सामाजिक मुद्दों या आम जनता से जुड़े किसी भी मुद्दे पर एक कमर्शियल मनोरंजक फिल्म लिखना या निर्देशित करना हर किसी के बस की बात नहीं हो सकती. आम जनता के मुद्दे पर मनोरंजक फिल्म का मतलब रिश्तों की कहानी के साथ चलो और क्लायमेक्स में अदालत के अंदर दुनियाभर का संदेश परोसने वाला भाषण देते हुए उसे मन की भड़ास कहना तो कदापि नहीं होना चाहिए. मगर फिल्म ‘बत्ती गुल मीटर चालू’ के लेखक व निर्देशक ने इस फिल्म में यही किया है. परिणामतः देश का आम इंसान से कहीं ज्यादा निरीह और बेचारे तो लेखक व निर्देशक ही नजर आते हैं.

पूरे देश में हर घर में 24 घंटे बिजली का न होना और बिजली बिल का अनाप शनाप यानी कि जितनी बिजली उपयोग की, उसके मुकाबले कई गुना ज्यादा बिल का आना आम समस्या है. मगर इस समस्या को फिल्म ‘‘बत्ती गुल मीटर चालू’’ के लेखक द्वय सिद्धार्थ व गरिमा तथा निर्देशक श्री नारायण सिंह ने उत्तराखंड के औद्योगिक क्षेत्र में बिजली मुहैय्या कराने वाली एक निजी कंपनी ‘सूरज पावर टेक्नालाजी लिमिटेड’ नामक कंपनी को जिम्मेदार ठहराते हुए पूरी फिल्म गढ़ी है. और यहीं पर उनकी फिल्म कमजोर हो जाती है.

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जब फिल्म की नींव कमजोर हो, तब महज आम हिंदी फिल्मों के चर्चित कमर्शियल मसाले भरने से फिल्म अच्छी कैसे बनेगी? लेखक ने इस समस्या पर फिल्म की पटकथा लिखने या निर्देशक ने निर्देशन करने से पहले कोई शोध कार्य किया होता, तो उन्हें इस बात का अहसास रहता कि उत्तराखंड में इलेस्ट्रीसिटी की सप्लाई यानी मुहैय्या कराने की जिम्मेदारी किसी निजी कंपनी के पास नहीं बल्कि यह काम सरकार खुद कर रही है. मुंबई और दिल्ली के कुछ इलाके में निजी कंपनियां बिजली मुहैय्या करा रही हैं. पर इस फिल्म में उत्तराखंड में बिजली मुहैया कराने वाली कंपनी के मालिक को भी अदालत में तलब कर लिया गया. यह है कल्पना की पराकाष्ठा...वैसे लेखक व निर्देशक दोनों के दावे हैं कि उन्होंने कुछ माह उत्तराखंड में बिताकर इस समस्या पर गहन शोध किया था.

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