तलाकशुदा पत्नी से दोबारा शादी

शायद ही कभी किसी ने देखासुना हो कि तलाक के 4 साल और अलगाव व खटपट के 12 वर्षों बाद पतिपत्नी ने दोबारा शादी कर ली. मामला कुछ कुछ विचित्र किंतु सत्य है जिस के बारे में जान कर महसूस होने लगा है कि तलाक के बाद पति पत्नियों की हालत या मानसिकता पर कोई एजेंसी अगर सर्वे व काउंसलिंग करे तो पति पत्नी का दोबारा मिल कर उजड़ी गृहस्थी को संवार लेना एक संभव काम है.

तलाक व्यक्तिगत, कानूनी, सामाजिक, पारिवारिक हर लिहाज से एक तकलीफदेह प्रक्रिया है जिस की मानसिक यंत्रणा के बारे में शायद भुक्तभोगी भी ठीक से न बता पाएं. इस के बाद भी तलाक के मामले दिनोंदिन बढ़ रहे हैं. इस से यही उजागर होता है कि अकसर पति पत्नी या तो गलतफहमी का शिकार रहते हैं या फिर मारे गुस्से के अपना भलाबुरा नहीं सोच पाते. तलाक में नजदीकी लोगों की भूमिका कहीं ज्यादा अहम हो जाती है जो बजाय बात संभालने के, बिगाड़ते ज्यादा हैं.

यह ठीक है कि कुछ मामलों में तलाक अनिवार्य सा हो जाता है पर अधिकांश मामलों में यह जिद व अहं का नतीजा होता है जो खासतौर से पत्नी के हक में अच्छा नहीं होता. समाज के लिहाज से यह दौर बदलाव का है जिस में महिलाएं पहले सी दोयम दरजे की नहीं रह गई हैं. वे हर स्तर पर समर्थ, सक्षम और जागरूक हुई हैं लेकिन तलाक के बाद ये सभी बातें हवा हो जाती हैं जब उन्हें अपने अकेलेपन का एहसास होता है और वे एक स्थायी असुरक्षा में जीने को मजबूर हो जाती हैं.

मुमकिन है कभी कभी उन्हें लगता हो कि तलाक बेहद जरूरी भी नहीं था. इस से बच कर तलाक के बाद की दुश्वारियों से भी बचा जा सकता था लेकिन बात ‘अब पछताए होत का जब चिडि़या चुग गई खेत’ सरीखी हो जाती है. तलाक का कागज उन्हें नए माहौल और हालत में जीना सिखा देता है, इसलिए चाह कर भी वापस नहीं मुड़ा जा सकता क्योंकि तलाक के बाद पति दूसरी शादी कर नई पत्नी के साथ शान से गुजर कर रहा होता है. वहीं, अधिकांश पत्नियां, जो भारतीय संस्कारों से ग्रस्त ही कही जाएंगी, किसी दूसरे को सहज तरीके से पति मानने या स्वीकारने के लिए खुद को तैयार या सहमत नहीं कर पातीं और जब तक खुद को तैयार कर पाती हैं तब तक उम्र का सुनहरा हिस्सा उन के हाथों से फिसल चुका होता है.

शशिकांत संग वंदना

मध्य प्रदेश के भिंड जिले के इस दिलचस्प मामले को बतौर मिसाल लिया जाए तो तलाकशुदाओं के लिहाज से यह एक अच्छी पहल सिद्ध हो सकती है. वंदना और शशिकांत की शादी साल 2001 में हुई थी. ये दोनों साधारण खातेपीते कायस्थ परिवार के हैं और दोनों के ही पिता पुलिस विभाग में नौकरी करते हैं. शादी के बाद वंदना ससुराल आई तो उसे नया कुछ खास नहीं लगा क्योंकि उस का मायका भी भिंड में ही है. संयुक्त परिवार से संयुक्त परिवार में आने से उसे तालमेल बैठाने में कोई दिक्कत पेश नहीं आई.

शशिकांत प्राइवेट नौकरी करता था. उस की कोई खास आमदनी नहीं थी. संयुक्त परिवारों में खर्चे का पता नहीं चलता, न ही कोई कमी महसूस होती. देखते ही देखते एक साल गुजर गया और वंदना ने एक बच्ची को जन्म दिया जिस का नाम घर वालों ने प्रिया रखा.

शायद आपसी समझ का अभाव था या फिर संयुक्त परिवार की बंदिशें थीं कि दोनों एकदूसरे से असंतुष्ट रहने लगे और जल्द ही आरोपों प्रत्यारोपों का सिलसिला शुरू हो गया जिन में कोई खास दम नहीं था. यह बात वक्त रहते दोनों समझ नहीं पाए, लिहाजा रोज रोज की खटपट शुरू हो गई. पतिपत्नी के बीच का तनाव और विवाद उजागर हुए तो दोनों के घर वालों ने दखल देते समझाया पर बजाय समझने के दोनों भड़कने लगे और आखिरकार अपना फैसला भी सुना दिया कि अब हम साथ नहीं रह सकते. लिहाजा, हमारा तलाक करा दिया जाए.

दोनों ही परिवारों की भिंड में इज्जत है, इसलिए घर वाले कतराए, लेकिन तमाम समझाइशें बेकार साबित हो चुकी थीं. दोनों कुछ समझने को तैयार नहीं थे. एक दिन वंदना प्रिया को ले कर अपने मायके चली गई तो शशिकांत ने भी आपा खो दिया और तलाक का मुकदमा दायर कर दिया.

8 साल मुकदमा चला. तारीखें पड़ीं, पेशियां हुईं और आखिरकार 2012 में तलाक यानी कानूनन विवाह विच्छेद इस शर्त पर हुआ कि पत्नी व बेटी को गुजारे के एवज शशिकांत 2 हजार रुपए महीने देगा जो कि कुछ साल उस ने दिए भी.

2014 में शशिकांत ने अदालत में एक अर्जी दाखिल कर अपनी आर्थिक स्थिति का हवाला देते भरणपोषण राशि देने में असमर्थता जताई तो अदालत ने भरणपोषण का आदेश रद्द कर दिया. अब तक घर और समाज वालों की दिलचस्पी इन दोनों से खत्म हो गई थी. वंदना मायके में थी लेकिन सहज तरीके से नहीं रह पा रही थी. उधर, शशिकांत को भी लग रहा था कि जो कुछ भी हुआ वह ठीक नहीं हुआ.

शशिकांत और वंदना दोनों कशमकश की जिंदगी जी रहे थे. बेटी प्रिया का भी कोई भविष्य नहीं था और सब से ज्यादा तकलीफदेह बात दोनों का एकदूसरे को न भूल पाना थी. झूठा अहं, गुस्सा और ठसक दम तोड़ रहे थे. दोनों को ही बराबर से समझ आ रहा था कि वे जाने अनजाने  जिंदगी की सब से बड़ी गलती या बेवकूफी कर चुके हैं, पर अब कुछ हो नहीं सकता था, इसलिए कसमसा कर रह जाते थे.

जब सब्र टूटा

बीती 9 अक्तूबर को वंदना बेटी प्रिया को ले कर भिंड के एएसपी अमृत मीणा के दफ्तर पहुंची और बगैर किसी हिचक के उन से कहा कि अब उस के सामने खुदकुशी करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है. अमृत मीणा ने सब्र से उस की पूरी बात सुनी और तुरंत शशिकांत को तलब किया. थाने में ही उन्होंने दोनों को साथ बैठा कर चर्चा की. 14 साल की होने जा रही प्रिया का हवाला दिया और जमाने भर की ऊंच नीच समझाई तो वंदना और शशिकांत हद से ज्यादा जज्बाती हो उठे और फिर से साथ रहने को तैयार हो गए.

अमृत मीणा भी अपनी पहल और समझाइश का वाजिब असर देखते उत्साहित थे. लिहाजा, उन्होंने इन दोनों की हिचक दूर करते तुरंत दफ्तर में ही उन की दोबारा शादी का इंतजाम कर डाला. दोनों 14 साल का गुबार और भड़ास निकाल चुके थे, इसलिए दोनों शादी के लिए तैयार हो गए ताकि तलाक और अलगाव का एहसास खत्म हो जाए.

एएसपी के रीडर रविशंकर मिश्रा ने पंडित की भूमिका निभाई और मंत्र पढ़ते हुए दोनों की शादी करा दी. 14 साल बाद इन पतिपत्नी ने दोबारा एकदूसरे को जयमाला पहनाई और शशिकांत वंदना को घर ले कर आ गया. बाकायदा विदाई भी हुई, अमृत मीणा अपनी गाड़ी से दोनों को घर छोड़ कर आए. बहुत कम मौकों और मामलों पर पुलिस वालों का मानवीय पहलू देखने में आता है, जो इस मामले में दिखा. दोबारा विवाह का यह अनूठा मामला था. इस प्रतिनिधि ने बीती 25 नवंबर को वंदना और शशिकांत से बात की. दोनों खुश थे. वे बीती बातें नहीं करना चाहते थे जिन में उन्होंने बेहद तनाव झेला था. वंदना की चहक और शशिकांत की परिपक्वता बता रही थी कि वे इस नई जिंदगी से खुश हैं और चाहते हैं कि दूसरे तलाकशुदा पतिपत्नी भी गुस्सा और पूर्वाग्रह छोड़ कर शादी करें. अगर वे ऐसा करते हैं तो पहले जो खो चुके हैं उसे वे मय ब्याज के हासिल कर सकते हैं.

जल्दबाजी, गुस्सा, अहं, जिद और अपनों के ही भड़काने पर पतिपत्नी तलाक तो ले लेते हैं पर इन में से अधिकांश बाद में पछताते हैं. वजह, दूसरी शादी आसान नहीं होती और अगर हो भी जाए तो तलाक का धब्बा सहज तरीके से जीने नहीं देता और इस पर भी, दूसरे जीवनसाथी के मनमाफिक होने की गारंटी नहीं रहती.

तो फिर तलाक के बाद क्यों न पहले जीवनसाथी की तरफ सुलह का हाथ बढ़ाया जाए, इस अहम सवाल पर वंदना और शशिकांत के मामले से सोचा जाए तो बात बन सकती है.

तलाक के बाद अधिकांश पतिपत्नी अवसाद में ही जीते नजर आते हैं खासतौर से उस सूरत में जब तलाक की कोई ठोस वजह न हो. ज्यादातर तलाकों की वजह बेहद हलकी होती है. ऐसा आएदिन के मामलों से उजागर भी होता रहता है. अगर शादी के बाद एक साल या उस से भी ज्यादा का वक्त पतिपत्नी ने एकसाथ गुजारा है तो एकदूसरे को भुला देना उन के लिए आसान नहीं होता.

तलाक के पहले परिवार परामर्श केंद्र, अदालत और काउंसलर सोचने के लिए वक्त देते हैं लेकिन उस वक्त पतिपत्नी दोनों के दिलोदिमाग में इतना गुस्सा व नफरत का गुबार भरा होता है कि वे सोचते कम, झल्लाते ज्यादा हैं.

तलाक के बाद की दुश्वारियां, अकेलापन, अपनों की अनदेखी वगैरा उन्हें समझ आने लगती हैं. पर चूंकि तलाकशुदा पतिपत्नी की दोबारा शादी की पहल किसी भी स्तर पर नहीं होती, इसलिए सुलह की गुंजाइशें होते हुए भी बात नहीं बन पाती. ऐसे में जरूरत इस बात की है कि भिंड के इस प्रयोग को दोहराया जाए क्योंकि संभव है पति और पत्नी अपनी गलतियां महसूस करते हुए दोबारा साथ रहना चाहते हों.

राजस्थान : लड़कियों से जबरदस्ती, शर्मसार बार बार

24 दिसंबर, 2016 की रात. राजस्थान के चूरू जिले के एक गांव में एक नाबालिग लड़की को अगवा कर गैंगरेप किया गया. इतने पर भी जी नहीं भरा, तो उस पर मोटरसाइकिल चढ़ा दी गई. इस से उस की रीढ़ की हड्डी टूट गई. उस लड़की की एक आंख फोड़ दी गई. बेंगलुरु, कनार्टक के एमजी रोड पर नए साल की पूर्व संध्या के मौके पर कुछ मर्दों ने लड़कियों के साथ हाथापाई की, जबकि वहां पुलिस मौजूद थी.

जयपुर में वहशीपन

राजस्थान की राजधानी जयपुर में भी वहशीपन की सारी हदें पार कर देने वाले 2 ऐसे मामले सामने आए, जो शर्मसार कर देने वाले हैं. पहले मामले में अलवर से जयपुर आई एक लड़की से 3 लड़कों के साथसाथ एक आटोरिकशा ड्राइवर ने रेप किया और उस के बाद बिना कपड़ों के उसे एमएनआईटी के बाहर फेंक कर फरार हो गए. लड़की ने खुद ही कंट्रोल रूम में फोन पर पुलिस को बताया.

डीसीपी ईस्ट कुंवर राष्ट्रदीप ने बताया कि उत्तर प्रदेश की रहने वाली पीडि़त लड़की जगतपुरा में अपने भाई के साथ रह कर सरकारी नौकरी के इम्तिहान की तैयारी कर रही थी. सुबह वह रेलवे स्टेशन पर उतरी और जगतपुरा में अपने भाई के कमरे तक जाने के लिए आटोरिकशे में बैठ गई. इस दौरान आटोरिकशे में 3 और लड़के भी थे.

लड़की को अकेला पा कर आरोपी लड़कों ने आटोरिकशा को सुनसान जगह पर रुकवाया और लड़की के मुंह पर कपड़ा बांध कर उस के साथ बारीबारी से रेप किया. रेप के बाद तीनों लड़के वहां से फरार हो गए, उस के बाद आटोरिकशा ड्राइवर ने भी उस के साथ रेप किया.

इस वारदात के बाद पुलिस ने शहरभर में नाकाबंदी कराई और लड़की को ले कर सिंधी कैंप बसस्टैंड और रेलवे स्टेशन पहुंची, जहां पीडि़ता से संदिग्ध आटोरिकशा ड्राइवर की शिनाख्त कराई गई. पीड़िता ने पुलिस को बताया कि वे तीनों लड़के हिंदी में बातें कर रहे थे और उस से पूछा कि कहां की रहने वाली हो और यहां क्या करती हो. उस पीडि़ता ने बताया वे तीनों आटोरिकशे में पहले से ही बैठे हुए थे. उन्हें कहां जाना था, इस बारे में वह नहीं जानती.

दूसरा मामला जयपुर के ही सांगानेर थाना इलाके का है. यहां 57 साल के एक टीचर ने अपनी ट्यूशन छात्रा, जिस की उम्र 16 साल बताई जा रही है, के साथ रेप कर दिया. पुलिस ने इस मामले में आरोपी टीचर को गिरफ्तार किया है. सांगानेर थाना पुलिस ने बताया कि नागरिक नगर, सांगानेर की पीडि़त लड़की के परिवार वालों ने मामला दर्ज कराया कि विरेंद्र सारस्वत नाम के टीचर ने यह करतूत की थी.

दरिंदगी की हदें पार

राजस्थान के चूरू जिले में भी दरिंदगी का एक मामला सामने आया.    2 लड़कों ने एक लड़की का रेप कर उस की रीढ़ की हड्डी व पसलियां तोड़ दीं. उन दरिंदों ने पीडि़ता की एक आंख भी फोड़ दी. इस के बाद वह लड़की जयपुर के एसएमएस अस्पताल में कई दिनों तक जिंदगी और मौत से जूझती रही.

यह वारदात बीदासर थाना इलाके के गांव सांरगसर की है. बीदासर थानाधिकारी प्रहलाद राय के मुताबिक, पीडि़ता के पिता ने रिपोर्ट दी है कि 24 दिसंबर, 2016 को 15 साला पीडि़ता अपने घर पर पढ़ाई कर रही थी. रात 11 बजे गांव भोमपुरा का एक बाशिंदा राकेश भार्गव अपने रिश्तेदार के एक लड़के के साथ मोटरसाइकिल पर आया और वे दोनों पीडि़ता को जबरदस्ती मोटरसाइकिल पर बिठा कर ले गए. आरोपियों ने गांव से एक किलोमीटर दूर चरला रोड पर ले जा कर उस के साथ ज्यादती की.

उस के बाद आरोपियों ने उसे किसी को बताने पर जान से मारने की धमकी दी और मोटरसाइकिल चढ़ा कर उस की रीढ़ की हड्डी व पसलियां तोड़ दीं. उस की एक आंख भी फोड़ दी. शरीर के कई हिस्सों पर गहरे घाव कर के उसे लहूलुहान हालत में मौके पर छोड़ कर भाग गए.

25 दिसंबर, 2016 की दोपहर 3 बजे पीडि़ता की मां के पास राकेश के मातापिता आए और उन्होंने लड़की के घायल होने की जानकारी दी. तब घर वालों को पता चला.

परिवार वालों ने पीडि़ता को सुजानगढ़ के अस्पताल में भरती कराया, जहां से उसे गंभीर हालत में पहले बीकानेर और फिर जयपुर भेज दिया गया. पीडि़ता का पिता गुजरात में मजदूरी करता है. घटना का पता चलने पर वह वहां आया और मामला दर्ज कराया.

राजस्थान पुलिस के मुताबिक, साल 2008 में रेप के 568 मामले दर्ज हुए थे. पिछले साल 2016 में यह तादाद बढ़ कर 3,769 हो गई. ये आंकड़े भयावह इसलिए भी हैं, क्योंकि 75 फीसदी आरोपी सुबूतों की कमी में बाइज्जत बरी हो जाते हैं. वैसे, साल 2015 में देशभर में दुष्कर्म के कुल 37,413 मामले हुए. इन में सब से ऊपर मध्य प्रदेश (5,076), राजस्थान (3769), उत्तर प्रदेश (3,467), महाराष्ट्र (3,438) जैसे राज्य ही थे. महानगरों की बात हो, तो दिल्ली (1,813), मुंबई (607), चेन्नई (65), बेंगलुरु (104) और कोलकाता (36) सब से आगे थे.

जयपुर की एक लीगल फर्म के मुताबिक, लापरवाही से की गई जांच, एफआईआर में देरी, आरोपियों के वकील का पीडि़ता के प्रति आक्रामक रुख और अदालतों में संवेदनशीलता की कमी इस की अहम वजह रही हैं. सजा की दर भी इसलिए कम है, क्योंकि ज्यादातर पीडि़ता चुपचाप ज्यादती सह जाती हैं. अगर पीडि़ता समाज के तानों की परवाह न करे, तो उसे पुलिस और कानून से इंसाफ मिलने की उम्मीद कम रहती है. साल 2015 में हुई एक स्टडी के मुताबिक, भारत में पति द्वारा जबरन सैक्स के सिर्फ 0.6 फीसदी यानी 167 में से महज एक केस ही दर्ज होता है.

दिखाया जज्बा

बेंगलुरु में 2 शोहदे एक लड़की से बेशर्मी के साथ छेड़छाड़ करते रहे और आसपास के लोग तमाशबीन और चुप ही रहे, लेकिन राजस्थान के चूरू जिले के राजगढ़ कसबे में जो घटा, वह सजगता की एक मिसाल बन गया है. यह किस्सा महशूर ओलिंपियन एथलीट कृष्णा पूनिया की बहादुरी की भी एक नजीर है.

कृष्णा पूनिया ने बताया कि रविवार की दोपहर दिन के डेढ़ बजे जब वे  सादुलपुर कसबे की कृष्णा बहल रोड से गुजर रही थीं, तो पिलानी रेलवे फाटक बंद था. वहां 3 बदमाश 2 किशोरियों पर फब्तियां कस रहे थे और छेड़खानी कर रहे थे. छेड़छाड़ करते हुए उन बदमाशों ने लड़कियों को जमीन पर गिरा दिया और मोटरसाइकिल से भागने लगे. इस घटना को बहुत से लोग देख रहे थे, लेकिन कोई भी अपनी जगह से नहीं हिला. सभी तमाशबीन खडे़ थे.

लड़कियां छेड़छाड़ से परेशान थीं और रो रही थीं. कृष्णा पूनिया अचानक कार से उतरीं और उन तीनों बदमाश लड़कों के पीछे दौड़ पड़ीं. उन्होंने 50 मीटर दौड़ने के बाद एक लड़के को धर दबोचा और पुलिस को फोन किया.

लड़कियां कह रही थीं कि अगर उन के घर वालों को इस घटना का पता लगा, तो वे आइंदा उन्हें घर से बाहर नहीं निकलने देंगे. लेकिन कृष्णा पूनिया ने किशोरियों को हौसला दिया और उन्हें उन के घर पर छोड़ कर आईं. वे पुलिस स्टेशन भी गईं और पुलिस अफसरों को नसीहत दी कि आखिर थाने के ठीक पास ही बदमाश इस तरह लड़कियों से कैसे छेड़छाड़ कर रहे हैं.

बीजिंग और लंदन ओलिंपिक में भारत की नुमाइंदगी कर चुकी कृष्णा पूनिया हरियाणा से हैं और चूरू जिले में उन की ससुराल है. इन दिनों वे राजनीति में हैं, लेकिन उन में एक बहादुर खिलाड़ी का जज्बा आज भी बरकरार है.

बेंगलुरु और राजगढ़ की ये दोनों घटनाएं एक ही समय में घटित हुई हैं, लेकिन एक में भीड़ के बीच खड़ी एक हिम्मती खिलाड़ी कृष्णा पूनिया ने पूरे हालात को ही बदल दिया और दूसरी में एक आधुनिक कसबे की जनता का वह तबका शर्मसार है, जो घटना के समय चुप्पी साधे रहा.

हद तो यह है कि बेंगलुरु की इस घटना के बाद कर्नाटक के गृह मंत्री डाक्टर जी. परमेश्वरा ने यह तक कह दिया कि नए साल और दूसरे ऐसे मौकों पर ऐसी घटनाएं होती रहती हैं, लेकिन सोशल मीडिया पर सवाल उठ रहा है कि राजस्थान का भी एक पक्ष है, जहां गृह मंत्री गुलाबचंद कटारिया ने अभी तक कृष्णा पूनिया की तारीफ नहीं की है, क्योंकि वे कांग्रेस से जुड़ी हैं.

सवाल यह उठता है कि क्या यह देश औरतों व लड़कियों के लिए महफूज नहीं है  क्या वे हमेशा यह डर साथ ले कर घर से बाहर निकलें कि कोई न कोई उन के साथ कुछ बुरा सोच कर तैयार बैठा है और वे हमेशा डरती रहें

आखिर हमारी सरकार, पुलिस और समाज का पूरा तबका अपनी सोच कब बदलेगा  ऐसे में यही बेहतर है कि हर लड़की कृष्णा पूनिया की तरह बन जाए और छेड़छाड़ करने वालों को गरदन से दबोच कर पुलिस के हवाले कर दे.

भिखारी बनाते धर्म के ठेकेदार, अपना भरते घरबार

अगर आप इन दिनों बिहार और झारखंड में होली (या दीपावली के बाद) आएंगे, तो कुछ औरतें और मर्द हाथ में सूप लिए गलीमहल्ले, दुकान, हाटबाजार, बसस्टैंड, रेलवे स्टेशन, भीड़भाड़ वाली दूसरी जगहों पर घूमते दिख जाएंगे, जो छठ व्रत करने के नाम पर भीख मांग रहे होते हैं. वैसे, स्थानीय लोगों को मालूम रहता है कि ये सब भीख मांगने वाले लोग छठ व्रत बिलकुल भी नहीं करते हैं.

दरअसल, ऐसे लोग छठ व्रत के नाम पर अपनी कमाई करने के लिए भीख मांग रहे होते हैं, क्योंकि साल में 2 बार छठ व्रत होता है, एक तो दीवाली के बाद कार्तिक महीने में और दूसरा होली के बाद चैत महीने में.

हिंदू धर्म के पंडेपुजारियों और ब्राह्मणों द्वारा सदियों से ऐसी बातों को बढ़ावा दिया गया है कि जिन के पास छठ व्रत करने के लिए रुपएपैसे नहीं हैं, तो वे छठ व्रत के दिनों में भीख मांग कर जमा किए गए पैसे से छठ व्रत मना सकते हैं.

पर अब बहुत से लोग इस धार्मिक पाखंड का फायदा उठा रहे हैं और धड़ल्ले से इस व्रत के कुछ दिन पहले से पीले रंग की धोती पहन कर हाथ में सूप ले कर बाजार व गली में घूम कर भीख मांगते देखे जा सकते हैं.

लेकिन सवाल यह उठता है कि धर्म के नाम पर पंडेपुजारियों और पाखंडियों ने भीख मांगने की कुप्रथा क्यों शुरू की है? इस की वजह यह है कि उन की पाखंड की दुकानें बिना रुकावट के चलती रहें.

भीख देने वालों के मन में भी ये बातें भरने की कोशिश की गई हैं कि भीख देने वाले को भी पुण्य मिलता है. बहुत से लोग धर्म के डर के चलते भीख दे देते हैं.

हालांकि, इस से मन में यह सवाल जरूर पैदा होता है कि भीख लेने वाला छठ व्रत करेगा या नहीं करेगा? लेकिन इस से समाज में भीख मांगने की नई कुप्रथा जरूर शुरू होती है, इसलिए कुछ लोगों के लिए यह कमाई का सब से आसान जरीया बनता जा रहा है.

कुछ लोग इस धार्मिक ढकोसले के नाम पर अपना धंधा शुरू कर देते हैं, तभी तो वे बाजारहाट, सड़क के किनारे, रेलवे स्टेशनों पर, यहां तक कि रेल के डब्बों, ट्रैफिक में भी घुस कर सूप ले कर भीख मांगते नजर आ जाते हैं.

छठ व्रत के दिनों में कुछ दानदाता छठ का सामान भी पूरे अंधविश्वासों के साथ बांटते दिखते हैं और जिन के पास छठ करने की हैसियत नहीं होती है, वे उन से सामान ले कर छठ व्रत करते भी हैं. दूसरों की मदद से पूजा करने वालों की तादाद बहुत थोड़ी ही है, जबकि भीख मांगने वालों की तादाद बहुत ज्यादा बढ़ती जा रही है.

सभी धर्मों के लोगों को यह सीख भी फोकट में दे दी जाती है कि पूजापाठ करने के बाद जरूरतमंदों को भीख देने से पुण्य मिलता है.

यह इसलिए किया जाता है कि लगे दानपुण्य करना साथ रहते लोगों की बुरे वक्त में सहायता करना होता है, इसीलिए काफी तादाद में भीख मांगने वाले लोग मंदिर, मसजिद और गुरुद्वारों के आगे हाथपैर से सलामत और हट्टेकट्टे होने के बावजूद भिखारियों की लाइन में बैठे होते हैं. इस से दानपुण्य का बाजार बढ़ता है.

रमजान के दिनों में भी भीख मांगने वालों की तादाद में एकाएक इजाफा हो जाता है. कुछ लोग सड़क पर मक्कमदीना जाने के लिए और चादर चढ़ाने के नाम पर भीख मांगते देखे जा सकते हैं.

जिन के पास खुद मक्कामदीना जाने की हैसियत और समय नहीं होता है, वे भीख मांगने वाले को कुछ सहयोग दे कर पुण्य का फायदा उठाना चाहते हैं.

भीख मांगने वाले धर्म के नाम पर बेवकूफ बनाते हैं. कई लोग साधुमहात्मा का रूप धारण कर भीख मांगते फिरते हैं. ऐसे ढोंगी बाबाओं का तो असल मकसद भीख मांगना ही होता है, लेकिन लोगों को चमत्कार करने या आशीर्वाद देने का स्वांग भी वे भरते हैं. कई बार तो वे सीधेसादे लोगों को लूट भी लेते हैं.

कुछ ढोंगी और शातिर लोग बेजबान जानवरों का इस्तेमाल कर के भी भीख मांगते फिरते हैं, जो कहीं से भी सही नहीं कहा जा सकता है. भीख मांगने के नाम पर विकलांग जानवरों को ‘ईश्वर की कृपा’ बता कर और उन्हें सजासंवार कर गाड़ी में भजन और गाने बजा कर जगहजगह पैसे ऐंठने का धंधा फलफूल रहा है.

इतना ही नहीं, हाथी जैसे बेजबान जानवर को भी गलीगली घुमा कर और बीच सड़क पर आनेजाने वालों को रोक कर लोग भीख मांगते देखे जा सकते हैं.

रोहतास जिले के रहने वाले अजय कुमार का इस धार्मिक बुराई पर कहना है, ‘‘दरअसल, हिंदू धर्म में ब्राह्मणों और पंडेपुजारियों ने एक नया हथकंडा अपनाना शुरू कर दिया है, ताकि उन का धंधा दिनोंदिन फलताफूलता रहे. उन्होंने समाज में एक गलत बात फैला दी है कि जिन की छठ व्रत करने की हैसियत न हो, वे भीख मांग कर भी व्रत कर सकते हैं.

‘‘इस का नतीजा यह हुआ कि भीख मांग कर ज्यादा से ज्यादा लोग छठ व्रत करने लगें और पंडेपुजारियों को पूजापाठ कराने में अच्छी आमदनी होने लगे.’’

सब से ज्यादा बुरा तो तब लगता है, जब लोग राह चलते राहगीरों के आगे सूप और थाली फैला कर भीख लेने के लिए गिड़गिड़ाने लगते हैं. कुछ लोग ट्रैफिक में घुस कर सूप ले कर छठ व्रत के नाम पर भीख मांगने लगते हैं.

कई बार दूसरे देशों से भी लोग यहां की संस्कृति से प्रभावित हो कर घूमनेफिरने आते हैं और इस तरह के लोगों को भीख मांगते देख कर यहां के लोगों के प्रति मन में गलत सोच बना लेते हैं, इसीलिए इस प्रदेश के लोगों को गरीब या पिछड़ा मान लेते हैं, जबकि ऐसा नहीं है.

लिहाजा, जरूरी है कि आम लोगों को भी इस तरह की गलत प्रथा का विरोध करना चाहिए. ऐसे लोगों को भीख देने से बचना चाहिए, ताकि अपने देश प्रदेश की पहचान तरक्की और खुशहाली के लिए बने, न कि भीख मांगने के लिए. दानपुण्य भी भीख ही है, पर दान ठसके और रोब जमा कर वसूला जाता है.

जब घर का ही कोई करे छेड़छाड़

तकरीबन रोजाना ही अखबारों में आने वाली रेप की घटनाएं हम सभी को परेशान करती हैं. कोई बड़ी घटना घट जाती है, तो बरसाती मेंढक की तरह कैंडल मार्च और रेपिस्ट को सजा देने की मांग तेजी से उठने लगती है, पर समय के साथ सब शांत हो जाता है और ‘जैसे थे’ उसी तरह हम सभी अपनी आदत के मुताबिक सबकुछ भूल कर अपनेअपने काम में लग जाते हैं.

खैर, अखबारों में आए रेप के मामलों में कम से कम रेपिस्ट पकड़ा तो जाता है, बाकी इस तरह की न जाने कितनी घटनाएं घर की चारदीवारी में ही घटती हैं, जिन के बारे में किसी को कुछ पता ही नहीं चल पाता. पता चलता भी हो तो अपना होने की आड़ ले कर इस तरह के लोग छूट जाते हैं.

घर में ही छेड़छाड़ और बदसलूकी के मामलों में ज्यादातर टीनएजर्स या कम उम्र के बच्चे शिकार होते हैं. अब तो ऐसे मामलों में लड़के भी महफूज नहीं हैं.

छोटे बच्चों के साथ घर का कोई सदस्य इस तरह का बरताव करता है, तो बच्चा किसी से कहने से डरता है. उस के अंदर ‘मेरी बात कोई नहीं मानेगा तो…? मुझे मारेगा तो…?’ इस तरह का डर ज्यादा होता है.
घर में ही सगेसंबंधियों द्वारा की जाने वाली छेड़छाड़ की घटना में जब कम उम्र के बच्चे शिकार होते हैं, तो उन के अंदर इतनी समझ नहीं होती कि उन के साथ उन के अपने ही यह कैसा बरताव कर
रहे हैं.

उन छोटे बच्चों को कुछ गलत होने का अनुभव तो होता है, पर यह गलत क्या है और इस बरताव के बारे में किस से कहा जाए, इस की समझ नहीं होती.

उन्हें इस बात का भी डर होता है कि मांबाप से कहेंगे तो वे नहीं मानेंगे और उलटा उन्हें ही डांट पड़ेगी. कुछ मामलों में यह भी होता है कि खराब बरताव करने वाला ही मांबाप से न कहने के लिए डराताधमकाता है.

ऐसे मामलों में बच्चों के साथ खराब बरताव करने वाले आदमी को जब पता चलता है कि उस के द्वारा किए गए खराब बरताव की शिकायत बच्चे ने मांबाप से नहीं की है, तो उस का हौसला बढ़ जाता है.
यहां केवल रेप की ही बात नहीं है, गलत तरीके से छूना या खराब इशारे भी इस में शामिल होते हैं. मांबाप इस तरह की शिकायत पुलिस से करने से डरते हैं.

एक एनजीओ के मुताबिक, वैसे तो घरेलू छेड़छाड़ के मामलों में ज्यादातर मांबाप ही ढकने का काम करते हैं. कभीकभी इस तरह के मामले में बच्चा बहुत डर जाता है, जिस की वजह से उस के बरताव में काफी बदलाव आ जाता है. तब मांबाप को साइकोलौजिस्ट की मदद लेनी पड़ती है. दूसरी ओर थाने में इस तरह की शिकायतें कम ही पहुंचती हैं. घर की इज्जत बचाने के चक्कर में घरेलू छेड़छाड़ की शिकायतें मात्र 15 फीसदी ही हो पाती हैं.

इस बारे में पुलिस अफसरों का कहना है कि जब मांबाप अपने बच्चों के साथ खराब बरताव करने वाले से कुछ कहने में खुद को काफी असहज महसूस करते हैं, तो थाने आ कर कहने या शिकायत करने की बात तो बहुत दूर है.

जिस तरह घरेलू हिंसा में थोड़ीबहुत हिंसा होती है, तो ‘औरत को थोड़ा सहन तो करना ही पड़ता है’ यह सोच कर लोग शिकायत नहीं करते, उसी तरह छेड़खानी के मामले में भी ‘ठीक है, अब इस बात को ले कर फजीहत नहीं करवानी, संभल कर चलना चाहिए’ यह सोचने वाले लोग ज्यादा हैं. इस बात को बढ़ाने से कोई फायदा नहीं है, इस तरह की सोच वाले लोग पुलिस तक बात को पहुंचने नहीं देते.

ज्यादातर मामलों में तो यह भी होता है कि लोग जानते ही नहीं कि इस तरह के मामलों में सारी पहचान पूरी तरह गुप्त रखी जाती है, जिस से आगे चल कर कोई परेशानी न हो.

छेड़छाड़ को छिपाने से छेड़छाड़ करने वाले को बढ़ावा ही मिलता है. बच्चे के साथ जब भी कोई घर का आदमी गलत बरताव करता है और बच्चा इस बारे में मांबाप को बताता है, तो उन्हें उस आदमी के खिलाफ कोई न कोई कदम जरूर उठाना चाहिए. उस आदमी को टोकना चाहिए और अगर इस पर भी वह न माने, तो पुलिस में शिकायत करने की धमकी देनी चाहिए.

ऐसा करने पर छेड़छाड़ करने वाला आदमी बदनामी के डर से अपने कदम पीछे खींच लेगा, जबकि मांबाप ऐसे मामलों में बच्चे को छेड़छाड़ करने वाले आदमी से दूर रहने और जो हुआ उसे भूल जाने की सलाह देते हैं.

छेड़छाड़ करने वाला सगा होने की वजह से संबंध बिगड़ेंगे और घर के दूसरे लोगों को पता चल गया तो बात का बतंगड़ बनेगा, इस डर से लोग कुछ कहते नहीं हैं.

मांबाप का यह बरताव बच्चे के दिमाग पर बुरा असर डालता है. बच्चे का अपने मांबाप के ऊपर से विश्वास उठ जाता है, क्योंकि बच्चे को भरोसा होता है कि कम उम्र में अपने साथ होने वाले गलत बरताव से वे उसे बचा लेंगे. अगर ऐसे समय में मांबाप कुछ नहीं करते, तो बच्चा निराश हो जाता है और उस का मांबाप के ऊपर से भरोसा उठ जाता है.

बच्चे के बदले बरताव को समझें. अकसर ऐसा होता है कि बच्चे के साथ जो हो रहा होता है, बच्चा उस बारे में मांबाप से कह नहीं पाता, पर उस के बरताव में यह बात आ जाती है. ऐसे बरताव के बाद बच्चा डराडरा सा रहने लगता है. उस का स्वभाव बदल जाता है. जो आदमी बच्चे के साथ गलत बरताव कर रहा होता है, उस के पास जाने से डरता है. बच्चे के इस बरताव को मांबाप को समझना चाहिए.

टीनएज लड़की या लड़का है, तो उस का भी बरताव बदल जाता है. मातापिता के रूप में अगर आप को अपने बच्चे के बरताव में बदलाव नजर आए, तो उस से प्यार से बात कर के बदलाव की वजह जानने की कोशिश करेंगे, तो यकीनन वह बता देगा.

याद रखिए, घरेलू छेड़छाड़ में बच्चे को अपने मांबाप पर भरोसा होगा तो वह यकीनन उस के साथ क्या गलत हो रहा है, जरूर बताएगा. पर अगर उसे इस बात का डर हुआ कि मांबाप उसे
ही गलत समझेंगे तो वह नहीं बताएगा, इसलिए बच्चे को इस बारे में सही सीख दें.

मोबाइल जेल की गिरफ्त युवाओं की दुनिया

युवाओं की दुनिया आजकल ऐसे आइडल ढूंढ़ने लगी है जो कुछ करतेधरते नहीं हैं. मोबाइल पर रील्स, चुटकुले, गौसिप, एआई जेनरेटड हाफबेक्ड मोटिवेशनल मैसेज, पौर्न या सैमिपौर्न क्लिप्स ने इन्फ्लुएंसर्स की एक नई खेप तैयार कर दी जो राजनीति के लीडरों जैसे हैं जिन में कोई सौलिड बात कहने की न कैपेसिटी है और न ही कोई उन्हें सीरियसली लेता है.

जिन के लाखों फौलोअर्स हैं, वे पैसे तो कमा रहे हैं लेकिन फिल्मस्टारों से भी ज्यादा गए गुजरे हैं क्योंकि उन्होंने मोबाइल डिवाइस पर जो भी भेजा वह आम व्यूअर्स की जिंदगी को संवारने लायक है ही नहीं. कुछ मिनट बीत जाएं, मैट्रो या बस की जर्नी पूरी हो जाए, रैस्तरां में बैठे किसी के इंतजार में 10-15 मिनट बीत जाएं, इन रील्स की बस यही कीमत रह गई है. इन्फ्लुएंसर्स से ज्यादा इर्रिस्पौंसिबल तो वे व्यूअर्स हैं जो अपने समय की कीमत नहीं समझ रहे.

मोबाइल ने आज हर तरह की इन्फौर्मेशन को आप के हाथ में लाना पौसिबल कर दिया है. यह तो उन युवाओं की गलती है जो इस इंटैलिजैंट इन्वैंशन का इस्तेमाल बेवकूफी के कृत्यों में कर रहे हैं. आजकल जिंदगी कौंप्लैक्स होती जा रही है. सरकारों और कौर्पोरेटों का दखल आम जिंदगी में बढ़ रहा है. औनलाइन फैसिलिटीज के चक्कर में हरेक की प्राइवेसी पर बुरी तरह हमले हो रहे हैं.

मोबाइल में आप क्या देखें, यह कुछ लोगों की कंपनियों के हाथ में है. रील्स या मोटिवेशनल मैसेज आप देखते नहीं हैं, ये आप को दिखाए जाते हैं. यह देखने की आप की इच्छा नहीं जो आप देख रहे हैं बल्कि यह दिखाने की उन कंपनियों की इच्छा है जो इन प्लेटफौर्मों को चला रही हैं. हर मोबाइल ऐप आप के बारे में हरेक छोटी सी बात को भी जानना चाहती है.

अगर कभी आप से कोई गलती हो जाए तो आप की पूरी जिंदगी आप की उस गलती को पकड़ने वालों के हाथों में होगी. तब आप कहीं से भी छूट न सकेंगे. आज कुछ भी छिपाना आसान नहीं है. हैकर्स आप की जानकारी जमा कर आप को कभी भी ब्लैकमेल कर सकते हैं. सब से बड़ी बात यह है कि इस औनलाइन इन्फौर्मेशन, एंटरटेनमैंट, मैसेजिंग के पीछे आप को लूटने की साजिश रची गई है.

पहले आप को काफीकुछ मुफ्त में परोस कर मोबाइल पर बने रहने की लत डाली गई, ऐप्स ने लुभावने सपने दिखाए. फिर आप से पैसे मांगे जाने लगे. कुछ पैसों से शुरू कर ये लोग आप से अब सैकड़ों रुपए सालाना लेने लगे हैं. इन प्लेटफौर्मों पर सरकारों का कड़ा कंट्रोल है.

सरकार जब चाहे जिस प्लेटफौर्म की बांह मरोड़ सकती है. इन प्लेटफौर्मों को पैसा कमाना है, उन्हें व्यूअर्स के राइट्स से कोई मतलब नहीं है. वे सरकारों की हर बात मान रहे हैं. मोबाइलों की वजह से 10 साल पहले इजिप्ट में तख्ता पलट गया था. आज दुनियाभर की सरकारें अपने मतलब के लिए मोबाइल तकनीक का मिसयूज कर रही हैं. ओटीपी के चक्करों में आप को फंसा कर आप के समय को बरबाद किया जा रहा है. मोबाइल रिवोल्यूशन की अभी तो शुरुआत है.

एआई यानी आर्टिफिशियल इंटैलिजैंस के बाद इन्फ्लुएंसर्स भी कंपनियों के नकली लोग होंगे और व्यूअर्स अपनी असली कमाई देने को मजबूर हो रहे होंगे. टैक्नोलौजी कौर्पोरेट्स की तानाशाही शुरू हो चुकी है और उन की बनाई ‘मोबाइल जेलों’ में करोड़ों लोग पहले से ही फंस चुके हैं. आप किस खेत की मूली हैं.

आजादी का अमृतकाल : दलितों पर जुल्मोसितम की हद

देश में जातिवाद का जहर किस तरह ऊंची जाति वालों की नसनस में भरा है, उस के लिए 27 दिसंबर, 2023 का एक मामला देखिए. उत्तर प्रदेश के बागपत जिले में एक 18 साल की दलित लड़की को सिर्फ इस बात के लिए गरम कड़ाही में धकेल दिया था, क्योंकि वह अपनी इज्जत से खिलवाड़ करने वालों की खिलाफत कर रही थी.

यह घटना बागपत जिले के बिनौली थाना क्षेत्र के एक गांव की है. पीडि़ता बुधवार, 27 दिसंबर, 2023 को गांव के ही एक कोल्हू की कड़ाही पर काम कर रही थी. तभी तीनों आरोपी प्रमोद, राजू और संदीप वहां आए और उस के साथ छेड़छाड़ करने लगे. इस का विरोध करने पर उन्होंने जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल करते हुए उस लड़की के साथ गलत बरताव किया. इतना ही नहीं, उन के अंदर इतना गुस्सा भर गया कि पीडि़ता को जान से मारने के इरादे से उसे गरम कड़ाही में फेंक दिया. इस के बाद वे तीनों वहां से भाग गए.

पीड़िता के भाई की शिकायत पर उन तीनों आरोपियों के खिलाफ आईपीसी की धारा 354 (महिला की गरिमा को ठेस पहुंचाने के इरादे से हमला), 504 (शील भंग करने के इरादे से अपमान), 307 (हत्या का प्रयास) और अनुसूचित जाति और जनजाति अधिनियम के तहत केस दर्ज किया गया.

दूसरे मामले ने तो दिल ही दहला दिया. वहां तो एक दलित लड़के से शादी करने पर एक लड़की का बेरहमी से खून कर दिया गया और ऐसा करने का इलजाम लगा दिया लड़की के मांबाप पर.

दरअसल, तमिलनाडु के तंजावुर जिले में पट्टुकोट्टाई के पास पूवालुर का रहने वाला एक दलित लड़का नवीन अपने पड़ोस के नेवाविदुति गांव की 19 साल की एक लड़की ऐश्वर्या से प्यार करता था.

नवीन और ऐश्वर्या बीते 5 सालों से एकदूसरे को जानते थे और पिछले 2 सालों से तिरुपुर जिले में काम कर रहे थे. उन्होंने आवरापलयम के विनयागर मंदिर में 31 दिसंबर, 2023 को शादी भी कर ली थी.

2 जनवरी, 2024 को इस शादी से गुस्साए ऐश्वर्या के मांबाप अपने रिश्तेदारों के साथ तिरुपुर जिले के पल्लाडम पुलिस स्टेशन पहुंचे और पुलिस से इस मामले में दखल देने की मांग की. थाने में मामला दर्ज कर लिया गया और पुलिस ने ऐश्वर्या को उस के मांबाप को सौंप दिया.

7 जनवरी, 2024 को नवीन ने पुलिस में एक शिकायत दर्ज कराई, जिस में कहा गया कि ‘वह अनुसूचित जाति से आता है और ऐश्वर्या पिछड़ी जाति से. दोनों के बीच कई साल से प्रेम चल रहा था.’

नवीन की शिकायत के मुताबिक, ‘ऐश्वर्या के पिता अपने रिश्तेदारों के साथ पुलिस स्टेशन गए. आधे घंटे बाद ही पल्लाडम पुलिस स्टेशन से ऐश्वर्या को उस के पिता और रिश्तेदारों ने अपने साथ लिया और पुलिस स्टेशन के बाहर खड़ी एक कार में बैठ कर चले गए.’

नवीन की शिकायत पर पुलिस द्वारा दर्ज की गई एफआईआर में कहा गया कि ‘नवीन को सूचना मिली थी कि 3 जनवरी की सुबह ऐश्वर्या की हत्या कर दी गई थी और स्थानीय लोगों से छिपा कर शव को तत्काल श्मशान में जला दिया गया था.’

पुलिस ने भी अपनी जांच में कहा कि ऐश्वर्या को उस के अभिभावकों ने नेवाविदुति गांव में इमली के पेड़ से लटका दिया था.

अगस्त, 2023. मध्य प्रदेश के सागर जिले में एक दलित नौजवान की पीटपीट कर हत्या कर दी गई थी. आरोपियों ने उस नौजवान को बचाने पहुंची उस की मां को भी पीटा और उन के कपड़े भी फाड़ डाले.

दरअसल, मारे गए उस नौजवान की बहन के साथ कुछ दिनों पहले आरोपियों ने छेड़छाड़ की थी, जिस का केस दर्ज हुआ था. वे आरोपी पीडि़त परिवार पर राजीनामा करने का दबाव बना रहे थे.

यह घटना सामने आने के बाद पुलिस ने 9 नामजद और 4 दूसरे आरोपियों के खिलाफ हत्या समेत दूसरी धाराओं में केस दर्ज किया. पुलिस ने मुख्य आरोपी समेत 8 आरोपियों को गिरफ्तार भी किया.

मारे गए उस नौजवान की बहन ने कहा, ‘गांव के विक्रम सिंह, कोमल सिंह और आजाद सिंह घर पर आए थे. मां से कहने लगे कि राजीनामा कर लो. मां ने कहा कि जब पेशी होगी, तो उसी दिन राजीनामा कर लेंगे, तो उन्होंने कहा कि क्या आप को अपने बच्चों की जान प्यारी नहीं है? ऐसा बोल कर वे धमकी दे गए कि जो हमें जहां मिलेगा, उस को निबटा देंगे.

‘मेरा छोटा भाई बसस्टैंड के पास सब्जी लेने गया था. वह वहां से लौट रहा था. रास्ते में आरोपी उस के साथ मारपीट करने लगे. वह भागने लगा, तो कुछ लोगों ने उसे पकड़ लिया.

‘मम्मी जब बाजार की तरफ गईं तो देखा कि वे भाई के साथ मारपीट कर रहे हैं. मम्मी उस को बचाने पहुंचीं. आरोपियों ने मम्मी को भी पीटा. जब मैं वहां गई और मोबाइल फोन से पुलिस को काल करने लगी, तो उन लोगों ने मेरे साथ भी मारपीट शुरू कर दी. मैं ने हाथ जोड़े, पैर पड़ कर कहा कि मेरे भाई को छोड़ दो, पर उन्होंने नहीं छोड़ा.’

इस मुद्दे पर कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा, ‘मध्य प्रदेश के सागर में एक दलित नौजवान की पीटपीट कर हत्या कर दी गई. गुंडों ने उस की मां को भी नहीं बख्शा. सागर में संत रविदास मंदिर बनवाने का ढोंग रचने वाले प्रधानमंत्री मध्य प्रदेश में लगातार होते दलित व आदिवासी उत्पीड़न और अन्याय पर चूं तक नहीं करते. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री केवल कैमरे के सामने वंचितों के पैर धो कर अपना गुनाह छिपाने की कोशिश करते हैं.’

मल्लिकार्जुन खड़गे का कहना सही है कि प्रधानमंत्री एक तरफ तो संत रविदास का मंदिर बनवाने का ढोंग करते हैं, पर दूसरी तरफ वे उन पर होने वाले जुल्म पर चुप्पी साध लेते हैं. क्या दलितों के पैर धोने से समाज में उन्हें बराबरी का दर्जा मिल जाएगा? बिलकुल नहीं, क्योंकि जब तक हर दलित को पढ़ने का हक नहीं मिलेगा, तब तक समाज में जातिवाद की खाई और गहरी होती जाएगी.

एक फिल्म से दलित समाज की हकीकत सम झते हैं, जिस का नाम है ‘गुठली लड्डू’. इस फिल्म में दिखाया गया है कि किस तरह भारतीय समाज में फैली जातिवाद की सड़ांध नाक के बाल जलाती हुई सीधा दिमाग की नसों में बजबजाने लगती है.

‘अस्पृश्यता अपराध है’ और ‘शिक्षा पर सब का समान अधिकार’ के मुद्दे पर बुनी गई यह फिल्म समाज के उस तबके की जहालत, बेबसी और गरीबी को उजागर करती है, जिसे गलीज सम झा जाता है. वह तबका जो दूसरों की गंदगी साफ करता है और जिस के घर का पानी पीना भी बड़ी जाति के लोगों के लिए हराम है.

साल 2023 में आई इस फिल्म की कहानी के 2 मासूम और मेन किरदार हैं गुठली (धनय सेठ) और लड्डू (हीत शर्मा). ये दोनों दोस्त हैं और छोटी जाति के 2 हमउम्र बच्चे भी. गुठली को पढ़ने का शौक है. या यों कहें कि जुनून है, पर चूंकि वह दलित समाज से है तो उसे स्कूल में घुसने तक नहीं दिया जाता है.

इस फिल्म की कहानी तब अचानक मोड़ लेती है, जब लड्डू अपने बापदादा का पुश्तैनी काम मतलब साफसफाई करने की हामी भर देता है और एक दिन गटर में गिरने से उस की मौत हो जाती है. यह देख कर गुठली का बापू उसी दिन से ठान लेता है कि कुछ भी हो जाए, वह अपने बेटे को स्कूल भेजेगा और इस गटर जैसी गंदी जिंदगी से बाहर निकालेगा.

गुठली के बापू की इसी जद्दोजेहद में फिल्म की कहानी आगे बढ़ती है और इस हकीकत से रूबरू कराती है कि आज भी अनपढ़ दलित की जिंदगी किस नरक में कट रही है और अगर वह अपने हक की बात करता है, तो उसे लतिया दिया जाता है.

गरीब, अनपढ़ दलितों और साफसफाई करने वालों की असली जिंदगी में  झांकें तो उन की हालत भी गुठली और लड्डू से ज्यादा अच्छी नहीं है. भले ही संविधान ने सब को बराबरी का हक दिया है, पर आज भी न जाने कितने गुठली और लड्डू पढ़ाईलिखाई से कोसों दूर हैं और न चाहते हुए भी छोटी जाति का होने की सजा दूसरों की गंदगी साफ कर के पाते हैं.

‘स्वच्छ भारत’ के हल्ले के बीच साल 2023 के मार्च महीने में हरियाणा के पानीपत में नगरनिगम के गटर की सफाई करते हुए 2 मुलाजिमों की मौत हो गई थी. ऐसा पूरे देश में होता है, पर हैरत की बात तो यह है कि हर साल सीवर और सैप्टिक टैंकों की सफाई करते हुए मरने वालों का आंकड़ा कम होने

के बजाय बढ़ता ही जा रहा है. सरकार खुद मानती है कि साल 2019 में पूरे देश में सीवर और सैप्टिक टैंकों की सफाई करते हुए 110 लोगों की जानें चली गई थीं.

ऊपर से बड़ी जाति वालों का उन्हें नाली का कीड़ा सम झना. उन के हाथ से पैसे तो वे ले लेंगे, पर अगर गलती से वे बड़ी जाति वाले की साइकिल छू देंगे, तो उस साइकिल को कई बार धोने का रोना रोएंगे.

जुल्म की खास वजहें

सब से बड़ी वजह तो यह है कि दलितों को सभ्य समाज का हिस्सा ही नहीं सम झा जाता है. उन्हें धर्म ने अछूत माना है और हर तथाकथित बड़ी जाति वाले के मन में यह गहरे तक पैठ चुका है कि अनुसूचित जाति के लोगों को नीचा दिखाने और उन पर अपना रोब जमाना उन का जन्मजात हक है. तभी तो कोई दलित मूंछ रख ले तो उसे लतिया दिया जाता है. कोई दलित दूल्हा घोड़ी पर चढ़ जाए, तो उसे सबक सिखा दिया जाता है.

अनुसूचित जाति की औरतों और लड़कियों को तो सरेआम शर्मिंदा करने की खबरें आएदिन सुर्खियों में बनी रहती हैं. स्कूलकालेज में धमकाया जाता है. छात्रों को ही नहीं, बल्कि दलित समाज के टीचरों और प्रोफैसरों को भी जाति के आधार पर सताया जाता है. दलित समाज पर जोरजुल्म की घटनाओं के पीछे लोगों की छोटी सोच और इंसाफ में देरी की वजह से लोगों में कानून का डर कम हो रहा है.

कोढ़ पर खाज यह कि लाखों मामले ऐसे होते हैं, जिन में केस दर्ज नहीं किया जाता है या मामले दबा दिए जाते हैं. सागर वाले मामले में नौजवान की हत्या इसीलिए हुई थी कि उस का परिवार राजीनामा नहीं कर रहा था.

आजादी के अमृतकाल में समाज का यह घिनौना रूप उन लोगों पर तमाचा है, जो देश के हर जने की भलाई की बात तो करते हैं, पर हकीकत में उन से होता जाता कुछ नहीं.

‘फुलेरा’ के बहाने अंधविश्वास की खुलती पोल

तकरीबन 4 साल पहले आई दीपक मिश्रा के डायरैक्शन में बनी वैब सीरीज ‘पंचायत’ नौजवान तबके द्वारा काफी पसंद की गई थी, क्योंकि इस में फुलेरा गांव के बहाने भारत की देहाती जिंदगी की झलक दिखाई गई थी, जिस से जब पढ़ालिखा नयानया बना शहरी पंचायत सचिव अभिषेक त्रिपाठी (जितेंद्र कुमार) रूबरू होता है, तो हैरान हो उठता है कि गांव की राजनीति में आज भी दबंगों का रसूख चलता है और उस में भ्रष्टाचार भी जम कर होता है.

इसी वैब सीरीज के एक प्रसंग में अंधविश्वासों का भी जिक्र है. होता कुछ यों है कि एक योजना के तहत गांव में सोलर एनर्जी के 11 खंभे लगाने की मंजूरी मिली हुई है. पंचायत की मीटिंग में सभी रसूखदार अपने घरों के सामने खंभा लगाने का प्रस्ताव पास करा लेते हैं.

एक आखिरी खंभा लगने की बात आती है, तो उसे गांव के बाहर की तरफ पेड़ के पास लगाने का प्रस्ताव आता है. पर गांव वाले मानते हैं कि उस पेड़ पर भूत रहता है.

अभिषेक त्रिपाठी चूंकि एमबीए कर रहा है, इसलिए पढ़ाई की अपनी सहूलियत के लिए चाहता है कि आखिरी बचा हुआ खंभा पंचायत औफिस के बाहर लग जाए, जहां वह एक कमरे में रहता है. भूत वाली बात पर उसे यकीन नहीं होता, इसलिए वह उस की सचाई जानने के लिए निकल पड़ता है.

अभिषेक त्रिपाठी को पता चलता है कि कुछ साल पहले गांव के एक सरकारी स्कूल के मास्टर ने अपनी नशे की लत छिपाने के लिए यह झठ फैलाया था, जो इस कदर चला था कि कई गांव वालों को भूत होने का एहसास हुआ था.

कइयों को अंधेरी रात में उस भूत ने पकड़ा और दौड़ाया था. राज खुलता है, तो सभी हैरान रह जाते हैं और खंभा अभिषेक त्रिपाठी की मरजी और जरूरत के मुताबिक लग जाता है.

देश में इन दिनों भूत वाले एक नहीं, बल्कि कई ?ाठसफेद, कालेहरे, पीलेभगवा, नीले सब इफरात से चल नहीं, बल्कि दौड़ रहे हैं. नशेड़ी मास्टर तो सिर्फ भूत होने की बात कहता है, लेकिन कई लोग बताने लगते हैं कि यह भूत उन्होंने देखा है.

कच्चे चावलों की खिचड़ी बनाने का काम इतने आत्मविश्वास से जोरों पर है कि झठ और सच में फर्क कर पाने के मुश्किल काम को छोड़ लोग झठ को ही सच करार देने लगे हैं कि कौन बेकार की कवायद और रिसर्च के चक्कर में पड़े, इसलिए मास्टरजी जो कह रहे हैं, उसे ही सच मान लो और उस का इतना हल्ला मचाओ कि कोई हकीकत जानने के लिए पेड़ के पास जाने की हिम्मत ही न करे.

गलत नहीं कहा जाता कि झठ के पैर नहीं होते. दरअसल, झठ के मीडिया और सोशल मीडिया रूपी पंख होते हैं, जिन के चलते वह मिनटों में पूरा देशदुनिया घूम लेता है और सच कछुए की तरह रेंगता रहता है.

झठ में अगर धर्म, अध्यात्म और दर्शन का भी तड़का लग जाए, तो वह और अच्छा लगने लगता है. आप लाख पढ़ेलिखे हों, लेकिन आग और ऊर्जा में फर्क नहीं कर पाएंगे और जब तक सोचेंगे और उस पर अमल करेंगे, तब तक गंगा और सरयू का काफी पानी बह चुका होगा.

अब से तकरीबन 28 साल पहले साल 1995 में अफवाह उड़ी थी कि मंदिरों में गणेश दूध पी रहे हैं. बस, फिर क्या था. देखते ही देखते गणेश मंदिरों में भक्त लोग दूध का कटोरा ले कर उमड़ पड़े थे.

जिन्हें गणेश के मंदिरों में जगह नहीं मिली, उन्होंने घर में रखी मूर्तियों के मुंह में जबरन दूध ठूंस कर प्रचारित कर दिया कि उन की मूर्ति ने भी दूध पीया. जिन के घर गणेश की मूर्ति नहीं थी, उन्होंने राम, कृष्ण, शंकर और हनुमान तक को दूध पिला दिया.

उस अफरातफरी का मुकाबला वर्तमान दौर की कोई आस्था नहीं कर सकती, जिस के तहत भक्तों के मुताबिक भगवान ने समोसे, कचौड़ी, छोलेभटूरे, जलेबी और बड़ा पाव भी खाए. सार यह है कि मूर्तियों में इंद्रियां होती हैं और प्राण भी होते हैं. समयसमय पर यह बात अलगअलग तरीकों से साबित करने की कोशिश भी की जाती है.

अब मूर्तियां पलक झपकाएं, हंसें और रोएं भी तो हैरानी किस बात की. हैरानी सिर्फ इस बात पर हो सकती है कि 21 सितंबर, 1995 की आस्था असंगठित थी, उस के लिए कोई समारोह आयोजित नहीं करना पड़ा था और न ही खरबों रुपए खर्च हुए थे. बस, कुछ करोड़ रुपए लिटर दूध की बरबादी हुई थी.

तब भी विश्व हिंदू परिषद ने इसे सनातनी चमत्कार कहा था और दुनियाभर के देशों में रह रहे हिंदुओं ने मूर्तियों को दूध पिलाया था. तब भी मीडिया दिनरात यही अंधविश्वास और पाखंड दिखाता और छापता रहा था.

भारत में नागपंचमी पर नाग को दूध पिलाने का रिवाज है, जबकि यह कोरा अंधविश्वास है, क्योंकि सांप दूध पीता ही नहीं है. लोग यह मानते हैं कि इस दिन सांप को दूध पिलाने से उन की हर इच्छा पूरी होगी, पर यह सच नहीं है.

यह विश्वास या आस्था होती ही ऐसी चीज है, जिस में न होने का एहसास कोई माने नहीं रखता. कोई है और आदि से है और अंत तक रहेगा, यह फीलिंग बड़ा सुकून देती है. फिर चाहे वह पेड़ वाला भूत हो या फिर कोई मूर्ति हो, इस से कोई फर्क नहीं पड़ता.

सच यही है कि यह एक विचार है और रोटी, पानी, रोजगार और दीगर जरूरतों से ज्यादा देश को विचारों की जरूरत है, जिस से दुनिया देश का लोहा माने कि देखो इन्हें भूखेनंगे और फटेहाल हैं, लेकिन इन के विचार बड़े ऊंचे हैं.

इस चक्कर में देश बेचारों का बन कर रह जाए, इस की परवाह जिन को है वे वाकई बेचारे हैं और पत्थर से सिर फोड़ने की बेवकूफी कर रहे हैं. लेकिन यकीन मानें तो यही वे लोग हैं, जो एक न एक दिन अभिषेक त्रिपाठी की तरह अंधविश्वास के भूत के सच उजागर करेंगे.

अनपढ़ता, गरीबी और बेरोजगारी से जूझता मुसलिम तबका

जिस मुसलिम कौम ने कई सदियों तक राज किया, साल 1857 की क्रांति की लड़ाई में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया, देश को अंगरेजों की गुलामी से आजाद कराने वाले आंदोलन में भाग लिया और फिर 1947 में देश को आजाद कराने में भागीदारी निभाई, आज उसी तबके की दशा चिंताजनक है.

वर्तमान दौर में यह तबका माली, सामाजिक,  पढ़ाईलिखाई, राजनीतिक व सांस्कृतिक रूप से पिछड़ रहा है. इस के जिंदगी जीने के ग्राफ में भी गिरावट देखी जा रही है.

मुसलिम समाज आज अनपढ़ता, गरीबी और बेरोजगारी से भी जू?ा रहा है. इस वजह से समाज अनैतिक कामों के जाल में फंसता चला जा रहा है. आखिर इस बदहाली का कुसूरवार कौन है?

समाज के रहनुमा गौर करें : रहबर ए कौम सम?ा ले ये हकीकत है बड़ी, कौम छोटी है, मगर इस की रिवायत है बड़ी.

इस समाज के रहनुमाओं की राजनीतिक नुमाइंदगी और शासनप्रशासन में भागीदारी नहीं के बराबर है और जो है, वह भी बौद्धिक रूप से भीरू है. इस तबके के लोग जिस राजनीतिक नुमाइंदगी के पीछे रहे, उस ने भी इन का शोषण ही किया. जो राजनीतिक दल धर्मनिरपेक्षता का ढोंग करते हैं, वे भी पीठ पीछे घात ही लगाते हैं.

इन सब बातों पर इस समाज को फिक्र करनी होगी. देश का वातावरण वर्तमान समय में दूषित है और हमें आपसी भाईचारे से रहना है.

मस्तान बीकानेरी का कहना है : दुनिया से जो डरते थे उन्हें खा गई दुनिया, वे छा गए दुनिया में जो डरते थे खुदा से.

मुसलिम समाज की हालत पर आखिरकार देश के तब के प्रधानमंत्री डाक्टर मनमोहन सिंह ने 58 साल बाद यह महसूस किया कि मुसलिमों के सामाजिक, माली, पढ़ाईलिखाई और राजनीतिक पिछड़ेपन के कारण व निवारण के लिए कुछ किया जाए, तो फिर उन्होंने जस्टिस राजेंद्र सच्चर की अध्यक्षता में साल 2005 में एक कमेटी बनाई थी.

इस आयोग की रिपोर्ट भी चौंकाने वाली थी और मुसलिमों के हालात अनुसूचित जातियों से भी बदतर बताए गए थे. ऐसा ही कुछ जस्टिस रंगनाथ मिश्रा आयोग ने भी बताया था. इन आयोगों ने जो सु?ाव दिए, उन्हें लागू करने में भी उदासीनता ही रही. वे सु?ाव अब ठंडे बस्ते में पड़े हैं.

किसी शायर ने कहा है : बेइल्म, बेहुनर रहेगी दुनिया में जो भी कौम, कुदरत की इकतिजा है, बन के रहेगी वो गुलाम.

मुसलिमों को इल्म व हुनर की वजह से यह दशा सुधारनी जरूरी है. इस के लिए सरकारों पर निर्भर न हो कर मुसलिमों को मौडर्न पढ़ाईलिखाई के सांचे में खुद को ढालना होगा.

कहा भी तो गया है : खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले, खुदा अपने बंदे से खुद पूछे बता तेरी रजा क्या है.

इस के लिए समाज के जिम्मेदार लोगों को आगे आ कर गांव और शहर के लैवल पर संगठन बना कर समाज के बुद्धिजीवी तबके की मदद से सुनियोजित तरीके से क्रांतिकारी बदलाव ला कर समाज को जागरूक करने की अलख जगाई जानी चाहिए.

आज का जमाना प्रतियोगिता का है. मुसलिमों के बच्चे गाइडैंस की कमी में पिछड़ जाते हैं. बहुत से तो सामाजिक और माली वजहों से स्कूल छोड़ देते हैं, बहुत कम ही आगे की पढ़ाई तक पहुंच पाते हैं. इस समस्या से नजात पाने के लिए भी मुहिम चलानी चाहिए.

मुसलिम समुदाय के बच्चों को मनोवैज्ञानिक ढंग से मार्गदर्शन की जरूरत है, जबकि आम लोगों की सोच बन चुकी है कि मुसलिमों को नौकरी तो मिलनी नहीं है, इसलिए इस मिथक को तोड़ना भी बहुत जरूरी है.

आज के तकनीकी जमाने में देश में पढ़ेलिखे लोगों का होना बहुत जरूरी है, क्योंकि हमारे पुश्तैनी धंधे भी आधुनिक तकनीक से चलाए जाने में उन का पढ़ालिखा होना जरूरी है, इसलिए मुसलिम समाज में आमूलचूल बदलाव लाने की दिशा में ऊंची तालीम और प्रोफैशनल कोर्स, कंप्यूटर की अच्छी जानकारी की अहमियत की गाइडैंस देना जरूरी है.

इस के साथ ही प्रतियोगी परीक्षाओं की जानकारी देना और बच्चों को कोचिंग दिलाना जरूरी है. आज केंद्र

व राज्य सरकार की तमाम योजनाओं और दूसरे कार्यक्रमों का फायदा लेने के लिए भी उन का मार्गदर्शन किया जाए.

मुसलिमों में बढ़ चुके पिछड़ेपन को दूर करने के लिए उन्हें सामाजिक कुरीतियों और फुजूलखर्ची से भी दूर रहने की जरूरत है. यह पैसा बच्चों की तालीम पर खर्च किया जाए.

किसी ने सही कहा है : अभी वक्त है संभालो समाज को समाज के रहनुमाओ, वक्त निकल गया हाथ से तो पछताओगे तुम रहनुमाओ.

साथ ही, मुसलिम समाज के बच्चों के लिए लाइब्रेरी, होस्टल, पढ़ाईलिखाई से जुड़े संस्थानों का संचालन किया जाए और गरीब बच्चों की पढ़ाईलिखाई का पुख्ता इंतजाम कर उन्हें मैनेजमैंट, होटल, पर्यटन, चिकित्सा, पशुपालन, खेतीबारी, तमाम छात्रवृत्तियां फैलोशिप और खेलों से जुड़ी जानकारी भी दी जानी चाहिए. इस से भविष्य में मुसलिम समाज को फायदा होगा

सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर के मार्केट पर एआई की सेंध

अब एआई से सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर बनाए जा रहे हैं. ये हूबहू इंसानों जैसे दिखाई दे रहे हैं. भारत में नैना, कायरा, श्रव्या इन्फ्लुएंसर के मार्केट में उतर चुकी हैं. कहीं ये इन्फ्लुएंसर्स के मार्केट में सेंध न लगा दें.

गुलाबी ब्लोंड हेयर, शार्प नोज, सधे होंठ और सुराहीदार गरदन. रोलर कोस्टर सा जिस्म ऐसा कि कोई भी फिसल जाए पर जब पता चले कि सोशल मीडिया पर एटाना लोपेज नाम की यह लड़की रियल नहीं, बल्कि एआई की दुनिया की इल्यूजन है जिसे सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर के रूप में परोस दिया गया है तो हर कोई अपना माथा पकड़ लेगा.

आखिर कैसे इतनी हूबहू इंसान जैसी कोई चीज बनाई जा सकती है जिस के एक्सप्रैशन, अदाएं सब इंसान जैसे हों, जो आंखों से इशारा करती हो, नाचती हो, होंठ हिलाती हो और मदमस्त हो. यह कमाल एआई ने किया है. पत्थर की मूरत में जान फूंकने को सच मान लेने वाले इस अंधविश्वासी समय में एआई लोहे में जान फूंक रहा है. उस के रोबोट्स टैनिस व चैस खेल रहे हैं, खाना बना रहे हैं, नाच रहे हैं और अब कंपनियों के प्रचार के लिए रील भी बना रहे हैं.

एटाना लोपेज एआई अवतार में चर्चा का विषय काफी पहले बन चुकी थी. एटाना लोपेज एआई वाली सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर है. अपनी प्रोफाइल में वह खुद को वर्चुअल सोल बताती है. इस ने अभी सिर्फ 73 पोस्ट किए हैं पर इन 73 पोस्ट्स में इसे 2 लाख 72 हजार लोगों ने फौलो किया है. खुद को फिटनैस मौडल बताने वाली एटाना ने हर एक पोस्ट पर हजारों लाइक्स और शेयर पाए हैं और उन्हें शेयर किया गया है.

एटाना लोपेज इंस्टाग्राम के अलावा ट्विटर, टिकटौक पर भी है. ट्विटर पर खुद को स्पैनिश गौड्स औफ टैंपटेशन बताती है, वहां इंटिमेट और सिडक्टिव कंटैंट डालती है. इस के अलावा वह गेमिंग, फिटनैस की शौकीन भी है.

नाम भी पैसा भी

द फाइनैंशियल टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, एटाना लोपेज को एड एजेंसी क्लूपलैस की कोफाउंडर डिआना नूनेज ने बनाया है. नूनेज का कहना है कि वे इन्फ्लुएंसर्स की दिनोंदिन बढ़ती फीस से परेशान थीं. इस का कोई हल निकालने के लिए उन्होेंने एआई की सहायता से वर्चुअल इंफ्लुएंसर बनाने की सोची और एआई अवतार एटाना लोपेज को गढ़ दिया.

अब खबर यह है कि गुलाबी बालों वाली लोपेज हर महीने 9 लाख रुपए कमा रही है. सोशल मीडिया पर कंपनियां भी लोपेज से अपने प्रोडक्ट्स का प्रचार करवाने को हंसीखुशी पैसा देने को तैयार हैं.

पेटीएम फाउंडर और सीईओ विजय शेखर शर्मा ने एक्सो पर एक पोस्ट में लोपेज का जिक्र करते हुए लिखा था कि कैसे ह्यूमन इन्फ्लुएंसर के बजाय एआई इन्फ्लुएंसर्स आने वाले समय में मार्केटिंग के लिए फायदेमंद हैं.

एआई अवतार धीरेधीरे सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर की जगह लेता जा रहा है. सिर्फ एटाना लोपेज ही नहीं, इस फेहरिस्त में एक बड़ा नाम लू दो मगालू का है. उस के 68 लाख फौलोअर्स हैं. अपने पेज में वह ब्यूटी प्रोडक्ट्स का प्रचार करती है. इस के फीचर इंसानों जैसे नहीं हैं पर यह रिप्लिका बेहद फेमस है.

इसी तरह लिलमिकेला है जो 19 साल की है. जिस का जन्म 2016 में इंस्टाग्राम पर हुआ. अपने प्रोफाइल पर उस ने हैशटैग ‘ब्लैक लाइव मैटर’ लिखा हुआ है. जाहिर है यह इन्फ्लुएंसर अमेरिका में हो रहे ब्लैक पर अत्याचार पर स्टैंड लेती है. इस के इंस्टाग्राम पर 27 लाख फौलोअर्स हैं, वहीं टिकटौक पर 35 लाख और फेसबुक पर 11 लाख. यह हूबहू इंसानों जैसी है. इस की पोस्ट में दिखाई देता है कि यह पब्लिक प्लेस में घूमती है. अलगअलग जगहें ट्रैवल करती है. साथ में कंपनियों और रैस्तरां का प्रचार भी करती है.

2019 में सुपरमौडल बेला हदीद ने केल्विन क्लेन के विज्ञापनों में लिलमिकेला के साथ तसवीर खिंचवाई, जिस पर तब बात उठी थी कि यह भविष्य की एक झलक है. आज वह झलक इसलिए भी सच साबित होती दिखाई दे रही है कि यह इन्फ्लुएंसर बड़ेबड़े स्टार्स के साथ पोडकास्ट करते हुए भी नजर आ रही है.

भारत में एआई इन्फ्लुएंसर की धूम

सोशल मीडिया पर एआई इन्फ्लुएंसर सिर्फ विदेशों में ही फेमस नहीं हो रहे, इंडिया भी इस मामले में पीछे नहीं है. नैना, कायरा, टिया शर्मा और श्रव्या वे नाम हैं जो अपनी धाक जमा चुके हैं. 22 साल की नैना जो झांसी से मुंबई आई है और उस का सपना एक ऐक्ट्रैस व मौडल बनने का है. लेकिन नैना की यह स्टोरी उतनी ही फेक है जितनी वह खुद है. वह एआई से तैयार की गई है.

भारत में नैना असल और नकल के बीच बनी लाइन को ब्लर करने का काम करती है. वह खुद को भारत की पहली एआई सुपरस्टार कहती है. उस के लुक्स, हरकतें सब असल ह्यूमन की तरह हैं. उसे देख कर कोई कह नहीं सकता कि यह नकली होगी.

नैना पैपराजी से बात करती है, सैलिब्रिटी की तरह फोटो खिंचवाती है. वह ‘द नैना शो’ के नाम से पोडकास्ट चलाती है जहां सान्या मल्होत्रा, सियामी खेर जैसी बौलीवुड सैलिब्रिटीज आती हैं. वह हर तरह की वीडियो बनाती है और बताती है कि साड़ी कैसे पहनी जाए, स्टाइलिस्ट और ट्रैंडी कैसे बना जाए, बाल कैसे बनाए जाएं और मिनिमम ज्वैलरी से अच्छा लुक कैसे बनाया जाए. यानी यह एआई की जीतीजागती इन्फ्लुएंसर है जो फैशन के बारे में जानकारी देती है.

जाहिर है, एआई अब इन्फ्लुएंसर के मार्केट पर सेंध लगाने जा रहा है. कंपनियां भी इसे बढि़या चांस की तरह देख रही हैं क्योंकि इन्फ्लुएंसर्स जिस तरह किसी प्रोडक्ट के प्रचार के लिए मोटी फीस ले रहे हैं उस के मुकाबले इस तरह के डमी या डोपलैंगर्स ज्यादा किफायती साबित हो रहे हैं.

तकनीक है कमाल की

हिमांशु ने माया, ब्लैंडर और अनरियल इंजन जैसे 3डी डिजाइन टूल्स का यूज कर 2022 में कायरा को बनाया था. इन टूल्स ने वीडियो गेम और मार्वल फिल्मों में यूज की जाने वाली तकनीक के जैसे ही कायरा के चेहरे और बौडी पार्ट्स को तराशने में मदद की. वहीं दूसरी तरफ वे बताते हैं कि श्रव्या को 2023 में केवल जेनरेटिव एआई का यूज कर के बनाया गया जो बिलकुल ही रीयलिस्टिक है.

3डी टैक्नोलौजी के माध्यम से पहले कायरा जैसे डोपलैंगर्स बनाए जाते थे जिस में काफी मेहनत और रिसौर्सेज लगते थे, हालांकि इस के बावजूद कायरा से मेकर्स को फायदा हुआ है. उस ने लोरियल पेरिस, बोट, टाइटन, रियलमी और अमेरिकन टूरिस्टर जैसे बड़े ब्रैंडों के साथ कोलैबोरेट किया. कायरा के कुछ प्रचार वीडियो को 35 मिलियन यानी साढ़े 3 करोड़ से अधिक बार देखा गया है. अब एआई की हैल्प से आसानी और किफायत में ये बनाए जा रहे हैं जो ज्यादा रियल दिखाई देते हैं.

एआई इन्फ्लुएंसर कहीं न कहीं रियल इन्फ्लुएंसर्स के लिए बड़ी चुनौती साबित होते जा रहे हैं. क्योंकि अधिकतर इन्फ्लुएंसर्स का कंटैंट एकजैसा होता है. उन में वैराइटी और क्रिएटिविटी की कमी होती है. किसी ट्रैंडिंग सौंग पर अपना शरीर और होंठ हिला लेना उन्हें कंटैंट लगता है.

आमतौर पर इन्फ्लुएंसर्स के लिए रील का कंटैंट यही है तो इस अनुसार इस से कहीं ज्यादा अच्छा कंटैंट एआई देने में सक्षम है. आज एआई इस फील्ड में घुस रहा है. इस तरह के इन्फ्लुएंसर्स गढ़ने में कई हाईप्रोफाइल टीम जुट गई हैं. उन की टीम ऐसे एआई मौडल बनाने पर काम कर रही है जो एक कमांड में कुछ सैकंड के छोटे रील व वीडियो बनाने में सक्षम हों.

अलग यह है कि एआई इन्फ्लुएंसर्स कई भाषाओं में कंटैंट दे सकते हैं. इन के पास भाषा की रुकावट नहीं है. इन के पास उम्र की भी सीमा नहीं है. ये आज जिस तरह दिखाई दे रहे हैं, हर समय उसी तरह दिखाई दे सकते हैं. इसलिए इस तरह के इन्फ्लुएंसर्स ग्लोबली पौपुलर होने का दमखम रखते हैं. यही कारण भी है कि एटाना लोपेज, लिलमिकेला ग्लोबली फेमस हैं.

नामचीन भी एआई की दुनिया में

और तो और, अब फेमस सैलिब्रिटीज ने भी अपना एआई अवतार बनाना शुरू कर दिया है, जिस में बौलीवुड स्टार सनी लियोनी का नाम जुड़ा है. उस ने अपने डोपलैंगर अवतार पर कहा कि, ‘मुझे विश्वास नहीं हो रहा कि यह मैं हूं. अब जब आप चाहें मुझ से बात कर सकते हैं और देख सकते हैं.’ इस इंस्टा पोस्ट पर उन्होंने ञ्चद्मड्डद्वशह्लश.ड्डद्ब को टैग किया.

पिछले साल साइंस फिक्शन पौपुलर वैब सीरीज ‘ब्लैक मिरर’ का 6ठा सीजन आया था. उस में पहले एपिसोड ‘जोआन इज औफुल’ में इसी तरह के एआई अवतार की तरफ इशारा किया गया था. उस में दिखाया गया था कि कैसे एआई की मदद से अब परदे पर एआई सैलिब्रिटीज दिखाई जाएंगी जो हूबहू असल सैलिब्रिटीज की तरह ही होंगी. इस में रियल ऐक्ट्रैस के साथ कौन्ट्रैक्ट साइन होता है, फिर उस का एआई क्लोन बना कर फिल्म बना दी जाती है. यह सब आने वाले टाइम में सच साबित हो जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता.

लेकिन शुरुआत अभी सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स के साथ हो गई है, जहां उन का बाजार अब छिनता दिखाई दे रहा है. हालांकि इस तरह के एआई इन्फ्लुएंसर के साथ समस्या यह है कि ये चाहे परोस कैसा भी कंटैंट रहे हों, इन की बुनियाद झूठ पर टिकी होगी और कहे या बताए पर जल्दी भरोसा नहीं किया जा सकता. लेकिन सोशल मीडिया की बाढ़ में कौन,कब, कहां मिक्स हो जाए, पता नहीं चलता.

लवर औन मोबाइल औफ

एक तरफ सोशल मीडिया पर रिलेशनशिप आसानी से बनने लगे हैं वहीं दूसरी तरफ इसी के चलते टूट भी रहे हैं. हद से ज्यादा सोशल मीडिया में घुसे रहना रिश्तों में खटास लाता है. जरूरी है कि पार्टनर के साथ रहते सोशल मीडिया को म्यूट कर दिया जाए.

ब्लैक शौर्ट ड्रैस पहनी 20 साल की सारा आधे घंटे से अपने मोबाइल फोन में लगी हुई है. कभी वह टेबल पर सजी डिश की फोटो खींच रही है तो कभी वैन्यू का बूमरैंग बना रही है, कभी सैल्फी क्लिक कर रही है. इस के साथ वह तुरंत ही इन्हें अपनी इंस्टा स्टोरी, व्हाट्सऐप और स्नैपचैट पर लगा रही है. यह हाल उस का तब है जब वह पहले से ही विशेष से इस वैन्यू पर अपनी कई रील बनवा चुकी है.

विशेष काफी देर से यह सब देख रहा है. लेकिन कुछ बोल नहीं रहा. वह बस इंतजार कर रहा है कि कब सारा अपना फोन साइड में रखे और उस से बातें करे. लेकिन सारा को तो फुरसत ही नहीं है सोशल मीडिया से.

हद तो तब हो गई जब सारा इंस्ट्राग्राम पर लाइव चली गई. वह भी तब जब वह अपने पार्टनर के साथ डेट पर आई है. कौफी, पिज्जा, पास्ता सब ठंडा हो गया लेकिन सारा के हाथ से फोन नहीं छूटा. यह बात विशेष को बिलकुल भी अच्छी नहीं लगी. उस का पेशेंस अब जवाब दे चुका है.

विशेष सारा से भौंहें चढ़ाते हुए कहता है, ‘‘यह हमारी डेट है, तुम्हारा कोई व्लौग वीडियो नहीं, जो तुम फोन में ही लगी रहो. मैं भी चाहूं तो फोन में लग सकता हूं, बूमरैंग बना सकता हूं पर मुझे तुम्हारे साथ वक्त बिताना है. तुम्हारी वाइब एंजौय करनी है. तुम से बातें करनी हैं. तुम्हारा हाथ पकड़ कर बैठना है. लेकिन तुम अपना मोबाइल छोड़ो तो न. मुझे तो ऐसा लग रहा है कि तुम मेरे साथ डेट पर नहीं आईं बल्कि अपने फोन के साथ आई हो.’’

यह सब सुन कर सारा ने कहा, ‘‘वेट न विशेष, अभी मैं इंस्टा पर लाइव हूं. तुम थोड़ा वेट नहीं कर सकते.’’

यह सुन कर विशेष ने थोड़ी देर इंतजार किया, फिर वहां से उठ कर चल दिया. इस के बावजूद सारा ने अपना इंस्टा लाइव बंद नहीं किया. 5 मिनट बाद जब वह असल दुनिया में आई तो देखा विशेष सामने नहीं था. उस ने उसे कौल किया.

गुस्से में विशेष ने उस की कौल नहीं उठाई. सारा ने कई बार कौल किया लेकिन इस का कोई फायदा नहीं हुआ.

कई दिन हो गए विशेष और सारा के बीच में कोई बात नहीं हुई. न सारा ने अपने बिहेवियर के लिए सौरी कहा, न ही विशेष ने पैचअप करने की कोशिश की. फिर एक दिन विशेष को अपने म्यूचुअल फ्रैंड से पता चला कि सारा किसी और को डेट कर रही है और उसे वह लड़का सोशल मीडिया में ही मिला था.

सारा का विशेष से दूसरा ब्रेकअप था. उस के दोनों ब्रेकअप होने की वजह सोशल मीडिया पर हद से ज्यादा समय बिताना था. रील्स की लत उसे ऐसी लगी है कि बातें करतेकरते वह रील भी देखती रहती है. वह हर वक्त सोशल मीडिया में ही घुसी रहती थी, फिर चाहे वह किसी रोमांटिक डेट पर आई हो या गोवा के बीच पर सनराइज का मजा ले रही हो. 24 घंटे उस के हाथ में मोबाइल ही होता था.

सोशल मीडिया की यह लत हर दूसरे यंगस्टर को है. मैट्रो सिटी में रहने वालों के रिश्ते भी सोशल मीडिया पर बन कर टूट रहे हैं. सारा और विशेष का उदाहरण ही है, जहां उन के रिलेशनशिप टूटने या उस में मनमुटाव आने का कारण सोशल मीडिया व उन का मोबाइल फोन का ज्यादा यूज करना है.

दिल्ली यूनिवर्सिटी से मास कम्यूनिकेशन करने वाली 19 साल की ईशा कहती है, ‘‘यह जो दौर चल रहा है वह दिखावट का दौर है. यंगस्टर्स पर्सनल लाइफ सोशल मीडिया पर परोसना पसंद करते हैं. असल में इन्हें लाइक, शेयर और सब्सक्राइब की लत लगी है और इसे पाने के लिए ये हौस्पिटल में बीमार पड़ी अपने परिवार की सदस्या की रील बनाने से भी नहीं हिचकिचाते.

यंगस्टर्स सोशल मीडिया का इतना दीवाना है कि वह अपने हर मूमैंट को कैप्चर करना चाहता है, चाहे वह पार्टनर के साथ प्राइवेट मूमैंट ही क्यों न हो. वह जल्दी से इन्हें इंस्टाग्राम फेसबुक, स्नैपचैट, व्हाट्सऐप जैसे सोशल साइट्स पर अपलोड करना चाहता है.

इन में ऐसे भी कुछ लोग हैं जो रियल लाइफ से ज्यादा रील लाइफ में जीते हैं. दिन में 10 बार अपना स्टेटस अपडेट करते हैं. इतने से भी मन नहीं भरता तो दूसरे के व्हाट्सऐप स्टेटस देखते रहते हैं. कभी उन की इंस्टाग्राम स्टोरी तो कभी रील देखने लगते हैं. यही है अब यंगस्टर्स की लाइफ. क्या पर्सनल क्या प्राइवेट, सब सोशल मीडिया पर देखा जा सकता है.

सोशल मीडिया पर ऐक्टिव

लोग कितना वक्त सोशल मीडिया पर बिताते हैं, वर्ल्ड स्टेटिक्स नाम के एक ट्विटर अकाउंट पर इस की जानकारी दी गई. इस रिपोर्ट के मुताबिक, नाइजीरिया सब से ऊपर है, जहां लोग करीब साढ़े 4 घंटे सोशल मीडिया पर ऐक्टिव रहते हैं.

रिपोर्ट के मुताबिक, सोशल मीडिया पर सब से कम जापान के लोग ऐक्टिव रहते हैं. जापान के लोग सिर्फ 49 मिनट ही सोशल मीडिया पर बिताते हैं. यही कारण है कि वे टैक्नोलौजी में सब से आगे हैं. अगर जापान टैक्नोलौजी से अपना हाथ खींच ले तो दुनिया से 16 फीसदी टैक्नोलौजी गायब हो जाए. वहीं स्वीडन में यूजर्स करीब 1 घंटे 11 मिनट हर दिन सोशल मीडिया पर बिताते हैं.

अगर भारत की बात करें तो करीब 30 देशों की इस लिस्ट में भारत का 14वां स्थान है. यहां एक यूजर एक दिन में करीब 2 घंटे 44 मिनट सोशल मीडिया पर खर्च करता है. भारत में 3 में से 1 व्यक्ति सोशल मीडिया का इस्तेमाल करता है. अमेरिका में यह 2 घंटे 11 मिनट है. चीन में 2 घंटे 1 मिनट है. इस के अलावा कनाडा, आस्ट्रेलिया, स्पेन, डेनमार्क और यूके में लोग करीब 2 घंटे सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हैं.

पिछले कुछ सालों से सोशल मीडिया हमारी लाइफ, वर्क और रिलेशन पर इफैक्ट कर रही है. जहां एक ओर सोशल मीडिया से रिलेशनशिप बनते हैं तो बहुत से टूटते भी हैं.

सोशल मीडिया से रिलेशनशिप पर असर

सोशल मीडिया का ज्यादा यूज एक रिलेशनशिप को कितना इफैक्ट करता है, यह एक सर्वे में बताया गया. इस सर्वे में 2 हजार लोगों की प्राइवेट लाइफ, कम्युनिकेशन और ट्रस्ट का आंकलन किया गया और यह जाना गया कि वे एक कपल्स के तौर पर औनलाइन कितनी सामग्री साझा करते हैं.

सर्वे में 52 फीसदी कपल ने बताया कि वे वीक में 3 से ज्यादा बार अपने रिलेशनशिप की फोटोज, वीडियोज औनलाइन पोस्ट करते हैं. इस में हैरान करने वाली बात यह थी कि इन में से सिर्फ 10 फीसदी लोगों ने बताया कि वे अपने रिश्ते से ‘बहुत खुश’ हैं.

हर कोई सोशल मीडिया पर अपने रोमांटिक मूमैंट को दिखाना पसंद करता है, खासकर अपने वैकेशन को. लेकिन सर्वे से यह पता चला कि जो कपल यह दिखाने के लिए सोशल मीडिया पर बारबार पोस्ट करते हैं कि वे अपने पार्टनर की कितनी सराहना करते हैं.

सोशल मीडिया के जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल करने से रिलेशनशिप पर बुरा असर पड़ता है. जो कपल्स सोशल मीडिया पर अपनी प्राइवेट लाइफ ज्यादा शेयर करते हैं, उन के रिलेशन पर इस का नैगेटिव इफैक्ट पड़ता है. इस से कपल के बीच ट्रस्ट की कमी होती है. इस से शाई पार्टनर भी अनकंफर्टेबल फील करता है.

सोशल मीडिया पर ज्यादा समय बिताने के कारण आप अपने पार्टनर को समय नहीं दे पाते, जिस से आपस में कम्युनिकेशन गैप हो जाता है. अपने रिलेशन को मजबूत बनाने के लिए एकदूसरे से बातचीत करते रहना बहुत जरूरी है. जो कपल अपने पार्टनर को औनलाइन दिखाना पसंद करते हैं, वे अपने रिलेशन में ज्यादा खुश नहीं होते हैं. इस के कई कारण होते हैं.

सोशल मीडिया पर बारबार पोस्ट करना, स्पैशली कपल सैल्फी, दरअसल दूसरों का अटैंशन पाने का एक तरीका होता है. जो कपल अपने रिलेशनशिप में खुश नहीं हैं, वे अपने रिलेशन में महसूस होने वाली कमी की भरपाई के लिए ज्यादा से ज्यादा कपल पोस्ट का सहारा लेते हैं.

सोशल मीडिया पर लगातार दूसरे कपल्स के खुशी के पलों को देखने से कई कपल्स में जलन और अपने रिश्ते में स्पार्क की कमी की भावना पैदा होती है. लगातार हैप्पी मूमैंट्स और रोमांटिक मूमैंट्स को पोस्ट करने से कपल्स पर एक आइडियल इमेज पेश करने का प्रैशर आ जाता है, जो स्ट्रैसफुल और नकली हो सकता है. यह आइडियल कपल दिखने का प्रैशर सोशल मीडिया पर ज्यादा ऐक्टिव रहने का एक कारण है.

जो कपल अपने रिश्तों में कम सिक्योर फील करते हैं, वे सोशल मीडिया पर ‘हैप्पी रिलेशनशिप’ की इमेज पेश करने की कोशिश करते रहते हैं. इन पोस्ट के जरिए वे खुद को यह समझाने की कोशिश करते हैं कि सबकुछ ठीक है. सोशल मीडिया का ज्यादा इस्तेमाल करने से रिश्ते के भीतर मीनिंगफुल कम्युनिकेशन और किसी बहस को सौल्व कर के तरीके तक पहुंचने पर लगने वाला समय काफी ज्यादा हो सकता है.

अगर कोई अपने पार्टनर के साथ बात करने के बजाय इंस्टाग्राम फीड को स्क्रौल करने में ज्यादा इंटरैस्ट दिखाता है तो इस से आप के रिलेशन पर नैगेटिव इफैक्ट पड़ता है. जितना ज्यादा टाइम आप अपने फोन पर बिताएंगे, उतना ही ज्यादा आप अपने पार्टनर के साथ बिताए गए हैप्पी मूमैंट और मौजमस्ती के छोटेछोटे मूमैंट्स को मिस कर देंगे.

सोशल मीडिया पर कई लोग अपने इमोशंस, अपनी पर्सनल लाइफ में चल रही प्रौब्लम्स को शेयर करते हैं. अपने रिलेशनशिप की छोटीछोटी बातें शेयर करना सही नहीं है. इस से पार्टनर हर्ट हो सकता है. बेहतर यह है कि सोशल मीडिया को बहस की जगह न बनाएं बल्कि आपस में बात कर मुद्दों को सुलझाएं.

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