‘‘इतने सालों में तुम ने अपने पति को कभी ‘न’ नहीं कहा और उन का अधिकार क्षेत्र तुम्हारी सांस तक पहुंच गया. 12 घंटे तुम इस बंद घर में इतनी भी हिम्मत नहीं कर सकती कि खिड़कियां ही खोल पाओ. जिंदा इंसान हो, तुम कोई मृत काया नहीं जिसे ताजी हवा नहीं चाहिए. सारा दोष तुम्हारा अपना है, तुम्हारे पति का नहीं. जिस की सांस घुटती है, विरोध भी उसी को करना पड़ता है. 4 दिन घर में अशांति होगी, होने दो मगर अपना जीवन समाप्त मत करो. शांति पाने के लिए कभीकभी अशांति का सहारा भी लेना पड़ता है. तुम्हारे पति को परेशानी तो होगी क्योंकि उन्होंने कभी तुम्हारी ‘न’ नहीं सुनी. इतने बरसों में न की गई कितनी सारी ‘न’ हैं जिन का उन्हें एकसाथ सामना करना होगा. अब जो है सो है. तब नहीं तो अब सही, जब जागे तभी सवेरा. अपना घर अपने तरीके से सजाओ.’’
नेहा आंखें फाड़े उस का चेहरा देखती रही.
‘‘घर में वह सामान जो बेकार पड़ा है, सब निकाल दो. कबाड़ी वाला मैं ले आऊंगी. गति दो हर चीज को. तुम भी रुकी पड़ी हो, सामान भी रुका पड़ा है. तुम मालकिन हो घर की, जैसा चाहो, सजाओ.’’
‘‘वही तो मैं भी सोचती हूं.’’
‘‘कुछ भी गलत नहीं सोचती हो तुम. इस घर में पतिदेव सिर्फ रात गुजारते हैं. तुम्हें तो 24 घंटे गुजारने हैं. किस की मरजी चलनी चाहिए?’’
शुभा को नेहा के चेहरे का रंग बदलाबदला नजर आया. आंखों में बुझीबुझी सी चमक, जराजरा हिलती सी नजर आई.
‘‘अच्छा, भाईसाहब का बिजनैस कार्ड देना जरा. मेरे पतिदेव को इनकम टैक्स की कोई सलाह लेनी थी. तुम चलो, अभी मेरे साथ. आज 31 मार्च है न. क्या पता रात के 12 ही बज जाएं. जब आएंगे, तुम्हें बुला लेंगे. अरे, फोन पर बात कर लेंगे न हम,’’ कहते हुए शुभा उस का हाथ थाम चलने के लिए खड़ी हो गई.
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नेहा के ढेर सारे प्रतिरोध थे जिन्हें शुभा ने माना ही नहीं. हाथ पकड़ कर अपने साथ अपने घर ले आई और ड्राइंगरूम में बैठा दिया. नेहा ने देखा कमरा पूरी तरह से व्यवस्थित था.
‘‘आराम से बैठो. आजकल मेरे पतिदेव भी किसी काम से शहर से बाहर गए हुए हैं. मैं भी अकेली ही हूं. अगर भाईसाहब ज्यादा देर से आएं तो तुम यहीं सो जाना.’’
‘‘सोना क्या है, दीदी. मुझे तो सोए हुए हफ्तों बीत चुके हैं. जागना ही है. यहां जागूं या वहां जागूं.’’
‘‘तो अच्छी बात है न. हम गपशप करेंगे.’’ शुभा ने हंस कर उत्तर दिया.
उस के बाद शुभा ने टीवी चालू कर दिया पर नेहा ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. किताबें लगी थीं रैक में. उस का ध्यान उधर ही था. नेहा की कटी कलाई पर शुभा की पूरी चेतना टिक चुकी थी. अगर वह उस के घर न गई होती तो क्या नेहा अपनी कलाई काट चुकी होती? उस के पति तो शायद रात 12 बजे आ कर उस का शव ही देख पाते. संयोग ही तो है हमारा जीवन.
वह भी आराम करने के लिए लेट ही चुकी थी. पता नहीं क्या हुआ था उसे जो वह सहसा उस के घर जाने को उठ पड़ी थी. शायद वक्त को नेहा को बचाना था इसलिए शुभा तुरंत उठ कर नेहा के घर पहुंच गई. शुभा ने घंटी बजा दी. शायद उसी पल नेहा का क्षणिक उन्माद चरम सीमा पर था.
क्षणिक उन्माद ही तो है जो मानवीय और पाशविक दोनों ही तरह के भावों के लिए जिम्मेदार है. क्षणिक सुख की इच्छा ही बलात्कारी बना डालती है और क्षणिक उन्माद ही हत्या और आत्महत्या तक करवा डालता है. कितना अच्छा हो अगर मनुष्य चरमसीमा पर पहुंच कर भी स्वयं पर काबू पा ले और अमूल्य जीवन नष्ट न हो. न हमारा न किसी और का.
रात 11:30 बजे नेहा के पति आए और उसे ले गए. विचित्र धर्मसंकट में थी शुभा. नेहा की हरकत उस के पति को बता दे तो शायद वे उस की मनोस्थिति की गंभीरता को समझें. कैसे समझाए वह उस के पति को कि उस की पत्नी की जान को खतरा है. किसी के घर का निहायत व्यक्तिगत मसला अनायास ही उस के सामने चला आया था जिस से वह आंखें नहीं मूंद पा रही थी. जीवनमरण का प्रश्न हो जहां वहां क्या अपना और क्या पराया.
दूसरे दिन करीब 11-12 बजे शुभा ने नेहा के घर पर कई बार फोन किया पर नेहा ने फोन नहीं उठाया. विचित्र सी कंपकंपी उस के शरीर में दौड़ गई. किसी तरह अपना घर बंद किया और भागीभागी नेहा के घर पहुंची. बेतहाशा उस के घर की घंटी बजाई.
दरवाजा खुला और सामने उस के पति खड़े थे. अस्तव्यस्त कपड़ों में. नाराजगी थी उन के चेहरे पर. शायद उस ने ही बेवक्त खलल डाल दिया मगर सच तो सच था जिसे वह छिपा नहीं पाई थी.
‘‘आप घर पर होंगे, मुझे पता नहीं था. फोन क्यों नहीं उठाते आप? मैं समझी उस ने कुछ कर लिया. आप उस का खयाल रखिएगा. माफ कीजिएगा, कहां है नेहा?’’
सांस धौंकनी की तरह चल रही थी शुभा की. मन भर आया था. पता चला, नेहा को नींद की दवा दे कर सुलाया है. आदि से अंत तक शुभा ने सब बता दिया ब्रजेश को. काटो तो खून नहीं रहा ब्रजेश में.
‘‘इसीलिए मैं कल अपने साथ ले गई थी. आप ने उस का घाव देखा क्या?’’
‘‘हां, देखा था मगर हैरान था कि सोने की चूड़ी से हाथ कैसे कट गया. कांच की चूड़ी तो उस ने कभी पहनी ही नहीं,’’ धम्म से बैठ गए ब्रजेश, ‘‘क्या करूं मैं इस का?’’
नजर दौड़ाई शुभा ने. सब खिड़कियां बंद थीं, जिन्हें कल खोला था.
‘‘बुरा न मानें तो मैं एक सुझाव दूं. आप उसे उस की मरजी से जीने दें कुछ दिन. जैसा वह चाहे उसे करने दें.’’
‘‘मैं ने कब मना किया है उसे. वह जो चाहे करे.’’
‘‘ये खिड़कियां कल खुलवाई थीं मैं ने, आप ने शायद आते ही पहला काम इन्हें बंद करने का किया होगा. क्या आप ने सोचा, शायद उसे ताजी हवा पसंद हो?’’
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‘‘अरे, खुली खिड़की से अंदर का नजर आता है.’’
‘‘क्या नजर आता है. आप की पत्नी कोई अपार सुंदरी है क्या जिसे देखने को सारा संसार खिड़की से लगा खड़ा है. अरे, जिंदा इंसान है वह, जिसे इतना भी अधिकार नहीं कि ताजी हवा ही ले सके. परदे हैं न…उसे उस के मन से करने दीजिए कुछ दिन. वह ठीक हो जाएगी. उस का दम घुट रहा है, जरा समझने की कोशिश कीजिए. नींद की दवा खिलाखिला कर सुलाने से उस का इलाज नहीं होगा. उसे जागी हालत में वह करने दीजिए जिस से उसे खुशी मिले,’’ स्वर कड़वाहट से भर उठा था शुभा का, ‘‘उस के मालिक मत बनिए. साथी बनिए उस के.’’
ब्रजेश सकपका से गए शुभा के शब्दों पर. शुभा बोलती रही, ‘‘आप समझदार हैं. 55 साल तक पहुंचा इंसान बच्चा नहीं होता, जिसे कान पकड़ कर पढ़ाया जाए. अपनी गृहस्थी उजाड़ना नहीं चाहते तो एक बार नेहा का चाहा भी कर के देखिए. बताना मेरा फर्ज था और इंसानी व्यवहार भी. मैं चाहती हूं आप का घर फलेफूले. मैं चलती हूं.’’
ब्रजेश सकपकाए से खड़े रहे और शुभा घर लौट आई, पूरा दिन न कुछ खापी सकी न ठीक से सो सकी. नेहा एक प्रश्न बन कर सामने चली आई है जिस का उत्तर उसे पता तो है मगर लिख नहीं सकती. किसी का जीवन उस के हाथ का पन्ना नहीं है न, जिस पर वह सही या गलत कुछ भी लिख सके. उत्तर उसे शायद पता है मगर अधिकार की स्याही नहीं है उस के पास. क्या होगा नेहा का?
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आत्महत्या का प्रयास भी तो एक जनून है जिसे अवसादग्रस्त इंसान बारबार कार्यान्वित करता है. बच जाने की अवस्था में उसे और अफसोस होता है कि वह बच क्यों गया? जीने में भी असफल रहा और अब मरने में भी असफल. जब वह फिर प्रयास करता है तब असफल हो जाने के सारे कारण बड़ी समझदारी से निबटा देता है. शुभा को डर है कि अब अगर नेहा ने कोई दुस्साहस फिर किया तो शायद सफल हो जाए.