क्या मनुष्य पापात्मा है?

एक धार्मिक आयोजन हो रहा था. पूजा समाप्त होने के बाद पंडित ने यजमान से हाथ जोड़ कर ईश्वर से प्रार्थना करने को कहा, जिस श्लोक की पहली पंक्ति थी :

पापोऽहं पापकर्माहं, पापात्मा पापसंभव:.

(अर्थात मैं पापी हूं, पापकर्मा हूं यानी पाप करने वाला हूं, पापी आत्मा हूं और पाप से मेरा जन्म हुआ है.)

उक्त मंत्र के उच्चारण के बाद ईश्वर से अपनी रक्षा के लिए प्रार्थना की जाती है. क्यों? पंडित यजमान को पापी कह कर गाली क्यों देते हैं? आखिर उस ने ऐसा कौन सा अक्षम्य पाप कर दिया है जिस के लिए उसे पापी की संज्ञा दी जा रही है. यजमान अति सज्जन एवं सफल व्यक्ति हैं, फिर ऐसा सार्वजनिक लांछन क्यों? जैसे ही पंडित पूजा को संपन्न करा कर खाली हुए उन से पूछा गया, ‘‘पंडितजी, आप ने यजमान को यह पापी वाला मंत्र क्यों पढ़वाया, क्या वह पापी है?’’

हंसते हुए पंडित ने कहा, ‘‘यह श्लोक हर पूजा में पढ़ा जाता है, चाहे किसी ने पाप किया हो या न किया हो.’’ जब उन से पूछा गया कि यह श्लोक किस वेद या पुराण से लिया गया है तो वह बगलें झांकने लगा. मानो वेदों, पुराणों में लिखी बातें सत्य और तार्किक हों पर धर्म के अंधभक्त तो उन पर विश्वास करते हैं.

फिर यह बात कहां से निकली, किस ने कहा और किस संदर्भ में कहा  है? क्या भक्त खुद को पापी कह कर अपने को अपनी ही नजरों में नीचे नहीं गिराते हैं? बिना कोई पाप किए कोई पापी कैसे हो गया? किसी के पैर के नीचे गलती से कोई कीड़ा दब गया तो क्या वह हत्यारा हो गया? ऐसा मानना समाज की सोच को गंदा करेगा. इस सोच से हिंदू समाज को बचाना होगा. इसी के कारण यह एक दीनहीन, कमजोर सोच का समाज है. यह सोच ही तर्क बुद्धि के विपरीत है.

हमारे यहां ज्यादातर विवाह शास्त्रों के विधिविधान से (सप्तपदी द्वारा) संपन्न होते हैं. पूजापाठ करने वाले ज्यादातर लोग वैध संतान होते हैं. शास्त्रोक्त विवाह वैदिक संस्कार होता है, उस में मंत्रों द्वारा देवताओं का आह्वान होता है. इंद्र, विष्णु, रुद्र, अग्नि, प्रजापति, अश्विन, सूर्य आदि सारे कार्य के साक्षी होते हैं.

विवाह के बाद स्त्रीपुरुष के योग से जिस प्रकार संतान की उत्पत्ति होती है वह देवों और ऋषियों के लिए अज्ञात विषय नहीं हो सकता. फिर ऐसा क्यों माना जाए कि देवता पापकर्मों का विधान करते हैं और वे पापकर्म में पापी बनते हैं? शास्त्र के अनुकूल विवाह दांपत्य से जिस संतान ने जन्म लिया है वह पाप से उत्पन्न संतान (पापसंभव:) कैसे हो सकती है? फिर लोग अपने मुख से खुद को इस मंत्र द्वारा पाप की संतान क्यों कहें? यह तो अपने मातापिता के विवाह को कलंकित करने वाली या गाली देने वाली बात हुई या नहीं, एक ओर तो कहें कि हम मनुपुत्र हैं, दूसरी ओर हमें पाप से उत्पन्न बताया जा रहा है, क्यों? पंडित को यह बात हमें समझानी होगी.

कथा है कि एक सिंह शावक अपनी माता से बिछड़ गया तो उसे सियारों के एक झुंड ने पाल लिया. बड़ा हो कर वह सिंह शावक सियारों जैसी हरकतें करने लगा. दुम दबा कर रहना सीख गया, खीसें निकालने लगा. तभी संयोग से इस सियार के झुंड को सिंह मिल गया, जो इन्हें देख कर जोर से गरजा. उस सिंह ने सियारों के साथ सिंह शावक को भागते हुए देख कर उसे रोका और कहा कि तुम सियार नहीं सिंह हो, सिंह शावकों की तरह रहा करो. फिर क्या था, वह सिंह शावक अपना स्वरूप धीरेधीरे पहचान गया और सिंह गर्जना करने लगा.

सार यह है कि यदि सिंह शावक को भी बारबार सियार कहा जाए तो वह सियार समान हो जाएगा. इसी प्रकार पुण्यात्मा भी बारबार कहने लगे कि वह पापी है तो वह पापी समान हो जाएगा, जिन लोगों को उन के धर्मगुरु 24 घंटे यह पढ़ाते हों कि तुम दीन हो, दुर्बल हो, पातकी हो, निकम्मे हो उन से कैसे यह आशा की जा सकती है कि वे देश या स्वाभिमान की रक्षा में समर्थ होंगे?

उस गुरु को क्या कहा जाए जो रातदिन अपने शिष्य को यह कह कर दुत्कारता रहे कि तुम मंदबुद्धि हो, कभी परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हो सकते, तो क्या वह विद्यार्थी परीक्षा में उत्तीर्ण हो पाएगा? क्या कहें उस डाक्टर या वैद्य को जो अपने मरीज को मरने का भय दिखा कर उस की जीने की इच्छा को तोड़ दे. क्या कहें ऐसे पंडितों व गुरुओं को जो जनता को अकारण पापी, पाप की संतान बताते हैं.

ध्यान रहे, यह श्लोक ज्यादातर पूजा में प्रयोग में लाया जाता है. पंडित, विद्वान समझते हैं कि इस के द्वारा अपनी विनम्रता प्रकट करते हैं. विनम्रता अच्छी बात है पर पापी होने का उद्घोष अलग बात है. इस का मनोवैज्ञानिक प्रभाव घातक होता है क्योंकि वह हमारे अवचेतन में बैठ जाता है. पर हमारे यहां अनेक प्रकार से व्यक्ति को पातकी कहा जा रहा है. देखिए, ‘मैं प्रसिद्ध पातकी, तू पाप पुंज हारी मैं मूरख खल कामी, पाप हरो देवा.’

यह आरती बड़ी प्रचलित है. भक्त जोरजोर से गाता है कि मैं मूर्ख ही नहीं बदमाश (खल) तथा कामी (सेक्सी) हूं. इस से क्या होने वाला है?

बचपन से हिंदू को सिर झुकाने का अभ्यास कराया जाता है. उस को पता नहीं है कि उस से वंदना पाने के अधिकारी कितने हैं. हर डीह, हर पेड़ में एक देव या देवी का अड्डा हो सकता है. जहां अवसर आया सिर झुका दो, जल डाल दो या कुछ नहीं तो मोटर या बाइक का हार्न तो बजा ही दो, काम चल जाएगा.

हिंदू मन बड़ा कमजोर हो गया है. वह हर जगह सिर झुका देता है चाहे कहीं कोई धार्मिक झंडा हो या कब्र या कोई  समाधि दिखाई दे. देशी, विदेशी, विधर्मी किसी के भी सामने हाथ जोड़ लेगा, वह हिंदू जो है. तत्कालीन समय के धर्मध्वजी विद्वानों ने विदेशी शासकों के प्रति ‘धर्मावतार’ शब्द का प्रयोग सगर्व किया था. अंगरेजों, मुसलमानों की गुलामी में इस सिर झुकाने की परंपरा का योगदान अवश्य रहा होगा.

हमारे पुरोहित, हमारे धर्मगुरु पथप्रदर्शक शक्ति बनने के स्थान पर अपने चरित्र को नीचा गिराते हैं. तथाकथित स्वर्ग के बजाय, नरक में ढकेलते हैं, अपने पैर छुआते हैं, दक्षिणा झटकते हैं. बावजूद इस के भक्तों को पापी बताते हैं. असल में यह अज्ञान में किया गया पाप है. यह अज्ञान और पाप बंद हो जाना चाहिए. खुद को पापी, पाप से उत्पन्न कहना बंद करें.

एक ओर हमें ‘अहं ब्रह्मास्मि’ बोलने को कहा जाता है वहीं दूसरी ओर पुरोहित हमें ‘पापात्मा’ घोषित करते हैं.

ऐसा ही विरोधाभास इंद्र के बारे में है कि वह महत्त्वपूर्ण देव है. बताया जाता है कि विष्णु, रुद्र, सूर्य सब ने मिल कर इंद्र को अपना राजा चुना. वह इन सब से पूज्य और बलवान है. शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है :

इंद्र सर्वा: देवता: इंद्रश्रेष्ठा: देवा:

एक ओर इंद्र श्रेष्ठ देवता है, दूसरी ओर इतना कमजोर है कि किसी ऋषि की तपस्या मात्र से उस का सिंहासन डोल उठता है. वह किसी की वृद्धि नहीं देख सकता है. इतना कामी है कि धोखा दे कर अहल्या का सतीत्व भंग करता है. इंद्र के चरित्र में विरोधाभास है. उसे साधारण मानवों की तरह ईर्ष्या द्वेष, काम से ग्रस्त बताया है. वास्तव में इंद्र कोई एक नहीं है. यह एक पद था, जिस पर बैठने वाला इंद्र कहलाया. जिस समाज के देवताओं का राजा इस प्रकार का पापी हो वहां आम गृहस्थ को पापी का दर्जा कैसे दिया जा सकता है? केवल पुराणों की पुनरावृत्ति पर्याप्त नहीं है, नई दृष्टि सामने लाना ही समाज के लिए कल्याणकारी होगा.

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