बिहार राज्य के मुजफ्फरपुर जिला अंतर्गत डकरामा नाम के गाँव में डायन के नाम पर तीन महिलाओं को सिर मुड़वाकर, पेशाब पिलाई और पूरे गाँव मे घुमाया.तीन औरतें लाचार बैठी हैं. पास खड़ी भीड़ शोर कर रही है. उन औरतों का सिर का मुंडन किया जा रहा है और पेशाब पिलाया जा रहा है. और लोग हँस रहे हैं. इस तरह का वीडियो वायरल हो रहा है. एक आदमी जब मदद करने के लिए आया तो उसे भी यही सजा सुना दी गयी जो इन औरतों को सुनाई गयी थी.उसके बाद पंचायत ने तीनों औरतों को गाँव से निकाल दिया.वे लोग चली भी गयीं.एक औरत इस गाँव की थी बाकी दो उसके रिश्तेदार थे.
द फ्रीडम के संस्थापक सुधीर कुमार ने दिल्ली प्रेस को बताया कि एक ओर सरकार, प्रशासन और बुद्धिजीवी तबका डायन प्रथा को खत्म करने के प्रयास में जुटा है, दूसरी ओर पुरोहित बिरादरी और पाखंड समर्थक पूरे जोर-शोर से डायन प्रथा को बढ़ावा देने में लगे हुए हैं. पुरोहितों और उनकी ढकोसलेबाजी का प्रमुख समर्थक मीडिया भी इसमें अप्रत्यक्ष रूप से खूब समर्थन कर रहा है.
पहले हम जानते हैं कि डायन प्रथा का मूल आधार क्या है ? डायनों के बारे में कहा जाता है कि वह मंत्र पढ़कर (देहातों में बान मारना भी कहा जाता है) किसी की जान ले सकती है या फिर बीमार कर दे सकती है.मंत्र और टोटके के सहारे वह ऐसे कारनामें कर सकती है, जो और किसी भी तरह संभव ही नहीं है.यानी मंत्रों में शक्ति होती है, यह डायन प्रथा का मुख्य आधार है.
विज्ञान के विकास ने और मानवाधिकारों के प्रति बढ़ती जागरुकता ने इन ढकोसलों के खिलाफ काफी काम किया है. लोगों को लगातार लंबे अरसे तक समझाने के बाद काफी हद तक यह समझाने में सफलता मिली है कि डायन का असर केवल मन का वहम है.ऐसा कुछ नहीं होता. बीमारियों और मौतों के पीछे दूसरे कारण होते हैं.
परंतु, दूसरी ओर हर धर्म के पुरोहित लगातार मंत्रवाद को बढ़ावा देने में लगे हुए हैं.वे दिन-रात इस थ्योरी में लगे रहते हैं कि मंत्रों में शक्ति होती है.मंत्रों का असर होता है. हालांकि मंत्रों के असर का षड्यंत्रों का काफी हद तक पर्दाफाश हो चुका है, लेकिन पुरोहित वर्ग इसे फिर से लोगों के मन में बिठाने में लगा है. इसमें पूरा साथ दे रहा है मीडिया.
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लगभग सभी समाचार पत्रों और चैनलों में मंत्रों की महिमा बार-बार बताई जा रही है. फलाने मंत्र से यह लाभ होता है, फलाने मंत्र से शक्ति बढ़ती है, फलाने मंत्र से पुत्रों की रक्षा होती है.कई बार तो यह चुटकुला की हद तक हास्यास्पद हो जाता है.जैसे हाल ही में नागपंचमी के दिन एक समाचार पत्र में छपा कि फलाने मंत्र के जाप से सर्पदंश का असर कम हो जाता है.पाखंड फैलाने वाला यह आलेख आधे पेज पर छपा था.यह लिखने वाला पुरोहित और छापने वाला संपादक दोनों ही जानते हैं कि यह कोरा पाखंड फैलाने से अधिक कुछ नहीं है.
इसी तरह चैनलों और अखबारों में देवी-देवताओं को खुश करने वाले मंत्र लगातार बताये जा रहे हैं. कई दीर्घायु होने के मंत्र भी हैं. हालांकि हाल के वर्षों में देवताओं को खुश करने में लगे भक्त ही थोक में मर रहे हैं या मारे जा रहे हैं.केदारनाथ, वैष्णो देवी, बोलबम यात्रा से लेकर हज आदि इसके ढेर सारे उदाहरण हैं.
पुरोहित वर्ग लगातार ढोंग ढकोसले फैलाने के उपाय तलाशते रहता है. कभी गणेश को दूध पिलाकर, कभी पेड़ में देवी-देवताओं के चेहरे दिखाकर.और फिर ढेर सारे पर्व-त्यौहार तो हैं ही.
लेकिन मंत्रों का प्रभाव बताना इन सबमें सबसे अधिक खतरनाक है. यह सीधे तौर पर डायन प्रथा और झाड़-फूंक को बढ़ावा देना है. अपनी दुकानदारी चलाने के लिए पुरोहित वर्ग यह लगातार कर रहा है.शर्मनाक है कि इसमें मीडिया घराने भी सहयोग कर रहे हैं. तिलक लगाने वाले ढोंगियों का बाजार गुलजार हो जाएगा, यह उतना खतरनाक नहीं है.लेकिन मंत्रों का असर अगर लोगों को दिमाग में बैठने लगा तो फिर डायन के नाम पर गरीब और लाचार औरतों की शामत आएगी ही.उन पर अमानवीय जुल्म तेजी से बढ़ने लगेंगे.
इसी तरह हवन आदि कर्मकांडों को भी बढ़ावा देने पर जोर दिया जा रहा है.चंद दिन पहले कोरोना जब फैलना शुरू हुआ था तो पाखंड समर्थकों ने देश भर में हवन किया.दूसरे मजहब के पाखंडियों ने अल्लाह से रहम की अपील और गॉड की विशेष प्रार्थना शुरू कर दी.हवन और दुआ में इतनी ही शक्ति है तो फिर खुद पुजारी, मौलवी और पादरी अस्पताल में भर्ती होने की मूर्खता क्यों कर रहे हैं? जो भगवान अपना मंदिर और जो खुदा अपनी मस्जिद नहीं बचा सकता, वह दूसरों को क्या बचाएगा?
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ऐसा ही नजारा क्रिकेट विश्वकप के दौरान भी दिखता है. प्रशंसक टीम को जीतने के लिए हवन करते हैं.जब टीम हारती है तो क्रिकेटरों पर गुस्सा करते हैं. अरे मूर्खों, जब तुम्हारे देवताओं की जीत दिलाने की औकात नहीं थी तो बेचारे क्रिकेटर तो साधारण मनुष्य हैं.अखबार वाले भी देवी-देवताओं की बजाय खिलाड़ियों को कोसने लगते हैं.इससे यह तो साफ जाहिर हो जाता है कि सबको पता है कि हवन और प्रार्थना सिवाय ढोंग-ढकोसला के और कुछ नहीं है. लेकिन पुरोहित प्रपंच जारी रखने के लिए यह आवश्यक है.चाहे देश जितना बदहाल हो जाए. मंत्र की शक्ति साबित करने के पाखंड को बढ़ावा देते रहेंगे.
पुरोहितों को इससे क्या ? उन्हें तो सिर्फ अपनी दुकान की फिक्र है. वे अपनी दुकान चलाने के लिए साईं को लेकर तो धर्मसभा कर सकते हैं, लेकिन एक बार भी डायन प्रथा का विरोध नहीं कर सकते. लेकिन वे भी बेचारे क्या करें, डायन प्रथा को झूठा कहेंगे तो उनके मंत्रों के पाखंड का पर्दाफाश हो जाएगा. उनकी दुकान बंद होने लगेगी.और मीडिया भी आजकल दुकानदारी ही हो गया है. उसे चाहिए मसाला और विज्ञापन चाहे निर्मल जैसे चुटकुलेबाज बाबा को ही क्यों न दिन-रात चलाना पड़े. चाहे इसके लिए लोगों को जागरूक करने की बजाय अंधविश्वास ही क्यों न फैलाना पड़े.अंधविस्वास के विरोध में सच्चाई के पक्ष में दिल्ली प्रेस की पत्रिकाएँ लगातार आर्टिकल प्रकाशित करते रहती है.चंद मीडिया घराना और कुछ सामाजिक संगठन लगातार संघर्षरत हैं.लेकिन उनलोगों के सामने इनका संघर्ष छोटा पड़ जा रहा है.
तो फिर हाल क्या है? पुरोहितों को तो कोई समझा नहीं सकता कि अब पाखंड फैलाना बंद करो. जो लोग डायन प्रथा को गलत मानते हैं, उन्हें मुखर होना पड़ेगा.डायन प्रथा की जड़ पर प्रहार करना होगा.वह यह है कि लोगों को बताया जाए कि मंत्रों में, दुआओं में, हवन-रोजा, नमाज में कोई शक्ति नहीं होती.ये सब पाखंड और शोषण के तरीके हैं.यह पुरोहितों की चाल है अपनी दुकानदारी चमकाने के लिए.
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सीधी सी बात है कि अगर आप मानते हैं कि मंत्र, दुआ और प्रार्थना में शक्ति होती है तो आप भी डायन प्रथा के समर्थक हैं, क्योंकि डायन प्रथा का मूलाधार ही यही है.डायन प्रथा के झूठे विरोध की नौटंकी मत कीजिए.