Hindi Story: बैंगन नहीं टैंगन – इशिता और मधु का क्या रिश्ता था

Hindi Story: मधु को देख इशिता चौंक गई. अभी बमुश्किल 6 महीने ही हुए होंगे, जब वह पहली बार उस से मिली थी. झारखंड के एक छोटी सी जगह गुमला से सिविल सर्विसेज की तैयारी करने वह जिद कर के घर से आई थी. चेहरे से टपकते भोलेपन ने उस का मन मोह लिया था. पढ़ाई के प्रति उस की लगन और जज्बे ने सोने पर सुहागे का काम किया था, उस की इमेज को इशिता के दिल में जगह बनाने में.

काश, ये भोलापन और मासूमियत महानगर की भीड़ में अपना चेहरा न बदल ले. पर, उस की शंका निर्मूल साबित नहीं हुई. मधु की बदली वेशभूषा और नई बोली उस का नया परिचय दे रही थी.

इशिता को आज उस के बैच की कक्षा लेनी थी. उन्होंने देखा कि पढ़ाई के मामले में वह अब भी गंभीर ही थी… और यह बात उसे सुकून दे रही थी.

वर्षों से वह कोचिंग सैंटर में पढ़ा रही थी और उसे दुख होता था उन लड़कियों को देख कर, जो अपनेअपने गांवकसबे या शहरों से यहां आ कर यहां की चकाचौंध में खो जाती थीं.

ऊंचे ख्वाबों की गठरी कुछ ही दिनों के बाद, यहां की जिंदगी को अपनाने के चक्कर में बिखर जाते थे, अपनी हीनभावना से लड़ते हुए, अपने को पिछड़ेपन की तथाकथित गर्त से निकालने के फेर में वे और गहरी डूबती चली जातीं.
नकल में अक्ल पर बेअक्ल का परदा डाल ये कसबाई लड़कियां वो सब करने को तैयार हो जाती थीं, जो उन्हें गंवार के टैग से आजादी दे.

इशिता ने मधु को अपने पास बुलाया और उस का हालचाल लेने लगी. बातों ही बातों में पता चला कि अब वह अपने गर्ल्स पीजी से आजाद हो कर एक फ्लैट में किसी लड़के के साथ रहने लगी है, जो उस की तरह ही प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा है.

“मैडम अपूर्व बहुत तेज है पढ़ने में, उस के साथ रही तो जरूर कंपीटिशन निकाल लूंगी. फिर इस महानगर में कोई तो ऐसा हो, जिस के साथ सुरक्षित महसूस हो.”

मधु की बातों से उस का नवजागृत आत्मविश्वास छलका जा रहा था.

‘सचमुच बहुत तरक्की कर ली है इस ने,‘ मैडम इशिता ने समझ लिया. उन्हें याद आया, उन की नानी कहती थीं कि गरीब घर की लड़की की जब बड़े घरों में शादी हो जाती है, तो उन में एक ऐंठन आ जाती है और हर चीज में अपनी अधजल गगरी छलकाएंगी.

“ओह, आप इसे बैंगन कहती हैं. हमारे यहां इसे टैंगन कहते हैं.‘‘

मधु की बातें इशिता मैडम को कुछ ऐसी ही लग रही थीं, जो अब बेशर्मी से लिव इन की वकालत कर रही थी यानी बैंगन टैंगन हो ही चुका था.

देश के दूरदराज के गांवकसबों से कभी पढ़ाई तो कभी अच्छे मौकों की तलाश में युवा महानगरों का रुख करते हैं. इस में कई बार सिर्फ कसबाई माहौल से पलायन भी कारण होता है. बड़े शहरों में भले अब तक नहीं रही हों, पर उन्हें अपनी इच्छाओं और हकों की पूरी जानकारी होती है. वहां की बंदिशों से आजाद होने की कसमसाहट उन्हें महानगरों की तरफ उन्मुख करती है.

विभिन्न संस्थानों से पढ़ाई के पश्चात भी युवाओं की एक बड़ी तादाद शहरों में नौकरी करने आती है, जो शुरुआती संकोच के बाद बेहिचक यहां के रंगढंग में ढल जाती है. घरपरिवार, कालेजों की हजारों बंदिशों के बाद यहां की आजादी में वे कुछ ज्यादा ही रम जाते हैं. छोटी जगहों के विपरीत महानगरों में कोई किसी की निजी जिंदगी में टोकाटोकी नहीं करता है और न ही कोई जानपहचान या खास रिश्तेदारी की कोई जासूसी.

सो, शहर की ओर उन्मुख करते वो सारी वर्जनाएं टूटने लगती हैं, जो अब तक संकुचन में जी रहे थे. यों भी भोलेपन या सीधेपन पर गांवदेहात या कसबे का अब एकाधिकार नहीं रहा है. इस इंटरनेट और ओटीटी के युग
में सभी समय पूर्व ही परिपक्व हो रहे हैं, फिर वह गांव हो या शहर.

मधुरा पढ़ने में अच्छी थी, उस ने कैम्पस में रह कर इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की. उस की पहली पोस्टिंग बेंगलुरू हुई. बिहार के एक छोटे से शहर सिवान से उस के पिता उसे बेंगलुरू में कुछ दिन रह कर उस की अन्य सहेलियों के साथ रहने का इंतजाम कर वापस चले आए. पर, पिता के वापस लौटते ही मधुरा अपने कैम्पस के एक दोस्त अंगद के साथ रहने लगी. दोनों के दोस्तों को उन के लिव इन रिलेशन का हमेशा पता रहा. दिखावे के लिए शेयरिंग फ्लैट को उस ने हमेशा रखा, पर रहती रही अंगद के संग. दोस्तों के आश्चर्य की सीमा नहीं रही थी, जब 5 साल के बाद एक दिन मधुरा ने बताया कि उस की शादी एक सजातीय एनआरआई से हो रही है. मेरे पिता बहुत ही संकीर्ण हैं. वे अंगद से मेरी शादी कभी नहीं करेंगे.

यह सुन कर अंगद के पैरों तले जमीन खिसक गई उस की इस बेवफाई से. हद तो तब हो गई, जब उस ने अपनी शादी में अंगद को स्पेशल न्योता दे कर बुलाया और अपने पति से बेहद सहजता से परिचय भी कराया. शायद उसे ये हमेशा से पता था, पर वह अंगद के संग प्रेम कर जीवन को एक अलग अंदाज में जीती रही.

गांवदेहात की सारी लड़कियां पाबंदी या बंदिशों में नहीं जीती हैं अब, बल्कि वे भी शहरी लड़कियों की ही तरह अपने खास अंदाज में अपनी आजादी का लुत्फ उठाती हैं. शहरी उच्छृंखलता सिर्फ महानगरों तक अब सीमित
नहीं हैं, उन की पैठ अंदरूनी दूरदराज जगहों तक हो गई है. विचारों, संस्कारों की बेड़ियां टूटती दिख रहीं हैं. बदलाव ही एकमात्र स्थायी चरित्र होता है, पर ध्यान रहे कि ये बदलाव देश, समाज और परिवार के हित में ही रहे.

स्त्री आजादी आर्थिक स्वावलंबन पर ही टिकी होती है, ये भान रहे. आधुनिक होने का मतलब सिर्फ स्थापित धारणाओं का खंडन ही नहीं होता है, अपितु समाज, परिवार में संतुलन बना रहे और विचारों का उन्नयन होता रहे, ये आवश्यक है.

ऊपर वर्णित उदाहरण सिर्फ खुदगर्जी ही प्रस्तुत कर रहे हैं, जहां अपनी जड़ों से कटने की बेताबी झलक रही है. ये चंद उदाहरण ये भी इंगित कर रहे हैं कि वो जमाना बीत गया, जब सिर्फ लड़कियां ही शोषित होती थीं. हां, अब भी ऐसे उदाहरण कम ही हैं और 90 फीसदी केस में अब भी लड़कियां ही शिकार बनती हैं.

विदेशी संस्कृति की अच्छी बातों को अपनाते हुए अपनी संस्कृति की उच्च परंपरागत सोच की निरंतरता को भी बनाए रखना जरूरी है. Hindi Story

Story In Hindi: छाया – वृंदा और विनय जब बन गए प्रेम दीवाने

Story In Hindi: ‘‘तुम में इतना धैर्य कहां से आ गया. 2 दिन हो गए एक फोन भी नहीं किया,’’ विनय झल्लाहट दबा कर बोला.‘‘नारी का धैर्य तुम ने अभी देखा ही कहां है. वैसे भी मैं तुम्हारे साथ थी भी कहां. बस, एक भीड़ का हिस्सा थी,’’ वृंदा का स्वर शांत था.

‘‘क्या मतलब है. ऐसे कैसे कह सकती हो. परसों मिले थे तो कोई लड़ाईझगड़ा नहीं हुआ था. मैं ने तुम्हें कुछ कहा भी नहीं जिस से तुम्हें गुस्सा आए.’’

‘‘कहने की जरूरत नहीं होती. पिछले 6 महीने से तुम लगातार मुझे अनदेखा करते आ रहे हो और मैं हमेशा सिर्फ तुम्हारे बारे में सोचती रहती हूं. परसों भी अपनी किसी न किसी महिला मित्र से तुम फोन पर बात करते रहे, मानो मैं तुम्हारे साथ थी ही नहीं.’’

‘‘वह तो मेरी लाइन ही ऐसी है.’’‘‘पर मैं तो पूरी तरह तुम्हारे सुखदुख में भागीदार बन कर समर्पित रही. जब भी तुम्हें कोई काम पड़ा तुम मुझे कह देते और तुम्हारा वह काम करते हुए मुझे लगता कि मैं प्यार के लिए अपना फर्ज निभा रही हूं.’’

‘‘यार, ऐसा कुछ भी नहीं है. अच्छा तुम कल मिलो. ये बेकार की बातें हैं, इन्हें दिमाग से निकालो. कुछ भी नहीं बदला है.’’‘‘अभी आफिस में काम है, फिर बात करेंगे,’’ कह कर वृंदा मोबाइल औफ करती हुई दफ्तर में लौट आई.

अपनी कुरसी पर बैठी वृंदा सोचने लगी कि इसी विनय ने 2 साल पहले शुरुआती दौर में कितनी कोशिश कर के उस से संपर्क बढ़ाया था. नौकरी लगने के बाद जब वृंदा ने अपनी कहानी छपवाई तो उस को लगा था कि वह हवा में उड़ रही है. पहली ही कहानी किसी प्रतिष्ठित पत्रिका में छप जाए और प्रशंसा के सैकड़ों पत्र मिलें तो मन तो उड़ेगा ही.

बाद में उस की कुछ और कहानियां छपीं तो कुछ पाठकों के फोन भी आने लगे. कुछ तो प्रशंसा के बहाने अपनी रचना पढ़ने का अनुरोध कर देते. कुछ छपी कहानी की समीक्षा विस्तार से करते.उन्हीं प्रशंसकों में से एक विनय भी था. किसी भी अखबार में वृंदा का कुछ छप जाता तो सब से पहले उस का फोन आता.

एक दिन उस ने पूछ ही लिया, ‘आप क्या हर महिला लेखिका को फोन करते हैं? मेरे अलावा दूसरे लेखकों को भी पढ़ते हैं क्या?’‘मैडम, मैं पत्रकार हूं. साहित्यिक पृष्ठ मैं ही तैयार करता हूं. बाकी पत्रपत्रिकाओं में क्या जा रहा है उस की पूरी जानकारी मुझे रहती है.’

‘क्या आप मेरी कहानियों को संभाल कर रखते हैं?’ वृंदा ने झिझकते हुए पूछा.‘मैं आप का जबरदस्त प्रशंसक हूं. बताइए, क्या सेवा है.’‘आप के यहां से प्रकाशित पत्रिका के पिछले अंक में मेरी एक कहानी छपी है. उस की एक भी प्रति मेरे पास नहीं है. क्या आप एक प्रति भिजवा देंगे. शायद पोस्टमैन ने रख ली होगी.’

और अगले दिन विनय मेरे आफिस के रिसेप्शन पर बैठा था. हम दोनों चाय पीने के लिए पास के रेस्तरां में बैठे तो विनय का फोन बारबार बज उठता.‘किसी मित्र का फोन है क्या? सुन लो.’

‘नहीं, बड़ी मुश्किल से आप से मिलना हो पाया है. बाद में फोन सुन लूंगा. मुझे आप की कहानियां सच में बहुत अच्छी लगती हैं और प्रभावित भी करती हैं. बाकी लेखिकाएं नारी विमर्श के नाम पर मीडिया से जुड़ा जो कुछ लिख रही हैं वह पढ़ा नहीं जाता है.’

‘मुझे भी लगता है कि नारी आंदोलन को व्यवसाय बना लिया गया है. ऐसी औरतें नारी मुक्ति का झंडा उठाए हुए हैं जो खुद कब की आजाद हो चुकी हैं.’

‘आप समाज के सभी पात्रों को लेती हैं. हमारे परिवार के ढांचे को तोड़ने वाले साहित्य का क्या फायदा. कुछ लेखिकाएं ‘लिव इन रिलेशन’ को मुद्दा बना कर लिख रही हैं तो कुछ कई पुरुषों के साथ यौन संबंधों पर. हम कह सकते हैं कि आपस में वादा और विश्वास होने की बातें कहीं खोती जा रही हैं.’

‘ये तथाकथित लेखिकाएं महिलाओं के किस वर्ग को चित्रित कर रही हैं. इन की चकाचौंध में समस्याओं का सामना करने वाली निम्न और मध्यम वर्ग की महिलाओं पर ध्यान ही नहीं दिया जाता,’ वृंदा जोश में बहती जा रही थी.

‘मैडम, आज मेरा इंटरव्यू है. अब निकलता हूं. अब तो आप से मिलना- जुलना होता ही रहेगा,’ यह कह कर विनय फटाफट चला गया.फिर तो वृंदा को मानो बात करने के लिए बेहद सुलझा हुआ अपनी तरह की सोच वाला साथी मिल गया. घर और आफिस के बंधेबंधाए ढांचे में सामाजिक चर्चाओं के लिए कोई भी नहीं था. पर विनय के साथ चर्चाओं का दायरा जल्दी ही टूट गया. बौद्धिक चर्चाएं स्त्रीपुरुष के परस्पर आकर्षण पर आ कर रुक गईं. साहित्य जीवन से ही तो बना है. मगर विनय फ्रीलांसर था. इसलिए उस ने साफ कह दिया कि कहीं पक्की नौकरी लगने तक उसे शादी के लिए रुकना होगा.

विनय ने भी हिंदी और अंगरेजी साहित्य पढ़ा था. पर उसे सरकारी नौकरी से चिढ़ थी. पत्रकार को जो आजादी है, वह और किस को है. फिर पावर भी तो है. सत्ता के साए में रहने वाले बड़ेबड़े लोगों से मिलने और बात करने का मौका जिस सहजता से एक पत्रकार को मिलता है वह दूसरों को कहां मिलता है. विनय को एक न्यूज चैनल में नौकरी मिली तो उस का व्यक्तित्व निखर गया और उसी के साथ उस के संपर्क बढ़ते जा रहे थे.

उस दिन लंच में वे दोनों पार्क में बैठे थे तो विनय फोन सुनने लगा. ग्रुप के मित्रों की आपसी खटपट को ले कर वह नीता से 20 मिनट तक बात करता रहा. धीरेधीरे अलगअलग नामों के फोन आने लगे. विनय फोन काटता तो तुरंत एसएमएस आ जाता. वृंदा के साथ होने पर भी विनय का ध्यान दूर जाने लगा था.

वृंदा को विनय अपने कामों में उलझाए रखता. कभी समीक्षा के लिए लाइब्रेरी से किताब मंगाता तो कभी कोलकाता में अपने घर जाने के लिए रेल का आरक्षण कराने के लिए वृंदा को कह देता. वह लंच में आधाआधा घंटा उस का इंतजार करती रहती और जब विनय आता तो फोन पर कोई न कोई डिस्टर्ब करता रहता.

धीरेधीरे वृंदा को लगने लगा कि वह प्यार किसे करती है विनय को या प्यार की धारणा को. जो आदमी अभी से कई लोगों में बंटा है, शादी के बाद उस से कैसे निष्ठा की उम्मीद की जा सकती है. फिर तो पूरा परिवार और समाज बीच में आ जाएगा. कभी वह विनय को टोकती तो कह देता, ‘तुम्हारा वहम है. वह मेरी महिला मित्र है. सब से काम पड़ता है. फिर हमारा दायरा ऐसा है जिस में पीनेपिलाने के लिए पार्टीज चलती ही रहती हैं.’

‘मुझे इन्हीं से चिढ़ है. जहां तक शराब की बात है तो हमारे यहां इसे कोई पसंद नहीं करता. फिर औरतों का शराब पीना तो हम सोच भी नहीं सकते.’

‘तुम अपनी मध्यवर्गीय सोच से बाहर निकलो. सब की अपनीअपनी जिंदगी है. मैं तो कम ही पीता हूं पर ग्रुप में कुछ लोग मुफ्त की देख कर इतनी पी लेते हैं कि उन के लिए घर लौटना मुश्किल हो जाता है.’

‘देखो विनय, अगर तुम शराब नहीं छोड़ोगे तो हम शादी भी नहीं कर सकते हैं.’

‘रहना तो मुझे पत्रकारिता की दुनिया में ही है. तुम अपने मातापिता को समझाओ न कि शायद पीने वाला हर आदमी बुरा नहीं होता है.’

‘मुझे मत समझाओ. मैं ने शादियों में शराब पी कर लोगों को हुड़दंग करते देखा है. बीवी को पीटते लोग भी देखे हैं. हमारे एक रिश्तेदार की मौत शराब पीने के बाद छत से गिर कर हो गई थी. जब मैं ही तुम से कनविंस नहीं हो पा रही हूं तो मम्मीपापा को कैसे करूं. हम दोनों की जिंदगी और हमारे मूल्यांकन का तौर- तरीका बिलकुल अलग है. जो चीज तुम्हें सामान्य लगती है वह मेरे लिए अजीब हो जाती है. फिर तुम सिर्फ मेरे नहीं हो बल्कि नीता, पिंकी, श्वेता यानी एकसाथ कितनी लड़कियों से दोस्ती की हुई है, जो तुम्हारे करीब आने के लिए एकदूसरे को पछाड़ने में लगी हुई हैं.’

‘उन के साथ काम के सिलसिले में बाहर जाना होता है. फिर मैं हूं ही इतना हैंडसम और वैलबिहेव्ड कि सभी मुझे पसंद करती हैं. पर मैं शादी तो तुम से ही करूंगा.’

वृंदा का फ्रस्ट्रैशन बढ़ने लगा था. विनय का फोन अकसर व्यस्त मिलने लगा. कहीं उस की सरकारी नौकरी के कारण ही तो उस से वह शादी करने के लिए जिद पर अड़ा हुआ है. फिर वृंदा की कहानियों और व्यक्तित्व की जो तारीफ शुरू में होती थी वह क्या था? शायद फ्लर्ट करने का तरीका. जिन सामाजिक महिला कार्यकर्ताओं, लेखिकाओं की शुरू में विनय आलोचना करता था, हमेशा उन्हीं के बीच तो रहता है. वह रिश्ता शायद दोनों के लिए अपरिचित संसार का आकर्षण था. वृंदा मुलाकातों में खुद के लिए विनय के मन में जगह ढूंढ़ती मगर वहां उसे भीड़ नजर आती.

शाम को विनय का फोन फिर आया, ‘‘कल लंच में मिलो न, नाराज क्यों हो?’’

‘‘नाराज नहीं हूं पर मुझे नहीं लगता कि हमें शादी करनी चाहिए. ऐसी जिंदगी का क्या फायदा जिस में मैं तुम्हारे लाइफस्टाइल की आलोचना करती रहूं और तुम मेरे. अपनी लाइफ स्टाइल की ही किसी लड़की से शादी कर लो. मैं भी अपने रिश्ते के बारे में सोचतेसोचते थक गई हूं. कोई रास्ता तो निकलेगा ही.’’

‘‘ध्यान से सोचो. जल्दबाजी में कोई फैसला मत लो.’’

‘‘नहीं, मैं तुम से जितना प्यार करती हूं उतना तुम मुझ से कभी भी नहीं कर पाओगे. हमेशा मैं ही समझौता करती हूं और तुम पूरा ध्यान न दो, ऐसा कब तक चलेगा,’’ कह कर वृंदा ने फोन काट दिया.

अचानक उस ने राहत की सांस ली. रुलाई फूट रही थी मगर प्यार या रिश्ते की छाया के पीछे कब तक भागा जा सकता है. एक कविता की पंक्ति मन में उभरी :

‘मेरा तेरा रिश्ता तू तू मैं मैं का रहा. मैं तू तू करती रही, तू मैं मैं करता रहा.’ Story In Hindi

Story In Hindi: दूर से सलाम – मानवी को देखकर शशांक को कैसा लगा

Story In Hindi: जबमैं शौपिंग कर के बाहर निकली तो गरमी से बेहाल थी. इसलिए सामने के शौपिंग मौल की कौफी शौप में घुस गई. बच्चे आज देर से लौटने वाले थे, क्योंकि पिकनिक पर गए थे. इसीलिए मैं ने सोचा कि क्यों न कोल्ड कौफी के साथ वैज सैंडविच का मजा उठाया जाए.

वैसे मेरा सारा दिन बच्चों के साथ ही गुजर जाता. पति शशांक भी अपने नए बिजनैस में व्यस्त रहते. ऐसे में कई बार मन करता है कि अपनी व्यस्त दिनचर्या में से थोड़ा वक्त अपने लिए भी निकालूं, पर चाह कर भी ऐसा नहीं कर पाती. पर आज मौका मिला तो लगा कि इस टाइम का भरपूर फायदा उठाऊं.

अभी मैं और्डर दे कर सुस्ता ही रही थी कि मेरा फोन बज उठा. फोन पर शशांक थे.

‘‘कहां हो?’’ वे शायद जल्दी में थे.

‘‘बस थोड़ी देर में घर पहुंच जाऊंगी,’’ मैं अटकते हुए बोली.

‘‘अच्छा, ऐसा करना कि करीब 4 बजे रामदीन आएगा, उसे वह फाइल दे देना, जिसे मैं गलती से टेबल पर भूल आया हूं,’’ और शशांक ने फोन काट दिया.

शशांक की यह बेरुखी मुझे अखरी तो सही पर फिर मैं ने तुरंत ही खुद को संभाल लिया. मैं मानती हूं कि काम भी जरूरी है पर इतनी भी क्या व्यस्तता कि कभी अपनी पत्नी से प्यार के दो बोल भी न बोल पाओ?

फिर मुझे वह समय याद आने लगा जब शशांक एक दिलफेंक आशिक की तरह मेरे आगेपीछे घूमा करते थे और अब काम की आपाधापी ने उन्हें लगभग खुश्क सा बना दिया है. पर दूसरे ही पल तब मेरी यह नीरसता झट से दूर हो गई जब मेरे सामने कौफी और सैंडविच रखा गया.

अभी मैं ने कौफी का पहला घूंट भरा ही था कि मेरे कानों में एक जानीपहचानी सी हंसी सुनाई दी. जब मैं ने पलट कर देखा तो हैरान रह गई. एक अधेड़ उम्र के पुरुष के साथ जो महिला बैठी थी, वह मेरे कालेज में मेरे साथ पढ़ती थी. उस महिला का नाम मानवी है.

जब मानवी को देखा तो मेरा मन एक अजीब से उल्लास से भर उठा. कालेज का बीता समय अचानक मेरी आंखों के आगे घूम गया…

सच, वह भी क्या समय था? बेखौफ, बिना किसी टैंशन के मैं और मेरी सहेलियां कालेज में घूमा करती थीं, पर मुझ में और मानवी में एक बुनियादी फर्क था.

जहां मैं पढ़ाई के साथसाथ मौजमस्ती को भी तवज्जो देती थी, वहीं मानवी सिर्फ मौजमस्ती और घूमनेफिरने का ही शौक रखती थी.

कालेज से बंक कर के वह सैरसपाटे पर निकल जाती थी, जिसे मैं ठीक नहीं मानती थी. अपनी बेबाकी के लिए मशहूर मानवी लड़कों पर जादू चलाना खूब जानती थी, शायद इसीलिए मैं उस से एक दूरी बना कर चलती थी.

मैं जब भी उस के घर जाती वह मुझे अपने चेहरे पर फेसपैक लगाए ही मिलती.

‘‘परीक्षा नजदीक है और तुझे फेसपैक लगाने की पड़ी है,’’ मैं उस से चुहल करती.

‘‘अरे मैडम, यही तो अंतर है तुम्हारी और मेरी सोच में,’’ फिर वह जोर से हंस देती, ‘‘तू तो आती है कालेज में पढ़ने के लिए पर अपनु तो आता है लड़कों को पटाने के लिए.

अरे भई, अपना तो सीधा फंडा है कि अगर माया चाहिए तो अपनी काया का ध्यान तो रखना ही पड़ेगा.’’

उस की ये बातें जब मेरी समझ से बाहर हो जातीं तब मैं नोट्स बनाने के लिए लाईब्रेरी का रुख करती और ये मैडम कैंटीन में पहुंच जातीं, कोई नया मुरगा हलाल करने के लिए.

समय अपनी गति से आगे बढ़ता रहा. इस बीच मानवी के कई प्रेमप्रसंग परवान चढ़े और कई बीच में ही दम तोड़ गए. पर बहती नदी सी मानवी इस सब से न कभी रुकी और न ही कोई उसे रोक पाया. आखिर अमीर परिवार की इकलौती बेटी की उड़ान भी तो ऊंची थी. उस का अमीर लड़कों को पटाना, उन से अपना उल्लू सीधा करना लगातार जारी रहा.

कई बार तो ऐसा भी होता था कि मानवी की बदौलत उस की कुछ मनचली सहेलियों को भी मुफ्त में पिक्चर देखने को मिल जाती थी या उस के आशिक की कार में घर तक लिफ्ट मिल जाती थी. तब सभी उस की प्रशंसा करते नहीं थकती थीं. अपनी प्रशंसा सुन मैडम मानवी का हौसला और बुलंद हो जाता.

इस बीच हमारी पढ़ाई पूरी हो गई और हमारा साथ छूट गया. पर मानवी के प्रेम के किस्से जबतब मुझे सुनने को मिलते रहे.

जब मानवी की शादी की खबर कानों में पड़ी तो लगा कि शायद अब उस की जिंदगी में एक स्थिरता आएगी, जिस का अभाव उस की जिंदगी में शुरू से ही रहा है.

बीतते समय के साथ मैं उसे पूरी तरह भूल गई, पर आज अचानक उसे देख कर लगा कि अब उन सहेलियों के संपर्कसूत्र मिल जाएंगे, जिन से मिलने की कब से तमन्ना थी.

मैं हमेशा यही सोचती थी कि हमारी कुछ सहेलियों में से कुछ तो जरूर ऐसी होंगी जिन का मायका और ससुराल यहीं दिल्ली शहर में होगी. अब मानवी मिली है तो शायद उन सहेलियों को ढूंढ़ने में आसानी होगी, जिन्हें मैं अकेली शायद ही ढूंढ़ पाती.

तभी मेरी नजर उस पुरुष पर पड़ी जो अब उठ चुका था और बाहर चलने की तैयारी में था. उस आदमी के जाते ही मानवी भी उठ खड़ी हुई. इस से पहले कि वह मेरी आवाज सुन कर मेरे पास आती, वह खुद ही मेरे पास आ गई.

‘‘अरे सुमिता, तू यहां कैसे?’’ वह मेरी तरफ आते हुए बोली.

‘‘बस, शौपिंग करने आई थी,’’ मैं पास पड़ी कुरसी उस की तरफ खिसकाते हुए बोली.

‘‘तू इतनी मोटी कैसे हो गई,’’ वह हंसते हुए मुझ से पूछ बैठी.

‘‘अब 2 बच्चों के बाद तो ऐसा ही होगा,’’ मैं थोड़ा झेंपते हुए बोली, ‘‘और तू सुना?’’

‘‘भई, अभी तक तो अपनी लाइफ ही सैट नहीं हुई है, बच्चे तो बहुत दूर की बात है.’’

‘‘पर तेरी शादी तो…’’

‘‘अरे, नाम मत ले उस शादी का. वह

शादी नहीं हादसा था मेरे लिए,’’ कह कर मानवी सुबक पड़ी.

‘‘पर हुआ क्या है? बता तो सही?’’ उसे परेशान देख कर मैं उस से पूछ बैठी.

‘‘शादी से पहले तो मेरा पति विरेन बहुत बड़ीबड़ी बातें करता था, पर शादी के बाद उस का व्यवहार बदलने लगा. तुझे तो पता है कि मैं शुरू से ही आजाद जिंदगी जीने की शौकीन रही हूं… अब क्लब जा कर ताश खेलूंगी तो हारूंगी भी… बस, धीरेधीरे यही कहने लगा कि मानवी तुम क्लब जाना छोड़ दो, क्योंकि मेरा बिजनैस घाटे में चल रहा है. अब उस का बिजनैस घाटे में चले या मुनाफे में, मुझे क्या? मुझे तो अपने खर्च के लिए एक तयशुदा रकम चाहिए ही, जिसे मैं चाहे ताश में उड़ाऊं या ब्यूटीपार्लर में फूंकूं,’’ कह व मेज पर रखे पानी के गिलास को झट से उठा कर पी गई.

पानी पी कर जब वह थोड़ी नौर्मल हुई तब बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ा और वह मुझ से कहने लगी, ‘‘पर जब उस की हर बात में टोकाटाकी बढ़ने लगी तब माथा ठनक गया मेरा. बस, तब मैं ने अपने वकील दोस्त के साथ मिल कर पूरे 50 लाख का दहेज उत्पीड़न का केस कर दिया पति पर.

‘‘बच्चू को अब आटेदाल का भाव मालूम पड़ेगा. मैं ने अपनी याचिका दायर करते समय ऐसीऐसी धाराएं लगाई हैं कि अब बेचारा सारी उम्र कोर्ट के चक्कर लगाता रहेगा,’’ कहतेकहते मानवी के चेहरे पर कुटिल मुसकान तैर गई.

मानवी की ये बातें सुन कर मैं हैरान थी. पर उन मैडम के चेहरे पर तो शिकन तक नहीं थी. मानवी अपनी पूरी कहानी एक विजयगाथा की तरह बयान कर रही थी.

‘‘पर मानवी, क्लब जाना बुरा नहीं है, पर अगर घर की आर्थिक हालत बिगड़ रही हो तो ऐसे खर्चों पर रोक लगानी ही पड़ती है और फिर पत्नी के बेलगाम खर्च पर पति ही रोक लगाएगा न,’’ मैं उसे समझाते हुए बोली.

‘‘बस, जो भी मिलता है, तेरी तरह मुझे समझाने लगता है. यह मेरी लाइफ है और इस के साथ अच्छा या बुरा करना, इस का हक सिर्फ मुझे है,’’ मानवी अचानक आक्रामक हो उठी, ‘‘जब मेरी ममा ही मुझे नहीं समझ सकीं तो औरों की क्या बात करूं? मुझे तो यह बात समझ नहीं आती कि एक तरफ तो हम नारी सशक्तीकरण की बातें करते हैं और दूसरी तरफ अगर महिलाएं अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ने की कोशिश करें तो उन के पांवों में पारिवारिक रिश्तों की दुहाई दे कर बेडि़यां डालने की कोशिश करते हैं,’’ मानवी अपनी रौ में बोले जा रही थी और मैं चुपचाप सुन रही थी.

अब यह बात मैं समझ चुकी थी कि जो लड़की अपनी मां की बात नहीं समझ पाई, वह मेरी बात क्या समझेगी? अत: मैं ने बातचीत का रुख बदलते हुए उस के लिए 1 कप कौफी का और्डर दे डाला

कौफी पी कर जब उस का दिमाग तरोताजा हुआ तब वह कहने लगी, ‘‘पता है, जो मेरे पास बैठा था, वह निकुंज है, हमारे शहर का जानामाना वकील. पता है वह बावला मेरे एक इशारे पर करोड़ों रुपए लुटाने को तैयार है.

‘‘बस, जब उसे पता चला कि मेरा पति मुझे तंग कर रहा है तो झट से बोला कि मानवी डार्लिंग, तुम्हें अपने पति की बेवजह की तानाशाही सहने की कोई जरूरत नहीं है.

अरे, तुम तो ऐसी बहती नदी हो, जिसे कोई नहीं बांध सकता, तो फिर तुम्हारे पति की क्या बिसात है?

‘‘वैसे तो मैं अपने तलाक के सिलसिले में ही निकुंज से मिली थी, पर मेरी व्यथा सुन कर दिल पिघल गया था बेचारे का. वह खुद ही मुझ से बोला था कि तुम्हारे पति को यों सस्ते में छोड़ देना ठीक नहीं होगा. जब बच्चू को कानूनी दांवपेंच में उलझाऊंगा तब जा कर उस के होश ठिकाने आएंगे.

‘‘बस, फिर उसी के कहने पर मैं ने अपने पति व सास पर दहेज उत्पीड़न का केस बनाया है. मेरी वही सास जो पहले मेरे क्लब जाने पर ऐतराज करती थी, वही सास आज मेरे आगे केस वापस लेने के लिए गिड़गिड़ाती है, पर मैं ने भी कच्ची गोलियां नहीं खेली हैं. मैडम को मुझ पर हाथ उठाने के झूठे आरोप में ऐसा उलझाया है कि शायद अब उसे आत्महत्या ही करनी पड़े. पर मुझे क्या? मुझे तो अपना बदला चाहिए और वह मैं ले कर ही रहूंगी,’’ इतना कह कर वह चुप हो गई.

यह सुन कर मेरा मन खिन्न हो उठा. रहरह कर मैं मानवी के पति व सास के लिए हमदर्दी महसूस कर रही थी.

‘‘अच्छा, मैं चलती हूं, बच्चे आने वाले होंगे,’’ मैं उठते हुए बोली.

‘‘मैं अभी ब्यूटीपार्लर जा रही हूं. रात को डिनर फिक्स है मेरा निकुंज के साथ,’’ कह उस ने अपनी एक आंख शरारत से दबा दी, ‘‘भई, आज रात के लिए निकुंज ने फाइवस्टार होटल का आलीशान कमरा बुक किया है. अब कुछ पाना है तो यू नो, कुछ करना ही पड़ेगा… पर हां, मैं परसों फ्री हूं. अपना नंबर दे, मैं तेरे घर आऊंगी, तेरे बच्चों से मिलने और फिर तेरे बच्चों की तो मौसी हूं मैं,’’ वह अपना मोबाइल फोन निकालते हुए बोली.

‘‘मेरा फोन तो खो गया था. उस का मिसयूज न हो, इसलिए मेरे पति ने उस नंबर को ब्लौक करा दिया है. अब नया फोन और नया नंबर ही लेना पड़ेगा,’’ मैं ने झूठा बहाना बनाया और तेजी से बाहर निकल आई.

आज के बाद मैं मानवी से नहीं मिलूंगी. यह मैं ने पक्का तय कर लिया था. ऐसे लोगों को दूर से सलाम जो अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं. तभी सामने से आते औटोरिकशा को रोक मैं उस में बैठ कर घर लौट आई. Story In Hindi

Hindi Kahani: तेरी मेरी जिंदगी – क्या था रामस्वरूप और रूपा का संबंध?

Hindi Kahani, लेखक – अंशु हर्ष

रामस्वरूप तल्लीन हो कर किचन में चाय बनाते हुए सोच रहे हैं कि अब जीवन के 75 साल पूरे होने को आए. कितना कुछ जाना, देखा और जिया इतने सालों में, सबकुछ आनंददायी रहा. अच्छेबुरे का क्या है, जीवन में दोनों का होना जरूरी है. इस से आनंद की अनुभूति और गहरी होती है. लेकिन सब से गहरा तो है रूपा का प्यार. यह खयाल आते ही रामस्वरूप के शांत चेहरे पर प्यारी सी मुसकान बिखर गई. उन्होंने बहुत सफाई से ट्रे में चाय के साथ थोड़े बिस्कुट और नमकीन टोस्ट भी रख लिए. हाथ में ट्रे ले कर अपने कमरे की तरफ जाते हुए रेडियो पर बजते गाने के साथसाथ वे गुनगुना भी रहे हैं ‘…हो चांदनी जब तक रात, देता है हर कोई साथ…तुम मगर अंधेरे में न छोड़ना मेरा हाथ …’

कमरे में पहुंचते ही बोले, ‘‘लीजिए, रूपा, आप की चाय तैयार है और याद है न, आज डाक्टर आने वाला है आप की खिदमत में.’

दोनों की उम्र में 5 साल का फर्क है यानी रामस्वरूप से रूपा 5 साल छोटी हैं पर फिर भी पूरी जिंदगी उन्होंने कभी तू कह कर बात नहीं की हमेशा आप कह कर ही बुलाया.

दोस्त कई बार मजाक बनाते कि पत्नी को आप कहने वाला तो यह अलग ही प्राणी है, ज्यादा सिर मत चढ़ाओ वरना बाद में पछताना पड़ेगा. लेकिन रामस्वरूप को कोई फर्क नहीं पड़ा. वे पढ़ेलिखे समझदार इंसान थे और सरकारी नौकरी भी अच्छी पोस्ट वाली थी. रिटायर होने के बाद दोनों पतिपत्नी अपने जीवन का आनंद ले रहे थे.

अचानक एक दिन सुबह बाथरूम में रूपा का पैर फिसल गया और उन के पैर की हड्डी टूट गई. इस उम्र में हड्डी टूटने पर रिकवरी होना मुश्किल हो जाता है. 4 महीनों से रामस्वरूप अपनी रूपा का पूरी तरह खयाल रख रहे हैं.

रूपा ने रामस्वरूप से कहा, ‘‘मुझे बहुत बुरा लगता है आप को मेरी इतनी सेवा करनी पड़ रही है, यों आप रोज सुबह मेरे लिए चायनाश्ता लाते हैं और बैठेबैठे पीने में मुझे शर्म आती है.’’

‘‘यह क्या कह रही हैं आप? इतने सालों तक आप ने मुझे हमेशा बैड टी पिलाई है और मेरा हर काम बड़ी कुशलता और प्यार के साथ किया है. मुझे तो कभी बुरा नहीं लगा कि आप मेरा काम कर रही हैं. फिर मेरा और आप का ओहदा बराबरी का है. मैं पति हूं तो आप पत्नी हैं. हम दोनों का काम हमारा काम है, आप का या मेरा नहीं. चलिए, अब फालतू बातें सोचना बंद कीजिए और चाय पीजिए,’’ रामस्वरूप ने प्यार से उन्हें समझाया.

4 महीनों में इन दोनों की दुनिया एकदूसरे तक सिमट कर रह गई है. रामस्वरूप ने दोस्तों के पास आनाजाना छोड़ दिया और रूपा का आसपड़ोस की सखीसहेलियों के पास बैठनाउठना बंद सा हो गया. अब कोई आ कर मिल जाता है तो ठीक है नहीं तो दोनों अपनी दुनिया में मस्त रहते हैं.

रामस्वरूप का काम सिर्फ रूपा का खयाल रखना है और रूपा भी यही चाहती हैं कि रामस्वरूप उन के पास बैठे रहें.

कामवाली कमला घर की साफसफाई और खाना बना जाती है जिस से घर का काम सही तरीके से हो जाता है. बस, कमला की ज्यादा बोलने की आदत है. हमेशा आसपड़ोस की बातें करने बैठ जाती है रूपा के पास. कभी पड़ोस वाले गुप्ताजी की बुराई तो कभी सामने वाले शुक्लाजी की कंजूसी की बातें और खूब मजाक बनाती है.

रामस्वरूप यदि आसपास ही होते तो कमला को टोक देते थे, ‘‘ये क्या तुम बेसिरपैर की बातें करती रहती हो. अच्छी बातें किया करो. थोड़ा रूपा के पास बैठ कर संगीत वगैरह सुना करो. पूरा जीवन क्या यों ही लोगों के घर के काम करते ही बीतेगा?’’ इस पर कमला जवाब देती, ‘‘अरे साबजी, अब हम को क्या करना है, यही तो हमारी रोजीरोटी है और आप जैसे लोगों के घर में काम करने से ही मुझे तो सुकून मिल जाता है.

‘‘आप दोनों की सेवा कर के मुझे सुख मिल गया है. अब आप बताएं और क्या चाहिए इस जीवन में?’’

रामस्वरूप बोले, ‘‘कमला, बातें बनाने में तो तुम माहिर हो, बातों में कोई नहीं जीत सकता तुम से. जाओ, अब खाना बना लो, काफी बातें हो गई हैं. कहीं आगे के काम करने में तुम्हें देर न हो जाए.’’

पूरा जीवन भागदौड़ में गुजार देने के बाद अब भी दोनों एकदूसरे के लिए जी रहे हैं और हरदम यही सोचते हैं कि कुदरत ने प्यार, पैसा, संपन्नता सब दिया है पर फिर भी बेऔलाद क्यों रखा?

काफी सालों तक इस बात का अफसोस था दोनों को लेकिन 2-4 साल पहले जब पड़ोस के वर्माजी का दर्द देखा तो यह तकलीफ भी कम हो गई क्योंकि अपने इकलौते बेटे को बड़े अरमानों के साथ विदेश पढ़ने भेजा था वर्माजी ने. सोचा था जो सपने उन की जवानी में घर की जिम्मेदारियों की बीच दफन हो गए थे, अपने बेटे की आंखों से देख कर पूरे करेंगे. पर बेटा तो वहीं का हो कर रह गया. वहीं शादी भी कर ली और अपने बूढ़े मांबाप की कोई खबर भी नहीं ली. तब दोनों ने सोचा, ‘इस से तो हम बेऔलाद ही अच्छे, कम से कम यह दुख तो नहीं है कि बेटा हमें छोड़ कर चला गया है.’

आज सुबह की चाय के साथ दोनों अपने जीवन के पुराने दौर में चले गए. जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही परंपरागत तरीके से लड़कालड़की देखना और फिर सगाई व शादी कर के किस तरह से दोनों के जीवन की डोर बंधी.

जीवन की शुरुआत में घरपरिवार के प्रति सब की जिम्मेदारी होने के बावजूद रिश्तेनाते, रीतिरिवाज घरपरिवार से दूर हमारी दिलों की अलग दुनिया थी, जिसे हम अपने तरीके से जीते थे और हमारी बातें सिर्फ हमारे लिए होती थीं. अनगिनत खुशनुमा लमहे जो हम ने अपने लिए जीए वे आज भी हमारी जिंदगी की यादगार सौगात हैं और आज भी हम सिर्फ अपने लिए जी रहे हैं.

तभी रामस्वरूप बोले, ‘‘वैसे रूपा, अगर मैं बीमार होता तो आप को मेरी सेवा करने में कोई परेशानी नहीं होती क्योंकि आप औरत हो और हर काम करने की आप की आदत और क्षमता है लेकिन मुझे भी कोई तकलीफ नहीं है आप की सेवा करने में, बल्कि यही तो वक्त है उन वचनों को पूरा करने का जो अग्नि को साक्षी मान कर फेरे लेते समय लिए थे.

‘‘वैसे रूपा, जिंदगी की धूप से दूर अपने प्यारे छोटे से आशियाने में हर छोटीबड़ी खुशी को जीते हुए इतने साल कब निकल गए, पता ही नहीं चला. ऐसा नहीं है कि जीवन में कभी कोई दुख आया ही नहीं. अगर लोगों की नजरों से सोचें तो बेऔलाद होना सब से बड़ा दुख है पर हम संतुष्ट हैं उन लोगों को देख कर जो औलाद होते हुए भी ओल्डएज होम या वृद्धाश्रमों में रह रहे हैं या दुखी हो कर पलपल अपने बच्चों के आने का इंतजार कर रहे हैं, जो उन्हें छोड़ कर कहीं और बस गए हैं.

‘‘उम्र के इस मोड़ पर आज भी हम एकदूसरे के साथ हैं, यह क्या कम खुशी की बात है. लीजिए, आज मैं ने आप के लिए एक खत लिखा है. 4 दिन बाद हमारी शादी की सालगिरह है पर तब तक मैं इंतजार नहीं कर सका :

हजारों पल खुशियों के दिए,

लाखों पल मुसकराहट के,

दिल की गहराइयों में छिपे

वे लमहे प्यार के,

जिस पल हर छोटीबड़ी

ख्वाहिश पूरी हुई,

हर पल मेरे दिल को

शीशे सी हिफाजत मिली

पर इन सब से बड़ा एक पल,

एक वह लमहा…

जहां मैं और आप नहीं,

हम बन जाते हैं.’’

रूपा उस खत को ले कर अपनी आंखों से लगाती है, तभी डाक्टर आते हैं. आज उन का प्लास्टर खुलने वाला है. दोनों को मन ही मन यह चिंता है कि पता नहीं अब डाक्टर चलनेफिरने की अनुमति देगा या नहीं.

डाक्टर कहता है, ‘‘माताजी, अब आप घर में थोड़ाथोड़ा चलना शुरू कर सकती हैं. मैं आप को कैल्शियम की दवा लिख देता हूं जिस से इस उम्र में हड्डियों में थोड़ी मजबूती बनी रहेगी.

‘‘बहुत अच्छी और आश्चर्य की बात यह है कि इस उम्र में आप ने काफी अच्छी रिकवरी कर ली है. मैं जानता हूं यह रामस्वरूपजी के सकारात्मक विचार और प्यार का कमाल है. आप लोगों का प्यार और साथ हमेशा बना रहे, भावी पीढ़ी को त्याग, पे्रम और समर्पण की सीख देता रहे. अब मैं चलता हूं, कभीकभी मिलने आता रहूंगा.’’

आज दोनों ने जीवन की एक बड़ी परीक्षा पास कर ली थी, अपने अमर प्रेम के बूते पर और सहनशीलता के साथ. Hindi Kahani

Story In Hindi: कर्ण – खराब परवरिश के अंधेरे रास्तों से गुजरती रम्या

Story In Hindi: न्यू साउथ वेल्स, सिडनी के उस फोस्टर होम के विजिटिंग रूम में बैठी रम्या बेताबी से इंतजार कर रही थी उस पते का जहां उस की अपनी जिंदगी से मुलाकात होने वाली थी. खिड़की से वह बाहर का नजारा देख रही थी. कुछ छोटे बच्चे लौन में खेल रहे थे. थोड़े बड़े 2-3 बच्चे झूला झूल रहे थे. वह खिड़की के कांच पर हाथ फिराती हुई उन्हें छूने की असफल कोशिश करने लगी. मृगमरीचिका से बच्चे उस की पहुंच से दूर अपनेआप में मगन थे. कमरे के अंदर एक बड़ा सा पोस्टर लगा था, हंसतेखिलखिलाते, छोटेबड़े हर उम्र और रंग के बच्चों का.

रम्या अब उस पोस्टर को ध्यान से देखने लगी, कहीं कोई इन में अपना मिल जाए. ‘ज्यों सागर तीर कोई प्यासा, भरी दुनिया में अकेला, खाने को छप्पन भोग पर रुचिकर कोई नहीं.’ रम्या की गति कुछ ऐसी ही हो रखी थी. तड़पतीतरसती जैसे जल बिन मछली. उस ने सोफे पर सिर टिका अपने भटकते मन को कुछ आराम देना चाहा, लेकिन मन थमने की जगह और तेजी से भागने लगा, भविष्य की ओर नहीं, अतीत की ओर. स्याह अतीत के काले पन्ने फड़फड़ाने लगे, बिना अंधड़, बिना पलटे जाने कितने पृष्ठ पलट गए.

जिस अतीत से वह भागती रही, आज वही अपने दानवी पंजे उस के मानस पर गड़ा और आंखें तरेर कर गुर्राने लगा. बात तब की है जब रम्या 14-15 वर्ष की रही होगी. उस के डैडी को 2-3 वर्षों में ही इतने बड़ेबड़े ठेके मिल गए कि वे लोग रातोंरात करोड़पति बन गए. पैसा आ जाने से सभ्यता और संस्कार नहीं आ जाते. ऐसा ही हाल उन लोगों का भी था. पैसों की गरमी से उन में ऐंठन खूब थी. आएदिन घर में बड़ीबड़ी पार्टियां होती थीं. बड़ेबड़े अफसर और नेताओं को खुश करने के लिए घर में शराब की नदियां बहती थीं. एक स्वामीजी हर पार्टी में मौजूद रहते थे. रम्या के डैडी और मौम उन के आने से बिछबिछ जाते. वे बड़ेबड़े औद्योगिक घरानों में बड़ी पैठ रखते थे.

उन घरानों से काम या ठेके पाने के लिए स्वामीजी की अहम भूमिका होती थी. पार्टी वाले दिन रम्या और उस की दीदी को नीचे आने की इजाजत नहीं होती थी. अपनी केयरटेकर सुफला के साथ दोनों बहनें छत वाले अपने कमरे में ही रहतीं और छिपछिप कर पार्टी का नजारा लेतीं. कुछ महीने से दीदी भी गायब रहने लगीं. वे रातरातभर घर नहीं आती थीं. जब सुबह लौटतीं तो उन की आंखें लाल और उनींदी रहतीं. फिर वे दिनभर सोती ही रहतीं. यों तो मौम और डैड भी रात की पार्टी के बाद देर से उठते, सो, उन्हें दीदी के बारे में पता ही नहीं था कि वे रातभर घर में नहीं होती हैं.

उस दिन सुबह से ही घर में चहलपहल थी. मौम किसी को फोन पर बता रही थीं कि एक बहुत बड़े ठेके के लिए उस के पापा प्रयासरत हैं. आज वे स्वामीजी भी आने वाले हैं, यदि स्वामीजी चाहें तो उक्त उद्योगपति यह ठेका उस के पापा को ही देंगे. रम्या उस दिन बहुत परेशान थी, उस के स्कूल टैस्ट में नंबर बहुत कम आए थे और उस का मन कर रहा था कि वह मौम को बताए कि उसे एक ट्यूटर की जरूरत है. वह चुपके से सुफला की नजर बचा कर मौम के कमरे की तरफ चली गई. अधखुले दरवाजे की ओट से उस ने जो देखा, उस के पांवतले जमीन खिसक गई. मौम और स्वामीजी की अंतरंगता को अपनी खुली आंखों से देख उसे वितृष्णा सी हो गई. वह भागती हुई छत वाले कमरे की तरफ जाने लगी.

अब वह इतनी छोटी भी नहीं थी, जो उस ने देखा था वह बारबार उस की आंखों के सामने नाच रहा था. इसी सोच में वह दीदी से टकरा गई. ‘दीदी, मैं ने अभी जो देखा…मौम को छिछि…मैं बोल नहीं सकती,’ रम्या घबरातीअटकती हुई दीदी से बोलने लगी. दीदी ने मुसकराते हुए उसे देखा और कहा, ‘चल, आज तुझे भी एक पार्टी में ले चलती हूं.’ ‘कैसी पार्टी, कौन सी पार्टी?’ रम्या ने पूछा. ‘रेव पार्टी,’ दीदी ने आंखें बड़ीबड़ी कर उस से कहा. ‘यह शहर से दूर बंद अंधेरे कमरों में तेज म्यूजिक के बीच होने वाली मस्ती है, चल कोई बढि़या सा हौट ड्रैस पहन ले,’ दीदी ने कहा तो रम्या सब भूल झट तैयार होने लगी. ‘बेबी आप लोग किधर जा रही हैं, साहब, मेमसाहब को पता चला तो मुझे ही डांटेंगे?’ सुफला ने बीच में कहा. ‘चल सुफला, आज की रात तू भी ऐश कर ले,’ दीदी ने उसे 100 रुपए का एक नोट पकड़ा दिया.

उस दिन रम्या पहली बार किसी ऐसी पार्टी में गई. दीदी व दूसरे लड़केलड़कियों को बेतकल्लुफ हो तेज संगीत और लेजर लाइट में नाचते, झूमते, पीते, खाते, सूंघते, सुई लगाते देखा. थोड़ी देर वह आंख फाड़े देखती रही. फिर धीरेधीरे शोर मध्यम लगने लगा, अंधेरा भाने लगा, तेजी से झूमना और जिसतिस की बांहों में गुम होते जाना सुकूनदायक हो गया. दूसरे दिन जब आंख खुली तो देखा कि वह अपने बिस्तर पर है. घड़ी दोपहर का वक्त बता रही थी यानी आज सारा दिन गुजर गया. वह स्कूल नहीं जा पाई. रात की घटनाएं हलकीहलकी अभी भी जेहन में मौजूद थीं. उसे अब घिन्न सी आने लगी.

रम्या को पढ़नेलिखने और कुछ अच्छा बनने का शौक था. बाथरूम में जा कर वह देर तक शौवर में खुद को धोती रही. उसे अपनी भूल का एहसास होने लगा था. ‘क्यों रामी डिअर, कल फुल एंजौयमैंट हुआ न, चल आज भी ले चलती हूं एक नए अड्डे पर,’ दीदी ने मुसकराते हुए पूछा तो रम्या ने साफ इनकार कर दिया. आने वाले दिनों में वह मौमडैड और बहन व आसपास के माहौल सब से कन्नी काट अपनी पढ़ाई व परीक्षा की तैयारी में लगी रही. एक सुफला ही थी जो उसे इस घर से जोड़े हुए थी. बाकी सब से बेहद सामान्य व्यवहार रहा उस का. कुछ दिनों से उसे बेहद थकान महसूस हो रही थी. उसे लगातार हो रही उलटियां और जी मिचलाते रहना कुछ और ही इशारा कर रहा था.

सुफला की अनुभवी नजरों से वे छिप नहीं पाईं, ‘बेबीजी, यह आप ने क्या कर लिया?’ ‘सुफला, क्या मैं तुम पर विश्वास कर सकती हूं, उस एक रात की भूल ने मुझे इस कगार पर ला दिया है. मुझे कोई ऐसी दवाई ला दो जिस से यह मुसीबत खत्म हो जाए और किसी को पता भी न चले. अगले कुछ महीनों में मेरी परीक्षाएं शुरू होंगी. मुझे आस्ट्रेलिया के विश्वविद्यालय से अपनी आगे की पढ़ाई करनी है. मुझे घर के गंदे माहौल से दूर जाना है,’ कहतेकहते रम्या सुफला की गोद में सिर रख कर रोने लगी. अब सुफला आएदिन कोई दवा, कोई जड़ीबूटी ला कर रम्या को खिलाने लगी. रम्या अपनी पढ़ाई में व्यस्त होती गई और एक जीव उस के अंदर पनपता रहा. इस बीच घर में तेजी से घटनाक्रम घटे.

उस की दीदी को एक रेव पार्टी से पुलिस पकड़ कर ले गई और फिर उसे नशामुक्ति केंद्र में पहुंचा दिया गया. उस दिन मौम अपनी झीनी सी नाइटी पहन सुबह से बेचैन सी घर में घूम रही थीं कि उन की नजर रम्या के उभार पर पड़ी. तेजी से वे उस का हाथ खींचते हुए अपने कमरे में ले गईं. ‘रम्या, यह क्या है? आर यू प्रैग्नैंट? बेबी तुम ने प्रिकौशन नहीं लिया था? तुम ने मुझे बताया क्यों नहीं?’

मौम ने प्रश्नों की झड़ी सी लगा दी थी. रम्या खामोश ही रही तो मौम ने आगे कहा, ‘मेरी एक दोस्त है जो तुम्हें इस मुसीबत से छुटकारा दिला देगी. हम आज ही चलते हैं. उफ, सारी मुसीबतें एकसाथ ही आती हैं,’ मौम बड़बड़ा रही थीं. रम्या ने पास पड़े अखबार में उन स्वामीजी की तसवीर को देखा जिन्हें हथकड़ी लगा ले जाया जा रहा था. अगले कुछ दिन मौम रम्या को ले अपनी दोस्त के क्लिनिक में ही व्यस्त रहीं, लेकिन अबौर्शन का वक्त निकल चुका था और गलत दवाइयों के सेवन से अंदरूनी हिस्से को काफी नुकसान हो चुका था. इस बीच न्यूज चैनल और अखबारों में स्वामीजी और उस की मौम के रिश्ते भी सुर्खियों में आने लगे. रम्या की तो पहले से ही आस्ट्रेलिया जाने की तैयारियां चल रही थीं.

मौम उसे ले अचानक सिडनी चली गईं ताकि कुछ दिन वे मीडिया से बच सकें और रम्या की मुसीबत का हल विदेश में ही हो जाए बिना किसी को बताए. लाख कोशिशों के बावजूद एक नन्हामुन्ना धरती पर आ ही गया. मौम ने उसे सिडनी के एक फोस्टर होम में रख दिया. रम्या फिर भारत नहीं लौटी. अनचाहे मातृत्व से छुटकारा मिलने के बाद वह वहीं अपनी आगे की पढ़ाई करने लगी. 5 वर्षों बाद उस ने वहीं की नागरिकता हासिल कर अपने साथ ही काम करने वाले यूरोपियन मूल के डेरिक से विवाह कर लिया. रम्या अब 28 वर्ष की हो चुकी थी. शादी के 5 वर्ष बीत गए थे.

लेकिन उस के मां बनने के कोई आसार नजर नहीं आ रहे थे. सिडनी के बड़े अस्पताल के चिकित्सकों ने उसे बताया कि पहले गर्भाधान के दौरान ही उस कीबच्चेदानी में अपूर्णीय क्षति हो गई थी और अब वह गर्भधारण करने लायक नहीं है. यह सुन कर रम्या के पैरोंतले जमीन खिसक गई. डेरिक तो सब जानता ही था, उस ने बिलखती रम्या को संभाला. ‘रम्या, किसी दूसरे के बच्चे को अडौप्ट करने से बेहतर है हम तुम्हारे बच्चे को ही अपना लें,’ डेरिक ने कहा. यह सुन कर रम्या एकबारगी सिहर उठी, अतीत फिर फन काढ़ खड़ा हो गया. ‘लेकिन, वह मेरी भूल है, अनचाहा और नफरत का फूल,’ रम्या ने कहा. जब कोई वस्तु या व्यक्ति दुर्लभ हो जाता है तो उस को हासिल करने की चाह और ज्यादा हो जाती है.

अब तक जिस से उदासीन रही और नफरत करती रही, धीरेधीरे अब उस के लिए छाती में दूध उतरने लगा. फिर एक दिन डेरिक के साथ उस फोस्टर होम की तरफ उस के कदम उठ ही गए. …तभी संचालिका ने रम्या की तंद्रा को भंग किया, ‘‘यह रहा उस बच्चे को अडौप्ट करने वाली लेडी का पता. वे एक सिंगल मदर हैं और मार्टिन प्लेस में रहती हैं. मैं ने उन्हें सूचना दे दी है कि आप उन के बच्चे को जन्म देनेवाली मां हैं और मिलना चाहती हैं.’’ फोस्टर होम की संचालिका ने कार्ड थमाते हुए कहा. जो भाव आज से 13-14 वर्र्ष पहले अनुभव नहीं हुआ था वह रम्या में उस कार्ड को पकड़ते ही जागृत हो उठा.

उसे ऐसा लगा कि उस के बच्चे का पता नहीं, बल्कि वह पता ही खुद बच्चा हो. मातृत्व हिलोरे लेने लगा. डेरिक ने उसे संभाला और अगले कुछ घंटों में वे लोग, नियत समय पर मार्टिन प्लेस, मिस पोर्टर के घर पहुंच चुके थे. 50-55 वर्षीया, थोड़ा घसीटती हुई चलती मिस पोर्टर एक स्नेहिल और मिलनसार महिला लगीं. रम्या के चेहरे के भावों को पढ़ते हुए उन्होंने लौन में लगी कुरसी पर बैठने का इशारा किया. ‘‘क्या मैं अपने बेटे से मिल सकती हूं्? क्या मैं उसे अपने साथ ले जा सकती हूं?’’ रम्या ने छूटते ही पूछा पर आखिरी वाक्य बोलते हुए खुद ही उस की जबान लड़खड़ाने लगी. डेरिक और रम्या ने देखा, मिस पोर्टर की आंखें अचानक छलछला गईं.

‘‘आप उस की जन्म देनेवाली मां हैं, पहला हक आप का ही है. वह अभी स्कूल से आता ही होगा. वह देखिए, आप का बेटा,’’ गेट की तरफ इशारा करते हुए मिस पोर्टर ने कहा. रम्या अचानक चौंक गई, उसे ऐसा लगा कि उस ने आईना देख लिया. हूबहू उस की ही तरह चेहरा, वही छोटी सी नुकीली नाक, हिरन सी चंचल बड़ी सी आंखें, पतले होंठ, घुंघराले काले बाल और बिलकुल उस की ही रंगत. ‘‘आओ बैठो, मैं ने तुम्हे बताया था न कि तुम्हारी मां आने वाली हैं. ये तुम्हारी मां रम्या हैं,’’ मिस पोर्टर ने प्यार से कहा. 14 वर्षीय उस बच्चे ने गरदन टेढ़ी कर रम्या को ऊपर से नीचे तक देखा और मिस पोर्टर की बगल में बैठ गया, ‘‘मौम, तुम्हारे पैरों का दर्द अब कैसा है, क्या तुम ने दवा खाई?’’

रम्या लालसाभरी नजरों से देख रही थी, जिस के लिए जीवनभर हिकारत और नफरत भाव संजोए रही, आज उसे सामने देख ममता का सागर हिलोरे मारने लगा. ‘‘बेटा, मेरे पास आओ. मैं ने तुम्हें जन्म दिया है. तुम्हें छूना चाहती हूं,’’ दोनों हाथ पसार रम्या ने तड़प के साथ कहा. बच्चे ने मिस पोर्टर की तरफ सवालिया नजरों से देखा. उन्होंने इशारों से उसे जाने को कहा. पर वह उन के पास ही बैठा रहा. ‘‘यदि आप मेरी जन्मदात्री हैं तो इतने वर्षों तक कहां रहीं? आप के होते हुए मैं अनाथ आश्रम में क्यों रहा?’’ बेटे के सवालों के तीर अब रम्या को आगोश में लेने लगे. बेबसी के आंसू उस की पलकों पर टिकने से विद्रोह करने लगे. उस मासूम के जायज सवालों का वह क्या जवाब दे कि तुम नाजायज थे, पर अब उसी को जायज बनाने, बेशर्म हो, आंचल पसारे खड़ी हूं. बेटा आगे बोला, ‘‘आप को मालूम है, मैं 5 वर्ष की उम्र तक फोस्टर होम में रहा.

मेरी उम्र के सभी बच्चों को किसी न किसी ने गोद लिया था. पर आप के द्वारा बख्शी इस नस्ल और रंग ने मुझे वहीं सड़ने को मजबूर कर दिया था.’’ ‘‘मैं वहां हफ्ते में एक बार समाजसेवा करने जाती थी. इस के अकेलेपन और नकारे जाने की हालत मुझे साफ नजर आ रही थी. फोस्टर होम की मदद से मैं ने इंडिया के कुछ एनजीओज से संपर्क साधा, जिन्होंने आश्वासन दिया कि शायद वहां इसे कोई गोद ले लेगा. मैं ले कर गई भी. कुछ लोगों से संपर्क भी हुआ. पर फिर मेरा ही दिल इसे वहां छोड़ने को नहीं हुआ, बच्चे ने मेरा दिल जीत लिया. और मैं इसे कलेजे से लगा कर वापस सिडनी आ गई,’’ मिस पोर्टर ने भर्राए हुए गले से बताया. ‘‘इस के जन्म के वक्त आप की मां ने आप के बारे में जो सूचना दी थी, उस आधार पर मुझे पता चला कि आप यहीं आस्ट्रेलिया में ही कहीं हैं.

यह भी एक कारण था कि मैं इसे वापस ले आई और मैं ने अपने कोखजाए की तरह इसे पाला. मन के एक कोने में यह उम्मीद हमेशा पलती रही थी कि आप एक दिन जरूर आएंगी,’’ मिस पोर्टर ने जब यह कहा तो रम्या को लगा कि काश, धरती फट जाती और वह उस में समा जाती. डबडबाई आंखों से उस ने शर्मिंदगी के भार से झुकी पलकों को उठाया. बच्चा अब मिस पोर्टर से लिपट कर बैठा था. मिस पोर्टर स्नेह से उस के घुंघराले बालों को सहला रही थीं. ‘‘आप ले जाइए अपने बेटे को. मैं इसे भेज, ओल्डएज होम चली जाऊंगी,’’ उन्होंने सरलता से मुसकराते हुए कहा. रम्या की आंखों में चमक आ गई, उस ने अपनी बांहें पसार दीं. ‘‘आज इतने सालों बाद मुझ से मिलने और मुझे अपनाने का क्या राज है?

आप यहीं थीं, जानती थीं कि मैं किस अनाथ आश्रम में हूं, फिर भी आप का दिल नहीं पसीजा? आज क्यों अपना मतलबी प्यार दिखाने मुझ से मिलने चली आईर्ं? लाख तकलीफें सह कर, मुसीबतों के पहाड़ टूटने के बावजूद इन्होंने मुझे नहीं छोड़ा और अब मैं इन्हें नहीं छोडूंगा.’’ बेटे के मुंह से यह सुन रम्या को अपनी खुदगर्जी पर शर्म आने लगी. ‘‘बेटा, तुम्हारा नाम क्या है?’’ डेरिक ने रम्या का हाथ थाम उठते हुए पूछा. ‘‘कीन, कीन पोर्टर है मेरा नाम.’’ ‘‘क्या कहा कर्ण. ‘कर्ण,’ हां यही होगा तुम्हारा नाम, वाकई तुम क्यों छोड़ोगे अपने आश्रयदाता को. पर मैं कुंती नहीं, मैं कुंती होती तो मेरे पांडव भी होते. मेरी भूल माफ करने लायक नहीं…’’ खाली गोद लौटती रम्या बुदबुदा रही थी और डेरिक हैरानी से उस की बातों का मतलब समझने की कोशिश कर रहा था. Story In Hindi

Hindi Family Story: अक्ल वाली दाढ़ – कयामत बन कर कैसे आई दाढ़

Hindi Family Story: हमबचपन से सुनतेसुनते तंग आ चुके थे कि तुम्हें तो बिलकुल भी अक्ल नहीं है. एक दिन जब हम इस बात से चिढ़ कर रोंआसे से हो गए तो हमारी बूआजी ने हमें बड़े प्यार से समझाया, ‘‘बिटिया, अभी तुम छोटी हो पर जब तुम बड़ी हो जाओगी तब तुम्हारी अक्ल वाली दाढ़ आएगी और तब तुम से कोई यह न कहेगा कि तुम में अक्ल नहीं है.’’ बूआ की बातें सुन कर हमारे चेहरे पर मुसकान आ गई और हम रोना भूल कर खेलने चले गए. अब हम पूरी तरह आश्वस्त थे कि एक न एक दिन हमें भी अक्ल आ ही जाएगी और देखते ही देखते हम बड़े हो गए और इंतजार करने लगे कि अब तो जल्द ही हमें अक्ल वाली दाढ़ आ जाएगी. इस बीच हमारी शादी भी हो गई.

अब ससुराल में भी वही ताने सुनने को मिलते कि तुम्हें तो जरा भी अक्ल नहीं. मां ने कुछ सिखाया नहीं. यही सब सुनतेसुनते वक्त बीतता चला गया पर अक्ल वाली दाढ़ को न आना था न वह आई. अब जब 40वां साल भी पार कर लिया तो हम ने उम्मीद ही छोड़ दी पर एक दिन हमारी चबाने वाली दाढ़ में बहुत तेज दर्द उठा. यह दर्द इतना बेदर्द था कि इस की वजह से हमारे गाल, कान यहां तक कि सिर भी दुखने लगा. हम दर्द से बेहाल गाल पर हाथ धरे आह उह करते फिर रहे थे. जिस ने भी हमारे दांत के दर्द के बारे में सुना उस ने यही कहा, ‘‘अरे, तुम्हारी अक्ल वाली दाढ़ आ रही होगी. तभी इतना दर्द हो रहा है.’’

हम बड़े खुश हुए कि चलो देर से ही सही पर अब हमें भी अक्ल आ ही जाएगी. पर जब हमारा दर्द के मारे बुरा हाल हुआ तो हम ने सोचा इस से हम बिना अक्ल के ही ठीक थे. डैंटिस्ट के पास गए तो उन्होंने बताया आप की अंतिम वाली दाढ़ कैविटी की वजह से सड़ चुकी है. उसे निकालना होगा. तब हम ने जिज्ञासावश पूछ लिया, ‘‘क्या यह हमारी अक्ल वाली दाढ़ थी?’’

हमारे इस सवाल पर डैंटिस्ट महोदय मुसकराते हुए बोले, ‘‘जी मैम, यह आप की अक्ल वाली दाढ़ ही थी.’’ अब बताइए देर से आई और कब आई यह हमें पता ही नहीं चला और सड़ भी गई. दर्द बरदाश्त करने से तो अच्छा यही था कि हम उसे निकलवा ही दें. डैंटिस्ट ने तीसरे दिन बुलाया था सो हम तीसरे दिन दाढ़ निकलवाने वहां पहुंच गए. वहां दांत के दर्द से पीडि़त और लोग भी बैठे थे, जिन में एक छोटी सी 5 साल की बच्ची भी थी. उस के सामने वाले दूध के दांत में कैविटी थी. वह भी उस दांत को निकलवाने आई थी. हम ने उस से उस का नाम पूछा तो वह कुछ नहीं बोली. बस अपना मुंह थामे बैठी रही.

उस की मम्मी ने बताया कि 3 दिन से दर्द से बेहाल है. पहले तो दांत निकलवाने को तैयार नहीं थी पर जब दर्द ज्यादा होने लगा तो बोली चलो दांत निकलवाने. हमारा नंबर उस बच्ची के पीछे ही था. पहले उसे बुलाया गया और सुन्न करने वाला इंजैक्शन लगाया गया, जिस से उस के पूरे मुंह में सूजन आ गई. अब हमारी बारी थी. वैसे आप को बता दें हम देखने में हट्टेकट्टे जरूर हैं पर हमारा दिल एकदम चूहे जैसा है. खैर, हमें भी इंजैक्शन लगा और 10 मिनट बाद आने को कहा गया. हम मुंह पकड़े वहीं सोफे पर ढेर हो गए.

अभी हमें चकराते हुए 10 मिनट ही बीते थे कि हमें फिर अंदर बुलाया गया और निकाल दी गई हमारी अक्ल वाली दाढ़. जब दाढ़ निकाली तो हमें दर्द का एहसास नहीं हुआ पर डैंटिस्ट ने एक रुई का फाहा हमारी निकली हुई दाढ़ वाली खाली जगह लगा दिया. उस पर लगी दवा का स्वाद इतना गंदा था कि हम ने वहीं उलटी कर दी. इस पर हमें नर्स ने खा जाने वाली नजरों से देखा तो हम गाल पकड़े बाहर आ गए. हमारा छोटा बेटा जो हमारे साथ ही था ने बताया कि डैंटिस्ट अंकल ने कहा है कि 1 घंटे तक रुई नहीं निकालनी है. बड़ी मुश्किल से यह वक्त बीता और फिर हमें आइस्क्रीम खाने को मिली. एक तरफ से सूजे हुए मुंह से आइस्क्रीम खाते हुए हम बड़े फनी से लग रहे थे. बच्चे हमारी मुद्राएं देखदेख कर हंसे जा रहे थे. अब हम ने जो दर्द सहा सो सहा पर यह तो हमारे साथ बड़ी नाइंसाफी हुई न कि जिस अक्ल दाढ़ का सालों इंतजार किया वह आई भी तो कैसी. जो भी हो हम तो आखिर रह गए न वही कमअक्ल के कमअक्ल. Hindi Family Story

Family Story In Hindi: सबक – सुधीर को लेकर क्या थी अनु की कशमकश ?

Family Story In Hindi: रक्षाबंधन पर मैं मायके गई तो भैया ने मेरे ननदोई सुधीर जीजाजी के विषय में कुछ ऐसा बताया जिसे सुन कर मुझे विश्वास नहीं हुआ.

‘‘नहीं भैया, ऐसा हो ही नहीं सकता, जरूर आप को कोई भ्रम हुआ होगा.’’

‘‘नहीं अनु, मुझे कोई भ्रम नहीं हुआ. पिछले महीने औफिस के काम से दिल्ली गया तो सोचा, सुधीर से भी मिल लूं क्योंकि उन से मुलाकात हुए काफी अरसा हो चुका था. काम से फारिग होने के बाद जब मैं सुधीर के घर पहुंचा तो वे मुझे अचानक आया हुआ देख कर कुछ घबरा से गए. उन्होंने मेरा स्वागत वैसा नहीं किया जैसा कि मेरे पहुंचने पर अकसर किया करते थे. तभी मेरी नजर शोकेस में रखी एक तसवीर पर गई. उस तसवीर में सुधीर के साथ संध्या नहीं, कोई और युवती थी. जब मैं बाथरूम से फ्रैश हो कर आया तो वह तसवीर वहां से गायब थी लेकिन वह तसवीर वाली युवती ही उन की रसोई में चायनाश्ता तैयार कर रही थी.’’

‘‘भैया, हो सकता है वह उन की मेड हो.’’

‘‘शायद मैं भी यही समझता, अगर मैं ने वह तसवीर न देखी होती.’’

‘‘देखने में कैसी थी वह युवती?’’ मैं अपनी उत्सुकता छिपा न सकी.

देखने में सुंदर मगर बहुत ही साधारण थी. एक बात और मैं ने नोटिस की, मेरे अचानक आ जाने से वह सुधीर की तरह असहज नहीं थी, बिलकुल सामान्य नजर आ रही थी. उस के हाथ की चाय और नाश्ते में आलूप्याज की पकौडि़यों और सूजी के हलवे के स्वाद से ही मैं ने जान लिया था कि वह साक्षात अन्नपूर्णा होने के साथसाथ एक कुशल गृहिणी है.

‘‘सुधीर जीजाजी ने आप का उस से परिचय नहीं करवाया?’’

‘‘उस को चायनाश्ते के लिए कहते वक्त सुधीर शायद मुझे यह दर्शा रहे थे कि वह उन की मेड है लेकिन उन के साथ उस की तसवीर, फिर तसवीर का गायब होना और मेरी उपस्थिति से सुधीर का असहज होना इस बात की तरफ साफ संकेत कर रहा था कि वह युवती उन की मेड नहीं बल्कि कुछ और है.’’

‘‘भैया, इस विषय में हमें संध्या दी को तुरंत बता देना चाहिए,’’ मैं ने उतावले स्वर में कहा.

‘‘नहीं अनु, इस विषय में तुम संध्या दी को कुछ नहीं बताओगी,’’ भैया के बजाय भाभी बड़े ही कठोर और आदेशात्मक लहजे में बोलीं. ‘‘भाभी, आप एक औरत हो कर भी औरत के साथ अन्याय की बात कर रही हैं. संध्या दी मेरे पति की सगी बहन हैं, मेरी ननद हैं. जैसे मैं आप की ननद हूं’’ ‘‘जानती हूं मैं, संध्या आप के पति की सगी बहन है, लेकिन 14 साल पहले वह अपने पति से बुरी तरह लड़झगड़ कर अपनी मरजी से अपनी दोनों बेटियों को ले कर मायके आ गई थी. सुधीर और उन के परिवार वालों ने लाख कोशिश की कि वह लौट आए लेकिन हर बार उन्हें संध्या दी ने अपमानित किया. ऐसी स्थिति में सुधीर के मांबाप ने चाहा भी कि दोनों का तलाक हो जाए लेकिन संध्या दी पर तो जैसे जिंदगीभर सुधीर को परेशान करने का जनून सवार था. शायद इसी वजह से उस ने सुधीर को तलाक भी नहीं दिया.’’

‘‘जानती हो अनु, जब तुम्हारी संध्या दी ने अपना ससुराल छोड़ा था तब अपने पति के मुंह पर थूक कर गई थी. तो भला, कौन पति अपनी ऐसी बेइज्जती सहेगा? इतना सबकुछ हो जाने के बावजूद, सुधीर की इंसानियत और बड़प्पन देखो कि वे उस का और दोनों बेटियों का पूरा खर्चा बिना किसी हीलहुज्जत के नियम से दे रहे हैं. उन की हर सुखसुविधा का खयाल भी रखते हैं. महीने में उन से मिलने भी आते हैं.’’

‘‘यह तो उन का फर्ज है, भाभी. वे एक पिता और पति भी हैं,’’ मैं ने संध्या दी का पक्ष लेते हुए कहा. ‘‘सारे फर्ज सुधीर के ही हैं, तुम्हारी संध्या दी के कुछ भी नहीं,’’ भाभी कड़वे स्वर में बोलीं, ‘‘अनु, तुम ही बताओ तुम्हारी संध्या दी ने शादी के बाद अपने पति को क्या सुख दिया? उन का जीवन खराब कर दिया. कभी उन्हें मानसिक शांति नहीं मिली. मुझे तो आश्चर्य होता है कि उन की बेटियां कैसे हो गईं? उन्हें तो सुधीर के सान्निध्य से ही घिन आती थी. उन के हर काम, व्यवहार में उन्हें नीचा दिखाने की कोशिश में लगी रहती थीं. उन के कपड़े धोना तो दूर, उन्हें हाथ तक न लगाती थी. उन्हें खाने तक के लिए तरसा दिया था. वे बेचारे मां के पास खाते तो उन पर ताने कसती, उन पर व्यंग्य करती. तो बताओ अनु, क्या ऐसी औरत से हम सहानुभूति रखें? ऐसी औरतों को तो सबक मिलना ही चाहिए जो अपने पति और ससुराल वालों

इतना कर्कश व्यवहार रखती हैं. एक अच्छी और सुघड़ औरत वह होती है जो परिवार को तोड़ती नहीं, बल्कि जोड़ती है. लेकिन तुम्हारी संध्या दी ने तो जोड़ना नहीं, तोड़ना सीखा है. प्रेम और मिलनसार व्यवहार जैसे शब्द तो शायद उन के शब्दकोश में हैं ही नहीं. सच पूछो, तो मुझे बेहद खुशी है कि सुधीर उस औरत के साथ हंसीखुशी रह रहे हैं.’’

‘‘भाभी, आप जो कुछ कह रही हैं वह हम सब जानते हैं. न वे व्यवहार की अच्छी हैं न स्वभाव की. जबान की भी बेहद कड़वी हैं या दूसरे शब्दों में कहें वे शुद्ध खालिस स्वार्थ की प्रतिमा हैं. मायके में भी किसी से नहीं बनी, तभी तो किराए के मकान में रह रही हैं. लेकिन एक औरत होने के नाते हमें ऐसा होने से रोकना चाहिए और संध्या दी को सबकुछ बता देना चाहिए.’’

‘‘अनु, इस मामले में मेरी सोच तुम से जुदा है. मैं भी एक औरत हूं लेकिन इस प्रकरण में मैं सुधीर का साथ दूंगी क्योंकि हर जगह आदमी ही गलत नहीं होता. 95 प्रतिशत मामलों में दोषी न होते हुए भी पुरुषों को ही दोषी ठहराया जाता है. अगर एक पति अपनी कर्कशा पत्नी को पूरा खर्चा दे रहा है, अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी निभा रहा है और इस के एवज में अगर वह अपना एकाकीपन दूर करने के लिए एक औरत के साथ सुखी, संतुष्ट और तनावमुक्त जीवन जी रहा है तो इस में गलत क्या है? वह औरत भी पूरी सचाई से वाकिफ है, तो बुरा क्या है. प्लीज, जैसा चल रहा है, चलने दो. इस बारे में संध्या को बताने का मतलब साफ है कि सुधीर का जीवन पहले से और भी बदतर हो जाना क्योंकि संध्या की फितरत से वाकिफ हूं मैं.’’

‘‘लेकिन भाभी, उस औरत को अंत में क्या हासिल होगा? कानूनी रूप से तो संध्या ही उन की पत्नी हैं. सुधीर जीजाजी के न रहने पर उन की सारी संपत्ति, जमीनजायदाद और पैंशन पर तो संध्या दी का ही हक होगा. यह सब छिपा कर हम उस औरत के साथ भी तो एक तरह से अन्याय ही कर रहे हैं,’’ मैं ने चिंतित स्वर में कहा. ‘‘नहीं अनु, तुम किसी के साथ कोई अन्याय नहीं कर रही हो. मैं जानती हूं, सुधीर जैसे नेकदिल इंसान मात्र अपने सुख और स्वार्थ के लिए उस औरत के साथ कोई धोखा नहीं करेंगे, न ही उसे अंधेरे में रखेंगे. पूरी ईमानदारी और पारदर्शिता के साथ वे अपना रिश्ता निभाएंगे. मुझे पूरा विश्वास है सुधीर जैसे पढ़ेलिखे, समझदार और दूरदर्शी व्यक्ति ने उस के सुखी और सुरक्षित भविष्य के लिए कुछ न कुछ प्रबंध अवश्य कर दिया होगा.

‘‘रही बात संध्या की, तो ऐसी औरतों को तो सबक मिलना ही चाहिए जो बिना वजह अपने पति और ससुराल वालों को प्रताडि़त कर के उन्हें कानूनी धमकी दे कर अपने मायके आ जाती हैं. इस श्रेणी में तुम्हारी संध्या दी भी आती हैं. यह बात मैं ही नहीं, तुम और तुम्हारे ससुराल वाले और यहां तक कि दोनों तरफ के रिश्तेदार व पड़ोसी भी जानते हैं. इसलिए यह निर्णय मैं तुम पर छोड़ती हूं कि तुम संध्या को बता कर सुधीर की खुशहाल जिंदगी में जहर घुलवाओगी या चुप रह कर उन की वर्तमान खुशियां बरकरार रखोगी,’’ कह कर भाभी चुप हो गईं.

जानती हूं मैं, भाभी ने जो कुछ कहा है वह एकदम सच कहा है क्योंकि सुधीर जीजाजी उन के करीबी रिश्तेदार हैं. उन्होंने अपना दर्द उन से बयां किया है. मैं अजीब कशमकश में हूं कि एक निर्दोष आदमी की खुशियों की खातिर चुप रहूं या फिर एक कटु, कठोर व कर्कशा औरत के न्याय के लिए बोलूं… फिर भी यह तो मैं भी मानती हूं कि पतिपत्नी के रिश्ते को चाहे वह पति हो या पत्नी, कोई एक भी उस रिश्ते को तोड़ने का जिम्मेदार है तो कुसूरवार वही है. ऐसे में दोषी के साथ सहानुभूति दिखाना बेकुसूर के साथ बेइंसाफी होगी. सुधीर जीजाजी को पूरा हक है कि वे अपनी जिंदगी को नए सिरे से संवारें. Family Story In Hindi

Story In Hindi: क्षमादान – वर्षों बाद जब मिली मोहिनी और शर्वरी

Story In Hindi: ‘‘हाय शर्वरी, पहचाना मुझे?’’ शर्वरी को दूर से देख कर अमोल उस की ओर खिंचा चला आया.

‘‘अमोल, तुम्हें नहीं पहचानूंगी तो और किसे पहचानूंगी?’’

शर्वरी के स्वर के व्यंग्य को अमोल ने भांप लिया. फिर भी बोला, ‘‘इतने वर्षों बाद तुम से मिल कर बड़ी खुशी हुई. कहो, कैसी कट रही है? तुम ने तो कभी किसी को अपने बारे में बताया ही नहीं. कहां रहीं इतने दिन?’’

‘‘ऐसे कुछ बताने लायक था ही नहीं. वैसे भी 7-8 वर्ष आस्ट्रेलिया में रहने के बाद पिछले वर्ष ही लौटे हम लोग.’’

‘‘अपने और अपने परिवार के बारे में कुछ बताओ न. हमारे बैच के सभी छात्र नैट पर अपने बारे में एकदूसरे को सूचित करते रहे. पर तुम न जाने कहां खोई रहीं कि हमारी याद तक नहीं आई,’’ अमोल मुसकराया.

‘‘अमोल कालेज जीवन की याद न आए, ऐसा भला हो सकता है क्या? वह समय तो जीवन का सब से सुखद अनुभव होता है… बताऊंगी अपने बारे में भी बताऊंगी. पर तुम भी तो कुछ कहो…इतने समय की क्या उपलब्धियां रहीं? क्या खोया, क्या पाया?’’

‘‘2 विवाह, 1 तलाक और 1 ठीकठाक सी नौकरी. इस से अधिक बताने को कुछ नहीं है मेरे पास,’’ अमोल उदास स्वर में बोला.

‘‘लगता है जीवन ने तुम्हारे साथ न्याय नहीं किया. ऐसी निराशापूर्ण बातें तो वही करता है जिस की अपेक्षाएं पूरी न हुई हों.’’

‘‘हां भी और नहीं भी. पर जो मेरे जीवन में घटा है कहीं न कहीं उस के लिए मैं भी दोषी हूं. है न?’’

अमोल शर्वरी से अपने प्रश्न का उत्तर चाहता था, पर शर्वरी उत्तर देने के मूड में नहीं थी. वह उसे टालने के लिए अपने दूसरे मित्रों की ओर मुड़ गई. पुराने विद्यार्थियों के पुनर्मिलन का आयोजन पूरे 10 वर्षों बाद किया गया था. एकत्रित जनसमूह में शर्वरी को कई परिचित चेहरे मिल गए थे. आयोजकों ने पहले अपने अतिथियों के लिए सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया था. उस के बाद डिनर का प्रबंध था. आयोजकों ने मेहमानों से अपनीअपनी जगह बैठने का आग्रह किया तो शर्वरी साथियों के साथ अपने लिए नियत स्थान पर जा बैठी. तभी उस बड़े से हौल के मुख्यद्वार पर मोहिनी दाखिल हुई. लगभग 10 वर्षों के बाद मोहिनी को देख कर शर्वरी को लगा मानो कल की ही बात हो. आयु के साथ चेहरा भर गया था पर मोहिनी तनिक भी नहीं बदली थी. सितारों से जड़ी जरी के काम वाली सुनहरे रंग की नाभिदर्शना साड़ी में सजीसंवरी मोहिनी किसी फिल्मी तारिका की भांति चकाचौंध पैदा कर रही थी. शर्वरी चाह कर भी अपनी कुरसी से हिल नहीं पाई. कभी मोहिनी से शर्वरी की इतनी गाढ़ी छनती थी कि दोनों दो तन एक जान कहलाती थीं पर अब केवल वर्षों की दूरी ने ही नहीं मन की दूरी ने भी शर्वरी को जड़वत कर दिया था.

मोहिनी अपने अन्य मित्रों से मिलजुल रही थी. पुरानी यादें ताजा करते हुए वह किसी से हाथ मिला रही थी, किसी को गले लगा रही थी तो किसी को पप्पी दे कर कृतार्थ कर रही थी, शर्वरी का कुतूहल पल दर पल बढ़ता जा रहा था. मोहिनी के स्लीवलेस, बैकलेस ब्लाउज और भड़कीले शृंगार को ध्यान से देखा और फिर गहरी सोच में डूब गई. शून्य में बनतेबिगड़ते आकारों में डूबतीउतराती शर्वरी 12 वर्ष पूर्व के अपने कालेज जीवन में जा पहुंची… शर्वरी, मोहिनी और अमोल भौतिकी के स्नातकोत्तर छात्र थे. शर्वरी व मोहिनी ने एकसाथ बी.एससी. में प्रवेश लिया था और शीघ्र ही एकदूसरे की हमराज बन गई थीं. वहीं अमोल को वह स्कूल के दिनों से जानती थी. दोनों के पिता एक ही कार्यालय में कार्यरत थे. अत: परिवारों में अच्छी घनिष्ठता थी. कब यह मित्रता, प्रेम में बदल गई, शर्वरी को पता ही न चला था.

कालेज में अमोल अकसर शर्वरी से मिलने आता, पर महिला कालेज होने के कारण अमोल को कालेज के प्रांगण में जाने की अनुमति नहीं मिलती थी. अत: वह कालेज के गेट के पास खड़ा हो कर शर्वरी की प्रतीक्षा करता. शर्वरी और मोहिनी एकसाथ ही कालेज से बाहर आती थीं. औपचारिकतावश अमोल मोहिनी से भी हंस बोल लेता तो शर्वरी आगबबूला हो उठती.

‘‘बड़े हंस कर बतिया रहे थे मोहिनी से?’’ शर्वरी मोहिनी के जाते ही प्रश्नों की झड़ी लगा देती.

‘‘कहीं जलने की गंध आ रही है. क्यों ऐसी बातें करती हो शर्वरी? अपने अमोल पर विश्वास नहीं है क्या?’’ अमोल उलटा पूछ बैठता.

समय मानो पंख लगा कर उड़ रहा था. शर्वरी और मोहिनी महिला कालेज से निकल कर विश्वविद्यालय आ पहुंची थीं. यह जान कर शर्वरी के हर्ष की सीमा नहीं रही कि अमोल भी उन के साथ ही एम.एससी. की पढ़ाई करेगा. पर यह प्रसन्नता चार दिन की चांदनी ही साबित हुई. मिलनेजुलने की खुली छूट मिलते ही मोहिनी और अमोल करीब आने लगे थे. शर्वरी सब देखसमझ कर भी चुप रह जाती. शुरू में उस ने अमोल को रोकने का प्रयास किया, रोई, झगड़ा किया. अमोल ने भी उसे बहलाफुसला कर यह जताने का यत्न किया कि सब कुछ ठीकठाक है. पर शर्वरी ने शीघ्र ही नियति से समझौता कर लिया. मोहिनी और अमोल के चर्चे सारे विभाग में फैलने लगे थे. पर शर्वरी ने स्वयं को सब ओर से सिकोड़ कर अपनी पढ़ाई की ओर मोड़ लिया था. इस का लाभ भी उसे मिला अब वह अपनी कक्षा में सब से आगे थी. इस सफलता का अपना ही नशा था. पर मोहिनी उस की सब से घनिष्ठ सहेली थी. उस का विश्वासघात उसे छलनी कर गया. अमोल जिसे उस ने कभी अपना सर्वस्व माना था उस की ही सहेली पर डोरे डालेगा, यह विचारमात्र ही कुंठित कर देता था.

घर पर सभी उस की और अमोल की घनिष्ठता से परिचित थे. अमोल संपन्न और सुसंस्कृत परिवार का एकमात्र दीपक था. अत: उन्होंने शर्वरी के मिलनेजुलने, घूमनेफिरने पर कहीं कोई रोकटोक नहीं लगाई थी. शर्वरी और अमोल के बीच आती दूरी भी उन से छिपी नहीं थी. शर्वरी की मां नीला देवी ने बिना कहे ही सब कुछ भांप लिया था. अमोल के उच्छृंखल व्यवहार ने उन्हें भी आहत किया था. पर वे शर्वरी को सहारा देने के लिए मजबूत चट्टान बन गई थीं.

‘‘चिंता क्यों करती है बेटी. अच्छा ही हुआ कि अमोल का असली रंग जल्दी सामने आ गया. वह मनचला तुम्हारे योग्य था ही नहीं. वह भला संबंधों की गरिमा को क्या समझेगा.’’ अब तक स्वयं पर पूर्ण संयम रखा था  शर्वरी ने. पर मां की बातें सुन कर वह फूटफूट कर रो पड़ी थी. नीला देवी ने भी उसे रोने दिया था. अच्छा ही है कि मन का गुबार आंखों की राह बह जाए तभी चैन मिलगा.

‘‘मां, आप मुझ से एक वादा कीजिए,’’ शीघ्र ही स्वयं को संभाल कर शर्वरी नीला देवी से बोली.

‘‘हां, कहो बेटी.’’

‘‘आज के बाद इस घर में कोई अमोल का नाम नहीं लेगा. मैं ने उसे अपने जीवन से पूरी तरह निकाल फेंका. किसी सड़ेगले अंग की तरह.’’ नीला देवी ने उत्तर में शर्वरी का हाथ थपथपा कर आश्वासन दिया था. उन के वार्त्तालाप ने शर्वरी को पूर्णतया आश्वस्त कर दिया था. उस दिन शर्वरी पुस्तकालय में बैठी अध्ययन में जुटी थी कि अचानक मोहिनी आ धमकी. शर्वरी को देखते ही चहकी, ‘‘हाय, शर्वरी, तुम यहां छिपी बैठी हो? मैं तो तुम्हें पूरे भौतिकी विभाग में ढूंढ़ आई.’’

‘‘अच्छा? पर यों अचानक क्यों?’’

‘‘क्या कह रही हो? मैं तो तुम्हारे लिए खुशखबरी लाई हूं,’’ मोहिनी इतने ऊंचे स्वर में बोली कि वहां उपस्थित सभी विद्यार्थी उस से चुप रहने का इशारा करने लगे.

‘‘चलो, बाहर चलते हैं. वहीं तुम्हारी खुशखबरी सुनेंगे,’’ शर्वरी मोहिनी को हाथ से पकड़ कर बाहर खींच ले गई. वह जानती थी कि मोहिनी स्वर नीचा नहीं रख पाएगी.

‘‘ये लोग समझते क्या हैं अपनेआप को? पुस्तकालय में क्या कर्फ्यू लगा है कि हम किसी से आवश्यक बात भी नहीं कर सकते?’’ मोहिनी क्रोध में पैर पटकते हुए बोली.

‘‘हर पुस्तकालय में यह प्रतिबंध लागू होता है. अब छोड़ो यह बहस और बताओ क्या खुशखबरी ले कर आई होे?’’

‘‘हां, मैं तुम्हें यह बताने आई थी कि मैं तुम्हारे अमोल को सदा के लिए छोड़ आई हूं, केवल तुम्हारे लिए.’’

‘‘क्या कहा? मेरे अमोल को? अमोल मेरा कब से हो गया? शर्वरी खिलखिला कर हंसी.

‘‘लो अब क्या यह भी याद दिलाना पड़ेगा कि तुम और अमोल कभी गहरे मित्र थे?’’

‘‘मुझे कुछ भी याद दिलाने की जरूरत नहीं है. और तुम अमोल से मित्रता करो या शत्रुता मुझे कुछ लेनादेना नहीं है.’’ शर्वरी का रूखा स्वर सुन कर एक क्षण को तो चौंक ही उठी थी मोहिनी, फिर बोली, ‘‘घनिष्ठ सहेली हूं तुम्हारी, तुम्हारी चिंता मैं नहीं करूंगी तो कौन करेगा? वैसे भी मैं विवाह कर रही हूं. अमोल को मैं ने तुम्हारे लिए छोड़ दिया है.’’

‘‘अच्छा तो विवाह कर रही हो तुम? तो जा कर अमोल को बताओ. यहां क्या लेने आई हो?’’

‘‘बताया था, पर वह तो बच्चों की तरह रोने लगा, कहने लगा मेरे बिना वह जीवित नहीं रह सकेगा. वह मूर्ख सोचता था मैं उस से विवाह करूंगी. तुम जानती हो, मैं किस से विवाह कर रही हूं?’’

‘‘बताओगी नहीं तो कैसे जानूंगी?’’

‘‘बहुत बड़ा करोड़पति व्यापारी है दीपेन. तुम्हें ईर्ष्या तो नहीं हो रही मुझ से?’’ और फिर अचानक मोहिनी ने स्वर नीचा कर लिया. शर्वरी का मन हुआ कि इस बचकाने प्रश्न पर खिलखिला कर हंसे पर मोहिनी का गंभीर चेहरा देख कर चुप रही.

‘‘मेरी बात मान शर्वरी अमोल को हाथ से मत जाने दे. वैसे भी दिल टूट गया है बेचारे का. तुम प्रेम का मरहम लगाओगी तो शीघ्र संभल जाएगा.’’

‘‘तुम्हें मेरी कितनी चिंता है मोहिनी…पर आशा है तुम मुझे क्षमा कर दोगी. मेरा तो मित्रता, प्रेम जैसे शब्दों से विश्वास ही उठ गया है. मेरे मातापिता ने मेरा विवाह तय कर दिया है. फाइनल परीक्षा होते ही मेरा विवाह हो जाएगा.’’

‘‘क्या? तुम भी विवाह कर रही हो और वह भी मातापिता द्वारा चुने वर से? होश में आओ शर्वरी बिना रोमांस के विवाह का कोई अर्थ नहीं. अमोल अब भी तुम्हें जीजान से चाहता है.’’ शर्वरी चुपचाप उठ कर चली गई. अगले दिन प्रयोगशाला में फिर मोहिनी ने शर्वरी को घेर लिया. बोली, ‘‘चलो कैंटीन में बैठते हैं.

‘‘मैं जरा जल्दी में हूं मोहिनी…घर पर बहुत काम है.’’

‘‘ऐसा भी क्या काम है कि तुम्हें अपनी सहेली से कुछ देर बात करने का भी समय नहीं है?’’ मोहिनी भीगे स्वर में बोली तो शर्वरी मना नहीं कह सकी.

‘‘अब बता किस से हो रहा है तेरा विवाह?’’ चायसमोसे का और्डर देने के बाद मोहिनी ने पुन: प्रश्न किया.

‘‘कोई करोड़पति नहीं है. हमारे जैसे मध्यवर्गीय परिवार का पढ़ालिखा युवक है वह. अच्छी नौकरी है. मैं ने मातापिता के निर्णय को मानने में ही भलाई समझी. मुझे तो समझ में ही नहीं आता कि इंसान किस पर विश्वास करे किस पर नहीं? प्रेम के नाम पर कैसेकैसे धोखे दिए जाते हैं भोलीभाली लड़कियों को,’’ शर्वरी गंभीर स्वर में बोली.

‘‘धोखा तो मातापिता द्वारा तय किए विवाह में भी होता है…प्रेम विवाह में कम से कम यह तो संतोष रहता है कि अपनी गलती की सजा भुगत रहे हैं.’’

‘‘ऐसा कोई नियमकायदा नहीं है और कैसे भी विवाह में सफलता की गारंटी कोई नहीं दे सकता,’’ शर्वरी ने बात समाप्त करने की गरज से कहा. अब तक चाय और समोसे आ गए थे. और बात का रुख भी पढ़ाईलिखाई की ओर मुड़ गया था. परीक्षा, प्रयोगशाला, विवाह की तैयारी के बीच समय कब पंख लगा कर उड़ गया पता ही नहीं चला. इस बीच अमोल कई बार सामने पड़ा. आंखें मिलीं पर अब दोनों के बीच औपचारिकता के अतिरिक्त कुछ नहीं बचा था. अपने परिवार के साथ अमोल विवाह में आया अवश्य, पर बधाई दे कर तुरंत चला गया. उधर मोहिनी के करोड़पति परिवार में विवाह के किस्से अकसर सुनने को मिल जाते थे. शर्वरी के पति गौतम की कंपनी ने उन्हें आस्ट्रेलिया भेजा तो सारे संपर्क सूत्र टूट से गए. परिवार, बच्चों और अपनी नौकरी के बीच 8 वर्ष कैसे बीत गए, पता ही नहीं चला.

इतने वर्षों बाद अपने शहर लौट कर शर्वरी को ऐसा लगा मानो मां की गोद में आ गई हो. ऐसे समय जब अपने विश्वविद्यालय से पुराने छात्रों के पुनर्मिलन सम्मेलन का निमंत्रण मिला तो शर्वरी ठगी सी रह गई. इतने वर्षों बाद किस ने उस का पताठिकाना ढूंढ़ लिया, वह समझ नहीं पाई. आज इस सम्मेलन में अनेक पूर्व परिचितों से भी भेंट हुई. पर अमोल और मोहिनी से भेंट होगी, इस की आशा शर्वरी को कम ही थी. सामने ग्लैमरस मोहिनी को मित्रों और परिचितों से मिलते देख कर भी शर्वरी अपने ही स्थान पर जमी रही. तभी मोहिनी की नजर शर्वरी पर पड़ी तो बोली, ‘‘हाय शर्वरी, तुम यहां? मुझे तो जरा भी आशा नहीं थी कि तुम यहां आओगी… यहां बैठी क्या कर रही हो चलो मेरे साथ. ढेर सी बातें करनी हैं,’’ और मोहिनी उसे खींच ले गई.

‘‘सांस्कृतिक कार्यक्रम शुरू होने वाला है मोहिनी,’’ शर्वरी ने कहा.

‘‘देखेंगे कार्यक्रम भी देखेंगे. पर पहले ढेर सारी बातें करेंगे. न जाने कितनी अनकही बातें करने को मन छटपटा रहा है.’’

‘‘ठीक है चलो,’’ शर्वरी ने हथियार डाल दिए.

कैंटीन में चाय और सैंडविच मंगाए मोहिनी ने और फिर शर्वरी का हाथ अपने हाथों में ले कर सिसकने लगी.

‘‘क्या हुआ मोहिनी?’’ शर्वरी सकते में आ गई.

‘‘शर्वरी कह दो कि तुम ने मुझे क्षमा कर दिया. मैं सच कहती हूं कि मैं ने कभी जानबूझ कर तुम्हें कष्ट नहीं पहुंचाया…जो हुआ अनजाने में हुआ.’’

‘‘क्या कह रही हो मोहिनी? मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है?’’

‘‘तुम ने मुझे और अमोल को क्षमा नहीं किया तो हमें कभी चैन मिलेगा, मोहिनी अब भी सुबक रही थी.’’

‘‘क्यों शर्मिंदा कर रही हो मोहिनी. मैं ने तो कभी ऐसा सोचा तक नहीं.’’

‘‘पर अमोल सदा यही कहता है कि उसे तुम्हारे साथ किए व्यवहार का फल मिल रहा है और अब तो मुझे भी ऐसा ही लगता है.’’

‘‘क्या हुआ तुम्हारे साथ?’

‘‘याद है वह करोड़पति जिस से मैं ने विवाह किया था, वह पहले से विवाहित था. बड़ी कठिनाई से उस के चंगुल से छूटी मैं… उस ने मुझे तरहतरह से प्रताडि़त किया.’’

‘‘उफ, और अमोल?’’

‘‘अमोल को सदा अपनी पत्नी पर शक होता कि वह किसी और के चक्कर में है जबकि ऐसा कुछ नहीं था. थकहार कर वह अमोल से अलग हो गई. अब मैं और अमोल पतिपत्नी हैं. यों घर में सब कुछ है पर शक का कीड़ा अमोल के दिमाग से जाता ही नहीं. उसे अब मुझ पर शक होने लगा है. अमोल को लगता है कि यह सब तुम्हारे से बेवफाई करने का फल है. हमें क्षमा कर दो शर्वरी,’’ और मोहिनी फूटफूट कर रो पड़ी.

तभी शर्वरी किसी की आहट पा कर पलटी. पीछे अमोल खड़ा था.

‘‘कैसा सुखद आश्चर्य है अमोल, मुझे तो पता ही नहीं था कि तुम दोनों पतिपत्नी हो,’’ शर्वरी आश्चर्यचकित स्वर में बोली.

‘‘बात को टालो मत शर्वरी, हमें क्षमा कर दो. हम तुम्हारे अपराधी हैं. पर तुम्हें नहीं लगता कि हम काफी सजा भुगत चुके हैं?’’ अमोल ने अनुनय की.

‘‘समझ में नहीं आ रहा तुम क्या कह रहे हो? मैं तो उस बुरे स्वप्न को कब का भूल चुकी हूं. फिर भी मेरे कहने से कोई फर्क पड़ता है तो चलो मैं ने तुम्हें क्षमा किया,’’ शर्वरी बोली. उस के बाद शर्वरी वहां रुक नहीं सकी, न कार्यक्रम के लिए और न ही डिनर के लिए. लौटते हुए केवल एक ही बात उसे उद्वेलित कर रही थी कि क्या यह अमोल और मोहिनी का अपराधबोध था, जिस ने उन के जीवन में जहर घोल दिया था या फिर कुछ और? Story In Hindi

Family Story In Hindi: टूटे हुए पंखों की उड़ान

Family Story In Hindi: गली में घुसते ही शोरगुल के बीच लड़ाईझगड़े और गालीगलौज की आवाजें अर्चना के कानों में पड़ीं. सड़ांध भरी नालियों के बीच एक संकरी गली से गुजर कर उस का घर आता था, जहां बरसात में मारे बदबू के चलना मुश्किल हो जाता था.

दुपट्टे से नाक ढकते हुए अर्चना ने घर में कदम रखा, तो वहां का नजारा ही दूसरा था. आंगन के बीचोंबीच उस की मां और पड़ोस वाली शीला एकदूसरे पर नाक फुलाए खड़ी थीं. यह रोज की बात थी, जब किसी न किसी बात पर दोनों का टकराव हो जाता था.

मकान मालिक ने किराए के लालच में कई सारे कोठरीनुमा कमरे बनवा रखे थे, मगर सुविधा के नाम पर बस एक छोटा सा गुसलखाना और लैट्रिन थी, जिसे सब किराएदार इस्तेमाल करते थे.

वहां रहने वाले किराएदार आएदिन किसी न किसी बात को ले कर जाहिलों की तरह लड़ते रहते थे. पड़ोसन शीला तो भद्दी गालियां देने और मारपीट करने से भी बाज नहीं आती थी.

गुस्से में हांफती, जबान से जहर उगलती प्रेमा घर में दाखिल हुई. पानी का बरतन बड़ी जोर से वहीं जमीन पर पटक कर उस ने सिगड़ी जला कर उस पर चाय का भगौना रख दिया.

‘‘अम्मां, तुम शीला चाची के मुंह क्यों लगती हो? क्या तुम्हें तमा करके मजा आता है? काम से थकहार कर आओ, तो रोज यही सब देखने को मिलता है. कहीं भी शांति नहीं है,’’ अर्चना गुस्से से बोली.

‘‘हांहां, तमाशा तो बस मैं ही करती हूं न. वह तो जैसे दूध की धुली है. सब जानती हूं… उस की बेटी तो पूरे महल्ले में बदनाम है. मक्कार औरत नल में पानी आते ही कब्जा जमा कर बैठ जाती है. उस पर मुझे भलाबुरा कह रही थी.

‘‘अब तू ही बता, मैं कैसे चुप रहूं?’’ चाय का कप अर्चना के सामने रख कर प्रेमा बोली.

‘‘अच्छा लाडो, यह सब छोड़. यह बता कि तू ने अपनी कंपनी में एवांस पैसों की बात की?’’ यह कहते हुए प्रेमा ने बेटी के चेहरे की तरफ देखा भी नहीं था अब तक, जो दिनभर की कड़ी मेहनत से कुम्हलाया हुआ था.

‘‘अम्मां, सुपरवाइजर ने एडवांस पैसे देने से मना कर दिया है. मंदी चल रही है कंपनी में,’’ मुंह बिचकाते हुए अर्चना ने कहा, फिर दो पल रुक कर उस ने कुछ सोचा और बोली, ‘‘जब हमारी हैसियत ही नहीं है तो क्या जरूरत है इतना दिखावा करने की. ननकू का मुंडन सीधेसादे तरीके से करा दो. यह जरूरी तो नहीं है कि सभी रिश्तेदारों को कपड़ेलत्ते बांटे जाएं.’’

‘‘यह क्या बोल रही है तू? एक बेटा है हमारा. तुम बहनों का एकलौता भाई. अरी, तुम 3 पैदा हुईं, तब जा कर वह पैदा हुआ… और रिश्तेदार क्या कहेंगे? सब का मान तो रखना ही पड़ेगा न.’’

‘‘रिश्तेदार…’’ अर्चना ने थूक गटका. एक फैक्टरी में काम करने वाला उस का बाप जब टीबी का मरीज हो कर चारपाई पर पड़ गया था, तो किसी ने आगे आ कर एक पैसे तक की मदद नहीं की. भूखे मरने की नौबत आ गई, तो 12वीं का इम्तिहान पास करते ही एक गारमैंट फैक्टरी में अर्चना ने अपने लिए काम ढूंढ़ लिया.

अर्चना के महल्ले की कुछ और भी लड़कियां वहां काम कर के अपने परिवार का सहारा बनी हुई थीं. अर्चना की कमाई का ज्यादातर हिस्सा परिवार का पेट भरने में ही खर्च हो जाता था. घर की बड़ी बेटी होने का भार उस के कंधों को दबाए हुए था. वह तरस जाती थी अच्छा पहननेओढ़ने को. इतने बड़े परिवार का पेट पालने में ही उस की ज्यादातर इच्छाएं दम तोड़ देती थीं.

कोठरी की उमस में अर्चना का दम घुटने लगा, सिगड़ी के धुएं ने आंसू ला दिए. सिगड़ी के पास बैठी उस की मां खांसते हुए रोटियां सेंक रही थी.

‘‘अम्मां, कितनी बार कहा है गैस पर खाना पकाया करो… कितना धुआं है,’’ दुपट्टे से आंखमुंह पोंछती अर्चना ने पंखा तेज कर दिया.

‘‘और सिलैंडर के पैसे कहां से आएंगे? गैस के दाम आसमान छू रहे हैं. अरी, रुक जा. अभी धुआं कम हो जाएगा, कोयले जरा गीले हैं.’’

अर्चना उठ कर बाहर आ गई. कतार में बनी कोठरियों से लग कर सीढि़यां छत पर जाती थीं. कुछ देर ताजा हवा लेने के लिए वह छत पर टहलने लगी. हवा के झोंकों से तनमन की थकान दूर होने लगी.

टहलते हुए अर्चना की नजर अचानक छत के एक कोने पर चली गई. बीड़ी की महक से उसे उबकाई सी आने लगी. पड़ोस का छोटेलाल गंजी और तहमद घुटनों के ऊपर चढ़ाए अपनी कंचे जैसी गोलगोल आंखों से न जाने कब से उसे घूरे जा रहा था.

छोटेलाल कुछ महीने पहले ही उस मकान में किराएदार बन कर आया था. अर्चना को वह फूटी आंख नहीं सुहाता था. अर्चना और उस की छोटी बहनों को देखते ही वह यहांवहां अपना बदन खुजाने लगता था.

शुरू में अर्चना को समझ नहीं आया कि वह क्यों हर वक्त खुजाता रहता है, फिर जब वह उस की बदनीयती से वाकिफ हुई, तो उस ने अपनी बहनों को छोटेलाल से जरा बच कर रहने की हिदायत दे दी.

‘‘यहां क्या कर रही है तू इतने अंधेरे में? अम्मां ने मना किया है न इस समय छत पर जाने को. चल, नीचे खाना लग गया है,’’ छोटी बहन ज्योति सीढि़यों पर खड़ी उसे आवाज दे रही थी.

अर्चना फुरती से उतर कर कमरे में आ गई. गरम रोटी खिलाती उस की मां ने एक बार और चिरौरी की, ‘‘देख ले लाडो, एक बार और कोशिश कर के देख ले. अरे, थोड़े हाथपैर जोड़ने पड़ें, तो वह भी कर ले. यह काम हो जाए बस, फिर तुझे तंग न करूंगी.’’

अर्चना ने कमरे में टैलीविजन देखती ज्योति की तरफ देखा. वह मस्त हो कर टीवी देखने में मगन थी. ज्योति उस से उम्र में कुल 2 साल ही छोटी थी. मगर अपनी जवानी के उठान और लंबे कद से वह अर्चना की बड़ी बहन लगती थी.

9वीं जमात पास ज्योति एक साड़ी के शोरूम में सेल्सगर्ल का काम करती थी. जहां अर्चना की जान को घरभर के खर्च की फिक्र थी, वहीं ज्योति छोटी होने का पूरा फायदा उठाती थी.

‘‘अम्मां, ज्योति भी तो अब कमाती है. तुम उसे कुछ क्यों नहीं कहती?’’

‘‘अरी, अभी तो उस की नौकरी लगी है, कहां से ला कर देगी बेचारी?’’ मां की इस बात पर अर्चना चुप हो गई.

‘‘ठीक है, मैं फिर से एक बार बात करूंगी, मगर कान खोल कर सुन लो अम्मां, यह आखिरी बार होगा, जब तुम्हारे इन फुजूल के रिवाजों के लिए मैं अपनी मेहनत की कमाई खर्च करूंगी.’’

‘‘हांहां, ठीक है. अपनी कमाई की धौंस मत जमा. चार पैसे क्या कमाने लगी, इतना रोब दिखा रही है. अरे, कोई एहसान नहीं कर रही है हम पर,’’ गुस्से में प्रेमा का पारा फिर से चढ़ने लगा.

एक कड़वाहट भरी नजर अपनी मां पर डाल कर अर्चना ने सारे जूठे बरतन मांजने के लिए समेटे.

बरतन साफ कर अर्चना ने अपना बिस्तर लगाया और सोने की कोशिश करने लगी, उसे सुबह जल्दी उठना था, एक और जद्दोजेहद भरे दिन के लिए. वह कमर कस के तैयार थी. जब तक हाथपैर चलते रहेंगे, वह भी चलती रहेगी. उसे इस बात का संतोष हुआ कि कम से कम वह किसी के सामने हाथ तो नहीं फैलाती.

अर्चना के होंठों पर एक संतुष्टि भरी फीकी मुसकान आ गई और उस ने आंखें मूंद लीं.

Family Story In Hindi: अकीदन बूआ

Family Story In Hindi: अकीदन बूआ की लाश चौराहे पर रखी थी. पूरा गांव उन के अंतिम दर्शनों के लिए उमड़ पड़ा था. गांव के हर मर्दऔरत की जबान पर आज अकीदन बूआ का नाम था. हर कोई आज उन की अच्छाइयों के चर्चे करते नहीं थक रहा था. हर कोई यही महसूस कर रहा था, जैसे कोई उन का अपना उन से बिछड़ गया हो.

गांव में किसी के यहां अगर कोई कामकाज होता, तो अकीदन बूआ को सब से पहले खबर हो जाती. सभी धर्मजाति के लोग उन्हें अपने परिवार के सदस्य की तरह मानते थे. उन का अपना घर आगजनी की भेंट चढ़ गया था. उस के बाद से गांव का हर घर उन का अपना घर बन गया था. उन की सुबह किसी घर में होती, तो दोपहर किसी दूसरे के यहां और शाम कहीं और.

कभी अकीदन बूआ का अपना भी एक घर हुआ करता था. उन का भी हंसताखेलता, भरापूरा परिवार हुआ करता था. उन का आदमी फौज में था. देश के बंटवारे के समय उन के देवरदेवरानी और सासससुर अपने बच्चों समेत पाकिस्तान चले गए थे.

सासससुर ने उन्हें बहुत सम?ाया कि अकीदन तू भी पाकिस्तान चल. तेरे आदमी को चिट्ठी भेज कर वहीं बुलवा लिया जाएगा, लेकिन उन्होंने उन के साथ पाकिस्तान जाने से इनकार कर दिया था.

सासससुर, देवरदेवरानी और उन के बच्चों के चले जाने के बाद घर भांयभांय करने लगा. घर में निपट अकेली बची अकीदन को दिन काटना मुश्किल लगने लगा था. काफी दिनों से उन के पति यासीन की भी कोई चिट्ठी न आने से वे परेशान हो उठीं. उन का आदमी जो हर महीने खर्चा भेजता था, वह भी आना बंद हो गया था.

एक दिन पाकिस्तान से एक चिट्ठी आई, जो उस के ससुर ने लिखी थी. उस चिट्ठी में लिखा था. ‘अकीदन, तेरे आदमी को यहां फौज में जगह मिल गई है. तू अगर आना चाहे तो चिट्ठी में लिख भेज. यासीन तु?ो लेने आ जाएगा.’

लेकिन अकीदन को अपने गांव और यहां की मिट्टी से इतना लगाव हो गया था कि वे किसी भी कीमत पर यहां से जाना नहीं चाहती थीं.

उन्होंने चिट्ठी के जवाब में साफसाफ लिख भेजा, ‘जिस मुल्क की मिट्टी में मैं ने जन्म लिया है, उसी की खाक में मिल कर अपने को धन्य सम?ांगी. मु?ो लेने आने की सोचना भी मत, वरना यहां से तुम्हें निराश ही लौटना पड़ेगा. मैं यहीं ठीक हूं.’

अब अकीदन बूआ को इस बात का पता चल गया था कि उन का आदमी भी पाकिस्तान का हो गया है. ऐसे में उन के सामने रोजीरोटी की समस्या बनी हुई थी, क्योंकि उन के आदमी की कमाई पर ही घर का खर्च चलता था और अब खर्च आना बंद हो गया था, इसलिए भुखमरी से निबटने के लिए उन्होंने एक तरकीब सोची.

उन्होंने अपने जेवरात बेच कर घर पर ही एक छोटी सी परचून की दुकान खोल ली. ग्राहक बनाने के लिए उन्होंने छोटेछोटे बच्चों को जरीया बनाया. उन की दुकान पर जो भी बच्चा सौदा लेने आता, वे उसे एक टौफी मुफ्त में देतीं. देखते ही देखते हर घर के बच्चे उन की दुकान की ओर खिंचने लगे.

जब अकीदन बूआ की दुकान चलने लगी, तो उन्होंने अपनी दुकान के सामने यह सूचना लिख कर टंगवा दी कि अकीदन बूआ की दुकान पर सौदा खरीदने पर बच्चों को टौफी और बड़ों को माउथ फ्रैशनर उपहार में दिया जाएगा.

यह सूचना धीरेधीरे सारे गांव में फैल गई. इस से गांव की बड़ीबड़ी दुकानें प्रभावित होने लगीं.

अकीदन बूआ चूंकि सभी चीजें वाजिब दाम पर बेचती थीं और मुनाफा दूसरों से कम लेती थीं व जरूरतमंदों को उधार भी दे देती थीं. इसी वजह से ज्यादा मुनाफाखोर दुकानदारों की ओर से गांव वालों का मोह भंग होने लगा. अब अकीदन बूआ की दुकान का नाम सारे गांव की जबान पर था.

अकीदन बूआ की दुकान के आगे एकएक कर अब कई दुकानें बंद होती चली गईं. जिन लोगों की दुकानें बंद हो गई थीं, वे गोलबंद हो कर उन के खिलाफ साजिश रचने की योजना बनाने में जुट गए.

एक दिन जब अकीदन बूआ गांव से बाहर किसी काम से गई हुई थीं, तो साजिश करने वालों ने मौका पा कर अकीदन बूआ के घर को आग लगा दी. इतना ही नहीं, आग बु?ाने के बहाने उन्होंने मिट्टी का तेल छिड़क कर आग को और भड़का दिया.

सारा घर धूधू कर आग में जल उठा. सबकुछ जल कर खाक हो चुका था. सिर छिपाने तक को आसरा नहीं बचा था.

अकीदन बूआ लौट कर जब घर आईं, तो घर की जगह उन्हें राख का ढेर मिला. आदमी का साथ तो पहले ही छूट चुका था, आज घर का साया भी नहीं रह गया था. वे किसी अनाथ बच्चे की तरह फफक पड़ीं.

गांव के लोग भी अकीदन बूआ के दुख में शामिल हो गए. उन्होंने उन्हें हिम्मत बंधाई. गांव वालों में से एक ने कहा, ‘‘अब से गांव के हर घर को तुम अपना घर समझो. तुम्हारे लिए गांव के हर घर के दरवाजे खुले हैं.’’

थोड़े ही दिनों में अकीदन बूआ ने अपने अच्छे बरताव, सेवा भाव और गांव वालों के दुखसुख में बराबर शरीक हो कर सब का दिल जीत लिया.

गांव के मुखिया ने एक दिन पंचायत बुला कर अकीदन बूआ को घर बनवा कर देने की बात कही, तो उन्होंने यह कहते हुए मना कर दिया कि अब उन्हें घर की जरूरत नहीं है.

अब सारा गांव ही उन का घर था. गांव के बच्चे अपनी अकीदन बूआ के लाड़प्यार से बहुत प्रभावित थे. वे अकसर शाम के समय उन्हें घेर कर बैठ जाते और कहानियां सुनाने की जिद करते. गांव में जब कोई मां शरारत करने पर अपने बच्चे को मारनेपीटने के लिए हाथ उठाती, तो बच्चा कहता, ‘‘मारोगी तो अकीदन बूआ को बता दूंगा.’’

यह सुन कर मां की ममता जाग जाती और वह बच्चे को छाती से चिपका लेती.

आज जब अकीदन बूआ हमेशा के लिए शांत हो गई थीं, तो पूरा गांव हैरान था. बच्चे फटीफटी आंखों से उन्हें देखते हुए कह रहे थे, ‘अकीदन बूआ उठो… अकीदन बूआ उठो…’ पर शायद वे नहीं जानते थे कि अकीदन बूआ अब कभी नहीं उठेंगी. Family Story In Hindi

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