Hindi Family Story: देर आए दुरुस्त आए

Hindi Family Story, नीलिमा शोरेवाल

‘‘अरे-रे, यह क्या हो गया मेरी बच्ची को. सुनिए, जल्दी यहां आइए.’’

बुरी तरह घबराई अनीता जोर से चिल्ला रही थी. उस की चीखें सुन कर कमरे में लेटा पलाश घबरा कर अपनी बेटी के कमरे की ओर भाग जहां से अनीता की आवाजें आ रही थीं.

कमरे का दृश्य देखते ही उस के होश उड़ गए. ईशा कमरे के फर्श पर बेहोश पड़ी थी और अनीता उस पर झुकी उसे हिलाहिला कर होश में लाने की कोशिश कर रही थी.

‘‘क्या हुआ, यह बेहोश कैसे हो गई?’’

‘‘पता नहीं, सुबह कई बार बुलाने पर भी जब ईशा बाहर नहीं आई तो मैं ने यहां आ कर देखा, यह फर्श पर पड़ी हुई थी. मुझे तो कुछ समझ नहीं आ रहा. मैं ने इस के मुंह पर पानी भी छिड़का लेकिन इसे तो होश ही नहीं आ रहा.’’

‘‘तुम घबराओ मत, मैं गाड़ी निकालता हूं. हम जल्दी से इसे डाक्टर के पास ले कर चलते हैं.’’

पलाश और अनीता ने मिल कर उसे गाड़ी की सीट पर लिटाया और तुरंत पास के नर्सिंगहोम की तरफ भागे. नर्सिंगहोम के प्रमुख डाक्टर प्रशांत से पलाश की अच्छी पहचान थी सो, बिना ज्यादा औपचारिकताओं के डाक्टर ईशा को जांच के लिए अंदर ले गए. अगले आधे घंटे तक जब कोई बाहर नहीं आया तो अनीता के सब्र का बांध टूटने लगा. वह पलाश से अंदर जा कर पता करने को कह ही रही थी कि डाक्टर प्रशांत बाहर निकले और उन्हें अपने कमरे में आने का इशारा किया.

‘‘क्या हुआ, प्रशांत भैया? ईशा को होश आया या नहीं? उसे हुआ क्या है?’’ उन के पीछे कमरे में घुसते ही अनीता एक ही सांस में बोलती चली गई.

‘‘भाभीजी, आप दोनों यहां बैठो. मुझे आप से कुछ जरूरी बातें करनी हैं,’’ पलाश और अनीता का दिल बैठ गया. जरूर कुछ सीरियस बात है.

‘‘जल्दी बताओ प्रशांत, आखिर बात क्या है?’’

डाक्टर प्रशांत अपनी कुरसी पर बैठ कर कुछ पल दोनों को एकटक देखते रहे. फिर बड़े नपेतुले स्वर में धीरे से बोले, ‘‘मेरी बात सुन कर तुम लोगों को धक्का लगेगा लेकिन सिचुएशन ऐसी है कि रोनेचिल्लाने या घबराने से काम नहीं चलेगा. कोई भी कदम उठाने से पहले चार बार सोचना होगा. दरअसल बात यह है कि ईशा ने आत्महत्या करने की कोशिश की है.’’

‘‘क्…क्याऽऽ?’’ पलाश और अनीता दोनों एकसाथ कुरसी से ऐसे उछल कर खड़े हुए जैसे करंट लगा हो.

‘‘क्या कह रहे हैं डाक्टर, ऐसा कैसे हो सकता है. आत्महत्या तो वे लोग करते हैं जिन्हें कोई बहुत बड़ा दुख या परेशानी हो. मेरी इकलौती बेटी इतने नाजों में पली, जिस की हर फरमाइश मुंह खोलने से पहले पूरी हो जाती हो, जो हमेशा हंसतीखिलखिलाती रहती हो, पढ़ाई में भी हमेशा आगे रहती हो, जिस के ढेरों दोस्त हों, ऐसी लड़की भला क्यों आत्महत्या करने की सोचेगी.’’ पलाश के चेहरे पर उलझन के भाव थे. अनीता तो सदमे के कारण कुरसी का हत्था पकड़े बस डाक्टर को एकटक घूरे जा रही थी. फिर अचानक जैसे उसे होश आया, ‘‘लेकिन अब कैसी है वह? सुसाइड किया कैसे? कोई जख्म तो शरीर पर था नहीं…’’

‘‘उस ने नींद की गोलियां खाई हैं. भाभी, 10-12 गोलियां ही खाई, तभी तो हम उसे बचा पाए. खतरे से तो अब वह बाहर है लेकिन इस समय उस की जो शारीरिक व मानसिक हालत है, उस में उसे संभालने के लिए आप को बहुत ज्यादा धैर्य और समझदारी की जरूरत है. और जहां तक सुखसुविधाओं का सवाल है पलाश, तो पैसे या ऐशोआराम से ही सबकुछ नहीं होता. उस के ऊपर जरूर कोई बहुत बड़ा दबाव या परेशानी होगी जिस की वजह से उस ने यह कदम उठाया है.

‘‘15-16 साल की यह उम्र बहुत नाजुक होती है. बचपन से निकल कर जवानी की दहलीज पर कदम रखते बच्चे अपनी जिंदगी और शरीर में हो रहे बदलावों की वजह से अनेक समस्याओं से जूझ रहे होते हैं. अब तक मांबाप से हर बात शेयर करते आए बच्चे अचानक ही सबकुछ छिपाना भी सीख जाते हैं. इसीलिए अकसर पेरैंट्स को पता ही नहीं चलता कि उन के अंदर ही अंदर क्या चल रहा है. ‘‘ईशा के मामले में भी यही हुआ है, वह किसी वजह ये इतनी परेशान थी कि उसे उस का और कोई हल नहीं सूझा. अब तुम दोनों को बड़े ही प्रेम और धीरज से पहले उस की समस्या का पता लगाना है और फिर उस का निदान करना है. और हां, मैं ने अपने स्टाफ को हिदायत दे दी है कि यह बात बाहर नहीं जानी चाहिए. वरना बेकार में पुलिस केस बन जाएगा. तुम लोग भी इस बात का खयाल रखना कि यह बात किसी को पता न चले वरना पुलिस स्टेशन के चक्कर काटते रह जाओगे. बदनामी होगी वह अलग. बच्ची का समाज में जीना दूभर हो जाएगा.’’

‘‘ठीक कह रहे हो तुम. हम बिलकुल ऐसा ही करेंगे,’’ पलाश अब तक थोड़ा संभल गया था. ‘‘और हां,’’ डाक्टर प्रशांत आगे बोले, ‘‘वैसे तो तुम दोनों पतिपत्नी काफी समझदार और सुलझे हुए हो, फिर भी मैं तुम्हें बता दूं कि अभी 5-7 मिनट में ईशा होश में आने वाली है और जैसे ही उसे पता चलेगा वह जिंदा है, उसे एक धक्का लगेगा और वह काबू से बाहर होने लगेगी. उस समय तुम दोनों घबराना मत और न ही उस से कुछ पूछना. धीरेधीरे जब उस की मानसिक अवस्था इस लायक हो जाए, तब बड़े ही प्यार से उसे विश्वास में ले कर यह पता लगाना कि आखिर उस ने ऐसा क्यों किया.’’

‘‘ठीक है भैया, हम सब समझ गए. क्या हम अभी उस के पास चल सकते हैं?’’

‘‘चलिए,’’ और तीनों ईशा के कमरे की तरफ बढ़ गए.

जैसा डाक्टर प्रशांत ने उन्हें बताया था वैसा ही हुआ. होश आने पर बुरी तरह मचलती और हाथपांव पटकती ईशा को संभालते हुए अनीता का कलेजा मुंह को आ रहा था. चौबीसों घंटे साथ रहते हुए भी वह जान ही न पाई कि ऐसा कौन सा दुख था जो उस की जान से प्यारी बेटी को ऐसे उस से दूर ले गया. चाहे जो भी हो, मैं जल्दी से जल्दी सारी बात का पता लगा कर ही रहूंगी, यही विचार उस के मन में बारबार उठता रहा. लेकिन उस का सोचना गलत साबित हुआ. घटना के 10 दिन बीत जाने के बाद, लाख कोशिशों के बावजूद दोनों पतिपत्नी बुरी तरह डरीसहमी ईशा से कुछ भी उगलवाने में कामयाब नहीं हुए. तब डाक्टर प्रशांत ने उन्हें उसे काउंसलर के पास  ले जाने का सुझाव दिया. वहां भी 6 सिटिंग्स तक तो कुछ नहीं हुआ 7वीं सिटिंग के बाद काउंसलर ने उन्हें जो बताया उसे सुन कर तो दोनों के पैरों तले जमीन ही खिसक गई.

काउंसलर के अनुसार, ‘‘2 महीने पहले ईशा की 1 लड़के से फेसबुक पर दोस्ती हुई. चैटिंग द्वारा धीरेधीरे दोस्ती बढ़ी और फिर प्रेम में तबदील हो गई. फिर फोन नंबरों का आदानप्रदान हुआ और चैटिंग वाट्सऐप पर होने लगी. प्रेम का खुमार बढ़ने के साथसाथ फोटोग्राफ्स का आदानप्रदान शुरू हुआ. शुरू में तो यह साधारण फोटोज थे लेकिन धीरेधीरे नएनवेले प्रेमी की बारबार की फरमाइशों पर ईशा ने अपने कुछ न्यूड और सेमी न्यूड फोटोग्राफ्स भी उसे भेज दिए. अब प्रेमी की नई फरमाइश आई कि ईशा उसे आ कर किसी होटल में मिले. उस के साफ मना करने पर लड़के ने उसे धमकी दी कि अगर वह नहीं आई या उस ने किसी को बताया तो वह उस के सारे फोटोज फेसबुक पर अपलोड कर देगा.

‘‘ईशा ने उस से बहुत मिन्नतें कीं, अपने प्रेम का वास्ता दिया लेकिन प्रेम वहां था ही कहां? लड़के ने उसे 1 हफ्ते का अल्टीमेटम दिया और इस भयंकर प्रैशर को नहीं झेल पाने के कारण ही छठे दिन आधी रात के वक्त अपना अंतिम अलविदा का मैसेज उसे भेज कर ईशा ने सुसाइड करने की कोशिश की.’’ पलाश यह सब सुनते ही बुरी तरह भड़क गया, ‘‘मैं उस कमीने को छोड़ूंगा नहीं, मैं अभी पुलिस को फोन कर के उसे पकड़वाता हूं.’’ ‘‘प्लीज मिस्टर पलाश, ऐसे भड़कने से कुछ नहीं होगा. मेरी बात…’’

‘‘इतनी बड़ी बात होने के बाद भी आप मुझे शांति रखने को कह रहे हैं?’’ काउंसलर की बात बीच में ही काट कर पलाश गुर्राया.

‘‘अच्छा ठीक है, जाइए,’’ वह शांत मुसकराहट के साथ बोले, ‘‘लेकिन जाएंगे कहां? किसे पकड़वाएंगे? उस लड़के का नामपता है आप के पास? उस के फेसबुक अकाउंट के अलावा क्या जानकारी है आप को उस के बारे में? आप को क्या लगता है,  ऐसे लोग अपनी सही डिटेल्स देते हैं अपने अकाउंट पर? कभी नहीं. नाम, उम्र, फोटो आदि सबकुछ फेक होता है. तो कैसे ढूंढ़ेंगे उसे?’’

‘‘यह तो मैं ने सोचा ही नहीं,’’ पलाश हारे हुए जुआरी की तरह कुरसी पर धम से बैठ गया.

तभी अनीता को याद आया, ‘‘फोन नंबर तो है न, ईशा के पास उस का.’’

‘‘उस से भी कुछ नहीं होगा. ऐसे लोग सिम भी गलत नाम से लेते हैं और ईशा का सुसाइड मैसेज मिलने के बाद तो वह उस सिम को कब का नाली में फेंक कर अपना नंबर बदल चुका होगा.’’ ‘‘ओह, तो अब हम क्या करें? ईशा का नंबर तो उस के पास है ही, जैसे ही उसे पता चलेगा कि वह ठीक है, वह फिर से उसे ब्लैकमेल करना शुरू कर देगा. और भी न जाने कितनी लड़कियों को अपना शिकार बना चुका होगा. क्या इस समस्या का कोई हल नहीं?’’

‘‘आप दिल छोटा मत कीजिए. यह काम मुश्किल जरूर है पर असंभव नहीं. मैं एक साइबर सिक्योरिटी ऐक्सपर्ट का नंबर आप को देता हूं. वे जरूर आप की मदद करेंगे.’

‘‘साइबर सिक्योरिटी ऐक्सपर्ट से आप का क्या मतलब है?’’

‘‘मतलब, जैसे दुनिया में छोटेबड़े अपराधियों को पकड़ने के लिए पुलिस होती है, वैसे ही इंटरनैट की दुनिया यानी साइबर वर्ल्ड में भी तरहतरह के अपराध और धोखाधड़ी होती हैं, उन से निबटने के लिए कंप्यूटर के जानकार सिक्योरिटी ऐक्सपर्ट का काम करते हैं, ताकि इन स्मार्ट अपराधियों को पकड़ा जा सके. ये हमारी सरकार द्वारा ही नियुक्त किए जाते हैं और पुलिस और कानून भी इन का साथ देते हैं. आप आज ही जा कर मिस्टर अजीत से मिलिए.’’ अंधरे में जगमगाई इस रोशनी की किरण का हाथ थामे पलाश और अनीता उस ऐक्सपर्ट अजीत के औफिस में पहुंचे. ईशा को भी उन्होंने पूरी बात बता दी थी और उस लड़के के पकड़े जाने की उम्मीद ने उस के अंदर भी साहस का संचार कर दिया था. वह भी उन के साथ थी. उन सब की पूरी बात सुन कर अजीत एकदम गंभीर हो गया.‘‘बड़ा अफसोस होता है यह देख कर कि छोटेछोटे बच्चे पढ़ाईलिखाई की उम्र में इस तरह के घिनौने अपराधों में लिप्त हैं. आप की समस्या तो खैर हमारी टीम चुटकियों में सुलझा देगी. हमें बस इस लड़के का अकाउंट हैक करना होगा और सारी जानकार मिल जाएगी. फिर चैटिंग के सारे रिकौर्ड्स के आधार पर आप उसे जेल भिजवा सकते हैं.’’

‘‘क्या सचमुच यह सब संभव है?’’

‘‘जी हां, हमारे पास साइबर ऐक्सपर्ट्स की पूरी टीम है, जिन के लिए यह सब बहुत ही आसान है. हम लोग हर रोज करीब 15-20 ऐसे और बहुत से अलगअलग तरह के मामले हैंडल करते हैं. कुछ केस तो 1 ही कोशिश में हल हो जाते हैं, लेकिन कुछ में जहां अपराधी पढ़ेलिखे और कंप्यूटर के जानकार होते हैं वहां ज्यादा समय और मेहनत लगती है.’’ ‘‘तो क्या साइबर वर्ल्ड में इतनी धोखाधड़ी होती है?’’ ईशा ने हैरानी से पूछा.

‘‘बिलकुल,’’ अजीत ने जवाब दिया, ‘‘यह एक वर्चुअल दुनिया है. यहां जो दिखता है, अकसर वह सच नहीं होता. यहां आप एक ही समय में सैकड़ों रूप बना कर हजारों लोगों को एकसाथ धोखा दे सकते हैं. फेसबुक पर लड़कियों के नाम से झूठे प्रोफाइल बना कर दूसरी लड़कियों से मजे से दोस्ती करते हैं या उन्हें अश्लील मैसेज भेजते हैं. शादीविवाह वाली साइटों पर नकली प्रोफाइलों से शादी का झांसा दे कर अमीर लड़केलड़कियों को फंसाया जाता है. सोशल साइटों पर अकसर लोग अपनी विदेश यात्राओं, महंगी गाडि़यों आदि चीजों की फोटोग्राफ्स डालते रहते हैं. उन्हें यह नहीं पता होता कि कुछ अपराधी तत्व उन के अकाउंट की इन सारी गतिविधियों पर नजर रखे होते हैं. जब जहां मौका लगता है, चोरियां करवा दी जाती हैं. औनलाइन बैंकिंग बड़ी सुविधाजनक  है, लेकिन अगर कोई हैकर आप का अकाउंट हैक कर ले तो आप का सारा बैंक बैलेंस तो गया समझो.’’

‘‘अगर ये सब इतना असुरक्षित है तो क्या ये सब छोड़ देना चाहिए?’’ अनीता ने पूछा.

‘‘नहीं, छोड़ने की जरूरत नहीं. हमें जरूरत है सिर्फ थोड़ी सावधानी की, दरअसल, हमारे यहां जागरूकता का अभाव है. हम छोटेछोटे बच्चों के हाथ में स्मार्टफोन और लैपटौप तो पकड़ा देते हैं लेकिन उन्हें उन के खतरों से अवगत नहीं कराते. उन्हें हर महीने रिचार्ज तो करा देते हैं लेकिन यह जानने की कोशिश नहीं करते कि बच्चे ने क्या डाउनलोड किया या क्याक्या देखा. उम्र के लिहाज से जो चीजें उन के लिए असल संसार में वर्जित हैं, वे सब इस वर्चुअल दुनिया में सिर्फ एक क्लिक पर उपलब्ध हैं.

‘‘कच्ची उम्र और अपरिपक्व दिमाग पर इन चीजों का अच्छा असर तो पड़ने से रहा. सो, वे तरहतरह की गलत आदतों में आपराधिक प्रवृत्तियों का शिकार हो जाते हैं. ये सब कुछ न हो, इस के लिए हमें कुछ बातों का ध्यान रखना चाहिए. बहुत छोटे बच्चों को अपने पर्सनल गैजेट्स न दें. पीसी या लैपटौप पर जब वे काम करें तो उन के आसपास रह कर उन पर नजर रखें ताकि वे किसी गलत साइट पर न जा सकें. चाइल्ड लौक सौफ्टवेयर का भी प्रयोग किया जा सकता है. फेसबुक या वाट्सऐप का प्रयोग करने वाले बच्चे और बड़े भी यह ध्यान रखें कि वे किसी के कितना भी उकसाने पर भी कोई गलत कंटैंट या तसवीरें शेयर न करें. अपनी सिक्योरिटी और प्राइवेसी सैटिंग्स को ‘ओनली फ्रैंड्स’ पर रखें ताकि कोई गलत आदमी उस में घुसपैठ न कर सके. अनजान लोगों से न दोस्ती करें न चैट. अगर कोई आप को गलत कंटैंट भेजता है तो उसे तुरंत ब्लौक कर दें और फेसबुक पर उस की शिकायत कर दें. ऐसी शिकायतों पर फेसबुक तुरंत ऐक्शन लेता है.

‘‘अपने ईमेल, फेसबुक, ट्विटर या बैंक अकाउंट्स के पासवर्ड अलगअलग रखें और समयसमय पर उन्हें बदलते रहें. किसी और के फोन या कंप्यूटर से कभी अपना कोई भी अकाउंट खोलें तो लौगआउट कर के ही उसे बंद करें. इन छोटीछोटी बातों पर अगर ध्यान दिया जाए तो काफी हद तक हम साइबर क्राइम से अपने को बचा सकते हैं,’’ इतना कह कर अजीत चुप हो गया. पलाश, अनीता और ईशा मानो नींद से जगे, ‘‘इन सब चीजों के बारे में तो हम ने कभी सोचा ही नहीं. लेकिन देर आए दुरुस्त आए. अब हम खुद भी ये सब ध्यान रखेंगे और अन्य लोगों को भी इस बारे में जागरूक करेंगे,’’ पलाश दृढ़ता से बोला.

अगले 2 दिन बड़ी भागदौड़ में बीते. अजीत और उन की टीम को उस लड़के नितिन की पूरी जन्मकुंडली निकालने में सिर्फ 2 घंटे लगे. पुलिस की टीम के साथ उस के घर से उसे दबोच कर उसे जेल भेज कर वापस लौटते समय तीनों बहुत खुश थे.

‘‘मौमडैड, मुझे माफ कर दीजिए. मेरी वजह से आप को इतनी परेशानी उठानी पड़ी,’’ अचानक ईशा ने कहा.

‘‘ईशा, तुम्हें कुछ हो जाता तो मैं और तुम्हारे पापा तो जीतेजी मर जाते,’’ एकदम से अनीता की रुलाई फूट पड़ी, ‘‘कसम खाओ, आगे से कभी ऐसा कुछ करने के बारे कभी नहीं सोचोगी.’’ ‘‘नहीं, कभी नहीं. अब मैं सिर्फ अपनी पढ़ाई और भविष्य पर ध्यान दूंगी और ऐसी गलती दोबरा कभी नहीं करूंगी,’’ कहती हुई ईशा की आंखों में जिंदगी की चमक थी. Hindi Family Story

Family Story: भूल का अंत – किसकी वजह से खतरे में पड़ी मीता की शादीशुदा जिंदगी

Family Story: पूरे घर में हलचल मची हुई थी. कोई परदे बदल रहा था तो कोई नया गुलदस्ता सजा रहा था. अम्मा की आवाज रहरह कर पूरे घर में गूंज उठती, ‘‘किसी भी चीज पर धूल नहीं दिखनी चाहिए. बाजार से मिठाई आ गई या नहीं?’’

नित्या को यह हलचल, ये आवाजें बहुत भली लग रही थीं. फिर भी हृदय में विचित्र सी उथलपुथल थी. उस ने द्वार पर खड़े हो कर एक दृष्टि घर में हो रही सजावट पर डाली, और वह मीता को खोजने लगी. थोड़ी देर पहले तक तो उसी के साथ थी. उस की उंगलियों के नाखून सजाते हुए लगातार बोलती जा रही थी, ‘‘अब हाथ नहीं सजेंगे तो भला उन के सामने प्लेट बढ़ाती तुम्हारी उंगलियों पर ध्यान कैसे जाएगा जीजाजी का,’’ नित्या के दिमाग में पूरी घटना एकबारगी दौड़ गई.

मीता कैसे उसे चिढ़ाती हुई बोली, ‘‘क्या दहीबड़े बनाए हैं मैं ने. आने दो जरा, सजावट में इतनी लाल मिर्च डालूंगी कि ‘सीसी’ न कर उठें हमारे होने वाले जीजाजी तो कहना.’’

नित्या के मन में तो मीठीमीठी गुदगुदी हो रही थी पर ऊपर से क्रोध का दिखावा कर वह उसे डांटती भी जा रही थी, ‘‘चुप, मीतू, अभी वे कौन लगते हैं हम दोनों के?’’

‘‘हां भई, अभी कौन लगते हैं. अभी तो केवल देखनादिखाना हो रहा है.’’

फिर उस की हथेलियां छोड़ बोली, ‘‘तू भी दीदी, एकदम बोर है. वही पुराना जमाना लिए जी रही है. अपना तमाशा बनवाना,’’ यह कहने के साथ ही वह स्तब्ध सी हो उठी. नजरें झुकाए एकदम कमरे से बाहर निकल गई.

‘उफ, अब जाने कहां जा कर रो रही होगी, पगली,’ नित्या ने स्मृतियों को झटकते हुए सोचा तभी बड़ी ताई दनदनाती हुई उस के कमरे में आ गईं, ‘‘मीता कहां है?’’

‘‘पता नहीं,’’ उस ने कहा.

‘‘हूं…बता नहीं रहे तो ठीक है,’’ उन्होंने होंठ सिकोड़ कर कहा, ‘‘मैं ने तो सुबह ही छोटी को कह दिया था कि मीता को लड़के वालों के सामने न आने देना.’’

‘‘लेकिन ताई…’’ उस ने टोकना चाहा.

‘‘लेकिनवेकिन कुछ नहीं. उस के कारण तू कब तक भुगतती रहेगी?’’

नित्या का मन अवसाद से भर उठा. पता नहीं ताई की बात में कितना सत्य है? मीता की एक छोटी सी भूल क्या उस के साथसाथ पूरे घर के लिए भी दुखों का पहाड़ बन गई है?

नित्या की आंखों में मीता की मस्तमौला छवि घूम गई. बचपन से ही अलमस्त सी हिरणी की तरह कुलांचें भरती. झूठे आडंबरों के विरुद्ध ऊंचीऊंची आवाज में बहस करती. जीवन के प्रति सदा अलग दृष्टिकोण अपनाकर चलने की धुन ने ही शायद उस से वह भूल हो जाने दी, जिस का पछतावा उस के जीवन से सारी उमंगें ही छीन ले गया.

कुछ देर को सब भूलभाल कर यदि वह खुश होती भी है तो ताई या मां सरीखी महिलाएं उसे पुरानी बातें याद दिला कर फिर से दुख के सागर में डूब जाने को विवश कर देती हैं.

नित्या को तैयार कराने की जिम्मेदारी ताई की बड़ी बहू पर थी. इस बीच नित्या ने कई बार मीता के बारे में जानना चाहा पर उसे टाल दिया गया. वह समझ गई कि मां ने मीता को एकांत में बैठने का आदेश दे दिया होगा ताकि लड़के वालों के सामने वह न पड़ने पाए.

लड़के वाले आ चुके थे और गहमागहमी बढ़ गई थी. सब के चेहरों पर नित्या के पसंद किए जाने की चिंता से अधिक संभवत: मीता का डर व्याप्त था. कहीं इन लोगों को भी भनक न लग गई हो कि लड़की की छोटी बहन अपने प्रेमी के साथ घर से भाग गई थी. हां, यही शब्द तो सब दोहराते हैं.

कितना भोंडा सा लगता है यह सब. क्या उस समय कोई भी मीता के हृदय में झांकना चाहता है? क्या बीतती होगी उस के मन पर. कैसी कोमल उमंगों के साथ सारे आडंबरों को अंगूठा दिखाती हुई वह अपने प्रेमी के साथ ब्याह रचाने गई थी.

वह भी इसलिए विवश हुई थी क्योंकि घर के सारे सदस्य एक विजातीय के साथ उस का विवाह करने को तैयार नहीं थे. कैसे उस ने अपने अरमानों का खयाली सेहरा उस व्यक्ति के सिर बांधा होगा और आर्य समाज मंदिर में चंद लोगों के समक्ष विवाह किया होगा.

इधर, हर तरफ उस की खोज के बाद पुलिस तक बात पहुंच गई थी. जब वह अपने पति के साथ स्कूटर पर घर वालों से मिलने आ रही थी, तभी पुलिस की जीप उन के पीछे लग गई.

मीता जल्दी से सीधे घर पहुंचना चाह रही थी कि तभी अचानक तेज रफ्तार के कारण घटी दुर्घटना में वह अपने सारे सपनों, सारे अरमानों से हाथ धो बैठी थी.

मीता अपने पति के शव पर ढंग से रो भी न पाई थी कि उसे घर वाले जबरदस्ती पकड़ कर ले आए थे.

मीता के ससुर ने एक पत्र द्वारा अपनी बहू को घर ले जाने का अनुरोध भी किया था पर उस के मातापिता ने उस विवाह को मान्यता देने से ही इनकार कर दिया था.

कई माह तक मीता एकदम गुमसुम हो गई थी. तब चुपकेचुपके नित्या ही उसे समझाती थी. लेकिन घर के शेष सदस्य उसे इस सब से बाहर निकलने ही नहीं दे रहे थे. एक भूल की उसे इतनी कठोर सजा मिलेगी, यह तो उस ने सोचा भी नहीं था. वह अपने ही घर में एक कैदी बना दी गई थी.

पढ़ाई बंद हो गई. समाज की दृष्टि से छिपा कर उसे घर के कार्यों में लगा दिया गया. अभी उस की बड़ी बहन कुंआरी थी. यदि मीता पर कठोर अनुशासन न बैठाया जाता तो नित्या का जीवन भी अंधकारमय हो जाता. हालांकि तमाम सावधानियों के बाद भी नित्या के विवाह में निरंतर बाधाएं आ रही थीं. इसलिए अब लड़के वालों से मीता को छिपाया जाता था.

मेज पर कई प्रकार की मिठाइयां, नमकीन और मेवे सजाए जा रहे थे. ताई की बहू अतिथियों को शीतल पेय पेश कर रही थी.

ताई, मां व पिताजी लड़के वालों के सामने जम कर बैठ गए. मीता को रसोई में चाय बनाने में व्यस्त कर दिया गया था. थोड़ी ही देर में नित्या चाय की ट्रे ले कर भाभी के साथ बैठक में आई तो सब की दृष्टि उस की तरफ उठ गई. मां व पिताजी की आंखें अतिथियों की नजरों की टोह लेने में जुट गईं.

मेहमानों में लड़का, उस के मातापिता, विवाहित बहन व छोटा भाई भी था. सभी उत्सुकता से नित्या को देख रहे थे. मातापिता नित्या से उस की पढ़ाई आदि के बारे में प्रश्न कर रहे थे.

नित्या से अधिक उन के प्रश्नों का उत्तर ताई दे रही थीं. तभी अचानक जैसे धमाका हुआ. लड़के के पिता ने नित्या से कहा, ‘‘बेटी, हम ने सुना था कि तुम 2 बहनें हो. तुम्हारी छोटी बहन दिखाई नहीं दे रही.’’

नित्या ने घबरा कर मां व पिताजी को देखा. ताई सहित सभी के चेहरे का रंग उड़ गया.

पिताजी ने स्थिति को संभालने के लिए कहा, ‘‘जी हां, वह बहुत शरमीली है. रसोई में व्यस्त है.’’

‘‘वाह, बहुत अच्छी चाय बनी है,’’ लड़के के पिता ने कहा. शेष मेहमान मुसकरा कर उन का साथ दे रहे थे.

तभी लड़के की मां ने कहा, ‘‘बुलाइए न उसे भी, मिल तो लें.’’

पिताजी, मां तथा ताई आदि मन ही मन पिता को कोसने लगे कि आखिर वह घड़ी आ ही गई जिस का डर था. सब एकदूसरे का मुंह देख कर जैसे आंखों ही आंखों में पूछ रहे थे कि अब क्या करें.

‘‘जाओ बेटी, तुम बुला लाओ अपनी बहन को. आखिर अपने होने वाले जीजाजी से उसे भी तो मिलना चाहिए.’’

उन की इस बात पर घर वालों की आंखों में जहां यह संकेत पा कर चमक आ गई थी कि नित्या उन्हें पसंद आ गई है, वहीं आगे अब क्या होगा, यह सोच कर उन का सिर चकराने लगा.

ये लोग कुछ कहते, उस से पहले ही नित्या उठ कर अंदर चली गई. उस की आंखों में प्रसन्नता की लहर थी कि उसे पसंद कर लिया गया है. पीछे से ताई उठने लगीं तो लड़के की मां ने कहा, ‘‘आप बैठिए, वह ले आएगी.’’

ताई को मन मार कर बैठना पड़ा. नित्या ने मीता को पहले यह समाचार सुनाया कि उसे शायद पसंद कर लिया गया है. सुनते ही मीता की आंखों में प्रसन्नता के आंसू आ गए पर बाहर चलने के नाम पर उस के मन में भय की लहर दौड़ गई.

थोड़ी देर बाद लड़के की बहन जब भाभी के साथ वहीं आ गई तो मीता को बाहर जाना ही पड़ा.

मां और पिताजी के चेहरों का रंग बुरी तरह उड़ा हुआ था, जैसे सुख हाथ में आतेआते छीना जा रहा हो. मीता को उन लोगों ने अपने बीच में ही बैठा लिया.

लड़के की मां ने हंसते हुए कहा, ‘‘भई, छोटी बहनें तो सब से पहले बड़ी बहन के होने वाले पति को पसंद करने आती हैं. तुम तो अंदर ही छिपी बैठी थीं.’’

मीता ने मुसकरा कर गरदन झुका ली, लेकिन इस से पहले एक भयभीत दृष्टि मातापिता पर डाल ली.

वे लोग नित्या को छोड़ मीता से ही बातें करने लगे तो मां ने उन का ध्यान भंग करते हुए कहा, ‘‘आप लोग मेज तक चलें, नाश्ता ठंडा हो रहा है.’’

‘‘हांहां, वहां भी चलेंगे,’’ लड़के के पिता ने कहा, ‘‘लेकिन पहले अपने घर की सब से बड़ी बहू से कुछ बातें तो कर लें.’’

उन्होंने स्नेहपूर्वक मीता को देखा तो मां व पिताजी भय व आश्चर्य से एकदूसरे का मुख देखने लगे. सोचने लगे कि शायद इन लोगों ने नित्या की जगह मीता को पसंद कर लिया है.

तभी लड़के के पिता ने कहा, ‘‘आप लोग मेरी बात पर इतना परेशान न हों. हमें मालूम है कि आप की छोटी बेटी ने विवाह किया था. जिस घर की यह बहू है वह हमारे अभिन्न मित्र ही नहीं, सगे भाई से भी बढ़ कर हैं.’’

मीता की आंखों में सोया हुआ दर्द जाग उठा था. मातापिता की समझ में नहीं आ रहा था कि अब उन्हें क्या करना चाहिए.

तभी लड़के की मां ने कहा, ‘‘हम मानते हैं कि मीता ने कुछ जल्दबाजी की, पर एक भूल आप से भी हुई. अगर उस सत्य को आप स्वीकार कर लेते तो उस घर का इकलौता दीपक इस तरह बुझने से शायद बच जाता.’’

उन लोगों की आंखें नम थीं. लड़के के पिता बोले, ‘‘जो हुआ सो हुआ, अब हम अपनी बहू को पूरी मानमर्यादा से लेने आए हैं.’’

‘‘क्या मतलब?’’ अचानक नित्या के पिता ने चौंक कर कहा.

मीता के सिर पर हाथ फेरते हुए लड़के के पिता बोले, ‘‘बेटी, तुम्हारा खोया सुख तो वापस नहीं दे पाएंगे हम लेकिन दुख भी नहीं देंगे कभी. हमारा छोटा बेटा यदि तुम्हें पसंद हो तो हम दोनों बहनों को एक ही दिन विदा करवा कर ले जाएंगे.’’

मीता ने धीरेधीरे पलकें उठा कर उधर देखा. एक सलोना युवक मंदमंद मुसकरा रहा था. जैसे इतनी घुटन के बीच शीतल हवा का एक झोंका उस की राह में खुशियां बिखेरने को उत्सुक हो रहा हो.

मीता ने मातापिता की ओर देखा और दुख व संकोच से गरदन झुका ली. नहीं, अब कोई निर्णय वह स्वयं नहीं करेगी. मालूम नहीं, फिर कौन सी भूल कर बैठे.

लेकिन उस के मातापिता कदाचित अपनी सोच से बाहर निकल चुके थे. अनायास ही पिता ने उठ कर लड़के के पिता के दोनों हाथ थाम लिए, ‘‘हमें अपनी भूल का बहुत पछतावा है.’’

मां ने भी खुशी के आंसू पोंछते हुए कहा, ‘‘हम अपनी दोनों बेटियों का रिश्ता आज ही करने को तैयार हैं.’’

घर में अचानक ही चारों ओर खुशियां बिखर गई थीं. शगुन की रस्म से पहले साडि़यां पहनते हुए नित्या ने अचानक मीता के कान में कहा, ‘‘मीतू, तेरे ‘उस’ की प्लेट में कितनी मिर्च डालूं कि जन्मभर ‘सीसी’ करता रहे…?’’ Family Story

Family Story: सब छत एक समान – अंकुर के जन्मदिन पर क्या हुआ शीला के साथ?

Family Story, लेखक- देवेंद्र शर्मा

शीला को जरा भी फुरसत नहीं थी. अगले दिन उस के लाड़ले अंकुर का जन्मदिन था. शीला ने पहले से ही निर्णय ले लिया था कि वह अंकुर के इस जन्मदिन को धूमधाम से मनाएगी और एक शानदार पार्टी देगी.

बारबार पिताजी ने सुरेश को समझाया कि वह बहू को समझाए कि इस महंगाई के दौर में इस तरह की अनावश्यक फुजूलखर्ची उचित नहीं. उन की राय में अपने कुछ निकटतम मित्रों और पड़ोसियों को जलपान करवा देना ही काफी था.

सुरेश ने जब शीला को समझाया तो वह अपने निर्णय से नहीं हटी, उलटे बिगड़ गई थी.

शीला बारबार बालों की लटें पीछे हटाती रसोई की सफाई में लगी थी. उस ने महरी को भी अपनी सहायता के लिए रोक रखा था. दिन में कुछ मसाले भी घर पर कूटने थे, दूसरे भी कई काम थे. इसलिए वह सुबह से ही काम निबटाने में लग गई थी.

‘‘शीला, जरा 3 प्याली चाय बना देना. पिताजी के दोस्त आए हैं,’’ सुरेश रसोई के दरवाजे पर खड़ा अखबार के पन्ने पलटते हुए बोला.

‘‘चाय, चाय, चाय,’’ शीला उबल कर बोली, ‘‘सुबह से अब तक 5 बार चाय बन चुकी है और अभी 10 भी नहीं बजे हैं. तुम्हें अखबार पढ़ने से फुरसत नहीं और पिताजी को चाय पीने से.’’

‘‘शीला, कभी तो ठंडे दिमाग से बात किया करो,’’ सुरेश अखबार मोड़ते हुए बोला, ‘‘जब कल पार्टी दे रही हो तो काम तो बढ़ेगा ही. अब तुम्हारा काम ही पूरा नहीं हुआ. बाहर का सारा काम पिताजी और मैं ने निबटा लिया है.’’

‘‘अकेली जान हूं, देख नहीं रहे. 10 दिन पहले कार्ड डाल दिए थे, न तो अब तक देवरानीजी पधारीं और न ही आप की प्यारी बहन,’’ शीला डब्बों से धूल झाड़ती हुई बोली, ‘‘काम करना पड़ता न. कल पधारेंगी पार्टी में, बड़े आदमी हैं दोनों ही, आप के भाईसाहब और जीजाजी भी.’’

थोड़ी देर बाद उस ने हाथ धो कर चाय के लिए पानी चढ़ा दिया और गुस्से से पति की ओर देखा, ‘‘6 साल का हो गया है मेरा अंकुर. कल उस का जन्मदिन है. मगर है जरा सी भी खुशी किसी के चेहरे पर?’’

सुरेश समझ गया कि शीला अब फिर शुरू हो गई है, इसलिए वह चुप ही रहा.

‘‘आप के पिताजी तो पार्टी को ही मना कर रहे थे, फुजूलखर्ची बता रहे थे, उन्हें तो घर से बाहर निकलना नहीं. समाज में रहना है तो साथ तो चलना पड़ेगा.’’

‘‘पिताजी ठीक कह रहे थे,’’ सुरेश ने उस के पास जा कर कहा.

‘‘क्या ठीक कहा? उन्हें तो मेरी हर खरीदी वस्तु फुजूलखर्ची लगती है. जब नया सोफा लाई तो कहने लगे कि क्या जरूरत थी इस की. नया रंगीन टैलीविजन लिया तो भी बड़बड़ करने लगे, ‘बहू, पैसा बचा कर रखो, काम आएगा.’

‘‘खुद तो अपनी गांठ ढीली करते नहीं. 700-800 से कम तो पैंशन भी नहीं मिलती. मगर मजाल है कि कभी अंकुर को भी 5-10 रुपए पकड़ा दें. सारा पैसा उस छोटे को पकड़ा दिया होगा, वरना कैसे इतनी जल्दी अपना मकान बना लेता इतने बड़े शहर में?’’

‘‘शीला, अरुण हमारा छोटा भाई है. पिताजी ने अगर उसे कुछ दे भी दिया होगा तो क्या बुरा है. तुम कुछ भी कहो, लेकिन पिताजी हमें भी उतना ही चाहते हैं जितना अरुण को,’’ सुरेश समझाने के लहजे में बोला.

‘‘तो क्यों नहीं हमारा भी मकान बनवा दिया? पड़े हैं हम इस किराए के मकान में. गांव में खाली पड़ा मकान बेच कर यहां क्यों नहीं ले लेते हमारे लिए एक मकान, तुम्हारे प्यारे पिताजी,’’ शीला ने फिर पुराना राग अलापना शुरू कर दिया था.

सुरेश चाय ले कर बैठक में चला गया.

अरुण अपनी पत्नी सीमा के साथ पहुंच चुका था. दीदी व जीजाजी भी आ गए थे. शीला, सीमा और दीदी तीनों रसोई में थीं. रात का खाना खाया जा चुका था. अंकुर व दीदी के दोनों बच्चे सो चुके थे. तीनों महिलाएं रसोई का काम निबटा रही थीं.

अरुण, सुरेश, पिताजी, जीजाजी सभी बैठक में बातें कर रहे थे.

‘‘सुरेश, अब तुम लोग भी आराम करो. काफी रात हो चुकी है. सुबह फिर काम में लगना है,’’ पिताजी ने यह कहा और खुद भी चारपाई पर लेट गए.

अंकुर बड़ा खुश था. उस के जन्मदिन पर पार्टी जो दी जा रही थी. उसे ढेर सारे उपहार मिलने थे. वह बच्चों के साथ हंसखेल रहा था. हलवाई की पूरी टीम आ चुकी थी. खाने की तैयारी शुरू हो गई थी. शीला की भागदौड़ बढ़ती जा रही थी.

‘‘सुरेश, मैं जरा बाजार हो कर आता हूं, थोड़ा काम है,’’ पिताजी बोले.

अंकुर पीछे दौड़ने लगा तो दीदी ने उसे रोका, ‘‘बेटा, दादाजी के साथ जा कर क्या करेगा. अरे, तेरे लिए वह सुंदर सा उपहार लाएंगे. इकलौता, प्यारा पोता है तू उन का.’’

‘‘अरे, जानती नहीं दीदी, पिताजी को फुजूलखर्ची बिलकुल पसंद नहीं. क्या करेंगे तोहफा ला कर, दे देंगे ढेर सारे ‘आशीर्वाद’ अपने पोते को.’’

शीला फिर शुरू हो गई थी. उस के कटाक्ष को सब समझ रहे थे. सीमा, दीदी, अरुण, जीजाजी और सुरेश भी. मगर सब खामोश रहे.

केक पर अंकुर की कब से नजर टिकी थी. आखिर वह समय भी आ गया. उस ने फूंक मार कर मोमबत्तियां बुझा दीं. ‘हैप्पी बर्थ डे’ गाया गया. अंकुर केक के टुकड़े सब के मुंह में रखने लगा.

अंकुर को बहुत से उपहार मिले थे. सीमा उस के लिए बड़े सुंदर कढ़ाई किए हुए कपड़े लाई थी. दीदी भी कपड़े और खिलौने लाई थीं.

शीला बड़ी खुश नजर आ रही थी. लाल साड़ी में लिपटी वह अपने को काफी गर्वित महसूस कर रही थी.

‘‘अंकुर बेटा, इधर आना,’’ पिताजी छड़ी पकड़े उसे अपनी ओर बुला रहे थे.

वह सुरेश की बांहों से फिसल कर दादाजी की ओर लपक गया.

शीला मुंह बना कर उधर ही देखने लगी.

‘‘दादाजी, आप हमारे लिए क्या लाए हैं?’’ अंकुर को उन से उपहार मिलने की बड़ी उम्मीद थी.

‘‘हां बेटा,’’ पिताजी ने जेब में हाथ डाला. फिर एक लंबा लिफाफा जेब से निकाला और अंकुर के हाथों में थमा दिया. अंकुर को यह उपहार पसंद नहीं आया.

सुरेश ने उस के हाथ से लिफाफा ले लिया. शीला की नजरें अब सुरेश पर थीं. पिताजी चश्मा उतार कर उस के शीशे साफ करने में लगे थे

सुरेश ने ध्यान से कागज देखे और शीला की ओर बढ़ गया, ‘‘पिताजी ने अंकुर को एक छोटा सा उपहार दिया है. पता नहीं तुम पसंद करोगी या नहीं?’’ यह कह कर उस ने कागजों का वह छोटा सा पुलिंदा शीला के हाथ में थमा दिया.

‘‘मकान के कागज,’’ शीला को यकीन नहीं हो रहा था कि वह जिस किराए के मकान में अब तक रहती आई है, अब उस की मालकिन बन गई है और यह सब पिताजी ने किया है.

एक परदा सा हटने लगा था.

‘‘पिताजी,’’ शीला का स्वर बिलकुल बदला सा था.

‘‘हां, बेटी,’’ पिताजी बोले, ‘‘आखिर कब तक तुम्हें किराए के मकान में देखता. जब देखा कि अरुण ने भी मकान बना लिया है तो डरने लगा कि तुम्हें अपने घर में देखने से पहले ही न चल बसूं. गांव के घर की इतनी कीमत नहीं बनती थी कि यह खरीद पाता. इसलिए अपनी पैंशन के पैसे भी बचाने लगा. पिछले हफ्ते ही यह घर खरीद कर तुम्हारे नाम करवा दिया था. सोचा था, अंकुर के जन्मदिन पर यह खुशखबरी तुम्हें दूंगा. कई बार तुम्हारे गुस्से के बोल मेरे कानों में पड़ जाते थे मगर मैं ने कभी बुरा न माना.

‘‘बेटी, मैं यह नहीं कहता कि समाज या रीतिरिवाज के साथ न चलो. मगर बढ़ती महंगाई को भी देखना चाहिए और अपनी जेब को भी,’’ पिताजी अब खामोश हो गए.

शीला की नजरों के सामने से एकसाथ कई परदे उठ गए. वह कह तो कुछ न सकी. बस, पिताजी को निहारती रही, फिर उन के पैर छू लिए.

शीला अब भी पिताजी की ओर देखे जा रही थी. शायद वह समझ गई थी कि औलाद के लिए तो मांबाप बादल समान होते हैं जिन के लिए सब छत एक समान होती है. वे औलाद में भेदभाव नहीं करते.

‘‘शीला, अब जरा देखो…सब को खाना भी खिलाना है,’’ सुरेश ने कहा.

‘‘हां, आप, अरुण और पिताजी बाहर का देखिए. हम यहां का काम संभालती हैं,’’ शीला सीमा और दीदी के साथ अंदर बढ़ती हुई बोली, ‘‘और हां, पिताजी को याद से खाना खिला देना, पार्टी देर तक चलेगी. वे थक जाएंगे.’’

शीला के ये शब्द सुरेश की खुशी के लिए पर्याप्त थे. Family Story

Family Story In Hindi: सोने का हिरण – रजनी को आगाह क्यों नहीं कर पा रही थी मोनिका

Family Story In Hindi, लेखिका – डा. सुनीता जाजदिया 

लिफ्ट से उतरते हुए मोनिका सोच रही थी कि इस बार भी वह रजनी से वे सब नहीं कह पाई जिसे कहने के लिए वह आज दूसरी बार आई थी. 8वीं क्लास से रजनी उस की दोस्त है. तेल चुपड़े बालों की कानों के ऊपर काले रिबन से बंधी चोटियां, कपड़े का बस्ता, बिना प्रैस की स्कूल ड्रैस, सहमी आंखें क्लास में उस के छोटे शहर और मध्यवर्गीय होने की घोषणा कर रहे थे.

मोनिका को आज भी याद है कैसे क्लास की अभिजात्य वर्ग की लड़कियां उस से सवाल पर सवाल करती थीं. कोई उस की चोटी का रिबन खोल देती थी तो कोई उस का बैग कंधे से हटा देती थी. रजनी को तंग कर वे मजा लेती थीं.

ये वे लड़कियां थीं जो रिबन की जगह बड़ेबड़े बैंड लगाती थीं, जिन के सिर क्रीम और शैंपू की खुशबू से महका करते, जो कपड़े के बस्ते की जगह फैशनेबल बैग लाती थीं और पाबंदी होने के बावजूद उन के नाखून नित नई नेलपौलिश से रंगे होते थे. टीचर्स भी जिन्हें डांटनेडपटने के बदले उन से नए फैशन ट्रैंड्स की चर्चा किया करती थीं.

रजनी की सहमी आंखों में सरलता का ऐसा सम्मोहन था कि मोनिका हर बार उस की मदद के लिए आगे बढ़ जाती थी. किशोरावस्था की उन की यह दोस्ती गहराने लगी. देह की पहेलियां, जीवन के अनसुलझे प्रश्न, भविष्य के सपने, महत्त्वाकांक्षाएं आदि पर घंटों बातें होती थीं उन की. समय ऐसे ही सरकता गया और डिग्री के बाद एमबीए की पढ़ाई के लिए मोनिका विदेश चली गई.

लौटने पर पता चला कि बैंक मैनेजर वसंत से विवाह रचा कर रजनी गृहस्थी में रम गई है. यह रजनी का स्वभाव था कि अपने आसपास जो और जितना भी मिला वह उस में खुश रहती थी. उस से आगे बढ़ कर कुछ और अधिक पाने की मृगतृष्णा में वह हाथ आई खुशियों को खोना नहीं चाहती थी. किंतु इस के विपरीत मोनिका अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के आकाश की ऊंचाई और विस्तार की सीमा को आगे बढ़ कर स्वयं तय करने में विश्वास करती थी.

मोनिका ने बड़ी आईटी कंपनी जौइन कर ली थी. अब दोनों सखियां कम मिलती थीं पर फोन पर उन की बातों का सिलसिला जारी था. मोनिका कभी अपने मन का गुबार निकालने के लिए तो कभी कोई सलाहमशवरा लेने के लिए रजनी के घर का रुख करती थी.

हर परिस्थिति से तालमेल बैठा कर खुश रहने वाली रजनी अपने 2 बच्चों के साथ पूरी तरह गृहस्थी में रम गई थी. वसंत भी तो उस का पूरा खयाल रखता था. जन्मदिन हो या वर्षगांठ, वह कभी तोहफा देना नहीं भूलता था.

महंगी साडि़यां, परफ्यूम, नैकलैस, जड़ाऊ गहनों के तोहफों को बड़े उत्साह से रजनी मोनिका को दिखाती. घूमनाफिरना, छुट्टी मनाने के लिए नई जगहों में घूमना सब कुछ तो हासिल था रजनी को. हर माने में वह एक सुखी जीवन जी रही थी.

पर उस दिन वसंत को मोनिका ने शौपिंग मौल में किसी और के साथ देखा था. मीडियम हाइट और घुंघराले बालों वाले वसंत को पहचानने में उस की आंखें धोखा नहीं खा सकती थीं. एक झोंके की तरह दोनों उस के पास से निकल गए थे.

‘‘नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. जरूर उसे धोखा हुआ है,’’ यह कह कर उस ने इस बात को अपने मन से निकाल दिया था.

इस बात को अभी महीना भर भी नहीं हुआ था कि वसंत उसे कौफी शौप में मिल गया. शौपिंग मौल वाली उसी लड़की के साथ. नजरें टकराने पर कसी हुई कुरती और जींस पहने, छोटे बालों वाली 25-26 वर्षीय युवती का परिचय करवाया, ‘‘यह नीना है, मेरे बैंक में कैशियर…’’

एक ठंडा सा ‘हाय’ उछाल कर मोनिका वहां से खिसक गई. उस के दिमाग में कहीं कुछ खटक गया था पर जमाना तेजी से बढ़ रहा है…एक ही प्रोफैशन के लोग अकसर साथसाथ घूमते हैं. यह सोच उस ने इस बात को भी भुलाना चाहा, पर रजनी का मासूम चेहरा और सरल आंखें उस के सामने आ जातीं.

मोनिका के मन में आया कि वह रजनी से बात करे. फोन भी मिलाया उस ने, पर नंबर मिलते ही लाइन काट दी. उस ने अपने मन को मजबूत किया कि नहीं वह अपने दिमाग में कुलबुलाते वहम के कीड़े को नहीं पालेगी. उसे कुचलना ही होगा वरना वह काला नाग बन खुशियों को न डस ले.

फोन पर रजनी से अब भी बातचीत होती. उस के स्वर में झलकने वाली खुशी से मोनिका अपनेआप को धिक्कारती कि वसंत के लिए उस ने न जाने क्याक्या सोच लिया.

गरमी के दिन थे. औफिस से निकलतेनिकलते आइसक्रीम खाने और समंदर के किनारे टहलने का प्रोग्राम बना. समंदर की ठंडी हवाओं की थपथपाहट से दिन भर की थकान उतर गई. आइसक्रीम का लुत्फ उठाते, गपियाते हुए मोनिका संजना के साथ एक ओर बैठ गई.

संजना को अचानक शरारत सूझी और थोड़ी दूर झाडि़यों के झुरमुट में बैठे जोड़े पर मोबाइल टौर्च से रोशनी फेंकी. मोनिका की आइसक्रीम कोन से पिघल कर उस की कुहनी तक बहने लगी. एकदूजे की बांहों में लिपटे वसंत और नीना का ही था वह जोड़ा.

‘अपनी खास सहेली के घर को वह अपनी आंखों के आगे उजड़ते नहीं देख सकती,’ यह सोच कर औफिस से छुट्टी ले कर वह दूसरे ही दिन रजनी के घर पहुंच गई. वह किचन में रजनी के पास खड़ी अपनी बात कहने का सिरा तलाश रही थी जबकि रजनी बड़े प्यार से वसंत की मनपसंद भिंडी फ्राई, दालमक्खनी, रायता और फुलके तैयार कर रही थी.

मातृत्वसुख और वसंत के प्रेम में पगी रजनी की बातों के आगे मोनिका की बात का सिरा हर बार छूट जाता और आखिर बिना कुछ कहे ही वह उस दिन लौट गई.

आज दूसरी बार भी बिना कुछ बताए रजनी के घर से लौटते हुए वह सोच रही थी कि  वसंत एक पति और पिता की भूमिका बखूबी निभा रहा है. गृहस्थी की लक्ष्मणरेखा के दायरे में मिलने वाले सुख से रजनी खुश और संतुष्ट है. लक्ष्मणरेखा के दूसरी ओर वाले वसंत के बारे में जानना रजनी के लिए सोने के हिरण को पाने जैसा होगा.

मोनिका भलीभांति जानती है कि मरीचिका के पीछे दौड़ कर उसे हासिल करने का साहस रजनी में नहीं और अपनी प्यारी सखी की सरल आंखों और उस के मासूम बच्चों की हंसी को उदासी में बदलने का साहस तो मोनिका में भी नहीं है. Family Story In Hindi

Family Story In Hindi: दीप जल उठे – प्रतिमा ने सासूमां का दिल कैसे जीता?

Family Story In Hindi, लेखिका – डा. सुरेखा शर्मा 

दफ्तर से आतेआते रात के 8 बज गए थे. घर में घुसते ही प्रतिमा के बिगड़ते तेवर देख श्रवण भांप गया कि जरूर आज घर में कुछ हुआ है वरना मुसकरा कर स्वागत करने वाली का चेहरा उतरा न होता.

सारे दिन महल्ले में होने वाली गतिविधियों की रिपोर्ट जब तक मुझे सुना न देती उसे चैन नहीं मिलता था. जलपान के साथसाथ बतरस पान भी करना पड़ता था. अखबार पढ़े बिना पासपड़ोस के सुखदुख के समाचार मिल जाते थे. शायद देरी से आने के कारण ही प्रतिमा का मूड बिगड़ा हुआ है.

प्रतिमा से माफी मांगते हुए बोला, ‘‘सौरी, मैं तुम्हें फोन नहीं कर पाया. महीने का अंतिम दिन होने के कारण बैंक में ज्यादा काम था.’’

‘‘तुम्हारी देरी का कारण मैं समझ सकती हूं, पर मैं इस कारण दुखी नहीं हूं,’’ प्रतिमा बोली.

‘‘फिर हमें भी तो बताओ इस चांद से मुखड़े पर चिंता की कालिमा क्यों?’’ श्रवण ने पूछा.

‘‘दोपहर को अमेरिका से बड़ी भाभी का फोन आया था कि कल माताजी हमारे पास पहुंच रही हैं,’’ प्रतिमा चिंतित होते हुए बोली.

‘‘इस में इतना उदास व चिंतित होने कि क्या बात है? उन का अपना घर है वे जब चाहें आ सकती हैं.’’ श्रवण हैरानी से बोला.

‘‘आप नहीं समझ रहे. अमेरिका में मांजी का मन नहीं लगा. अब वे हमारे ही साथ रहना चाहती हैं.’’ प्रतिमा ने कहा.

‘‘अरे मेरी चंद्रमुखी, अच्छा है न, घर में रौनक बढ़ेगी, बरतनों की उठापटक रहेगी, एकता कपूर के सीरियलों की चर्चा तुम मुझ से न कर के मां से कर सकोगी. सासबहू मिल कर महल्ले की चर्चाओं में बढ़चढ़ कर भाग लेना,’’ श्रवण चटखारे लेते हुए बोला.

‘‘तुम्हें मजाक सूझ रहा है और मेरी जान सूख रही है,’’ प्रतिमा बोली.

‘‘चिंता तो मुझे होनी चाहिए, तुम सासबहू के शीतयुद्ध में मुझे शहीद होना पड़ता है. मेरी स्थिति चक्की के 2 पाटों के बीच में पिसने वाली हो जाती है. न मां को कुछ कह सकता हूं, न तुम्हें.’’

कुछ सोचते हुए श्रवण फिर बोला, ‘‘मैं तुम्हें कुछ टिप्स देना चाहता हूं. यदि तुम उन्हें अपनाओगी तो तुम्हारी सारी परेशानियां एक झटके में उड़नछू हो जाएंगी.’’

‘‘यदि ऐसा है तो आप जो कहेंगे मैं करूंगी. मैं चाहती हूं मांजी खुश रहें. आप को याद है पिछली बार छोटी सी बात से मांजी नाराज हो गई थीं.’’

‘‘देखो प्रतिमा, जब तक पिताजी जीवित थे तब तक हमें उन की कोई चिंता नहीं

थी. जब से वे अकेली हो गई हैं उन का स्वभाव बदल गया है. उन में असुरक्षा की भावना ने घर कर लिया है. अब तुम ही बताओ, जिस घर में उन का एकछत्र राज था वो अब नहीं रहा. बेटों को तो बहुओं ने छीन लिया. जिस घर को तिनकातिनका जोड़ कर मां ने अपने हाथों से संवारा, उसे पिताजी के जाने के बाद बंद करना पड़ा.

‘‘उन्हें कभी अमेरिका तो कभी यहां हमारे पास आ कर रहना पड़ता है. वे खुद को बंधन में महसूस करती हैं. इसलिए हमें कुछ ऐसा करना चाहिए जिस में उन्हें अपनापन लगे. उन को हम से पैसा नहीं चाहिए. उन के लिए तो पिताजी की पैंशन ही बहुत है. उन्हें खुश रखने के लिए तुम्हें थोड़ी सी समझदारी दिखानी होगी, चाहे नाटकीयता से ही सही,’’ श्रवण प्रतिमा को समझाते हुए बोला.

‘‘आप जैसा कहेंगे मैं वैसा ही करने को तैयार हूं,’’ प्रतिमा ने आश्वासन दिया.

‘‘तो सुनो प्रतिमा, हमारे बुजुर्गों में एक ‘अहं’ नाम का प्राणी होता है. यदि किसी वजह से उसे चोट पहुंचती है, तो पारिवारिक वातावरण प्रदूषित हो जाता है यानी परिवार में तनाव अपना स्थान ले लेता है. इसलिए हमें ध्यान रखना होगा कि मां के अहं को चोट न लगे बस… फिर देखो…’’ श्रवण बोला.

‘‘इस का उपाय भी बता दीजिए आप,’’ प्रतिमा ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘हां… हां… क्यों नहीं, सब से पहले तो जब मां आए तो सिर पर पल्लू रख कर चरणस्पर्श कर लेना. रात को सोते समय कुछ देर उन के पास बैठ कर हाथपांव दबा देना. सुबह उठ कर चरणस्पर्श के साथ प्रणाम कर देना,’’ श्रवण ने समझाया.

‘‘यदि मांजी इस तरह से खुश होती हैं, तो यह कोई कठिन काम नहीं है,’’ प्रतिमा ने कहा.

‘‘एक बात और, कोई भी काम करने से पहले मां से एक बार पूछ लेना. होगा तो वही जो मैं चाहूंगा. जो बात मनवानी हो उस बात के विपरीत कहना, क्योंकि घर के बुजुर्ग लोग अपना महत्त्व जताने के लिए अपनी बात मनवाना चाहते हैं. हर बात में ‘जी मांजी’ का मंत्र जपती रहना. फिर देखना मां की चहेती बहू बनते देर नहीं लगेगी,’’ श्रवण ने अपने तर्कों से प्रतिमा को समझाया.

‘‘आप देखना, इस बार मैं मां को शिकायत का कोई मौका नहीं दूंगी.’’

‘‘बस… बस… उन को ऐसा लगे जैसे घर में उन की ही चलती है. तुम मेरा इशारा समझ जाना. आखिर मां तो मेरी ही है. मैं जानता हूं उन्हें क्या चाहिए,’’ कहते हुए श्रवण सोने के लिए चला गया.

प्रतिमा ने सुबह जल्दी उठ कर मांजी के कमरे की अच्छी तरह सफाई करवा दी. साथ ही उन की जरूरत की सभी चीजें भी वहां रख दीं.

हम दोनों समय पर एयरपोर्ट पहुंच गए. हमें देखते ही मांजी की आंखें खुशी से चमक उठीं. सिर ढक कर प्रतिमा ने मां के पैर छुए तो मां ने सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया.

पोते को न देख कर मां ने पूछा, ‘‘अरे तुम मेरे गुड्डू को नहीं लाए?’’

‘‘मांजी वह सो रहा था.’’ प्रतिमा बोली.

‘‘बहू… आजकल बच्चों को नौकरों के भरोसे छोड़ने का समय नहीं है. आएदिन अखबारों में छपता रहता है,’’ मांजी ने समझाते हुए कहा.

‘‘जी मांजी, आगे से ध्यान रखूंगी,’’ प्रतिमा ने मांजी को आश्वासन दिया.

रास्ते भर भैयाभाभी व बच्चों की बातें होती रहीं.

घर पहुंच कर मां ने देखा जिस कमरे में उन का सामान रखा गया है उस में उन की

जरूरत का सारा सामान कायदे से रखा था. 4 वर्षीय पोता गुड्डू दौड़ता हुआ आया और दादी के पांव छू कर गले लग गया.

‘‘मांजी, आप पहले फ्रैश हो लीजिए, तब तक मैं चाय बनाती हूं,’’ कहते हुए प्रतिमा किचन की ओर चली गई.

रात के खाने में सब्जी मां से पूछ कर बनाई गई.

खाना खातेखाते श्रवण बोला, ‘‘प्रतिमा कल आलू के परांठे बनाना, पर मां से सीख लेना तुम बहुत मोटे बनाती हो,’’ प्रतिमा की आंखों में आंखें डाल कर श्रवण बोला.

‘‘ठीक है, मांजी से पूछ कर ही बनाऊंगी.’’ प्रतिमा बोली.

मांजी के कमरे की सफाई भी प्रतिमा कामवाली से न करवा कर खुद करती थी, क्योंकि पिछली बार कामवाली से कोई चीज छू गई थी, तो मांजी ने पूरा घर सिर पर उठा लिया था.

अगले दिन औफिस जाते समय श्रवण को एक फाइल न मिलने के कारण वह बारबार प्रतिमा को आवाज लगा रहा था. प्रतिमा थी कि सुन कर भी अनसुना कर मां के कमरे में काम करती रही. तभी मांजी बोलीं, ‘‘बहू तू जा, श्रवण क्या कह रहा सुन ले.’’

‘‘जी मांजी.’’

दोपहर के समय मांजी ने तेल मालिश के लिए शीशी खोली तो प्रतिमा ने शीशी हाथ में लेते हुए कहा, ‘‘लाओ मांजी मैं लगाती हूं.’’

‘‘बहू रहने दे. तुझे घर के और भी बहुत काम हैं, थक जाएगी.’’

‘‘नहीं मांजी, काम तो बाद में भी होते रहेंगे. तेल लगातेलगाते प्रतिमा बोली, ‘‘मांजी, आप अपने समय में कितनी सुंदर दिखती होंगी और आप के बाल तो और भी सुंदर दिखते होंगे, जो अब भी कितने सुंदर और मुलायम हैं.’’

‘‘अरे नहीं, ऐसी कोई बात नहीं, हां तुम्हारे बाबूजी जरूर कभीकभी छेड़ दिया करते थे. कहते थे कि यदि मैं तुम्हारे कालेज में होता तो तुम्हें भगा ले जाता.’’ बात करतेकरते उन के मुख की लालिमा बता रही थी जैसे वे अपने अतीत में पहुंच गई हैं.

प्रतिमा ने चुटकी लेते हुए मांजी को फिर छेड़ा, ‘‘मांजी गुड्डू के पापा बताते हैं कि आप नानाजी के घर भी कभीकभी ही जाती थीं, बाबूजी का मन आप के बिना लगता ही नहीं था. क्या ऐसा ही था मांजी?’’

‘‘चल हट… शरारती कहीं की… कैसी बातें करती है… देख गुड्डू स्कूल से आता होगा,’’ बनावटी गुस्सा दिखाते हुए मांजी नवयौवना की तरह शरमा गईं. शाम को प्रतिमा को सब्जी काटते देख मांजी बोलीं, ‘‘बहू तुम कुछ और काम कर लो, सब्जी मैं काट देती हूं.’’

मांजी रसोईघर में गईं तो प्रतिमा ने मनुहार करते हुए कहा, ‘‘मांजी, मुझे भरवां शिमलामिर्च की सब्जी बनानी नहीं आती, आप सिखा देंगी? ये कहते हैं, जो स्वाद मां के हाथ के बने खाने में है, वह तुम्हारे में नहीं.’’

‘‘हां… हां… क्यों नहीं, मुझे मसाले दे मैं बना देती हूं. धीरेधीरे रसोई की जिम्मेदारी मां ने अपने ऊपर ले ली थी. और तो और गुड्डू की मालिश करना, उसे नहलाना, उसे खिलानापिलाना सब मांजी ने संभाल लिया. अब प्रतिमा को गुड्डू को पढ़ाने के लिए बहुत समय मिलने लगा. इस तरह प्रतिमा के सिर से काम का भार कम हो गया था.’’

साथसाथ घर का वातावरण भी खुशनुमा रहने लगा. श्रवण को प्रतिमा के साथ कहीं घूमने जाना होता तो वह यही कहती कि मां से पूछ लो, मैं उन के बिना नहीं जाऊंगी. एक दिन पिक्चर देखने का मूड बना. औफिस से आते हुए श्रवण 2 पास ले आया. जब प्रतिमा को चलने के लिए कहा तो वह झट से ऊंचे स्वर में बोल पड़ी, ‘‘मांजी चलेंगी तो मैं चलूंगी अन्यथा नहीं.’’ वह जानती थी कि मां को पिक्चर देखने में कोई रुचि नहीं है. उन की तूतू, मैंमैं सुन कर मांजी बोलीं, ‘‘बहू, क्यों जिद कर रही हो? श्रवण का मन है तो चली जा. गुड्डू को मैं देख लूंगी.’’ मांजी ने शांत स्वर में कहा.

‘अंधा क्या चाहे दो आंखें’ वे दोनों पिक्चर देख कर वापस आए तो उन्हें खाना तैयार मिला. मांजी को पता था श्रवण को कटहल पसंद है, इसलिए फ्रिज से कटहल निकाल कर बना दिया. चपातियां बनाने के लिए प्रतिमा ने गैस जलाई तो मांजी बोलीं, ‘‘प्रतिमा तुम खाना लगा लो रोटियां मैं सेंकती हूं.’’

‘‘नहीं मांजी, आप थक गई होंगी, आप बैठिए, मैं गरमगरम रोटियां बना कर लाती हूं.’’ प्रतिमा बोली. ‘‘सभी एकसाथ बैठ कर खाएंगे, तुम बना लो प्रतिमा,’’ श्रवण बोला.

एकसाथ सभी को खाना खाते देख मांजी की आंखें नम हो गईं. श्रवण ने पूछा तो मां बोलीं, ‘‘आज तुम्हारे बाबूजी की याद आ गई. आज वे होते तो तुम सब को देख कर बहुत खुश होते.’’

‘‘मां मन दुखी मत करो,’’ श्रवण बोला.

प्रतिमा की ओर देख कर श्रवण बोला, ‘‘कटहल की सब्जी ऐसे बनती है. सच में मां… बहुत दिनों बाद इतनी स्वादिष्ठ सब्जी खाई है. मां से कुछ सीख लो प्रतिमा…’’

‘‘मांजी सच में सब्जी बहुत स्वादिष्ठ है… मुझे भी सिखाना…’’

‘‘बहू… खाना तो तुम भी स्वादिष्ठ बनाती हो.’’

‘‘नहीं मांजी, जो स्वाद आप के हाथ के बनाए खाने में है वह मेरे में कहां?’’ प्रतिमा बोली.

श्रवण को दीवाली पर बोनस के पैसे मिले तो देने के लिए उस ने प्रतिमा को आवाज लगाई. प्रतिमा ने आ कर कहा, ‘‘मांजी को ही दीजिए न…’’ श्रवण ने लिफाफा मां के हाथ में रख दिया. मांजी लिफाफे को उलटपलट कर देखते हुए रोमांचित हो उठीं. आज वे खुद को घर की बुजुर्ग व सम्मानित सदस्य अनुभव कर रही थीं. श्रवण व प्रतिमा जानते थे कि मां को पैसों से कुछ लेनादेना नहीं है. न ही उन की कोई विशेष जरूरतें थीं. बस उन्हें तो अपना मानसम्मान चाहिए था.

अब घर में कोई भी खर्चा होता या कहीं जाना होता तो प्रतिमा मां से जरूर पूछती. मांजी भी उसे कहीं घूमने जाने के लिए मना नहीं करतीं. अब हर समय मां के मुख से प्रतिमा की प्रशंसा के फूल ही झरते. दीवाली पर घर की सफाई करतेकरते प्रतिमा स्टूल से जैसे ही नीचे गिरी तो उस के पांव में मोच आ गई. मां ने उसे उठाया और पकड़ कर पलंग पर बैठा कर पांव में मरहम लगाया और गरम पट्टी बांध कर उसे आराम करने को कहा.

यह सब देख कर श्रवण बोला, ‘‘मां मैं ने तो सुना था बहू सेवा करती है सास की, पर यहां तो उलटी गंगा बह रही है.’’

‘‘चुप कर, ज्यादा बकबक मत कर, प्रतिमा मेरी बेटी जैसी है. क्या मैं इस का ध्यान नहीं रख सकती,’’ प्यार से डांटते हुए मां बोली.

‘‘मांजी, बेटी जैसी नहीं, बल्कि बेटी कहो. मैं आप की बेटी ही तो हूं.’’ प्रतिमा की बात सुनते ही मांजी ने उस के सिर पर हाथ रखा और बोलीं, ‘‘तुम सही कह रही हो बहू, तुम ने बेटी की कमी पूरी कर दी.’’

घर में होता वही जो श्रवण चाहता, पर एक बार मां की अनुमति जरूर ली जाती. बेटा चाहे कुछ भी कह दे, पर बहू की छोटी सी भूल भी सास को सहन नहीं होती. इस से सास को अपना अपमान लगता है. यह हमारी परंपरा सी बन चुकी है. जो धीरेधीरे खत्म भी हो रही है. मांजी को थोड़ा सा मानसम्मान देने के बदले में उसे अच्छी बहू का दर्जा व बेटी का स्नेह मिलेगा, इस की तो उस ने कल्पना ही नहीं कीथी. प्रतिमा के घर में हर समय प्यार का, खुशी का वातावरण रहने लगा. दीवाली नजदीक आ गई थी. मां व प्रतिमा ने मिल कर पकवान बनाए. लगता है इस बार की दीवाली एक विशेष दीवाली रहेगी, सोचतेसोचते श्रवण बिस्तर पर लेटा ही था कि अमेरिका से भैया का फोन आ गया. उन्होंने मां के स्वास्थ्य के बारे में पूछा और बताया कि इस बार मां उन के पास से नाराज हो कर गई हैं. तब से मन बहुत विचलित है.

यह तो हम सभी जानते हैं कि नंदिनी भाभी और मां के विचार कभी नहीं मिले, पर अमेरिका में भी उन का झगड़ा होगा, इस की तो कल्पना भी नहीं की थी. भैया ने बताया कि वे माफी मांग कर प्रायश्चित करना चाहते हैं अन्यथा हमेशा उन के मन में एक ज्वाला सी दहकती रहेगी. आगे उन्होंने जो बताया वह सुन कर तो मैं खुशी से उछल ही पड़ा. बस अब 2 दिन का इंतजार था, क्योंकि 2 दिन बाद दीवाली थी.

इस बार दीवाली पर प्रतिमा ने घर कुछ विशेष प्रकार से सजाया था. मुझे उत्साहित देख कर प्रतिमा ने पूछा, ‘‘क्या बात है, आप बहुत खुश नजर आ रहे हैं?’’

अपनी खुशी को छिपाते हुए मैं ने कहा, ‘‘तुम सासबहू का प्यार हमेशा ऐसे ही बना रहे बस… इसलिए खुश हूं.’’

‘‘नजर मत लगा देना हमारे प्यार को,’’ प्रतिमा खुश होते हुए बोली. दीवाली वाले दिन मां ने अपने बक्से की चाबी देते हुए कहा, ‘‘बहू लाल रंग का एक डब्बा है उसे ले आ.’’ प्रतिमा ने जी मांजी कह कर डब्बा ला कर दे दिया. मां ने डब्बा खोला और उस में से खानदानी हार निकाला.  हार प्रतिमा को देते हुए बोलीं, ‘‘लो बहू,

ये हमारा खानदानी हार है, इसे संभालो. दीवाली इसे पहन कर मनाओ, तुम्हारे पिताजी की यही इच्छा थी.’’  हार देते हुए मां की आंखें खुशी से नम हो गईं.

प्रतिमा ने हार ले कर माथे से लगाया और मां के पैर छू कर आशीर्वाद लिया. मुझे बारबार घड़ी की ओर देखते हुए प्रतिमा ने पूछा तो मैं ने टाल दिया. दीप जलाने की तैयारी हो रही थी तभी मां ने आवाज लगा कर कहा, ‘‘श्रवण जल्दी आओ, गुड्डू के साथ फुलझडि़यां भी तो चलानी हैं. मैं साढ़े सात बजने का इंतजार कर रहा था, तभी बाहर टैक्सी रुकने की आवाज आई. मैं समझ गया मेरे इंतजार की घडि़यां खत्म हो गईं.

मैं ने अनजान बनते हुए कहा, ‘‘चलो मां सैलिब्रेशन शुरू करें.’’

‘‘हां… हां… चलो, प्रतिमा… आवाज लगाते हुए कुरसी से उठने लगीं तो नंदिनी भाभी ने मां के चरणस्पर्श किए… आदत के अनुसार मां के मुख से आशीर्वाद की झड़ी लग गई, सिर पर हाथ रखे बोले ही जा रही थीं… खुश रहो, आनंद करो… आदिआदि.’’

भाभी जैसे ही पांव छू कर उठीं तो मां आश्चर्य से देखती रह गईं. आश्चर्य  के कारण पलक झपकाना ही भूल गईं. हैरानी से मां ने एक बार भैया की ओर एक बार मेरी ओर देखा. तभी भैया ने मां के पैर छुए तो खुश हो कर भाभी के साथसाथ मुझे व प्रतिमा को भी गले लगा लिया. मां ने भैयाभाभी की आंखों को पढ़ लिया था. पुन: आशीर्वचन देते हुए दीवाली की शुभकामनाएं दीं मां की आंखों में खुशी की चमक देख कर लग रहा था दीवाली के शुभ अवसर पर अन्य दीपों के साथ मां के हृदयरूपी दीप भी जल उठे. जिन की ज्योति ने सारे घर को जगमग कर दिया. Family Story In Hindi

Hindi Romantic Story: आसमान छूते अरमान – चंद्रवती के अरमानों की कहानी

Hindi Romantic Story: चंद्रो बस से उतर कर अपनी सहेलियों के साथ जैसे ही गांव की ओर चली, उस के कानों में गांव में हो रही किसी मुनादी की आवाज सुनाई पड़ी.

‘गांव वालो, मेहरबानो, कद्रदानो, सुन लो इस बार जब होगा मंगल, गांव के अखाड़े में होगा दंगल. बड़ेबडे़ पहलवानों की खुलेगी पोल, तभी तो बजा रहा हूं जोर से ढोल. देखते हैं कि मंगलवार को लल्लू पहलवान की चुनौती को कौन स्वीकार करता है. खुद पटका जाता है कि लल्लू को पटकनी देता है. मंगलवार शाम4 बजे होगा अखाड़े में दंगल.’‘‘देख चंद्रो, इस बार तो तेरा लल्लू गांव में ही अखाड़ा जमाने आ गया,’’ एक सहेली बोली.

‘‘धत्… चल, मैं तुझ से बात नहीं करती,’’ चंद्रो ने कहा.

‘‘अब तू हम से क्या बात करेगी चंद्रो. अब तो तू उस के खयालों में खो जाएगी,’’ दूसरी सहेली बोली.

चंद्रो ने शरमा कर दुपट्टे में अपना मुंह छिपा लिया. तब तक उस का घर भी आ चुका था. वह अपनी सहेलियों को छोड़ कर तेजी से घर के दरवाजे की ओर बढ़ गई.

चंद्रो का पूरा नाम चंद्रवती था. वह कभी छुटपन में लल्लू की सहपाठी रही थी, तभी उन के बीच प्यार का बीज फूट गया था. चंद्रवती को चंद्रो नाम देने वाला भी लल्लू पहलवान ही था.

चंद्रवती को पढ़नेलिखने, गीतसंगीत और डांस में ज्यादा दिलचस्पी थी. उस के अरमान बचपन से ही ऊंचे थे. लल्लू पहलवानी का शौक रखता था. पढ़ाई में उस की इतनी दिलचस्पी नहीं थी, जितनी अखाड़े में जोरआजमाइश करने की.

फिलहाज, चंद्रवती हिंदी साहित्य में एमए कर रही थी. यह उस का एमए का आखिरी साल था. उस का कालेज गांव से 14-15 किलोमीटर दूर शहर में था. अपनी सहेलियों के साथ वह रोज ही बस से कालेज जाती थी. उस के मातापिता उस के लिए अच्छे वर की तलाश कर रहे थे.

लल्लू पहलवान को कुश्ती लड़नेका शौक ऐसा चढ़ा था कि पढ़ाई बहुत पीछे छूट गई थी. लेकिन पहलवानी में उस ने अपनी धाक जमा ली थी. 40-50 किलोमीटर दूर तक के गांवों में उस की बराबरी का कोई पहलवान न था. अब वह पेशेवर पहलवान बन चुका था और अच्छी कमाई कर रहा था.

चंद्रवती रातभर लल्लू की यादों में खोई रही. वे बचपन की यादें और अब अल्हड़ जवानी. चंद्रवती को लल्लू से मिले कई साल हो चुके थे, लेकिन उस का वह बचपन का मासूम चेहरा अभी भी आंखों में समाया हुआ था.

मंगलवार को शाम 4 बजे तक अखाड़े में तिल धरने की भी जगह न बची थी. औरतों को बिठाने के लिए अखाड़ा समिति ने अलग से इंतजाम किया था. पहली कुश्ती मुश्किल से 5 मिनट चली. लल्लू ने कुछ देर तक तो पहलवान के साथ दांवपेंच दिखाए और फिर उसे कंधे पर उठा कर अखाड़े का जो चक्कर लगाया, तो तालियों की बरसात होने लगी.

कुछ देर बाद पांच मुकाबले हुए और सब का हाल पहले पहलवानों जैसा ही हुआ.

अब लल्लू के चेहरे पर थकान साफ नजर आ रही थी. उसे सभी मुकाबलों में जीत मिलने का इनाम मिल चुका था.

जब सब गांव वाले जाने लगे, तो चंद्रवती की सहेलियां उसे लल्लू से मिलाने के लिए जबरन पकड़ कर ले गईं.लल्लू भीड़ से घिरा हुआ था, फिर भी सहेलियां चंद्रवती को लल्लू से मिलाने पर आमादा थीं. यह काम किया चंद्रवती की सहेली मधु के भाई माधवन ने. उस ने लल्लू से कान में जा कर कहा, ‘‘तुम्हारी कोई रिश्तेदार उधर खड़ी है. वह एक मिनट के लिए तुम से मिलना चाहती है.’’

लल्लू उठ कर गया, तो वहां 5-6 लड़कियां खड़ी थीं. लेकिन उन में से उसे कोई भी अपनी रिश्तेदार नजर नहीं आई. उस ने पूछा, ‘‘कहां है मेरी रिश्तेदार?’’

‘‘पहलवानजी, अपनी रिश्तेदार को भी नहीं पहचानते. बड़े पहलवान हो गए हो, इसलिए बचपन के रिश्ते को ही भूल गए,’’ चंद्रवती की एक सहेली इंदू ने उलाहना देते हुए कहा.

चंद्रवती का दिल जोरजोर से धड़क रहा था कि कहीं लल्लू उसे भूल ही न गया हो. तब मधु ने कहा, ‘‘किसी चंद्रो को जानते हो तुम? कोई चंद्रो पढ़ती थी तुम्हारे साथ बचपन में?’’

चंद्रो का नाम सुनते ही लल्लू का चेहरा खिल उठा. उस के मुंह से अनायास ही निकला, ‘‘अरे चंद्रो, हां, कहां है मेरी चंद्रो?’’

यह सुनते ही चंद्रो शरमा कर अपनेआप में ही मिसट गई. सहेलियां मुसकरा पड़ीं और लल्लू भी अपने उतावलेपन पर शर्मिंदा हो गया. कुछ ही दिनों में चंद्रवती लल्लू के घरआंगन को महकाने के लिए आ गई. कुछ दिन तक तो लल्लू चंद्रवती के प्यार में ऐसा खोया रहा कि पहलवानी के सारे दांवपेंच भूल गया. दोनों एकदूसरे को पा कर बहुत खुश थे.

उन दोनों की गृहस्थी बड़े आराम से पटरी पर चल रही थी. उन्हीं दिनों गांव में पंचायत चुनाव आ गए. लल्लू की राजनीति में कोई दिलचस्पी न थी, लेकिन चंद्रवती को राजनीति विरासत में मिली थी. उस के दादा अपने गांव में कई साल प्रधान रहे थे और अब उस के चाचा राम सिंह अपने गांव के प्रधान थे.

गांव वालों का लल्लू को प्रधान बनाने का इशारा था, लेकिन चुनाव आयोग ने उन के गांव के प्रधान का पद औरत के लिए रिजर्व कर दिया था.

लल्लू को पूरा गांव अपने पक्ष में लग रहा था, इसलिए वह चाह कर भी मना नहीं कर सका और उस ने चंद्रवती को चुनावी मैदान में उतार दिया. चुनाव एकतरफा रहा और चंद्रवती मालिनपुर गांव की प्रधान बन गई. शुरूशुरू में प्रधान के सारे काम लल्लू ही देखता था, लेकिन किसी कागज पर दस्तखत करने हों या फिर ग्राम प्रधानों की बैठक में जाना हो, तब चंद्रवती का जाना जरूरी हो जाता था.

चंद्रवती पढ़ीलिखी थी, अफसरों से बात करना ठीक से जानती थी, ग्राम प्रधान के अपने हकों को भी वह अच्छी तरह समझती थी. धीरेधीरे ग्राम प्रधानी का कामकाज उस के हाथों में आने लगा और लल्लू किनारे लगने लगा.

अब चंद्रवती पराए मर्दों से शरमाती न थी. उसे कहीं अकेले जाना पड़ता, तो वह लल्लू की बाट न जोहती थी. किसी को चंद्रवती से मिलना होता, तो वह उस से सीधा मिलता. लल्लू सिर्फ दरबारी बन कर रह गया था, सिंहासन पर चंद्रवती बैठी थी.

प्रधानों के संघ में चंद्रवती जितनी खूबसूरत और पढ़ीलिखी कम ही औरतें थीं, इसलिए प्रधान संघ का सचिव पद पाने में वह कामयाब हो गई. चंद्रवती के अरमान अब आसमान छूने लगे थे. वह मर्दों को दुनिया में मुकाम हासिल करने के गुर सीखने लगी. लंगोट के कच्चे मर्द को एक ही मुसकान से कैसे पस्त किया जा सकता है, यह वह अच्छी तरह जान गई थी.

अब चंद्रवती हमेशा बड़े नेताओं और अफसरों से मेलजोल बढ़ाने के मौके तलाशने लगी. यह वह सीढ़ी थी, जिस पर चढ़ कर वह अपनी इच्छाओं के आसमान पर पहुंच सकती थी.

एक बार प्रदेश सरकार का मंत्री भूरेलाल जिले के दौरे पर आया, तो उस की पार्टी के कार्यकर्ताओं ने उस का दौरा मालिनपुर में ही लगा दिया.चंद्रवती अपने दबदबे से मालिनपुर में तरक्की के अनेक काम करवा चुकी थी. जिसे देखने के लिए मंत्री को ग्राम प्रधान से मिलने की इच्छा और बढ़ गई.

चंद्रवती ने पहले से ही मंत्री के लिए नाश्ते का इंतजाम घर पर ही कर रखा था. भूरेलाल का स्वागत करने के लिए चंद्रवती सजीधजी दरवाजे पर ही खड़ी थी. वह खूबसूरती के भूखे इन मर्दों को अच्छी तरह से जानती थी.

चंद्रवती के रूप को देख कर भूरेलाल की आंखें चौंधिया गईं. चंद्रवती ने बैठक को भी ऐसा सजाया था कि भूरेलाल देखता ही रह गया. जब चंद्रवती भूरेलाल के सामने बैठी, तो वह गांव की तरक्की के काम की बात भूल कर उस की खूबसूरती को देखने में मगन हो गया.

जब चंद्रवती ने अपने सुकोमल हाथों और एक मोहन मुसकान से उसे चाय की प्याली पकड़ाई, तब जा कर भूरेलाल की नींद टूटी.

भूरेलाल गांव का दौरा कर के चला तो गया, पर उस का दिल मालिनपुर में ही अटक कर रह गया. शाम को ही मंत्री भूरेलाल ने फोन कर के चंद्रवती को उस की ‘अच्छी चाय’ के लिए धन्यवाद दिया.

चंद्रवती जान गई थी कि तीर निशाने पर लगा है. उस ने योजनाएं बनानी शुरू कर दीं कि मंत्री भूरेलाल से क्याक्या काम करवाने हैं और आगे बढ़ने के लिए इस सीढ़ी का इस्तेमाल कैसे किया जा सकता है.

अब मालिनपुर गांव में तरक्की का जो भी छोटाबड़ा काम होता, उस का उद्घाटन भूरेलाल के ही हाथों होता. भूरेलाल चंद्रवती को पार्टी के कार्यक्रमों में शिरकत करने के लिए बुलाने लगा.

जल्दी ही भूरेलाल ने चंद्रवती की ताजपोशी खादी ग्रामोद्योग बोर्ड के अध्यक्ष पद पर करवा दी. फिर तो चंद्रवती को नीली बत्ती की गाड़ी मिल गई.

ओहदा बढ़ते ही चंद्रवती आजाद पंक्षी हो गई. लल्लू पहलवान ने उसे घोंसले में ही कैद रखने के लिए उस के पर कतरने की काफी कोशिश की, लेकिन चंद्रवती के सामने उस की अब बिसात ही क्या थी.

एक दिन भूरेलाल ने मौका देख कर कहा, ‘‘चंद्रवतीजी, आप खूबसूरत होने के साथसाथ काबिल भी हो. कोशिश करो, तो विधायक भी बन सकती हो.’’

चंद्रवती ने इतराते हुए कहा, ‘‘मंत्रीजी, ऐसे दिन हमारे कहां?’’

‘‘हम तुम्हारे साथ हैं न. बस, तुम्हें साथ देने की जरूरत है,’’ भूरेलाल ने आखिरी शब्द चंद्रवती के हाथ पर हाथ रखते हुए कहा. चंद्रवती मंत्री भूरेलाल के एहसानों से इतना दब चुकी थी कि वह कोई विरोध न कर सकी, सिर्फ अपना हाथ पीछे खींच लिया.

भूरेलाल ने सकपकाते हुए कहा, ‘‘चंद्रवती, देखो राजनीति करने के लिए बहुतकुछ कुरबान करना पड़ता है. अब देखो विधायक का टिकट पाना है, तो अनेक नेताओं से मिलना ही पड़ेगा. अब मैं तुम्हें प्रदेश अध्यक्ष से मिलवाना चाहता हूं, उस के लिए तुम्हें लखनऊ तो चलना ही पड़ेगा. घर जा कर सोचना और ‘हां’ और ‘न’ में जवाब देना. वैसे तो तुम समझदार हो ही.’’

चंद्रवती इस ‘हां’ और ‘न’ का मतलब अच्छी तरह समझती थी. घर पहुंचने पर वह कुछ दुविधा में थी. लल्लू से जब उस ने लखनऊ जा कर प्रदेश अध्यक्ष से मिलने की बात कही, तो उस ने कहा, ‘‘चंद्रवती, धीरेधीरे चलो, तुम उड़ रही हो. हम जितना ऊंचे उड़ते हैं, उतना नीचे भी गिरते हैं.’’

लेकिन चंद्रवती को लल्लू की बात समझ में नहीं आई. उसे लगा कि पहलवानी करतेकरते लल्लू का दिमाग भी छोटा हो गया है. विधायक बनना है, तो कुछ कुरबानी तो देनी ही पड़ेगी.

चंद्रवती प्रदेश अध्यक्ष से मिलने के लिए लखनऊ जाने की तैयारी करने लगी. बुझे मन से लल्लू भी उस के साथ लखनऊ गया.भूरेलाल ने उन के ठहरने का इंतजाम पहले से ही एक होटल में कर दिया था.

अगले दिन भूरेलाल चंद्रवती को लेने होटल गया. चंद्रवती उस के साथ कार में बैठ कर प्रदेश अध्यक्ष से मिलने चली गई. लल्लू को यह बात नागवार गुजरी.

प्रदेश अध्यक्ष भी चंद्रवती की खूबसूरती को निहारता रह गया. मंत्री भूरेलाल ने चंद्रवती की तारीफ के पुल बांध दिए. प्रदेश अध्यक्ष ने चंद्रवती को विधायक का टिकट देने के लिए विचार करने का आश्वासन दिया. चंद्रवती को लगा, जैसे उसे विधायकी का टिकट मिल ही गया.

इस के बाद तो चंद्रवती पार्टी के नेताओं और मंत्रियों के घर और दफ्तर के चक्कर काटने में ही मशगूल हो गई. मंत्री भूरेलाल ने उसे बता दिया था कि जितने नेता और मंत्री उस के टिकट की सिफारिश कर देंगे, उस का टिकट उतना ही पक्का.

अब चंद्रवती अपना ज्यादा समय लखनऊ में ही बिताने लगी थी. उसे लल्लू की अब कोई चिंता नहीं थी. लल्लू भी इस बात को अच्छी तरह से समझ चुका था कि चिडि़या अब उस के हाथ से निकल चुकी है.

भूरेलाल राजनीति का तो मंजा हुआ खिलाड़ी था ही, इश्कमिजाजी का भी वह शौकीन था. वह जानता था कि चंद्रवती उस के जाल में फंस चुकी है. उस ने खादी के विदेशों में प्रचारप्रसार के लिए यूरोपीय देशों का 20 दिन का टूर बनाया और चंद्रवती का नाम भी टूर में जाने वाले लोगों की लिस्ट में शामिल था. लल्लू के विरोध के बावजूद चंद्रवती भूरेलाल के साथ टूर पर गई.

चंद्रवती को लगता था कि भूरेलाल ही वह सहारा और सीढ़ी है, जो उसे उस की मंजिल तक पहुंचाएगा. यूरोप के 20 दिन के टूर में चंद्रवती ने अपना सबकुछ भूरेलाल को सौंप दिया.

इधर लल्लू इतना दुखी हो चुका था कि चंद्रवती से तलाक लेने के अलावा उसे और कोई रास्ता न सूझता था. उस ने तलाकनामा के लिए वकील से कागजात तैयार करा लिए. चंद्रवती इस के लिए खुशी से तैयार थी. न अब उसे गांव पसंद था और न लल्लू ही.

चंद्रवती भूरेलाल के जरीए और मंत्रियों से मिली. अब उस की पौबाहर थी. सुबह से शाम तक न जाने कितने लोग उसे सैल्यूट मारते. एक फोन पर वह मंत्रियों और अफसरों से लोगों के काम करवाती. ऐसा लगता, जैसे चंद्रवती प्रदेश में अलग सरकार चला रही हो.

लेकिन राजनीति में किस का सूरज कब उग जाए और कब डूब जाए, कौन कह सकता है. चंद्रवती की हनक देख कई लोग उस के विरोधी हो गए. वे चंद्रवती को फंसाने की ताक में लग गए. मीडिया भी उस की हनक से हैरान था.

एक दिन चंद्रवती और भूरेलाल की जरा सी लापरवाही से उन के अंतरंग संबंधों की तसवीरें विरोधियों के हाथ पड़ गईं. फिर मीडिया तक जाने में इसे कितनी देर लगती.

अगले ही दिन 2 काम हो गए. खादी ग्रामोद्योग बोर्ड के अध्यक्ष पद से चंद्रवती को बरखास्त कर दिया गया. कहां तो वह विधायक बनने का सपना देख रही थी, प्रदेश अध्यक्ष ने उस की पार्टी की प्राथमिक सदस्यता ही रद्द कर दी. मंत्रियों, नेताओं और अफसरों ने उस का मोबाइल नंबर तक अपने मोबाइलों से निकाल दिया.

भूरेलाल के मंत्री पद पर बन आई, तो उस ने चंद्रवती से अपने संबंधों को विरोधियों की साजिश और मीडिया के गंदे मन की उपज बताया. उस ने सार्वजनिक रूप से ऐलान किया कि वह चंद्रवती को केवल एक पार्टी कार्यकर्ता के रूप में जानता है, उस से ज्यादा उस का चंद्रवती से कोई लेनादेना नहीं है.

चंद्रवती ने इतने दिनों में जो बेनामी दौलत कमाई थी, उस से उस ने लखनऊ में एक बंगला तो खरीद ही लिया था. लेकिन राजनीतिक रुतबा खत्म होते ही उस की सारी शानोशौकत पर रोक लग गई. अब उस का दरबार सूना हो चुका था.

जल्दी ही चंद्रवती को अर्श से फर्श पर गिरने का एहसास हो गया. इस बेकद्री और अकेलेपन के चलते वह तनाव की शिकार हो गई. नींद की गोलियां उस का सहारा बनीं.

भूरेलाल उस के फोन को उठाता तक न था. तब एक दिन उस से मिलने वह उस के दफ्तर पहुंच गई. अर्दली ने उसे रोकने की कोशिश की, लेकिन वह ‘मैडम’ ही कहता रह गया और वह उस के दफ्तर में पहुंच गई. उस के वहां पहुंचते ही भूरेलाल उस पर बिफर पड़ा, ‘‘तेरी यहां आने की हिम्मत कैसे हुई?’’

‘‘भूरेलाल, मैं ने तुझ पर अपना सबकुछ लुटा दिया और अब कहता है कि मेरी यहां आने की हिम्मत कैसे हुई?’’

‘‘बकवास बंद कर. जो औरत अपने आदमी को छोड़ कर दूसरों के साथ हमबिस्तर हो, वह किसी की नहीं होती.’’

‘‘और जो मर्द अपनी औरत को छोड़ दूसरी औरतों के साथ गुलछर्रे उड़ाए, वह किस का होता है?’’

‘‘दो कौड़ी की औरत… जबान लड़ाती है… गार्ड, बाहर निकालो इसे.’’

इस से पहले कि गार्ड चंद्रवती को बाहर निकालता, चंद्रवती ने पैर में से चप्पल निकाली और भूरेलाल के सिर पर दे मारी.

भूरेलाल के गाल पर इतनी चप्पलें पड़ीं कि उस का चेहरा लाल हो गया. उस का कान और होंठ फट गया. नाक से भी खून बहने लगा. जब तक गार्ड और दूसरे लोग चंद्रवती को रोकते, भूरेलाल की काफी फजीहत हो चुकी थी.

भूरेलाल ने सपने में भी नहीं सोचा था कि उस की ऐयाशी का नतीजा इतना खतरनाक होगा. मामले को दबाए रखने के लिए पुलिस को कोई सूचना नहीं दी गई.

कुछ दिन बाद खबर आई कि चंद्रवती की उस के घर पर ही मौत हो गई. पोस्टमार्टम के लिए लाश भेजी गई, लेकिन उस की मौत में नींद की दवाओं का ज्यादा सेवन करना बताया गया.

जब चंद्रवती का दाह संस्कार किया जा रहा था, तब लल्लू को उस की लाश से अरमानों का धुआं उड़ता नजर आ रहा था. Hindi Romantic Story

Hindi Story: किरचें – सुमन ने अपनी मां के मोबाइल में क्या देखा?

Hindi Story: ट्यूशनके लिए देर हो रही है… यह नेहा की बच्ची अभी तक नहीं आई. फोन करना ही पड़ेगा,’ मन ही मन बड़बड़ाती सुमन फोन की तरफ बढ़ी. ‘‘इस के भी अलग ही नखरे हैं… जब देखो जनाब का मुंह फूला रहता है,’’ सुमन ने डैड पड़े फोन को गुस्से में पटका.

अपनी सहेली को फोन करने के लिए सुमन ने मम्मी का मोबाइल उठाया तो उस में एक बिना पढ़ा मैसेज देख कर उत्सुकता से पढ़ लिया. किसी अनजान नंबर से आए इस मैसेज में एक रोमांटिक शायरी लिखी थी. आ गया होगा किसी का गलती से. दिमाग को झटकते हुए उस ने नेहा को फोन लगाया तो पता चला कि उस की तबीयत खराब है. आज नहीं आ रही. इस सारे घटनाक्रम में ट्यूशन जाने का टाइम निकल गया तो सुमन मन मार कर अपनी किताबें खोल कर बैठ गई. मगर मन बारबार उस अनजान नंबर से आए रोमांटिक मैसेज की तरफ जा रहा था. ‘कहीं सचमुच ही तो कोई ऐसा व्यक्ति नहीं जो मम्मी को इस तरह के संदेश भेज रहा है,’ सोच सुमन ने फिर से मम्मी का मोबाइल उठा लिया. 1 नहीं, इस नंबर से तो कई मैसेज आए थे.

तभी बाथरूम का दरवाजा खुलने की आवाज आई तो सुमन ने घबरा कर मम्मी का मोबाइल यथास्थान रख दिया और किताब खोल कर पढ़ने का ड्रामा करने लगी. जैसे ही मम्मी रसोई में घुसीं सुमन ने तुरंत मोबाइल से वह अनजान नंबर अपनी कौपी में नोट कर लिया. अगले दिन नेहा के मोबाइल पर वह नंबर डाल कर देखा तो किसी डाक्टर राकेश का नंबर था. कौन है डाक्टर राकेश? मम्मी से इस का क्या रिश्ता है? उस ने अपने दिमाग के सारे घोड़े दौड़ा लिए, मगर कोई सूत्र हाथ नहीं लगा.

15 वर्षीय सुमन की मम्मी सुधा एक सिंगल पेरैंट हैं. उस के पापा एक जांबाज और ईमानदार पुलिस अधिकारी थे. खनन और ड्रग माफिया दोनों उन के दुश्मन बने हुए थे. अवैध खनन रोकने के विरोध में एक दिन कुछ बदमाशों ने उन की सरकारी जीप पर ट्रक चढ़ा दिया. जख्मी हालत में अस्पताल ले जाते समय उन की रास्ते में ही मौत हो गई. सुधा ने स्नातक तक की पढ़ाई की थी, इसलिए उन्हें सरकारी नियमानुसार पुलिस विभाग में अनुकंपा के आधार पर लिपिक की नौकरी मिल गई. मांबेटी की आर्थिक समस्या तो दूर हो गई, मगर सुधा के औफिस जाने के बाद सुमन जब स्कूल से घर लौटती तो मां के औफिस से वापस आने तक अकेली रहती. उस की सुरक्षा की चिंता सुधा को औफिस में भी सताती रहती. कुछ समय तक तो सुमन की दादी उस के साथ रही थीं. फिर एक दिन वे भी इस दुनिया से चल दीं. मांबेटी फिर से अकेली हो गईं. बहुत सोचविचार कर सुधा ने अपने घर की ऊपरी मंजिल पर बना कमरा डाक्टर रानू को किराए पर दे दिया. उस की ड्यूटी अकसर नाइट में होती थी. रानू सुधा को दीदी कहती थी और बड़ी बहन सा मान भी देती थी. अब सुधा सुमन की तरफ से बेफिक्र हो कर अपनी नौकरी कर रही थीं. सुमन पढ़ाई में काफी होशियार थी. उस के पापा उसे इंजीनियर बनाना चाहते थे. वह भी उन का सपना पूरा करना चाहती थी, इसलिए स्कूल के बाद शाम को अपनी सहेली नेहा के साथ प्रीइंजीनियरिंग प्रतियोगी परीक्षा की ट्यूशन ले रही थी.

अगले दिन सुबहसुबह ज्यों ही मम्मी के मोबाइल में एसएमएस अलर्ट बजा, स्कूल जाती सुमन का ध्यान अनायास पहले मोबाइल पर और फिर मम्मी के चेहरे की तरफ चला गया. मम्मी को मुसकराते देख उस के चेहरे का रंग उड़ गया. वह ठिठक कर वहीं खड़ी रह गई. ‘‘सुमन, स्कूल की बस मिस हो जाएगी,’’ मम्मी ने चेताया तो चेतनाशून्य सी सुमन मेन गेट की तरफ बढ़ गई.

शाम को सुधा के घर लौटते ही सुमन ने सब से पहले उन का मोबाइल मांगा. आज फिर

3 रोमांटिक शायरी वाले संदेश… ओहो, आज तो व्हाट्सऐप पर मिस्ड कौल भी. ‘कोई मैसेज तो नहीं है व्हाट्सऐप पर… हुंह डिलीट कर दिया होगा,’ सोच सुमन ने नफरत से मोबाइल एक ओर फेंक दिया. सुधा औफिस से लौटते समय उस के मनपसंद समोसे ले कर आई थीं. ओवन में गरम कर के चाय के साथ लाईं तो सुमन ने भूख नहीं है कह खाने से मना कर दिया. सुधा को थोड़ा अटपटा तो लगा, मगर टीनऐज मूड समझते हुए इसे अधिक गंभीरता से नहीं लिया.

कुछ दिनों से सुधा को महसूस हो रहा था कि सुमन उन से खिंचीखिंची सी रह रही है. न उन से बात करती है, न ही किसी चीज की फरमाइश. कुछ पूछो तो ठीक से जवाब भी नहीं देती. कभीकभी तो सुधा को झिड़क भी देती. क्या हो गया है इस लड़की को? शायद पढ़ाई और प्रीइंजीनियरिंग कंपीटिशन का प्रैशर है. सुधा हर तरह से अपनेआप को समझाने का प्रयास करतीं और अधिक से अधिक उस के नजदीक रहने की कोशिश करतीं, मगर जितना वे पास आतीं उतना ही सुमन को अपने से दूर पातीं.

सुधा का माथा तो तब ठनका जब पीटीएम में सुमन की क्लास टीचर ने उन से अकेले में पूछा कि क्या सुमन को कोई मानसिक परेशानी है? किसी लड़केवड़के का कोई चक्कर तो नहीं? आजकल क्लास में पढ़ाई पर बिलकुल ध्यान नहीं देती. बस खोईखोई सी रहती है. जरा सा डांटते ही आंखों में आंसू भर लाती है. साथ ही नसीहत भी दे डाली कि देखिए सुमन के लिए मां और बाप दोनों आप ही हैं. उसे बेहतर परवरिश दीजिए… उसे समय दीजिए… कहीं ऐसा न हो कि वह किसी गलत राह पर चल पड़े और हाथ से निकल जाए.

‘सुमन से बात करनी ही पड़ेगी,’ सोच अपनेआप को शर्मिंदा सा महसूस करती हुई सुधा स्कूल से सीधे औफिस चली गईं. अचानक दोपहर 3 बजे रानू का फोन आया. घबराई हुई आवाज में बोली, ‘‘दीदी आप तुरंत घर आ जाइए.’’ ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘बस आप आ जाइए,’’ कह कर उस ने फोन काट दिया. औफिस से तुरंत परमिशन ले कर सुधा टैक्सी पकड़ घर पहुंच गईं. सामने का दृश्य देख कर उन के होश उड़ गए. सुमन अर्धचेतना अवस्था में बिस्तर पर पड़ी थी. डाक्टर उस के सिरहाने बैठी थी.

‘‘क्या हुआ इसे?’’ सुधा दौड़ कर सुमन के पास पहुंचीं. ‘‘इस ने नींद की गोलियों की ओवरडोज ले ली… वह तो शुक्र है कि मैं फ्रिज से सब्जी लेने नीचे आ गई और इसे इस हालत में देख लिया वरना पता नहीं क्या होता… मैं ने इसे दवा दे कर उलटी करवा दी है. अभी बेहोश है. मगर खतरे से बाहर है,’’ रानू ने सारी बात एक ही सांस में कह डाली.

‘‘मगर इस ने ऐसा कदम क्यों उठाया?’’ दोनों के दिमाग में यही उथलपुथल चल रही थी. तभी सुमन नीम बेहोशी की हालत में बड़बड़ाई, ‘‘मां, प्लीज मुझे अकेला छोड़ कर मत जाओ… पहले पापा, फिर दादी मां और अब तुम भी चली जाओगी तो मैं कहां जाऊंगी…’’

‘‘नहीं मेरी बच्ची… मम्मी तुम्हें छोड़ कर कहीं नहीं जाएगी… तुम्हीं तो मेरी दुनिया हो,’’ सुधा जैसे अपनेआप को दिलासा दे रही थीं. इसी बीच सुमन को होश आ गया.

‘‘सुमन, यह क्या किया बिटिया तू ने? एक बार भी नहीं सोचा कि तेरे बाद तेरी मां का क्या होगा,’’ सुधा ने उस का सिर प्यार से सहलाते हुए भरे गले से कहा. ‘‘आप ने भी तो नहीं सोचा कि आप की बेटी का क्या होगा…’’ बात अधूरी छोड़ कर सुमन ने नफरत से मुंह फेर लिया.

‘‘मैं ने क्या गलत किया?’’ सुमन ने कोई जवाब नहीं दिया.

रानू ने कहा, ‘‘सुमन तुम एक बहादुर मां की बहादुर बेटी हो, तुम्हें ऐसी कायरता वाली हरकत नहीं करनी चाहिए थी.’’ ‘‘बहादुर या चरित्रहीन?’’ सुमन बिफर पड़ी.

‘‘चरित्रहीन?’’ सुधा और रानू दोनों को जैसे एकसाथ किसी बिच्छू ने काट लिया हो. ‘‘हांहां चरित्रहीन… क्या आप बताएंगी कि कौन है यह डाक्टर राकेश जो आप को रोमांटिक संदेश भेजता है?’’ सुमन ने जलती निगाहों से सुधा से प्रश्न किया.

‘‘डाक्टर राकेश?’’ सुधा और रानू दोनों ने एकदूसरे की तरफ देखा. सुधा ने कोई जवाब नहीं दिया बस खामोशी से जमीन की तरफ देखने लगीं.

‘‘देखा, कोई जवाब नहीं है न इन के पास,’’ सुमन ने फिर जहर उगला. ‘‘दीदी, आप नीचे जाइए. 3 कप कौफी बना कर लाइए. तब तक हम दोनों बैस्ट फ्रैंड्स बातें करते हैं,’’ रानू ने संयत स्वर में कहा.

रानू ने सुमन का हाथ अपने हाथ में लिया और कहने लगी, ‘‘सुमन, तुम बहुत बड़ी

गलतफहमी का शिकार हो गई हो. इस में सुधा दीदी का कोई दोष नहीं है. चरित्रहीन तुम्हारी मां नहीं, बल्कि डाक्टर राकेश है और उस से तुम्हारी मम्मी का नहीं बल्कि मेरा रिश्ता है. वह मेरा मंगेतर था, मगर मैं ने उस के चरित्र के बारे में कई लोगों से उलटासीधा सुन रखा था. बस अपना शक दूर करने के लिए मैं ने सुधा दीदी का सहारा लिया. उन के मोबाइल से राकेश को कुछ मैसेज भेजे. 3-4 मैसेज के बाद ही जैसाकि हमें शक था उस के रिप्लाई आने लगे. मैं ने जानबूझ कर बात को थोड़ा और आगे बढ़ाया तो उस के चरित्र का कच्चापन सामने आ गया. सचाई सामने आते ही मैं ने अपनी सगाई तोड़ ली. ‘‘सगाई टूटने के बाद तो राकेश और भी गिर गया. उस ने मुझ से तो अपना संबंध खत्म कर लिया, मगर तुम्हारी मम्मी के मोबाइल पर आने वाले उस के संदेश अब रोमांटिक से अश्लील होने लगे. बस 1-2 दिन में हम तुम्हारी मां की इस सिम को बदल कर नई सिम लेने वाले थे ताकि इस राकेश का सारा किस्सा ही खत्म हो जाए, मगर इस से पहले ही तुम ने यह नादानी भरी हरकत कर डाली. पगली एक बार अपनी मां से न सही, मुझ से ही अपने दिल की बात शेयर कर ली होती.’’

‘‘मुझे बहलाने की कोशिश मत कीजिए. मैं जानती हूं आप मम्मी का दोष अपने सिर ले रही हैं. मगर मम्मी का उस से कोई रिश्ता नहीं है तो वे उस के संदेश पढ़ कर मुसकराती क्यों थीं?’’ सुमन को अब भी रानू की बात पर यकीन नहीं हो रहा था. ‘‘वह इसलिए पगली कि जो रोमांटिक मैसेज मैं राकेश को भेजती थी वही मैसेज फौरवर्ड कर के वह तुम्हारी मम्मी वाले मोबाइल पर भेज देता था और दीदी की हंसी छूट जाती थी.’’

तभी सुधा कौफी ले आईं. सुमन उठने की स्थिति में नहीं थी. उस ने बैड पर लेटेलेटे ही अपनी बांहें मां की तरफ फैला दीं. सुधा ने उसे कस कर गले से लगा लिया. मांबेटी के साथसाथ डाक्टर रानू की भी आंखें भर आईं. आंसुओं में सारी गलतफहमी बह गई. मन में चुभी संदेश और अविश्वास की किरचें भी अब निकल चुकी थीं.

Hindi Romantic Story: सूनी आंखें – सीमा के पति का क्या संदेश था?

Hindi Romantic Story: सुबह के समय अरुण ने पत्नी सीमा से कहा,”आज मुझे दफ्तर जरा जल्दी जाना है. मैं जब तक तैयार होता हूं तुम तब तक लंच बना दो ब्रेकफास्ट भी तैयार कर दो, खा कर जाऊंगा.”

बिस्तर छोड़ते हुए सीमा तुनक कर बोली,”आरर… आज ऐसा कौन सा काम है जो इतनी जल्दी मचा रहे हैं.”अरुण ने कहा,”आज सुबह 11 बजे  जरूरी मीटिंग है. सभी को समय पर बुलाया है.”

“ठीक है जी, तुम तैयार हो जाओ. मैं किचन देखती हूं,” सीमा मुस्कान बिखेरते हुए बोली.अरुण नहाधो कर तैयार हो गया और ब्रेकफास्ट मांगने लगा, क्योंकि उस के दफ्तर जाने का समय हो चुका था, इसलिए वह जल्दबाजी कर रहा था.

गैराज से कार निकाली और सड़क पर फर्राटा भर अरुण  समय पर दफ्तर पहुंच गया. दफ्तर के कामों से फुरसत पा कर अरुण आराम से कुरसी पर बैठा था, तभी दफ्तर के दरवाजे पर एक अनजान औरत खड़ी अजीब नजरों से चारों ओर देख रही थी.

चपरासी दीपू के पूछने पर उस औरत ने बताया कि वह अरुण साहब से मिलना चाहती है. उस औरत को वहां रखे सोफे पर बिठा कर चपरासी दीपू अरुण को बताने चला गया.

‘‘साहब, दरवाजे पर एक औरत खड़ी है, जो आप से मिलना चाहती है,’’ दीपू ने अरुण से कहा.‘‘कौन है?’’ अरुण ने पूछा.‘‘मैं नहीं जानता साहब,’’ दीपू ने जवाब दिया.

‘‘बुला लो. देखें, किस काम से आई है?’’ अरुण ने कहा.चपरासी दीपू उस औरत को अरुण के केबिन तक ले गया.केबिन खोलने के साथ ही उस अजनबी औरत ने अंदर आने की इजाजत मांगी.

अरुण के हां कहने पर वह औरत अरुण के सामने खड़ी हो गई. अरुण ने उस औरत को बैठने का इशारा करते हुए कहा, ‘‘बताइए, मैं आप के लिए क्या कर सकता हूं?”

“सर, मेरा नाम संगीता है. मेरे पति सुरेश आप के दफ्तर में काम करते हैं.” अरुण बोला,”जी, ऑफिस के बहुत से काम वे देखते हैं. उन के बिना कई काम रुके हुए हैं.”

अरुण ने चपरासी दीपू को बुला कर चाय लाने को कहा.चपरासी दीपू टेबल पर पानी रख गया और चाय लेने चला गया.कुछ देर बाद ही चपरासी दीपू चाय ले आया.

चाय की चुस्की लेते हुए अरुण पूछने लगा, ” कहो, कैसे आना हुआ?’’‘‘मैं बताने आई थी कि मेरे पति सुरेश की तबीयत आजकल ठीक नहीं रहती है, इसलिए वे कुछ दिनों के लिए दफ्तर नहीं आ सकेंगे.”

“क्या हुआ सुरेश को,” हैरान होते हुए अरुण बोला”डाक्टर उन्हें अजीब सी बीमारी बता रहे हैं. अस्पताल से उन्हें आने ही नहीं दे रहे,”संगीता रोने वाले अंदाज में बोली.

संगीता को रोता हुआ देख कर अरुण बोला, “रोइए नहीं. पूरी बात बताइए कि उन को यह बीमारी कैसे लगी?””कुछ दिनों से ये लगातार गले में दर्द बता रहे थे, फिर तेज बुखार आया. पहले तो पास के डाक्टर से इलाज कराया, पर जब कोई फायदा न हुआ तो सरकारी अस्पताल चले गए.

“सरकारी अस्पताल में डाक्टर को दिखाया तो देखते ही उन्हें भर्ती कर लिया गया. “ये तो समझ ही नहींपाए कि इन के साथ हो क्या गया है?””जब अस्पताल से इन का फोन आया तो मैं भी सुन कर हैरान रह गई,” संगीता ने अपने आंसू पोंछते हुए कहा.

“अभी वे अस्पताल में ही हैं,” संगीता से अरुण ने पूछा.”जी,” संगीता ने जवाब दिया.अरुण यह सुन कर परेशान हो गया. सुरेश का काम किसी और को देने के लिए चपरासी दीपू से कहा.

अरुण ने सुरेश की पत्नी संगीता को समझाते हुए कहा कि तुम अब बिलकुल चिंता न करो. घर जाओ और बेफिक्र रहो, उन्हें कुछ नहीं होगा.संगीता अरुण से आश्वस्त हो कर घर आ गई और उसे भी घर आने के लिए कहा. अरुण ने भी जल्द समय निकाल कर घर आने के लिए कहा.

“सर, कुछ कहना चाहती हूं,” कुर्सी से उठते समय संगीता ने झिझकते हुए पूछा.”हां, हां, कहिए, क्या कहना चाहती हैं आप,” अरुण ने संगीता की ओर देखते हुए कहा.”जी, मुझे कुछ पैसों की जरूरत है. इन की तनख्वाह मिलने पर काट लेना,” संगीता ने सकुचाते हुए कहा.

“बताइए, कितने पैसे चाहिए?” अरुण ने पूछा.”जी, 20 हजार रुपए चाहिए थे…” संगीता संकोच करते हुए बोली.”अभी तो इतने पैसे नहीं है, आप कलपरसों में आ कर ले जाना,” अरुण ने कहा. “ठीक है,” यह सुन कर संगीता का   उदास चेहरा हो गया.

“आप जरा भी परेशान न होइए. मैं आप को पैसे दे दूंगा,” संगीता के उदास चेहरे को देख कर कहा.अरुण के दफ्तर से निकलने का समय हो चुका था, इसलिए संगीता भी अपने घर लौट आई.

अगले दिन दफ्तर के काम जल्द निबटा कर अरुण कुछ सोच में डूबा था, तभी उस के मन में अचानक ही सुरेश की पत्नी संगीता की पैसों वाली बात याद आ गई.2 दिन बाद ही संगीता अरुण के दफ्तर पहुंची. चपरासी दीपू ने चायपानी ला कर दी.

अरुण ने सुरेश की तबीयत के बारे में जानना चाहा. संगीता आंखों में आंसू लाते हुए बोली,”वहां तो अभी वे ठीक नहीं हैं. मैं अस्पताल गई थी, पर वहां किसी को मिलने नहीं दे रहे.”

“क्या…” अरुण हैरानी से बोला.”अस्पताल वाले कहते हैं, जब वे ठीक हो जाएंगे तो खुद ही घर आ जाएंगे.”यह जान कर अरुण हैरान हो गया कि अस्पताल वाले किसी से मिलने नहीं दे रहे. वह आज शाम को उस से मिलने जाने वाला था.

अरुण ने संगीता को 20 हजार के बजाय 30 हजार रुपए दिए और कहा कि और भी पैसे की जरूरत हो तो बताना.संगीता पैसे ले कर घर लौट आई. 21 मार्च की शाम जब अरुण हाथपैर धो कर बिस्तर पर बैठा, तभी उस की पत्नी सीमा चाय ले आई और बताने लगी कि रात 8 बजे रास्ट्र के नाम संदेश आएगा.

अरुण टीवी खोल कर तय समय पर बैठ गया. मोदी का संदेश सुनने के बाद अरुण ने पत्नी सीमा को अगले दिन रविवार को जनता कर्फ्यू के बारे में बताया कि घर से किसी को बाहर नहीं निकलना है. साथ ही, यह भी बताया कि शाम 5 बजे अपनेअपने घरों से बाहर निकल कर थाली या बरतन, कुछ भी बजाएं.

उस दिन शाम को जब पड़ोसी ने घर से बाहर निकल थाली बजाई तो अरुण भी शोर सुन कर बाहर आया. पत्नी सीमा भी खुश होते हुए थाली हाथ में लिए बाहर जोरजोर से बजाने लगी. उसे देख अरुण भी खुश हुआ.

सोमवार 23 मार्च को अरुण किसी जरूरी काम के निकल आने की वजह से ऑफिस नहीं गया.उसी दिनशाम को फिर से रास्ट्र के नाम संदेश आया. 21 दिनों के लॉक डाउन की खबर से वह भी हैरत में पड़ गया.

अगले दिन किसी तरह अरुण ऑफिस गया और जल्दी से सारे काम निबटा कर घर आ गया.घर पर अरुण ने सीमा को ऑफिस में साथ काम करने वाले सुरेश के बारे में बताया कि उस की तबीयत ठीक नहीं है.

अगले दिन सड़क पर सख्ती होने से अरुण दफ्तर न जा सका. लॉक डाउन होने की वजह से अरुण घर में रहने को विवश था.इधर जब सुरेश को कोरोना होने की तसदीक हो गई तो संगीता के घर को क्वारन्टीन कर दिया. अब वह घर से जरा भी बाहर नहीं निकल सकती थी.

उधर क्वारन्टीन होने के कुछ दिन बाद ही अस्पताल से सुरेश के मरने की खबर आई तो क्वारन्टीन होने की वजह से वह घर से निकल नहीं सकती थी.

संगीता को अस्पताल वालों ने फोन पर ही सुरेश की लाश न देने की वजह बताई. वजह यह कि ऐसे मरीजों को वही लोग जलाते हैं ताकि किसी और को यह बीमारी न लगे.

यह सुन कर संगीता घर में ही दहाड़े मारते हुए गश खा कर गिर पड़ी. ऑफिस में भी सुरेश के मरने की खबर भिजवाई गई, पर ऑफिस बंद होने से किसी ने फोन नहीं उठाया.जब लॉक डाउन हटा तो अरुण यों ही संगीता के दिए पते पर घर पहुंच गया.

अरुण ने सुरेश के घर का दरवाजा खटखटाया तो संगीता ने ही खोला.संगीता को देख अरुण मुस्कुराते हुए बोला, “कैसे हैं सुरेश? उस की तबीयत पूछने चला आया.”संगीता ने अंदर आने के लिए कहा, तो वह संगीता के पीछेपीछे चल दिया.

कमरे में अरुण को बिठा कर संगीता चाय बनाने किचन में चली गई. कमरे का नजारा देख अरुण  हैरत में पड़ गया क्योंकि सुरेश की तसवीर पर फूल चढ़े हुए थे, अरुण समझ गया कि सुरेश अब नहीं रहा.

संगीता जब चाय लाई तो अरुण ने हैरानी से संगीता से पूछा तो उस ने रोते हुए बताया कि ये तो 30 मार्च को ही चल बसे थे. अस्पताल से खबर आई थी. मुझे तो क्वारन्टीन कर दिया गया. फोन पर ही अस्पताल वालों ने लाश देने से मना कर दिया.

क्या करती,घर में फूटफूट कर रोने के सिवा.अरुण ने गौर किया कि सुरेश की फोटो के पास ही पैसे रखे थे, जो उस ने संगीता को दिए थे.संगीता ने उन पैसों की ओर देखा और अरुण ने संगीता की इन सूनी आंखों में  देखा. थके कदमों से अरुण वहां से लौट आया.इन सूनी आंखों में अरुण को जाते देख  संगीता की आंखों में आंसू आ गए.

Romantic Story: ग्रहण – आखिर क्या था प्रिया का राज

Romantic Story: कल से मेरे पैर धरती पर नहीं पढ़ रहे थे. रात को मारे उत्तेजना के नींद नहीं आई थी. इस पल की कितनी प्रतीक्षा थी मुझे. रात जब खाने के बाद रितिक मेरे कमरे में आया तो मुझे लगा शायद उसे कुछ चाहिए. मेरे पूछने पर उस ने अपनी दोनों बांहें मेरे गले में डाल दीं, “नहीं मां, मुझे कुछ बताना था आप को.”

शर्म से गुलाबी हो आए उस के गोरे मुखड़े को देख कर मेरे चेहरे पर प्यार भरी मुसकान तैर गई.

“तो तुझे मेरी बहू मिल गई?”
“अगर आप उसे स्वीकार करेंगी तो…”

“तुम जानते हो, तुम्हारी खुशी से बढ़ कर मेरे लिए और कुछ भी नहीं. कौन है वह, जिस ने मेरे बेटे के दिल की घंटी बजाई है?” बेटे के गाल पर प्यार की चपत लगाते हुए मैं ने पूछा.

“मां, प्रिया नाम है उस का. मेरे साथ एमबीए किया है उस ने. हम ढाई साल से एकदूसरे को जानते हैं और पसंद करते हैं. उस को भी अपने शहर में अच्छी नौकरी मिल गई है.”

“कब मिलवाओगे?” मेरा सीधा प्रश्न था.

“मां, कल सुबह नाश्ते पर बुला लेता हूं.”

“बुला नहीं लेता हूं. जा कर ले आना उसे. अब जा सो जाओ.”

पूरी रात मैं करवटें बदलती रही. सुबह 4 बजे ही मैं ने बिस्तर छोड़ दिया और रसोई में घुस गई. मन करता यह भी बना लूं, वह भी बना लूं. सुबह 7 बजे तक मेरी रसोई तरहतरह के पकवानों से महकने लगी.

“मां, क्याक्या बना लिया आप ने? पूरा घर महक रहा है. आप क्या रात भर बनाती रही हैं?” आश्चर्य और प्यार दोनों रितिक के स्वर में था.

“मेरी बहू पहली बार आ रही है. यह दिन एक बार ही आता है. तुम चाय पीयो मैं नहा कर आती हूं.”

रितिक के जाने के बाद मैं ने गुलाबी रंग की साड़ी पहनी. मोती की माला और कानों में टौप्स पहन कर शीशे के सामने खड़ी हो गई और अपने कटे हुए बालों में ब्रश करने लगी.

आज कितने सालों बाद श्रृंगार करने का मन हुआ था मेरा.

“मां…मां…” ऋतिक की आवाज सुन कर मैं चौंक गई.

“मां, प्रिया आ गई.” ऋतिक मेरे सामने खड़ा था.

“अरे, दरवाजा किस ने खोला?”
“खुला था मां, शायद आप बंद करना भूल गई थीं.”

“हां यही हुआ होगा…”

बैठक में घुसते ही प्रिया से मेरी नजरें मिलीं तो हम दोनों ही जड़ हो गए. मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई. लगा जैसे पूरा कमरा घूमने लगा है. खुद को संभालना मुश्किल हो गया. रितिक ने सहारा दे कर मुझे बैठाया.

“मां… क्या हुआ आप को?”

मैं चेतना शून्य होती जा रही थी. बंद होती आंखों से देखा, रितिक और प्रिया दोनों मेरे ऊपर झुके हुए थे और मुझे पुकार रहे थे. मुझे उन की आवाजें दूर से आती प्रतीत हो रही थीं.

जब होश आया तो देखा मैं अपने पलंग पर लेटी हुई थी. रितिक और प्रिया के साथ साथ डा. रजत भी मेरे कमरे में बैठे हुए थे.

“मां, क्या हुआ आप को?” परेशान रितिक की आंखें डबडबाई हुई थीं. मेरा हाथ उस के हाथों में था.

“बेटा, मैं ठीक हूं.”

“डाक्टर रागिनी, आप दोस्त को तो डाक्टर मानती ही नहीं हैं. मैं ने कितनी दफा आप से कहा कि थोड़ा अपनी सेहत का भी ध्यान रखिए, मगर…” डाक्टर रजत फिर से उठ कर डाक्टर रागनी का ब्लड प्रैशर नापने लगे.

“मम्मी की तबीयत खराब चल रही थी? पर अंकल, मम्मी ने तो कुछ भी नहीं बताया कभी. क्या हुआ है उन्हें?” रितिक परेशान हो उठा.

“कुछ नहीं बेटा, तुम्हारे रजत अंकल ऐसे ही बोलते रहते हैं,” मैं ने बेटे का हाथ स्नेह से दबाते हुए कहा.

“कोई यों ही बेहोश नहीं हो जाता मम्मी. अंकल आप बताइए न ?”

रितिक बहुत परेशान था और इस परेशानी में प्रिया को भी भूल गया था, जो पास ही चुपचाप बैठी हुई थी और मुश्किल से अपने आंसुओं को संभाले थी.

“परेशान होने वाली भी बात नहीं है रितिक. तुम्हारी मम्मी को थोड़ा आराम करने की जरूरत है. बहुत थका देती हैं खुद को. वैसे पूरा चैकअप करा लेना हमेशा अच्छा होता है. मैं ने कुछ टेस्ट लिख दिए हैं. करा लेना. इतना ब्लड प्रैशर बढ़ना ठीक बात नहीं है,” रितिक की पीठ थपथपा कर रजत बोले.

“जी अंकल.”

“अच्छा अब सब कंट्रोल में है. मां को आराम करने दो. परेशान मत हो. मैं चलता हूं. वैसे अब जरूरत नहीं पड़ेगी पर मैं एक फोन काल की ही दूरी पर हूं,” उठते हुए डाक्टर रजत बोले.

“अरे, अंकल चाय….”

“मम्मी को ठीक होने दो, फिर साथ में पीते हैं.”

“प्रिया, मम्मी का ध्यान रखना. मैं अंकल को छोड़ कर आता हूं,” कहते हुए रितिक कमरे के बाहर चला गया.

“सौरी आंटी, मुझे बिलकुल नहीं पता था कि रितिक आप का बेटा है.”

उस की आंखें अब बरसने लगी थीं.

“प्रिया, मेरे पास आओ.”

मैं ने उस का हाथ अपने हाथ में ले लिया, “आंटी नहीं प्रिया, मां बोलो.”

वह फफकफफक कर रोने लगी और अपना सिर मेरे सीने पर रख दिया. स्नेह से मैं उस के सिर पर हाथ फेरने लगी. अतीत मुझ पर हावी होता जा रहा था…

लगभग 12 वर्ष पूर्व का वह दिन मेरी आंखों के सामने जीवंत हो उठा. मैं क्लीनिक में मरीज देख रही थी. एक दंपत्ति अपनी 13-14 साल की बेटी के साथ क्लीनिक पर आए. बच्ची दर्द में थी और एक ही बात बोले जा रही थी, “मुझे इंजैक्शन लगा दीजिए. मुझे मार दीजिए. मुझे नहीं जीना है.”

रोते हुए उस के पिता ने बताया कि वे लोग एक रिश्तेदार के घर गृहप्रवेश में गए थे. बेटी का 10वीं का बोर्ड था तो वह अपने शिक्षक की प्रतीक्षा में घर पर ही रुक गई थी. हम जब शाम को लौटे तो बेटी इस हाल में मिली. वह शिक्षक दरिंदा निकला.

वे हाथ जोड़ कर बोले, “हम पुलिस के पास नहीं जाना चाहते डाक्टर. उस का तो कुछ नहीं होगा पर हमारी लड़की बदनाम हो जाएगी. हम इस की परीक्षा के बाद यह शहर ही छोड़ देंगे. हमारी मदद कर कीजिए.”

मैं उन की पीड़ा को समझ सकती थी. मेरे जेठ की बेटी इस हादसे से गुजरी थी. जेठजी स्वयं पुलिस में थे. पर क्या लाभ हुआ पुलिस, कोर्टकचहरी, इन सब का तनाव और समाज की हिकारत भरी नजर, वह बेचारी नहीं झेल पाई और साल पूरा होतेहोते पंखे से लटक कर मर गई.

मैं बच्ची के इलाज के साथसाथ उस की काउंसलिंग भी करने लगी. वह जब घबराती अपनी मम्मी के साथ मेरे पास आ जाती. फिर धीरेधीरे अकेले आने लगी. दूसरे शहर जा कर भी वह फोन से संपर्क में रही.

एक दिन मैं ने उस से कहा,”देखो बेटा तुम 12वीं में आ गई हो और अब पूरी तरह से ठीक हो गई हो. तुम्हारे लिए जरूरी है कि तुम इस घटना को भूल जाओ. इस के लिए तुम्हें मुझे भी भूलना होगा.”

“आप को? आप को कैसे भूल सकती हूं मैं? मेरी मां ने मुझे जन्म दिया है, पर यह नई जिंदगी आप की दी हुई है,” वह कांपती हुई आवाज में बोली.

“मां कह रही हो तो मां की बात मानो. सबकुछ भूल कर एक नई जिंदगी जियो. जब शादी करोगी तो मुझे जरूर बताना, मैं आऊंगी.”

“शादी? मैं… मैं… मुझ से कौन शादी करेगा?”

“क्यों तुम ने कौन सा पाप किया है?यह पाप पुण्य का पाठ हम औरतों को जबरन सिखाया गया है ताकि हम कभी भी आजादी सेे न जी सकें. तुुुम शादी करोगी और एक आम जिंदगी  जीओगी. बस इस दुर्घटना का जिक्र किसी से कभी नहीं करना. मैं ने अपनी मैडिकल फाइल में भी तुम्हारा असली नाम नहीं लिखा है. उस में तुम छाया हो. तुम अपने असली नाम के साथ आराम से जियो.”

मगर 8 साल के लंबे अंतराल के बाद आज अचानक वही छाया, प्रिया के रूप में मेरे सामने थी.

बेटे की आवाज से मैं वापस वर्तमान में लौट आई.

“मां, इसे क्या हुआ?”

“डर गई है,” प्रिया के सिर पर हाथ फेरते हुए मैं ने जवाब दिया.

“इसी की वजह से तो आप इतना थकीं,” प्रिया की ओर देखते हुए रितिक बोला.

“प्रिया सिर उठा कर अपलक रितिक को देख रही थी.

“अब तुम्हारी सजा य. है प्रिया कि अब तुम मां के लिए चाय बना कर लाओ और जो बचे उस में से थोड़ी सी मुझे भी दे देना.”

कमरे का वातावरण थोड़ा हलका हो गया. तकिए की टेक के सहारे दोनों ने मुझे बैठा दिया.

चाय पीते हुए मैं ने प्रिया की ओर देखा और बोली,”प्रिया, चाय तो तुम ने अच्छी बनाई है. चलो रसोई में तुम पास हो गई. पर अभी तुम्हारी परीक्षा बाकी है. मेरी बहू बनने के लिए तुम्हें एक परीक्षा और पास करनी होगी.”

प्रिया और रितिक दोनों एकदूसरे की ओर देखने लगे.

हिचकता हुआ रितिक बोला,”मां, तुम्हें कोई ऐतराज है क्या?”

“नहीं… बिलकुल नहीं. मगर तुम अपने कमरे में जाओ, मुझे अकेले में  प्रिया से कुछ बात करनी है. उसके बाद तुम्हें बुला लेंगे.”

“जी…” रितिक प्रिया की ओर देखता हुआ बाहर चला गया.

प्रिया अब सीधे मेरी ओर देख रही थी.

“प्रिया, मुझे तुम से एक वादा चाहिए.”

“मां, मुझ जैसी ग्रहण लगी लड़की को जानतेसमझते हुए आप क्यों स्वीकार कर रही हैं? आप मना भी तो कर सकती हैं…”

“क्यों मना करूंगी, तुम्हारी जैसी कोमल हृदय वाली बेटी, मेरी बहू बने यही तो हमेशा चाहा है मैंने. तुम्हारे साथ से ही मेरे बेटे की खुशियां हैं. यह खुशी मैं उसे देना चाहती हूं. बस एक वादा चाहिए तुम से…”

“कौन सा वादा माँ?”

“कभी, किसी भी कमजोर पल में उस हादसे का जिक्र रितिक से नहीं करोगी.”

“इतनी बड़ी बात छिपाना क्या उचित होगा?”

“प्रिया, जिंदगी में बहुत से हादसे होते हैं. क्या हम हमेशा उन का बोझा पीठ पर ढोते रहते हैं? वे घट कर अतीत हो जाते हैं. यही होना भी चाहिए.”

वह मौन मुझे देख रही थी.

“प्रिया, मेरा बेटा बहुत सुलझा हुआ है फिर भी मैं नहीं चाहती कि किसी अनचाहे अतीत का काला साया मेरे बेटेबहू के जीवन को परेशान करे.”

“आप की भावना समझ सकती हूं. मां, मैं आप से वादा करती हूं कि इस बात का जिक्र मेरी जबान पर कभी नहीं आएगा.”

“प्रिया, अपनी मम्मीपापा से कहना कि जब वे आएंगे तो हम पहली बार मिल रहे होंगे. यह याद रखें.”

“मां, आप बहुत महान हैं,” भावुकता में प्रिया मेरे गले लग गई.

प्यार से उस की पीठ थपथपा कर मैं ने कहा,”अब रितिक को बुला लो.”

प्रिया के साथ रितिक कमरे में आया तो उस के चेहरे पर कई प्रश्न साफ दिखाई दे रहे थे.

“तेरी प्रिया, मेरी परीक्षा में पास हो गई. यह चांद सी सुंदर लड़की मुझे बहू के रूप में स्वीकार है.”

“चांद में तो दाग होता है मां. ग्रहण लगता है,” रितिक ने प्रिया को छेड़ते हुए कहा.

“चांद उस ग्रहण के साथ ही तो पूर्ण होता है बेटा. वैसे ही हम सब भी अनेक अच्छाई और बुराई के पुतले हैं और हमें एकदूसरे को संपूर्णता में स्वीकारना होता है. प्रिया हम दोनों को हमारी कमियों के साथ स्वीकारेगी और हम दोनों को भी प्रिया को उस की सारी अच्छाइयों और बुराईयों के साथ उसे स्वीकारना होगा.”

” मैं तो मां….”

“मैं जानती हूं. तुम उसे छेड़ रहे हो. अच्छा अब तुम दोनों रसोई से कुछ ला कर खिलाओ तो मुझे, भूख लग रही है.”

उठते हुए प्रिया बोली,”मैं लाती हूं मां.”

“और हां प्रिया, अपने मम्मीपापा से बोलना मुझ से जल्दी आ कर मिलें और उन्हें यह भी बता देना कि मुझे शादी की जल्दी है.”

रितिक और प्रिया के चेहरे खिल उठे और दोनों मुसकराते हुए कमरे से बाहर चले गए .

Family Story: संस्कार – आखिर मां संस्कारी बहू से क्या चाहती थी

Family Story: लेखिका- आशा जैन

नई मारुति दरवाजे के सामने आ कर खड़ी हो गई थी. शायद भैया के ससुराल वाले आए थे. बाबूजी चुपचाप दरवाजे की ओट में हाथ जोड़ कर खड़े हो गए और मां, जो पीछे आंगन में झाड़ दे रही थीं, भाभी के आवाज लगाते ही हड़बड़ी में अस्तव्यस्त साड़ी में ही बाहर दौड़ी आईं.

आते ही भैया की छोटी साली ने रिंकू को गोद में भर लिया और अपने साथ लाए हुए कई कीमती खिलौने दे कर उसे बहलाने लगी. ड्राइंगरूम में भैया के सासससुर तथा भाभीभैया की गपशप आरंभ हो गई. भाभी ने मां को झटपट नाश्ता और चाय बनाने को कह दिया. मां ने मुझ से पूछ कर अपनी मैली साड़ी बदल डाली और रसोई में व्यस्त हो गईं.

मां और बाबूजी के साथ ही ऐसा समय मुझे भी बड़ा कष्टकर प्रतीत होता था. इधर भैयाभाभी के हंसीठट्टे और उधर मां के ऊपर बढ़ता बोझ. यह वही मां थीं जो भैया की शादी से पूर्व कहा करती थीं, ‘‘इस घर में जल्दी से बहू आ जाए फिर तो मैं पलंग पर ही पानी मंगा कर पिऊंगी,’’ और बहू आने के बाद…कई बार पानी का गिलास भी बहू के हाथ में थमाना पड़ता था.

जिस दिन भैया के ससुराल वाले आते थे, मां कपप्लेट धोने और बरतन मांजने का काम और भी फुरती से करने लगती थीं. घर के छोटेबड़े काम से ले कर बाजार से खरीदारी करने तक का सारा भार बाबूजी पर एकमुश्त टूट पड़ता था. कई बार यह सब देख कर मन भर आता था, क्योंकि उन लोगों के आते ही मांबाबूजी बहुत छोटे पड़ जाते थे.

दरवाजे के बाहर बच्चों का शोरगुल सुन कर मैं ने बाहर झांक कर देखा. कई मैलेकुचैले बच्चे चमचमाती कार के पास एकत्र हो गए थे. भैया थोड़ीथोड़ी देर बाद कमरे से बाहर निकल कर देख लेते थे और बच्चों को इस तरह डांटते खदेड़ते थे, मानो वे कोई आवारा पशु हों.

भैया के सासससुर के मध्य रिंकू की पढ़ाई तथा संस्कारों के बारे में वाक्युद्ध छिड़ा हुआ था. रिंकू बाबूजी द्वारा स्थापित महल्ले के ही ‘शिशु विहार’ में पढ़ता था. किंतु भाभी और उन के पिताजी का इरादा रिंकू को किसी पब्लिक स्कूल में दाखिला दिलवाने का था. भाभी के पिताजी बोले, ‘‘इंगलिश स्कूल में पढ़ेगा तो संस्कार भी बदलेंगे, वरना यहां रह कर तो बच्चा खराब हो जाएगा.’’

इस से पहले भी रिंकू को पब्लिक स्कूल में भेजने की बात को ले कर कई बार भैयाभाभी आपस में उलझ पड़े थे. भैया खर्च के बोझ की बात करते थे तो भाभी घर के खर्चों में कटौती करने की बात कह देती थीं. वह हर बार तमक कर एक ही बात कहती थीं, ‘‘लोग पागल नहीं हैं जो अपने बच्चों को अच्छे स्कूलों में पढ़ाते हैं. इन स्कूलों के बच्चे ही अच्छे पदों पर पहुंचते हैं.’’

भैया निरुत्तर रह जाते थे.

बड़े उत्साह से भाभी ने स्कूल से फार्म मंगवाया था. रिंकू को किस प्रकार तैयारी करानी थी इस विषय में मुझे भी कई हिदायतें दी थीं. वह स्वयं सुबह जल्दी उठ रिंकू को पढ़ाने बैठ जाती थीं. उन्होंने कई बातें रिंकू को तोते की तरह रटा दी थीं. वह उठतेबैठते, सोतेजागते उस छोटे से बच्चे के मस्तिष्क में कई तरह की सामान्य ज्ञान की बातें भरती रहती थीं.

अब मां और बाबूजी के साथ रिंकू  का खेलना, घूमना, बातें करना, चहकना काफी कम हो गया था. एक दिन वह मांबाबूजी के सामने ही महल्ले के बच्चों के साथ खेलने लगा. भाभी उबलती हुई आईं और तमक कर बाबूजी को भलाबुरा कहने लगीं, ‘‘आप रिंकू की जिंदगी को बरबाद कर के छोड़ेंगे. असभ्य, गंदे और निरक्षर बच्चों के साथ खेलेगा तो क्या सीखेगा.’’

और बाबूजी ने उसी समय दुलारते हुए रिंकू को अपनी गोद में भर लिया था.

भाभी की बात सुन कर मेरे दिल में हलचल सी मच गई थी. ये अमीर लोग क्यों इतने भावनाशून्य होते हैं? भला बच्चों के बीच असमानता की खाई कैसी? बच्चा तो बच्चों के साथ ही खेलता है. एक मुरझाए हुए फूल से हम खुशबू की आशा कैसे कर सकते हैं. क्यों नहीं सोचतीं भाभी यह सबकुछ?

एक बार उबलता दूध रिंकू के हाथ पर गिर गया था. वह दर्द से तड़प रहा था. सारा महल्ला परेशान हो कर एकत्र हो गया था, तरहतरह की दवाइयां, तरहतरह के सुझाव. बच्चे तो रिंकू को छोड़ कर जाने को ही तैयार नहीं थे. आश्चर्य तो तब हुआ जब भाभी के मुंह से उन बच्चों के प्रति वात्सल्य के दो बोल भी नहीं फूटे. वह उन की भावनाओं के साथ, उमड़ते हुए प्यार के साथ तालमेल ही नहीं बैठा पाई थीं.

भाभी भी क्या करतीं? उन के स्वयं के संस्कार ही ऐसे बने थे. वह एक अमीर खानदान से ताल्लुक रखती थीं. पिता और भाइयों का लंबाचौड़ा व्यवसाय है. कालिज के जमाने से ही वह भैया पर लट्टू थीं. उन का प्यार दिनोंदिन बढ़ता गया. मध्यवर्गीय भैया ने कई बार अपनी परिस्थिति की यथार्थता का बोध कराया, लेकिन वह तो उन के प्यार में दीवानी हुई जा रही थीं. समविषम, ऊंचनीच का विचार न कर के उन्होंने भैया को अपना जीवनसाथी स्वीकार ही लिया.

जब इस घर में आने के बाद एक के बाद एक अभावों का खाता खुलने लगा तो वह एकाएक जैसे ढहने सी लगी थीं. उन्होंने ही ड्राइंगरूम की सजावट और संगीत की धुनों को पहचाना था. इनसानों के साथ जज्बाती रिश्तों को वह क्या जानें? वह अभावों की परिभाषा से बेखबर रिंकू को अपने भाइयों के बच्चों की तरह ढालना चाहती थीं. भैया की औकात, भैया की मजबूरी, भैया की हैसियत का अंदाजा क्योंकर उन्हें होता?

कभीकभी ग्लानि तो भैया पर भी होती थी. वह कैसे भाभी के ही सांचे में ढल गए थे. क्या वह भाभी को अपने अनुरूप नहीं ढाल सकते थे?

रिंकू टेस्ट में पास हो गया था. भाभी की खुशी का ठिकाना न रहा था. मानो उन की कोई मनमांगी मुराद पूरी हो गई थी. अब वह बड़ी खुशखुश नजर आने लगी थीं.

जुलाई से रिंकू को स्कूल में भेजे जाने की तैयारी होने लगी थी. नए कपड़े बनवाए गए थे. जूते, टाई तथा अन्य कई जरूरत की वस्तुएं खरीदी गई थीं. अब तो भाभी रिंकू के साथ टूटीफूटी अंगरेजी में बातें भी करने लगी थीं. उसे शिष्टाचार सिखाने लगी थीं.

भाभी रिंकू को जल्दी उठा देती थीं, ‘‘बेटा, देखा नहीं, तुम्हारे मामा के ऋतु, पिंकी कैसे अपने हाथ से काम करते हैं. तुम्हें भी काम स्वयं करना चाहिए. थोड़ा चुस्त बनो.’’

भाभी उस नन्ही जान को चुस्त बनना सिखा रही थीं, जिसे खुद चुस्त का अर्थ मालूम नहीं था. मां और बाबूजी रिंकू से अलग होने की बात सोच कर अंदर ही अंदर विचलित हो रहे थे.

आखिर रिंकू के जाने का निश्चित दिन आ गया था. स्कूल ड्रेस में रिंकू सचमुच बदल गया था. वह जाते समय मुझ से लिपट गया.

मैं ने उसे बड़े प्यार से पुचकार कर समझाया, ‘‘तुम वहां रहने नहीं, पढ़ने जा रहे हो, वहां तुम्हारे जैसे बहुत से बच्चे होंगे. उन में से कई तुम्हारे दोस्त बन जाएंगे. उन के साथ पढ़ना, उन के साथ खेलना. तुम हर छुट्टी में घर आ जाओगे. फिर मांबाबूजी भी तुम से मिलने आते रहेंगे.’’

भाभी भी उसे समझाती रहीं, तरहतरह के प्रलोभन दे कर. मां और बाबूजी के कंठ से आवाज ही नहीं निकल रही थी. बस, वे बारबार रिंकू को चूम रहे थे.

रिंकू की विदाई का क्षण मुझे भी रुला गया. बोगनबेलिया के फूलों से ढके दरवाजे के पास से विदाई के समय हाथ हिलाता हुआ रिंकू…मां और बाबूजी के उठे हाथ तथा आंसुओं से भीगा चेहरा… उस खामोश वातावरण में एक आवाज उभरती रही थी. बोगनबेलिया के फूलों की पुरानी पंखडि़यां हवा के तेज झोंके से खरखर नीचे गिरने लगी थीं. उस के बाद उस में संस्कार के नए फूल खिलेंगे और अपनी महक बिखेरेंगे.

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