जनवरी, 2019 में एक वीडियो ट्विटर पर तैर रहा था, जिस में कथित तौर पर तमिल सुपरस्टार अजीत के चाहने वाले रजनीकांत की फिल्म ‘पेट्टा’ के पोस्टर जला रहे थे. चूंकि रजनीकांत और अजीत की फिल्म ‘पेट्टा’ और ‘विश्वासम’ एक ही दिन रिलीज हुई थीं, इसलिए दोनों फिल्मी सितारों के चाहने वाले आपस में भिड़े हुए थे.

दक्षिण भारत में फिल्मी सितारों और नेताओं को ले कर उन के चाहने वाले किस हद तक अंधभक्ति के शिकार हैं, इस के नमूने जबतब कलाकारों दिख जाते हैं. कोई फैन क्लब वाला उन के मंदिर बनवा देता है तो कोई उन्हें शिवलिंग की तरह दूध से नहला देता है.

रजनीकांत, कमल हासन से ले कर पवन कल्याण, चिरंजीवी तक ऐसे कई कलाकार हैं जिन के बाकायदा फैन क्लब बने हुए हैं और कई कलाकारों की तरफ से उन्हें पैसा भी मिलता है. लिहाजा, ये क्लब वाले इस तरह के अंधभक्तों की फौज खड़ी कर देते हैं जो खुद को एक खास ऐक्टर या नेता का फैन बता कर लड़नेमरने पर उतारू हो जाते हैं.

कमल हासन ने रजनीकांत को कुछ कह दिया तो उन के फैन पहुंच जाते हैं कमल हासन के घर तोड़फोड़ करने.

कुछ साल पहले जब एक दक्षिण भारतीय ऐक्टर चंद्रशेखर ने राजनीति में उतरे अपने प्रतिद्वंद्वी ऐक्टर के खिलाफ कुछ बोल दिया था तो उस ऐक्टर के चाहने वालों ने चंद्रशेखर पर भरी सभा में पत्थरों की बारिश कर दी थी. वे बेचारे चोटिल हो गए थे, लेकिन चाहने वालों पर कौन सा केस दर्ज होता.

खुद को ही जला दिया

हालिया मामला तो और भी दहला देने वाला है. कन्नड़ फिल्म इंडस्ट्री के सुपरस्टार यश से मिलने की जिद में एक लड़के ने खुद को आग लगा ली.

हुआ यों कि यश को जन्मदिन की बधाई देने के लिए जब उन का एक फैन रविशंकर अपने दोस्तों के साथ उन के घर पहुंचा तब उसे वहां ऐंट्री करने से मना कर दिया गया. नाराजगी में रविशंकर ने ऐक्टर के घर के सामने खुद को आग लगा ली. उसे यश के जन्मदिन पर उन से मिलने की धुन थी.

चूंकि कन्नड़ फिल्म इंडस्ट्री के इस ऐक्टर ने ‘केजीएफ’ फिल्म के बाद से शाहरुख खान की फिल्म ‘जीरो’ को मात दे कर अपने फैन बढ़ा लिए हैं, लिहाजा उन के घर के बाहर ऐसे चाहने वालों की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है. अब सब से मिलना तो किसी भी ऐक्टर के लिए मुमकिन नहीं है. बहरहाल, किसी तरह रविशंकर को अस्पताल ले जाया गया, लेकिन अगले दिन उस ने दम तोड़ दिया. 26 साल के इस लड़के ने अपनी जान सिर्फ शौक लिए दे दी. हैरानी इस बात की है कि इस बात से उस के मातापिता भी वाकिफ थे.

मातापिता के मुताबिक, रविशंकर हर साल यश से मिलने जाता था. पिछले साल वह हमें भी उन के घर ले गया था. इस साल हम ने उसे जाने से मना किया था, लेकिन वह चला गया. पता नहीं, रवि को पैट्रोल कहां से मिला.

हालांकि इस घटना के बाद यश रविशंकर से मिलने के लिए अस्पताल पहुंचे. लेकिन उन्होंने इस बात पर काफी गुस्सा भी जताया.

उन्होंने कहा, ‘‘मैं इस तरह के प्रशंसकों को नहीं चाहता हूं. यह फैंटेसी या प्यार नहीं है. इस से मुझे खुशी नहीं मिलती?है. मैं इस तरह से किसी और को देखने नहीं आऊंगा. यह उन प्रशंसकों को गलत संदेश देगा जो सोचते हैं कि अगर वे ऐसा काम करेंगे तो मैं उन से मिलने आऊंगा.’’

इस में कुसूर भक्त का है या देवता बन चुके फिल्म कलाकारों का? वजह कोई भी हो, किसी फैन का इस तरह का रवैया अपनाना चिंता की बात है. पढ़ाई के प्रैशर से ले कर लड़की के दिल तोड़ने तक सुसाइड की कोशिशें वैसे ही नौजवानों की जानें ले रही हैं, उस पर फिल्मी सितारों के प्रति ऐसी दीवानगी भी कम गंभीर मसला नहीं है.

कुछ लोग तो यह भी कहेंगे कि इस में कलाकारों का क्या कुसूर है? लेकिन कहीं न कहीं इस फैनबाजी को कलाकार ही बढ़ावा देते हैं.

अपनी फिल्मों में मसीहा की इमेज बनाने से ले कर फैन क्लब को रजिस्टर कराना हो या उन के उत्सवों में शिरकत करने जैसी बातें फैंस को अलगअलग गुटों में बांध देती हैं, कुछकुछ राजनीतिक कार्यकर्ताओं की तरह, जो अपने नेता की तर्ज पर अभिनेताओं का झंडा (पोस्टर) ले कर चलते हैं.

इन की फिल्मों के रिलीज के समय पूरा थिएटर इन फैंस क्लब की मुट्ठी में होता है. चलती फिल्म को बीच में ही रोक कर ढोलनगाड़ों का जश्न जैसा पागलपन भी यहीं दिखता है. टिकटों की कालाबाजारी भी होती है और असुरक्षा का माहौल अलग से बनता है.

अभी हिंदी बैल्ट में यह संक्रमण ज्यादा नहीं फैला है लेकिन कुछकुछ लक्षण जरूर दिखने लगे हैं.

मसलन, सलमान खान और अक्षय कुमार के पोस्टरों पर रिलीज के समय मालाबाजी होने लगी है. जान देने या लेने जैसी बातें सोशल मीडिया अकाउंट पर दिख जाती हैं जहां फैंस आपस में भिड़ जाते हैं और कलाकारों को गरियाने लगते हैं.

महामानव जैसे किरदार दरअसल, रीजनल सिनेमा ने कभी भी देशी मुद्दों को नहीं छोड़ा. वहां के हीरो अभी भी लुंगी डांस करते हैं और ‘रंगस्थलम’, ‘काला’, ‘पेट्टा’, ‘शिवाजी’, ‘नायकन’, ‘मारी’, ‘सरकार’ जैसी फिल्में वहीं के गांव, किसान और इलाकाई राजनीति की बात करती हैं. लिहाजा, ऐसी फिल्मों के हीरो जननायक महामानव बन जाते हैं.

एमजी रामचंद्रन, राम्या, जानकी रामचंद्रन, सीएन अन्नादुराई, एनटी रामाराव, एमके करुणानिधि, पवन कल्याण, जयललिता, चंद्रशेखर, विजय कांत, चिरंजीवी, बालकृष्ण, हरिकृष्ण, जयाप्रदा वगैरह नाम फिल्मी बैकग्राउंड से थे.

एनटीआर ने बतौर अभिनेता अपनी नायक छवि का इस्तेमाल तेलुगु गर्व के मुद्दे पर आधारित अपनी तेलुगुदेशम पार्टी को बनाने में बखूबी किया. बाद में वे मुख्यमंत्री बने.

आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके वाईएस राजशेखर रेड्डी की बायोपिक, बालकृष्ण की कथानायुडू, नेताअभिनेता चिरंजीवी का सईरा नरसिम्हा रेड्डी से फ्रीडम फाइटर उय्यलावाड़ा नरसिम्हा रेड्डी की जिंदगी को परदे पर उतारना, तमिलनाडु की मुख्यमंत्री रह चुकी जे. जयललिता की बायोपिक ‘आयरन लेडी’ का बनाना, सब उसी फैनबाजी के कंधे पर सवार हो कर यहां तक पहुंचे हैं.

फिल्में कोरी कल्पनाओं पर आधारित होती हैं. लेकिन इन में काम करने वाले कलाकार सामाजिक सरोकार की आड़ में रिएलिस्टिक सिनेमा को दरकिनार कर लार्जर दैन लाइफ किरदार रचते हैं, जो राजा भी होता है और रंक भी, बिलकुल देवता सरीखा बन कर जनता की आवाज उठाता है और अवाम उस किरदार को असल का समझने लगती है.

कई बार अभिनेता इस पागलपन का फायदा उठा कर सियासत में उतर जाते हैं और सिनेमाघर के टिकटों को बैलेट बौक्स तक खींच ले आते हैं. लेकिन इस सब फैनबाजी में उन का क्या, जो जोश में आ कर खुद को जीतेजी मार रहे हैं.

दरअसल, देश के डीएनए में ही व्यक्ति पूजा और गुलामी के बीज हैं. हम किसी को थोड़ा सा पसंद कर लें तो उसे अवतार मान बैठते हैं.

जाहिर है, इस का फायदा सदियों से भारत में सत्ता में बैठे लोग उठा रहे हैं और शायद आगे भी उठाते रहेंगे.

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