Superstition: जानलेवा दगना

Superstition: मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल जिलों में रहने वाले आदिवासी समुदाय में अगर ठंड के समय जब नवजातों को निमोनिया या डबल निमोनिया हो जाता है, तब उन्हें सांस लेने में तकलीफ होती है.

पेटदर्द, दस्त की शिकायत पर परिवार वाले बीमार बच्चे को इलाज के लिए अस्पताल न ले जा कर नवजातों और बच्चों को को ठीक करने के लिए दगना कुप्रथा का सहारा लेते हैं.

आदिवासियों का मानना है कि बच्चों को यह समस्या किसी बीमारी की वजह से नहीं, बल्कि रूहानी ताकत के चलते होती है. ऐसे में दागने से उन के बच्चों की यह बीमारी ठीक हो जाएगी.

जब नवजात को सांस लेने में तकलीफ होती है या दस्त के कारण उस के पेट की नसें बाहर दिखने लगती हैं, तब उन्ही नसों को गरम लोहे की कील, काली चूड़ी, नीम या बांस की डंठल से दागा जाता है.

यह काम गांव में ?ाड़फूंक करने वाली विशेष समुदाय की महिलाएं करती हैं. इन महिलाओं को नवजातों की मालिश के अलावा दागने की जिम्मेदारी दी जाती है. इन इलाकों में काली चूड़ी से टोटका दूर करने की भी कुरीति चलन में है.

दागना है खौफनाक

मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल गांवों में यह प्रथा छोटे बच्चों के लिए बहुत पीड़ादायी है और ज्यादातर मामलों में दागे जाने वाले बच्चों और बच्चियों की मौत हो जाती है, क्योंकि वे दर्द सहन नहीं कर पाते हैं.
जरा सोचिए, गरम सलाखों से महज कुछ ही दिनों के मासूम को अगर जगहजगह पर दाग दिया जाए, तो उसे कितनी तकलीफ होती होगी. उस तकलीफ को आप सिर्फ एहसास ही कर सकते हैं, जबकि वे मासूम तो बोल कर बयां भी नहीं कर सकते हैं.

दर्दनाक घटनाएं

मध्य प्रदेश के शहडोल जिले में सिंहपुर थाना क्षेत्र का एक गांव है कठौतिया. इसी गांव में 3 महीने की बच्ची रुचिका कोल को दागने की एक घटना हुई थी. बच्ची की मां रोशनी कोल का कहना है कि बच्ची को सांस लेने में आ रही दिक्कत की वजह से उसे दागने वाली स्थानीय महिला को दिखाया.

लेकिन दागने के बाद बच्ची की हालत बेहद नाजुक हो गई, तो उसे शहडोल के जिला सरकारी मैडिकल कालेज में भरती करवाया गया, जो गांव कठौतिया गांव से तकरीबन 10 किलोमीटर की दूरी पर है, लेकिन बच्ची को नहीं बचाया जा सका.

इस मामले में डाक्टरों का कहना है कि सलाखों से दागने के बाद बच्ची के निमोनिया का इन्फैक्शन और बढ़ गया, जो उस की मौत की वजह बन गया.

इस घटना के कुछ दिन बाद ही बाद कठौतिया गांव से 3 किलोमीटर दूर सलामतपुर गांव में दागने का एक और मामला आया. इस मामले में 3 महीने की बच्ची को 24 बार गरम सलाखों से दागा गया था, पर बाद में उसे इलाज के लिए अस्पताल ले जाया गया, लेकिन इलाज के दौरान उस की भी मौत हो गई.

जागरूकता की कमी

एक संस्था गौतम बुद्ध जागृति समिति के सचिव श्रीधर पांडेय ने बताया कि स्वास्थ्य महकमे ने दागने जैसी कुप्रथा को रोकने के लिए आशा कर्मी, एएनएम और आंगनबाडि़यों को घरघर निगरानी का जिम्मा सौंपा है, जो बच्चों के बीमार होने पर उन्हें सीधे अस्पताल ले जाने में मदद करेंगी.

लेकिन बीमार बच्चों के परिवार वाले चुपके से बच्चे को झाड़फूंक करने वाली महिला के पास ले जाते हैं, जहां दागने की वजह से हालत बिगड़ने पर ही वे लोग बच्चे को अस्पताल ले जाने को मजबूर होते हैं.

स्वास्थ्य महकमे से जुड़ी एक आशाकर्मी का कहना कि इस क्षेत्र में लंबे से समय से चली आ रही इस कुप्रथा के चलते ही यहां के लोग अस्पताल का रुख कम ही करते हैं.

श्रीधर पांडेय बताते हैं कि दगना कुप्रथा को ले कर बुजुर्गों में आज भी बड़ा विश्वास देखने को मिल रहा है. प्रशासन ने भले ही उन्हें जागरूक करने के लिए गांव में रैली और दीवारों पर नारे लिखवाए हों, लेकिन जो विश्वास उन के मन में बैठा है उसे बाहर निकलना बड़ी चुनौती है.

गांव के बुजुर्गों का कहना है कि नवजातों के अलावा उन के शरीर के दर्द, जोड़ों का दर्द समेत दूसरी बीमारियों के इलाज के लिए उन के पास सब से सटीक इलाज दागना ही होता है.

इस मसले पर यहां के जागरूक स्थानीय निवासियों और प्रशासन का कहना है कि आदिवासी इलाकों में होने वाली दागने की कुप्रथा दशकों पुरानी है, जिस की रोकथाम और जागरूकता के लिए सरकार, स्थानीय प्रशासन, स्वास्थ्य महकमे सहित दर्जनों एनजीओ भी काम कर रहे हैं. फिर भी बच्चों के साथ होने वाली दागने की घटनाओं पर रोक नहीं लग पा रही है.

कुपोषण है वजह

श्रीधर पांडेय बताते हैं कि ज्यादातर गरीब आदिवासी परिवारों के बच्चे कुपोषण से ग्रसित होते हैं. इस का कारण गर्भावस्था के दौरान मां का खानपान है, क्योंकि इन महिलाओं को पर्याप्त पोषण नहीं मिल पाता है और बच्चा जन्म लेने के बाद कुपोषण का शिकार हो जाता है, जिस की वजह से बच्चा बारबार बीमार पड़ता है.

बच्चे के बीमार पड़ने पर यहां के लोग इलाज के लिए तांत्रिकों, ओझाओं वगैरह के पास जाते हैं या झोलाछाप डाक्टरों के पास ही जाते हैं. जहां कई बार सलाखों से दागने के उपाय के साथ इलाज किया जाता है.

कानून का डर नहीं

दगना प्रथा की रोकथाम के लिए बच्चे के परिवार वालों और दागने वाली महिला तांत्रिकों के खिलाफ आपराधिक मामलों में केस भी दर्ज किए जाते हैं. इस के बावजूद इस प्रथा पर रोक नहीं लगाई जा सकी है.

शहडोल जिले की बंधवा की रहने वाली रामबाई अपने मायके उमरिया के बकेली गई थी. यहां उस के बच्चे राजन की तबीयत बिगड़ गई. गांव में इलाज नहीं मिलने पर रामबाई की मां दाई को बुला लाई.

दाई ने घर में गरम चूड़ी से बच्चे को पेट पर कई बार दागा. इस के बाद उस बच्चे की तबीयत ज्यादा बिगड़ गई और उसे झटके आने लगे.

डेढ़ महीने के इस बच्चे के मांबाप अस्पताल ले गए जहां डाक्टरों ने पाया कि उस बच्चे की सांसें काफी तेज चल रही थीं. पेट पर सूजन और दागने के काफी निशान थे. बच्चा बेहद गंभीर हालत में भरती किया गया था. इस वजह से उस ने दम तोड़ दिया.

अस्पताल प्रबंधन ने इस की जानकारी पुलिस को दी. इस मामले में शहडोल पुलिस ने गांव की झाड़फूंक करने वाली महिला सहित बच्चे के दादा और मां के खिलाफ मामला दर्ज कर लिया.

भयावह हैं आंकड़े

पत्रकार अनुराग कुमार श्रीवास्तव ने शहडोल, उमरिया और अनूपपुर जिलों में ऐसी घटनाओं पर जानकारी इकट्ठा करने के लिए कई लोगों से बातचीत की और दागना प्रथा से प्रभावित आंकड़ों को जमा किया.

पत्रकार अनुराग कुमार श्रीवास्तव बताते हैं कि पिछले 5 साल में तीनों जिलों से तकरीबन 4,000 बच्चे दगना कुप्रथा का शिकार हो चुके हैं. इन में से तकरीबन 2 दर्जन बच्चे अपनी जान तक गंवा चुके हैं. इस के बावजूद यह कुप्रथा रुकने का नाम नहीं ले रही है.

ओडिशा भी पीछे नहीं

श्रीधर पांडेय जिस संस्था से जुड़े हैं, वह ओडिशा राज्य में भी लोगों को अंधविश्वास और कुपोषण से बचाव के मसले पर काम कर रही है. उन का कहना है कि ओडिशा में अंधविश्वास के चलते नवजात बच्चों को ‘बुरी आत्मा’ से बचाने के लिए गरम लोहे से दागा जाता है.

श्रीधर पांडेय के मुताबिक, ओडिशा स्थानीय भाषा में ‘चेंका’ कही जाने वाली प्रथा, आमतौर पर बच्चे के जन्म के 7 से 21 दिनों के बाद की जाती है. कभीकभार मातापिता तब तक इंतजार करते हैं, जब तक कि उन्हें बच्चे के पेट पर नीली इस दिखाई नहीं दे जाती, जिसे वे स्थानीय रूप से ‘पिल्ही’ नामक पेट दर्द की मूल वजह मानते हैं.

जब कोई बच्चा बीमार पड़ता है या नीली नस दिखाई देती है, तो समुदाय का मानना है कि बच्चे पर किसी आत्मा का असर है और गरम लोहे से बच्चे के पेट को दागने से आत्मा बाहर निकल जाएगी और बच्चा बुरी नजर से बच जाएगा. लेकिन ज्यादातर मामलों में बच्चों की मौत हो जाती है.

तोड़ आसान नहीं

सीनियर डाक्टर वीके वर्मा का कहना है कि अंधविश्वास से केवल गरीब और आदिवासी ही नहीं जकड़े हैं, बल्कि इस की जद में पढ़ेलिखों की एक भारी जमात भी शामिल है, इसलिए जब पढ़ालिखा इनसान अंधविश्वास का शिकार हो सकता है, तो गरीब आदिवासियों का अंधविश्वास में विश्वास करना आम बात है.

डाक्टर वीके वर्मा आगे कहते हैं कि सोशल मीडिया से ले कर पूरा तंत्र इस तरह के पोंगापंथ का शिकार है, इसलिए अंधविश्वास की दीवार को तोड़ना आसान नहीं है. वे दिल्ली प्रैस के अंधविश्वास के पोल खोलने वाले लेखों से बेहद प्रभावित रहते हैं. उन का मानना है कि अगर मीडिया अंधविश्वास को ले कर जनता को जागरूक करे, तो भी इस पर काफी लगाम लगाई जा सकती है. Superstition

बलि का अपराध और जेल, हैवानियत का गंदा खेल

हमारे देश में सैकड़ों सालों से अंधविश्वास चला आ रहा है. दिमाग में कहीं न कहीं यह झूठ घर करा दिया गया है कि अगर अगर गड़ा हुआ धन हासिल करना है, तो किसी मासूम की बलि देनी होगी, जबकि हकीकत यह है कि यह एक ऐसा झूठा है, जो न जाने कितने किताबों में लिखा गया है और अब सोशल मीडिया में भी फैलता चला जा रहा है. ऐसे में कमअक्ल लोग किसी की जान ले कर रातोंरात अमीर बनना चाहते हैं. मगर पुलिस की पकड़ में आ कर जेल की चक्की पीसते हैं और ऐसा अपराध कर बैठते हैं, जिस की सजा तो मिलनी ही है.

सचाई यह है कि आज विज्ञान का युग है. अंधविश्वास की छाई धुंध को विज्ञान के सहारे साफ किया जा सकता है, मगर फिर अंधविश्वास के चलते एक मासूम बच्चे की जान ले ली गई.

देश के सब से बड़े धार्मिक प्रदेश कहलाने वाले उत्तर प्रदेश के इटावा जिले में एक तथाकथित तांत्रिक ने 2 नौजवानों के साथ मिल कर एक 8 साल के मासूम बच्चे की गला रेत कर हत्या कर दी गई थी और तंत्रमंत्र का कर्मकांड किया गया था. उस बच्चे की लाश को गड्डा खोद कर छिपा दिया गया था.

ऐसे लोगों को यह लगता है कि अंधविश्वास के चलते किसी की जान ले कर के वे बच जाएंगे और कोई उन्हें पकड़ नहीं सकता, मगर ऐसे लोग पकड़ ही लिए जाते हैं. इस मामले में भी ऐसा ही हुआ.

अंधविश्वास के मारे इन बेवकूफों को लगता है कि ऐसा करने से जंगल में कहीं गड़ा ‘खजाना’ मिल जाएगा, मगर आज भी ऐसे अनपढ़ लोग हैं, जिन्हें लगता है कि जादूटोना, तंत्रमंत्र या कर्मकांड के सहारे गड़ा धन मिल सकता है.

समाज विज्ञानी डाक्टर संजय गुप्ता के मुताबिक, आज तकनीक दूरदराज के इलाकों तक पहुंच चुकी है और इस के जरीए ज्यादातर लोगों तक कई भ्रामक जानकारियां पहुंच पाती हैं. मगर जिस विज्ञान और तकनीक के सहारे अज्ञानता पर पड़े परदे को हटाने में मदद मिल सकती है, उसी के सहारे कुछ लोग अंधविश्वास और लालच में बलि प्रथा जैसे भयावाह कांड कर जाते हैं जो कमअक्ल और पढ़ाईलिखाई की कमी का नतीजा है.

डाक्टर जीआर पंजवानी के मुताबिक, कोई भी इनसान इंटरनैट पर अपनी दिलचस्पी से जो सामग्री देखतापढ़ता है, उसे उसी से संबंधित चीजें दिखाई देने लगती हैं फिर पढ़ाईलिखाई की कमी और अंधश्रद्धा के चलते, जिस का मूल है लालच के चलते अंधविश्वास के जाल में लोग उलझ जाते हैं और अपराध कर बैठते हैं.

सामाजिक कार्यकर्ता सनद दास दीवान के मुताबिक, अपराध होने पर कानूनी कार्यवाही होगी, मगर इस से पहले हमारा समाज और कानून सोया रहता है, जबकि आदिवासी अंचल में इस तरह की घटनाएं होती रहती हैं, लिहाजा इस के लिए सरकार को सजक हो कर जागरूकता अभियान चलाना चाहिए.

हाईकोर्ट के एडवोकेट बीके शुक्ला ने बताया कि एक मामला उन की निगाह में ऐसा आया था, जिस में एक मासूम की बलि दी गई थी. कोर्ट ने अपराधियों को सजा दी थी.

दरअसल, इस की मूल वजह पैसा हासिल करना होता है. सच तो यह है कि लालच में आ कर पढ़ाईलिखाई की कमी के चलते यह अपराथ हो जाता है. लोगों को यह समझना चाहिए कि किसी भी अपराध की सजा से वे किसी भी हालत में बच नहीं सकते और सब से बड़ी बात यह है कि ऐसे अपराध करने वालों को समाज को भी बताना चाहिए कि उन के हाथों से ऐसा कांड हो गया और उन्हें कुछ भी नहीं मिला, उन के हाथ खाली के खाली रह गए.

दिमागी बीमारी: झाड़फूंक के अंधविश्वास से बचें

Aware of Superstitions: अक्षय कुमार और विद्या बालन की एक हिट फिल्म आई थी ‘भूलभुलैया’. इस फिल्म में विद्या बालन को एकसाथ दोहरी शख्सीयत के साथ जीते हुए दिखाया गया था. इस फिल्म में अवनी चतुर्वेदी यानी विद्या बालन खुद को भूल कर एक नर्तकी की तरह बरताव करती है जो काफी पहले मर चुकी होती है. ऐसा उसे मल्टी पर्सनैलिटी डिसऔर्डर (Multi Personality Disorder) नाम की बीमारी के चलते होता है. अवनी चतुर्वेदी के परिवार वाले इसे भूतप्रेत का साया मान कर एक तांत्रिक को झाड़फूंक के लिए बुलाते हैं लेकिन अवनी का पति सिद्धार्थ चतुर्वेदी यानी शाइनी आहूजा इस तरह के अंधविश्वास( Superstitious) में यकीन नहीं रखता है, इसलिए वह ऐसी दकियानूसी बातों को नहीं मानता है. वह अमेरिका से अपने एक साइकोलौजिस्ट(Psychologist) दोस्त डाक्टर आदित्य श्रीवास्तव यानी अक्षय कुमार को तांत्रिक के रूप में आ कर झाड़फूंक के बहाने अवनी का इलाज करने को कहता है.

इस फिल्म में अवनी चतुर्वेदी को दिमागी बीमारी से पीडि़त दिखा कर दर्शकों को यह समझाने की कोशिश की गई थी कि लोगों में अजीब तरह के लक्षण होना, दोहरी शख्सीयत में जीना, भूतप्रेत जैसी दकियानूसी बातों के चलते नहीं होता है, बल्कि इस के पीछे दिमागी बीमारियों का हाथ होता है.

इस फिल्म में डाक्टर आदित्य श्रीवास्तव दर्शकों को यह बताने में कामयाब रहे थे कि भूतप्रेत महज कोरा अंधविश्वास है. अगर कोई शख्स किसी दिमागी बीमारी से पीडि़त है तो उसे पूरी तरह से ठीक किया जा सकता है.

दोहरी शख्सीयत से जुड़ी एक और फिल्म ‘दीवानगी’ आई थी, जिस में अजय देवगन को एकसाथ दोहरी शख्सीयत में जीते हुए दिखाया गया था.

इस फिल्म में अजय देवगन एक शख्सीयत में बेहद ही सीधासादा इनसान रहता है तो दूसरी शख्सीयत में हिंसक बन जाता है. लेकिन सामान्य हालत में आने के बाद उसे खुद के द्वारा किए गए जुर्म के बारे में कुछ भी नहीं पता रहता है.

इस तरह की कहानियां सिर्फ फिल्मों में ही नहीं देखने को मिलती हैं बल्कि यह समस्या आम जिंदगी में भी देखने को मिलती है, जिन में हमें यह नहीं पता चल पाता है कि हमारे साथ रहने वाला आदमी एकसाथ कई शख्सीयतों को जी रहा होता है जो दिमागी बीमारी के चलते होता है.

दिमागी बीमारी से पीडि़त वह शख्स कभीकभी अपने सगेसंबंधियों की जान लेने में भी नहीं हिचकता है, क्योंकि उसे दिमागी बीमारी के चलते अपने किए पर कोई पछतावा नहीं होता है.

आज भी लोग दिमागी बीमारियों को भूतप्रेत, तंत्रमंत्र वगैरह का साया मान कर पोंगापंथ के चक्कर में पड़ कर बीमारी को बड़ी बना लेते हैं जिस के चलते वे जिस्मानी, दिमागी और माली शोषण का शिकार तो होते ही हैं, उन के साथ रहने वाले संगेसंबंधियों को भी हर वक्त उन से खतरा बना रहता है.

क्या है यह बीमारी

मल्टी पर्सनैलिटी डिसऔर्डर यानी शख्सीयत में कोई कमी आ जाना आम बात हो सकती है. यह किसी के साथ भी हो सकता है और इस की अलगअलग वजहें भी हो सकती हैं.

मल्टी पर्सनैलिटी डिसऔर्डर से पीडि़त शख्स अपनी असली पहचान छोड़ कर दूसरा आदमी बन जाता है यानी वह एक से ज्यादा पर्सनैलिटी विकसित कर लेता है. उस की हर पर्सनैलिटी का बरताव, आवाज का लहजा और शारीरिक हावभाव अलगअलग होते हैं. लेकिन इस का यह मतलब नहीं कि यह किसी भूतप्रेत या काला जादू के चलते हो रहा है क्योंकि इस धरती पर भूतप्रेत और तंत्रमंत्र का कोई वजूद ही नहीं है, बल्कि यह महज कोरा अंधविश्वास है.

इस तरह की दिमागी बीमारियों की चपेट में औरतें ज्यादा आती हैं. इस की वजह औरतों के साथ बचपन में कोई सैक्स या जिस्मानी शोषण जैसी घटनाओं का घटित होना भी होता है.

ये हैं लक्षण

मनोवैज्ञानिक डाक्टर मलिक मोहम्मद अकमलुद्दीन का कहना है कि किसी शख्स में पर्सनैलिटी डिसऔर्डर होने की कई वजहें हो सकती हैं, जिन में बचपन में लोगों का अनदेखी का शिकार होना, जिस्मानी या दिमागी जोरजुल्म, जिस्मानी छेड़छाड़, बचपन में ही मांबाप की मौत हो जाना वगैरह शामिल हैं.

बरताव में अचानक ही बदलाव हो जाना, अचानक बहुत ज्यादा गुस्सा आ जाना, बहुत ज्यादा डर जाना, अचानक आवाज का बदल जाना, अचानक तेज आवाज में चीखना, शांत हो जाना, मूर्ति की तरह जड़ हो जाना, अचानक बेहद खतरनाक हो जाना, यह सब मल्टी पर्सनैलिटी डिसऔर्डर के लक्षण होते हैं.

ऐसे में पीडि़त के परिवार वाले भूतप्रेत का साया मान कर झाड़फूंक कराने के चक्कर में पड़ जाते हैं और बाबा, पीरफकीर जैसे शातिर उन का फायदा उठा कर इन की जेब को चपत लगाते रहते हैं.

हालात तो तब ज्यादा बिगड़ते हैं जब अंधविश्वास व झाड़फूंक के चक्कर में लोगों की जान पर बन आती है. डाक्टर के पास जाने पर पता चलता है कि बीमारी को और भी बड़ा बना लिया गया है. पर तब तक परिवार वालों के पास सिवा पछताने के कुछ नहीं बचता है.

पर्सनैलिटी डिसऔर्डर से जुड़ी एक खौफनाक घटना इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश में कई साल पहले घटी थी जिस में राजा कोलंदर नाम के एक आदमी ने ताबड़तोड़ 14 हत्याएं कर दी थीं. हर हत्या के बाद वह मारे गए इनसान के दिमाग को उबाल कर उस का सूप बना कर पीता था. लेकिन पत्रकार धीरेंद्र की हत्या उस के इस घिनौने अपराध का परदाफाश करने की वजह बन गई. वह सनकी हत्यारा एक डायरी भी रखता था जिस में हत्या करने वाले या जिन लोगों की हत्याएं कर चुका था उन को सजा भी सुनाता था. इसे वह ‘अदालती डायरी’ भी कहता था. साल 2012 में आए अदालती फैसले में राजा कोलंदर को कुसूरवार मानते हुए 14 लोगों की हत्या के मामले में सजा सुनाई जा चुकी है.

झाड़फूंक से बनाएं दूरी

मैडिकल साइंस में आज तकरीबन सभी बीमारियों का इलाज खोजा जा चुका है और जिन का इलाज नहीं खोजा गया है, उन पर लगातार रिसर्च चल रही है. फिर भी देश में ज्यादातर लोग बाबाओं, ढोंगियों, पाखंडियों, पीरफकीरों व ठग तांत्रिकों के चक्कर में पड़ कर अपनी जेब ढीली करते रहते हैं.

इलाज है मुमकिन

मनोवैज्ञानिक डाक्टर मलिक मोहम्मद अकमलुद्दीन के मुताबिक, अगर समय रहते लक्षणों को पहचान कर इलाज शुरू कर दिया जाए तो पीडि़त शख्स को पूरी तरह ठीक किया जा सकता है.

सामाजिक कार्यकर्ता व लेखिका अरुणिमा का कहना है कि समाज से इस तरह के अंधविश्वास को मिटाने के लिए नौजवानों को आगे आना चाहिए और अच्छी किताबों को पढ़ने की आदत को बढ़ावा देना चाहिए जिस से दूसरे लोगों को जानकारी दे कर इस तरह के पोंगापंथ की असलियत लोगों के सामने लाई जा सके.

दिल्ली प्रैस की पत्रिकाएं भी इस में खास भूमिका निभा रही हैं. इन के हर अंक में अंधविश्वास की पोल खोलते लेख शामिल होते हैं.

डायन…डरावना अंधविश्वास

यूरोप के अंधकार युग के समय वहां की ज्यादातर जवान लड़कियों को डायन करार दे कर जला कर मार डालने की वारदातों का जिक्र आज भी इतिहास के पन्नों में पढ़ने को मिलता है. उस समय इस के खिलाफ आवाज उठाने वालों को डायन कह देना धर्म के नेताओं के लिए कोई बड़ी बात नहीं थी.

जरमनी, इटली और फ्रांस के साथसाथ इंगलैंड जैसे देशों में सैकड़ों बेकुसूर लोगों खासकर औरतों और कम उम्र की लड़कियों को डायन बता कर उन पर जोरजुल्म किया जाता था और आखिर में उन्हें आग के हवाले कर दिया जाता था.

जिन लड़कियों पर जोरजुल्म किया जाता था, उन्हीं में से एक थी जोवन आव मार्क, जो हमलावर अंगरेजों के हाथों फ्रांस को बचाने के मकसद को ले कर जंग में कूद पड़ी थी और 5 सालों के अंदर कट्टर मुक्तिवाहिनी बनाने वाली जोवन आव मार्क को अंगरेजी हुकूमत की सेनाओं द्वारा डायन बता कर जला कर मार दिया गया था.

आज हम सभी 21वीं सदी में हैं और आज के वैज्ञानिक युग में भारत के पूर्वोत्तर राज्यों खासकर असम में एक के बाद एक डायन बता कर हत्या कर देने की दिल दहला देने वाली वारदातें रुकने का नाम नहीं ले रही हैं.

डायन क्या है

डायन एक तरह का अंधविश्वास है. अलौकिक शक्तियों के सहारे किसी का बुरा करने वाले मर्द और औरतें, जो भविष्य की बातें करते हैं, अपना रूप बदल सकते हैं और जिस तरह का काम हो, उस का वे समाधान करने का दावा करते हैं.

इस तरह के लोग कई समुदायों से देखने और सुनने को मिलते हैं. इन्हें ही डायन कहा जाता है.

हमारे देश में डायन का अंधविश्वास कितना पुराना है, यह कहना मुश्किल है, लेकिन पूर्वोत्तर राज्यों में भूतप्रेत और डायन जैसी कुप्रथा वहां के लोगों की ही देन है.

कुछ पंडितों का भी यही कहना है. माधव कंदलि की ‘रामायण’ में भी डायन शब्द का जिक्र है. राजा दशरथ की मौत के बाद रामसीता को वनवास मिलने की कुसूरवार भरत ने अपनी मां कैकेयी को ही ठहराया था.

डायन प्रथा आज सभी समाज में है. बोडो समुदाय   में थानथीन मंत्र शब्द प्रचलित है और खासकर असम के ग्वालपाड़ा जिले में राभा और बोडोकछारी संप्रदायों में यह कुप्रथा भरी पड़ी है.

थानथीन मंत्र को ज्यादातर औरतें सीखती हैं. वे विश्वास करती हैं कि इस मंत्र को पढ़ कर इनसान को मारा जा सकता है.

मिजोरम में मिजो संप्रदाय में खहरिंग को डायन कहा जाता है. ऐसी औरतों को मिजो संप्रदाय के लोग समाज से बाहर कर के उस की हत्या तक कर देते हैं.

मीसिंग समुदाय में यह कुप्रथा कूटकूट कर भरी पड़ी है. यह संप्रदाय मरनो यानी डायन पर पूरा विश्वास करता है. दूरदराज के गांवों में अमंगल और जब कोई अनहोनी घटना घटती है या बीमारियों से किसी की मौत होती है तो कहा जाता है कि डायन ने यह सब किया है.

इस मीसिंग समुदाय में अगर किसी पर शक हुआ तो उसे पकड़ कर रस्सियों से बांधा जाता है और काट कर उसे नदी में बहा दिया जाता है.

ऐसा भी देखने को मिलता है कि प्राचीन समाज में प्रचलित यह कुप्रथा और अंधविश्वास आज भी बहुत से संप्रदायों में देखने को मिल जाता है.

असम के असमिया समाज में मुखालगा यानी नजर लगना कहा जाता है. किसी शख्स का बीमार होना, फल लगने वाले पेड़ पर फल नहीं लगना, पेड़ के पत्ते का सूख जाना या समय से फल हो कर जमीन पर गिर आना वगैरह जैसी घटनाओं को नजर लगना कहा जाता है.

बताया जाता  है कि ऐसे मामलों में कोई कुसूरवार होता है तो उस के सामने जाने से लोग कतराते हैं. यहां तक कि छोटे बच्चों को नजर न लगे, इस के लिए काले टीके लगाए जाते हैं.

इन्हें डायन कहा जाता है

किसी दिमागी परेशानी से जूझ रहे शख्स के अजीब बरताव को देख कर अंधविश्वास में डूबे लोग इन्हें डायन कहते हैं. दूसरी ओर कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो अपने निजी फायदे को पूरा करने और जमीनजायदाद के लालच में किसी को भी डायन करार देते हैं.

यही नहीं, किसी से पुरानी दुश्मनी है तो वह समाज में शोर फैला देता है कि फलां आदमी डायन है, जबकि एक तांत्रिक अपनी दुकान चलाने के लिए किसी दूसरे तांत्रिक को फटकने नहीं देने के लिए उस तांत्रिक को भगाने के चक्कर में समाज में यह अफवाह फैला देता है कि फलां तांत्रिक जादूमंत्र से बुरा करने वाला है.

डायन बता कर हत्या

असम में डायन बता कर बेकुसूर मर्दों, औरतों और लड़कियों के ऊपर जोरजुल्म करने और उन की हत्या कर देने की तमाम वारदातें हो चुकी हैं. साल 1999 में ग्वालपाड़ा जिले के दुधनै इलाके में सयालमारी, साल 2000 में भवानीपुर, साल 2013 में दारीदरी गांव, साल 2000 में कोकराझाड़ जिले के कचूगांव, साल 2006 में विजयनगर, साल 2006 में नंदीपुर, साल 2010 में सेफरांगगुड़ी, साल 2011 में बेलगुड़ी, साल 2011 में सराईपुल, साल 2011 में सांथाईबाड़ी, साल 2011 में बेदलांगमारी, साल 2007 में बाक्सा जिले के रौमारी कलबाड़ी, साल 2009 में बागानपाड़ा, साल 2011 में ठेकरकूची, साल 2008 में शोणितपुर जिले के ठेकेरिलगा गांव, साल 2009 में ततखालगांव और साल 2012 में लखीपथार, साल 2005 में विश्वनाथ चारिआली के खादरू चाय बागान के कछाली लाइन गांव में डायन बता कर किसी को मार देने की वारदातें हो चुकी हैं.

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, साल 2010 से ले कर 2015 तक 36 औरतों और 47 मर्दों को डायन बता कर हत्या कर दी गई, लेकिन असम महिला समता सोसायटी की एक समीक्षा के मुताबिक, महज ग्वालपाड़ा जिले में ही पिछले 10 सालों में डायन होने के शक में जोरजुल्म किए जाने के 87 मामले दर्ज हैं. इन मामलों में 98 औरतें और 2 मर्द शामिल हैं, जिस में 7 औरतें और 4 मर्दों की हत्या केवल ग्वालपाड़ा जिले में की गई.

इन आंकड़ों से पता चलता है कि जिन जगहों पर इस तरह की बर्बर घटनाएं घटी हैं, वह जगह गांव के भीतरी इलाका समूह है, जहां के रहने वाले लोग पढ़ाईलिखाई और डाक्टरी इलाज से कोसों दूर हैं. इन्हीं वजहों के चलते गांव में किसी को किसी तरह की बीमारी हो जाती है तो वह उसे अस्पताल ले जाने के बजाय तांत्रिकों व ओझाओं के पास ले जाते हैं.

नतीजतन, ओझाओं द्वारा टोनाटोटका कर इलाज करना शुरू करते हैं और उसी बीच उस बीमार आदमी की मौत हो जाती है. ओझा गांव के लोगों को यह बता कर पिंड छुड़ाता है कि इस के ऊपर डायन सवार थी और इसी वजह से यह मौत हुई.

आज के इस वैज्ञानिक युग में भी अंधविश्वास का मकड़जाल इस कदर लोगों पर जकड़ा है कि कितने बेकुसूर मर्दों, औरतों और लड़कियों को डायन बता कर हत्या कर दी जाती है. एक ओर जहां हम डिजिटल इंडिया बनाने की बात करते हैं तो वहीं आज भी अंधविश्वास हमारा पीछा नहीं छोड़ रहा है.

बहरहाल, आज के इस वैज्ञानिक युग में अंधविश्वास जैसे मकड़जाल को हटाने के लिए सरकार को उचित कदम उठाने चाहिए, नहीं तो डायन का आरोप लगा कर यों ही हत्याएं होती रहेंगी.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें