किन्नर: समाज के सताए तबके का दर्द

 देवेंद्रराज सुथार

पिछले दिनों कोलकाता पुलिस में इंस्पैक्टर की भरती के इम्तिहान का इश्तिहार निकला, तो पल्लवी ने भी इस इम्तिहान में बैठने का मन बना लिया. जब उस ने आवेदनपत्र डाउनलोड किया, तो उस में जैंडर के केवल 2 ही कौलम थे, एक पुरुष और दूसरा महिला.

पल्लवी को मजबूरन हाईकोर्ट की शरण में जाना पड़ा. अपने वकील के जरीए उस ने हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की और साल 2014 के ट्रांसजैंडर ऐक्ट और सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए अपनी दलील रखी.

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हाईकोर्ट ने राज्य सरकार के एडवोकेट से इस मामले पर राय पेश करने को कहा. अगली तारीख पर राज्य सरकार के एडवोकेट ने हाईकोर्ट को बताया कि सरकार आवेदन के ड्राफ्ट में पुरुष और महिला के साथसाथ ट्रांसजैंडर कौलम रखने के लिए रजामंद हो गई है.

अब पल्लवी पुलिस अफसर बने या न बने, उस ने भारत के ट्रांसजैंडरों के लिए एक खिड़की तो खोल ही दी है.

ऐसे ही पुलिस में भरती होने वाली देश की पहली ट्रांसजैंडर और तमिलनाडु पुलिस का हिस्सा पृथिका यशनी की एप्लीकेशन रिक्रूटमैंट बोर्ड ने खारिज कर दी थी, क्योंकि फार्म में उस के जैंडर का औप्शन नहीं था. ट्रांसजैंडरों के लिए लिखित, फिजिकल इम्तिहान या इंटरव्यू के लिए कोई कटऔफ का औप्शन भी नहीं था.

इन सब परेशानियों के बावजूद पृथिका यशनी ने हार नहीं मानी और कोर्ट में याचिका दायर की. उस के केस में कटऔफ को 28.5 से 25 किया गया. पृथिका हर टैस्ट में पास हो गई थी, बस 100 मीटर की दौड़ में वह एक सैकंड से पीछे रह गई. मगर उस के हौसले को देखते हुए उस की भरती कर ली गई.

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मद्रास हाईकोर्ट ने साल 2015 में तमिलनाडु यूनिफार्म्ड सर्विसेज रिक्रूटमैंट बोर्ड को ट्रांसजैंडर समुदाय के सदस्यों को भी मौका देने के निर्देश दिए. इस फैसले के बाद से फार्म के जैंडर में 3 कौलम जोड़े गए.

तमिलनाडु में ही क्यों, राजस्थान में भी यही हुआ था. जालौर जिले के रानीवाड़ा इलाके की गंगा कुमारी ने साल 2013 में पुलिस भरती का इम्तिहान पास किया था. हालांकि, मैडिकल जांच के बाद उन की अपौइंटमैंट को किन्नर होने के चलते रोक दिया गया था. गंगा कुमारी हाईकोर्ट चली गई और 2 साल की जद्दोजेहद के बाद उसे कामयाबी मिली.

ये फैसले बताते हैं कि जरूरत इस बात की है कि समाज के हर शख्स का नजरिया बदले, नहीं तो कुरसी पर बैठा अफसर अपने नजरिए से ही समुदाय को देखेगा.

साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, हमारे देश में तकरीबन 5 लाख ट्रांसजैंडर हैं. अकसर इस समुदाय के लोगों को समाज में भेदभाव, फटकार और बेइज्जती का सामना करना पड़ता है. ऐसे ज्यादातर लोग भिखारी या सैक्स वर्कर के रूप में अपनी जिंदगी गुजारने को मजबूर हैं.

15 अप्रैल, 2014 को सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने थर्ड जैंडर को संवैधानिक अधिकार दिए और सरकार को इन अधिकारों को लागू करने का निर्देश दिया. उस के बाद 5 दिसंबर, 2019 को राष्ट्रपति से मंजूरी मिलने के बाद थर्ड जैंडर के अधिकारों को कानूनी मंजूरी मिल गई.

हर तरह के जैंडर पर सभी देशों में चर्चा होती है, उन्हें समान अधिकार और आजादी दिए जाने की वकालत होती है, बावजूद इस के जैंडर के आधार पर सभी को बराबर अधिकार और आजादी अभी भी नहीं मिल पाई है.

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साल 2011 की जनगणना बताती है कि महज 38 फीसदी किन्नरों के पास नौकरियां हैं, जबकि सामान्य आबादी का फीसद 46 है. साल 2011 की जनगणना यह भी बताती है कि केवल 46 फीसदी किन्नर पढ़ेलिखे हैं, जबकि समूचे भारत की पढ़ाईलिखाई की दर 76 फीसदी है.

किन्नर समाज जोरजुल्म का शिकार है. इसे नौकरी और तालीम पाने का अधिकार बहुत कम मिलता है. ऐसे लोगों को अपनी सेहत की सही देखभाल करने में भी दिक्कत आती है.

दक्षिण भारत के 4 राज्यों तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के आंकड़े बताते हैं कि कुल एचआईवी संक्रमण में से 53 फीसदी किन्नर समुदाय का हिस्सा है.

किन्नर समुदाय भेदभाव के चलते ही अपनी भावनाओं को छिपाता है, क्योंकि वे लोग इस बात से डरे होते हैं कि कहीं वे अपने परिवारों द्वारा घर से निकाल न दिए जाएं.

किन्नरों के परिवारों में कम से कम एक शख्स ऐसा जरूर होता है, जो यह नहीं चाहता कि ट्रांसजैंडर होने के चलते समाज किसी से भी बात करे. किसी के किन्नर होने की जानकारी होने पर

समाज के लोग उस शख्स से दूरी बनाने लगते हैं.

विकास के इस दौर में किन्नर समाज आज भी हाशिए पर खड़ा है. किन्नर समुदाय के विकास की अनदेखी एक गंभीर मुद्दा है. सभी समुदायों के अधिकारों के बारे में चर्चा की जाती है, लेकिन किन्नर समुदाय के बारे में चर्चा तक नहीं होती. हर किन्नर पल्लवी जितने मजबूत मन का भी नहीं होता कि लड़ कर अपना हक ले ले.

सवाल यह है कि आखिर वह समय कब आएगा, जब समाज के सामान्य सदस्यों की तरह इन्हें भी आसानी से इन का हक मुहैया रहेगा? कानून के बावजूद भी उन की समान भागीदारी से बहुतकुछ बदल पाने की उम्मीद तब तक बेमानी है, जब तक कि सामाजिक लैवल पर नजरिया बदलता नहीं. जब तक सामाजिक ढांचे में उन की अनदेखी की जाती रहेगी, तब तक कानूनी अधिकार खोखले ही रहेंगे.

अब यह जरूरी है कि समान अधिकारों के साथसाथ समाज में भी समान नजरिया हो, तभी बदलाव आएगा. कानून एक खास पहलू है, लेकिन समाज के नजरिए को बदलना भी कम खास नहीं है, इसलिए इस जद्दोजेहद का खात्मा कानून के पास होने से नहीं होता, बल्कि यहीं से सामाजिक रजामंदी के लिए एक नई जद्दोजेहद शुरू होती है.

किन्नर ट्रेनों, बसों या सड़क पर लोगों के सिर पर हाथ फेरते हुए दुआ देते हैं और पैसे मांगते हैं. बद्दुआ का डर कुछ लोगों को पैसे देने के लिए मजबूर करता है, लेकिन यह उन की समस्या का हल नहीं है.

किन्नर के रूप में पैदा होने में उन का कोई कुसूर नहीं है. इन की जिंदगी बदलना भी हमारे हाथ में नहीं है, लेकिन हम अपनी सोच तो कम से कम बदल ही सकते हैं.

हमारी सोच बदलेगी, तो किन्नर भी मुख्यधारा से जुड़ सकते हैं और बेहतर जिंदगी जी सकते हैं. आईपीएस, आईएएस अफसर ही नहीं, बल्कि सेना में शामिल हो कर देश की हिफाजत के लिए अपनी जान भी लड़ा सकते हैं.

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सिर्फ बदन चाहिए प्यार नहीं

मैं एक ट्रांसजैंडर सैक्स वर्कर हूं. यह मेरी अपनी खुद की कहानी है. 12 जून, 1992 को आजमगढ़, उत्तर प्रदेश के एक मिडिल क्लास परिवार में मेरा जन्म हुआ. हमारा बड़ा सा परिवार था. प्यार करने वाली मां और रोब दिखाने वाले पिता. चाचा, ताऊ, बूआ और ढेर सारे भाईबहन.

मैं पैदा हुआ तो सब ने यही समझा कि घर में लड़का पैदा हुआ है. मुझे लड़कों की तरह पाला गया, लड़कों जैसे बाल कटवाए, लड़कों जैसे कपड़े पहनाए, बहनों ने भाई मान कर ही राखियां बांधीं और मां ने बेटा समझ कर हमेशा बेटियों से ज्यादा प्यार दिया.

हमारे घरों में ऐसा ही होता है. बेटा आंखों का तारा होता है और बेटी आंख की किरकिरी.

सबकुछ ठीक ही चल रहा था कि अचानक एक दिन ऐसा हुआ कि कुछ भी ठीक नहीं रहा. मैं जैसेजैसे बड़ा हो रहा था, वैसेवैसे मेरे भीतर एक दूसरी दुनिया जन्म ले रही थी.

घर में ढेर सारी बहनें थीं. बहनें सजतींसंवरतीं, लड़कियों वाले काम करतीं तो मैं भी उन की नकल करता. चुपके से बहन की लिपस्टिक लगाता, उस का दुपट्टा ओढ़ कर नाचता.

मेरा मन करता कि मैं भी उन की ही तरह सजूं, उन की ही तरह दिखूं, उन की तरह रहूं. लेकिन हर बार एक मजबूत थप्पड़ मेरी ओर बढ़ता.

छोटा था तो बचपना समझ कर माफ कर दिया जाता. थोड़ा बड़ा हुआ तो कभी थप्पड़ पड़ जाता तो कभी बहनें मार खाने से बचा लेतीं. बहनें सब के सामने बचातीं और अकेले में समझातीं कि मैं लड़का हूं. मुझे लड़कों के बीच रहना चाहिए, घर से बाहर जा कर उन के साथ खेलना चाहिए.

लेकिन मुझे तो बहनों के बीच रहना अच्छा लगता था. बाहर मैदान में जहां सारे लड़के खेलते थे, वहां जाने में मुझे बहुत डर लगता. पता नहीं, क्यों वे भी मुझे अजीब नजरों से देखते और तंग करते थे. उन की अजीब नजरें वक्त के साथसाथ और भी डरावनी होती गईं.

मैं स्कूल में ही था, जब वह घटना घटी. दिसंबर की शाम थी. अंधेरा घिर रहा था. तभी उस दिन स्कूल के पास एक खाली मैदान में कुछ लड़कों ने मुझे घेर लिया. उन्हें लगता था कि मैं लड़की हूं. वे जबरदस्ती मुझे पकड़ रहे थे और मैं रो रहा था.

मैं खुद को छुड़ाने की हर मुमकिन कोशिश कर रहा था. उन्होंने जबरदस्ती मेरे कपड़े उतारे और यह देख कर छोड़ दिया कि मेरे शरीर का निचला हिस्सा तो लड़कों जैसा ही था.

इस हाथापाई में मेरे पेट में एक सरिया लग गया. मेरी पैंट खुली थी और पेट से खून बह रहा था. वे लड़के मुझे उसी हालत में अंधेरे में छोड़ कर भाग गए.

मैं पता नहीं, कितनी देर तक वहां पड़ा रहा. फिर किसी तरह हिम्मत जुटा कर घर आया. मैं ने किसी को कुछ नहीं बताया. चोट के लिए कुछ बहाना बना दिया. घर वाले मुझे अस्पताल ले गए. मैं ठीक हो कर घर आ गया.

दुनिया से अलग मेरे भीतर जो दुनिया बन रही थी, वह वक्त के साथ और गहरी होती चली गई. मेरी दुनिया में मैं अकेला था. सब से अपना सच छिपाता, कई बार तो अपनेआप से भी. मैं अंदर से डरा हुआ था और बाहर से जिद्दी होता जा रहा था.

घर में सब मुझे प्यार करते थे, मां और बहन सब से ज्यादा. लेकिन जब बड़ा हो रहा था तो लगा कि उन का प्यार काफी नहीं है. स्कूल में एक लड़का था सनी. वह मेरा पहला बौयफ्रैंड था, मेरा पहला प्यार.

लेकिन बचपन का प्यार बचपन के साथ ही गुम हो गया. जैसेजैसे हम बड़े होते हैं, दुनिया देखते हैं, हमें लगता है कि हम इस से ज्यादा के हकदार हैं, इस से ज्यादा पैसे के, इस से ज्यादा खुशी के, इस से ज्यादा प्यार के. जब साइकिल थी तो मैं उस में ही खुश था. स्कूटी आई तो लगा कि स्कूटी की खुशी इस के आगे कुछ नहीं. साइकिल से मैं कुछ ही किलोमीटर जाता था और स्कूटी से दसियों किलोमीटर. लगा कि आगे भी रास्ते में और प्यार मिलेगा और खुशी.

मैं दौड़ता चला गया. लेकिन जब आंख खुली तो देखा कि रास्ता तो बहुत तय कर लिया था, पर न तो प्यार मिला, न खुशी. मेरे 9 बौयफ्रैंड रहे. हर बार मुझे लगता था कि यह प्यार ही मेरी मंजिल है, लेकिन हर बार मंजिल साथ छोड़ देती. सब ने मेरा इस्तेमाल किया, शरीर से, पैसों से, मन से. लेकिन हाथ किसी ने नहीं थामा.

सब को मुझ से सिर्फ सैक्स चाहिए था. सब ने शरीर को छुआ, मन को नहीं. सब ने कमर में हाथ डाला, सिर पर किसी ने नहीं रखा.

फिर एक दिन मैं ने फैसला किया कि अगर यही करना है तो पैसे ले कर ही क्यों न किया जाए.

मैं बाकी लड़कों की तरह पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़ा होना चाहता था, अपना कैरियर बनाना चाहता था. मैं ने कानपुर यूनिवर्सिटी से एमकौम किया और सीए का इम्तिहान भी दिया.

अब तक जिंदगी उस मुकाम पर पहुंच चुकी थी कि मैं घर वालों और आसपास के लोगों के लिए शर्मिंदगी का सबब बन गया था. मैं समाज में, कालेज में मिसफिट था.

मैं लड़का था, लेकिन लड़कियों जैसा दिखता था. मर्द था, लेकिन औरत जैसा महसूस करता था. मेरा दिल औरत का था, लेकिन उस में बहुत सारी कड़वाहट भर गई थी.

प्यार की तलाश मुझे जिंदगी के सब से अंधेरे कोनों में ले गई. बदले में मिली कड़वाहट और गुस्सा.

अपनी पहचान छिपाने के लिए मैं दिल्ली आ गया. नौकरी ढूंढ़ने की कोशिश की, लेकिन मिली नहीं. शायद उस के लिए भी डिगरी से ज्यादा यह पहचान जरूरी थी कि तुम औरत हो या मर्द. मुझे यह खुद भी नहीं पता कि मैं क्या था.

यहां मैं कुछ ऐसे लोगों से मिला, जो मेरे जैसे थे. उन्हें भी नहीं पता था कि वे औरत हैं या मर्द. अजनबी शहर में रास्ता भूल गए मुसाफिर को मानो एक नया घर मिल गया.

कोई तो मिला, जिसे पता है कि मेरे जैसा होने का मतलब क्या होता है. कोई तो मिला, जो सैक्स नहीं करना चाहता था, लेकिन उस ने सिर पर हाथ रखा. थोड़ी करुणा मिली तो मन की सारी कड़वाहट आंखों के रास्ते बह निकली.

इन नए दोस्तों ने मुझे खुद को स्वीकार करना सिखाया, शर्म से नहीं सिर उठा कर. मैं ने उन के साथ एनजीओ में काम किया, अपने जैसे लोगों की काउंसिलिंग की, उन के मांबाप की काउंसिलिंग की.

सबकुछ ठीक होने लगा था. लेकिन दिल के किसी कोने में अब भी कोई कांटा चुभा था. प्यार की तलाश अब भी जारी थी. कुछ था, जिसे सिर्फ दोस्त नहीं भर सकते थे.

प्यार किया, फिर धोखा खाया. जिस को भी चाहा, वह रात के अंधेरे में प्यार करता और दिन की रोशनी में पहचानने से इनकार कर देता. और फिर मैं ने तय किया कि यह काम अब मैं पैसों के लिए करूंगा. शरीर लो और पैसे दो.

मुझे आज भी याद है मेरा पहला काम. एक सैक्स साइट पर तन्मय राजपूत के नाम से मेरा प्रोफाइल बना था. उसी के जरीए मुझे पहला काम मिला. नोएडा सैक्टर 11 में मैट्रो अस्पताल के ठीक सामने वाली गली में मैं एक आदमी के पास गया. वह आदमी मुझ से सिर्फ 4-5 साल बड़ा था.

मैं ने पहली बार पैसों के लिए सैक्स किया. उन की भाषा में इसे सैक्स नहीं, सर्विस कहते हैं. मैं ने उसे सर्विस दी, उस ने मुझे 1,500 रुपए. तब मेरी उम्र 22 साल थी.

उस दिन वे 1,500 रुपए हाथ में ले कर मैं सोच रहा था कि जेरी, तू ने जो रास्ता चुना है, उस में हो सकता है तुझे बदनामी मिले, लेकिन पैसा खूब मिलेगा. लेकिन हुआ यह कि बदनामी और गंदगी तो मिली, लेकिन पैसा नहीं.

इस रास्ते से कमाए गए पैसों का कोई हिसाब नहीं होता. यह जैसे आता है, वैसे ही चला जाता है. यह सिर उठा कर की गई कमाई नहीं होती, सिर छिपा कर अंधेरे में की गई कमाई होती है.

एक बार जो मैं उस रास्ते पर चल पड़ा तो पीछे लौटने के सारे रास्ते बंद हो गए. अब हर रात यही मेरी जिंदगी है. एक शादीशुदा आदमी की जिंदगी में कुछ दिनों या हफ्तों का अंतराल हो सकता है, लेकिन मेरी जिंदगी में नहीं. हर रात हमें तैयार रहना होता है. 15 ग्राहक हैं मेरे. कोई न कोई तो मुझे बुलाता ही है.

आप को लगता है कि सैक्स बहुत सुंदर चीज है, जैसे फिल्मों में दिखाते हैं. लेकिन मेरे लिए वह प्यार नहीं, सर्विस है. और सर्विस मेहनत और तकलीफ का काम है. हमारी लाइन में सैक्स ऐसे होता है कि जो पैसे दे रहा है, उस के लिए वह खुशी है और जो पैसे ले रहा है, उस के लिए तकलीफ.

ग्राहक जो डिमांड करे, हमें पूरी करनी होती है. जितना ज्यादा पैसा, उतनी ज्यादा तकलीफ. लोग वाइल्ड सैक्स करते हैं, डर्टी सैक्स करते हैं, मारते हैं, कट लगाते हैं. लोगों की अजीबअजीब फैंटैसी हैं. किसी को तकलीफ पहुंचा कर ही मजा मिलता है. किसी को तब तक मजा नहीं आता, जब तक सामने वाले के शरीर से खून न निकल जाए.

मैं यह सबकुछ बिना किसी नशे के पूरे होशोहवास में करता हूं. जो कर रहा हूं, उस से मेरे शरीर को काफी नुकसान हो रहा है. अगर नशा करूंगा, तो मैं अच्छी सर्विस नहीं दे पाऊंगा.

ग्राहक नशा करते हैं और मैडिकल स्टोर से सैक्स पावर बढ़ाने की दवा ले कर आते हैं और मैं पूरे होश में होता हूं. कई बार पूरीपूरी रात यह सब चलता है.

दिन के उजाले में शहर की सड़कों पर बड़ीबड़ी गाडि़यों में जो इज्जतदार चेहरे घूम रहे हैं, कोई नहीं जानता कि रात के अंधेरे में वही हमारे ग्राहक होते हैं. बड़ेबड़े अफसर, नेता, पुलिस वाले… मैं नाम गिनाने लग जाऊं तो आप की आंखें फटी की फटी रह जाएं.

क्या पता कि आप के हाईफाई दफ्तर में घूमने वाली कुरसी पर बैठा सूटबूट वाला आदती रात के अंधेरे में हमारा ग्राहक हो.

एक बार मैं कनाट प्लेस में एक औफिस में इंटरव्यू देने गया. वह एक वक्त था, जब मैं इस जिंदगी से बाहर आना चाहता था. वहां जो आदमी मेरा इंटरव्यू लेने के लिए बैठा था, वह मेरा क्लाइंट रह चुका था.

उस ने कहा, ‘‘इंटरव्यू छोड़ो, यह बताओ, फिर कब मिल रहे हो?’’

मैं कोई जवाब नहीं दे पाया. पता नहीं, मुझे क्यों इतनी शर्मिंदगी महसूस हुई थी. मैं उस का सामना नहीं कर पाया या अपना. मैं बिना इंटरव्यू दिए ही वापस लौट आया.

मेरी नजर में सैक्स शरीर की भूख है. प्यार कुछ नहीं होता. जहां प्यार हो, सैक्स जरूरी नहीं. दुनिया में जो प्यार का खेल चलता है, उस का सच कभी हमारी दुनिया में आ कर देखिए. अच्छेखासे शादीशुदा इज्जतदार लोग आते हैं हमारे पास अपनी भूख मिटाने.

एक बार एक आदमी मेरे पास आया और बोला, ‘‘मेरी बीवी पेट से है. मुझे रिलीज होना है.’’

मैं ने उस आदमी के साथ ओरल सैक्स किया था. यह सब क्या है? एक औरत जो तुम्हारी पत्नी है, उस के पेट में तुम्हारा ही बच्चा पल रहा है, वह तुम्हें सैक्स नहीं दे सकती तो तुम सैक्स वर्कर के पास जाओगे?

ज्यादातर मर्दों के लिए औरत के सिर्फ 2 ही काम हैं कि वह उन के साथ सोए और उन के मां बाप की सेवा करे. 90 फीसदी मर्दों की यही हकीकत है. ज्यादातर लोग अपनी बीवी से प्यार नहीं करते हैं.

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