प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी : काशी की ली सुध या साधा सियासी निशाना

अपने समय के दिग्गज समाजवादी नेता डाक्टर राममनोहर लोहिया का धर्म की राजनीति के बारे में कहना था कि राजनीति अल्पकालिक धर्म है और धर्म दीर्घकालिक राजनीति है. समाजवादियों ने तो इस गहरी बात के माने कभी समझे नहीं, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 18 जून, 2024 को एक बार फिर से काशी में देख कर लगा कि डाक्टर राममनोहर लोहिया गलत नहीं कह गए थे. वैसे, उन के सच्चे अनुयायी तो अब दक्षिणपंथी हो चले हैं, जिन्होंने धर्म और राजनीति में फर्क ही खत्म कर रखा है.

4 जून, 2024 को आम लोकसभा चुनाव के नतीजे देख कर सकपका तो नरेंद्र मोदी भी गए थे कि हे राम, यह क्या हो गया. इसी सदमे में उन्होंने बेखयाली में शपथ वाले दिन संविधान को माथे से लगा भी लिया था, जो अल्पकालिक धर्म था. फिर 13 दिनों के मंथन के बाद वे दीर्घकालिक राजनीति वाले फार्मूले पर आ गए.

इसी बीच गम कम करने की गरज से उन्होंने एक चक्कर विदेश का भी लगा लिया, जिस के बारे में एक दक्षिण भारतीय वामपंथी ऐक्टर प्रकाश राज के नाम से किसी शरारती तत्त्व ने सटीक टिप्पणी यह वायरल कर दी कि 70 सालों में पहली बार कोई प्रधानमंत्री महज एक सैल्फी लेने के लिए विदेश गया.

इटली में आयोजित जी-7 सम्मेलन में भारत की मौजूदगी औफिशियल नहीं थी, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को शायद देश में ‘प्रधान सेवक’ होने जैसी फीलिंग पूरी तरह नहीं आ रही थी, इसलिए इटली जा कर उन्होंने अपना खोया हुआ आत्मविश्वास हासिल किया.

वहां नरेंद्र मोदी कई बड़े नेताओं से मिले और उन्हें बताया कि दुनिया के सब से बड़े लोकतांत्रिक चुनाव में हिस्सा लेने के बाद इस सम्मेलन का हिस्सा बनना बहुत संतुष्टि की बात है. मेरा सौभाग्य है कि जनता ने मुझे तीसरी बार देश की सेवा करने का अवसर दिया है.

यह पक्का करने के बाद कि दुनिया के इन राष्ट्र प्रमुखों और पूरी दुनिया को उन के तीसरी बार भारत का प्रधानमंत्री बनने की तसल्ली हो गई है, तो वे दिल्ली होते हुए सीधे गंगा किनारे काशी जा पहुंचे.

वहां नरेंद्र मोदी पहले के मुकाबले थोड़ा सहज दिखे, फिर भी यह कसक छिपाए न छिपी कि बस, डेढ़ लाख वोटों से ही जीते, वरना बात तो 8-10 लाख की हो रही थी.

धर्म की कई खूबियों में से एक यह भी होती है कि वह दुख भुलाने में लोगों की मदद करता है. भगवान की शरण में जा कर महसूस होता है कि अच्छा हो या बुरा, सबकुछ इसी का कियाधरा होता है. वह जो करता है, भले के लिए करता है, उस की मरजी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता और लाख टके की बात, गीता का यह सार याद आ जाता है कि, ‘तू क्या ले कर आया था और क्या ले कर जाएगा. तेरा क्या है जो तू शोक करता है. हानिलाभ, जीवनमरण, यशअपयश विधि के हाथ… इस ज्ञान के आगे घोर नास्तिकों की नास्तिकता भी विसर्जित होने लगती है,

तो आस्तिकों की बिसात क्या जो एकदम झूम उठते हैं. ये धार्मिक बातें भरम मिटाती हैं या बढ़ाती हैं, इस का जवाब दोनों में से कुछ दिया जाए तो नतीजा यही निकलता है कि भरम न तो मिटता है, न बढ़ता है, बल्कि वैसा का वैसा रहता है. हां, उस के होने का एहसास नहीं होता.

यह ज्ञान पेनकिलर दवा जैसा होता है, जिन के असर से दर्द खत्म नहीं होता, उस का महसूस होना खत्म हो जाता है. बकौल कार्ल मार्क्स, धर्म अफीम का नशा.

तो शिव की नगरी आ कर नरेंद्र मोदी ने 13 दिनों बाद ज्ञान की गंगा, गंगा किनारे बहाई, औफलाइन भी और औनलाइन भी बहाई, जहां ज्ञान समुद्र के पानी की तरह दिनरात बहता रहता है और कभीकभी तो ज्ञान का तूफान भी आता है. मोदीजी ने हिंदी और इंगलिश दोनों भाषाओं में ज्ञान सोशल मीडिया ‘एक्स’ पर भी दिया.

जैसे ही उन्होंने धार्मिक गेटअप धारण किया, वैसे ही वे 4 जून से पहले के प्रधानमंत्री लगने लगे. उन्हें इस नवकंज लोचन कंजमुख कर… टाइप मनभावन, मनमोहक रूप में देख ‘टाइगर जिंदा है’ की तर्ज पर भक्तों में भी खुशी की लहर दौड़ गई. थोड़ी देर में ही ‘हरहर गंगे’ और ‘भोलेनाथ’ के नारे लगने लगे.

एक बार फिर घंटेघडि़याल बजने लगे, भजनआरतीपूजन होने लगे, जिस से देश, देश जैसा लगने लगा. सब से पहले उन्होंने गरीब किसानों को पैसा बांटा, ठीक वैसे ही जैसे जीत के बाद चक्रवर्ती सम्राट टाइप के राजा जनता से इकट्ठा किए खजाने का थोड़ा सा मुंह जनता पर ही एहसान थोपते हुए खोल देते थे, ताकि वह ओवरफ्लो न हो.

फिर शुरू हुईं मुद्दे की बातें, मसलन मुझे मां गंगा ने गोद ले लिया है, अब मैं यहीं का हो गया हूं. यहीं का दिखने की जरूरी शर्तें पूरी करने के लिए उन्होंने गंगा आरती भी की, फिर दशाश्वमेघ घाट भी गए और विश्वनाथ मंदिर भी गए. वहां उन्होंने न मालूम वजहों के चलते इस बार षोडशोपचार पूजा की, जो सनातन धर्म का एक कठिन पूजन है. इस में 16 चरणों में पूजन संपन्न होता है. इस तरह भगवान और काशी के लोगों का धन्यवाद उन्होंने एकसाथ कर दिया.

काशीवासियों को भी यह यकीन हो गया कि ये वही मोदीजी हैं, जो सारी समस्याओं का हल भगवान पर डाल कर चलते बनते हैं. डेढ़ लाख से जिताओ या 10 लाख से, इन्हें इस से कोई सबक नहीं मिलता. 370 दे दो या 241 सीटें दे दो, ये देश और जनता की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेने की भूल नहीं करते. हां, राज करने के लिए जरूर सैक्युलरों का एहसान ले लेते हैं, जिस से कम्युनलों का भरोसा कायम रहे.

140 करोड़ लोगों को यह मैसेज दे कर कि अब तुम्हारा भगवान ही मालिक है, वापस दिल्ली उड़ गए. धर्म की असल खूबी यही है कि यह जिम्मेदारियों से बच निकलने के लिए तंग और संकरी गलियां ही नहीं, बल्कि लंबेचौड़े हाईवे मुहैया करा देता है. उन के जाने के बाद जब धरमकरम की धूल छंटी तो लोगों को सम?ा आया कि मोदीजी इसी दफा उन के हुए हैं, 10 साल से गैर थे. इस के पहले काशी के लोग महान नहीं थे और न ही लोकतंत्र इतना मजबूत था जितना कि 4 जून को हुआ.

यही बात जो वाकई बड़ा सच है, उन्होंने इटली में विदेशी शासकों को भी बताई थी, बल्कि गए शायद यही बताने के लिए थे कि इस बार भारतीय लोकतंत्र मजबूत हुआ है. बात सच इस लिहाज से है कि 234 सीटों के जरीए जनता ने विपक्ष को मजबूती दे दी है, जो किसी भी लोकतंत्र को मजबूत बनाती है.

अब क्या होगा, इस का किसी को अंदाजा नहीं, क्योंकि सरकार एक बेमेल गठबंधन की है. इस के सहयोगी मां गंगा की गोद और पूजापाठ में भरोसा नहीं करते. लिहाजा, धरमकरम एक हद तक ही वे बरदाश्त कर पाएंगे. लगता नहीं कि वे देश और जनता को भगवान भरोसे छोड़ने के रिस्क पर राजी होंगे, लेकिन मोदीजी ने अपनी तरफ से वतन ऊपर वाले के हवाले कर दिया है.

बच्चों के मिड डे मील में नमक-रोटी

जी हां, मिर्जापुर के सरकारी स्कूलों का इस वक्त यही हाल है. शायद ये कोई अचरज की बात नहीं होगी, क्योंकि सरकारी स्कूल के शिक्षक शायद ऐसे ही गरीब बच्चों का पेट काटकर अपने बच्चों को अंग्रेजी मीडियम स्कूल में पढ़ाते हैं. बच्चों को मीड डे मील में मिलती है नमक-रोटी. इस खबर ने सरकारी स्कूलों की पोल खोल दी हैं.

एक प्रिंट के पत्रकार को जब ये पता चला कि मिर्जापुर के एक सरकारी स्कूल में बच्चों को नमक-रोटी दी जाती है तब उसने तुरन्त इस बात की सच्चाई को पता लगाने के लिए उस स्कूल का जायजा लिया और आखिरकार वही हुआ बच्चे नमक-रोटी खा रहे थें. मीरजापुर के जमालपुर प्रखंड का शिऊर प्राइमरी स्कूल दो तरफ से पहाड़ियों से घिरा है. अहरौरा से स्कूल की दूरी करीब चार किमी है.स्कूल तक पहुंचने का रास्ता बहुत ही दिक्कतों भरा है. जरा सोचिए कि जिस स्कूल का रास्ता इतना दुर्गम है उस स्कूल में कुछ गरीब बच्चे सिर्फ इसलिए आते हैं कि पढ़ाई के साथ-साथ उन्हें खाना भी मिल जाएगा लेकिन खाने का पैसा तो यहां शिक्षक हजम कर जाते हैं.

यहां कि पड़ताल के बाद पता चला कि यहां दो रसोइयां हैं रुक्मणी देवी और ममता. दोनों से बात करने पर पता चला कि स्कूल का ताला खोलने से लेकर बच्चों का खाना खिलाने तक का जिम्मा इन्हीं का है. उन्होंने बताया कि बच्चों को नमक-रोटी खिलाने की कहानी आज की नहीं बल्कि कई दिनों की है. उन्हें सामान ही नहीं मिलता कि वो बच्चों को अच्छा खाना खिला सकें और सिर्फ नमक-रोटी ही नहीं. कई बार तो बच्चों को चावल नमक भी दिया गया है जबकि सरकार ने इन सरकारी स्कूलों को मिड डे मील में खाना खिलाने की पूरी व्यवस्था की है. एक चार्ट बनाया है कि बच्चों को कब क्या देना है. लेकिन इस स्कूल के हालात तो कुछ और ही बयां कर रहे हैं.

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वहां पर बच्चों को एक दिन दूध भी दिया जाता है, लेकिन 95 बच्चों में मात्र 2 किग्रा ही दूध आता है और बच्चों को ऐसे दिया जाता है जैसे ऊंट के मुंह में जीरा दिया जा रहा हो. इतना ही नहीं अगर पढ़ाई की बात करें तो कुछ शिक्षिका ऐसी हैं जो सिर्फ वेतन लेने के लिए ही स्कूल में जाती हैं और बच्चों को पढ़ाई के नाम पर कुछ भी नहीं पढ़ाती. इस बात को लेकर पहले भी काफी बवाल हुआ है लेकिन स्थिति ज्यों कि त्यों बनी हुई है और आज भी सिर्फ वेतन लेने ही आती हैं मोहतरमा. वहां पर पढ़ाई के मामले में शायद ही किसी बच्चे को कुछ आता हो.

अब बात यही निकलकर सामने आती है कि बच्चों के भविष्य का क्या? इन स्कूलों को सरकार, बच्चों की पढ़ाई और खाने के लिए पैसा देती है लेकिन वो पैसा शायद स्कूल तक पहुंचता ही नहीं या फिर तो नेता या फिर तो शिक्षक उन पैसों को हजम कर जाते हैं. कुल मिलाकर निष्कर्ष यही सामने आता है कि बच्चों का भविष्य खतरे में है और खाने का जो हाल है वो तो बहुत ही बुरा है. सरकार को जल्द ही इस पर कोई एक्शन लेना होगा नहीं तो आने वाले दिनों में सरकारी स्कूलों के हाल और भी बद्तर हो जाएंगे.

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यूपी में दो बहनों ने आपस में रचाई शादी

हमारे समाज में एलजीबीटी समुदाय के लोगों को हमेशा एक अलग ही नजरिये से देखा जाता है. जैसे की वह इस समाज का हिस्सा ही नहीं हों. अधिकार की लड़ाई लड़ते लड़ते आज इनके लिए कानून तो बन गया है लेकिन कई अधिकारों से यह अभी भी वंचित है. हमारे समाज में समलैंगिक रिश्तों का मजाक बनाया जाता क्योंकि वह समाज के विरुद्ध है अलग है. इसलिए ऐसे रिश्ते समाज के सामने नहीं आते. लेकिन आपको यह जान कर हैरानी होगी वाराणसी में दो मौसेरी बहनों ने हिम्मतभरा फैसला लेते हुए अपने परिवार की मर्जी के खिलाफ एक-दूसरे के साथ शादी के बंधन में बंध गई.

शादी के लिए दोनों मंदिर पहुंचीं जहां पुजारी ने दोनों के शादी के लिए साफ मना कर दिया. लेकिन दोनों पंडित के मानने तक वहीं मंदिर में बैठ गई. दबाव के कारण पंडित को हां कहना पड़ा.

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मंदिर में रचाई शादी
मंदिर के पुजारी ने दोनों की रस्में पूरी करवाई. दोनों ने एक दूसरे को माला पहना कर जयमाला की रस्म पूरी की. इसके बाद दोनों ने एक दूसरे को मंगलसूत्र पहनाया और फिर एक दूसरे की मांग में सिंदूर लगाकर दोनों शादी के बंधन में बंध गए. शादी के बाद दोनों वहां से चले गए. लेकिन मंदिर के बाहर भीड़ लग गई. जिसके बाद वहां के लोगों ने पुजारी को सुनाना शुरू कर दिया.

कैसे बना इनके बीच संबंध
मंदिर के पुजारी ने मीडिया को बताया कि इन दोनों युवतियों में से एक कानपुर की तो दूसरी वाराणसी की रहने वाली है. कानपुर वाली युवती अपनी मौसी के यहां रहकर पढ़ाई करती थी. इसी दौरान उसका और उसकी मौसेरी बहन के बीच प्रेम संबंध बन गया और दोनों ने शादी करने का फैसला कर लिया.

सोशल मीडिया पर वायरल हुई तस्वीरें
दोनों ने जब अपनी शादी की फोटो सोशल मीडिया पर पोस्ट की तो इनकी फोटो सोशल मीडिया पर वायरल हो गई. फोटो में दोनों ने जीन्स टौप गले में फूलों की माला और सिर पर लाल चुनरी डाले हुए हैं. वाराणसी में यह पहला समलैंगिक विवाह है जिसकी तस्वीरें सोशल मीडिया पर तेजी से वायरल हो रही हैं. इस विवाह को देख कर लोग तरह तरह की बातें कर रहे हैं.

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किसी का कहना है ऐसी लड़कियां समाज में रहने लायक नहीं है. तो कोई इसे समाज के नियमों को तोड़ने कि बात कर रहा हैं. कई लोगों ने इसे बौलीवुड से भी जोड़ा है उनका कहना है बौलीवुड में ऐसी फिल्में बनाई जाती है जिस कारण बच्चें गलत दिशा कि तरफ बढ़ रहे हैं. यह आने वाली पीढ़ियों के लिए सही नहीं है. दूसरी तरफ दोनों बहनों कि यह अनोखी शादी सोशल मीडिया पर चर्चा का विषय बनी हुई हैं.

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