मारे देश में न्यायपालिका का बुनियादी सिद्धांत है कि सौ अपराधी छूट जाएं, लेकिन एक भी निरपराध को सजा न हो. यह मुहावरा कानून के क्षेत्र में बहुत सुननेपढ़ने को मिलता है, लेकिन क्या वास्तविकता में ऐसा है? देखा जाए तो इस सिद्धांत के विपरीत सरकार द्वारा बनाए गए कानून ही कितने निरपराधियों को अपराधी घोषित कर के उन्हें दंड का भागी बना देते हैं, जिस के परिणामस्वरूप बेगुनाहों को कितनी मानसिक, आर्थिक और सामाजिक यातनाओं से गुजरना पड़ता है, यह सिर्फ भुक्तभोगी ही बता सकता है.

आइए, जानते हैं किन कानूनों के तहत निरपराधियों को बिना किसी अपराध के अपराधियों के समान दंड भुगतना पड़ा.

8 नवंबर, 2016 की रात 8 बजे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अचानक राष्ट्र को संबोधन कर के कालेधन पर नियंत्रण करने के उद्देश्य से पूरे देश में 500 और 1000 रुपए के नोटों को बंद करने का ऐलान किया था. इस की वजह से अरबों निरपराधों को सजा भुगतनी पड़ी.

प्रधानमंत्री ने स्वयं स्वीकार किया है कि देश में 5 लाख के अंदर ही ऐसे लोग होंगे, जिन के पास कालाधन है. फिर उन लोगों पर सीधी काररवाई न कर के ऐसा करने से निर्दोष जनता को भी इन के लपेटे में आ कर इस का खामियाजा भुगतना पड़ा. इस के तहत देश के प्रत्येक नागरिक को मानसिक, शारीरिक और आर्थिक यंत्रणा से गुजरना पड़ा, यह सर्वविदित है. इस के कुछ उदाहरण हैं

घोषणा के तुरंत बाद ही बैंकों के बाहर लोगों की लंबीलंबी कतारें लग गईं. सागर जिले में नोट बदलने के लिए बैंक की कतार में लगे सेवानिवृत्त कर्मचारी विनोद पांडेय (70 साल) चक्कर खा कर गिर पड़े. उन्हें हार्टअटैक की गंभीर हालत में अस्पताल ले जाया गया, जहां चिकित्सकों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया.

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