, ‘‘खा कर देखो, क्या लाजवाब स्वाद है.’’

‘‘सच में मजा आ गया,’’ राहुल बैठते हुए बोला, ‘‘अब तो यही खाएंगे. परांठे तो बढि़या हैं, आनंद साहब कैसे हैं?’’

‘‘तुम्हें उन का नाम कैसे मालूम?’’ जया ने चौंक कर पूछा.

‘‘नीचे सोसायटी का सेके्रटरी श्रीनिवास मिल गया था. उसी ने बताया कि अमेरिकन बैंक के उच्चाधिकारी आनंद विधुर हैं, बच्चे भी कहीं और हैं. बस एक नौकर है जो उन की गाड़ी भी चलाता है इसलिए अकेलापन काटने के लिए ऐसा फ्लैट चाहते थे जिस की बालकनी से वे मेन रोड की रौनक देख सकें. अपनी बिल्ंिडग में जो फ्लैट बिकाऊ हैं उन से मेन रोड नजर नहीं आती. श्रीनिवास के कहने पर उन्होंने 7वें माले का फ्लैट ले तो लिया पर उस में रहने नहीं आए. बाद में श्रीनिवास को बगैर बताए उन्होंने कपिल से अपना फ्लैट बदल लिया. इस अदलाबदली का कमीशन न मिलने से श्रीनिवास बहुत चिढ़ा हुआ है.’’

जया हंसने लगी, ‘‘कपिल से या आनंद अंकल से?’’

‘‘अरे वाह, तुम ने उन्हें अंकल भी बना लिया?’’

‘‘जब उन्होंने मुझे बेटी कहा तो मुझे भी उन्हें अंकल कहना पड़ा. वैसे भी उन की उम्र के व्यक्ति को तो अंकल ही कहना चाहिए.’’  पेट भर नाश्ता करने के बाद दोनों आराम करने लगे. अगले रोज से काम पर जाना था इसलिए दोनों कुछ देर बाद उठे और घर का सामान लाने बाजार चले गए. लौटते समय लिफ्ट में आनंद मिल गए. अपने फ्लैट का ताला खोलने से पहले राहुल ने कहा, ‘‘अंकल, आज हमारे साथ चाय पीजिए.’’

‘‘जरूर पीऊंगा बेटा, मगर फिर कभी.’’

‘‘वह फिर कभी न जाने कब आए, अंकल,’’ जया बोली, ‘‘कल से काम पर जाने के बाद घर लौटने का कोई सही वक्त नहीं रहेगा.’’  आनंद अपने फ्लैट की चाबी मुरली को पकड़ा कर राहुल और जया के साथ अंदर आ गए. उन के चेहरे से लगा कि वे घर की सजावट से बहुत प्रभावित लग रहे हैं.

‘‘आस्ट्रेलिया का ट्रिप कैसा रहा?’’ आनंद ने बातचीत के दौरान पूछा.

‘‘बहुत बढि़या. मेरे छोटे भाई साहिल ने हमें खूब घुमाया. बहुत मजा आया. वैसे भी आस्टे्रलिया बहुत सुंदर है,’’ राहुल ने कहा.

‘‘वहां जा कर बसने का इरादा तो नहीं है?’’

‘‘अरे नहीं अंकल, रहने के लिए अपना देश ही सब से बढि़या है.’’

‘‘यह बात छोटे भाई को नहीं समझाई?’’

‘‘ऐसी बातें किसी के समझाने से नहीं, अपनेआप ही समझ आती हैं, अंकल.’’

‘‘यह बात तो है. मुझे भी औरों की बात समझ नहीं आई थी और जब आई तो बहुत देर हो चुकी थी,’’ आनंद ने लंबी सांस ले कर कहा.

‘‘कौन सी बात, अंकल?’’ जया ने पूछा.

‘‘यही कि अपना देश विदेशों से अच्छा है,’’ आनंद ने सफाई से बात बदली, ‘‘लंबे औफिस आवर्स हैं आप दोनों के?’’

‘‘मेरे तो फिर भी ठीक हैं लेकिन जया रायजादा गु्रप के चेयरमैन की पर्सनल सेके्रटरी है इसलिए यह अकसर देर से आती है,’’ राहुल ने बताया.

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दीवार: क्या आनंद अंकल सच में जया और राहुल के अपने थे?

टूटे हुए पंखों की उड़ान

गली में घुसते ही शोरगुल के बीच लड़ाईझगड़े और गालीगलौज की आवाजें अर्चना के कानों में पड़ीं. सड़ांध भरी नालियों के बीच एक संकरी गली से गुजर कर उस का घर आता था, जहां बरसात में मारे बदबू के चलना मुश्किल हो जाता था.

दुपट्टे से नाक ढकते हुए अर्चना ने घर में कदम रखा, तो वहां का नजारा ही दूसरा था. आंगन के बीचोंबीच उस की मां और पड़ोस वाली शीला एकदूसरे पर नाक फुलाए खड़ी थीं. यह रोज की बात थी, जब किसी न किसी बात पर दोनों का टकराव हो जाता था.

मकान मालिक ने किराए के लालच में कई सारे कोठरीनुमा कमरे बनवा रखे थे, मगर सुविधा के नाम पर बस एक छोटा सा गुसलखाना और लैट्रिन थी, जिसे सब किराएदार इस्तेमाल करते थे.

वहां रहने वाले किराएदार आएदिन किसी न किसी बात को ले कर जाहिलों की तरह लड़ते रहते थे. पड़ोसन शीला तो भद्दी गालियां देने और मारपीट करने से भी बाज नहीं आती थी.

गुस्से में हांफती, जबान से जहर उगलती प्रेमा घर में दाखिल हुई. पानी का बरतन बड़ी जोर से वहीं जमीन पर पटक कर उस ने सिगड़ी जला कर उस पर चाय का भगौना रख दिया.

‘‘अम्मां, तुम शीला चाची के मुंह क्यों लगती हो? क्या तुम्हें तमा करके मजा आता है? काम से थकहार कर आओ, तो रोज यही सब देखने को मिलता है. कहीं भी शांति नहीं है,’’ अर्चना गुस्से से बोली.

‘‘हांहां, तमाशा तो बस मैं ही करती हूं न. वह तो जैसे दूध की धुली है. सब जानती हूं… उस की बेटी तो पूरे महल्ले में बदनाम है. मक्कार औरत नल में पानी आते ही कब्जा जमा कर बैठ जाती है. उस पर मुझे भलाबुरा कह रही थी.

‘‘अब तू ही बता, मैं कैसे चुप रहूं?’’ चाय का कप अर्चना के सामने रख कर प्रेमा बोली.

‘‘अच्छा लाडो, यह सब छोड़. यह बता कि तू ने अपनी कंपनी में एवांस पैसों की बात की?’’ यह कहते हुए प्रेमा ने बेटी के चेहरे की तरफ देखा भी नहीं था अब तक, जो दिनभर की कड़ी मेहनत से कुम्हलाया हुआ था.

‘‘अम्मां, सुपरवाइजर ने एडवांस पैसे देने से मना कर दिया है. मंदी चल रही है कंपनी में,’’ मुंह बिचकाते हुए अर्चना ने कहा, फिर दो पल रुक कर उस ने कुछ सोचा और बोली, ‘‘जब हमारी हैसियत ही नहीं है तो क्या जरूरत है इतना दिखावा करने की. ननकू का मुंडन सीधेसादे तरीके से करा दो. यह जरूरी तो नहीं है कि सभी रिश्तेदारों को कपड़ेलत्ते बांटे जाएं.’’

‘‘यह क्या बोल रही है तू? एक बेटा है हमारा. तुम बहनों का एकलौता भाई. अरी, तुम 3 पैदा हुईं, तब जा कर वह पैदा हुआ… और रिश्तेदार क्या कहेंगे? सब का मान तो रखना ही पड़ेगा न.’’

‘‘रिश्तेदार…’’ अर्चना ने थूक गटका. एक फैक्टरी में काम करने वाला उस का बाप जब टीबी का मरीज हो कर चारपाई पर पड़ गया था, तो किसी ने आगे आ कर एक पैसे तक की मदद नहीं की. भूखे मरने की नौबत आ गई, तो 12वीं का इम्तिहान पास करते ही एक गारमैंट फैक्टरी में अर्चना ने अपने लिए काम ढूंढ़ लिया.

अर्चना के महल्ले की कुछ और भी लड़कियां वहां काम कर के अपने परिवार का सहारा बनी हुई थीं. अर्चना की कमाई का ज्यादातर हिस्सा परिवार का पेट भरने में ही खर्च हो जाता था. घर की बड़ी बेटी होने का भार उस के कंधों को दबाए हुए था. वह तरस जाती थी अच्छा पहननेओढ़ने को. इतने बड़े परिवार का पेट पालने में ही उस की ज्यादातर इच्छाएं दम तोड़ देती थीं.

कोठरी की उमस में अर्चना का दम घुटने लगा, सिगड़ी के धुएं ने आंसू ला दिए. सिगड़ी के पास बैठी उस की मां खांसते हुए रोटियां सेंक रही थी.

‘‘अम्मां, कितनी बार कहा है गैस पर खाना पकाया करो… कितना धुआं है,’’ दुपट्टे से आंखमुंह पोंछती अर्चना ने पंखा तेज कर दिया.

‘‘और सिलैंडर के पैसे कहां से आएंगे? गैस के दाम आसमान छू रहे हैं. अरी, रुक जा. अभी धुआं कम हो जाएगा, कोयले जरा गीले हैं.’’

अर्चना उठ कर बाहर आ गई. कतार में बनी कोठरियों से लग कर सीढि़यां छत पर जाती थीं. कुछ देर ताजा हवा लेने के लिए वह छत पर टहलने लगी. हवा के झोंकों से तनमन की थकान दूर होने लगी.

टहलते हुए अर्चना की नजर अचानक छत के एक कोने पर चली गई. बीड़ी की महक से उसे उबकाई सी आने लगी. पड़ोस का छोटेलाल गंजी और तहमद घुटनों के ऊपर चढ़ाए अपनी कंचे जैसी गोलगोल आंखों से न जाने कब से उसे घूरे जा रहा था.

छोटेलाल कुछ महीने पहले ही उस मकान में किराएदार बन कर आया था. अर्चना को वह फूटी आंख नहीं सुहाता था. अर्चना और उस की छोटी बहनों को देखते ही वह यहांवहां अपना बदन खुजाने लगता था.

शुरू में अर्चना को समझ नहीं आया कि वह क्यों हर वक्त खुजाता रहता है, फिर जब वह उस की बदनीयती से वाकिफ हुई, तो उस ने अपनी बहनों को छोटेलाल से जरा बच कर रहने की हिदायत दे दी.

‘‘यहां क्या कर रही है तू इतने अंधेरे में? अम्मां ने मना किया है न इस समय छत पर जाने को. चल, नीचे खाना लग गया है,’’ छोटी बहन ज्योति सीढि़यों पर खड़ी उसे आवाज दे रही थी.

अर्चना फुरती से उतर कर कमरे में आ गई. गरम रोटी खिलाती उस की मां ने एक बार और चिरौरी की, ‘‘देख ले लाडो, एक बार और कोशिश कर के देख ले. अरे, थोड़े हाथपैर जोड़ने पड़ें, तो वह भी कर ले. यह काम हो जाए बस, फिर तुझे तंग न करूंगी.’’

अर्चना ने कमरे में टैलीविजन देखती ज्योति की तरफ देखा. वह मस्त हो कर टीवी देखने में मगन थी. ज्योति उस से उम्र में कुल 2 साल ही छोटी थी. मगर अपनी जवानी के उठान और लंबे कद से वह अर्चना की बड़ी बहन लगती थी.

9वीं जमात पास ज्योति एक साड़ी के शोरूम में सेल्सगर्ल का काम करती थी. जहां अर्चना की जान को घरभर के खर्च की फिक्र थी, वहीं ज्योति छोटी होने का पूरा फायदा उठाती थी.

‘‘अम्मां, ज्योति भी तो अब कमाती है. तुम उसे कुछ क्यों नहीं कहती?’’

‘‘अरी, अभी तो उस की नौकरी लगी है, कहां से ला कर देगी बेचारी?’’ मां की इस बात पर अर्चना चुप हो गई.

‘‘ठीक है, मैं फिर से एक बार बात करूंगी, मगर कान खोल कर सुन लो अम्मां, यह आखिरी बार होगा, जब तुम्हारे इन फुजूल के रिवाजों के लिए मैं अपनी मेहनत की कमाई खर्च करूंगी.’’

‘‘हांहां, ठीक है. अपनी कमाई की धौंस मत जमा. चार पैसे क्या कमाने लगी, इतना रोब दिखा रही है. अरे, कोई एहसान नहीं कर रही है हम पर,’’ गुस्से में प्रेमा का पारा फिर से चढ़ने लगा.

एक कड़वाहट भरी नजर अपनी मां पर डाल कर अर्चना ने सारे जूठे बरतन मांजने के लिए समेटे.

बरतन साफ कर अर्चना ने अपना बिस्तर लगाया और सोने की कोशिश करने लगी, उसे सुबह जल्दी उठना था, एक और जद्दोजेहद भरे दिन के लिए. वह कमर कस के तैयार थी. जब तक हाथपैर चलते रहेंगे, वह भी चलती रहेगी. उसे इस बात का संतोष हुआ कि कम से कम वह किसी के सामने हाथ तो नहीं फैलाती.

अर्चना के होंठों पर एक संतुष्टि भरी फीकी मुसकान आ गई और उस ने आंखें मूंद लीं.

आशंका: भाग 1

वैसे तो रणबीर ग्रुप ने शहर में कई दर्शनीय इमारतें बनाई थीं, लेकिन उन के द्वारा नवनिर्मित ‘स्वप्नलोक’ वास्तुशिल्प में उन का अद्वितीय योगदान था. उद्घाटन समारोह में मुख्यमंत्री एवं अन्य विशिष्ट व्यक्तियों की प्रशंसा के उत्तर में ग्रुप के चेयरमैन रणबीर ने बड़ी विनम्रता से कहा, ‘‘किसी भी प्रोजैक्ट की कामयाबी का श्रेय उस से जुड़े प्रत्येक छोटेबड़े व्यक्ति को मिलना चाहिए, इसीलिए मैं अपने सभी सहकर्मियों का बहुत आभारी हूं, खासतौर से अपने आर्किटैक्ट विभोर का जिन के बगैर मैं आज जहां खड़ा हूं वहां तक कभी नहीं पहुंचता.’’

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समारोह के बाद जब विभोर ने रणबीर को धन्यवाद दिया तो उस ने सरलता से कहा, ‘‘किसी को भी उस के योगदान का समुचित श्रेय न देने को मैं गलत समझता हूं विभोर.’’

‘‘ऐसा है तो फिर मेरी सफलता का श्रेय तो मेरी सासससुर खासकर मेरी सास को मिलना चाहिए सर,’’ विभोर बोला, ‘‘यदि आप का इस सप्ताहांत कोई और कार्यक्रम न हो तो आप सपरिवार हमारे साथ डिनर लीजिए, मैं आप को अपने सासससुर से मिलवाना चाहता हूं.’’

‘‘मैं गरिमा और बच्चों के साथ जरूर आऊंगा विभोर. तुम्हारे सासससुर इसी शहर में रहते हैं?’’

‘‘जी हां, मैं उन के साथ यानी उन के ही घर में रहता हूं सर वरना मेरी इतनी बड़ी कोठी लेने की हैसियत कहां है…’’

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‘‘कमाल है, अभी कुछ रोज पहले तो हम तुम्हारी प्रमोशन की पार्टी में तुम्हारे घर आए थे और उस से पहले भी आ चुके हैं, लेकिन उन से मुलाकात नहीं हुई कभी.’’

‘‘वे लोग मेरी पार्टियों में शरीक नहीं होते सर, न ही मेरी निजी जिंदगी में दखलंदाजी करते हैं. लेकिन मेरे बीवीबच्चों का पूरा खयाल रखते हैं. इसीलिए तो मैं इतनी एकाग्रता से अपना काम कर रहा हूं, क्योंकि न तो मुझे बीमार बच्चे को डाक्टर के पास ले जाना पड़ता है और न ही बीवी के अकेलेपन को दूर करने या गृहस्थी के दूसरे झमेलों के लिए समय निकालने की मजबूरी है. जब भी फुरसत मिलती है बेफिक्री से बीवीबच्चों के साथ मौजमस्ती कर के तरोताजा हो जाता हूं,’’ विभोर बोला.

‘‘ऋतिका इकलौती बेटी है?’’

‘‘नहीं सर, उस के 2 भाई अमेरिका में रहते हैं. पहले तो उन का वापस आने का इरादा था, मगर मेरे यहां आने के बाद दोनों लौटना जरूरी नहीं समझते. मिलने के लिए आते रहते हैं. कोठी इतनी बड़ी है कि किसी के आनेजाने से किसी को कोई दिक्कत नहीं होती.’’

रणबीर को ऋतिका के मातापिता बहुत ही सुलझे हुए, संभ्रांत और सौम्य

लगे. खासकर ऋतिका की मां मृणालिनी. न जाने क्यों उन्हें देख कर रणबीर को ऐसा लगा कि उस ने उन्हें पहले भी कहीं देखा है.

उस के यह कहने पर मृणालिनी ने बड़ी सादगी से कहा, ‘‘जरूर देखा होगा ‘दीपशिखा’ महिला क्लब के किसी समारोह या फिर अपनी शादी में,’’ मां की मृत्यु में कहना मृणालिनी ने मुनासिब नहीं समझा.

‘‘ठीक कहा आप ने,’’ रणबीर चहका, ‘‘किसी समारोह की तो याद नहीं, लेकिन बहुत सी तसवीरों में आप हैं मां के साथ.’’

‘‘मां की शादी से पहले की तसवीरों में भी देखा होगा, क्योंकि मैं और रुक्की शादी के पहले एक बार एनसीसी कैंप में मिली थीं और वहीं हमारी दोस्ती हुई थी.’’

रणबीर भावुक हो उठा. उस की मां रुक्मिणी को रुक्की उन के बहुत ही करीबी लोग कह सकते थे. रूप और धन के दंभ में अपने को विशिष्ट समझने वाली मां यह हक किसीकिसी को ही देती थीं यानी मृणालिनी उस की मां की अभिन्न सखी थीं.

‘‘विभोर को मालूम है कि मां आप की सहेली थीं?’’ रणबीर ने पूछा.

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‘‘नहीं, क्योंकि उस का हमारे परिवार से जुड़ने से पहले ही रुक्की का देहांत हो गया था. विभोर बहुत मेहनती और लायक लड़का है,’’ मृणालिनी ने दर्प से कहा.

‘‘सही कह रही हैं आप. विभोर के बगैर तो मैं 1 कदम भी नहीं चल सकता. और अब तो मुझे आप का सहारा भी चाहिए मांजी. मां के देहांत के बाद आज आप से मिल कर पहली बार लगा जैसे मैं फिर से सिर्फ रणबीर बन कर जी सकता हूं.’’

‘‘गाहेबगाहे ही क्यों जब जी करे,’’ मृणालिनी ने स्नेह से उस का सिर सहलाते

हुए कहा.

‘‘रणबीर सर से क्या बातें हुईं मां?’’ अगली सुबह विभोर ने पूछा.

‘‘कुछ खास नहीं, बस उस की मां के बारे में,’’ मृणालिनी ने अनमने भाव से कहा.

‘‘पूरी शाम?’’ विभोर ने हैरानी से पूछा.

‘‘रुक्की थी ही ऐसी विभोर, उस के बारे में जितनी भी बातें की जाएं कम हैं, अमीर बाप की बेटी होने के बावजूद उस में रत्ती भर घमंड नहीं था. वह एनसीसी की अच्छी कैडेट थी. उस के बाप ने उसे रिवौल्वर इनाम में दिया था. मेरी निशानेबाजी से प्रभावित हो कर रुक्की ने अपने रिवौल्वर से मुझे प्रैक्टिस करवाई थी. तभी तो मुझे निशानेबाजी की प्रतियोगिता में इनाम मिला था.’’

‘‘लगता है मां अपनी सहेली की याद आने की वजह से विचलित हैं,’’ ऋतिका बोली.

‘‘और अब विचलित होने की बारी मेरी है, क्योंकि हम व्हिस्पर वैली में जो अरेबियन विलाज बना रहे हैं न उस बारे में मुझे आज रणबीर सर से विस्तृत विचारविमर्श करना है और अगर मां की याद में व्यथित होने के कारण उन्होंने मीटिंग टाल दी या दिलचस्पी नहीं ली तो बहुत गड़बड़ हो जाएगी,’’ विभोर ने कहा.

लेकिन उस का खयाल गलत था. रणबीर ने बड़े उत्साह और दिलचस्पी से विभोर की प्रस्तावना पर विचार किया और सुझाव दिया, ‘‘अपने पास जमीन की कमी नहीं है विभोर. क्यों न तुम 2 को जोड़ कर पहले 1 बड़ा भव्य विला बनाओ. अगर लोगों को पसंद आया तो और वैसे बना देंगे.’’

‘‘लेकिन कीमत बहुत ज्यादा हो जाएगी सर और फिर कोई ग्राहक न मिला तो?’’

‘‘परवाह नहीं,’’ रणबीर ने उत्साह से कहा, ‘‘खुद के काम आ जाएगा. यही सोच कर बनाओ कि यह बेचने के लिए नहीं अपने लिए है. विभोर, तुम दूसरे काम उमेश और दिनेश को देखने दो. तुम इसी प्रोजैक्ट के निर्माण पर ध्यान दो और जल्दी यह काम पूरा करो. मैं सतबीर से कह दूंगा कि तुम्हें पैसे की दिक्कत न हो.’’

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आशंका: क्यों बेटी और दामाद को अपने साथ रखना चाहती थी मृणालिनी?

साक्षी के बाद: भाग 1

लेखक- कमल कपूर

भोर हुई तो चिरैया का मीठासुरीला स्वर सुन कर पूर्वा की नींद उचट गई. उस की रिस्टवाच पर नजर गई तो उस ने देखा अभी तो 6 भी नहीं बजे हैं. ‘छुट्टी का दिन है. न अरुण को दफ्तर जाना है और न सूर्य को स्कूल. फिर क्या करूंगी इतनी जल्दी उठ कर? क्यों न कुछ देर और सो लिया जाए,’ सोच कर उस ने चादर तान ली और करवट बदल कर फिर से सोने की कोशिश करने लगी. लेकिन फोन की बजती घंटी ने उस के छुट्टी के मूड की मिठास में कुनैन घोल दी. सुस्त मन के साथ वह फोन की ओर बढ़ी. इंदु भाभी का फोन था.

‘‘इंदु भाभी आप? इतनी सुबह?’’ वह बोली.

‘‘अब इतनी सुबह भी नहीं है पुरवैया रानी, तनिक परदा हटा कर खिड़की से झांक कर तो देख, खासा दिन चढ़ गया है. अच्छा बता, कल शाम सैर पर क्यों नहीं आई?’’

‘‘यों ही इंदु भाभी, जी नहीं किया.’’

‘‘अरी, आती तो वे सब देखती, जो इन आंखों ने देखा. जानती है, तेरे वे संदीप भाई हैं न, उन्होंने…’’

और आगे जो कुछ इंदु भाभी ने बताया उसे सुन कर तो जैसे पूर्वा के पैरों तले की जमीन ही निकल गई. रिसीवर हाथ से छूटतेछूटते बचा. अपनेआप को संभाल कर वह बोली, ‘‘नहीं इंदु भाभी, ऐसा हो ही नहीं सकता. मैं संदीप भाई को अच्छी तरह जानती हूं, वे ऐसा कर ही नहीं सकते. आप से जरूर देखने में गलती हुई होगी.’’

‘‘पूर्वा, मैं ने 2 फुट की दूरी से उस मोटी खड़ूस को देखा है. बस, लड़की कौन है, यह देख न पाई. उस की पीठ थी मेरी तरफ.’’

इंदु भाभी अपने खास अक्खड़ अंदाज में आगे क्या बोल रही थीं, कुछ सुनाई नहीं दे रहा था पूर्वा को. रिसीवर रख कर जैसेतैसे खुद को घसीटते हुए पास ही रखे सोफे तक लाई और बुत की तरह बैठ गई उस पर. सुबहसुबह यह क्या सुन लिया उस ने? साक्षी के साथ इतनी बड़ी बेवफाई कैसे कर सकते हैं संदीप भाई और वह भी इतनी जल्दी? अभी वक्त ही कितना हुआ है उस हादसे को हुए. बमुश्किल 8 महीने ही तो. हां, 8 महीने पहले की ही तो बात है, जब भोर होते ही इसी तरह फोन की घंटी बजी थी. वह दिन आज भी ज्यों का त्यों उस की यादों में बसा है…

उस रात पूर्वा बड़ी देर से अरुण और सूर्य के साथ भाई की शादी से लौटी थी. थकान और नींद से बुरा हाल था, इसलिए आते ही बिस्तर पर लेट गई थी. आंख लगी ही थी कि रात के सन्नाटे को चीरती फोन की घंटी ने उसे जगा दिया. घड़ी पर नजर गई तो देखा 4 बजे थे. ‘जरूर मां का फोन होगा… जब तक बेटी के सकुशल पहुंचने की खबर नहीं पा लेंगी उन्हें चैन थोड़े ही आएगा,’ सोचते हुए वह नींद में भी मुसकरा दी, लेकिन आशा के एकदम विपरीत संदीप का फोन था.

‘पूर्वा भाभी, मैं संदीप बोल रहा हूं,’ संदीप बोला.

वह चौंकी, ‘संदीप भाई आप? इतनी सुबह? सब ठीक तो है न?’

‘कुछ ठीक नहीं है पूर्वा भाभी, साक्षी चली गई,’ भीगे स्वर में वह बोला था.

‘साक्षी चली गई? कहां चली गई संदीप भाई? कोई झगड़ा हुआ क्या आप लोगों में? आप ने उसे रोका क्यों नहीं?’

‘भाभी… वह चली गई हमेशा के लिए…’

‘क्या? संदीप भाई, यह क्या कह रहे हैं आप? होश में तो हैं? कहां है मेरी साक्षी?’ पागलों की तरह चिल्लाई पूर्वा.

‘पूर्वा, वह मार्चुरी में है… हम अस्पताल में हैं… अभी 2-3 घंटे और लगेंगे उसे घर लाने में, फिर जल्दी ही ले जाएंगे उसे… तुम समझ रही हो न पूर्वा? आखिरी बार अपनी सहेली से मिल लेना…’ यह सुनंदा दीदी थीं. संदीप भाई की बड़ी बहन.

फोन कट चुका था, लेकिन पूर्वा रिसीवर थामे जस की तस खड़ी थी. तभी अपने कंधे पर किसी हाथ का स्पर्श पा कर डर कर चीख उठी वह.

‘अरेअरे, यह मैं हूं पूर्वा,’ अरुण ने सामने आ कर उसे बांहों में भर लिया, ‘बहुत बुरा हुआ पूर्वा… मैं ने सब सुन लिया है. अब संभालो खुद को,’ उसे सहारा दे कर अरुण पलंग तक ले गए और तकिए के सहारे बैठा कर कंबल ओढ़ा दिया, ‘सब्र के सिवा और कुछ नहीं किया जा सकता है पूर्वा. मुझे संदीप के पास जाना चाहिए,’ कोट पहनते हुए अरुण ने कहा तो पूर्वा बोली, ‘मैं भी चलूंगी अरुण.’

‘तुम अस्पताल जा कर क्या करोगी? साक्षी तो…’ कहतेकहते बात बदल दी अरुण ने, ‘सूर्य जाग गया तो रोएगा.’

अरुण दरवाजे को बाहर से लौक कर के चले गए. कैसे न जाते? उन के बचपन के दोस्त थे संदीप भाई. उन की दोस्ती में कभी बाल बराबर भी दरार नहीं आई, यह पूर्वा पिछले 9 साल से देख रही थी. पिछली गली में ही तो रहते हैं, जब जी चाहता चले आते. यों तो संदीप अरुण के हमउम्र थे, लेकिन विवाह पहले अरुण का हुआ था. संदीप भाई को तो कोई लड़की पसंद ही नहीं आती थी. खुद तो देखने में ठीकठाक ही थे, लेकिन अरमान पाले बैठे थे स्वप्नसुंदरी का, जो उन्हें सुनंदा दीदी के देवर की शादी में कन्या पक्ष वालों के घर अचानक मिल गई. बस, संदीप भाई हठ ठान बैठे और हठ कैसे न पूरा होता? आखिर मांबाप के इकलौते बेटे और 2 बहनों के लाड़ले छोटे भाई जो थे. लड़की खूबसूरत, गुणवान और पढ़ीलिखी थी, फिर भी मां बहुत खुश नहीं थीं, क्योंकि उन की तुलना में लड़की वालों का आर्थिक स्तर बहुत कम था. लड़की के पिता भी नहीं थे. बस मां और एक छोटी बहन थी.

बिना मंगनीटीका या सगाई के सीधे विवाह कर दुलहन को घर ले आए थे संदीप भाई के घर वाले. साक्षी सुंदर और सादगी की मूरत थी. पूर्वा ने जब पहली बार उसे देखा था, तो संगमरमर सी गुडि़या को देखती ही रह गई थी.

संदीप भाई के विवाह के 18वें दिन बाद सूर्य का पहला जन्मदिन था और साक्षी ने पार्टी का सारा इंतजाम अपने हाथों में ले लिया था.

संदीप भाई बहुत खुश और संतुष्ट थे अपनी पत्नी से, लेकिन घोर अभावों में पली साक्षी को काफी वक्त लगा था उन के घर के साथ सामंजस्य बैठाने में. फिर 5 महीने बाद जब साक्षी ने बताया कि वह मां बनने वाली है तो संदीप भाई खुशी से नाच उठे थे. पलकों पर सहेज कर रखते थे उसे.

डाक्टर ने सुबहशाम की सैर बताई थी साक्षी को और यह जिम्मेदारी संदीप भाई ने पूर्वा को सौंप दी थी यह कहते हुए कि पूर्वा भाभी, आप तो सुबहशाम सैर पर जाती हैं न, मेरी इस बावली को भी ले जाया करें. मेरी तो ज्यादा चलने की आदत नहीं.

और सुबहशाम की सुहानी सैर ने पूर्वा और साक्षी के दिलों के तारों को जैसे जोड़ दिया था. साक्षी चलतेचलते थक जाती तो पार्क की बेंच पर बैठ जाती और छोटी से छोटी बात भी उसे बताती, ‘पूर्वा भाभी, बाकी सब तो ठीक है. संदीप तो जान छिड़कते हैं मुझ पर, लेकिन मम्मीजी मुझे ज्यादा पसंद नहीं करतीं. गाहेबगाहे सीधे ही ताना देती हैं कि मैं खाली हाथ ससुराल आई हूं, एक से एक धन्नासेठ उन के घर संदीप के लिए रिश्ता ले कर आते रहे पर… और दुनिया में गोरी चमड़ी ही सब कुछ नहीं होती वगैरहवगैरह.’

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साक्षी के बाद: संदीप ने जल्दबाजी में क्यों की दूसरी शादी

सबक : सुधीर को लेकर क्या थी अनु की कशमकश ?

रक्षाबंधन पर मैं मायके गई तो भैया ने मेरे ननदोई सुधीर जीजाजी के विषय में कुछ ऐसा बताया जिसे सुन कर मुझे विश्वास नहीं हुआ.

‘‘नहीं भैया, ऐसा हो ही नहीं सकता, जरूर आप को कोई भ्रम हुआ होगा.’’

‘‘नहीं अनु, मुझे कोई भ्रम नहीं हुआ. पिछले महीने औफिस के काम से दिल्ली गया तो सोचा, सुधीर से भी मिल लूं क्योंकि उन से मुलाकात हुए काफी अरसा हो चुका था. काम से फारिग होने के बाद जब मैं सुधीर के घर पहुंचा तो वे मुझे अचानक आया हुआ देख कर कुछ घबरा से गए. उन्होंने मेरा स्वागत वैसा नहीं किया जैसा कि मेरे पहुंचने पर अकसर किया करते थे. तभी मेरी नजर शोकेस में रखी एक तसवीर पर गई. उस तसवीर में सुधीर के साथ संध्या नहीं, कोई और युवती थी. जब मैं बाथरूम से फ्रैश हो कर आया तो वह तसवीर वहां से गायब थी लेकिन वह तसवीर वाली युवती ही उन की रसोई में चायनाश्ता तैयार कर रही थी.’’

‘‘भैया, हो सकता है वह उन की मेड हो.’’

‘‘शायद मैं भी यही समझता, अगर मैं ने वह तसवीर न देखी होती.’’

‘‘देखने में कैसी थी वह युवती?’’ मैं अपनी उत्सुकता छिपा न सकी.

देखने में सुंदर मगर बहुत ही साधारण थी. एक बात और मैं ने नोटिस की, मेरे अचानक आ जाने से वह सुधीर की तरह असहज नहीं थी, बिलकुल सामान्य नजर आ रही थी. उस के हाथ की चाय और नाश्ते में आलूप्याज की पकौडि़यों और सूजी के हलवे के स्वाद से ही मैं ने जान लिया था कि वह साक्षात अन्नपूर्णा होने के साथसाथ एक कुशल गृहिणी है.

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‘‘सुधीर जीजाजी ने आप का उस से परिचय नहीं करवाया?’’

‘‘उस को चायनाश्ते के लिए कहते वक्त सुधीर शायद मुझे यह दर्शा रहे थे कि वह उन की मेड है लेकिन उन के साथ उस की तसवीर, फिर तसवीर का गायब होना और मेरी उपस्थिति से सुधीर का असहज होना इस बात की तरफ साफ संकेत कर रहा था कि वह युवती उन की मेड नहीं बल्कि कुछ और है.’’

‘‘भैया, इस विषय में हमें संध्या दी को तुरंत बता देना चाहिए,’’ मैं ने उतावले स्वर में कहा.

‘‘नहीं अनु, इस विषय में तुम संध्या दी को कुछ नहीं बताओगी,’’ भैया के बजाय भाभी बड़े ही कठोर और आदेशात्मक लहजे में बोलीं. ‘‘भाभी, आप एक औरत हो कर भी औरत के साथ अन्याय की बात कर रही हैं. संध्या दी मेरे पति की सगी बहन हैं, मेरी ननद हैं. जैसे मैं आप की ननद हूं’’ ‘‘जानती हूं मैं, संध्या आप के पति की सगी बहन है, लेकिन 14 साल पहले वह अपने पति से बुरी तरह लड़झगड़ कर अपनी मरजी से अपनी दोनों बेटियों को ले कर मायके आ गई थी. सुधीर और उन के परिवार वालों ने लाख कोशिश की कि वह लौट आए लेकिन हर बार उन्हें संध्या दी ने अपमानित किया. ऐसी स्थिति में सुधीर के मांबाप ने चाहा भी कि दोनों का तलाक हो जाए लेकिन संध्या दी पर तो जैसे जिंदगीभर सुधीर को परेशान करने का जनून सवार था. शायद इसी वजह से उस ने सुधीर को तलाक भी नहीं दिया.’’

‘‘जानती हो अनु, जब तुम्हारी संध्या दी ने अपना ससुराल छोड़ा था तब अपने पति के मुंह पर थूक कर गई थी. तो भला, कौन पति अपनी ऐसी बेइज्जती सहेगा? इतना सबकुछ हो जाने के बावजूद, सुधीर की इंसानियत और बड़प्पन देखो कि वे उस का और दोनों बेटियों का पूरा खर्चा बिना किसी हीलहुज्जत के नियम से दे रहे हैं. उन की हर सुखसुविधा का खयाल भी रखते हैं. महीने में उन से मिलने भी आते हैं.’’

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‘‘यह तो उन का फर्ज है, भाभी. वे एक पिता और पति भी हैं,’’ मैं ने संध्या दी का पक्ष लेते हुए कहा. ‘‘सारे फर्ज सुधीर के ही हैं, तुम्हारी संध्या दी के कुछ भी नहीं,’’ भाभी कड़वे स्वर में बोलीं, ‘‘अनु, तुम ही बताओ तुम्हारी संध्या दी ने शादी के बाद अपने पति को क्या सुख दिया? उन का जीवन खराब कर दिया. कभी उन्हें मानसिक शांति नहीं मिली. मुझे तो आश्चर्य होता है कि उन की बेटियां कैसे हो गईं? उन्हें तो सुधीर के सान्निध्य से ही घिन आती थी. उन के हर काम, व्यवहार में उन्हें नीचा दिखाने की कोशिश में लगी रहती थीं. उन के कपड़े धोना तो दूर, उन्हें हाथ तक न लगाती थी. उन्हें खाने तक के लिए तरसा दिया था. वे बेचारे मां के पास खाते तो उन पर ताने कसती, उन पर व्यंग्य करती. तो बताओ अनु, क्या ऐसी औरत से हम सहानुभूति रखें? ऐसी औरतों को तो सबक मिलना ही चाहिए जो अपने पति और ससुराल वालों

इतना कर्कश व्यवहार रखती हैं. एक अच्छी और सुघड़ औरत वह होती है जो परिवार को तोड़ती नहीं, बल्कि जोड़ती है. लेकिन तुम्हारी संध्या दी ने तो जोड़ना नहीं, तोड़ना सीखा है. प्रेम और मिलनसार व्यवहार जैसे शब्द तो शायद उन के शब्दकोश में हैं ही नहीं. सच पूछो, तो मुझे बेहद खुशी है कि सुधीर उस औरत के साथ हंसीखुशी रह रहे हैं.’’

‘‘भाभी, आप जो कुछ कह रही हैं वह हम सब जानते हैं. न वे व्यवहार की अच्छी हैं न स्वभाव की. जबान की भी बेहद कड़वी हैं या दूसरे शब्दों में कहें वे शुद्ध खालिस स्वार्थ की प्रतिमा हैं. मायके में भी किसी से नहीं बनी, तभी तो किराए के मकान में रह रही हैं. लेकिन एक औरत होने के नाते हमें ऐसा होने से रोकना चाहिए और संध्या दी को सबकुछ बता देना चाहिए.’’

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‘‘अनु, इस मामले में मेरी सोच तुम से जुदा है. मैं भी एक औरत हूं लेकिन इस प्रकरण में मैं सुधीर का साथ दूंगी क्योंकि हर जगह आदमी ही गलत नहीं होता. 95 प्रतिशत मामलों में दोषी न होते हुए भी पुरुषों को ही दोषी ठहराया जाता है. अगर एक पति अपनी कर्कशा पत्नी को पूरा खर्चा दे रहा है, अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी निभा रहा है और इस के एवज में अगर वह अपना एकाकीपन दूर करने के लिए एक औरत के साथ सुखी, संतुष्ट और तनावमुक्त जीवन जी रहा है तो इस में गलत क्या है? वह औरत भी पूरी सचाई से वाकिफ है, तो बुरा क्या है. प्लीज, जैसा चल रहा है, चलने दो. इस बारे में संध्या को बताने का मतलब साफ है कि सुधीर का जीवन पहले से और भी बदतर हो जाना क्योंकि संध्या की फितरत से वाकिफ हूं मैं.’’

‘‘लेकिन भाभी, उस औरत को अंत में क्या हासिल होगा? कानूनी रूप से तो संध्या ही उन की पत्नी हैं. सुधीर जीजाजी के न रहने पर उन की सारी संपत्ति, जमीनजायदाद और पैंशन पर तो संध्या दी का ही हक होगा. यह सब छिपा कर हम उस औरत के साथ भी तो एक तरह से अन्याय ही कर रहे हैं,’’ मैं ने चिंतित स्वर में कहा. ‘‘नहीं अनु, तुम किसी के साथ कोई अन्याय नहीं कर रही हो. मैं जानती हूं, सुधीर जैसे नेकदिल इंसान मात्र अपने सुख और स्वार्थ के लिए उस औरत के साथ कोई धोखा नहीं करेंगे, न ही उसे अंधेरे में रखेंगे. पूरी ईमानदारी और पारदर्शिता के साथ वे अपना रिश्ता निभाएंगे. मुझे पूरा विश्वास है सुधीर जैसे पढ़ेलिखे, समझदार और दूरदर्शी व्यक्ति ने उस के सुखी और सुरक्षित भविष्य के लिए कुछ न कुछ प्रबंध अवश्य कर दिया होगा.

‘‘रही बात संध्या की, तो ऐसी औरतों को तो सबक मिलना ही चाहिए जो बिना वजह अपने पति और ससुराल वालों को प्रताडि़त कर के उन्हें कानूनी धमकी दे कर अपने मायके आ जाती हैं. इस श्रेणी में तुम्हारी संध्या दी भी आती हैं. यह बात मैं ही नहीं, तुम और तुम्हारे ससुराल वाले और यहां तक कि दोनों तरफ के रिश्तेदार व पड़ोसी भी जानते हैं. इसलिए यह निर्णय मैं तुम पर छोड़ती हूं कि तुम संध्या को बता कर सुधीर की खुशहाल जिंदगी में जहर घुलवाओगी या चुप रह कर उन की वर्तमान खुशियां बरकरार रखोगी,’’ कह कर भाभी चुप हो गईं.

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जानती हूं मैं, भाभी ने जो कुछ कहा है वह एकदम सच कहा है क्योंकि सुधीर जीजाजी उन के करीबी रिश्तेदार हैं. उन्होंने अपना दर्द उन से बयां किया है. मैं अजीब कशमकश में हूं कि एक निर्दोष आदमी की खुशियों की खातिर चुप रहूं या फिर एक कटु, कठोर व कर्कशा औरत के न्याय के लिए बोलूं… फिर भी यह तो मैं भी मानती हूं कि पतिपत्नी के रिश्ते को चाहे वह पति हो या पत्नी, कोई एक भी उस रिश्ते को तोड़ने का जिम्मेदार है तो कुसूरवार वही है. ऐसे में दोषी के साथ सहानुभूति दिखाना बेकुसूर के साथ बेइंसाफी होगी. सुधीर जीजाजी को पूरा हक है कि वे अपनी जिंदगी को नए सिरे से संवारें.

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