Family Story In Hindi: जीवन संध्या में – क्या साथ हो पाए प्रभाकर और पद्मा?

Family Story In Hindi: तनहाई में वे सिर झुकाए आरामकुरसी पर आंखें मूंदे लेटे हुए हैं. स्वास्थ्य कमजोर है आजकल. अपनी विशाल कोठी को किराए पर दे रखा है उन्होंने. अकेली जान के लिए 2 कमरे ही पर्याप्त हैं. बाकी में बच्चों का स्कूल चलता है.

बच्चों के शोरगुल और अध्यापिकाओं की चखचख से अहाते में दिनभर चहलपहल रहती है. परंतु शाम के अंधेरे के साथ ही कोठी में एक गहरा सन्नाटा पसर जाता है. आम, जामुन, लीची, बेल और अमरूद के पेड़ बुत के समान चुपचाप खड़े रहते हैं.

नौकर छुट्टियों में गांव गया तो फिर वापस नहीं आया. दूसरा नौकर ढूंढ़े कौन? मलेरिया बुखार ने तो उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा है. एक गिलास पानी के लिए तरस गए हैं. वे इतनी विशाल कोठी के मालिक हैं, मगर तनहा जिंदगी बिताने के लिए मजबूर हैं.

जिह्वा की मांग है कि कोई चटपटा व्यंजन खाएं, मगर बनाए कौन? अपने हाथों से कभी कुछ खास बनाया नहीं. नौकर था तो जो कच्चापक्का बना कर सामने रख देता, वे उसे किसी तरह गले के नीचे उतार लेते थे. बाजार जाने की ताकत नहीं थी.

स्कूल में गरमी की छुट्टियां चल रही हैं. रात में चौकीदार पहरा दे जाता है. पासपड़ोसी इस इलाके में सभी कोठी वाले ही हैं. किस के घर क्या हो रहा है, किसी को कोई मतलब नहीं.

आज अगर वे इसी तरह अपार धनसंपदा रहते हुए भी भूखेप्यासे मर जाएं तो किसी को कुछ पता भी नहीं चलेगा. उन का मन भर आया. डाक्टर बेटा सात समुंदर पार अपना कैरियर बनाने गया है. उसे बूढ़े बाप की कोई परवा नहीं. पत्नी की मृत्यु के बाद उन्होंने कितनी तकलीफ और यत्न से बच्चों को पाला है, वही जानते हैं. कभी भूल कर भी दूसरी शादी का नाम नहीं लिया. सौतेली मां के किस्से सुन चुके हैं. बेटी सालछह महीने में एकदो दिन के लिए आ जाती है.

‘बाबूजी, आप मेरे साथ चल कर रहिए,’ बेटी पूजा बड़े आग्रह से कहती.

‘क्यों, मुझे यहां क्या कमी है,’ वे फीकी हंसी हंसते .

‘कमी तो कुछ नहीं, बाबूजी. आप बेटी के पास नहीं रहना चाहते तो भैया के पास अमेरिका ही चले जाइए,’ बेटी की बातों पर वे आकाश की ओर देखने लगते.

‘अपनी धरती, पुश्तैनी मकान, कारोबार, यहां तेरी अम्मा की यादें बसी हुई हैं. इन्हें छोड़ कर सात समुंदर पार कैसे चला जाऊं? यहीं मेरा बचपन और जवानी गुजरी है. देखना, एक दिन तेरा डाक्टर भाई परिचय भी वापस अपनी धरती पर अवश्य आएगा.’

वे भविष्य के रंगीन सपने देखने लगते.

फाटक खुलने की आवाज पर वे चौंक उठे. दिवास्वप्न की कडि़यां बिखर गईं. ‘कौन हो सकता है इस समय?’

चौकीदार था. साथ में पद्मा थी.

‘‘अरे पद्मा, आओ,’’ प्रभाकरजी का चेहरा खिल उठा. पद्मा उन के दिवंगत मित्र की विधवा थी. बहुत ही कर्मठ और विपरीत परिस्थितियों में भी धैर्य न खोने वाली महिला.

‘‘तुम्हारी तबीयत अब कैसी है?’’ बोलते हुए वह कुरसी खींच कर बैठ गई.

‘‘तुम्हें कैसे पता कि मैं बीमार हूं?’’ वे आश्चर्य से बोले.

‘‘चौकीदार से. बस, भागी चली आ रही हूं. इसी से पता चला कि रामू भी घर चला गया है. मुझे  क्या गैर समझ रखा है? खबर क्यों नहीं दी?’’ पद्मा उलाहने देने लगी.

वे खामोशी से सुनते रहे. ये उलाहने उन के कानों में मधुर रस घोल रहे थे, तप्त हृदय को शीतलता प्रदान कर रहे थे. कोई तो है उन की चिंता करने वाला.

‘‘बोलो, क्या खाओगे?’’

‘‘पकौडि़यां, करारी चटपटी,’’ वे बच्चे की तरह मचल उठे.

‘‘क्या? तीखी पकौडि़यां? सचमुच सठिया गए हो तुम. भला बीमार व्यक्ति भी कहीं तलीभुनी चीजें खाता है?’’ पद्मा की पैनी बातों की तीखी धार उन के हृदय को चुभन के बदले सुकून प्रदान कर रही थी.

‘‘अच्छा, सुबह आऊंगी,’’ उन्हें फुलके और परवल का झोल खिला कर पद्मा अपने घर चली गई.

प्रभाकरजी का मन भटकने लगा. पूरी जवानी उन्होंने बिना किसी स्त्री के काट दी. कभी भी सांसारिक विषयवासनाओं को अपने पास फटकने नहीं दिया. कर्तव्य की वेदी पर अपनी नैसर्गिक कामनाओं की आहुति चढ़ा दी. वही वैरागी मन आज साथी की चाहना कर रहा है.

यह कैसी विडंबना है? जब बेटा 3 साल और बेटी 3 महीने की थी, उसी समय पत्नी 2 दिनों की मामूली बीमारी में चल बसी. उन्होंने रोते हुए दुधमुंहे बच्चों को गले से लगा लिया था. अपने जीवन का बहुमूल्य समय अपने बच्चों की परवरिश पर न्योछावर कर दिया. बेटे को उच्च शिक्षा दिलाई, शादी की, विदेश भेजा. बेटी को पिता की छाया के साथसाथ एक मां की तरह स्नेह व सुरक्षा प्रदान की. आज वह पति के घर में सुखी दांपत्य जीवन व्यतीत कर रही है.

पद्मा भी भरी जवानी में विधवा हो गई थी. दोनों मासूम बेटों को अपने संघर्ष के बल पर योग्य बनाया. दोनों बड़े शहरों में नौकरी करते हैं. पद्मा बारीबारी से बेटों के पास जाती रहती है. मगर हर घर की कहानी कुछ एक जैसी ही है. योग्य होने पर कमाऊ बेटों पर मांबाप से ज्यादा अधिकार उन की पत्नी का हो जाता है. मांबाप एक फालतू के बोझ समझे जाने लगते हैं.

पद्मा में एक कमी थी. वह अपने बेटों पर अपना पहला अधिकार समझती थी. बहुओं की दाब सहने के लिए वह तैयार नहीं थी, परिणामस्वरूप लड़झगड़ कर वापस घर चली आई. मन खिन्न रहने लगा. अकेलापन काटने को दौड़ता, अपने मन की बात किस से कहे.

प्रभाकर और पद्मा जब इकट्ठे होते तो अपनेअपने हृदय की गांठें खोलते, दोनों का दुख एकसमान था. दोनों अकेलेपन से त्रस्त थे और मन की बात कहने के लिए उन्हें किसी साथी की तलाश थी शायद.

प्रभाकरजी स्वस्थ हो गए. पद्मा ने उन की जीजान से सेवा की. उस के हाथों का स्वादिष्ठ, लजीज व पौष्टिक भोजन खा कर उन का शरीर भरने लगा.

आजकल पद्मा दिनभर उन के पास ही रहती है. उन की छोटीबड़ी जरूरतों को दौड़भाग कर पूरा करने में अपनी संतानों की उपेक्षा का दंश भूली हुई है. कभीकभी रात में भी यहीं रुक जाती है.

हंसीठहाके, गप में वे एकदूसरे के कब इतने करीब आ गए, पता ही नहीं चला. लौन में बैठ कर युवकों की तरह आपस में चुहल करते. मन में कोई बुरी भावना नहीं थी, परंतु जमाने का मुंह वे कैसे बंद करते? लोग उन की अंतरंगता को कई अर्थ देने लगे. यहांवहां कई तरह की बातें उन के बारे में होने लगीं. इस सब से आखिर वे कब तक अनजान रहते. उड़तीउड़ती कुछ बातें उन तक भी पहुंचने लगीं.

2 दिनों तक पद्मा नहीं आई. प्रभाकरजी का हृदय बेचैन रहने लगा. पद्मा के सुघड़ हाथों ने उन की अस्तव्यस्त गृहस्थी को नवजीवन दिया था. भला जीवनदाता को भी कोई भूलता है. दिनभर इंतजार कर शाम को पद्मा के यहां जा पहुंचे. कल्लू हलवाई के यहां से गाजर का हलवा बंधवा लिया. गाजर का हलवा पद्मा को बहुत पसंद है.

गलियों में अंधेरा अपना साया फैलाने लगा था. न रोशनी, न बत्ती, दरवाजा अंदर से बंद था. ठकठकाने पर पद्मा ने ही दरवाजा खोला.

‘‘आइए,’’ जैसे वह उन का ही इंतजार कर रही थी. पद्मा की सूजी हुई आंखें देख कर प्रभाकर ठगे से रह गए.

‘‘क्या बात है? खैरियत तो है?’’ कोई जवाब न पा कर प्रभाकर अधीर हो उठे. अपनी जगह से उठ पद्मा का आंसुओं से लबरेज चेहरा उठाया. तकिए के नीचे से पद्मा ने एक अंतर्देशीय पत्र निकाल कर प्रभाकर के हाथों में पकड़ा दिया.

कोट की ऊपरी जेब से ऐनक निकाल कर वे पत्र पढ़ने लगे. पत्र पढ़तेपढ़ते वे गंभीर हो उठे, ‘‘ओह, इस विषय पर तो हम ने सोचा ही नहीं था. यह तो हम दोनों पर लांछन है. यह चरित्रहनन का एक घिनौना आरोप है, अपनी ही संतानों द्वारा,’’ उन का चेहरा तमतमा उठा. उठ कर बाहर की ओर चल पड़े.

‘‘तुम तो चले जा रहे हो, मेरे लिए कुछ सोचा है? मुझे उन्हें अपनी संतान कहते हुए भी शर्म आ रही है.’’

पद्मा हिलकहिलक कर रोने लगी. प्रभाकर के बढ़ते कदम रुक गए. वापस कुरसी पर जा बैठे. कोई रास्ता सूझ नहीं रहा था.

‘‘क्या किया जाए? जब तुम्हारे बेटों को हमारे मिलनेजुलने में आपत्ति है, इस का वे गलत अर्थ लगाते हैं तो हमारा एकदूसरे से दूर रहना ही बेहतर है. अब बुढ़ापे में मिट्टी पलीद करानी है क्या?’’ उन्हें अपनी ही आवाज काफी दूर से आती महसूस हुई.

पिछले एक सप्ताह से वे पद्मा से नहीं मिल रहे हैं. तबीयत फिर खराब होने लगी है. डाक्टर ने पूर्णआराम की सलाह दी है. शरीर को तो आराम उन्होंने दे दिया है पर भटकते मन को कैसे विश्राम मिले?

पद्मा के दोनों बेटों की वैसे तो आपस में बिलकुल नहीं पटती है, मगर अपनी मां के गैर मर्द से मेलजोल पर वे एकमत हो आपत्ति प्रकट करने लगे थे.

पता नहीं उन के किस शुभचिंतक ने प्रभाकरजी व पद्मा के घनिष्ठ संबंध की खबर उन तक पहुंचा दी थी.

प्रभाकरजी का रोमरोम पद्मा को पुकार रहा था. जवानी उन्होंने दायित्व निर्वाह की दौड़भाग में गुजार दी थी. परंतु बुढ़ापे का अकेलापन उन्हें काटने दौड़ता था. यह बिना किसी सहारे के कैसे कटेगा, यह सोचसोच कर वे विक्षिप्त से हो जाते. कोई तो हमसफर हो जो उन के दुखसुख में उन का साथ दे, जिस से वे मन की बातें कर सकें, जिस पर पूरी तरह निर्भर हो सकें. तभी डाकिए ने आवाज लगाई :

‘‘चिट्ठी.’’

डाकिए के हाथ में विदेशी लिफाफा देख कर वे पुलकित हो उठे. जैसे चिट्ठी के स्थान पर स्वयं उन का बेटा परिचय खड़ा हो. सच, चिट्ठी से आधी मुलाकात हो जाती है. परिचय ने लिखा है, वह अगले 5 वर्षों तक स्वदेश नहीं आ सकता क्योंकि उस ने जिस नई कंपनी में जौइन किया है, उस के समझौते में एक शर्त यह भी है.

प्रभाकरजी की आंखों के सामने अंधेरा छा गया. उन की खुशी काफूर हो गई. वे 5 वर्ष कैसे काटेंगे, सिर्फ यादों के सहारे? क्या पता वह 5 वर्षों के बाद भी भारत आएगा या नहीं? स्वास्थ्य गिरता जा रहा है. कल किस ने देखा है. वादों और सपनों के द्वारा किसी काठ की मूरत को बहलाया जा सकता है, हाड़मांस से बने प्राणी को नहीं. उस की प्रतिदिन की जरूरतें हैं. मन और शरीर की ख्वाहिशें हैं. आज तक उन्होंने हमेशा अपनी भावनाओं पर विजय पाई है, मगर अब लगता है कि थके हुए तनमन की आकांक्षाओं को यों कुचलना आसान नहीं होगा.

बेटी ने खबर भिजवाई है. उस के पति 6 महीने के प्रशिक्षण के लिए दिल्ली जा रहे हैं. वह भी साथ जा रही है. वहां से लौट कर वह पिता से मिलने आएगी.

वाह री दुनिया, बेटा और बेटी सभी अपनीअपनी बुलंदियों के शिखर चूमने की होड़ में हैं. बीमार और अकेले पिता के लिए किसी के पास समय नहीं है. एक हमदर्द पद्मा थी, उसे भी उस के बेटों ने अपने कलुषित विचारों की लक्ष्मणरेखा में कैद कर लिया. यह दुनिया ही मतलबी है. यहां संबंध सिर्फ स्वार्थ की बुनियाद पर विकसित होते हैं. उन का मन खिन्न हो उठा.

‘‘प्रभाकर, कहां हो भाई?’’ अपने बालसखा गिरिधर की आवाज पहचानने में उन्हें भला क्या देर लगती.

‘‘आओआओ, कैसे आना हुआ?’’

‘‘बिटिया की शादी के सिलसिले में आया था. सोचा तुम से भी मिलता चलूं,’’ गिरिधरजी का जोरदार ठहाका गूंज उठा.

हंसना तो प्रभाकरजी भी चाह रहे थे, परंतु हंसने के उपक्रम में सिर्फ होंठ चौड़े हो कर रह गए. गिरिधर की अनुभवी नजरों ने भांप लिया, ‘दाल में जरूर कुछ काला है.’

शुरू में तो प्रभाकर टालते रहे, पर धीरेधीरे मन की परतें खुलने लगीं. गिरिधर ने समझाया, ‘‘देखो मित्र, यह समस्या सिर्फ तुम्हारी और पद्मा की नहीं है बल्कि अनेक उस तरह के विधुर  और विधवाओं की है जिन्होंने अपनी जवानी तो अपने कर्तव्यपालन के हवाले कर दी, मगर उम्र के इस मोड़ पर जहां न वे युवा रहते हैं और न वृद्ध, वे नितांत अकेले पड़ जाते हैं. जब तक उन के शरीर में ताकत रहती है, भुजाओं में सारी बाधाओं से लड़ने की हिम्मत, वे अपनी शारीरिक व मानसिक मांगों को जिंदगी की भागदौड़ की भेंट चढ़ा देते हैं.

‘‘बच्चे अपने पैरों पर खड़े होते ही अपना आशियाना बसा लेते हैं. मातापिता की सलाह उन्हें अनावश्यक लगने लगती है. जिंदगी के निजी मामले में हस्तक्षेप वे कतई बरदाश्त नहीं कर पाते. इस के लिए मात्र हम नई पीढ़ी को दोषी नहीं ठहरा सकते. हर कोई अपने ढंग से जीवन बिताने के लिए स्वतंत्र होता है. सीढ़ी दर सीढ़ी आगे बढ़ना ही तो दुनियादारी है.’’

‘‘बात तो तुम्हारी ठीक है, परंतु पद्मा और मैं दोनों बिलकुल अकेले हैं. अगर एकसाथ मिल कर हंसबोल लेते हैं तो दूसरों को आपत्ति क्यों होती है?’’ प्रभाकरजी ने दुखी स्वर में कहा.

‘‘सुनो, मैं सीधीसरल भाषा में तुम्हें एक सलाह देता हूं. तुम पद्मा से शादी क्यों नहीं कर लेते?’’ उन की आंखों में सीधे झांकते हुए गिरधर ने सामयिक सुझाव दे डाला.

‘‘क्या? शादी? मैं और पद्मा से? तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया है? लोग क्या कहेंगे? हमारी संतानों पर इस का क्या असर पड़ेगा? जीवन की इस सांध्यवेला में मैं विवाह करूं? नहींनहीं, यह संभव नहीं,’’ प्रभाकरजी घबरा उठे.

‘‘अब लगे न दुहाई देने दुनिया और संतानों की. यही बात लोगों और पद्मा के बेटों ने कही तो तुम्हें बुरा लगा. विवाह करना कोई पाप नहीं. जहां तक जीवन की सांध्यवेला का प्रश्न है तो ढलती उम्र वालों को आनंदमय जीवन व्यतीत करना वर्जित थोड़े ही है. मनुष्य जन्म से ले कर मृत्यु तक किसी न किसी सहारे की तलाश में ही तो रहता है. पद्मा और तुम अपने पवित्र रिश्ते पर विवाह की सामाजिक मुहर लगा लो. देखना, कानाफूसियां अपनेआप बंद हो जाएंगी. रही बात संतानों की, तो वे भी ठंडे दिमाग से सोचेंगे तो तुम्हारे निर्णय को बिलकुल उचित ठहराएंगे. कभीकभी इंसान को निजी सुख के लिए भी कुछ करना पड़ता है. कुढ़ते रह कर तो जीवन के कुछ वर्ष कम ही किए जा सकते हैं. स्वाभाविक जीवनयापन के लिए यह महत्त्वपूर्ण निर्णय ले कर तुम और पद्मा समाज में एक अनुपम और प्रेरक उदाहरण प्रस्तुत करो.’’

‘‘क्या पद्मा मान जाएगी?’’

‘‘बिलकुल. पर तुम पुरुष हो, पहल तो तुम्हें ही करनी होगी. स्त्री चाहे जिस उम्र की हो, उस में नारीसुलभ लज्जा तो रहती ही है.’’

गिरिधर के जाने के बाद प्रभाकर एक नए आत्मविश्वास के साथ पद्मा के घर की ओर चल पड़े, अपने एकाकी जीवन को यथार्थ के नूतन धरातल पर प्रतिष्ठित करने के लिए. जीवन की सांध्यवेला में ही सही, थोड़ी देर के लिए ही पद्मा जैसी सहचरी का संगसाथ और माधुर्य तो मिलेगा. जीवनसाथी मनोनुकूल हो तो इंसान सारी दुनिया से टक्कर ले सकता है. इस छोटी सी बात में छिपे गूढ़ अर्थ को मन ही मन गुनगुनाते वे पद्मा का बंद दरवाजा एक बार फिर खटखटा रहे थे. Family Story In Hindi

Family Story In Hindi: तलाक के कागजात

Family Story In Hindi: “क्या बात है, आजकल बहुत मेकअप कर के ऑफिस जाने लगी हो. पहले तो कुछ भी पहन कर चल देती थी. पर अब तो रोज लेटेस्ट फैशन के कपड़े खरीदे जा रहे हैं,” व्यंग से सुधीर ने कहा तो आकांक्षा ने एक नजर उस पर डाली और फिर से अपने मेकअप में लग गई.

सुधीर आकांक्षा के इस रिएक्शन से चढ़ गया और एकदम उस के पास जा कर बोला,” आकांक्षा में जानना चाहता हूं कि तुम्हारी जिंदगी में चल क्या रहा है?”

आकांक्षा ने भंवे चढ़ाते हुए उस की तरफ देखा और फिर अपने बॉब कट बालों को झटकती हुई बोली,” चलना क्या है, मल्टीनेशनल कंपनी में ऊंचे ओहदे पर काम कर रही हूं, लोग मेरी इज्जत कर रहे हैं, मेरे काम की सराहना हो रही है और क्या?”

“सराहना हो रही है या पीठ पीछे तुम्हारा मजाक बन रहा है आकांक्षा?”

“खबरदार जो ऐसी बात की सुधीर. तुम्हें क्या पता सफलता का नशा क्या होता है. तुम ने तो बस जिस कुर्सी पर काम संभाला था आज तक वहीँ चिपके बैठे हो.”

“क्योंकि मुझे तुम्हारी तरह गलत तरीके से प्रमोशन लेना नहीं आता. पति के होते हुए भी प्रमोशन के लिए इमीडिएट बॉस की बाहों में समाना नहीं आता.”

सुधीर का इल्जाम सुन कर आकांक्षा ने अपने हाथ में पकड़ा हुआ मिरर जमीन पर फेंक दिया और चीख पड़ी,” मेरे कैरेक्टर की समीक्षा करने से पहले अपने अंदर झांको सुधीर. तुम्हारे जैसा फेलियोर इंसान मेरे लायक है ही नहीं. न तो तुम मुझे वह प्यार और खुशियां दे सके जो मैं चाहती थी और न खुद को ही किसी काबिल बना सके. तुम्हारे बहाने हमारी खुशियों के आड़े आते रहे. अब यदि मुझे किसी से प्यार हुआ है तो मैं क्या कर सकती हूं.”

“शादीशुदा मर्द से प्यार का नाटक करने वाली चालाक औरत हो तुम. तुम्हें और कुछ करने की जरूरत नहीं आकांक्षा. बस मेरी जिंदगी से हमेशा के लिए दूर चली जाओ. तलाक दे दो मुझे.”

“मैं तैयार हूं सुधीर. तुम कागज बनवाओ. हम आपसी सहमति से तलाक ले लेंगे. अब तक मैं यह सोच कर डरती थी कि हमारी बच्चियों का क्या होगा. पर अब फिक्र नहीं. दोनों इतनी बड़ी और समझदार हो गई हैं कि इस सिचुएशन को आसानी से हैंडल कर लेंगी. बड़ी को हॉस्टल भेज देंगे और छोटी मेरे साथ रह जाएगी.”

“तो ठीक है आकांक्षा. मैं तलाक के कागज तैयार करवाता हूँ. फिर तुम अपने रास्ते और मैं अपने रास्ते.”

इस बात को अभी तीनचार दिन भी नहीं हुए थे कि सुधीर और आकांक्षा की बड़ी बेटी रानू की तबीयत अचानक बिगड़ गई. आकांक्षा उसे अस्पताल ले कर भागी. छोटी बेटी रोरो कर कह रही थी,” मम्मा आप जब ऑफिस चले जाते हो तो पीछे में कई दफा रानू दी सर दर्द की गोली खाती हैं. एकदो बार तो मैं ने इन्हें चक्कर खा कर गिरते भी देखा था. रानू दी हमेशा मुझे आप लोगों से कुछ न बताने को कह कर चुप करा देती थीं. एक दिन उन की सहेली ने फोन कर बताया था कि वे स्कूल में बेहोश हो गई हैं. ”

मेरी बच्ची इतना कुछ सहती रही पर मुझे कानोंकान खबर भी न होने दिया. यह सोच कर आकांक्षा की आंखों में आंसू आ गए. तब तक भागाभागा सुधीर भी अस्पताल पहुंचा.

आकांक्षा ने सवाल किया,” आज तुम्हें इतनी देर कैसे हो गई ? मैं ऑफिस छोड़ कर नहीं भागती तो पता नहीं रानू का क्या होता.”

“वह दरअसल तलाक के कागज फाइनल तैयार करा रहा था. ”

“जाओ तुम पहले डॉक्टर से बात कर के पता करो कि मेरी बच्ची को हुआ क्या है? बेहोश क्यों हो गई मेरी बच्ची?”

अगले दिन तक रानू की सारी रिपोर्ट आ गई. रानू को ब्रेन ट्यूमर था. यह खबर सुन कर सुधीर और आकांक्षा के जैसे पैरों तले जमीन खिसक गई थी. फिर तो अस्पतालबाजी का ऐसा दौर चला कि दोनों को और किसी बात का होश ही नहीं रहा.

रानू के ब्रेन का ऑपरेशन करना पड़ा. काट कर ट्यूमर निकाल दिया गया. रेडिएशन थेरेपी भी दी गई. आकांक्षा ने इलाज में कोई कसर नहीं छोड़ी. रुपए पानी की तरह बहाए. रानू को काफी लंबा वक्त अस्पताल में रहना पड़ा. घर लौटने के बाद भी अस्पताल आनाजाना लगा ही रहा. करीब डेढ़दो साल बाद एक बार फिर से ट्यूमर का ग्रोथ शुरू हुआ तो तुरंत उसे अस्पताल में एडमिट कर के थेरेपी दी गई.

इतने समय में रानू काफी कमजोर हो गई थी. सुधीर और आकांक्षा का पूरा ध्यान रानू को पहले की तरह बनाने में लगा हुआ था. आकांक्षा का रिश्ता अभी भी अपने प्रेमी मयंक के साथ कायम था. सुधीर अभी भी आकांक्षा से नाराज था. दोनों के दिल अभी भी टूटे हुए थे. मगर दोनों ने झगड़ना छोड़ दिया था. दोनों के लिए ही रानू की तबीयत पहली प्राथमिकता थी.

ऑफिस के बाद दोनों घर लौटते तो रानू की देखभाल में लग जाते. आपस में उन की कोई बात नहीं होती. दिल से दोनों का रिश्ता पूरी तरह टूट चुका था. एक ही घर में अजनबियों की तरह रहते. इस तरह तीनचार साल बीत गए. अब तक रानू नॉर्मल हो चुकी थी. उस ने कॉलेज भी ज्वाइन कर लिया था. सुधीर और आकांक्षा कि जिंदगी भी पटरी पर लौटने लगी थी. मगर दोनों के दिल में जो फांस चुभी हुई थी उस का दर्द कम नहीं हुआ था.

इस बीच सुधीर के जीवन में एक परिवर्तन जरूर हुआ था. उस ने अपने दर्द को गीतों के जरिए बाहर निकालना शुरू किया. उस की गायकी लोगों को काफी पसंद आई और देखते ही देखते उस की गिनती देश के काबिल गायकों में होने लगी. सुधीर को अब स्टेज परफॉर्मेंस के साथसाथ टीवी और फिल्मों में भी छोटेमोटे ऑफर मिलने लगे. नाम के साथसाथ पैसे भी मिले और आकांक्षा के तेवर कमजोर हुए. मगर मयंक के साथ उस का रिश्ता वैसे ही कायम रहा और यह बात सुधीर को गवारा नहीं थी.

इसलिए एक बार फिर दोनों ने तलाक लेने का फैसला किया. सुधीर ने फिर से तलाक के कागज बनने को दे दिए. मगर दूसरे ही दिन आकांक्षा की मां का फोन आ गया. आकांक्षा की मां अकेली मेरठ में रहती थीं. बड़ी बेटी आकांक्षा के अलावा उन की एक बेटी और थी जो रंगून में बसी हुई थी. पति की मौत हो चुकी थी. ऐसे में आकांक्षा ही उन के जीवन का सहारा थी.

बड़े दर्द भरे स्वर में उन्होंने आकांक्षा को बताया था,’ बेटा डॉक्टर कह रहे हैं कि मुझे पेट का कैंसर हो गया है जो अभी सेकंड स्टेज में है.”

” मां यह क्या कह रही हो आप?”

“सच कह रही हूँ बेटा. आजकल बहुत कमजोरी रहती है. ठीक से खायापिया भी नहीं जाता. कल ही रिपोर्ट आई है मेरी.”

“तो मम्मा आप वहां अकेली क्या कर रही हो? आप यहां आ जाओ मेरे पास. मैं डॉक्टर से बात करूंगी. यहां अच्छे से अच्छा इलाज मिल सकेगा आप को.”

“ठीक है बेटा. मैं कल ही आ जाती हूं.”

इस तरह एक बार फिर अस्पतालबाजी का दौर शुरू हो गया. सुधीर अपनी सास की काफी इज्जत करता था और जानता था कि उस की सास अपनी बेटी को तलाक की इजाजत कभी नहीं देंगी. इसलिए तलाक का मसला एक बार फिर पेंडिंग हो गया. वैसे भी सुधीर अब खुद ही काफी व्यस्त हो चुका था. उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था कि आकांक्षा कहां है और क्या कर रही है.

आकांक्षा ने एक अच्छे अस्पताल में मां का इलाज शुरू करा दिया. वह खुद मां को अस्पताल ले कर जाती. इस वजह से मयंक के साथ वह अधिक समय नहीं बिता पाती थी. ऐसे में मयंक ही दोतीन बार घर आ कर आकांक्षा से मिल चुका था.

मां समझ गई थीं कि मयंक के साथ आकांक्षा का रिश्ता कैसा है और यह बात उन्हें बहुत ज्यादा अखरी थी. मगर वह कुछ बोल नहीं पाती थीं. सुधीर के लिए उन के मन में सहानुभूति थी. मगर वह यह सोच कर चुप रह जातीं कि सुधीर और आकांक्षा दोनों ही इतने बड़े पद पर हैं और इतना पैसा कमा रहे हैं. इन्हें जिंदगी कैसे जीनी है इस का फैसला भी इन का खुद का होना चाहिए.

सुधीर को संगीत के सिलसिले में अक्सर दूसरेदूसरे शहरों में जाना पड़ता और इधर पीछे से मां की देखभाल के साथसाथ आकांक्षा मयंक के और भी ज्यादा करीब होती गई.

करीब 3 साल के इलाज के बाद आखिर मां ने दम तोड़ दिया. उन्हें बचाया नहीं जा सका. उस दिन आकांक्षा बहुत रोई पर सुधीर एक प्रोग्राम के सिलसिले में मुंबई में था. आकांक्षा ने अकेले ही मां का क्रियाकर्म कराया. मयंक ने जरूर मदद की उस की. आकांक्षा को इस बात का काफी मलाल था कि खबर सुनते ही सब कुछ छोड़ कर सुधीर दौड़ा हुआ आया क्यों नहीं.

सुधीर के आते ही वह उस से इस बात पर झगड़ने लगी तो सुधीर सीधा वकील के पास निकल गया. जल्द से जल्द तलाक के कागज बनवा कर वह इस कड़वाहट भरे रिश्ते से आजाद होना चाहता था. दूसरे दिन शाम में जब वह तलाक के कागजात ले कर लौटा तो अंदर से आ रही आवाजें सुन कर ठिठक गया.

उस ने देखा कि ड्राइंग रूम में उस की बड़ी बेटी रानू अपने बॉयफ्रेंड के साथ खड़ी है और आकांक्षा चीख रही है,” नहीं रानू तू ऐसा नहीं कर सकती. अभी उम्र ही क्या है तेरी? आखिर तू एक शादीशुदा और दो बच्चों के बाप से ही शादी करना क्यों चाहती है? दुनिया के बाकी लड़के मर गए क्या?”

“पर मम्मा आप यह क्यों भूलते हो कि आप खुद पापा के होते हुए एक शादीशुदा मर्द से प्यार करते हो. हम ने तो कुछ नहीं कहा न आप को. आप की जिंदगी है. आप के फैसले हैं. फिर मेरे फैसले पर आप इस तरह का रिएक्शन क्यों दे रहे हो मम्मा? ”

“मुझ से तुलना मत कर मेरी बच्ची. मेरी उम्र बहुत है. पर तेरी पहली शादी होगी. वह भी एक विवाहित से?”

“मयूर विवाहित है मम्मा पर मेरी खातिर अपनी बीवी और बच्चों को छोड़ देगा. दोतीन महीने के अंदर उसे तलाक मिल जाएगा. तलाक के कागजात उस ने सबमिट करा दिए हैं. ”

“पर बेटा यह तो समझने की कोशिश कर, तू एक ऊंचे कुल की खानदानी लड़की है और तेरा मयूर एक दलित युवक.
नहींनहीं यह संभव नहीं मेरी बच्ची. शादी के लिए समाज में हैसियत और दर्जा एक जैसा होना जरूरी है. मयूर का परिवार और रस्मोरिवाज सब अलग होंगे. तू नहीं निभा पाएगी.”

“पर मम्मा आप की और पापा की जाति तो एक थी न. एक हैसियत, एक दर्जा, एक से ही रस्मोरिवाज मगर आप दोनों तो फिर भी नहीं निभा पाए न. तो आप मेरी चिंता क्यों कर रहे हो?”

बेटी का जवाब सुन कर आकांक्षा स्तब्ध रह गई थी. सुधीर को भी कुछ सूझ नहीं रहा था. हाथों में पकड़े हुए तलाक के कागजात शूल की तरह चुभ रहे थे. समझ नहीं आ रहा था कि कब उस की बच्चियां इतनी बड़ी हो गईं थीं कि उन दोनों की भूल समझने लगी थीं और सिर्फ समझ ही नहीं रही थीं बल्कि उसी भूल का वास्ता दे कर खुद भी भूल करने को आमादा थीं.

सुधीर अचानक लडख़ड़ा सा गया. जल्दी से दरवाजा पकड़ लिया. रानू और मयूर घर से बाहर निकल गए थे. आकांक्षा अकेली बैठी रो रही थी.

सुधीर धीरेधीरे कदमों से चलता हुआ उस के पास आया और फिर तलाक के कागजात उस के आगे टेबल पर रख दिए. आकांक्षा ने कांपते हाथों से वे कागज उठाए और अचानक ही उन को फाड़ कर टुकड़ेटुकड़े कर दिए.

वह लपक कर सुधीर के सीने से लग गई और रोती हुई बोली,” सुधीर शायद मैं ही गलत थी. मेरी बेटी ने मेरे आगे रिश्तों का सच खोल कर रख दिया. मैं मानती हूं बहुत देर हो चुकी है. फिर भी मैं समझ गई हूं कि हमें अपने बच्चों के आगे गलत नहीं बल्कि सही उदाहरण पेश करना चाहिए ताकि वे अपना रास्ता न भटक जाए.”

आकांक्षा की बात सुन कर सुधीर ने भी सहमति में सिर हिलाया और तलाक के कागजात के टुकड़े उठा कर डस्टबिन में फेंक आया. उस ने भी जिंदगी को नए तरीके से जीने का मन बना लिया था. Family Story In Hindi

Story In Hindi: परिवर्तन की आंधी

Story In Hindi: “मुन्ना के पापा सुनो तो, आज मुन्ना नया घर तलाशने की बात कर रहा था. वह काफी परेशान लग रहा था. मुझ से बोला कि मैं आप से बात कर लूं.”

“मगर, मुझ से तो वह कुछ नहीं बोला. बात क्या है मुन्ने की अम्मां? खुल कर बोलो. कई वर्षों से बिल्डिंग को ले कर समिति, किराएदार, मालिक और हाउसिंग बोर्ड के बीच लगातार मीटिंग चल रही है. ये तो मैं जानता हूं, पर आखिर में फैसला क्या हुआ?”

“वह कह रहा था कि हमारी बिल्डिंग अब बहुत पुरानी और जर्जर हो चुकी है, इसलिए बरसात के पहले सभी किराएदारों को घर खाली करने होंगे. सरकार की नई योजना के अनुसार इसे फिर से बनाया जाएगा. पर तब तक सब को अपनीअपनी छत का इंतजाम खुद करना होगा. वह कुछ रुपयों की बात कर रहा था. जल्दी में था, इसलिए आप से मिले बिना ही चला गया.”

गंगाप्रसाद तिवारी अब गहरी सोच में डूब गए. इतने बड़े शहर में बड़ी मुश्किल से घरपरिवार का किसी तरह से गुजारा हो रहा था. बुढ़ापे के कारण उन की अपनी नौकरी भी अब नहीं रही. ऐसे में नए सिर से फिर से नया मकान ढूंढ़ना, उस का किराया देना, नाको चने चबाने जैसा है. गैलरी में कुरसी पर बैठेबैठे तिवारीजी शून्य में खो गए थे. उन की आंखों के सामने तीस साल पहले का वह मंजर किसी चलचित्र की तरह चलने लगा.

‘दो छोटेछोटे बच्चे और मुन्ने की मां को ले कर जब वे पहली बार इस शहर में आए थे, तब यह शहर अजनबी सा लग रहा था. पर समय के साथ वे यहीं के हो कर रह गए.

‘सेठ किलाचंदजी एंड कंपनी में मुनीमजी की नौकरी, छोटा सा औफिस, एक टेबल और कुरसी. मगर व्यापार करोड़ों का था, जिस का मैं एकछत्र सेनापति था. सेठजी की ही मेहरबानी थी कि उस कठिन दौर में बड़ी मुश्किल से लाखों की पगड़ी का जुगाड़ कर पाया और अपने परिवार के लिए एक छोटा सा आशियाना बना पाया, जो ऊबदार घर कब बन गया, पता ही नहीं चला. दिनभर की थकान मिटाने के लिए अपने हक की छोटी सी जमीन, जहां सुकून से रात गुजर जाती थी और सुबह होते ही फिर वही रोज की आपाधापी भरी तेज रफ्तार वाली शहर की जिंदगी.

‘पहली बार मुन्ने की मां जब गांव से निकल कर ट्रेन में बैठी, तो उसे सबकुछ अविश्वसनीय सा लग रहा था. दो रात का सफर करते हुए उसे लगा, जैसे वह विदेश जा रही हो. धीरे से वह कान में फुसफुसाई, “अजी, इस से तो अच्छा अपना गांव था. सभी अपने थे वहां. यहां तो ऐसा लगता है जैसे हम किसी पराए देश में आ गए हों? कैसे गुजारा होगा यहां?”

“चिंता मत करो मुन्ने की अम्मां, सब ठीक हो जाएगा. जब तक मन करेगा यहां रहेंगे और जब घुटन होने लगेगी तो गांव लौट जाएंगे. गांव का घर, खेत, खलिहान इत्यादि सब है. अपने बड़े भाई के जिम्मे सौंप कर आया हूं. बड़ा भाई पिता समान होता है.”

इन तीस सालों में इस अजनबी शहर में हम ऐसे रचबस गए, मानो यही अपनी तपस्वी कर्मभूमि है. आज मुन्ने की मां भी गांव में जा कर बसने का नाम नहीं लेती. उसे इस शहर से प्यार हो गया है. उसे ही क्यों, खुद मेरे और दोनों बच्चों के रोमरोम में यह शहर बस गया है. माना कि अब मैं थक चुका हूं, मगर अब बच्चों की पढ़ाई पूरी हो गई है. उन्हें ढंग की नौकरी मिल जाएगी तो उन के हाथ पीले कर दूंगा और जिंदगी की गाड़ी फिर से पटरी पर अपनी रफ्तार से दौड़ने लगेगी. अचानक किसी की आवाज ने तिवारीजी की तंद्रा भंग की. देखा तो सामने मुन्ने की मां थी.

“अजी किस सोच में डूबे हो? सुबह से दोपहर हो गई. चलो, अब भोजन कर लो. मुन्ना भी आ गया है. उस से पूरी बात कर लो और सब लोग मिल कर सोचो कि आगे क्या करना है ? आखिर कोई समाधान तो निकालना ही पड़ेगा.”

भोजन के बाद तिवारीजी का पूरा परिवार एकसाथ बैठ कर विमर्श करने लगा. मुन्ने ने बताया, “पापा, हमारी बिल्डिंग का हाउसिंग बोर्ड द्वारा रिडेवलपमेंट किया जा रहा है. सबकुछ अब फाइनल हो गया है. एग्रीमेंट के मुताबिक हमें मालिकाना अधिकार का 250 स्क्वेयर फीट का फ्लैट मुफ्त में मिलेगा. मगर वह काफी छोटा पड़ेगा. इसलिए यदि कोई अलग से या मौजूदा कमरे से जोड़ कर एक और कमरा लेना चाहता हो, तो उसे एक्स्ट्रा कमरा मिलेगा, पर उस के लिए बाजार भाव से दाम देना होगा.”

”ठीक कहते हो मुन्ना, मुझे तो लगता है कि यदि हम गांव की कुछ जमीन बेच दें तो हमारा मसला हल हो जाएगा और एक कमरा अलग से मिल जाएगा. अधिक रुपयों का इंतजाम हो जाए तो यह बिलकुल संभव है कि हम अपना एक और फ्लैट खरीद लेंगे.” तिवारीजी बोले.

बरसात से पहले तिवारीजी ने सरकारी डेवलपमेंट बोर्ड को अपना रूम सौंप दिया और पूरे परिवार के साथ अपने गांव आ गए.

गांव में प्रारंभ के दिनों में बड़े भाई और भाभी ने उन की काफी आवभगत की, पर जब उन्हें पूरी योजना के बारे में पता चला तो वे लोग पल्ला झाड़ने लगे. यह बात गंगाप्रसाद तिवारी की समझ में नहीं आ रही थी. उन्हें कुछ शक हुआ. धीरेधीरे उन्होंने अपनी जगह जमीन की खोजबीन शुरू की. हकीकत का पता चलते ही उन के पैरों तले की जमीन ही सरक गई, मानो उन पर आसमान टूट पड़ा हो.

“अजी क्या बात हैं? खुल कर बताते क्यों नहीं, दिनभर घुटते रहते हो? यदि जेठजी को हमारा यहां रहना भारी लग रहा है, तो वे हमारे हिस्से का घर, खेत और खलिहान हमें सौंप दें, हम खुद अपना बनाखा लेंगे.”

“धीरे बोलो भाग्यवान, अब यहां हमारा गुजारा नहीं हो पाएगा. हमारे साथ धोखा हुआ है. हमारे हिस्से की सारी जमीनजायदाद उस कमीने भाई ने जालसाजी से अपने नाम कर ली है. झूठे कागजात बना कर उस ने दिखाया है कि मैं ने अपने हिस्से की सारी जमीनजायदाद उसे बेच दी है. हम बरबाद हो गए मुन्ने की अम्मां… अब तो एक पल के लिए भी यहां कोई ठौरठिकाना नहीं है. हम से सब से बड़ी भूल यह हुई कि साल दो साल में एकाध बार यहां आ कर अपनी जमीनजायदाद की कोई खोजखबर नहीं ली.”

“अरे दैय्या, ये तो घात हो गया. अब हम कहां रहेंगे? कौन देगा हमें सहारा? कहां जाएंगे हम अपने इन दोनों बच्चों को ले कर? बच्चों को इस बात की भनक लग जाएगी तो बड़ा अनर्थ हो जाएगा,” विलाप कर के मुन्ने की मां रोने लगी. पूरा परिवार शोक में डूब गया. न चाहते हुए भी तिवारीजी के मन में घुमड़ती पीड़ा की गठरी आखिर खुल ही गई थी.

इस के बाद तिवारी परिवार में कई दिनों तक वादविवाद, विमर्श होता रहा. सुकून की रोटी जैसे उन के नसीब की परीक्षा ले रही थी.

अपने ही गांवघर में अब गंगाप्रसादजी का परिवार बेगाना हो चुका था. उन्हें कोई सहारा नहीं दे रहा था. वे लोग जान चुके थे कि उन्हें लंबी कानूनी लड़ाई लड़नी होगी. पर इस समय गुजरबसर के लिए छोटी सी झुग्गी भी उन के पास नहीं थी. गांव की जमीन के हिस्से की पावर औफ एटोर्नी बड़े भाई को दे कर उन्होंने बहुत बड़ी भूल की थी. उसी के चलते आज वे दरदर की ठोकरें खाने के लिए मजबूर थे.

उसी गांव में मधुकर चौहान नामक संपन्न दलित परिवार था. गांव में उन की अपनी बड़ी सी किराने की दुकान थी. बड़ा बेटा रामकुमार पढ़ालिखा और आधुनिक खयालात का था. जब उसे छोटे तिवारीजी के परिवार पर हो रहे अन्याय के बारे में पता चला तो उस का खून खौल उठा, पर वह मजबूर था. गांव में जातिबिरादरी की राजनीति से वह पूरी तरह परिचित था. एक ब्राह्मण परिवार को मदद करने का मतलब, अपनी बिरादरी से रोष लेना था. पर दूसरी तरफ उसे शहर से आए उस परिवार के प्रति लगाव भी था.

उस दिन घर में उस के पिताजी ने तिवारीजी को ले कर बात छेड़ी, “जानते हो तुम लोग, हम वही दलित परिवार हैं, जिस के पुरखे किसी जमाने में उसी तिवारीजी के यहां पुश्तों से हरवाही किया करते थे. तिवारीजी के दादाजी बड़े भले इनसान थे. जब हमारा परिवार रोटी के लिए मुहताज था, तब इस तिवारीजी के दादाजी ने आगे बढ़ कर हमें गुलामी की दास्तां से मुक्ति दे कर अपने पैरों पर खड़े होने का हौसला दिया था. उस अन्नदाता परिवार के एक सदस्य पर आज विपदा की घड़ी आई है. ऐसे में मुझे लगता है कि हमें उन के लिए कुछ करना चाहिए. आज उसी परिवार की बदौलत गांव में हमारी दुकान है और हम सुखी हैं.”

”हां बाबूजी, हमें सच का साथ देना चाहिए. मैं ने सुना है कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद जब बैंक के दरवाजे सामान्य लोगों के लिए खुले, तब बड़े तिवारीजी ने हमें राह दिखाई थी. यह उसी परिवर्तन के दौर का नतीजा है कि कभी दूसरों के टुकड़ों पर पलने वाला गांव का यह दलित परिवार आज संपन्न परिवार में गिना जाता है और शान से रहता है,” रामकुमार ने अपनी जोरदार हुंकारी भरी.

रामकुमार ताल ठोंक कर अब छोटे तिवारीजी के साथ खड़ा हो गया था. काफी सोचसमझ कर चौहान परिवार ने छोटे तिवारीजी से गहन विचारविमर्श किया.

“हम आप को दुकान खुलवाने और सिर पर छत के लिए जगह, जमीन, पैसा इत्यादि की हर संभव मदद करने को तैयार हैं. आप अपने पैरों पर खड़े हो जाएंगे, तो यह लड़ाई आसान हो जाएगी. एक दिन आप को आप का हक जरूर मिलेगा.”

चौहान परिवार का भरोसा और साथ मिल जाने से तिवारी परिवार का हौसला बढ़ गया था. रामकुमार के सहारे अंकिता अपनी दुकानदारी को बखूबी संभालने लगी थी. इस से घर में पैसे आने लगे थे. धीरेधीरे उन के पंखों में बल आने लगा और वे अपने पैरों पर खड़े हो गए.

तिवारीजी की दुकानदारी का भार उन की बिटिया अंकिता के जिम्मे था, क्योंकि तिवारीजी और उन का बड़ा बेटा अकसर कोर्टकचहरी और शहर के फ्लैट के काम में व्यस्त रहते थे.

इस घटना से गांव के ब्राह्मण घरों में जातिबिरादरी की राजनीति जन्म लेने लगी. कुंठित दलित बिरादरी के लोग भी रामकुमार और अंकिता को ले कर साजिश रचने लगे. चारों ओर तरहतरह की अफवाहें रंग लेने लगीं, पर बापबेटे ने पूरे गांव को खरीखोटी सुनाते हुए अपने हक की लड़ाई जारी रखी. इस काम में रामकुमार तन, मन और धन से उन के साथ था. उस ने जिले के नामचीन वकील से तिवारीजी की मुलाकात कराई और उस की सलाह पर ही पुलिस में शिकायत भी दर्ज कराई.

छोटीमोटी इस उड़ान को भरतेभरते अंकिता और रामकुमार कब एकदूसरे को दिल दे बैठे, इस का उन्हें पता ही नहीं चला. इस बात की भनक पूरे गांव को लग जाती है. लोग इस बेमेल प्यार को जाति का रंग दे कर तिवारी और चौहान परिवार को बदनाम करने की कोशिश करते हैं. इस काम में अंकिता के ताऊजी अग्रणी भर थे.

गंगाप्रसादजी के परिवार को जब इस बात की जानकारी होती है, तो वे राजीखुशी इस रिश्ते को स्वीकार कर लेते हैं. इतने वर्षों तक बड़े शहर में रहते हुए उन की सोच भी बड़ी हो चुकी होती है. जातिबिरादरी के बजाय सम्मान, इज्जत और इनसानियत को वे तवज्जुह देना जानते थे. जमाने के बदलते दस्तूर के साथ परिवर्तन की आंधी अब अपना रंग जमा चुकी थी.

अंकिता ने अपना निर्णय सुनाया, “बाबूजी, मैं रामकुमार से प्यार करती हूं और हम शादी के पवित्र बंधन में बंध कर अपनी नई राह बनाना चाहते हैं.”

“बेटी, हम तुम्हारे निर्णय का स्वागत करते हैं. हमें तुम पर पूरा भरोसा है. अपना भलाबुरा तुम अच्छी तरह जानती हो. चौहान परिवार के हम पर बड़े उपकार हैं.”

आखिर में चौहान और तिवारी परिवार आपसी रजामंदी से उसी गांव में विरोधियों की छाती पर मूंग दलते हुए अंकिता और रामकुमार की शादी बड़े धूमधाम से संपन्न करा दी.

एक दिन वह भी आया, जब गंगाप्रसादजी अपनी जमीनजायदाद की लड़ाई जीत गए और उन की खोई हुई संपत्ति उन्हें वापस मिल गई. जालसाजी के केस में उन के बड़े भाई को जेल जाने की नौबत आ गई. Story In Hindi

Family Story In Hindi: खानाबदोश – माया और राजेश अपने घर से क्यों बेघर हो गए

Family Story In Hindi: मेरा तन और मन जलता है और जलता रहेगा. कब तक जलेगा, यह मैं नहीं बतला सकती हूं. जब भी मैं उस छोटे से, खूबसूरत बंगले के सामने से निकलती हूं, ऊपर से नीचे तक सुलग जाती हूं क्योंकि वह खूबसूरत छोटा सा बंगला मेरा है. जो बंगले के बाहर खड़ा है उस का वह बंगला है और जो लोग अंदर हैं व बिना अधिकार के रह रहे हैं, उन का नहीं. मेरी आंखों में खून उतर जाता है. बंगले के बाहर लौन के किनारे लगे फूलों के पौधे मुझे पहचानते हैं क्योंकि मैं ने ही उन्हें लगाया था बहुत प्यार से. बच्चों की तरह पाला और पोसा था. अगर इन फूलों की जबान होती तो ये पूछते कि वे गोरेगोरे हाथ अब कहां हैं, जिन्होंने हमें जिंदगी दी थी. बेचारे अब मेरे स्पर्श को तरस रहे होंगे. धीरेधीरे बोझिल कदमों से खून के आंसू बहाती मैं आगे बढ़ गई अपने किराए के मुरझाए से फ्लैट की ओर.

रास्ते में उमेशजी मिल गए, हमारे किराएदार, ‘‘कहिए, मायाजी, क्या हालचाल हैं?’’

‘‘आप हालचाल पूछ रहे हैं उमेशजी, अगर किराएनामे के अनुसार आप घर खाली कर देते तो मेरा हालचाल पूछ सकते थे. आप तो अब मकानमालिक बन बैठे हैं और हम लोग खानाबदोश हो कर रह गए हैं? क्या आप के लिए लिखापढ़ी, कानून वगैरा का कोई महत्त्व नहीं है? आप जैसे लोगों को मैं सिर्फ गद्दारों की श्रेणी में रख सकती हूं.’’

‘‘आप बहुत नाराज हैं. मैं आप से वादा करता हूं कि जैसे ही दूसरा घर मिलेगा, हम चले जाएंगे.’’

‘‘एक बात पूछूं उमेशजी, तारीखें आप किस तरकीब से बढ़वाते रहते हैं, क्याक्या हथकंडे इस्तेमाल करते हैं, मैं यह जानना चाहती हूं?’’

‘‘छोडि़ए मायाजी, आप नाराज हैं इसीलिए इस तरह की बातें कर रही हैं. मैं आप की परेशानी समझता हूं, पर मेरी अपनी भी परेशानियां हैं. बिना दूसरे घर के  इंतजाम हुए मैं कहां चला जाऊं?’’

‘‘एक तरकीब मैं बतलाती हूं उमेशजी, जिस फ्लैट में हम रह रहे हैं उस में आप आ जाइए और हम अपने बंगले में आ जाएं. सारी समस्याएं सुलझ जाएंगी.’’

‘‘मैं इस विषय पर सोचूंगा मायाजी. आप बिलकुल परेशान न हों,’’ कह कर उमेशजी आगे बढ़ गए. मन ही मन मैं ने उन को वे सब गालियां दे डालीं, जो बचपन से अब तक सीखी और सुनी थीं.

खाना खाने के बाद मैं ने पति से कहा, ‘‘कुछ तो करिए राजेश, वरना मैं पागल हो जाऊंगी.’’ और मैं रोने लगी.

‘‘मैं क्या करूं, तारीखों पर तारीखें पड़ती रहती हैं?’’

‘‘6 साल से तारीखें पड़ती चली आ रही हैं, पर मैं पूछती हूं क्यों? किरायानामा लिखा गया था जिस में 11 महीने के लिए बंगला किराए पर दिया गया था. नियम के मुताबिक, उन लोगों को समय पूरा हो जाने पर बंगला खाली कर देना चाहिए था.’’

‘‘पर उन लोगों ने खाली नहीं किया. मैं ने नोटिस दिया. रिमाइंडर दिया, कोर्ट में बेदखली की अपील की. अब मैं क्या करूं? वे लोग किसी तरह तारीखें आगे डलवाते रहते हैं और मुकदमा बिना फैसले के चालू रहता है और कब तक चालू रहेगा, यह भी मैं नहीं कह सकता.’’

‘‘राजेश, ऐसा मत कहिए. आप जानते हैं कि बंगले का नक्शा मैं ने बनाया था. क्या चीज मुझे कहां चाहिए, उसी हिसाब से वह बना था. उस बंगले को बनवाने में आप को फंड से कर्ज लेना पड़ा. 40 लाख रुपए मैं ने दिए, जो मरते समय मां मेरे नाम कर गई थी. आप सीमेंट का फर्श लगवा रहे थे. मैं ने अपने जेवर बेच कर रुपया दिया ताकि मारबल का फर्श बन सके. कोई रिश्वत का रुपया तो हमारे पास था नहीं, इसलिए जेवर भी बेच दिए. क्या इसलिए कि हमारे बंगले में कोई दूसरा आ कर बस जाए? राजेश, मुझे मेरा बंगला दिलवा दीजिए.’’

‘‘बंगला हमारा है और हमें जरूर मिलेगा.’’

‘‘पर कब? हां, एक तरकीब है, सुनना चाहेंगे?’’

‘‘जरूर माया, तुम्हारी हर तरकीब सुनूंगा. अब तक मैं हरेक की इस बाबत कितनी ही तरीकीबें सुनता आया हूं.’’

‘‘तो सुनिए, क्यों न हम लोग कुछ लोगों को साथ ले कर अपने बंगले में दाखिल हो जाएं, क्योंकि घर तो हमारा ही है न.’’

‘‘ऐसा कर तो सकते हैं लेकिन किराएदार के साथ मारपीट भी हो सकती है और इस तरह पुलिस का केस भी बन सकता है और फिर मेरे ऊपर एक नया केस चालू हो जाएगा. मैं इस झगड़े में पड़ने को बिलकुल तैयार नहीं हूं.’’

‘‘क्या इस तरह के केसों से निबटने की कोई तरकीब नहीं है? यह सिर्फ हमारा ही झगड़ा तो है नहीं, हजारों लोगों का है.’’

‘‘होता यह है कि किराएदार मुकदमे के लिए तारीखों पर तारीखें पड़वाता रहता है, जिस से अंतिम फैसले में जितनी देर हो सके उतना ही अच्छा है और अगर न्यायाधीश का निर्णय उस के विरुद्घ हुआ तो वह उच्च अदालत में अपील कर देता है जिस से इस प्रकार और समय निकलता जाता है और उच्च अदालतों में न्यायाधीशों की और भी कमी है. हजारों केस वर्षों पड़े रहते हैं. तुम ने टीवी पर देखा नहीं, इस के चलते भारत के मुख्य न्यायाधीश उस दिन एक कार्यक्रम में नरेंद्र मोदी के सामने भावुक हो गए.

‘‘कुछ तो उपाय होना ही चाहिए, यह सरासर अन्याय है.’’

‘‘उपाय जरूर है. ऐसा फैसला सरसरी तौर पर होना चाहिए. ऐसे मुकदमों के लिए अलग अदालतें बनाई जाएं और अलग न्यायाधीश हों, जो यही काम करें और अगर अंतिम निर्णय किराएदार के विरुद्घ हो तो दंडनीय किराया देना अनिवार्य हो. इस से फायदा यह होगा कि निर्णय को टालने की कोशिश बंद हो जाएगी और दंडनीय किराए का डर बना रहेगा तो किराएदार मकान स्वयं ही खाली कर देगा और इस तरह से एक बड़ी समस्या का समाधान हो जाएगा.’’

‘‘आप समस्याओं का समाधान निकालने में बहुत तेज हैं, पर कुछ करते क्यों नहीं हो?’’

‘‘माया, क्या तुम समझती हो मुझे अपना घर नहीं चाहिए.’’

‘‘अब तो मदन भी पूछने लगा है कि हम अपने बंगले में कब जाएंगे, यहां तो खेलने की जगह भी नहीं है.’’

सारी रात नींद नहीं आई. सवेरे दूध उबाल कर रखा तो उस में मक्खी गिर गई. सारा दूध फेंकना पड़ा. दिमाग बिलकुल खराब हो गया. मैं ने राजेश से कहा, ‘‘आज दूध नहीं मिलेगा क्योंकि उस में मक्खी गिर गई थी.’’

‘‘हम ने अपने घर में जाली लगवाई थी.’’

‘‘यहां तो है नहीं, फिर मैं क्या करूं?’’

‘‘कोई बात नहीं, आज दूध नहीं पिएंगे,’’ उन्होंने हंस कर कहा.

‘‘मैं ने आप से कहा था कि मैं मुंबई नहीं जाऊंगी, फिर आप ने मुझे चलने को क्यों मजबूर किया? आप को 3 साल के लिए ही तो मुंबई भेजा गया था. क्या

3 साल अकेले नहीं रह सकते थे?’’

‘‘नहीं माया, नहीं रह सकता था. मैं तुम्हारे बिना एक दिन भी रहने को तैयार नहीं हूं.’’

‘‘नतीजा देख लिया, हम बेघरबार हो गए. मैं 3 साल अपने घर में रहती, आप कभीकभी आते रहते, यही बहुत होता. ठीक है, अगर हम मुंबई चले भी गए तो आप ने बंगला किराए पर क्यों दे दिया?’’

‘‘सोचा था, 11 महीने का किराया मिल जाएगा और हम अपने कमरे में एयरकंडीशनर लगवा लेंगे. और आखिर में तुम भी तो तैयार हो गई थी.’’

‘‘आप की हर बात मानने का ही तो नतीजा भुगत रही हूं.’’

‘‘माया, अब बंद कर दो इन बातों को, थोड़ा धैर्य और रखो, बंगला तुम्हें अवश्य मिल जाएगा.’’

‘‘पर कब? अब तो 6 साल से भी ज्यादा समय हो चुका है.’’

सारी रात मुझे नींद नहीं आई. मुंबई मुझे जरा भी अच्छा नहीं लगा. भीड़ इतनी कि सड़क पर चलने से ही चक्कर आने लगे. सड़क पार करते समय तो मेरी सांस ही रुक जाती थी कि अगर मैं सड़क के बीच में हुई और कारों की लाइन शुरू हो गई तब? बसों के लिए लंबीलंबी लाइनों में खड़े हुए थके शरीर और मुरझाए चेहरों वाले लोग. ऊंचीऊंची इमारतें और बड़ेबड़े होटल, जहां जा कर एक साधारण हैसियत का आदमी एक प्याला चाय का भी नहीं पी सकता. मुंबई सिर्फ बड़ेबड़े सेठों और धनिकों के लिए है. वहां की रंगीन रातें उन्हीं लोगों के लिए हैं. दूरदूर से रोजीरोटी के लिए आए लोग तो जिंदा रहते हैं कीड़ेमकोड़ों की तरह. एक दिन सड़क के किनारे एक

आदमी को पड़े हुए देखा, पांव वहीं रुक गए. इसे कुछ हो गया है, ‘इस के मुंह पर पानी का छींटा डालना चाहिए, शायद गरमी के कारण बेहोश हो गया है.’ मेरे पति और उन के दोस्त ने मुझे खींच लिया, ‘पड़ा रहने दीजिए, भाभीजी, अगर पुलिस आ गई और हम लोग खड़े मिले तो दुनियाभर के सवालों का जवाब देना होगा. यह मत भूलिए कि यह मुंबई है.’ ‘क्या मुंबई के लोगों की इंसानियत मर चुकी है? क्या यहां जज्बातों की कोई कीमत नहीं है? एक लड़की बस में चढ़ने जा रही थी. एक पांव बस के पायदान पर था और दूसरा हवा में, तभी बस चल दी और वह लड़की धड़ाम से जमीन पर गिर पड़ी. कोई भीड़ जमा नहीं हुई, लोग वैसे ही आगेपीछे बढ़ते रहे. रुक कर मैं ने तो सहारा दे कर उसे खड़ा कर दिया क्योंकि मैं मुंबई की रहने वाली नहीं हूं. 2 बसें भरी हुई निकल चुकी थीं. उस दिन सब्जियों और राशन के थैले लटकाए मैं बेहद थक चुकी थी.

मुझे अपना इलाहाबाद याद आ रहा था और वह अपना छोटा सा बंगला. यह मुंबई अच्छेखासे लोगों का सत्यानाश कर देता है. इसी बीच बारिश शुरू हो गई. भीग जाने से सब्जियों के थैले और भारी हो गए. मैं घर से छतरी ले कर भी नहीं चली थी. मैं पास के ही बंगले के मोटरगैरेज में जा कर खड़ी हो गई. सब्जियों और राशन का थैला एक ओर टिका दिया, फिर बालों का जूड़ा खोल कर बालों से पानी निचोड़ने लगी. तभी आवाज सुनी, ‘माया, तुम?’ कार के पास खड़ा पुरुष मेरी ओर बढ़ा, ‘इतने सालों के बाद देखा है, बिलकुल वैसी ही लगती हो, उतनी ही हसीन.’

‘सुधाकर तुम? बदल गए हो, पहले जैसे बिलकुल नहीं लगते हो.’

‘माया, बहुत सोचा था कि तुम्हारे पास आ कर सबकुछ बतला दूं, पर तुम और तुम्हारे डैडी का सामना करने का साहस नहीं जुटा पाया. तुम्हें किस तरह बतलाऊं कि वह सब कैसे हो गया. मैं इतना मजबूर कर दिया गया था कि कुछ भी मेरे वश में नहीं रहा.’

‘क्या मैं ने तुम से कुछ कहा है, जो सफाई दे रहे हो? याचक बन कर तुम्हीं ने मेरे डैडी के सामने हाथ फैलाया था. कहां है वह तुम्हारा बूढ़ा लालची बाप जिस ने मेरे डैडी से आ कर कहा था, पुरानी दोस्ती के नाते समझा रहा हूं, मित्र, नारेबाजी की बात जाने दो, गरीब और अमीर का फर्क हमेशा रहेगा. मैं अपने बेवकूफ लड़के को समझा लूंगा.’

‘उन की मृत्यु हो चुकी है. मरते समय वे करीबकरीब दिवालिया हो चुके थे और उन के ऊपर इतना कर्ज था कि मेरे पास उन की बात को मानने के सिवा दूसरा उपाय नहीं था. मैं ने सेठ करोड़ीमल की लड़की से शादी कर ली. मैं खून के आंसू रोया हूं, माया.’

‘शादी मत कहो. यह कहो कि तुम बिके  थे, सुधाकर,’ कह कर मैं हंसने लगी.

‘छोड़ो इन बातों को, तुम लोग मुंबई घूमने आए हो या काम से?’

‘मेरे पति को कुछ काम है, कुछ समय तक यहीं रहना होगा.’

‘फ्लैट वगैरा मिल गया है या नहीं? मेरा एक फ्लैट खाली है, जो मैं अपने मेहमानों के लिए खाली रखता हूं, वह मैं तुम्हें दे सकता हूं. घूमनेफिरने के लिए कार भी मिल जाएगी. मुझे कुछ मेहमानदारी करने का ही मौका दो, माया.’

‘फ्लैट के लिए कितनी पगड़ी लोगे, कितना किराया लोगे? आखिर हो तो व्यवसायी न? क्या तुम्हारी टैक्सियां भी चलती हैं?’

‘नहीं, माया, ऐसा मत कहो.’

‘फिर इतना सब मुफ्त में क्यों दोगे?’

‘मेरा एक ख्वाब था, जिसे मैं भूला नहीं हूं,’ अपना चेहरा मेरे करीब ला कर उस ने कहा, ‘तुम्हें बांहों में लेने का ख्वाब.’

‘ओह, बकवास बंद करो. अच्छा हुआ, तुम्हारे जैसे लालची और व्यभिचारी आदमी से मेरी शादी नहीं हुई.’ तभी एक बेहद काली और मोटी औरत हमारी ओर आती दिखाई दी. सुधाकर ने कहा, ‘वह मेरी पत्नी है.’

‘बहुत ठोस माल है. तुम्हारी कीमत कम नहीं लगी. जायदाद कर ठीक से देते हो या नहीं?’ कह कर हंसते हुए मैं ने अपने थैले उठा लिए.

‘देखो, माया, पानी बरस रहा है, मैं कार से तुम्हें छोड़ आता हूं.’

‘रहने दो, मैं चली जाऊंगी,’ कह कर मैं बाहर निकल आई.

अचानक मेरे पति की आवाज मुझे वर्तमान में घसीट लाई, ‘‘क्या नींद नहीं आ रही है? तुम अपने बंगले को ले कर बहुत परेशान रहने लगी हो?’’

‘‘परेशान होने की ही बात है. मेरे बंगले में कोई दूसरा रहता है और इस फ्लैट में मेरा दम घुटता है, पर इस समय मैं मुंबई की बाबत सोच रही थी.’’

‘‘सुधाकर के बारे में?’’

‘‘सुधाकर के बारे में सोचने को कुछ भी नहीं है. मेरी शादी के लिए डैडी के पास जितने भी रिश्ते आए थे, उन में सुधाकर ही सब से बेकार का था.’’

‘‘वैसे भी एक पतिव्रता स्त्री को दूसरे पुरुष की बाबत नहीं सोचना चाहिए. बुजुर्गों ने कहा है कि सपने में भी नहीं.’’

‘‘कल आप घर देर से सोए थे, लगता है पूरी रात टीवी पर फिल्म देखी है.’’

हम दोनों इस पर खूब हंसे. कुछ देर के लिए अपना घर भी भूल गए. पर मैं जानती हूं कि कल सवेरे ही बंगले को ले कर फिर रोना शुरू हो जाएगा. Family Story In Hindi

Story In Hindi: बचपना – पिया की चिट्ठी देख क्यों खुश नहीं थी सुधा

Story In Hindi: आज फिर वही चिट्ठी मनीआर्डर के साथ देखी, तो सुधा मन ही मन कसमसा कर रह गई. अपने पिया की चिट्ठी देख उसे जरा भी खुशी नहीं हुई.

सुधा ने दुखी मन से फार्म पर दस्तखत कर के डाकिए से रुपए ले लिए और अपनी सास के पास चली आई और बोली ‘‘यह लीजिए अम्मां पैसा.’’

‘‘मुझे क्या करना है. अंदर रख दे जा कर,’’ कहते हुए सासू मां दरवाजे की चौखट से टिक कर खड़ी हो गईं. देखते ही देखते उन के चेहरे की उदासी गहरी होती चली गई.

सुधा उन के दिल का हाल अच्छी तरह समझ रही थी. वह जानती थी कि उस से कहीं ज्यादा दुख अम्मां को है. उस का तो सिर्फ पति ही उस से दूर है, पर अम्मां का तो बेटा दूर होने के साथसाथ उन की प्यारी बहू का पति भी उस से दूर है.

यह पहला मौका है, जब सुधा का पति सालभर से घर नहीं आया. इस से पहले 4 नहीं, तो 6 महीने में एक बार तो वह जरूर चला आता था. इस बार आखिर क्या बात हो गई, जो उस ने इतने दिनों तक खबर नहीं ली?

अम्मां के मन में तरहतरह के खयाल आ रहे थे. कभी वे सोचतीं कि किसी लड़की के चक्कर में तो नहीं फंस गया वह? पर उन्हें भरोसा नहीं होता था.

हो न हो, पिछली बार की बहू की हरकत पर वह नाराज हो गया होगा. है भी तो नासमझ. अपने सिवा किसी और का लाड़ उस से देखा ही नहीं जाता. नालायक यह नहीं समझता, बहू भी तो उस के ही सहारे इस घर में आई है. उस बेचारी का कौन है यहां?

सोचतेसोचते उन्हें वह सीन याद आ गया, जब बहू उन के प्यार पर अपना हक जता कर सूरज को चिढ़ा रही थी और वह मुंह फुलाए बैठा था.

अगली बार डाकिए की आवाज सुन कर सुधा कमरे में से ही कहने लगी, ‘‘अम्मां, डाकिया आया है. पैसे और फार्म ले कर अंदर आ जाइए, दस्तखत कर दूंगी.’’

सुधा की बात सुन कर अम्मां चौंक पड़ीं. पहली बार ऐसा हुआ था कि डाकिए की आवाज सुन कर सुधा दौड़ीदौड़ी दरवाजे तक नहीं गई… तो क्या इतनी दुखी हो गई उन की बहू?

अम्मां डाकिए के पास गईं. इस बार उस ने चिट्ठी भी नहीं लिखी थी. पैसा बहू की तरफ बढ़ा कर अम्मां रोंआसी आवाज में कहने लगीं, ‘‘ले बहू, पैसा अंदर रख दे जा कर.’’

अम्मां की आवाज कानों में पड़ते ही सुधा बेचैन निगाहों से उन के हाथों को देखने लगी. वह अम्मां से चिट्ठी मांगने को हुई कि अम्मां कहने लगीं, ‘‘क्या देख रही है? अब की बार चिट्ठी भी नहीं डाली है उस ने.’’

सुधा मन ही मन तिलमिला कर रह गई. अगले ही पल उस ने मर जाने के लिए हिम्मत जुटा ली, पर पिया से मिलने की एक ख्वाहिश ने आज फिर उस के अरमानों पर पानी फेर दिया.

अगले महीने भी सिर्फ मनीआर्डर आया, तो सुधा की रहीसही उम्मीद भी टूट गई. उसे अब न तो चिट्ठी आने का भरोसा रहा और न ही इंतजार.

एक दिन अचानक दरवाजे पर दस्तक हुई. पहली बार तो सुधा को लगा, जैसे वह सपना देख रही हो, पर जब दोबारा किसी ने दरवाजा खटखटाया, तो वह दरवाजा खोलने चल दी.

दरवाजा खुलते ही जो खुशी मिली, उस ने सुधा को दीवाना बना दिया. वह चुपचाप खड़ी हो कर अपने साजन को ऐसे ताकती रह गई, मानो सपना समझ कर हमेशा के लिए उसे अपनी निगाहों में कैद कर लेना चाहती हो.

सूरज घर के अंदर चला आया और सुधा आने वाले दिनों के लिए ढेर सारी खुशियां सहेजने को संभल भी न पाई थी कि अम्मां की चीखों ने उस के दिलोदिमाग में हलचल मचा दी.

अम्मां गुस्सा होते हुए अपने बेटे पर चिल्लाए जा रही थीं, ‘‘क्यों आया है? तेरे बिना हम मर नहीं जाते.’’

‘‘क्या बात है अम्मां?’’ सुधा को अपने पिया की आवाज सुनाई दी.

‘‘पैसा भेज कर एहसान कर रहा था हम पर? क्या हम पैसों के भूखे हैं?’’ अम्मां की आवाज में गुस्सा लगातार बढ़ता जा रहा था.

‘‘क्या बात हो गई?’’ आखिर सूरज गंभीर हो कर पूछ ही बैठा.

‘‘बहू, तेरा पति पूछ रहा है कि बात क्या हो गई. 2 महीने से बराबर खाली पैसा भेजता रहता है, अपनी खैरखबर की छोटी सी एक चिट्ठी भी लिखना इस के लिए सिर का बोझ बन गया और पूछता है कि क्या बात हो गई?’’

सूरज बिगड़ कर कहने लगा, ‘‘नहीं भेजी चिट्ठी तो कौन सी आफत आ गई? तुम्हारी लाड़ली तो तुम्हारे पास है, फिर मेरी फिक्र करने की क्या जरूरत पड़ी?’’

सुधा अपने पति के ये शब्द सुन कर चौंक गई. शब्द नए नहीं थे, नई थी उन के सहारे उस पर बरस पड़ी नफरत. वह नफरत, जिस के बारे में उस ने सपने में भी नहीं सोचा था.

सुधा अच्छी तरह समझ गई कि यह सब उन अठखेलियों का ही नतीजा है, जिन में वह इन्हें अम्मां के प्यार पर अपना ज्यादा हक जता कर चिढ़ाती रही है, अपने पिया को सताती रही है.

इस में कुसूर सिर्फ सुधा का ही नहीं है, अम्मां का भी तो है, जिन्होंने उसे इतना प्यार किया. जब वे जानती थीं अपने बेटे को, तो क्यों किया उस से इतना प्यार? क्यों उसे इस बात का एहसास नहीं होने दिया कि वह इस घर की बेटी नहीं बहू है?

अम्मां सुधा का पक्ष ले रही हैं, यह भी गनीमत ही है, वरना वे भी उस का साथ न दें, तो वह क्या कर लेगी. इस समय तो अम्मां का साथ देना ही बहुत जरूरी है.

अम्मां अभी भी अपने बेटे से लड़े जा रही थीं, ‘‘तेरा दिमाग बहुत ज्यादा खराब हो गया है.’’

अम्मां की बात का जवाब सूरज की जबान पर आया ही था कि सुधा बीच में ही बोल पड़ी, ‘‘यह सब अच्छा लगता है क्या आप को? अम्मां के मुंह लगे चले जा रहे हैं. बड़े अच्छे लग रहे हैं न?’’

‘‘चुप, यह सब तेरा ही कियाधरा है. तुझे तो चैन मिल गया होगा, यह सब देख कर. न जाने कितने कान भर दिए कि अम्मां आते ही मुझ पर बरस पड़ीं,’’ थोड़ी देर रुक कर सूरज ने खुद पर काबू करना चाहा, फिर कहने लगा, ‘‘यह किसी ने पूछा कि मैं ने चिट्ठी क्यों नहीं भेजी? इस की फिक्र किसे है? अम्मां पर तो बस तेरा ही जादू चढ़ा है.’’

‘‘हां, मेरा जादू चढ़ा तो है, पर मैं क्या करूं? मुझे मार डालो, तब ठीक रहेगा. मुझ से तुम्हें छुटकारा मिल जाएगा और मुझे तुम्हारे बिना जीने से.’’

अब जा कर अम्मां का माथा ठनका. आज उन के बच्चों की लड़ाई बच्चों का खेल नहीं थी. आज तो उन के बच्चों के बीच नफरत की बुनियाद पड़ती नजर आ रही थी. बहू का इस तरह बीच में बोल पड़ना उन्हें अच्छा नहीं लगा.

वे अपनी बहू की सोच पर चौंकी थीं. वे तो सोच रही थीं कि उन के बेटे की सूरत देख कर बहू सारे गिलेशिकवे भूल गई होगी.

अम्मां की आवाज से गुस्सा अचानक काफूर गया. वे सूरज को बच्चे की तरह समझाने लगीं, ‘‘इस को पागल कुत्ते ने काटा है, जो तेरी खुशियां छीनेगी? तेरी हर खुशी पर तो तुझ से पहले खुश होने का हक इस का है. फिर क्यों करेगी वह ऐसा, बता? रही बात मेरी, तो बता कौन सा ऐसा दिन गुजरा, जब मैं ने तुझे लाड़ नहीं किया?’’

‘‘आज ही देखो न, यह तो किसी ने पूछा नहीं कि हालचाल कैसा है? इतना कमजोर कैसे हो गया तू? तुम को इस की फिक्र ही कहां है. फिक्र तो इस बात की है कि मैं ने चिट्ठी क्यों नहीं डाली?’’ सूरज बोला.

अम्मां पर मानो आसमान फट पड़ा. आज उन की सारी ममता अपराधी बन कर उन के सामने खड़ी हो गई. आज यह हुआ क्या? उन की समझ में कुछ न आया.

अम्मां चुपचाप सूरज का चेहरा निहारने लगीं, कुछ कह ही न सकीं, पर सुधा चुप न रही. उस ने दौड़ कर अपने सूरज का हाथ पकड़ लिया और पूछने लगी, ‘‘बोलो न, क्या हुआ? तुम बताते क्यों नहीं हो?’’

‘‘मैं 2 महीने से बीमार था. लोगों से कह कर जैसेतैसे मनीआर्डर तो करा दिया, पर चिट्ठी नहीं भेज सका. बस, यही एक गुनाह हो गया.’’

सुधा की आंखों से निकले आंसू होंठों तक आ गए और मन में पागलपन का फुतूर भर उठा, ‘‘देखो अम्मां, सुना कैसे रहे हैं? इन से तो अच्छा दुश्मन भी होगा, मैं बच्ची नहीं हूं, अच्छी तरह जानती हूं कि भेजना चाहते, तो एक नहीं 10 चिट्ठियां भेज सकते थे.

‘‘नहीं भेजते तो किसी से बीमारी की खबर ही करा देते, पर क्यों करते ऐसा? तुम कितना ही पीछा छुड़ाओ, मैं तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ने वाली.’’

अम्मां चौंक कर अपनी बहू की बौखलाहट देखती रह गईं, फिर बोलीं, ‘‘क्या पागल हो गई है बहू?’’

‘‘पागल ही हो जाऊं अम्मां, तब भी तो ठीक है,’’ कहते हुए बिलख कर रो पड़ी सुधा और फिर कहने लगी, ‘‘पागल हो कर तो इन्हें अपने प्यार का एहसास कराना आसान होगा. किसी तरह से रो कर, गा कर और नाचनाच कर इन्हें अपने जाल में फंसा ही लूंगी. कम से कम मेरा समझदार होना तो आड़े नहीं आएगा,’’ कहतेकहते सुधा का गला भर आया.

सूरज आज अपनी बीवी का नया रूप देख रहा था. अब गिलेशिकवे मिटाने की फुरसत किसे थी? सुधा पति के आने की खुशियां मनाने में जुट गई. अम्मां भी अपना सारा दर्द समेट कर फिर अपने बच्चों से प्यार करने के सपने संजोने लगी थीं. Story In Hindi

Story In Hindi: मन की थाह – शादी के बाद रामलाल का क्या हुआ

Story In Hindi: रामलाल बहुत हंसोड़ किस्म का शख्स था. वह अपने साथियों को चुटकुले वगैरह सुनाता रहता था.

वह अकसर कहा करता था, ‘‘एक बार मैं कुत्ते के साथ नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर गया. वहां आदमियों का वजन तोलने के लिए बड़ी मशीन रखी थी. मैं ने एक रुपया दे कर उस पर अपने कुत्ते को खड़ा कर दिया. मशीन में से एक कार्ड निकला जिस पर वजन लिखा था 35 किलो और साथ में एक वाक्य भी लिखा था कि आप महान कवि बनेंगे.’’ यह सुनते ही सारे दोस्त हंसने लगते थे.

रामलाल जितना मजाकिया था, उतना ही दिलफेंक भी था. उम्र निकले जा रही थी पर शादी की फिक्र नहीं थी. शादी न होने की एक वजह घर में बैठी बड़ी विधवा बहन भी थी. गणित में पीएचडी करने के बाद वह इलाहाबाद के डिगरी कालेज में प्रोफैसर हो गया और वहीं बस गया. उस के एक दोस्त राधेश्याम ने दिल्ली में नौकरी कर घर बसा लिया.

एक बार राधेश्याम को उस से मिलने का मन हुआ. काफी समय हो गया था मिले हुए, इसलिए उस ने अपनी पत्नी से कहा, ‘‘मैं 3-4 दिनों के लिए इलाहाबाद जा रहा हूं. रामलाल से भी मिलना हो जाएगा. काफी सालों से उस की कोई खबर भी नहीं ली है. आज ही फोन कर के उसे अपने आने की सूचना देता हूं.’’

राधेश्याम ने रामलाल को अपने आने की सूचना दे दी. इलाहाबाद के रेलवे स्टेशन पर पहुंचते ही राधेश्याम ने रामलाल को खोजना शुरू कर दिया. पर जो आदमी एकदम उस के गले आ कर लिपट गया वह रामलाल ही होगा, ऐसा उस ने कभी सोचा भी नहीं था क्योंकि रामलाल कपड़ों के मामले में जरा लापरवाह था. पर आज जिस आदमी ने उसे गले लगाया वह सूटबूट पहने एकदम जैंटलमैन लग रहा था.

राधेश्याम के गले लगते ही रामलाल बोला, ‘‘बड़े अच्छे मौके पर आए हो दोस्त. मैं एक मुसीबत में फंस गया हूं.’’

‘‘कैसी मुसीबत? मुझे तो तुम अच्छेखासे लग रहे हो,’’ राधेश्याम ने रामलाल से कहा. इस पर रामलाल बोला, ‘‘तुम्हें पता नहीं है… मैं ने शादी कर ली है.’’

इस बात को सुनते ही राधेश्याम चौंका और बोला, ‘‘अरे, तभी कहूं कि 58 साल का बुड्ढा आज चमक कैसे रहा है? यह तो बड़ी खुशी की बात है. पर यह तो बता इतने सालों बाद तुझे शादी की क्या सूझी? अब पत्नी की जरूरत कैसे पड़ गई? हमें खबर भी नहीं की…’’

इस पर रामलाल फीकी सी मुसकराहट के साथ बोला, ‘‘बस यार, उम्र के इस पड़ाव पर जा कर शादी की जरूरत महसूस होने लगी थी. पर बात तो सुन पहले. मैं ने जिस लड़की से शादी की है, वह मेरे कालेज में ही मनोविज्ञान में एमए कर रही है.’’

‘‘यह तो और भी अच्छी बात है,’’ राधेश्याम ने हंसते हुए कहा.

‘‘अच्छीवच्छी कुछ नहीं. उस ने आते ही मेरे ड्राइंगरूम का सामान निकाल कर फेंक दिया और उस में अपनी लैबोरेटरी बना डाली, ‘‘बुझी हुई आवाज में रामलाल ने कहा.

‘‘तब तो तुम्हें बड़ा मजा आया होगा,’’ राधेश्याम ने चुटकी ली.

‘‘हांहां, शुरूशुरू में तो मुझे बड़ा अजीब सा लगा, पर आजकल तो बहुत बड़ी मुसीबत आई हुई है,’’ दुखी  आवाज में रामलाल बोला.

‘‘आखिर कुछ बताओगे भी कि हुआ क्या है या यों ही भूमिका बनाते रहोगे?’’ राधेश्याम ने खीजते हुए कहा.

‘‘सब से पहले उस ने मेरी बहन के मन की थाह ली और अब मेरी भी…’’

राधेश्याम ने हंसते हुए कहा, ‘‘भाई रामलाल, तुम ने बहुत बढि़या बात सुनाई. तुम्हारे मन की थाह भी ले डाली.’’

‘‘हां यार, और कल उस ने रिपोर्ट भी दे दी.’’

‘‘रिपोर्ट? हाहाहाहा, तुम भी खूब आदमी हो. जरा यह तो बताओ कि उस ने यह सब किया कैसे था?’’

‘‘उस ने मुझे एक पग पर लिटा दिया. मेरी बांहों में किसी दवा का एक इंजैक्शन लगाया और बोली कि मैं जो शब्द कहूं, उस से फौरन कोई न कोई वाक्य बना देना. जल्दी बनाना और उस में वह शब्द जरूर होना चाहिए.’’

‘‘सब से पहले उस ने क्या शब्द कहा?’’ राधेश्याम ने पूछा.

रामलाल ने कहा, ‘‘दही.’’

राधेश्याम ने पूछा, ‘‘तुम ने क्या वाक्य बनाया?’’

रामलाल बोला, ‘‘क्योंजी, मध्य प्रदेश में दही तो क्या मिलता होगा?’’

राधेश्याम ने पूछा, ‘‘फिर?’’

रामलाल बोला, ‘‘फिर वह बोली, ‘बरतन.’

‘‘मैं ने कहा कि मुरादाबाद में पीतल के बरतन बनते हैं.

‘‘बस ऐसे ही बहुत से शब्द कहे थे. देखो जरा रिपोर्ट तो देखो,’’ यह कह कर उस ने अपनी जेब से कागज का एक टुकड़ा निकाला.

यह एक लैटरपैड था, जो इस तरह लिखा हुआ था, सुमित्रा गोयनका, एमए साइकोलौजी.

मरीज का नाम, रामलाल गोयनका.

बाप का नाम, हरिलाल गोयनका.

पेशा, अध्यापन.

उम्र, 58 साल.

ब्योरा, हीन भावना से पीडि़त. आत्मविश्वास की कमी. अपने विचारों पर दृढ़ न रहने के चलते निराशावादी बूढ़ा.

‘‘अबे, किस ने कहा था बुढ़ापे में शादी करने के लिए और वह भी अपने से 10-15 साल छोटी उम्र की लड़की से? जवानी में तो तू वैसे ही मजे लेता रहा है. तेरा ब्याह क्या हुआ, तेरे घर में तो एक अच्छाखासा तमाशा आ गया. तुझे तो इस में मजा आना चाहिए, बेकार में ही शोर मचा रहा है.’’

‘‘तू नहीं समझेगा. वह मेरी बहन को घर से निकालने पर उतारू हो गई है. दोनों में रोज लड़ाई होती है. अब मेरी बड़ी विधवा बहन इस उम्र में कहां जाएंगी?

‘‘अगर मैं उन्हें घर से जाने को कहता हूं, तो समाज कह देगा कि पत्नी के आते ही, जिस ने पाला, उसे निकाल दिया. मेरी जिंदगी नरक हो गई है.’’

इतनी बातें स्टेशन पर खड़ेखड़े ही हो गईं. फिर सामान को कार में रख कर रामलाल राधेश्याम को एक होटल में ले गया. वहां एक कमरा बुक कराया. उस कमरे में दोनों ने बैठ कर चायनाश्ता किया.

तब रामलाल ने उसे बताया, ‘‘इस समय घर में रहने में तुम्हें बहुत दिक्कत होगी. कहीं ऐसा न हो, वह तुम्हारे भी मन की थाह ले ले, इसलिए तुम्हारा होटल में ठहरना ही सही है.’’

इस पर राधेश्याम ने हंसते हुए कहा, ‘‘मुझे तो कोई एतराज नहीं है. मुझे तो और मजा ही आएगा. यह तो बता कि वह दिखने में कैसी लगती है?’’

रामलाल ठंडी आह लेते हुए बोला, ‘‘बहुत खूबसूरत हैं. बिलकुल कालेज की लड़कियों जैसी. तभी तो उस पर दिल आ गया.’’

राधेश्याम ने उस को छेड़ने की नीयत से पूछा, ‘‘अच्छा एक बात तो बता, जब तुम ने उस का चुंबन लिया होगा तो उस के चेहरे पर कैसे भाव थे?’’

‘‘वह इस तरह मुसकराई थी, जैसे उस ने मेरे ऊपर दया की हो. उस ने कहा था कि आप में अभी बच्चों जैसी सस्ती भावुकता है,’’ रामलाल झेंपता हुआ बोला.

चाय पीने के बाद राधेश्याम ने जल्दी से कपड़े बदल कर होटल के कमरे का ताला लगाया और रामलाल के साथ उस के घर की ओर चल दिया.

राधेश्याम मन ही मन उस मनोवैज्ञानिक से मिलने के लिए बहुत बेचैन था. होटल से घर बहुत दूर नहीं था. जैसे ही घर पहुंचे, घर का दरवाजा खुला हुआ था, इसलिए घर के अंदर से जोर से बोलने की आवाजें बाहर साफ सुनाई दे रही थीं. वे दोनों वहीं ठिठक गए.

रामलाल की बहन चीखचीख कर कह रही थीं, ‘‘मैं आज तुझे घर से निकाल कर छोड़ूंगी. तू ने इस घर का क्या हाल बना रखा है? तू मुझे समझती क्या है?’’

रामलाल की नईनवेली बीवी कह रही थी, ‘‘तुम तो न्यूरोटिक हो, न्यूरोटिक.’’

इस पर रामलाल की बहन बोलीं, ‘‘मेरे मन की थाह लेगी. इस घर से चली जा, मेरे ठाकुरजी की बेइज्जती मत कर… समझी?’’

तब रामलाल की पत्नी की आवाज आई, ‘‘तुम्हें तो रिलीजियस फोबिया हो गया है.’’

इस पर बहन बोलीं, ‘‘सारा महल्ला मुझ से घबराता है. तू कल की छोकरी… चल, निकल मेरे घर से.’’

तब रामलाल की पत्नी की आवाज आई, ‘‘तुम में भी बहुत ज्यादा हीन भावना है.’’

रामलाल बेचारा चुपचाप सिर झुकाए खड़ा हुआ था. तब राधेश्याम ने उस के कान में कहा, ‘‘तुम फौरन जा कर अपनी पत्नी को मेरा परिचय एक महान मनोवैज्ञानिक के रूप में देना, फिर देखना सबकुछ ठीक हो जाएगा.’’

रामलाल ने राधेश्याम को अपने ड्राइंगरूम में बिठाया और पत्नी को बुलाने चला गया. उस के जाते ही राधेश्याम ने खुद को आईने में देखा कि क्या वह मनोवैज्ञानिक सा लग भी रहा है या नहीं? उसे लगा कि वह रोब झाड़ सकता है.

थोड़ी देर बाद रामलाल अपनी पत्नी के साथ आया. वह गुलाबी रंग की साड़ी बांधे हुई थी. चेहरे पर गंभीर झलक थी. बाल जूड़े से बंधे हुए थे और पैरों में कम हील की चप्पल पहने हुए थी. उस ने बहुत ही आहिस्ता से राधेश्याम से नमस्ते की.

नमस्ते के जवाब में राधेश्याम ने केवल सिर हिला दिया और बैठने का संकेत किया.

तब रामलाल ने अपनी पत्नी से कहा, ‘‘आप मेरे गुरुपुत्र हैं. कल ही विदेश से लौटे हैं. मनोवैज्ञानिक जगत में आप बड़े मशहूर हैं. विदेशों में भी.

इस पर राधेश्याम बोला, ‘‘रामलाल ने मुझे बताया कि आप साइकोलौजी में बड़ी अच्छी हैं, इसीलिए मैं आप से मिलने चला आया. कुछ सुझाव भी दूंगा. मैं आदमी को देख कर पढ़ लेता हूं, किताब के जैसे. मैं बता सकता हूं कि इस समय आप क्या सोच रही हैं?’’

रामलाल की पत्नी तपाक से बोली, ‘‘क्या…?’’

राधेश्याम ने कहा, ‘‘आप इस समय आप हीन भावना से पीडि़त हैं.’’

रामलाल की पत्नी घबरा गई और बोली, ‘‘आप मुझे अपनी शिष्या बना लीजिए.’’

इस पर राधेश्याम बोला, ‘‘अभी नहीं. अभी मेरी स्टडी चल रही है. अब से कुछ साल बाद मैं अपनी लैबोरेटरी खोलूंगा.’’

‘‘मैं ने तो अपनी लैबोरेटरी अभी से खोल ली है,’’ रामलाल की पत्नी झट से बोली.

‘‘गलती की है. अब से 10 साल बाद खोलना. मैं तुम्हें कुछ किताबें भेजूंगा, उन्हें पढ़ना. अपनी लैबोरेटरी को अभी बंद करो. मुझे मालूम हुआ है कि आप अपनी ननद से भी लड़ती हैं. उन से माफी मांगिए.’’

रामलाल की पत्नी वहां से उठ कर चली गई. रामलाल राधेश्याम से लिपट गया और वे दोनों कुछ इस तरह खिलखिला कर हंसने लगे कि ज्यादा आवाज न हो. Story In Hindi

Family Story In Hindi: मेरा बच्चा मेरा प्यार – अपने बच्चे से प्यार का एहसास

Family Story In Hindi: ‘‘बच्चे का रक्त दूषित है,’’ वरिष्ठ बाल विशेषज्ञ डा. वंदना सरीन ने लैबोरेटरी से आई ब्लड सैंपल की रिपोर्ट पढ़ने के बाद कहा. एमबीबीएस कर रहे अनेक प्रशिक्षु छात्रछात्राएं उत्सुकता से मैडम की बात सुन रहे थे. जिस नवजात शिशु की ब्लड रिपोर्ट थी वह एक छोटे से पालने के समान इन्क्यूबेटर में लिटाया गया था. उस के मुंह में पतली नलकी डाली गई थी जो सीधे आमाशय में जाती थी. बच्चा कमजोरी के चलते खुराक लेने में अक्षम था. हर डेढ़ घंटे के बाद ग्लूकोस मिला घोल स्वचालित सिस्टम से थोड़ाथोड़ा उस के पेट में चला जाता था. इन्क्यूबेटर में औक्सीजन का नियंत्रित प्रवाह था. फेफड़े कमजोर होने से सांस न ले सकने वाला शिशु सहजता से सांस ले सकता था.

बड़े औद्योगिक घराने के ट्रस्ट द्वारा संचालित यह अस्पताल बहुत बड़ा था. इस में जच्चाबच्चा विभाग भी काफी बड़ा था. आयु अवस्था के आधार पर 3 बड़ेबड़े हौल में बच्चों के लिए 3 अलगअलग नर्सरियां बनी थीं. इन तीनों नर्सरियों में 2-4 दिन से कुछ महीनों के बच्चों को हौल में छोटेछोटे थड़ेनुमा सीमेंट के बने चबूतरों पर टिके अत्याधुनिक इन्क्यूबेटरों में फूलों के समान रखा जाता था. तीनों नर्सरियों में कई नर्सें तैनात थीं. उन की प्रमुख मिसेज मार्था थीं जो एंग्लोइंडियन थीं. बरसों पहले उस के पति की मृत्यु हो गई थी. वह निसंतान थी. अपनी मातृत्वहीनता का सदुपयोग वह बड़ेबड़े हौल में कतार में रखे इनक्यूबेटरों में लेटे दर्जनों बच्चों की देखभाल में करती थी. कई बार सारीसारी रात वह किसी बच्चे की सेवाटहल में उस के सिरहाने खड़ी रह कर गुजार देती थी. उस को अस्पताल में कई बार जनूनी नर्स भी कहा जाता था.

मिसेज मार्था के स्नेहभरे हाथों में कुछ खास था. अनेक बच्चे, जिन की जीने की आशा नहीं होती थी, उस के छूते ही सहजता से सांस लेने लगते या खुराक लेने लगते थे. अनेक लावारिस बच्चे, जिन को पुलिस विभाग या समाजसेवी संगठन अस्पताल में छोड़ जाते थे, मिसेज मार्था के हाथों नया जीवन पा जाते थे. मिसेज मार्था कई बार किसी लावारिस बच्चे को अपना वारिस बनाने के लिए गोद लेने का इरादा बना चुकी थी. मगर इस से पहले कोई निसंतान दंपती आ कर उस अनाथ या लावारिस को अपना लेता था. मिसेज मार्था स्नेहपूर्वक उस बच्चे को आशीष दे, सौंप देती. वरिष्ठ बाल विशेषज्ञ डा. वंदना सरीन दिन में 3 बार नर्सरी सैक्शन का राउंड लगाती थीं. उन को मिसेज मार्था के समान नवशिशु और आंगनवाटिका में खिले फूलों से बहुत प्यार था. दोनों की हर संभव कोशिश यही होती कि न तो वाटिका में कोई फूल मुरझाने पाए और न ही नर्सरी में कोई शिशु. डा. वंदना सरीन धीमी गति से चलती एकएक इन्क्यूबेटर के समीप रुकतीं, ऊपर के शीशे से झांकती. रुई के सफेद फाओं के समान सफेद कपड़े में लिपटे नवजात शिशु, नरमनरम गद्दे पर लेटे थे. कई सो रहे थे, कई जाग रहे थे. कई धीमेधीमे हाथपैर चला रहे थे.

‘‘यह बच्चा इतने संतुलित ढंग से पांव चला रहा है जैसे साइकिल चला रहा है,’’ एक प्रशिक्षु छात्रा ने हंसते हुए कहा. ‘‘हर बच्चा जन्म लेते ही शारीरिक क्रियाएं करने लगता है,’’ मैडम वंदना ने उसे बताया, ‘‘शिशु की प्रथम पाठशाला मां का गर्भ होती है.’’ राउंड लेती हुई मैडम वंदना उस बच्चे के इन्क्यूबेटर के पास पहुंचीं जिस की ब्लड सैंपल रिपोर्ट लैब से आज प्राप्त हुई थी.

‘‘बच्चे को पीलिया हो गया है,’’ वरिष्ठ नर्स मिसेज मार्था ने चिंतातुर स्वर में कहा.

‘‘बच्चे का रक्त बदलना पड़ेगा,’’ मैडम वंदना ने कहा.

‘‘मैडम, यह दूषित रक्त क्या होता है?’’ एक दूसरी प्रशिक्षु छात्रा ने सवाल किया. ‘‘रक्त या खून के 3 ग्रुप होते हैं. ए, बी और एच. 1940 में रक्त संबंधी बीमारियों में एक नया फैक्टर सामने आया. इस को आरएच फैक्टर कहा जाता है.’’ सभी इंटर्न्स और अन्य नर्सें मैडम डा. वंदना सरीन का कथन ध्यान से सुन रहे थे. ‘‘किसी का रक्त चाहे वह स्त्री का हो या पुरुष का या तो आरएच पौजिटिव होता है या आरएच नैगेटिव.’’

‘‘मगर मैडम, इस से दूषित रक्त कैसे बनता है?’’ ‘‘फर्ज करो. एक स्त्री है, उस का रक्त आरएच पौजिटिव है. उस का विवाह ऐसे पुरुष से होता है जिस का रक्त आरएच नैगेटिव है. ऐसी स्त्री को गर्भ ठहरता है तब संयोग से जो भ्रूण मां के गर्भ में है उस का रक्त आरएच नैगेटिव है यानी पिता के फैक्टर का है. ‘‘तब मां का रक्त गर्भ में पनप रहे भू्रण की रक्त नलिकाओं में आ कर उस के नए रक्त, जो उस के पिता के फैक्टर का है, से टकराता है. और तब भ्रूण का शरीर विपरीत फैक्टर के रक्त को वापस कर देता है. मगर अल्पमात्रा में कुछ विपरीत फैक्टर का रक्त शिशु के रक्त में मिल जाता है.’’ ‘‘मैडम, आप का मतलब है जब विपरीत फैक्टर का रक्त मिल जाता है तब उस को दूषित रक्त कहा जाता है?’’ सभी इंटर्न्स ने कहा.

‘‘बिलकुल, यही मतलब है.’’

‘‘इस का इलाज क्या है?’’

‘‘ट्रांसफ्यूजन सिस्टम द्वारा शरीर से सारा रक्त निकाल कर नया रक्त शरीर में डाला जाता है.’’

‘‘पूरी प्रक्रिया का रक्त कब बदला जाएगा?’’

‘‘सारे काम में मात्र 10 मिनट लगेंगे.’’ ब्लडबैंक से नया रक्त आ गया था. उस को आवश्यक तापमान पर गरम करने के लिए थर्मोस्टेट हीटर पर रखा गया. बच्चे की एक हथेली की नस को सुन्न कर धीमेधीमे बच्चे का रक्त रक्तनलिकाओं से बाहर निकाला गया. फिर उतनी ही मात्रा में नया रक्त प्रविष्ट कराया गया. मात्र 10 मिनट में सब संपन्न हो गया. सांस रोके हुए सब यह क्रिया देख रहे थे. रक्त बदलते ही नवशिशु का चेहरा दमकने लगा. वह टांगें चलाने लगा. सब इंटर्न्स खासकर वरिष्ठ नर्स मिसेज मार्था का उदास चेहरा खिल उठा. शिशु नर्सरी के बाहर उदास बैठे बच्चे के मातापिता मिस्टर ऐंड मिसेज कोहली के चेहरों पर चिंता की लकीरें थीं. ‘अभी मौजमेला करेंगे, बच्चा ठहर कर पैदा करेंगे,’ इस मानसिकता के चलते दोनों ने बच्चा पैदा करने की सही उम्र निकाल दी थी. मिस्टर कोहली की उम्र अब 40 साल थी. मिसेज कोहली 35 साल की थीं. पहला बच्चा लापरवाही के चलते जाता रहा था.

प्रौढ़ावस्था में उन को अपनी क्षणभंगुर मौजमस्ती की निरर्थकता का आभास हुआ था. बच्चा गोद भी लिया जा सकता था. परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया था क्योंकि उन्हें अपना रक्त चाहिए था. उन दोनों के मन में कई तरह के सवाल घूम रहे थे. एक पल उन्हें लगा कि पता नहीं उन का बच्चा बचेगा कि नहीं, उन का वंश चलेगा या नहीं? उन्हें आज अपनी गलती का एहसास हो रहा था कि काश, उन्होंने अपनी मौजमस्ती पर काबू किया होता और सही उम्र में बच्चे की प्लानिंग की होती. हर काम की एक सही उम्र होती है. इसी बीच शिशु नर्सरी का दरवाजा खुला. वरिष्ठ नर्स मिसेज मार्था ने बाहर कदम रखा और कहा, ‘‘बधाई हो मिस्टर कोहली ऐंड मिसेज कोहली. आप का बच्चा बिलकुल ठीक है. कल अपना बच्चा घर ले जाना.’’

दोनों पतिपत्नी ने उठ कर उन का अभिवादन किया. वरिष्ठ नर्स ने उन को अंदर जाने का इशारा किया. पति ने पत्नी की आंखों में झांका, पत्नी ने पति की आंखों में. दोनों की आंखों में एकदूसरे के प्रति प्यार के आंसू थे. दोनों ने बच्चे के साथसाथ एकदूसरे को पा लिया था. Family Story In Hindi

Family Story In Hindi: अब आएगा मजा – कैसे सिया ने अपनी सास का दिल जीता?

Family Story In Hindi: ‘‘अब आएगा मजा. पता चलेगा बच्चू को जब सारे नखरे ढीले हो जाएंगे. मां को नचाना आसान है न. मां हूं न. मैं ने तो ठेका लिया है सारे नखरे उठाने का,’’ सुनंदा अपने बेटे राहुल को सुनाती हुई किचन में काम कर रही थी. मां के सारे ताने सुनता राहुल मंदमंद मुसकराता हुआ फोन पर सिया से चैट करने में व्यस्त था.

कपिल ने मांबेटे की अकसर होने वाली तानेबाजी का आनंद उठाते हुए, धीरेधीरे हंसते हुए बेटे से कहा, ‘‘वैसे तुम परेशान तो बहुत करते हो अपनी मां को, चुपचाप नाश्ते में पोहा खा लेते तो इतने ताने क्यों सुनते. तन्वी को देखो, जो मां देती है, आराम से खा लेती है बिना कोई नखरा किए.’’

‘‘हां पापा, पर मैं क्या करूं. मुझे शौक है अच्छेअच्छे, नएनए खाना खाने का. मुझे नहीं खाना है संडे को सुबहसुबह पोहा. अरे संडे है, कुछ तो स्पैशल होना चाहिए न, पापा.’’

किचन से ही सुनंदा की आवाज आई, ‘‘हांहां, बना रही हूं, कितना स्पैशल खाओगे संडे को.’’

राहुल हंस दिया. यह रोज का तमाशा था, खानेपीने का शौकीन राहुल सुनंदा की नाक में दम कर के रखता था. घर का सादा खाना उस के गले से नहीं उतरता था. उसे रोज कोई न कोई स्पैशल आइटम चाहिए होता था. सुनंदा उस के नखरे पूरे करतेकरते थक जाती थी. पर अब उसे इंतजार था राहुल के विवाह का. एक महीने बाद ही राहुल का सिया से विवाह होने वाला था. राहुल और सिया की

3 साल की दोस्ती प्रेम में बदली तो दोनों ने विवाह का निर्णय ले लिया था. दोनों के परिवारों ने इस विवाह पर अपनी सहमति सहर्ष प्रकट की थी.

सुनंदा को इस बात की खुशी थी कि राहुल के नखरों से छुट्टी मिलेगी. राहुल स्वभाव से मृदुभाषी, सभ्य लड़का था पर खाने के मामले में वह कभी समझौता नहीं करता था. जो मन होता था, वही चाहिए होता था. आजकल सुनंदा का रातदिन यही कहना था, ‘‘कर लो थोड़े दिन और नखरे, बीवी आएगी न, तो सुधार देगी. अब आएगा मजा, पता चलेगा, ये सारे नखरे मां ही उठा सकती है.’’ सिया से जब सुनंदा मिली तो मधुर स्वभाव, शांत, हंसमुख, सुंदर, मौडर्न सिया उसे देखते ही पसंद आ गई. कपिल एक कंपनी में जनरल मैनेजर थे, तन्वी राहुल से 3 साल छोटी थी. वह अभी पढ़ रही थी. कपिल और तन्वी को भी सिया पसंद आई थी. सिया अच्छे पद पर कार्यरत थी. विवाह की तिथि नजदीक आती जा रही थी और सुनंदा का ‘अब आएगा मजा’ कहना बढ़ता ही जा रहा था. हंसीमजाक और उत्साह के साथ तैयारियां जोरों पर थीं.

राहुल ने एक दिन कहा, ‘‘मां, आजकल आप बहुत खुश दिखती हैं. अच्छा लग रहा है.’’ कपिल और तन्वी भी वहीं बैठे थे. कपिल ने कहा, ‘‘हां, सास जो बनने जा रही है.’’ सुनंदा ने कहा, ‘‘नहीं, मुझे बस उस दिन का इंतजार है जब राहुल खाने के साथ समझौता करेगा, तो मैं कहूंगी, ‘बेटा, सुधर गए न’.’’

सब इस बात पर हंस पड़े. सुनंदा ने अत्यंत उत्साहपूर्वक कहा, ‘‘बस, अब आएगा मजा. सिया औफिस जाएगी या इस के नखरे उठाएगी. बस, अब मेरा काम खत्म. यह जाने या सिया जाने. मैं तो बहुत दिन नाच ली इस के इशारों पर.’’

तन्वी ने कहा, ‘‘मां, पर भाभी तो कुकिंग जानती हैं.’’

‘‘सब कहने की बात है, औफिस जाएगी या बैठ कर इस के लिए खाना बनाएगी. मैं तो बहुत उत्साहित हूं. बहुत मजा आएगा.’’ राहुल मंदमंद मुसकराता रहा, सुनंदा उसे जी भर कर छेड़ती रही.

विवाह खूब अच्छी तरह से संपन्न हुआ. सिया घर में बहू बन कर आ गई. दोनों ने 15 दिनों की छुट्टी ली थी. विवाह के बाद सब घर समेटने में व्यस्त थे. यह मुंबई शहर के मुलुंड की एक सोसायटी में थ्री बैडरूम फ्लैट था. सिया का मायका भी थोड़ा दूर ही था. औफिस जाने का भी समय आ गया. सिया का औफिस पवई में था. राहुल का अंधेरी में. औफिस जाने वाले दिन सिया भी जल्दी उठ गई. राहुल ने आदतन पूछा, ‘‘मां, नाश्ते में क्या है?’’

‘‘आलू के परांठे.’’

‘‘नहीं मां, इतना हैवी खाने का मन नहीं है.’’

सुनंदा ने राहुल को घूरा, फिर कहा, ‘‘सब का टिफिन तैयार कर दिया है. टिफिन में आलू की सब्जी बनाई थी, तो यही नाश्ता भी बना लिया.’’ सिया ने कहा, ‘‘अरे मां, आप ने क्यों सब बना लिया. मैं तैयार हो कर आ ही रही थी.’’

‘‘कोई बात नहीं सिया, आराम से हो जाता है सब. तुम्हें औफिस भी जाना है न.’’

राहुल ने कहा, ‘‘मां, मेरे लिए एक सैंडविच बना दो न.’’

सिया ने कहा, ‘‘हां, मैं बना देती हूं. आलू के परांठे तो हैं ही, कितना टाइम लगेगा, झट से बन जाएंगे.’’

अचानक एक ही पल में राहुल और सुनंदा ने एकदूसरे को देखा. आंखों में कई सवालजवाब हुए. तन्वी भी वहीं खड़ी थी. उस ने राहुल को देखा और फिर दोनों हंस दिए. ‘‘मैं 2 मिनट में बना कर लाई,’ कह कर सिया किचन में चली गई. मां की मुसकराहट झेंपभरी थी जबकि बेटी की मुसकराहट में शरारत थी. उम्मीद से जल्दी ही सिया सैंडविच बना लाई. सब नाश्ता कर के अपनेअपने काम पर चले गए. तन्वी अपने कालेज चली गई.

शाम को ही सब आगेपीछे लौटे. सुनंदा डिनर की काफी तैयारी कर के रखती थी. डिनर पूरी तरह से राहुल की पसंद का था तो सब ने खुशनुमा माहौल में खाना खाया. 3-4 दिन और बीते. सिया सुनंदा के काम में भरसक हाथ बंटाने लगी थी. एक दिन डिनर के समय राहुल ने कहा, ‘‘मैं नहीं खाऊंगा यह दालसब्जी.’’ सुनंदा ने राहुल को घूरा, ‘‘चुपचाप खा लो, साढ़े 8 बज रहे हैं. अब क्या कुछ और बनेगा.’’

‘‘नहीं मां, यह दालसब्जी मैं नहीं खाऊंगा.’’ खाना पूरी तरह से लग चुका था. सिया के सामने यह दूसरा ही मौका था. मांबेटे एकदूसरे को घूर रहे थे. कपिल और तन्वी मुसकराते हुए सब को देख रहे थे. सिया ने कहा, ‘‘अच्छा बताओ, राहुल, क्या खाना है?’’

‘‘कुछ भी चलेगा, पर यह नहीं.’’

‘‘औमलेट बना दूं?’’

‘‘हां, अच्छा रहेगा, साथ में एक कौफी भी मिलेगी?’’

‘‘हां, क्यों नहीं, आप लोग बैठो, मैं अभी बना कर लाई.’’

राहुल सुनंदा को देख कर मुसकराने लगा तो वह भी हंस ही दी. सिया बहुत जल्दी सब बना लाई. बातोंबातों में सिया ने कहा, ‘‘मां, राहुल आप को बहुत परेशान करते हैं न, मैं ही इन की पसंद का कुछ न कुछ बनाती रहूंगी. आप का काम भी हलका रहेगा.’’ सुनंदा ने हां में गरदन हिला दी.एकांत में कपिल ने कहा, ‘‘सुनंदा, तुम्हें तो बहुत अच्छी बहू मिल गई है.’’

‘‘हां, पर यह थोड़े दिन के शौक हैं. उस के नखरे उठाना आसान बात नहीं है.’’ शनिवार, रविवार सब की छुट्टी ही रहती थी. दोनों दिन कुछ स्पैशल ही बनता था. सिया ने सुबह ही सुनंदा से कहा, ‘‘ये 2 दिन कुछ स्पैशल बनता है न, मां? आज और कल मैं ही बनाऊंगी. आप ये 2 दिन आराम करना.’’

‘‘नहीं, बेटा, मिल कर बना लेंगे, पूरा हफ्ता तुम्हारी भी तो भागदौड़ रहती है.’’

राहुल वहीं आ कर बैठता हुआ बोला, ‘‘हां मां, आप वीकैंड पर थोड़ा आराम कर लो, आप को भी तो आराम मिलना चाहिए.’’ सुनंदा को बेटेबहू की यह बात सुन कर अच्छा लगा. सिया ने पूछा, ‘‘मां, नाश्ते में क्या बनेगा?’’

राहुल ने फौरन कहा, ‘‘बढि़या सैंडविच.’’

‘‘और लंच में?’’

सुनंदा ने कहा, ‘‘मैं ने छोले भिगोए थे रात में.’’

‘‘नहीं मां, आज नहीं, पिछले संडे भी खाए थे, कुछ और खाऊंगा.’’

‘‘राहुल, क्यों हमेशा काम बढ़ा देते हो?’’

‘‘मां, कुछ चायनीज बनाओ न.’’

‘‘उस की तो कुछ भी तैयारी नहीं है.’’

सिया ने फौरन कहा, ‘‘मां, आप परेशान न हों. छोले भी बन जाएंगे. एक चायनीज आइटम भी.’’ सिया किचन में चली गई. सुनंदा हैरान सी थी, यह कैसी लड़की है, कुछ मना नहीं करती. राहुल की पसंद के हर खाने को बनाने के लिए हमेशा तैयार. छुट्टी के दोनों दिन सिया उत्साहपूर्वक राहुल और सब की पसंद का खाना बनाने में व्यस्त रही. सोमवार से फिर औफिस का रूटीन शुरू हो गया. जैसे ही सिया को अंदाजा होता कि नाश्ताखाना राहुल की पसंद का नहीं है, वह झट से किचन में जाती और कुछ बना लाती. सुनंदा हैरान सी सिया की एकएक बात नोट कर रही थी. 2 महीने बीत रहे थे, इतने कम समय में ही सिया घर में पूरी तरह हिलमिल गई थी. सुनंदा को उस का राहुल का इतना ध्यान रखना बहुत भाता था.

पिछले कुछ सालों से किसी न किसी शारीरिक अस्वस्थता के चलते सुनंदा खाना इस तरह से बना रही थी कि उसे किचन में ज्यादा न खड़ा होना पड़े, इसलिए कई चीजें तो घर में बननी लगभग छूट ही चुकी थीं. अब सिया घर में आई तो किचन की रूपरेखा ही बदल गई. उसे हर तरह का खाना बनाना आता था. वह कुकिंग में इतनी ऐक्सपर्ट थी कि सुनंदा ने भी जो चीजें कभी नहीं बनाई थीं, वह उत्साहपूर्वक सब को बना कर खिलाने लगी. सुनंदा तो सिया की लाइफस्टाइल पर हैरान थी. सुबह 6 बजे उठ कर सिया किचन के खूब काम निबटा देती. छुट्टी वाले दिन तो सब इंतजार करने लगे थे कि आज क्या बनेगा. सुनंदा ने तो कभी सोचा ही नहीं था कि इतनी मौडर्न लड़की किचन इस तरह संभाल लेगी.

एक संडे को सब लंच करने बैठे. सिया ने छोलेभठूरे बनाए थे. सब ने वाहवाह करते हुए खाना शुरू ही किया था कि राहुल ने कहा, ‘‘मार्केट में छोलों पर गोलगोल कटे हुए प्याज अच्छे लगते हैं न.’’ सुनंदा ने राहुल को घूरा. सिया ने कहा, ‘‘गोल काट कर लाऊं?’’

सुनंदा ने कहा, ‘‘रहने दो सिया, इस के नखरे उठाना बहुत मुश्किल है, थक जाओगी.’’

सिया उठ खड़ी हुई, ‘‘एक मिनट लगेगा, लाती हूं.’’

सुनंदा सोच रही थी कि राहुल के नखरे कम तो क्या हुए, बढ़ते ही जा रहे हैं. उसे सोचता देख कपिल ने पूछा, ‘‘अरे, तुम क्या सोचने लगी?’’

‘‘कुछ नहीं.’’

राहुल ने शरारत से हंसते हुए कहा, ‘‘मुझे पता है, मां क्या सोच रही है.’’ सुनंदा ने घूरा, ‘‘अच्छा, बताना?’’

राहुल हंसा, ‘‘मां कहती थी न, विवाह होने दो, बच्चू को मजा आएगा, तो मां, मजा तो आ रहा है न?’’ सब हंस पड़े. सुनंदा झेंप गई. इतने में एक प्लेट में गोलगोल पतलेपतले प्याज सजा कर लाती हुई सिया ने पूछा, ‘‘क्या हुआ, किसे मजा आ रहा है?’’ सब मुसकरा रहे थे. राहुल ने मां को छेड़ा, ‘‘इस समय तो सब को आ रहा है. जानती हो, सिया, मां को हमारे विवाह से पहले ही पता था कि बहुत मजा आएगा. है न मां?’’ सब  हंस रहे थे तो झेंपती हुई सुनंदा भी सब के साथ हंसी में शामिल हो गई. सिया को पूरी बात समझ तो नहीं आई थी पर वह मांबेटे की आंखों में चलती छेड़छाड़ को समझने की कोशिश कर रही थी. Family Story In Hindi

Hindi Family Story: मेहमान – रवि आखिर क्यों हो रहा था इतना उतावला

Hindi Family Story: रवि ने उस दिन की छुट्टी ले रखी थी. दफ्तर में उन दिनों काम कुछ अधिक ही रहने लगा था. वैसे काम इतना अधिक नहीं था. परंतु मंदी के मारे कंपनी में छंटनी होने का डर था इसलिए सब लोग काम मुस्तैदी से कर रहे थे. बिना वजह छुट्टी कोई नहीं लेता था. क्या पता, छुट्टियां लेतेलेते कहीं कंपनी वाले नौकरी से ही छुट्टी न कर दें.

रवि का दफ्तर घर से 20 किलोमीटर दूर था. वह बस द्वारा भूमिगत रेलवे स्टेशन पहुंचता और वहां से भूमिगत रेलगाड़ी से अपने दफ्तर पहुंचता. 9 बजे दफ्तर पहुंचने के लिए उसे घर से साढ़े सात बजे ही चल देना पड़ता था. उसे सवेरे 6 बजे उठ कर दफ्तर के लिए तैयारी करनी पड़ती थी. वह रोज उठ कर अपने और विभा के लिए सवेरे की चाय बनाता था. फिर विभा उठ कर उस के लिए दोपहर का भोजन तैयार कर डब्बे में रख देती, फिर सुबह का नाश्ता बनाती और फिर रवि तैयार हो कर दफ्तर चला जाता था.

विभा विश्वविद्यालय में एकवर्षीय डिप्लोमा कोर्स कर रही थी. उस की कक्षाएं सवेरे और दोपहर को होती थीं. बीच में 12 से 2 बजे के बीच उस की छुट्टी रहती थी. घर से उस विश्वविद्यालय की दूरी 8 किलोमीटर थी. उन दोनों के पास एक छोटी सी कार थी. चूंकि रवि अपने दफ्तर आनेजाने के लिए सार्वजनिक यातायात सुविधा का इस्तेमाल करता था इसलिए वह कार अधिकतर विभा ही चलाती थी. वह कार से ही विश्वविद्यालय जाती थी. घर की सारी खरीदारी की जिम्मेदारी भी उसी की थी. रवि तो कभीकभार ही शाम को 7 बजे के पहले घर आ पाता था. तब तक सब दुकानें बंद हो जाती थीं. रवि को खरीदारी करने के लिए शनिवार को ही समय मिलता था. उस दिन घर की खास चीजें खरीदने के लिए ही वह रवि को तंग करती थी वरना रोजमर्रा की चीजों के लिए वह रवि को कभी परेशान नहीं होने देती.

रवि को पिताजी के आप्रवास संबंधी कागजात 4 महीने पहले ही मिल पाए थे. उस के लिए रवि ने काफी दौड़धूप की थी. रवि खुश था कि कम से कम बुढ़ापे में पिताजी को भारत के डाक्टरों या अस्पतालों के धक्के नहीं खाने पड़ेंगे. इंगलैंड की चिकित्सा सुविधाएं सारी दुनिया में विख्यात हैं. यहां की ‘राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा’ सब देशों के लिए एक मिसाल है. खासतौर से पिताजी को सारी सुविधाएं 65 वर्ष से ऊपर की उम्र के होने के कारण मुफ्त ही मिलेंगी.

हालांकि भारत से लंदन आना आसान नहीं परंतु 3-3 कमाऊ बेटों के होते उन के टिकट के पैसे जुटाना मुश्किल नहीं था. खासतौर पर जबकि रवि लंदन में अच्छी नौकरी पर था. जब विभा का डिप्लोमा पूरा हो जाएगा तब वह भी कमाने लगेगी.

लंदन में रवि 2 कमरे का मकान खरीद चुका था. सोचा, एक कमरा उन दोनों के और दूसरा पिताजी के रहने के काम आएगा. भविष्य में जब उन का परिवार बढ़ेगा तब कोई बड़ा घर खरीद लिया जाएगा.

पिछले 2 हफ्तों से रवि और विभा पिताजी के स्वागत की तैयारी कर रहे थे. घर की विधिवत सफाई की गई. रवि ने पिताजी के कमरे में नए परदे लगा दिए. एक बड़ा वाला नया तौलिया भी ले आया. पिताजी हमेशा ही खूब बड़ा तौलिया इस्तेमाल करते थे. रवि अखबार नहीं खरीदता था, क्योंकि अखबार पढ़ने का समय ही नहीं मिलता था. किंतु पिताजी के लिए वह स्थानीय अखबार वाले की दुकान से नियमित अखबार देने के लिए कह आया. रवि जानता था कि पिताजी शायद बिना खाए रह सकते हैं परंतु अखबार पढ़े बिना नहीं.

रवि से पूछपूछ कर विभा ने पिताजी की पसंद की सब्जियां व मिठाइयां तैयार कर ली थीं. रवि और विभा की शादी हुए 3 साल होने को जा रहे थे. पहली बार घर का कोई आ रहा था और वह भी पिताजी. रवि और विभा बड़ी बेसब्री से उन के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे.

रवि ने एअर इंडिया वालों को साढ़े 11 बजे फोन किया. सूचना मिली, हवाई जहाज 4 बजे ही पहुंचने वाला था. रवि ने फिर 1 बजे एअर इंडिया के दफ्तर में फोन किया. इस बार एअर इंडिया वाले ने रवि की आवाज पहचान ली. वह झुंझला गया, ‘‘आप के खयाल से क्या हर 5 किलोमीटर के बाद विमानचालक मुझे बताता है कि कब हवाई जहाज पहुंचने वाला है. दिल्ली से सीधी उड़ान है. ठीक समय पर ही पहुंचने की उम्मीद है.’’

उस की बात सुन कर रवि चुप हो गया.

विमान साढ़े 4 बजे लंदन हवाई अड्डे पर उतर गया. रवि ने चैन की सांस ली. पिताजी को सरकारी कार्यवाही निबटाने में कोई परेशानी नहीं हुई. वे साढ़े पांच बजे अपना सामान ले कर बाहर आ गए. रवि पिताजी को देख कर खुशी से नाच उठा. खुशी के मारे उस की आंखों में आंसू आ गए.

विभा ने पिताजी के चरण छुए. फिर उन से उन का एअरबैग ले लिया. रवि ने उन की अटैची उठा ली. शाम के पौने 6 बजे वे घर की ओर रवाना हो गए. उस समय सभी दफ्तरों और दुकानों के बंद होने का समय हो गया था. अत: सड़क पर गाडि़यां ही गाडि़यां नजर आ रही थीं. घर पहुंचतेपहुंचते 8 बज गए. पिताजी सोना चाहते थे. सफर करने के कारण रात को सो नहीं पाए थे. दिल्ली में तो उस समय 2 बजे होंगे. इसलिए उन्हें नींद नहीं आ रही थी. विभा रसोई में फुलके बनाने लगी. रवि ने पिताजी के थैले से चीजें निकाल लीं. पिताजी मिठाई लाए थे. रवि ने मिठाई फ्रिज में रख दी. विभा सब्जियां गरम कर रही थी और साथ ही साथ फुलके भी बना रही थी. हर रोज तो जब वह फुलके बनाती थी तो रवि ‘माइक्रोवेव’ में सब्जियां गरम कर दिया करता था परंतु उस दिन रवि पिताजी के पास ही बैठा था.

विभा ने खाने की मेज सजा दी. रवि और पिताजी खाना खाने आ गए. पिताजी ने बस एक ही फुलका खाया. उन को भूख से अधिक नींद सता रही थी. खाने के पश्चात पिताजी सोने चले गए. रवि बैठक में टीवी चला कर बैठ गया.

विभा ने रवि को बुलाया, ‘‘जरा मेरी मदद कर दो. अकेली मैं क्याक्या काम करूंगी?’’
विभा ने सोचा कि आज रवि को क्या हो गया है? उसे दिखता नहीं कि रसोई का इतना सारा काम निबटाना है बाकी बची सब्जियों को फ्रिज में रखना है. खाने की मेज की सफाई करनी है. हमेशा तो जब विभा बरतन मांजती थी तब रवि रसोई संवारने के लिए ऊपर के सारे काम समेट दिया करता था.

रवि कुछ सकुचाता हुआ रसोई में आया और कुछ देर बाद ही बिना कुछ खास मदद किए बैठक में चला गया. विभा को रसोई का सारा काम निबटातेनिबटाते साढ़े 10 बज गए.

वह बहुत थक गई थी. अत: सोने चली गई.

सवेरे अलार्म बजते ही रवि उठ बैठा और उस ने विभा को उठा दिया, ‘‘कुछ देर और सोने दीजिए. अभी आप ने चाय कहां बनाई है?’’ विभा बोली.

‘‘चाय तुम्हीं बनाओ. पिताजी के सामने अगर मैं चाय बनाऊंगा तो वे क्या सोचेंगे?’’

पिताजी तो पहले ही उठ गए थे. उन को लंदन के समय के अनुसार व्यवस्थित होने में कुछ दिन तो लगेंगे ही. सवेरे की चाय तीनों ने साथ ही पी. रवि चाय पी कर तैयार होने चला गया. विभा दरवाजे के बाहर से सवेरे ताजा अखबार ले आई. पिताजी अखबार पढ़ने लगे. पता नहीं, पिताजी कब और क्या नाश्ता करेंगे?

उस ने खुद पिताजी से पूछ लिया, ‘‘नाश्ता कब करेंगे, पिताजी?’’

‘‘9 बजे कर लूंगा, पर अगर तुम्हें कहीं जाना है तो जल्दी कर लूंगा,’’ पिताजी ने कहा.

तब तक रवि तैयार हो कर आ गया. उस ने तो वही हमेशा की तरह का नाश्ता किया. टोस्ट और दूध में कौर्नफ्लैक्स.

‘‘विभा, पिताजी ऐसा नाश्ता नहीं करेंगे. उन को तो सब्जी के साथ परांठा खाने की आदत है और एक प्याला दूध. तुम कोई सब्जी बना लेना थोड़ी सी. दोपहर को खाने में कल शाम वाली सब्जियां नहीं चलेंगी. दाल और सब्जी बना लेना,’’ रवि बोला. दफ्तर जातेजाते पिताजी की रुचि और सुविधा संबंधी और भी कई बातें रवि विभा को बताता गया.

विभा को 10 बजे विश्वविद्यालय जाना था परंतु पिताजी का नाश्ता और भोजन तैयार करने की वजह से वह पढ़ने न जा सकी.

उस ने 2 परांठे बनाए और आलू उबाल कर सूखी सब्जी बना दी. वह सोचने लगी, ‘पता नहीं भारत में लोग नाश्ते में परांठा और सब्जी कैसे खा लेते हैं? यदि मुझ से नाश्ते में परांठासब्जी खाने के लिए कोई कहे तो मैं तो उसे एक सजा ही समझूंगी.’

‘‘विभा बेटी, मैं जरा नमक कम खाता हूं और मिर्चें ज्यादा,’’ पिताजी ने प्यार से कहा.

‘बापबेटे की रुचि में कितना फर्क है? रवि को मिर्चें कम और नमक ज्यादा चाहिए,’ विभा ने सोचा, ‘कम नमकमिर्च की सब्जियां बनाऊंगी. जिस को ज्यादा नमकमिर्च चाहिए वह ऊपर से डाल लेगा.’

नाश्ते के बाद विभा ने दोपहर के लिए दाल और सब्जी बना ली. यह सब करतेकरते 11 बज गए थे. विभा ने सोचा, ‘पिताजी को 1 बजे खाना खिला कर 2 बजे विश्वविद्यालय चली जाऊंगी.’

साढ़े ग्यारह बजे उस ने फुलके बना कर खाने की मेज पर खाना लगा दिया. पिताजी ने रोटी जैसे ही खाई उन के चेहरे के कुछ हावभाव बदल गए, ‘‘शायद तुम ने सवेरे का गुंधा आटा बाहर छोड़ दिया होगा, इसलिए कुछ महक सी आ रही है,’’ पिताजी बोले.

विभा अपने को अपराधी सी महसूस करने लगी. उस को तो रोटियों में कोई महक नहीं आई, ‘कुछ घंटों पहले ही तो आटा गूंधा था. खैर, आगे से सावधानी बरतूंगी,’ विभा ने सोचा. खाना खातेखाते सवा बारह बज गए. बरतन मांजने और रसोई साफ करने का समय नहीं था. विभा सब काम छोड़ कर विश्वविद्यालय चली गई.
विश्वविद्यालय से घर आतेआते साढ़े चार बज गए. पिताजी उस समय भी सो ही रहे थे. जब उठेंगे तो चाय बनाऊंगी. यह सोच कर वह रसोई संवारने लगी.

पिताजी साढ़े पांच बजे सो कर उठे. वे हिंदुस्तानी ढंग की चाय पीते थे, इसलिए दूध और चायपत्ती उबाल कर चाय बनाई. फल काट दिए और पिताजी की लाई मिठाई तश्तरी में रख दी. चाय के बरतन धोतेधोते साढ़े छह बज गए. वह बैठक में आ गई और पिताजी के साथ टीवी देखने लगी. 7 बजे तक रवि भी आ गया.

‘‘रवि के लिए चाय नहीं बनाओगी, विभा?’’ पिताजी ने पूछा.

विभा हमेशा की तरह सोच रही थी कि रवि दफ्तर से आ कर खाना ही खाना चाहेगा परंतु दिल्ली में लोग घर में 9 बजे से पहले खाना कहां खाते हैं.

‘‘चाय बना दो, विभा. खाने के लिए भी कुछ ले आना. खाना तो 9 बजे के बाद ही खाएंगे,’’ रवि ने कहा.

विभा कुछ ही देर में रवि के लिए चाय बना लाई. रवि चाय पीने लगा.

‘‘शाम को क्या सब्जियां बना रही हो, विभा?’’ रवि ने पूछा.

‘‘सब्जियां क्या बनाऊंगी? कल की तीनों सब्जियां और छोले ज्यों के त्यों भरे रखे हैं. सवेरे की सब्जी और दाल रखी है. वही खा लेंगे,’’ विभा ने कहा.

रवि ने विभा को इशारा करते हुए कुछ इस तरह देखा जैसे आंखों ही आंखों में उस को झिड़क रहा हो.

‘‘बासी सब्जियां खिलाओगी, पिताजी को?’’ रवि रुखाई से बोला.

‘‘मैं तो आज कोई सब्जी खरीद कर लाई ही नहीं. चलिए, बाजार से ले आते हैं. विमलजी की दुकान तो खुली ही होगी. इस बहाने पिताजी भी बाहर घूम आएंगे,’’ विभा ने कहा.

रवि ने अपनी चाय खत्म कर ली थी. वह अपनी चाय का प्याला वहीं छोड़ कर शयनकक्ष में चला गया. विभा को यह बहुत अटपटा लगा. सोचा, ‘क्या हो गया है रवि को? घर में नौकर रख लिए हैं क्या, जो कल से साहब की तरह व्यवहार कर रहे हैं.’

कुछ देर बाद तीनों विमल बाबू की दुकान पर पहुंच गए. रवि की जिद थी कि खूब सारी सब्जियां और फल खरीद लिए जाएं. पिताजी जरा कुछ दूरी पर देसी घी के डब्बे की कीमत देख कर उस की कीमत रुपए में समझने की कोशिश कर रहे थे.

‘‘इतनी सारी सब्जियों का क्या होगा? कहां रखूंगी इन को? फ्रिज में?’’ विभा ने शिकायत के लहजे में कहा.

‘‘जब तक यहां पिताजी हैं तब तक घर में बासी सब्जी नहीं चलेगी. मुझे तुम्हारे पीहर का पता नहीं, परंतु हमारे यहां बासी सब्जी नहीं खाई जाती,’’ रवि दबी आवाज में यह सब कह गया.

विभा को रवि के ये शब्द कड़वे लगे.

‘‘मेरे पीहर वालों का अपमान कर के क्या मिल गया तुम्हें?’’ विभा ने कहा.

घर आते ही रवि ने विभा को ताजी सब्जियां बनाने के लिए कहा. पिताजी ने जिद की कि नई सब्जी बनाने की क्या जरूरत है जबकि दोपहर की सब्जियां बची हैं. विभा की जान में जान आई. अगर सब्जियां बनाने लग जाती तो खाना खातेखाते रात के 11 बज जाते. पिताजी रसोई में ही बैठ गए. रवि भी वहीं खड़ा रहा. वह कभी विभा के काम में हाथ बंटाता और कभी पिताजी से बातें कर लेता. खाना 9 बजे ही निबट गया. रवि और पिताजी टीवी देखने लगे.

विभा रसोई का काम सवेरे पर छोड़ कर अपने अध्ययन कक्ष में चली गई. पढ़तेलिखते रात के 12 बज गए. बीचबीच में रसोई से बरतनों के खड़कने की आवाज आती रही. शायद रवि चाय या दूध तैयार कर रहा होगा अपने और पिताजी के लिए. विभा इतना थक गई थी कि उस की हिम्मत बैठक में जा कर टीवी देखने की भी न थी. बिस्तर पर लेटते ही नींद ने उसे धर दबोचा.
अलार्म की पहली घंटी बजते ही उठ गई विभा. रसोई में चाय बनाने पहुंची. पिताजी को वहां देख कर चौंक गई. पिताजी ने रसोई को पूरी तरह से संवार दिया था. बिजली की केतली में पानी उबल रहा था. मेज पर 3 चाय के प्याले रखे थे.

‘‘आप ने इतनी तकलीफ क्यों की?’’ विभा ने कहा.

‘‘अब मेरी सफर की थकान उतर गई है. मैं यहां यही निश्चय कर के आया था कि सारा दिन टीवी देख कर अपना समय नहीं बिताऊंगा बल्कि अपने को किसी न किसी उपयोगी काम में व्यस्त रखूंगा. तुम अपना ध्यान डिप्लोमा अच्छी तरह से पूरा करने में लगाओ. घर और बाहर के कामों की जिम्मेदारी मुझ पर छोड़ दो,’’ पिताजी बोले.

पिताजी की बात सुन कर विभा की आंखें नम हो गईं. पिताजी ने रवि को आवाज दी. रवि आंखें मलता हुआ आ गया. विभा ने सोचा, ‘रवि इन को मेहमान की तरह रखने की सोच रहा था? पिताजी क्या कभी मेहमान हो सकते हैं?’ Hindi Family Story

Family Story In Hindi: क्षतिपूर्ति – शरद बाबू को किस बात की चिंता सता रही थी

Family Story In Hindi: हरनाम सिंह की जलती हुई चिता देख कर शरद बाबू का कलेजा मुंह को आ रहा था. शरद बाबू को हरनाम के मरने का दुख इस बात से नहीं हो रहा था कि उन का प्यारा दोस्त अब इस दुनिया में नहीं था बल्कि इस बात की चिंता उन्हें खाए जा रही थी कि हरनाम को 2 लाख रुपए शरद बाबू ने अपने बैंक के खाते से निकाल कर दिए थे और जिस की भनक न तो शरद बाबू की पत्नी को थी और न ही हरनाम के घरपरिवार वालों को, उन रुपयों की वापसी के सारे दरवाजे अब बंद हो चुके थे.

हरनाम का एक ही बेटा था और वह भी 10-12 साल का. उस की आंखों से आंसू थम नहीं रहे थे, और प्रीतो भाभी, हरनाम की जवान पत्नी, वह तो गश खा कर मूर्छित पड़ी थी. शरद बाबू ने सोचा कि उन्हें तो अपने 2 लाख रुपयों की पड़ी है, इस बेचारी का तो सारा जहान ही लुट गया है.

मन ही मन शरद बाबू हिसाब लगाने लगे कि 2 लाख रुपयों की भरपाई कैसे कर पाएंगे. चोर खाते से साल में 30-40 हजार रुपए भी एक तरफ रख पाए तो भी कहीं 7-8 साल में 2 लाख रुपए वापस उसी खाते में जमा हो पाएंगे. हरनाम को अगर उन्होंने दुकान के खाते से रुपए दिए होते तो आज उन्हें इतना संताप न झेलना पड़ता. उस समय वे हरनाम की बातों में आ गए थे.

हरनाम ने कहा था कि बस, एकाध साल का चक्कर है. कारोबार तनिक डांवांडोल है. अगले साल तक यह ठीकठाक हो जाएगा. जब सरकार बदलेगी और अफसरों के हाथों में और पैसा खर्च करने के अधिकार आ जाएंगे तब नया माल भी उठेगा और साथ में पुराने डूबे हुए पैसे भी वसूल हो जाएंगे.

शरद बाबू अच्छीभली लगीलगाई 10 साल की सरकारी नौकरी छोड़ कर पुस्तक प्रकाशन के इस संघर्षपूर्ण धंधे में कूद पड़े थे. उन की पत्नी का मायका काफी समृद्ध था. पत्नी के भाई मर्चेंट नेवी में कप्तान थे. बहुत मोटी तनख्वाह पाते थे. बस शरद बाबू आ गए अपनी पत्नी की बातों में. नौकरी छोड़ने के एवज में 10 लाख रुपए मिले और 5 लाख रुपए उन के सालेश्री ने दे दिए यह कह कर कि वे खुद कभी वापस नहीं मांगेंगे. अगर कभी 10-20 साल में शरद बाबू संपन्न हों तो लौटा दें, यह उन पर निर्भर करता है.

शरद बाबू को पुस्तक प्रकाशन का अच्छा अनुभव था. राज्य साहित्य अकादमी का उन का दफ्तर हर साल हजारों किताबें छापता था. जहां दूसरे लोग अपनी सीट पर बैठेबैठे ही लाखों रुपए की हेराफेरी कर लेते वहां शरद बाबू एकदम अनाड़ी थे. दूसरे लोग कागज की खरीद में घपला कर लेते तो कहीं दुकानों को कमीशन देने के मामले में हेरफेर कर लेते, कहीं किताबें लिखवाने के लिए ठेका देने के घालमेल में लंबा हाथ मार लेते. सौ तरीके थे दो नंबर का पैसा बनाने के, मगर शरद बाबू के बस में नहीं था कि किसी को रिश्वत के लिए हुक कर सकें. बकौल उन की पत्नी, शरद बाबू शुरू से ही मूर्ख रहे इस मामले में. पैसा बनाने के बजाय उन्होंने लोगों को अपना दुश्मन बना लिया था. वे अनजाने में ही दफ्तर के भ्रष्टाचार विरोधी खेमे के अगुआ बन बैठे और अब रिश्वत मिलने के सारे दरवाजे उन्होंने खुद ही बंद कर लिए थे.

मन ही मन शरद बाबू चाहते थे कि गुप्त तरीके से दो नंबर का पैसा उन्हें भी मिल जाए मगर सब के सामने उन्होंने अपनी साख ही ऐसी बना ली थी कि अब ठेकेदार व होलसेल वाले उन्हें कुछ औफर करते हुए डरते थे कि कहीं वे शरद बाबू को खुश करतेकरते रिश्वत देने के जुर्म में ही न धर लिए जाएं या आगे का धंधा ही चौपट कर बैठें.

पत्नी बिजनैस माइंडैड थी. शरद बाबू दफ्तर की हरेक बात उस से आ कर डिस्कस करते थे. पत्नी ने शरद बाबू को रिश्वत ऐंठने के हजार टोटके समझाए मगर शरद बाबू जब भी किसी से दो नंबर का पैसा मांगने के लिए मुंह खोलते, उन के अंदर का यूनियनिस्ट जाग उठता और वे इधरउधर की झक मारने लगते. अब यह सब छोड़ कर सलाह की गई कि शरद बाबू अपना धंधा खोलें. 10-12 लाख रुपए की पूंजी से उन दिनों कोई भी गधा आंखें मींच कर यह काम कर सकता था. 5 लाख रुपए उन की पत्नी ने भाई से दिलवा दिए. इन 5 लाख रुपयों को शरद बाबू ने बैंक में फिक्स्ड डिपौजिट करवा दिए. ब्याज दर ही इतनी ज्यादा थी कि 5 साल में रकम डबल हो जाती थी.

शरद बाबू के अनुभव और लगन से किताबें छापने का धंधा खूब चल निकला. हर जगह उन की ईमानदारी के झंडे तो पहले ही गड़े हुए थे. घर की आर्थिक हालत भी अच्छी थी. 5 सालों में ही शरद बाबू ने 10 लाख को 50 लाख में बदल दिया था. पूरे शहर में उन का नाम था. अब हर प्रकार की किताबें छापने लगे थे वे. प्रैस व राजनीतिक सर्कल में खूब नाम होने लगा था.

हरनाम शरद बाबू का लंगोटिया यार था. दरअसल, उसे भी इस धंधे में शरद बाबू ने ही घसीटा था. हरनाम की अच्छीभली मोटर पार्ट्स की दुकान थी. शरद बाबू की गिनती जब से शहर के इज्जतदार लोगों में होने लगी थी, बहुत से पुराने दोस्त, जो शरद बाबू की सरकारी नौकरी के वक्त उन से कन्नी काट गए थे, अब फिर से उन के हमनिवाला व हमखयाल बन गए थे.

हरनाम का मोटर पार्ट्स का धंधा डांवांडोल था. बिजनैस में आदमी एक ही काम से आजिज आ जाता है. दूर के ढोल उसे बहुत सुहावने लगते हैं. इधर, मोटर मार्केट में अनेक दुकानें खुल गई थीं, कंपीटिशन बढ़ गया था और लाभ का मार्जिन कम रह गया था. हरनाम के दिमाग में साहित्यिक कीड़ा हलचल करता रहता था. शरद बाबू से फिर मेलजोल बढ़ा तो इस नामुराद कीड़े ने अपनी हरकत और जोरों से करनी शुरू कर दी थी.

हरनाम ने अपनी मोटर पार्ट्स की दुकान औनेपौने दामों में अगलबगल की और अपनी रिहायशी कोठी में ही एक आधुनिक प्रैस लगवा ली. शुरू में शरद बाबू के कारण उसे काम अच्छा मिला मगर फिर धीरेधीरे उस की पूंजी उधारी में फंसने लगी. सरकारी अफसरों ने रिश्वत ले कर खूब मोटे और्डर तो दिला दिए मगर सरकारी दफ्तरों से बिलों का समय पर भुगतान न होने के कारण हरनाम मुश्किलों में फंसता चला गया.

हरनाम पिछले महीने शरद बाबू से क्लब में मिला तो उन से 2 लाख रुपयों की मांग कर बैठा. शरद बाबू ने कहा कि उन के पैसों का सारा हिसाबकिताब उन की पत्नी देखती है. हरनाम तो गिड़गिड़ाने लगा कि उसे कागज की बिल्टी छुड़ानी है वरना 50 हजार रुपए का और भी नुकसान हो जाएगा. खैर, किसी तरह शरद बाबू ने अपने व्यक्तिगत खाते से रकम निकाल कर दे दी.

किसे पता था कि हरनाम इतनी जल्दी इस दुनिया से चला जाएगा. सोएसोए ही चल बसा. शायद दिल का दौरा था या ब्रेन हैमरेज. आज श्मशान में खड़े लोग हरनाम की तारीफ कर रहे थे कि वह बहुत ही भला आदमी था. इतनी आसान और सुगम मौत तो कम ही लोगों को नसीब होती है.

शरद बाबू सोच रहे थे कि यह नेक बंदा तो अब नहीं रहा मगर उस के साथ नेकी कर के जो 2 लाख रुपए उन्होंने लगभग गंवा दिए हैं, उन की भरपाई कैसे होगी. हरनाम की विधवा तो पहले ही कर्ज के बोझ से दबी होगी.

हरनाम की चिता की लपटें अब और भी तेज हो गई थीं. जब सब लोगों के वहां से जाने का समय आया तो चिता के चारों तरफ चक्कर लगाने के लिए हरेक को एकएक चंदन की लकड़ी का टुकड़ा पकड़ा दिया गया. मंत्रों के उच्चारण के साथ सब को वह टुकड़ा चिता का चक्कर लगाते हुए जलती हुई अग्नि में फेंकना था. शरद बाबू जब चंदन की लकड़ी का टुकड़ा जलती हुई चिता में फेंकने के लिए आगे बढ़े तो एक अनोखा दृश्य उन के सामने आया.

उन्होंने देखा कि चिता में जलती हुई एक मोटी सी लकड़ी के अंतिम सिरे पर सैकड़ों मोटीमोटी काली चींटियां अपनी जान बचाने के लिए प्रयासरत थीं और चिता की प्रचंड आग से बाहर आने के लिए भागमभाग वाली स्थिति में थीं.

एक ठंडी आह शरद बाबू के सीने से निकली. क्या उन के दोस्त हरनाम ने इतने अधिक पाप किए थे कि चिता जलाने के लिए घुन लगी लकड़ी ही नसीब हुई. उन्होंने सोचा कि शायद वह आदमी ही खोटा था जो मरतेमरते उन्हें भी 2 लाख रुपए का चूना लगा गया.

घर आ कर सारी रात सो नहीं पाए शरद बाबू. सुबह अपनी दुकान पर न जा कर वे टिंबर बाजार पहुंच गए. वहां से 3 क्ंिवटल सूखी चंदन की लकड़ी तुलवा कर उन्होंने दुकान के बेसमैंट में रखवा दी और वसीयत करवा दी कि उन के मरने के बाद उन्हें इन्हीं लकडि़यों की चिता दी जाए.

शरद बाबू की पत्नी ने यह सब सुना तो आपे से बाहर हो गईं कि मरें आप के दुश्मन. और ये 3 लाख रुपए की चंदन की लकड़ी खरीदने का हक उन्हें किस ने दिया. शरद बाबू ने हरनाम की चिता में जलती लकड़ी से लिपटती चींटियों का सारा किस्सा पत्नी को सुना दिया और हरनाम द्वारा लिया गया उधार भी बता दिया. पत्नी थोड़ी नाराज हुईं मगर अब क्या किया जा सकता है.

हरनाम को मरे 5 साल हो गए. शरद बाबू अब शहर के मेयर हो गए थे. प्रकाशन का धंधा बहुत अच्छा चल रहा था. स्टोर में रखी चंदन की लकड़ी कब की भूल चुके थे. अब तो उन की नजर सांसद के चुनावों पर थी. एमपी की सीट के लिए पार्टी का टिकट मिलना लगभग तय हो चुका था. होता भी कैसे न, टिकट खरीदने के लिए 2 करोड़ रुपए की राशि पार्टी कार्यालय में पहुंच चुकी थी. कोई दूसरा इतनी बड़ी रकम देने वाला नहीं था.

चुनाव प्रचार के दौरान शरद बाबू एक शाम अपने चुनाव क्षेत्र से लौट रहे थे कि उन का मोबाइल बज उठा. पत्नी का फोन था.

पत्नी ने बताया कि सुबह ही नगर के बड़े सेठ घनश्याम दास की मौत हो गई है. टिंबर बाजार से रामा वुड्स कंपनी का फोन आया था कि सेठ के अंतिम संस्कार के लिए चंदन की लकड़ी कम पड़ रही है. वैसे भी जब से चंदन की तस्करी पर प्रतिबंध लगा है तब से यह महंगी और दुर्लभ होती जा रही है.

शरद बाबू की पत्नी ने उन्हें बताया कि मैं ने दुकान के स्टोर में पड़ी चंदन की लकड़ी बहुत अच्छे दामों में निकाल दी है.

पहले तो शरद बाबू को याद ही नहीं आया कि गोदाम में चंदन की लकड़ी पड़ी है. फिर उन्हें अपने दोस्त हरनाम की मौत याद आ गई और उन की चिता की लकड़ी पर रेंगती चींटियां देख कर भावुक हो कर अपने लिए चंदन की लकड़ी खरीदने का सारा मामला याद आ गया.

उधर, शरद बाबू की पत्नी कह रही थीं, ‘‘10 लाख का मुनाफा दे गई है यह चंदन की लकड़ी. यह समझ लो कि आप के दोस्त हरनाम ने अपने सारे पैसे सूद समेत लौटा दिए हैं.’’

शरद बाबू की आंखें पहली बार अपने दोस्त हरनाम की याद में छलछला उठीं. Family Story In Hindi

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