नरेंद्र मोदी और अमित शाह की रणनीति चारों खाने चित

भा रतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी की सत्ता आने के बाद जिस तरह से जम्मूकश्मीर और वहां की अवाम को दर्द ही दर्द मिला है, क्या उसे कोई भूल सकता है? यहां तक कि नागरिकों के अधिकार नहीं रहे और बंदूक के साए में अब देश की सब से बड़ी अदालत के आदेश के बाद चुनाव होने जा रहे हैं. यह एक ऐसा रास्ता है, जो लोकतांत्रिक की मृग मरीचिका का आभास देता है.

मगर सितंबर, 2024 में होने वाले विधानसभा चुनाव की जो रणनीति कांग्रेस बना रही है, उस में नरेंद्र मोदी और अमित शाह का पूरा खेल बिगड़ता दिखाई दे रहा है. भाजपा किसी भी हालत में यहां सत्ता में आती नहीं दिखाई दे रही है, जिस का आगाज लोकसभा चुनाव में भी नतीजे के रूप में हमारे सामने है.

इधर, फारूक अब्दुल्ला ने जिस तरह सामने आ कर मोरचा संभाला है और  विधानसभा चुनाव लड़ने की रणनीति बनाई है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी की रणनीति चारों खाने चित हो चुकी है.

कांग्रेस प्रमुख मल्लिकार्जुन खड़गे और राहुल गांधी श्रीनगर पहुंचे थे. मल्लिकार्जुन खड़गे ने जम्मूकश्मीर के आगामी विधानसभा चुनाव के लिए दूसरे विपक्षी दलों के साथ गठबंधन करने की इच्छा जताई और केंद्रशासित प्रदेश के लोगों से भारतीय जनता पार्टी के वादों को ‘जुमला’ करार दिया.

मल्लिकार्जुन खड़गे ने लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी के साथ श्रीनगर में कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं से विधानसभा चुनावों की जमीनी स्तर की तैयारियों के बारे में जानकारी ली. उन्होंने कहा कि ‘इंडी’ गठबंधन ने एक तानाशाह को पूरे बहुमत के साथ (केंद्र में) सत्ता में आने से रोका है. यह गठबंधन की सब से बड़ी कामयाबी है. कांग्रेस ने राज्य का दर्जा बहाल करने की पहल की है. हम इस दिशा में काम करने का वादा करते हैं. राहुल गांधी की जम्मूकश्मीर में चुनाव से पहले गठबंधन बनाने में दिलचस्पी है. वे दूसरी पार्टियों के साथ मिल कर चुनाव लड़ने के इच्छुक हैं.

कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने आगे कहा कि दरअसल, भाजपा लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद चिंतित है, क्योंकि वे लोग जिन विधेयकों को पास कराना चाहते थे, उन में करारी मात मिली है.

पूर्ण राज्य का दर्जा

कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के श्रीनगर दौरे से राजनीति में एक गरमाहट आ गई है. राहुल गांधी ने कहा कि जम्मूकश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल करना कांग्रेस और विपक्षी गठबंधन ‘इंडी’ की प्राथमिकता है. यह उन की पार्टी का लक्ष्य है कि जम्मूकश्मीर और लद्दाख के लोगों को उन के लोकतांत्रिक अधिकार वापस मिलें.

कांग्रेस और ‘इंडी’ गठबंधन की प्राथमिकता है कि जम्मूकश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्जा जल्द से जल्द बहाल किया जाए. हमें उम्मीद थी कि चुनाव से पहले ऐसा कर दिया जाएगा, लेकिन चुनाव घोषित हो गए हैं. हम उम्मीद कर रहे हैं कि जल्द से जल्द पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल किया जाएगा और जम्मूकश्मीर के लोगों के अधिकार बहाल किए जाएंगे.

आजादी के बाद यह पहली बार है कि कोई राज्य केंद्रशासित प्रदेश बन गया है. यहां कोई विधानपरिषद, कोई पंचायत या नगरपालिका नहीं है. लोगों को लोकतंत्र से दूर रखा गया है.

मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के 30 सितंबर तक चुनाव कराने के निर्देश के चलते ही जम्मूकश्मीर में विधानसभा चुनाव की घोषणा की गई है.

चुनाव से पहले जम्मूकश्मीर के लोगों से किया गया एक भी वादा पूरा नहीं किया गया है. कुलमिला कर कांग्रेस नेताओं ने जिस तरह जम्मूकश्मीर में मोरचाबंदी की है, उस से नरेंद्र मोदी और अमित शाह के मनसूबे ध्वस्त होंगे, ऐसा लगता है.

फारूक अब्दुल्ला और कांग्रेस

जम्मूकश्मीर में जो नए राजनीतिक समीकरण बन रहे हैं, उन से साफ दिखाई दे रहा है कि फारूक अब्दुल्ला, जो जम्मूकश्मीर के सब से बड़े नेता और चेहरे हैं, ने कांग्रेस के साथ मिल कर चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है और यह गठबंधन अगर बन जाता है, तो इस की सरकार बनने की पूरी संभावना है, क्योंकि इन के सामने सारे नेता बौने हैं. वहीं राहुल गांधी और ‘इंडी’ गठबंधन का अब समय आ गया है, यह दिखाई देता है.

यहां चुनाव 18 सितंबर, 25 सितंबर और 1 अक्तूबर को होंगे. नतीजे 4 अक्तूबर को घोषित किए जाएंगे.

फारूक अब्दुल्ला ने कहा कि कांग्रेस के साथ मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी (माकपा) के (एमवाई) तारिगामी भी हमारे साथ हैं. मुझे उम्मीद है कि हमें लोगों का साथ मिलेगा और हम लोगों

के जीवन को बेहतर बनाने के लिए भारी बहुमत से जीतेंगे. इस के पहले राहुल गांधी ने भरोसा दिया था कि जम्मूकश्मीर के लिए पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल करना कांग्रेस और ‘इंडी’ गठबंधन की प्राथमिकता है.

फारूक अब्दुल्ला ने उम्मीद जताई कि सभी ताकतों के साथ पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल किया जाएगा. राज्य का दर्जा हम सभी के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है. इस का हम से वादा किया गया है. इस राज्य ने बुरे दिन देखे हैं और हमें उम्मीद है कि इसे पूरी शक्तियों के साथ बहाल किया जाएगा. इस के लिए हम ‘इंडी’ गठबंधन के साथ एकजुट हैं.

महत्त्वपूर्ण तथ्य सामने आया है कि चुनाव से पहले या चुनाव के बाद गठबंधन में महबूबा मुफ्ती के नेतृत्व वाली पीडीपी की मौजूदगी से भी नैशनल कौंफ्रैंस के नेता फारूक अब्दुल्ला ने इनकार नहीं किया है.

सिसोदिया का बहाना जमानत पर निशाना

दिल्ली शराब घोटाले में आम आदमी पार्टी के नेता और दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को सुप्रीम कोर्ट ने 17 महीने के बाद जमानत दी. जमानत देते समय सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत स्वतंत्रता के पहलू को सामने रखते हुए निचली अदालतों को तमाम नसीहतें भी दे डालीं.

सवाल उठता है कि तमाम फैसलों में इस तरह दी जाने वाली नसीहतों को निचली अदालतें किस तरह से लेती हैं? जमानत देने में अदालतों को इतनी दिक्कत क्यों होती है? आरोपी देश छोड़ कर भाग नहीं रहा होता है. जमानत आरोपी का अधिकार है. इस के बावजूद अदालतें जमानत देने में संकोच क्यों करती हैं?

मनीष सिसोदिया जैसे लोगों पर तो होहल्ला खूब मचता है. इन के पास अच्छे वकीलों की कमी नहीं होती है. पैसा कोई समस्या नहीं है, तब यह हालत है. देश की जेलों में तमाम लोग जमानत मिलने के इंतजार में सड़ रहे हैं. इन की बात सुनने वाला कोई नहीं है. हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक जाना इन की हैसियत से बाहर होता है.

जब नेता सत्ता में होते हैं, तो उन को यह परेशानी क्यों नहीं पता चलती कि जमानत के लिए आरोपी का घरद्वार तक बिक जाता है. जमानत का इंतजार कर रहे हर आदमी के पास नेताओं की तरह महंगे वकील और पैसा नहीं होता है. सरकार जमानत को ले कर समाज सुधार का कोई कानून क्यों नहीं बनाती?

जेल नहीं, जमानत ही नियम है

हाईकोर्ट से जमानत के लिए जाने का कम से कम खर्च 3 लाख से 5 लाख रुपए के बीच आता है. सुप्रीम कोर्ट में यह खर्च 5 लाख से 10 लाख रुपए कम से कम हो जाता है. आम आदमी किस तरह से अपना मुकदमा वहां ले कर जाए? खासतौर पर तब, जब घर का कमाने वाला ही जेल में जमानत की राह देख रहा हो.

जमानत के अधिकार पर केवल सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी से काम नहीं चलने वाला. इस को ले कर न्याय प्रणाली में एक सही व्यवस्था होनी चाहिए, जिस से कम से कम समय जमानत के इंतजार में लोगों को जेल में रहना पड़े.

सुप्रीम कोर्ट ने मनीष सिसोदिया को जमानत देते वक्त कहा कि जमानत को सजा के तौर पर नहीं रोका जा सकता. निचली अदालतों को यह समझाने का समय आ गया है कि ‘जेल नहीं, जमानत ही नियम है’. मुकदमे के समय पर पूरा होने की कोई उम्मीद नहीं है. मनीष सिसोदिया को दस्तावेजों की जांच करने का अधिकार है.

अदालत ने यह देखने के बाद याचिका मंजूर की कि मुकदमे में लंबी देरी ने मनीष सिसोदिया के जल्दी सुनवाई के अधिकार का उल्लंघन किया है. कोर्ट ने कहा कि जल्दी सुनवाई का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत स्वतंत्रता का एक पहलू है. बैंच ने कहा कि मनीष सिसोदिया को जल्दी सुनवाई के अधिकार से वंचित किया गया है.

हाल ही में जावेद गुलाम नबी शेख मामले में भी हम ऐसे ही निबटे थे. हम ने देखा कि जब अदालत, राज्य या एजेंसी जल्दी सुनवाई के अधिकार की रक्षा नहीं कर सकती हैं, तो अपराध गंभीर होने का हवाला दे कर जमानत का विरोध नहीं किया जा सकता है. अनुच्छेद 21 अपराध की प्रकृति के बावजूद लागू होता है.

समाज सुधार से भागती सरकारें

मनीष सिसोदिया की जमानत पर सांसद संजय सिंह ने कहा कि दिल्ली का नागरिक खुश है. सब मानते थे कि हमारे नेताओं के साथ जोरजबरदस्ती और ज्यादती हुई है. हमारे मुखिया अरविंद केजरीवाल और सत्येंद्र जैन को जेल में रखा है. वे भी बाहर आएंगे.

केंद्र की सरकार की तानाशाही के खिलाफ जोरदार तमाचा है. ईडी ने कोई न कोई जवाब दाखिल करने का बहाना बनाया. एक पैसा मनीष सिसोदिया के घर, बैंक खाते से नहीं मिला. सोना और प्रौपर्टी नहीं मिला. दिल्ली के विधानसभा चुनाव के लिए और आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता के लिए खुशखबरी है. हमें ताकत मिलेगी.

संजय सिंह का बयान राजनीतिक है. प्रधानमंत्री के साथसाथ उन को न्याय प्रणाली से सवाल करना चाहिए कि जमानत देने में हिचक क्यों होती है? संजय सिह और आम आदमी पार्टी सत्ता में हैं, जहां कानून बनते हैं. उन को राज्यसभा में यह बात उठानी चाहिए कि जमानत के अधिकार में रोड़ा न लगाया जा सके.

दरअसल, सरकारों के साथ यह दिक्कत होती है कि वे शोषक होती हैं. कानून के जरीए समाज सुधार के काम नहीं करती हैं. संजय सिंह और आम आदमी पार्टी आज भी दूसरे आरोपियों की चिंता नहीं कर रही, जो जमानत के इंतजार में जेल में हैं. वे सब केवल अपनी पार्टी के लोगों के लिए आवाज उठा रहे हैं.

आम आदमी पार्टी जब विपक्ष में थी, तब उस के नेता अरविंद केजरीवाल कहते थे कि दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को पहले जेल में डालो, फिर मुकदमा चलाओ. सब कबूल कर देंगी. कहां कैसे भ्रष्टाचार और घोटाले हुए हैं. अब जब उन पर भी यही हथियार चल पड़ा, तो सम?ा में आ रहा है कि जेल, जमानत, सुनवाई में देरी, ईडी और सीबीआई क्या करती है, उस का क्या असर पड़ता है. जो पार्टी सत्ता में हो, तो उसे इस तरह के कानून बनाने चाहिए कि समाज सुधार हो सके. जनता को राहत मिले.

जमानत का अधिकार एक बड़ा मुद्दा है. सुप्रीम कोर्ट बारबार निचली अदालतों को प्रवचन देती है, लेकिन निचली अदालतें कहानी की तरह सुन कर भूल जाती हैं. ऐसे में कानून बनाने वाली सरकारों की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वह ‘जेल नहीं, जमानत ही नियम है’ के सिद्धांत को लागू कराए, जिस से जमानत के लिए लोगों को अपना घरद्वार न बेचना पड़े. हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक न पहुंच सकने वाले आरोपियों को भी जल्दी जमानत मिल सके.

17 महीने बाद मिली जमानत

सुप्रीम कोर्ट ने तथाकथित दिल्ली शराब घोटाले में मनीष सिसोदिया की जमानत पर फैसला सुना दिया. मनीष सिसोदिया को सुप्रीम कोर्ट ने जमानत दे दी है. 17 महीने के बाद वे जेल से बाहर आ रहे हैं. उन्हें 10 लाख रुपए के निजी मुचलके पर जमानत मिल गई है. मनीष सिसोदिया पर दिल्ली आबकारी नीति में गड़बड़ी के आरोप लगे हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने कुछ शर्तों के साथ जमानत दी है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक, मनीष सिसोदिया को अपना पासपोर्ट जमा करना होगा, इस का मतलब यह है कि वे देश छोड़ कर बाहर नहीं जा सकते. दूसरा, उन्हें हर सोमवार को थाने में हाजिरी देनी होगी.

आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह ने इस फैसले का स्वागत करते हुए कहा है कि यह सत्य की जीत हुई है. पहले से कह रहे थे, इस मामले में कोई भी तथ्य और सत्यता नहीं थी. जबरदस्ती हमारे नेताओं को जेल में रखा गया.

क्या भारत के प्रधानमंत्री इन 17 महीने का जवाब देंगे? जिंदगी के 17 महीने जेल में डाल कर बरबाद किए? जब ‘जेल नहीं, जमानत ही नियम है’ का सिद्धांत लागू होगा, तो किसी की जिंदगी का कीमती समय जमानत के इंतजार में जेल में नहीं कटेगा.

सरकार पर बरसे सिसोदिया

शुक्रवार, 9 अगस्त, 2024 को जमानत पर बाहर आए मनीष सिसोदिया ने कार्यकर्ताओं के संबोधित करते हुए कहा, ‘इन आंसुओं ने ही मुझे ताकत दी है. मुझे उम्मीद थी कि 7-8 महीने में इंसाफ मिल जाएगा, लेकिन कोई बात नहीं, 17 महीने लग गए. लेकिन जीत ईमानदारी और सचाई की हुई है. उन्होंने (भाजपा) बहुत कोशिशें कीं. उन्होंने सोचा कि अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और संजय सिंह को जेल में डालेंगे, तो हम सड़ जाएंगे.

‘अरविंद केजरीवाल का नाम आज पूरे देश में ईमानदारी का प्रतीक बन गया है. भाजपा दुनिया की सब से बड़ी पार्टी होने के बावजूद एक राज्य में एक उदाहरण नहीं दे पाई.

‘इसी छवि को बिगाड़ने के लिए ये सारे षड्यंत्र रचे जा रहे हैं. जनता के दिलों के दरवाजे खुले हुए हैं. आप जेल के दरवाजे बंद कर सकते हैं, लेकिन जनता के दिलों के दरवाजे बंद नहीं कर सकते हैं.

‘बाबा साहब अंबेडकर ने 75 साल पहले ही यह अंदाजा लगा लिया था कि कभीकभी इस देश में ऐसा होगा कि तानाशाही बढ़ जाएगी. तानाशाह सरकार जब एजेंसियों, कानूनों और जेलों का दुरुपयोग करेगी, तो हमें कौन बचाएगा?

‘बाबा साहेब अंबेडकर ने लिखा था, संविधान बचाएगा. सुप्रीम कोर्ट ने संविधान का इस्तेमाल करते हुए कल तानाशाही को कुचला. मैं उन वकीलों का भी शुक्रगुजार हूं, जो यह लड़ाई लड़ रहे थे. वे वकील एक कोर्ट से दूसरे कोर्ट धक्के खा रहे हैं.’

पर बात घूमफिर कर वहीं आ जाती है कि ‘जेल नहीं, जमानत ही नियम है’ का फार्मूला हर उस इनसान पर लागू क्यों नहीं होता है, जो जेल में बैठा न जाने कितने समय से सड़ रहा है.

‘इंडिया टुडे’ में छपी एक खबर के मुताबिक, भारत की दोतिहाई जेल आबादी दलित, आदिवासी और अन्य पिछड़ा वर्ग के समुदायों के विचाराधीन कैदियों की है, जो छोटेमोटे अपराधों के आरोप में बंद हैं.

कइयों के पास कानूनी मदद लेने को पैसे नहीं हैं. वे अपने अधिकारों से नावाकिफ भी हैं. सरकार की मुफ्त कानूनी सहायता आरोपपत्र दाखिल होने और मुकदमा शुरू होने के बाद मिलती है. ऐसे लोगों को भी तो जमानत मिलने की सहूलियत होनी चाहिए.

इन नेताओं की वाइफ है जरा हटके, कोई बीकौम तो कोई पढ़ी है डीपीएस से

नेताओं की लाइफ और वाइफ कैसी है ये जानने के लिए सभी उतवाले रहते हैं, जाहिर सी बात है कि जो राजनेता हमेशा सुर्खियों में रहते हैं उनकी वाइफ तो कमाल और हटकर की ही होगी. भले ही वे कितनी भी मौर्डन क्यों न हो पारंपरिक तरीके से रहती हैं. तो आइएं जानते हैं किस नेता की पत्नी कैसी और क्या है.

 

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अनुराग ठाकुर की पत्नी शेफाली ठाकुर

अनुराग ठाकुर जानेमाने नेता हैं उनकी पत्नी का नाम शेफाली ठाकुर है. शेफाली भी राजनैतिक परिवार से तालुक रखती हैं. उनके पिता गुलाब सिंह ठाकुर हिमाचल प्रदेश के पब्लिक वर्क डिपार्टमेंट में मंत्री रह चुके हैं. शेफाली काफी स्टाइलिश और खूबसूरत है. अनुराग कई बार उनके साथ सोशल मीडिया पर फोटोज शेयर करते है.

अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव

डिम्पल यादव एक भारतीय राजनेत्री हैं. वह समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष, उत्तर प्रदेश विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष व उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की धर्मपत्नी हैं. स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद डिंपल यादव ने लखनऊ यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया जहां से उन्होंने कौमर्स में स्नातक की डिग्री ली. वे एक संस्कारी बहू भी हैं इन्हे ज्यादात्तर वक्त सिर पर चुन्नी रखे देखा गया है. राजनीति में होते हुए भी विवादों से बचती हैं, फैमिली फंक्शन्स में बड़े उत्साह से भाग लेती हैं.

तेजस्वी यादव की पत्नी राजश्री यादव

बिहार के पूर्व डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव की वाइफ राजश्री भी काफी चर्चा में रहती हैं. उन्हें पौलिटिक्स में सभी जानते हैं. तेजस्वी यादव की पत्नी राजश्री यादव का असली नाम रेचल है. तेजस्वी यादव और राजश्री यादव ने नई दिल्ली के आरके पुरम में डीपीएस स्कूल से एकसाथ पढ़ाई की है. शादी के बाद रेचल ने अपना नाम बदलकर राजश्री कर लिया था. राजश्री यादव पहले एक एयर होस्टेस रह चुकी है. मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक तेजस्वी यादव की पत्नी राजश्री यादव ग्रेजुएशन कर चुकी है. राजश्री शादी से पहले एक एयरलाइंस में केबिन क्रु के तौर पर काम करती थी. कुछ दिन पहले उनकी एक वीडयो वायरल हुई थी जिसमें वह अपनी सासु मां राबड़ी देवी के साथ चक्की चलाती दिखी थीं.

रहिमन पानी राखिए, बिन पानी मचे घमासान, कहीं हो सिरफुटौव्वल, कहीं गोली खाए जवान

नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री के रूप में एक बड़ी योजना ‘जल जीवन मिशन’ शुरू की है, जिस के तहत अरबों रुपए के बजट के तहत गांवगांव में पानी की टंकियां बनाई जा रही हैं. दूसरी तरफ पानी को ले कर होने वाले झगड़े देशभर में अब अपनी सीमाओं को लांघ रहे हैं. कहीं पानी के लिए मारामारी मची हुई है, तो कहीं लाठी और गोली चल रही है.

नरेंद्र मोदी की ‘जल जीवन मिशन’ योजना में पलीता लग चुका है… किस तरह और कैसे हम आप को आगे बताएंगे, अभी तो यह समझना चाहिए कि पानी की कमी सरकार के लिए एक सामान्य घटना हो सकती है, मगर यह सरकार की नाकामी ही कही जाएगी.

हम यहां कुछ घटनाओं का ब्योरा दे रहे हैं, जो बताती हैं कि पानी के चलते किस तरह के हालात पैदा हो रहे हैं :

-छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में पानी को ले कर 2 औरतों में तकरार हुई. एक औरत ने दूसरी औरत पर हमला कर दिया और मामला पुलिस तक जा पहुंचा.

-छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले के अरजुनी गांव में एक आदमी ने पानी के झगड़े के चलते दूसरे आदमी पर डंडा चला दिया, जिस से उस का सिर फट गया.

यही हालात रहे तो किसी दिन देश और समाज दोनों को ही इस के लिए कोई बड़ा खमियाजा भुगतना पड़ सकता है. दरअसल, यह कल्पना करना भी मुश्किल है कि सिर्फ पानी के लिए कोई किसी के सिर पर लाठी मार दे या गोली चला दे. मगर ऐसी वारदातें अब आएदिन हो रही हैं, जो बताती हैं कि सरकार पानी की समस्या को ले कर गंभीर नहीं है.

भीषण गरमी के मौसम में पानी को ले कर मारामारी की खबरें अखबारों में सुर्खियां बनती रहती हैं, मगर इस के लिए गोली भी चल सकती है, क्या आप को मालूम है? यह वारदात बताती है कि पानी की समस्या कितनी गंभीर हो चुकी है.

गाजियाबाद जिले के निवाड़ी थाना क्षेत्र में पानी के झगड़े के चलते एक आदमी और उस के बेटे की गोली मार कर हत्या कर दी गई. यही नहीं, हमले में मृतक का दूसरा बेटा घायल हो गया. पुलिस को जब इस की जानकारी मिली तो मौका ए वारदात पर पहुंच कर उस ने हालात को शांत कराया और आरोपियों को हिरासत में ले लिया.

निवाड़ी इलाके के खिंदौड़ाधौलड़ी रजवाहा के रास्ते पर एक रात कुछ लोगों ने आम के बाग के ठेकेदार और धौलड़ी गांव के रहने वाले 55 साल के पप्पू और उन के 2 बेटों 26 साल के राजा और 22 साल के चांद पर ताबड़तोड़ गोलियां चला दीं. इस की वजह सिर्फ एक थी, पानी.

इस हमले में पप्पू और राजा की मौके पर मौत हो गई, जबकि कंधे और हाथ में कई गोलियां लगने के बावजूद चांद किसी तरह वहां से बच कर भाग गया.

पुलिस उपायुक्त ग्रामीण विवेकचंद यादव के मुताबिक, जलस्रोत से सिंचाई के लिए पानी की सप्लाई लेने के मुद्दे पर 2 पक्षों में विवाद हुआ. पप्पू और उन के बेटे मोटरसाइकिल से आम के एक बगीचे से दूसरे बगीचे में जा रहे थे, जिसे उन्होंने वेद प्रकाश त्यागी से ठेके पर लिया था.

पुलिस की शुरुआती जांच के मुताबिक, इन तीनों की शुक्रवार, 21 जून, 2024 की शाम को बगल के बगीचे के मालिक के साथ तीखी नोकझोंक हुई, फिर रात को बाग में पहले से ही मौजूद हमलावरों के एक गुट ने उन पर गोलियां चला दीं. मौके से पुलिस को 5 खाली कारतूस मिले हैं.

पुलिस ने शनिवार, 22 जून, 2024 की सुबह पप्पू और राजा के शवों को नहर से बरामद कर पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया. दूसरी ओर चांद के गुस्साए परिवार ने शनिवार, 22 जून, 2024 को निवाड़ी रोड पर यातायात जाम कर शासन से इंसाफ की फरियाद की. पप्पू के परिवार की तहरीर के आधार पर 7 नामजद लोगों के खिलाफ पुलिस ने मामला दर्ज किया है.

पुलिस उपायुक्त के मुताबिक, 3 मुख्य आरोपियों बिट्टू त्यागी, उस के भाई दीपक त्यागी और पिता सुधीर त्यागी को गिरफ्तार कर लिया गया है, जबकि बाकी आरोपियों को पकड़ने की कोशिश कर रही है.

दरअसल, देशभर में पानी की कमी की खबरें और उसे ले कर खूनी लड़ाई की वारदातें हो रही हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘जल जीवन मिशन’ योजना के तहत अरबों रुपए खर्च कर के गांवगांव में पानी की टंकियां बनवा रहे हैं. हम जानते हैं कि उन के पहले कार्यकाल में जब उन्होंने स्वच्छता अभियान चला कर घरघर में शौचालय बनवाए थे, तो आज उन की हालत देखने लायक है. पानी नहीं होने के चलते ज्यादातर शौचालय अब खंडहर बन चुके हैं. अब वे पानी की टंकियां बनवा रहे हैं, वे भी आने वाले समय में खंडहर बन जाएंगी और गांव वालों को पानी मिल ही नहीं पाएगा, क्योंकि इस योजना में खामियां ही खामियां हैं.

अच्छा हो कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समय निकाल कर कभी किसी पानी टंकी के बनने की जगह पर जा कर हालात का जायजा ले आएं, तो शायद कुछ ठोस बदलाव आ जाए.

एससीबीसी के निकम्मे नेता

अव्वल तो वे अपनी पैदाइश से ही सब से पीछे रहते हैं, लेकिन लौकडाउन के 70 दिनों में देशभर के बीसीएससी (बैकवर्ड व शैड्यूल कास्ट) 70 साल पीछे पहुंच गए हैं, क्योंकि सब से ज्यादा रोजगार इन्हीं से छिना है और इसी तबके के लोगों ने लौकडाउन के दौरान सब से ज्यादा कहर और मुसीबतें झेली हैं.

भूखेप्यासे और गरमी से बेहाल बीसीएससी वाले, जिन्हें सरकारी और सामाजिक तौर पर गरीब कह कर अपनी जिम्मेदारियों से केंद्र और राज्य सरकारों ने पल्ला झाड़ लिया, वे मवेशियों से भी बदतर हालत में सैकड़ोंहजारों मील पैदल भागते रहे, लेकिन किसी के कान पर जूं नहीं रेंगनी थी, सो नहीं रेंगी.

जूं रेंगती भी क्यों और कैसे, क्योंकि इन के नेता तो अपने आलीशान एयरकंडीशंड घरों में बैठे काजूकिशमिश चबाते टैलीविजन पर दूसरों के साथ इस भागादौड़ी का तमाशा देख रहे थे. अपनों की हालत देख कर इन का भी दिल नहीं पसीजा तो गैरों को कोसने की कोई वजह समझ नहीं आती, जिन्होंने वही सुलूक किया जो सदियों से करते आए हैं. फर्क इतनाभर रहा कि इस बार उन के पास कोरोना नाम की छूत की बीमारी का बहाना था.

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इक्कादुक्का छोड़ कर देश के किसी बीसीएससी नेता के मुंह से अपने तबके के लोगों के लिए हमदर्दी और हिमायत के दो बोल भी नहीं फूटे.

जिन्हें प्रवासी मजदूर के खिताब से नवाज दिया गया है, उन में से 90 फीसदी बीसीएससी और मुसलमान हैं, ऊंची जाति वालों की तादाद तकरीबन 10 फीसदी है. लेकिन चूंकि केंद्र सरकार और मीडिया दोनों ने इन्हें गरीब कहना शुरू कर दिया था, इसलिए किसी का ध्यान इस तरफ नहीं गया और न जाने दिया गया कि दरअसल भाग रहे ये लोग वे बीसीएससी हैं जिन्हें धार्मिक किताबों में शूद्र और अछूत करार दिया गया है. इन पर खुलेआम जुल्मोसितम ढाने की बातें धर्म की किताबों में बारबार कही गई हैं और कई जगह तो इस तरह की गई हैं मानो इन पर जुल्म न करना दुनिया का सब से बड़ा पाप है.

लौकडाउन में जो जुल्म इन पर किए गए, वे रोजमर्रा के जुल्मों से कम नहीं थे, लेकिन चालाकी यह रही कि कोई खुल कर यह आरोप सीधे ऊंची जाति वालों पर नहीं लगा सका, क्योंकि उन्होंने इस बार न तो किसी बीसीएससी हिंदू को कुएं से पानी भरने से रोका था और न किसी दलित दूल्हे को घोड़ी पर सवार होने पर कूटा था, न ही किसी को मंदिर में दाखिल होने और धर्मकर्म के नाम पर पीटा था.

मुंह मोड़ा मायावती ने

सरकार ने किया कम ढिंढोरा ज्यादा पीटा, पर खुद बीसीएससी के नेता क्या कर रहे थे और बीसीएससी के साथ जो ज्यादातियां हुईं, उन पर खामोश क्यों रहे? इस सवाल का जवाब साफ है कि इन्हें वोट लेने और कुरसी हासिल करने के लिए ही अपने लोगों की सुध आती है. इस के बाद बीसीएससी को उन के हाल पर छोड़ दिया जाता है.

इस की सब से बड़ी मिसाल दलितों की सब से बड़ी नेता मानी जाने वाली बसपा प्रमुख मायावती हैं, जिन की भाजपा से बढ़ती नजदीकियां किसी सुबूत की मुहताज नहीं रह गई हैं.

देश के सब से बड़े राज्य उत्तर प्रदेश से सब से बड़ी तादाद में बीसीएससी तबका पेट पालने के लिए दूसरे राज्यों का रुख करता है, जो कभी बसपा का वोट बैंक हुआ करता था, लेकिन बाद में उस से धीरेधीरे कट कर वह दूसरी पार्टियों को वोट करने लगा. इन में भी भाजपा का नाम सब से ऊपर आता है.

यहां गौरतलब है कि बसपा के संस्थापक कांशीराम ने सवर्णों और उन के जुल्मों के खिलाफ ‘तिलक, तराजू और तलवार इन को मारो जूते चार’ का नारा दिया था. इसी नारे के चलते बीसीएससी का भरोसा बसपा पर कायम हुआ था और वे नीले झंडे के तले इकट्ठा होने लगे थे.

मायावती इन को एकजुट नहीं रख पाईं. अपने मुख्यमंत्री रहते उन्होंने बीसीएससी के रोजगार या भले के लिए कुछ नहीं किया, इसलिए उत्तर प्रदेश से ये लोग रोजीरोटी की तलाश में बदस्तूर बाहरी राज्यों में जाते रहे.

इस ओर ऐसी कई बातों का फर्क यह पड़ा कि बसपा उत्तर प्रदेश में कमजोर पड़ती गई और जितनी कमजोर पड़ी उतनी ही भाजपा मजबूत होती गई. एक वक्त तो ऐसा भी आया कि मायावती ने भगवा गैंग के सामने घुटने टेक दिए और आज भी हालत यही है.

इस का एहसास जून के दूसरे हफ्ते में भी हुआ, जब जौनपुर और आजमगढ़ में बीसीएससी के लोगों पर हुए जोरजुल्म पर उन्होंने यह कहते हुए अपनी जिम्मेदारी पूरी हुई मान ली कि सरकार फौरन कुसूरवारों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही करे.

योगी सरकार ने कार्यवाही कर दी तो 12 जून को मायावती ने योगी और उन की सरकार की फुरती की भी तारीफ कर डाली. ऐसा लगा मानो आदित्यनाथ ने कोई एहसान पीडि़तों पर कर दिया हो और वे मायावती के कहने का ही इंतजार कर रहे थे.

लगता ऐसा भी है कि यह सब सियासी फिक्सिंग है, जिस में आदित्यनाथ और मायावती एकदूसरे की इमेज चमका रहे हैं. दरअसल, इस फिक्सिंग की तह में मायावती की अकूत दौलत है, जो उन्होंने बीसीएससी वोटों का सौदा कर के बनाई है. 18 जुलाई, 2019 को मायावती के मायावी चेहरे का एक घिनौना सच उस वक्त उजागर हुआ था, जब इनकम टैक्स विभाग ने उन के भाई आनंद कुमार का एक प्लाट जब्त किया था, जिस की कीमत 400 करोड़ थी. जब्ती की कार्यवाही बेनामी संपत्ति लेनदेन निषेध अधिनियम 1988 की धारा 24 (3) के तहत की गई थी, जिस में कुसूरवार को 7 साल की कैद की सजा व जायदाद की बाजारी कीमत के हिसाब से 25 फीसदी जुर्माने का इंतजाम है.

फिर जो सच सामने आया उस के मुताबिक नोएडा के इस बेशकीमती प्लाट के अलावा आनंद कुमार, उन की पत्नी यानी मायावती की भाभी विचित्रलेखा के पास तकरीबन 1,316 करोड़ रुपए की जायदाद है.

आनंद कुमार कभी नोएडा अथौरिटी में क्लर्क हुआ करता था, फिर वह रातोंरात खरबपति कैसे बन गया? इस सवाल का जवाब भी आईने की तरह साफ है कि 2007 से ले कर 2012 तक मायावती के मुख्यमंत्री रहते इन भाईबहन ने जम कर घोटाले और भ्रष्टाचार कर तबीयत से चांदी काटी.

आनंद कुमार ने अपनी पत्नी विचित्रलेखा के नाम से तकरीबन 49 फर्जी कंपनियां बना रखी थीं, जिन के जरीए वह चारसौबीसी कर जमीनें खरीदता था. नोएडा वाले प्लाट को, जो सैक्टर-94 में है, साल 2011 में महज 6 करोड़ रुपए में उस ने खरीदा था. इस के बाद एक बोगस कंपनी की तरफ से इस का 400 करोड़ रुपए का भुगतान शेयर प्रीमियम की बिना पर किया गया था.

जब इनकम टैक्स विभाग ने आनंद कुमार से इस बाबत पूछा तो उस ने कोई साफ जवाब नहीं दिया था कि यह पैसा आखिर किस का है, इसलिए इसे बेनामी जायदाद मान लिया गया था.

इस के पहले आनंद कुमार तब भी सुर्खियों में आया था, जब नोटबंदी के तुरंत बाद उस ने अपने बैंक खाते में नकद 1 करोड़, 43 लाख रुपए जमा किए थे.

यह और ऐसी कई जायदादें मायावती ने फर्जीवाड़ा करते हुए बनाईं लेकिन अब इन मामलों के कहीं अतेपते नहीं हैं, तो इस की वजह साफ है कि मायावती ने जेल जाने से बचने के लिए मोदीशाह और योगी की तिकड़ी से कांशीराम की मुहिम और बीसीएससी वोटों का सौदा कर डाला है.

विधानसभा और लोकसभा चुनाव के टिकटों की नीलामी के आरोप भी मायावती पर लगते रहे हैं. इस का खुलासा 1 अगस्त, 2019 को खुलेआम एक प्रोग्राम में राजस्थान के बसपा विधायक राजेंद्र गुढ़ा ने यह कहते हुए किया था कि बसपा में टिकट उस को ही दिया जाता है, जो ज्यादा पैसे देता है और अगर कोई उस से बड़ी रकम देने को तैयार हो जाए तो पहले वाले को दरकिनार करते हुए दूसरे को उम्मीदवार बना दिया जाता है.

टिकट बिक्री से मायावती ने कितनी माया एससी वोटरों के समर्थन को बेच कर बनाई, इस का और दूसरे घपलेघोटालों का जिक्र अब कोई नहीं करता क्योंकि फाइलें दबाए रखने के एवज में वे बिक चुकी हैं. कहा तो यह भी जाता है कि जितनी दौलत अकेली मायावती और उन के सगे वालों के पास है, उस का 10वां हिस्सा भी उत्तर प्रदेश क्या हिंदीभाषी राज्यों के तकरीबन

10 करोड़ एससी तबके की कुल जमीनजायदाद मिलाने के बाद भी नहीं है. दौलत की इस हवस का खमियाजा बेचारा बीसीएससी भुगत रहा है, जिस की लौकडाउन के दौरान बदहवासी सभी ने देखी.

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लौकडाउन का समय मायावती के लिए अपनी खोई साख और समर्थन दोबारा हासिल करने का अच्छा मौका था, लेकिन वे पूरे वक्त भाजपा के सुर में सुर मिलाती नजर आईं. जब कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने मजदूरों के लिए एक हजार बसों का इंतजाम किया, तब भी मायावती मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के साथ खड़ी थीं. इस पर झल्लाई कांग्रेस ने उन्हें भाजपा का प्रवक्ता तक कह दिया था.

सियासी पंडितों की यह राय माने रखती है कि सियासी वजूद बनाए और बचाए रखने के लिए मायावती अपना बचाखुचा वोट बैंक नहीं खोना चाहती हैं और उन्होंने एससी तबके की कई जातियों की जानबूझ कर इतनी अनदेखी कर दी कि वे भाजपा से जा मिले.

माहिरों की राय में यह भाजपा को सत्ता में बनाए रखने और अपनी दौलत बचाए रखने का एक सौदा है, जो बसपा के दरवाजे ब्राह्मणों के लिए खुलने के बाद से परवान चढ़ा.

अफसोस तो उस वक्त हुआ, जब मायावती लौकडाउन के वक्त में बीसीएससी के हक में न कुछ बोलीं और न ही कर पाईं. 14 अप्रैल को ‘अंबेडकर जयंती’ के दिन ही उन्होंने केंद्र सरकार और राज्य सरकारों पर मजदूरों की अनदेखी का इलजाम लगाया और एक बात, जो सभी जानते हैं, कह दी कि आज भी जातिवादी सोच नहीं बदली है.

इस दिन भी उन का मकसद बीसीएससी के हक में दिखावे का ज्यादा था, नहीं तो वे दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को कोसती नजर आईं कि उन्होंने एससी तबके को लालच दे कर उन के वोट तो ले लिए, लेकिन लौकडाउन में उन्हें भागने से नहीं रोका. यानी उन्हें तकलीफ एससी तबके द्वारा बसपा को दिल्ली में भी नकारे जाने की थी.

उन्होंने यह नहीं सोचा कि खुद इस तबके के लिए ऐसा क्या कारनामा कर दिखाया है, जिस के चलते वे लोग उन की आरती उतारते रहें और पैदल चलने वाले कांवडि़यों पर हैलीकौप्टर से फूलों की बरसात करवाने वाले योगी आदित्यनाथ ने दलित मजदूरों को उत्तर प्रदेश लाने के लिए कहां के हवाईजहाज उड़वा दिए थे, जो वे उन का बचाव करती रहीं, जबकि इस बाबत और जौनपुर व आजमगढ़ के मामलों पर तो उन्हें सब से ज्यादा हमलावर उन्हीं पर होना चाहिए था.

साफ दिख रहा है कि मायावती अब कहने भर की बीसीएससी नेता रह गई हैं, जिन्होंने लौकडाउन में उन के लिए न तो खुद कुछ किया और जो नेता थोड़ाबहुत कर रहे थे, उन्हें भी नहीं करने दिया.

गलतियां अखिलेश की

समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव लौकडाउन के दूसरे दिन से ही भाजपा पर हमलावर रहे कि सरकार मजदूरों के लिए कुछ नहीं कर रही है, बेरोजगार नौजवान खुदकुशी कर रहे हैं, सरकार कोरोना पीडि़तों को 10-10 लाख रुपए दे और उत्तर प्रदेश योगी राज में लगातार बदहाल हो रहा है वगैरह.

अखिलेश यादव ने कुछ ऐसे मामलों का भी जिक्र किया, जिन में मजदूरों को अपने घर की औरतों के गहने तक बेचने पड़े थे. उन की सब से अहम घोषणा यह थी कि उत्तर प्रदेश में किसी भी मजदूर की मौत पर सपा एक लाख रुपए का मुआवजा देगी. 19 मई को की गई इस घोषणा के बाद 15 जून तक ऐसा कोई मामला सामने नहीं आया था, जिस में सपा ने कोई मुआवजा किसी मजदूर को दिया हो. सपा कार्यकर्ताओं पर भी अपने मुखिया की इस अपील का कोई असर नहीं पड़ा कि वे गरीब मजदूरों की मदद करें.

विदेश में पढ़ेलिखे अखिलेश यादव को अपने पिता मुलायम सिंह की तरह जमीनी राजनीति का कोई खास तजरबा नहीं है कि जो मजदूर बाहर पेट पालने जाते हैं, उन में से तकरीबन 30 फीसदी उन पिछड़ी जातियों के होते हैं, जिन के दम पर यादव कुनबे की सियासत परवान चढ़ी थी.

अपनी जवानी के दिनों में मुलायम सिंह यादव बसपा संस्थापक कांशीराम की तरह साइकिल से गांवगांव घूम कर बीसीएससी वालों की सुध लेते हुए उन के दुखदर्द साझा करते थे, इसलिए उन्हें दोनों तबकों का सपोर्ट मिलता रहा था. लेकिन अखिलेश यादव अब सिर्फ पैसे वाले पिछड़ों की राजनीति कर मायावती की तरह ही भाजपा को फायदा पहुंचा रहे हैं. उन की रोज की बयानबाजी कोई रंग नहीं खिलाने वाली, क्योंकि कभी मजदूरों के तलवों के छालों पर मरहम लगाने या उन के कंधे पर हाथ रखने के लिए वे खुद नहीं गए.

सुस्ताते रहे आजाद

चंद्रशेखर आजाद रावण एससी राजनीति में तेजी से उभरता नाम है, जिस से इस समाज को काफी उम्मीदें हैं. इस में कोई शक नहीं है कि नौजवान चंद्रशेखर मायावती के लिए बड़ा सिरदर्द और चुनौती बन चुके हैं, इसलिए कांग्रेस उन पर डोरे भी डाल रही?है, लेकिन इस का यह मतलब नहीं कि ये उन गलतियों को नहीं दोहरा रहे हैं, जिन के चलते मायावती को एससी तबके ने दिलोदिमाग से उखाड़ फेंका है और एससी ने उन्हें हाथोंहाथ लेना शुरू कर दिया है. इस में भी कोई शक नहीं है कि चंद्रशेखर की ट्रेन अभी छूटी नहीं है, लेकिन लौकडाउन में एससी मजदूर जब कराह रहे थे, तब वे घर में बैठे सुस्ता रहे थे.

अपनी अलग आजाद समाज पार्टी बना चुके भीम आर्मी के इस मुखिया ने लौकडाउन के दिनों में दलितों के लिए कुछ करना तो दूर की बात है, उन से हमदर्दी जताते दो बोल भी नहीं बोले, जिस से एससी मजदूरों को यह लगता कि कोई तो उन के साथ है. कहने को तो भीम आर्मी एससी नौजवानों की फौज?है, जिस ने लौकडाउन में किसी भूखे को रोटी या प्यासे को पानी नहीं दिया, उलटे उस के रंगरूट 13 मई को बिहार के किशनगंज में अपने ही समुदाय के उन लोगों को मारते नजर आए, जो पूजापाठ करने जा रहे थे.

बिलाशक पूजापाठ कोरोना से भी ज्यादा घातक छूत की बीमारी है, जिस की गिरफ्त में एससी तबके को आने से बचना चाहिए, लेकिन मंदिरों में तोड़फोड़ करने से और शिवलिंग के बजाय भीमराव अंबेडकर के पूजनपाठ से एससी तबके का कोई भला होगा या उन में जागरूकता आएगी, इस से इत्तिफाक रखने की कोई वजह नहीं है.

होना तो यह चाहिए था कि एससी तबके की परेशानी के दिनों में चंद्रशेखर और उन की आर्मी दलितों की मदद करती नजर आती. नेतागीरी चमकाने के लिए जरूरी यह भी है कि चंद्रशेखर परेशान हाल एससी के भले के लिए कुछ करते बजाय किसी दलित सैनिक को शहीद का दर्जा दिलाने के लिए बवंडर मचाते. इस से उन्हें कुछ हासिल नहीं होने वाला.

ये भी गरजे, पर…

भारतीय रिपब्लिकन पार्टी बहुजन महासंघ के अध्यक्ष प्रकाश अंबेडकर को पूरे फख्र से खुद को संविधान निर्माता भीमराव अंबेडकर का पोता कहलाने का हक है. पेशे से वकील प्रकाश अंबेडकर लौकडाउन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर खूब गरजे कि सरकार की गलती से हजारों लोगों की जानें गई हैं. लिहाजा, नरेंद्र मोदी पर धारा 302 के तहत हत्या का मामला दर्ज होना चािहए.

उन्होंने सरकार पर निशाना साधते हुए कहा कि उस ने विदेशों से अमीरों के साथसाथ कोरोना आने देने का गुनाह किया है. बकौल प्रकाश अंबेडकर, अगर मजदूरों को वक्त रहते घर भेज दिया जाता तो वे भुखमरी से बच जाते.

देखा जाए तो उन्होंने गलत कुछ नहीं कहा, लेकिन हकीकत में उन्होंने या उन की पार्टी ने भी मजदूरों के लिए कुछ नहीं किया, दूसरे वे अब मार्क्सवादी किस्म की राजनीति करते हुए मजदूरों को दलित कहने से ही परहेज करने लगे हैं मानो उन के साथ धार्मिक भेदभाव और जाति की बिना पर जुल्म खत्म हो गए हों, जबकि हकीकत उन के ही 9 जून को दिए एक बयान ने उजागर कर दी.

इस दिन प्रकाश अंबेडकर ने नागपुर की तहसील नरखेड़ के गांव पिम्पलधारा के एक एससी कार्यकर्ता अरविंद बसोड़ की संदिग्ध मौत की सीबीआई जांच की मांग की. यह मांग भी उन्होंने ट्वीट के जरीए की, वे खुद पिम्पलधारा की हकीकत जानने और विरोध दर्ज कराने नागपुर तक नहीं आए. बीसीएससी के लोगों का इस डिजिटल हमदर्दी से कोई भला होगा, ऐसा कहने की कोई वजह नहीं.

अस्त होते उदित राज

आजकल कांग्रेसी प्रवक्ता बन गए उदित राज एससी तबके के पढ़ेलिखे और सब से बुद्धिमान नेता माने जाते हैं, जिन्हें 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने अपने खेमे में मिला लिया था. 2019 में उन्हें भाजपा ने टिकट नहीं दिया तो वे कांग्रेस में शामिल हो गए.

भाजपा छोड़ते वक्त उन्होंने उसे एससी विरोधी करार देते हुए पानी पीपी कर कोसा था, लेकिन अप्रैलमई के महीने में जब घर भागते एससी भूखप्यास से बेहाल थे, तब उदित राज भी खामोश थे और जो वे बोल रहे थे उस के कोई माने नहीं थे. मसलन यह कि अयोध्या, जहां आलीशान राम मंदिर बन रहा है, वह बौद्ध स्थल था. मायावती की तरह यह जरूर उन्होंने कहा कि लौकडाउन का सब से बुरा असर एससी पर पड़ रहा है और घर लौटने के बाद मजदूर जमींदारों और साहूकारों की गुलामी ढोने के लिए मजबूर हो जाएंगे.

अब तक एससी कोई शाही जिंदगी नहीं जी रहे थे और न ही उदित राज ने उन्हें गुलामी के इस दलदल से बाहर निकालने के लिए कुछ किया, उलटे जब भी मौका मिला अपने एससी होने का फायदा कुरसी के लिए उठाया.

उदित राज जैसे नेताओं को सोचना यह चाहिए कि ब्राह्मणों ने बुद्ध को दरदर की ठोकरें खाने के लिए मजबूर कर दिया था और जब वश नहीं चला तो उन्हें अवतार कह कर पूजना शुरू कर दिया था. उस के बाद से पूरा एससी समाज ठोकरें खा रहा है और उस के नेता बौद्ध मंदिरों की बात कर रहे हैं, जिस के अपने अलग पंडेपुजारी होने लगे हैं.

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ऐसी तमाम हकीकत से मुंह मोड़े रहने वाले उदित राज की बीसीएससी के लोगों के लिए खुद कुछ न कर पाने की खीज 12 जून को खुल कर सामने आई, जब उन्होंने फिल्म कलाकार सोनू सूद के किए गए काम पर सवाल उठाते हुए सीबीआई जांच की मांग कर डाली. बकौल उदित राज, सोनू सूद के पीछे कोई और है.

सोनू सूद ने तो सवर्ण होते हुए भी मजदूरों के लिए काफीकुछ कर डाला, लेकिन क्या उदित राज एक मजदूर को भी घर पहुंचा सके? इस सवाल का जवाब वे शायद ही दे पाएं, फिर किस मुंह से वे किसी और के किए को चैलेंज कर रहे हैं?

रामदास आठवले बने भोंपू

महाराष्ट्र के दलित नेता और रिपब्लकिन पार्टी के मुखिया रामदास आठवले इन दिनों भाजपा के भोंपू बने हुए हैं, क्योंकि वह उन्हें केंद्र में मंत्री बनाए हुए है. बजाय यह मानने और कहने के कि न केवल लौकडाउन, बल्कि उस से पहले से भी एससी बदहाल रहे हैं, उन्होंने सरकार की तारीफों में कसीदे गढ़ते हुए झूठ बोलने के मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी पछाड़ दिया.

बकौल रामदास आठवले, बीसीएससी के लिए मोदी सरकार ने बहुत काम किए हैं. बात खोखली न लगे इसलिए उन्होंने मुद्रा योजना, जनधन योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना और उज्ज्वला योजनाओं के नाम गिना दिए.

अगर गरीबों को इन योजनाओं से कुछ मिला होता या मिल रहा होता तो वे रोजीरोटी के जुगाड़ के लिए इधरउधर भागते ही क्यों? इस सवाल का जवाब रामदास आठवले तो क्या एससी तबके का रहनुमा बना कोई नेता नहीं दे सकता.

भोंपू नंबर 2

रामदास आठवले के बाद लोक जनशक्ति पार्टी के मुखिया रामविलास पासवान दूसरे कद्दावर एससी नेता हैं, जिन्हें भाजपा अपनी गोद में बैठाए हुए है. लौकडाउन के दौरान वे भी घर में पड़ेपड़े बहैसियत खाद्य मंत्री बयानबाजी करते रहे कि 8 करोड़ मजदूरों को 2 महीने तक मुफ्त राशन देने में कोई परेशानी नहीं आएगी.

जाहिर है, अप्रैल और मई के महीने में प्रवासी मजदूरों की भूख रामविलास पासवान को भी नजर नहीं आई, इस के पहले कभी आई थी ऐसा कहने की भी कोई वजह नहीं है. निजी तौर पर उन्होंने या उन की पार्टी ने एससी के लिए कुछ नहीं किया, यह जरूर हर किसी को नजर आया.

जिन एससी वोटों की सीढ़ी चढ़ कर रामविलास पासवान सत्ता की छत तक बेटे चिराग पासवान के साथ पहुंचे हैं, उन वोटों की सौदेबाजी उन्होंने बिहार चुनाव सिर पर देख कर फिर शुरू कर दी है. अफसोस वाली बात यह है कि अपनी तरफ से एक दाना भी उन्होंने किसी एससी को नहीं दिया.

भाजपा को मायावती की तरह मजबूती देने वाले रामविलास पासवान 12 जून को आरक्षण के एक मामले में आए सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर भी एक बेतुकी बात यह कह बैठे कि आरक्षण को ले कर अब सभी बीसीएससी दलों को साथ आ जाना चाहिए.

गौरतलब है कि अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण को मौलिक अधिकार मानने से इनकार कर दिया है, जिस से आरक्षित तबकों के मन में बैठा यह शक यकीन में बदलता जा रहा है कि भाजपा आरक्षण को खत्म करना चाह रही है.

रामविलास पासवान को कहना तो यह चाहिए था कि सभी बीसीएससी वाले एकजुट हो जाएं और सोचना यह चाहिए था कि अगर बीसीएससी की हिमायती पार्टियां एक होतीं तो इतनी सारी पार्टियां होती ही क्यों?

नहीं दिखे कन्हैया कुमार

पिछड़े तबके के हमदर्द माने जाने वाले नेता कन्हैया कुमार को बेहतर मालूम होगा कि प्रवासी मजदूरों में खासी तादाद छोटी जाति वाले पिछड़ों की भी रहती है. अतिपिछड़ों और एससी की हालत और हैसियत में कोई खास फर्क नहीं होता है. लौकडाउन में जब इस तबके के लोग भी भाग रहे थे, तब कन्हैया कुमार मीडिया वालों को इंटरव्यू देते हुए जबान बघार रहे थे कि जो हो रहा है, गलत है. सोशल मीडिया के जरीए उन्होंने मजदूरों की बदहाली पर चिंता जताई, लेकिन खुद मैदान में जा कर कुछ नहीं किया.

क्यों नहीं किया? इस सवाल का जवाब कतई हैरान नहीं करता, बल्कि एक हकीकत बयां करता है कि बीसीएससी तबका क्यों सदियों से लौकडाउन सरीखी जिंदगी जी रहा है और उस के नेता दौलत और शोहरत मिलते ही अपने ही लोगों के साथ ऊंची जाति वालों जैसा बरताव करने लगते हैं.

इन की हरमुमकिन कोशिश यह रहती है कि बीसीएससी तबका अगर वाकई जागरूक और गैरतमंद हो गया तो इन को अपनी दुकानों के शटर गिराने पड़ जाएंगे, इसलिए बातें बढ़चढ़ कर करो, लेकिन हकीकत में कुछ मत करो, क्योंकि धर्म और उस के ठेकेदारों ने यही इंतजाम कर रखे हैं.

यहां बताए बड़े नेता ही नहीं, बल्कि और भी छोटेबड़े नेता हैं, जो चाहते तो अपनों की मदद कर सकते थे, खासतौर से वे जिन के हाथ में सत्ता थी. इन में एक अहम नाम बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का है.

लेकिन वे 84 दिनों तक अपने ही घर में बंद रहते हुए चुनावी जोड़तोड़ और तैयारियों में जुटे रहे. जिन तबकों के वोटों से बिहार में सरकार बनती है, उन के लिए उन्होंने घर से बाहर पैर रखना भी मुनासिब नहीं समझा.

इस पर जब राजद नेता तेजस्वी यादव ने तंज कसा तो जवाब में उन्होंने सफाई दी कि लौकडाउन में सभी को घर रहने की हिदायत थी. यह जवाब उन लाखों मजदूरों के भागने पर उन्हें जाने क्यों नहीं सूझा.

लोकसभा की पूर्व अध्यक्ष और अपने जमाने के धाकड़ नेता रहे जगजीवन राम की बेटी मीरा कुमार, बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी, भाजपा सांसद संजय पासवान सहित छेदी पासवान और भोला पासवान ने भी अपने तबके के लोगों की कोई मदद नहीं की.

यही हाल कांग्रेसी खेमे के नामी एससी नेताओं मुकुल वासनिक, पीएल पुनिया, कुमारी शैलजा, मल्लिकार्जुन खडगे और भालचंद्र मुंगेकर का रहा.

भाजपा के दिग्गज एससी नेता थावर चंद्र गहलोत, नरेंद्र जाधव, अर्जनराम मेघवाल और जितेंद्र सोनकर जैसे दर्जनों नेता खुद इतनी हैसियत और कूवत रखते हैं कि अगर एससी के लिए कुछ ठान लेते तो फिल्म हीरो सोनू सूद के हिस्से की वाहवाही लूट सकते थे, लेकिन इन में न तो जज्बा था और न ही जज्बात थे, इसलिए ये इतमीनान से गरीबों के भागते कारवां का गुबार देखते रहे.

तेजी से नाम कमाने वाले पिछड़े तबके के युवा नेता जिग्नेश मेवानी और हार्दिक पटेल भी मुंह चलाते नजर आए. इन्होंने भी अपने पैरों को तकलीफ  नहीं दी.

यह कहता है धर्म

लौकडाउन के दौरान बीसीएससी की जो बेबसी, बदहाली और उन के ही नेताओं की बेरुखी उजागर हुई, उस का कनैक्शन धार्मिक किताबों में लिखी गई बातों से भी?है जिन के हिसाब से समाज आज भी चलता है.

इन में से कुछेक पर नजर डालें तो बहुत सी बातें साफ हो जाती हैं. ‘मनुस्मृति’ वह धार्मिक किताब है, जिस के मुताबिक हिंदू समाज जीता है और जिस के चलते भगवा गैंग पर यह इलजाम लगता रहता है कि वह मनुवाद थोपना चाहती है और इस के लिए संविधान मिटाने पर भी आमादा है.

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इस में लिखी इन कुछ बातों पर नजर डालें तो तसवीर कुछ यों बनती है :

विप्राणां वेदविदुषां गृहस्थानां यशस्विनाम्।

शुश्रुषैव तु शुद्रस्य धर्मों नैश्रेयस: पर:।।  (अध्याय 9, श्लोक 333)

यानी शूद्र का धर्म ही वेद के जानने वाले विद्वान, यशस्वी एवं गृहस्थ ब्राह्मणों की सेवा करना है.

शक्तेनापि हि शूद्रेण न कार्योधनसञ्चय:।

शूद्रो हि धनमासाद्य ब्राह्मणानेव बाधते।। (अध्याय 10, श्लोक 126)

यानी समर्थ होने पर भी शूद्र को धन संचय में प्रवृत्त नहीं होना चाहिए, क्योंकि धनवान हो जाने पर शूद्र ब्राह्मण को कष्ट पहुंचाने लगता है, जिस से उस का और अध:पतन होता है.

उच्छिष्टमन्नं दातव्यं जीर्णानि वसनानि च।

पुलाकाश्चैव धान्यानां जीर्णाश्चैव परिच्छदा:।। (अध्याय 10, श्लोक 122)

यानी शूद्र सेवक को खानेपीने से बचा अन्न, पुराने वस्त्र, बिछाने के  लिए धान का पुआल और पुराने बरतन देने चाहिए.

विप्रसेवैव शूद्रस्य विशिष्टं कर्म कीर्त्यते।

यदतोऽन्यद्धि कुरुते तद्भवत्यस्य निष्फलम्।। (अध्याय 10, श्लोक 120)

यानी ब्राह्मणों की सेवा करना शूद्र के सभी कर्मानुष्ठानों से अतिविशिष्ट कार्य है. इस के अतिरिक्त शूद्र जोकुछ भी करता है, वह सब निष्फल होता है.

ऐसी कई हिदायतों से धार्मिक किताबें भरी पड़ी हैं, जिन में ऊपर लिखी बातों का तरहतरह से दोहराव भर है कि शूद्र ऊंची जाति वालों खासतौर से ब्राह्मणों की सेवा करने के लिए ही ब्रह्मा के पैर से पैदा हुआ है. उसे पैसा इकट्ठा करने का हक नहीं है. उसे सजधज कर रहने यानी साफसुथरे रहने का भी हक नहीं है और न ही खुश होने का हक है. हिदायतें तो ये भी हैं कि जो शूद्र इन बातों को मानने से इनकार करे, वह सजा का हकदार होता है.

अपनी बदहाली दूर न कर पाने वाले बीसीएससी तबके को यह लगने लगा है कि भगवान का पूजापाठ करो, इस से सारे पाप धुल जाएंगे तो उन्होंने अपने मंदिर बना कर धर्मकर्म करना शुरू कर दिया. काली, भैरों और शनि के छोटे मंदिर दलित बस्तियों में इफरात से बन गए हैं लेकिन दलितों की हालत ज्यों की त्यों है, उलटे उन्हें भी मंदिर में पूजापाठ करने और दानदक्षिणा की लत लग गई है, जिस से वे और गरीब हो रहे हैं.

सवर्णों की मोहताजी

ज्यादतियों और भेदभाव वाली इन्हीं धार्मिक किताबों का विरोध करते कुछ पढ़ेलिखे दलित अपने तबके के नेता तो बन जाते हैं, लेकिन जब उन्हें दौलत और शोहरत मिलने लगती हैं, तो वे उन्हें बनाए रखने के लिए कहने भर को विरोध करते हैं.

ऊंची जाति वाले भी इन्हें गले लगाने लगते हैं, जिस से बड़ी तादाद में बीसीएससी वाले धर्म की हकीकत न समझने लगें. इस से उन्हें लगता है कि वे वाकई छोटी जाति में पैदा होने की सजा भुगत रहे हैं, क्योंकि वे पैदाइशी पापी हैं और जब तक ये पाप धुल नहीं जाएंगे, तब तक उन की हालत नहीं सुधर सकती.

इतना सोचते ही वे अपनी बदहाली को किस्मत मानते हुए तरक्की के लिए हाथपैर मारना बंद कर देते हैं. यही ऊंची जाति वाले चाहते हैं कि बीसीएससी का कभी अपनेआप पर भरोसा न बढ़े, नहीं तो वे गुलामी ढोने से मना करने लगेंगे, इसीलिए उन्हें तरहतरह से बारबार यह एहसास कराया जाता है कि तुम तो दलित हो, तुम्हारे बस का कुछ नहीं. और जब इस साजिश में गाहेबगाहे बीसीएससी नेता भी शामिल हो जाते हैं, तो उन का काम और भी आसान हो जाता है.

गांवदेहात में ऊंची जाति वाले दबंगों के कहर से तो इन्हें शहर जा कर छुटकारा मिल जाता है, लेकिन वे यह नहीं समझ पाते हैं कि जिस की नौकरी वे कर रहे हैं, वह दरअसल में कोई ऊंची जाति वाला ही है. फर्क इतना भर आया है कि खेतों की जगह कारखानों और फैक्टरियों ने ले ली है और जो इन का मालिक है, उस ने धोतीकुरता और जनेऊ की जगह सूटबूट और टाई जैसे शहरी कपड़े पहन लिए हैं.

लौकडाउन में यह बात गौर करने लायक थी कि भाग रहे बीसीएससी को जो थोड़ाबहुत खाना और दूसरी इमदाद मिली, वह सवर्णों ने ही दी थी. इन में से मुमकिन है कि कुछ की मंशा पाकसाफ रही हो, पर हकीकत में इस से मैसेज यही गया कि यह तबका अभी इतना ताकतवर नहीं हो पाया है कि अपने ही तबके के लोगों की मुसीबत के वक्त में मदद कर सके.

दलित नेताओं की पोल तो लौकडाउन में खुली ही, लेकिन खुद बीसीएससी की बेचारगी भी किसी से छिपी नहीं रह सकी.

गहरी पैठ

देशभर से करोड़ों मजदूर जो दूसरे शहरों में काम कर रहे थे कोरोना की वजह से पैदल, बसों, ट्रकों, ट्रैक्टरों, साइकिलों, ट्रेनों में सैकड़ों से हजारों किलोमीटर चल कर अपने घर पहुंचे हैं. इन में ज्यादातर बीसीएससी हैं जो इस समाज में धर्म की वजह से हमेशा दुत्कारेफटकारे जाते रहे हैं. इस देश की ऊंची जातियां इन्हीं के बल पर चलती हैं. इस का नमूना इन के लौटने के तुरंत बाद दिखने लगा, जब कुछ लोग बसों को भेज कर इन्हें वापस बुलाने लगे और लौटने पर हार से स्वागत करते दिखे.

देश का बीसीएससी समाज जाति व्यवस्था का शिकार रहा है. बारबार उन्हें समझाया गया है कि वे पिछले जन्मों के पापों की वजह से नीची जाति में पैदा हुए हैं और अगर ऊंचों की सेवा करेंगे तो उन्हें अगले जन्म में फल मिलेगा. ऊंची जातियां जो धर्म के पाखंड को मानने का नाटक करती हैं उस का मतलब सिर्फ यह समझाना होता है कि देखो हम तो ऊंचे जन्म में पैदा हो कर भगवान का पूजापाठ कर सकते हैं और इसीलिए सुख पा रहे हैं.

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अब कोरोना ने बताया है कि यह सेवा भी न भगवान की दी हुई है, न जाति का सुख. यह तो धार्मिक चालबाजी है. ऐसा ही यूएन व अमेरिका के गोरों ने किया था. उन्होंने बाइबिल का सहारा ले कर गुलामों को मन से गोरों का हुक्म मानने को तैयार कर लिया था. जैसे हमारे बीसीएससी अपने गांव तक नहीं छोड़ सकते थे वैसे ही काले भी यूरोप, अमेरिका में बिना मालिक के अकेले नहीं घूम सकते थे. अगर अमेरिका में कालों पर और भारत में बीसीएससी पर आज भी जुल्म ढाए जाते हैं तो इस तरह के बिना लिखे कानूनों की वजह से. हमारे देश की पुलिस इन के साथ उसी वहशीपन के साथ बरताव करती है जैसी अमेरिका की गोरी पुलिस कालों के साथ करती है.

कोरोना ने मौका दिया है कि ऊंची जातियों को अपने काम खुद करने का पूरा एहसास हो. आज बहुत से वे काम जो पहले बीसीएससी ही करते थे, ऊंची जातियां कर रही हैं. अगर बीसीएससी अपने काम का सही मुआवजा और समाज में सही इज्जत और बराबरी चाहते हैं तो उन्हें कोरोना के मौके को हाथ से नहीं निकलने देना चाहिए.

कोरोना की वजह से आज करोड़ों थोड़ा पढ़ेलिखे, थोड़ा हुनर वाले लोग, थोड़ी शहरी समझ वाले बीसीएससी लोग गांवों में पहुंच गए हैं. ये चाहें तो गांवों में सदियों से चल रहे भेदभाव के बरताव को खत्म कर सकते हैं. इस के लिए किसी जुलूस, नारों की जरूरत नहीं. इस के लिए बस जो सही है वही मांगने की जरूरत है. इस के लिए उन्हें उतना ही समझदार होना होगा जितना वे तब होते हैं जब बाजार में कुछ सामान खरीदते या बेचते हैं. उन्हें बस यह तय करना होगा कि वे हांके न जाएं, न ऊंची जातियों के नाम पर, न धर्म के नाम पर, न पूजापाठ के नाम पर, न ‘हम एक हैं’ के नारों के नाम पर.

आज कोई भी देश तभी असल में आगे बढ़ सकता है जब सब को अपने हक मिलें. सरकार ने अपनी मंशा दिखा दी है. यह सरकार खासतौर पर दिल्ली, उत्तर प्रदेश और बिहार व केंद्र की सरकार इन मजदूरों को गाय से भी कम समझती हैं. इतनी गाएं अगर इधर से उधर जातीं तो ये सरकारें रास्ते में खाना खिलातीं, पानी देतीं. मजदूरों को तो इन्होंने टिड्डी दल समझा जिन पर डंडे बरसाए जा सकते हैं. विषैला कैमिकल डाला जा सकता है.

जैसे देश के मुसलमानों को कई बार भगवा अंधभक्त पाकिस्तानी, बंगलादेशी कह कर भलाबुरा कहते हैं, डर है कि कल को नेपाली से दिखने वालों को भी भक्त गालियां बकने लगें. हमारे भक्तों को गालियां कहना पहले ही दिन से सिखा दिया जाता है. कोई लंगड़ा है, कोई चिकना है, कोई लूला है, कोई काला है, कोई भूरा है. हमारे अंधभक्तों की बोली जो अब तक गलियों और चौराहों तक ही रहती थी, अब सोशल मीडिया की वजह से मोबाइलों के जरीए घरघर पहुंचने लगी है.

सदियों से नेपाल के लोग भारतीय समाज का हिस्सा रहे हैं. उस का अलग राजा होते हुए भी नेपाल एक तरह से भारत का हिस्सा था, बस शासन दूसरे के हाथ में था जिस पर दिल्ली का लंबाचौड़ा कंट्रोल न था. अभी हाल तक भारतीय नागरिक नेपाल ऐसे ही घूमनेफिरने जा सकते थे. आतंकवाद की वजह से कुछ रोकटोक हुई थी.

अब नरेंद्र मोदी सरकार जो हरेक को नाराज करने में महारत हासिल कर चुकी है, नेपाल से भी झगड़ने लगी है. नेपाल ने बदले में भारत के कुछ इलाके को नेपाली बता कर एक नक्शा जारी कर दिया है. इन में कालापानी, लिपुलेख और लिंपियाधुरा शामिल हैं जो हमारे उत्तराखंड में हैं.

नेपाल चीन की शह पर कर रहा है, यह साफ दिखता है, पर यह तो हमारी सरकार का काम था, न कि वह नेपाल की सरकार को मना कर रखती. नेपाल की कम्यूनिस्ट पार्टी हमारी भारतीय जनता पार्टी की तरह अपनी संसद का इस्तेमाल दूसरे देशों को नीचा दिखाने के लिए कर रही है.

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दिल्ली और काठमांडू लड़तेभिड़ते रहें, फर्क नहीं पड़ता, पर डर यह है कि सरकार की जान तो उस की भक्त मंडली में है जो न जाने किस दिन नेपाली बोलने वालों या उस जैसे दिखने वालों के खिलाफ मोरचा खोल ले. ये कभी पाकिस्तान के नाम पर मुसलमानों के खिलाफ भड़काऊ बातें करते रहते हैं, कभी उत्तरपूर्व के लोगों को चिंकी कह कर चिढ़ाते हैं, कभी कश्मीरियों को अपनी जायदाद बताने लगते हैं, कभी पत्रकारों के पीछे अपने कपड़े उतार कर पड़ जाते हैं. ये नेपाली लोगों को बैरी मान लें तो बड़ी बात नहीं.

आज देश में बदले का राज चल रहा है. बदला लेने के लिए सरकार भी तैयार है, आम भक्त भी और बदला गुनाहगार से लिया जाए, यह जरूरी नहीं. कश्मीरी आतंकवादी जम्मू में बम फोड़ेंगे तो भक्त दिल्ली में कश्मीरी की दुकान जला सकते हैं. चीन की बीजिंग सरकार लद्दाख में घुसेगी तो चीन की फैक्टरी में बने सामान को बेचने वाली दुकान पर हमला कर सकते हैं.

इन पर न मुकदमे चलते हैं, न ये गिरफ्तार होते हैं. उलटे इन भक्त शैतानी वीरों को पुलिस वाले बचाव के लिए दे दिए जाते हैं. कल यही सब एक और तरह के लोगों के साथ होने लगे तो मुंह न खोलें कि यह क्या हो रहा है!

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