जरा सी आजादी- भाग 3: नेहा आत्महत्या क्यों करना चाहती थी?

‘‘इतने सालों में तुम ने अपने पति को कभी ‘न’ नहीं कहा और उन का अधिकार क्षेत्र तुम्हारी सांस तक पहुंच गया. 12 घंटे तुम इस बंद घर में इतनी भी हिम्मत नहीं कर सकती कि खिड़कियां ही खोल पाओ. जिंदा इंसान हो, तुम कोई मृत काया नहीं जिसे ताजी हवा नहीं चाहिए. सारा दोष तुम्हारा अपना है, तुम्हारे पति का नहीं. जिस की सांस घुटती है, विरोध भी उसी को करना पड़ता है. 4 दिन घर में अशांति होगी, होने दो मगर अपना जीवन समाप्त मत करो. शांति पाने के लिए कभीकभी अशांति का सहारा भी लेना पड़ता है. तुम्हारे पति को परेशानी तो होगी क्योंकि उन्होंने कभी तुम्हारी ‘न’ नहीं सुनी. इतने बरसों में न की गई कितनी सारी ‘न’ हैं जिन का उन्हें एकसाथ सामना करना होगा. अब जो है सो है. तब नहीं तो अब सही, जब जागे तभी सवेरा. अपना घर अपने तरीके से सजाओ.’’

नेहा आंखें फाड़े उस का चेहरा देखती रही.

‘‘घर में वह सामान जो बेकार पड़ा है, सब निकाल दो. कबाड़ी वाला मैं ले आऊंगी. गति दो हर चीज को. तुम भी रुकी पड़ी हो, सामान भी रुका पड़ा है. तुम मालकिन हो घर की, जैसा चाहो, सजाओ.’’

‘‘वही तो मैं भी सोचती हूं.’’

‘‘कुछ भी गलत नहीं सोचती हो तुम. इस घर में पतिदेव सिर्फ रात गुजारते हैं. तुम्हें तो 24 घंटे गुजारने हैं. किस की मरजी चलनी चाहिए?’’

शुभा को नेहा के चेहरे का रंग बदलाबदला नजर आया. आंखों में बुझीबुझी सी चमक, जराजरा हिलती सी नजर आई.

‘‘अच्छा, भाईसाहब का बिजनैस कार्ड देना जरा. मेरे पतिदेव को इनकम टैक्स की कोई सलाह लेनी थी. तुम चलो, अभी मेरे साथ. आज 31 मार्च है न. क्या पता रात के 12 ही बज जाएं. जब आएंगे, तुम्हें बुला लेंगे. अरे, फोन पर बात कर लेंगे न हम,’’ कहते हुए शुभा उस का हाथ थाम चलने के लिए खड़ी हो गई.

ये भी पढ़ें- Romantic Story: ये लम्हा कहां था मेरा

नेहा के ढेर सारे प्रतिरोध थे जिन्हें शुभा ने माना ही नहीं. हाथ पकड़ कर अपने साथ अपने घर ले आई और ड्राइंगरूम में बैठा दिया. नेहा ने देखा कमरा पूरी तरह से व्यवस्थित था.

‘‘आराम से बैठो. आजकल मेरे पतिदेव भी किसी काम से शहर से बाहर गए हुए हैं. मैं भी अकेली ही हूं. अगर भाईसाहब ज्यादा देर से आएं तो तुम यहीं सो जाना.’’

‘‘सोना क्या है, दीदी. मुझे तो सोए हुए हफ्तों बीत चुके हैं. जागना ही है. यहां जागूं या वहां जागूं.’’

‘‘तो अच्छी बात है न. हम गपशप करेंगे.’’ शुभा ने हंस कर उत्तर दिया.

उस के बाद शुभा ने टीवी चालू कर दिया पर नेहा ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. किताबें लगी थीं रैक में. उस का ध्यान उधर ही था. नेहा की कटी कलाई पर शुभा की पूरी चेतना टिक चुकी थी. अगर वह उस के घर न गई होती तो क्या नेहा अपनी कलाई काट चुकी होती? उस के पति तो शायद रात 12 बजे आ कर उस का शव ही देख पाते. संयोग ही तो है हमारा जीवन.

वह भी आराम करने के लिए लेट ही चुकी थी. पता नहीं क्या हुआ था उसे जो वह सहसा उस के घर जाने को उठ पड़ी थी. शायद वक्त को नेहा को बचाना था इसलिए शुभा तुरंत उठ कर नेहा के घर पहुंच गई. शुभा ने घंटी बजा दी. शायद उसी पल नेहा का क्षणिक उन्माद चरम सीमा पर था.

क्षणिक उन्माद ही तो है जो मानवीय और पाशविक दोनों ही तरह के भावों के लिए जिम्मेदार है. क्षणिक सुख की इच्छा ही बलात्कारी बना डालती है और क्षणिक उन्माद ही हत्या और आत्महत्या तक करवा डालता है. कितना अच्छा हो अगर मनुष्य चरमसीमा पर पहुंच कर भी स्वयं पर काबू पा ले और अमूल्य जीवन नष्ट न हो. न हमारा न किसी और का.

रात 11:30 बजे नेहा के पति आए और उसे ले गए. विचित्र धर्मसंकट में थी शुभा. नेहा की हरकत उस के पति को बता दे तो शायद वे उस की मनोस्थिति की गंभीरता को समझें. कैसे समझाए वह उस के पति को कि उस की पत्नी की जान को खतरा है. किसी के घर का निहायत व्यक्तिगत मसला अनायास ही उस के सामने चला आया था जिस से वह आंखें नहीं मूंद पा रही थी. जीवनमरण का प्रश्न हो जहां वहां क्या अपना और क्या पराया.

दूसरे दिन करीब 11-12 बजे शुभा ने नेहा के घर पर कई बार फोन किया पर नेहा ने फोन नहीं उठाया. विचित्र सी कंपकंपी उस के शरीर में दौड़ गई. किसी तरह अपना घर बंद किया और भागीभागी नेहा के घर पहुंची. बेतहाशा उस के घर की घंटी बजाई.

दरवाजा खुला और सामने उस के पति खड़े थे. अस्तव्यस्त कपड़ों में. नाराजगी थी उन के चेहरे पर. शायद उस ने ही बेवक्त खलल डाल दिया मगर सच तो सच था जिसे वह छिपा नहीं पाई थी.

‘‘आप घर पर होंगे, मुझे पता नहीं था. फोन क्यों नहीं उठाते आप? मैं समझी उस ने कुछ कर लिया. आप उस का खयाल रखिएगा. माफ कीजिएगा, कहां है नेहा?’’

सांस धौंकनी की तरह चल रही थी शुभा की. मन भर आया  था. पता चला, नेहा को नींद की दवा दे कर सुलाया है. आदि से अंत तक शुभा ने सब बता दिया ब्रजेश को. काटो तो खून नहीं रहा ब्रजेश में.

‘‘इसीलिए मैं कल अपने साथ ले गई थी. आप ने उस का घाव देखा क्या?’’

‘‘हां, देखा था मगर हैरान था कि सोने की चूड़ी से हाथ कैसे कट गया. कांच की चूड़ी तो उस ने कभी पहनी ही नहीं,’’ धम्म से बैठ गए ब्रजेश, ‘‘क्या करूं मैं इस का?’’

नजर दौड़ाई शुभा ने. सब खिड़कियां बंद थीं, जिन्हें कल खोला था.

‘‘बुरा न मानें तो मैं एक सुझाव दूं. आप उसे उस की मरजी से जीने दें कुछ दिन. जैसा वह चाहे उसे करने दें.’’

‘‘मैं ने कब मना किया है उसे. वह जो चाहे करे.’’

‘‘ये खिड़कियां कल खुलवाई थीं मैं ने, आप ने शायद आते ही पहला काम इन्हें बंद करने का किया होगा. क्या आप ने सोचा, शायद उसे ताजी हवा पसंद हो?’’

ये भी पढ़ें- जोरू का गुलाम: मां इतनी संगदिल कैसे हो गईं

‘‘अरे, खुली खिड़की से अंदर का नजर आता है.’’

‘‘क्या नजर आता है. आप की पत्नी कोई अपार सुंदरी है क्या जिसे देखने को सारा संसार खिड़की से लगा खड़ा है. अरे, जिंदा इंसान है वह, जिसे इतना भी अधिकार नहीं कि ताजी हवा ही ले सके. परदे हैं न…उसे उस के मन से करने दीजिए कुछ दिन. वह ठीक हो जाएगी. उस का दम घुट रहा है, जरा समझने की कोशिश कीजिए. नींद की दवा खिलाखिला कर सुलाने से उस का इलाज नहीं होगा. उसे जागी हालत में वह करने दीजिए जिस से उसे खुशी मिले,’’ स्वर कड़वाहट से भर उठा था शुभा का, ‘‘उस के मालिक मत बनिए. साथी बनिए उस के.’’

ब्रजेश सकपका से गए शुभा के शब्दों पर.  शुभा बोलती रही, ‘‘आप समझदार हैं. 55 साल तक पहुंचा इंसान बच्चा नहीं होता, जिसे कान पकड़ कर पढ़ाया जाए. अपनी गृहस्थी उजाड़ना नहीं चाहते तो एक बार नेहा का चाहा भी कर के देखिए. बताना मेरा फर्ज था और इंसानी व्यवहार भी. मैं चाहती हूं आप का घर फलेफूले. मैं चलती हूं.’’

ब्रजेश सकपकाए से खड़े रहे और शुभा घर लौट आई, पूरा दिन न कुछ खापी सकी न ठीक से सो सकी. नेहा एक प्रश्न बन कर सामने चली आई है जिस का उत्तर उसे पता तो है मगर लिख नहीं सकती. किसी का जीवन उस के हाथ का पन्ना नहीं है न, जिस पर वह सही या गलत कुछ भी लिख सके. उत्तर उसे शायद पता है मगर अधिकार की स्याही नहीं है उस के पास. क्या होगा नेहा का?

ये भी पढ़ें- काशी वाले पंडाजी: बेटियों ने बचाया परिवार

आत्महत्या का प्रयास भी तो एक जनून है जिसे अवसादग्रस्त इंसान बारबार कार्यान्वित करता है. बच जाने की अवस्था में उसे और अफसोस होता है कि वह बच क्यों गया? जीने में भी असफल रहा और अब मरने में भी असफल. जब वह फिर प्रयास करता है तब असफल हो जाने के सारे कारण बड़ी समझदारी से निबटा देता है. शुभा को डर है कि अब अगर नेहा ने कोई दुस्साहस फिर किया तो शायद सफल हो जाए.

प्रेम ऋण- भाग 3: पारुल अपनी बहन को क्यों बदलना चाहती थी?

‘‘अशीम केवल मित्र है, दीदी? मैं तो सोचती थी कि आप उस के प्रेम में आकंठ डूबी हुई हैं और किसी और के बारे में सोचेंगी भी नहीं. पर आप तो प्रशांत बाबू की मर्सीडीज देख कर सबकुछ भूल गईं.’’

‘‘कालिज का प्रेम समय बिताने के लिए होता है. मैं इस बारे में पूर्णतया व्यावहारिक हूं. अशीम अभी पीएच.डी. कर रहा है. 4-5 वर्ष बाद कहीं नौकरी करेगा. उस की प्रतीक्षा करते हुए मेरी तो आंखें पथरा जाएंगी. घर ढंग से चलाने के लिए मुझे भी 9 से 5 की चक्की में पिसना पड़ेगा. मैं उन भावुक मूर्खों में से नहीं हूं जो प्रेम के नाम पर अपना जीवन बरबाद कर देते हैं.’’

‘‘आप का हर तर्क सिरमाथे पर, लेकिन आप से इतनी अपेक्षा तो की ही जा सकती है कि आप अशीम को सब साफसाफ बता दें और उस के साथ प्यार की पींगें बढ़ाना बंद कर दें. फिर प्रशांतजी का परिवार इसी शहर में रहता है. किसी को भनक लग गई तो…’’

‘‘किसी को भनक नहीं लगने वाली. तुम्हीं बताओ, मांपापा को आज तक कुछ पता चला क्या? हां, इस के लिए मैं तुम्हारी आभारी हूं. पर मैं इस उपकार का बदला अवश्य चुकाऊंगी.’’

‘‘अंशुल दीदी, तुम इस सीमा तक गिर जाओगी मैं ने सोचा भी नहीं था,’’ पारुल बोझिल स्वर में बोली.

‘‘यदि अपने हितों की रक्षा करने को नीचे गिरना कहते हैं तो मैं पाताल तक भी जाने को तैयार हूं. तुम चाहती हो कि मैं अशीम को सब साफसाफ बता दूं, पर जरा सोचो कि जब सारे शहर को मेरे विवाह के संबंध में पता है पर केवल अशीम अनभिज्ञ है तो क्या यह मेरा दोष है?’’

‘‘पता नहीं दीदी, पर कहीं कुछ ठीक नहीं लग रहा है.’’

‘‘व्यर्थ की चिंता में नहीं घुला करते मेरी प्यारी बहन, अभी तो तुम्हारे खानेखेलने के दिन हैं. क्यों ऊंचे आदर्शों के चक्कर में उलझती हो. अशीम को मैं सबकुछ बता दूंगी पर जरा सलीके से. अपने प्रेमी को मैं अधर में तो नहीं छोड़ सकती,’’ अंशुल ने अपने चिरपरिचित अंदाज में कहा.

पारुल चुप रह गई थी. वह भली प्रकार जानती थी कि अंशुल से बहस का कोई लाभ नहीं था. उस ने अपने अगले प्रश्नपत्र की तैयारी प्रारंभ कर दी.

परीक्षा और विवाह की तैयारियों के बीच समय पंख लगा कर उड़ चला था. सुजाताजी ने अपनी लाड़ली के विवाह में दिल खोल कर पैसा लुटाया था. वीरेन बाबू को न चाहते हुए भी उन का साथ देना पड़ा था. अंशुल की विदाई के बाद कई माह से चल रहा तूफान मानो थम सा गया था. पारुल ने सहेलियों के साथ नाचनेगाने और फिर रोने में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया था. पर अब सूने घर में कहीं कुछ करने को नहीं बचा था.

धीरेधीरे उस ने स्वयं को व्यवस्थित करना प्रारंभ किया था. पर एक दिन अचानक ही अशीम का संदेश पा कर वह चौंक गई थी. अशीम ने उसे कौफी हाउस में मिलने के लिए बुलाया था.

ये भी पढ़ें- माध्यम: भाग 2

अशीम से पारुल को सच्ची सहानुभूति थी. अत: वह नियत समय पर उस से मिलने पहुंची थी.

‘‘पता नहीं बात कहां से प्रारंभ करूं,’’ अशीम कौफी और कटलेट्स का आर्डर देने के बाद बोला.

‘‘कहिए न क्या कहना है?’’ पारुल आश्चर्यचकित स्वर में बोली.

‘‘विवाह से 4-5 दिन पहले अंशुल ने मुझे सबकुछ बता दिया था.’’

‘‘क्या?’’

‘‘यही कि मातापिता का मन रखने के लिए उसे इस विवाह के लिए तैयार होना पड़ा.’’

‘‘अच्छा, और क्या कहा उस ने?’’

‘‘वह कह रही थी कि उस के विवाह के लिए मातापिता को काफी कर्ज लेना पड़ा. घर तक गिरवी रखना पड़ा. वह मुझ से विनती करने लगी, उस का वह स्वर मैं अभी तक भूला नहीं हूं.’’

‘‘पर ऐसा क्या कहा अंशुल दीदी ने?’’

‘‘वह चाहती है कि मैं तुम से विवाह कर लूं जिस से कि तुम्हारे मातापिता को चिंता से मुक्ति मिल जाए. और भी बहुत कुछ कह रही थी वह,’’ अशीम ने हिचकिचाते हुए बात पूरी की.

कुछ देर तक दोनों के बीच निस्तब्धता पसरी रही. कपप्लेटों पर चम्मचों के स्वर ही उस शांति को भंग कर रहे थे.

‘तो यह उपकार किया है अंशुल ने,’ पारुल सोच रही थी.

‘‘अशीमजी, मैं आप का बहुत सम्मान करती हूं. सच कहूं तो आप मेरे आदर्श रहे हैं. आप की तरह ही पीएच.डी. करने के लिए मैं ने एम.एससी. के प्रथम वर्ष में जीतोड़ परिश्रम किया और विश्वविद्यालय में प्रथम रही. इस वर्ष भी मुझे ऐसी ही आशा है. आप के मन में अंशुल दीदी का क्या स्थान था मैं नहीं जानती पर निश्चय ही आप ‘पैर का जूता’ नहीं हैं कि एक बहन को ठीक नहीं आया तो दूसरी ने पहन लिया,’’ सीधेसपाट स्वर में बोल कर पारुल चुप हो गई थी.

‘‘आज तुम ने मेरे मन का बोझ हलका कर दिया, पारुल. तुम्हारे पास अंशुल जैसा रूपरंग न सही पर तुम्हारे व्यक्तित्व में एक अनोखा तेज है जिस की अंशुल चाह कर भी बराबरी नहीं कर सकती.’’

‘‘यही बात मैं आप के संबंध में भी कह सकती हूं. आप एक सुदृढ़ व्यक्तित्व के स्वामी हैं. इन छोटीमोटी घटनाओं से आप सहज ही विचलित नहीं होते. आप के लिए एक सुनहरा भविष्य बांहें पसारे खड़ा है,’’ पारुल ने कहा तो अशीम खिलखिला कर हंस पड़ा.

ये भी पढ़ें- मैं तो कुछ नहीं खाती

‘‘हम दोनों एकदूसरे के इतने बड़े प्रशंसक हैं यह तो मैं ने कभी सोचा ही नहीं था. तुम से मिल कर और बातें कर के अच्छा लगा,’’ अशीम बोला और दोनों उठ खड़े हुए.

अपने घर की ओर जाते हुए पारुल देर तक यही सोचती रही कि अशीम को ठुकरा कर अंशुल ने अच्छा किया या बुरा? पर इस प्रश्न का उत्तर तो केवल समय ही दे सकता है.

शादी- भाग 1: सुरेशजी को अपनी बेटी पर क्यों गर्व हो रहा था?

‘‘सुनो, आप को याद है न कि आज शाम को राहुल की शादी में जाना है. टाइम से घर आ जाना. फार्म हाउस में शादी है. वहां पहुंचने में कम से कम 1 घंटा तो लग ही जाएगा,’’ सुकन्या ने सुरेश को नाश्ते की टेबल पर बैठते ही कहा.

‘‘मैं तो भूल ही गया था, अच्छा हुआ जो तुम ने याद दिला दिया,’’ सुरेश ने आलू का परांठा तोड़ते हुए कहा.

‘‘आजकल आप बातों को भूलने बहुत लगे हैं, क्या बात है?’’ सुकन्या ने चाय की चुस्की लेते हुए कहा.

‘‘आफिस में काम बहुत ज्यादा हो गया है और कंपनी वाले कम स्टाफ से काम चलाना चाहते हैं. दम मारने की फुरसत नहीं होती है. अच्छा सुनो, एक काम करना, 5 बजे मुझे फोन करना. मैं समय से आ जाऊंगा.’’

‘‘क्या कहते हो, 5 बजे,’’ सुकन्या ने आश्चर्य से कहा, ‘‘आफिस से घर आने में ही तुम्हें 1 घंटा लग जाता है. फिर तैयार हो कर शादी में जाना है. आप आज आफिस से जल्दी निकलना. 5 बजे तक घर आ जाना.’’

‘‘अच्छा, कोशिश करूंगा,’’ सुरेश ने आफिस जाने के लिए ब्रीफकेस उठाते हुए कहा.

आफिस पहुंच कर सुरेश हैरान रह गया कि स्टाफ की उपस्थिति नाममात्र की थी. आफिस में हर किसी को शादी में जाना था. आधा स्टाफ छुट्टी पर था और बाकी स्टाफ हाफ डे कर के लंच के बाद छुट्टी करने की सोच रहा था. पूरे आफिस में कोई काम नहीं कर रहा था. हर किसी की जबान पर बस यही चर्चा थी कि आज शादियों का जबरदस्त मुहूर्त है, जिस की शादी का मुहूर्त नहीं निकल रहा है उस की शादी बिना मुहूर्त के आज हो सकती है. इसलिए आज शहर में 10 हजार शादियां हैं.

सुरेश अपनी कुरसी पर बैठ कर फाइलें देख रहा था तभी मैनेजर वर्मा उस के सामने कुरसी खींच कर बैठ गए और गला साफ कर के बोले, ‘‘आज तो गजब का मुहूर्त है, सुना है कि आज शहर में 10 हजार शादियां हैं, हर कोई छुट्टी मांग रहा है, लंच के बाद तो पूरा आफिस लगभग खाली हो जाएगा. छुट्टी तो घोषित कर नहीं सकते सुरेशजी, लेकिन मजबूरी है, किसी को रोक भी नहीं सकते. आप को भी किसी शादी में जाना होगा.’’

ये भी पढ़ें- यह कैसा प्यार: प्यार में नाकामी का परिणाम

‘‘वर्माजी, आप तो जबरदस्त ज्ञानी हैं, आप को कैसे मालूम कि मुझे भी आज शादी में जाना है,’’ सुरेश ने फाइल बंद कर के एक तरफ रख दी और वर्माजी को ऊपर से नीचे तक देखते हुए बोला.

‘‘यह भी कोई पूछने की बात है, आज तो हर आदमी, बच्चे से ले कर बूढ़े तक सभी बराती बनेंगे. आखिर 10 हजार शादियां जो हैं,’’ वर्माजी ने उंगली में कार की चाबी घुमाते हुए कहा, ‘‘आखिर मैं भी तो आज एक बराती हूं.’’

‘‘वर्माजी, एक बात समझ में नहीं आ रही कि क्या वाकई में पूरे स्टाफ को शादी में जाना है या फिर 10 हजार शादियों की खबर सुन कर आफिस से छुट्टी का एक बहाना मिल गया है,’’ सुरेश ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा.

‘‘लगता है कि आप को आज किसी शादी का न्योता नहीं मिला है, घर पर भाभीजी के साथ कैंडल लाइट डिनर करने का इरादा है. तभी इस तरीके की बातें कर रहे हो, वरना घर जल्दी जाने की सोच रहे होते सुरेश बाबू,’’ वर्माजी ने चुटकी लेते हुए कहा.

‘‘नहीं, वर्माजी, ऐसी बात नहीं है. शादी का न्योता तो है, लेकिन जाने का मन नहीं है, पत्नी चलने को कह रही है. लगता है जाना पड़ेगा.’’

‘‘क्यों भई…भाभीजी के मायके में शादी है,’’ वर्माजी ने आंख मारते हुए कहा.

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है, वर्माजी. पड़ोसी की शादी में जाना है. ऊपर वाले फ्लैट में नंदकिशोरजी रहते हैं, उन के बेटे राहुल की शादी है. मन इसलिए नहीं कर रहा कि बहुत दूर फार्म हाउस में शादी है. पहले तो 1 घंटा घर पहुंचने में लगेगा, फिर घर से कम से कम 1 घंटा फार्म हाउस पहुंचने में लगेगा. थक जाऊंगा. यदि आप कल की छुट्टी दे दें तो शादी में चला जाऊंगा.’’

‘‘अरे, सुरेश बाबू, आप डरते बहुत हैं. आज शादी में जाइए, कल की कल देखेंगे,’’ कह कर वर्माजी चले गए.

मुझे डरपोक कहता है, खुद जल्दी जाने के चक्कर में मेरे कंधे पर बंदूक रख कर चलाना चाहता है, सुरेश मन ही मन बुदबुदाया और काम में व्यस्त हो गया.

शाम को ठीक 5 बजे सुकन्या ने फोन कर के सुरेश को शादी में जाने की याद दिलाई कि सोसाइटी में लगभग सभी को नंदकिशोरजी ने शादी का न्योता दिया है और सभी शादी में जाएंगे. तभी चपरासी ने कहा, ‘‘साबजी, पूरा आफिस खाली हो गया है, मुझे भी शादी में जाना है, आप कितनी देर तक बैठेंगे?’’

चपरासी की बात सुन कर सुरेश ने काम बंद किया और धीमे से मुसकरा कर कहा, ‘‘मैं ने भी शादी में जाना है, आफिस बंद कर दो.’’

ये भी पढ़ें- रज्जो: क्या था सुरेंद्र और माधवी का प्लान

सुरेश ने कार स्टार्ट की, रास्ते में सोचने लगा कि दिल्ली एक महानगर है और 1 करोड़ से ऊपर की आबादी है, लेकिन एक दिन में 10 हजार शादियां कहां हो सकती हैं. घोड़ी, बैंड, हलवाई, वेटर, बसों के साथ होटल, पार्क, गलीमहल्ले आदि का इंतजाम मुश्किल लगता है. रास्ते में टै्रफिक भी कोई ज्यादा नहीं है, आम दिनों की तरह भीड़भाड़ है. आफिस से घर की 30 किलोमीटर की दूरी तय करने में 1 से सवा घंटा लग जाता है और लगभग आधी दिल्ली का सफर हो जाता है. अगर पूरी दिल्ली में 10 हजार शादियां हैं तो आधी दिल्ली में 5 हजार तो अवश्य होनी चाहिए. लेकिन लगता है लोगों को बढ़ाचढ़ा कर बातें करने की आदत है और ऊपर से टीवी चैनल वाले खबरें इस तरह से पेश करते हैं कि लोगों को विश्वास हो जाता है. यही सब सोचतेसोचते सुरेश घर पहुंच गया.

घर पर सुकन्या ने फौरन चाय के साथ समोसे परोसते हुए कहा, ‘‘टाइम से तैयार हो जाओ, सोसाइटी से सभी शादी में जा रहे हैं, जिन को नंदकिशोरजी ने न्योता दिया है.’’

‘‘बच्चे भी चलेंगे?’’

‘‘बच्चे अब बड़े हो गए हैं, हमारे साथ कहां जाएंगे.’’

‘‘हमारा जाना क्या जरूरी है?’’

‘‘जाना बहुत जरूरी है, एक तो वह ऊपर वाले फ्लैट में रहते हैं और फिर श्रीमती नंदकिशोरजी तो हमारी किटी पार्टी की मेंबर हैं. जो नहीं जाएगा, कच्चा चबा जाएंगी.’’

ये भी पढ़ें- Serial Story: बोया पेड़ बबूल का

‘‘इतना डरती क्यों हो उस से? वह ऊपर वाले फ्लैट में जरूर रहते हैं, लेकिन साल 6 महीने में एकदो बार ही दुआ सलाम होती है, जाने न जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता है,’’ सुरेश ने चाय की चुस्कियों के बीच कहा.

‘‘डरे मेरी जूती…शादी में जाने की तमन्ना सिर्फ इसलिए है कि वह घर में बातें बड़ीबड़ी करती है, जैसे कोई अरबपति की बीवी हो. हम सोसाइटी की औरतें तो उस की शानशौकत का जायजा लेने जा रही हैं. किटी पार्टी का हर सदस्य शादी की हर गतिविधि और बारीक से बारीक पहलू पर नजर रखेगा. इसलिए जाना जरूरी है, चाहे कितना ही आंधीतूफान आ जाए.’’

सुकन्या की इस बात को उन की बेटी रोहिणी ने काटा, ‘‘पापा, आप को मालूम नहीं है, जेम्स बांड 007 की पूरी टीम साडि़यां पहन कर जासूसी करने में लग गई है. इन के वार से कोई नहीं बच सकता है…’’

सुकन्या ने बीच में बात काटते हुए कहा, ‘‘तुम लोगों के खाने का क्या हिसाब रहेगा. मुझे कम से कम बेफिक्री तो हो.’’

उलटी गंगा- भाग 2: आखिर योगेश किस बात से डर रहा था

मैं तो कहती हूं उस की पत्नी को भी जेल में डाल देना चाहिए, जो एक गुनहगार की अगुआई कर रही है,’’ गुस्से से अपनी आंखें लाल कर नीलिका बोली.

‘‘हो सकता है अमनजी सही कह रहे हों और वह लड़की झूठ…’’

‘‘झूठ…? बीच में ही नीलिमा बोल पड़ी,’’ और वे सच बोल रहे हैं? क्यों, क्या वह लड़की पागल है जो खुद को ही बदनाम करेगी? जरूर कुछ किया ही होगा तभी तो वह बोल रही होगी… इसलिए गुनाह कर के भी मर्द बच निकलते हैं, क्योंकि उन की पत्नियां उन्हें बचाने के लिए दीवार बन कर उन के सामने खड़ी हो जाती हैं. जानती हैं कि पति गुनहगार है फिर भी… सच कहती हूं अगर उस की जगह मेरा पति होता न, तो मैं उसे नहीं छोड़ती. जेल भिजवा कर ही रहती साले को, ‘‘नीलिमा के मुंह से ऐसी बातें सुन कर योगेश के रोंगटे खड़े हो गए.’’

‘‘सोचो, खुद की भी बेटी है, अगर उस के साथ कोई ऐसा करे तो? छि:, अरे, औरत क्या कोई वस्तु है, जो जिस का जब मन चाहे इस्तेमाल कर लो, बिना उस की मरजी के?’’

ये भी पढ़ें- जड़ें: भाग 1

आज नीलिमा के तेवर देख योगेश की रूह कांप रही थी. बस मन ही मन यही

प्रार्थना किए जा रहा था कि वह इस सब से बचा रहे किसी तरह.

‘‘अब तुम्हें क्या हुआ?’’ योगेश के चेहरे पर हवाइयां उड़ते देख नीलिमा कहने लगी, ‘‘हां, पता है मुझे, तुम्हें भी सुन कर बुरा लग रहा होगा, है न? अरे किसी भी शरीफ इंसान को सुन कर बुरा लगेगा, मगर देखो, हम उन्हें क्या समझते थे और क्या निकले?’’ किसी का कुछ कहा नहीं जा सकता,’’ भुनभुनाते हुए नीलिमा किचन की तरफ बढ़ गई.

योगेश धम्म से वहीं सोफे पर बैठ गया. सोचने लगा कि आज जिस तरह से संस्कारी अमन अंकल की थूथू हो रही है, कल उस की बारी न हो. फिर कैसे नजरें मिलाएगा वह अपनी बेटियों से? गुमसुम सा वह आ कर कमरे में बैठ गया. नीलिमा ने पूछा, ‘‘कुछ खाओगे?’’

बच्चे और नीलिमा तो सो गए, उस की आंखें अब भी जाग रही थीं. अचानक उस के दिल में एक शूल सा उठता, फिर शांत हो जाता. कभी वह अपने सो रहे बच्चों को निहारता, तो कभी एकटक नीलिमा को देखता. आज नीलिमा उसे उस की पत्नी नहीं, बल्कि चंडिका का रूप लग रही थी, जो छूते ही भस्म कर देगी. इसलिए वह हौल में जा कर सोफे पर सोने की कोशिश करने लगा, लेकिन वहां भी उसे कहां चैन.

घर का 1-1 सामान जैसे उस के मुंह चिढ़ा रहा हो, हंस रहा हो उस पर और कह रहा हो, ‘‘देख रहे हो, कैसी उलटी गंगा बह रही है? नहीं बच पाओगे तुम भी योगेश बाबू. देरसबेर ही सही, पर कर्मों का फल तो सब को मिलता ही है. तुम्हें भी जरूर मिलेगा. उन की बातें सुन वह घबरा कर उठ बैठता और लंबीलंबी सांसें लेने लगता. डर के मारे हालत खराब हो रही थी उस की, पर बताए तो किसे और क्या? सोच कर ही कंपकंपा उठता कि अगर उस के किए गुनाह सब के सामने आ गए, तब क्या होगा? उस की तो बसीबसाई गृहस्थी ही उजड़ जाएगी.’’

ये भी पढ़ें- तुम प्रेमी क्यों नहीं: भाग 1

‘नहींनहीं, ऐसा कुछ नहीं होगा. क्यों मैं बेकार की बातें सोच रहा हूं? वह कभी अपना मुंह नहीं खोलेगी और अगर खोल दिया तो? तो मैं उसे झूठा साबित कर दूंगा. कह दूंगा वही मुझ पर डोरे डाल रही थी. जब दाल नहीं गली, तो मुझ पर इलजाम लगा रही है. मगर उस ने कोई सुबूत पेश कर दिया या गवाह खड़ा कर दिया तो, तो क्या होगा? कौन गवाह? किस की  इतनी हिम्मत है कि जो मेरे खिलाफ बोले,’ वह खुद से ही सवालजवाब किए जा रहा था और परेशान हुए जा रहा था. मुक्ता के साथ किए 1-1 अत्याचार आज उस की आंखों के सामने चलचित्र की तरह नाचने लगे.

बात 7-8 साल पहले की है. जिस कंपनी में योगेश बौस था. उसी कंपनी में मुक्ता भी काम करती थी, पर छोटे पद पर. चूंकि योगेश मुक्ता का बौस था, इसलिए उस की मजबूरी थी उस की हर बात को मानना. गोरा रंग, लंबे घने बाल, मोटीमोटी झील सी आंखें और उस का छरहरा बदन देख योगेश उसे देखता ही रह जाता. जिस तरह वह उसे नजरें गड़ाए देखा करता. उस से मुक्ता एकदम असहज हो जाती और अपने कपड़े ठीक करने लगती.

जानती थी वह कि उसे ले कर योगेश के विचार कुछ ठीक नहीं हैं, इसलिए वह अपना काम समय के साथ कर लिया करती ताकि योगेश को उसे कुछ कहने का मौका ही न मिले. फिर भी किसी न किसी बहाने वह उसे अपने कैबिन में बुला ही लेता और घंटों बेमतलब के कामों में उलझाए रखता. जब वह कामों में उलझी रहती, योगेश लगातार अपनी नजरें उस पर ही टिकाए रखता.

आप कितने भी अपने काम में व्यस्त क्यों न हों अगर कोई आप को एकटक निहार रहा हो, तो आप की नजरें खुदबखुद उस ओर चली जाती हैं. ऐसा अकसर होता है. जब मुक्ता की नजर योगेश पर पड़ती, तब भी ढीठ की तरह वह उसे उसी प्रकार निहारता रहता. हार कर मुक्ता ही अपनी नजरें नीची कर लेती या वहां से हट जाती.

ये भी पढ़ें- स्मृति चक्र: भाग 1

मुक्ता को अब योगेश के सामने जाने से भी डर लगने लगा था, क्योंकि जिस तरह से वह उस के सीने पर अपनी नजरें गड़ाए रहता, उस से वह सहम सी जाती. योगेश के डर से ही अब उस ने जींस टीशर्ट और स्लीवलैस कपड़े पहनने छोड़ दिए थे. जानबूझ कर ढीलेढाले कपड़े पहन कर औफिस जाती, ताकि योगेश उसे न देखे, पर उस की गंदी नजरें फिर भी उसे घूरती रहतीं.

कई बार तो वह जानबूझ कर उस से टकरा जाता, फिर भी मुक्ता ही सौरी बोलती. एक बार तो उस ने उस के सीने पर हाथ ही रख दिया और फिर सौरीसौरी कहने लगा, लेकिन योगेश ने ऐसा जानबूझ कर किया, यह बात मुक्ता जानती थी. ऐसा पहली बार नहीं हुआ था. जब भी मौका मिलता, वह मुक्ता को यहांवहां छू देता और बेचारी कुछ न बोल कर आगे बढ़ जाती.

रोना आता उसे अपनी हालत पर. सोचती क्या लड़की होना इतना बड़ा पाप है? शुरू से ही मुक्ता पर उस की गंदी नजर थी. जानता था वह कि यह नौकरी उस के लिए कितना माने रखती है, क्योंकि उस के घर में कमाने वाला उस के सिवा और कोई नहीं था. पिता की असमय मौत ने घरपरिवार की सारी जिम्मेदारी उस के कंधों पर डाल दी थी. इसी कारण वक्तबेवक्त योगेश उस का फायदा उठाता रहता था.

ये भी पढ़ें- राहुल बड़ा हो गया है

उस दिन जानबूझ कर योगेश ने मुक्ता को देर रात तक औफिस में रोक लिया और कहा कि वह उसे घर छोड़ देगा. औफिस के चपरासी को भी उस ने छुट्टी दे दी. लेकिन मुक्ता जल्दीजल्दी अपना काम निबटा कर वहां से जाने ही लगी कि पीछे से आ कर योगेश ने उसे अपनी बांहों में दबोच लिया और उसे यहांवहां छूने लगा.

‘‘सर, यह क्या कर रहे हैं आप? छोडि़ए मुझे,’’ कह कर मुक्ता ताकत लगा कर उस की पकड़ से निकली ही कि फिर से उस ने उसे दबोचना चाहा, यह बोल कर कि इसी मौके की तो उसे कब से तलाश थी. मगर ऐन वक्त पर वही चपरासी वहां पहुंच गया और मुक्ता बच गई. वरना तो आज योगेश उसे नहीं छोड़ता. शायद वह चपरासी भी योगेश के गंदे इरादे भांप गया था, इसलिए अपना खाने का डब्बा छूट जाने का बहाना कर वापस आ गया और मुक्ता बरबाद होने से बच गई.

जरा सी आजादी- भाग 4: नेहा आत्महत्या क्यों करना चाहती थी?

पिछली बालकनी में खड़ी रही शुभा देर तक. नजर नेहा के घर पर थी. रोशनी जल रही थी. वहां क्या हाल है क्या नहीं, यह उसे बेचैन कर रहा था. तभी उस के पतिदेव विजय का फोन आया तो सहसा सारा किस्सा उन्हें सुना दिया.

‘‘मुझे बहुत डर लग रहा है, विजय. अगर नेहा ने कुछ…’’

‘‘ब्रजेश को सब बताया है न तुम ने. अब वह देख लेगा न.’’

‘‘नहीं देखेगा. मुझे लगता है उसे पता ही नहीं कि उसे क्या करना चाहिए.’’

‘‘देखो शुभा, तुम अपना दिमाग खराब मत करो. तुम्हारा ब्लड प्रैशर बढ़ जाएगा और मैं भी वहां नहीं हूं. तुम कोई झांसी की रानी नहीं हो जो किसी की भी जंग में कूदना चाहती हो.’’

‘‘सवाल उस के जीनेमरने का है, विजय. अगर मेरे कूदने से वह बच जाती है तो मेरे मन पर कोई बोझ नहीं रहेगा और अगर उस ने कुछ कर लिया तो जीवनभर अफसोस रहेगा.’’

‘‘तुम ने ठेका ले रखा है क्या सब का? न जान न पहचान.’’

‘‘हम जिंदा इंसान हैं, विजय. क्या मरने वाले को लौटा नहीं सकते? मुझे लगता है मैं उसे मरने से रोक सकती हूं. आप एक बार ब्रजेश से बात कीजिए न. उस का फोन नंबर है मेरे पास, मैं आप को लिखवा देती हूं.’’

ये भी पढ़ें- काशी वाले पंडाजी: बेटियों ने बचाया परिवार

मंदमंद मुसकराने लगे विजय. जानते हैं अपनी पत्नी को. समस्या को सुलझाए बिना मानेगी नहीं और सच भी तो कह रही है. खिलौना टूट जाने के बाद कोई कर भी क्या लेगा? प्रयास का कोई भी औचित्य तभी तक है जब तक प्राण हैं. पखेरू के उड़ जाने के बाद वास्तव में उन्हें भी अफसोस होगा. शुभा का कहा मान लेना चाहिए, किसी के जीवन से बड़ा क्या होगा भला?

‘‘अच्छा बाबा, तुम जैसे कहो. नंबर दे दो, मैं एक बार ब्रजेश से बात करता हूं. शायद कोई रास्ता निकल ही आए.’’

विजय ने आश्वासन दिया और उस का रंग उसे दूसरी सुबह नजर भी आ गया. पूरे 10 बजे ब्रजेश नेहा को उस के पास छोड़ते गए.

‘‘आप पर भरोसा करना चाहता हूं जिस में मेरा ही फायदा होगा.’’

नेहा भीतर जा चुकी थी और जातेजाते कहा ब्रजेश ने, ‘‘शायद कहीं मैं ही सही नहीं हूं. आप मेरी बहन जैसी हैं. वह भी इसी तरह अधिकार से कान मरोड़ देती है. आप जैसा चाहें करें. मैं दखल नहीं दूंगा. बस, मेरा घर बच जाए. मेरी नेहा जिंदा रहे.’’

आभार व्यक्त किया ब्रजेश ने और यह भी बता दिया कि नेहा ने नाश्ता नहीं किया है अभी. एक पीड़ा अवश्य नजर आई उसे ब्रजेश के चेहरे पर और एक बेचारगी भी. ब्रजेश चले गए और शुभा भीतर चली आई.

‘‘नाश्ता क्यों नहीं किया तुम ने?’’

‘‘आप ने कर लिया क्या?’’

‘‘अभी नहीं किया. बोलो, क्या खाएं? तुम्हारा क्या मन है, वही खाते हैं.’’

‘‘मैं बनाऊं क्या? आप पसंद करेंगी?’’

‘‘अरे बाबा, नेकी और पूछपूछ. ऐसा करती हूं, मैं जरा अपनी अलमारी ठीक कर लेती हूं. तुम्हारा मन जो चाहे बना लो.’’

पैनी नजर रखी शुभा ने क्योंकि रसोई में चाकू भी थे. तेज धार चाकू उस ने उठा कर छिपा दिए थे जिस पर नेहा ने आवाज दी. ‘‘दीदी, आप का चाकू आलू तक तो काटता नहीं है, आप इस से काम कैसे करती हैं?’’

‘‘आज बाजार चलेंगे, नेहा. कुछ सामान लाना है. चाकू भी लाने वाले हैं.’’

आधे घंटे के बाद नेहा ने नाश्ता मेज पर सजा कर रख दिया. आलूटमाटर की सब्जी और पूरी. खातेखाते नेहा ने कहा, ‘‘दीदी, आप का घर कितना खुलाखुला है. ऐसा लगता है सांस आती भी है और जाती भी है. मेरे घर में सामान ही इतना है कि…’’

‘‘पुराना सामान निकाल देते हैं. थोड़ा सा बदलाव करते हैं. तुम्हारा घर भी खुलाखुला हो जाएगा. आज बाजार चलते हैं न. चलो, अभी चलें. दोपहर का लंच बाहर ही करेंगे.’’

ये भी पढ़ें- उलटी गंगा: आखिर योगेश किस बात से डर रहा था

‘‘कुछ रुपए दिए हैं ब्रजेश ने. अपने लिए जो चाहूं खरीदने को कहा है.’’

‘‘कोई बात नहीं, मेरे पास भी कुछ रुपए हैं. जरूरत पड़ी तो बैंक से निकाल लेंगे. तुम जो चाहो, ले लेना.’’

‘‘अरे नहीं बाबा, मुझे क्या ताजमहल खरीदना है जो इतने रुपए चाहिए. न सोना चाहिए न महंगी साड़ी. कुछ भी भारीभरकम नहीं चाहिए. कुछ हलकाफुलका चाहिए जिस का मेरी छाती पर कोई बोझ न हो.’’

अभियान शुरू किया नेहा की रसोई से. दुनियाजहान के पुराने बरतन, जिन्हें कभी अपना घर बनाने पर निकाल देंगे, पुराना फ्रिज, पुराना टीवी, रेडियो, पुरानी प्रैस, पुराना लोहा, पुरानीपुरानी किताबें, पुराना फर्नीचर, पुराने परदे, पुराने कपड़े, पुरानी तसवीरें, पुरानी साडि़यां, और भी बहुतकुछ था जिसे बदलने की आवश्यकता थी.

‘‘कल जब अपना घर होगा तब ले लेना नया सब.’’

‘‘अपना घर होगा जब रिटायरमैंट होगा और उस में अभी 4 साल पड़े हैं. तब तक तो मन भी मर जाएगा. कल का इंतजार कब तक, दीदी?’’

‘‘कल का इंतजार तुम अपने हाथों समाप्त कर लो, नेहा.’’

‘‘ब्रजेश औफिस के काम से बाहर जाने वाले हैं इस सोमवार, कह रहे हैं मुझे साथ लेते जाएंगे.’’

‘‘तुम वहां क्या करोगी?’’

‘‘क्या करूंगी, होटल में सड़ूंगी और क्या.’’

‘‘तो मत जाओ. मैं कागजकलम देती हूं, सामान की लिस्ट बनाओ जिसे बदलना चाहती हो. वे बाहर रहेंगे तो हम आराम से सफाई अभियान पूरा कर लेंगे.’’

‘‘घर में तांडव हो जाएगा. मेरी इतनी औकात कहां.’’

‘‘तुम घर की मालकिन हो न. अपनी इच्छा का मान भी करना सीखो. घर के बरतन बदलने में भी तुम ब्रजेशजी का मुंह देखती हो. उन्हें उन के औफिस तक ही रहने दो न.’’

‘‘नहीं रहते न औफिस तक. रसोई के चम्मच तक में उन की मरजी होती है. घर में ऐसा कुहराम मचेगा कि मुझे सांस तक लेना मुश्किल हो जाएगा,’’ खीज पड़ी थी नेहा, ‘‘कल मेरी सास की मरजी थी, अब पति की है. कल बहू की होगी, मेरी मरजी शायद अगले जन्म में होगी.’’

‘‘अगला जन्म किस ने देखा है, पगली. कल क्या होगा कौन जानता है. आज देखो. ब्रजेश को मैं और विजय समझा लेंगे. आज भी शायद विजय ने समझाया होगा.’’

‘‘तो क्या इसीलिए आज बारबार मुझ से कह रहे थे कि मेरा जो जी चाहे मैं करूं, वे मना नहीं करेंगे. कुछ अजीबअजीब सी बातें कर तो रहे थे.’’

‘‘तुम्हारी मरजी की बात अजीबअजीब सी लगी तुम्हें?’’

‘‘जो कभी नहीं हुआ वह एक दिन होने लगे तो अजीब ही लगेगा न.’’

नेहा की बातों में शुभा दिलचस्पी ले रही थी.

देसी मेम- भाग 1: क्या राकेश ने अपने मम्मी-पापा की मर्जी से शादी की?

लेखक- शांता शास्त्री

हवाई जहाज से उतर कर जमीन पर पहला कदम रखते ही मेरा अंग-अंग रोमांचित हो उठा. सामने नजर उठा कर देखा तो दूर से मम्मी और पापा हाथ हिलाते नजर आ रहे थे. इन 7 वर्षों में उन में कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ था. हां, दोनों ने चर्बी की भारीभरकम चादर जरूर अपने शरीर पर लपेट ली थी.

पापा का सिर रनवे जैसा सपाट हो गया था. दूर से बस, इतना ही पता चला. पास पहुंचते ही दोनों मुझ से लिपट गए. उन के पास ही एक सुंदर सी लड़की हाथ में फूलोें का गुलदस्ता लिए खड़ी थी.

‘‘मधु, कितनी बड़ी हो गई तू,’’ कहते हुए मैं उस से लिपट गया.

‘‘अरे, यह क्या कर रहे हो? मैं तुम्हारी लाड़ली छोटी बहन मधु नहीं, किनी हूं,’’ उस ने  मेरी बांहों में कुनमुनाते हुए कहा.

‘‘बेटा, यह मंदाकिनी है. अपने पड़ोसी शर्माजी की बेटी,’’ मां ने जैसे मुझे जगाते हुए कहा. तभी मेरी नजर पास खडे़ प्रौढ़ दंपती पर पड़ी. मैं शर्मा अंकल और आंटी को पहचान गया.

‘‘लेट मी इंट्रोड्यूस माइसेल्फ. रौकी, आई एम किनी. तुम्हारी चाइल्डहुड फ्रेंड रिमेंबर?’’ किनी ने तपाक से हाथ मिलाते हुए कहा.

‘‘रौकी? कौन रौकी?’’ मैं यहांवहां देखने लगा.

टाइट जींस और 8 इंच का स्लीवलेस टौप में से झांकता हुआ किनी का गोरा बदन भीड़ का आकर्षण बना हुआ था. इस पर उस की मदमस्त हंसी मानो चुंबकीय किरणें बिखेर कर सब को अपनी ओर खींच रही थी.

‘‘एक्चुअली किनी, रौकी अमेरिका में रह कर भी ओरिजिनल स्टाइल नहीं भूला, है न रौकी?’’ एक लड़के ने दांत निपोरते हुए कहा जो शर्मा अंकल के पास खड़ा था.

ये भी पढ़ें- Short Story: बंद आकाश खुला आकाश

‘‘लकी, पहले अपनी आईडेंटिटी तो दे. आई एम श्योर कि रौकी ने तुम्हें पहचाना नहीं.’’

‘‘या…या, रौकी, आई एम लकी. छोटा भाई औफ रौश.’’

‘‘अरे, तुम लक्ष्मणशरण से लकी कब बन गए?’’ मुझे वह गंदा सा, कमीज की छोर से अपनी नाक पोंछता हुआ दुबलापतला सा लड़का याद आया जो बचपन में सब से मार खाता और रोता रहता था.

‘‘अरे, यार छोड़ो भी. तुम पता नहीं किस जमाने में अटके हुए हो. फास्ट फूड और लिवइन के जमाने में दैट नेम डजंट गो.’’

इतने में मुझे याद आया कि मधु वहां नहीं है. मैं ने पूछा, ‘‘मम्मी, मधु कहां है, वह क्यों नहीं आई?’’

‘‘बेटा, आज उस की परीक्षा है. तुझे ले कर जल्दी आने को कहा है. वरना वह कालिज चली जाएगी,’’ पापा ने जल्दी मचाते हुए कहा.

कार के पास पहुंच कर पापा ड्राइवर के साथ वाली सीट पर बैठ गए. मंदाकिनी उर्फ किनी मां को पहले बिठा कर फिर खुद बैठ गई. अब मेरे पास उस की बगल में बैठने के अलावा और कोई चारा न था. रास्ते भर वह कभी मेरे हाथों को थाम लेती तो कभी मेरे कंधों पर गाल या हाथ रख देती, कभी पीठ पर या जांघ पर धौल जमा देती. मुझे लगा मम्मी बड़ी बेचैन हो रही थीं. खैर, लेदे कर हम घर पहुंचे.

घर पहुंच कर मैं ने देखा कि माधवी कालिज के लिए निकल ही रही थी. मुझे देख कर वह मुझ से लिपट गई, ‘‘भैया, कितनी देर लगा दी आप ने आने में. आज परीक्षा है, कालिज जाना है वरना…’’

‘‘फिक्र मत कर, जा और परीक्षा में अच्छे से लिख कर आ. शाम को ढेर सारी बातें करेंगे. ठीक है? वाई द वे तू तो वही मधु है न? पड़ोसियों की सोहबत में कहीं मधु से मैड तो नहीं बन गई न,’’ मैं ने नकली डर का अभिनय किया तो मधु हंस पड़ी. बाकी सब लोग सामान उतारने में लगे थे सो किसी का ध्यान इस ओर नहीं गया. किनी हम से कुछ कदम पीछे थी. शायद वह मेरे सामान को देख कर कुछ अंदाज लगा रही थी और किसी और दुनिया में खो गई थी.

नहाधो कर सोचा सामान खोलूं तब तक किनी हाथ में कोई बरतन लिए आ गई. वह कपडे़ बदल चुकी थी. अब वह 8-10 इंच की स्कर्ट जैसी कोई चीज और ऊपर बिना बांहों की चोली पहने हुए थी. टौप और स्कर्ट के बीच का गोरा संगमरमरी बदन ऐसे चमक रहा था मानो सितारे जडे़ हों. मानो क्या, यहां तो सचमुच के सितारे जड़े थे. किनी माथे पर लगाने वाली चमकीली बिंदियों को पेट पर लगा कर लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर रही थी. मैं ने अपने कमरे में से देखा कि वह अपनी पेंसिल जैसी नोक वाली सैंडिल टकटकाते रसोई में घुसी जा रही है. मैं कमरे से निकल कर उस की ओर लपका…

ये भी पढ़ें- परीक्षा: ईश्वर क्यों लेता है भक्त की परीक्षा

‘‘अरे, किनी, यह क्या कर रही हो? रसोई में चप्पलें?’’

‘‘यार रौकी, मुझे तो लग रहा है कि तुम अमेरिका से नहीं बल्कि झूमरीतलैया से आ रहे हो. बिना चप्पलों के नंगे पैर कैसे चल सकती हूं?’’

जी में आया कह दूं कि नंगे बदन चलने में जब हर्ज नहीं है तो नंगे पैर चलने में क्यों? पर प्रत्यक्ष में यह सोच कर चुप रहा कि जो अपनेआप को अधिक अक्लमंद समझते हैं उन के मुंह लगना ठीक नहीं.

सारा दिन किनी घंटे दो घंटे में चक्कर लगाती रही. मुझे बड़ा अटपटा लग रहा था. अपने ही घर में पराया सा लग रहा था. और तो और, रात को भी मैं शर्मा अंकल के परिवार से नहीं बच पाया, क्योंकि रात का खाना उन के यहां ही खाना था.

अगले दिन मुंहअंधेरे उठ कर जल्दीजल्दी तैयार हुआ और नाश्ता मुंह में ठूंस कर घर से ऐसे गायब हुआ जैसे गधे के सिर से सींग. घर से निकलने के पहले जब मैं ने मां को बताया कि मैं दोस्तों से मिलने जा रहा हूं और दोपहर का खाना हम सब बाहर ही खाएंगे तो मां को बहुत बुरा लगा था.

मां का मन रखने के लिए मैं ने कहा, ‘‘मां, तुम चिंता क्यों करती हो? अच्छीअच्छी चीजें बना कर रखना. शाम को खूब बातें करेंगे और सब साथ बैठ कर खाना खाएंगे.’’

दिन भर दोस्तों के साथ मौजमस्ती करने के बाद जब शाम को घर पहुंचा तो पाया कि पड़ोसी शर्मा अंकल का पूरा परिवार तरहतरह के पश्चिमी पकवानों के साथ वहां मौजूद था.

किनी ने बड़ी नजाकत के साथ कहा, ‘‘रौकी, आज सारा दिन तुम कहां गायब रहे, यार? हम सब कब से तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं कि इवनिंग टी तुम्हारे साथ लेंगे.’’

ये भी पढ़ें- Short Story: हिंदुस्तान जिंदा है

कल से मैं अपने पर नियंत्रण रखने की बहुत कोशिश कर रहा था मगर आते ही घर में जमघट देख कर मैं फट पड़ा.

‘‘सब से पहले तो किनी यह रौकीरौकी की रट लगानी बंद करो. विदेश में भी मुझे सब राकेश ही कहते हैं. दूसरी बात, मैं इतना खापी कर आया हूं कि अगले 2 दिन तक खाने का नाम भी नहीं ले सकता.’’

मां ने तुरंत कहा, ‘‘बुरा न मानना मंदाकिनी बेटे, मैं ने कहा न कि राकेश को बचपन से ही खानेपीने का कुछ खास शौक नहीं है.’’

पिताजी ने भी मां का साथ दिया.

जरा सी आजादी- भाग 5: नेहा आत्महत्या क्यों करना चाहती थी?

‘‘मेरी मरजी, मेरी इच्छा, मेरी सोच, अजीब तो है ही. मेरा घर कहीं नहीं है, दीदी. शादी से पहले अपना घर सजाने का प्रयास करती थी तो मां कहती थीं, अभी पढ़ोलिखो. सजा लेना अपना घर जब अपने घर जाओगी. शादी कर के आई तो ब्रजेश ने ढेर सारी जिम्मेदारियां दिखा दीं. एक बेटी की इच्छा थी, वह भी पूरी नहीं होने दी ब्रजेश ने. पिता की बेटियों को निभातेनिभाते अपनी बेटी के लिए कुछ बचा ही नहीं. अब इस उम्र में कुछ बचा ही नहीं है जिसे कहूं, यह मेरा शौक है. मेरा घर तो सब का घर ही सजाने में कहीं खो गया. बच गया है कबाड़खाना, जिसे हर 3 साल के बाद ब्रजेश ढो कर एक शहर से दूसरे शहर ले जाते हैं.’’

मन भर आया शुभा का.

‘‘मन भर गया है, दीदी. अब कुछ भी अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘चलो, पहले इस कागज पर लिखो तो सही, क्या बदलना चाहती हो. ब्रजेश ने मुझे कहा है न कि मैं तुम्हारी सहायता करूं. वे कुछ कहेंगे तो मुझे बताना. इल्जाम मुझ पर लगा देना, कहना कि मैं ने कहा था बदलने को.’’

सोमवार को ब्रजेश 3 दिन के लिए बाहर गए और सचमुच नेहा को साथ नहीं ले गए. शुभा ने वास्तव में नेहा का घर बदल दिया.

पुराने सारे बरतन निकाल दिए और थोड़े से पैसे और डाल कर रसोई चमचमा गई. 10 हजार रुपए का लोहाकबाड़ बिक गया जिस में नया गैस चूल्हा, माइक्रोवेव आ गया. रद्दी सामान और पुराना फर्नीचर निकाला जिस में छोटा सा कालीन नए परदे और 2 नई चादरें आ गईं.

3 दिन से दोनों रोज बाजार आजा रही थीं और इस बीच शुभा बड़ी गहराई से नेहा में धीरेधीरे जागता उत्साह देख रही थी. उस ने चुनचुन कर अपने घर का सामान खरीदा, कटोरियां, प्लेटें, गिलास, चम्मच, दालों के डब्बे, मसालों की डब्बियां, रंगीन परदे, लुभावना कालीन, सुंदर चादरें, चार चूल्हों वाली गैस, सुंदर फूलों की झालरें, छोटा सा माइक्रोवेव, सुंदर तोरण और बंदनवार.

हर रात या तो शुभा उस के घर सोती थी या उसे अपने घर पर सुलाती थी. घर सज गया नेहा का. बुझीबुझी सी रहने वाली नेहा अब कहीं नहीं थी. मुसकराती, अपना घर सजा कर बारबार खुश होती नेहा थी जिस की दबी हुई छोटीछोटी खुशियां पता नहीं कहांकहां से सिर उठा रही थीं. बहुत छोटीछोटी सी थीं नेहा की खुशियां. बाहर बालकनी में चिडि़यों का घर और उन के खानेपीने के लिए मिट्टी के बरतन, बालकनी में बैठ कर चाय पीने के लिए 4 प्लास्टिक की कुरसियां और मेज.

ये भी पढ़ें- हैवान: आखिर लोग प्रतीक को क्यों हैवान समझते थे?

‘‘दीदी, वे नाराज तो नहीं होंगे न?’’

‘‘उन के लिए भी कुछ ले लो न. कोई शर्ट या टीशर्ट या पाजामाकुरता. कुछ बहू के लिए भी तो लो. बेटी की इच्छा पूरी तो हो चुकी है तुम्हारी. वह तुम्हारी बच्ची है न. उसे भी अच्छा लगेगा जब तुम उस के लिए कुछ लोगी. तुम्हें शौक पूरे करने को कुछ नहीं मिला क्योंकि जिम्मेदारियां थीं. तुम बहू का शौक तो पूरा कर दो. अब क्या जिम्मेदारी है? जो तुम्हें नहीं मिला कम से कम वह अपनी बहू को तो दे दो.’’

‘‘उसे पसंद आएगा, जो मैं लाऊंगी?’’

‘‘क्यों नहीं आएगा. मेरे पास कुछ रुपए हैं. मुझ से ले लो.’’

‘‘अपने हाथ से इतने रुपए मैं ने कभी खर्च ही नहीं किए. अजीब सा लग रहा है. पता नहीं, क्याक्या सुनना पड़ेगा जब ब्रजेश आएंगे. दीदी, आप पास ही रहना जब वे आएंगे.’’

‘‘कितने पैसे खर्च किए हैं तुम ने? कबाड़खाने से ही तो सारे पैसे निकल आए हैं. जो रुपए ब्रजेश दे कर गए थे उस से ब्रजेश के लिए और बच्चों के लिए कुछ ले लो. टीशर्ट और शर्ट खरीद लो, बहू के लिए कुरती ले लो, आजकल लड़कियां जींस के साथ वही तो पहनती हैं.’’

बुधवार की शाम ब्रजेश आने वाले थे. बड़े उत्साह से घर सजाया नेहा ने. चाय के साथ पकौड़ों का सामान तैयार रखा. रात के लिए मटरपनीर और दालमखनी भी रसोई में ढकी रखी थी. शुभा के लिए भी एक प्रयोग था जिस का न जाने क्या नतीजा हो. पराई आग में जलना उस का स्वभाव है. आज पराया सुख उसे सुख देगा या नहीं, इस पर भी वह कहीं न कहीं आश्वस्त नहीं थी. पुरानी आदतें इतनी जल्दी साथ नहीं छोड़तीं, पत्नी को दी गई आजादी कौन जाने ब्रजेश सह पाते हैं या नहीं?

द्वारघंटी बजी और शुभा ने ही दरवाजा खोला. ब्रजेश के साथ शायद बेटा और बहू भी थे. बड़े प्यारे बच्चे थे दोनों. उसे देख दोनों मुसकराए और झट से पैर छूने लगे.

‘‘आप शुभा आंटी हैं न. पापा ने बताया सब. मम्मी खुश हैं न?’’ बहुत धीरे से बुदबुदाया वह लड़का.

एक ही प्रश्न में ढेर सारे प्रश्न और आंखों में भी बेबसी और डर. कुछ खो देने का डर. मंदमंद मुसकरा पड़ी शुभा. ब्रजेश आंखें फाड़फाड़ कर अपना सुंदर सजा घर देख रहे थे. आभार था जुड़े हाथों में, भीग उठी पलकों में, शायद आत्मग्लानि की पीड़ा थी. ऐसा क्या ताजमहल या कारूं का खजाना मांगा था नेहा ने. छोटीछोटी सी खुशियां ही तो और कुछ अपनी इच्छा से कर पाने की आजादी.

‘‘नेहा, देखो तुम्हारी बेटी आई है,’’ शुभा ने आवाज दी.

पलभर में सारा परिवार एकसाथ हो गया. नेहा भागभाग कर उन के लिए संजोए उपहार ला रही थी. बेटे का सामान, बहू का सामान, ब्रजेश का सामान.

‘‘मम्मी, आप ने घर कितना सुंदर सजाया है. परदे और कालीन दोनों के रंग बहुत प्यारे हैं. अरे, बाहर चिडि़या का घर देखो, पापा. पापा, चाय बाहर बालकनी में पिएंगे. बड़ी अच्छी हवा चल रही है बाहर. पूरा घर कितना खुलाखुला लग रहा है.’’

नेहा की बहू जल्दी से कुरती पहन भी आई, ‘‘मम्मी, देखो कैसी है?’’

‘‘बहुत सुंदर है बच्चे. तुम्हें पसंद आई न?’’

धन्यवाद देने हेतु बहू ने कस कर नेहा के गाल चूम लिए. ब्रजेश मंत्रमुग्ध से खड़े थे. अति स्नेह से उस के सिर पर हाथ रख पूछा, ‘‘अपने लिए क्या लिया तुम ने, नेहा?’’

‘‘अपने लिए?’’ कुछ याद करना चाहा. क्या याद आता, उस ने तो बस घर सजाया था, अपने लिए अलग कुछ लेती तो याद आता न. बस, गरदन हिला कर बता दिया कि अपने लिए कुछ नहीं लिया.

ये भी पढ़ें- Short Story: राखी का उपहार

‘‘देखो, मैं लाया हूं.’’

बैग से एक सूती साड़ी निकाली ब्रजेश ने. तांत की क्रीम साड़ी और उस का खूब चौड़ा लाल सुनहरा बौर्डर.

शुभा को याद आया ब्रजेश को सूती साड़ी पहनना पसंद नहीं जबकि नेहा की पहली पसंद है कलफ लगी सूती साड़ी. खुशी से रोने लगी नेहा. ब्रजेश जानबूझ कर 3 दिन के लिए आगरा बेटे के पास चले गए थे. पलपल की खबर विजय और शुभा से ले रहे थे. शुभा की तरफ देख आभार व्यक्त करने को फिर हाथ जोड़ दिए. अफसोस हो रहा था उन्हें. क्यों नहीं समझ पाए वे, खुशी भारी साड़ी या भारी गहने में नहीं, खुशी तो है खुल कर सांस लेने में. छोटीछोटी खुशियां जो वे नेहा को नहीं दे पाए.

उलटी गंगा- भाग 3: आखिर योगेश किस बात से डर रहा था

मन ही मन योगेश ने उस चपरासी को हजारों गालियां दी और बेचारे को ‘कामचोर’ का नाम दे कर औफिस से निकलवा दिया. मगर मुक्ता अब अलर्ट रहने लगी थी. वक्त के साथ काम करती और सब के साथ ही निकल जाती. लेकिन योगेश मौका तलाश रहा था किसी तरह उसे अपने चंगुल में फंसाने का.

उस रोज योगेश ने उसे फोन कर के बोला कि कल औफिस के काम से उसे उस के

साथ दूसरे शहर जाना होगा. वह तैयार रहे मगर वह बहाने बनाने लगी.

‘‘मैं तुम से पूछ नहीं रहा हूं, बता रहा हूं और खुशी मनाओ कि तुम्हारा बौस तुम्हें अपने साथ बाहर ले जा रहा है. वरना तुम जैसी लड़कियों को पूछता कौन है,’’ अजीब तरह से हंसते हुए योगेश ने कहा.

ये भी पढ़ें- जड़ें: भाग 1

योगेश उस से देहसुख चाहता था, यह बात मुक्ता समझ गई थी, इसलिए जितना भी हो सकता, वह उस से दूर रहने की कोशिश करती. यह भी जानती थी कि योगेश बहुत ही पावरफुल आदमी है. चाहे तो उस की नौकरी भी छीन सकता है. इसलिए वह उस से पंगा भी नहीं लेना चाहती थी. कभीकभी तो उस का मन होता अपनी मां को सब बता दे, पर इसलिए अपने होंठ सी लेती कि जानने के बाद उस की मां जीतेजी मर जाएगी. जब घर में सब सो जाते तब वह अपनी बेबसी पर रोती. कभी उस का मन करता नौकरी छोड़ दे. कभी करता आत्महत्या कर ले, पर जब मां और भाईबहन का खयाल आता तो अपना इरादा बदल लेती.

अब मुक्ता इसी कोशिश में थी कि कहीं और नौकरी मिल जाए, तो योगेश जैसे राक्षस का सामना न करना पड़े और अब तो उस की शादी भी होने वाली थी, तो इस बात का भी उसे डर सताने लगा था कि अगर लड़के वालों को कुछ भनक मिल गई तो क्या होगा.

आखिरकार उसे दूसरी जगह नौकरी मिल ही गई. कुछ महीने बाद उस की शादी भी हो गई. जानबूझ कर उस ने अपना फोन नंबर बदल लिया ताकि भविष्य में कभी योगेश उसे परेशान न करे. कहते हैं, बीते दुखों और आने वाले सुखों के बीच देहरीभर का फासला होता है और वह यह देहरी ढहने नहीं देना चाहती थी. कटी पतंग का आसमान में उड़ कर गुम हो जाना उस की हार नहीं, बल्कि जीत है और मुक्ता जीतना चाहती थी.

मगर यह बात मुक्ता को नहीं पता थी कि आज योगेश खुद ही उस से भय खाए हुए है. मुक्ता के नाम से भी अब उसे डर लगने लगा है. रातरात भर वह सो नहीं पाता. सोचता है पता नहीं कब मुक्ता नाम का यमराज उस के ऊपर बंदूक तान कर खड़ा हो जाए. कोई अनजान व्यक्ति घर में आ जाए या कूरियर वाला कुछ दे कर चला जाए तो उसे लगता मुक्ता ने ही कुछ भेजा होगा. दरवाजे की एक छोटी सी घंटी भी उस का दिल दहला देती. जोरजोर से सांसें भरने लगता. लगता मुक्ता ही आई होगी.

ये भी पढ़ें- तुम प्रेमी क्यों नहीं: भाग 1

परसों की ही बात है. एक आदमी नीलिमा के हाथ में एक लिफाफा दे गया. योगेश को लगा जरूर मुक्ता ने ही कुछ भेजा होगा. नीलिमा के हाथ लग गया तो वह तो गया काम से. ‘‘क… कौन है? क्या… क्या है इस में?’’ घबराते हुए उस ने पूछा.

‘‘पता नहीं, लगता है कोई फोटोवोटो है,’’ लिफाफा खोलते हुए नीलिमा बोली.

मगर जब तक नीलिमा लिफाफा खोल पाती, योगेश ने उस के हाथ से पैकेट छीन लिया और कहने लगा कि ऐसे कैसे बिना जाने वह यह लिफाफा खोल सकती है?

‘‘अरे, पागल हो गए हो क्या? क्या हो गया है तुम्हें? क्यों नहीं खोल सकती मैं यह लिफाफा? डर तो ऐसे रहे हो जैसे इस में तुम्हारा कोई पुराना राज छिपा हो?’’

नीलिमा की बातें उस के दिल में तीर की तरह चुभ गईं. कहते हैं न चोर की दाढ़ी में तिनका वही यागेश के साथ हो रहा था. हर बात पर उसे डर लगता कि कहीं वह पकड़ा न जाए. पुराने राज न खुल जाएं. लेकिन उस ने तब राहत की सांस ली जब लिफाफे में कुछ और निकला.

जैसेजैसे मीटू का प्रचार गरमाता जा रहा था, योगेश की दिल की धड़कनें बढ़ती ही जा रही थीं. उस की रातों की नींद और दिन का चैन उड़ा हुआ था. पलपल वह डर के साए में जी रहा था. कभी सोतेसोते जाग जाता, तो कभी बैठेबैठे अचानक उठ कर यहांवहां घूमने लगता.

अचंभित थी नीलिमा उस के व्यवहार से. सोचती, कहीं पगला तो नहीं गया यह? मगर योगेश के दिल की हालत वह क्या जाने भला. सालों पहले उस के किए पाप अब उस के गले की हड्डी बन चुके थे. सोचता, काश, मुक्ता मिल जाए और वह अपने किए की उस से माफी मांग ले, तो सब ठीक हो जाएगा. कभी सोचता काश, बीते पल वापस लौट आएं और वह सब सुधार दे. मगर क्या बीते पल कभी वापस आए हैं.

ये भी पढ़ें- स्मृति चक्र: भाग 1

फिर सोचा, क्यों न खुद जा कर मुक्ता से उस बात की माफी मांग ले. जरूर वह उसे माफ कर देगी. आखिर औरतों का दिल बहुत बड़ा होता. बहुत ढूंढ़ने पर मुक्ता का पता उसे मिल ही गया. मगर तब उस की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. जब उस ने मुक्ता को उस वकील के साथ थाने में प्रवेश करते देखा. उसे लगा जरूर वह उस के खिलाफ ही शोषण का केस करने गई होगी. खड़ेखड़े योगेश को लगा वह गश खा कर वहीं गिर पड़ेगा. अगर उस राहगीर ने न संभाला होता, तो सच में गिर ही पड़ता.

‘‘धन्यवाद भाई,’’ उस बचाने वाले आदमी को धन्यवाद कह योगेश थाने के आसपास ही चक्कर काटने लगा ताकि मुक्ता निकले तो उस से बात कर सके, अपने किए की माफी मांग सके. मगर वह कब किस रास्ते से निकल गई पता ही नहीं चला.

इस तरह उसे हफ्तों बीत गए, पर मुक्ता से बात न हो पाई और न ही पता लग पाया कि क्यों वह थाने आई थी. लेकिन एक दिन उसे पता चल ही गया कि वह यहां अपने भाई की पत्नी की शिकायत पर पैरवी कर रही है. किसी तरह अपने भाई को सजा से बचाना चाह रही है और इसलिए वह वकील के साथ थाने आई थी. दरअसल, उस की भाभी ने उस के भाई पर उसे मारनेपीटने को ले कर पुलिस में शिकायत कर दी थी. इसलिए वह थाने के चक्कर काट रही थी. सारी बातें जानने के बाद योगेश ने राहत की सांस ली. लगा वह बच गया. तभी उस का फोन घनघना उठा. देखा, तो नीलिमा का फोन था. चिल्लाए जा रही थी कि वह कहां है और अब तक घर क्यों नहीं आया.

जैसी ही योगेश घर पहुंचा, दैत्य की तरह नीलिमा उस के सामने खड़ी हो गई और पूछने लगी कि अब तक वह कहां था? फिर बताने लगी कि अमन अंकल फिलहाल तो जमानत पर छूट गए, मगर बच नहीं पाएंगे. उन का किया पाप एक न एक दिन ले ही डूबेगा उन्हें.

ये भी पढ़ें- राहुल बड़ा हो गया है

अब फिर योगेश को डर सताने लगा. सोचने लगा कि पता नहीं कहीं मुक्ता का दिमाग फिर गया तो…

भले ही योगेश आज खुद को बचा हुआ समझ रहा है, पर तलवार तो उस की भी गरदन पर टंगी है, जो जाने कब गिर जाए. जैसी उलटी गंगा बही है न, शायद ही योगेश बच पाए. जाने कब मुक्ता का दिमाग फिर जाए और वह योगेश के खिलाफ मीटू का केस कर दे. यह बात योगेश भी अच्छी तरह समझता था और जान रहा था कि अब बाकी की जिंदगी ऐसे ही डरडर कर कटेगी उस की. भविष्य में उस के साथ क्या होगा, नहीं पता.

देसी मेम- भाग 2: क्या राकेश ने अपने मम्मी-पापा की मर्जी से शादी की?

लेखक- शांता शास्त्री

मैं चुपचाप बाथरूम में घुस गया. आराम से नहायाधोया और तैयार हो कर बाहर निकला तो चारों ओर सन्नाटा था. शायद वे लोग जा चुके थे. बाद में मां ने बताया कि आज रात का खाना मिश्रा अंकल के यहां है. मैं निढाल हो कर सोफे में धंस गया. कहां तो मैं अपने परिवार के साथ हंसीखुशी समय बिताना चाहता था, ढेर सारी बातें करना चाहता था और छोटी बहन मधु को घुमाने ले जाना चाहता था, कहां मैं एक पल भी उन के साथ चैन से नहीं बिता पा रहा हूं.

मिश्राजी के घर आ कर मुझे लगा जैसे बहुत कीमती फिल्मी शूटिंग के सेट पर आ गया हूं. दीवारों पर कीमती पेंटिंग्स तो कहीं शेर की खाल टंगी थी. कमरे में हलकाहलका पाश्चात्य संगीत और वातावरण में फैला रूम फ्रेशनर पूरे माहौल को मदहोश बना रहा था. ऐसे रोमानी वातावरण में जाने क्यों मेरा दम घुट रहा था. इतने में एक लड़की हाथ में ट्रे ले कर आई और सब को कोल्ड ड्रिंक देने लगी.

‘‘शी इज माइ डाटर, पमी. शी इज वर्किंग एज ए कंप्यूटर इंजीनियर,’’ मिश्राजी ने परिचय कराया.

‘‘बेटा, अंकल और आंटी को तो तुम जानती ही हो. यह इन के बेटे मि. राकेश कुमार हैं. अमेरिका में पढ़ाई पूरी कर के वहीं जाब कर रहे हैं. छुट्टियों में भारत आए हैं.’’

लड़की बस, बार्बी डौल थी. तराशे हुए नैननक्श, बोलती आंखें, छोटे से चुस्त काले लिबास में कुदरत ने उस के शरीर के किस उतारचढ़ाव को कैसे तराशा था यह साफ झलक रहा था. होंठों और गालों का गुलाबी रंग उसे और भी गोरा बना रहा था. उस ने ट्रे को तिपाई पर रख कर तपाक से मेरी ओर हाथ बढ़ाया. पता नहीं क्यों मुझे सूसन की याद आ गई.

बातों का सिलसिला जो शुरू हुआ तो पता ही नहीं चला कि हम पहली बार मिल रहे हैं. गपशप में ज्यादातर अमेरिका की ही बातें चलीं. उस के कौनकौन से दोस्त अमेरिका में हैं, कौन कितना कमाता है, कौनकौन क्याक्या तोहफे लाता है. यानी हम सब थोड़ी देर के लिए अमेरिका चले गए थे.

ये भी पढ़ें- दूसरी शादी: एक पत्नी ने कराई पति की दूसरी शादी

मैं ने गौर किया कि मिश्राजी और उन के बच्चे आपस में अंगरेजी में ही बातचीत कर रहे थे. उन के बोलने का अंदाज, भाषा और बातचीत से ऐसा लग रहा था जैसे वे अभीअभी विदेश से लौटे हैं और बडे़ दुर्भाग्य से यहां फंस गए हैं. मैं ने मन ही मन सोचा, मैं यह कहां आ गया हूं? क्या यही मेरा भारत महान है? मुझे ढंग का भारतीय खाना तो मिलेगा न कि यहां भी मंदाकिनी नहीं किनी के घर की तरह फ्रैंकी टोस्ट, पैटीज आदि ही मिलेंगे. भारत में आए 2 दिन हो गए हैं पर अब तक भारतीय खाना नसीब नहीं हुआ है.

‘‘पमी बेटे, राकेश को अपना घर तो दिखाओ.’’

पमी और उस का भाई बंटी सारा घर दिखाने के बाद मुझे अपने पर्सनल बार में ले गए जो तरहतरह की रंगीन बोतलों और पैमानों से भरा हुआ था. पमी ने उन में से चुन कर एक बोतल और 3 खूबसूरत पैमाने निकाले और उन्हें उस हलके गुलाबी रंग के द्रव से भरा. फिर दोनों ने अपने पैमानों को चियर्स कहते हुए मुंह से लगा लिया.

कौन कहता है कि भारत एक पिछड़ा हुआ देश है? आंख के अंधो, देख लो, क्या बोलचाल, क्या खानपान, क्या रहनसहन, क्या पहननाओढ़ना… किसी भी मामले में भारतीय किसी से कम नहीं हैं, बल्कि दो कदम आगे ही हैं.

‘‘अरे, यार, तुम तो ले ही नहीं रहे हो. अगर यह वैरायटी पसंद नहीं है तो दूसरा कुछ खोल लें?’’

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है. वास्तव में आज सुबह भी दोस्तों के साथ एक बड़ी भारी पार्टी हुई थी. हम सब ने छक कर खायापिया, इसलिए अब खानेपीने की बिलकुल इच्छा नहीं हो रही है,’’ मैं ने बहाना बनाया.

‘‘अरे, यह तो ठीक नहीं हुआ. हम किसी और दिन फिर से मिलेंगे,’’ पमी ने कहा.

मैं ने खाने की रस्म निभाई. तब तक रात के साढे़ 11 बज गए थे. वहां से निकले तो रास्ते में मैं ने पिताजी से पूछ लिया, ‘‘पापा, क्या कल सचमुच कहीं जाना है?’’

‘‘हां, बेटे. कल इंदौर जाना है. तेरे बडे़ मामा की बेटी को देखने लड़के वाले आ रहे हैं. उन लोगों के साथ हमारे ऐसे संबंध हैं कि हम हर सुखदुख में एकदूसरे के साथ होते हैं और फिर चांदनी के बडे़ भाई होने के नाते तुम्हारा फर्ज बनता है कि तुम इस अवसर पर उस के साथ रहो,’’ पापा ने कहा.

मुझे अच्छा लगा. बचपन से ही मेरा मामाजी के परिवार के साथ बड़ा लगाव था. मधु और चांदनी में मुझे कोई अंतर नजर नहीं आता. चांदनी इतनी बड़ी हो गई है कि उस के लिए रिश्ते भी आ गए. इस का अर्थ है कि अब मधु के लिए भी एक अच्छा सा लड़का ढूंढ़ना पडे़गा. यह सोचने के बाद मुझे ऐसा लगा जैसे अचानक मेरी उम्र बढ़ गई है और मैं एक जिम्मेदार बड़ा भाई हूं.

ये भी पढ़ें- क्षमादान: आखिर मां क्षितिज की पत्नी से क्यों माफी मांगी?

चांदनी के लिए जो रिश्ता आया था वे बडे़ अच्छे लोग थे. सब लोग थोडे़ ही समय में ऐसे घुलमिल गए थे मानो लंबे समय से जानपहचान हो. हंसीमजाक और बातों में समय कैसे बीता पता ही नहीं चला. खानेपीने के बाद जब गपशप हो रही थी तब लड़के ने मेरे और मेरी नौकरी के बारे में रुचि दिखाई, तो मैं ने उसे विस्तार से अपने काम के बारे में बताया. अंत में मैं ने कहा, ‘‘हम सोचते हैं कि सारी दुनिया में अमेरिका से बढ़ कर कोई नहीं है. वही सर्वश्रेष्ठ या कामयाब देश है. मगर क्या आप जानते हैं कि वास्तव में उस की तरक्की या कामयाबी का कारण क्या है या कौन लोग हैं?’’

लड़के ने कहा, ‘‘हम प्रवासी लोग.’’

मैं ने सिर हिलाया, ‘‘बिलकुल सही. आप जानते हैं कि वास्तव में अमेरिका का अस्तित्व ही हम जैसे अनेक विदेशियों से है. सारी दुनिया के कुशाग्र लोगों को उस ने पैसों के दम पर अपने वश में कर रखा है और उन्हीं के सहारे आज वह आसमान की बुलंदियों को छू रहा है.’’

अजय ने मेरी बात का समर्थन करते हुए कहा, ‘‘आप बिलकुल ठीक कहते हैं. क्या नहीं है हमारे पास एक दृढ़ संकल्प के अलावा?’’ उस की बातों में कड़वा सच था.

मेहमानों के जाने के बाद मैं ने एक समोसा उठा कर खट्टीमीठी चटनी में डुबो कर खाते हुए कहा, ‘‘मामीजी, इसी प्रकार के स्वादिष्ठ व्यंजन खाने के लिए तो मैं भाग कर भारत आया पर जहां जाता हूं पश्चिमी पकवान ही खाने को मिलते हैं.’’

‘‘क्यों, ऐसा क्या हो गया? तुम्हें आए तो आज 5 दिन हो गए हैं.’’

‘‘जाने भी दीजिए मामीजी…क्या सुनाऊं मैं अपने दुखों की दासतां,’’ मैं ने नाटकीय अंदाज में कहा.

मधु ने जब सारा हाल अभिनय के साथ लोगों को सुनाया तो सब का हंसतेहंसते बुरा हाल हो गया.

‘‘चिंता न करो, रात को मैं ऐसी बढि़याबढि़या चीजें बनाऊंगी कि तुम भी क्या याद करोगे अपनी मामी को.’’

‘‘ये हुई न बात. मामीजी, आप मुझ से कितना प्यार करती हैं,’’ मैं ने उन के हाथों को चूम लिया.

‘‘अब आप लोग थोड़ा आराम कर लीजिए,’’ मामी बोलीं, ‘‘शाम को कुछ मेहमान आने वाले हैं और मैं रसोई में शाम के नाश्ते व खाने की तैयारी करने जा रही हूं.’’

‘‘मामी, शाम को भी कोई दूसरे लड़के वाले चांदनी को देखने के लिए आने वाले हैं क्या…चांदनी, मेरी मान तो यह लड़का जो अभीअभी यहां से गया है, उस के लिए हां कर दे. बड़ा सुशील, शांत और सुलझे हुए विचारों का लड़का है. तुझे धन के ढेर पर बिठाए या न बिठाए पर सारी जिंदगी पलकों पर बिठा कर रखेगा.’’

ये भी पढ़ें- Short Story: वो एक रात

मैं ने कहा तो चांदनी शर्म से लाल हो गई. सब लोग मेरी इस बात से पूरी तरह सहमत थे. तभी मामाजी बोले, ‘‘राकेश बेटा, हमारे बडे़ अच्छे दोस्त हैं गौतम उपाध्याय. वह आज शाम सपरिवार खाने पर आ रहे हैं.’’

‘‘यह क्या, मामाजी, आज का ही दिन मिला था उन्हें बुलाने को? कल हम वापस जा ही रहे हैं. कल शाम हमारे जाने के बाद उन्हें बुला लेते.’’

‘‘लो, सुन लो, कल बुला लेते. पहली बात तो यह है कि कल तुम लोग जा नहीं रहे हो, क्योंकि कल किसी के यहां तुम्हारे साथ हमें खाने पर जाना है.’’

शादी- भाग 2: सुरेशजी को अपनी बेटी पर क्यों गर्व हो रहा था?

‘‘क्या मम्मा, अब हम बच्चे नहीं हैं, भाई पिज्जा और बर्गर ले कर आएगा. हमारा डिनर का मीनू तो छोटा सा है, आप का तो लंबाचौड़ा होगा,’’ कह कर रोहिणी खिलखिला कर हंस पड़ी. फिर चौंक कर बोली, ‘‘यह क्या मां, यह साड़ी पहनोगी…नहींनहीं, शादी में पहनने की साड़ी मैं सिलेक्ट करती हूं,’’ कहतेकहते रोहिणी ने एक साड़ी निकाली और मां के ऊपर लपेट कर बोली, ‘‘पापा, इधर देख कर बताओ कि मां कैसी लग रही हैं.’’

‘‘एक बात तो माननी पड़ेगी कि बेटी मां से अधिक सयानी हो गई है, श्रीमतीजी आज गश खा कर गिर जाएंगी.’’

तभी रोहन पिज्जा और बर्गर ले कर आ गया, ‘‘अरे, आज तो कमाल हो गया. मां तो दुलहन लग रही हैं. पूरी बरात में अलग से नजर आएंगी.’’

बच्चों की बातें सुन कर सुकन्या गर्व से फूल गई और तैयार होने लगी. तैयार हो कर सुरेश और सुकन्या जैसे ही कार में बैठने के लिए सोसाइटी के कंपाउंड में आए, सुरेश हैरानी के साथ बोल पड़े, ‘‘लगता है कि आज पूरी सोसाइटी शादी में जा रही है, सारे चमकधमक रहे हैं. वर्मा, शर्मा, रस्तोगी, साहनी, भसीन, गुप्ता, अग्रवाल सभी अपनी कारें निकाल रहे हैं, आज तो सोसाइटी कारविहीन हो जाएगी.’’

मुसकराती हुई सुकन्या ने कहा, ‘‘सारे अलग शादियों में नहीं, बल्कि राहुल की शादी में जा रहे हैं.’’

‘‘दिल खोल कर न्योता दिया है नंदकिशोरजी ने.’’

‘‘दिल की मत पूछो, फार्म हाउस में शादी का सारा खर्च वधू पक्ष का होगा, इसलिए पूरी सोसाइटी को निमंत्रण दे दिया वरना अपने घर तो उन की पत्नी ने किसी को भी नहीं बुलाया. एक नंबर के कंजूस हैं दोनों पतिपत्नी. हम तो उसे किटी पार्टी का मेंबर बनाने को राजी नहीं होते हैं. जबरदस्ती हर साल किसी न किसी बहाने मेंबर बन जाती है.’’

‘‘इतनी नाराजगी भी अच्छी नहीं कि मेकअप ही खराब हो जाए,’’ सुरेश ने कार स्टार्ट करते हुए कहा.

‘‘कितनी देर लगेगी फार्म हाउस पहुंचने में?’’ सुकन्या ने पूछा.

‘‘यह तो टै्रफिक पर निर्भर है, कितना समय लगेगा, 1 घंटा भी लग सकता है, डेढ़ भी और 2 भी.’’

‘‘मैं एफएम रेडियो पर टै्रफिक का हाल जानती हूं,’’ कह कर सुकन्या ने रेडियो चालू किया.

ये भी पढ़ें- Short Story: हवा का झोंका

तभी रेडियो जौकी यानी कि उद्घोषिका ने शहर में 10 हजार शादियों का जिक्र छेड़ते हुए कहा कि आज हर दिल्लीवासी किसी न किसी शादी में जा रहा है और चारों तरफ शादियों की धूम है. यह सुन कर सुरेश ने सुकन्या से पूछा, ‘‘क्या तुम्हें लगता है कि आज शहर में 10 हजार शादियां होंगी?’’

‘‘आप तो ऐसे पूछ रहे हो, जैसे मैं कोई पंडित हूं और शादियों का मुहूर्त मैं ने ही निकाला है.’’

‘‘एक बात जरूर है कि आज शादियां अधिक हैं, लेकिन कितनी, पता नहीं. हां, एक बात पर मैं अडिग हूं कि 10 हजार नहीं होंगी. 2-3 हजार को 10 हजार बनाने में लोगों को कोई अधिक समय नहीं लगता. बात का बतंगड़ बनाने में फालतू आदमी माहिर होते हैं.’’

तभी रेडियो टनाटन ने टै्रफिक का हाल सुनाना शुरू किया, ‘यदि आप वहां जा रहे हैं तो अपना रूट बदल लें,’ यह सुन कर सुरेश ने कहा, ‘‘रेडियो स्टेशन पर बैठ कर कहना आसान है कि रूट बदल लें, लेकिन जाएं तो कहां से, दिल्ली की हर दूसरी सड़क पर टै्रफिक होता है. हर रोज सुबहशाम 2 घंटे की ड्राइविंग हो जाती है. आराम से चलते चलो, सब्र और संयम के साथ.’’

बातों ही बातों में कार की रफ्तार धीमी हो गई और आगे वाली कार के चालक ने कार से अपनी गरदन बाहर निकाली और बोला, ‘‘भाई साहब, कार थोड़ी पीछे करना, वापस मोड़नी है, आगे टै्रफिक जाम है, एफ एम रेडियो भी यही कह रहा है.’’

उस को देखते ही कई स्कूटर और बाइक वाले पलट कर चलने लगे. कार वालों ने भी कारें वापस मोड़नी शुरू कर दीं. यह देख कर सुकन्या ने कहा, ‘‘आप क्या देख रहे हो, जब सब वापस मुड़ रहे हैं तो आप भी इन के साथ मुड़ जाइए.’’

सुरेश ने कार नहीं मोड़ी बल्कि मुड़ी कारों की जगह धीरेधीरे कार आगे बढ़ानी शुरू की.

‘‘यह आप क्या कर रहे हो, टै्रफिक जाम में फंस जाएंगे,’’ सुकन्या ने सुरेश की ओर देखते हुए कहा.

‘‘कुछ नहीं होगा, यह तो रोज की कहानी है. जो कारें वापस मुड़ रही हैं, वे सब आगे पहुंच कर दूसरी लेन को भी जाम करेंगी.’’ धीरेधीरे सुरेश कार को अपनी लेन में रख कर आगे बढ़ाता रहा. चौराहे पर एक टेंपो खराब खड़ा था, जिस कारण टै्रफिक का बुरा हाल था.

‘‘यहां तो काफी बुरा हाल है, देर न हो जाए,’’ सुकन्या थोड़ी परेशान हो गई.

‘‘कुछ नहीं होगा, 10 मिनट जरूर लग सकते हैं. यहां संयम की आवश्यकता है.’’

बातोंबातों में 10 मिनट में चौराहे को पार कर लिया और कार ने थोड़ी रफ्तार पकड़ी. थोड़ीथोड़ी दूरी पर कभी कोई बरात मिलती, तो कार की रफ्तार कम हो जाती तो कहीं बीच सड़क पर बस वाले बस रोक कर सवारियों को उतारने, चढ़ाने का काम करते मिले.

ये भी पढ़ें- वही खुशबू: आखिर क्या थी उस की सच्चाई

फार्म हाउस आ गया. बरात अभी बाहर सड़क पर नाच रही थी. बरातियों ने अंदर जाना शुरू कर दिया, सोसाइटी निवासी पहले ही पहुंच गए थे और चाट के स्टाल पर मशगूल थे.

‘‘लगता है, हम ही देर से पहुंचे हैं, सोसाइटी के लोग तो हमारे साथ चले थे, लेकिन पहले आ गए,’’ सुरेश ने चारों तरफ नजर दौड़ाते हुए सुकन्या से कहा.

‘‘इतनी धीरे कार चलाते हो, जल्दी कैसे पहुंच सकते थे,’’ इतना कह कर सुकन्या बोली, ‘‘हाय मिसेज वर्मा, आज तो बहुत जंच रही हो.’’

‘‘अरे, कहां, तुम्हारे आगे तो आज सब फीके हैं,’’ मिसेज गुप्ता बोलीं, ‘‘देखो तो कितना खूबसूरत नेकलेस है, छोटा जरूर है लेकिन डिजाइन लाजवाब है. हीरे कितने चमक रहे हैं, जरूर महंगा होगा.’’

‘‘पहले कभी देखा नहीं, कहां से लिया? देखो तो, साथ के मैचिंग टाप्स भी लाजवाब हैं,’’ एक के बाद एक प्रश्नों की झड़ी लग गई, साथ ही सभी सोसाइटी की महिलाओं ने सुकन्या को घेर लिया और वह मंदमंद मुसकाती हुई एक कुरसी पर बैठ गई. सुरेश एक तरफ कोने में अलग कुरसी पर अकेले बैठे थे, तभी रस्तोगी ने कंधे पर हाथ मारते हुए कहा, ‘‘क्या यार, सुरेश…यहां छिप कर चुपके से महिलाआें की बातों में कान अड़ाए बैठे हो. उठो, उधर मर्दों की महफिल लगी है. सब इंतजाम है, आ जाओ…’’

सुरेश कुरसी छोड़ते हुए कहने लगे, ‘‘रस्तोगी, मैं पीता नहीं हूं, तुझे पता है, क्या करूंगा महफिल में जा कर.’’

‘‘आओ तो सही, गपशप ही सही, मैं कौन सा रोज पीने वाला हूं. जलजीरा, सौफ्ट ड्रिंक्स सबकुछ है,’’ कह कर रस्तोगी ने सुरेश का हाथ पकड़ कर खींचा और दोनों महफिल में शरीक हो गए, जहां जाम के बीच में ठहाके लग रहे थे.

‘‘यार, नंदकिशोर ने हाथ लंबा मारा है, सबकुछ लड़की पक्ष वाले कर रहे हैं. फार्म आउस में शादी, पीने का, खाने का इंतजाम तो देखो,’’ अग्रवाल ने कहा.

ये भी पढ़ें- इज्जत की खातिर: क्यों एक बाप ने की बेटी की हत्या

‘‘अंदर की बात बताता हूं, सब प्यारमुहब्बत का मामला है,’’ साहनी बोला.

‘‘अमा यार, पहेलियां बुझाना छोड़ कर जरा खुल कर बताओ,’’ गुप्ता ने पूछा.

‘‘राहुल और यह लड़की कालिज में एकसाथ पढ़ते थे, वहीं प्यार हो गया. जब लड़कालड़की राजी तो क्या करेगा काजी, थकहार कर लड़की के बाप को मानना पड़ा,’’ साहनी चटकारे ले कर प्यार के किस्से सुनाने लगा. फिर मुड़ कर सुरेश से कहने लगा, ‘‘अरे, आप तो मंदमंद मुसकरा रहे हैं, क्या बात है, कुछ तो फरमाइए.’’

‘‘मैं यह सोच रहा हूं कि क्या जरूरत है, शादियों में फुजूल का पैसा लगाने की, इसी शादी को देख लो, फार्म हाउस का किराया, साजसजावट, खानेपीने का खर्चा, लेनदेन, गहने और न जाने क्याक्या खर्च होता है,’’ सुरेश ने दार्शनिक भाव से कहा.

‘‘यार, जिस के पास जितना धन होता है, शादी में खर्च करता है. इस में फुजूलखर्ची की क्या बात है. आखिर धन को संचित ही इसीलिए करते हैं,’’ अग्रवाल ने बात को स्पष्ट करते हुए कहा.

‘‘नहीं, धन का संचय शादियों के लिए नहीं, बल्कि कठिन समय के लिए भी किया जाता है…’’

सुरेश की बात बीच में काटते हुए गुप्ता बोला, ‘‘देख, लड़की वालों के पास धन की कोई कमी नहीं है. समंदर में से दोचार लोटे निकल जाएंगे, तो कुछ फर्क नहीं पड़ेगा.’’

‘‘यह सोच गलत है. यह तो पैसे की बरबादी है,’’ सुरेश ने कहा.

‘‘सारा मूड खराब कर दिया,’’ साहनी ने बात को समाप्त करते हुए कहा, ‘‘यहां हम जश्न मना रहे हैं, स्वामीजी ने प्रवचन शुरू कर दिए. बाईगौड रस्तोगी, जहां से इसे लाया था, वहीं छोड़ आ.’’

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें