सियासत में तानाशाही ताकत के साथ बढ़ती जाती है. यह किसी एक दल की बपौती नहीं होती है. साल 1975 में कांग्रेस सरकार के समय इमर्जैंसी में मर्दों की नसबंदी को ले कर संजय गांधी के खौफ को हिटलर की तानाशाही से भी बड़ा माना गया था. उस समय संजय गांधी केंद्र सरकार तो छोडि़ए, कांग्रेस दल में भी किसी तरह के पद पर नहीं थे. इस के बाद भी उन का आदेश सब से ऊपर था, क्योंकि वे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बेटे जो थे.
उस के बाद इस मुहिम का डर मर्दों में इस कदर बैठा कि आज 44 साल के बाद भी सरकार मर्दों की नसबंदी कराने के अपने टारगेट से काफी पीछे है. आज भी देश की परिवार नियोजन योजना में मर्दों का योगदान औरतों के मुकाबले काफी कम है.
इमर्जैंसी में मर्दों की जबरदस्ती नसबंदी कराने से नाराज लोगों ने तब कांग्रेस सरकार को यह बताते हुए भी उस का तख्ता पलट कर दिखा दिया था कि सियासत में तानाशाही का जवाब देना जनता को आता है. तब लोगों ने मर्दों की नसबंदी को राजनीतिक मुद्दा बना दिया था.
वैसे, आज भी ज्यादातर मर्दों को यही लगता है कि नसबंदी कराने से उन की सैक्स ताकत घट जाएगी. ऐसे में वे नसबंदी से दूर रहते हैं.
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मर्दों की नसबंदी का जिक्र आते ही पिछली पीढ़ी के सामने साल 1975 की इमर्जैंसी की ज्यादती की घटनाएं आंखों के सामने घूम जाती हैं. आज की पीढ़ी ने भले ही उस दौर को न देखा हो, पर गांवगांव, घरघर में ऐसी कहानियां सुनने को मिलती हैं, जब गांव में मर्दों को पकड़ कर जबरदस्ती नसबंदी करा दी जाती थी. गांव के गांव घेर कर पुलिस नौजवानों तक को उठा लेती थी.
सरकारी मुलाजिमों के लिए तो यह काम सब से जरूरी हो गया था. उन की नौकरी पर संकट खड़ा हो गया था. इस दायरे में बड़ी तादाद में स्कूली टीचर भी आए थे. कई जगहों पर अपना कोटा पूरा करने के लिए गैरशादीशुदा और बेऔलाद लोगों को भी नसबंदी करानी पड़ी थी. कई गरीब इस के शिकार हुए थे.
इस से देश के आम जनमानस में उस समय की कांग्रेस सरकार के खिलाफ गुस्सा भड़का था और उस समय की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा था.
मर्दों में नसबंदी का यह खौफ आज भी जस का तस कायम है. भारत में औरतों के मुकाबले बहुत कम मर्द नसबंदी कराते हैं. 70 के दशक में जब परिवार नियोजन कार्यक्रम की शुरुआत हुई थी, तो भारत में आबादी पर रोक लगाने के लिए औरतों पर ही ध्यान दिया गया. इस की सब से बड़ी वजह यह थी कि औरतें इस के लिए आसानी से तैयार हो जाती थीं.
70 के दशक में भारत गरीबी के दौर से गुजर रहा था. गरीबी को खत्म करने के लिए हरित क्रांति जैसे कार्यक्रम चलाए गए थे, जिस से देश में ज्यादा से ज्यादा अनाज उगाया जा सके और देश खाने के मामले में आत्मनिर्भर रह सके.
इस के लिए दूसरा बेहद जरूरी कदम आबादी को काबू में रखने का भी था. इस की जरूरत हर जाति और धर्म में महसूस की जा रही थी.
संजय गांधी को लगा था कि इमर्जैंसी इस के लिए सब से बेहतर समय है. उन्होंने मुसलिम धर्म के लोगों को भी इस दायरे में लिया था, पर तब मुसलिमों को लगता था कि यह उन की आबादी को कम करने के लिए किया जा रहा है.
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संजय गांधी का दबदबा
साल 1975 में इमर्जैंसी के दौरान संजय गांधी ने आबादी पर काबू पाने से जुड़े कानून के सहारे अपने असर को पूरे देश में दिखाने का काम किया था. इस के लिए उस समय की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी ने नसबंदी को ले कर ‘उग्र’ अभियान शुरू किया था. उन्होंने उस समय टैलीग्राफ के जरीए अपना एक संदेश हर प्रदेश के सरकारी अफसरों को भेजा था कि ‘सब को सूचित कर दीजिए कि अगर महीने के टारगेट पूरे नहीं हुए तो न सिर्फ तनख्वाह रुक जाएगी बल्कि निलंबन और कड़ा जुर्माना भी देना होगा. सारी प्रशासनिक मशीनरी को इस काम में लगा दें और प्रगति की रिपोर्ट रोज वायरलैस से मु झे और मुख्यमंत्री के सचिव को भेजें.’
इस संदेश ने नौकरशाही में खौफ पैदा कर दिया था, जिस की वजह से नसबंदी कराने के लिए लोगों को तैयार करने के काम में पुलिस की मदद भी ली गई थी.
इस में सब से ज्यादा गरीब आदमी परेशान हुए थे. पुलिस ने पूरे गांव को घेर लिया और मर्दों को जबरन घरों से खींच कर उन की नसबंदी करा दी गई थी. साल के भीतर ही तकरीबन 62 लाख लोगों की नसबंदी की गई थी. इस में गलत आपरेशनों से 2,000 लोगों की मौत भी हुई थी.
साल 1933 में जरमनी में भी ऐसा ही एक अभियान चलाया गया था. इस के लिए एक कानून बनाया गया था जिस के तहत किसी भी आनुवांशिक बीमारी से पीडि़त आदमी की नसबंदी का प्रावधान था. तब तक जरमनी नाजी पार्टी के कंट्रोल में आ गया था.
इस कानून के पीछे हिटलर की सोच यह थी कि आनुवांशिक बीमारियां अगली पीढ़ी में नहीं जाएंगी तो जरमन इनसान की सब से बेहतर नस्ल वाला देश बन जाएगा जो बीमारियों से दूर होगा. बताते हैं कि इस अभियान में तकरीबन 4 लाख लोगों की नसबंदी कर दी गई थी.
भारत में नसबंदी को ले कर संजय गांधी के अभियान का खौफ पूरे देश पर इस कदर छाया था कि वे हिटलर से भी आगे निकल गए. इस की सब से बड़ी वजह यह थी कि संजय गांधी कम से कम समय में एक प्रभावी नेता के रूप में पूरे देश में छा जाना चाहते थे. ऐसे में वे नसबंदी के बहाने तानाशाही को दिखाने लगे थे.
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साल 1975 में इमर्जैंसी लगने के बाद राजनीति में आए संजय गांधी को लगने लगा था कि गांधीनेहरू परिवार की विरासत वे ही संभालेंगे. कम से कम समय में एक प्रभावशाली नेता बनने की फिराक में वे इस कदम को उठाने के लिए तैयार हुए थे.
लेकिन संजय गांधी की हवाई हादसे में हुई मौत और कांग्रेस के चुनाव हारने के बाद उस के बाद आई जनता पार्टी सरकार ने नसबंदी के इस उग्र अभियान को दरकिनार कर दिया था और परिवार नियोजन कार्यक्रम को प्रचार और प्रोत्साहन के बल पर आगे बढ़ाने का काम किया था.
खत्म नहीं हो रहा खौफ
इमर्जैंसी के 44 साल के बाद भी मर्दों में नसबंदी का खौफ खत्म नहीं हो रहा है. आज सरकार मर्दों की नसबंदी पर 3,000 रुपए नकद प्रोत्साहन राशि दे रही है, जबकि औरतों की नसबंदी पर केवल 2,000 रुपए की प्रोत्साहन राशि दी जा रही है.
सरकारी अस्पतालों में नसबंदी के आंकड़े देखे जाएं तो यह अनुपात 10 औरतों पर एक मर्द का आता है. हैरान करने वाली बात यह है कि पतिपत्नी जब सरकारी अस्पताल आते हैं, तो पत्नी खुद कहती है, ‘डाक्टर साहब, इन को कामकाज करना होता है. खेतीकिसानी में बो झ उठाना पड़ता है. साइकिल चलानी पड़ती है. ऐसे में इन की जगह पर हम ही नसबंदी करा लेते हैं.’
जब पत्नी को सम झाने की कोशिश की जाती है, तो वह बताती है कि उस की सास भी यही चाहती है. असल में पत्नी पर पति का ही नहीं, बल्कि सास और दूसरे घर वालों के साथसाथ समाज तक का दबाव होता है.
आजमगढ़ जिले के रानी सराय ब्लौक के बेलाडीह गांव की रानी कन्नौजिया कहती हैं कि औरतों को यह भी लगता है कि नसबंदी न होने से बारबार बच्चा पैदा करने से उन को ही परेशानी होगी. ऐसे में वे आसानी से खुद ही नसबंदी करा कर परिवार नियोजन का काम कर लेती हैं.
कई गांवों में मर्दों की नसबंदी को अंधविश्वास से भी जोड़ दिया जाता है. कई बार मर्दों को यह बताया जाता है कि इस को कराने से किस तरह लोग प्रभावित होते हैं. ऐसे में डर के मारे वे नसबंदी नहीं कराते हैं. बहुत सारी कोशिशों के बाद भी मर्दों की नसबंदी अभी भी बहुत पिछड़ी हालत में है.
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, भारत में 2016-17 के दौरान 40 लाख नसबंदियां की गई थीं. इन में मर्दों की नसबंदी के मामले में यह आंकड़ा एक लाख से भी कम रहा.
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महफूज है मर्द नसबंदी
मक्कड़ मैडिकल सैंटर के सर्जन डाक्टर जीसी मक्कड़ कहते हैं कि मर्दों की नसबंदी ज्यादा आसान और सुरक्षित होती है. इस में समय भी कम लगता है. उन की नसबंदी भी औरतों की नसबंदी जितनी ही असरदार है. मर्दों की नसबंदी को ले कर गलतफहमियों को दूर करने की जरूरत होती है.
इस नसबंदी में मर्द के बच्चा पैदा करने वाले अंग व अंडकोष को नहीं काटा जाता और न ही नसबंदी से उन को कोई नुकसान होता है.
नसबंदी के बाद न तो अंग और अंडकोष सिकुड़ते हैं और न ही छोटे होते हैं. नसबंदी के चलते किसी भी तरह की जिस्मानी कमजोरी नहीं आती है. मर्द की मर्दानगी में कोई फर्क नहीं आता है. पतिपत्नी को जिस्मानी संबंधों में भी पहले जैसा ही मजा मिलता है.
मर्दों की नसबंदी बिना चीरे, बिना टांके के होती है. इस में सब से पहले अंडकोषों के ऊपर वाली खाल को एक सूई लगा कर सुन्न की गई खाल में एक खास चिमटी से एक बहुत बारीक सुराख करते हैं. ऐसा करने में न दर्द होता है और न ही खून निकलता है.
इस बारीक सुराख से उस नली को बाहर निकालते हैं जो अंडकोष से मर्दाना बीजों को पेशाब की नली तक पहुंचाती है. फिर इस नली को बीच से काट देते हैं. नली के कटे हुए दोनों छोरों को बांध कर उन का मुंह बंद कर देते हैं और अंडकोष वापस थैली के अंदर डाल देते हैं.
कम समय, आसान तरीका
नलियों को अंडकोष की थैली में वापस डालने के बाद सुराख पर डाक्टर टेप चिपका देते हैं. इस तरह खाल के लिए किए गए सुराख पर टांका लगाने की जरूरत भी नहीं पड़ती है. 3 दिन बाद वह सुराख खुद ही बंद हो जाता है. इस तरीके से नसबंदी करने में 5 से 10 मिनट का समय लगता है.
नसबंदी कराने के आधे घंटे बाद आदमी घर भी जा सकता है. 48 घंटे बाद वह सामान्य काम भी कर सकता है.
अगर नसबंदी के बाद 2 दिन तक लंगोट पहने रखें तो इस से अंडकोष को आराम मिलता है. 3 दिन सुराख पर टेप चिपकी रहनी चाहिए और जगह को गीला होने, मैल और खरोंच से बचाना चाहिए.
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नसबंदी कराने के अगले दिन आदमी नहा सकता है. इस जगह को गीला होने से बचा कर नहाएं. 3 दिन बाद अगर लगे कि सुराख बिलकुल ठीक हो गया है, तो टेप हटा कर उसे साबुन और पानी से धो लें.
किसी तरह की असुविधा से बचने के लिए नसबंदी के 7 दिन बाद ही साइकिल चलाएं. सुराख वाली जगह ठीक होने के बाद आदमी सैक्स संबंध भी बना सकता है.
सैक्स संबंधों में कमी नहीं
नसबंदी के बाद कम से कम 20 वीर्यपात या संभोगों तक आदमी कंडोम या उस की पत्नी दूसरे गर्भनिरोधक तरीके का इस्तेमाल जरूर करे. आपरेशन के 3 महीने बाद वीर्य की डाक्टरी जांच कराएं कि वह शुक्राणुरहित हो गया है या नहीं. वीर्य के शुक्राणुरहित पाए जाने के बाद सैक्स के लिए कंडोम या किसी दूसरे गर्भनिरोधक तरीके की जरूरत नहीं रहती है.
नसबंदी के बाद आदमी में किसी भी तरह की सैक्स समस्या नहीं आती है. वह पहले की ही तरह से सैक्स कर सकता है. आम लोगों को यह लगता है कि मर्दों की नसबंदी के बाद उन की सैक्स ताकत कम हो जाती है. यह बात पूरी तरह से गलत है.
नसबंदी करने से पहले यह देखा जाता है कि मर्द शादीशुदा हो. मर्द की उम्र 50 साल से कम और उस की पत्नी 45 साल से कम हो. पति या पत्नी दोनों में से किसी ने भी पहले नसबंदी न कराई हो या पिछली नसबंदी नाकाम हो गई हो. उस जोड़े का कम से कम एक जीवित बच्चा हो, उस की उम्र एक साल से ज्यादा हो. मर्द की दिमागी हालत ऐसी हो कि वह नसबंदी के नतीजों को सम झ सकता हो. उस ने नसबंदी कराने का फैसला अपनी इच्छा से और बगैर किसी दबाव के लिया हो.
नसबंदी कराने के लिए सरकारी अस्पताल से जानकारी ले सकते हैं. मर्दों की नसबंदी को बढ़ावा देने के लिए सरकार प्रोत्साहन के रूप में पैसे भी देती है.
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