Amit Shah ने लिया अंबेडकर का नाम, राजनीति में मच गया घमासान

केंद्रीय गृह मंत्री Amit Shah पर कांग्रेस नेताओं द्वारा लगाए गए आरोपों ने एक बार फिर से राजनीतिक हलकों में तूफान मचा दिया है. अमित शाह पर गंभीर आरोप लगाया गया है. अगर यह कहा जाए कि उन्होंने सीधेसीधे संविधान निर्माता बाबा साहब डाक्टर भीमराव अंबेडकर का अपमान किया है, तो गलत नहीं होगा और जिस तरह से कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से कहा है कि अमित शाह को गृह मंत्री पद से हटाया जाए, तो यह भी गलत नहीं है.

दूसरी तरफ गृह मंत्री अमित शाह का कहना है कि कांग्रेस ने राज्यसभा में बाबा साहब डाक्टर भीमराव अंबेडकर पर दिए गए उन के बयान को तोड़मरोड़ कर पेश किया है, जिस से समाज में भ्रांति फैलाई जा सके.

इस मामले में सब से बड़ा सवाल यह है कि क्या अमित शाह ने या फिर कांग्रेस ने वास्तव में डाक्टर अंबेडकर का अपमान किया है? क्या कांग्रेस ने इस मुद्दे को उठा कर भाजपा को घेरने की कोशिश की है?

इन सवालों के जवाब ढूंढ़ने से पहले हमें यह समझना होगा कि इस मामले में दोनों पक्षों के दावे और आरोप क्या हैं. एक ओर, अमित शाह ने आरोप लगाया है कि कांग्रेस ने डाक्टर अंबेडकर का अपमान किया है और उन के बयान को तोड़मरोड़ कर पेश किया है, तो दूसरी ओर कांग्रेस ने इन आरोपों का खंडन किया है और कहा है कि भाजपा ने इस मुद्दे को उठा कर उन्हें घेरने की कोशिश की है.

इस मामले में सब से बड़ा सवाल यह है कि क्या कांग्रेस ने वास्तव में डाक्टर अंबेडकर का अपमान किया है? इस का जवाब ढूंढ़ने से पहले हमें यह समझना होगा कि डाक्टर भीमराव अंबेडकर के विचार और देश के लिए उन का योगदान क्या है.

बाबा साहब डाक्टर भीमराव अंबेडकर एक महान समाजसुधारक और राजनीतिज्ञ थे, जिन्होंने भारतीय संविधान के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, इसलिए उन का अपमान करना न केवल उन के विचारों और योगदान का अपमान करना है, बल्कि यह भारतीय संविधान और लोकतंत्र का भी अपमान है. लिहाजा, यह जरूरी है कि हम डाक्टर अंबेडकर के विचारों और योगदान का सम्मान करें और उन के अपमान के खिलाफ आवाज उठाएं.

इस मामले में एक और महत्त्वपूर्ण बात यह है कि क्या भाजपा ने इस मुद्दे को उठा कर कांग्रेस को घेरने की कोशिश की है? इस का जवाब ढूंढ़ने से पहले हमें यह समझना होगा कि भाजपा और कांग्रेस के बीच क्या राजनीतिक मतभेद हैं.

भाजपा और कांग्रेस के बीच सब से बड़ा मतभेद यह है कि भाजपा एक राष्ट्रवादी और हिंदुत्ववादी पार्टी है, जबकि कांग्रेस एक धर्मनिरपेक्ष और उदारवादी पार्टी है, इसलिए भाजपा और कांग्रेस के बीच अकसर राजनीतिक मतभेद होते रहते हैं.

लिहाजा, यह जरूरी है कि हम भाजपा और कांग्रेस के बीच के राजनीतिक मतभेदों को समझें और उन के बीच के विवादों को शांतिपूर्ण और रचनात्मक तरीके से हल करने की कोशिश करें.

इस मामले में एक और महत्त्वपूर्ण बात यह है कि क्या हमारे देश में राजनीतिक दलों के बीच के विवादों को शांतिपूर्ण और रचनात्मक तरीके से हल करने की कोशिश की जा रही है? इस का जवाब ढूंढ़ने से पहले हमें यह समझना होगा कि हमारे देश में राजनीतिक दलों के बीच के विवादों को हल करने के लिए क्या तरीके अपनाए जा सकते हैं.

हमारे देश में राजनीतिक दलों के बीच विवादों को हल करने के लिए कई तरीके अपनाए जा सकते हैं. सब से पहले हमें यह समझना होगा कि राजनीतिक दलों के बीच के विवादों को हल करने के लिए संवाद और समझौता करना बहुत महत्त्वपूर्ण है. इस के अलावा हमें यह भी समझना होगा कि राजनीतिक दलों के बीच के विवादों को हल करने के लिए न्यायपालिका की भूमिका भी बहुत महत्त्वपूर्ण है, इसलिए यह जरूरी है कि हम राजनीतिक दलों के बीच के विवादों को हल करने के लिए संवाद, समझौता और न्यायपालिका की भूमिका को समझें और उन का सम्मान करें.

इस के अलावा हमें यह भी समझना होगा कि हमारे देश में राजनीतिक दलों के बीच के विवादों को हल करने के लिए एकदूसरे के प्रति सहानुभूति और समझ रखनी होगी.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस मामले में गृह मंत्री अमित शाह का साथ दिया है. दरअसल, सच यह है कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने डाक्टर भीमराव अंबेडकर के बारे में एक बयान दिया था, जिस पर विवाद हुआ था.

अमित शाह ने कहा था कि अब अंबेडकर का नाम लेना एक फैशन हो गया है. अंबेडकर, अंबेडकर, अंबेडकर… इतना नाम अगर भगवान का लेते तो सात जन्मों तक स्वर्ग मिल जाता.

इस बयान के बाद विपक्षी दलों ने अमित शाह की आलोचना की और उन्हें अपना बयान वापस लेने के लिए कहा.

कांग्रेस को सीख बड़े काम के हैं छोटे चुनाव

उत्तर प्रदेश की 9 विधानसभा सीटों के उपचुनाव में कांग्रेस ने किसी सीट पर चुनाव नहीं लड़ा. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन है, जिस को ‘इंडिया ब्लौक’ के नाम से जाना जाता है. साल 2024 के लोकसभा चुनाव में सपाकांग्रेस गठबंधन ने 43 सीटें जीती थीं, जिन में से सपा को 37 और कांग्रेस को 6 सीटें मिली थीं.

9 विधानसभा सीटों के उपचुनाव अलीगढ़ जिले की खैर, अंबेडकरनगर की कटेहरी, मुजफ्फरनगर की मीरापुर, कानपुर नगर की सीसामऊ, प्रयागराज की फूलपुर, गाजियाबाद की गाजियाबाद, मिर्जापुर की मझवां, मुरादाबाद की कुंदरकी और मैनपुरी की करहल विधानसभा सीटें शामिल हैं.

उत्तर प्रदेश की इन 9 विधानसभा सीटों पर साल 2022 में हुए विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने सब से ज्यादा 4 सीटें जीती थीं. भाजपा ने इन में से 3 सीटें जीती थीं. राष्ट्रीय लोकदल और निषाद पार्टी के एकएक उम्मीदवार इन सीटों पर विजयी हुए थे. कानपुर नगर की सीसामऊ सीट साल 2022 में यहां से जीते समाजवादी पार्टी के इरफान सोलंकी को अयोग्य करार दिए जाने से खाली हुई थी.

समाजवादी पार्टी ने सभी 9 सीटों पर उम्मीदवार उतारे हैं. कांग्रेस पहले इस चुनाव में 5 सीटों को अपने लिए मांग रही थी. समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस के लिए महज 2 सीटें छोड़ी थीं. कांग्रेस ने मनमुताबिक सीट नहीं मिलने के चलते उपचुनाव न लड़ने का फैसला लिया. उत्तर प्रदेश के कांग्रेस प्रभारी अविनाश पांडेय ने साफ कहा कि कांग्रेस पार्टी चुनाव नहीं लड़ेगी.

अविनाश पांडेय ने कहा कि आज सब दलों को मिल कर संविधान को बचाना है. अगर भाजपा को नहीं रोका गया, तो आने वाले समय में संविधान, भाईचारा और आपसी सम?ा और भी कमजोर हो जाएगी.

हरियाणा की हार से कांग्रेस में निराशा का माहौल है. राहुल गांधी के नेतृत्व पर सवाल उठने लगे हैं. उत्तर प्रदेश के उपचुनाव में कांग्रेस हार जाती, तो उन के लिए एक और मुश्किल खड़ी हो जाती.

नरेंद्र मोदी और भाजपा से लड़ने के लिए कांग्रेस अपनी जमीन छोड़ती जा रही है, जिस का असर आने वाले समय पर पड़ेगा खासकर हिंदी बोली वाले इलाकों में, जहां पर कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधा मुकाबला है, वहां कांग्रेस को कोई चुनाव छोटा सम?ा कर छोड़ना नहीं चाहिए.

केवल विधानसभा और लोकसभा चुनाव लड़ने से ही काम नहीं चलने वाला है. कांग्रेस को अगर अपने को मजबूत करना है, तो उसे पंचायत चुनाव और शहरी निकाय चुनाव भी लड़ने पड़ेंगे, तभी उस का संगठन मजबूत होगा और बूथ लैवल तक कार्यकर्ता तैयार हो सकेंगे.

मजबूत करते हैं छोटे चुनाव पंचायत और शहरी निकाय के चुनाव हर 5 साल में पंचायती राज कानून के तहत होते हैं. इन में जातीय आरक्षण और महिला आरक्षण दोनों शामिल हैं. इन चुनाव में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण दिया गया है.

पंचायती राज कानून प्रधानमंत्री राजीव गांधी के समय में साल 1984 में लागू हुआ था. पंचायत और निकाय चुनाव विधानसभा और लोकसभा चुनाव की नर्सरी जैसे हैं.

राजनीति में नेताओं की पौध पहले छात्रसंघ चुनावों से तैयार होती थी. आज के नेताओं में तमाम नेता ऐसे हैं, जो छात्रसंघ चुनाव से आगे बढ़ कर नेता बने. इन में वामदल और कांग्रेस दोनों शामिल हैं. छात्रसंघ चुनावों पर रोक लगने के बाद से पंचायत और निकाय चुनाव राजनीति की नर्सरी बन गए हैं.

कांग्रेस ने पिछले कुछ सालों से पंचायत और निकाय चुनाव में गंभीरता से लड़ना बंद कर दिया है, जिस के चलते उन का संगठन बूथ लैवल तक नहीं पहुंच रहा और नए नेताओं की पौध भी वहां तैयार नहीं हो पा रही है. पंचायत चुनाव और शहरी निकाय चुनाव का माहौल विधानसभा और लोकसभा चुनाव जैसा होने लगा है.

पंचायत चुनावों में राजनीतिक दल अपनी पार्टी के चिह्न पर चुनाव भले ही नहीं लड़ते हैं, लेकिन उन्हें किसी न किसी पार्टी का समर्थन होता है. शहरी निकाय चुनाव पार्टी के चिह्न पर लड़े जाते हैं.

पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने पंचायत चुनाव की अहमियत को सम?ा और साल 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को जो कामयाबी मिली, उसे रोकने के लिए पूरे दमखम से पंचायत और विधानसभा चुनाव लड़ कर साल 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को रोकने में कामयाबी हासिल कर ली.

पश्चिम बंगाल की 63,229 ग्राम पंचायत सीटों में से तृणमूल कांग्रेस ने 35,359 सीटें जीती थीं. वहीं दूसरे नंबर पर रही भाजपा ने 9,545 सीटों पर जीत हासिल की थी.

ममता बनर्जी ने पंचायत चुनाव के जरीए ही 16 साल पहले राज्य में अपनी पार्टी को मजबूत किया और विधानसभा चुनाव जीते थे. वहां से ही लोकसभा चुनाव में कामयाबी हासिल कर के पश्चिम बंगाल से कांग्रेस और वामदलों को राज्य से बेदखल कर दिया.

दूसरे राज्यों को देखें, तो जिन दलों ने पंचायत और निकाय चुनाव लड़ा, वे राज्य की राजनीति में असरदार साबित हुए. उत्तर प्रदेश और बिहार में समाजवादी पार्टी और राजद दोनों ही पंचायत चुनावों में सब से प्रभावी ढंग से हिस्सा लेती है, जिस की वजह से विधानसभा और लोकसभा चुनाव में भी सब से प्रमुख दल के रूप में चुनाव मैदान में होते हैं.

उत्तर प्रदेश के 75 जिलों में जिला पंचायत सदस्य की 3,050 सीटें हैं. 3,047 सीटों पर हुए चुनाव में मुख्य मुकाबला भाजपा और सपा के बीच था. भाजपा ने 768 और सपा ने 759 सीटें जीती थीं.

साल 2021 में उत्तर प्रदेश में हुए ग्राम पंचायत चुनाव में 58,176 ग्राम प्रधानों सहित 7 लाख, 31 हजार, 813 ग्राम पंचायत सदस्यों ने जीत हासिल की थी. वैसे तो ये चुनाव पार्टी चुनाव चिह्न पर नहीं लड़े गए थे, लेकिन ब्लौक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव में क्षेत्र विकास समिति और जिला पंचायत सदस्य के साथ ग्राम प्रधान और पंचायत सदस्य वोट देते हैं. ऐसे में हर पार्टी ज्यादा से ज्यादा अपने लोगों को यह चुनाव जितवाना चाहती है.

पंचायत चुनाव की ही तरह से शहरी निकाय चुनाव होते हैं. इन चुनावों में पार्टी अपने उम्मीदवार खड़े करती हैं. इस में पार्षद, नगरपालिका, नगर पंचायत और मेयर का चुनाव होता है.

उत्तर प्रदेश के 75 जिलों में कुल 17 नगरनिगम यानी महापालिका, 199 नगरपालिका परिषद और 544 नगर पंचायत हैं. इन सभी के चुनाव स्थानीय निकाय चुनाव होते हैं. नगरनिगम सब से बड़ी स्थानीय निकाय होती है, उस के बाद नगरपालिका और फिर नगर पंचायत का नंबर आता है.

पंचायत चुनाव और निकाय चुनाव खास इसलिए भी होते हैं, क्योंकि ये कार्यकर्ताओं के चुनाव होते हैं, जो पार्टियों को लोकसभा और विधानसभा जिताने में खास रोल अदा करते हैं. यहां कार्यकर्ता और उम्मीदवार दोनों को अपने वोटरों का पता होता है.

देखा यह गया है कि पंचायत और निकाय चुनावों में जिस पार्टी का दबदबा होता है, लोकसभा या विधानसभा चुनावों में उस के अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद भी बढ़ जाती है.

बात केवल उत्तर प्रदेश की ही नहीं है, बल्कि बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और दिल्ली का भी यही हाल है. जिस प्रदेश में जो पार्टी पंचायत और निकाय चुनाव में मजबूत होती है, वह विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में भी अच्छा प्रदर्शन दिखाती है. उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल इस के सब से बड़े उदाहरण हैं. यहां भाजपा और तृणमूल कांग्रेस ने पंचायत चुनाव में सब से अच्छा प्रदर्शन किया था, तो विधानसभा और लोकसभा में भी उन का अच्छा प्रदर्शन रहा है.

बिहार में 8,053 ग्राम पंचायतें हैं, जबकि यहां गांवों की संख्या 45,103 हैं. मध्य प्रदेश के 52 जिलों में 55,000 से ज्यादा गांव हैं. 23,066 ग्राम पंचायतें हैं.

राजस्थान में 11,341 ग्राम पंचायतों के चुनाव है. वहां इन चुनाव की बड़ी राजनीतिक अहमियत है. विधानसभा चुनाव के बाद जनता की सब से ज्यादा दिलचस्पी इन चुनावों में होती है. राजस्थान और हरियाणा में सरपंच यानी मुखिया की बात की अहमियत उत्तर प्रदेश और बिहार से ज्यादा है. इस की सब से बड़ी वजह यह है कि राजस्थान और हरियाणा में खाप पंचायतों का असर रहा है. पंचायती राज कानून लागू होने के बाद खाप पंचायतों का असर खत्म हुआ और वहां चुने हुए मुखिया यानी सरपंच का असर होने लगा.

छोटे चुनावों का बड़ा आधार

पंचायत चुनावों में महिलाओं के लिए आरक्षण होने के चलते अब महिलाएं यहां मुखिया बनने लगी हैं. बहुत सारे पुरुष समाज को यह मंजूर नहीं था, लेकिन मजबूरी में सहन करना पड़ता है. एक ग्राम पंचायत में 7 से 17 सदस्य होते हैं. इन को गांव का वार्ड कहा जाता है. इस के चुने हुए सदस्य को पंच कहा जाता है.

पंचायत चुनाव में जनता 4 लोगों का चुनाव करती है. इन में प्रधान या सरपंच या मुखिया के नाम से जाना जाता है. इस के बाद पंच के लिए वोट पड़ता है. तीसरा वोट क्षेत्र पंचायत समिति और चौथा जिला पंचायत सदस्य के लिए होता है.

छोटे चुनाव का बड़ा आधार होता है. इस की 2 बड़ी वजहें हैं. पहली यह कि यहां चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार और वोटर के बीच जानपहचान सी होती है. फर्जी वोट और वोट में होने वाली गड़बड़ी को पकड़ना आसान होता है. इन चुनावों में आरक्षण होने के चलते हर जाति के वोट लेने पड़ते हैं. ऐसे में सभी को बराबर का हक देना पड़ता है.

यहां पार्टी की नीतियां नहीं चलती हैं. ऐसे में जो अच्छा उम्मीदवार होता है, वह चुनाव जीत लेता है. यह उम्मीदवार अगर विधानसभा और लोकसभा चुनाव तक जाएगा, तो चुनावी राजनीति की दिशा में बदलाव होगा.

‘ड्राइंगरूम पौलिटिक्स’ से चुनाव को जीतना आसान नहीं होता है. पंचायत और निकाय चुनाव लड़ने वाले नेता को मेहनत करने की आदत होती है. वह पार्टी के लिए मेहनत करेगा. कांग्रेस के लिए जरूरी है कि वह छोटे चुनावों की बड़ी अहमियत को समझे.

ज्यादा से ज्यादा तादाद में ज्यादा से ज्यादा चुनाव लड़ना कांग्रेस की सेहत को ठीक करने का काम करेगा. इस से गांवगांव, शहरशहर बूथ लैवल पर उस के पास कार्यकर्ताओं का संगठन तैयार होगा, जो विधानसभा और लोकसभा चुनाव को जीतने लायक बुनियादी ढांचा तैयार कर सकेगा.

नौजवानों में बढ़ रहा चुनावों का आकर्षण

जिस तरह से छात्रसंघ चुनाव लड़ने के लिए कालेज में पढ़ने वाले नौजवान पहले उतावले रहते थे, अब वे पंचायत और निकाय का चुनाव लड़ने के लिए तैयार रहते हैं.

पिछले 10 सालों को देखें, तो हर राज्य में औसतन 60 फीसदी पंचायत चुनाव लड़ने वालों की उम्र 40 साल से कम रही है. इन में से कई ने अपने कैरियर को छोड़ कर चुनाव लड़ा और जीते. कांग्रेस इन नौजवानों के जरीए राजनीति में बड़ी इबारत लिख सकती है. ये नौजवान जाति और धर्म से अलग हट कर राजनीति करते हैं.

प्रयागराज के फूलपुर विकासखंड के मुस्तफाबाद गांव के रहने वाले आदित्य ने एमबीए जैसी प्रोफैशनल डिगरी लेने के बाद नौकरी नहीं की, बल्कि अपने गांव की बदहाली को ठीक करने की ठानी. अपने अंदर एक जिद पाली कि गांव में ही बेहतर करेंगे. यहां की दशा सुधार कर ही दम लेंगे.

गांव में बिजली नहीं थी, तो आदित्य ने खुद के पैसे से विद्युतीकरण करा दिया. गांव में बिजली आई, तो सभी आदित्य के मुरीद हो गए. उसे अपना मुखिया चुनने का मन बनाया. आदित्य ने चुनाव जीत कर प्रयागराज के सब से कम उम्र के ग्राम प्रधान बनने में कामयाबी हासिल की.

हरियाणा पंचायत चुनाव में 21 साल की अंजू तंवर सरपंच बनीं. अंजू खुडाना गांव की रहने वाली हैं. खुडाना गांव के सरपंच की सीट महिला के लिए आरक्षित थी. गांव की ही बेटी अंजू तंवर को चुनाव लड़ाने का फैसला किया गया.

खुडाना गांव की आबादी तकरीबन 10,000 है. तकरीबन 3,600 वोट चुनाव के दौरान डाले गए थे, जिन में से सब से ज्यादा 1,300 वोट अंजू तंवर को मिले थे. अंजू के परिवार से कोई भी राजनीति में नहीं है. वे अपने परिवार से राजनीति में आने वाली पहली सदस्य हैं.

मध्य प्रदेश के बालाघाट जिले में निर्मला वल्के सब से कम उम्र की सरपंच बनी हैं. स्नातक की पढ़ाई करने के दौरान उन्होंने परसवाड़ा विकासखंड की आदिवासी ग्राम पंचायत खलोंडी से चुनाव लड़ा और जीत हासिल की. आदिवासी समाज से एक छात्रा को पढ़ाई की उम्र में गांव की सरपंच बनना समाज व गांव की जागरूकता का ही हिस्सा कहा जा सकता है.

पूरे देश में ऐसे बहुत से उदाहरण हैं, जहां नौजवानों ने पंचायत और निकाय चुनाव में जीत हासिल की है. ऐसे में नौजवान चेहरों को आगे लाने में कांग्रेस अहम रोल अदा कर सकती है.

कांग्रेस जाति और धर्म की राजनीति में फिट नहीं हो पाती है. पंचायत और निकाय चुनाव में जाति और धर्म का असर कम होता है. ऐसे में अगर इन चुनाव में कांग्रेस लड़े और नौजवानों को आगे बढ़ाए, तो देश की राजनीति से जाति और धर्म को खत्म करने मे मदद मिल सकेगी.

इस से कांग्रेस का अपना चुनावी ढांचा मजबूत होगा. छोटे चुनावों को कमतर आंकना ठीक नहीं होता है. जब कांग्रेस ताकतवर थी, तब वह इन चुनावों को लड़ती और जीतती थी.

पूरे देश में कांग्रेस अकेली ऐसी पार्टी है, जो भाजपा को रोक सकती है. इस के लिए उसे अपने अंदर बदलाव और आत्मविश्वास को बढ़ाना होगा. इस के लिए छोटे चुनाव बड़े काम के होते हैं.

हरियाणा : राम रहीम के आगे साष्टांग राजनीति

हरियाणा की राजनीति में जेल में बंद आरोपी और कैद की सजा भुगत रहे तथाकथित ‘बाबा’ राम रहीम के सामने एक बार फिर राजनीति ने हाथ जोड़ लिया है और सिर झुका कर साष्टांग करती दिखाई दे रही है. यह तो एक उदाहरण मात्र है, हमारे देश में धार्मिक पाखंड के आगे नेता सत्ता पाने के लिए लंबे समय से साष्टांग करते रहे हैं. दरअसल, इस की वजह हरियाणा विधानसभा चुनाव हैं, जहां के 9 जिलों के तकरीबन 30 सीटों पर लाखों की संख्या में उन के ‘भगत’ हैं. इन्हीं की वोट की ताकत के आगे बाबा विभिन्न चुनावों में उलटफेर की कोशिश करते रहे हैं. इस में कभी पास हो जाते हैं और कभी फेल. जेल जाने के बाद उन के जादू में कमी जरूर आई है, लेकिन बाहर आते ही भक्त और नेता चरण वंदना शुरू कर देते हैं.

वोटिंग से पहले राम रहीम का फिर पैरोल पर सशर्त बाहर आना यह बताता है कि नेताओं का वजूद किस तरह कमजोर होता जा रहा है. उन पर से लोगों का भरोसा उठ चुका है और उन्हें ऐसे अपराधियों की जरूरत है, जो उन्हें कुरसी तक पहुंचाएं.

अब यह चर्चा छिड़ गई है कि बाबा राम रहीम इस बार कितना चुनाव में कितना असर डालेंगे? आइए, आप को बताते हैं कि पैरोल पर रिहाई के बाद राम रहीम की क्या स्थिति है. राम रहीम मुसकराते हुए सुबहसुबह भारी सुरक्षा के बीच रोहतक की सुनारिया जेल से बाहर आ गए हैं. इधर चुनाव आयोग ने सशर्त उन्हें 20 दिनों की पैरोल दी है. निर्देश है कि वे न तो हरियाणा में रहेंगे और न ही चुनाव प्रचार करेंगे. मगर इस के बावजूद नेताओं को उन की जरूरत महसूस हो रही है. ऐसा लग रहा है कि उन के भक्त उन के कहे पर वोट देंगे.

दरअसल, ऐसा अनेक बार हो चुका है. राम रहीम के नाम यह रिकौर्ड है कि जेल में रहते हुए वे बारबार बाहर आते रहे हैं और उस का एक ही सबब है, सत्ता पक्ष की मदद करना. अगर देखें तो पाएंगे अब तक तथाकथित ‘बाबा’ राम रहीम तकरीबन 275 दिन पैरोल या फरलो पर बाहर रह चुके हैं. यह कैसा संयोग है कि वह अमूमन वे उन्हीं दिनों जेल से बाहर आते हैं, जब कहीं न कहीं चुनाव चल रहे होते हैं. ऐसे में कहा जा सकता है कि देश की सुप्रीम कोर्ट को इस पर स्वयं संज्ञान ले कर इस की जांच करानी चाहिए और नरेंद्र मोदी की सीबीआई को भी इसे संज्ञान में लेना चाहिए.

याद रहे कि तकरीबन महीनाभर पहले ही पैरोल पर रह कर राम रहीम जेल गए थे. पूछा जा रहा है कि एक तरफ संगीन मामलों में सजायाफ्ता कैदी को पैरोल मिल जाती है, वहीं बहुत सारे आरोपियों को जमानत तक नहीं मिल पाती. बहुत सारे कैदियों को बहुत जरूरतमें भी पैरोल नहीं मिलती है.

शायद नेताओं को यह जानकारी है कि राम रहीम का हरियाणा के कुछ जिलों में खासा असर है, इसलिए अनुयायियों को राजनीतिक संदेश देने उन्हें बाहर लाया आता है. बता दें कि इससे पहले वे हरियाणा नगरनिकाय चुनाव के समय 30 दिन की पैरोल पर बाहर आए थे. आदमपुर विधानसभा उपचुनाव से पहले उन्हें 40 दिन की पैरोल मिली थी. हरियाणा पंचायत चुनाव से पहले भी उन्हें पैरोल मिली थी. राजस्थान विधानसभा चुनाव से पहले उसे 29 दिन की फरलो दी गई थी.

कुलमिला कर जब तक देश की सब से बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट का डंडा नहीं चलेगा, यह मजाक जारी रहेगा.

हरियाणा में लगभग 20 फीसदी दलित मतदाता हैं. इसे अपने पक्ष में लेने के लिए बाबा जैसे अपराधी को भी जेल से बाहर ला कर के नेताओं ने दिखा दिया है कि वे सत्ता के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं.

कहते हैं न कि दूध का जला छाछ को भी फूंकफूंक कर पीता है, हरियाणा में भी राजनीति और नेता यही कर रहे हैं, राम रहीम हर बार कोशिश करते हैं कि उन का असर दिखे. साल 2019 के में चुनाव में सिरसा (डेरा सच्चा सौदा मुख्यालय) में भी भाजपा जीत नहीं पाई. इसी तरह साल 2012 में कैप्टन अमरिंदर सिंह की डूबती नैया भी बाबा नहीं बचा पाए थे, जबकि बाबा का आशीर्वाद लेने कैप्टन सपत्नीक सिरसा पहुंचे थे. इतना ही नहीं डबवाली सीट पर डेरा सच्चा सौदा ने खुल कर इनेलो का विरोध किया था, पर इनेलो उम्मीदवार जीत गए. साल 2009 में अजय चौटाला भी डेरा के विरोध के बावजूद इस सीट से जीत गए थे. कुलमिला कर राम रहीम का जादू कभी चलता है, कभी नहीं चलता मगर नेता उन का आशीर्वाद लेने के लिए उन के अपराधी चेहरे को भूल जाते हैं और यह बताते हैं कि उन का जनता से सरोकार हो या फिर नहीं हो, वे राम रहीम बाबा को सिर पर बैठाने के लिए तैयार हैं.

औक्सफोर्ड से पढ़ी दिल्ली की लड़की कैसे पहुंची सीएम की कुर्सी तक, आतिशी की कहानी

अब से दिल्ली की नई मुख्यमंत्री आतिशी होंगी. खुद केजरीवाल ने मुख्यमंत्री पद के लिए आतिशी के नाम का प्रस्ताव दिया है. विधायकों ने भी आतिशी के नाम का समर्थन किया है. जिस दिन से अरविंद केजरीवाल ने ये बयान दिया था कि मैं जनता के बीच में जाऊंगा..गली-गली में जाऊंगा..घर-घर जाऊंगा और जब तक जनता अपना फ़ैसला न सुना दे कि केजरीवाल ईमानदार है तब तक मैं सीएम की कुर्सी पर नहीं बैठूंगातब से दिल्ली के सीएम कौन होंगे इसके कयास लगाएं जा रहे थे और अब सबको अपना नया सीएम मिल गई है. लेकिन कैसे आतिशी राजनीति तक पहुंची और अरविंद केजरीवाल से मिली. दिल्ली की लड़की आतिशी की कहानी सभी जानना चाहते है.

 

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आतिशी बनीं दिल्ली की तीसरी महिला सीएम

आपको बता दें, कि दिल्ली में अभी तक सात मुख्यमंत्री रहे है. जिसमें से दो महिला सीएम ने कुर्सी संभाली है. आतिशी ऐसी तीसरी महिला होंगी जो दिल्ली की सीएम की कुर्सी पर बैठेंगी और आठवीं सीएम बनेंगी जो दिल्ली का कार्यकाल संभालेंगी.

इनसे पहले भाजपा की ओर से सुषमा स्वराज और कांग्रेस की ओर से शीला दीक्षित दिल्ली की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं. सबसे लंबा कार्यकाल शीला दीक्षित का रहा है.

सुषमा स्वराज- 12 अक्टूबर 1998 – 3 दिसम्बर 1998 (52 दिन तक दिल्ली की सीएम रहीं)

शीला दीक्षित – नई दिल्ली सीट- 3 दिसम्बर 1998 – 28 दिसम्बर 2013 (15 साल, 25 दिन तक दिल्ली की सीएम रहीं)

आतिशी की पढ़ाई और राजनीति

आतिशी 8 जून 1981 में दिल्ली में जन्मीं है. इनकी स्कूली पढ़ाई नई दिल्ली के स्प्रिंगडेल्स स्कूल में हुई हैं. फिर दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफन कौलेज से साल 2001 में ग्रैजुएशन की है. फिर आगे की पढ़ाई के लिए आतिशी इंग्लैंड चली गई. आतिशी ने औक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से मास्टर्स की स्टीजिज की. इशके बाद आतिशी पढ़ाई करके भारत वापस लौटी, कुछ दिन आंध्र प्रदेश के ऋषि वैली स्कूल में काम किया. इतना ही नहीं, एक गैर-सरकारी संगठन संभावना इंस्टीट्यूट औफ पब्लिक पौलिसी के साथ भी जुड़ी रहीं. इतनी पढ़ाई करने बाद आतिशी को स्कूलों और संगठनों से जुड़ना पड़ा. लेकिन किसे पता था कि दिल्ली विश्व विद्यालय के प्रोफेसर विजय सिंह और तृप्ता सिंह के घर की लड़की एक दिन दिल्ली की सीएम पद पर बैठेंगी और राजनीति में अपनी वर्चस्व अपनाएंगी.

राजनीति में कब और कैसें पहुंची आतिशी

राजनीतिक सफर की बात करें तो आम आदमी पार्टी की स्थापना के समय से ही आतिशी इस पार्टी से जुड़ गई थी. आम आदमी पार्टी ने 2013 में पहली बार दिल्ली के विधानसभा से चुनाव लड़ा था और तभी से आतिशी पार्टी की घोषणा पत्र मसौदा समिति की प्रमुख सदस्य थीं. आतिशी आप प्रवक्ता भी रहीं. उन्होंने जुलाई 2015 से अप्रैल 2018 तक दिल्ली के उपमुख्यमंत्री और शिक्षा मंत्री रहे मनीष सिसोदिया के सलाहकार के तौर पर काम किया और दिल्ली के सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का लेवल सुधारने के लिए कई योजनाओं पर काम किया.

पार्टी के गठन के शुरुआती दौर में इसकी नीतियों को आकार देने में भी आतिशी की अहम भूमिका रही है. बाद में साल 2019 के लोकसभा चुनाव में आतिशी को पूर्वी दिल्ली से पार्टी का उम्मीदवार बनाया गया. मुकाबला बीजेपी के प्रत्याशी गौतम गंभीर से था. चुनाव में आतिशी गौतम गंभीर से 4.77 लाख मतों से हार गईं थी.

साल 2020 के दिल्ली चुनाव में उन्होंने कालकाजी क्षेत्र से चुनाव लड़ा और बीजेपी प्रत्याशी धर्मवीर सिंह को 11 हजार से अधिक वोट से मात दी. इसके बाद से ही आतिशी का सियासी ग्राफ तेजी से बढ़ा. 2020 के चुनाव के बाद उन्हें आम आदमी पार्टी की गोवा इकाई का प्रभारी बनाया गया.

केजरीवाल ने गिरफ्तारी का संकट मंडराने से पहले अपनी कैबिनेट में फेरबदल किया और 9 मार्च 2023 को आतिशी को कैबिनेट मंत्री पद की शपथ दिलाई गई. दिल्ली शराब घोटाले में मनीष सिसोदिया और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी के बाद आतिशी की भूमिका और भी जरूरी हो गई. केजरीवाल के इस्तीफे के ऐलान के बाद से ही आतिशी के नाम की चर्चा तेज थी और आज विधायक दल की बैठक में उनके नाम पर मुहर लग गई और वे दिल्ली की मुख्यमंत्री बन गई.

आतिशी के नाम को लेकर हुई थी कंट्रोवर्सी

आपको बता दें कि सबसे पहले आतिशी सरनेम में सिंह का यूज करती थीं. उनके पिता विजय सिंह है. इसलिए वे अपने नाम के पीछे सिंह लगाती थी. बाद में लेफ्ट आइडियोलौजी वाले पैरेंट्स के चलते उन्होंने नया सरनेम यूज करना शुरू किया है, जो कि मार्क्स और लेनिन के नाम से मिलकर बना है. यह था मार्लेना, लेकिन इसे भी बाद में उन्हे हटाना पड़ा. क्योंकि इस सरनेम पर विरोधी दल के लोगों ने उन्हे ईसाई धर्म का कहना शुरु कर दिया. जिसके बाद उन्होंने ये भी हटा दिया.

आतिशी की जिनसे शादी हुई है, वह भी सिंह हैं. ऐसे में उनका नाम आतिशी मार्लेना सिंह भी हुआ. हालांकि, यह नाम भी बहुत दिनों तक नहीं चला. आतिशी को विवाद के चलते मार्लेना सरनेम हटाना पड़ा.

ऐसा कहा जाने लगा कि दिल्ली के कालकाजी में बड़ी संख्या में पंजाबी आबादी रहती है. हो सकता है कि यह उनका रणनीतिक कदम हो, जिसके जरिए वह उस वोटबैंक को साइलेंटली लुभाना चाहती हों. लेकिन मौजूदा समय में वह सिर्फ आतिशी लिखती हैं. नाम के साथ कोई सरनेम यूज नहीं करती हैं.

माता पिता अफजल गुरु के समर्थन में लड़े थे

आतिशी एक बाद तब भी कंटोवर्सी में आई थी जब आतिशी के माता-पिता आतंकी अफजल गुरु को बचाने के लिए लड़े थे. इसी पर हाल में स्वाति मालीवाल ने एक्स पर पोस्ट मे लिखा है, ‘दिल्ली के लिए आज बहुत दुखद दिन है. आज दिल्ली की मुख्यमंत्री एक ऐसी महिला को बनाया जा रहा है जिनके परिवार ने आतंकवादी अफ़ज़ल गुरु को फांसी से बचाने की लंबी लड़ाई लड़ी. उनके माता पिता ने आतंकी अफ़ज़ल गुरु को बचाने के लिए माननीय राष्ट्रपति को दया याचिकाऐं लिखी. उनके हिसाब से अफ़ज़ल गुरु निर्दोष था और उसको राजनीतिक साज़िश के तहत फंसाया गया था. वैसे तो आतिशी मार्लेना सिर्फ़ ‘Dummy CM’ है, फिर भी ये मुद्दा देश की सुरक्षा से जुड़ा हुआ है. भगवान दिल्ली की रक्षा करे!’ 

नरेंद्र मोदी और अमित शाह की रणनीति चारों खाने चित

भा रतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी की सत्ता आने के बाद जिस तरह से जम्मूकश्मीर और वहां की अवाम को दर्द ही दर्द मिला है, क्या उसे कोई भूल सकता है? यहां तक कि नागरिकों के अधिकार नहीं रहे और बंदूक के साए में अब देश की सब से बड़ी अदालत के आदेश के बाद चुनाव होने जा रहे हैं. यह एक ऐसा रास्ता है, जो लोकतांत्रिक की मृग मरीचिका का आभास देता है.

मगर सितंबर, 2024 में होने वाले विधानसभा चुनाव की जो रणनीति कांग्रेस बना रही है, उस में नरेंद्र मोदी और अमित शाह का पूरा खेल बिगड़ता दिखाई दे रहा है. भाजपा किसी भी हालत में यहां सत्ता में आती नहीं दिखाई दे रही है, जिस का आगाज लोकसभा चुनाव में भी नतीजे के रूप में हमारे सामने है.

इधर, फारूक अब्दुल्ला ने जिस तरह सामने आ कर मोरचा संभाला है और  विधानसभा चुनाव लड़ने की रणनीति बनाई है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी की रणनीति चारों खाने चित हो चुकी है.

कांग्रेस प्रमुख मल्लिकार्जुन खड़गे और राहुल गांधी श्रीनगर पहुंचे थे. मल्लिकार्जुन खड़गे ने जम्मूकश्मीर के आगामी विधानसभा चुनाव के लिए दूसरे विपक्षी दलों के साथ गठबंधन करने की इच्छा जताई और केंद्रशासित प्रदेश के लोगों से भारतीय जनता पार्टी के वादों को ‘जुमला’ करार दिया.

मल्लिकार्जुन खड़गे ने लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी के साथ श्रीनगर में कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं से विधानसभा चुनावों की जमीनी स्तर की तैयारियों के बारे में जानकारी ली. उन्होंने कहा कि ‘इंडी’ गठबंधन ने एक तानाशाह को पूरे बहुमत के साथ (केंद्र में) सत्ता में आने से रोका है. यह गठबंधन की सब से बड़ी कामयाबी है. कांग्रेस ने राज्य का दर्जा बहाल करने की पहल की है. हम इस दिशा में काम करने का वादा करते हैं. राहुल गांधी की जम्मूकश्मीर में चुनाव से पहले गठबंधन बनाने में दिलचस्पी है. वे दूसरी पार्टियों के साथ मिल कर चुनाव लड़ने के इच्छुक हैं.

कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने आगे कहा कि दरअसल, भाजपा लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद चिंतित है, क्योंकि वे लोग जिन विधेयकों को पास कराना चाहते थे, उन में करारी मात मिली है.

पूर्ण राज्य का दर्जा

कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के श्रीनगर दौरे से राजनीति में एक गरमाहट आ गई है. राहुल गांधी ने कहा कि जम्मूकश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल करना कांग्रेस और विपक्षी गठबंधन ‘इंडी’ की प्राथमिकता है. यह उन की पार्टी का लक्ष्य है कि जम्मूकश्मीर और लद्दाख के लोगों को उन के लोकतांत्रिक अधिकार वापस मिलें.

कांग्रेस और ‘इंडी’ गठबंधन की प्राथमिकता है कि जम्मूकश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्जा जल्द से जल्द बहाल किया जाए. हमें उम्मीद थी कि चुनाव से पहले ऐसा कर दिया जाएगा, लेकिन चुनाव घोषित हो गए हैं. हम उम्मीद कर रहे हैं कि जल्द से जल्द पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल किया जाएगा और जम्मूकश्मीर के लोगों के अधिकार बहाल किए जाएंगे.

आजादी के बाद यह पहली बार है कि कोई राज्य केंद्रशासित प्रदेश बन गया है. यहां कोई विधानपरिषद, कोई पंचायत या नगरपालिका नहीं है. लोगों को लोकतंत्र से दूर रखा गया है.

मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के 30 सितंबर तक चुनाव कराने के निर्देश के चलते ही जम्मूकश्मीर में विधानसभा चुनाव की घोषणा की गई है.

चुनाव से पहले जम्मूकश्मीर के लोगों से किया गया एक भी वादा पूरा नहीं किया गया है. कुलमिला कर कांग्रेस नेताओं ने जिस तरह जम्मूकश्मीर में मोरचाबंदी की है, उस से नरेंद्र मोदी और अमित शाह के मनसूबे ध्वस्त होंगे, ऐसा लगता है.

फारूक अब्दुल्ला और कांग्रेस

जम्मूकश्मीर में जो नए राजनीतिक समीकरण बन रहे हैं, उन से साफ दिखाई दे रहा है कि फारूक अब्दुल्ला, जो जम्मूकश्मीर के सब से बड़े नेता और चेहरे हैं, ने कांग्रेस के साथ मिल कर चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है और यह गठबंधन अगर बन जाता है, तो इस की सरकार बनने की पूरी संभावना है, क्योंकि इन के सामने सारे नेता बौने हैं. वहीं राहुल गांधी और ‘इंडी’ गठबंधन का अब समय आ गया है, यह दिखाई देता है.

यहां चुनाव 18 सितंबर, 25 सितंबर और 1 अक्तूबर को होंगे. नतीजे 4 अक्तूबर को घोषित किए जाएंगे.

फारूक अब्दुल्ला ने कहा कि कांग्रेस के साथ मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी (माकपा) के (एमवाई) तारिगामी भी हमारे साथ हैं. मुझे उम्मीद है कि हमें लोगों का साथ मिलेगा और हम लोगों

के जीवन को बेहतर बनाने के लिए भारी बहुमत से जीतेंगे. इस के पहले राहुल गांधी ने भरोसा दिया था कि जम्मूकश्मीर के लिए पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल करना कांग्रेस और ‘इंडी’ गठबंधन की प्राथमिकता है.

फारूक अब्दुल्ला ने उम्मीद जताई कि सभी ताकतों के साथ पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल किया जाएगा. राज्य का दर्जा हम सभी के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है. इस का हम से वादा किया गया है. इस राज्य ने बुरे दिन देखे हैं और हमें उम्मीद है कि इसे पूरी शक्तियों के साथ बहाल किया जाएगा. इस के लिए हम ‘इंडी’ गठबंधन के साथ एकजुट हैं.

महत्त्वपूर्ण तथ्य सामने आया है कि चुनाव से पहले या चुनाव के बाद गठबंधन में महबूबा मुफ्ती के नेतृत्व वाली पीडीपी की मौजूदगी से भी नैशनल कौंफ्रैंस के नेता फारूक अब्दुल्ला ने इनकार नहीं किया है.

देसी नेताओं का सूटबूट में लुक्स है वायरल, टशन दिखाने में नहीं है किसी से कम

भारत में एक से बढ़ कर एक नेता हैं. कई तो यंग हैं, जो आज भी बिलकुल उसी तरह के कपड़े पहनना पसंद करते हैं, जो कभी आजादी के वक्त पहने जाते थे. ज्यादातर नेताओं की पोशाक अमूमन देसी ही देखी गई है, लेकिन अब ऐसा नहीं है, क्योंकि कई नेता काफी स्टाइलिश हैं और सूटबूट पहना करते हैं.

 

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रवि किशन

रवि किशन, जो गोरखपुर से भारतीय जनता पार्टी के सांसद हैं, का असल लुक काफी बदला है. पहले वे बिना दाढ़ीमूंछों के हंसमुख चेहरे के लिए जाने जाते थे, लेकिन अब वे घनी दाढ़ीमूंछों के साथ एक गंभीर लुक में नजर आते हैं. साथ ही, उन्हें हर तरह के स्टाइलिश लुक में भी देखा गया है. वे कभी देसी अवतार में नजर आते हैं, तो कभी सूटबूट के साथ, लेकिन ज्यादातर चुनावी दौर में उन्हें देसी लिबास में ही देखा गया है.

तेजस्वी सूर्या

तेजस्वी सूर्या, जो बैंगलुरु दक्षिण से भारतीय जनता पार्टी के सांसद हैं, का लुक काफी आकर्षक और युवा है. वे अकसर औफिशियल कपड़ों में नजर आते हैं, जैसे कि सूट और टाई, जो उन का पहनावा है. उन के बाल छोटे हैं  और वे अकसर बिना दाढ़ीमूंछों के साफसुथरे लुक में दिखते हैं. तेजस्वी सूर्या देसी लिबास में बेहद कम नजर आते हैं.

चंद्रशेखर आजाद

चंद्रशेखर आजाद का लिबास उन के क्रांतिकारी जीवन का प्रतीक है. वे अकसर धोतीकुरता पहनते हैं, जो उस समय के भारतीय ग्रामीण और साधारण लोगों की एक पहचान है. उन के पहनावे में सादगी और भारतीयता की झलक मिलती है. लेकिन ऐसा नहीं है कि उन्हें कभी सूटबूट में नहीं देखा गया है. वे सूटबूट के भी शौकीन रहे हैं.

चिराग पासवान

चिराग पासवान भी उन नेताओं की लिस्ट में आते हैं, जो देसी लिबास कैरी करने में बिलकुल नहीं शरमाते हैं. हालफिलहाल में चिराग पासवान ने एक इवैंट में अपने देसी लुक से सब का ध्यान खींचा था. उन्होंने ब्लैक शेरवानी पहनी थी, जिस में ग्रे धागों से कढ़ाई की गई थी. इस लुक में उन्होंने हील वाले ब्लैक लेदर के शूज और गोल्डन रिंग्स पहनी थीं. उन की यह ट्रैडिशनल आउटफिट और बियर्ड लुक उन्हें काफी हैंडसम और डैशिंग दिखा रहा था. इस के अलावा कई दफा चिराग पासवान सूटबूट में भी नजर आ चुके हैं.

अखिलेश यादव

अखिलेश यादव का लुक अकसर चर्चा में रहता है खासकर जब वे पब्लिक कार्यक्रमों में शामिल होते हैं. वे टोपी के साथ देसी लुक में दिखाई देते हैं. उन का पहनावा आमतौर पर सफेद कुरतापाजामा और लाल टोपी का होता है, जो समाजवादी पार्टी का प्रतीक है. यह लुक उन्हें एक पहचान देता है और उन के समर्थकों के बीच काफी लोकप्रिय बनाता है.

सिसोदिया का बहाना जमानत पर निशाना

दिल्ली शराब घोटाले में आम आदमी पार्टी के नेता और दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को सुप्रीम कोर्ट ने 17 महीने के बाद जमानत दी. जमानत देते समय सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत स्वतंत्रता के पहलू को सामने रखते हुए निचली अदालतों को तमाम नसीहतें भी दे डालीं.

सवाल उठता है कि तमाम फैसलों में इस तरह दी जाने वाली नसीहतों को निचली अदालतें किस तरह से लेती हैं? जमानत देने में अदालतों को इतनी दिक्कत क्यों होती है? आरोपी देश छोड़ कर भाग नहीं रहा होता है. जमानत आरोपी का अधिकार है. इस के बावजूद अदालतें जमानत देने में संकोच क्यों करती हैं?

मनीष सिसोदिया जैसे लोगों पर तो होहल्ला खूब मचता है. इन के पास अच्छे वकीलों की कमी नहीं होती है. पैसा कोई समस्या नहीं है, तब यह हालत है. देश की जेलों में तमाम लोग जमानत मिलने के इंतजार में सड़ रहे हैं. इन की बात सुनने वाला कोई नहीं है. हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक जाना इन की हैसियत से बाहर होता है.

जब नेता सत्ता में होते हैं, तो उन को यह परेशानी क्यों नहीं पता चलती कि जमानत के लिए आरोपी का घरद्वार तक बिक जाता है. जमानत का इंतजार कर रहे हर आदमी के पास नेताओं की तरह महंगे वकील और पैसा नहीं होता है. सरकार जमानत को ले कर समाज सुधार का कोई कानून क्यों नहीं बनाती?

जेल नहीं, जमानत ही नियम है

हाईकोर्ट से जमानत के लिए जाने का कम से कम खर्च 3 लाख से 5 लाख रुपए के बीच आता है. सुप्रीम कोर्ट में यह खर्च 5 लाख से 10 लाख रुपए कम से कम हो जाता है. आम आदमी किस तरह से अपना मुकदमा वहां ले कर जाए? खासतौर पर तब, जब घर का कमाने वाला ही जेल में जमानत की राह देख रहा हो.

जमानत के अधिकार पर केवल सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी से काम नहीं चलने वाला. इस को ले कर न्याय प्रणाली में एक सही व्यवस्था होनी चाहिए, जिस से कम से कम समय जमानत के इंतजार में लोगों को जेल में रहना पड़े.

सुप्रीम कोर्ट ने मनीष सिसोदिया को जमानत देते वक्त कहा कि जमानत को सजा के तौर पर नहीं रोका जा सकता. निचली अदालतों को यह समझाने का समय आ गया है कि ‘जेल नहीं, जमानत ही नियम है’. मुकदमे के समय पर पूरा होने की कोई उम्मीद नहीं है. मनीष सिसोदिया को दस्तावेजों की जांच करने का अधिकार है.

अदालत ने यह देखने के बाद याचिका मंजूर की कि मुकदमे में लंबी देरी ने मनीष सिसोदिया के जल्दी सुनवाई के अधिकार का उल्लंघन किया है. कोर्ट ने कहा कि जल्दी सुनवाई का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत स्वतंत्रता का एक पहलू है. बैंच ने कहा कि मनीष सिसोदिया को जल्दी सुनवाई के अधिकार से वंचित किया गया है.

हाल ही में जावेद गुलाम नबी शेख मामले में भी हम ऐसे ही निबटे थे. हम ने देखा कि जब अदालत, राज्य या एजेंसी जल्दी सुनवाई के अधिकार की रक्षा नहीं कर सकती हैं, तो अपराध गंभीर होने का हवाला दे कर जमानत का विरोध नहीं किया जा सकता है. अनुच्छेद 21 अपराध की प्रकृति के बावजूद लागू होता है.

समाज सुधार से भागती सरकारें

मनीष सिसोदिया की जमानत पर सांसद संजय सिंह ने कहा कि दिल्ली का नागरिक खुश है. सब मानते थे कि हमारे नेताओं के साथ जोरजबरदस्ती और ज्यादती हुई है. हमारे मुखिया अरविंद केजरीवाल और सत्येंद्र जैन को जेल में रखा है. वे भी बाहर आएंगे.

केंद्र की सरकार की तानाशाही के खिलाफ जोरदार तमाचा है. ईडी ने कोई न कोई जवाब दाखिल करने का बहाना बनाया. एक पैसा मनीष सिसोदिया के घर, बैंक खाते से नहीं मिला. सोना और प्रौपर्टी नहीं मिला. दिल्ली के विधानसभा चुनाव के लिए और आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता के लिए खुशखबरी है. हमें ताकत मिलेगी.

संजय सिंह का बयान राजनीतिक है. प्रधानमंत्री के साथसाथ उन को न्याय प्रणाली से सवाल करना चाहिए कि जमानत देने में हिचक क्यों होती है? संजय सिह और आम आदमी पार्टी सत्ता में हैं, जहां कानून बनते हैं. उन को राज्यसभा में यह बात उठानी चाहिए कि जमानत के अधिकार में रोड़ा न लगाया जा सके.

दरअसल, सरकारों के साथ यह दिक्कत होती है कि वे शोषक होती हैं. कानून के जरीए समाज सुधार के काम नहीं करती हैं. संजय सिंह और आम आदमी पार्टी आज भी दूसरे आरोपियों की चिंता नहीं कर रही, जो जमानत के इंतजार में जेल में हैं. वे सब केवल अपनी पार्टी के लोगों के लिए आवाज उठा रहे हैं.

आम आदमी पार्टी जब विपक्ष में थी, तब उस के नेता अरविंद केजरीवाल कहते थे कि दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को पहले जेल में डालो, फिर मुकदमा चलाओ. सब कबूल कर देंगी. कहां कैसे भ्रष्टाचार और घोटाले हुए हैं. अब जब उन पर भी यही हथियार चल पड़ा, तो सम?ा में आ रहा है कि जेल, जमानत, सुनवाई में देरी, ईडी और सीबीआई क्या करती है, उस का क्या असर पड़ता है. जो पार्टी सत्ता में हो, तो उसे इस तरह के कानून बनाने चाहिए कि समाज सुधार हो सके. जनता को राहत मिले.

जमानत का अधिकार एक बड़ा मुद्दा है. सुप्रीम कोर्ट बारबार निचली अदालतों को प्रवचन देती है, लेकिन निचली अदालतें कहानी की तरह सुन कर भूल जाती हैं. ऐसे में कानून बनाने वाली सरकारों की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वह ‘जेल नहीं, जमानत ही नियम है’ के सिद्धांत को लागू कराए, जिस से जमानत के लिए लोगों को अपना घरद्वार न बेचना पड़े. हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक न पहुंच सकने वाले आरोपियों को भी जल्दी जमानत मिल सके.

17 महीने बाद मिली जमानत

सुप्रीम कोर्ट ने तथाकथित दिल्ली शराब घोटाले में मनीष सिसोदिया की जमानत पर फैसला सुना दिया. मनीष सिसोदिया को सुप्रीम कोर्ट ने जमानत दे दी है. 17 महीने के बाद वे जेल से बाहर आ रहे हैं. उन्हें 10 लाख रुपए के निजी मुचलके पर जमानत मिल गई है. मनीष सिसोदिया पर दिल्ली आबकारी नीति में गड़बड़ी के आरोप लगे हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने कुछ शर्तों के साथ जमानत दी है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक, मनीष सिसोदिया को अपना पासपोर्ट जमा करना होगा, इस का मतलब यह है कि वे देश छोड़ कर बाहर नहीं जा सकते. दूसरा, उन्हें हर सोमवार को थाने में हाजिरी देनी होगी.

आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह ने इस फैसले का स्वागत करते हुए कहा है कि यह सत्य की जीत हुई है. पहले से कह रहे थे, इस मामले में कोई भी तथ्य और सत्यता नहीं थी. जबरदस्ती हमारे नेताओं को जेल में रखा गया.

क्या भारत के प्रधानमंत्री इन 17 महीने का जवाब देंगे? जिंदगी के 17 महीने जेल में डाल कर बरबाद किए? जब ‘जेल नहीं, जमानत ही नियम है’ का सिद्धांत लागू होगा, तो किसी की जिंदगी का कीमती समय जमानत के इंतजार में जेल में नहीं कटेगा.

सरकार पर बरसे सिसोदिया

शुक्रवार, 9 अगस्त, 2024 को जमानत पर बाहर आए मनीष सिसोदिया ने कार्यकर्ताओं के संबोधित करते हुए कहा, ‘इन आंसुओं ने ही मुझे ताकत दी है. मुझे उम्मीद थी कि 7-8 महीने में इंसाफ मिल जाएगा, लेकिन कोई बात नहीं, 17 महीने लग गए. लेकिन जीत ईमानदारी और सचाई की हुई है. उन्होंने (भाजपा) बहुत कोशिशें कीं. उन्होंने सोचा कि अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और संजय सिंह को जेल में डालेंगे, तो हम सड़ जाएंगे.

‘अरविंद केजरीवाल का नाम आज पूरे देश में ईमानदारी का प्रतीक बन गया है. भाजपा दुनिया की सब से बड़ी पार्टी होने के बावजूद एक राज्य में एक उदाहरण नहीं दे पाई.

‘इसी छवि को बिगाड़ने के लिए ये सारे षड्यंत्र रचे जा रहे हैं. जनता के दिलों के दरवाजे खुले हुए हैं. आप जेल के दरवाजे बंद कर सकते हैं, लेकिन जनता के दिलों के दरवाजे बंद नहीं कर सकते हैं.

‘बाबा साहब अंबेडकर ने 75 साल पहले ही यह अंदाजा लगा लिया था कि कभीकभी इस देश में ऐसा होगा कि तानाशाही बढ़ जाएगी. तानाशाह सरकार जब एजेंसियों, कानूनों और जेलों का दुरुपयोग करेगी, तो हमें कौन बचाएगा?

‘बाबा साहेब अंबेडकर ने लिखा था, संविधान बचाएगा. सुप्रीम कोर्ट ने संविधान का इस्तेमाल करते हुए कल तानाशाही को कुचला. मैं उन वकीलों का भी शुक्रगुजार हूं, जो यह लड़ाई लड़ रहे थे. वे वकील एक कोर्ट से दूसरे कोर्ट धक्के खा रहे हैं.’

पर बात घूमफिर कर वहीं आ जाती है कि ‘जेल नहीं, जमानत ही नियम है’ का फार्मूला हर उस इनसान पर लागू क्यों नहीं होता है, जो जेल में बैठा न जाने कितने समय से सड़ रहा है.

‘इंडिया टुडे’ में छपी एक खबर के मुताबिक, भारत की दोतिहाई जेल आबादी दलित, आदिवासी और अन्य पिछड़ा वर्ग के समुदायों के विचाराधीन कैदियों की है, जो छोटेमोटे अपराधों के आरोप में बंद हैं.

कइयों के पास कानूनी मदद लेने को पैसे नहीं हैं. वे अपने अधिकारों से नावाकिफ भी हैं. सरकार की मुफ्त कानूनी सहायता आरोपपत्र दाखिल होने और मुकदमा शुरू होने के बाद मिलती है. ऐसे लोगों को भी तो जमानत मिलने की सहूलियत होनी चाहिए.

डिंपल यादव है अखिलेश की परफेक्ट वाइफ, दोनों की कैमिस्ट्री है सुपरहिट

समाजवादी पार्टी के प्रमुख और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और उनकी पत्नी डिंपल यादव सुर्खियों में रहते है. पति पत्नी की ये जोड़ी को खूब पसंद किया जाता है. लेकिन, डिपंल यादव, अखिलेश की परफेक्ट पत्नी है इस बात का जवाब डिपंल भी समय समय पर देती रही है. डिपंल यादव जितना राजनीति में उनके साथ एक्टिव उतना ही एक परफेक्ट वाइफ होने के लिए परफेक्ट है.दोनो की कैमिस्ट्री को भी खूब पसंद किया जाता है.

 

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डिपंल और अखिलेश की लव स्टोरी भी वायरल है. उनके लव के चर्चे राजनीति में जोरो शोरो से होते रहे है, वही, खई बार सांसद में दोनों के रिएक्शन भी ऐसे रहे है कि दोनों एक दूसरे को चीयर करते हुए नजर आए है. डिपंल यादव और अखिलेश यादव ने अपनी एक दूसरे का साथ बौंडिग को सांसद में सबके सामने भी दिखाया है.

संसद में करती है पति अखिलेश को चीयर

डिपंल यादल और अखिलेश यादव कन्नौज की सांसद में बैठे थे. अखिलेश यादव के भाषण के दौरान उनकी पत्नी और मैनपुरी से सांसद डिंपल यादव उनके ठीक पीछे बैठी थीं. अखिलेश ने जिस प्रकार से भाजपा को विभिन्न मुद्दों पर घेरा, उस दौरान डिंपल के इमोसन देखने लायक थे. कई मौकों पर वह खिलखिलाकर हंसती दिखाई दी. एक मौके पर डिंपल यादव मेज थपथपाकर हंसती दिखाई दी. डिपंल, अखिलेश का साथ देने से कभी भी पिछे नहीं हटती है.

जब साथ साथ बनें थे सांसद

दोनों की कैमिस्ट्री तब भी सुर्खियों में थी जब सपा चीफ अखिलेश यादव और उनकी पत्नी डिंपल यादव पहली बार एक साथ लोकसभा जा रहे हैं. ऐसे में अखिलेश और डिंपल, यूपी के पहले दंपत्ति होने जा रहे हैं, जो एक साथ सांसद बने हैं और एक साथ ही लोकसभा पहुंच रहे हैं.politics

प्यार से शादी तक दिया पूरा साथ

दोनों की प्रेम कहानी के किस्से भी मौजूद है. अखिलेश के नीजी जीवन पर एक किताब लिखी गई थी. जिसका नाम अखिलेश यादव-बदलाव की लहर है. इस किताब में उन्होंने अखिलेश की निजी जिंदगी से जुड़ी कई अहम बातें भी बताई हैं. किताब के मुताबिक, अखिलेश और डिंपल दोस्त से मिलने का बहाना बनाकर एक दूसरे से छुप छुपकर मिलते थे. इसके बादचार साल की दूरी, परिवार का विरोध, लेकिन बावजूद इसके इस जोड़ी ने हर बाधा को पार किया और आज जीवनसाथी है और दोनों के तीन बच्चे है.

लेकिन हर कदम पर डिंपल यादव ने साथ चलकर ये दिखाया है कि वे अखिलेश की एक परफेक्ट वाइफ है जो पर्सनल, प्रोफेशनल दोनों तरीके से उनका साथ देती है.

नीतीश कुमार ने विधानसभा में किया महिला विधायक का अपमान, हुए आपे से बाहर

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एक बार फिर आपे से बाहर हो गए और एक ‘महिला विधायक’ को इंगित करते हुए कुछ ऐसा कह दिया, जो खुद उन के लिए आफत बन गया है और अब जब वे घिरे गए हैं, तो उन से जवाब देते नहीं बना, मगर उन्होंने अपनी गलती या माफी नहीं मांगी, नतीजतन वे और उन का बरताव आज देशभर में चर्चा की बात बन गए हैं.

अच्छा होता कि नीतीश कुमार तत्काल अपने कथन को ले कर माफी मांग लेते, मगर आज हमारे समाज और देशप्रदेश में जो लोग ऊंचे ओहदों पर पहुंच जाते हैं, वे अपनेआप को सबकुछ समझते हैं और अपनी गलती पर माफी मांगने में उन्हें शर्म आती है.

नीतीश कुमार के तेवर

दरअसल, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार विधानसभा में अपना आपा खो बैठे और राष्ट्रीय जनता दल की विधायक रेखा देवी पर गुस्से में आ कर एक विवादास्पद टिप्पणी करते हुए कहा – ‘अरे महिला हो, कुछ जानती नहीं हो.”

नीतीश कुमार के इस कथन को ले कर विधानसभा में हंगामा खड़ा हो गया. थोड़ी देर बाद उन्हें बात समझ में आ गई कि गलती हो गई है, मगर अपनी गलती को छिपाने के बजाय समझदारी दिखाते हुए गलती स्वीकार कर लेते, तो बात वहीं खत्म हो जाती.

बिहार की मुख्यमंत्री रह चुकीं और राज्य विधानपरिषद में प्रतिपक्ष की नेता राबड़ी देवी ने इस मुद्दे पर कहा, “मुख्यमंत्री के साथ ऐसा पहली बार नहीं हुआ है… लोग जानते हैं कि उन के (नीतीश) मन में महिलाओं के लिए कोई सम्मान नहीं है. उन्होंने विधानसभा में जोकुछ किया है, वह सरासर एक महिला का अपमान है. जद (यू) नेताओं और राजग के अन्य गठबंधन सहयोगियों के मन में महिलाओं के लिए कोई सम्मान नहीं है. महिलाओं का सम्मान केवल राजद और इंडिया गठबंधन के नेताओं में ही है.”

यह महिलाओं का अपमान

नीतीश कुमार बिहार विधानसभा में अपनी कही हुई बातों के चलते चर्चा में रहे हैं. पहले भी उन्होंने कुछ ऐसी बातें कह दी थीं, जो संसदीय नहीं की जा सकती हैं.

रेखा देवी, जिन्हें इंगित करते हुए नीतीश कुमार ने टिप्पणी की थी, ने कहा, “नीतीश कुमारजी ने विधानसभा में जोकुछ कहा, वह एक महिला का अपमान है. उन्होंने मेरे साथ ऐसा किया… यह पहली बार नहीं हुआ है. हम आज यहां अपने नेता और पार्टी प्रमुख लालू प्रसाद की वजह से हैं… नीतीश कुमार की वजह से नहीं. नीतीश कुमार ने सदन में एक दलित विधायक का अपमान किया है. ऐसा लगता है कि मुख्यमंत्री का अपने दिमाग पर कोई नियंत्रण नहीं रहा.”

दरअसल, बिहार विधानसभा में 24 जुलाई, 2024 को राज्य के संशोधित आरक्षण कानूनों को संविधान की 9वीं अनुसूची में शामिल किए जाने की मांग को ले कर विपक्षी सदस्य हंगामा और नारेबाजी कर रहे थे. हंगामे के बीच मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दखल देने के लिए उठ खड़े हुए. उस समय राजद की मसौढी से विधायक रेखा देवी अपनी बात कह रही थीं.

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने रेखा देवी की ओर उंगलियां दिखाते हुए ऊंची आवाज में कहा, “अरे महिला हो, कुछ जानती नहीं हो. इन लोगों (राजद) ने किसी महिला को आगे बढ़ाया था. क्या आप को पता है कि मेरे सत्ता संभालने के बाद ही बिहार में महिलाओं को उन का हक मिलना शुरू हुआ. 2005 के बाद हम ने महिलाओं को आगे बढ़ाया है. बोल रही हो, फालतू बात… इसलिए कह रह हैं, चुपचाप सुनो. ”

उन के इतना कहते ही सदन में हल्ला बोल शुरू हो गया. एक महिला विधायक से इस तरह मुखातिब होने का विपक्षी सदस्यों द्वारा विरोध किए जाने पर मुख्यमंत्री ने कहा, “अरे क्या हुआ… सुनोगे नहीं… हम तो सुनाएंगे और अगर नहीं सुनिएगा, तो यह आप की गलती है.”

बाद में संसदीय कार्यमंत्री विजय कुमार चौधरी ने दखल देते हुए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से आसन को संबोधित करने का अनुरोध किया तो नीतीश कुंअर ने विपक्षी सदस्यों के बारे में कहा, “आप समझ लीजिए कि हम लोगों ने 1-1 चीज को लागू कर दिया है.”

इधर तेजस्वी यादव ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की टिप्पणी को ‘महिला विरोधी व असभ्य’ करार दिया. उन्होंने आरोप लगाया कि महिलाओं के खिलाफ बयानबाजी नीतीश कुमार की आदत है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार मुख्यमंत्री के साथसाथ एक वरिष्ठतम विधायक हैं, उन्हें अपनी बात आसन को संबोधित करते हुए कहनी चाहिए थी, मगर जिस ढंग और शब्दों में उन्होंने आसन की अनदेखी कर के अपनी बात कही, वह हर नजरिए से आलोचना की बात बन गई है.

कांवड़ यात्रा : राहुल की मुहब्बत की दुकान, योगी के फैसले पर सवाल

उत्तर प्रदेश की योगी आदित्य नाथ सरकार पर संकट के बादल गहरे काले होते जा रहे हैं. एक तरफ नरेंद्र मोदी की चाह है कि योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री पद से मुक्त हो जाएं, तो दूसरी तरफ योगी आदित्यनाथ और उन के खास लोग ऐसा नहीं चाहते हैं.

बहुचर्चित कांवड़ यात्रा के संबंध में कहा जा सकता है कि सावन का महीना हो और बादल घने और पानी लिए न हों, भला यह कैसे मुमकिन है. कोई योगी हो तो भला वह आधुनिक विचारों से संपन्न कैसे हो सकता है. हालांकि, अपवाद हो सकते हैं, होते हैं, मगर उत्तर प्रदेश की बदहाली देखिए कि गोरखनाथ मठ के प्रमुख योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बन गए हैं. इस के बाद से मुख्यमंत्री पद का जो पतन हुआ है, वह सारा देश और दुनिया जानती है. सच तो यह है कि हिंदू आज आधुनिक सोच के साथ दुनियाभर में देश की कामयाबी का परचम लहरा रहे हैं, मगर योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री की कुरसी पर बैठ कर जिस तरह के फैसले ले रहे हैं, उन से हंसी भी आती है और रोना भी आता है.

कांवड़ यात्रा को ले कर आज देशभर में उत्तर प्रदेश चर्चा का केंद्र बन गया है और सरकार योगी आदित्यनाथ की छीछालेदर हो रही है. यहां तक कि भारतीय जनता पार्टी के सहयोगी दल भी मुखर हो चुके हैं और विरोध कर रहे हैं. अब सवाल यह है कि क्या योगी आदित्यनाथ पीछे हटेंगे? क्या वे यह कहेंगे कि यह फैसला उन का नहीं है, बल्कि प्रशासनिक लैवल पर लिया गया था और अपनी छवि बचाएंगे या फिर पूरे मामले में नया ट्विस्ट आएगा? सचमुच यह सब देखना दिलचस्प होगा.

भाजपा में खतरे की घंटी

कांवड़ यात्रा मार्ग पर बने ढाबों पर अपने नाम लिखने के उत्तर प्रदेश सरकार के आदेश की आम आदमी भी आलोचना कर रहा है. यह सचमुच हमारे देश की गंगाजमुना संस्कृति पर एक बड़ी चोट है. यही वजह है कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सहयोगी दलों ने सवाल उठाए हैं.

जनता दल (यूनाइटेड) के नेता नीतीश कुमार, लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के नेता चिराग पासवान के बाद राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष और केंद्रीय राज्य मंत्री जयंत चौधरी ने भी सवाल उठाए हैं, जो यह बताते हैं कि जल्द ही योगी आदित्यनाथ की विदाई मुमकिन है या फिर वे राजनीति में एक पिटा हुआ चेहरा बन कर रह जाएंगे.

अपने पिता चौधरी चरण सिंह को ‘भारत रत्न’ मिलने से गदगद हुए जयंत चौधरी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से जुड़ गए हैं, मगर योगी आदित्यनाथ के इस फैसले पर उन्होंने सरकार के फैसले की आलोचना करते हुए कहा, ‘ऐसा लगता है कि यह आदेश बिना सोचेसमझे लिया गया है और सरकार इस पर इसलिए अड़ी हुई है, क्योंकि फैसला हो चुका है. कभीकभी सरकार में ऐसी चीजें हो जाती हैं.’

उन्होंने आगे कहा, ‘अब भी समय है कि इसे वापस लिया जाए या सरकार को इसे लागू करने पर ज्यादा जोर नहीं देना चाहिए. कांवड़ की सेवा सभी करते हैं. कांवड़ की पहचान कोई जाति से नहीं की जाती है. इस मामले को धर्म और जाति से नहीं जोड़ा जाना चाहिए. कहांकहां नाम लिखें, क्या अब कुरते पर भी नाम लिखना शुरू कर दें, ताकि देख कर यह तय किया जा सके कि हाथ मिलाना है या गले लगाना है?’

इस से पहले नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) के प्रवक्ता केसी त्यागी ने फैसले की समीक्षा करने की मांग की. उन्होंने कहा कि ऐसा कोई भी आदेश जारी नहीं किया जाना चाहिए, जिस से समाज में सांप्रदायिक विभाजन पैदा हो. कई मौके पर मुजफ्फरनगर के मुसलमान कांवड़ यात्रियों की मदद करते देखे गए हैं.

राजग केंद्र सरकार में शामिल केंद्रीय मंत्री चिराग पासवान ने भी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के फैसले पर सवाल उठाए हैं. उन्होंने कहा, ‘मेरी लड़ाई जातिवाद और सांप्रदायिकता के खिलाफ है, इसलिए जहां कहीं भी जाति और धर्म के विभाजन की बात होगी, मैं उस का कभी भी समर्थन नहीं करूंगा.’

दूसरी ओर, भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता मुख्तार अब्बास नकवी ने पहले तो योगी सरकार के फैसले पर सवाल उठाए और इसे छुआछूत को बढ़ावा देने वाला बताया, पर बाद में कहा कि राज्य सरकार के आदेश से साफ है कि कांवड़ियों की आस्था को ध्यान में रखते हुए यह फैसला लिया गया है, लेकिन कुछ लोग सांप्रदायिकता फैलाने की कोशिश कर रहे हैं.

इस तरह भारतीय जनता पार्टी का चरित्र आज देश के चौराहे पर खड़ा है. दूसरी तरफ मजेदार बात किया है कि कांवड़ यात्रा के रास्ते पर कांग्रेस के नेता राहुल गांधी की मुहब्बत की दुकान के पोस्टर दिखाई देने लगे हैं, जो बताता है कि उन की लोकप्रियता और विचार अब देश की जनता स्वीकार करने लगी है. यह सीधेसीधे नरेंद्र मोदी सरकार के लिए खतरे की घंटी है.

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