अमीरों की ऐसी हरकत ने करा डाली बेइज्जती

पूरा देश गांव वालों और गरीबों को कोसता रहता है कि वे जहां चाहे पैंट खोल कर पेशाब कर देते हैं. गनीमत है कि अब अमीरों की पोल खोल रही है. एक शंकर मिश्राजी बिजनैस क्लास का महंगा टिकट ले कर न्यूयौर्क से 26 नवंबर को दिल्ली एयर इंडिया की फ्लाइट में आ रहे थे. उन्होंने इतनी पी रखी थी कि उन्हें होश नहीं था कि क्या कर रहे हैं. उन के बराबर बैठी एक महिला को शायद उन्होंने गली की दीवार सम?ा कर उस पर पैंट खोल कर पेशाब कर दिया. ऐसा काम जो अगर गरीब या गांव वाले कर देते तो तुरंत उन की मारकुटाई शुरू हो जाती. पर ये ठहरे मिश्राजी, इन्हें कौन कुछ कहेगा.

जब मामला जनवरी के पहले सप्ताह में शिकायत करने पर सामने आया तो इस महान उच्च कोटि में जन्म लेने वाले, एक विदेशी कंपनी में काम करने वाले की खोज हुई वरना एयरलाइंस ने इस मामले को रफादफा कर दिया क्योंकि इस से जगदगुरु भारत की और एयर इंडिया कंपनी की बेइज्जती होती.

मामला खुलने के कई दिन बाद तक इस मिश्राजी को पकड़ा नहीं जा सका. उस के खिलाफ दिल्ली पुलिस ने दिल्ली में कुछ मामले दर्ज किए हैं पर पक्का है कि गवाहों के अभाव में वह कुछ साल में छूट जाएगा और देश की दीवारों पर गरीबों के लिए लिखता रहेगा कि यहां पेशाब करना मना है, जुर्म है.

मरजी से जहां भी पेशाब करना और जहां भी जितना भी पीना शायद यह भी उच्च कोटि में जन्म लेने से मिलने वाले हकों में से एक है. घरों की दीवारों पर कोई निचली जाति का पेशाब तो छोडि़ए थूक भी दे तो हंगामे खड़े हो जाते हैं पर ऊंचे लोग जो भी चाहे कर लें, उन के लिए अलग कानून हैं. ये अलग कानून किताबों में नहीं लिखे, संविधान में नहीं हैं पर हर पुलिस वाले के मन में हैं, हर बेचारी औरत के मन में हैं और जजों के मन में लिखे हुए हैं.

गरीबों के मकान ढहा दो, गांवों की जमीन सस्ते में सरकार खरीद ले, सरकार किसान से ट्रैक्टर, खाद, डीजल पर जम कर टैक्स ले पर उस की फसल की उसे सही कीमत न दे या ऐसा माहौल बना दे कि प्राइवेट व्यापारी भी न दे, यह मंजूर है.

भारत की गंदगी के लिए ऊंची जातियां ज्यादा जिम्मेदार हैं क्योंकि जब वे घरों या फैक्टरियों से कूड़ा निकालती हैं तो चिंता नहीं करतीं कि कौन कैसे इन्हें निबटाएगा और उस का हाल क्या होगा. उन के लिए तो सफाई वाले दलित, किसान, मजदूर और हर जाति की औरतें एक बराबर हैं. शंकर मिश्रा को तलब लगी होती तो भी वह किसी पुरुष पर पेशाब नहीं करता. एक प्रौढ़ औरत को उस की दबीछिपी ऊंची भावना ने नीच मान रखा है और उस पर पेशाब कर डाला.

अब देश की सारी दीवारों से ‘यहां पेशाब करना मना है’ मिटा देना चाहिए और अगर लगाना है तो एयर इंडिया की फ्लाइटों में लगाएं और औरत पैसेंजरों को पेशाब प्रूफ किट दें जैसे कोविड के दिनों में दी गई थीं. ऊंची जाति वालों का राज आज जोरों पर है. ऐसे मामले और कहां हो रहे होंगे, पर खबर नहीं बन रहे, क्या पता. यह भी तो डेढ़ महीने बाद सामने आया.

 

उच्चतम न्यायालय : एक अदृश्य शिकंजा

देश में आजकल राजनीतिक मंच पर एक रोचक प्रहसन चल रहा है. जिसे देश देख रहा है. इसमें देश के उच्चतम न्यायालय अर्थात सुप्रीम कोर्ट पर अपना प्रभाव नहीं देखकर, प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी की सरकार के कानून मंत्री लगातार अलग-अलग वेशभूषा में आकर कभी कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट का वे सम्मान करते हैं ,कभी कहते हैं कि हमारा उच्चतम न्यायालय स्वतंत्र है और धीरे से स्थितियां यह बनाने का प्रयास किया जा रहा है कि देश का उच्चतम न्यायालय पूरी तरह उनके अंकुश में आ जाए.

दरअसल ,यह सरकार के अनुरूप,  पूर्ववर्ती परंपराओं और कॉलेजियम सिस्टम के कारण नहीं हो पा रहा है. आज केंद्र में बैठी सरकार की सारी कवायद इसी में लगी हुई है कि किसी भी तरह उच्चतम न्यायालय पर अपना अंकुश हो जाए.

वर्तमान में न्यायाधीशों की नियुक्ति एक कॉलेजियम सिस्टम के तहत हो रही हैं जिसमें सरकार का कोई दखल नहीं है. ऐसे में नरेंद्र दामोदरदास मोदी की सरकार चाहती है कि किसी तरह कुछ ऐसी बात बन जाए कि जिस तरह अन्य संवैधानिक संस्थाओं सहित सीबीआई प्रवर्तन निदेशालय में नियुक्ति की डोर केंद्र सरकार के पास है वैसा ही कुछ उच्चतम न्यायालय में भी हो जाए तो अपने मनमाफिक न्यायाधीश बैठाकर देश को अपनी  एकांगी  मंशा के अनुरूप देश पर स्वतंत्र रूप से सत्ता संचालन किया जाए. आज यह प्रयास इसी पटकथा के तहत किया जा रहा है. इस तरह हम कह सकते हैं कि देश आज एक जैसे चौराहे पर खड़ा है जो लोकतंत्र के लिए खतरनाक है. ऐसे में देश में लोकतंत्र को बचाने वली शक्तियों को आज अपनी भूमिका निभानी होगी.

नरेंद्र मोदी के कानून मंत्री किरेन रिजीजू ने मौका मिलते ही 22 जनवरी 2022 को  को हाई कोर्ट के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश के विचारों का समर्थन करने की कोशिश की है, उनके मुताबिक -“सुप्रीम कोर्ट ने खुद न्यायाधीशों की नियुक्ति का फैसला कर संविधान का ‘अपहरण’ किया है.”

देश जानता है कि हालिया समय में उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया को लेकर सरकार और न्यायपालिका के बीच टकराव बढ़ा है. ऐसे समय में यह बयान आना यह बताता है कि कौन-कौन कितना गिर और  उठ सकता है. अगर सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम सिस्टम के तहत नियुक्तियां कर रही है  तो आज केंद्र में बैठे हुए सत्ताधारिओं को पीड़ा क्यों हो रही है.

कानून मंत्री की मंशा

कानून मंत्री किरण रिजीजू ने दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति आरएस सोढ़ी (सेवानिवृत्त) के एक साक्षात्कार का वीडियो साझा करते हुए कहा -” यह एक न्यायाधीश की आवाज है और अधिकांश लोगों के इसी तरह के समझदारीपूर्ण ‘विचार’ हैं. यहां यह भी समझना आवश्यक है कि आज केंद्र सरकार आंख बंद कर चाहती है कि उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति उसके मुंहर से होनी चाहिए. समझने वाली बात यह है कि अगर कोई एक पार्टी जो सत्ता में आ जाती है और उसे 5 साल के लिए उसे जनादेश मिला है वह अपने लाभ के लिए लंबे समय तक का कोई फैसला कैसे ले सकती है.

साक्षात्कार में न्यायमूर्ति सोढ़ी ने यह भी कहा कि शीर्ष अदालत कानून नहीं बना सकती, क्योंकि उसके पास ऐसा करने का अधिकार नहीं है. उन्होंने कहा कि कानून बनाने का अधिकार संसद का है. मंत्री ने ट्वीट किया कि चुने हुए प्रतिनिधि लोगों के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं और कानून बनाते हैं. हमारी न्यायपालिका स्वतंत्र है और हमारा संविधान सर्वोच्च है.

रिजीजू ने पूर्व न्यायमूर्ति सोढीं का खुलकर समर्थन करते हुए कहा यह ‘एक न्यायाधीश की आवाज’ है और अधिकांश लोगों के इसी तरह के समझदारीपूर्ण ‘विचार’ हैं.

किरण रिजिजू कानून मंत्री से यह पूछना चाहिए कि आप समझदारी भरी बातें क्यों नहीं कर रहे हैं एक न्यायाधीश कहता है तो आप ताली बजा रहे हैं सिस्टम काम कर रहा है तो आप गाल बजा रहे हैं. एक पूर्व न्यायाधीश कुछ कहता है तो आप समर्थन में खड़े हो जाते हैं देश का उच्चतम न्यायालय का पूरा ढांचा चल रहा है तो आपको तकलीफ होती है. कोई इनसे पूछे कि आपको आखिर तकलीफ क्यों है क्या आपको पता नहीं है कि अगर संसद कोई गलत कानून बनाती है जो सविधान की मंशा के खिलाफ है तो उसे सुप्रीम कोर्ट रोक सकती है, क्या आपको यह पता नहीं है कि अगर संसद कानून बना सकती है तो फिर देश का उच्चतम न्यायालय भी कानून बनाता है और यह अधिकार संविधान से उसे मिला अधिकार है.

पाठकों को याद होगा कि पिछले दिनों उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने इसी शैली में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम और एक संबंधित संविधान संशोधन को रद्द करने के लिए शीर्ष अदालत पर सवाल उठाया है . स्मरण रहे -आप वही धनदीप जगदीप धनखड़ हैं जिन्होंने राज्यसभा में एक विवादित अध्यादेश पास करवा दिया था और जो बाद में सरकार को वापस देना पड़ा था . कुल मिलाकर के देश में माहौल उच्चतम न्यायालय के कालेजियम प्रणाली के विरोध में बनाने का प्रयास जारी है एक अंकुश लगाने की कोशिश की जा रही है जिसके परिणाम आने वाले समय में सकते हैं.

रिजीजू ने खुलकर  न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कालेजियम प्रणाली को भारतीय संविधान के प्रतिकूल बताया है. वहीं, उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम और एक संबंधित संविधान संशोधन को रद्द करने के लिए शीर्ष अदालत पर सवाल उठाया है. इधर सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में न्यायाधीशों की नियुक्तियों को मंजूर देने में देरी पर भी शीर्ष अदालत ने सरकार से सवाल किया है. भारतीय जनता पार्टी की सरकार सुप्रीम कोर्ट पर जैसा प्रभाव चाहती है तो वह भूल जाती है कि आने वाले समय में अगर सत्ता हाथ से निकल गई तो जो पार्टी सत्ता में आएगी वह इसका गलत उपयोग करेगी, तब आप पछताएंगे.

71,000 को नियुक्तिपत्र : नरेंद्र मोदी का ‘चुनावी बाण’

आज जब देश के 2 राज्यों गुजरात और हिमाचल प्रदेश में हाल ही में विधानसभा चुनाव हुए हैं, ऐसे में प्रधानमंत्री द्वारा लोगों को नौकरी का नियुक्तिपत्र दिया जाना एक ऐसा मसला बन कर सामने है, जो सीधेसीधे निष्पक्ष चुनाव को पलीता लगाने वाला कहा जा सकता है.

इस बारे में देश की जनता से एक ही सवाल है कि अगर आज टीएन शेषन मुख्य चुनाव अधिकारी होते तो क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 71,000 लोगों को तो क्या किसी एक को भी सरकारी नौकरी का नियुक्तिपत्र दे सकते थे?  इस का सीधा सा जवाब यही है कि बिलकुल नहीं.

देश का विपक्ष आज चुप है. देश की संवैधानिक संस्थाएं आज चुप हैं. इस आसान से लगने वाले एक मामले के आधार पर हम कह सकते हैं कि नरेंद्र मोदी सरकार और वे खुद लगातार कुछ न कुछ ऐसा कर रहे हैं, जिस से नियमकायदों और नैतिकता की धज्जियां उड़ रही हैं.

जैसा कि हम सब जानते हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 10 लाख कर्मियों के लिए भरती अभियान वाले ‘रोजगार मेला’ के तहत तकरीबन 71,000 नौजवानों को नियुक्तिपत्र सौंपे थे. प्रधानमंत्री कार्यालय ने एक बयान में यह जानकारी दी थी.

कहा गया था कि ‘रोजगार मेला’ नौजवानों को रोजगार के मौके देने को सर्वोच्च प्राथमिकता देने की दिशा में प्रधानमंत्री की प्रतिबद्धता को पूरा करने में एक बड़ा कदम है.

सभी जानते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुजरात और हिमाचल प्रदेश  लगातार जा रहे थे और लोगों को संबोधित कर रहे थे. ऐसे में चुनाव के वक्त नियुक्तियों का यह झुनझुना सीधेसीधे मतदान को प्रभावित करने वाला था, इसलिए इस पर निर्वाचन आयोग को खुद संज्ञान ले कर रोक लगानी चाहिए. सरकारी नौकरियों का लौलीपौप

लाख टके का सवाल यही है कि आज जब गुजरात, जो नरेंद्र मोदी का गृह प्रदेश है और जहां से उन्होंने अपनी राजनीति का सफर शुरू किया था और प्रधानमंत्री पद पर पहुंचे हैं, सारा देश जानता है कि गुजरात प्रदेश का विधानसभा चुनाव नरेंद्र मोदी के लिए कितनी अहम जगह रखता है, क्योंकि गुजरात की जीत सीधेसीधे नरेंद्र मोदी की जीत और गुजरात की हार उन की हार कही जाएगी.

ऐसे में नियुक्तिपत्र का यह लौलीपौप संविधान के निष्पक्ष चुनाव के विरुद्ध है और हम नरेंद्र मोदी से पूछना चाहते हैं कि अगर वे खुद विपक्ष में होते और अगर सत्ताधारी पार्टी ऐसे करती तो क्या वे चुप रहते?

जैसा कि प्रधानमंत्री कार्यालय के बयान में कहा गया कि ‘यह’ रोजगार मेला रोजगार सृजन में उत्प्रेरक के रूप में काम करेगा और युवाओं को उन के सशक्तीकरण और राष्ट्रीय विकास में सीधी भागीदारी के लिए सार्थक अवसर प्रदान करेगा.

हम कह सकते हैं कि गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनाव के वक्त यह सब करना सीधेसीधे निष्पक्ष चुनाव को प्रभावित करने वाला था. आप को याद होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस से पहले अक्तूबर महीने में ‘रोजगार मेला’ की शुरुआत

की थी. उन्होंने एक समारोह में 71,000 नवनियुक्त कर्मियों को नियुक्तिपत्र सौंपे थे. हालांकि प्रधानमंत्री कार्यालय ने कहा है कि गुजरात और हिमाचल प्रदेश को छोड़ कर देश की 45 जगहों पर नियुक्त कर्मियों को नियुक्तिपत्र सौंपे जाएंगे. ऐसा कहना भी यह साबित करता है कि यह चुनाव वोटरों को प्रभावित करने का ही एक खेल था.

दरअसल, नियुक्तिपत्र बांटने का काम कर के यह बताया जा रहा है कि आने वाले समय में हम ऐसा काम करेंगे, जिस से साफ है कि यह वोटरों को प्रभावित करने की ही एक कोशिश है. पिछली बार जिन श्रेणियों में नौजवानों को नियुक्ति दी गई थी, उन के अलावा इस बार शिक्षक, व्याख्याता, नर्स, नर्सिंग अधिकारी, चिकित्सक, फार्मासिस्ट, रेडियोग्राफर और अन्य तकनीकी और पैरामैडिकल पदों पर भी नियुक्ति की जाएगी. प्रधानमंत्री कार्यालय ने बताया कि इस बार अच्छीखासी तादाद में केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा विभिन्न केंद्रीय बलों में भी नौजवानों को नियुक्ति दी गई है. प्रधानमंत्री नवनियुक्त कर्मियों के लिए आयोजित किए जाने वाले औनलाइन ओरिएंटेशन कोर्स ‘कर्मयोगी प्रारंभ’ की भी शुरुआत करेंगे.

इस में सरकारी कर्मचारियों के लिए आचार संहिता, कार्यस्थल, नैतिकता और ईमानदारी, मानव संसाधन नीतियां और अन्य लाभ व भत्ते से संबंधित जानकारियां शामिल होंगी, जो उन्हें नीतियों के अनुकूल और नवीन भूमिका में आसानी से ढल जाने में मदद करेंगी. इस सब के बावजूद हम तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से यही सवाल करते हैं कि क्या नियुक्तिपत्र देने का काम प्रधानमंत्री कार्यालय का है और यह कब से हो गया? नियमानुसार तो नियुक्तिपत्र वह विभाग देता है, जिस के अधीनस्थ कर्मचारी काम करता है. प्रधानमंत्री कार्यालय या प्रधानमंत्री का यह काम नहीं है और यह बात देश का हर नागरिक जानता है.

टैक्स: क्या थी सरकार की नीति

सस्ती या मुफ्त बिजलीपानीपढ़ाईखाने को ले कर प्रधानमंत्री ने रेवड़ी बांटो कल्चर कह कर बदनाम करना शुरू किया है. ये सस्ती चीजें देश के उन गरीबों को मिलती हैं जिन को समाज आज भी इतना कमाने का मौका नहीं दे रहा है कि वे अपने लिए जिंदगी जीने के लिए इन पहली चीजों का इंतजाम कर सकें. भारतीय जनता पार्टी ने चूंकि सरकारों का खजाना खाली कर दिया है और वह बेतहाशा पैसा अमीरों के लिए खर्च कर रही हैचुनावों में ये सस्ती चीजें देने की बात से उसे चिढ़ होने लगी है. भारतीय जनता पार्टी की कल्चर तो यह है कि सस्ता सिर्फ मंदिरों को मिले जो न बिजली का बिल देते हैं चाहे जितनी बिजली खर्च करेंन पानी का बिल देते हैं चाहे कितना बहाएंन नगरनिगम को टैक्स देते हैं चाहे जितना बनाएं. भारतीय जनता पार्टी के लिए सस्ती चीजें पाने वाले असल में पापी हैं जिन्होंने पिछले जन्मों में पुण्य नहीं किएदान नहीं दिया और अब उस की सजा भुगत रहे हैं. हमारे धर्मग्रंथ इन किस्सों से भरे हैं और प्रधानमंत्री व अन्य भाजपा नेताओं के मुंह से ये बातें निकलतीफिसलती रहती हैं.

गरीब जनता को सस्ती बिजलीपानी व खाना असल में अमीरों के फायदे के लिए होता है. जैसे ही एक गरीब घर को सस्ती बिजली व घर में मुफ्त पानी मिलने लगता हैउस की सेहत सुधर जाती हैउस के काम के घंटे बढ़ जाते हैं और वह कम तनख्वाह पर काम करने को तैयार होने लगता है.

दुनिया के कई देशों ने सस्ते घर भी अपने गरीब और मध्यम वर्गों को दिए और वहां वेतन काफी कम हो गए और लोग ज्यादा मेहनत करने लगे क्योंकि उन्हें छत के लिए दरदर नहीं भटकना पड़ता. दिल्लीमुंबईलखनऊ या किसी भी बड़े शहर की गरीब बस्ती को देख लें. वहां लोग घंटों पीने के पानीराशन की दुकानों और यहां तक कि शौच की जगह के लिए बरबाद करते हैं. उन घरों में एक आफत नौकरी होती है तो दूसरी यह कि चूल्हा कैसे जलेगापकेगा कैसेलोग नहाएंगे कैसेपीएंगे क्यादेश के व्यापारकारखानेखेत इतना पैसा नहीं दे पाते कि लोग पूरे दामों में कोई चीज खरीद सकें.

और फिर यह पूरा दाम क्या हैज्यादातर रोजमर्रा की चीजों में दाम असल में टैक्स से भरे होते हैं. हर चीज को बनानेपैदा करने में जितना पैसा लगता है उस का तीनचौथाई तक टैक्स होता है. तरहतरह के टैक्स जीएसटी के बावजूद मौजूद हैं. अगर ईमानदारी से टैक्स दिया जाए तो जीएसटी छोटे से दुकानदार के बड़े होलसेल दुकानदार से सिर पर सामान लाद कर अपनी 10×10 फुट की दुकान पर बेचता है तो उस की मेहनत पर भी टैक्स लग जाता है. वह अगर कोई चीज 100 रुपए में लाता है120 में बेचता है तो 20 रुपए पर टैक्स देना पड़ता है वह भी 12 से 18 फीसदी. गरीब को टैक्स से चूसने वाली सरकार को यह बुरा लग रहा है कि कोई इस गरीब को मुफ्त सामान दे कर उस को टैक्स की मार से फ्री कर रहा है. भारतीय जनता पार्टी के लिए जीएसटी तो जनता से जबरन वसूला गया दानपुण्य है और जो कहे कि यह सामान ही मुफ्त है वह इस दानपुण्य की महान हिंदू संस्कृति पर हमला कर रहा है. उसे रेवड़ी बांटना नहीं कहा जाए तो क्या कहा जाए. हमारे धर्मग्रंथ तो कहते हैं कि रेवड़ी बांटो नहींशूद्र के पास जो भी संपत्ति हो वह राजा जब्त कर ले.

हेमंत सोरेन की चुनौती और भाजपा

आजकल देश में एक तरह से राजनीतिक गृह युद्ध के हालात हैं. एक तरफ है केंद्र की सरकार, जिस का नेतृत्व भारतीय जनता पार्टी कर रही है, तो वहीं दूसरी तरफ है देश के अनेक प्रदेशों के मुख्यमंत्री और क्षेत्रीय राजनीतिक दल, साथ में कांग्रेस. भारतीय जनता पार्टी ने केंद्र में सरकार बनाने के बाद यह टारगेट तय कर लिया है कि देशभर में भाजपा की सरकार ही होनी चाहिए और यह कोई दबीछिपी बात भी नहीं है. इस की घोषणा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई दफा कर चुके हैं. अब जो सीन दिखाई दे रहा है, उस में प्रवर्तन निदेशालय और केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो द्वारा लगातार विपक्ष की सरकारों, मुख्यमंत्रियों और उन की गुड लिस्ट में शामिल लोगों को निशाने पर लेने की घटनाएं आम हैं.

यह देश देख चुका है कि किस तरह सोनिया गांधी, राहुल गांधी समेत प्रियंका गांधी और अनेक बड़े नेताओं पर प्रवर्तन निदेशालय का शिकंजा कसा गया और माहौल यह बना दिया है कि यही लोग सब से बड़े अपराधी हैं. हां, यह हो सकता है कि गलतियां हुई हों, अपराध भी हुए हों, मगर इन सब हालात से जो माहौल देश का बन रहा है, वह खतरनाक साबित हो सकता है. आज देशभर में झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का एक बयान चर्चा में है कि अगर मैं अपराधी हूं, तो मुझे गिरफ्तार कर लिया जाए.  उन्होंने प्रवर्तन निदेशालय के नोटिस को एक तरह से नजरअंदाज किया है. यह घटना देश के इतिहास में एक ऐसा टर्निंग पौइंट बन सकती है, जहां से देश का एक नया राजनीतिक राजमार्ग बन सकता है.  दरअसल, झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने ईडी के समन के बाद तेवर कड़े कर के एक संदेश दिया है. वे चुनौती की मुद्रा में हैं और उसी अंदाज में विरोधियों पर पलटवार की भी तैयारी है. झारखंड में सत्तारूढ़ झारखंड मुक्ति मोरचा ने साफतौर पर ऐलान किया है कि अगर सरकार के साथ साजिश हुई, तो छोड़ेंगे नहीं.

4 नवंबर, 2022 को रांची में झारखंड मुक्ति मोरचा समर्थकों की जुटी भीड़ का भी अंदाज तल्ख था. झामुमो के निशाने पर प्रवर्तन निदेशालय, राज्यपाल और भाजपा है. समर्थकों को आंदोलन के आगाज का निर्देश दिया गया है. झारखंड मुक्ति मोरचा के कार्यकर्ता सभी जिला मुख्यालयों में सरकार को अस्थिर करने की कोशिशों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं और प्रदेशभर में यह संदेश दिया जा रहा है कि हेमंत सोरेन की सरकार को भारतीय जनता पार्टी कमजोर करने का काम कर रही है. कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष राजेश ठाकुर ने सभी जिला इकाइयों को निर्देश जारी किया है कि कार्यकर्ता पूरी मजबूती के साथ प्रदर्शन में शामिल हों. अब जैसा कि सारा देश जानता है कि भारतीय जनता पार्टी के तेवर हमेशा आक्रामक रहते हैं. जब से देश में नरेंद्र मोदी की सरकार आई है और गृह मंत्री के रूप में अमित शाह हैं, भाजपा हर मौके पर वार करने की हालत में रहती है.  यहां भी भाजपा के तेवर यह बता  रहे हैं कि हेमंत सोरेन से सत्ता हासिल करने के लिए और उन की छवि को खराब करने की कोशिश में भाजपा पीछे नहीं रहेगी. इधर भाजपा ने प्रखंड मुख्यालयों से आंदोलन शुरू करने की घोषणा की है.

शक्ति प्रदर्शन की इस कवायद से राजनीतिक टकराव की बैकग्राउंड तैयार हो रही है.  हालात की गंभीरता को देखते हुए राजधानी में भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश कार्यालय में सुरक्षा के कड़े बंदोबस्त किए गए हैं. ईडी के क्षेत्रीय कार्यालय और राजभवन की सुरक्षा व्यवस्था भी बढ़ाई गई है. उठ खड़ा होगा  संवैधानिक संकट जैसे हालात झारखंड समेत देश के कुछ राज्यों में बन रहे हैं, इस सिलसिले में कहा जा सकता है कि आने वाले समय में संवैधानिक संकट खड़े होने का डर है.  सच तो यह है कि चाहे केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो हो या प्रवर्तन निदेशालय, उन का इस्तेमाल नैतिक रूप से ईमानदारी से किया जाना चाहिए, ताकि कोई भी यह न कह सके कि उन का गलत इस्तेमाल किया जा रहा है.  ऐसा पहले कई दफा हुआ है, जिस का सब से बड़ा उदाहरण लालू प्रसाद यादव हैं, जिन्होंने हमेशा कानून पर आस्था जाहिर की है और हर एक कार्यवाही को सम्मान के साथ स्वीकार किया है. यह भी सच है, जिस से इनकार नहीं किया जा सकता कि आज की कई सरकारें भ्रष्टतम आचरण कर रही हैं, अनेक बड़े घोटाले का खेल जारी है. ऐसे में अगर केंद्रीय एजेंसियां शिकंजा कस रही हैं, तो नैतिकता के नाम पर आप विरोध कैसे कर सकते हैं? नतीजतन, आंदोलन के लिए सत्तापक्ष और विपक्ष के अपनेअपने मुद्दे हैं.

भाजपा, ईडी और राजभवन के खिलाफ आंदोलन का आह्वान कर विरोधी दल शक्ति प्रदर्शन करने की तैयारी में हैं. उधर भाजपा ने राज्य सरकार पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए घेराबंदी तेज की है.  देश और प्रदेश की जनता आज दुविधा में है कि वह राज्य सरकार के पक्ष में खड़ी हो या केंद्र सरकार के पक्ष में. आवाम प्रवर्तन निदेशालय, केंद्रीय जांच ब्यूरो के खिलाफ झारखंड मुक्ति मोरचा के हेमंत सोरेन के पक्ष में खड़ी हो या केंद्रीय जांच एजेंसियों की कार्यवाही के पक्ष में. ऐसे में आने वाला समय संवैधानिक संकट का आगाज कर रहा है.

तेजस्वी यादव: भाजपा के लिए खतरा

राज्य के मोकामा और गोपालगंज विधानसभा क्षेत्रों में उपचुनाव राष्ट्रीय जनता दल के लिए बेहद खास थे. जनता दल (यूनाइटेड) और भाजपा के अलग होने के बाद ये पहले चुनाव थे. भारतीय जनता पार्टी चाहती थी कि राजद एक भी सीट न जीते, जिस से उस की साख पर बट्टा लग सके. इस के लिए भाजपा ने राजद नेता और बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के मामा साधु यादव और मामी इंदिरा यादव को अपनी तरफ मिला लिया था. वह भाजपा की बी टीम की तरह से काम कर रहे थे. इस के बाद भी राजद ने उपचुनाव में मोकामा सीट पर जीत हासिल कर ली. तेजस्वी यादव कहते हैं, ‘‘गोपालगंज सीट पर भी हम ने भाजपा के वोटों में सेंधमारी की है. साल 2020 के विधानसभा चुनाव में हमें 40,000 वोटों से हार मिली थी, जबकि उपचुनाव में सहानुभूति वोट के बाद भी केवल 1,700 वोटों से हारे हैं.

‘‘इस से इस बात का प्रमाण भी मिल गया है कि तेजस्वी यादव ने अब अपनी पकड़ मजबूत कर ली है. अब बिहार में राजद ही भाजपा को रोकने का काम कर सकती है.’’

33 साल के तेजस्वी यादव को 2 बार बिहार का उपमुख्यमंत्री बनने का मौका मिल चुका है. राजनीतिक जानकार तेजस्वी यादव को बिहार के भविष्य का नेता मान रहे हैं. बिहार में रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी अपना वजूद खो बैठी है. नीतीश कुमार की जनता दल (यूनाइटेड) में नीतीश कुमार का उत्तराधिकारी कोई बन नहीं पाया है. नीतीश कुमार अब बिहार की राजनीति में हाशिए पर जा रहे हैं. कांग्रेस बिहार में अपने को मजबूत नहीं कर पा रही और भाजपा भी अपने बलबूते कुछ चमत्कार नहीं कर पा रही है. ऐसे में बिहार में सब से मजबूत पार्टी राजद के रूप में सामने है. ट्वैंटी20 क्रिकेट सा धमाल जिस तरह से 20 ओवर के क्रिकेट मैच में दमदार खिलाड़ी आखिरी ओवर तक रोमांच बना कर रखता है, कभी हिम्मत नहीं हारता है, ठीक वैसे ही तेजस्वी यादव भी हिम्मत नहीं हारते हैं और हारी बाजी अपने नाम कर लेते हैं. जिस भाजपा और जद (यू) गठबंधन ने तेजस्वी यादव को सत्ता से बाहर किया था, मौका मिलते ही तेजस्वी यादव ने उस बाजी को पलट कर वापस सत्ता में हिस्सेदारी कर ली.

तेजस्वी प्रसाद यादव का जन्म 10 नवंबर, 1989 को हुआ था. वे राष्ट्रीय जनता दल के सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी के बेटे हैं. तेजस्वी यादव क्रिकेट खेलना भी जानते हैं. उन्होंने दिल्ली डेयरडेविल्स के लिए आईपीएल भी खेला है. दिसंबर, 2021 में दिल्ली की एलेक्सिस से उन की शादी हुई थी. तेजस्वी और एलेक्सिस दोनों एकदूसरे को 6 साल से जानते थे और पुराने दोस्त थे. तेजस्वी यादव को महज 26 साल की उम्र में बिहार का उपमुख्यमंत्री बनने का मौका मिला था. तब वे डेढ़ साल तक नीतीश कुमार की 2015 वाली सरकार में बिहार के उपमुख्यमंत्री रहे थे.

साल 2020 के विधानसभा चुनाव में तेजस्वी यादव ने अपनी पार्टी राजद को मजबूत किया. वे कांग्रेस गठबंधन में चुनाव लड़े. राजद सब से बड़ी पार्टी के रूप में सामने आई. किसी भी दल को पूर्ण बहुमत न मिलने के चलते नीतीश कुमार और भाजपा ने मिल कर सरकार बनाई. उस समय तेजस्वी यादव बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता बने. 10 अगस्त, 2022 को नीतीश कुमार और भाजपा में अलगाव हो गया. इस के बाद नीतीश कुमार और राजद का तालमेल हुआ, जिस के बाद तेजस्वी यादव को दोबारा बिहार का उपमुख्यमंत्री बनने का मौका मिला. वे बिहार विधानसभा में राघोपुर से विधायक हैं.

तेजस्वी से डरती है भाजपा जिस तरह से लालू प्रसाद यादव ने 1990 के दशक में भाजपा के बढ़ते रथ को बिहार में रोका था और उसे अपने बल पर सत्ता में नहीं आने दिया था, वही काम अब तेजस्वी यादव कर रहे हैं. लालू प्रसाद यादव की राजनीति को खत्म करने के लिए भाजपा ने उन्हें चारा घोटाले में फंसाया था, वैसे ही अब तेजस्वी यादव को आईआरसीटी घोटाला मामले में फंसाने का काम हो रहा है. भाजपा समझ रही है कि अगर तेजस्वी यादव को रोका नहीं गया, तो उसे बिहार में सत्ता नहीं मिलेगी.

आईआरसीटी घोटाला मामले में तेजस्वी यादव के वकीलों ने केंद्र सरकार पर विपक्ष के खिलाफ सीबीआई व ईडी का गलत इस्तेमाल का आरोप लगाया. आईआरसीटी घोटाला मामले में सुनवाई के दौरान तेजस्वी यादव के वकीलों ने कहा कि विपक्ष के नेता होने के नाते केंद्र सरकार के गलत कामों का विरोध करना उन का फर्ज है. कोर्ट ने दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद बिहार के डिप्टी सीएम को फटकारते हुए कहा कि वे सार्वजनिक रूप से बोलते वक्त जिम्मेदाराना बरताव करें और उचित शब्दों का इस्तेमाल करें. आईआरसीटी घोटाला साल 2004 में संप्रग सरकार में लालू प्रसाद यादव के रेल मंत्री रहने के दौरान का है. रेलवे बोर्ड ने उस वक्त रेलवे की कैटरिंग और रेलवे होटलों की सेवा को पूरी तरह निजी क्षेत्र को सौंप दी थी. इस दौरान झारखंड के रांची और ओडिशा के पुरी के बीएनआर होटल के रखरखाव, संचालन और विकास को ले कर जारी टैंडर में अनियमितताएं किए जाने की बातें सामने आई थीं.

यह टैंडर साल 2006 में एक प्राइवेट होटल सुजाता होटल को मिला था. आरोप है कि सुजाता होटल के मालिकों ने इस के बदले लालू प्रसाद यादव के परिवार को पटना में 3 एकड़ जमीन दी थी, जो बेनामी संपत्ति थी. इस मामले में भी लालू प्रसाद यादव, राबड़ी देवी और तेजस्वी यादव समेत 11 लोग आरोपी हैं. सीबीआई ने जुलाई, 2017 में लालू प्रसाद यादव, तेजस्वी यादव समेत 11 आरोपियों के खिलाफ मामला दर्ज किया था. इस के बाद सीबीआई की एक विशेष अदालत ने जुलाई, 2018 में लालू प्रसाद यादव और अन्य के खिलाफ दायर आरोपपत्र पर संज्ञान लिया था. मामा का लिया सहारा तेजस्वी यादव को घेरने के लिए भाजपा उन के मामा साधु यादव का प्रयोग भी कर रही है. साधु यादव और उन की पत्नी इंदिरा यादव तेजस्वी का विरोध कर रहे हैं. परिवार का होने के कारण तेजस्वी यादव उन के खिलाफ खुल कर बोलने से बचते हैं.

साल 2020 में हुए विधानसभा चुनाव में 75 विधायकों के साथ राजद सब से बड़ी पार्टी बनी थी. उपचुनाव में एक सीट पर जीत मिलने के बाद उस के विधायकों की संख्या 76 हो गई है. दूसरी तरफ भाजपा ने वीआईपी पार्टी के 3 विधायकों को अपने खेमे में शामिल कर लिया था. इस के बाद भाजपा 77 विधायकों के साथ बिहार की पहले नंबर की पार्टी बन गई थी. असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम के 4 विधायकों के पाला बदलते ही बिहार में राजद के पास विधानसभा में विधायकों की संख्या 80 हो गई है.

आने वाले दिनों में भाजपा और राजद के बीच सीटों को ले कर सांपसीढ़ी का यह खेल चलता रहेगा. लेकिन इस में तेजस्वी यादव भारी न पड़ जाएं, इस के लिए भाजपा उन की मजबूत घेराबंदी कर रही है. साधु यादव और उन की पत्नी इंदिरा यादव इस में सब से बड़ा मोहरा बन रहे हैं. आने वाले दिनो में बिहार में बड़ा उलटफेर हो सकता है, जिस के बाद बिहार में सरकार चलाने के लिए तेजस्वी यादव को नीतीश कुमार की जरूरत खत्म हो सकती है. राजद के साथ कुल

80 विधायक हैं. कांग्रेस और वाम दल तो पहले से ही महागठबंधन में हैं. इस से संख्या कुलमिला कर 114 है. अगर तेजस्वी यादव कहीं जीतनराम मांझी के 4 विधायक और कुछ निर्दलीय विधायकों को अपनी तरफ मोड़ने में कामयाब रहे, तो उन के साथ विधायकों की कुल संख्या 121 हो जाएगी, जो नीतीश कुमार के लिए खतरनाक हो जाएगा. आने वाले दिनों में बिहार की राजनीति में तेजस्वी यादव सब से बड़े नेता के रूप में उभर रहे हैं. यह भाजपा के लिए खतरा है. वह तेजस्वी यादव में मंडल युग का लालू प्रसाद यादव वाला असर देख रही है.

महाराष्ट्र: संजय राउत जेल से लौटे- अदालत का इंसाफ और नरेंद्र मोदी

अब तो देश के सामने सबकुछ खुला खेल फर्रुखाबादी की तरह साफसाफ है. महाराष्ट्र में शिव सेना नेता संजय राउत की गिरफ्तारी और तकरीबन 100 दिन की जेल और अदालत से रिहाई. सब से बड़ी बात अदालत की टिप्पणी से साफ है कि केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार और अमित शाह का गृह मंत्रालय किस तरह काम कर रहा है. अगर हम लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाओं की बात करें, तो आज का समय एक काले अंधेरे की तरह है और देश की जनता अगर इस का अपने मतदान के माध्यम से रास्ता नहीं निकालेगी, तो आखिर में डंडा देश की आम जनता की पीठ पर ही पड़ने वाला है.

शिव सेना सांसद संजय राउत 100 दिन बिता कर एक विजेता की भूमिका में जेल से आ गए हैं. उन की वापसी पर शिव सेना समर्थकों ने जगहजगह ‘टाइगर इज बैक’, ‘शिव सेना का बाघ आया’ जैसे पोस्टर लगाए और यह संदेश दे दिया है कि चाहे कोई कितना जुल्म कर ले, शिव सेना और संजय राउत झुकने वाले नहीं हैं. दरअसल, शिव सेना नेता संजय राउत को प्रवर्तन निदेशालय ने पात्रा चाल घोटाले में मनी लौंड्रिंग से जुड़े मामले में इस साल जुलाई महीने में गिरफ्तार किया था. जेल से बाहर आने के बाद संजय राउत ने अपने घर के बाहर मीडिया से चर्चा की. उन्होंने कहा कि उन की सेहत ठीक नहीं है. अपनी कलाई की ओर इशारा करते हुए संजय राउत ने कहा, ‘‘3 महीने बाद यह घड़ी पहनी है. यह भी कलाई पर ठीक से नहीं आ रही है.’’

जेल में बिताए दिनों को इस से बेहतर दर्दभरे शब्दों में जाहिर नहीं किया जा सकता. इस से पहले संजय राउत ने बाला साहब ठाकरे की समाधि शिवाजी पार्क पहुंच कर उन्हें नमन किया और यह संदेश दे दिया कि आने वाले समय में उन की दिशा क्या होगी. दूसरी तरफ उन्होंने शिव सेना प्रमुख उद्धव ठाकरे से भी मुलाकात की. इस मौके पर उद्धव ठाकरे ने साफसाफ कहा कि केंद्र की जांच एजेंसियां किसी पालतू की तरह काम कर रही हैं. संजय राउत नजीर बन गए नरेंद्र मोदी और अमित शाह की खुल कर आलोचना करने वाले संजय राउत ने जेल से बाहर आते ही अपने तेवर दिखा दिए और कहा, ‘वे नहीं जानते हैं कि उन्होंने कितनी बड़ी गलती मुझे गिरफ्तार कर के की है. यह उन के राजनीतिक जीवन की सब से बड़ी गलती साबित होगी.’

दरअसल, आज देश के हर नागरिक के लिए सोचने वाली बात है कि क्या हम तानाशाही की ओर बढ़ रहे हैं? अगर हम महाराष्ट्र की राजनीति पर नजर डालें तो यह साफ है कि जो भी घट रहा है, मानो उस की पटकथा पहले ही लिखी जा चुकी है. उद्धव ठाकरे का शरद पवार और कांग्रेस के साथ हाथ मिला कर सत्तासीन होना केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार को रास नहीं आया और एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में विधायकों को तोड़ दिया गया. यह सच सारे देश ने देखा है और यह लोकतंत्र की हत्या से कम नहीं कहा जा सकता.

मगर एकनाथ शिंदे की बगावत के बाद महाराष्ट्र की सत्ता और शिव सेना का नाम और निशान खोने वाले उद्धव ठाकरे के लिए यह राहत का सबब है. पहले अंधेरी पूर्व उपचुनाव में जीत और अब संजय राउत की रिहाई ने उन्हें बड़ी राहत दी है. दशहरे की रैली में बड़ी तादाद में लोगों को जुटाने के बाद से ही उद्धव ठाकरे गुट आक्रामक अंदाज में नजर आ रहा है. शायद आज की नरेंद्र मोदी सरकार की विचारधारा यह मानती है कि जो विरोधी हैं, उन्हें खत्म कर दिया जाए. चाहे बिहार हो या फिर उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र हो या फिर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड हर प्रदेश में भाजपा आक्रामक है और उस के नेता चाहते हैं कि विरोधी खत्म हो जाएं, मगर वे भूल जाते हैं कि लोकतंत्र की खूबसूरती विपक्ष से ही होती है.

सब से बड़ी बात यह कि भाजपा भी कभी विपक्ष में थी. अगर जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी या कांग्रेस के दूसरे बड़े नेता चाहते तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी कहां होती, यह शायद अंदाजा लगाया जा सकता है. अब चूंकि संजय राउत जेल से निकल आए हैं, लिहाजा वे चुप तो बैठेंगे नहीं. उन का हर वार नरेंद्र मोदी की केंद्र सरकार पर ज्यादा होगा, ताकि भविष्य की राजनीति में खलबली मची रहे.

नीतीश कुमार: प्रधानमंत्री पद की ‘पदयात्रा’

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक बार फिर वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ विपक्ष को एकजुट करने के लिए एक तरह से मानो तलवार खींच ली है. वे लगातार राहुल गांधी से ले कर अरविंद केजरीवाल जैसे नेताओं से मिल रहे हैं. उन की इस भेंटमुलाकात का सिलसिला एक तरह से ‘प्रधानमंत्री पद’ हासिल करने के लिए पदयात्रा के समान है.

नीतीश कुमार के पास 17 साल के मुख्यमंत्री पद का गौरवशाली इतिहास है और देशभर में उन की अलग पहचान भी है. मगर यह भी सच है कि बीच में उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन कर के अपनी छवि और भविष्य पर सवालिया निशान भी लगा लिया है.

इस ‘पदयात्रा’ के पड़ाव यह सच है कि नीतीश कुमार ने भाजपा से अलग हो कर कांग्रेसी और राष्ट्रीय जनता दल के साथ तालमेल कर के भाजपा को और सब से ज्यादा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह को धोखा दिया है.

घटनाक्रम बता रहा है कि आज के सत्तासीन केंद्र के ये नेता विपक्ष और दूसरी पार्टियों को एक तरह से खत्म कर देना चाहते हैं. ऐसे में नीतीश कुमार का एक बड़ा चेहरा देश के सामने आया है और वे लगातार देश के बड़े नेताओं से मिल रहे हैं और सब को एकजुट कर रहे हैं.

मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी यानी माकपा के दफ्तर में पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी और भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के महासचिव डी. राजा से मुलाकात करने के बाद नीतीश कुमार ने पत्रकारों से कहा कि यह समय वाम दलों, कांग्रेस और सभी क्षेत्रीय दलों को एकजुट कर के एक मजबूत विपक्ष बनाने का है.

6 सितंबर, 2022 को नीतीश कुमार अरविंद केजरीवाल से मुलाकात के लिए उन के आवास पर पहुंचे. इस मौके पर दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया और जनता दल (यू) के नेता संजय झा भी मौजूद थे.

अरविंद केजरीवाल ने ट्वीट कर के बताया कि मेरे घर पधारने के लिए नीतीश कुमार का शुक्रिया.

नीतीश कुमार ने उन के साथ देश के कई गंभीर विषयों पर चर्चा की. उन्होंने अपने ट्वीट में बताया कि उन के साथ शिक्षा, स्वास्थ्य, आपरेशन लोटस, खुलेआम विधायकों की खरीदफरोख्त कर चुनी सरकारों को गिराना, भाजपा सरकार में बढ़ता निरंकुश भ्रष्टाचार, महंगाई और बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर चर्चा हुई.

वहीं नीतीश कुमार ने कहा कि हमारी कोशिश क्षेत्रीय पार्टियों को एकजुट करने की है. अगर सभी क्षेत्रीय पार्टियां मिल जाएं, तो यह बहुत बड़ी बात होगी और हम मिल कर देश के लिए एक मौडल तैयार करने पर काम कर रहे हैं.

इस से पहले नीतीश कुमार ने कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके राहुल गांधी से भी मुलाकात की थी और यह संदेश दे दिया कि वे एक ऐसी पदयात्रा पर निकल पड़े हैं, जो आने वाले समय में उन्हें प्रधानमंत्री पद तक पहुंचा सकती है.

पंजाब:  नवजोत सिंह सिद्धू  राजनीति के “गुरु”

सुरेशचंद्र रोहरा

पंजाब में कांग्रेस की सरकार है और संपूर्ण देश में यह एक ऐसा प्रदेश है जहां प्रदेश अध्यक्ष के रूप में नवजोत सिंह सिद्धू अपने ही सरकार को चैलेंज करते, पटखनी देते दिखाई देते हैं, और  बघिया उघरते हुए चरणजीत सिंह चन्नी को ऐसा घेरते हैं, मानो, सिद्धू उन्हें फूटी आंख नहीं देखना चाहते मानो, सिद्धू प्रदेश अध्यक्ष नहीं कोई विपक्ष हों. दरअसल, जो राजनीति की नई मिसाल उन्होंने दिखानी शुरू की है उसका सार संक्षिप्त यही है कि आने वाले समय में पंजाब विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की सफलता संदिग्ध नहीं रही.

यक्ष प्रश्न यह है कि क्या यह सब कांग्रेस आलाकमान की सहमति से हो रहा है. जानबूझकर हो रहा है. पहली नजर में तो यह सब कांग्रेस के विपरीत मालूम पड़ता है मगर क्या इसमें कांग्रेस का हित है?

दरअसल,यह सब राजनीति के मैदान में देश कई दशक बाद देख रहा है. मजे की बात यह है कि यह सब कांग्रेस आलाकमान सोनिया गांधी, राहुल और प्रियंका की नजरों के सामने हो रहा है. ऐसे में सवाल यह है कि क्या मुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष का यह आपसी मल युद्ध पंजाब में कांग्रेस को रसातल की ओर ले जाएगा, तो इसका जिम्मेदार कौन है?

आज कांग्रेस के लिए देशभर में संक्रमण का समय नजर आ रहा है. कांग्रेस, दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी का ढोल पीट रही भाजपा के सामने निरंतर कमजोर होती चली जा रही है अथवा रणनीति के साथ कांग्रेस को खत्म करने का प्रयास चल रहा है. ऐसे में पंजाब जहां कांग्रेस की अपनी सरकार है और भाजपा तीसरे नंबर पर ऐसे में सवाल है कि आखिर कांग्रेस क्या अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मार रही है या यह एक रणनीति के तहत हो रहा है.

वस्तुत: पंजाब में जैसी परिस्थितियां स्वरूप ग्रहण कर रही हैं उसे राजनीतिक समीक्षक मानते हैं कि धीरे-धीरे कांग्रेस हाशिए की ओर जा रही है. इसका एकमात्र कारण प्रदेश की कमान संभाल रहे नवजोत सिंह सिद्धू हैं. एक सवाल और भी है कि क्या नवजोत सिंह सिद्धू जैसा राजनीति का खिलाड़ी जानबूझकर ऐसा कर रहा है. क्या कांग्रेस आलाकमान ने उसे जानते समझते हुए खुली छूट दे रखी है कि कांग्रेस को कुछ इस तरह खत्म करना है या फिर आज जो परिदृश्य है उसमें नवजोत सिंह सिद्धू कुछ ऐसा खेल खेलने वाले हैं जो 2022  विधानसभा चुनाव में नया गुल खिलाएगा और कांग्रेस पुनः सत्ता में आ जाएगी? प्रदेश अध्यक्ष की हैसियत से जिस तरीके से नवजोत सिंह सिद्धू घोषणाएं कर रहे हैं महिलाओं को गैस सिलेंडर देंगे और 2000 रूपए प्रति माह देंगे यह सब इसी राजनीति का हिस्सा है. इसका परिणाम यह निकल सकता है कि सिद्धू पंजाब में राजनीति के नए “गुरु” के रूप में स्थापित हो जाएंगे.

धज्जियां उड़ाते सिद्धू

कांग्रेस पार्टी के निर्णय की धज्जियां उड़ाते प्रदेश अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू हर रोज चर्चा में हैं. दो दिन पहले नवजोत सिंह सिद्धू ने चुटकी लेते हुए कहा, “दूल्हे के बिना कैसी बारात?” उन्होंने पिछले उथल-पुथल के दिनों का जिक्र करते हुए कहा कि संकट से बचने के लिए एक सही “मुख्यमंत्री” जरूरी था.

दरअसल, जब कांग्रेस आलाकमान ने यह स्पष्ट कर दिया  कि पंजाब में आगामी विधानसभा चुनाव सामूहिक रूप से मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी जो कांग्रेस का “दलित चेहरा” हैं के अलावा प्रदेश अध्यक्ष नवजोत सिद्धू (जाट चेहरा) और पूर्व पीपीसीसी प्रमुख सुनील जाखड़ (हिंदू चेहरा) के सामुहिक नेतृत्व में लड़ा जाएगा. तो अपने स्वभाव या कहें रणनीति के तहत नवजोत सिंह सिद्धू चुप नहीं बैठे और जो कहना था कह डाला.

नवजोत सिंह सिद्धू ने बेअदबी मामले की जांच किए जाने में हुई देरी पर भी  मुख्यमंत्री चरणजीत चन्नी पर निशाना साध दिया. सिद्धू ने कहा – हर कोई घोषणा करता है, लेकिन यह संभव नहीं है. राजकोषीय घाटा देखिए. आर्थिक स्थिति के अनुसार घोषणा की जानी चाहिए.

कुल जमा नवजोत सिंह सिद्धू के तेवर अपने आप में चर्चा का विषय बन गए हैं क्योंकि कांग्रेस में वर्तमान समय में यह परिपाटी नहीं रही है कि मुख्यमंत्री के विरुद्ध जाकर  सार्वजनिक बयान किया जाए. मगर सिद्धू हर रोज कुछ न कुछ ऐसा कहते हैं जो विपक्ष नहीं कह पाता. इस तरह पंजाब में कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष ही विपक्ष की भूमिका भी निभा रहे हैं और सारा देश चटकारे ले करके यह सब देख सुन रहा है. आगामी विधानसभा चुनाव में क्या कांग्रेस के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी नंबर 1 और नवजोत सिंह सिद्धू नंबर दो पर रहेंगे. अर्थात क्या कांग्रेस की सरकार की वापसी होगी इस रणनीति के पीछे काम हो रहा है या फिर अरविंद केजरीवाल की आप पार्टी में जिस तरह नगर निगम चुनाव में बढ़त हासिल की है चुनाव में भाजपा और कांग्रेस का खेल बिगाड़ कर बाजी मार ले जाएगी यह सब समय के गर्भ में है.

एक टीवी चैनल के घोषणा पत्र में नवजोत सिंह सिद्धू ताल ठोक कर कह रहे हैं कि पंजाब के मुख्यमंत्री चन्नी को क्या उन्होंने  बनाया है, नहीं, राहुल गांधी ने बनाया है.

कुल मिलाकर सार यह है कि सिद्धू चाहे जितना पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी को राजनीति के तहत हाथों हाथ लेते हैंपर उसके पीछे सत्ता का संधान ही लक्ष्य है. देखना यह है कि अब पंजाब की राजनीति का ऊंट किस करवट बैठता है.

नक्सली गलत हैं या सही

3 अप्रैल, 2021. भारतीय जनता पार्टी समेत दूसरे दलों के नेता 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव के प्रचार में मशगूल थे. तब केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को अपना असम का दौरा रद्द कर शाम के समय छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर हवाईजहाज से उड़ कर आने को मजबूर होना पड़ा था, क्योंकि बात थी ही कुछ ऐसी कि उन के और केंद्र सरकार के होश फाख्ता हो गए थे.

इस दिन सुबह 11 बजे राज्य के बीजापुर और सुकमा जिलों के बौर्डर के एक गांव टेकलगुडा के नजदीक नक्सलियों और अर्धसैनिक बलों की एक जबरदस्त मुठभेड़ में नक्सलियों ने 24 जवानों को मार गिराया था, जिस से केंद्र सरकार सकते में आ गई थी.

इन जिलों में तैनात अर्धसैनिक बलों को खबर मिली थी कि बड़ी तादाद में नक्सली इस बौर्डर के एक गांव में छिपे हुए हैं, जिन में 50 लाख रुपए का एक इनामी नक्सली नेता मडावी हिडमा भी शामिल था.

सुबह से ही तकरीबन 2,000 जवानों ने इस इलाके को घेर लिया और नक्सलियों की टोह ड्रोन के जरीए लेने लगे. जैसे ही यह बात नक्सलियों को पता चली, तो उन्होंने अपना रास्ता बदल दिया, जिस से जवान चकमा खा गए. यही नक्सली चाहते थे, जो ऊपर पहाड़ी पर छिपे हुए थे. उन्होंने मौका ताड़ते हुए जवानों पर हमला कर दिया.

इस से सकपकाए छिपतेछिपाते जवानों ने जवाबी हमला किया, लेकिन नक्सलियों ने उन्हें 3 तरफ से घेर रखा था. दोनों तरफ से तकरीबन 5 घंटे फायरिंग हुई, जिस में अर्धसैनिक बलों के 24 जवान मारे गए.

12 नक्सलियों के मरने की खबर भी आई, पर हमेशा की तरह बड़ा नुकसान अर्धसैनिक बलों का ही हुआ.  घायल जवानों को बीजापुर और रायपुर के अस्पतालों में इलाज के लिए भरती कराया गया और नक्सली भी अपने घायल साथियों को 2 ट्रैक्टरों में भर कर अपने ठिकानों की तरफ ले गए.

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जातेजाते उन्होंने हर बार की तरह मारे गए जवानों के हथियार, जूते वगैरह अपने कब्जे में ले लिए. वे सीआरपीएफ के एक कोबरा कमांडर राकेश्वर सिंह मन्हास को बंधक बना कर अपने साथ ले गए, जिसे 8 अप्रैल, 2021 को एक गिरफ्तार आदिवासी के बदले रिहा भी कर दिया.

खोखली दहाड़

रायपुर और जगदलपुर आए अमित शाह घायल जवानों से मिले और नक्सलियों पर खूब गरजेबरसे कि जवानों की शहादत बेकार नहीं दी जाने जाएगी और जल्द ही नक्सलियों का सफाया कर दिया जाएगा.

वैसे, इस के कुछ दिन पहले ही नक्सलियों ने नारायणपुर में एक और वारदात को अंजाम देते हुए 5 जवानों को मार गिराया था. इस से भी अंदाजा लगाया जा सकता है कि उन के हौसले कितने बुलंद हैं.

यह कोई पहला या आखिरी मौका नहीं था, जब नक्सलियों ने सरकार को अपनी ताकत और पहुंच का एहसास कराया हो. इस के पहले भी वे जवानों की हत्या कर के यह जताते रहे हैं कि जब तक सरकार उन की बात नहीं सुनेगी और बातचीत के लिए तैयार नहीं होगी, तब तक उन की 50 साल से चल रही मुहिम से वे कोई सम?ाता नहीं करेंगे.

क्या है नक्सली मुहिम

3 अप्रैल, 2021 की मुठभेड़ के बाद फिर एक बार नक्सलियों और उन की मुहिम की चर्चा जोरशोर से शुरू हुई है कि आखिर वे चाहते क्या हैं और क्यों सरकार लाख कोशिशों के बाद भी उन का खात्मा नहीं कर पा रही है?

नक्सली मुहिम साल 1967 में पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले के एक गांव नक्सलबाड़ी से हुई थी, जिसे 2 कम्यूनिस्ट नौजवान नेताओं चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने शुरू किया था.

इन लोगों की बात गलत कहीं से नहीं थी कि सत्ता पर रसूखदारों और पूंजीपतियों का कब्जा है, जो किसानों और गरीबों का शोषण करते हैं. सरकार इन्हीं के इशारे पर नाचते हुए इन के भले के लिए ही सरकारी नीतियां बनाती है.

धीरेधीरे कई और ऐसे नौजवान इन से जुड़ने लगे, जो यह मानते थे कि जमीन उसी की होनी चाहिए जो उस पर खेती कर रहा है, न कि उस की जो अपनी हवेलियों में बैठ कर मुजरे सुनता है, शराब के नशे में धुत्त रहते हुए रंगरलियां मनाता है और गरीबों, जो आमतौर पर दलित, आदिवासी और पिछड़े होते हैं, से खेत में गुलामी कराता है.

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पैदावार के समय ये जमींदार उपज का एक बड़ा हिस्सा हंटर और कोड़ों के दम पर खुद रख लेते हैं और मजदूर को गुजारे लायक ही देते हैं, जिस से वह जिंदा रहे और खेतों में काम करते हुए इन के गोदाम अनाज से भरता रहे.

जल्द ही ऐसे लोगों ने इंसाफ के लिए हथियार उठा लिए और अमीरों का कत्लेआम शुरू कर दिया. जमींदारों, सूदखोरों और साहूकारों से तंग आए किसानमजदूरों ने इन का साथ दिया और देखते ही देखते नक्सली मुहिम आंध्र प्रदेश, ओडिशा, महाराष्ट्र, बिहार, मध्य प्रदेश के इलाकों में तेजी से फैल गई.

जब बड़े पैमाने पर हिंसा होने लगी, तब सरकार को होश आया, लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी. अब आलम यह है कि नक्सली कहीं भी हत्याएं कर देते हैं, लेकिन ज्यादातर उन के निशाने पर रहते तो अर्धसैनिक बल ही हैं, जिन्हें उन के सफाए के लिए नक्सली इलाकों में तैनात किया गया है.

हल क्या है

50 साल में नक्सली खुद कई गुटों में बंट गए हैं, लेकिन उन का मकसद नहीं बदला है. हाल यह है कि आज 11 राज्यों के 90 जिलों में इन की हुकूमत चलती है, जिस को ‘रैड कौरीडोर’ कहा जाता है. ये सभी इलाके आदिवासी बाहुल्य हैं और घने जंगलों वाले भी हैं.

हर मुठभेड़ के बाद यह सवाल मुंहबाए खड़ा हो जाता है कि आखिर नक्सली गलत कहां हैं और सही कहां हैं? यह ठीक है कि अब जमींदार, साहूकार और सूदखोर पहले से नहीं रहे हैं, लेकिन वे पूरी तरह खत्म हो गए हैं, यह कहने की भी कोई वजह नहीं.

हुआ इतना भर है कि उन की शक्लसूरत बदल गई है. अब उन के साथसाथ सरकारी मुलाजिम भी गरीबों का शोषण करने लगे हैं, जो बिना घूस लिए अनपढ़ आदिवासियों का कोई काम नहीं करते और सरकारी योजनाओं में जम कर घपलेघोटाले करते हैं.

लेकिन नक्सलियों की नजर में इस से भी बड़ी समस्या पूंजीपतियों का आदिवासी इलाकों में बढ़ता दखल है, जिस का जिम्मेदार वे सरकार को मानते हैं.

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आदिवासी इलाकों को कुदरत ने कीमती तोहफों से जीभर कर नवाजा है. मसलन खनिज, जंगली उपज, उपजाऊ जमीन, पानी और मेहनतकश मजदूर, इसलिए इन इलाकों पर देशभर के धन्ना सेठों की नजर रहती है, जिन का मकसद यहां फैक्टरियां और कारखाने लगा कर पैसा बनाना है.

जल, जंगल और जमीन पर सब से पहला हक आदिवासी का है, यह बात सरकार सम?ा और मान ले तो नक्सलियों का रुख कुछ तो नरम होगा. इस के अलावा सरकार को सम?ाना यह भी होगा कि हिंसा और मुठभेड़ इस समस्या का हल नहीं है. जब तक सरकार नक्सलियों से मिलबैठ कर बात नहीं करेगी, तब तक जवान मरते रहेंगे.

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